21-01-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


निरन्तर योगी बनने की सह विधि

जैसे एक सेकेण्ड में स्वीच ऑन और ऑफ किया जाता है, ऐसे ही एक सेकेण्ड में शरीर का आधार लिया और फिर एक सेकेण्ड में शरीर से परे अशरीरी स्थिति में स्थित हो सकते हो? अभी-अभी शरीर में आये, फिर अभी-अभी अशरीरी बन गये - यह प्रैक्टिस करनी है। इसी को ही कर्मातीत अवस्था कहा जाता है। ऐसा अनुभव होगा। जब चाहे कोई कैसा भी वस्त्र धारण करना वा न करना - यह अपने हाथ में रहेगा। आवश्यकता हुई धारण किया, आवश्यकता न हुई तो शरीर से अलग हो गये। ऐसे अनुभव इस शरीर रूपी वस्त्र में हो। कर्म करते हुए भी अनुभव ऐसा ही होना चाहिए जैसे कोई वस्त्र धारण कर और कार्य कर रहे हैं। कार्य पूरा हुआ और वस्त्र से न्यारे हुए। शरीर और आत्मा - दोनों का न्यारापन चलते-फिरते भी अनुभव होना है। जैसे कोई प्रैक्टिस हो जाती है ना। लेकिन यह प्रैक्टिस किनको हो सकती है? जो शरीर के साथ वा शरीर के सम्बन्ध में जो भी बातें हैं, शरीर की दुनिया, सम्बन्ध वा अनेक जो भी वस्तुएं हैं उनसे बिल्कुल डिटैच होंगे,रा भी लगाव नहीं होगा, तब न्यारा हो सकेंगे। अगर सूक्ष्म संकल्प में भी हल्कापन नहीं है, डिटैच नहीं हो सकते तो न्यारेपन का अनुभव नहीं कर सकेंगे। तो अब महारथियों को यह प्रैक्टिस करनी है। बिल्कुल ही न्यारेपन का अनुभव हो। इसी स्टेज पर रहने से अन्य आत्माओं को भी आप लोगों से न्यारेपन का अनुभव होगा, वह भी महसूस करेंगे। जैसे योग में बैठने के समय कई आत्माओं को अनुभव होता है ना -- यह ड्रिल कराने वाले न्यारी स्टेज पर हैं। ऐसे चलते-फिरते फरिश्तेपन के साक्षात्कार होंगे। यहाँ बैठे हुए भी अनेक आत्माओं को, जो भी आपके सतयुगी फैमिली में समीप आने वाले होंगे उन्हों को आप लोगों के फिरिश्ते रूप और भविष्य राज्य-पद के - दोनों इकट्ठे साक्षात्कार होंगे। जैसे शुरू में ब्रह्मा में सम्पूर्ण स्वरूप और श्रीकृष्ण का - दोनों साथ-साथ साक्षात्कार करते थे, ऐसे अब उन्हों को तुम्हारे डभले रूप का साक्षात्कार होगा। जैसे-जैसे नंबरवार इस न्यारी स्टेज पर आते जायेंगे तो आप लोगों के भी यह डभले साक्षात्कार होंगे। अभी यह पूरी प्रैक्टिस हो जाए तो यहाँ-वहाँ से यही समाचार आने शुरू हो जायेंगे। जैसे शुरू में घर बैठे भी अनेक समीप आने वाली आत्माओं को साक्षात्कार हुए ना। वैसे अब भी साक्षात्कार होंगे। यहाँ बैठे भी बेहद में आप लोगों का सूक्ष्म स्वरूप सर्विस करेगा। अब यही सर्विस रही हुई है। साकार में सभी इग्जाम्पल तो देख लिया। सभी बातें नंबरवार ड्रामा अनुसार होनी हैं। जितना-जितना स्वयं आकारी फरिश्ते स्वरूप में होंगे उतना आपका फरिश्ता रूप सर्विस करेगा। आत्मा को सारे विश्व का चक्र लगाने में कितना समय लगता है? तो अभी आपके सूक्ष्म स्वरूप भी सर्विस करेंगे। लेकिन जो इस न्यारी स्थिति में होगें, स्वयं फरिश्ते रूप में स्थित होगें। शुरू में सभी साक्षात्कार हुए हैं। फरिश्ते रूप में सम्पूर्ण स्टेज और पुरुषार्थी स्टेज - दोनों अलग-अलग साक्षात्कार होता था। जैसे साकार ब्रह्मा और सम्पूर्ण ब्रह्मा का अलग-अलग साक्षात्कार होता था, वैसे अन्य बच्चों के साक्षात्कार भी होंगे। हंगामा जब होगा तो साकार शरीर द्वारा तो कुछ कर नहीं सकेंगे और प्रभाव भी इस सर्विस से पड़ेगा। जैसे शुरू में भी साक्षात्कार से ही प्रभाव हुआ ना। परोक्ष-अपरोक्ष अनुभव ने प्रभाव डाला वैसे अन्त में भी यही सर्विस होनी है। अपने सम्पूर्ण स्वरूप का साक्षात्कार अपने आप को होता है? अभी शक्तियों को पुकारना शुरू हो गया है। अभी परमात्मा को कम पुकारते हैं, शक्तियों की पुकार तेज रफ़्तार से चालू हो गई है। तो ऐसी प्रैक्टिस बीच-बीच में करनी है। आदत पड़ जाने से फिर बहुत आनन्द फील होगा। एक सेकेण्ड में आत्मा शरीर से न्यारी हो जायेगी, प्रैक्टिस हो जायेगी। अभी यही पुरूषार्थ करना है। अच्छा!

वर्तमान समय पुरूषार्थ की तीन स्टेज हैं; उन तीनों स्टेजेस से हरेक अपनी-अपनी यथा शक्ति पास करता हुआ चल रहा है। वह तीन स्टेजेस कौनसी हैं? एक है वर्णन, दूसरा मनन और तीसरा मगन। मैजारिटी वर्णन में ज्यादा हैं। मनन और मगन की कमी होने के कारण आत्माओं में विल-पावर कम है। सिर्फ वर्णन करने से बाह्यमुखता की शक्ति दिखाई पड़ती है लेकिन उससे प्रभाव नहीं पड़ता है। मनन करते भी हैं लेकिन अन्तर्मुख होकर के मनन करना, उसकी कमी है। प्वाइंटस का मनन भले करते हैं लेकिन हर प्वाइंट द्वारा मनन अथवा मंथन करने से शक्ति स्वरूप मक्खन निकलना चाहिए, जिससे शक्ति बढ़ती है। भले प्लैंनिग करते हैं, उनके साथ-साथ सर्व शक्तियों की सजावट जो होनी चाहिए वह नहीं है। जैसे कोई चीज़ कितनी भी अमूल्य हो लेकिन उनको अगर उस रूप से सजाकर न रखा जाए तो उस चीज़ के मूल्य का मालूम नहीं पड़ सकता। इसी रीति नॉलेज का भले मनन चलता भी है लेकिन अपने में एक-एक प्वाइंट द्वारा जो शक्ति भरनी है वह कम भरते हो, इसलिए मेहनत ज्यादा और रिजल्ट कम हो जाती है। मन में, प्लैनिंग में उमंग- उत्साह बहुत अच्छा रहता है लेकिन प्रैक्टिकल रिजल्ट देखते तो मन में अविनाशी उमंग-उत्साह, उल्लास नहीं रहता। एकरस जो फोर्स की स्टेज रहनी चाहिए वह नहीं रहती। एक-एक प्वाइंट को मनन करने द्वारा अपनी आत्मा में शक्ति कैसे भरी जाती है -- इस अनुभव में बहुत अनजान हैं। इसलिए यह अन्तर्मुखता, अतीन्द्रिय सुख की प्राप्ति का अनुभव नहीं करते हैं। जब तक अतीन्द्रिय सुख की, सर्व प्राप्तियों की भासना नहीं तब तक अल्पकाल की कोई भी वस्तु अपने तरफ रूर आकर्षण करेगी। तो वर्तमान समय मनन शक्ति से आत्मा में सर्व शक्तियाँ भरने की आवश्यकता है, तब मगन अवस्था रहेगी और विघ्न टल सकते हैं। विघ्नों की लहर तब आती है जब रूहानियत की तरफ फोर्स कम हो जाता है। तो वर्तमान समय शिवरात्रि की सर्विस के पहले स्वयं में शक्ति भरने का फोर्स चाहिए। भले योग के प्रोग्रामस रखते हैं लेकिन योग द्वारा शक्तियों का अनुभव करना-कराना - अब ऐसे क्लासेज की आवश्यकता है। प्रैक्टिकल अपने भले के आधार से औरों को भले देना है। सिर्फ बाहर की सर्विस के प्लैन नहीं सोचने हैं लेकिन पूरी ही नजर चाहिए सभी तरफ। जो निमित्त बने हुए हैं उन्हों को यह ख्यालात चलना चाहिए कि हमारी इस तरफ की फुलवारी किस बात में कमजोर है। किसी भी रीति अपने फुलवारियों की कमजोरी पर कड़ी दृष्टि रखनी चाहिए। समय देकर भी कमजोरियों को खत्म करना है। शक्तियों के प्रभाव की कमी होने के कारण चलते-फिरते सभी बातों में ढीलापन आ जाता है। इसलिए विनाश की तैयारियाँ भी फोर्स में होते फिर ढीले हो जाते हैं। जब स्थापना में फोर्स नहीं तो विनाश में फोर्स कैसे भर सकता है? जैसे शुरू में तुमको शक्तिपन का कितना नशा था! अपने ऊपर कड़ी नजर थी! यह विघ्न क्या है! माया क्या है! कितना कड़ा नशा था! अभी अपने ऊपर कड़ी नजर नहीं है। अपने कर्मों की गति पर अटेन्शन चाहिए। ड्रामा अनुसार नंबरवार तो बनना ही है। कोई न कोई कारण से नंबर नीचे होना ही है लेकिन फिर भी फोर्स भरने का कर्त्तव्य करना है। जैसे साकार रूप को देखा, कोई भी ऐसी लहर का समय जब आता था तो दिन-रात सकाश देने की विशेष सर्विस, विशेष प्लैन्स चलते थे, निर्बल आत्माओं को भले भरने का विशेष अटेन्शन रहता था, जिससे अनेक आत्माओं को अनुभव भी होता था। रात-रात को भी समय निकाल आत्माओं को सकाश भरने की सर्विस चलती थी। भरना है। तो अभी विशेष सकाश देने की सर्विस करनी है। लाइट-हाउस माइट-हाउस बनकर यह सर्विस खास करनी है, जो चारों ओर लाइट माइट का प्रभाव फैल जाए। अभी यह आवश्यकता है। जैसे कोई साहूकार होता है तो अपने नदीक सम्बन्धियों को मदद देकर ऊंचा उठा लेता है, ऐसे वर्तमान समय जो भी कमजोर आत्मायें सम्पर्क और सम्बन्ध में हैं उन्हों को विशेष सकाश देनी है। अच्छा!

निरन्तर देह का भान भूल जाए -- उसके लिए हरेक यथा शक्ति नंबरवार पुरूषार्थ अनुसार मेहनत कर रहे हैं। पढ़ाई का लक्ष्य ही है देह- अभिमान से न्यारे हो देही-अभिमानी बनना। देह-अभिमान से छूटने के लिए मुख्य युक्ति यह है-सदा अपने स्वमान - में रहो तो देह-अभिमान मिटता जायेगा। स्वमान में स्व का भान भी रहता है अर्थात् आत्मा का भान। स्वमान - मैं कौन हूँ! अपने इस संगमयुग के और भविष्य के भी अनेक प्रकार के स्वमान जो समय प्रति समय अनुभव कराये गये हैं, उनमें से अगर कोई भी स्वमान में स्थित रहते रहें तो देह-अभिमान मिटता जाए। मैं ऊंच ते ऊंच ब्राह्मण हूँ - यह भी स्वमान है। सारे विश्व के अन्दर ब्रह्माण्ड और विश्व का मालिक बनने वाली मैं आत्मा हूँ - यह भी स्वमान है। जैसे आप लोगों को शुरू-शुरू में स्त्रपन के, देह के भान से परे होने का लक्ष्य रहता था; मैं आत्मा पुरूष हूँ- इस पुरूष के स्वभाव में स्थित कराने से स्त्रपन का भान नंबरवार पुरूषार्थ अनुसार निकलता गया। ऐसे ही सदैव अपनी बुद्धि के अन्दर वर्तमान वा भविष्य स्वमान की स्मृति रहे तो देह-अभिमान नहीं रहेगा। सिर्फ शब्द चेन्ज होने से स्वमान से स्वभाव भी अच्छा हो जाता है। स्वभाव का टक्कर होता ही तब है जब एक दो को स्व का भान नहीं रहता। तो स्वमान अर्थात् स्व का मान, उससे एक तो देह-अभिमान समाप्त हो जाता है और स्वभाव में नहीं आयेंगे। साथ-साथ जो स्वमान में स्थित होता है उनको स्वत: ही मान भी मिलता है। आजकल दुनिया में भी मान से स्वमान मिलता है ना। कोई प्रेजीडेन्ट है, उनका मान बड़ा होने के कारण स्वमान भी ऐसा मिलता है ना। स्वमान से ही विश्व का महाराजन् बनेंगे और उनको विश्व सम्मान देंगे। तो सिर्फ अपने स्वमान में स्थित होने से सर्व प्राप्ति हो सकती है। इस स्वमान में स्थित वह रह सकता है जिनको, जो अनेक प्रकार के स्वमान सुनाये, उसका अनुभव होगा। ‘‘मैं शिव शक्ति हूँ’’-यह भी स्वमान है। एक होता है सुनना, एक होता है उस स्वमान-स्वरूप का अनुभव। तो अनुभव के आधार पर एक सेकेण्ड में देह- अभिमान से स्वमान में स्थित हो जायेंगे। जो अनुभवीमूर्त नहीं हैं, सिर्फ सुनकर के अभ्यास करते ही रहते हैं लेकिन अनुभवी अब तक नहीं बने हैं, उन्हों की स्टेज ऐसे ही होती है। एक अपने स्वमान की लिस्ट निकालो तो लिस्ट बड़ी है! उन एक-एक बात को लेकर अनुभव करते जाओ तो माया की छोटी-छोटी बातों में कमजोर नहीं बनेंगे। माया कमजोर बनाने के लिए पहले तो देह- अभिमान में लाती है। देह-अभिमान में ही न आयें तो कमजोरी कहाँ से आयेगी। तो सभी को अपने स्वमान की स्मृति दिलाओ और उस स्वरूप के अनुभवी बनाओ। जैसे समझते हो -- ‘‘मैं मास्टर सर्वशक्तिवान हूँ’’; तो संकल्प करने से स्थिति बन जाती है ना। लेकिन बनेगी उनकी जिनको अनुभव होगा। अनुभव नहीं तो स्थित होते-होते वह रह ही जाते हैं, स्थिति बन नहीं सकती और थकावट, मुश्किल मार्ग अनुभव करते हैं। कैसे करें - यह क्वेश्चन उठता है। लेकिन जो अनुभवीमूर्त हैं वह कड़ी परीक्षा आते समय भी अपने स्वमान में स्थित होने से सहज उसको कट कर सकते हैं। तो अपने स्वमान की स्मृति दिलाओ। अनुभवीमूर्त बनने की क्लास कराओ। जो आपके समीप सम्पर्क में आते हैं उन आत्माओं को यह अनुभव कराने का सहयोग दो। अभी आत्माओं को यह सहयोग चाहिए। जैसे साकार द्वारा अनुभवीमूर्त बनाने की सेवा होती रही है, ऐसे अभी आप लोगों के समीप जो आत्मायें हैं उन्हों की निर्बलता को, कमजोरियों को अपनी शक्तियों के सहयोग से उन्हें भी अनुभवीमूर्त बनाओ। चेक करो कि जिन आत्माओं के प्रति निमित बने हुए हैं वह आत्मायें स्वमान की स्थिति के अनुभवी हैं? अगर नहीं तो उन्हों को बनाना चाहिए। यह मेहनत करनी है। अगर राजधानी के समीप सम्बन्ध में आने वाली आत्मायें ही कमजोर होंगी तो प्रजा क्या होगी? ऐसी कमजोर आत्मायें सम्बन्ध में नहीं आ सकतीं। अब अपनी राजधानी को जल्दी-जल्दी तैयार करना है। पिछली प्रजा तो जल्दी बन जायेगी लेकिन जो राजाई के सम्बन्ध में, सम्पर्क में आने वाले हैं उन्हों को तो ऐसा बनाना है ना। ऐसा ध्यान हरेक स्थान पर निमित बनी हुई श्रेष्ठ आत्माओं को देना है। मेरे सम्पर्क में आने वाली कोई भी आत्मा इस स्थिति से वंचित न रह जाए, यह ध्यान रखना चाहिए। खुद ही अपने में कोई शक्ति का अनुभव अगर नहीं करते हैं तो औरों को क्या शक्ति दे सकेंगे? जो आत्मायें चाहती हैं, समीप आती हैं, समय देती हैं, सहयोगी बनी हुई हैं - ऐसी आत्माओं को अब मात-पिता द्वारा तो पालना नहीं मिल सकती, इसलिए निमित बनी हुई अनुभवी मूर्तियों द्वारा यह पालना मिले। अगर यह चेकिंग रखो तो कितनी आत्मायें ऐसी शक्तिशाली निकलेंगी? आधा हिस्सा निकलेंगी। जिन्होंने डायरेक्ट पालना ली है उन्हों में फिर भी अनुभवों की रसना भरी हुई है। औरों की यह पालना होनी आवश्यक है। तो हरेक टीचर को अपने क्लास का यह ध्यान रखना चाहिए। अच्छा!



02-02-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


प्रीत बुद्धि की निशानियाँ

भी अव्यक्त रूप में स्थित हो? यह तो जानते हो-अव्यक्ति मिलन अव्यक्त स्थिति में स्थित रहने से ही कर सकते हो। अपने आप से पूछो- अव्यक्त स्थिति में स्थित रहने के अनुभवीमूर्त कहाँ तक बने हैं? अव्यक्ति स्थिति में रहने वालों का सदा हर संकल्प, हर कार्य अलौकिक होता है। ऐसा अव्यक्ति भाव में, व्यक्त देश और कर्त्तव्य में रहते हुए भी कमल पुष्प के समान न्यारा और एक बाप का सदा प्यारा रहता है। ऐसे अलौकिक अव्यक्ति स्थिति में सदा रहने वाले को कहा जाता है अल्लाह लोग। टाइटिल तो और भी है। ऐसे को ही प्रीत बुद्धि कहा जाता है। प्रीत बुद्धि और विपरीत बुद्धि - दोनों के अनुभवी हो। इसलिए आप लोग मुख्य स्लोगन लिखते भी हो - विनाश काले प्रीत बुद्धि पाण्डव विजयन्ती और विनाश काले विपरीत बुद्धि विनशयन्ती। इस स्लोगन को सारे दिन में अपने आप से लगाते हो कि कितना समय प्रीत बुद्धि अर्थात् विजयी बनते हैं और कितना समय विपरीत होने से हार खा लेते हैं? जब माया से हार खाते हो तो क्या प्रीत बुद्धि हो? प्रीत बुद्धि अर्थात् विजयी। तो जब दूसरों को सुनाते हो कि विनाश काले विपरीत बुद्धि मत बनो; प्रीत बुद्धि बनो तो अपने को भी देखते हो कि इस समय हम प्रीत बुद्धि हैं वा विपरीत बुद्धि हैं? प्रीत बुद्धि वाला कब श्रीमत के विपरीत एक संकल्प भी नहीं उठा सकता। अगर श्रीमत के विपरीत संकल्प वा वचन वा कर्म होता है तो क्या उसको प्रीत बुद्धि कहेंगे? प्रीत बुद्धि अर्थात् बुद्धि की लगन वा प्रीत एक प्रीतम के साथ सदा लगी हुई हो। जब एक के साथ सदा प्रीत है तो अन्य किसी भी व्यक्ति वा वैभवों के साथ प्रीत जुट नहीं सकती, क्योंकि प्रीत बुद्धि अर्थात् सदा बापदादा को अपने सम्मुख अनुभव करेंगे। जब बाप सदा सम्मुख है, तो ऐसे सम्मुख रहने वाले कब विमुख नहीं हो सकते। विमुख होते हैं अर्थात् बाप सम्मुख नहीं है। प्रीत बुद्धि वाले सदैव बाप के सम्मुख रहने के कारण उनके मुख से, उनके दिल से सदैव यही बोल निकलते हैं-तुम्हीं से खाऊं, तुम्हीं से बैठूँ, तुम्हीं से बोलूँ, तुम्हीं से सुनूँ, तुम्हीं से सर्व सम्बन्ध निभाऊं, तुम्हीं से सर्व प्राप्ति करूं। उनके नैन, उनका मुखड़ा न बोलते हुए भी बोलते हैं। तो ऐसे विनाश काले प्रीत बुद्धि बने हो अर्थात् एक ही लगन में एकरस स्थिति वाले बने हाे? जैसे साकार रूप में, साकार देश में वरदान-भूमि में जब सम्मुख आते हो, तो जैसे सुना वैसे ही सदा प्रीत बुद्धि का अनुभव करते हो ना। अनुभव सुनाते हो ना। ऐसे ही बुद्धियोग द्वारा सदा बापदादा; के सम्मुख रहने का अभ्यास करो तो क्या सदा प्रीत बुद्धि नहीं बन सकते? जिसके सम्मुख है ही सदा बापदादा तो जैसे सूर्य के सामने देखने से सूर्य की किरणें अवश्य आती हैं; इसी प्रकार अगर ज्ञान-सूर्य बाप के सदा सम्मुख रहो तो ज्ञान-सूर्य के सर्व गुणों की किरणें अपने में अनुभव नहीं होंगी?

ज्ञान-सूर्य की किरणें न चाहते भी अपने में धारण होते हुए अनुभव करेंगे लेकिन तब जब बाप के सदा सम्मुख होंगे। जो सदा बाप को सम्मुख अनुभव करते हैं, उन्हों की सूरत पर क्या दिखाई देगा जिससे आप स्वयं ही समझ जायेंगे कि यह सदैव बाप के सम्मुख रहता है? जो साकार में भी सम्मुख रहते हैं उन्हों की सूरत पर क्या रहता है? साकार में सम्मुख रहने का तो सहज अनुभव कर सकते हो। बहुत पंराना शब्द है। रिवाइज कोर्स चल रहा है ना, तो पुराना शब्द भी रिवाइज हो रहा है। यह भी बुद्धि की ड्रिल है। बुद्धि में मनन करने की शक्ति आ जायेगी। अच्छा, एक तो उनकी सूरत पर अन्तर्मुखता की वा अन्तर्मुखी की झलक रहती है और दूसरा अपने संगमयुग की और भविष्य की सर्व स्वमान की फलक रहती है। समझा? एक झलक दिखाई देती है, दूसरा फलक दिखाई देती है। तो ऐसे सदैव न सिर्फ फलक दिखाई दे लेकिन झलक भी दिखाई दे, हर्षितमुख के साथ अन्तर्मुखी भी दिखाई दे - ऐसे को कहा जाता है सदा बाप के सम्मुख रहने वाले प्रीत बुद्धि। अगर सदा यह स्मृति रहे कि इस तन का किसी भी समय विनाश हो सकता है; तो यह विनाश काल स्मृति में रहने से प्रीत बुद्धि स्वत: हो ही जायेंगे। जब विनाश का काल आता है तो अज्ञानी भी बाप को याद करने का प्रयत्न रूर करते हैं लेकिन परिचय के बिना प्रीत जुट नहीं पाती। अगर यह सदा स्मृति में रखो कि यह अन्तिम घड़ी है, अन्तिम जन्म नहीं अन्तिम घड़ी है, यह याद रहने से और कोई भी याद नहीं आयेगा। फिर ऐसे सदा प्रीत बुद्धि हो? श्रीमत के विपरीत तो नहीं चलते हो? अगर मन्सा में भी श्रीमत के विपरीत व्यर्थ संकल्प वा विकल्प आते हैं तो क्या प्रीत बुद्धि कहेंगे? ऐसे सदा प्रीत बुद्धि रहने वाले विजयी रत्न बन सकेंगे। विजयी रत्न बनने के लिए अपने को सदा प्रीत बुद्धि बनाओ। नहीं तो ऊंच पद पाने के बजाय कम पद पाने के अधिकारी बन जायेंगे। तो सभी अपने को विजयी रत्न समझते हो? कहां भी किस प्रकार से कोई साथ प्रीत न हो, नहीं तो विपरीत बुद्धि की लिस्ट में आ जायेंगे। जैसे लोगों को प्रदर्शनी में संगम के चित्र पर खड़ा करके पूछते हो कि अभी आप कहां हो और कौन हो? संगम पर खड़ा करके क्यों पूछते हो? क्योंकि संगम है ऊंच ते ऊंच स्थान वा युग। इसी प्रकार अपने आप को ऊंची स्टेज पर खड़ा करो और फिर अपने आप से पूछो कि मैं सदा प्रीत बुद्धि हूँ? वा नहीं हूँ वा कभी प्रीत बुद्धि की लिस्ट में आते हो, कभी निकल जाते हो? अगर अब तक भी सदा प्रीत बुद्धि नहीं बने अर्थात् कहाँ न कहाँ सूक्ष्म रूप में वा स्थूल रूप में किस से भी, कहाँ भी प्रीत लगी हुई है। तो वर्तमान समय जबकि पढ़ाई का कोर्स समाप्त हो और रिवाइज कोर्स चल रहा है, तो इससे समझना चाहिए परीक्षा का समय कितना समीप है। जैसे आजकल कौरव गवर्मेन्ट भी बीच-बीच में पेपर लेकर उन्हों की मार्क्स फाइनल पेपर में जमा करती है, इसी प्रकार वर्तमान समय जो भी कर्म करते हो, समझो - प्रैक्टिकल पेपर दे रहे हैं और इस समय के पेपर की रिजल्ट फाइनल पेपर में जमा हो रही है। अभी थोड़े समय में यह भी अनुभव करेंगे - कोई भी विकर्म करने वाले को सूक्ष्म रूप में सजाओं का अनुभव होगा। जैसे प्रीत बुद्धि चलते-फिरते बाप, बाप के चरित्र और बाप के कर्त्तव्य की स्मृति में रहने से बाप के मिलने का प्रैक्टिकल अनुभव करते हैं, वैसे विपरीत बुद्धि वाले विमुख होने से सूक्ष्म सजाओं का अनुभव करेंगे। इसलिए फिर भी बापदादा पहले से ही सुना रहे हैं कि उन सजाओं का अनुभव बहुत कड़ा है। उनके सीरत से हरेक अनुभव कर सकेंगे कि इस समय यह आत्मा सजा भोग रही है। कितना भी अपने को छिपाने की कोशिश करेंगे लेकिन छिपा नहीं सकेंगे। वह एक सेकेण्ड की सजा अनेक जन्मों के दु:ख का अनुभव कराने वाली है। जैसे बाप के सम्मुख आने से एक सेकेण्ड का मिलन आत्मा के अनेक जन्मों की प्यास बुझा देता है, ऐसे ही विमुख होने वाले को भी अनुभव होगा। फिर उन सजाओं से छूटकर अपनी उस स्टेज पर आने में बहुत मेहनत लगेगी। इसलिए पहले से ही वार्निंग दे रहे हैं कि अब परीक्षा का समय चल रहा है। ऐसे फिर उल्हना नहीं देना कि हमें क्या मालूम कि इस कर्म की इतनी गुह्य गति है? इसलिए सूक्ष्म सजाओं से बचने के लिए अपने से ही अपने आप को सदा सावधान रखो। अब गफ़लत न करो। अगर जरा भी गफलत की तो जैसे कहावत है - एक का सौ गुणा लाभ भी मिलता है और एक का सौ गुणा दण्ड भी मिलता है, यह बोल अभी प्रैक्टिकल में नुभव होने वाले हैं। इसलिए सदा बाप के सम्मुख, सदा प्रीत बुद्धि बनकर रहो। अच्छा!

सदा सम्मुख रहने वाले लक्की सितारों को बापदादा भी नमस्ते करते हैं। अच्छा!



03-02-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


स्वयं के जानने से संयम और समय की पहचान

जैसे बाप के लिए कहा हुआ है कि वह जो है, जैसा है, वैसा ही उनको जानने वाला सर्व प्राप्तियां कर सकता है। वैसे ही स्वयं को जानने के लिए भी जो हूँ, जैसा हूँ, ऐसा ही जान कर और मान कर सारा दिन चलते-फिरते हो? क्योंकि जैसे बाप को सर्व स्वरूपों से वा सर्व सम्बन्धों से जानना आवश्यक है, ऐसे ही बाप द्वारा स्वयं को भी ऐसा जानना आवश्यक है। जानना अर्थात् मानना। मैं जो हूँ, जैसा हूँ - ऐसे मानकर चलेंगे तो क्या स्थिति होगी? देह में विदेही, व्यक्त में होते अव्यक्त, चलते-फिरते फरिश्ता वा कर्म करते हुए कर्मातीत। क्योंकि जब स्वयं को अच्छी तरह से जान और मान लेते हैं; तो जो स्वयं को जानता है उस द्वारा कोई भी संयम अर्थात् नियम नीचे-ऊपर नहीं हो सकता। संयम को जानना अर्थात् संयम में चलना। स्वयं को मानकर के चलने वाले से स्वत: ही संयम साथ-साथ रहता है। उनको सोचना नहीं पड़ता कि यह संयम है वा नहीं, लेकिन स्वयं की स्थिति में स्थित होने वाला जो कर्म करता है, जो बोल बोलता है, जो संकल्प करता है वही संयम बन जाता है। जैसे साकार में स्वयं की स्मृति में रहने से जो कर्म किया वही ब्राह्मण परिवार का संयम हो गया ना। यह संयम कैसे बने? ब्रह्मा द्वारा जो कुछ चला वही ब्राह्मण परिवार के लिए संयम बना। तो स्वयं की स्मृति में रहने से हर कर्म संयम बन ही जाता है और साथ-साथ समय की पहचान भी उनके सामने सदैव स्पष्ट रहती है। जैसे बड़े आफीसर्स के सामने सारा प्लैन होता है, जिसको देखते हुए वह अपनी-अपनी कारोबार चलाते हैं। जैसे एरोप्लेन वा स्टीमर चलाने वालों के पास अपने-अपने प्लैन्स होते हैं जिससे वह रास्ते को स्पष्ट समझ जाते हैं। इसी प्रकार जो स्वयं को जानता है उससे संयम आटोमेटिकली चलते रहते हैं और समय की पहचान भी ऐसे स्पष्ट होती है। सारा दिन स्वयं जो है, जैसा है वैसी स्मृति रहती है। इसलिए गाया हुआ भी है - जो कर्म मैं करूंगा मुझे देख सभी करेंगे। तो ऐसे स्वयं को जानने वाला जो कर्म करेगा वही संयम बन जायेगा। उनको देख सभी फालो करेंगे। ऐसी स्मृति सदा रहे। पहली स्टेज जो होती है उसमें पुरूषार्थ करना पड़ता है, हर कदम में सोचना पड़ता है कि यह राइट है वा रॉंग है, यह हमारा संयम है वा नहीं? जब स्वयं की स्मृति में सदा रहते हैं तो नेचरल हो जाता है। फिर यह सोचने की आवश्यकता नहीं रहती। कब भी कोई कर्म बिना संयम के हो नहीं सकता। जैसे साकार में स्वयं के नशे में रहने के कारण अथॉरिटी से कह सकते थे कि अगर साकार द्वारा उलटा भी कोई कर्म हो गया तो उसको भी सुलटा कर देंगे। यह अथॉरिटी है ना। उतनी अथॉरिटी कैसे रही? स्वयं के नशे से। स्वयं के स्वरूप की स्मृति में रहने से यह नशा रहता है कि कोइ भी कर्म उलटा हो ही नहीं सकता। ऐसा नशा नंबरवार सभी में रहना चाहिए। जब फालो फादर है तो फालो करने वालों की यह स्टेज नहीं आयेगी? इसको भी फालो करेंगे ना। साकार रूप फिर भी पहली आत्मा है ना। जो फर्स्ट आत्मा ने निमित बनकर के दिखाया, तो उनको सेकेण्ड, थर्ड जो नंबरवार आत्माएं हैं वह सभी बात में फालो कर सकती हैं। निराकार स्वरूप की बात अलग है। साकार में निमित बनकर के जो कुछ करके दिखाया वह सभी फालो कर सकते हैं नंबरवार पुरूषार्थ अनुसार। इसी को कहा जाता है अपने में सम्पूर्ण निश्चय-बुद्धि। जैसे बाप में 100% निश्चयबुद्धि बनते हैं, तो बाप के साथ-साथ स्वयं में भी इतना निश्चयबुद्धि रूर बनें। स्वयं की स्मृति का नशा कितना रहता है? जैसे साकार रूप में निमित बन हर कर्म संयम के रूप में करके दिखाया, ऐसे प्रैक्टिकल में आप लोगों को फालो करना है। ऐसी स्टेज है? जैसे गाड़ी अगर ठीक पट्टे पर चलती है तो निश्चय रहता है - एक्सीडेंट हो नहीं सकता। बेफिक्र हो चलाते रहेंगे। वैसे ही अगर स्वयं की स्मृति का नशा है, फाउन्डेशन ठीक है तो कर्म और वचन संयम के बिना हो नहीं सकता। ऐसी स्टेज समीप आ रही है। इसको ही कहा जाता है सम्पूर्ण स्टेज के समीप। इस स्वमान में स्थित होने से अभिमान नहीं आता। जितना स्वमान उतनी निर्माणता। इसलिए उनको अभिमान नहीं रहेगा। जैसे निश्चय की विजय अवश्य है, इसी प्रकार ऐसे निश्चयबुद्धि के हर कर्म में विजय है; अर्थात् हर कर्म संयम के प्रमाण है तो विजय है ही है। ऐसे अपने को चेक करो - कहाँ तक इस स्टेज के नजदीक हैं? जब आप लोग नजदीक आयेंगे तब फिर दूसरों के भी नंबर नजदीक आयेंगे। दिन-प्रतिदिन ऐसे परिवर्तन का अनुभव तो होता होगा। वेरीफाय कराना, एक दो को रिगार्ड देना वह दूसरी बात है लेकिन अपने में निश्चय रख कोई से पूछना वह दूसरी बात है। वह जो कर्म करेगा निश्चयबुद्धि होगा। बाप भी बच्चों को रिगार्ड देकर के राय-सलाह देते हैं ना। ऐसी स्टेज को देखना है कितना नजदीक आये हैं? फिर यह संकल्प नहीं आयेगा - पता नहीं यह राइट है वा रॉंग है; यह संकल्प मिट जायेगा क्योंकि मास्टर नॉलेजफुल हो। स्वयं के नशे में कमी नहीं होनी चाहिए। कारोबार के संयम के प्रमाण एक दो को रिगार्ड देना - यह भी एक संयम है। ऐसी स्टेज है, जैसे एक सैम्पल रूप में देखा ना! तो साकार द्वारा देखी हुई बातों को फालो करना तो सहज है ना। तो ऐसी स्टेज समानता की आ रही है ना। अभी ऐसे महान् और गुह्य गति वाला पुरूषार्थ चलना है। साधारण पुरूषार्थ नहीं। साधारण पुरूषार्थ तो बचपन का हुआ। लेकिन अब विशेष आत्माओं के लिए विशेष ही है। अच्छा!



05-02-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


नशा और निशाना

क सेकेण्ड में अपने को अपने सम्पूर्ण निशाने और नशे में स्थित कर सकते हो? सम्पूर्ण निशाना क्या है, उसको तो जानते हो ना। जब सम्पूर्ण निशाने पर स्थित हो जाते हैं, तो नशा तो रहता ही है। अगर निशाने पर बुद्धि नहीं टिकती तो नशा भी नहीं रहेगा। निशाने पर स्थित होने की निशानी है नशा। तो ऐसा नशा सदैव रहता है? जो स्वयं नशे में रहते हैं वह दूसरों को भी नशे में टिका सकते हैं। जैसे कोई हद का नशा पीते हैं तो उनकी चलन से, उनके नैन-चैन से कोई भी जान लेता है -- इसने नशा पिया हुआ है। इसी प्रकार, यह जो सभी से श्रेष्ठ नशा है, जिसको ईश्वरीय नशा कहा जाता है, इसी में स्थित रहने वाला भी दूर से दिखाई तो देगा ना। दूर से ही वह अवस्था इतना महसूस करें - यह कोई ईश्वरीय लगन में रहने वाली आत्मायें हैं! ऐसे अपने को महसूस करते हो? जैसे आप कहां भी आते- जाते हो, तो लोग देखने से ही समझें कि यह कोई प्रभु की प्यारी न्यारी आत्मायें हैं। ऐसे अनुभव करते हैं? भक्ति-मार्ग में भी ऐसी आत्मायें होती हैं। उन्हों के नैन-चैन से प्रभु-प्रेमी देखने आते हैं। तो ऐसी स्थिति इसी दुनिया में रहते हुए, ऐसी कारोबार में चलते हुए समझते हो कि यह अवस्था रहेगी या सिर्फ लास्ट में दर्शन-मूर्त की यह स्टेज होगी? क्या समझते हो - क्या अन्त तक साधारण रूप ही रहेगा वा यह झलक चेहरों से दिखाई देगी? वा सिर्फ लास्ट टाइम जैसे पर्दे के अन्दर तैयार हो फिर पर्दा खुलता है और सीन सामने आकर समाप्त हो जाती है, ऐसे होगा? कुछ समय यह झलक दिखाई देगी। कई ऐसे समझते हैं कि जब फर्स्ट, सेकेण्ड आत्मायें जो निमित बनीं वही साधारण गुप्त रूप अपना साकार रूप का पार्ट समाप्त कर चले गये तो हम लोगों की झलक फिर क्या दिखाई देगी? लेकिन नहीं। ‘सन शोज फादर’ गाया हुआ है। तो फादर का शो बच्चे प्रैक्टिकल में लाने से ही करेंगे। ‘अहो प्रभु’ की पुकार जो आत्माओं की निकलेगी वा पश्चाताप की लहर जो आत्माओं में आयेगी वह कब, कैसे आयेगी? जिन्होंने साकार में अनुभव ही नहीं किया उन्हों को भी बाप के परिचय से कि हम बाबा के बच्चे हैं, यह कब मानेंगे कि बरोबर बाप आये लेकिन हम लोगों ने कुछ नहीं पाया? तो यह प्रैक्टिकल रूहानी झलक और फरिश्तेपन की फलक चेहरे से, चलन से दिखाई दे। अपने को और आप निमित बनी हुई आत्माओं की स्टेज को देखते हुए अनुभव करेंगे - बाप ने इन्हों को क्या बनाया! और फिर पश्चाताप करेंगे। अगर यह झलक नहीं देखते तो क्या समझेंगे? इतना समय ज्ञान तो नहीं लेंगे जो नॉलेज से आपको जानें। तो यह प्रैक्टिकल चेहरे से झलक और फलक दिखाई देगी। बाप के तो महावाक्य ही हैं कि मैं बच्चों के आगे प्रत्यक्ष होता हूँ। लेकिन विश्व के आगे कौन प्रख्यात होंगे? वह साकार में बाप का कर्त्तव्य था, प्रैक्टिकल में बच्चों का कर्त्तव्य है प्रख्यात होने का और बाप का कर्त्तव्य है बैकबोन बनने का, गुप्त रूप में मददगार बनने का। इसलिए ऐसे भी नहीं कि जैसे मात-पिता का गुप्त पार्ट चला वैसे ही अन्त तक गुप्त वातावरण रहेगा। जयजयकार शक्तियों की गाई हुई है और ‘अहो प्रभु’ की पुकार बाप के लिए गाई हुई है। आप लोग आपस में भी एक दो के अनुभव करते होंगे - जब विशेष अटेन्शन अपने निशाने वा नशा का रहता है, तो भले कितने भी बड़े संगठन में बैठे होंगे तो भी सभी को विशेष कुछ दिखाई रूर देगा। महसूस करेंगे कि यह समय याद में बहुत अच्छा बैठे। अभी जो साधारण अटेन्शन है वह बदलकर नेचरल विशेष अटेन्शन हो जायेगा और चेहरे से झलक-फलक दिखाई देगी। सिर्फ स्मृति को शक्तिशाली बनाना है। अच्छा!



27-02-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


होलीहंस बनने का यादगार – होली

प हैं सदा बाप के संग में रहने वाली, रूहानी रंग में रंगी हुई आत्मायें होली हंस। जो सदा होली रहते हैं -- उन्हों के लिए सदा होली ही है। तो सदा ब्प के स्नेह, सहयोग और सर्व शक्तियों के रंग में बाप समान रहने वाली आत्मायें सदाकाल की होली मनाते हो वा अल्पकाल की? सदा होली मनाने वाले सदा बाप के साथ मिलन मनाते रहते हैं। सदा अतीन्द्रिय सुख में वा अविनाशी खुशी में झूमते और झूलते रहते हैं। ऐसे ही स्थिति में स्थित रहने वाले होली हंस हो? लोग अपने को उत्साह में लाने के लिए हर उत्सव का इन्तजार करते हैं; क्योंकि उत्सव उनमें अल्पकाल का उत्साह लाता है। लेकिन आप श्रेष्ठ आत्माओं के लिए हर दिन तो क्या हर सेकेण्ड उत्सव अर्थात् उत्साह दिलाने वाला है। अविनाशी अर्थात् निरन्तर उत्सव ही उत्सव है, क्योंकि आप के उत्साह में अन्तर नहीं आता है, तो निरन्तर हो गया ना। तो होली मनाने के लिए आये हो वा होली बनकर होलीएस्ट व स्वीटेस्ट बाप से मिलन मनाने आये हो वा अपने सदा संग में रहने के रंग का रूहानी रूप दिखाने आये हो? होली में अल्पकाल की मस्ती में मस्त हो जाते हैं। तो क्या अपने अविनाशी ईश्वरीय मस्ती का स्वरूप अनुभव करते हो? जैसे होली की मस्ती में मस्त होने कारण अपने सम्बन्ध अर्थात् बड़े छोटे के भान को भूल जाते हैं, आपस में एक समान समझकर मस्ती में खेलते हैं, मन के अन्दर जो भी दुश्मनी के संस्कार एक दो के प्रति होते हैं वह अल्पकाल के लिए सभी भूल जाते हैं क्योंकि मंगल मिलन दिवस मनाते हैं। यह विनाशी रीति-रस्म कहां से चली? यह रस्म चलाने के निमित्त कौन बने? आप ब्राह्मण। अब भी जब होली अर्थात् पवित्रता की स्टेज पर ठहरते हो वा बाप के संग के रंग में रंगे हुए होते हो तो इस ईश्वरीय मस्ती में यह देह का भान वा भिन्न-भिन्न सम्बन्ध का भान, छोटे-बड़े का भान विस्मृत हो एक ही आत्म-स्वरूप का भान रहता है ना। तो आपके सदाकाल की स्थिति का यादगार दुनिया के लोग मना रहे हैं। ऐसी खुमारी वा खुशी रहती है कि हमारी ही प्रत्यक्ष स्थिति का प्रमाण स्वरूप यह यादगार देख रहे हैं? यादगार को देखते हुए अपनी कल्प पहले वाली की हुई एक्टिविटी याद आती है वा वर्तमान समय प्रैक्टिकल में अपने किये हुए ईश्वरीय चरित्र का साक्षात्कार इन यादगार रूप दर्पण में करते रहते हो? अपने चरित्रों का यादगार देखते हो ना। अपनी स्थिति का वर्णन अन्य आत्माओं द्वारा गायन के रूप में सुनते हो ना। अपने चैतन्य रूहानी रूप का, चरित्रों का यादगार भी देख रहे हो। यह सभी देखते हुए, सुनते हुए क्या अनुभव करते हों? क्या यह समझते हो कि यह मैं ही तो हूँ? ऐसे अनुभव करते हों वा यह समझते हो कि यह यादगार किन विशेष आत्माओं का है? जैसे साकार रूप में यह निश्चय हर कर्म में देखा कि अपने भविष्य यादगार को देखते हुए सदा यह खुमारी और खुशी थी कि यह मैं ही तो हूँ, ऐसे ही आप सभी को यादगार चित्र देखते हुए वा चरित्र सुनते हुए वा गुणों का गायन सुनते हुए यह खुमारी और खुशी रहती है कि यह मैं ही तो हूँ? यह सदा स्मृति में रहना चाहिए कि अभी-अभी हम प्रत्यक्ष रूप में पार्ट बजा रहे हैं और अभी-अभी अपने पार्ट का यादगार भी देख रहे हैं। सारे कल्प के अन्दर ऐसी कोई आत्माएं हैं जो अपना यादगार अपनी स्मृति में देखें? यूं तो देखते सभी हैं लेकिन स्मृति तो नहीं रहती है ना। सिर्फ आप आत्माओं का ही पार्ट है जो इस स्मृति से अपनी यादगार को देखते हो। तो स्मृति से अपनी यादगार को देखते हुए क्या होना चाहिए? (कोई-कोई ने बताया) विजयी तो हो ही। विजय का तिलक लगा हुआ है। जैसे गुरूओं पास वा पण्डितों के पास जाते हैं तो वह तिलक लगाते हैं, यहाँ भी आने से ही, बच्चे बनने से ही पहले-पहले स्व- स्मृति द्वारा सदा विजयी बनने का तिलक बापदादा द्वारा लग ही जाता है। इसलिए पण्डित भी तिलक लगा देते हैं। सभी रस्म ब्राह्मणों द्वारा ही अब चलती हैं। ब्राह्मणों का पिता रचयिता तो साथ है ही। बच्चे शब्द ही बाप को सिद्ध कर देता है। बलिहार जाने वाले की हार नहीं होती है। स्मृति समर्थी को लाती है और समर्थी में आने से ही कार्य सफल होते हैं। अथवा जो सुनाया -- खुशी, मस्ती, नशा वा निशाना सभी हो जाता है। यह सभी बातें गायब होने कारण निर्बलता है। विस्मृति के कारण असमर्थी। तो स्मृति से समर्थी आने से सभी सिद्धि प्राप्त हो जाती हैं अर्थात् सभी कार्य सिद्ध हो जाते हैं। स्व- स्मृति में रहने वाला सदैव जो भी कार्य करेगा वा जो भी संकल्प करेगा उसमें उसको सदा निश्चय रहता है कि यह कार्य वा यह संकल्प सिद्ध हुआ ही पड़ा है अर्थात् ऐसा निश्चयबुद्धि अपनी विजय वा सफलता निश्चित समझ कर चलता है। निश्चय ही है, जो ऐसे निश्चित सफ़लता समझकर चलने वाले हैं उनकी स्थिति कैसी रहेगी? उनके चेहरे में क्या विशेष झलक दिखाई देगी? निश्चय तो सुनाया कि निश्चय होगा-विजय हमारी निश्चित है; लेकिन उनके चेहरे पर क्या दिखाई देगा? जब विजय निश्चित है तो निश्चिन्त रहेगा ना। कोई भी बात में चिन्ता की रेखा दिखाई नहीं देगी। ऐसे निश्चयबुद्धि विजयी, निश्चित और सदा निश्चिन्त रहने वाले हो? अगर नहीं तो निश्चयबुद्धि 100% कैसे कहेंगे? 100% निश्चयबुद्धि अर्थात् निश्चित विजयी और निश्चिन्त। अब इससे अपने आपको देखो कि 100% सभी बातों में निश्चय बुद्धि हैं? सिर्फ बाप में निश्चय को भी निश्चय बुद्धि नहीं कहा जाता। बाप में निश्चयबुद्धि, साथ-साथ अपने आप में भी निश्चयबुद्धि होने चाहिए और साथ-साथ जो भी ड्रामा के हर सेकेण्ड की एक्ट रिपीट हो रही है-उसमें भी 100% निश्चयबुद्धि चाहिए - इसको कहा जाता है निश्चयबुद्धि। जैसे बाप में 100% निश्चयबुद्धि हो ना। उसमें संशय की बात नहीं। सिर्फ एक में पास नहीं होना है। अपने आप में भी इतना ही निश्चय होना चाहिए कि मैं भी वही कल्प पहले वाली, बाप के साथ पार्ट बजाने वाली श्रेष्ठ आत्मा हूँ और साथ- साथ ड्रामा के हर पार्ट को भी इसी स्थिति से देखें कि हर पार्ट मुझ श्रेष्ठ आत्मा के लिए कल्याणकारी है। जब यह तीनों प्रकार के निश्चय में सदा पास रहते हैं, ऐसे निश्चयबुद्धि ही मुक्ति और जीवन-मुक्ति में बाप के पास रहते हैं। ऐसे निश्चयबुद्धि को कब क्वेश्चन नहीं उठता। ‘‘क्यों, क्या’’ की भाषा निश्चयबुद्धि की नहीं होती। क्यों के पीछे क्यू लगती है; तो क्यू में भक्त ठहरते, ज्ञानी नहीं। आपके आगे तो क्यू लगनी है ना। क्यू में इन्तजार करना होता है। इन्तजार की घड़ियां अब समाप्त हुईं। इन्तजार की घड़ियां हैं भक्तों की। ज्ञान अर्थात् प्राप्ति की घड़ियां, मिलन की घड़ियां। ऐसे निश्चयबुद्धि हो ना। ऐसे निश्चय बुद्धि आत्माओं की यादगार यहां ही दिखाई हुई है। अपनी यादगार देखी है? अचल घर देखा है? जो सदा सर्व संकल्पों सहित बापदादा के ऊपर बलिहार हैं उन्हों के आगे माया कब वार नहीं कर सकती। ऐसे माया के वार से बचे हुए रहते हैं। बच्चे बन गये तो बच गये। बच्चे नहीं तो माया से भी बच नहीं सकते। माया से बचने की युक्ति बहुत सहज है। बच्चे बन जाओ, गोदी में बैठ जाओ तो बच जायेंगे। पहले बचने की युक्ति बताते हैं, फिर भेजते हैं। बहादुर बनाने लिए ही भेजते हैं, हार खाने लिए नहीं, खेल खेलने लिए, जब अलौकिक जीवन में हो, अलौकिक कर्म करने वाले हो, तो इस अलौकिक जीवन में खिलौने सभी अलौकिक हैं जो सिर्फ इस अलौकिक युग में ही अनुभव करते हो। यह तो खिलौने हैं जिससे खेलना है, न कि हारना है। तन्दुरूस्ती वा शारीरिक शक्ति के लिए भी खेल कराया जाता है ना। अलौकिक युग में अलौकिक बाप द्वारा यह अलौकिक खेल है, ऐसे समझकर खेलो तो फिर डरेंगे, घबरायेंगे नहीं, परेशान नहीं होंगे, हार नहीं खायेंगे। सदा इसी शान में रहो। तो यह हैं अलौकिक खिलौने खेलने के लिए। इस ईश्वरीय शान में रहने से सहज ही देह का भान खत्म हो जायेगा। ईश्वरीय शान से नीचे उतरते हो तब देह-अभिमान में आते हो। तो सदाकाल के संग से संग का रंग लगाओ। हर सेकेण्ड बाप से मिलन मनाते हर रोज अमृतवेले से मस्तक पर विजय का तिलक जो लगा हुआ है उसको देखो। अपने चार्ट रूपी दर्पण में, जैसे अमृतवेले उठकर शरीर का श्रृंगार करते हो ना, वैसे पहले बाप द्वारा मिली हुई सर्व शक्तियों से आत्मा का श्रृंगार करो। जो श्रृंगार किये हुए होंगे वह संहारीमूर्त भी होंगे। सारे विश्व में सर्वश्रेष्ठ आत्मायें हो ना। श्रेष्ठ आत्माओं का श्रृंगार भी श्रेष्ठ होता है। आपके जड़ चित्र सदा श्रृंगारे हुए रहते हैं। शक्तियों वा देवियों के चित्र में श्रृंगारमूर्त और संहारीमूर्त दोनों हैं। तो रोज अमृतवेले साक्षी बन आत्मा का श्रृंगार करो। करने वाले भी आप हो, करना भी अपने आप को ही है। फिर कोई भी प्रकार की परिस्थितियों में डगमग नहीं होंगे, अडोल रहेंगे। ऐसे को होली हंस कहा जाता है। लोग होली मनाते हैं लेकिन आप स्वयं होली हंस हो। अच्छा! ऐसे होली हंसों को होलीएस्ट बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।


 

28-02-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


अव्यक्त बापदादा के साथ बच्चों की मुलाक़ात

जैसे परीक्षा का समय नजदीक आता जा रहा है तो अपने सम्पूर्ण स्थिति का भी प्रत्यक्ष साक्षात्कार वा अनुभव प्रत्यक्ष रूप में होता जाता है? जैसे नंबरवन आत्मा अपने सम्पूर्ण स्टेज का चलते-फिरते प्रैक्टिकल रूप में अनुभव करते थे, वैसे आप लोगों को अपनी सम्पूर्ण स्टेज बिल्कुल समीप और स्पष्ट अनुभव होती है? जैसे पुरुषार्थी ब्रह्मा और सम्पूर्ण ब्रह्मा - दोनों ही स्टेज स्पष्ट थी ना। वैसे आप लोगों को अपनी सम्पूर्ण स्टेज इतनी स्पष्ट और समीप अनुभव होती है? अभी-अभी यह स्टेज है, फिर अभी-अभी वह होंगी - यह अनुभव होता है? जैसे साकार में भविष्य का भी अभी-अभी अनुभव होता था ना। भले कितना भी कार्य में तत्पर रहते हैं लेकिन अपने सामने सदैव सम्पूर्ण स्टेज होनी चाहिए कि उस स्टेज पर बस पहुँचे कि पहुँचे। जब आप सम्पूर्ण स्टेज को समीप लावेंगे तो वैसे ही समय भी समीप आवेगा। समय आपको समीप लायेगा वा आप समय को समीप लायेंगी, क्या होना है? उस तरफ से समय समीप आयेगा, इस तरफ से आप समीप होंगे। दोनों का मेल होगा। समय कब भी आये लेकिन स्वयं को सदैव सम्पूर्ण स्टेज के समीप लाने के पुरूषार्थ में ऐसा तैयार रखना चाहिए जो समय की इन्तजार आपको न करनी पड़े। पुरुषार्थी को सदैव एवर रेडी रहना है। किसको इन्तजार न करना पड़े। अपना पूरा इन्तजाम होना चाहिए। हम समय को समीप लायेंगे, न कि समय हमको समीप लायेगा - नशा यह होन् चाहिए। जितना अपने सामने सम्पूर्ण स्टेज समीप होती जावेगी उतनी विश्व की आत्माओं के आगे आपकी अन्तिम कर्मातीत स्टेज का साक्षात्कार स्पष्ट होता जयेगा। इससे जज कर सकते हो कि साक्षात्कारमूर्त बन विश्व के आगे साक्षात्कार कराने का समय नजदीक है वा नहीं। समय तो बहुत जल्दी-जल्दी दौड़ लगा रहा है। 10 वर्ष कहते-कहते 24 वर्ष तक पहुँच गये हैं। समय की रफ़्तार अनुभव से तेज तो अनुभव होती है ना। इस हिसाब से अपनी सम्पूर्ण स्टेज भी स्पष्ट और समीप होनी चाहिए। जैसे स्कूल में भी स्टेज होती है तो सामने देखते ही समझते हैं कि इस पर पहुँचना है। इसी प्रमाण सम्पूर्ण स्टेज भी ऐसे सहज अनुभव होनी चाहिए। इसमें क्या चार वर्ष लगेंगे वा 4 सेकेण्ड? है तो सेकेण्ड की बात। अब सेकेण्ड में समीप लाने की स्कीम बनाओ वा प्लैन बनाओ। प्लैन बनाने में भी टाइम लग जावेगा लेकिन उस स्टेज पर उपस्थित हो जायें तो समय नहीं लगेगा। प्रत्यक्षता समीप आ रही है, यह तो समझते हो। वायुमंडल और वृत्तियां परिवर्तन में आ रही हैं। इससे भी समझना चाहिए कि प्रत्यक्षता का समय कितना जल्दी-जल्दी आगे आ रहा है। मुश्किल बात सरल होती जा रही है। संकल्प तो सिद्ध होते जा रहे हैं। निर्भयता और संकल्प में दृढ़ता - यह है सम्पूर्ण स्टेज के समीप की निशानी। यह दोनों ही दिखाई दे रहे हैं। संकल्प के साथ-साथ आपकी रिजल्ट भी स्पष्ट दिखाई दे। इसके साथ-साथ फल की प्राप्ति भी स्पष्ट दिखाई दे। यह संकल्प है यह इसकी रिजल्ट। यह कर्म है यह इनका फल। ऐसा अनुभव होता है। इसको ही प्रत्यक्षफल कहा जाता है। अच्छा!

जैसे बाप के तीन रूप प्रसिद्ध हैं, वैसे अपने तीनों रूपों का साक्षात्कार होता रहता है? जैसे बाप को अपने तीनों रूपों की स्मृति रहती है, ऐसे ही चलते-फिरते अपने तीनों रूपों की स्मृति रहे कि हम मास्टर त्रिमूर्ति हैं। तीनों कर्त्तव्य इकट्ठे साथ-साथ चलने चाहिए। ऐसे नहीं-स्थापना का कर्त्तव्य करने का समय अलग है, विनाश का कर्त्तव्य का समय अलग है, फिर और आना है। नहीं। नई रचना रचते जाते हैं और पुरानी का विनाश। आसुरी संस्कार वा जो भी कमजोरियाँ हैं उनका विनाश भी साथ-साथ करते जाना है। नये संस्कार ला रहे हैं, पुराने संस्कार खत्म कर रहे हैं। तो सम्पूर्ण और शक्ति रूप, विनाशकारी रूप न होने कारण सफ़लता न हो पाती है। दोनों ही साथ होने से सफ़लता हो जाती है। यह दो रूप याद रहने से देवता रूप आपेही आवेगा। दोनों रूप के स्मृति को ही फाइनल पुरूषार्थ की स्टेज कहेंगे। अभी-अभी ब्राह्मण रूप अभी- अभी शक्ति रूप। जिस समय जिस रूप की आवश्यकता है उस समय वैसा ही रूप धारण कर कर्त्तव्य में लग जायें - ऐसी प्रैक्टिस चाहिए। वह प्रैक्टिस तब हो सकेगी जब एक सेकेण्ड में देही-अभिमानी बनने का अभ्यास होगा। अपनी बुद्धि को जहाँ चाहें वहाँ लगा सकें - यह प्रैक्टिस बहुत रूरी है। ऐसे अभ्यासी सभी कार्य में सफल होते हैं। जिसमें अपने को मोल्ड करने की शक्ति है वही समझो रीयल गोल्ड है। जैसे स्थूल कर्मेन्द्रियों को जहाँ चाहे मोड़ सकते हो ना। अगर नहीं मुड़ती तो इसको बीमारी समझती हो। बुद्धि को भी ऐसे इजी मोड़ सकें। ऐसे नहीं कि बुद्धि हमको मोड़ ले जाये। ऐसे सम्पूर्ण स्टेज का यादगार भी गाया हुआ है। दिन-प्रति-दिन अपने में परिवर्तन का अनुभव तो होता है ना। संस्कार वा स्वभाव वा कमी को देखते हैं तब नीचे आ जाते। तो अब दिन-प्रति-दिन यह परिवर्तन लाना है। कोई का भी स्वभाव- संस्कार देखते हुए, जानते हुए उस तरफ बुद्धियोग न जाये। और ही उस आत्मा के प्रति शुभ भावना हो। एक तरफ से सुना, दूसरे तरफ से खत्म।



04-03-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


अधिकारी बनने के लिए अधीनता छोडो

आज विशेष किसके लिए आये हैं, जानती हो? भविष्य में विशेषता दिखलाने वाली विशेष आत्माओं के प्रति। अपने को विशेष आत्मायें अर्थात् विशेषता दिखलाने वाली समझती हो? ऐसा विशेष कौनसा कार्य करके दिखायेंगी जो अब तक कोई ग्रुप ने न करके दिखाया हो? इसका कोई प्लैन सोचा है? ‘पास विद् ऑनर’ बनने का लक्ष्य और बाप का शो दिखलाने का लक्ष्य तो सभी का ही है लेकिन आप लोग विशेष क्या नवीनता दिखायेंगी? नवीनता वा विशेषता यही दिखाना वा दिखाने का निश्चय करना - कि कोई भी विघ्न में वा कोई भी कार्य में मेहनत न लेकर और ही अन्य आत्माओं को भी निर्विघ्न और हर कार्य में मददगार बनाते सहज ही सफलता- मूर्त बनेंगे और बनायेंगे। अर्थात् सदा सहजयोग, सदा बाप के स्नेही, बाप के कार्य में सहयोगी, सदा सर्व शक्तियों को धारण करते हुए श्रृंगार-मूर्त, शस्त्रधारी शक्ति बन अपने चित्र से, चलन से बाप के चरित्र और कर्त्तव्य को प्रत्यक्ष करना है। ऐसी प्रतिज्ञा अपने से की है? छोटी-छोटी बातों में मेहनत तो नहीं लेंगे? किसी भी माया के आकर्षित रूप में धोखा तो नहीं खायेंगे? जो स्वयं धोखा खा लेते हैं वह औरों को धोखे से छुड़ा नहीं पाते। सदैव यही स्मृति रखो कि हम दुःख-हर्ता सुख-कर्ता के बच्चे हैं। किसके भी दुःख को हल्का करने वाले स्वयं कब भी, एक सेकेण्ड वे लिए भी, संकल्प वा स्वप्न में भी दुःख की लहर में नहीं आ सकते हैं। अगर संकल्प में भी दुःख की लहर आती है तो सुख के सागर बाप की सन्तान कैसे कहला सकते हैं? क्या बाप की महिमा में यह कब वर्णन करते हो कि सुख का सागर हो लेकिन कब-कब दु:ख की लहर भी आ जाती है? तो बाप समान बनना है ना। दु:ख की लहर आती है अर्थात् कहां न कहां माया ने धोखा दिया। तो ऐसी प्रतिज्ञा करनी है। शक्ति रूप नहीं हो क्या? शक्ति कैसे मिलेगी? अगर सदा बुद्धि का सम्बन्ध एक ही बाप से लगा हुआ है तो सम्बन्ध से सर्व शक्तियों का वर्सा अधिकार के रूप में अवश्य प्राप्त होता है, लेकिन अधिकारी समझकर हर कर्म करते रहें तो कहने वा संकल्प में मांगने की इच्छा नहीं रहेगी। अधिकार प्राप्त न होने कारण, कहां न कहां किसी प्रकार की अधीनता है। अधीनता होने के कारण अधिकार प्राप्त नहीं होता है। चाहे अपने देह के भान की अधीनता हो, चाहे पुराने संस्कारों के अधीन हो, चाहे कोई भी गुणों की धारणा की कमी के कारण निर्बलता वा कमजोरी के अधीन हो, इसलिए अधिकार का अनुभव नहीं कर पाते। तो सदैव यह समझो कि हम अधीन नहीं, अधिकारी हैं। पुराने संस्कारों पर, माया के ऊपर विजय पाने के अधिकारी हैं। अपने देह के भान वा देह के सम्बन्ध वा सम्पर्क जो भी हैं उनके ऊपर विजय पाने के अधिकारी हैं। अगर यह अधिकारीपन सदैव स्मृति में रहे तो स्वत: ही सर्व शक्तियों का, प्राप्ति का अनुभव होता रहेगा। अधिकारीपन भूल जाता है? जो अधीन होता है वह सदैव मांगता रहता है, अधिकारी जो होता है वह सदैव सर्व प्राप्ति-स्वरूप रहता है। बाप के पास सर्व शक्तियों का खज़ाना किसके लिए है? तो जो जिन्हों की चीज़ है वह प्राप्त न करें? यही नशा सदैव रहे कि सर्व शक्तियां तो हमारा जन्म-सिद्ध-अधिकार है। तो अधिकारी बनकर के चलो। ऐसा सदैव बुद्धि में श्रेष्ठ संकल्प रहना चाहिए। अगर संकल्प श्रेष्ठ है तो वचन और कर्म में भी नहीं आ सकते। इसलिए संकल्प को श्रेष्ठ बनाओ और सदैव सर्वशक्तिवान बाप के साथ बुद्धि का संग हो। ऐसे सदैव संग के रंग में रंगे हुए हो? अनुभव करते हो वा अभी जाने के बाद अनुभव करेंगे? सदैव यही समझो कि सोचना है वा बोलना है वा करना है तो कमाल का, कामन नहीं। अगर कामन अर्थात् साधारण संकल्प किये तो प्राप्ति भी साधारण होगी। जैसे संकल्प वैसी सृष्टि बनेगी ना। अगर संकल्प ही श्रेष्ठ न होंगे तो अपनी नई सृष्टि जो रचने वाले हैं उसमें पद भी साधारण ही मिलेगा। इसलिए सदैव यह चेक करो - हमारा संकल्प जो उठा वह साधारण है वा श्रेष्ठ? साधारण संकल्प वा चलन तो सर्व आत्मायें करती रहती हैं। अगर सर्वशक्तिवान की सन्तान होने के बाद भी साधारण संकल्प वा कर्म हुए तो श्रेष्ठता वा विशेषता क्या हुई? मैं विशेष आत्मा हूँ, इस कारण हमारा सभी कुछ विशेष होना चाहिए। अपने परिवर्तन से आत्माओं को अपनी तरफ वा अपने बाप के तरफ आकर्षित कर सको; अपने देह के तरफ नहीं, अपनी अर्थात् आत्मा की रूहानियत तरफ। तुम्हारा परिवर्तन सृष्टि को परिवर्तन में लायेगा। सृष्टि का परिवर्तन भी श्रेष्ठ आत्माओं के परिवर्तन के लिए रूका हुआ है। परिवर्तन तो लाना है। ना कि यह साधारण जीवन ही अच्छी लगती है? यह स्मृति, वृति और दृष्टि अलौकिक हो जाती है तो इस लोक का कोई भी व्यक्ति वा कोई भी वस्तु आकर्षित नहीं कर सकती। अगर आकर्षित करती है तो समझना चाहिए कि स्मृति में वा वृत्ति में वा दृष्टि में अलौकिकता की कमी है। इस कमी को सेकेण्ड में परिवर्तन में लाना है। यह ग्रुप यही विशेषता दिखावे कि सेकेण्ड में अपने संस्कार वा संकल्प को परिवर्तन में लाकर दिखावे। ऐसी हिम्मत है? सोचने में भी जितना समय लगता है, करने में इतना समय न लगे। ऐसी हिम्मत है? यह ग्रुप है साहसी ग्रुप। तो जो साहस रखने वाले हैं उन्हों के साथ बाप सदा सहयोगी है, इसलिए कभी भी साहस को छोड़ना नहीं। हिम्मत और उल्लास सदा रहे। हिम्मत से सदा हर्षित रहेंगे। उल्लास से क्या होगा? उल्लास किसको खत्म करता है? आलस्य को। आलस्य भी विशेष विकार है। जो पुरुषार्थी पुरूषार्थ के मार्ग पर चल पड़ हैं उन्हों के सामने वर्तमान समय माया का वार इस आलस्य के रूप में भिन्न-भिन्न तरीके से आता है। तो इस आलस्य को खत्म करने के लिए सदा उल्लास में रहो। कमाई करने का जब किसको उल्लास होता है तो फिर आलस्य खत्म हो जाता है। अब भी कोई कार्य प्रति भी अपना उल्लास नहीं होता तो फिर आलस्य रूर होगा। इसलिए कभी भी उल्लास को कम नहीं करना है जो आलस्य के वश होकर और श्रेष्ठ कर्म करने से वंचित हो जाओ। आलस्य भी कई प्रकार का होता है। अपने पुरूषार्थ में आगे बढ़ने में आलस्य बहुत विघ्न रूप बन जाता है। यह जो कहने में आता है - अच्छा, सोचेंगे, यह कार्य करेंगे - कर ही लेंगे, यह आलस्य की निशानी है। करेंगे, कर ही लेंगे, हो ही जायेगा, लेकिन नहीं, करने लग पड़ना है। जो नॉलेज वा धारणायें मिली हैं वह बुद्धि में धारण तो की हैं ना। लेकिन प्रैक्टिकल में आने में जो विघ्न रूप बनता वह है स्वयं का आलस्य। अच्छा, कल से लेकर करेंगे, फलाना करे तो हम भी करेंगे, आज सोचते हैं कल से करेंगे, यह कार्य पूरा करके फिर यह करेंगे - ऐसे-ऐसे संकल्प ही आलस्य का रूप हैं। जो करना है वह अभी करना है। जितना करना है वह अभी करना है। बाकी करेंगे, सोचेंगे - इन अक्षरों में पिछाड़ी में ‘ग-ग’ आता है ना, तो यह शब्द है बचपन की निशानी। छोटा बच्चा ग-ग करता रहता है ना, यह अलबेलेपन की निशानी है। इसलिए कब भी आलस्य का रूप अपने पास आने न देना और सदा अपने को उल्लास में रखना। क्योंकि निमित्त बनते हो ना। निमित्त बने हुए सदैव पुरूषार्थ के उल्लास में रहते हैं तो उन्हें देख और भी उल्लास में रहते हैं। चलते-चलते पुरूषार्थ में थकावट आना वा चलते-चलते पुरूषार्थ साधारण रफ्तार में हो जावे, यह किसकी निशानी है? विघ्न न हो लेकिन लगन भी श्रेष्ठ न हो तो उसको भी आलस्य कहेंगे। कई ऐसे अनुभव करते हैं - विघ्न भी नहीं हैं, ठीक भी चल रहे हैं लेकिन लगन भी नहीं है अर्थात् उल्लास वा विशेष कोई उमंग नहीं है। तो यह भी निशानी आलस्य की है। आलस्य भी अनेक प्रकार का है। इस आलस्य को कभी भी आने न देना। आलस्य धीरे-धीरे पहले साधारण पुरुषार्थी बनायेगा वा समीपता से दूर करेगा; फिर दूर करते-करते धोखा भी दे देगा, कमजोर बना देगा, निर्बल बना देगा। निर्बल वा कमजोर बनने से कमियों की प्रवेशता शुरू हो जाती है। इसलिए सदैव यह चेक करना - मेरी बुद्धि की लगन बाप वा बाप के कर्त्तव्य से थोड़ी भी दूर तो नहीं है, बिल्कुल समीप वा साथ-साथ है? आजकल के जमाने में कोई किसका खून करता है वा कोई भ्रष्टाचार का कार्य करता है तो पहले उनको दूर भगाकर ले जायेगा। उनको अकेला, कमजोर बनाकर फिर उस पर वार करेगा। तो माया भी चतुर है। पहले सर्वशक्तिवान बाप से बुद्धि को दूर करती है, फिर जब कमजोर बन जाते हैं तब वार करती है। कोई भी साथ नहीं रहता है। क्या भी हो जाये - अपनी बुद्धि को कभी बाप के साथ से दूर न करना। जब किसका वार होता है तो उनसे कैसे अपने को बचाने लिए चिल्लाते हैं, घमसान करते हैं जिससे कोई दूर न ले जा सके। यहां फिर जब देखो कि माया हमारी बुद्धि की लगन को बाप से दूर करने की कोशिश करती है, तो अपने अन्दर बाप के गुण गाने हैं, महिमा करनी है। महान्! कर्त्तव्य करने लग जाओ, चिल्लाओ नहीं। भक्ति में भी गुणगान करते हैं ना। यह यादगार भी कब से बना? यह मन्सा का गुणगान करना वाचा में ला दिया है। यथार्थ रीति से गुणगान तो आप ही कर सकते हो ना। अब यथार्थ रूप में मन्सा संकल्प से, स्मृति-स्वरूप में गुणगान करते हो और भक्ति में स्थूलता में आते हैं तो मुख से गाने लग पड़ते हैं। सभी रीति- रस्म शुरू तो यहां से होती हैं ना। तो गुणगान करने लग जाओ। अपने को अधिकारी समझ सर्व शक्तियों को काम में लाओ। फिर कब भी माया आपकी बुद्धि की लगन को दूर नहीं कर सकेगी। न दूर होंगे, न कमजोर होंगे, न हार खायेंगे। फिर सदा विजयी होंगे। तो यह स्लोगन याद रखना कि हम अनेक बार के विजयी हैं, अब भी विजयी बनकर ही दिखायेंगे। जो अनेक बार के विजयी हैं वह अभी फिर हार खा सकते हैं क्या? कभी नहीं। हार खाना असम्भव अनुभव होना चाहिए। जैसे अज्ञानी आत्माओं को विजय पाना असम्भव अनुभव होता है ना। समझते हैं - विजयी बनना हो भी सकता है क्या? तो जैसे अज्ञानी के लिए विजयी बनना असम्भव है, इस प्रकार ज्ञानी आत्मा को हार खाना असम्भव अनुभव होना चाहिए। ऐसे विल-पावर अपने में भरी है? अपने को सर्व समर्पण किया? सर्व समर्पण उसको कहा जाता है जिसके संकल्प में भी बाडी-कानसेस न हो, देह-अभिमन न हो। उसको कहा जाता है सर्व समर्पण। अपने देह का भान भी अर्पण करना है। मैं फलानी हूँ - यह संकल्प भी अर्पण हो। उसको कहते हैं सर्व समर्पण, सर्व गुणों से सम्पन्न। सर्व गुणों से सम्पन्न को ही सम्पूर्ण कहा जाता है। कोई भी गुण की कमी नहीं। अभी तो वर्णन करते हो ना कि यह कमी है। इससे सिद्ध है कि सम्पूर्ण स्टेज नहीं है। तो सर्व गुण सम्पन्न हैं? तो लक्ष्य यही रखना है कि सर्व समर्पण बनकर सर्व गुण सम्पन्न बन सम्पूर्ण स्टेज को प्राप्त करेंगे ही। ऐसे पुरूषार्थियों को बाप भी वरदान देते हैं कि ‘सदा विजयी भव’। हर संकल्प में कमाल दिखाओ यही विशेषता दिखाओ - जीवन का फैसला कर आई हो ना? अपने आप से फैसला करके आई हो। कोई भी संस्कार के वश नहीं होना। जो हैं ही जगतजीत, विश्व के विजयी वह किसके भी वश हो नहीं सकते। जो स्वयं सर्व आत्माओं को नजर से निहाल करने वाली हैं,उनकी नजर और कहां भी नहीं जा सकती। ऐसे दृढ़ निश्चयबुद्धि हो? अपनी सभी कमजोरियों को भट्ठी में स्वाहा किया वा करना है? फिर ऐसे तो नहीं कहेंगी कि बाकी यह थोड़ी रह गई है? अपनी मंसा की जेब को अच्छी तरह से जांच करना - कहां कोई कोने में कुछ रहा तो नहीं? वा जानबूझ कर जेब खर्च रखा है? यह अच्छी तरह से देखना। उम्मीदवार ग्रुप हो वा इससे भी ऊपर? इससे ऊपर क्या होता है? उम्मीदवार भी हैं और विजयी भी हैं। तो यह अनेक बार का विजयी ग्रुप है। विजयी हैं ही। उम्मीद की बात नहीं। ऐसे विजयी ही विजय-माला के मणके बनते हैं। उम्मीद नहीं लेकिन 100% निश्चय है कि हम विजयी हैं ही। देखना, माया कम नहीं है। माया की छम-छम, रिमझिम कम नहीं। माया भी बड़ी रौनकदार है। सभी तरफ से, सभी रूप से माया की नॉलेज को भी समझ गये हो कि माया क्या चीज़ होती है और किस रूप से, किस रीति से आती है? इसकी भी पूरी नॉलेज ली है? ऐसे तो नहीं कहेंगे कि इस बात की तो हमें नॉलेज नहीं थी? ऐसे अनजान बनकर अपने को छुड़ाना नहीं। कई कहते हैं हमको तो पता नहीं था कि ऐसे भी कोई होता है, क्या-क्या करते रहते हैं! अनजान होने कारण भी धोखे में आ जाते। लेकिन जब मास्टर नॉलेजफुल हो तो अनजानपना नहीं रह सकता। यह जो शब्द निकलता है कि मुझे इस बात का ज्ञान नहीं था; यह भी कमजोरी है। ज्ञानी अर्थात् ज्ञानी। कोई भी बात का अज्ञान रहा तो ज्ञानी कहेंगे क्या? ज्ञान-स्वरूप को कोई भी बात का अज्ञान न रहेगा। जो योगयुक्त होंगे उनको न अनुभव होते भी ऐसा ही अनुभव होगा जैसे कि पहले से सभी-कुछ जानते हैं। त्रिकालदर्शा फिर अनजान कैसे हो सकते हैं! तो मास्टर नॉलेजफुल भी बने और विजयी भी बने; तो हार असम्भव ही अनुभव होगी ना। अब देखेंगे - यह ग्रुप कैसी झलक दिखाता है? आपकी झलक से सभी को बाप की झलक दिखाई दे। बेचारी आत्मायें तड़पती हैं, बाप की जरा झलक दिखाई दे तो सर्व प्राप्ति हो। तो अब बाप की झलक अपनी झलक से दिखाओ। समझा? तो यह विजयी ग्रुप है। उल्लास से आलस्य को भगाने वाले हो। अभी प्रैक्टिकल देखेंगे। प्रैक्टिस को प्रैक्टिकल में कहां तक लाती हो, यह भी मालूम पड़ जायेगा। यह कमाल दिखाओ। जो जिस-जिस भी स्थान पर जाओ, जिस साथी के साथ सर्विस में मददगार बनो उनके तरफ से कमाल के सिवाय और कोई बात ही न आये। एक-एक लाईन में कमाल लिखें, तब कहेंगे विजयी ग्रुप है। बाप समान बनकर दिखाओ। ऐसे कमाल कर दिखाओ जो बड़े भी बाप के गुणगान करें कि सचमुच यह ग्रुप निर्विघ्न, सदा बाप की लगन में मगन रहने वाला है। एक के सिवाय और कुछ सूझता ही नहीं। चाहे एक बाप की लगन, चाहे बाप के कर्त्तव्य की लगन - इसके सिवाय और कुछ सूझेगा ही नहीं। संसार में और कोई वस्तु या व्यक्ति है भी -- यह अनुभव ही न हो। ऐसी एक लगन, एक भरोसे में, एकरस अवस्था में, चढ़ती कला में रहने वाले बनकर दिखाओ, तब कहेंगे कमाल। ‘क्यों’ को तो एकदम भस्म करके जाना, इतने तक जो कोई कारण सामने बने तो उस कारण को भी परिवर्तन कर निवारण रूप बना दो। फिर यह नहीं कहना कि यह कारण था। कितने भी कारण हों - मैं निवारण करने वाली हूँ; न कि कारण को देख कमजोर बनना है। कारण को निवारण में परिवर्तन करने वाले ग्रुप हो। इसको विजयी कहा जाता। ऐसे श्रेष्ठ लक्षणधारी भविष्य में लक्ष्मी रूप बनते हैं। लक्ष्मी अर्थात् लक्षण वाली। तो अभी भी चेहरे में,चलन में वह चमक दिखाई देनी चाहिए। ऐसे नहीं कि अभी तो यहां सीख रहे हैं, वहां जाकर दिखायेंगी। जब यहां अपना सबूत देकर जायेंगी तब वहां भी सबूत दे सकेंगी। समझा? अभी तुम सभी हो ही सेवाधारी। सेवाधारी कब भी सुहेजों के संकल्प में नहीं आते। सर्व सम्बन्धों से सर्व अनुभव करना, वह दूसरी बात है लेकिन सदा स्मृति में अपना सेवाधारी स्वरूप रखना है। सुहेजों में लगेंगे तो सेवा भूल जायेगी। सेवाधारी हूँ, विश्व-परिवर्तन करने वाली पतित-पावनी हूँ, - यह अपना स्वरूप स्मृति में रखो। पतित-पावनी के ऊपर कोई पतित आत्मा की नर की परछाई भी नहीं पड़ सकती। पतित-पावनी के सामने आने से ही पतित बदलकर पावन बन जावे, इतनी पावर चाहिए। पतित आत्माओं के पतित संकल्प भी न चल सकें, ऐसी अपनी ब्रेक पावरफुल होनी चाहिए। जब उसका ही पतित संकल्प नहीं चल सकता तो पतित-पन का प्रभाव कैसे पड़ सकता? यह भी नहीं सोचना - मैं तो पावन हूँ लेकिन इस पतित आत्मा का प्रभाव पड़ गया। यह भी कमजोरी है। प्रभाव पड़ने का अर्थ ही है प्रभावशाली नहीं हो, तब उनका प्रभाव आपको प्रभावित करता है। पतित- पावनी पतित संकल्पों के भी प्रभाव में नहीं आ सकती। पतित-पावनी के स्वप्न में भी पतितपन के संकल्प वा सीन नहीं आ सकती। अगर स्वप्न में भी पतितपन के दृश्य आते हैं तो समझना चाहिए कि पतित संस्कारों के प्रभाव का असर है। उसको भी हल्का नहीं छोड़ना चाहिए। स्वप्न में भी क्यों आये? इतनी कड़ी दृष्टि, कड़ी वृत्ति, कड़ी स्मृति स्वरूप बनना चाहिए। पतित आत्मा मुझ शस्त्रधारी शक्ति के आगे एक सेकेण्ड में भस्म हो जाए। कोई व्यक्ति भस्म नहीं होगा लेकिन उनके पतित संस्कार नाश हो जायेंगे। आसुरी संस्कारों को नाश करने की आवश्यकता है। मैं पतित-पावनी, आसुरी-पतित संस्कार संहारी हूँ। जो स्वयं संहारी हैं वह कब किसका शिकार नहीं बन सकते। इतना प्रैक्टिकल प्रभाव होना चाहिए जो कोई भी आपके सामने संकल्प करे और उनका संकल्प मूर्छित हो जाए। ऐसा काली रूप बनना है। एक सेकेण्ड में पतित संकल्प की बलि ले लेवें। ऐसी भलेवान बनी हो जो कोई की परछाई भी न पड़ सके? कोमल नहीं बनना है। कोमल जो होते हैं वह निर्बल होते हैं। शक्तियां कोमल नहीं होतीं। माया पर तरस कभी नहीं करना। तुम माया का तिरस्कार करने वाली हो। जितना माया का तिरस्कार करेंगी उतना भक्तों द्वारा या दैवी परिवार द्वारा सत्कार प्राप्त करेंगी। माया पर रोब दिखाना है, न कि रहम। कोई के पुरूषार्थ में मददगार बनने में तरस करना है, माया से नहीं। अच्छा!



12-03-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


सफ़लता का आधार - संग्रह और संग्राम करने की शक्ति

पने को सदा सफलतामूर्त समझते हो? वा सहज ही सफलता प्राप्त होते हुए अनुभव करते हो? सदा और सहज ही सफलतामूर्त बनने के लिये मुख्य दो शक्तियों की आवश्यकता है। जिन दो शक्तियों के आधार से सदा और सहज ही सफलतामूर्त बन सकते हैं, वह दो शक्तियाँ कौनसी? निश्चयबुद्धि तो हो ही चुके हो ना। अब सफलता के पुरूषार्थ में मुख्य कौनसी शक्तियाँ चाहिए? एक -- संग्राम करने की शक्ति, दूसरी -- संग्रह करने की शक्ति। संग्रह में लोक-संग्रह भी आ जाता है। सभी प्रकार का संग्रह। तो एक संग्राम, दूसरा संग्रह - यह दोनों शक्तियाँ हैं तो असफल हो न सके। कोई भी कार्य में वा अपने पुरूषार्थ में असफ़लता का कारण क्या होता है? वा तो संग्रह करना नहीं आता वा संग्राम करना नहीं आता। अगर यह दोनों शक्तियाँ आ जायें तो सदा और सहज ही सफ़लता मिल जाती है। इसलिए इन दोनों शक्तियों को अपने में भरने का पुरूषार्थ करना चाहिए। कोई भी कार्य सामने आता है तो कार्य करने के पहले अपने आप को चेक करो कि दोनों शक्तियाँ स्मृति में हैं? भले शक्तियां हैं भी लेकिन कर्त्तव्य के समय शक्तियों को यूज नहीं करते हो, इसलिये सफलता नहीं होती। करने के बाद सोचते हो-ऐसे करते थे तो यह होता था। इसका कारण क्या है? समय पर शक्ति यूज करने नहीं आती है। शस्त्र कितने भी अच्छे हों, शक्तियाँ कितनी भी हो, लेकिन जिस समय जो शस्त्र वा शक्ति कार्य में लानी चाहिए वह कार्य में नहीं लाते तो सफलता नहीं होती। इस कारण कोई भी कार्य शुरू करने के पहले अपने को चेक करो। जैसे फोटो निकालते हो, फोटो निकलने से पहले तैयारी होती है ना। फोटो निकला और सदा का यादगार बना। चाहे कैसा भी हो। इसी रीति यह भी बेहद की कैमरा है, जिसमें एक एक सेकेण्ड के फोटो निकलते रहते हैं। फोटो निकल जाने बाद अगर अपने आपको ठीक करें तो वह व्यर्थ है ना। इसी प्रमाण पहले अपने आप को शक्ति-स्वरूप की स्टेज पर स्थित करने बाद कोई कार्य शुरू करना है। स्टेज से उतर कर अगर कोई एक्ट करे, भले कितनी भी बढ़िया एक्ट करे लेकिन देखने वाले कैसे देखेंगे। यह भी ऐसे होता है। पहले स्टेज पर स्थित हो, फिर हर एक्ट करे तब एक्यूरेट और ‘वाह वाह करने योग्य’ एक्ट हो सकेंगी। स्टेज से उतर साधारण रीति कर्त्तव्य करने शुरू कर देते हैं, पीछे सोचते हैं। परन्तु वह स्टेज तो रही नहीं ना। समय बीत गया। फोटो तो निकल गया। इसलिये यह दोनों ही शक्तियां सदैव हर कार्य में होनी चाहिए। कभी संग्राम करने का जोश आता है, संग्रह भूल जाते हैं। कब संग्रह करने का सोचते हैं तो फिर संग्राम भूल जाते हैं। दोनों ही साथ-साथ हां। सर्व शक्तियों के प्रयोग से रिजल्ट क्या होगी? सफ़लता। उनका संकल्प, कहना, करना तीनों ही एक होगा। इसको कहा जाता है मास्टर सर्वशक्तिवान। ऐसे नहीं संकल्प बहुत ऊंच हों, प्लैन्स बनाते रहें, मुख से वर्णन भी करते रहें, लेकिन करने समय कर न पावे। तो मास्टर सर्वशक्तिवान हुआ? मास्टर सर्वशक्तिवान का मुख्य लक्षण ही है उनका संकल्प, कहना और करना तीनों एक होगा। अभी समय-प्रति-समय यह शब्द निकलते हैं - सोचा तो था लेकिन कर न पाया। प्लैन और प्रैक्टिकल में अन्तर दिखाई देता है। लेकिन मास्टर सर्वशक्तिवान वा सदा सफलतामूर्त जो होगा उनका जो प्लैन होगा वही प्रैक्टिकल होगा। सफलतामूर्त होना तो सभी चाहते हैं ना। जब चाहना वा लक्ष्य श्रेष्ठ है तो लक्ष्य के साथ वाणी और कर्म भी श्रेष्ठ हो। लेकिन प्रैक्टिकल आने में कोई भी कमजोरी होने कारण जो प्लैन है वैसा रूप दे नहीं सकते। क्योंकि संग्राम करने की वा उन बातों में लोक-संग्रह रखने की शक्ति कम हो जाती है। जैसे पहले युद्ध के मैदान में जब सामने दुश्मन आता था तो एक हाथ में तलवार भी पकड़ते थे, साथ-साथ दूसरे हाथ में ढाल भी होती थी। तो तलवार और ढाल दोनों अपना-अपना कार्य करें, यह प्रैक्टिस चाहिए। दोनों ही साथ-साथ यूज करने का अभ्यास चाहिए।

अपने को मास्टर समझते हो? तो सभी बातों में मास्टर हो? जैसे बाप का नाम त्रिमूर्ति शिव बताते हो ना, वैसे ही आप सभी भी मास्टर त्रिमूर्ति शिव हो ना। आप के भी तीन कर्त्तव्य हैं ना, जिसके आधार पर सारा कर्त्तव्य वा सर्विस करते हो। आप के तीन रूप कौनसे हैं? एक है ब्राह्मण रूप, जिससे स्थापना का कार्य करते हो। और दूसरा शक्ति रूप, जिससे विनाश का कर्त्तव्य करते हो और जगत माता वा ज्ञान गंगा वा अपने को महादानी, वरदानी रूप समझने से पालना करते हो। वरदानी रूप में जगत् पिता का रूप आ ही जाता है। तो यह तीनों रूप सदैव स्मृति में रहें तो आपके कर्त्तव्य में भी वही गुण दिखाई देंगे। जैसे बाप को अपने तीनों रूपों की स्मृति रहती है, ऐसे चलते- फिरते अपने तीनों रूप की स्मृति रहे कि हम मास्टर त्रिमूर्ति हैं। तीनों कर्त्तव्य इकट्ठे साथ-साथ चाहिए। ऐसे नहीं-स्थापना का कर्त्तव्य करने का समय अलग है, विनाश के कर्त्तव्य का समय और आना है। नहीं। नई रचना रचते जाओ, और पुराने का विनाश करते जाओ। आसुरी संस्कार वा जो भी कमजोरी है, उनका विनाश भी साथ-साथ करते जाना है। नये संस्कार ला रहे हैं, पुराने संस्कार खत्म कर रहे हैं। कइयों में रचना रचने का गुण होता है लेकिन शक्ति रूप विनाश कार्य रूप न होने कारण सफ़लता नहीं हो पाती। इसलिये दोनों साथ-साथ चाहिए। यह प्रैक्टिस तब हो सकेगी जब एक सेकेण्ड में देही- अभिमानी बनने का अभ्यास होगा। ऐसे अभ्यासी सब कार्य में सफल होते हैं। अपने को महादानी वा वरदानी, जगत् माता वा जगत्-पिता वा पतित-पावनी के रूप में स्थित होकर किसी भी आत्मा को अगर आप दृष्टि देंगी तो दृष्टि से भी उनको वरदान की प्राप्ति करा सकती हो। वृति से भी प्राप्ति करा सकती हो अर्थात् पालना कर सकती हो। लेकिन इस रूप की सदा स्मृति रहे। ब्राह्मण कथा वा ज्ञान सुना कर स्थापना तो बहुत जल्दी कर लेते हो, लेकिन विनाश और पालना का जो कर्त्तव्य है उसमें और अटेन्शन चाहिए। पालना करने के समय कल्याणकारी भावना वा वृति रख कर कोई भी आत्मा की पालना करो तो कैसी भी अपकारी आत्मा पर अपनी पालना से उनको उपकारी बना सकते हो। कैसी भी पतित आत्मा, पतित-पावन के वृति से पावन हो सकते हैं। अगर उनका पतितपना देखेंगे तो नहीं हो सकेगा। जैसे माँ कब बच्चे की कमजोरियों को वा कमियों को नहीं देखती है, उनको ठीक करने का ही रहता है। तो यह पालना करने का कर्त्तव्य इस रूप में सदा स्थित रहने से यथार्थ चल सकता है। जैसे माँ में दो विशेष शक्तियाँ सहन करनी की और समाने की होती हैं। वैसे ही हर आत्मा की पालना करने समय भी यह दोनों शक्तियाँ यूज करें तो सफलता रूर हो। लेकिन अपने को जगत्-माता वा जगत्-पिता के रूप में स्थित रह करेंगे तो। अगर भाई बहन का रूप देखेंगे तो उसमें संकल्प आ सकता है। लेकिन मॉं-बाप के समान समझो। मॉं-बाप बच्चे का कितना सहन करते हैं, अन्दर समाते हैं तब उनकी पालना कर उसको योग्य बना सकते हैं। तो सदैव हर कर्त्तव्य करते समय अपने यह तीनों रूप भी स्मृति में रखने चाहिए। जैसी स्मृति, वैसा स्वरूप और जैसा स्वरूप वैसी सफलता। तीनों रूप की स्मृति से स्वत: ही समर्थी आ जाती है। यह भी पॉजीशन है ना। तो पॉजीशन में ठहरने से शक्ति वा समर्थी आ जाती है। बाप का नाम याद आवे तो अपने को मास्टर रूर समझो। नाम तो सभी को याद कराते हो। कितनी बार बाप का नाम मन से वा मुख से उच्चारण करते होंगे। तो बाप के नाम जैसा मैं भी मास्टर त्रिमूर्ति शिव हूँ-यह स्मृति में रहे तो सफ़लता होगी। तो सदा सफलतामूर्त बनो। अभी असफलता पाने का समय नहीं। अगर 10 बार सफलता हुई, एक बार भी असफल हुये तो उसको असफलता कहेंगे। तो कर्त्तव्य और स्वरूप दोनों साथ-साथ स्मृति में रहें तो फिर कमाल हो। नहीं तो होता क्या है -- मेहनत जास्ती हो जाती है, प्राप्ति बहुत कम होती है। और प्राप्ति कम कारण ही कमजोरी आती है, उत्साह कम होता है, हिम्मत-उल्लास कम हो जाता है। कारण अपना ही है। अपने पाँव पर स्वयं कटारी चलाते हैं। इसलिए जबकि अपने आप ज़िम्मेवार हैं, तो सदैव अटेन्शन रहना चाहिए। तो आज से बीती को बीती कर के, स्मृति से अपने में समर्थी लाकर सदा सफ़लतामूर्त बनो। फिर जो यह अन्तर होता है - आज उमंग-उल्लास बहुत है, कल फिर कम हो जाता है; यह अन्तर भी खत्म हो जावेगा। सदा उमंग- उल्लास और सदा अपने में प्राप्ति का अनुभव करेंगे। माया को, प्रकृति को दासी बनाना है। सतयुग में प्रकृति को दासी बनाते हैं तो उदासी नहीं आती है। उदासी का कारण है प्रकृति का, माया का दास बनना। अगर उनके दास बने ही नहीं तो उदासी आ सकती है? तो कब भी माया के दास वा दासी न बनना। यहाँ जास्ती माया वा प्रकृति का दास बनेंगे तो उनको वहाँ भी दास- दासी बनना पड़ेगा। क्योंकि संस्कार ही दास- दासी का हो गया। यहाँ दास भी रहा, उदास भी रहा और वहाँ भी दास बनना- फायदा क्या। इसलिये चेक करना है -- उदासी आई तो रूर कहाँ माया का दास बना हूँ। बिगर दासी बने उदास नहीं हो सकते। तो पहले चाहिए परख, फिर परिवर्तन की भी शक्ति चाहिए। तो कब भी असफलतामूर्त न बनना। वह बनेंगे आपके पिछली प्रजा और भक्त। अगर विश्व का राज्य चलाने वाले भी असफ़ल रहे तो सफलतामूर्त बाकी कौन बनेंगे। अच्छा!

दिन-प्रतिदिन अपने में परिवर्तन लाना है। कोई के भी स्वभाव, संस्कार देखते हुये, जानते हुये उस तरफ बुद्धि-योग न जाये। और ही उस आत्मा के प्रति शुभ भावना हो। एक तरफ से सुना, दूसरे तरफ से निकाल दिया। उसको बुद्धि में स्थान नहीं देना है। तब ही एक तरफ बुद्धि स्थित हो सकती है। कमजोर आत्मा की कमजोरी को न देखो। यह स्मृति में रहे कि वैराइटी आत्माएं हैं। आत्मिक दृष्टि रहे। आत्मा के रूप में उनको स्मृति में लाने से पावर दे सकेंगे। आत्मा बोल रही है। आत्मा के यह संस्कार हैं। यह पाठ पक्का करना है। ‘आत्मा’ शब्द स्मृति में आने से ही रूहानियत-शुभ भावना आ जाती है, पवित्र दृष्टि हो जाती है। चाहे भले कोई गाली भी दे रहा है लेकिन यह स्मृति रहे कि यह आत्मा तमोगुणी पार्ट बजा रही है। अपने आप का स्वयं टीचर बन ऐसी प्रैक्टिस करनी है। यह पाठ पक्का करने लिये दूसरों से मदद नहीं मिल सकती। अपने पुरूषार्थ की ही मदद है। अच्छा!



15-03-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


त्याग और भाग्य

पने को त्याग-तपस्वीमूर्त समझते हो? सबसे बड़े ते बड़ा मेहनत का त्याग कौन-सा है? (देह-अभिमान) ज्ञान का अभिमान वा बुद्धि का अभिमान भी क्यों आता है? पुराने संस्कारों का त्याग भी क्यों नहीं होता है? उसका मुख्य कारण देह-अभिमान है। देह-अभिमान को छोड़ना बड़े ते बड़ा त्याग है, जो हर सेकेण्ड अपने आपको चेक करना पड़ता है। और जो स्थूल त्याग है वह कोई एक बार त्याग करने के बाद किनारा कर लेते हैं। लेकिन यह जो देह-अभिमान का त्याग है वह हर सेकेण्ड देह का आधार लेते रहना है लेकिन यहॉं सिर्फ रहते हुए न्यारा बनना है। इसी कारण हर सेकेण्ड देह के साथ आत्मा का गहरा सम्बन्ध होने कारण देह का अभिमान भी बहुत गहरा हो गया है। अब इसको मिटाने के लिए मेहनत लगती है। अपने आप से पूछो कि सब प्रकार का त्याग किया है? क्योंकि जितना त्याग करेंगे उतना ही भाग्य प्राप्त करेंगे - वर्तमान समय में वा भविष्य में भी। ऐसे नहीं समझना कि संगमयुग में सिर्फ त्याग करना है और भविष्य में भाग्य लेना है। ऐसे नहीं है। जो जितना त्याग करता है और जिस घड़ी त्याग करता है, उसी घड़ी जितना त्याग उनके रिटर्न में उनको भाग्य रूर प्राप्त होता है। संगमयुग में त्याग वा प्रत्यक्षरूप में भाग्य क्या मिलता है, यह जानते हो? अभी-अभी भाग्य क्या मिलता है? सतयुग में तो मिलेगा जीवन-मुक्ति पद, अब क्या मिलता है? आपको अपने त्याग का भाग्य मिलता है? संगमयुग में त्याग का भाग्य बड़े ते बड़ा यही मिलता है कि स्वयं भाग्य बनाने वाला अपना बन जाता है। यह सबसे बड़ा भाग्य हुआ ना! यह सिर्फ संगमयुग पर ही प्राप्त होता है जो स्वयं भगवान अपना बन जाता है। अगर त्याग नहीं तो बाप भी अपना नहीं। देह का भान है तो क्या बाप याद है? बाप के समीप सम्बन्ध का अनुभव होता है जब देहभान का त्याग करते हो तो। देहभान का त्याग करने से ही देही-अभिमानी बनने से पहली प्राप्ति क्या होती है? यही ना कि निरन्तर बाप की स्मृति में रहते हो अर्थात् हर सेकेण्ड के त्याग से हर सेकेण्ड के लिए बाप के सर्व सम्बन्ध का, सर्व शक्तियों का अपने साथ अनुभव करते हो। तो यह सबसे बड़ा भाग्य नहीं? यह भविष्य में नहीं मिलेगा। इसलिए कहा जाता है - यह सहज ज्ञान और सहज राजयोग भविष्य फल नहीं लेकिन प्रत्यक्षफल देने वाला है। भविष्य तो वर्तमान के साथ-साथ बांधा हुआ ही है लेकिन सर्वश्रेष्ठ भाग्य सारे कल्प के अन्दर और कहां नहीं प्राप्त करते हो। इस समय ही त्याग और तपस्या से बाप का हर सेकेण्ड का अनुभव करते हो अर्थात् बाप को सर्व सम्बन्धों से अपना बना लेते हो। पुकार यह नहीं करते थे। पुकारते तो कुछ और थे लेकिन प्राप्ति क्या हो गई? जो न संकल्प, न स्वप्न में था वह प्राप्ति हो रही है ना। तो जो न संकल्प, न स्वप्न में बात हो वह प्राप्त हो जाए - इसको कहा जाता है भाग्य। जो चीज़ मेहनत से प्राप्त होती है उसको भाग्य नहीं कहा जाता है। स्वत: ही मिलने का असम्भव से सम्भव हो जाता है, न उम्मीदवार से उम्मीदवार हो जाते हैं, इसलिए इसको कहा जाता है भाग्य। यह भाग्य नहीं मिला? पुकारते तो कुछ और थे -- कि हमको सिर्फ अपना कुछ- न-कुछ बना लो। इतना ऊंच बनना नहीं चाहते थे लेकिन मिला क्या? स्वयं तो बन गये लेकिन बाप को भी सब-कुछ बना लिया। तो यह भाग्य नहीं? संगमयुग का श्रेष्ठ भाग्य इसी त्याग से मिलता है। सदैव यह सोचो कि अगर देहभान का त्याग नहीं करेंगे अर्थात् देही अभिमानी नहीं बनेंगे तो भाग्य भी अपना नहीं बना सकेंगे अर्थात् संगमयुग का जो श्रेष्ठ भाग्य है उनसे वंचित रहेंगे। अगर मानो सारे दिन में कुछ समय देह-अभिमान का त्याग रहता है और कुछ समय नीचे रहते हैं अर्थात् देह के भान का त्याग नहीं, तो उतना ही संगमयुग में श्रेष्ठ भाग्य से वंचित होते हैं। भाग्य बनाने वाला बाप जब हर सेकेण्ड भाग्य बनाने की विधि सुना रहे हैं तो क्या करना चाहिए? उसी विधि से सर्व सिद्धियों को प्राप्त करना चाहिए। विधि को न अपनाने कारण क्या रिजल्ट होती है? न अवस्था की वृद्धि होती है और न सर्व प्राप्तियों की सिद्धि होती है। तो क्या करना चाहिए? विधाता द्वारा मिली हुई विधियों को सदा अपनाना चाहिए जिससे वृद्धि भी होगी और सिद्धि भी होगी। तो चेक करो-संकल्प के रूप में व्यर्थ संकल्प का कहां तक त्याग किया है? वृत्ति सदा भाई-भाई की रहनी चाहिए; उस वृति को कहां तक अपनाया है और देह में देहधारीपन की वृति का कहां तक त्याग किया है? समझते हो मैसूर वाले? आज तो खास इन्हों से मिलने आये हैं ना क्योंकि इतने दूर से, मेहनत से, स्नेह से आये हैं, तो बाप को भी दूरदेश से आना ही पड़ा है। तो खुशी होती है ना। आज खास दूरदेश से आने वालों के लिए दूरदेश से बाप भी आये हैं। तो जिससे स्नेह होता है, तो स्नेही के स्नेह में त्याग कोई बड़ी बात नहीं होती है। विकारों के स्नेह में आकर अपनी सुध-बुद्ध का भी त्याग तो अपने शरीर का भी त्याग किया। बच्चों के स्नेह में माँ तन का भी त्याग करती है ना। जब देहधारी के सम्बन्ध के स्नेह में अपना ताज, तख्त और अपना असली स्वरूप सब छोड़ दिया ना, तो जब अभी बाप के स्नेही बने हो तो क्या यह देह-अभिमान का त्याग नहीं कर सकते हो? मुश्किल है? सोचना चाहिए कि अल्पकाल के सम्बन्ध में इतनी शक्ति थी जो ऊपर से नीचे ला दिया। ऊपर से नीचे इसीलिए आये हो ना। और अब बाप जब कहते हैं और बाप से सर्व सम्बन्ध जोड़े हैं, तो क्या बाप के स्नेह में यह उलटा देह-अभिमान का त्याग कोई बड़ी बात है? छोटी बात है ना! फिर भी क्यों नहीं कर पाते हो? यह तो एक सेकेण्ड में कर देना चाहिए। बच्चा अगर एक मास बीमार होता है तो मां का जो अल्पकाल का सम्बन्ध है, देह का सम्बन्ध है, फिर भी मां एक मास के लिए सब-कुछ त्याग कर देती है। देह की स्मृति, सुख त्याग करने में देरी नहीं करती। मुश्किल भी नहीं समझती है। तो यहां क्या करना चाहिए? यहां तो सदाकाल का सम्बन्ध और सर्व सम्बन्ध है, सर्व प्राप्ति का सम्बन्ध हैं, तो यहॉं एक सेकेण्ड भी त्याग करने में देरी नहीं करनी चाहिए। लेकिन कितने वर्ष लगाया है? देह का भान त्याग करने में कितना वर्ष लगाया है? कितने वर्ष हो गये? (36) लगना चाहिए एक सेकेण्ड और लगाया है 36 वर्ष (आधा कल्प का अभ्यास पड़ा हुआ है) और वह जो आधाकल्प देहभान से और विकारों से न्यारे थे वह आधा कल्प का अभ्यास एक सेकेण्ड में भूल गया? इसमें टाइम लगा क्या? (त्रेता में भी दो कला कम हो जाती हैं) फिर भी विकारों से परे तो रहते हो ना। सतयुग, त्रेता में निर्विकारी तो थे ना। दो कला कम होने के बाद भी त्रेता में निर्विकारी तो कहेंगे ना। विकारों के आकर्षण से परे थे ना। यह भी आधा कल्प के संस्कार हो गये, तो वह क्यों नहीं स्मृति में जल्दी आते हैं? आत्मा का असली रूप भी क्या है? आप आत्मा के निजी असली संस्कार वा गुण कौनसे हैं? वही हैं ना जो बाप में हैं। जो बाप के गुण हैं - ज्ञान का सागर, सुख का सागर, शान्ति का सागर; वह सागर है पर आप स्वरूप तो हो। तो जो आत्मा के निजी गुण हैं, शान्ति-स्वरूप तो हो ना। यह तो संग के रंग में परिवर्तन में आये हो, लेकिन वास्तविक जो आत्मा के स्वरूप का गुण है वह तो बाप के समान हैं ना। वह भी क्यों नहीं जल्दी स्मृति में आना चाहिए? ऐसे-ऐसे अपने से बातें करो। समझा? ऐसे-ऐसे अपने से बातें करते- करते अर्थात् रूह-रूहान करते-करते रूहानियत में स्थित हो जायेंगे। यह अभी नहीं सोचो कि द्वापर के यह पुराने संस्कार हैं, इसलिए यह हो गया। यह नहीं सोचो। इसके बजाय यह सोचो कि मुझ आत्मा के आदि संस्कार और अनादि संस्कार कौनसे हैं! सृष्टि के आदि में जब आत्माएं आईं तो क्या संस्कार थे? दैवी संस्कार थे ना। तो यह सोचो - आदि में आत्मा के संस्कार और गुण कौन-से थे! मध्य को नहीं सोचो। अनादि और आदि संस्कारों को सोचो तो क्या होगा कि मध्य के संस्कार बीच-बीच में जो प्रज्वलित होते हैं वह मध्यम हो जायेंगे। मध्यम ढीले को कहा जाता है। कहते हैं ना - इसकी चाल मध्यम है। तो मध्य के संस्कार मध्यम हो जायेंगे और जो अनादि और आदि संस्कार हैं वह प्रत्यक्ष रूप में दिखाई देंगे। समझा? सदैव अनादि और आदि को ही सोचो। जैसे संकल्प करेंगे वैसे ही स्मृति रहेगी और जैसी स्मृति रहेगी वैसी समर्थी हर कर्म में आयेगी। इसलिए स्मृति को सदैव श्रेष्ठ रखो। तो अब क्या करेंगे? हर सेकेण्ड के त्याग से हर सेकेण्ड की प्राप्ति करते चलो। क्योंकि यही संगमयुग है जो भाग्य प्राप्त करने का है। अभी जो भाग्य बनाया वह सारे कल्प में भोगना पड़ता है - चाहे श्रेष्ठ, चाहे नीच। लेकिन यह संगमयुग ही है जिसमें भाग्य बना सकते हो। जितना चाहो उतना बना सकते हो क्योंकि भाग्य बनाने वाला बाप साथ है। फिर यह बाप साथ नहीं रहेगा, न यह प्राप्ति रहेगी। प्राप्ति कराने वाला भी अब है और प्राप्ति भी अब होनी है। अब नहीं तो कब नहीं - यह स्लोगन स्मृति में रखो। स्लोगन लिखे हुए तो रहते हैं ना। यह समझते हो कि यह स्लोगन हमारे लिए हैं? अगर सदैव यह स्मृति में रहे -- कि अब नहीं तो कब नहीं तो फिर क्या करेंगे? सदैव सोचेंगे - जो करना है तो अब कर लें। तो सदा यह स्लोगन स्मृति में रखो। अपनी स्थिति को सदा त्याग और सदा भाग्यशाली बनाने के लिए चेकिंग तो करनी है लेकिन चेकिंग में भी मुख्य चेकिंग कौनसी करनी है जिस चेकिंग करने से आटोमेटिकली चेंज आ जाए? क्या चेकिंग करनी है उसके लिए एक स्लोगन है, वह स्लोगन कौनसा है? जो बहुत बार सुनाया है - ‘‘कम खर्च बाला नशीन’’। अब कम खर्च बाला नशीन कैसे बनना है?

वो लोग तो स्थूल धन में ‘‘कम खर्च बाला नशीन’’ बनने का प्रयत्न करते हैं। लेकिन आप लोगों के लिए संगमयुग में कितने प्रकार के खज़ाने हैं, मालूम है? समय, संकल्प, श्वास तो है ही खज़ाना लेकिन उसके साथ अविनाशी ज्ञान-रत्न का खज़ाना भी है और पांचवा स्थूल खज़ाने से भी इसका सम्बन्ध है। तो यह चेक करो-संकल्प के खज़ाने में भी ‘‘कम खर्च बाला नशीन’’ बने हैं? ज्यादा खर्च नहीं करो। अपने संकल्प के खज़ाने को व्यर्थ न गंवाओ तो समर्थ और श्रेष्ठ संकल्प होगा। श्रेष्ठ संकल्प से प्राप्ति भी श्रेष्ठ होगी ना। ऐसे ही जो समय का खज़ाना है संगमयुग का, इस संगमयुग के समय को अगर व्यर्थ न खर्च करो तो क्या होगा? एक-एक सेकेण्ड में अनेक जन्मों की कमाई का साधन कर सकेंगे। इसलिए यह समय व्यर्थ नहीं गंवाना है। ऐसे ही जो श्वॉस अर्थात् हर श्वॉस में बाप की स्मृति रहे, अगर एक भी श्वॉस में बाप की याद नहीं तो समझो व्यर्थ गया। तो श्वॉस को भी व्यर्थ नहीं गंवाना। ऐसे ही ज्ञान का खज़ाना जो है उसमें भी अगर खज़ाने को सम्भालने नहीं आता, मिला और खत्म कर दिया तो व्यर्थ चला गया। मनन नहीं किया ना। मनन के बाद उस खज़ाने से जो खुशी प्राप्त होती है, उस खुशी में स्थित रहने का अभ्यास नहीं किया तो व्यर्थ चला गया ना। जैसे भोजन किया, हजम करने की शक्ति नहीं तो व्यर्थ जाता है ना। इसी प्रकार यह ज्ञान के खज़ाने आपके प्रति वा दूसरी आत्माओं को दान देने के प्रति न लगाया तो व्यर्थ गया ना। ऐसे ही यह स्थूल धन भी अगर ईश्वरीय कार्य में, हर आत्मा के कल्याण के कार्य में वा अपनी उन्नति के कार्य में न लगाकर अन्य कोई स्थूल कार्य में लगाया तो व्यर्थ लगाया ना। क्योंकि अगर ईश्वरीय कार्य में लगाते हो तो यह स्थूल धन एक का लाख गुणा बनकर प्राप्त होता है और अगर एक व्यर्थ गंवा दिया तो एक व्यर्थ नहीं गंवाया लेकिन लाख व्यर्थ गंवाया। इसी प्रकार जो संगमयुग का सर्व खज़ाना है उस सर्व खज़ाने को चेक करो कि कोई भी खज़ाना व्यर्थ तो नहीं जाता है? तो ऐसे ‘‘कम खर्च बाला नशीन’’ बने हो या अब तक अलबेले होने के कारण व्यर्थ गंवा देते हो? जो अलबेले होते हैं वह व्यर्थ गंवाते हैं और जो समझदार होते हैं, नॉलेजफुल होते हैं, सेन्सीभले होते हैं वह एक छोटी चीज़ भी व्यर्थ नहीं गंवाते। ऐसे के लिए ही कहा जाता है ‘‘कम खर्च बाला नशीन’’। ऐसे हो? जैसे साकार बाप ने ‘‘कम खर्च बाला नशीन’’ बनकर के दिखाया ना। तो क्या फालो फादर नहीं करना है? कोई भी स्थूल धन, अगर स्थूल धन नहीं है तो जो यज्ञ-निवासी हैं उनके लिए यह यज्ञ की हर वस्तु ही स्थूल धन के समान है। अगर यज्ञ की कोई भी वस्तु व्यर्थ गंवाते हैं तो भी ‘‘कम खर्च बाला-नशीन’’ नहीं कहेंगे। जो प्रवृत्ति में रहने वाले हैं, स्थूल धन से अपना पद ऊंच बना सकते हैं, वैसे ही यज्ञ-निवासी भी अगर यज्ञ की स्थूल वस्तु ‘‘कम खर्च बाला-नशीन’’ बनकर यूज करते हैं, अपने प्रति वा दूसरों के प्रति, उनका भी इस हिसाब से भविष्य बहुत ऊंच बनता है। ऐसे नहीं कि स्थूल धन तो प्रवृत्ति वालों के लिए साधन है लेकिन यज्ञ- निवासियों के यज्ञ की सेवा भी, यज्ञ की वस्तु की एकानामी रूपी धन स्थूल धन से भी ज्यादा कमाई का साधन है।

इसलिए जब यज्ञ की एक भी चीज़ यथार्थ रूप से लगाते हो वा सम्भाल करते हो, व्यर्थ से बचाव करते हो तो समर्थी आती है भविष्य प्राप्ति के लिए। व्यर्थ से बचाव किया, अपना भविष्य बनाने की तो प्राप्ति हुई ना। इसलिए हरेक को अपने आपको चेक करना है। तो अपने को ‘‘कम खर्च बाला नशीन’’ कितना बनाया है? व्यर्थ से बचो, समर्थ बनो। जहां व्यर्थ है वहां समर्थरा भी नहीं और जहां समर्थी है वहां व्यर्थ जावे - यह हो नहीं सकता। अगर खज़ाना व्यर्थ जाता है तो समर्थी नहीं आ सकती है। जैसे देखो, कोई लीकेज होती है, कितना भी कोशिश करो लेकिन लीकेज कारण शक्ति भर नहीं सकती है। तो व्यर्थ भी लीकेज होने के कारण कितना भी पुरूषार्थ करेंगे, कितना भी मेहनत करेंगे लेकिन शक्तिशाली नहीं बन सकेंगे। इसलिए लीकेज को चेक करो। लीकेज को चेक करने के लिए बहुत होशियारी चाहिए। कई बार लीकेज तो मिलती नहीं है। बहुत होशियार होते हैं नॉलेजफुल होते हैं वह लीकेज को कैच कर सकते हैं। नॉलेजफुल नहीं तो लीकेज को ढूँढ़ते रहते हैं। तो अब नॉलेजफुल बन चेक करो तो व्यर्थ से समर्थ हो जायेंगे। समझा? अच्छा, मैसूर वाले क्या याद रखेंगे? माताएं सिर्फ याद की यात्रा में रहती हैं ना। क्योंकि भाषा तो समझ नहीं सकतीं। यह तो याद रखेंगी ना -- कम खर्च बाला नशीन। फिर भी भाग्यशाली हो। यह तो समझती हो सारे सृष्टि में हम विशेष आत्माएं हैं? अच्छा। यह समझती हो कि यहां कई बार आये हैं या समझती हो कि पहली बार ही आये हैं? कोई बन्धन नहीं है तो अपने को भाग्यशाली समझती हो या दुर्भाग्यशाली समझती हो? निर्बन्धन हो तो अपना भविष्य ऊंच बना सकती हैं। आप तो डभले भाग्यशाली हो -- एक तो बाप मिला, दूसरा भविष्य बनाने के लिए निर्बन्धन बनी हो। और ही खुशी होती है ना। ऐसे तो नहीं - पता नहीं क्या है? दु:ख तो महसूस नहीं होता? सुख अनुभव करती हो ना। अच्छा हुआ जो निर्बन्धन हो गई। ऐसे अपने को भाग्यशाली समझती हो या कभी दु:ख भी आता है? और कोई साथ होगा तो टक्कर होगा। शिव बाबा अगर साथ है तो टक्कर नहीं होगा ना। संगमयुग में लौकिक सुहाग का त्याग श्रेष्ठ भाग्य की निशानी है। आत्मा की प्रवृति में यह सम्बन्ध नहीं है। प्रवृति में सम्बन्ध में तो नहीं आती हो? अगर प्रवृति में रह आत्मा के सम्बन्ध में रहती हो तो अपना डभले भाग्य बना सकती हो। प्रवृति में रहते देह के सम्बन्ध से न्यारी रहती हो? तो प्रवृति में रहने वाले ऐसा भाग्य बना रहे हो। अच्छा।



02-04-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


महिमा योग्य कैसे बनें ?

दा उपराम अवस्था में रहने के लिए विशेष किन दो बातों की आवश्यकता है? क्योंकि वर्तमान समय उपराम अवस्था में रहने के लिए हरेक नंबरवार पुरूषार्थ कर रहा है। वह दो बातें कौनसी आवश्यक हैं जिससे सहज ही उपराम स्थिति में स्थित हो सकते हो? याद तो है लेकिन उनमें भी दो बातें कौन-सी हैं, वह सुनाओ? दो बातें दो शब्दों में सुनाओ। अभी तो सारे ज्ञान के विस्तार को सार रूप में लाना है ना। शक्तियां विस्तार को सार में सहज कर सकती हैं? अपने अनुभव से सुनाओ। उपराम अवस्था वा साक्षीपन की अवस्था बात तो एक ही है। उसके लिए दो बातें यही ध्यान में रहें-एक तो मैं आत्मा महान् आत्मा हूँ, दूसरा मैं आत्मा अब इस पुरानी सृष्टि में वा इस पुराने शरीर में मेहमान हूँ। तो महान् और मेहमान - इन दोनों स्मृति में रहने से स्वत: और सहज ही जो भी कमजोरियां वा लगाव के कारण उपराम स्थिति न रह आकर्षण में आ जाते हैं वह आकर्षण समाप्त हो उपराम हो जायेंगे। महान् समझने से जो साधारण कर्म वा साधारण संकल्प वा संस्कारों के वश चलते हैं वह सभी अपने को महान् आत्मा समझने से परिवर्तित हो जाते हैं। स्मृति महान् की होने कारण संस्कार वा संकल्प वा बोल वा कर्म सभी चेन्ज हो जाते हैं। इसलिए सदैव महान् और मेहमान समझकर चलने से वर्तमान में और भविष्य में और फिर भक्ति-मार्ग में भी महिमा योग्य बन जायेंगे। अगर मेहमान वा महान् नहीं समझते तो महिमा योग्य भी नहीं बन सकते। महिमा सिर्फ भक्ति में नहीं होती लेकिन सारा कल्प किस-न-किस रूप में महिमा योग्य बनते हो। सतयुग में जो महान् अर्थात् विश्व के महाराजन वा महारानी बनते हैं, तो प्रजा द्वारा महिमा के योग्य बनते हैं। भक्ति-मार्ग में देवी वा देवता के रूप में महिमा योग्य बनते हैं और संगमयुग में जो महान् कर्त्तव्य करके दिखलाते हैं, तो ब्राह्मण परिवार द्वारा भी और अन्य आत्माओं द्वारा भी महिमा के योग्य बनते हैं। तो सिर्फ इस समय मेहमान और महान् आत्मा समझने से सारे कल्प के लिए अपने को महिमा योग्य बना सकते हो। हर कर्म और संकल्प को चेक करो कि महान् है अथवा मेहमान बनकर के चल रहे हैं वा कार्य कर रहे हैं? तो फिर अटैचमेन्ट खत्म हो जायेगी। मेहमान सिर्फ इस सृष्टि में भी नहीं लेकिन इस शरीर रूपी मकान में भी मेहमान हो। देह के भान की जो आकर्षण होती है वा स्मृति के रूप में जो संस्कार रूके हुए हैं वह बहुत ही सहज मिट सकते हैं, जब अपने को मेहमान समझेंगे। कोई आपका मकान है, आप उसको कारणे-अकारणे बेच देते हो, बेच दिया तो फिर अपना-पन चला गया। फिर भले उसी स्थान पर रहते भी हो लेकिन मेहमान समझकर रहेंगे। तो अपना समझ रहने में और मेहमान समझ रहने में कितना फर्क हो जाता है, तो यह शरीर जिसको समझते थे कि मैं शरीर हूँ, अभी इसको ऐसा समझो कि यह मेरा नहीं है। अभी मेरा कहेंगे? अभी यह शरीर आपका नहीं रहा, जिससे मरजीवा बने। तो मेरा शरीर भी नहीं। तन अर्पण कर दिया वा मेरा समझती हो? अभी इस पुराने शरीर की आयु तो समाप्त हो चुकी। यह तो ड्रामा अनुसार ईश्वरीय कर्त्तव्य अर्थ शरीर चल रहा है। इसलिए आप अभी यह नहीं कह सकतीं कि यह मेरा शरीर है। इस शरीर में भी मेरापन खत्म हो गया। अभी तो बाप ने आत्मा को कर्म करने के लिए यह टैम्प्रेरी लोन के रूप में दिया है। जैसे बाप समझते हैं मेरा शरीर नहीं, लोन लेकर कर्त्तव्य करने के लिए पार्ट बजाते हैं। तो आप भी बाप समान हो ना। मेरा शरीर समझेंगे तो सभी बातें आ जायेंगी। मेरा शब्द के साथ बहुत कुछ है। मेरापन ही खत्म तो उनके कई साथी भी खत्म हो जायेंगे। उपराम हो जायेंगे। यह शरीर लोन लिया है-ईश्वरीय कर्त्तव्य के लिए। और कोई कर्त्तव्य के लिए यह शरीर नहीं है। ऐसे अपने को मेहमान समझकर चलने से हर कर्म महान् स्वत: ही होगा। जब शरीर ही अपना नहीं तो शरीर के सम्बन्ध में जो भी व्यक्तियां वा वैभव हैं वह भी अपने नहीं रहे, तो सदा ऐसा समझकर चलो। ऐसे समझकर चलने वाले सदैव नशे में रहते हैं। उनको स्वत: ही अपना घर स्मृति में रहता है। न सिर्फ घर लेकिन 6 बातें जो बाप के प्रति सुनाते हो, वह सभी स्वत: स्मृति में रहती हैं। तो जैसे बाप का परिचय देने के लिए सार रूप में सुनाते हो, उसमें सारा ज्ञान आ जाता है, वह सार 6 बातों में सुनाते हो। तो अपने को अगर मेहमान समझकर चलेंगे तो अपनी भी 6 बातें सदा स्मृति में रहेंगी। नाम – सर्वोत्तम ब्राह्मण हैं। रूप-शालिग्राम है। इसी प्रकार से समय की स्मृति, घर की स्मृति, कर्त्तव्य की स्मृति, वर्से की स्मृति स्वत: ही रहती है। सारा ज्ञान जो विस्तार में इतना समय सुना है वह सार रूप में आ जाता है। जो भी बोल बोलेंगे वा कर्म करेंगे उसमें सार भरा होगा, असार नहीं होगा। असार अर्थात् व्यर्थ। तो आप के हर बोल और कर्म में सारे ज्ञान का सार होना चाहिए। वह तब होगा जब सारे ज्ञान का सार बुद्धि में होगा। सदा नशे में रहने से ही निशाना लगा सकेंगे। अगर नशा नहीं तो निशाना ही नहीं लगता है। सारे ज्ञान का सार 6 शब्दों में बुद्धि में आने से सारा ज्ञान रिवाइज हो जाता है। तो नशा कम होने कारण निशाना ऊपर-नीचे हो जाता है। अभी-अभी फुल फोर्स में नशा रहता, अभी- अभी मध्यम हो जाता है। नीचे की स्टेज तो खत्म हो गई ना। नीचे की स्टेज क्या होती है, उसकी अविद्या होनी चाहिए। बाकी श्रेष्ठ और मध्यम की स्टेज। मध्य की स्टेज में आने के कारण रिजल्ट वा निशाना भी मध्यम ही रहेगा। वर्तमान समय अपनी स्मृति की स्टेज में, सर्विस की स्टेज - दोनों में अगर देखो तो रिजल्ट मध्यम दिखाई देती। मैजारिटी कहते हैं - जितना होना चाहिए उतना नहीं है। उस मध्यम रिजल्ट का मुख्य कारण यह है कि मध्यकाल के संस्कारों को अभी तक पूरी रीति भस्म नहीं किया है। तो यह मध्यकाल के संस्कार अर्थात् द्वापर काल से लेकर जो देह-अभिमान वा कमजोरी के संस्कार भरते गये हैं उनके वश होने कारण मध्यम रिजल्ट दिखाई देती है। कम्पलेन भी यही करते हैं कि चाहते नहीं हैं लेकिन संस्कार बहुत काल के होने कारण फिर हो जाता। तो इन मध्यकाल के संस्कारों को पूरी रीति भस्म नहीं किया है। डाक्टर लोग भी बीमारी के जर्मस (कीटाणु) को पूरी रीति खत्म करने की कोशिश करते हैं। अगर एक अंश भी रह जाता है तो अंश से वंश पैदा हो जाता। तो इसी प्रकार मध्यकाल के संस्कार अंश रूप में भी होने कारण आज अंश है, कल वंश हो जाता है। इसी के वशीभूत होने कारण जो श्रेष्ठ रिजल्ट निकलनी चाहिए वह नहीं निकलती। कोई से भी पूछो कि आप अपने आप से सन्तुष्ट, अपने पुरूषार्थ से, अपनी सर्विस से वा अपने ब्राह्मण परिवार के सम्पर्क से सन्तुष्ट हो; तो सोचते हैं। भले हां करते भी हैं लेकिन सोच कर करते हैं, फलक से नहीं कहते। अपने पुरूषार्थ में, सर्विस में और सम्पर्क में - तीनों में ही सर्व आत्माओें के द्वारा सन्तुष्टता का सर्टिफिकेट मिलना चाहिए। सर्टिफिकेट कोई कागज पर लिखत नहीं मिलेगा लेकिन हरेक द्वारा अनुभव होगा। ऐसे सर्व आत्माओं के सम्पर्क में अपने को सन्तुष्ट रखना वा सर्व को सन्तुष्ट करना इसी में ही जो विजयी बनते हैं वही अष्ट देवता विजयी रत्न बनते हैं। दो बातों में ठीक हो जाते, बाकी जो यह तीसरी बात है उसमें यथा शक्ति और नंबरवार हैं। हैं तो सभी बातों में नंबरवार लेकिन इस बात में ज्यादा हैं। अगर तीनों में सन्तुष्ट नहीं तो श्रेष्ठ वा अष्ट रत्नों में नहीं आ सकते। ‘पास विद् ऑनर’ बनने के लिए सर्व द्वारा सन्तुष्टता का पासपोर्ट मिलना चाहिए। सम्पर्क की बात में कमी पड़ जाती है। सम्पर्क में सन्तुष्ट रहने और सन्तुष्ट करने की बात में पास होने के लिए कौनसी मुख्य बात होनी चाहिए? अनुभव के आधार से देखो, सम्पर्क में असन्तुष्ट क्यों होते हैं? सर्व को सन्तुष्ट करने के लिए वा अपने सम्पर्क को सन्तुष्ट करने के लिए वा अपने सम्पर्क को श्रेष्ठ बनाने के लिए मुख्य बात अपने में सहन करने की वा समाने की शक्ति होनी चाहिए। असन्तुष्टता का कारण यह होता है जो कोई की वाणी वा संस्कार वा कर्म देखते हो वो अपने विवेक से यथार्थ नहीं लगता है, इसी कारण ऐसा बोल वा कर्म हो जाता है जिससे दूसरी आत्मा असन्तुष्ट हो जाती है। कोई का भी कोई संस्कार वा शब्द वा कर्म देख आप समझते हो - यह यथार्थ नहीं है वा नहीं होना चाहिए; फिर भी अगर उस समय समाने की वा सहन करने की शक्तियां धारण करो तो आपकी सहन शक्ति वा समाने की शक्ति आटोमे- टिकली उसको अपने अयथार्थ चलन का साक्षात्कार करायेगी। लेकिन होता क्या है-वाणी द्वारा वा नैन-चैन द्वारा उसको महसूस कराने वा साक्षात्कार कराने लिए आप लोग भी अपने संस्कारों के वश हो जाते हो। इस कारण न स्वयं सन्तुष्ट, न दूसरा सन्तुष्ट होता है। उसी समय अगर समाने की शक्ति हो तो उसके आधार से वा सहन करने की शक्ति के आधार से उनके कर्म वा संस्कार को थोड़े समय के लिए अवायड कर लो तो आपकी सहन शक्ति वा समाने की शक्ति उस आत्मा के ऊपर सन्तुष्टता का बाण लगा सकती है। यह न होने कारण असन्तुष्टता होती है। तो सभी के सम्पर्क में सर्व को सन्तुष्ट करने वा सन्तुष्ट रहने के लिए यह दो गुण वा दो शक्तियां बहुत आवश्यक हैं।इससे ही आपके गुण गायन होंगे। भले उसी समय विजय नहीं दिखाई देगी, हार दिखाई देगी। लेकिन उसी समय की हार अनेक जन्मों के लिए आपके गले में हार डालेगी। इसलिए ऐसी हार को भी जीत मानना चाहिए। यह कमी होने कारण इस सब्जेक्ट में जितनी सफलता होनी चाहिए उतनी नहीं होती है। बुद्धि में नॉलेज होते हुए भी किस समय किस रूप से किसको नॉलेज वा युक्ति से बात देनी है, वह भी समझ होनी चाहिए। समझते हैं - मैंने उनको शिक्षा दी। लेकिन समय नहीं है, उनकी समर्थी नहीं है तो वह शिक्षा, शिक्षा का काम नहीं करती है। जैसे धरती देखकर और समय देखकर बीज बोया जाता है तो सफलता भी निकलती है। समय न होगा वा धरनी ठीक नहीं होगी तो फिर भले कितना भी बड़ी क्वालिटी का बीज हो लेकिन फिर वह फल नहीं निकलेगा। इसी रीति ज्ञान के प्वाइंट्स वा शिक्षा वा युक्ति देनी है तो धरनी और समय को देखना है। धरती अर्थात् उस आत्मा की समर्थी को देखो और समय भी देखो तब शिक्षा रूपी बीज फल दे सकता है। समझा?

तो वर्तमान समय सर्व श्रेष्ठ आत्माओं को वा महावीर, महावीरनियों को इसी विशेष पुरूषार्थ तरफ अटेन्शन देना चाहिए। यही महावीरता है। सन्तुष्ट को सन्तुष्ट रखना महावीरता नहीं है, स्नेही को स्नेह देना महावीरता नहीं, सहयोगी साथ सहयोगी बनना महावीरता नहीं। लेकिन जैसे अपकारियों पर भी उपकार करते हैं, कोई कितना भी असहयोगी बने, अपने सहयोग की शक्ति से असहयोगी को सहयोगी बनाना - इसको महावीरता कहा जाता है। ऐसे नहीं कि इस कारण से यह नहीं होता है, यह आगे नहीं बढ़ता है तब यह नहीं होता है। वह बढ़े वा न बढ़े, आप तो बढ़ सकते हो ना? ऐसे समझना चाहिए कि यह भी सम्बन्ध का स्नेह है। कोई सम्बन्धी अगर कोई बात में कमजोर होता है तो कमजोर को कमजोर समझ छोड़ देना मर्यादा नहीं कही जाती है। ईश्वरीय मर्यादा वही है जो कमजोर को कमज़ोर समझ छोड़ न दे। लेकिन उसको भले देकर भलेवान बनावे और साथी बनाकर ऐसे कमजोर को हाई जम्प देने योग्य बनावे, तब कहेंगे महावीर। तो इस सब्जेक्ट के ऊपर अटेन्शन रखने से फिर जो भी सर्विस के प्लैन्स बनाते हो वा प्वाइंट्स निकालते हो वह सर्विस के प्लैन्स रूपी जेवरों में यह हीरे चमक जायेंगे। सिर्फ सोना दूर से इतनी आकर्षण नहीं करता है। अगर सोने के अन्दर हीरा होता है तो वह दूर से ही अपने तरफ आकर्षित करता है। प्लान्स बनाते हो वह तो भले बनाओ लेकिन प्लॉन में यह जो हीरा है उसको हरेक अपने आप में लगाकर फिर प्लॉन को प्रैक्टिकल में करो तो फिर सारे विश्व में जो आवाज फैलाने चाहते हो उसमें सफलता मिल सकेगी। दूर दूर की आत्मायें इस हीरे पर आकर्षित हो आयेंगी। समझा? अच्छा!



27-04-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


लकी और लवली बनने का पुरुषार्थ

पने को लवलीएस्ट और लक्कीएस्ट दोनों समझते हो? लवली भी हो और लक्की भी हो, यह दोनों ही अपने में समझते हो तो सदा निर्विघ्न, लग्न में मग्न अवस्था का अनुभव करेंगे। अगर सिर्फ लक्की हैं लेकिन लवली नहीं हैं तो भी सदा लगन में मग्न रहेंगे लेकिन निर्विघ्न अवस्था का अनुभव नहीं करेंगे। और सिर्फ लवली हैं, लक्की नहीं तो भी जो अवस्था सुनाई उसका अनुभव नहीं कर पायेंगे। इसलिए दोनों की आवश्यकता है। लवली और लक्की - दोनों की प्राप्ति के लिए मुख्य तीन बातें आवश्यक हैं। अगर वह तीनों बातें अपने में अनुभव करेंगे तो लक्की और लवली रूर होंगे। वह तीन बातें कौन-सी हैं जिससे सहज ही यह दोनों स्थिति अनुभव कर सकते हो? लक्क को बनाया भी जा सकता है वा बना हुआ होता है? अपने को लक्की बना सकते हो वा पहले से जो लक्की बने हुए हैं वही बन सकते हैं? अपनी लक्क बनाई जा सकती है वा बनी हुई के ऊपर चलना होता है? तकदीर को चेन्ज कर सकते हो वा नहीं? अन लक्की से लक्की बन सकते हो? लक्क बनाने के लिए पुरूषार्थ की मार्जिन है? (हां) तकदीर जगाकर आये हो वा तकदीर जगाने के लिए आये हो? तकदीर जो जगी हुई है वह साथ ले आये हो ना, फिर क्या बनायेंगे? तकदीर जो जगाकर आये हैं उस अनुसार ही बाप के बने लेकिन बाप के बनने में ही तकदीर की बात है ना। तकदीर बनाकर भी आये हैं और बना भी सकते हैं, ऐसे? जब कोई बात पर ज्यादा पुरूषार्थ कर लेते हो तो अपने अन्दर से कब संकल्प आता है कि मेरी तकदीर में तो यही देखने में आता है? पुरूषार्थ के बाद भी सफलता नहीं होती है तो समझते हो ना-तकदीर में यह ऐसा है। सफलता न मिलने का कारण क्या है? अपनी रीति से पुरूषार्थ किया फिर भी सफलता नहीं मिलती तो फिर क्या कहते हो? ड्रामा में ऐसा ही है। तो ड्रामा का बना हुआ लक ही ले आये हो ना? पुरुषार्थी को कभी भी यह समझना नहीं चाहिए कि मेरे पुरूषार्थ करने के बाद कोई असफलता भी हो सकती है। सदैव ऐसा ही समझना चाहिए कि पुरूषार्थ जो किया वह कभी भी व्यर्थ नहीं जा सकता। अगर सही प्र्कार से पुरूषार्थ किया तो उसकी सफ़लता अब नहीं तो कब मिलनी रूर है। असफलता का रूप देखकर समझना है कि यह परीक्षा है, इससे पार होने के बाद परिपक्वता आने वाली है। तो वह असफलता नहीं है लेकिन अपने पुरूषार्थ के फाउन्डेशन को पक्का करने का एक साधन है। कभी भी कोई चीज़ को मजबूत करना होता है तो पहले उसके फाउन्डेशन को ठोका जाता है, ठोक-ठोक कर पक्का किया जाता है। वह ठोकना ही परिपक्वता का साधन है। तो कब भी अपने व्यक्तिगत पुरूषार्थ में वा संगठन के सम्पर्क में वा ईश्वरीय सेवा में तीनों प्रकार के पुरूषार्थ में बाहर का रूप असफलता का दिखाई भी दे तो ऐसे ही समझना चाहिए कि यह असफलता नहीं लेकिन परिपक्वता का साधन है। जैसे सुनाया था कि तूफान को तूफान न समझकर एक तोफा समझना चाहिए। नैइया में झोंके आते हैं लेकिन वह आगे बढ़ाने का एक साधन है। इसी प्रकार असफलता में सफलता समाई हुई है, यह समझ कर आगे बढ़ना चाहिए। असफलता शब्द ही बुद्धि में नहीं आना चाहिए अगर पुरूषार्थ सही है तो। अच्छा-सुना रहे थे कि लक्की और लवली बनने के लिए तीन बातें आवश्यक हैं वह कौन-सी? पहले सोचो-लक कैसे बन सकता है? अपने को ही देख लो कि हम लक्की, लवली हैं? अपने लक को क्यों नहीं जगा सकते हो? उसका मूल कारण-नॉलेजफुल नहीं हो। नॉलेजफुल में सभी प्रकार की नॉलेज आ जाती है। जितना जो नॉलेजफुल होगा उतना लकी Nजरूर होगा। क्योंकि नॉलेज की लाइट और माइट से आदि-मध्य-अन्त को जानकर जो भी पुरूषार्थ करेगा उसमें उनको सफलता अवश्य प्राप्त होगी। सफलता प्राप्त होना यह एक लक की निशानी है। यह तो वह नॉलेजफुल होगा अर्थात् फुल नॉलेज होगी। फुल में अगर कोई भी कमी है तो लकीएस्ट में भी नंबरवार है। नॉलेजफुल है तो लकीएस्ट भी नंबरवन होगा। कर्म की भी नॉलेज होती है और अपनी रचयिता और रचना की भी नॉलेज होती है। चाहे परिवार, चाहे ज्ञानी आत्माओं के सम्पर्क में कैसे आना चाहिए उसकी भी नॉलेज होती है। नॉलेज सिर्फ रचयिता और रचना की नहीं लेकिन नॉलेजफुल अर्थात् हर संकल्प और हर शब्द हर कर्म में ज्ञान स्वरूप होगा। उनको ही नॉलेजफुल कहते हैं। दूसरी बात-जितना नॉलेजफुल होगा उतना ही केयरफुल भी होगा। जितना केयरफुल होगा उतना ही उसकी निशानी चियरफुल होगा। अगर कोई केयरफुल नहीं तो भी लवली नहीं लगेगा। अगर कोई चियरफुल नहीं तो भी लवली नहीं लगेगा।

जो केयरफुल नहीं रहता है उनसे समय-प्रति-समय अपनी वा दूसरों के सम्पर्क में आने से कोई न कोई छोटी-बड़ी भूल होने कारण न स्वयं लवली रहेगा, न दूसरों का लवली बन सकेगा। इसलिए जो केयरफुल होगा वह चियरफुल रूर होगा। ऐसा नहीं समझना कि केयरफुल जो होगा वह अपने पुरूषार्थ में अधिक मग्न होने कारण चियरफुल नहीं रह सकता, ऐसी बात नहीं है। केयरफुल की निशानी चियरफुल है। तो यह तीनों ही क्वालिफिकेशन वा बातें अगर हैं तो लक्की और लवली दोनों बन सकते हैं। एक दो के सहयोग से भी अपनी लक्क को बना सकते हो। लेकिन एक दो का सहयोग तब मिलेगा जब केयरफुल और चियरफुल होंगे। अगर चियरफुल नहीं होता तो सक्सेसफुल भी नहीं होंगे। केयरफुल और चियरफुल है तो सक्सेसफुल अर्थात् लक्की है। तो यह तीन बातें अपने आप में देखो। अगर तीनों ही ठीक परसेन्टेज में हैं तो समझो हम लक्की और लवलीएस्ट दोनों हैं, अगर परसेन्टेज में कमी है तो फिर यह स्टेज नहीं हो सकती है। अब समझा, निशानी क्या है? मुख से ज्ञान सुनाना इतना प्रभाव नहीं डाल सकता है। सदैव चियरफुल चेहरा रहे, दुःख की लहर संकल्प में भी न आये-उसको कहा जाता है चियरफुल। तो अपने चियरफुल चेहरे से ही सर्विस कर सकते हो। जैसे चुम्बक के तरफ ऑटोमेटिकली आकर्षित होकर लोहा जायेगा, इसी प्रकार सदा चियरफुल स्वयं ही चुम्बक का स्वरूप बन जाता है। उनको देखते ही सभी समीप आयेंगे। समझेंगे आज की दुनिया में जबकि चारों ओर दु:ख और अशान्ति के बादल छाये हुए हैं, ऐसे वायुमण्डल में यह सदा चियरफुल रहते हैं। यह क्यों और कैसे रहते हैं, वह देखने की उत्कण्ठा होगी। जैसे जब बहुत तूफान लगते हैं वा वर्षा पड़ती है तो उस समय लोग जहाँ बारिश-तूफान से बचाव देखते हैं, वहाँ न चाहते भी भागते हैं। स्थान कोई बुलाता नहीं है, लेकिन वायुमण्डल प्रमाण वह सेफ्टी का साधन है तो लोग रूर वहाँ भागेंगे। अपने आप को बचाने के लिए उस स्थान का सहारा लेते हैं। खि्ांच कर आ जाते हैं ना। तो ऐसे ही समझो - वर्तमान समय चारों ओर माया का तूफान और दु:ख के बादल गरज रहे हैं। ऐसे समय में सेफ्टी के साधन को देख आपकी तरफ आकर्षित होंगे। वह आकर्षित करने वाला बाहर का रूप कौन-सा है? चियरफुल चेहरा। तो लवली और लक्की दोनों होना चाहिए। कहां-कहां नॉलेजफुल हैं, केयरफुल भी हैं लेकिन चियरफुल नहीं। केयर करते हैं, केयर करते-करते चेयर छोड़ देते हैं, तो चियरफुल नहीं बन सकते हैं। इसलिए जो दोनों का होना चाहिए वह नहीं होता। दोनों ही अपने में धारण करना चाहिए। उसके लिए मुख्य पुरूषार्थ वा अटेन्शन वा केयर किस बात में रहे जो यह तीनों बातें सहज ही अपने में ला सको, वह जानते हो? केयरफुल तो होना ही है लेकिन मुख्य केयर किस बात की रखनी है? केयरफुल किन-किन बातों में होते हैं? (भिन्न-भिन्न उतर मिले) बाप ने क्या केयर किया जिससे ऐसा बना? वह मुख्य बात कौन-सी है? आप लोगों की जो महिमा गाई जाती है, वह पूरी वर्णन करो-सर्व गुण सम्पन्न, 16 कला सम्पूर्ण, सम्पूर्ण निर्विकारी, मर्यादा पुरूषोतम...। जब मर्यादाओं का उल्लंघन होता है तब ही केयरलेस होते हो। आप लोगों के सम्पूर्ण स्टेज का जो गायन है, जैसे सीता को मर्यादा की लकीर के अन्दर रहने की आज्ञा दी। और कोई लकीर नहीं थी लेकिन यह मर्यादा ही लकीर है। अगर ईश्वरीय मर्यादाओं की लकीर से बाहर निकल जाते हैं तो फकीर बन जाते हैं अर्थात् जो भी कोई प्राप्ति है उससे भिखारी, फकीर बन जाते हैं। फिर चिल्लाते हैं, जैसे फकीर चिल्लाते हैं - दो पैसा दे दो, कपड़ा दे दो। ऐसे ही जो मर्यादा की लकीर का उल्लंघन करते हैं उनकी स्थिति फकीर के समान बन जाती है। वह कहेंगे - कृपा करो, आशीर्वाद करो, सहयोग दो, स्नेह दो। तो गोया फकीर हो गये ना। लेकिन मेरा अधिकार है, उनको कहेंगे बालक और मालिकपन। अधीन होकर मांगना, फिर कोई भी चीज़ मांगने वाले को फकीर ही कहा जाता है। तो यह जो मर्यादाओं की लकीर है, उससे अगर बाहर निकलते हो तो फकीर बन जाते हो। फिर मदद लेनी पड़ती है। वैसे तो जो भी बाप के बच्चे बने हैं तो लक्की भी हैं, लवली भी हैं। वह स्वयं ईश्वरीय कार्य में मददगार हैं, न कि मदद लेने वाले हैं। आप लोगों का मददगार बनने का चित्र भी है, मदद मांगने का नहीं है। भक्तों का चित्र मांगने का ही होता है। बालक सो मालिक जो हैं वह सदैव मददगार हैं। जो स्वयं ही मददगार हैं वह मदद मांग नहीं सकते, वह देने वाले हैं, न कि लेने वाले। दाता कब लेता नहीं है, दाता देने वाला होता है। तो अपने आप को एक ही बाप अर्थात् राम की सच्ची सीता समझकर सदा मर्यादाओं की लकीर के अन्दर रहें अर्थात् यह केयर करें तो केयरफुल रहेंगे। केयरफुल से ऑटोमेटिकली चियरफुल बनेंगे। तो वह मर्यादायें क्या-क्या हैं, वह सभी बुद्धि में रहनी चाहिए

सवेरे से रात तक कौन-कौन सी मर्यादायें किस-किस कर्म में रखनी हैं, वह सभी नॉलेज स्पष्ट होनी चाहिए। अगर नॉलेज नहीं तो केयरफुल भी नहीं हो सकते। तो सीता समझ करके इस लकीर के अन्दर रहो अर्थात् जो केयरफुल होगा, मर्यादाओं की लकीर के अन्दर रहेगा वही पुरूषोतम बन सकता है। कब देखो चियरफुल नहीं रहते हैं तो अवश्य कोई मर्यादा का उल्लंघन किया है। मर्यादा संकल्प के लिए भी है। व्यर्थ संकल्प भी नहीं करना है। अगर इस लकीर से बाहर व्यर्थ संकल्प-विकल्प उत्पन्न होते हैं तो मानो संकल्प में मर्यादाओं का उल्लंघन किया तब चियरफुल नहीं हैं। ऐसे ही मुख से क्या बोल बोलना है और किस स्थिति में स्थित होकर मुख से बोलना है, यह है मर्यादा वाणी के लिए। अगर वाणी में भी कोई उल्लंघन होता है तो चियरफुल नहीं रहते। अपने व्यर्थ संकल्प, विकल्प ही अपने को चियरफुल स्टेज से गिरा देते हैं, क्योंकि मर्यादा का उल्लंघन किया। अगर मर्यादा की लकीर के अन्दर सदा अपने को रखो तो यह रावण अर्थात् माया अथवा विघ्न इसी मर्यादा की लकीर के अन्दर आने की हिम्मत नहीं रख सकते। कोई भी विघ्न अथवा तूफान, परेशानी वा उदासाई आती है तो समझना चाहिए - कहां-न-कहां मर्यादाओं की लकीर से अपनी बुद्धि रूपी पांव को निकाला है। जैसे सीता ने पांव निकाला। बुद्धि भी पांव है जिससे यात्रा करते हो। तो बुद्धि रूपी पांव रा भी मर्यादाओं की लकीर से बाहर निकालते हो, तब यह सभी बातें आती हैं। और क्या बना देती हैं? बाप के लक्की और लवली को फकीर बना देती हैं। फकीर बनने की निशानी - एक तो आत्माओं से, बाप से सहारा मांगेंगे। अपना खज़ाना जो शक्तियां हैं वह खत्म हो जायेंगी। कहावत है - लकीर के फकीर। तो ऐसा जो फकीर बनता है वह लकीर के भी फकीर होते हैं। वह शक्तिशाली स्टेज खत्म हो जाती है। भले ज्ञान बोलता रहेगा, पुरूषार्थ करता रहेगा परन्तु लकीर के फकीर के समान। अपनी प्राप्ति का नशा वा शक्ति जो होनी चाहिए वह नहीं रहेंगी। भक्ति मार्ग में भी लकीर के फकीर होते हैं ना। तो ऐसे मर्यादाओं के लकीर को उल्लंघन करने वाले दोनों प्रकार के फकीर बन जाते हैं। इसलिए कब भी फकीर नहीं बनना। इस समय जो विश्व के बादशाह बनेंगे उनके भी बादशाह हो। जैसे राजाओं का राजा कहा जाता है, वह तो विश्व के राजा जब बनेंगे उस समय की स्टेज को राजाओं का राजा कहा जाता है लेकिन इस समय ब्राह्मणपन की जो स्टेज है वा डायरेक्ट बाप द्वारा नॉलेजफुल बनने की स्टेज ऊंच है, तो ऐसे स्टेज को छोड़ कर फकीर बनना शोभता तो नहीं है ना? इसलिए हर संकल्प और कर्म में यह चेक करो अर्थात् केयर करो-बाहर तो नहीं निकलते? ऐसे अपने को मर्यादा पुरूषोत्तम बनाओ। ऐसे मर्यादा पुरूषोत्तम बनने के तीव्र पुरुषार्थी, नॉलेजफुल, केयरफुल और चियरफुल श्रेष्ठ आत्माओं को नमस्ते। अच्छा!



03-05-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


 “लॉ मेकर” बनो, “लॉ ब्रेकर” नहीं

पने को लवफुल और लाफुल दोनों ही समझते हो? जितना ही लवफुल उतना ही लाफुल हो कि जब लवफुल बनते हो तो लॉ-फुल नहीं बन सकते हो वा जब लाफुल बनते हो तो लवफुल नहीं बन सकते हो? क्या दोनों ही साथ-साथ एक ही समय कर्म में वा स्वरूप में दिखाई दे सकते हैं? क्योंकि जब तक ला और लव दोनों ही समान नहीं हुए हैं तब तक कार्य में सदा सफलतामूर्त बन नहीं सकते। सफलता-मूर्त वा सम्पूर्णमूर्त बनने के लिए इन दोनों की आवश्यकता है। लॉफुल अपने आप के लिए भी बनना होता है। न सिर्फ दूसरों के लिए लाफुल बनना पड़ता है लेकिन जो स्वयं अपने प्रति लाफुल बनता है वही दूसरों के प्रति भी लाफुल बन सकता है। अगर स्वयं अपने प्रति कोई भी ला को ब्रेक करता है तो वह दूसरों के ऊपर ला चला नहीं सकता। कितना भी दूसरों के प्रति लॉफुल बनने का प्रयत्न करेगा लेकिन बन नहीं सकेगा। इसलिए अपने आप से पूछो कि मैं अपने प्रति वा अन्य आत्माओं के प्रति लाफुल बना हूं? प्रात: से लेकर रात तक मंसा स्वरूप में अथवा कर्म में सम्पर्क वा एक दो को सहयोग देने में, वा सेवा में कहां भी किस प्रकार का ला ब्रेक तो नहीं किया? जो ला-ब्रेकर होगा वह नई दुनिया का मेकर नहीं बन सकेगा। वा पीस-मेकर, न्यु-वर्ल्ड-मेकर नहीं बन सकेगा। तो अपने आपको देखो कि मैं न्यु-वर्ल्ड-मेकर वा पीस-मेकर, ला-मेकर हूं वा ला-ब्रेकर हूं? जो स्वयं ला-मेकर हैं वही अगर ला को ब्रेक करता है, तो क्या ऐसे को ला-मेकर कहा जा सकता है? ईश्वरीय लाज (कायदे) वा ईश्वरीय नियम क्या हैं, वह सभी स्पष्ट जान गये हो वा अभी जानना है? जानने का अर्थ क्या होता है? जानना अर्थात् चलना। जानने के बाद मानना होता है, मानने के बाद फिर चलना होता है। तो ऐसे समझें कि यह जो भी बैठे हुए हैं वह सभी जान गये हैं अर्थात् चल रहे हैं? अमृतवेले से लेकर जो भी दिनचर्या बता रहे हो वह सभी ईश्वरीय लाज के प्रमाण बिता रहे हो कि इसमें कुछ परसेन्टेज है? जानने में परसेन्टेज है? अगर जानने में परसेन्टेज नहीं है और जानकर चलने में परसेन्टेज है तो उसको जानना कैसे कहेंगे? यथार्थ रूप से नहीं जाना है तब चल नहीं पाते हो वा जान गये हैं बाकी चल नहीं पाते हो, क्या कहेंगे? जब कहते हो यहां जानना, मानना, चलना एक ही है; फिर यह अन्तर क्यों रखा है? अज्ञानियों को यह समझाते हो कि आप जानते हो हम आत्मा हैं, लेकिन मानकर चलते नहीं हो। आप भी जानते हो कि यह ईश्वरीय नियम हैं, यह नहीं हैं; जानकर फिर चलते नहीं हो तो इस स्टेज को क्या कहेंगे? (पुरूषार्थ) पुरुषार्थी जीवन में गलती होना माफ है, ऐसे? जैसे ड्रामा की ढाल सहारा दे देती है वैसे पुरुषार्थी शब्द भी हार खाने में वा असफलता प्राप्त होने में बहुत अच्छी ढाल है। अलंकारों में यह ढाल दिखाई हुई है? ऐसे को पुरुषार्थी कहेंगे? पुरूषार्थ शब्द का अर्थ क्या करते हो? इस रथ में रहते अपने को पुरूष अर्थात् आत्मा समझकर चलो, इसको कहते है पुरुषार्थी। तो ऐसे पुरूषार्थ करने वाला अर्थात् आत्मिक स्थिति में रहने वाला इस रथ का पुरूष अर्थात् मालिक कौन है? आत्मा ना। तो पुरुषार्थी माना अपने को रथी समझने वाला। ऐसा पुरुषार्थी कब हार नहीं खा सकता। तो पुरूषार्थ शब्द को इस रीति से यूज न करो। हां, ऐसे कहो -- हम पुरूषार्थहीन हो जाते हैं तब हार होती है। अगर पुरूषार्थ में ठीक लगा हुआ है तो कब हार नहीं हो सकती है। जानने और चलने में अगर अन्तर है तो ऐसी स्टेज वाले को पुरुषार्थी नहीं कहा जायेगा। पुरुषार्थी सदैव मंजिल को सामने रखते हुए चलते हैं, वह कब रूकता नहीं। बीच-बीच में मार्ग में जो सीन आती हैं उनको देखने लगते हैं लेकिन रूकते नहीं। देखते हो वा देखते हुए नहीं देखते हो? जो भी बात सामने आती है उनको देखते हा? ऐसी अवस्था में चलने वाले को पुरुषार्थी नहीं कहा जा सकता। पुरुषार्थी कब भी अपनी हिम्मत और उल्लास को छोड़ते नहीं हैं। हिम्मत, उल्लास सदा साथ है तो विजय सदैव है ही। हिम्मतहीन जब बनते हैं अथवा उल्लास के बजाय्ए किसी-न-किसी प्रकार का आलस्य जब आता है तब ही हार होती है। और छोटी-सी गलती करने से लाफुल बनने के बजाए स्वयं ही ला-मेकर होते हुए ला को ब्रेक करने वाले बन जाते हैं। वह छोटी- सी गलती कौनसी है? एक मात्रा की सिर्फ गलती है। एक मात्रा के अन्तर से ला-मेकर के बजाए ला को ब्रेक करने वाले बन जाते हैं। ऐसे सदा सरेन्डर रहें तो सफलतामूर्त, विजयीमूर्त बन जायेंगे। लेकिन कभी-कभी अपनी मत चला देते हैं, इसलिए हार होती है। अच्छा, एक मात्रा के अन्तर का शब्द है -- शिव के बजाए शव को देखते हैं। शव को देखने से शिव को भूल जाते हैं। शिव शब्द बदलकर विष बन जाता है। विष, विकारों की विष। एक मात्रा के अन्तर से उलटा बन जाने से विष भर जाता है। उसका फिर परिणाम भी ऐसा ही निकलता है। उलटे हो गये तो परिणाम भी रूर उलटा ही निकलेगा। इसलिए कब भी शव को न देखो अर्थात् इस देह को न देखो। इनको देखने से अथवा शरीर के भान में रहने से ला ब्रेक होता है। अगर इस ला में अपने आपको सदा कायम रखो कि शव को नहीं देखना है; शिव को देखना है तो कब भी कोई बात में हार नहीं होगी, माया वार नहीं करेगी। जब माया वार करती है तो हार होती है। अगर माया वार ही नहीं करेगी तो हार कैसे होगी? तो अपने आपको बाप के ऊपर हर संकल्प में बलिहार बनाओ तो कब हार नहीं होगी। संकल्प में भी अगर बाप के ऊपर बलिहार नहीं हो, तो संकल्प कर्म में आकर हार खिला देते हैं। इसलिए अगर ला-मेकर अपने को समझते हो तो कभी भी इस ला को ब्रेक नहीं करना। चेक करो -- यह जो संकल्प उठा वह बाप के ऊपर बलिहार होने योग्य है? कोई भी श्रेष्ठ देवताएं होते हैं, उनको कभी भी कोई भेंट चढ़ाते हैं तो देवताओं के योग्य भेंट चढ़ाते हैं, ऐसे-वैसे नहीं चढ़ाते। तो हर संकल्प बाप के ऊपर अर्थात् बाप के कर्त्तव्य के ऊपर बलिहार जाना है। यह चेक करो - जैसे ऊंच ते ऊंच बाप है वैसे ही संकल्प भी ऊंच है जो भेंट चढ़ावें? अगर व्यर्थ संकल्प, विकल्प हैं तो बाप के ऊपर बलि चढ़ा नहीं सकते, बाप स्वीकार कर नहीं सकते। आजकल शक्तियों और देवियों का भोजन होता है तो उसमें भी शुद्धिपूर्वक भोग चढ़ाते हैं। अगर उसमें कोई अशुद्धि होती है तो देवी भी स्वीकार नहीं करती है, फिर वह भक्तों को महसूसता आती है कि देवी ने हमारी भेंट स्वीकार नहीं की। तो आप भी श्रेष्ठ आत्मायें हो। शुद्धि पूर्वक भेंट नहीं है तो आप भी स्वीकार नहीं करते हो। ऊंच ते ऊंचे बाप के आगे क्या भेंट चढ़ानी है वह तो समझ सकते हो। हर संकल्प में श्रेष्ठता भरते जाओ, हर संकल्प बाप और बाप के कर्त्तव्य में भेंट चढ़ाते जाओ। फिर कब भी हार नहीं खा सकेंगे। अभी फिर भी कोई व्यर्थ अथवा अशुद्ध संकल्प चलने की प्रत्यक्ष रूप में कोई सजा नहीं मिल रही है, लेकिन थोड़ा आगे चलेंगे तो कर्म की तो बात ही छोड़ो लेकिन अशुद्ध वा व्यर्थ संकल्प जो हुआ, किया उसकी प्रत्यक्ष सजा का भी अनुभव करेंगे। क्योंकि जब व्यर्थ संकल्प करते हो तो संकल्प भी खज़ाना है। खज़ाने को जो व्यर्थ गंवाता है उसका क्या हाल होता है? व्यर्थ धन गंवाने वाले की रिजल्ट क्या निकलती है? दिवाला निकल जाता है। ऐसे ही यह श्रेष्ठ संकल्पों का खज़ाना व्यर्थ गंवाते-गंवाते बाप द्वारा जो वर्सा प्राप्त होना चाहिए वह प्राप्ति का अनुभव नहीं होता। जैसे कोई दिवाला मारते हैं तो क्या गति हो जाती है? ऐसे स्थिति का अनुभव होगा। इसलिए अभी जो समय चल रहा है वह बहुत सावधानी से चलने का है, क्योंकि अभी यात्री चलते-चलते ऊंच मंजिल पर पहुंच गये हैं। तो ऊंच मंजिल पर कदम-कदम पर अटेन्शन रखने की बहुत आवश्यकता होती है। हर कदम में चेकिंग करने की आवश्यकता होती है। अगर एक कदम में भी अटेन्शन कम रहा तो रिजल्ट क्या होगी? ऊंचाई के बजाए पांव खिसकते-खिसकते नीचे आ जायेंगे। तो वर्तमान समय इतना अटेन्शन है वा अलबेलापन है? पहला समय और था, वह समय बीत चुका। जैसे-जैसे समय बीत चुका तो समय के प्रमाण परिस्थितियों के लिए बाप रहमदिल बन कुछ- न-कुछ जो सैलवेशन देते आये हैं वह समय प्रमाण अभी समाप्त हो चुका। अभी रहमदिल नहीं। अगर अब तक भी रहमदिल बनते रहे तो आत्मायें अपने उपर रहमदिल बन नहीं सकेंगी। जब बाप इतनी ऊंच स्टेज की सावधानी देते हैं तब बच्चे भी अपने ऊपर रहमदिल बन सकें। इस कारण अभी यह नहीं समझना कि बाप रहमदिल है, इसलिए जो कुछ भी हो गया तो बाप रहम कर देगा। नहीं, अभी तो एक भूल का हजार गुणा दण्ड का हिसाब-किताब चुक्तू करना पड़ेगा। इसलिए अभी रा भी गफ़लत करने का समय नहीं है। अभी तो बिल्कुल अपने कदम-कदम पर सावधानी रखते हुए कदम में पद्मों की कमाई करते पद्मपति बनो। नाम है ना पद्मापद्म भाग्यशाली। तो जैसा नाम है ऐसा ही कर्म होना चाहिए। हर कदम में देखो - पद्मों की कमाई करते पद्मपति बने हैं? अगर पद्मपति नहीं बने तो पद्मापद्म भाग्यशाली कैसे कहलायेंगे? एक कदम भी पदम की कमाई बिगर न जाए। ऐसी चेकिंग करते हो वा कई कदम व्यर्थ जाने बाद होश आता है? इसलिए फिर भी पहले से ही सावधान करते हैं। अन्त का स्वरूप शक्तिपन का है। शक्ति रूप रहमदिल का नहीं होता है। शक्ति का रूप सदैव संहारी रूप दिखाते हैं। तो संहार का समय अब समीप आ रहा है। संहार के समय रहमदिल नहीं बनना होता है। संहार के समय संहारी रूप धारण किया जाता है। इसलिए अभी रहमदिल का पार्ट भी समाप्त हुआ। बाप के सम्बन्ध से बच्चों का अलबेलापन वा नाज सभी देखते हुए आगे बढ़ाया, लेकिन अब किसी भी प्रकार से पावन बनाकर साथ ले जाने का पार्ट है सद्गुरू के रूप में। जैसे बाप बच्चों के नाज वा अलबेलापन देख फिर भी प्यार से समझाते चलाते रहते हैं। वह रूप सद्गुरू का नहीं होता। सतगुरू का रूप जैसे सद्गुरू है-वैसे सत संकल्प, सत बोल, सत कर्म बनाने वाला है। फिर चाहे नॉलेज द्वारा वा पुरूषार्थ द्वारा बनावे, चाहे फिर सजा द्वारा बनावे। सद्गुरू नाज और अलबेलापन देखने वाला नहीं है। इसलिए अब समय और बाप के रूप को जानो। ऐसे न हो -- बाप के इस अन्तिम स्वरूप को न जानते हुए अपने बचपन के अलबेलेपन में आकर अपने आपको धोखा दे बैठो। इसलिए बहुत सावधान रहना है। शक्तियों को अभी अपना संहारी रूप धारण करना चाहिए। जैसे दिखाया हुआ है - कोई भी आसुरी संस्कार शक्तियों का सामना नहीं कर सकता, आसुरी संस्कार वाले शक्तियों के सामने आंख उठाकर देख नहीं सकते। तो ऐसे संहारी रूप बनकर स्वयं में भी आसुरी संस्कारों का संहार करो और दूसरों के भी आसुरी संस्कार के संहार करने वाले संहारीमूर्त बनो। ऐसी हिम्मत है? माता रूप में भले रहम आ जाता, शक्ति रूप में रहम नहीं आता। माता बनकर पालना तो बहुत की और माता के आगे बच्चे लाडकोड करते भी हैं। शक्तियों के आगे किसकी हिम्मत नहीं जो अलबेलापन दिखा सके। अपने प्रति भी अब संहारी बनो। ऐसी स्टेज बनाओ जो आसुरी संस्कार संकल्प में भी ठहर न सकें। इसको कहते हैं - एक ही नजर से असुर संहारनी। संकल्पों को परिवर्तन करने में कितना समय लगता है? सेकेण्ड। और नजर से देखने में कितना समय लगता है? एक सेकेण्ड। तो नजर से असुर संहार करने वाले अर्थात् एक सेकेण्ड में आसुरी संस्कारों को भस्म करने वाले, ऐसे बने हो? कि आसुरी संस्कारों के वशीभूत हो जाते हो? आसुरी संस्कारों के वशीभूत होने वाले को किस सम्प्रदाय में गिना जायेगा? आप कौन हो? (ईश्वरीय सम्प्रदाय) तो ईश्वरीय सम्प्रदाय वालों के पास आसुरी संस्कार भी नहीं आने चाहिए। अभी आसुरी संस्कार आते हैं वा भस्म हो गये हैं? (आते हैं) तो फिर क्या बन जाते हो? अपना रूप बदल बहुरूपी बन जाते हो क्या? अभी-अभी ईश्वरीय सम्प्रदाय, अभी- अभी आसुरी संस्कारों के वश हो गये तो क्या बन गये? बहुरूपी हो गये ना। अगर अभी-अभी अपने से आसुरी संस्कारों को भस्म करने की हिम्मत रखकर संहारी रूप बने तो मुबारक है। अभी यह भी ध्यान रखना, सूक्ष्म सजाओं के साथ-साथ स्थूल सजायें भी होती हैं। ऐसे नहीं समझना - सूक्ष्म सजा तो अपने अन्दर भोग कर खत्म करेंगे। नहीं। सूक्ष्म सजाएं सूक्ष्म में मिलती रहती हैं और दिन प्रतिदिन ज्यादा मिलती जायेंगी लेकिन ईश्वरीय मर्यादाओं के प्रमाण कोई भी अगर अमर्यादा का कर्त्तव्य करते हैं, मर्यादा का उल्लंघन करते हैं तो ऐसी अमर्यादा से चलने वाले को स्थूल सज़ाएं भी भोगनी पड़े। फिर तब क्या होगा? अपने दैवी परिवार के स्नेह, सम्बन्ध और जो वर्तमान समय की सम्पत्ति का खज़ाना है उनसे वंचित होना पड़े। इसलिए अब बहुत सोच- समझकर कदम उठाना है। ऐसे लॉज (नियम) शक्तियों द्वारा स्थापन हो रहे हैं। पहले से ही सावधान करना चाहिए ना। फिर ऐसे न कहना कि ऐसे तो हमने समझा नहीं था, यह तो नई बात हो गई। तो पहले से ही सुना रहे हैं। सूक्ष्म ला के साथ स्थूल लाज वा नियम भी हैं। जैसे-जैसे गलती, उसी प्रमाण ऐसी गलती करने वाले को सजा। इसलिए ला-मेकर हो तो ला को ब्रेक नहीं करना। अगर ला-मेकर भी ला को ब्रेक करेंगे तो फिर ला-फुल राज्य करने के अधिकारी कैसे बनेंगे? जो स्वयं को ही ला के प्रमाण नहीं चला सकता वह लाफुल राज्य कैसे चला सकेगा? इसलिए अब अपने को ला-मेकर समझकर हर कदम ला-फुल उठाओ अर्थात् श्रीमत प्रमाण उठाओ। मन-मत मिक्स नहीं करना। माया श्रीमत को बदलकर मन को मिक्स कर उसको ही श्रीमत समझाने की बुद्धि देती है। माया के वश मनमत को भी श्रीमत समझने लग पड़ते हैं, इसलिए परखने की शक्ति सदैव काम में लगाओ। कहां परखने में भी अन्तर होने से अपने आपको नुकसान कर देते। इसलिए कहां भी अगर स्वयं नहीं परख सकते हो तो जो श्रेष्ठ आत्मायें निमित्त हैं उन्हों से सहयोग लो। वेरीफाय कराओ कि यह श्रीमत है वा मनमत है। फिर प्रैक्टिकल में लाओ। अच्छा। ऐसे लाफुल और लवफुल जो दोनों ही साथ-साथ रख चलने वाले हैं, ऐसी आत्माओं को नमस्ते।



09-05-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


 अपने फीचर से फ्यूचर दिखाओ

भी सदा स्नेही हैं? जैसे बाप दादा सदा बच्चों के स्नेही और सहयोगी हैं, सभी रूपों से, सभी रीति से सदा स्नेही और सहयोगी हैं, वैसे ही बच्चे भी सभी रूपों से, हर रीति से बाप समान सदा स्नेही और सहयोगी है? सदा सहयोगी वा सदा स्नेही उसको कहते हैं जिसका एक सेकेण्ड भी बाप के साथ स्नेह न टूटे वा एक सेकेण्ड, एक संकल्प भी सिवाए बाप के सहयोगी बनने के न जाये। तो ऐसे अपने को सदा स्नेही और सहयोगी समझते हो वा अनुभव करते हो? बापदादा के स्नेह का सबूत वा प्रत्यक्ष प्रमाण दिखाई देता है। तो बच्चे भी जो बाप समान हैं उन्हों का भी स्नेह और सहयोग का सबूत वा प्रत्यक्ष प्रमाण दिखाई दे रहा है। स्नेही आत्मा का स्नेह कब छिप नहीं सकता। कितना भी कोई अपने स्नेह को छिपाने चाहे लेकिन स्नेह कब गुप्त नहीं रहता। स्नेह किस-न-किस रूप में, किस-न-किस कर्त्तव्य से वा सूरत से दिखाई अवश्य देता है। तो अपनी सूरत को दर्पण में देखना है कि मेरी सूरत से स्नेही बाप की सीरत दिखाई देती है? जैसे अपनी सूरत को स्थूल आईना में देखते हो, वैसे ही रोज अमृतवेले अपने आपको इस सूक्ष्म दर्पण में देखते हो? जैसे लक्षणों से हर आत्मा के लक्ष्य का मालूम पड़ जाता है वा जैसा लक्ष्य होता है वैसे लक्षण स्वत: ही होते हैं। तो ऐसे अपने लक्षणों से लक्ष्य प्रत्यक्ष रूप में कहां तक दिखाते हो, अपने आपको चेक करते हो? किसी भी आत्मा को अपने फीचर्स से उस आत्मा का वा अपना फ्यूचर दिखा सकते हो? लेक्चर से फीचर्स दिखाना तो आम बात है लेकिन फीचर्स से फ्यूचर दिखाना - यही अलौकिक आत्माओं की अलौकिकता है। ऐसे मेरे फीचर्स बने हैं, यह दर्पण में देखते हो? जैसे स्थूल सूरत है, श्रृंगार से अगर सूरत में कोई देखे तो पहले विशेष अटेन्शन बिन्दी के ऊपर जायेगा। वैसे जो बिन्दी- स्वरूप में स्थित रहते हैं अर्थात् अपने को इन धारणाओं के श्रृंगार से सजाते हैं, ऐसे श्रृंगारी हुई मूरत के तरफ देखते हुए सभी का ध्यान किस तरफ जायेगा? मस्तक में आत्मा बिन्दी तरफ। ऐसे ही कोई भी आत्मा आप लोगों के सम्मुख जब आती है तो उन्हों का ध्यान आपके अविनाशी तिलक की तरफ आकर्षित हो। वह भी तब होगा जब स्वयं सदा तिलकधारी हैं। अगर स्वयं ही तिलकधारी नहीं तो दूसरों को आपका अविनाशी तिलक दिखाई नहीं दे सकता। जैसे बाप का बच्चों प्रति इतना स्नेह है जो सारी सृष्टि की आत्मायें बच्चे होते हुए भी, जिन्होंने प्रीत की रीति निभाई है वा प्रीत-बुद्धि बने हैं, ऐसे प्रीत की रीति निभाने वालों से इतनी प्रीत की रीति निभाई है जो अन्य सभी आत्माओं को अल्पकाल का सुख प्राप्त होता है लेकिन प्रीत की रीति निभाने वाली आत्माओं को सारे विश्व के सर्व सुखों की प्राप्ति सदाकाल के लिए होती है। सभी को मुक्तिधाम में बिठाकर प्रीत की रीति निभाने वाले बच्चों को विश्व का राज्य भाग्य प्राप्त कराते हैं। ऐसे स्नेही बच्चों के सिवाए और कोई से भी सर्व सम्बन्धों से सर्व प्राप्ति का पार्ट नहीं। ऐसे प्रीत निभाने वाले बच्चों के दिन-रात गुण-गान करते हैं। जिससे अति स्नेह होता है तो उस स्नेह के लिए सभी को किनारे कर सभी-कुछ उनके अर्पण करते हैं, यह है स्नेह का सबूत। तो सदा स्नेही और सहयोगी बच्चों के सिवाए अन्य सभी आत्माओं को मुक्तिधाम में किनारे कर देते हैं। तो जैसे बाप स्नेह का प्रत्यक्ष सबूत दिखा रहे हैं, ऐसे अपने आप से पूछो - ‘‘सर्व सम्बन्ध, सर्व आकर्षण करने वाली वस्तुओं को अपनी बुद्धि से किनारे किया है? सर्व रूपों से, सर्व सम्बन्धों से, हर रीति से सभी-कुछ बाप के अर्पण किया है?’’ सिवाए बाप के कर्त्तव्य के एक सेकेण्ड भी और कोई व्यर्थ कार्य में अपना सहयोग तो नहीं देते हो? अगर स्नेह अर्थात् योग है तो सहयोग भी है। जहां योग है वहां सहयोग है। एक बाप से ही योग है तो सहयोग भी एक के ही साथ है। योगी अर्थात् सहयोगी। तो सहयोग से योग को देख सकते हो, योग से सहयोग को देख सकते हो। अगर कोई भी व्यर्थ कर्म में सहयोगी बनते हो तो बाप के सदा सहयोगी हुए? जो पहला-पहला वायदा किया हुआ है उसको सदा स्मृति में रखते हुए हर कर्म करते हो कि भक्तों मुआफ़िक कहां-कहां बच्चे भी बाप से ठगी तो नहीं करते हो? भक्तों को कहते हो ना - भक्त ठगत हैं। तो आप लोग भी ठगत तो नहीं बनते हो? अगर तेरे को मेरा समझ काम में लगाते हो तो ठगत हुए ना। कहना एक और करना दूसरा - इसको क्या कहा जाता है? कहते तो यही हो ना कि तन-मन-धन सब तेरा। जब तेरा हो गया फिर आपका उस पर अपना अधिकार कहां से आया? जब अधिकार नहीं तो उसको अपनी मन-मत से काम में कैसे लगा सकते हो? संकल्प को, समय को, श्वांस को, ज्ञान-धन को, स्थूल तन को अगर कोई भी एक खज़ाने को मनमत से व्यर्थ भी गंवाते हो तो ठगत नहीं हुए? जन्म-जन्म के संस्कारों वश हो जाते हैं। यह कहां तक रीति चलती रहेगी? जो बात स्वयं को भी प्रिय नहीं लगती तो सोचना चाहिए -- जो मुझे ही प्रिय नहीं लगती वह बाप को प्रिय कैसे लग सकती है? सदा स्नेही के प्रति जो अति प्रिय चीज़ होती है वही दी जाती है। तो अपने आप से पूछो कि कहां तक प्रीत की रीति निभाने वाले बने हैं? अपने को सदा हाइएस्ट और होलीएस्ट समझकर चलते हो? जो हाइएस्ट समझकर चलते हैं उन्हों का एक-एक कर्म, एक-एक बोल इतना ही हाइएस्ट होता है जितना बाप हाइएस्ट अर्थात् ऊंच ते ऊंच है। बाप की महिमा गाते हैं ना -- ऊंचा उनका नाम, ऊंचा उनका धाम, ऊंचा काम। तो जो हाइएस्ट है वह भी सदैव अपने ऊंच नाम, ऊंचे धाम और ऊंचे काम में तत्पर हों। कोई भी निचाई का कार्य कर ही नहीं सकते हैं। जैसे महान् आत्मा जो बनते हैं वह कभी भी किसी के आगे झुकते नहीं हैं। उनके आगे सभी झुकते हैं तब उसको महान आत्मा कहा जाता है। जो आजकल के ऐसे ऐसे महान् आत्माओं से भी महान्, श्रेष्ठ आत्मायें, जो बाप की चुनी हुई आत्मायें हैं, विश्व के राज्य के अधिकारी हैं, बाप के वर्से के अधिकारी हैं, विश्व-कल्याणकारी हैं - ऐसी आत्मायें कहां भी, कोई भी परिस्थिति में वा माया के भिन्न-भिन्न आकर्षण करने वाले रूपों में क्या अपने आप को झुका सकते हैं? आजकल के कहलाने वाले महात्माओं ने तो आप महान् आत्माओं की कॉपी की है। तो ऐसी श्रेष्ठ आत्मायें कहां भी, किसी रीति झुक नहीं सकतीं। वे झुकाने वाले हैं, न कि झुकने वाले। कैसा भी माया का फोर्स हो लेकिन झुक नहीं सकते। ऐसे माया को सदा झुकाने वाले बने हो कि कहां-कहां झुक करके भी देखते हो? जब अभी से ही सदा झुकाने की स्थिति में स्थित रहेंगे, ऐसे श्रेष्ठ संस्कार अपने में भरेंगे तब तो ऐसे हाइएस्ट पद को प्राप्त करेंगे जो सतयुग में प्रजा स्वमान से झुकेगी और द्वापर में भिखारी हो झुकेंगे। आप लोगों के यादगारों के आगे भक्त भी झुकते रहते हैं ना। अगर यहां अभी माया के आगे झुकने के संस्कार समाप्त न किये, थोड़े भी झुकने के संस्कार रह गये तो फिर झुकने वाले झुकते रहेंगे और झुकाने वालों के आगे सदैव झुकते रहेंगे। लक्ष्य क्या रखा है, झुकने का वा झुकाने का? जो अपनी ही रची हुई परिस्थिति के आगे झुक जाते हैं -- उनको हाइएस्ट कहेंगे? जब तक हाइएस्ट नहीं बने हो तब तक होलीएस्ट भी नहीं बन सकते हो। जैसे आपके भविष्य यादगारों का गायन है सम्पूर्ण निर्विकारी। तो इसको ही होलीएस्ट कहा जाता है। सम्पूर्ण निर्विकारी अर्थात् किसी भी परसेन्टेज में कोई भी विकार तरफ आकर्षण न जाए वा उनके वशीभूत न हो। अगर स्वप्न में भी किसी भी प्रकार विकार के वश किसी भी परसेन्टेज में होते हो तो सम्पूर्ण निर्विकारी कहेंगे? अगर स्वप्नदोष भी है वा संकल्प में भी विकार के वशीभूत हैं तो कहेंगे विकारों से परे नहीं हुए हैं। ऐसे सम्पूर्ण पवित्र वा निर्विकारी अपने को बना रहे हो वा बन गये हो? जिस समय लास्ट बिगुल बजेगा उस समय्य बनेंगे? अगर कोई बहुत सय्मयय् से ऐसी स्थिति में स्थित नहीं रहता है तो ऐसी आत्माओं का फिर गायन भी अल्पकाल का ही होता है। ऐसे नहीं समझना कि लास्ट में फास्ट जाकर इसी स्थिति को पा लेंगे। लेकिन नहीं। बहुत समय जो गायन है -- उसको भी स्मृति में रखते हुए अपनी स्थिति को होलीएस्ट और हाइएस्ट बनाओ। कोई भी संकल्प वा कर्म करते हो तो पहले चेक करो कि जैसा ऊंचा नाम है वैसा ऊंचा काम है? अगर नाम ऊंचा और काम नीचा तो क्या होगा? अपने नाम को बदनाम करते हो? तो ऐसे कोई भी काम नहीं हो - यह लक्ष्य रखकर ऐसे लक्षण अपने में धारण करो। जैसे दूसरे लोगों को समझाते हो कि अगर ज्ञान के विरूद्ध कोई भी चीज़ स्वीकार करते हो तो ज्ञानी नहीं अज्ञानी कहलाये जायेंगे। अगर एक बार भी कोई नियम को पूरी रीति से पालन नहीं करते हैं तो कहते हो ज्ञान के विरूद्ध किया। तो अपने आप से भी ऐसे ही पूछो कि अगर कोई भी साधारण संकल्प करते हैं तो क्या हाइएस्ट कहा जायेगा? तो संकल्प भी साधारण न हो। जब संकल्प श्रेष्ठ हो जायेंगे तो बोल और कर्म आटोमेटिकली श्रेष्ठ हो जायेंगे। ऐसे अपने को होलीएस्ट और हाइएस्ट, सम्पूर्ण निर्विकारी बनाओ। विकार का नाम-निशान न हो। जब नाम- निशान ही नहीं तो फिर काम कैसे होगा? जैसे भविष्य में विकार का नाम- निशान नहीं होता है ऐसे ही हाइएस्ट और होलीएस्ट अभी से बनाओ तब अनेक जन्म चलते रहेंगे। अच्छा। ऐसे ऊंचा नाम और ऊंचे काम करने वालों को नमस्ते।



10-05-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


 स्वमान में रहने से फ़रमान की पालना

स्वमान और फरमान - दोनों में रहने और चलने के अपने को हिम्मतवान समझते हो? स्वमान में भी सदा स्थित रहें और साथ-साथ फरमान पर भी चलते चलें, इन दोनों बातों में अपने को ठीक समझते हो? अगर स्वमान में स्थित नहीं रहते हैं तो फरमान पर चलने में भी कोई-न-कोई कमी पड़ जाती है। इसलिए दोनों बातों में अपने आप को यथार्थ रूप से स्थित करते हुए सदा ऐसी स्थिति बनाना। वर्तमान पुरूषोत्तम संगमयुग का आप ब्राह्मणों का जो ऊंच ते ऊंच स्वमान है उसमें स्थित रहना है। इस एक ही श्रेष्ठ स्वमान में स्थित होने से भिन्न-भिन्न प्रकार के देह-अभिमान स्वत: और सहज ही समाप्त हो जाते हैं। कहां-कहां सर्विस करते-करते वा अपने पुरूषार्थ में चलते-चलते बहुत छोटी-सी एक शब्द की गलती कर देते हैं, जिससे ही फिर सारी गलतियां हो जाती हैं। सर्व गलतियों का बीज एक शब्द की कमजोरी है, वह कौनसा शब्द? स्वमान से ‘स्व’ शब्द निकाल देते हैं। स्वमान को भूल जाते हैं, मान में आने से फरमान भूल जाते हैं। फरमान है - स्वमान में स्थित रहो। तो मान में आने से फरमान खत्म हो गया ना। इसी एक शब्द की गलती होने से अनेक गलतियां हो जाती हैं। फिर मान में आकर बोलना, चलना, करना सभी बदल जाता है। सिर्फ एक शब्द कट होने से जो वास्तविक स्टेज है उससे कट हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में आने के कारण जो पुरूषार्थ वा सर्विस करते हैं उसकी रिजल्ट यह निकलती है जो मेहनत ज्यादा और प्रत्यक्षफल कम निकलता है। सफलता-मूर्त जो बनना चाहिए वह नहीं बन पाते और सफलता- मूर्त न बनने के कारण वा सफलता प्राप्त न होने के कारण फिर उसकी रिजल्ट क्या होती है? मेहनत बहुत करते-करते चलते-चलते थक जाते हैं। उल्लास कम होते-होते आलस्य आ जाता है और जहां आलस्य आया वहां उनके अन्य साथी भी सहज ही आ जाते हैं। आलस्य अपने सर्व साथियों सहित आता है, अकेला नहीं आता। जैसे बाप भी अकेला नहीं आता अपने बच्चों सहित प्रत्यक्ष होता है। वैसे यह जो विकार है वह भी अकेले नहीं आते, साथियों के साथ आते हैं। इसलिए फिर विकारों की प्रवेशता होने से कई फरमान उल्लंघन करने कारण स्थिति क्या हो जाती है? कोई न कोई बात का अरमान रह जाता है। न स्वयं सन्तुष्ट रहते, न दूसरों को सन्तुष्ट कर पाते, सिर्फ एक शब्द कट करने के कारण। इसलिए कभी भी अपनी उन्नति का जो प्रयत्न करते हो वा सर्विस का कोई भी प्लैन बनाकर प्रैक्टिकल में लाते हो, तो प्लैन बनाने और प्रैक्टिकल में लाने समय भी पहले अपने स्वमान की स्थिति में स्थित हो फिर कोई भी प्लैन बनाओ और प्रैक्टिकल में लाओ। स्थिति को छोड़कर प्लैन नहीं बनाओ। अगर स्थिति को छोड़कर प्लैन्स बनाते हो तो क्या हो जाता है? उसमें कोई शक्ति नहीं रहती। बिगर शक्ति उस प्लैन का प्रैक्टिकल में क्या प्रभाव रहेगा? सर्विस तो खूब करते हो, विस्तार बहुत कर लेते हो लेकिन बीज-रूप अवस्था को छोड़ देते हो। विस्तार में जाने से सार निकाल देते हो। इसलिए अब सार को नहीं निकालो। विस्तार को समाने अर्थात् सार-स्वरूप बनने नहीं आता। क्वान्टिटी में चले जाते हो लेकिन अपनी क्वालिटी नहीं निकलती। अपनी स्थिति में भी संकल्पों की क्वान्टिटी है। इसलिए सर्विस की रिजल्ट में भी क्वान्टिटी है, क्वालिटी नहीं। सारे झाड़ रूपी विस्तार में एक बीज ही पावरफुल होता है ना। ऐसे ही क्वान्टिटी के बीज में एक भी क्वालिटी वाला है तो वह विस्तार में बीज-रूप के समान है। क्वालिटी की सर्विस करते हो? विस्तार में जाने से वा दूसरों का कल्याण करते-करते अपना कल्याण तो नहीं भूल जाते हो? जब दूसरे के प्रति जास्ती अटेन्शन देते हो तो अपने अन्दर जो टेन्शन चलता है उनको नहीं देखते हो। पहले अपने टेन्शन पर अटेन्शन दो, फिर विश्व में जो अनेक प्रकार के टेन्शन हैं उनको खलास कर सकेंगे। पहले अपने आपको देखो। अपनी सर्विस फर्स्ट, अपनी सर्विस की तो दूसरों की सर्विस स्वत: हो जाती है। अपनी सर्विस को छोड़ दूसरों की सर्विस में लग जाने से समय और संकल्प ज्यादा खर्च कर लेते हो। इस कारण जो जमा होना चाहिए वह नहीं कर पाते। जमा न होने के कारण वह नशा, वह खुशी नहीं रहती। अभी-अभी कमाया और अभी-अभी खाया; तो वह अल्पकाल का हो जाता है। जमा रहता है वह सदा साथ रहता है। तो अब जमा करना भी सीखो। सिर्फ इस जन्म के लिए नहीं लेकिन 21 जन्मों के लिए जमा करना है। अगर अभी-अभी कमाया और खाया तो भविष्य में क्या बनेगा? अभी-अभी कमाया और अभी-अभी बांटा, नहीं। खाने बाद समाना भी चाहिए, फिर बांटना चाहिए। कमाया और बांट दिया; तो अपने में शक्ति नहीं रहती। सिर्फ खुशी होती है - जो मिला सो बांटा। दान करने की खुशी रहती है लेकिन उसको स्वयं में समाने की शक्ति नहीं रहती। खुशी के साथ शक्ति भी चाहिए। शक्ति न होने कारण निर्विघ्न नहीं हो सकते, विघ्नों को पार नहीं कर सकते। छोटे-छोटे विघ्न लगन को डिस्टर्ब कर देते हैं। इसलिए समाने की शक्ति धारण करनी चाहिए। जैसे खुशी की झलक सूरत में दिखाई देती है, वैसे शक्ति की झलक भी दिखाई देनी चाहिए। सरलचित बहुत बनो लेकिन जितना सरलचित हो उतना ही सहनशील हों। कि सहनशीलता भी सरलता है? सरलता के साथ समाने की, सहन करने की शक्ति भी चाहिए। अगर समाने और सहन करने की शक्ति नहीं तो सरलता बहुत भोला रूप धारण कर लेती और कहां-कहां भोलापन बहुत भारी नुकसान कर देता है। तो ऐसा सरलचित भी नहीं बनना है। बाप को भी भोलानाथ कहते हैं ना। लेकिन ऐसा भोला नहीं है जो सामना न कर सके। भोलानाथ के साथ-साथ आलमाइटी अथॉरिटी भी तो है ना। सिर्फ भोलानाथ नहीं है। यहां शक्ति-स्वरूप भूल सिर्फ भोले बन जाते हैं तो माया का गोला लग जाता है। वर्तमास समय भोलेपन के कारण माया का गोला ज्यादा लग रहा है। ऐसा शक्ति स्वरूप बनना है जो माया सामना करने के पहले ही नमस्कार कर ले, सामना कर न पावे। बहुत सावधान, खबरदार-होशियार रहना है। अपनी वृति और वायुमण्डल को चेक करो। अपने आपको देखो कि कोई भी वायुमण्डल अपनी वृति को कमजोर तो नहीं करता है? कैसा भी वायुमण्डल हो लेकिन स्वयं की शक्तिशाली वृति वायुमण्डल को परिवर्तन में ला सकती है। अगर वायुमण्डल का वृति के ऊपर असर आ जाता है तो यही भोलापन है। ऐसे भी नहीं सोचना चाहिए कि मैं तो ठीक हूँ लेकिन वायुमण्डल का असर आ गया। नहीं। कैसा भी वायुमण्डल विकारी हो लेकिन स्वयं की वृति निर्विकारी होनी चाहिए। जब कहती हो - हम पतित-पावनियां हैं, पतितों को पावन बनाने वाली हैं; जब आत्माओं को पावन बना सकती हो तो क्या वायुमण्डल को पतित से पावन नहीं बना सकतीं? पावन बनाने वाले वायुमण्डल के वशीभूत नहीं होते। लेकिन वायुमण्डल वृति के ऊपर प्रभाव डाल देता है, यह है कमजोरी। हरेक को ऐसा समझना चाहिए कि मुझे स्वयं अपने पावरफुल वृति से जो भी अपवित्र वा कमजोरी का वायुमण्डल है उसको मिटाना है। तुम मिटाने वाले हो, न कि वश होने वाले। कोई पतित वायुमण्डल का वर्णन भी नहीं करना चाहिए। वर्णन किया तो जैसे कहावत है - ना पाप को देखने वाले पर भी पाप होता है। अगर कोई भी कमजोर वा पतित वायुमण्डल का वर्णन भी करते हैं तो यह भी पाप है। क्योंकि उस समय बाप को भूल जाते हैं। जहां बाप भूल जाता है वहां पापरूर होता है। बाप की याद होगी तो पाप नहीं हो सकता। इसलिए वर्णन भी नहीं करना चाहिए। जबकि बाप का फरमान है तो मुख से सिवाए ज्ञान रत्नों के और कोई एक शब्द भी व्यर्थ नहीं निकलना चाहिए। वायुमण्डल का वर्णन करना - यह भी व्यर्थ हुआ ना। जहां व्यर्थ है वहां समर्थ की स्मृति नहीं। समर्थ की स्मृति में रहते हुए कोई भी बोल बोलेंगे तो व्यर्थ नहीं बोलेंगे, ज्ञान-रत्न ही बोलेंगे। तो वृति को, बोल को भी चेक करो। कई ऐसे भी समझते हैं कि कर्म कर लिया, पश्चाताप कर लिया, माफी मांग ली, छुट्टी हो गई। लेकिन नहीं। कितनी भी कोई माफी ले लेवे लेकिन जो कोई पाप कर्म वा व्यर्थ कर्म भी हुआ तो उसका निशान मिटता नहीं। निशान पड़ ही जाता है। रजिस्टर साफ-स्वच्छ नहीं होता। इसलिए ऐसे भी नहीं कहना कि हो गया, माफी ले ली। इस रीति रसम को भी नहीं अपनाना। अपना कर्त्तव्य है -- संकल्प में, वृति में, स्मृति में भी कोई पाप का संकल्प न आये। इसको ही कहा जाता है ब्राह्मण अर्थात् पवित्र। अगर कोई भी अपवित्रता वृति, स्मृति वा संकल्प में है तो ब्राह्मण-पन की स्थिति में स्थित हो नहीं सकते, सिर्फ कहलाने मात्र हो। इसलिए कदम- कदम पर सावधान रहो। खुशी के साथ-साथ शक्तियों को भी साथ रखना है। विशेषताओं के साथ अगर कमजोरी भी होती है तो एक कमजोरी अनेक विशेषताओं को समाप्त कर देती है। तो अपनी विशेषताओं को प्रत्यक्ष करने के लिए कमजोरी को समाप्त कर दो। समझा? सर्विस के बीच में अगर डिस्सार्विस हो जाती है तो डिस्सार्विस प्रत्यक्ष हो जाती है। कितना भी अमृत हो लेकिन विष की एक बूंद भी पड़ने से सारा अमृत विष बन जाता है। कितनी भी सर्विस करो लेकिन एक छोटी-सी गलती डिस्सार्विस का कारण बन जाती है, सर्विस को समाप्त कर देती है। इसलिए बहुत अटेन्शन रखो अपने ऊपर और अपनी सर्विस के ऊपर। पहले करना है, फिर कहना है। कहना सहज होता है लेकिन करने में मेहनत है। मेहनत का फल अच्छा होता है, सिर्फ कहने का फल अच्छा नहीं। तो पहले करो, फिर कहो। फिर देखना, कैसी क्वालिटी वाली सर्विस होती है! अपनी क्वालिटी को देखो। समझा? वृति और वायुमण्डल को पावरफुल बनाओ। आप ब्राह्मणों का जन्म ही है -- बनने और बनाने के लिए, सिर्फ बनने के लिए नहीं। पढ़ना पढ़ाने के लिए है। विश्व कल्याणकारी हो ना। जैसे बाप कल्याणकारी है, साथ में आप भी मददगार हो। इसलिए यह भी नहीं सोचना चाहिए कि मेरी वृति तो ठीक है, यह वायुमण्डल ने कर दिया है। अगर अपनी वृति ठीक है और उसका वायुमण्डल पर असर नहीं होता हो, गोया पावरफुल वृति नहीं है। पावरफुल चीज़ का प्रभाव आस-पास रूर पड़ता है, वह छिप नहीं सकता। तो अपनी वृति को भी परखने के लिए यह चेक करो कि वृति का वायुमण्डल पर असर क्या है? वायुमण्डल अगर और दिखाई देता है तो समझना चाहिए अपनी वृति में भी कमज़ोरी है। उस कमजोरी को मिटाना चाहिए। आजकल चारों ओर की सर्विस की रिजल्ट में विशेष क्या दिखाई देता है?

सा बजाने में बड़े होशियार हो गये हैं लेकिन साज में जाने से राज से खिसक जाते हैं। बनना है राजयुक्त लेकिन बन गये हैं सायुक्त। साज और राज - दोनों ही साथ-साथ समान होना चाहिए। अगर एक बात ज्यादा फोर्स में है और दूसरी बात गुप्त है तो रिजल्ट भी गुप्त रह जाती है। साज बजाने में तो सभी बहुत होशियार हो गये हैं लेकिन राजयुक्त भी बनना है। तो अब राजयुक्त बनो, योगयुक्त बनो। अच्छा! ऐसे राजयुक्त, योगयुक्त, युक्तियुक्त चलने वालों को नमस्ते।



15-05-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


 श्रेष्ठ स्थिति बनाने का साधन तीन शब्द- निराकारी, अलंकारी और कल्याणकारी

पने को पद्मापद्म भाग्यशाली समझकर हर कदम उठाते हो? पद्म कमल पुष्प को भी कहते हैं। कदम-कदम पर पद्म के समान न्यारे और प्यारे बन चलने से ही हर कदम में पद्मों की कमाई होती है। ऐसी श्रेष्ठ आत्मायें बनी हो? दोनों ही प्रकार की स्थिति बनाई है? एक कदम में पद्म तो कितने खज़ाने के मालिक हो गये! ऐसे अपने को अविनाशी धनवान वा सम्पतिवान और अति न्यारे और प्यारे अनुभव करते हो? यह चेक करना है कि एक भी कदम पद्म समान स्थिति में रहते हुए पद्मों की कमाई के बगैर न उठे। इस समय ऐसे पद्मापति अर्थात् अविनाशी सम्पत्तिवान बनते हो जो सारा कल्प सम्पत्तिवान गाये जाते हो। आधा कल्प स्वयं विश्व के राज्य के, अखण्ड राज्य के निर्विघ्न राज्य के, अधिकारी बनते हो और फिर आधा कल्प भक्त लोग आपके इस स्थिति के गुणगान करते रहते हैं। कोई भी भक्त को जीवन में किसी भी प्रकार की कमी का अनुभव होता है तो किसके पास आते हैं? आप लोगों के यादगार चित्रों के पास। चित्रों से भी अल्पकाल की प्राप्ति करते हुए अपनी कमी वा कमजोरियों को मिटाते रहते। तो सारा कल्प प्रैक्टिकल में वा यादगार रूप में सदा सम्पत्तिवान, शक्तिवान, गुणवान, वरदानी-मूर्त बन जाते हो। तो जब एक कदम भी उठाते हो वा एक संकल्प भी करते हो तो ऐसी स्मृति में रहते हुए, ऐसे अपने श्रेष्ठ स्वरूप में स्थित होते हुए चलते हो? जैसे कोई हद का राजा जब अपनी राजधानी के तरफ देखेंगे तो किस स्थिति और दृष्टि से देखेंगे? किस नशे से देखेंगे? यह सभी मेरी प्रजा है वा बच्चों के समान हैं! ऐसे ही आप लोग भी जब अभी सृष्टि के तरफ देखते हो वा किसी भी आत्मा के प्रति नजर जाती है तो क्या समझ करके देखते हो? ऐसे समझकर देखते हो कि यह हमारी विश्व, जिसके हम मालिक थे, वह आज क्या बन गई है और अभी हम विश्व के मालिक के बालक फिर से विश्व को मालामाल बना रहे हैं, सम्पत्तिवान बना रहे हैं, सदा सुखदाई बना रहे हैं। इस नशे में स्थित होकर के उसी रूप से, उसी वृति से, उसी दृष्टि से हर आत्मा को देखते हो? कोई भी आत्मा को किस स्थिति में रहकर देखते हो? उस समय की स्थिति वा स्टेज कौन-सी होती है? (हरेक ने सुनाया) जो भी सुनाया, है तो सभी यथार्थ क्योंकि अभी जबकि अयथार्थ को छोड़ चुके तो जो भी अब बोलेंगे वह यथार्थ ही बोलेंगे। अब अयथार्थ शब्द भी मुख से नहीं निकल सकता। जब भी कोई आत्मा को देखो तो वृति यही रखनी चाहिए कि इन सभी आत्माओं के प्रति बाप ने हमें वरदानी और महादानी निमित्त बनाया है। वरदानी वा महादानी की वृति से देखने से कोई भी आत्मा को वरदान वा महादान से वंचित नहीं छोड़ेंगे। जो महादानी वा वरदानी होते हैं उनके सामने कोई भी आयेगा तो उस आत्मा के प्रति कुछ-न-कुछ दाता बनकर के देंगे रूर। कोई को भी खाली नहीं भेजेंगे। तो ऐसी वृति रखने से कोई भी आत्मा आप लोगों के सामने आने से खाली हाथ नहीं जायेगी, कुछ-न-कुछ लेकर ही जायेगी। तो ऐसे अपने को समझकर हर आत्मा को देखते हो? दाता के बच्चे दाता ही तो होते हैं। जैसे बाप के पास कोई भी आयेंगे तो खाली हाथ नहीं भेजेंगे ना। तो ऐसे ही फालो फादर। जैसे स्थूल रीति में भी कोई को भी बिना कोई यादगार-सौगात के नहीं भेजते हो ना। कुछ-न-कुछ निशानी देते हो।

यह स्थूल रस्म भी क्यों चली? सूक्ष्म कर्त्तव्य के साथ सहज स्मृति दिलाने के लिए एक सहज साधन बनाया हुआ है। तो जैसे यह सोचते हो कि कोई भी स्थूल सौगात के सिवाए न जावे, वैसे ही सदा यह भी लक्ष्य रखो कि कम से कम थोड़ा-बहुत भी लेकर जावे। तब तो आपके विश्व के राज्य में आयेंगे। ऐसे सदाचारी और सदा महादानी दृष्टि, वृति और कर्म से भी बनने वाले ही विश्व के मालिक बनते हैं। तो सदा ऐसी स्थिति रहे अर्थात् सदा सम्पत्तिवान समझ कर चलें, इसके लिये तीन शब्द याद रखने हैं। जिन तीन शब्दों को याद करने से सदा और स्वत: ही यह वृति रहती, वह तीन शब्द कौन से? सदा निराकारी, अलंकारी और कल्याणकारी। अगर यह तीन शब्द याद रहें तो सदा अपनी श्रेष्ठ स्थिति बना सकते हो। चाहे मन्सा, चाहे कर्मणा में, चाहे सेवा में - तीनों ही स्थिति में अपनी ऊंची स्थिति बना सकते हो। जिस समय कर्म में आते हो तो अपने आपको चेक करो कि सदा अलंकारीमूर्त होकर चलते हैं? अलंकारीमूर्त देह-अहंकारी नहीं होते हैं। अलंकार में अहंकार खत्म हो जाता है। इसलिए सदैव अपने अलंकारों को देखो कि स्वदर्शन-चक्र चल रहा है? अगर सदा स्वदर्शन-चक्र चलता रहेगा तो जो अनेक प्रकार के माया के विघ्नों के चक्र में आ जाते हो वह नहीं आयेंगे। सभी चक्रों से स्वदर्शन चक्र द्वारा बच सकते हो। तो सदैव यह देखो कि स्वदर्शन-चक्र चल रहा है? कोई भी प्रकार का अलंकार नहीं है अर्थात् सर्व शक्तियों से शक्ति की कमी है। जब सर्व शक्तियां नहीं तो सर्व विघ्नों से वा सर्व कमजोरियों से भी मुक्ति नहीं। कोई भी बात में -- चाहे विघ्नों से, चाहे अपने पुराने संस्कारों से, चाहे सेवा में कोई असफलता का कारण बनता है और उस कारण के वश कोई-न-कोई विघ्न के अन्दर आ जाते हैं; तो समझना चाहिए मुक्ति न मिलने का कारण शक्ति की कमी है। विघ्नों से मुक्ति चाहते हो तो शक्ति धारण करो अर्थात् अलंकारी रूप होकर रहना है। अलंकारी समझकर नहीं चलते; अलंकारों को छोड़ देते हैं। बिना शक्तियों के मुक्ति की इच्छा रखते हो तो कैसे पूर्ण हो सकती? इसलिए यह तीनों ही शब्द सदा स्मृति में रखते हुए फिर हर कार्य करो। इन अलंकारों को धारण करने से सदा अपने को वैष्णव समझेंगे। भविष्य में तो विष्णुवंशी बनेंगे लेकिन अभी वैष्णव बनेंगे तब फिर विष्णु के राज्य में विष्णुवंशी बनेंगे। तो वैष्णव अर्थात् कोई भी मलेच्छ चीज़ को टच नहीं करने वाला। आजकल के वैष्णव तो स्थूल तामसी चीजों से वैष्णव हैं। लेकिन आप जो श्रेष्ठ आत्मायें हो वह सदैव वैष्णव अर्थात् तमोगुणी संकल्प वा तमोगुणी संस्कारों को भी टच नहीं कर सकते हो। अगर कोई संकल्प वा संस्कारों को टच किया अर्थात् धारण किया तो सच्चे वैष्णव हुए? और जो सच्चे वैष्णव नहीं बनते हैं, वह विष्णु के राज्य में विश्व के मालिक नहीं बन सकते हैं। तो अपने आपको देखो - कहां तक सदाकाल के वैष्णव बने हैं? वैष्णव कुल के जो होते हैं वह कोई भी मलेच्छ को कब अपने से टच करने भी नहीं देते, मलेच्छ से किनारा कर लेते हैं। वह हुई स्थूल की बात। लेकिन जो सच्चे वैष्णव बनते हैं वह कोई भी पुरानी बातें, पुरानी दुनिया वा पुरानी दुनिया के कोई भी व्यक्ति वा वैभव को अपनी बुद्धि से टच करने नहीं देंगे, किनारे रहेंगे। तो ऐसे वैष्णव बनो। जैसे उन्हों को अगर कारणे-अकारणे कोई टच भी कर देते हैं तो नहाते हैं ना। अपने को शुद्ध बनाने का प्रयत्न करते हैं। इसी प्रकार अगर अपनी कमजोरी के कारण कोई भी पुराना तमोगुणी संस्कार वा संकल्प भी टच कर देते हैं तो विशेष रूप से ज्ञान- स्नान करना चाहिए अर्थात् बुद्धि में विशेष रूप से बाप की याद अथवा बाप से रूह-रिहान करनी चाहिए। तो इससे क्या होगा? वह तमोगुणी संस्कार कब भी टच नहीं करेंगे, शुद्ध बन जायेंगे। अपने को शुद्ध बनाने से सदा शुद्ध- स्वरूप के संस्कार बन जायेंगे। तो ऐसे करते हो। कहते हैं ना? पता नहीं, यह कैसे हो गया? कमजोरी तो स्वयं की है ना। इतनी पावर होनी चाहिए जो कोई भी टच कर न सके। अगर कोई पावरफुल होते हैं तो उनके सामने कमजोर एक शब्द भी बोल नहीं सकता, सामने आ नहीं सकता। अज्ञान में रोब के आगे कोई नहीं आ सकते। यहां फिर है रूहाब। रोब को रूहानियत में चेन्ज करो तो फिर कोई की ताकत नहीं जो टच कर सके। जैसे भविष्य में आप सभी के आगे प्रकृति दासी बन जायेगी। यही सम्पूर्ण स्टेज है ना। जब प्रकृति दासी बन सकती है तो क्या पुराने संस्कारों को दासी नहीं बना सकते हो? जैसे दासी वा दास सदा ‘जी-हजूर’ करते रहते हैं, वैसे यह कमजोरियां भी ‘जी-हजूर’ कर खड़ी होंगी, टच नहीं करेंगी। ऐसी स्थिति सदाकाल के लिए बना रहे हो? अभी कहां तक पहुंचे हो? आज-कल की बात आकर रही है वा अभी-अभी की बात है वा वर्षों की बात है? अभी है आज और कल की। आज-कल और अभी समय में तो बहुत फर्क हुआ।

टीचर की कमाल यह है जो सभी को टीचर बनावे। आप टीचर नहीं हो? अपने आपके आप टीचर बने हो, तो रिजल्ट को नहीं जानते हो? यही बाप समान बनाने का कर्त्तव्य करना है। टीचर अगर टीचर न बनावे तो टीचर ही कैसा? अगर अपने आप के टीचर बन करके नहीं चलेंगे तो सम्पूर्ण स्टेज को पा नहीं सकेंगे। जो अपने टीचर नहीं बनते हैं वही कमजोर होते हैं। सदैव यह देखो कि जो हम लोगों की महिमा गाई जाती है, ऐसी महिमा योग्य बने हैं? एक-एक बात को अपने में देखो। मर्यादा पुरूषोत्तम हैं? ‘‘सम्पूर्ण निर्विकारी, सम्पन्न, सम्पूर्ण आहिंसक.....।’’ यह पूरी महिमा प्रैक्टिकल में है? अगर कोई की भी कमी हो तो उसको भरने से महिमा योग्य बन जायेंगे। तो ऐसे सदा और सच्चे वैष्णव बनने वाले लक्कीएस्ट और हाइएस्ट बच्चों को नमस्ते।



17-05-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


 संगठन रूपी किले को मबूत बनाने का साधन

पाण्डव भवन को पाण्डवों का किला कहते हैं। किले का गायन भी है। ऐसे ही जो यह ईश्वरीय संगठन है, यह संगठन भी किला ही है। जैसे स्थूल किले को बहुत मजबूत किया जाता है, जिससे कोई भी दुश्मन वार कर न सके। इस रीति से मुख्य किला है संगठन का। इसमें भी इतनी मजबूती हो जो कोई भी विकार दुश्मन के रूप से वार कर न सके। अगर कोई दुश्मन वार कर लेता है तो रूर किले की मजबूती की कमी है। यह तो संगठन रूपी किला है, इसकी मजबूती के लिए तीन बातों की आवश्यकता है। अगर तीनों बातें मजबूत हैं तो इस किले के अन्दर कोई भी रूप से कभी भी कोई दुश्मन वार नहीं कर सकेंगे। दुश्मन प्रवेश भी नहीं कर सकते, हिम्मत नहीं हो सकती। वह तीन बातें कौनसी हैं, जिससे मजबूत हो सकते हैं? एक - स्नेह; दूसरा - स्वच्छता और तीसरा है रूहानियत यह तीनों बातें अगर मजबूत हैं तो कब कोई का वार नहीं होगा। अगर कहां भी, कोई भी वार करता है, उनका कारण इन तीनों में कोई-ना-कोई कमी है। या स्नेह की कमी है या फिर रूहानियत की कमी है। तो संगठन रूपी किले को मजबूत करने के लिए इन तीन बातों पर बहुत अटेन्शन चाहिए। हरेक स्थान पर इन बातों का फोर्स रखकर भी यह लाना चाहिए। जैसे स्थूल में भी वायुमण्डल को शुद्ध करने के लिए एअर Öौश करते हैं। उससे अल्पकाल के लिए वायुमण्डल चेन्ज हो जाता है। इस रीति से इसमें भी इन बातों का प्रैशर डालना चाहिए जिससे वायुमण्डल का भी असर निकल जाए। कोई को भी आकर्षण करने की मुख्य बातें यही होती हैं। स्नेह से, स्वच्छता से प्रभावित तो हो जाते हैं लेकिन मुख्य तीसरी बात रूहानियत की जो है, यह है मुख्य। दो बातों से प्रभावित होकर गए। यह तो उन्हों के प्रति विशेष वृति और दृष्टि में अटेन्शन रहा। उसकी रिजल्ट में यह लेकर के गए। तो जैसे लोगों को भी यह मुख्य बातें आकर्षण करने के लिए निमित्त बनती हैं ना। वैसे एक दो को संगठन में लाने के लिए वा संगठन में शक्ति बढ़ाने के लिए आपस में भी यह तीन बातें एक दो को देकर के अटेन्शन दिलाने की आवश्यकता है। अगर तीनों में से कोई भी बात की कमजोरी है तो रूर कोई ना कोई विकनेस है। जो सफ़लता होनी चाहिए वह नहीं हो पाती, रूर कोई कमी है। तो यह बातें बहुत ध्यान में रखनी हैं। किले की मजबूती होती है एक दो के संगठन से। अगर किले की दीवार में एक भी ईंर्ट वा पत्थर का सहयोग पूरा ना हो तो वह किला सेफ नहीं हो सकता। रा भी हिला तो कमजोरी आ जाएगी। भले कहने में तो एक ईंट की कमी है लेकिन कमजोरी चारों ओर फैलती है। तो वैसे ही मजबूती के लिए तीन बातें बहुत रूरी हैं। फिर कोई वायब्रेशन भी टच नहीं कर सकता। अपने ऊपर अटेन्शन कम है। जैसे साकार बाप साकार रूप में लाइट-हाउस, माइट-हाउस दूर से ही दिखाई देते थे, ऐसे रूहानियत की मजबूती होने से कोई भी अन्दर आएंगे तो लाइट-हाउस, माइट-हाउस का अनुभव करेंगे। जैसे स्नेह और स्वच्छता बाहर के रूप में दिखाई देती है, वैसे ही रूहानियत वा अलौकिकता बाहर रीति से प्रत्यक्ष दिखाई दे, तब जय-जयकार होगी। ड्रामा प्रमाण जो भी कुछ चल रहा है उसको यथार्थ तो कहेंगे ही लेकिन साथ-साथ शक्ति रूप का भी अनुभव होना चाहिए। यह अलौकिकता रूर होनी चाहिए।

यह स्थान अन्य स्थानों से भिन्न है। स्वच्छता वा स्नेह तो दुनिया में भी अल्पकाल का मिलता है लेकिन रूहानियत कम है। यह ईश्वरीय कार्य चल रहा है, कोई साधारण बात नहीं है -- यह अनुभव यहां आकर करना चाहिए। वह तब होगा जब अपने अलौकिक नशे में रहकर के निशाना लगाएंगे। यह लक्ष्य रूर रखना है -- अपने चरित्र द्वारा, चलन द्वारा, वाणी द्वारा, वृत्ति द्वारा, वायुमण्डल द्वारा, सभी प्रकार के साधनों से बाप के प्रैक्टिकल पार्ट की प्रत्यक्षता अवतरण-भूमि पर तो प्रत्यक्ष मिलनी चाहिए। सिर्फ स्नेह, स्वच्छता की प्रशंसा तो कहां भी कर सकते हैं, छोटे-छोटे स्थानों में भी प्रभाव पड़ सकता है लेकिन कर्म-भूमि, चरित्र-भूमि द्वारा भूमि में आने की विशेषता होनी चाहिए। जैसे कोई को घेराव डालकर के चारों ओर उसको अपने तरफ आकर्षित करने लिए करते हैं। तो बाप के साथ स्नेह में भी समीप लाने की प्वाईंट्स का घेराव डालो। इसके लिए विशेष इस भूमि पर सम्पर्क में आने वालों को सम्बन्ध में समीप लाना चाहिए। जो सम्पर्क में आने वाले हैं वही सम्बन्ध में समीप आ सकते हैं।

चारों ओर यही आवाज कानों में गूंजता रहे, चारों ओर यही वायुमण्डल उन्हों को भले देता रहे, इसके लिए तीन बातों की आवश्यकता है। अब तक जो हुआ वह तो कहेंगे ठीक हुआ। अच्छा तो सभी होता है। लेकिन अब की स्टेज प्रमाण अब होना चाहिए अच्छे से अच्छा। जबकि चैलेन्ज करते हो - 4 वर्ष में विनाश की ज्वाला प्रत्यक्ष हो जाएगी; तो स्थापना में भी रूर बाप की प्रत्यक्षता होगी तब तो कार्य होगा ना। अच्छा! कमाल यह है जो विस्तार द्वारा बीज को प्रगट करें। विस्तार में बीज को गुप्त कर देते हैं। अब तो वृक्ष की अन्तिम स्टेज है ना। मध्य में गुप्त होता है। अन्त तक गुप्त नहीं रह सकता। अति विस्तार के बाद आखरीन बीज ही प्रत्यक्ष होता है ना। मनुष्य आत्माओं की यह नेचर होती है जो वैराइटी में आकर्षित अधिक होते हैं। लेकिन आप लोग किसलिए निमित हो? सभी आत्माओं को वैराइटी वा विस्तार के आकर्षण से अटेन्शन निकाकर बीज तरफ आकर्षित करना। अच्छा!



20-05-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


 सार-स्वरूप बनने से संकल्प और समय की बचत

मास्टर बीजरूप की स्थिति में स्थित रहने का अभ्यास करते-करते सहज इस स्मृति में अपने आपको स्थित कर सकते हो? जैसे विस्तार और वाणी में सहज ही आ जाते हो, वैसे ही वाणी से परे विस्तार के बजाय सार में स्थित हो सकते हो? हद के जादूगर विस्तार को समाने की शक्ति दिखाते हैं। तो आप बेहद के जादूगर विस्तार को नहीं समा सकते हो? कोई भी आत्मा सामने आवे; साप्ताहिक कोर्स एक सेकेण्ड में किसको दे सकते हो? अर्थात् साप्ताहिक कोर्स से जो भी आत्माओं में आत्मिक-शक्ति वा सम्बन्ध की शक्ति भरने चाहते हो वह एक सेकेण्ड में कोई भी आत्मा में भर सकते हो वा यह अन्तिम स्टेज है? जैसे कोई भी व्यक्ति दर्पण के सामने खड़े होने से ही एक सेकेण्ड में स्वयं का साक्षात्कार कर लेते हैं, वैसे आपके आत्मिक-स्थिति, शक्ति-रूपी दर्पण के आगे कोई भी आत्मा आवे तो क्या एक सेकेण्ड में स्व-स्वरूप का दर्शन वा साक्षात्कार नहीं कर सकते हैं? वह स्टेज बाप समान लाइट-हाउस और माइट-हाउस बनने के समीप अनुभव करते हो वा अभी यह स्टेज बहुत दूर है? जबकि सम्भव समझते हो तो फिर अब तक ना होने का कारण क्या है? जो सम्भव है, लेकिन प्रैक्टिकल में अब नहीं है तो रूर कोई कारण होगा। ढीलापन भी क्यों है? ऐसी स्थिति बनाने के लिए मुख्य कौनसे अटेन्शन की कमी है? जब साईंस ने भी अनेक कार्य एक सेकेण्ड में सिद्ध कर दिखाये हैं, सिर्फ स्विच ऑन और ऑफ करने की देरी होती है। तो यहां वह स्थिति क्यों नहीं बन पाती? मुख्य कौन-सा कारण है? दर्पण तो हो। दर्पण के सामने साक्षात्कार होने में कितना टाइम लगता है? अभी आप स्वयं ही विस्तार में ज्यादा जाते हो। जो स्वयं ही विस्तार में जाने वाले हैं वह और कोई को सार-रूप में कैसे स्थित कर सकते? कोई भी बात देखते वा सुनते हो तो बुद्धि को बहुत समय की आदत होने कारण विस्तार में जाने की कोशिश करते हो। जो भी देखा वा सुना उसके सार को जानकर और सेकेण्ड में समा देने का वा परिवर्तन करने का अभ्यास कम है। ‘‘क्यों, क्या’’ के विस्तार में ना चाहते भी चले जाते हो। इसलिए जैसे बीज में शक्ति अधिक होती है, वृक्ष में कम होती है, वृक्ष अर्थात् विस्तार। कोई भी चीज़ का विस्तार होगा तो शक्ति का भी विस्तार हो जाता। जैसे सेक्रीन (Saccharine; कोलतार की जीनी) और वैसे मिठास में फर्क होता है ना। वह अधिक क्वान्टिटी यूज करनी पड़ेगी। सेक्रीन कम अन्दाज में मिठास ज्यादा देगी। इस रीति से कोई भी बात के विस्तार में जाने से समय और संकल्प की शक्ति दोनों ही व्यर्थ चली जाती हैं। व्यर्थ जाने के कारण वह शक्ति नहीं रहती। इसलिए ऐसी श्रेष्ठ स्थिति बनाने के लिए सदा यह अभ्यास करो। कोई भी बात के विस्तार को समाकर सार में स्थित रह सकते हो। ऐसा अभ्यास करते-करते स्वयं सार-रूप बनने के कारण अन्य आत्माओं को भी एक सेकेण्ड में सारे ज्ञान का सार अनुभव करा सकेंगे। अनुभवीमूर्त ही अन्य को अनुभव करा सकते हैं। इस बात के स्वयं ही अनुभवी कम हो, इस कारण अन्य आत्माओं को अनुभव नहीं करा सकते हो। जैसे कोई भी पावरफुल चीज़ में वा पावरफुल साधनों में कोई भी चीज़ को परिवर्तन करने की शक्ति होती है। जैसे अग्नि बहुत तेज अर्थात् पावरफुल होगी, तो उसमें कोई भी चीज़ डालेंगे तो स्वत: ही रूप परिवर्तन में आ जाएगा। अगर अग्नि पावरफुल नहीं है तो कोई भी वस्तु के रूप को परिवर्तन नहीं कर पाएंगे। ऐसे ही सदैव अपने पावरफुल स्टेज पर स्थित रहो तो कोई भी बातें, जो व्यक्त भाव वा व्यक्त दुनिया की वस्तुएं हैं वा व्यक्त भाव में रहने वाले व्यक्ति हैं, आपके सामने आएंगे तो आपके पावरफुल स्टेज के कारण उन्हों की स्थिति वा रूपरेखा परिवर्तन हो जाएगी। व्यक्त भाव वाले का व्यक्त भाव बदलकर आत्मिक-स्थिति बन जाएगी। व्यर्थ बात परिवर्तन होते समर्थ रूप धारण कर लेगी। विकल्प शब्द शुद्ध संकल्प का रूप धारण कर लेगा। लेकिन ऐसा परिवर्तन तब होगा जब ऐसी पावरफुल स्टेज पर स्थित हां। कोई भी लौकिकता अलौकिकता में परिवर्तित हो जाएगी। साधारण असाधारण के रूप में परिवर्तित हो जाएंगे। फिर ऐसी स्थिति में स्थित रहने वाले कोई भी व्यक्ति वा वैभव वा वायुमण्डल, वायब्रेशन, वृति, दृष्टि के वश में नहीं हो सकते हैं। तो अब समझा क्या कारण है? एक तो समाने की शक्ति कम और दूसरा परिवर्तन करने की शक्ति कम। अर्थात् लाइट-हाउस, माइट-हाउस - दोनों स्थिति में स्थित सदाकाल नहीं रहते हो। कोई भी कर्म करने के पहले, जो बाप-दादा द्वारा विशेष शक्तियों की सौगात मिली है, उनको काम में नहीं लाते हो। सिर्फ देखते-सुनते खुश होते हो परन्तु समय पर काम में न लाने कारण कमी रह जाती है। हर कर्म करने के पहले मास्टर त्रिकालदर्शा बनकर कर्म नहीं करते हो। अगर मास्टर त्रिकालदर्शा बन हर कर्म, हर संकल्प करो वा वचन बोलो, तो बताओ कब भी कोई कर्म व्यर्थ वा अनर्थ वाला हो सकता है? कर्म करने के समय कर्म के वश हो जाते हो। त्रिकालदर्शा अर्थात् साक्षीपन की स्थिति में स्थित होकर इन कर्म-इन्द्रियों द्वारा कर्म नहीं करते हो, इसलिए वशीभूत हो जाते हो। वशीभूत होना अर्थात् भूतों का आह्वान करना। कर्म करने के बाद पश्चाताप होता है। लेकिन उससे क्या हुआ? कर्म की गति वा कर्म का फल तो बन गया ना। तो कर्म और कर्म के फल के बन्धन में फंसने के कारण कर्म-बन्धनी आत्मा अपनी ऊंची स्टेज को पा नहीं सकती है। तो सदैव यह चेक करो कि आये हैं कर्मबन्धनों से मुक्त होने के लिए लेकिन मुक्त होते-होते कर्मबन्धन-युक्त तो नहीं हो जाते हो? ज्ञानस्वरूप होने के बाद वा मास्टर नॉलेजफुल, मास्टर सर्वशक्तिवान होने के बाद अगर कोई ऐसा कर्म जो युक्तियुक्त नहीं है वह कर लेते हो, तो इस कर्म का बन्धन अज्ञान काल के कर्मबन्धन से पद्मगुणा ज्यादा है। इस कारण बन्धन-युक्त आत्मा स्वतन्त्र न होने कारण जो चाहे वह नहीं कर पाती। महसूस करते हैं कि यह न होना चाहिए, यह होना चाहिए, यह मिट जाए, खुशी का अनुभव हो जाए, हल्कापन आ जाए, सन्तुष्टता का अनुभव हो जाए, सर्विस सक्सेसफुल हो जाए वा दैवी परिवार के समीप और स्नेही बन जाएं। लेकिन किये हुए कर्मों के बन्धन कारण चाहते हुए भी वह अनुभव नहीं कर पाते हैं। इस कारण अपने आपसे वा अपने पुरूषार्थ से अनेक आत्माओं को सन्तुष्ट नहीं कर सकते हैं और न रह सकते हैं। इसलिए इस कर्मों की गुह्य गति को जानकर अर्थात् त्रिकालदर्शा बनकर हर कर्म करो, तब ही कर्मातीत बन सकेंगे। छोटी गलतियां संकल्प रूप में भी हो जाती हैं, उनका हिसाब-किताब बहुत कड़ा बनता है। छोटी गलती अब बड़ी समझनी है। जैसे अति स्वच्छ वस्तु के अन्दर छोटा- सा दाग भी बड़ा दिखाई देता है। ऐसे ही वर्तमान समय अति स्वच्छ, सम्पूर्ण स्थिति के समीप आ रहे हो। इसलिए छोटी-सी गलती भी अब बड़े रूप में गिनती की जाएगी। इसलिए इसमें भी अनजान नहीं रहना है कि यह छोटी- छोटी गलतियां हैं, यह तो होंगी ही। नहीं। अब समय बदल गया। समय के साथ-साथ पुरूषार्थ की रफ्तार बदल गई। वर्तमान समय के प्रमाण छोटी-सी गलती भी बड़ी कमजोरी के रूप में गिनती की जाती है। इसलिए कदम-कदम पर सावधान! एक छोटी-सी गलती बहुत समय के लिए अपनी प्राप्ति से वंचित कर देती है। इसलिए नॉलेजफुल अर्थात् लाइट-हाउस, माइट-हाउस बनो। अनेक आत्माओं को रास्ता दिखाने वाले स्वयं ही रास्ते चलते-चलते रूक जाएं तो औरों को रास्ता दिखाने के निमित कैसे बनेंगे? इसलिए सदा विघ्न-विनाशक बनो। अच्छा!

ऐसे सदा त्रिकालदर्शी, कर्मयोगी बन चलने वालों को नमस्ते।



24-05-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


 परिवर्तन का आधार - दृढ़ संकल्प

ज सर्व पुरुषार्थी आत्माओं को देख-देख खुश हो रहे हैं क्योंकि जानते हैं कि यही श्रेष्ठ आत्मायें सृष्टि को परिवर्तन करने के निमित बनी हुई हैं। एक-एक श्रेष्ठ आत्मा नंबरवार कितनी कमाल कर रही है। वर्तमान समय भले कोई भी कमी वा कमजोरी है लेकिन भविष्य में यही आत्मायें क्या से क्या बनने वाली हैं और क्या से क्या बनाने वाली हैं! तो भविष्य को देख, आप सभी की सम्पूर्ण स्टेज को देख हर्षित हो रहे हैं। सभी से बड़े ते बड़े रूहानी जादूगर हो ना। जैसे जादूगर थोड़े ही समय में बहुत विचित्र खेल दिखाते हैं, वैसे आप रूहानी जादूगर भी अपनी रूहानियत की शक्ति से सारे विश्व को परिवर्तन में लाने वाले हो, कंगाल को डभले ताजधारी बनाने वाले हो। परन्तु इतना बड़ा कार्य स्वयं को बदलने अथवा विश्व को बदलने का, एक ही दृढ़ संकल्प से करने वाले हो। एक ही दृढ़ संकल्प से अपने को बदल देते हो। वह कौनसा एक दृढ़ संकल्प, जिस एक संकल्प से अनेक जन्मों की विस्मृति के संस्कार स्मृति में बदल जाएं? वह एक संकल्प कौनसा? है भी एक सेकेण्ड की बात जिससे स्वयं को बदल लिया। एक ही सेकेण्ड का और एक ही संकल्प यह धारण किया कि मैं आत्मा हूं। इस दृढ़ संकल्प से ही अपने सभी बातों को परिवर्तन में लाया। ऐसे ही, दृढ़ संकल्प से विश्व को भी परिवर्तन में लाते हो। वह एक दृढ़ संकल्प कौन-सा? हम ही विश्व के आधारमूर्त, उद्धारमूर्त हैं अर्थात् विश्व-कल्याणकारी हैं। इस संकल्प को धारण करने से ही विश्व के परिवर्तन के कर्त्तव्य में सदा तत्पर रहते हो। तो एक ही संकल्प से अपने को वा विश्व को बदल लेते हो, ऐसे रूहानी जादूगर हो। वह जादूगर तो अल्पकाल के लिए चीजों को परिवर्तन में लाकर दिखाते हैं, लेकिन आप रूहानी जादूगर अविनाशी परिवर्तन, अविनाशी प्राप्ति करने-कराने वाले हो। तो सदा अपने इस श्रेष्ठ मर्तबे और श्रेष्ठ कर्त्तव्य को सामने रखते हुए हर संकल्प वा कर्म करो तो कोई भी संकल्प वा कर्म व्यर्थ नहीं होगा। चलते-चलते पुराने शरीर और पुरानी दुनिया में रहते हुए अपने श्रेष्ठ मर्तबे को और श्रेष्ठ कर्त्तव्य को भूल जाने के कारण अनेक प्रकार की भूलें हो जाती हैं। अपने आपको भूलना - यह भी भूल है ना। जो अपने आपको भूलता है वह अनेक भूलों के निमित्त बन जाते हैं। इसलिए अपने मर्तबे को सदैव सामने रखो। जैसे सच्चे भक्त लोग जो होते हैं वह भी दुनिया की तुलना में, जो दुनिया वाले नास्तिक, अज्ञानी लोग विकर्म करते हैं, विकारों के वश होते हैं, उनसे काफी दूर रहते हैं। क्यों? कारण क्या होता है कि जो नवधा अर्थात् सच्चे भक्त हैं वह सदैव अपने सामने अपने इष्ट को रखते हैं। उनको सामने रखने कारण कई बातों में सेफ रह जाते हैं और कई आत्माओं से श्रेष्ठ बन जाते हैं। जब भक्त भी भक्ति द्वारा इष्ट को सामने रखने से नास्तिक और अज्ञानी से श्रेष्ठ बन सकते हैं, तो ज्ञानी तू आत्माएं सदा अपने श्रेष्ठ मर्तबे और कर्त्तव्य को सामने रखें तो क्या बन जाएंगी? श्रेष्ठ ते श्रेष्ठ आत्माएं। तो अपने आप से पूछो, देखो कि सदा अपना मर्तबा और कर्त्तव्य सामने रहता है? बहुत समय भूलने के संस्कारों को धारण किया, लेकिन अब भी अगर बार-बार भूलने के संस्कार धारण करते रहेंगे तो स्मृतिस्वरूप का जो नशा वा खुशी प्राप्त होनी चाहिए वह कब करेंगे? स्मृति-स्वरूप का सुख वा स्मृति-स्वरूप की खुशी का अनुभव क्यों नहीं होता है? उसका मुख्य कारण क्या है? अभी तक सर्व रूपों से नष्टोमोहा नहीं हुए हो। नष्टोमोहा हैं तो फिर भले कितनी भी कोशिश करो लेकिन स्मृतिस्वरूप में आ जाएंगे। तो प्हले ‘‘नष्टोमोहा कहां तक हुए हैं’’ - यह अपने आपको चेक करो। बार-बार देहअभिमान में आना यह सिद्ध करता है -- देह की ममता से परे नहीं हुए हैं वा देह के मोह को नष्ट नहीं किया है। नष्टोमोहा ना होने कारण समय और शक्तियां जो बाप द्वारा वर्से में प्राप्त हो रही हैं, उन्हों को भी नष्ट कर देते हो, काम में नहीं लगा सकते हो। मिलती तो सभी को हैं ना। जब बच्चे बने तो जो भी बाप की प्रापर्टा वा वर्सा है उसके अधिकारी बनते हैं। तो सर्व आत्माओं को सर्व शक्तियों का वर्सा मिलता ही है लेकिन उस सर्व शक्तियों के वर्से को काम में लगाना और अपने आप को उन्नति में लाना, यह नंबरवार पुरूषार्थ अनुसार होता है। इसलिए बेहद बाप के बच्चे और वर्सा हद का लेवें, तो क्या कहेंगे? बेहद मर्तबे के बजाए हद का वर्सा वा मर्तबा लेना - यह बेहद के बच्चों का कर्त्तव्य नहीं है। तो अभी भी अपने आपको बेहद के वर्से के अधिकारी बनाओ। अधिकारी कब अधीन नहीं होता है। अपनी रचना के अधीन नहीं होता है, अपनी रचना के अधीन होना, इसको अधिकारी कहेंगे? बार-बार विस्मृति में आने से अपने आप को ही कमजोर बना देते हो। कमजोर होने के कारण छोटी-सी बात का सामना नहीं कर पाते हो। तो अब आधे कल्प के इन विस्मृति के संस्कारों को विदाई दो। आज बाप दादा भी आप सभी से प्रतिज्ञा कराते हैं। जैसे आप लोग दुनिया वालों को चैलेन्ज करते हो कि विनाश में 4 वर्ष हैं; तो क्या 4 वर्ष के लिए भी अपने आपको सतोप्रधान नहीं बना सकते हो? जैसे दुनिया को चैलेन्ज करते हो वैसे आप भी 4 वर्ष के लिए विस्मृति के संस्कारों को विदाई नहीं दे सकते हो? दुनिया को चैलेन्ज करने वाले स्वयं अपने लिए 4 वर्ष के लिए माया को चैलेन्ज नहीं कर सकते हो? 4 वर्ष के लिए मायाजीत नहीं बन सकते हो? जब उन्हों को हिम्मत दिलाते हो, उल्लास में लाते हो, तो क्या अपने आपमें अपने प्रति अपने आपको हिम्मत-उल्लास नहीं दे सकते हो? तो आज से सिर्फ 4 वर्ष के लिए प्रतिज्ञा करो कि कभी किस रूप में भी, किस परिस्थिति में भी माया से हारेंगे नहीं लेकिन लड़ेंगे और विजयी बनेंगे। तो 4 वर्ष के लिए यह कंगन नहीं बांध सकते हो? जिन्हों को नॉलेज नहीं, शक्ति नहीं उन्हों को भी राखी बांध-बांध करके प्रतिज्ञा कराते हो और जो बहुत काल से नॉलेज, सम्बन्ध और शक्ति को प्राप्त करने वाले हों वह श्रेष्ठ आत्मायें, महावीर आत्मायें, शक्तिस्वरूप आत्मायें, पाण्डव सेना क्या यह प्रतिज्ञा की राखी नहीं बांध सकते हो? क्या अन्त तक कमजोरी और कमी को अपना साथी बनाने चाहते हो? आजकल साइन्स द्वारा भी एक सेकेण्ड में कोई भी वस्तु को भस्म कर लेते हैं। तो नॉलेजफुल मास्टर सर्वशक्तिवान एक सेकेण्ड के दृढ़ संकल्प से वा प्रतिज्ञा से अपनी कमजोरियों को भस्म नहीं कर सकते हो? वह भी सिर्फ 4 वर्ष के लिए कह रहे हैं। 4 वर्ष की प्रतिज्ञा सहज है वा मुश्किल है? औरों को तो बड़े फोर्स, फलक से यह प्वाइन्ट देते हो। तो जैसे औरों को फलक और फखुर से कहते हो वैसे अपने आप में भी विजयी बनने की फलक और फखुर नहीं रख सकते हो? तो आज से कमजोरियों को कम से कम 4 वर्ष के लिए तो विदाई दे दो। 4 वर्ष आप के लिए 4 सेकेण्ड हैं ना। अभी यहां हो, अभी- अभी वहां हो; अभी-अभी पुरुषार्थी, अभी-अभी फरिश्ता रूप -- इतना समीप अपनी सम्पूर्ण स्थिति दिखाई नहीं दे रही है? जब समय इतना नजदीक है तो सम्पूर्ण स्थिति भी तो नजदीक है। इससे भी पुरूषार्थ में भले भरेगा। जैसे कोई को मालूम पड़ जाता है कि मंजिल अभी सिर्फ इतनी थोड़ी-सी दूर है, मंजिल पर पहुंचने की खुशी में सभी बात भूल जाते हैं। यह जो चलते-चलते पुरूषार्थ में थकावट वा छोटी-छोटी उलझनों में फंसकर आलस्य में आ जाते हो, उन सभी को मिटाने के लिए अपने सामने स्पष्ट समय और समय के साथ-साथ अपनी प्राप्ति को रखो तो आलस्य वा थकावट मिट जायेगी। जैसे हर वर्ष का सर्विस प्लैन बनाते हो वैसे हर वर्ष में अपनी चढ़ती कला वा सम्पूर्ण बनने का वा श्रेष्ठ संकल्प वा कर्म करने का भी अपने आप के लिए प्लैन बनाओ और प्लैन के साथ हर समय प्लैन को सामने देखते हुए प्रैक्टिकल में लाते जाओ। अच्छा!

ऐसी प्रतिज्ञा कर अपने सम्पूर्ण स्वरूप को और बाप को प्रत्यक्ष करने वालों को नमस्ते।



27-05-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


 रावण से विमुख और बाप के सम्मुख रहो

स समय जो सभी बैठे हो, सभी की इस समय की स्टेज श्रेष्ठ स्टेज कहें वा अव्यक्त स्थिति कहें? इस समय सभी की अव्यक्त स्थिति है वा अब भी कोई व्यक्त भाव में स्थित है? कोई भी व्यक्त स्थिति में स्थित होकर बैठेंगे तो अव्यक्त मिलन वा अव्यक्त बोल को धारण नहीं कर सकेंगे। तो अव्यक्ति स्थिति में स्थित हो? जो नहीं हैं वो हाथ उठावें। अगर इस समय अव्यक्त स्थिति में स्थित हो, व्यक्त भाव के भान से परे हो; तो क्यों परे हो? सभी की एक ही अव्यक्त स्थिति क्यों बनी, कैसे बनी? अव्यक्त बापदादा के सामने होने कारण सभी की एक ही अव्यक्त स्थिति बन गई है। तो ऐसे ही अगर सदा अपने को बापदादा के सम्मुख समझ करके चलो तो क्या स्थिति होगी? अव्यक्त होगी ना। तो बापदादा के सदा सम्मुख रहने के बजाए बापदादा को अपने से अलग वा दूर क्यों समझ कर चलते हो? जैसे एक सीता का मिसाल सुनाते वा सुनते रहते हो कि सीता सदा किसके सम्मुख रहती थी -- राम के। सम्मुख अर्थात् स्थूल में सम्मुख नहीं लेकिन बुद्धि से सदा बापदादा के सम्मुख रहना है। बापदादा के सम्मुख रहना अर्थात् रावण माया से विमुख रहना है। जब माया के सम्मुख हो जाते हो तो बाप से बुद्धि विमुख हो जाती है। जो अति प्यारे ते प्यारा सम्बन्ध होता है उससे स्वत: ही सम्मुख ही बैठने-उठने, खाने-पीने, चलने अर्थात् सदा साथ का अनुभव होता है। तो क्या बापदादा के सदा सम्मुख नहीं रह सकते हो? अगर सदा सम्मुख रहेंगे तो सदा अव्यक्त स्थिति रहेगी। तो दूर क्यों हो जाते हो? क्या यह भी बचपन का खेल करते हो? कई ऐसे बच्चे होते हैं जो जितना ही मां-बाप पास में बुलाते हैं उतना ही नटखट होने कारण दूर भागते हैं। तो क्या यह अच्छा लगता है? सदा अपने को सम्मुख समझने से अपने को सदा आलमाइटी अथॉरिटी महसूस करेंगे। आलमाइटी अथॉरिटी के आगे और काई भी अथॉरिटी वार नहीं कर सकती है वा आलमाइटी अथॉरिटी कब भी हार नहीं खा सकते हैं।

आज अल्पकाल की अथॉरिटी वाले भी कितने शक्तिशाली रहते हैं! तो आलमाइटी अथॉरिटी वाले तो सर्वशक्तिवान् हैं ना। सर्वशक्तियों के आगे अल्पकाल की शक्ति वाले भी सिर झुकाने वाले हैं। वार नहीं करेंगे लेकिन सिर झुकायेंगे। वार के बजाय बार-बार नमस्कार करेंगे। तो ऐसे अपने को आलमाइटी अथॉरिटी समझकर के फिर हर कदम उठाते हो? अपने को आलमाइटी अथॉरिटी समझना अर्थात् आलमाइटी बाप को सदा साथ रखना है। जैसे देखो, आजकल के भक्ति-मार्ग के लोगों को कौनसी अथॉरिटी है? शास्त्र की। उन्हों की बुद्धि में सदा शास्त्र ही रहेंगे ना। कोई भी काम करेंगे तो सामने शास्त्र ही लायेंगे, कहेंगे -- यह जो कर्म कर रहे हैं वह शास्त्र प्रमाण हैं। तो जैसे शास्त्र की अथॉरिटी वालों को सदा बुद्धि में शास्त्र का आधार रहता है अर्थात् शास्त्र ही बुद्धि में रहते हैं। उनके सम्मुख शास्त्र हैं, आप लोगों के सामने क्या है? आलमाइटी बाप। तो जैसे वह कोई भी कार्य करते हैं तो शास्त्र का आधार होने कारण अथॉरिटी से वही कर्म सत्य मानकर करते हैं। कितना भी आप मिटाने की कोशिश करो लेकिन अपने आधार को छोड़ते नहीं हैं। कोई भी बात में बार-बार कहेंगे कि शास्त्र की अथॉरिटी से हम बोलते हैं, शास्त्र कब झूठे हो ना सकें, जो शास्त्र में है वही सत्य है। इतना अटल निश्चय रहता है। ऐसे ही जो आलमाइटी बाप की अथॉरिटी है उसकी अथॉरिटी से सर्व कार्य हम करने वाले हैं - यह इतना अटल निश्चय हो जो कोई टाल ना सके। ऐसा अटल निश्चय है? सदैव अपनी अथॉरिटी भी याद रहे। कि दूसरे की अथॉरिटी को देखते हुए अपनी अथॉरिटी भूल जाती है? सभी से श्रेष्ठ अथॉरिटी के आधार पर चलने वाले हो ना। अगर सदैव यह अथॉरिटी याद रखो तो पुरूषार्थ में कब भी मुश्किल मार्ग का अनुभव नहीं करेंगे। कितना भी कोई बड़ा कार्य हो लेकिन आलमाइटी अथॉरिटी के आधार से अति सहज अनुभव करेंगे। कोई भी कर्म करने के पहले अथॉरिटी को सामने रखने से बहुत सहज जज कर सकते हो कि यह कर्म करें वा ना करें। सामने अथॉरिटी का आधार होने कारण सिर्फ उनको कॉपी करना है। कॉपी करना तो सहज होता है वा मुश्किल होता है? हां वा ना - उसका जवाब अथॉरिटी को सामने रखने से ऑटोमेटिकली आपको आ जाएगा। जैसे आजकल साईंस ने भी ऐसी मशीनरी तैयार की है जो कोई भी क्वेश्चन डालो तो उसका उत्तर सहज ही मिल आता है। मशीनरी द्वारा प्रश्न का उत्तर निकल जाता है, तो दिमाग चलाने से छूट जाते हैं। तो ऐसे ही ऑलमाइटी अथॉरिटी को सामने रखने से जो भी प्रश्न करेंगे उनका उत्तर प्रैक्टिकल में आपको सहज ही मिल जाएगा। सहज मार्ग अनुभव होगा। ऐसे सहज और श्रेष्ठ आधार मिलते हुए भी अगर कोई उस आधार का लाभ नहीं उठाते तो उसको क्या कहेंगे? अपनी कमजोरी। तो कमजोर आत्मा बनने के बजाय्य शक्तिशाली आत्मा बनो और बनाओ। अपने को ऑलमाइटी अथॉरिटी समझने से 3 मुख्य बातें ऑटोमेटिकली अपने में धारण हो जाएंगी। वह तीन बातें कौनसी?

बुद्धि की ड्रिल करने से सुना हुआ ज्ञान दुहराते हो। यह भी अच्छा है, इससे भी शक्ति बढ़ती है। कोई भी अथॉरिटी वाले होते हैं, साधारण अथॉरिटी वालों में भी 3 बातें होती हैं -- एक निश्चय, दूसरा नशा और तीसरा निर्भयता। यह तीन बातें अथॉरिटी वाले रॉंग होते भी, अयथार्थ होते भी कितना दृढ़ निश्चयबुद्धि होकर बोलते वा चलते हैं! जितना ही निश्चय होगा उतना निर्भय होकर नशे में बोलते हैं। ऐसे ही देखो, जब आप सभी ऑलमाइटी अथॉरिटी हो, सभी से श्रेष्ठ अथॉरिटी वाले हो; तो कितना नशा रहना चाहिए और कितना निश्चय से बोलना चाहिए! और फिर निर्भयता भी चाहिए। कोई भी किस भी रीति से हार खिलाने की कोशिश करे लेकिन निर्भयता, निश्चय और नशे के आधार पर वब हार खा सकेंगे? नहीं, सदा विजयी होंगे। विजयी ना होने का कारण इन तीन बातों में से कोई बात की कमी है, इसलिए विजयी नहीं बन पाते हो। तो यह तीनों ही बातें अपने आप में देखो कि कहां तक हर कदम उठाने में यह बातें प्रैक्टिकल में हैं? एक होता है टोटल नॉलेज में, बाप में निश्चय। लेकिन कोई भी कर्म करते, बोल बोलते यह तीनों ही क्वॉलिफि- केशन रहें। वह प्रैक्टिकल की बात दूसरी होती है। और जब यह तीनों बातें हर कर्म, हर बोल में आ जाएंगी तब ही आपके हर बोल और हर कर्म ऑलमाइटी अथॉरिटी को प्रत्यक्ष करेंगे। अभी तो साधारण समझते हैं। इन्हों की अथॉरिटी स्वयं ऑलमाइटी बाप है - यह नहीं अनुभव करते हैं। यह अनुभव तब करेंगे जब एक सेकेण्ड भी अथॉरिटी को छोड़ करके कोई भी कर्म नहीं करेंगे वा बोल नहीं बोलेंगे। अथॉरिटी को भूलने से साधारण कर्म हो जाता है। तो अन्य लोगों को भी साधारण, जैसे अन्य लोग थोड़ा-बहुत कर रहे हैं, वैसे ही अनुभव होता है। जो आते भी हैं तो रिजल्ट में क्या कहते हैं? आप लोगों की विशेषता को वर्णन करते हुए साथ में विशेषता के साथ साधारणता भी रूर वर्णन करते रहते हैं - और संस्थाओं में भी ऐसे हैं, जैसे वह कर रहे हैं, वैसे यह भी कर रहे हैं। तो साधारणता हुई ना। एक-दो बात विशेष लगती है लेकिन हर कर्म, हर बोल विशेष लगे जो और कोई से तुलना ना कर सकें वह स्टेज तो नहीं आई है ना। ऑलमाइटी की कोई भी एक्टिविटी साधारण कैसे हो सकती? परमात्मा के अथॉरिटी और आत्माओं के अथॉरिटी में तो रात-दिन का फर्क होना चाहिए! ऐसा अपने आप मे अर्थात् अपने बोल और कर्म में अन्य आत्माओं से रात-दिन का अन्तर महसूस करते हो? रात-दिन का अन्तर इतना होता है जो कोई को समझाने की आवश्यकता नहीं होती कि यह अन्तर है, ऑटोमेटिकली समझ जाएंगे -- यह रात, यह दिन है। तो आप भी जबकि ऑलमाइटी अथॉरिटी के आधार से हर कर्म करने वाले हो, हर डायरेक्शन प्रमाण चलने वाले हो; तो अन्तर रात-दिन का दिखाई देना चाहिए। ऐसे अन्तर हो जो आने से ही समझ लें कि कोई साधारण स्थान नहीं, इन्हों की नॉलेज साधारण नहीं। ऐसा जब प्रभाव पड़े तब समझो अपनी अथॉरिटी को प्रत्यक्ष कर रहे हैं। जैसे शास्त्रवादियों के बोल दिखाई देते हैं कि इन्हों को शास्त्र की अथॉरिटी है, वैसे आपके हर बोल से अथॉरिटी प्रसिद्ध होनी चाहिए। फाइनल स्टेज तो यही है ना। बोल से, चेहरे से, चलन से, सभी से अथॉरिटी का मालूम पड़ना चाहिए। आजकल के जमाने में अगर छोटी-मोटी अथॉरिटी वाले ऑफीसर अपने कर्त्तव्य में जब होते हैं तो कितना अथॉरिटी का कर्म दिखाई देता है। नशा रहता है ना। उसी नशे से हर कर्म करते हैं। वे हद के शास्त्रों की अथॉरिटी हैं। यह है अलौकिक अविनाशी अथॉरिटी

ऐसे अथॉरिटी बाप को सम्मुख रख अथॉरिटी से चलने वाली आत्माओं को नमस्ते



31-05-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


भविष्य में अष्ट देवता और भक्ति में इष्ट बनने का पुरूषार्थ

अपने आपको सदा शिवशक्ति समझ कर हर कर्म करती हो? अपने अलंकार वा अष्ट भुजाधारी मूर्त सदा अपने सामने रहती है? अष्ट भुजाधारी अर्थात् अष्ट शक्तिवान। तो सदा अपने अष्ट शक्ति-स्वरूप स्पष्ट रूप में दिखाई देते हैं? शक्तियों का गायन है ना -- शिवमई शक्तियाँ। तो शिव बाबा की स्मृति में सदा रहती हो? शिव और शक्ति - दोनों का साथ-साथ गायन है। जैसे आत्मा और शरीर - दोनों का साथ है, जब तक इस सृष्टि पर पार्ट है तब तक अलग नहीं हो सकते। ऐसे ही शिव और शक्ति - दोनों का भी इतना ही गहरा सम्बन्ध है, जो गायन है शिवशक्तिपन का। तो ऐसे ही सदैव साथ का अनुभव करती हो वा सिर्फ गायन है? सदा साथ ऐसा हो जो कोई भी कब इस साथ को तोड़ न सके, मिटा न सके। ऐसे अनुभव करते हुए सदा शिवमई शक्ति-स्वरूप में स्थित होकर चलो तो कब भी दोनों की लगन में माया विघ्न डाल नहीं सकती। कहावत भी है - दो दस के बराबर होते हैं। तो जब शिव और शक्ति दोनों का साथ हो गया तो ऐसी शक्ति के आगे कोई कुछ कर सकता है? इन डभले शक्तियों के आगे और कोई भी शक्ति अपना वार नहीं कर सकती वा हार खिला नहीं सकती। अगर हार होती है वा माया का वार होता हैय्; तो क्या उस समय शिव-शक्ति-स्वरूप में स्थित हो? अपने अष्ट-शक्तियाँ-सम्पन्न सम्पूर्ण स्वरूप में स्थित हो? अष्ट शक्तियों में से अगर कोई भी एक शक्ति की कमी है तो अष्ट भुजाधारी शक्तियों का जो गायन है वह हो सकता है? सदैव अपने आपको देखो कि हम सदैव अष्ट शक्तियाँधारी शिव-शक्ति होकर के चल रही हैं? जो सदा अष्ट शक्तियों को धारण करने वाले हैं वही अष्ट देवताओं में आ सकते हैं। अगर अपने में कोई भी शक्ति की कमी अनुभव करते हो तो अष्ट देवताओं में आना मुश्किल है। और अष्ट देवता सारी सृष्टि के लिए इष्ट रूप में गाये और पूजे जाते हैं। तो भक्ति मार्ग में इष्ट बनना है वा भविष्य में अष्ट देवता बनना है तो अष्ट शक्तियों की धारण सदैव अपने में करते चलो। इन शक्तियों की धारणा से स्वत: ही और सहज ही दो बातों का अनुभव करेंगे। वह कौनसी दो बातें? सदा पने को शिव-शक्ति वा अष्ट भुजाधारी अथवा अष्ट शक्तिधारी समझने से एक तो सदा साथीपन का अनुभव करेंगे और दूसरा सदा अपनी स्टेज साक्षीपन की अनुभव करेंगे। एक साथी और दूसरा साक्षी, यह दोनों अनुभव होंगे, जिसको दूसरे शब्दों में साक्षी अवस्था अर्थात् बिन्दु रूप की स्टेज कहा जाता है और साथीपन का अनुभव अर्थात् अव्यक्त स्थिति का अनुभव कहा जाता है। अष्ट शक्ति की धारणा होने से इन दोनों स्थिति का अनुभव सदा सहज और स्वत: करेंगे। ऐसे अनुभव करेंगे जैसे कोई साकार में साथ होता है तो फिर कब भी अपने में अकेलापन वा कमजोरीपन अनुभव नहीं होती है। इस रीति से जब सर्वशक्तिवान शिव और शक्ति दोनों की स्मृति रहती है तो चलते-फिरते बिल्कुल ऐसे अनुभव करेंगे जैसे साकार में साथ हैं और हाथ में हाथ है। गाया जाता है ना - साथ और हाथ। तो साथ है बुद्धि की लगन और सदा अपने साथ श्रीमत रूपी हाथ अनुभव करेंगे। जैसे कोई के ऊपर किसका हाथ होता है तो वह निर्भय और शक्ति-रूप हो कोई भी मुश्किल कार्य करने को तैयार हो जाता है। इसी रीति जब श्रीमत रूपी हाथ अपने ऊपर सदा अनुभव करेंगे, तो कोई भी मुश्किल परिस्थिति वा माया के विघ्न से घबरायेंगे नहीं। हाथ की मदद से, हिम्मत से सामना करना सहज अनुभव करेंगे। इसके लिए चित्रों में भक्त और भगवान् का रूप क्या दिखाते हैं? शक्तियों का चित्र भी देखेंगे तो वरदान का हाथ भक्तों के ऊपर दिखाते हैं। मस्तक के ऊपर हाथ दिखाते हैं। इसका अर्थ भी यही है कि मस्तक अर्थात् बुद्धि में सदैव श्रीमत रूपी हाथ अगर है तो हाथ और साथ होने कारण सदा विजयी हैं। ऐसा सदैव साथ और हाथ का अनुभव करते हो? कितनी भी कमजोर आत्मा हो लेकिन साथ अगर सर्वशक्तिवान है तो कमजोर आत्मा में भी स्वत: ही भले भर जाता है। कितना भी भयानक स्थान है लेकिन साथी शूरवीर है तो कैसा भी कमजोर शूरवीर हो जाएगा। फिर कब माया से घबरायेंगे नहीं। माया से घबराने वा माया का सामना ना करने का कारण साथ और हाथ का अनुभव नहीं करते हो। बाप साथ दे रहे हैं, लेकिन लेने वाला ना लेवे तो क्या करेंगे? जैसे बाप बच्चे का हाथ पकड़ कर उनको सही रास्ते पर लाना चाहते हैं, लेकिन बच्चा बार-बार हाथ छुड़ा कर अपनी मत पर चले तो क्या होगा? मूँझ जाएगा। इस रीति एक तो बुद्धि के संग और साथ को भूल जाते हो और श्रीमत रूपी हाथ को छोड़ देते हो, तब मूँझते हो वा उलझन में आते हो। और श्रीमत रूपी हाथ को छोड़ देते हो तब मूँझते हो वा उलझन में आते हो अथवा कमजोर बन जाते हो। माया भी बड़ी चतुर है। कभी भी वार करने के लिए पहले साथ और हाथ छुड़ा कर अकेला बनाती है। जब अकेले कमजोर पड़ जाते हो तब माया वार करती है। वैसे भी अगर कोई दुश्मन किसी के ऊपर वार करता है तो पहले उनको संग और साथ से छुड़ाते हैं। कोई ना कोई युक्ति से उनको अकेला बना कर फिर वार करते हैं। तो माया भी पहले साथ और हाथ छुड़ा कर फिर वार करेगी। अगर साथ और हाथ छोड़ो ही नहीं तो फिर सर्वशक्तिवान साथ होते माया क्या कर सकती है? मायाजीत हो जायेंगे। तो साथ और हाथ को कब छोड़ो नहीं। ऐसे सदा मास्टर सर्वशक्तिवान बनकर के चलो। भक्ति में भी पुकारते हैं ना - एक बार हाथ पकड़ लो। तो बाप हाथ पकड़ते हैं, हाथ में हाथ देकर चलाना चाहते हैं फिर भी हाथ छोड़ देते हैं तो भटकना नहीं होगा तो क्या होगा? तो अब अपने आपको भटकाने के निमित्त भी स्वयं ही बनते हो। जैसे कोई भी योद्धा युद्ध के मैदान पर जाने से पहले ही अपने शस्त्र को, अपनी सामग्री को साथ में रख करके फिर मैदान में जाते हैं। ऐसे ही इस कर्मक्षेत्र रूपी मैदान पर कोई भी कर्म करने अथवा योद्धे बन युद्ध करने के लिए आते हो; तो कर्म करने से पहले अपने शस्त्र अर्थात् यह अष्ट शक्तियों की सामग्री साथ रख कर फिर कर्म करते हो? वा जिस समय दुश्मन आता है उस समय सामग्री याद आती है? तो फिर क्या होगा? हार हो जाएगी। सदा अपने को कर्मक्षेत्र पर कर्म करने वाले योद्धे अर्थात् महारथी समझो। जो युद्ध के मैदान पर सामना करने वाले होते हैं वह कभी भी शस्त्र को नहीं छोड़ते हैं। सोने के समय भी अपने शस्त्र को नहीं छोड़ते हैं। ऐसे ही सोते समय भी अपनी अष्ट शक्तियों को विस्मृति में नहीं लाना है अर्थात् अपने शस्त्र को साथ में रखना है। ऐसे नहीं - जब कोई माया का वार होता है उस समय बैठ सोचो कि क्या युक्ति अपनाऊं? सोच करते-करते ही समय बीत जाएगा। इसलिए सदैव एवररेडी रहना चाहिए। सदा अलर्ट और एवररेडी अगर नहीं हैं तो कहीं ना कहीं माया धोखा खिलाती है और धोखे का रिजल्ट क्या होता? अपने आपको देख कर ही दु:ख की लहर उत्पन्न हो जाती है। अपनी कमी ही कमी को लाती है। अगर अपनी कमी नहीं है तो कब भी कोई भी कमी नहीं आ सकती। बेगमपुर के बादशाह कहते थे ना। यह इस समय की स्टेज है जबकि गम की दुनिया सामने है। गम और बे-गम की अभी नॉलेज है। इसके होते हुए उस स्थिति में सदा निवास करते, इसलिये बेगमपुर का बादशाह कहा जाता है। भले बेगर हो लेकिन बेगर होते भी बेगमपुर के बादशाह हो। तो सदा इस नशे में रहते हो कि हम बेगमपुर के बादशाह हैं? बादशाह अथवा राजे लोगों में ऑटोमेटिकली शक्ति रहती है राज्य चलाने की। लेकिन उस ऑटोमेटिक शक्ति को अगर सही रीति काम में नहीं लगाते हैं, कहीं ना कहीं उलटे कार्य में फंस जाते हैं तो राजाई की शक्ति खो लेते हैं और राज्य पद गंवा देते हैं। ऐसे ही यहॉं भी तुम हो बेगमपुर के बादशाह और सर्व शक्तियों की प्राप्ति है। लेकिन अगर कोई ना कोई संगदोष वा कोई कर्मेन्द्रिय के वशीभूत हो अपनी शक्ति खो लेते हो तो जो बेगमपुर का नशा वा खुशी प्राप्त है वह स्वत: ही खो जाती है। जैसे वह बादशाह भी कंगाल बन जाते हैं, वैसे ही यहाँ भी माया के अधीन होने के कारण मोहताज, कंगाल बन जाते हैं। तब तो कहते हैं - क्या करें, कैसे होगा, कब होगा? यह सभी है कंगालपन, मोहताजपन की निशानी। कहां न कहां कोई कर्मेन्द्रियों के वश हो अपनी शक्तियों को खो लेते हैं। समझा? तो अष्ट शक्ति स्वरूप बेगमपुर के बादशाह हैं, इस स्मृति को कब भूलना नहीं। भक्ति में भी सदैव यही पुकारा कि सदा आपकी छत्रछाया में रहें। तो इस साथ और हाथ की छत्रछाया से बाहर क्यों निकलते हो? आज की पुरानी दुनिया में अगर कोई छोटे-मोटे मर्तबे वाले का भी कोई साथी अच्छा होता है तो भी अपनी खुमारी में और खुशी में रहते हैं। समझते हैं - हमारा बैकबोन पावरफुल है। इसलिए खुमारी और खुशी में रहते हैं। आप लोगों का बैकबोन कौन है! जिनका सर्वशक्तिवान् बैकबोन है तो कितनी खुमारी और खुशी होनी चाहिए! कब खुशी की लहर खत्म हो सकती है? सागर में कब लहरें खत्म होती हैं क्या? नदी में लहर उठती नहीं। सागर में तो लहरें उठती रहती हैं। तो मास्टर सागर हो ना। फिर ईश्वरीय खुमारी वा ईश्वरीय खुशी की लहर कब खत्म हो सकती है? खत्म तब होती है जब सागर से सम्बन्ध टूट जाता है; अर्थात् साथ और हाथ छोड़ देते हो तब खुशी की लहर समा जाती है। अगर सदा साथ का अनुभव करो तो पाप कर्म से भी सदा सहज बच जाओ; क्योंकि पाप कर्म अकेलेपन में होता है। कोई चोरी करता है, झूठ बोलता है वा कोई भी विकार वश होता है जिसको अपवित्रता के संकल्प वा कर्म कहा जाता है, वह अकेलेपन में ही होता है। अगर सदा अपने को बाप के साथ-साथ अनुभव करो तो फिर यह कर्म होंगे ही नहीं। कोई देख रहा हो तो फिर चोरी करेंगे? कोई सामने-सामने सुन रहा हो तो फिर झूठ बोलेंगे? कोई भी विकर्म वा व्यर्थ कर्म बार-बार हो जाते हैं तो इसका कारण यह है कि सदा साथी को साथ में नहीं रखते हो अथवा साथ का अनुभव नहीं करते हो। कभी-कभी चलते-चलते उदास भी क्यों होते हो? उदास तब होते हैं जब अकेलापन होता है। अगर संगठन हो और संगठन की प्राप्ति हो तो उदास होंगे क्या? अगर सर्वशक्तिवान बाप साथ है, बीज साथ है; तो बीज के साथ सारा वृक्ष साथ है, फिर उदास अवस्था कैसे होगी? अकेलापन ही नहीं तो उदास क्यों होंगे? कभी-कभी माया के विघ्नों का वार होने के कारण अपने को निर्बल अनुभव करने के कारण परेशान स्टेज पर पहुंच जाते हो। भलेवान का साथ भूलते हो तब निर्बल होते हो और निर्बल होने के कारण अपनी शान को भूल परेशान हो जाते हो। तो जो भी कमजोरियां वा कमी अनुभव करते हो, उन सभी का कारण क्या होगा? साथ और हाथ का सहारा मिलते हुए भी छोड़ देते हो। समझा? कहते भी हो कि सारे कल्प में एक ही बार ऐसा साथ मिलता है; फिर भी छोड़ देते हो। कोई किसको हाथ देकर किनारे करना चाहे और वह फिर भी डूबने का प्रयत्न करे तो क्या कहा जाऐगा? अपने आपको स्वयं ही परेशान करते हो ना। बहुत समय से इस सृष्टि में रहते हुए अभी भी यही परेशानी की स्थिति अच्छी लगती है? नहीं, तो बार-बार उस तरफ क्यों जाते हो? अभी जल्दी-जल्दी चलना है। स्पीड तेज करनी है। सार को अपने में समा लिया तो सारयुक्त हो जाएंगे और असार संसार से बेहद के वैरागी बन जाएंगे। अच्छा।

सदा साथ और हाथ लेने वाले बेगमपुर के बादशाहों को नमस्ते।



08-06-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


सम्पूर्ण स्टेज की परख

पने को विघ्न-विनाशक समझते हो? कोई भी प्रकार का विघ्न सामने आवे तो सामना करने की शक्ति अपने में अनुभव करते हो? अर्थात् अपने पुरूषार्थ से अपने आपको बापदादा के वा अपनी सम्पूर्ण स्थिति के समीप जाते अनुभव करते हो वा वहाँ का वहाँ ही रूकने वाले अपने को अनुभव करते हो? जैसे राही कब रूकता नहीं है, ऐसे ही अपने को रात के राही समझ चलते रहते हो? सम्पूर्ण स्थिति का मुख्य गुण प्रैक्टिकल कर्म में वा स्थिति में क्य्या दिखाई देता है वा सम्पूर्ण स्थिति का विशेष गुण कौनसा होता है, जिस गुण से यह परख सको कि अपनी सम्पूर्ण स्थिति के समीप हैं वा दूर हैं? अभी एक सेकेण्ड के लिए अपनी सम्पूर्ण स्थिति में स्थित होते हुए फिर बताओ कौनसा विशेष गुण सम्पूर्ण स्टेज को वा स्थिति को प्रत्यक्ष करता है? सम्पूर्ण स्टेज वा सम्पूर्ण स्थिति जब आत्मा की बन जाती है तो इसका प्रैक्टिकल कर्म में क्या गायन है? समानता का। निन्दा स्तुति, जय-पराजय, सुख-दु:ख सभी में समानता रहे, इसको कहा जाता है सम्पूर्णता की स्टेज। दु:ख में भी सूरत वा मस्तक पर दु:ख की लहर के बजाए सुख वा हर्ष की लहर दिखाई दे। निन्दा सुनते हुए भी ऐसे ही अनुभव हो कि यह निन्दा नहीं, सम्पूर्ण स्थिति को परिपक्व करने के लिये यह महिमा योग्य शब्द हैं, ऐसी समानता रहे। इसको ही बापदादा के समीपता की स्थिति कह सकते हैं। रा भी अन्तर ना आवे -- ना दृष्टि में, ना वृति में। यह दुश्मन है वा गाली देने वाला है, यह महिमा करने वाला है -- यह वृति न रहे। शुभाचिंतक आत्मा की वृति वा कल्याणकारी दृष्टि रहे। दोनों प्रति एक समान, इसको कहा जाता है -- समानता। समानता अर्थात् बैलेन्स ठीक ना होने के कारण अपने ऊपर बाप द्वारा ब्लिस नहीं ले पाते हो। बाप ब्लिसफुल है ना। अगर अपने ऊपर ब्लिस करनी है वा बाप की ब्लिस लेनी है तो इसके लिए एक ही साधन है -- सदैव दोनों बातों का बैलेन्स ठीक रहे। जैसे स्नेह और शक्ति - दोनों का बैलेन्स ठीक रहे तो अपने आपको ब्लिस वा बाप की ब्लिस मिलती रहेगी। बैलेन्स ठीक रखने नहीं आता है। जैसे वह नट होते हैं ना। उनकी विशेषता क्या होती है? बैलेन्स की। बात साधारण होती है लेकिन कमाल बैलेन्स की होती है। खेल देखा है ना नट का। यहाँ भी कमाल बैलेन्स ठीक रखने की है। बैलेन्स ठीक नहीं रखते हो। महिमा सुनते हो तो और ही नशा चढ़ जाता है, ग्लानि से घृणा आ जाती। वास्तव में ना महिमा का नशा, ना ग्लानि से घृणा आनी चाहिए। दोनों में बैलेन्स ठीक रहे; तो फिर स्वयं ही साक्षी हो अपने आपको देखो तो कमाल अनुभव होगी। अपने आपसे सन्तुष्टता का अनुभव होगा, और भी आपके इस कर्म से सन्तुष्ट होंगे। तो इसी पुरूषार्थ की कमी होने के कारण बैलेन्स की कमी कारण ब्लिसफुल लाइफ जो होनी चाहिए वह नहीं है। तो अब क्या करना पड़े? बैलेन्स ठीक रखो। कई ऐसी दो-दो बातें होती हैं -- न्यारा और प्यारा, महिमा और ग्लानि। तुम्हारा प्रवृति मार्ग है ना। आत्मा और शरीर भी दो हैं। बाप और दादा भी दो हैं। दोनों के कर्त्तव्य से विश्व-परिवर्तन होता है। तो प्रवृति-मार्ग अनादि, अविनाशी है। लौकिक प्रवृति में भी अगर एक ठीक चलता है, दूसरा ढीला होता है, बैलेन्स ठीक नहीं होता है तो खिटखिट होती है, समय वेस्ट जाता है। जो श्रेष्ठ प्राप्ति होनी चाहिए वह नहीं कर पाते हैं। एक पांव से चलने वाले को क्या कहा जाता है? लंगड़ा। वह हाई जम्प दे सकेगा वा तेज दौड़ लगा सकेगा? तो इसमें भी अगर समानता नहीं है तो ऐसे पुरुषार्थी को क्या कहा जावेगा? अगर पुरूषार्थ में एक चीज़ की प्राप्ति अधिक होती है और दूसरे की कमी महसूस करते हैं तो समझना चाहिए कि हाई जम्प नहीं दे सकेंगे, दौड़ नहीं सकेंगे। तो जब हाई जम्प नहीं दे सकेंगे, दौड़ नहीं सकेंगे तो सम्पूर्णता के समीप कैसे आयेंगे? यह कमी आ जाती है जो स्वयं भी वर्णन करते हो। स्नेह के समय शक्ति मर्ज हो जाती है, शक्ति के समय स्नेह मर्ज हो जाता है। तो बैलेन्स ठीक नहीं रहा ना। दोनों का बैलेन्स ठीक रहे, इसको कहा जाता है कमाल। एक समय एक जोर है; दूसरे समय पर दूसरा जोर है तो भी दूसरी बात। लेकिन एक ही समय पर दोनों बैलेन्स ठीक रहें, इसको कहा जाता है सम्पूर्ण। एक मर्ज हो दूसरा इमर्ज होता है तो प्रभाव एक का पड़ता है। शक्तियों के चित्रों में सदैव दो गुणों की समानता दिखाते हैं -- स्नेही भी और शक्ति-रूप भी। नैनों में सदैव स्नेह और कर्म में शक्ति- रूप। तो शक्तियों को चित्रकार भी जानते हैं कि यह शिव-शक्तियाँ दोनों गुणों की समानता रखने वाली हैं। इसलिए वह लोग भी चित्र में इसी भाव को प्रकट करते हैं। जब प्रैक्टिकल में किया है तभी तो चित्र बना है। तो ऐसी कमी को अभी सम्पन्न बनाओ, तब जो प्रभाव निकलना चाहिए वह निकल सकेगा। अभी इस बात का प्रभाव जास्ती, दूसरों का कम होने कारण थोड़ा प्रभाव होता है। एक बात का वर्णन कर देते हैं, सभी का नहीं कर सकते। बनना तो सर्व गुण सम्पन्न है ना। तो ऐसे सम्पूर्णता को समीप लाओ। जैसे धर्म और कर्म, दोनों का सहयोग बताते हो। लोग दोनों को अलग करते है, आप दोनों का सहयोग बताते हो। तो कर्म करते हुए। धर्म अर्थात् धारणा भी सम्पूर्ण हो तो धर्म और कर्म दोनों का बैलेन्स ठीक होने से प्रभाव बढ़ेगा। कर्म करने समय कर्म में तो लग जाते और धारणा पूरी नहीं होती; तो इसको क्या कहा जायेगा? लोगों को कहते हो - धर्म और कर्म को अलग करने के कारण आज की जीवन वा परिस्थितियाँ ऐसी हो गई हैं। तो अपने आप से पूछो कि धर्म और कर्म अर्थात् धारणायें और कर्म, दोनों की समानता रहती है वा कर्म करते फिर भूल जाते हो? जब कर्म समाप्त होता तब धारणा स्मृति में आती है। जब बहुत कर्म में बिजी रहते हो, उस समय इतनी धारणा भी रहती है वा जब कार्य हल्का होता है तब धारणा भारी होती है? जब धारणा भारी है तो कर्म हल्का हो जाता है? तराजू का दोनों तरफ एक समान चलता रहे तब तराजू का मूल्य होता है। नहीं तो तराजू का मूल्य ही नहीं। तराजू है बुद्धि। बुद्धि में दोनों बातों का बैलेन्स ठीक है तो उनको श्रेष्ठ बुद्धिवान वा दिव्य बुद्धिवान, तेज बुद्धिवान कहेंगे। नहीं तो साधारण बुद्धि। कर्म भी साधारण, धारणायें भी साधारण होती हैं। तो साधारणता में समानता नहीं लानी है लेकिन श्रेष्ठता में समानता हो। जैसे कर्म श्रेष्ठ वैसी धारणा भी श्रेष्ठ। कर्म धारणा अर्थात् धर्म को मर्ज ना कर दे, धारणा कर्म को मर्ज न करे तो धर्म और कर्म - दोनों ही श्रेष्ठता में समान रहें - इसको कहा जाता है धर्मात्मा। धर्मात्मा कहो वा महान् आत्मा वा कर्मयोगी कहो, बात एक ही है। ऐसे धर्मात्मा बने हो? ऐसे कर्मयोगी बने हो? ऐसे ब्लिसफुल बने हो? एकान्तवासी भी और साथ-साथ रमणीकता भी इतनी ही हो। कहाँ एकान्तवासी और कहाँ रमणीकता! शब्दों में तो बहुत अन्तर है, लेकिन सम्पूर्णता में दोनों की समानता रहे। जितना ही एकान्तवासी उतना ही फिर साथ-साथ रमणीकता भी होगी।

एकान्त में रमणीकता गायब नहीं होनी चाहिए। दोनों समान और साथ- साथ रहें। आप जब रमणीकता में आते हो तो कहते हो अन्तर्मुखता से नीचे आ गये और अन्तर्मुखता में आते हो तो कहते हो आज रमणीकता कैसे हो सकती है? लेकिन दोनों साथ-साथ हों। अभी-अभी एकान्तवासी, अभी-अभी रमणीक। जितनी गम्भीरता उतना ही मिलनसार भी हों। ऐसे भी नहीं - सिर्फ गम्भीरमूर्त हों। मिलनसार अर्थात् सर्व के संस्कार और स्वभाव से मिलने वाला। गम्भीरता का अर्थ यह नहीं कि मिलने से दूर रहें। कोई भी बात अति में अच्छी नहीं होती है। कोई बात अति में जाती है तो उसको तूफान कहा जाता है। एक गुण तूफान मिसल हो, दूसरा मर्ज हो तो अच्छा लगेगा? नहीं। तो ऐसे अपने में पावरफुल धारणा करनी है। जैसे चाहो वहां अपने को टिका सको। ऐसे नहीं कि बुद्धि रूपी पांव टिक ना सके। बैलेन्स ठीक ना होने के कारण टिक नहीं सकते। कब कहां, कब कहां गिर जाते वा हिलते-जुलते रहते हैं। यह बुद्धि की हलचल होने का कारण समानता नहीं है अर्थात् सम्पन्न नहीं हैं। कोई भी चीज़ अगर फुल हो तो उसके बीच में कब हलचल नहीं हो सकती। हलचल तब होती है जब कमी होती है, सम्पन्न नहीं होता है। तो यह बुद्धि में व्यर्थ संकल्पों की वा माया की हलचल तब मचती है जब फूल (Full) नहीं हो, सम्पन्न नहीं हो। दोनों में सम्पन्न वा समानता हो तो हलचल हो ही नहीं सकती। तो अपने आपको किसी भी हलचल से बचाने के लिए सम्पन्न बनते जाओ तो सम्पूर्ण हो जायेंगे। सम्पूर्ण स्थिति वा सम्पूर्ण स्टेज अर्थात् सम्पूर्ण वस्तु का प्रभाव ना निकले - यह तो हो ही नहीं सकता। चन्द्रमा भी जब 16 कला सम्पूर्ण हो जाता है तो ना चाहते हुए भी हरेक को अपनी तरफ आकर्षित करता है। कोई भी वस्तु सम्पन्न होती है तो अपने आप आकर्षण करती है। तो सम्पूर्णता की कमी के कारण विश्व की सर्व आत्माओं को आकर्षण नहीं कर पाते हो। जितनी अपने में कमी है उतना आत्माओं को अपनी तरफ कम आकर्षित कर पाते हो। चन्द्रमा की कला कम होती है तो किसका अटेन्शन नहीं जाता है। जब सम्पूर्ण हो जाता है तो ना चाहते हुए भी सभी का अटेन्शन जाता है। कोई देखे ना देखे, लेकिन रूर देखने में आता ही है। सम्पूर्णता में प्रभाव की शक्ति होती है। तो प्रभावशाली बनने के लिए सम्पन्न बनना पड़े। समझा?

अगर बैलेन्स ठीक नहीं होता है तो हिलने-जुलने का जो खेल करते हो, वह साक्षी हो देखो तो अपने ऊपर भी बहुत हंसी आवे। जैसे कोई अपने पूरे होश में नहीं होता है तो उनकी चलन देख हंसी आती है ना। तो अपने आपको भी देखो - जब माया थोड़ा-बहुत भी बेहोश कर देती है, अपनी श्रेष्ठ स्मृति का होश गायब कर देती है; तो उस समय चाल कैसी होती है? वह नजारा सामने आता है? उस समय अगर साक्षी हो देखो तो अपने आप पर हंसी आवेगी। बापदादा साक्षी होकर खेल देखते हैं। हरेक बच्चे का तो...ऐसा खेल दिखाना अच्छा लगता है? बापदादा क्या देखना चाहते हैं, उसको भी तुम जानते हो। जब जानते हो, मानते भी हो, फिर चलते क्यों नहीं हो? तीन कोने ठीक हों बाकी एक ठीक ना हो; तो क्या होगा? चारों ही बातें जानते हुए भी, मानते हुए भी, वर्णन भी करते हो लेकिन कुछ चलते हो, कुछ नहीं चलते हो। तो कमी हो गई ना। अभी इस कमी को भरने का प्रयत्न करो। जैसे दो- दो बातें सुनाईं ना। तो ऐसे ही नॉलेजफुल और पावरफुल - इन दोनों का बैलेन्स ठीक रखो तो सम्पूर्णता के समीप आ जायेंगे। नॉलेजफुल बहुत बनते हो, पावरफुल कम बनते हो; तो बैलेन्स ठीक नहीं रहता। शक्तियों को और शक्ति को बैलेन्सड दिखाते हैं, आशीर्वाद देता हुआ दिखाते हैं। तो स्वयं अपने बैलेन्स में ठीक ना होंगे, अपने ऊपर ही बैलेन्स नहीं कर सकेंगे तो अनेकों के लिए मास्टर ब्लिसफुल कैसे बन सकेंगे? अभी तो इस चीज़ के सभी भिखारी हैं। ब्लिस के वरदानी वा महादानी शिव और शक्तियों के सिवाए कोई नहीं हैं। तो जिस चीज़ के वरदानी वा महादानी हो वह पहले स्वयं में सम्पन्न होंगी तभी तो दूसरों को दे सकेंगे ना। ऐसे मास्टर नॉलेजफुल, ब्लिसफुल और इतना ही फिर केयरफुल, श्रेष्ठ आत्माओं को नमस्ते।



10-06-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


सूक्ष्म अभिमान और अनजानपन

वर्तमान समय चारों ओर के पुरूषार्थियों के पुरूषार्थ में मुख्य दो बातों की कमज़ोरी वा कमी दिखाई देती है, जिस कमी के कारण जो कमाल दिखानी चाहिए वह नहीं दिखा पाते, वह दो कमियां कौनसी हैं? एक तरफ है अभिमान, दूसरी तरफ है अनजानपन। यह दोनों ही बातें पुरूषार्थ को ढीला कर देती हैं। अभिमान भी बहुत सूक्ष्म चीज़ है। अभिमान के कारण कोई ने रा भी कोई उन्नति के लिए इशारा दिया तो सूक्ष्म में न सहनशक्ति की लहर आ जाती है वा संकल्प आता है कि यह क्यों कहा? इसको भी अभिमान सूक्ष्म रूप में कहा जाता है। कोई ने कुछ इशारा दिया तो उस इशारे को वर्तमान और भविष्य दोनों के लिए उन्नति का साधन समझकर के उस इशारे को समा देना वा अपने में सहन करने की शक्ति भरना - यह अभ्यास होना चाहिए। सूक्ष्म में भी वृति वा दृष्टि में हलचल मचती है - क्यों, कैसे हुआ...? इसको भी देही-अभिमानी की स्टेज नहीं कहेंगे। जैसे महिमा सुनने के समय वृति वा दृष्टि में उस आत्मा के प्रति स्नेह की भावना रहती है, वैसे ही अगर कोई शिक्षा का इशारा देते हैं, तो उसमें भी उसी आत्मा के प्रति ऐसे ही स्नेह की, शुभचिन्तक की भावना रहती कि यह आत्मा मेरे लिए बड़ी से बड़ी शुभचिन्तक है, ऐसी स्थिति को कहा जाता है देही-अभिमानी। अगर देही- अभिमानी नहीं हैं तो दूसरे शब्दों में अभिमान कहेंगे। इसलिए अपमान को सहन नहीं कर सकते। और दूसरे तरफ है बिल्कुल अनजान, इस कारण भी कई बातों में धोखा खाते हैं। कोई अपने को बचाने के लिए भी अनजान बनता है, कोई रीयल भी अनजान बनता है। तो इन दोनों बातों के बजाए स्वमान जिससे अभिमान बिल्कुल खत्म हो जाए और निर्माण, यह दोनों बातें धारण करनी हैं। मन्सा में स्वमान की स्मृति रहे और वाचा में, कर्मणा में निर्माण अवस्था रहे तो अभिमान खत्म हो जाएगा। फिलोसोफर हो गए हैं लेकिन स्प्रीचुअल नहीं बने हैं अर्थात् यह स्पिरिट नहीं आई है। तो जो आत्मिक स्थिति में, आत्मिक खुमारी में रहते हैं - इसको कहा जाता है स्प्रीचुअल। आजकल फिलासफर ज्यादा दिखाई देते हैं, स्प्रीचुअल पावर कम है। स्पिरिट एक सेकेण्ड में क्या से क्या कर दिखा सकती है! जैसे जादूगर एक सेकेण्ड में क्या से क्या कर दिखाते हैं, वैसे स्प्रीचुअल्टी वाले में भी कर्त्तव्य की सिद्धि आ जाती। उनमें हाथ की सिद्धि होती है। यह है हर कर्म, हर संकल्प में सिद्धि- स्वरूप। सिद्धि अर्थात् प्राप्ति। सिर्फ प्वाईंट्स सुनना, सुनाना - इसको फिलोसोफी कहा जाता है। फिलासाफी का प्रभाव अल्पकाल का पड़ता है, स्प्रीचुअल्टी का प्रभाव सदा के लिए पड़ता है। तो अभी अपने में कर्म की सिद्धि प्राप्त करने के लिए रूहानियत लानी है। अनजान बनने का अर्थ है कि जो सुनते हैं उसको स्वरूप तक नहीं लाते हैं। योग्य टीचर उसको कहा जाता है जो अपने शिक्षा-स्वरूप से शिक्षा देवे। उनका स्वरूप ही शिक्षा सम्पन्न होगा। उनका देखना-चलना भी किसको शिक्षा देगा। जैसे साकार रूप में कदम-कदम, हर कर्म शिक्षक के रूप में प्रैक्टिकल में देखा। जिसको दूसरे शब्दों में चरित्र कहते हो। किसको वाणी द्वारा शिक्षा देना तो कामन बात है। लेकिन सभी अनुभव चाहते हैं। अपने श्रेष्ठ कर्म, श्रेष्ठ संकल्प की शक्ति से अनुभव कराना है। अच्छा |


 

12-06-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


रिफ़ाइन स्थिति की पहचान

जैसे साईंस रिफाइन होती जाती है, ऐसे अपने आप में साइलेन्स की शक्ति वा अपनी स्थिति रिफाइन होती जा रही है? जब रिफाइन चीज़ होती है उसमें क्या-क्या विशेषता होती है? रिफाइन चीज़ जो होती हैं उनकी क्वान्टिटी भले कम होती है, लेकिन क्वालिटी पावरफुल होती है। जो चीज़ रिफाइन नहीं होगी उसकी क्वान्टिटी ज्यादा, क्वालिटी कम होगी। तो यहां भी जबकि रिफाइन होते जाते हैं; तो कम समय, कम संकल्प, कम इनर्जा में जो कर्त्तव्य होगा वह सौ गुणा होगा और हल्कापन भी हो जाता। हल्केपन की निशानी होगी -- वह कब नीचे नहीं आवेगा, ना चाहते भी स्वत: ही ऊपर स्थित रहेगा। यह है रिफाइन क्वालिफिकेशन। तो अपने में यह दोनों विशेषताएं अनुभव होती जाती हैं? भारी होने कारण मेहनत ज्यादा करनी होती है। हल्का होने से मेहनत कम हो जाती है। तो ऐसे नेचरल परिवर्तन होता जाता है। यह दोनों विशेषताएं सदा अटेन्शन में रहें। इसको सामने रखते हुए अपनी रिफाइननेस को चेक कर सकते हो। रिफाइन चीज़ जास्ती भटकती नहीं, स्पीड पकड़ लेती है। अगर रिफाइन ना होगी, किचड़ा मिक्स होगा तो स्पीड पकड़ नहीं सकेगी, निर्विघ्न चल ना सकेंगे। एक तरफ जितना-जितना रिफाइन हो रहे हो, दूसरे तरफ उतना ही छोटी-छोटी बातें वा भूलें वा संस्कार जो हैं उनका फाइन भी बढ़ता जा रहा है। एक तरफ वह नजारा, दूसरे तरफ रिफाइन होने का नजारा, दोनों का फोर्स है। अगर रिफाइन नहीं तो फाइन समझो। दोनों साथ-साथ नजारे दिखाई दे रहे हैं। वह भी अति में जा रहा है और यह भी अति प्रत्यक्ष रूप में दिखाई देता जा रहा है। गुप्त अब प्रख्यात हो रहा है। तो जब दोनों बातें प्रत्यक्ष हों उसी अनुसार ही तो नंबर बनेंगे। माला हाथ से नहीं पिरोनी है। चलन से ही स्वयं अपना नंबर ले लेते हैं। अभी नंबर फिक्स होने का समय आ रहा है। इसलिए दोनों बातें स्पष्ट दिखाई दे रही हैं और दोनों को देखते हुए साक्षी हो हर्षित रहना है। खेल भी वही अच्छा लगता है जिसमें कोई बात की अति होती है। वही सीन अति आकर्षण वाली होती है। अभी भी ऐसी कसमकश की सीन चल रही है। देखने में मजा आता है ना। वा तरस आता है? एक तरफ को देख खुश होते, दूसरे तरफ को देख रहम पड़ता। दोनों का खेल चल रहा है। आज खेल दिखाया कि पर्दे पर क्या चल रहा है। वतन से तो बहुत स्पष्ट दिखाई देता है। जितना जो ऊंच होता है उनको स्पष्ट दिखाई देता है। जो नीचे स्टेज पर पार्टधारी उनको कुछ दिखाई दे सकता? कुछ भी दिखाई दे सकता? साक्षी हो ऊपर से सभी स्पष्ट दिखाई देता है। आज वतन में वर्तमान खेल की सीन देख रहे थे। अच्छा।



14-06-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


स्वस्थिति में स्थित होने क पुरूषार्थ वा निशानियां

पने आदि और अनादि स्व-स्थिति को जानते हो? सदा अपनी स्व- स्थिति में स्थित रहने का अटेन्शन रहता है? जो स्व-स्थिति अर्थात् अपनी अनादि स्थिति हैं उस स्व-स्थिति में स्थित होना मुश्किल लगता है? और स्थिति में स्थित होना मुश्किल हो भी सकता है, लेकिन स्व-स्थिति में स्थित होना तो स्वत: ही और सरल है ना। स्व-स्थिति में सदा स्थित रहें इसके लिए मुख्य चार बातें आवश्यक हैं। अगर वह चारों ही बातें सदैव कायम हैं तो स्व-स्थिति सदा रहती। अगर चारों में से कोई की भी कमी है तो स्व-स्थिति में भी कम स्थित हो सकता है। स्व-स्थिति का जो वर्णन करते हो उसको सामने रखते हुए फिर सोचो कि कौन-सी चार बातें सदा साथ होनी चाहिए? स्व-स्थिति के लक्षण क्या होते हैं? जो भी बाप के गुण हैं उन गुणों का स्वरूप होना इसको कहते हैं - स्व-स्थिति वा अनादि स्थिति। तो ऐसी स्थिति सदा रहे इसके लिए चार बातें कौनसी आवश्यक हैं। स्मृति में आता है जिन चार बातों के होने से अनादि स्थिति आटोमेटिकली रहती है? सुख- शान्ति-आनन्द-प्रेम की स्थिति स्वत: ही रहती है। पहले यह सोचो कि अनादि स्थिति से मध्य की स्थिति में आते ही क्यों हो? इसका कारण क्या है? (देह- अभिमान) देह-अभिमान में आने से क्या होता है, देह-अभिमान में आने के कारण क्या होते हैं? पर-स्थिति सहज और स्व-स्थिति मुश्किल क्यों लगती है? देह भी तो स्व से अलग है ना। तो देह में सहज स्थित हो जाते हो और स्व में स्थित नहीं होते हो, कारण? वैसे भी देखो तो सदा सुख वा शान्तिमय जीवन तब बन सकती है जब जीवन में चार बातें हों। वह चार बातें हैं - हैल्थ, वैल्थ, हैपी और होली। अगर यह चार बातें सदा कायम रहें तो दु:ख और अशान्ति कभी भी जीवन में अनुभव न करें। ऐसे स्व-स्थिति का स्वरूप भी है - सदा सुख-शान्ति-आनन्द-प्रेम स्वरूप में स्थित रहना। तो स्व-स्थिति से भी विस्मृति में आते हो इसका कारण क्या होता है? वैल्थ की कमी वा हैल्थ की कमज़ोरी वा होली नहीं बनते हो। इसके साथ-साथ हैपी अर्थात् हर्षित नहीं रह सकते हो। तो हैल्थ, वैल्थ कौनसी? आत्मा सदा निरोगी रहे, माया की कोई भी व्याधि आत्मा पर असर ना करे इसको कहा जाता है हेल्दी। और फिर वेल्दी भी हो अर्थात् जो खज़ाना मिलता रहता है वा जो सर्व-शक्तियां बाप द्वारा वर्से में प्राप्त हुए हैं उस प्राप्त हुए ज्ञान खज़ाने को वा सर्व-शक्तियों के खज़ाने को सदा कायम रखो तो बताओ स्व-स्थिति से नीचे आ सकते हो? इतना ही फिर होली। संकल्प, स्वप्न में भी कोई अपवित्रता ना हो तो स्व-स्थिति स्वत: ही हो जाएगी। इन चार बातों की कमी होने कारण स्व-स्थिति में सदा नहीं रह सकते हो। यह चार बातें चैक करो - हेल्दी, वेल्दी कहां तक बने हैं? हेल्दी, वेल्दी और होली - यह तीनों ही बातें हैं तो हैपी आटोमेटिकली होंगे। तो इन चार बातों को सदा ध्यान में रखो। वैसे भी रोगी कब भी अपने को सुखी नहीं समझते। रोगी होने कारण दु:ख की लहर ना चाहते हुए भी उठती रहती। तो यहां भी सदा हेल्दी नहीं हैं, तब दु:ख की वा अशान्ति की लहर उत्पन्न होती है। तो यह चारों ही बातें सदा कायम रहें इसका कौन-सा पुरूषार्थ है जो यह कब भी गायब न हों? इसके लिए सहज पुरूषार्थ सुनाओ जो सभी कर सकें। रा भी मुश्किल बात होती है तो कर नहीं पाते हो। सहज चाहते हो ना। क्योंकि आत्मा में आदि देवता धर्म के संस्कार होने कारण आधा कल्प बहुत सहज सुखों में रहते हो, कोई मेहनत नहीं करते हो, तो वह आधे कल्प के संस्कार आत्मा में होने कारण अभी कोई मुश्किल बात होती है तो वह कर नहीं पाते हो। सदा सहज की इच्छा रहती है। तो वह सहज पुरूषार्थ कौन-सा है? याद भी सहज कैसे हो? याद सहज और सदा रहे और हेल्दी, वेल्दी, हैपी, होली भी कायम रहें इसका पुरूषार्थ सुनाओ। चारों ही बातें साथ-साथ रहें। जैसे आप भी निराकार और साकार दोनों रूप में हो ना। निराकार आत्मा और साकार शरीर दोनों के सम्बन्ध से हर कार्य कर सकते हो। अगर दोनों का सम्बन्ध ना हो तो कोई भी कार्य नहीं कर सकते। ऐसे ही निराकार और साकार बाप दोनों का साथ वा सामने रखते हुए हर कर्म वा हर संकल्प करो तो यह चारों बातें आटोमेटिकली आ जाएगी। सिर्फ निराकार को वा सिर्फ साकार को याद करने से चारों बातें नहीं आयेगी। लेकिन निराकार और साकार दोनों ही सदा साथ रहें तो साथ होने से जो संकल्प करेंगे वह पहले रूर उनसे वेरीफाय करायेंगे, वेरीफाय कराने के बाद कोई भी कर्म करने से निश्चय बुद्धि होकर करेंगे। जैसे देखो साकार में अगर कोई निमित्त श्रेष्ठ आत्मा साथ में है तो उनसे कोई भी बात वेरीफाय कराये फिर करेंगे, तो निश्चय-बुद्धि होकर करेंगे ना। निर्भयता और निश्चय दोनों गुणों को सामने रख करेंगे। तो जहाँ सदा निश्चय और निर्भयता है वहां सदैव श्रेष्ठ संकल्प की विजय है। जो भी संकल्प करते हो, अगर सदा निराकार और साकार साथ वा सम्मुख है, तो वेरीफाय कराने के बाद निश्चय और निर्भयता से वह करेंगे। समय भी वेस्ट नहीं करेंगे। यह काम करें वा ना करें, सफ़ल होगा वा नहीं होगा? यह व्यर्थ संकल्प सभी खत्म हो जायेंगे। वर्तमान समय आत्मा में जो कमज़ोरी की व्याधि है वह कौन-सी है? व्यर्थ संकल्पों में व्यर्थ समय गंवाने की, यही वर्तमान समय आत्मा की कमज़ोरी है। इस बीमारी के कारण सदा हेल्दी नहीं रहते। कब रहते हैं, कब कमज़ोर बन जाते हैं। सदा हेल्दी रहने का साधन यह है। समय भी बच जायेगा। आप प्रैक्टिकल में ऐसे अनुभव करेंगे जैसे साकार में कोई साकार रूप में वेरीफाय कराते। है कॉमन बात, लेकिन इसी कामन बात को प्रैक्टिकल में कम लाते हो। सुना बहुत समय है, लेकिन अनुभवी नहीं बने हो। बापदादा सदा साथ है यह अनुभव करो तो हेल्दी वेल्दी नहीं रहेंगे? बापदादा निराकार और साकार दानों के साथ होने से हैल्थ और वैल्थ दोनो आ जाती हैं और हैपी तो आटोमेटिकली होंगे। तो सहज पुरूषार्थ कौन-सा हुआ? निराकार और साकार दोनों को सदा साथ में रखो। सदा साथ न रखने कारण यह रिजल्ट है। क्या साथ रखना मुश्किल लगता है? जब जान लिया और पहचान लिया, मान लिया कि सभी सम्बन्ध एक साथ हैं, दूसरा ना कोई तो उसमें चलने में क्या मुश्किल है? साथ क्यों छोड़ते हो? सीता का साथ क्यों छूटा? कारण -- लकीर को उल्लंघन किया। यह चन्द्रवंशी सीता का काम है, लक्ष्मी का नहीं। तो मर्यादा के लकीर के बाहर बुद्धि जरा भी ना जाए। नहीं तो चन्द्रवंशी बनेंगे। बुद्धि रूपी पांव मर्यादा की लकीर से संकल्प वा स्वप्न में भी बाहर निकलता है तो अपने को चन्द्रवंशी सीता समझना चाहिए, सूर्यवंशी लक्ष्मी नहीं। सूर्यवंशी अर्थात् शूरवीर। जो शूरवीर होता है वह कब कोई के वश नहीं होता है। तो सदा साथ रखने लिए अपने को मर्यादा की लकीर के अन्दर रखो, लकीर के बाहर ना निकलो। बाहर निकलते हो तो फकीर बन जाते हो। फिर मांगते रहते हो - यह मदद मिले, यह सैलवेशन मिले तो यह हो सकता है। मांगता हुआ ना! फकीर बनने का अर्थ ही है -- हैल्थ, वैल्थ गवाँ देते हो, इसलिए फकीर बन जाते हो। तो ना लकीर को पार करो ना फकीर बनो। लकीर के अन्दर रहने से मायाजीत बन सकते हो। लकीर को पार करने से माया से हार खा लेते हो। इसलिए सदा हेल्दी, वेल्दी, हैपी और होली बनो। चेक करो कि - इन चारों में से आज किस बात की कमी रही, आज हैल्थ ठीक है, वैल्थ है, हैपी है, होली है? न है तो क्यों? उस रोग को जानकर फौरन ही उसकी दवाई करो और तो सभी प्रकार की दवाई मिल चुकी है। सभी प्राप्तियां हैं। तो सभी प्राप्ति होते भी समय पर क्यों नहीं कर पाते हो? समय के बाद स्मृति में क्यों आते हो? यह कमज़ोरी है जो समय पर काम नहीं करते। समय के बाद भी करते हो तो समय तो बीत जाता है ना। समय पर सभी स्मृति रहे, उसके लिए अपनी बुद्धि इतनी विशाल वा नॉलेजफुल नहीं बनी है। तो फिर कोई सहारा चाहता है, वह सहारा सदा साथ रखो तो कब हार नहीं होगी। तो कब भी अपने को रोगी ना बनाना रा भी किसी प्रकार का रोग प्रवेश हो गया तो एक व्याधि फिर अनेक व्याधियों को लाती है। एक को ही खत्म कर दिया तो अनेक आयेंगी ही नहीं। एक में अलबेले रहते हो, हल्की बात समझते हो, लेकिन वर्तमान समय के प्रमाण हल्की व्याधि भी बड़ी व्याधि है। इसलिए हल्के को ही बड़ा समझ वहां ही खत्म कर दो तो आत्मा कब निर्बल नहीं होगी, हेल्दी रहेगी। साकार में भी सदा साथ रहने के अनभवी हो। अकेले रहना पसन्द नहीं करते हो। जब संस्कार ही साथ रहने के हैं तो ऐसे साथ रखने में कमी क्यों करते हो, निवृत्ति मार्ग वाले क्यों बनते हो? जैसे वह निवृत्ति मार्ग वाले प्राप्ति कुछ भी नहीं करते, ढूंढते ही रहते हैं। ऐसी हालत हो जाती है, वास्तविक प्राप्ति को प्राप्त नहीं कर पाते हो। तो सदा साथ रखो, सम्बन्ध में रहो। परिवार की पालना में रहो तो जो पालना के अन्दर सदैव रहते हैं वह सदा निश्चित और हर्षित रहते हैं। पालना के बाहर क्यों निकलते हो? निवृत्ति में कब ना जाओ। तो साथ का अनुभव करने से स्वत: ही सर्व प्राप्ति हो जायेंगी। सन्यासियों को इतना ठोकते हो और स्वयं सन्यासी बन जाते हो? सन्यासियों को कहते हो ना यह भिखारी हैं। इन मांगने वालों से हम अच्छे हैं। शुरू का गीत है ना --’मेहतर उनसे बेहतर है...’ तो जिस समय आप लोग भी साथ छोड़ देते हो तो बापदादा वा परिवार को छोड़ आप भी कांटों के जंगल में चले जाते हो। जैसे वह जंगलों में ढूंढते रहते हैं, वैसे ही माया के जंगलों में स्वयं ही साथ छोड़ फिर परेशान हो ढूंढते हो कि कहीं सहारा मिल जाए। निवृत्ति मार्ग वाले अकेले होने के कारण कब भी कर्म की सफ़लता नहीं पा सकते हैं। जो भी कर्म करते, उनकी सफ़लता मिलती है? तो जैसे उन्हें कोई भी कर्म की सफ़लता नहीं मिलती इसी प्रकार अगर आप भी साथ छोड़ अकेले निवृत्ति मार्ग वाले बन जाते हो तो कर्म की सफ़लता नहीं होती है। फिर कहते हो सफ़लता कैसे हो? अकेले में उदास होते हो तो माया के दास बन जाते हो। न अकेले बनो, न उदास बनो, न माया के दास बनो। अच्छा।



16-06-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


हर्षित रहना ही ब्राह्मण जीवन का विशेष संस्कार

दा हर्षित रहने के लिए कौन-सी सहज युक्ति है? सदा हर्षित रहने का यादगार रूप में कौन-सा चित्र है, जिसमें विशेष हर्षितमुख को ही दिखाया है? विष्णु का लेटा हुआ चित्र दिखाते हैं। ज्ञान को सिमरण कर हर्षित हो रहा है। विशेष, हर्षित होने का चित्र ही यादगार रूप में दिखाया हुआ है। विष्णु अर्थात् युगल रूप। विष्णु के स्वरूप आप लोग भी हो ना। नर से नारायण वा नारी से लक्ष्मी आप ही बनने वाले हो या सिर्फ बाप बनते हैं? नर और नारी, दोनों ही जो ज्ञान को सिमरण करते हैं वह ऐसे हर्षित रहते हैं। तो हर्षित रहने का साधन क्या हुआ? ज्ञान का सिमरण करना। जो जितना ज्ञान को सिमरण करते हैं वह उतना ही हर्षित रहते हैं। ज्ञान का सिमरण ना चलने का कारण क्या है? व्यर्थ सिमरण में चले जाते हो। व्यर्थ सिमरण होता है तो ज्ञान का सिमरण नहीं होता। अगर बुद्धि सदा ज्ञान के सिमरण में तत्पर रखो तो सदा हर्षित रहेंगे, व्यर्थ सिमरण होगा ही नहीं। ज्ञान सिमरण करने के लिए, सदैव हर्षित रहने के लिए खज़ाना तो बहुत मिला हुआ है। जैसे आजकल कोई बहुत धनवान होते हैं - तो कहते हैं इनके पास तो अनगिनत धन है। ऐसे ही ज्ञान का खज़ाना जो मिला है वह गिनती कर सकते हो? इतना अनगिनत होते हुए फिर छोड़ क्यों देते हो? कोई कमी के कारण ही उस चीज़ का न होना सम्भव होता है। लेकिन कमी न होते भी चीज़ न हो, यह तो नहीं होना चाहिए ना। ज्ञान के खज़ाने से वह बातें ज्यादा अच्छी लगती हैं क्या? जैसे समझते हो कि यह बहुत समय की आदत पड़ी हुई है, इसलिए ना चाहते भी आ जाता है। तो अब ज्ञान का सिमरण करते हुए कितना समय हुआ है? संगम का एक वर्ष भी कितने के बराबर है? संगम का एक वर्ष भी बहुत बड़ा है! इसी हिसाब से देखो तो यह भी बहुत समय की बात हुई ना। तो जैसे वह बहुत समय के संस्कार होने के कारण ना चाहते भी स्मृति में आ जाते हैं, तो यह भी बहुत समय की स्मृति नेचरल क्यों नहीं रहती? जो नई बात वा ताजी बात होती है वह तो और ही ज्यादा स्मृति में रहनी चाहिए, क्योंकि प्रेजेन्ट है ना। वह तो फिर भी पास्ट है। तो यह प्रेजेन्ट की बात है, फिर पास्ट क्यों याद आता? जब पास्ट याद आता है तो पास्ट के साथ-साथ यह भी याद आता है कि इससे प्राप्ति क्या होगी? जब उससे कोई भी प्राप्ति सुखदायी नहीं होती है तो फिर भी याद क्यों करते हो? रिजल्ट सामने होते हुए भी फिर भी याद क्यों करते हो? यह भी समझते हो कि वह व्यर्थ है। व्यर्थ का परिणाम भी व्यर्थ होगा ना। व्यर्थ परिणाम समझते भी फिर प्रैक्टिकल में आते हो तो इसको क्या कहा जाए? निर्बलता। समझते हुए भी कर ना पावें - इसको कहा जाता है निर्बलता। अब तक निर्बल हो क्या? अथॉरिटी वाले की निशानी क्या होती है? उसमें विल-पावर होती है, जो चाहे वह कर सकता है, करा सकता है। इसलिए कहा जाता है - यह अथॉरिटी वाला है। बाप ने जो अथॉरिटी दी है वह अभी प्राप्त नहीं की है क्या? मास्टर आलमाइटी अथॉरिटी हो? आलमाइटी अर्थात् सर्व शक्तिवान। जिसके पास सर्व शक्तियों की अथॉरिटी है वह समझते भी कर ना पावे तो उनको आलमाइटी अथॉरिटी कहेंगे? यह भूल जाते हो कि मैं कौन हूँ?

यह तो स्वयं की पोजीशन है ना। तो क्या अपने आपको भूल जाते हो? असली को भूल नकली में आ जाते हो। जैसे आजकल अपनी सूरत को भी नकली बनाने का फैशन है। कोई-न-कोई श्रृंगार करते हैं जिसमें असलियत छिप जाती है। इसको कहते हैं आर्टिफिशल आसुरी श्रृंगार। असल में भारतवासी फिर भी सभी धर्मों की आत्माओं की तुलना में सतोगुणी हैं। लेकिन अपना नकली रूप बना कर, आर्टिफिशल एक्ट और श्रृंगार कर दिन-प्रतिदिन अपने को असुर बनाते जा रहे हैं। आप तो असलियत को नहीं भूलो। असलियत को भूलने से ही आसुरी संस्कार आते हैं। लौकिक रूप में भी, जो पावरफुल बहुत होता है उसके आगे जाने की कोई हिम्मत नहीं रखते। आप अगर आलमाइटी अथॉरिटी की पोजीशन पर ठहरो तो यह आसुरी संस्कार वा व्यर्थ संस्कारों की हिम्मत हो सकती है क्या आपके सामने आने की? अपनी पोजीशन से क्यों उतरते हो? संगमयुग का असली संस्कार है जो सदा नॉलेज देता और लेता रहता है उसको सदा ज्ञान स्मृति में रहेगा और सदा हर्षित रहेगा। ब्राह्मण जीवन के विशेष संस्कार ही हर्षितपने के हैं। फिर इससे दूर क्यों हो जाते हो? अपनी चीज़ को कब छोड़ा जाता है क्या? यह संगम की अपनी चीज़ है ना। अवगुण माया की चीज़ है जो संगदोष से ले ली। अपनी चीज़ है दिव्य गुण। अपनी चीज़ को छोड़ देते हो। सम्भालना नहीं आता है क्या? घर सम्भालना आता है? हद के बच्चे आदि सब चीजें सम्भालने आती हैं और बेहद की सम्भालना नहीं आती? हद को बिल्कुल पीठ दे दी कि थोड़ा-थोड़ा है? जैसे रावण को सीता की पीठ दिखाते हैं, ऐसे ही हद को पीठ दे दी? फिर उनके सामने तो नहीं होंगे? कि फिर वहां जाकर कहेंगे क्या करें? अभी बेहद के घर में बेहद का नशा है, फिर हद के घर में जाने से हद का नशा हो जायेगा। अभी उमंग-उल्लास जो है वह हद में तो नहीं आ जायेगा? जैसे अभी बेहद का उमंग वा उल्लास है, उसमें कुछ अन्तर तो नहीं आ जायेगा ना। हद को विदाई दे दी कि अभी भी थोड़ी खातिरी करेंगे? समझना चाहिए - यह अलौकिक जन्म किसके प्रति है? हद के कार्य के प्रति है क्या? अलौकिक जन्म क्यों लिया? जिस कार्य अर्थ यह अलौकिक जन्म लिया वो कार्य नहीं किया तो क्या किया? लोगों को कहते हो ना - बाप के बच्चे होते बाप का परिचय ना जाना तो बच्चे ही कैसे? ऐसे ही अपने से पूछो - बेहद के बाप के बेहद के बच्चे बन चुके हो, मान चुके हो, जान चुके हो फिर भी बेहद के कार्य में ना आवें तो अलौकिक जन्म क्या हुआ? अलौकिक जन्म में ही लौकिक कार्य में लग जावें तो क्या फायदा हुआ? अपने जन्म और समय के महत्व को जानो तब ही महान् कर्त्तव्य करेंगे। गैस के गुब्बारे नहीं बनना है। वह बहुत अच्छा फूलता है और उड़ता है, लेकिन टेम्प्ररेरी। तो ऐसे गुब्बारे तो नहीं हो ना। अच्छा।



21-06-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


विश्व- महाराजन बनने वालों की विश्व-कल्याणकारी स्टे

पने आपको एक सेकेण्ड में शरीर से न्यारा अशरीरी आत्मा समझ आत्म-अभिमानी वा देही-अभिमानी स्थिति में स्थित हो सकते हो? अर्थात् एक सेकेण्ड में कर्म-इन्द्रियों का आधार लेकर कर्म किया और एक सेकेण्ड में फिर कर्म-इन्द्रियों से न्यारा, ऐसी प्रैक्टिस हो गई है? कोई भी कर्म करते कर्म के बन्धन में तो नहीं फंस जाते हो? कर्म करते हुए कर्म के बन्धन से न्यारा बन सकते हो वा अब तक भी कर्म-इन्द्रयों द्वारा कर्म के वशीभूत हो जाते हो? हर कर्म-इन्द्रिय को जैसे चलाना चाहो वैसे चला सकते हो वा आप चाहते एक हो, कर्मइन्द्रियां दूसरा कर लेती हैं? रचयिता बनकर रचना को चलाते हो? जैसे और कोई भी जड़ वस्तु को चैतन्य आत्मा वा चैतन्य मनुष्यात्मा जैसे चाहे वैसे रूप दे सकती है और जैसे चाहे वैसे कर्त्तव्य में लगा सकती है, जहाँ चाहे वहाँ रख सकती है। जड़ वस्तु चैतन्य के वश में है, चैतन्य आत्मा जैसे चलाना चाहे वैसे नहीं चला सकती है? जैसे जड़ वस्तु को किस भी रूप में परिवर्तन कर सकते हो, वैसे कर्म-इन्द्रियों को विकारी से निर्विकारी वा विकारों के वश आग में जले हुए कर्म-इन्द्रियों को शीतलता में नहीं ला सकते हो? क्या चैतन्य आत्मा में यह परिवर्तन की शक्ति नहीं आई है?

कोई भी कर्म-इन्द्रियों की चंचलता को सहनशील-सरलचित नहीं बना सकते हो? इतनी शक्ति अपने में अनुभव करते हो? शक्तिशाली आत्मायें हो ना। जो भाग्यशाली आत्मायें हैं वह शक्तिशाली भी बनी हैं वा सिर्फ ब्रह्माकुमार-ब्रह्माकुमारी बनने के भाग्य के कारण भाग्यशाली बने हो? सिर्फ भाग्यशाली बनने से भी मायाजीत नहीं बन सकेंगे। भाग्यशाली के साथ- साथ शक्तिशाली भी बनना है। दोनों अनुभव होता है? जैसे भाग्यशालीपन का नशा तो अविनाशी है ना। इसको कोई नाश नहीं कर सकता। वैसे शक्तिशाली का वरदान वरदाता से ले लिया है वा अभी लेना है? क्या समझते हो? ब्रह्माकुमार-कुमारी तो हो ही। वह तो अविनाशी छाप लगी हुई है। अब शक्तिशाली का वरदान ले लिया है कि लेना है? जब शक्तिशाली बन गए तो माया की शक्ति वार कर सकती है? यह है रचयिता की शक्ति, वह है रचना की शक्ति। तो कमजोर शूरवीर के ऊपर वार करने की हिम्मत रख सकता है क्या? रखे भी तो उसका परिणाम क्या होगा? विजयी कौन बनेगा? शूरवीर। तो रचयिता की शक्ति महान् है, फिर माया का वार कैसे हो सकता वा माया से हार कैसे हो सकती? जब अपने को शक्तिशाली नहीं समझते हो वा सदाकाल शक्तिशाली स्थिति में, स्मृति में स्थित नहीं होते तब हार होती है। जहां स्मृति है वहां विस्मृति का आना असम्भव है। जैसे दिन के समय रात का होना असम्भव है। ऐसा अपने को बनाया है वा अब तक सम्भव है? कब भी माया का कोई वार नहीं होगा - ऐसा अविनाशी निश्चयबुद्धि हो गये हो? संकल्प में भी कब यह न आये कि माया कब हार खिला भी सकती है। ऐसे बन गये हो वा अभी माया आयेगी तो युद्ध करके विजय प्राप्त करेंगे? अब इसको भी समाप्त करना है। जबकि दुनिया वालों को सन्देश देते हो कि अब बहुत थोड़ा समय रह गया है, तो क्या यह थोड़ा-सा समय युद्ध करने की स्टेज वा युद्ध करने वाली चन्द्रवंशी स्टेज समाप्त कर सूर्यवंशी स्टेज नहीं बना सकते हो? सूर्यवंशी अर्थात् ज्ञान-सूर्य की स्टेज। सूर्य का कर्त्तव्य क्या होता है? सूर्य तो सभी को भस्म कर देता है। सूर्यवंशी स्टेज अर्थात् सर्व विकारों को भस्म कर सदा विजयी बनने की स्टेज। तो अब अपनी कौनसी स्टेज समझते हो? सूर्यवंशी हो वा चन्द्रवंशी हो? अगर युद्ध करने में समय देना पड़ता है तो चन्द्रवंशी स्टेज कहेंगे। अब तक अपने आप प्रति ही समय देते रहेंगे तो बाप के मददगार बन प्रैक्टिकल में मास्टर विश्व-कल्याणकारी बनकर विश्व के कल्याण प्रति सारा समय कब देंगे? लास्ट स्टेज कौनसी है? विश्व-कल्याणकारी की है ना। अब यह प्रयत्न करो -- दिन-रात संकल्प, सेकेण्ड विश्व के कर्त्तव्य में वा सेवा में जाये। जैसे लौकिक रीति में भी जब लौकिक रचना के रचयिता बनते हैं तो रचयिता बनने से अपने तरफ समय देने के बजाय्य रचना की तरफ ही लगाते। इसके तो अनुभवी हो ना। अगर अति रोगी, अति दु:खी, अति अशान्त रचना होती है तो रचयिता मां-बाप का पूरा अटेन्शन उसी प्रति रहता है ना। अपने आप को जैसे भूले हुए होते हैं। वह तो है हद की रचना लेकिन आप तो बेहद विश्व के मास्टर रचयिता हो ना। पहले अपने प्रति समय दिया लेकिन अब की स्टेज मास्टर रचयिता की है। सिर्फ एक-दो की बात नहीं, पूरे विश्व की आत्मायें दु:खी, अशान्त, रोगी, परेशान हैं, भिखारी हैं। बेहद रचना अर्थात् सारे विश्व को कल्याणकारी बन सदाकाल के लिए सुखी और शान्त बनाना है तो बेहद रचयिता का अटेन्शन होना चाहिए। विश्व कल्याण में होना चाहिए वा अब तक भी अपने में ही अपने प्रति बहुत समय दिया, युद्ध करने में बहुत समय लगाया? अब ऐसे ही समझो कि यह जो थोड़ा समय रह गया है वह है विश्व के कल्याण प्रति। भक्ति-मार्ग में जो महादानी-कल्याणकारी वृत्ति वाले सेवाधारी होते हैं वह कोई भी दान आदि अपने प्रति नहीं करेंगे, सर्व आत्माओं प्रति ही संकल्प करेंगे। तो यह रीति-रस्म आप श्रेष्ठ अथवा कल्याणकारी आत्माओं से शुरू हुई है, जो भक्ति में भी रस्म चली आती है। रूर प्रैक्टिकल में हुई है तब तो यादगार रूप में रस्म चल रही है। प्रैक्टिकल का नया यादगार बनता है क्या? तो अब यह परिवर्तन लाओ। दूसरों के अर्थ सेवाधारी बनने से वा दूसरों के प्रति समय और संकल्प लगाने से, सर्विसएबल बनने से सदा सक्सेसफुल स्वत: ही बन जाएंगे। क्योंकि अनेक आत्माओं को सुखी वा शान्त बनाने का रिटर्न प्रत्यक्षफल के रूप में स्वत: ही प्राप्त हो जाता है। जब सेवा करेंगे तो इसका खाता भी जमा होगा और सेवा के प्रत्यक्षफल की प्राप्ति स्वत: ही प्राप्त हो जाएगी। तो क्यों ना सदा सेवाधारी बनो। तो अपनी उन्नति स्वत: ही हो जाएगी, करनी नहीं पड़ेगी। दूसरों को देना अर्थात् स्वयं में भरना। तो स्वयं अपनी उन्नति के लिए अलग समय क्यों लगाते हो? एक ही समय में अगर दो कार्य हो जाएं, भले प्राप्ति हो जाए; तो सिंगल प्राप्ति में समय क्यों लगाते हो? सारे दिन में विश्व-कल्याण के प्रति कितना समय देते हो? ब्राह्मणों का यह अलौकिक जन्म ही किसलिए है? विश्व-कल्याण अर्थ है ना। तो जिस प्रति जन्म है वह कर्म क्यों नहीं करते हैं? जैसे देखो -- जिस कुल में जन्म लेते हैं उस कुल के संस्कार जन्म लेते ही स्वत: हो जाते हैं। स्थूल काम करने वाले मजदूर आदि के घर में बच्चा पैदा होगा तो छोटेपन में ही मां-बाप को देखते हुए उस कार्य के संस्कार स्वत: ही उसमें इमर्ज हो जाते हैं। तो अब जन्म ही ब्रह्माकुमारी का है तो जो बाप का कर्त्तव्य वह स्वत: ही बच्चों के संस्कार होने चाहिए। जैसे साकार बाप को प्रत्यक्ष रूप में देखो - तो रात का नींद का समय अथवा अपने शरीर के रेस्ट का समय भी ज्यादा कहां देते थे? विश्व-कल्याण के कर्त्तव्य में, सर्व आत्माओं के कल्याण प्रति, ना कि अपने प्रति। वाणी द्वारा भी सदा विश्व-कल्याण के संकल्प ही करते थे। इसको कहा जाता है विश्व कल्याणकारी। तो यह मन के विघ्नों से युद्ध करने में ही समय देना - यह तो अपने प्रति व्यर्थ समय देना हुआ ना। इनको आवश्यक नहीं, व्यर्थ कहेंगे। बाप ने आवश्यक समय भी कल्याण प्रति दिया और बच्चे व्यर्थ समय अपने प्रति लगाते रहें तो फालो फादर हुआ? बाप समान बनना है ना। तो सदा यह चेक करो कि ज्यादा से ज्यादा तो क्या लेकिन सदा ही समय और संकल्प विश्व-कल्याण प्रति लगाते हैं? ऐसे सदा विश्व-कल्याण के निमित्त समय और संकल्प लगाने वाले क्या बनेंगे? विश्व-महाराजन्। अगर अपने प्रति ही समय लगाते रहते हैं तो विश्व-महाराजन् कैसे बनेंगे? तो विश्व-महाराजन् बनने के लिए विश्व-कल्याणकारी बनो। जब इतने बिजी हो जायेंगे तो क्या व्यर्थ समय और संकल्प आयेगा? व्यर्थ स्वत: ही समाप्त हो जायेगा और सदा समर्थ संकल्प चलेंगे, सदा विश्व-सेवा में समय लगेगा। इस स्टेज के आगे छोटी-छोटी बातों में समय देना वा बुद्धि की शक्ति व्यर्थ गंवाना क्या बचपन का खेल नहीं लगता है? लौकिक रीति में भी रचयिता हद के ब्रह्मा बनते हैं, विष्णु भी बनते हैं लेकिन शंकर नहीं बनते हैं। ऐसे ही हद की स्थिति में रहने वाले भी व्यर्थ संकल्पों के रचता बनते हैं, पालनहार भी बनते हैं लेकिन विनाशकारी नहीं बन सकते। क्योंकि हद की स्थिति में स्थित हो। अगर बेहद की स्थिति में स्थित रहो तो अपने अन्दर की बात तो छोड़ो लेकिन सारे विश्व से व्यर्थ विकल्प वा विकर्म वा विकार विनाश कराने वाले विनाशकारी बन सकते हैं। लास्ट स्टेज है विनाशकारी। विनाशकारी तब बनेंगे जब कल्याणकारी बनेंगे। ऐसी स्थिति है ना। हद को अब छोड़ चुके हो ना। अच्छा।

ऐसे सदा विश्व-कल्याणकारी स्मृति और सेवा में स्थित रहने वाली महान् आत्माओं को नमस्ते।



24-06-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


एवररेडी बन अंतिम समय का आह्वान करो

पने को बाप समान समझते हो? बाप समान स्थिति के समीप अपने को अनुभव करते हो? समान बनने में अब कितना अन्तर बाकी रहा है? बहुत अन्तर है वा थोड़ा? लक्ष्य तो सभी का यह है कि बाप समान बनें और बाप का लक्ष्य है कि बच्चे बाप से भी ऊंचे बनें, अब प्रैक्टिकल में क्या है? बाप के समान सामना करने की शक्ति नहीं आई है। नंबरवार पुरूषार्थ अनुसार अन्तर है। किसका कितना अन्तर, किसका कितना है। सभी का एक समान नहीं है। 50% अन्तर तो बहुत है। इसको कितने समय में मिटायेंगे? अब तक बाप और बच्चों में इतना अन्तर क्यों? अपने को एवररेडी समझते हो ना। तो एवररेडी का अर्थ क्या है? एवररेडी सदा समय का आह्वान करते हैं। तो जो एवररेडी होता है वह आह्वान करते हुये अपने को सदा तैयार भी रखते हैं। अन्तिम समय का सामना करने के लिए अब तैयार होना है ना? अगर समय आ जाए तो 50% समानता की प्राप्ति क्या होगी? एवररेडी अर्थात् सदा अन्तिम समय के लिए अपने को सर्व गुण सम्पन्न बनाने वाला। सम्पन्न तो होना है ना। गायन भी है सर्व गुण सम्पन्न बनाने वाला। सम्पन्न तो होना है ना। गायन भी है - सर्वगुण सम्पन्न, 16 कला सम्पूर्ण। तो एवररेडी अर्थात् सम्पन्न स्टेज। ऐसा प्रैक्टिकल में हो जो सिर्फ एक कदम उठाने की देरी हो। एक कदम उठाने में कितना समय लगता है? इतना सिर्फ अन्तर होना चाहिए। इसको कहेंगे 1-2 परसेंट। कहां एक-दो परसेंट, कहां 50% फर्क हुआ ना। ऐसा एवररेडी वा सर्व गुण सम्पन्न बाप के समान बनने के लिए बाप- दादा द्वारा मुख्य तीन चीजें हरेक को मिली हुई हैं। उन तीनों की प्राप्ति है तो बाप समान बनने में कोई देरी नहीं लगती। वह तीन चीजें कौनसी बाप ने दी हैं? (श्रीमत, समर्पण और सेवा) यह तो चलने वा करने की बातें सुनाईं, लेकिन देते क्या हैं? सेवा भी कर सकते हो, समर्पण भी हो सकते हो लेकिन किसके आधार से? जन्म तो लिया लेकिन दिया क्या? वर्से में भी मुख्य क्या देते हैं? (हरेक ने बताया) भले रहस्य तो आ जाता है, सिर्फ स्पष्ट करने के लिए भिन्न रूप से सुनाया जाता है। पहले-पहले देते हैं लाइट, दूसरा देते हैं माइट, तीसरा देते हैं डिवाइन इनसाइट अर्थात् तीसरा नेत्र। अगर यह तीन चीजें नहीं हैं तो तीव्र पुरुषार्थी बन बाप के समान नहीं बन सकते। पहले तो जो आत्मायें बिल्कुल अज्ञान अंधेरे में आ चुकी हैं, उनको रोशनी अर्थात् लाइट चाहिए और लाइट के साथ फिर अगर माइट नहीं है तो लाइट की भी जो मदद लेनी चाहिए वह नहीं ले पाते। इस लाइट और माइट के साथ जो तीसरा नेत्र अर्थात् डिवाइन इनसाइट देते हैं उससे अपने पास्ट, प्रेजेन्ट और फ्यूचर - तीनों ही कालों को वा तीनों ही जीवन को जान सकते हो। जब यह तीनों ही चीजें प्राप्त होती हैं तब ही अपना बर्थराइट प्राप्त कर सकते हो अर्थात् वर्सा प्राप्त कर सकते हो। तो पहले लाइट, माइट और डिवाइन इनसाइट देते हैं। इस द्वारा ही अपने बर्थराइट को पा सकते हो और राइट को जान सकते हो। राइट शब्द के भी दो अर्थ होते हैं। एक अर्थ है बर्थ-राइट अर्थात् वर्सा और दूसरा राइट और रॉंग की पहचान मिली है। इसलिए बाप को टåथ कहा जाता है अर्थात् सत्य वा राइट। सत्य की पहचान तब कर सकते हो जब यह तीनों चीजें प्राप्त हैं। अगर एक भी चीज़ की कमी है तो रॉंग से राइट तरफ नहीं चल पाते हो। रोशनी होगी तब ही मार्ग को तय कर सकेंगे नहीं तो अंधिययारे में कैसे मार्ग तय्य कर सकेंगे वा अपने पुरूषार्थ की स्पीड को तेज कैसे कर सकेंगे? जैसे देखो, इस पुरानी दुनिया में जब ब्लैक-आउट होता है तो स्पीड को ढीला कर देते हैं, तेज स्पीड अलाउ नहीं करते हैं क्योंकि एक्सीडेंट होने का डर रहता है। तो ऐसे ही अगर पूरी लाइट नहीं तो स्पीड को तीव्र नहीं कर सकते हो, स्पीड ढीली चलती रहेगी। साथ-साथ अगर माइट नहीं है तो लाइट के आधार से चल तो पड़ते हो लेकिन माइट ना होने के कारण जो विघ्न सामने आते हैं उनका सामना नहीं कर पाते। इसलिए स्पीड रूकने के कारण सामना ना कर पायेंगे तो रूक जायेंगे। बार-बार रूकने के कारण भी स्पीड तेज अर्थात् तीव्र पुरूषार्थ नहीं कर पाते हो। और डिवाइन इनसाइट अर्थात् दिव्य नेत्र, तीसरा नेत्र खुला हुआ नहीं है, चलते-चलते माया बंद कर देती है। जैसे आजकल गवर्नमेंट भी किसी को पकड़ने के लिए वा किसी हंगामें को बंद करने के लिए गैस छोड़ती है तो आँखें बंद हो जाती हैं, आंसू आने के कारण देख नहीं पाते हैं, जो करना चाहते वह कर नहीं पाते। इसी रीति जो तीसरा नेत्र मिला है, अगर माया की गैस वा धूल उनमें पड़ जाती है तो तीसरा नेत्र होते हुए भी जो देखना चाहते हैं वह देख नहीं पाते हैं। तीनों चीजें आवश्यक हैं। तीनों ही अगर ठीक हैं, यथार्थ रीति प्राप्त हैं, जैसे बाप ने दी हैं वैसे ही धारण कर रहे हैं, उसी आधार पर चल रहे हैं तो कब भी रॉंग कर्म वा असत्य कर्म कर नहीं सकते, सदा राइट तरफ जायेंगे। रॉंग हो ही नहीं सकता क्योंकि तीसरे नेत्र द्वारा राइट-रॉंग जान लेते हैं। जब जान लिया है तो फिर रॉंग नहीं करेंगे। लेकिन माया की धूल पड़ने से परख नहीं सकते, इसलिए राइट को छोड़ रॉंग की तरफ चले जाते हैं। तो कब भी कोई रॉंग वा असत्य कर्म होता वा संकल्प भी उत्पन्न होता है वा असत्य शब्द निकलता है तो समझना चाहिए कि इन तीनों चीजों में से किसी चीज़ की कमी हो गई, इसलिए जजमेंट नहीं कर पाते हैं। और जब तक रॉंग-राइट को नहीं जानते हो तो सम्पूर्ण बर्थराइट भी नहीं ले सकते। राइट कर्म से सम्पूर्ण बर्थराइट मिलता है। अगर राइट कर्म नहीं है, कब राइट, कब रॉंग होता है तो बर्थ-राइट भी सम्पूर्ण नहीं मिलेगा। जितना राइट संकल्प और कर्म करने में कमी होगी, उतना ही बर्थ-राइट लेने में भी कमी होगी। तो यह तीनों प्राप्ति सदा कायम रहें, उसके लिए मुख्य किस बात का अटेन्शन रहना चाहिए जो बहुत सहज है और सभी कर सकते हैं? रिवाइज कोर्स में भी वही सहज युक्ति बार-बार रिवाइज हो रही है। रिवाइज कोर्स अटेन्शन से सुनते हो, पढ़ते हो? ऐसे तो नहीं समझते हो - जानी-जाननहार हो गये? जानी-जाननहार अपने को समझ कर रिवाइज कोर्स को हल्का तो नहीं छोड़ देते हो? आज पेपर लेते हैं। ऐसा कौन है जो एक दिन भी रिवाइ कोर्स की मुरली मिस नहीं करते हैं वा धारणा में अटेन्शन नहीं देते है, वह हाथ उठावें? कहाँ आने-जाने में जो मुरली मिस करते हो वह पढ़ते हो वा मिस हो जाती है? ऐसे तो नहीं समझते हो अब नॉलेज को जान ही चुके हैं? भल जान चुके हो, लेकिन अभी बहुत कुछ जानने को रह गय्या है। जो अच्छी तरह से रिवाइज कोर्स को रिवाइज करते हैं वह स्वयं भी ऐसा अनुभव करते हैं। वह रिवाइज कोर्स करते भी पुराना लगता है वा नया लगता है? नय्यों के लिए तो कई बातें होंगी लेकिन जो पुराने हैं वह फिर से रिवाइज कोर्स से क्या अनुभव करते हैं? नया लगता है? क्योंकि ड्रामा अनुसार रिवाइज क्यों हुआ? यह भी ड्रामा की नूंध थी। रिवाइज क्यों कराया जाता है? अटेन्शन कम हो जाती है, स्मृति कम होती है तो बार-बार रिवाइज कराया जाता है। तो यह भी रिवाइज इसीलिए हो रहा है, क्योंकि अभी पै्रक्टिकल में नहीं आये हो। जितना सुना है, जितना सुनाते हो उतनी पै्रक्टिकल में पावर नहीं भरी है, इसलिए पावरफुल बनाने के लिए फिर से यह कोर्स चल रहा हे। पुरानों को पावरफुल बनाने के लिए और नयों को पावरफुल बनाने के साथ-साथ अपना हक पूरा मिलने के कारण भी यह रिवाइज कोर्स चल रहा है। तो अब इसी कमी को भी भरने के लिए अटेन्शन को बार-बार रिवाइज करना। तो रिवाइज कोर्स से जो संस्कार और स्वभाव परिवर्तन में लाना चाहते हो, वह परिवर्तन में आ जायेंगे। अच्छा, यह तो बीच में पेपर हो गया। पहली जो बात पूछ रहे थे - सहज युक्ति कौन-सी है, जो रिवाइज कोर्स में भी बहुत रिवाइज हो रही है? वह है अमृतवेले अपने आपसे और बाप से रूह-रूहान करना वा अमृतवेले को महत्व देना। जैसा नाम कहते हो वैसे ही उस वेला को वरदान भी तो मिला हुआ है। कोई भी श्रेष्ठ कर्म करते हैं तो आज तक के यादगार में भी वेला को देखते हैं ना। यहाँ भी पुरूषार्थ के लिए सहज प्राप्ति के लिए सबसे अच्छी वेला कौन-सी है? अमृतवेला। अमृतवेले के समय अपनी आत्मा को अमृत से भरपूर कर देने से सारा दिन कर्म भी ऐसे होंगे। जैसी वेला श्रेष्ठ, अमृत श्रेष्ठ वैसे ही हर कर्म और संकल्प भी सारा दिन श्रेष्ठ होगा। अगर इस श्रेष्ठ वेला को साधारण रीति से चला लेते तो सारा दिन संकल्प ओैर कर्म भी साधारण ही चलते हें। तो ऐसे समझना चाहिए यह अमृतवेला सारे दिन के समय का फाउन्डेशन वेला है। अगर फाउन्डेशन कमज़ोर वा साधारण डालेंगे तो ऊपर की बनावट भी आटोमेटिकली ऐसी होगी। इस कारण जेसे फाउन्डेशन की तरफ सदैव अटेन्शन दिया जाता हे वैसे सारे दिन का फाउन्डेशन टाइम अमृतवेला हे। उसका महत्व समझकर चलेंगे तो कर्म भी महत्व प्रमाण होंगे। इसको ब्रह्म-मुहूर्त भी क्यों कहते हैं? ब्रह्मा-मुहूर्त है वा ब्रह्म-मुहूर्त है? ब्रह्मा- मुहूर्त भी राइट है, क्योंकि सभी ब्रह्मा समान नये दिन का आरम्भ, स्थापना करते हो। वह भी राइट है, लेकिन ब्रह्म-मुहूर्त का अर्थ क्या है? उस समय का वायुमण्डल ऐसा होता है जो आत्मा सहज ही ब्रह्म-निवासी बनने का अनुभव कर सकती है। दूसरे समय में पुरूषार्थ करके अवाज से, वायुमण्डल से अपने को डिटैच करते हो या मेहनत करते हो। लेकिन उस समय इस मेहनत की आवश्यकता नहीं होती। जेसे ब्रह्म घर शान्तिधाम हे वैसे ही अमृतवेले के समय में भी आटोमेटिकली साइलेंस रहती है। साइलेंस के कारण शान्तस्वरूप की स्टेज वा शान्तिधाम निवासी बनने की स्टेज को सहज ही धारण कर सकते हो। तो जो श्रीमत मिली हुई हे, इसको ब्रह्म-मुहूर्त के समय स्मृति में लायेंगे तो ब्रह्म-मुहूर्त वा अमृतवेला के समय स्मृति भी सहज आ जायेगी। देखो, पढ़ाई पढ़ने वाले भी पढ़ाई को स्मृति में रखने के लिए इसी टाइम पढ़ने की कोशिश करते है, क्योंकि इसी समय सहज स्मृति रहती है। तो अपनी स्मृति को भी समर्थवान बनाना है वा स्वतः स्मृतिस्वरूप बनना है तो अमृतवेले की मदद से वा श्रीमत का पालन करने से सहज ही स्मृति को समर्थीवान बना सकते हो। जैसे समय की वेल्यु है इतनी इसी समय को वैल्यु देते हो वा कब नहीं देते हो? वैल्यु का तराजू कब नीचे, कब ऊपर जाता है? क्या होता हे? यह बहुत सहज युक्ति है सिर्फ इस युक्ति को इतनी वेल्यु देनी है। जैसे श्रीमत है उसी प्रमाण समय को पहचान कर ओैर समय प्रमाण कर्त्तव्य किया तो बहुत सहज सर्व प्राप्ति कर सकते हो। फिर मेहनत से छूट जायेंगे। छूटना चाहते हो तो उसके लिए जो साधन है, उसको अपनाते जाओ। अच्छा।

सदा लाइट-हाउस ओैर माइट-हाउस बन चलने वाले, सर्व आत्माओं को डिवाइन इन-साइट देने वाले बच्चों को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।



26-06-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


इफ़ेक्ट से बचना अर्थात् परफेक्ट बनना

प सभी का लक्ष्य परफेक्ट बनने का है ना। परफेक्ट अर्थात् कोई भी डिफेक्ट नहीं। अगर डिफेक्ट होगा तो उसकी निशानी क्या होगी? कोई- न-कोई प्रकार का - चाहे मन्सा संकल्प में, चाहे सम्पर्क वा सम्बन्ध में किसी भी प्रकार से माया का रा भी इफेक्ट होने कारण डिफेक्ट होता है। जैसे शरीर को भी कोई बात का इफेक्ट होता है तब बीमारी अर्थात् डिफेक्ट होता है। जैसे शरीर को मौसम का इफेक्ट हो जाता है वा खान-पान का इफेक्ट होता है तब बीमारी आती है। तो कोई भी डिफेक्ट न रहे -- इसके लिये माया के इफेक्ट से बचना है। कोई-न-कोई प्रकार से इफेक्ट आ जाता है इसलिये परफेक्ट नहीं हो सकते। तो कोशिश यह करनी है - कोई भी प्रकार का इफेक्ट न हो, इफेक्ट-प्रूफ हो जायें। इसके लिये साधन भी समय-प्रति-समय मिलते रहते हैं। मन्सा को इफेक्ट से दूर कैसे रखो, वाचा को कोई भी इफेक्ट से दूर कैसे रखो वा कर्मणा में भी इफेक्ट से दूर कैसे रहो - एक एक बात में अनेक प्रकार की युक्तियाँ बताई हुई हैं। लेकिन इफेक्ट हो जाता है, बाद में वह साधन करने की कोशिश करते हो। समझदार जो होते हैं वह पहले से ही अटेन्शन रखते हैं। जैसे गर्मा की सीजन में गर्मा का इफेक्ट न हो, इसका साधन पहले से ही कर लेते; उनको कहेंगे सेन्सीबूल। अगर समझ कम है तो गर्मा का इफेक्ट हो जाता है। तो कमल फूल समान सदा इफेक्ट से न्यारा और बाप का प्यारा बनना है। हरेक को अपने पुरूषार्थ प्रमाण वा अपनी स्थिति प्रमाण भी मालूम होता है कि हमारी आत्मा में विशेष किस बात का इफेक्ट समय-प्रति- समय होता है। मालूम होते हुये उन साधनों को अपना नहीं सकते। चाहते हुये भी उस समय जैसे अनजान बन जाते हैं। जैसे कोई इफेक्ट होता है तो मनुष्य की बुद्धि को डिफेक्ट कर देता है, फिर उस समय बुद्धि काम नहीं करती। वैसे माया का भी भिन्न-भिन्न रूप से इफेक्ट होने से बेसमझ बन जाते हैं। इसलिये परफेक्ट बनने में डिफेक्ट रह जाता है। जैसे अपने शरीर की सम्भाल रखनारूरी है, वैसे आत्मा के प्रति भी पूरी समझ रख चलना चाहिए, तब ही बहुत जल्दी इफेक्ट से परे परफेक्ट हो जावेंगे। जानते हुये भी कहाँ संग में आकर भी गलती कर देते हैं। समझते भी हैं लेकिन उस समय वातावरण वा कोई भी समस्या के कारण, संस्कारों के कारण वा सम्पर्क में आने का शक्ति कम होने कारण फिर फिर उस इफेक्ट में आ जाते हैं। सदैव अपने को चेक करना चाहिए कि मुख्य किस बात के निमित इफेक्ट होता है। उस इफेक्ट से सदा अपना बचाव रखना है, तब ही सहज परफेक्ट बन जावेंगे। मुख्य पुरूषार्थ यह है। आप लोग हरेक अपने मुख्य इफेक्ट के कारण को जानते तो हो। जानते हुये भी माया वा समस्या इफेक्ट में थोड़ा बहुत ला देती है ना। तो इफेक्ट से अपने को बचाना है। इफेक्ट-प्रूफ बने हो? संगदोष, अन्नदोष न हो, उसके तरीके जानते हो तो अपन को इफेक्ट-प्रूफ भी कर सकते हो। माया सेन्सीबूल से अनजान बना देती है। अगर सदा ज्ञान अर्थात् सेन्स में रहे तो सेन्सीबूल कभी किसके इफेक्ट में नहीं आता है। कोई इफेक्ट से बच कर आता है तो कहा जाता है - यह तो बड़ा सेन्सीबूल है। तो माया पहले सेन्स को कमजोर करती है। जैसे सामना करने वाले दुश्मन पहले कमजोर करने की कोशिश करते हैं, फिर वार करते हैं तब विजयी बनते हैं। पहले कमजोर करने का कोई तरीका ढूँढ़ते हैं। माया दुश्मन भी पहले से सेन्स को कमज़ोर कर देती है। समझ नहीं सकते कि यह राइट है वा रॉंग है। फिर इफेक्ट हो जाता है। इफेक्ट ही डिफेक्ट का रूप धारण कर लेता है। डिफेक्ट परफेक्ट बनने नहीं देता है। लक्ष्य क्या रखा है? परफेक्ट अर्थात् 16 कला सम्पन्न। थोड़ा-बहुत डिफेक्ट है तो 14 कला। तो क्या लक्ष्य रखा है? जो सेन्सीबूल होगा वह सक्सेसफुल रूर होगा। अच्छा!



11-07-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


निर्णय शक्ति को बढ़ाने की कसौटी – “साकार बाप के चरित्र

र्तमान समय के विशेषताओं को जानते हुये अपने में वह सर्व-शक्तियाँ धारण कर अपने आप को विशेष आत्मा बनाया है? जैसे इस समय की विशेषताओं का वर्णन करते हो, वैसे ही अपने में भी वह विशेषतायें देखते हो? जितनी समय में विशेषताएं हैं उतनी स्वयं में भी हें? वा समय में ज्यादा हैं और स्वयं में कम हैं? समय और स्वयं में कितना अन्तर समझते हो? अन्तर है? आप स्वयं पावरफुल हैं वा समय पावरफुल है? (अभी समय है, होना स्वयं को चाहिए) अगर कहते हो, होना यह चाहिए तो दुनिया वाले अज्ञानी, निर्बल आत्माओं और आप ज्ञानी आत्माओं में वा मास्टर सर्वशक्तिवान आत्माओं में क्या अन्तर रहा? ऐसा होना चाहिए - यह होना चाहिए, यह तो वह लोग भी कहते हैं। आप भी कहते हो कि होना चाहिए, तो अन्तर क्या हुआ? ज्ञानी और अज्ञानी में यही अन्तर है। जो लोग कहते हैं-चाहिए-चाहिए, ज्ञानी लोग ‘चाहिए’ नहीं कहते, जो होना चाहिए वह करके दिखाते हैं। उन्हों का होता है कहना। ज्ञानियों का होता है करना। यही अन्तर है। वह सिर्फ कहते हैं, आप करते हो, अगर अब भी आप कहते हो कि यह होना चाहिए तो अन्तर क्या हुआ? अपने आप से पूछो कि समय की क्या-क्या विशेषताएं हैं और उन विशेषताओं में से मेरे में क्या-क्या विशेषता कम है? अगर कोई एक भी विशेषता कम हुई तो क्या विशेष आत्माओं में आ सकेंगे? नहीं आ सकेंगे ना। इस समय की विशेषताओं को निकालो तो अनेकानेक विशेषताएं दिखाई देंगी। उनमें से इस समय की श्रेष्ठ विशेषता कौनसी है? संगम का समय चल रहा है ना। श्रेष्ठ बनने का समय तो है लेकिन समय की श्रेष्ठता क्या है जो और कोई समय की नहीं हो सकती? इस संगमयुग की विशेषता यह है कि संगमयुग का हर सेकेण्ड मधुर मेला है, जिस मेले में आत्माओं का बाप से मिलन होता है। यह विशेषता और कोई भी युग में नहीं हैं। वह यहीं हैं। बाप और बच्चों का मेला अथवा मिलन कहो; तो इस विशेषता को सदा अपने में धारण करते हुये चलते हो? जैसे संगमयुग का हर सेकेण्ड का मेला है, वैसे हर समय अपने आप को बाप के साथ मिलन मनाने का अनुभव करते हो? वा इस महान श्रेष्ठ मेले में चलते-चलते कब-कब बापदादा का हाथ छोड़ मेले वा मिलन मनाने से वंचित हो जाते हो? जैसे कब-कब मेले में कई बच्चे खो जाते हैं ना। माँ-बाप का हाथ छोड़ देते। मेला होता है खुशी मनाने के लिये। अगर मेले में कोई बच्चा मॉं-बाप से बिछुड़ जाये वा हाथ-साथ छोड़ दे तो उसको क्या प्राप्ति होगी? खुशी के बजाय और ही अशान्त हो जावेंगे। तो ऐसे अपने आप को देखो कि मेले में सदा खुशी की प्राप्ति कर रहा हूँ, सदा मिलन में रहता हूँ? जो सदा मिलन में रहेगा उसकी निशानी क्या होगी? उनकी विशेषता क्या होगी? अतीन्द्रिय सुख में रहने वाले वा सदा मिलन मनाने वाले की निशानी क्या होगी? उनकी विशेषता क्या होंगी? जो सदैव मिलन में मग्न होगा वह कब भी कोई विघ्न में नहीं होगा। मिलन विघ्न को हटा देता है। वह विघ्न-विनाशक होगा। मिलन को ही लगन कहते हैं। कोई भी प्रकार का विघ्न आता है वा विघ्न के वश हो जाते हैं; तो इससे क्या सिद्ध होता है? सदा मिलन मेला नहीं मनाते हो। जैसे औरों को कहते हो कि समय को पहचानो, समय का लाभ उठाओ। तो अपने आप को भी यह सूचना देते हो? वा सिर्फ दूसरों को देते हो? अगर अपने आप को भी यह सूचना देते हो तो एक सेकेण्ड भी मिलन से दूर नहीं रह सकते हो। हर सेकेण्ड मिलन मनाते रहेंगे। जैसे कोई भी बड़ा मेला लगता है, उसका भी समय फिक्स होता है कि इतने समय के लिये यह मेला है। फिर वह समाप्त हो जाता है। अगर कोई श्रेष्ठ मेला होता है और बहुत थोड़े समय के लिये होता तो क्या किया जाता है? मेले को मनाने का प्रयत्न किया जाता है। वैसे ही इस संगम के मेले को अगर अब नहीं मनाया तो क्या फिर कब यह मेला लगेगा क्या? जबकि सारे कल्प के अन्दर यह थोड़ा समय ही बाप और बच्चों का मेला लगता है, तो इतने थोड़े समय के मेले को क्या करना चाहिए? हर सेकेण्ड मनाना चाहिए। तो समय की विशेषताओं को जानते हुये अपने में भी वह विशेषता धारण करो। तो स्वत: ही श्रेष्ठ आत्मा बन जावेंगे। लक्ष्य तो सभी का श्रेष्ठ आत्मा बनने का है ना। लक्ष्य श्रेष्ठ बनने का होते हुये भी पुरूषार्थ साधारण क्यों चलता है?

लक्ष्य श्रेष्ठ है तो फिर लक्षण साधारण आत्मा का क्यों? इसका कारण क्या है? लक्ष्य को ही भूल जाते हो। लक्ष्य रखने वाले, फिर लक्ष्य को भूल जाते? कोई भी विघ्न का निवारण करने की शक्ति कम क्यों है? इसका कारण क्या? निवारण क्यों नहीं कर सकते हो? निवारण न करने के कारण ही जो लक्ष्य रखा है इसको पा नहीं सकते हो। तो निवारण करने की शक्ति कम क्यों होती? श्रीमत पर चलने वाले का तो जैसा लक्ष्य वैसे लक्षण होंगे। अगर लक्ष्य श्रेष्ठ है और लक्षण साधारण है तो इसका कारण? क्योंकि विघ्नों को निवारण नहीं कर पाते हो। निवारण न करने का कारण क्या है? किस शक्ति की कमी है? निर्णय शक्ति; यह ठीक है। जब तक निर्णय नहीं कर पाते तब तक निवारण नहीं कर पाते। अगर निर्णय कर लो तो निवारण भी कर लो। लेकिन निर्णय करने में कमी रह जाती है। और निर्णय क्यों नहीं कर पाते हो, क्योंकि निर्विकल्प नहीं होते। व्यर्थ संकल्प, विकल्प बुद्धि में होने कारण, बुद्धि क्लीयर न होने कारण निर्णय नहीं कर पाते हो और निर्णय न होने कारण निवारण नहीं कर पाते। निवारण न कर सकने कारण कोई-न-कोई आवरण के वश हो जाते। निवारण नहीं तो आवरण अवश्य है। तो अपने निर्णय शक्ति को बढ़ाने लिये सहज साधन कौनसा दिया हुआ है? जैसे सोने को परखने के लिये कसौटी को रखा जाता है, इससे मालूम हो जाता है कि सच्चा है वा झूठा है। ऐसे ही निर्णय शक्ति को बढ़ाने के लिये आपके सामने कौनसी कसौटी है? साकार बाप का हर कर्त्तव्य और हर चरित्र यही - कसौटी है। जो भी कर्म करते हो, जो भी संकल्प करते हो - अगर इस कसौटी पर देख लो कि यह यथार्थ है वा अयथार्थ है, व्यर्थ है वा समर्थ है इस कसौटी पर देखने के बाद जो भी कर्म करेंगे वह सहज और श्रेष्ठ होगा। तो इस कसौटी को ही साथ नहीं रखते हो, इसलिये मेहनत लगती है। जो सहज युक्ति है, इसको भूल जाते हो। इस कारण विघ्नों से मुक्ति नहीं पा सकते हो। अगर सोने का काम करने वाले के पास कसौटी ठीक न हो तो क्या होगा? धोखा खा लेंगे। ऐसे ही अगर यह कसौटी सदा साथ, स्मृति में न रखते हो तब मुश्किल अनुभव करते हो। है तो सहज ना। फिर मुश्किल क्यों हो जाता? क्योंकि युक्ति को यु नहीं करते हो। युक्ति यू करो तो मुक्ति रूर हो जाये। चाहे संकल्पों के तूफान से, चाहे कोई भी सम्बन्ध द्वारा वा प्रकृति वा समस्याओं द्वारा कोई भी तूफान वा विघ्न आते हैं तो उससे मुक्ति न पाने का कारण युक्ति नहीं। युक्ति-युक्त नहीं बने हो। जितना योग युक्त, युक्ति-युक्त होंगे उतना सर्व विघ्नों से मुक्त रूर होंगे। सर्व विघ्नों से मुक्त हो या युक्त हो? योग-युक्त नहीं रहते हो तब विघ्नों से युक्त हो। जो कोई भी प्रोग्राम रखते हो, वा भाषण आदि करते हो, वा किसको भी समझाते हो तो उसमें सभी को मुख्य कौन सी बात सुनाते हो? मुक्ति-जीवनमुक्ति आपका जन्मसिद्ध अधिकार है। तो जब आपका जन्मसिद्ध अधिकार है तो उनको प्राप्त करो। फिर कहते हो - अब नहीं तो कब नहीं। तो यह जो मुख्य स्लोगन है - मुक्ति-जीवनमुक्ति जन्मसिद्ध अधिकार है; इसको आप लोगों ने पाया है? बच्चे बने और अधिकार नहीं पाया? औरों को समझाते हो-बच्चा बना और वर्से का अधिकारी बना। तो यह सिर्फ समझाने का है वा प्रैक्टिकल करने की बात है? लायक बनना दूसरी बात है, लेकिन मुक्ति-जीवनमुक्ति का वर्से मिल गया है वा नहीं? यहाँ ही पा लिया है वा मुक्तिधाम में मुक्ति और स्वर्ग में जीवन-मुक्ति लेना है भविष्य में तो मिलना है लेकिन भविष्य के साथ-साथ अभी मुक्ति-जीवन मुक्ति नहीं मिली है? जब बाप अभी मिला है तो वर्सा भी अभी मिला है। भविष्य के दिलासे पर चल रहे हो? (चेक मिला है) बच्चों को चेक नहीं दिया जाता। बच्चे तो बाप के हर

चीज़ पर अधिकारी होते हैं। अधिकारी को चेक का दिलासा नहीं दिया जाता। तो प्रैक्टिकल जो वर्सा है वह अभी प्राप्त होता है। जीवन-बन्ध के साथ ही जीवन-मुक्त का अनुभव होता है। वहाँ तो जीवन-बन्ध की बात ही नहीं, वहाँ तो सिर्फ उसी प्रारब्ध में होंगे। मुक्ति-धाम के मुक्ति का अनुभव जो अभी कर सकते हो वह वहाँ नहीं कर सकेंगे। तो यह नहीं समझना कि मुक्ति-जीवनमुक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार भविष्य में पाना है। नहीं। जब से बच्चे बने तो वर्सा भी पा लिया है। बाकी रहा आज्ञाकारी, वफादार, फ़रमानबरदार कहाँ तक बनते हो वह नंबर। वर्से के अधिकारी तो बन जाते हो। उस वर्से को जीवन में धारण कर के उससे लाभ उठाना, वह हरेक की अवस्था पर है। वर्सा देने में बाप कोई अन्तर नहीं करता है। लायक और ना-लायक बनने पर अन्तर हो जाता है। इसलिये कहा कि जन्मसिद्ध अधिकार अपने आप में सदा प्राप्ति करते हो। सदा मुक्त रहना चाहिए ना। देह से, देह के सम्बन्ध से भी मुक्त और पुरानी दुनिया की स्मृति से भी मुक्त। मुक्त नहीं बने हो? मुक्ति की अवस्था का अनुभव अगर करते हो तो मुक्त होने बाद जीवन-मुक्ति का अनुभव ऑटोमे- टिकली हो जाता है। क्योंकि जीवन में तो हो ना। शरीरधारी हो ना। जीवन में रहते हुये देह और देह के सम्बन्ध और पुरानी दुनिया के आकर्षण से मुक्त हो - इसको ही जीवन-मुक्त अवस्था कहा जाता है। तो मुक्ति-जीवनमुक्ति का अनुभव अभी करना है न कि भविष्य में। भविष्य में तो यहाँ की प्राप्ति की प्रालब्ध मिलती रहेंगी। लेकिन प्राप्ति का अनुभव अभी होता है, भविष्य में तो अन्डरस्टूड है। वह है श्रेष्ठ कर्मों की प्रारब्ध। लेकिन श्रेष्ठ कर्म तो अभी होते हैं ना। तो प्राप्ति का भी अनुभव अभी होगा ना। भिवष्य के दिलासे पर सिर्फ न रहना। चेक रख अपनी चेकिंग में रह जाओ - ऐसे नहीं करना। अपने आप को देखो कि बाप द्वारा जो वर्सा मिला है इसको कहाँ तक प्राप्त कर चल रहे हैं? बाप ने तो दे दिया। अधिकारी का अधिकार कोई छीन नहीं सकता। तो हम अधिकारी हैं - इस नशें में, निश्चय में रहो। सिर्फ यह देखो कि मिले हुये वर्से को कहाँ व्यर्थ गंवा तो नहीं लेते हो? ऐसे कई बच्चे होते हैं जिनको मिलता बहुत है लेकिन गंवाते भी बहुत हैं। गंवाने कारण, मिलते हुये भी भिखारी रह जाते। अधिकारी होते भी अधीन बन जाते हैं। जब अधिकार न होगा तो रूर अधीनता होगी। विघ्नों के अधीन हो जाते हो ना। क्योंकि अधिकार को नहीं पाया है। अगर सदा अधिकारी बनकर चलो तो कोई भी विघ्न के अधिकारी हो नहीं सकते। इस प्रकृति के अधीन नहीं बनना है। जैसे बाप प्रकृति को अधीन कर आता है, अधीन नहीं होता। वैसे ही इस देह वा जो भी यह प्रकृति है उसको अधीन कर चलना है, न कि अधीन। अच्छा!

कलाबाजी का खेल देखा? भट्ठी वालों ने आज कलाबाजी अच्छी दिखाई। अभी समाप्ति में सभी कमजोरियाँ भी समाप्त हो जावेगी ना। फिर यह कलाबाजी तो नहीं खेलेंगे ना। सदा मुक्ति और जीवनमुक्ति अधिकार के निश्चय और नशे में रहने वाले, सर्व श्रेष्ठताओं को धारण कर श्रेष्ठ आत्मा बनने वाली आत्माओं को याद-प्यार और नमस्ते।



12-07-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


मरजीवापन की स्मृति से गृहस्थी वा प्रवृत्ति की विस्मृति

(अधरकुमारों की भट्ठी में)

पने आपको जहॉं चाहो, जब चाहो ऐसे परिवर्तन कर सकते हो? भट्ठी में अपने आपको परिवर्तन करने के लिए आते हो ना। तो परिवर्तन करने की शक्ति अनुभव करते हो? कैसा भी वायुमण्डल हो, कोई भी परिस्थिति हो लेकिन अपनी स्व-स्थिति के आधार से वायुमण्डल को परिवर्तन में ला सकते हो? वायुमण्डल के प्रभाव में आने वाली आत्मायें हो वा वायुमण्डल को सतोप्रधान बनाने वाली आत्मायें हो? अपने को क्या समझते हो? इतना अनुभव करते हो कि अभी कोई भी वायुमण्डल हमें अपनी तरफ आकर्षित नहीं कर सकता? जो समझते हैं कि भट्ठी में आने के बाद इतनी हिम्मत वा शक्ति अपने में जमा की है जो कहीं भी, किसी स्थान पर जाते, जमा की हुई शक्तियों के आधार से वायुमण्डल वा परिस्थिति मुझ मास्टर सर्वशक्तिवान को हिला नहीं सकती है, अपनी स्थिति को एकरस वा अटल, अचल बना सकते हैं, वह हाथ उठावें। यह बातें तो स्पष्ट हैं ही कि दिन- प्रतिदिन परिस्थितियां अति तमोप्रधान बननी हैं। परिस्थितियां वा वायुमण्डल अभी सतोप्रधान नहीं बनने वाला है। अति तमोप्रधान के बाद ही फिर सतोप्रधान बनने वाला है। तो दिन-प्रतिदिन वायुमण्डल बिगड़ने वाला है, ना कि सुधरने वाला। तो जैसे कमल पुष्प कीचड़ में रहते हुए न्यारा रहता है, वैसे अति तमोप्रधान, तमोगुणी वायुमण्डल में होते हुए भी अपनी स्थिति सदा सतोप्रधान रहे - इतनी हिम्मत समझ कर हाथ उठाया ना? फिर ऐसे तो नहीं कहेंगे कि यह बात ऐसे हुई, इसलिए अवस्था नीचे-ऊपर हुई? चाहे प्रकृति द्वारा, चाहे लौकिक सम्बन्ध द्वारा, चाहे दैवी परिवार द्वारा कोई भी परीक्षा आवे वा कोई भी परिस्थिति सामने आवे उसमें भी अपने आपको अचल, अटल बना सकेंगे ना। इतनी हिम्मत समझते हो ना? परीक्षाएं बहुत आनी हैं। पेपर तो होने ही हैं। जैसे-जैसे अन्तिम फाइनल रिजल्ट का समय समीप आ रहा है वैसे समय-प्रति-समय प्रैक्टिकल पेपर स्वत: ही होते रहते हैं। पेपर प्रोग्राम से नहीं लिया जाता। आटोमेटिकली ड्रामा अनुसार समय प्रति समय हरेक का प्रैक्टिकल पेपर होता रहता है। तो पेपर में पास होने की हिम्मत अपने में समझते हो? घबराने वाले तो नहीं हो ना? अंगद के माफिक रा भी अपने बुद्धियोग को हिलाने वाले नहीं हो? यह भट्ठी अधर-कुमारों की है ना। अपने को अधर कुमार तो समझते हो ना? संकल्प वा सम्बन्ध में अधर-कुमार की स्मृति नहीं रहती है? जैसे देखो, पहले बहन-भाई की स्मृति में स्थित किया गया, उसमें भी देखा गया कि बहन-भाई की स्मृति में भी कुछ देह-अभिमान में आ जाते हैं, इसलिए उससे भी ऊंची स्टेज भाई-भाई की बताई। ऐसे ही अपने को अधर कुमार समझ कर चलते हो गोया प्रवृति मार्ग के बन्धन में बंधी हुई आत्मा समझ कर चलते हो। इसलिए अब इस स्मृति से भी परे। अधर कुमार नहीं, लेकिन ब्रह्मा कुमार हूँ। अब मरजीवा बन गये तो मरजीवा जीवन में अधर-कुमार का सम्बन्ध है क्या? मरजीवा जीवन में प्रवृति वा गृहस्थी है क्या? मरजीवा जीवन में बाप-दादा ने किसको गृहस्थी बना कर नहीं दी है। एक बाप और सभी बच्चे हैं ना, इसमें गृहस्थीपन कहां से आया? तो अपने को ब्रह्मा-कुमार समझ कर चलना है। अगर अधर-कुमार की स्मृति भी रहती है तो जैसी स्मृति वैसी ही स्थिति भी रहती है। इस कारण अभी इस स्मृति को भी खत्म करो कि हम अधर-कुमार हैं। नहीं। ब्रह्मा-कुमार हूँ। जो बाप-दादा ने ड्यूटी दी है उस ड्यूटी पर श्रीमत के आधार पर जा रहा हूँ। मेरी प्रवृति है या मेरी युगल है - यह स्मृति भी रॉंग है। युगल को युगल की वृति से देखना वा घर को अपनी प्रवृति की स्मृति से देखना, इसको मरजीवा कहेंगे? जैसे देखो, हर चीज़ को सम्भालने के लिए ट्रस्टी मुकर् किये जाते हैं। यह भी ऐसे समझकर चलो -- यह जो हद की रचना बाप-दादा ने ट्रस्टी बनाकर सम्भालने के लिए दी है, वह मेरी रचना नहीं लेकिन बाप-दादा द्वारा ट्रस्टी बन इसको सम्भालने के लिए निमित्त बना हुआ हूँ। ट्रस्टीपन में मेरापन नहीं होता। ट्रस्टी निमित्त होता है। प्रवृति-मार्ग की वृति भी बिल्कुल ना हो। यह ईश्वरीय आत्मायें हैं, ना कि मेरे बच्चे हैं। भले छोटे-छोटे बच्चे हों, तो भी क्या बाप-दादा ने छोटे बच्चों की पालना नहीं की क्या? जैसे बाप-दादा ने छोटे बच्चों की पालना करते हुए ईश्वरीय कार्य के निमित्त बना दिया, वैसे ही छोटे-छोटे बच्चे वा बड़े, जिन्हों के प्रति भी बाप द्वारा निमित बने हो, उन आत्माओं प्रति भी यह वृति रहनी चाहिए कि इन आत्माओं को ईश्वरीय सेवा के योग्य बना कर इसमें लगा देना है। घर में रहते ऐसी स्मृति रहती है? जैसे ईश्वरीय परिवार की अनेक आत्माओं के सम्बन्ध वा सम्पर्क में रहते हो वैसे ही जिन आत्माओं की ड्यूटी मिली है, उन्हों के साथ भी ऐसे ही सम्पर्क में आते वा फर्क रहता है? जो आप लोगों के सम्पर्क में रहने वाली आत्मायें हैं, उन्हों से रिजल्ट मंगाई जायेगी। जैसे सेवा-केन्द्र की निमित्त बनी हुई बहनों वा भाईयों से उस ईश्वरीय दृष्टि, वृति से सम्पर्क में आते हो, वैसे ही उन आत्माओं से सम्पर्क में आते हो वा पिछले जन्म का अधिकार समझ चलते हो? समय-प्रति-समय स्थिति और वृति ऊंची होती जा रही है ना। और जब तक समय के प्रमाण अपनी स्थिति और वृति को ऊंचा नहीं बनाया है वा परिवर्तन में नहीं लाया है तब तक ऊंच पद कैसे पा सकेंगे? जैसे साकार में बाप को देखा - लौकिक सम्बन्ध की वृति, दृष्टि वा स्मृति स्वप्न में थी? तो फालो फादर करना है ना। क्या वही लौकिक सम्बन्धी साथ नहीं रहते थे क्या? तो आप लोगों को भी साथ रहते हुए इस स्मृति और वृति में चलने की हिम्मत रखनी है। इस भट्ठी में क्या परिवर्तन करके जायेंगे? अधरकुमार का नाम-निशान समाप्त। जैसे भट्ठी में पड़ने से हर वस्तु का रूप परिवर्तन हो जाता है, वैसे इस भट्ठी में ‘‘मैं प्रवृति मार्ग वाला हूँ, मैं अधर कुमार हूँ’’ - इस स्मृति को भी समाप्त करके यह समझना कि मैं ब्रह्माकुमार हूँ और इन निमित्त बनी हुई आत्माओं की सेवा करने के लिए ट्रस्टी हूँ। इस स्मृति को मजबूत करके जाना। यही है भट्ठी का परिवर्तन। इतना परिवर्तन करने की शक्ति अपने में भरी है वा वहां जाकर फिर प्रवृति वाले बन जायेंगे? अभी प्रवृति नहीं समझना लेकिन इस गृहस्थीपन की वृति से पर वृति अर्थात् दूर। गृहस्थी की वृति से परे - ऐसी अवस्था बना कर जाने से ही अज्ञानी आत्मायें भी आपकी चलन से, आपके बोल से, नैनों से जो न्यारी और प्यारी स्थिति गाई जाती है, उसका अनुभव कर सकेंगे। अब तक दुनिया के बीच रहते हुए दुनिया वालों को न्यारी और प्यारी स्थिति का अनुभव नहीं करा पाते हो क्योंकि अपनी वृति इतनी न्यारी नहीं बनी है। न्यारी न बनने के कारण इतने प्यारे भी नहीं बने हो। प्यारी चीज़ सभी को स्वत: ही आकर्षण करती है। तो दुनिया के बीच रहते हुए ऐसी न्यारी स्थिति बनायेंगे तो प्यारी स्थिति भी स्वत: बन जायेगी। ऐसी प्यारी स्थिति अनेक आत्माओं को आपकी तरफ स्वत: ही आकर्षण करेगी। अभी भी मेहनत करनी पड़ती है ना। क्योंकि अभी तक जो न्यारी और प्यारी स्थिति होनी चाहिए वह प्रत्यक्ष रूप में नहीं है। अपने आपको प्रत्यक्ष करना पड़ता है। अगर प्रत्यक्ष रूप में हों तो प्रत्यक्ष करने की मेहनत ना करनी पड़े। तो अब उस श्रेष्ठ स्थिति को कर्म में प्रत्यक्ष रूप में लाओ। अब तक गुप्त है। दुनिया के बीच अलौकिक दिखाई देते हो? कोई भी दूर से आप लोगों को देखते अलौकिकता का अनुभव करते हैं कि साधारण समझते हैं? प्रैक्टिकल जीवन का इतना प्रभाव है जो कोई भी देख कर समझे कि यह कोई विशेष आत्मायें हैं? जैसे स्थूल ड्रेस को देख कर समझ लेते हैं कि यह हम लोगों से कोई न्यारे हैं। वैसे ही यह सूरत वा अव्यक्त मूर्त न्यारापन दिखावे, तब प्रभाव निकलेगा। चलते-फिरते ऐसी श्रेष्ठ स्थिति हो, ऐसी श्रेष्ठ स्मृति और वृति हो जो चारों ओर की वृतियों को अपनी तरफ आकर्षण करे। जैसे कोई आकर्षण की चीज़ आस-पास वालों को अपनी तरफ आकर्षित करती है ना। सभी का अटेन्शन जाता है। वैसे यह रूहानियत वा अलौकिकता आस-पास वालों की वृतियों को अपनी तरफ आकर्षित नहीं कर सकती है? क्या यह स्टेज अन्त में आनी है? साधारण रीति भी कोई रायल फैमली के बच्चे होते हैं तो उनकी एक्टिविटी से, उन्हों के बोल से ना परिचित होते हुए भी जान लेते हैं कि यह कोई रायल फैमली की आत्मायें हैं। तो क्या अलौकिक वृति में स्थित रहने वाली श्रेष्ठ आत्माओं का दूर से इतना प्रभाव नहीं पड़ सकता है? क्या मुश्किल है? जो सहज बात होती है वह करने में देरी लगती है क्या? ऐसे समझें कि भट्ठी में इतने सभी अलौकिक शक्तिशाली, मास्टर ज्ञान-सूर्य जब चारों ओर जायेंगे तो जैसे सूर्य छिप नहीं सकता, वैसे मास्टर ज्ञान-सूर्य का प्रकाश वा प्रभाव चारों ओर फैलने से यहां तक भी प्रैक्टिकल सबूत आयेगा? सबूत कौन-सा? कम से कम जो आप द्वारा प्रभावित हुई आत्मायें हों, उन्हों का समाचार तो आवे। स्वयं ना आवें, समाचार तक तो आवे। हरेक एक-एक तरफ जाकर प्रभाव डाले तो कितने समाचार-पत्र आयेंगे? ऐसा सबूत देंगे? वा जैसे भट्ठी करके जाते हैं, कुछ समय प्रभावशाली रहते फिर प्रभाव में आ जाते हैं? बाप तो सदैव उम्मीदवार ही रहते हैं। अब रिजल्ट देखेंगे कि कहां तक अविनाशी रिजल्ट चलती है और कहां तक अटल-अचल रहते हैं?

वरदान-भूमि में वरदानों की प्राप्ति जो की है, उन प्राप्त हुए वरदानों से अब वरदातामूर्त बन कर निकलना है। कोई भी आत्मा सम्बन्ध वा सम्पर्क में आवे तो महादानी और महावरदानी, इसी स्मृति में रहते हुए हर आत्मा को कुछ ना कुछ प्राप्ति Nजरूर करानी है। कोई भी आत्मा खाली हाथ नहीं जानी चाहिए। आप तो महादानी हो ना। उस दान को सम्भालते हैं वा नहीं, वह उनकी तकदीर हुई। आप तो महादानी बन अपना कर्त्तव्य करते रहो उसी कल्याणकारी वृति और दृष्टि से। विश्व-कल्याणकारी हूँ, महादानी हूँ, वरदानी हूँ - इसी पावरफुल वृति में रहने से आत्माओं को परिवर्तन कर सकेंगे। अभी अपनी वृति को पावरफुल बनाओ। अच्छा।



14-07-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


अंतिम सेवा के लिए रमतायोगी बनो

जैसे गवर्मेन्ट के गुप्त अनुचर नये-नये प्लैन्स बनाते हैं, कहां भी कोई उल्टा कर्त्तव्य आदि होता है तो उसको चेक करते हैं। वैसे आप भी सभी पाण्डव गवर्मेन्ट के गुप्त अनुचर हो। आत्माओं को जो धोखे में फंसाने वाले हैं वा उलटी राह पर चलाने वाले वा मिलावट करने वाले हैं अथवा गिराने के निमित्त हैं उन्हों के लिए नये-नये प्लैन्स बनाते हो? वह गवर्मेट भी सदैव नई-नई प्लैन्स बनाती है ना, जिससे मिलावट करने वाले उन्हों की नर से बच नहीं पाते हैं। अभी चारों ओर आवा तो फैला दिया है लेकिन यह विद्वान, आचार्य आदि जो निमित्त बने हुए हैं यथार्थ ज्ञान के बदली अयथार्थ रीति देने, उन्हों की तरफ अटेन्शन जाता है? एक द्वारा भी अनेकों को आवाज पहुंचता है। वह कौन निमित्त बन सकता है? साधारण जनता को तो सुनाते रहते हो, उनमें से जो बनने वाले हैं वह अपना यथा शक्ति पुरूषार्थ करते चल रहे हैं। लेकिन जो आवाज फैलना है वह किन्हों के द्वारा? शक्तियों का जो अन्तिम गायन है वह क्या इस साधारण जनता के प्रति गायन है? शक्तियों की शक्ति की प्रत्यक्षता इन साधारण जनता द्वारा होगी? जो पोलीटिकल लोग हैं उन्हों के द्वारा इतना आवाज नहीं फैल सकता क्योंकि आजकल जो भी नेता बनते हैं, इन सभी की बुराइयां जनता जानती है। आजकल प्रजा का प्रजा पर राज्य है ना। तो नेताओं की आवाज का प्रभाव नहीं है। तो एक द्वारा अनेकों तक आवाज करने के निमित्त कौन बनेगा? इन गुरूओं की जंजीरों में तो सभी फंसे हुए हैं ना। भले अन्दर में क्या भी हो लेकिन उन्हों के शिष्य अन्धश्रद्धा से सत्- सत् करने के आदती हैं। नेताओं के पीछे सत्-सत् करने वाले नहीं हैं। तो शक्तियों का जो गायन है वह कब प्रैक्टिकल में आना है? वा उसके लिए अब धरती नहीं बनी है? जैसे गुप्त अनुचर जो होते हैं वह क्या करते हैं? मिलावट वालों को ही घेराव डालते हैं। मिलावट करने वाले बड़े आदमी होते हैं, जिससे गवर्मेन्ट को बहुत प्राप्ति होती है। साधारण के पीछे नहीं पड़ते। उन्हों के नये- नये प्लैन्स बनते रहते हैं कि किस रीति मिलावट को प्रसिद्ध करें। तो ऐसी बुद्धि चलती है? कि जो सहज प्रजा बनती है उसमें ही सन्तुष्ट हो? प्रभाव पड़ने का जो मुख्य साधन है वह तो प्रैक्टिकल में करना पड़े ना। वह कब होगा? जब पहले बुद्धि में प्लैन्स चलेंगे, उमंग आयेगा कि हमको आज यह करना है। तो अभी वह संकल्प उठते हैं वा संकल्प ही मर्ज हैं? जैसे सर्विस चलती रहती है ऐसे तो प्रजा बनने का साधन है। लेकिन आवाज फैलने का साधन, जिससे प्रत्यक्षता हो, वह प्रैक्टिकल में लाना है। जब विमुख करने वाले सम्मुख आवें तब है प्रभाव। बाकी विमुख होने वाले सम्मुख आयें तो कोई बड़ी बात नहीं है। इसलिए बाप से भी ज्यादा शक्तियों का, कुमारियों का गायन है। कन्यायें अर्थात् ब्रह्माकुमारियां। इसका मतलब यह नहीं कि कुमारी ही होगी। ब्रह्मा- कुमार-कुमारियां तो सभी हैं। कन्याओं द्वारा बाण मरवाये हैं। बाप खुद सम्मुख नहीं आये, सम्मुख शक्तियों को रखा। तो जब प्रैक्टिकल में शक्ति सेना निमित है तो शक्तियों का जो विशेष कर्त्तव्य गाया हुआ है वह उन्हों से ही गाया हुआ है। वह उमंग-उत्साह है? क्या सेमीनार करने में ही खुश हो? यह तो सभी साधन हैं नंबरवार प्रजा बनाने के। कुछ-ना-कुछ कनेक्शन में आते हैं और प्रजा बन जाती है। लेकिन अब तो इससे भी आगे बढ़ना है। अंतिम सर्विस को प्रैक्टिकल लाने में अभी से तैयारी करो। पहले तो संकल्प रखो, फिर उसका प्लैन बनाओ, फिर प्लैन से प्रैक्टिकल में आओ। उसमें भी समय तो चाहिए ना। शुरू तो अभी से करना पड़े। जैसे शुरू-शुरू में जोश था कि जिन्होंने हमको गिराया है उन्हों को ही संदेश देना है। बीच में प्रजा के विस्तार में चले गये। लेकिन जो आदि में था वह अंत में भी आना है। जैसे माया की जंजीरों से छुड़ाने के लिए मेहनत करते हैं। वैसे यह भी बड़ी जंजीर है और अब तो दिन-प्रतिदिन यह जंजीरें मोहिनी रूप लेते हुए अपनी तरफ खैंचती जा रही हैं वा अल्पकाल की बुद्धि द्वारा प्राप्ति कराते हुए अपनी जंजीर में फंसाते जाते हैं। उन्हों से सभी को कब छुड़ायेंगे? अंतिम प्रभाव का साधन यही है जिसका गायन भी है कि चींटी महारथी को भी गिरा देती है। गायन तो कमालियत का होता है ना। साधरण जनता को सुनाते रहते हो, वह क्या बड़ी बात है। यह तो वह मिलावट वाले भी करते हैं। झूठे लोग भी अपनी तरफ आकर्षित करते हैं। लेकिन जो अपने को महारथी समझते हैं उन्हों के पोल खोल दो। उन्हों को झुकाओ तब कमाल है। ऐसी कमाल दिखाने के लिये कुछ बुद्धि चलती है? असत्य को असत्य सिद्ध करो तब तो सत्य की जय हो। जय-जयकार होगी ही तब। फिर इतनी मेहनत करने की रूरत नहीं। इसके लिए प्लैन्स चाहिए, तरीका चाहिए और अन्दर में वह नशा चाहिए कि हम गुप्त अनुचर हैं, इन्हों के पोल सिद्ध करना हमारा काम है, हम ही इसके लिए निमित्त हैं। यह अन्दर से उमंग-उत्साह आवे, तब यह काम हो सकता है। यह प्रोग्राम से नहीं हो सकता। किसी को आप प्रोग्राम दो कि यह-यह करो, ऐसे वो नहीं कर सकेंगे। उसमें सामना करने की इतनी शक्ति नहीं आयेगी। अपने दिल से जोश आवे कि मुझे यह करना है, वह प्रैक्टिकल हो सकता है। संकल्प को रचने से फिर प्रैक्टिकल में आ जायेगा। अभी सभी की नर कोई कमाल देखने की तरफ है और बिना शक्तियों के यह कार्य पाण्डव अथवा कोई कर नहीं सकता। निमित्त शक्तियों को बनना है। जैसे शुरू-शुरू में रमता योगी माफिक जहां के लिए भी संकल्प आता था, जोश में चल पड़ते थे और यथा शक्ति सफलता भी पा लेते थे। ऐसा ही फिर इस बात के लिए भी रमता योगी चाहिए। प्रजा बनाने में बहुत बिजी हो गये हो और जो रचना रची है उसको पालने में ही समय बीत जाता है। अच्छा।



16-07-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


स्वच्छ और आत्मिक बल वाली आत्मा ही आकर्षण मूर्त्त है

पने को इस श्रेष्ठ ड्रामा के अन्दर हीरो एक्टर और मुख्य एक्टर समझते हो? मुख्य एक्टर्स के तरफ सभी का अटेन्शन होता है। तो हर सेकेण्ड की एक्ट अपने को मुख्य एक्टर समझते हुये बजाते हो? जो नामीग्रामी एक्टर्स होते हैं उन्हों में मुख्य 3 बातें होती हैं। वह कौनसी हैं? एक तो वह एक्टिव होगा, दूसरा एक्युरेट होगा और अट्रेक्टिव होगा। यह तीनों बातें नामी-ग्रामी एक्टर्स में अवश्य होती हैं। तो ऐसे अपने को नामीग्रामी वा मुख्य एक्टर समझते हो? अट्रेक्ट किस बात पर करेंगे? हर कर्म में, हर चलन में रूहानियत की अट्रेक्शन हो। जैसे कोई शरीर में सुन्दर होता है तो वह भी अट्रैक्शन करते हैं ना अपने तरफ। ऐसे ही जो आत्मा स्वच्छ है, आत्मिक-बल वाली है, वह भी अपने तरफ आकर्षित करते हैं। जैसे आत्मा-ज्ञानी महात्माएं आदि भी द्वापर आदि में अपने सतोप्रधान स्थिति वाले थे तो उन्हों में भी रूहानी आकर्षण तो था ना, जो अपने तरफ आकर्षित करके औरों को भी इस दुनिया से अल्पकाल के लिये वैराग्य तो दिला देते थे ना। जब उलटे ज्ञान वालों में भी इतनी अट्रैक्शन थी, तो जो यथार्थ और श्रेष्ठ ज्ञान-स्वरूप हैं उन्हों में भी रूहानी आकर्षण वा अट्रैक्शन रहेगी। शारीरिक ब्यूटी नजदीक वा सामने आने से आकर्षण करेगी। रूहानी आकर्षण दूर बैठे भी किसी आत्मा को अपने तरफ आकर्षित करती। इतनी अट्रैक्शन अर्थात् रूहानियत अपने आप में अनुभव करते हो? ऐसे ही फिर एक्युरेट भी हो। एक्युरेट किसमें? जो मन्सा अर्थात् संकल्प के लिये भी श्रीमत मिली हुई है - वाणी के लिये भी जो श्रीमत मिली हुई है और कर्म के लिये भी जो श्रीमत मिली हुई है इन सभी बातों में एक्युरेट। मन्सा भी अनएक्युरेट न हो। जो नियम हैं, मर्यादा हैं, जो डायरेक्शन हैं उन सभी में एक्युरेट और एक्टिव। जो एक्टिव होता है वह जिस समय जैसा अपने को बनाने चाहे, चलाने चाहे वह चला सकते हैं वा ऐसा ही रूप धारण कर सकते हैं। तो जो मुख्य पार्टधारी है उन्हों में यह तीनों ही विशेषताएं भरी हुई रहती हैं। इसमें ही देखना है कि इन में से कौनसी विशेषता किस परसेन्टेज में कम है? स्टेज के साथ-साथ परसेन्टेज को भी देखना है। रूहानियत है, आकर्षित कर सकते हैं, लेकिन जितनी परसेन्टेज होनी चाहिए वह है? अगर परसेन्टेज की कमी है तो इसको सम्पूर्ण तो नहीं कहेंगे न्। पास तो हो गये, फिर भी मार्क्स के आधार पर नंबर तो होते हैं ना। थर्ड डिवीजन वाले को भी पास तो कहते हैं लेकिन कहाँ थर्ड वाला, कहाँ फर्स्ट क्लास - फर्क तो है ना। तो अब चेक करना परसेन्टेज को। स्टेज तो अब नेचरल बात हो गई। क्योंकि प्रैक्टिकल एक्ट में स्टेज पर हो ना। अब सिर्फ परसेन्टेज के आधार पर नंबर होने हैं। आज बहुत बड़ा संगठन हो गया है। जैसे बाप को भी समान बच्चे प्रिय लगते हैं, आप लोग आपस में भी एक समान मिलते हो तो यह सितारों का मेला भी बहुत अच्छा लगता है ना। संगमयुगी मेला तो है ही। लेकिन उस मेले में भी यह मेला है। मेले के अन्दर जो विशेष मेला लगता है वह फिर ज्यादा प्रिय लगता है। बड़े बड़े मेलों के अन्दर भी फिर एक विशेष स्थान बनाते हैं जहाँ सभी का मिलन होता है। संगमयुग बेहद का मेला तो है ही लेकिन उसके अन्दर भी यह स्थूल विशेष स्थान है, जहाँ समान आत्माएं आपस में मिलती हैं। हरेक को अपने समान वा समीप आत्माओं से मिलना- जुलना अच्छा लगता है। विशेष आत्माओं से मेला बनाने लिये स्वयं को भी विशेष बनना पड़े। कोई विशेष हो, कोई साधारण हो, वह कोई मेला नहीं कहा जाता। बाप के समान दिव्य धारणाओं की विशेषता धारण करनी है। बाप से जो पालना ली है इसका सबूत देना है। बाप ने पालना किस लिये की? विशेषताएं भरने लिये। लक्ष्य हो और लक्षण न आवे; तो इसको क्या कहा जाये? ज्यादा समझदार। एक होते हैं समझदार, दूसरे होते हैं बेहद के समझदार। बेहद में कोई लिमिट नहीं होती है। अच्छा!



18-07-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


कमजोरियों का समाप्ति समारोह करने वाले ही तीव्र पुरुषार्थी है

पने को एवररेडी समझते हो? जो एवररेडी होंगे, उन्हों का प्रैक्टिकल स्वरूप एवर हैप्पी होगा। कोई भी परिस्थिति रूपी पेपर वा प्राकृतिक आपदा द्वारा आया हुआ पेपर वा कोई भी शारीरिक कर्म भोग रूपी पेपर आवे, तो भी सभी प्रकार के पेपर्स में फुल पास वा अच्छी मार्क्स में पास होंगे - ऐसे अपने को एवररेडी समझते हो? अथवा एवररेडी की निशानी जो एवर हैप्पी है, वह अनुभव करते हो? अपना इन्तजाम ऐसा किया है जो किस घड़ी में भी कोई पेपर हो जाये तो तैयारी हो? ऐसे एवररेडी हो? आप श्रेष्ठ आत्माओं के लिए, आप लोगों द्वारा जो अन्य आत्माएं नंबरवार वर्सा पाने वाली हैं उन्हों के लिए बाकी थोड़ा-सा समय रहा हुआ है। समय की रफ्तार तेज है। जैसे समय किसके लिए भी रूकावट में रूकता नहीं, चलता ही रहता है। वैसे ही अपने आपसे पूछो कि स्वयं भी कोई माया के रूकावट में रूकते तो नहीं हो? कोई भी माया के सूक्ष्म वा स्थूल विघ्न आते हैं वा माया का वार होता है तो एक सेकेण्ड में अपनी श्रेष्ठ शान में स्थित होंगे तो माया दुश्मन पर निशाना भी ठीक रहेगा, अगर श्रेष्ठ शान नहीं तो निशाना ना लगने के कारण परेशान हो जावेंगे। अभी परेशानी होती है? अगर अब तक किसी भी प्रकार की परेशानी होती है तो अन्य आत्माओं की परेशानी को कैसे मिटावेंगे? परेशानियों को मिटाने वाले हो वा स्वयं भी परेशान होने वाले हो? जैसे जो भी भट्ठी करते हो तो उसका समाप्ति-समारोह वा परिवर्तन-समारोह मनाते हो। तो यह जो बेहद की भट्ठी चल रही है उसमें कमजोरियों की समाप्ति का समारोह वा परिवर्तन-समारोह कब मनावेंगे? इसकी कोई फिक्स डेट है? ड्रामा करावेगा? ड्रामा तो सर्व आत्माओं का पुरानी दुनिया से समाप्ति-समारोह करावेगा लेकिन आप तीव्र पुरुषार्थी श्रेष्ठ आत्माओं को तो पहले ही कमजो- रियों के समाप्ति समारोह को मनाना है ना। कि आप भी अन्य आत्माओं के साथ अन्त में करेंगे? जैसे और सेमीनार आदि करते हो, उसकी डेट फिक्स करते हो, उसी प्रमाण तैयारी करते हो और उस कार्य को सफल कर सम्पन्न करते हो। ऐसे यह कमियों को मिटाने की सेमीनार की डेट फिक्स नहीं हो सकती? यह सेमीनार होना सम्भव है? जैसे कोई यज्ञ रचते हैं तो बीच-बीच में आहुति तो डालते ही रहते हैं। लेकिन अन्त में सभी मिल कर सम्पूर्ण आहुति डालते हैं तो क्या ऐसे सभी आपस में मिल कर सम्पूर्ण आहुति डाल सकते हैं? सर्व कमजोरियों को स्वाहा नहीं कर सकते हो? जब तक सभी मिलकर के सम्पूर्ण आहुति नहीं डालेंगे तो सारे विश्व का वायुमण्डल वा सर्व आत्माओं की वृतियां वा वायब्रेशन परिवर्तन में कैसे आवेंगे? और जो आप सभी ने जिम्मेवारी ली है विश्व-परिवर्तन की वा विश्व नव निर्माण की, वह कैसे होगी? तो अपनी जिम्मेवारी को पूरा करने के लिए वा अपने कार्य को पूरा सम्पन्न करने के लिए सम्पूर्ण आहुति ही डालनी पड़ेगी। इसके लिए अपने को एवररेडी बनाने के लिए कौन-सी युक्ति अपनाओ जो सहज ही कमजोरियों से मुक्ति हो जाये? युक्तियां तो बहुत मिली हैं, फिर भी आज और युक्ति बता रहे हैं। सबसे ज्यादा यादगार किसके बनते हैं? और अनेक प्रकार के यादगार किसके बनते हैं? बाप के वा बच्चों के? बाप की यादगार का एक ही रूप बनता है लेकिन आप लोगों के अर्थात् श्रेष्ठ आत्माओं के अनेक रूप और रीति-रस्म के अनुसार बने हुये हैं। आप श्रेष्ठ आत्माओं के भिन्न-भिन्न कर्म का भी यादगार बना हुआ है। तो जबकि बाप से भी ज्यादा अनेक प्रकार के यादगार बने हुए हैं, वह कैसे? आपके प्रैक्टिकल श्रेष्ठ कर्म के, श्रेष्ठ स्थिति के ही यादगार बने हैं ना। तो जो भी संकल्प वा कर्म करते हो वा वचन बोलते हो, उस हर वचन और कर्म को चेक करो कि वह वचन वा बोल ऐसा है जो हमारी यादगार बने? यादगार वह कर्म वा बोल होते हैं जो याद में रह कर के करते हो। जैसे कोई चीज़ गाड़ी जाती है, जैसे झण्डे को गाड़ते हो ना अर्थात् फाउंडेशन डालते हो। कहते हैं - इस चीज़ को अच्छी तरह से गाड़ लेना। ऐसे ही याद से किये हुये कर्म सदा के लिये यादगार बन जाता है। जैसे कोई चीज़ दुनिया के आगे रखनी होती है तो कितनी सुन्दर और स्पष्ट बनाई जाती है! साधारण चीज़ को किसी के आगे नहीं रखेंगे। कोई विशेषता होती है तब किसी के आगे रखी जाती है। तुम्हारे यह अभी के हर कर्म वा हर बोल विश्व के आगे यादगार के रूप में आने वाले हैं। ऐसा अटेन्शन रखते हुये व ऐसी स्मृति रखते हुये हर कर्म वा बोल बोलो जो कि यादगार बनने के योग्य हो। अगर यादगार बनने के योग्य नहीं है तो वह कर्म नहीं करो - यह स्मृति सदा रखो। जो व्यर्थ संकल्प वा व्यर्थ बोल वा साधारण कर्म होते हैं, उनका यादगार बनेगा क्या? यादगार बनने के लिये याद में रह कर कर्म करो। जैसे बाप को देखो कि याद में रहते हुये कर्म करने से ही कर्म आज आप सभी के दिल में यादगार बन गया है ना। ऐसे ही अपने कर्मों को भी विश्व के सामने यादगार रूप बनाओ। यह तो सहज है ना। जबकि निश्चय है कि यह सभी अनेक प्रकार के यादगार हमारे ही हैं; तो किये हुये अनेक बार के श्रेष्ठ कर्म वा यादगार स्वरूप अब फिर से रिपीट करने में मुश्किल होती है क्या? कल्प-कल्प के किये हुये को सिर्फ रिपीट करना है। तो मास्टर त्रिकालदर्शा बन अपने कल्प पहले के यादगार को सामने रख फिर से सिर्फ रिपीट करो। इस स्मृति के पुरूषार्थ में सदा रहते आये हो। तो अब क्या मुश्किल है? माया अब तक भी इस स्मृति में ताला लगाती है क्या? जब ताला लग जाता है तो क्या बना देती है? बेताला। सभी के ताले खोलने वाले भी बेताले बन जाते हैं। यह स्मृति को ताला क्यों लगता है? अपने लक्क को भूल जाते हो तो लॉक लग जाता है। अगर लक्क को देखो तो कब भी लॉक नहीं लग सकता है। तो लॉक की चाबी कौनसी है? अपने आपको लक्की समझो। लवली भी हो और लक्की भी हो। अगर लक्क को भूलकर के सिर्फ लवली बनते हो, तो भी अधूरे रह जाते हो। लवली भी हूँ और लक्की भी हूँ - यह दोनों ही स्मृति में रहने से कब माया का लॉक नहीं लग सकता। इसलिये अपने कल्प पहले के यादगारों को फिर से याद में रह कर रिपीट करें। अब भी देखो अगर कोई यादगार युक्तियुक्त नहीं बनाते हैं तो ऐसे यादगार को देख कर संकल्प आवेगा कि यह युक्तियुक्त नहीं बना हुआ है। कोई देवियों वा शक्तियों का चित्र युक्तियुक्त नहीं बनाते हैं तो देखते हुए सभी को संकल्प आता है कि यह ठीक नहीं है। ऐसे ही, अपने कर्मों को देखो, अपने हर समय के रूप वा रूहाब को देखो कि इस समय के मेरे रूप और रूहाब का यादगार क्या बनेगा? क्या युक्तियुक्त यादगार बनेगा? जब युक्तियुक्त यादगार चित्र होता है तो उस चित्र की भी कितनी वैल्यु होती है। तो ऐसे देखो हमारे हर समय के हर चरित्र की वैल्यु है? अगर नहीं तो यादगार चित्र भी वैल्युएबल भले नहीं बन सकता। समझा? तो ऐसा समय समीप आ गया है जो आपके हर संकल्प के चरित्र रूप में यादगार बनेंगे, आपके एक-एक बोल सर्व आत्माओं के मुख से गायन होंगे। तो अपने को ऐसे पूजनीय और गायन योग्य समझ कर हर कर्म करें। अच्छा।

हर कर्म याद में रह सदा यादगार बनाने वाले लवली और लक्की सितारों को बाप-दादा का यादप्यार और नमस्ते।



19-07-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


संगठन क महत्व तथा संगठन द्वारा सर्टिफिकेट

पने को मोती वा मणका समझते हो? मोती वा मणके की वैल्यू किसमें होती है? मणका वा मोती माला से अलग होते हैं तो उसकी वैल्यू कम क्यों होती है? माला में पिरोने से उनकी वैल्यू होती है। अलग होने से कम क्यों होती है? कारण? संगठन में होने के कारण वह मोती, मणका शक्तिशाली हो जाता है। एक से दो भी आपस में मिल जाते हैं तो दो को 11 कहा जाता है। एक को एक ही कहा जावेगा। दो मिलकर 11 हो जाते हैं। तो कहां एक, कहां ग्यारह! इतनी उसकी वैल्यू बढ़ जाती है। दो के बदली 11 कहा जाता है। संगठन की शक्ति को प्रसिद्ध करने के लिये ऐसे कहने में आता है। आप अपने को कौन-सा मोती समझते हो? माला का मोती हो वा इन्डिपैन्डेंट्स मोती हो? अपनी वैल्यू को देखते हुये, अपनी शक्ति को देखते हुये यह अनुभव करते हो कि हम माला के मणके हैं? एक दो को ऐसे संगठन के रूप में पिराये हुए वैल्युएभले मोती समझते हो? दूसरे भी आपको समझते हैं वा सिर्फ आप् ही अपने को समझते हो? जैसे कोई विशेष करते हैं वा कोई भी रीति विजयी बन कर आते हैं तो उनको मैडल मिलता है ना। वैसे ही जो अब तक पुरूषार्थ कर रहे हैं, उसका सर्टिफिकेट प्रैक्टिकल में लेने के लिए ही बीच-बीच में यह संगठन होता है। तो इस संगठन में हरेक ने अपना संगठित रूप में चलने का, संगठन के शक्ति की वैल्यू का मैडल लिया है? युनिवार्सिटी में आई हो ना। तो अब तक के पुरूषार्थ वा ईश्वरीय सेवा का सार्टिफिकेट तो लेना चाहिए ना। सभी एक दो से कहां तक संतुष्ट हैं वा एक दो के समीप कितने हैं, इसका सार्टिफिकेट लेना होता है। एक तो है अपने संगठन में वा सम्पर्क में सहयोग और सभी के स्नेही रहने का मैडल वा इनाम, दूसरा है ईश्वरीय सेवा में अपने पुरूषार्थ से ज्यादा से ज्यादा प्रत्यक्षता करना इसका ईनाम। तीसरा फिर है जो जिस स्थान के निमित्त बने हुए हैं, उस स्थान की आत्माएं उनसे संतुष्ट हैं वा कोई स्वयं सभी से संतुष्ट हैं। अगर स्वयं भी संतुष्ट नहीं तो भी कमी रही और आने वालों में से एक भी कोई संतुष्ट नहीं है तो यह भी कमी रही। टीचर से सभी संतुष्ट हों। टीचर की पढ़ाई वा सम्बन्ध में जिसको आप लोग हैंडालिंग कहते हैं, उससे सभी संतुष्ट हैं तो इसका भी इनाम होता है। पहले शुरू में माला बनाते थे, किसलिये? उमंग-उत्साह बढ़ाने के लिये। जिस समय जो जिस स्टेज पर है उसको उस स्टेज का मिलने से खुशी होती है। उमंग-उत्साह बढ़ाने के लिए और एक दो की देख-रेख कराने के लिये यह साधन बनाते थे। इसका भाव यह नहीं था कि वह कोई फाइनल स्टेज का मैडल है। यह है समय की, पुरूषार्थ की बलिहारी का। इससे उमंग- उल्लास आता है, रिजल्ट का मालूम पड़ता है - कौन किस पुरूषार्थ में है वा किसका पुरूषार्थ में अटेन्शन है वा पास होकर विजय के अधिकारी बने हैं। इसको देख कर भी खुश होते हैं। आप लोग अब भी अपनी क्लासेज में किसी को इनाम देते हो ना। इनाम कोई बड़ी चीज़ नहीं है, भले ही एक रूमाल दो, लेकिन उसकी वैल्यू होती है। जो पुरूषार्थ किया उस विजयी की वैल्यू होती है, ना कि चीज़ की। आप किसी को थोड़ी सेवा का इनाम देते हो वा क्लास में नाम आउट करते हो तो आगे के लिए उसको छाप लग जाती है, उमंग- उत्साह का तिलक लग जाता है। कोई-कोई तो विशेष आत्माएं भी विशेष कर्त्तव्य करते रहते हैं ना। फिर भी निमित्त बने हुए हैं। रूर कोई श्रेष्ठता वा विशेषता है, तब तो ड्रामा अनुसार समर्पण होने के बाद, सर्वस्व त्यागी बनने के बाद औरों की सेवा के लिए निमित बने हो ना। हरेक में कोई विशेषतारूर है। एक दो की विशेषता का भी एक दो को परिचय होना चाहिए, कमियों का नहीं। आप लोग आपस में जब संगठन करते हो तो एक दो तरफ के समाचार किसलिये सुनाती हो? हरेक में जो विशेषता है वह अपने में लेने के लिए। हरेक को बाप-दादा की नॉलेज द्वारा कोई विशेष गुण प्राप्त होता है। अपना नहीं, मेरा गुण नहीं है, नॉलेज द्वारा प्राप्त हुआ। इसमें अभिमान नहीं आवेगा। अगर अपना गुण होता तो पहचानने से ही होता। लेकिन नॉलेज के बाद गुणवान बने हो। पहले तो भक्ति में गाते थे कि -- हम निर्गुण हारे में कोई...। तो यह स्वयं का गुण नहीं कहेंगे, नॉलेज द्वारा स्वयं में भरते जाते हो। इसलिये विशेषता का गुण वर्णन करते हुये यह स्मृति रहे कि नॉलेज द्वारा हमें प्राप्त हुआ। तो यह नॉलेज की बड़ाई है, ना कि आपकी। नॉलेजफुल की बड़ाई है। उसी रूप से अगर एक दो में वर्णन करो तो इसमें भी एक दो से विशेषताएं लेने में लाभ होता है। पहले आप लोगों का यह नियम चलता था कि अपने वर्तमान समय का सूक्ष्म पुरूषार्थ क्या है, इसका वर्णन करते थे। ऊपर-ऊपर की बात नहीं लेकिन सूक्ष्म कमजोरियों पर किस पुरूषार्थ से विजयय् पा रहे हैं, वह एक दो में वर्णन करते थे। इससे एक दो को एक दो का परिचय होने के कारण, जिसमें जो विशेषता है उसका वर्णन होने से आटोमेटिकली उसकी कमजोरी तरफ अटेंशन कम हो जायेगा, विशेषता तरफ ही अटेंशन जायेगा। पहले आपस में ऐसे सूक्ष्म रूह-रूहान करते थे। इससे लाभ बहुत होता है। एक दो के वर्तमान समय के पुरूषार्थ की विशेषता ही आपस में वर्णन करो तो भी अच्छा वातावरण रहेगा। जब टापिक ही यह हो जायेगा तो और टापिक्स आटोमेटिकली रह जावेंगे। तो यह आपस में मिलने का रूप होना चाहिए, और हरेक की विशेषता बैठ अगर देखो तो बहुत अच्छी है। ऐसे हो नहीं सकता जो कोई समझे मेरे में कोई विशेषता नहीं। इससे सिद्ध है वह अपने आपको जानते नहीं हैं। दृष्टि और वृति ऐसी नेचरल हो जानी चाहिए जैसे आप लोग दूसरों को मिसाल देते हो कि जैसे हंस होते हैं तो उनकी दृष्टि किसमें जावेगी? कंकड़ों को देखते हुये भी वह मोती को देखता है। इसी प्रकार नेचरल दृष्टि वा वृत्ति ऐसी होनी चाहिए कि किसी की कमजोरी वा कोई भी बात सुनते वा देखते हुये भी वह अन्दर न जानी चाहिए, और ही जिस समय कोई की भी कमजोरी सुनते वा देखते हो तो समझना चाहिए - यह कमजोरी इनकी नहीं, मेरी है क्योंकि हम सभी एक ही बाप के, एक ही परिवार के, एक ही माला के मणके हैं। अगर माला के बीच ऐसा-वैसा मोती होता है तो सारी माला की वैल्यू कम हो जाती है। तो जब एक ही माला के मणके हो तो क्या वृति होनी चाहिए कि यह मेरी भी कमजोरी हुई। जैसे कोई तीव्र पुरुषार्थी होते हैं तो अपने में जो कमजोरी देखेंगे वह मिली हुई युक्तियों के आधार पर फौरन ही उसको खत्म कर देते, कब वर्णन नहीं करेंगे। जब अपनी कमजोरी प्रसिद्ध नहीं करना चाहते हो तो दूसरे की कमजोरी भी क्यों वर्णन करते? फलाने ने साथ नहीं दिया वा यह बात नहीं की, इसलिये सर्विस की वृद्धि नहीं होती; वा मेरे पुरूषार्थ में फलानी बात, फलानी आत्मा, विघ्न रूप है -- यह तो अपनी ही बुद्धि द्वारा कोई आधार बना कर उस पर ठहरने की कोशिश करते हो। लेकिन वह आधार फाउंडेशनलेस है, इसलिये वह ठहरता नहीं है। थोड़े समय बाद वही आधार नुकसानकारक बन जाता है। इसलिये होली-हंस हो ना। तो होली हंसों की चाल कौनसी होती है? हरेक की विशेषता को ग्रहण करना और कमजोरियों को मिटाने का प्रयत्न करना। तो ऐसा पुरूषार्थ चल रहा है? हम सभी एक है - यह स्मृति में रखते हुए पुरूषार्थ चल रहा है? यही इस संगठन की विशेषता वा भिन्नता है जो सारे विश्व में कोई भी संगठन की नहीं। सभी देखने वाले, आने वाले, सुनने वाले क्या वर्णन करते कि यहां एक-एक आत्मा का उठना, बोलना, चलना सभी एक जैसा है। यही विशेषता गायन करते हैं। तो जो एकता वा एक बात, एक ही गति, एक ही रीति, एक ही नीति का गायन है, उसी प्रमाण अपने आपको चेक करो। वर्तमान समय के पुरूषार्थ में कारण शब्द समाप्त हो जाना चाहिए। कारण क्या चीज़ है? अभी तो आगे बढ़ते जा रहे हो ना। जब सृष्टि के परिवर्तन, प्रकृति के परिवर्तन की जिम्मेवारी को उठाने की हिम्मत रखने वाले हो, चैलेंज करने वाले हो; तो कारण फिर क्या चीज़ है? कारण की रचना कहां से होती है? कारण का बीज क्या होता है? किस-ना-किस प्रकार के चाहे मन्सा, चाहे वाचा, चाहे सम्पर्क वा सम्बन्ध में आने की कमजोरी होती है। इस कमजोरी से ही कारण पैदा होता है। तो रचना ही व्यर्थ है ना। कमजोरी की रचना क्या होगी? जैसा बीज वैसा फल। तो जब रचना ही उलटी है तो उसको वहां ही खत्म करना चाहिए या उसका आधार ले आगे बढ़ना चाहिए? फलाने कारण का निवारण हो तो आगे बढ़ें, कारण का निवारण हो तो सर्विस बढ़ेगी, विघ्न हटेंगे - अभी यह भाषा भी चेंज करो। आप सभी को निवारण देने वाले हो ना। आप लोगों के पास अज्ञानी लोग कारण का निवारण करने आते हैं ना? जो अनेक प्रकार के कारणों को निवारण करने वाले हैं वह यह आधार कैसे ले सकते! जब सभी आधार खत्म हुए तो फिर यह देह-अभिमान, संस्कार आटोमेटिकली खत्म हो जावेंगे। यह बातें ही देह-अभिमान में लाती हैं। बातें ही खत्म हो जावेंगी तो उसका परिणाम भी खत्म हो जावेगा। छोटे-छोटे कारण में आने से भिन्न-भिन्न प्रकार के देह-अभिमान आ जाते हैं। तो क्या अब तक देह-अभिमान को छोड़ा नहीं है? बहुत प्यारा लगता है? अभी अपनी भाषा और वृति सभी चेंज करो। कोई को भी किस समय भी, किस परिस्थिति में, किस स्थिति में देखते हो लेकिन वृति और भाव अगर यथार्थ हैं तो आपके ऊपर उसका प्रभाव नहीं पड़ेगा। कल्याण की वृति और भाव शुभाचिंतक का होना चाहिए। अगर यह वृति और भाव सदा ठीक रखो तो फिर यह बातें ही नहीं होंगी। कोई क्या भी करे, कोई आपके विघ्न रूप बने लेकिन आपका भाव ऐसे के ऊपर भी शुभाचिंतकपन का हो - इसको कहा जाता है तीव्र पुरुषार्थी वा होली हंस। जिसका आपके प्रति शुभ भाव है उसके प्रति आप भी शुभ भाव रखते हो वह कोई बड़ी बात नहीं। कमाल ऐसी करनी चाहिए जो गायन हो। अपकारी पर उपकार करने वाले का गायन है। उपकारी पर उपकार करना - यह बड़ी बात नहीं। कोई बार-बार गिराने की कोशिश करे, आपके मन को डगमग करे, फिर भी आपको उसके प्रति सदा शुभाचिंतक का अडोल भाव हो, बात पर भाव न बदले। सदा अचल-अटल भाव हो, तब कहेंगे होली हंस हैं। फिर कोई बातें देखने में ही नहीं आवेंगी। नहीं तो इसमें भी टाइम बहुत वेस्ट होता है। बचपन में तो टाइम वेस्ट होता ही है। बच्चा टाइम वेस्ट करेगा तो कहेंगे बच्चा है। लेकिन समझदार अगर टाइम वेस्ट कर रहा है.........। बच्चे का वेस्ट टाइम नहीं फील होगा, उनका तो काम ही यह है। तो आप अब जिस सेवा के अर्थ निमित्त बने हुए हो वह स्टेज ही जगत्-माता की है। विश्व-कल्याणकारी हो ना। हद का कल्याण करने वाले अनेक है। विश्व-कल्याण की भावना की स्टेज है --जगत्- माता। तो जगत्-माता की स्टेज पर होते अगर इन बातों में टाइम वेस्ट करें तो क्या समझेंगे? पंजाब की धरती पर कौरव गवर्मेंट को नाज है, तो पाण्डव गवर्मेंट को भी नाज है। पंजाब की विशेषता यह है जो बापदादा के कार्य में मददगार फलस्वरूप सभी से ज्यादा पंजाब से निकले हैं। सिन्ध से निकले हुए निमित्त बने हुए रत्नों ने आप रत्नों को निकाला। ब फिर आप लोगों का कर्त्तव्य है ऐसे अच्छे रत्न निकालो। खिट-पिट वाली न हों। आप लोगों द्वारा जो सबूत निकलना चाहिए वह अब अपनी चेकिंग करो। अपनी रचना से कब तंग हो जाते हो क्या? यह तो सभी शुरू से चलता आता है। आप लोगों के लिये तो और ही सहज है। आप लोगों को कोई स्थूल पालना नहीं करनी पड़ती, सिर्फ रूहानी पालना। लेकिन पहला पूर निकलने समय तो दोनों ही जिम्मेवारी थी। एक जिम्मेवारी को पूरा करना सहज होता है, दोनों जिम्मेवारी में समय देना पड़ता है। फिर भी पहला पूर निकला तो सही ना। अब आप सभी का भी यह लक्ष्य होना चाहिए कि जल्दी-जल्दी अपने समीप आने वाले और प्रजा - दोनों प्रकार की आत्माओं को अब प्रत्यक्ष करें। वह प्रत्यक्षफल दिखाई दे। अभी मेहनत ज्यादा करते हो, प्रत्यक्षफल इतना दिखाई नहीं देता। इसका कारण क्या है? बापदादा की पालना और आप लोगों की ईश्वरीय पालना में मुख्य अन्तर क्या है जिस कारण शमा के ऊपर जैसे परवाने फिदा होने चाहिए वह नहीं हो पाते? ड्रामा में पार्ट है वह बात दूसरी है लेकिन बाप समान तो बनना ही है ना। प्रत्यक्षफल का यह मतलब नहीं कि एक दिन में वारिस बन जायेंगे लेकिन जितनी मेहनत करते हो, उम्मीद रखते हो, उस प्रमाण भी फल निकले तो प्रत्यक्षफल कहा जाये। वह क्यों नहीं निकलता? बापदादा कोई भी कर्म के फल की इच्छा नहीं रखते। एक तो निराकार होने के नाते से प्रारब्ध ही नहीं है तो इच्छा भी नहीं हो सकती और साकार में भी प्रैक्टिकल पार्ट बजाया तो भी हर वचन और कर्म में सदैव पिता की स्मृति होने कारण फल की इच्छा का संकल्प-मात्र भी नहीं रहा। और यहां क्या होता है - जो कोई कुछ करते हैं तो यहां ही उस फल की प्राप्ति का रहता है। जैसे वृक्ष में फल लगता रूर है लेकिन वहां का वहां ही फल खाने लगें तो उसका फल पूरा पक कर प्रैक्टिकल में आवे, वह कब न होगा क्योंकि कच्चा ही फल खा लिया। यह भी ऐसे है, जो कुछ किया उसके फल की इच्छा सूक्ष्म में भी रहती रूर है, तो किया और फल खाया; फिर फलस्वरूप कैसे दिखाई देवे? आधे में ही रह गया ना। फल की इच्छाएं भी भिन्न-भिन्न प्रकार की हैं, जैसे अपार दु:खों की लिस्ट है। वैसे फल की इच्छाएं वा जो उसका रेस्पान्स लेने का सूक्ष्म संकल्प रूर रहता है। कुछ-ना-कुछ एक-दो परसेन्ट भी होता रूर है। बिल्कुल निष्काम वृति रहे - ऐसा नहीं होता। पुरूषार्थ के प्रारब्ध की नॉलेज होते हुए भी उसमें अटैचमैंट ना हो, वह अवस्था बहुत कम है। मिसाल - आप लोगों ने किन्हों की सेवा की, आठ को समझाया, उसकी रिजल्ट में एक-दो आप की महिमा करते हैं और दूसरे ना महिमा, ना ग्लानि करते हैं, गम्भीरता से चलते हैं। तो फिर भी देखेंगे - आठ में से आपका अटेन्शन एक-दो परसेन्टेज में उन दो तीन तरफ ज्यादा जावेगा जिन्होंने महिमा की; उसकी गम्भीरता की परख कम होगी, बाहर से जो उसने महिमा की उनको स्वीकार करने के संस्कार प्रत्यक्ष हो जावेंगे। दूसरे शब्दों में कहते हैं - इनके संस्कार, इनका स्वभाव मिलता है। फलाने के संस्कार मिलते नहीं हैं, इसलिये दूर रहते हैं। लेकिन वास्तव में है यह सूक्ष्म फल को स्वीकार करना। मूल कारण यह रह जाता है -- करेंगे और रिजल्ट का इंतजार रहेगा। पहले अटेन्शन इस बात में जावेगा कि इसने मेरे लिये क्या कहा? मैंने भाषण किया, सभी ने क्या कहा? उसमें अटेन्शन जावेगा। अपने को आगे बढ़ाने की एम से रिजल्ट लेना, अपनी सर्विस के रिजल्ट को जानना, अपनी उन्नति के लिये जानना - वह अलग बात है; लेकिन अच्छे और बुरे की कामना रखना वह अलग बात है। अभी- अभी किया और अभी-अभी लिया तो जमा कुछ नहीं होता है, कमाया और खाया। उसमें विल-पावर नहीं रहती। वह अन्दर से सदैव कमजोर रहेंगे, शक्तिशाली नहीं होंगे क्योंकि खाली-खाली हैं ना। भरी हुई चीज़ पावरफुल होती है। तो मुख्य कारण यह है। इसलिये फल पक कर सामने आवे, वह बहुत कम आते हैं। जब यह बात खत्म हो जावेगी तब निराकारी, निरहंकारी और साथ-साथ निर्विकारी - मन्सा-वाचा-कर्मणा में तीनों सब्जेक्ट दिखाई देंगे। शरीर में होते निराकारी, आत्मिक रूप दिखाई देगा। जैसे साकार में देखा- बुजुर्ग था ना, लेकिन फिर भी शरीर को न देख रूह ही दिखाई देता था, व्यक्त गायब हो अव्यक्त दिखाई देता था! तो साकार में निराकार स्थिति होने कारण निराकार वा आकार दिखाई देता था। तो ऐसी अवस्था प्रैक्टिकल रहेगी। अब स्वयं भी बार-बार देह-अभिमान में आते हो तो दूसरे को निराकारी वा आकार रूप का साक्षात्कार नहीं होता है। यह तीनों ही होना चाहिए - मन्सा में निराकारी स्टेज, वाचा में निरहंकारी और कर्म में निर्विकारी, रा भी विकार ना हो। तेरा-मेरा, शान-मान - यह भी विकार हैं। अंश भी हुआ तो वंश आ जावेगा। संकल्प में भी विकार का अंश ना हो। जब यह तीनों स्टेज हो जावेंगी तब अपने प्रभाव से जो भी वारिस वा प्रजा निकलनी होगी वह फटाफट निकलेगी। आप लोग अभी जो मेहनत का अविनाशी बीज डाल रहे हो उसका भी फल और कुछ प्रत्यक्ष का प्रभाव -- दोनों इकट्ठे निकलेंगे। फिर क्विक सर्विस दिखाई देगी। तो अब कारण समझा ना? इसका निवारण करना, सिर्फ वर्णन तक ना रखना। फिर क्या हो जावेगा? साक्षात्कारमूर्त हो जावेंगे, तीनों स्टेज प्रत्यक्ष दिखाई देंगी। आजकल सभी यह देखने चाहते हैं, सुनने नहीं चाहते। द्वापर से लेकर तो सुनते आये हैं। बहुत सुन-सुन कर थक जाते हैं, तो मैजारिटी थके हुए हैं। भक्ति-मार्ग में भी सुना और आजकल के नेता भी बहुत सुनाते हैं। तो सुन-सुन कर थक गये। अब देखने चाहते हैं। सभी कहते हैं - कुछ करके दिखाओ, प्रैक्टिकल प्रमाण दो तब समझेंगे कि कुछ कर रहे हो। तो आप लोग की प्रत्यक्ष हर चलन, यही प्रत्यक्ष प्रमाण है। प्रत्यक्ष को कोई प्रमाण देने की आवश्यकता नहीं रहती। तो अब प्रत्यक्ष चलन में आना है। जो फ्यूचर में महाविनाश होने वाला है और नई दुनिया आने वाली है, वह भी आपके फीचर्स से दिखाई दे। देखेंगे तो फिर वैराग्य आटोमेटिकली आ जावेगा। एक तरफ वैराग्य, दूसरे तरफ अपना भविष्य बनाने का उमंग आवेगा। जैसे कहते हो - एक आंख में मुक्ति, एक में जीवनमुक्ति। तो विनाश मुक्ति का गेट और स्थापना जीवनमुक्ति का गेट है; तो दोनों आंखों से यह दिखाई दें। यह पुरानी दुनिया जाने वाली है -- आपके नैन और मस्तक यह बोलें। मस्तक भी बहुत बोलता है। कोई का भाग्य मस्तक दिखाता है, समझते हैं - यह बड़ा चमत्कारी है। तो ऐसी जब सर्विस करें तब जयजयकार हो। तो अब विश्व के आगे एक सैम्पल बनना है। अनेक स्थान-सेंटर्स होते हुए भी सभी एक हो। सभी बेहद बुद्धि वाले हो। बेहद के मालिक और फिर बालक। सिर्फ मालिक नहीं बनना है। बालक सो मालिक, मालिक सो बालक। एक-दो के हर राय को रिगार्ड देना है। चाहे छोटा है वा बड़ा है, चाहे आने वाला स्टूडेन्ट है, चाहे रहने वाला साथ है - हरेक की राय को रिगार्ड रूर देना चाहिए। कोई की राय को ठुकराना गोया अपने आपको ठुकराना है। पहले तो रूर रिगार्ड देना चाहिए, फिर भले कोई समझानी दो, वह दूसरी बात है। पहले से ही कट ना करना चाहिए कि यह रॉंग है, यह हो नहीं सकता। यह उसकी राय का डिसरिगार्ड करते हो। इससे फिर उनमें भी डिसरिगार्ड का बीज पड़ता है। जैसे मां-बाप घर में होते हैं तो नेचरल बच्चों में वह संस्कार होते हैं मां-बाप को कॉपी करने के। मां-बाप कोई बच्चों को सिखलाते नहीं हैं। यह भी अलौकिक जन्म में बच्चे हैं। बड़े मां-बाप के समान होते हैं। इसलिये आज आपने उनकी राय का डिसरिगार्ड किया, कल आपको वह डिसरिगार्ड देगा। तो बीज किसने डाला? जो निमित्त हैं। चूहा पहले फूंक देकर फिर काटता है। तो व्यर्थ को कट भी करना हो तो पहले उनको रिगार्ड दो। फिर उसको कट करना नहीं लेकिन समझेंगे - हमको श्रीमत मिल रही है। रिगार्ड दे आगे बढ़ाने में वह खुश हो जावेंगे। किसको खुश कर फिर कोई काम भी निकालना सहज होता है। एक दो की बात को कब कट नहीं करना चाहिए। हां, क्यों नहीं, बहुत अच्छा है - यह शब्द भी रिगार्ड देंगे। पहले ‘ना’ की तो नास्तिक हो जावेंगे। पहले सदैव ‘हां’ करो। चीज़ भले कैसे भी हो लेकिन उसका बिठन (डिब्बी) अच्छा होता है तो लोग प्रभावित हो जाते हैं। तो ऐसे ही जब सम्पर्क में आते हो तो अपना शब्द और स्वरूप भी ऐसा हो। ऐसे नहीं कि रूप में फिर ‘ना’ की रूपरेखा हो। इसमें रहम और शुभ कल्याण की भावना से चेहरे में कब चेंज नहीं आवेगी, शब्द भी युक्तियुक्त निकलेंगे। बापदादा भी किसको शिक्षा देते हैं तो पहले स्वमान दे फिर शिक्षा देते हैं। तो आजकल जो भी आते हैं वह अपने मान लेने वाले, ठुकराये हुए को स्वमान-रिगार्ड चाहिए। इसलिये कब भी किसको डिसरिगार्ड नहीं, पहले रिगार्ड देकर फिर काटो। उनकी विशेषता का पहले वर्णन करो, फिर कमजोरी का। जैसे आपरेशन करते हैं तो पहले इंजेक्शन आदि से सुध-बुध भुलाते हैं। तो पहले उसको रिगार्ड से उस नशे में ठहराओ, फिर कितना भी आपरेशन करेंगे तो आपरेशन सक्सेस होगा। यह भी एक तरीका है। जब यह संस्कार भर जावेंगे तो विश्व से आपको रिगार्ड मिलेगा। अगर आत्माओं को कम रिगार्ड देंगे तो प्रारब्ध में भी कम रिगार्ड मिलेगा। अच्छा।



22-07-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


नष्टोमोहा बनने की भिन्न-भिन्न युक्तियां

पने को हरेक स्मृति-स्वरूप समझते हो? स्मृति-स्वरूप हो जाने से स्थिति क्या बन जाती है और कब बनती है? स्मृति-स्वरूप तब बनते हैं जब नष्टोमोहा हो जाते हैं। तो ऐसे नष्टोमोहा स्मृति-स्वरूप बने हो कि अभी विस्मृति स्वरूप हो। स्मृति स्वरूप से विस्मृति में क्यों आ जाते हो?रूर कोई-न-कोई मोह अर्थात् लगाव अब तक रहा हुआ है। तो क्या जो बाप से पहल-पहला वायदा किया है कि और संग तोड़ एक संग जोड़ेंगे; क्या यह पहला वायदा निभाने नहीं आता है? पहला वायदा ही नहीं निभायेंगे तो पहले नंबर के पूज्य में, राज्य-अधिकारी वा राज्य के सम्बन्ध में कैसे आवेंगे? क्या सेकेण्ड जन्म के राज्य में आना है? जो पहला वायदा ‘नष्टोमोहा होने का’ निभाते हैं वही पहले जन्म के राज्य में आते हैं। पहला वायदा वहो वा पहला पाठ कहो वा ज्ञान की पहली बात कहो वा पहला अलौकिक जन्म का श्रेष्ठ संकल्प कहो - क्या इसको निभाना मुश्किल लगता है? अपने स्वरूप में स्थित होना वा अपने आप की स्मृति में रहना - यह कोई जन्म में मुश्किल लगा? सहज ही स्मृति आने से स्मृति-स्वरूप बनते आये हो ना। तो इस अलौकिक जन्म के स्व स्वरूप को स्मृति में मुश्किल क्यों अनुभव करते हो? जबकि साधारण मनुष्य के लिये भी कहावत है कि मनुष्य आत्मा की विशेषता ही यह है कि मनुष्य जो चाहे वह कर सकता है। पशुओं और मनुष्यात्मा में मुख्य अन्तर यही तो है। तो जब साधारण मनुष्यात्मा जो चाहे सो करके दिखा रही है; तो क्या आप श्रेष्ठ मनुष्य आत्माएं, शक्ति-स्वरूप आत्माएं, नॉलेजफुल आत्माएं, बाप के समीप सम्पर्क में आने वाली आत्माएं, बाप की डायरेक्ट पालना लेने वाली आत्माएं, पूजनीय आत्माएं, बाप से भी श्रेष्ठ मर्तबा पाने वाली आत्माएं जो चाहे वह नहीं कर सकती हैं? तो साधारण और श्रेष्ठ में अन्तर ही क्या रहा? साधारण आत्माएं जो चाहे कर सकते हैं लेकिन जब चाहे, जैसे चाहे वैसे नहीं कर सकतीं। क्योंकि उन्हों में प्रकृति की पावर है, ईश्वरीय पावर नहीं है। ईश्वरीय पावर वाली आत्माएं जो चाहे, जब चाहे, जैसे चाहे वैसे कर सकते हैं। तो जो विशेषता है उसको प्रैक्टिकल में नहीं ला सकते हो? वा आप लोग भी अभी तक यही कहते हो कि चाहते तो नहीं हैं लेकिन हो जाता है जो चाहते हैं वह कर नहीं पाते हैं। यह बोल मास्टर सर्वशक्तिवान के वा श्रेष्ठ आत्माओं के नहीं हैं। साधारण आत्माओं का है। तो क्या अपने को साधारण आत्माएं कहला सकते हो? अपना अलौकिक जन्म, अलौकिक कर्म जो है उसको भूल जाते हो। किसी भी वस्तु से वा किसी भी व्यक्ति से कोई भी व्यक्त भाव से लगाव क्यों होता है? क्या जो भी वस्तु देखते हो, उन वस्तुओं की तुलना में जो अलौकिक जन्म की प्राप्ति है वह और यह वस्तुएं - उन्हों में रात-दिन का अन्तर नहीं अनुभव हुआ है क्या? क्या व्यक्त भाव से प्राप्त हुआ दु:ख-अशान्ति का अनुभव अब तक पूरा नहीं किया है क्या? जो भी व्यक्तियाँ देखते हो उन सर्व व्यक्तियों से पुरानी दुनिया के नातों को वा सम्बन्ध को इस अलौकिक जन्म के साथ समाप्त नहीं किया है? जब जन्म नया हो गया तो पुराने जन्म के व्यक्तियों के साथ पुराने सम्बन्ध समाप्त नहीं हो गये क्या? नये जन्म में पुराने सम्बन्ध का लगाव रहता है क्या। तो व्यक्तियों से भी लगाव रख ही कैसे सकते हो? जबकि वह जन्म ही बदल गया तो जन्म के साथ सम्बन्ध और कर्म नहीं बदला? वा तो यह कहो कि अब तक अलौकिक जन्म नहीं हुआ है। साधारण रीति से जहाँ जन्म होता है, जन्म के प्रमाण ही कर्म होता है, सम्बन्ध सम्पर्क होता है। तो यहाँ फिर जन्म अलौकिक और सम्बन्ध लौकिक से क्यों वा कर्म फिर लौकिक क्यों? तो अब बताओ, नष्टोमोहा होना सहज है वा मुश्किल है? मुश्किल क्यों होता है? क्योंकि जिस समय मोह उत्पन्न होता है उस समय अपनी शक्ल नहीं देखती हो? आईना तो मिला हुआ है ना। आईना साथ में नहीं रहता है क्या? अगर सिकल को देखेंगे तो मोह खत्म हो जावेगा। अगर यह देखने का अभ्यास पड़ जाये तो अभ्यास के बाद न चाहते भी बार-बार स्वत: ही आईने के तरफ खि्ांच जावेंगी। जैसे स्थूल में कइयों को आदत होती है बार-बार देखने की। प्रोग्राम नहीं बनाते लेकिन आटोमेटिकली आईने तरफ चले जाते हैं। क्योंकि अभ्यास है। यह भी नॉलेज रूपी दर्पण में, अपने स्वमान रूपी दर्पण में बार-बार देखते रहो तो देह-अभिमान से फौरन ही स्वमान में आ जायेंगे। जैसे स्थूल शरीर में कोई भी अन्तर मालूम होता है तो आइने में देखने से फौरन ही इसको ठीक कर देते हैं। वैसे ही इस अलौकिक दर्पण में जो वास्तव का स्वरूप है इसको देखते हुये जो देह-अभिमान में आने से व्यर्थ संकल्पों का स्वरूप, व्यर्थ बोल का स्वरूप वा व्यर्थ कर्म वा सम्बन्ध का स्वरूप स्पष्ट देखने से व्यर्थ को समर्थ में बदल लेते फिर यह मोह रहेगा क्या। और जब नष्टोमोहा हो जावेंगे तो नष्टोमोहा के साथ सदा स्मृति-स्वरूप स्वत: ही हो जायय्ेंगे। सहज नहीं हैं? जब सर्व प्राप्ति एक द्वारा होती है तो उस में तृप्त आत्मा नहीं होते हो क्या! कोई अप्राप्त वस्तु हो जाती है तब तो तृप्त नहीं होते हैं। तो क्या सर्व प्राप्ति का अनुभव नहीं होता है? अभी तृप्त आत्मा नहीं बने हो। जो बाप दे सकते हैं, क्या वह यह विनाशी आत्माएं इतने जन्मों में दे सकी है? जब अनेक जन्मों में भी अनेक आत्माएं वह चीज़ वह प्राप्ति नहीं करा सकी है और बाप द्वारा एक ही जन्म में प्राप्त होती है तो बताओ बुद्धि कहाँ जानी चाहिए? भटकाने वालों में, रूलाने वालों में, ठुकराने वालों में वा ठिकाना देने वालों में? जैसे आप और आत्माओं से बहुत प्रश्न करते हो ना। तो बाप का भी आप आत्माओं से यही एक प्रश्न है। इस एक प्रश्न का ही उत्तर अब तक दे नहीं पाये हो। जिन्होंने इस प्रश्न का उत्तर दिया है वह सदा के लिये प्रसन्न रहते हैं। जिन्होंने उत्तर नहीं दिया है वह बार-बार उतरती कला में उतरते ही रहते हैं। नष्टो मोहा बनने के लिये अपनी स्मृति स्वरूप को चेंज करना पड़ेगा। मोह तब जाता है जब यह स्मृति रहती है कि हम गृहस्थी हैं। हमारा घर, हमारा सम्बन्ध है तब मोह जाता है। यह तो इस हद के जिम्मेवारी को बेहद के जिम्मेवारी में परिवर्तन कर लो तो बेहद की जिम्मेवारी से हद के जिम्मेवारी स्वत: ही पूरी हो जावेंगी। बेहद को भूलकर और हद के ज़िम्मेवारी को निभाने के लिये जितना ही समय और संकल्प लगाती हो इतना ही निभाने के बजाय बिगाड़ते जाते हो। भले समझते हो कि हम फर्ज निभा रहे हैं वा कर्त्तव्य को सम्भाल रहे हैं। वह निभाना वा सम्भालना नहीं हैं। और ही अपने हद की स्मृति में रहने के कारण उन निमित बनी हुई आत्माओं के भी भाग्य बनाने के बजाय बिगाड़ने के निमित बनती हो। जो फिर वह आत्माएं भी आपके अलौकिक चलन को न देखते हुये अलौकिक बाप के साथ सम्बन्ध जोड़ने में वंचित रह जाते हैं। तो फर्ज के बजाय और ही अपने आप में भी मर्ज लगा देते हो। यह मोह का मर्ज है। और वही मर्ज अनेक आत्माओं में भी स्वत: ही लग जाता है। तो जिसको फर्ज समझ रही हो वह फर्ज बदलकर के मर्ज का रूप हो जाता है। इसलिये सदा अपने इस स्मृति को परिवर्तन करने का पुरूषार्थ करो। मैं गृहस्थी हूँ, फलाने बन्धन वाली हूँ वा मैं फलाने जिम्मेवारी वाली हूँ – उसके बजाय अपने मुख्य 5 स्वरूप स्मृति में लाओ। जैसे 5 मुखी ब्रह्मा दिखाते हैं ना। 3 मुख भी दिखाते हैं, 5 मुख भी दिखाते हैं। तो आप ब्राह्मणों को भी 5 मुख्य स्वरूप स्मृति में रहें तो मर्ज निकल विश्व के कल्य्याणकारी के फर्ज में चलें जायेंगे। वह स्वरूप कोनसे हैं जिस स्मृति-स्वरूप में रहने से यह सभी रूप भूल जावें? स्मृति में रखने के 5 स्वरूप बताओ। जैसे बाप के 3 रूप बताते हो वैसे आप के 5 रूप हैं - (1) मैं बच्चा हूँ (2) गॉडली स्टूडेन्ट हूँ(3) रूहानी यात्री हूँ (4) योद्धा हूँ और (5) ईश्वरीय वा खुदाई-खिदमतगार हूँ। यह 5 स्वरूप स्मृति में रहें। सवेरे उठने से बाप के साथ रूह-रूहान करते हो ना। बच्चे रूप से बाप के साथ मिलन मनाते हो ना। तो सवेरे उठने से ही अपना यह स्वरूप याद रहे कि मैं बच्चा हूँ। तो फिर गृहस्थी कहाँ से आवेगी? और आत्मा बाप से मिलन मनावे तो मिलन से सर्व प्राप्ति का अनुभव हो जाये। तो फिर बुद्धि यहाँ-वहाँ क्यों जावेगी? इससे सिद्ध है कि अमृतवेले की इस पहले स्वरूप की स्मृति की ही कमज़ोरी है। इसलिये अपने गिरती कला के रूप स्मृति में आते हैं। ऐसे ही सारे दिन में अगर यह पाँचों ही रूप समय- प्रति-समय भिन्न कर्म के प्रमाण स्मृति में रखो तो क्या स्मृति-स्वरूप होने से नष्टोमोहा: नहीं हो जावेंगे? इसलिये बताया -- मुश्किल का कारण यह है जो सिकल को नहीं देखती हो। तो सदैव कर्म करते हुए अपने दर्पण में इन स्वरूपों को देखो कि इन स्वरूपों के बदली और स्वरूप तो नहीं हो गया। रूप बिगड़ तो नहीं गया। देखने से बिगड़े हुए रूप को सुधार लेंगे और सहज ही सदाकाल के लिये नष्टोमोहा: हो जावेंगे। समझा? अभी यह तो नहीं कहेंगे कि नष्टोमोहा: कैसे बने? नहीं। नष्टोमोहा: ऐसे बने। ‘कैसे’ शब्द को ‘ऐसे’ शब्द में बदल देना है। जैसे यह स्मृति में लाती हो कि हम ही ऐसे थे, अब फिर से ऐसे बन रहे हैं। तो ‘कैसे’ शब्द को ‘ऐसे’ में बदल लेना है। ‘कैसे बने’ इसके बजाये ‘ऐसे बने’, इसमें परिवर्तन कर लो तो जैसे थे वैसे बन जावेंगे। ‘कैसे’ शब्द खत्म हो ऐसे बन ही जावेंगे। अच्छा!

ऐसे सेकेण्ड में अपने को विस्मृति से स्मृति-स्वरूप में लाने वाले नष्टोमोहा सदा स्मृति-स्वरूप बनने वाले समर्थ आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।



28-07-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


अपवित्रता और वियोग को संघार करने वाली शक्तियाँ ही - असुर संघारनी है

बाप द्वारा आने से ही मुख्य दो वरदान कौन से मिले हैं? उन मुख्य दो वरदानों को जानते हो? पहले-पहले आने से यही दो वरदान मिले कि - ‘योगी भव’ और ‘पवित्र भव’। दुनिया वालों को भी एक सेकेण्ड में 35 वर्षां के ज्ञान का सार इन ही शब्दों में सुनाती हो ना। पुरूषार्थ का लक्ष्य वा प्राप्ति भी यही है ना। वा सम्पूर्ण स्टेज वा सिद्धि की प्राप्ति तो यही होती है। तो जो पहले-पहले आने से वरदान मिले वा स्मृति दिलाई कि आप सभी आत्माओं का वास्तविक स्वरूप यही है, क्या वह पहली स्मृति वा यह वरदान प्राप्त करते जीवन में यह दोनों ही बातें धारण कर ली हैं? अर्थात् योगी भव और पवित्र भव - ऐसी जीवन बन गई है कि अभी बना रही हो? धारणामूर्त बन गये हो वा अभी धारण कर रहे हो? है तो बहुत कामन बात ना। सारे दिन में अनेक बार यह दो बातें वर्णन करते होंगे। तो यह दो बातें धारण हो गई हैं वा हो रही है? अगर योगीपन में रा भी वियोग है, भोगी तो नहीं कहेंगे। बाकी रही यह दो स्टेज। तो कब माया योगी से वियोगी बना देती है। तो योग के साथ अगर वियोग भी है तो योगी कहेंगे क्या? आप लोग स्वयं ही औरों को सुनाती हो कि अगर पवित्रता में रा भी अपवित्रता है तो उसको क्या कहेंगे। अभी भी वियोगी हो क्या? वा वियोगी बन जाते हो क्या? चक्रवर्ता राजा बनने के संस्कार होने कारण दोनों में ही चक्र लगाती हो क्या - कब योग में, कब वियोग में? आप लोग विश्व के सर्व त्माओं को इस चक्र से निकालने वाले हो ना। कि बाप निकालने वाला है और आप चक्र लगाने वाले हो? तो जो चक्र से निकालने वाले हैं वह स्वयं भी चक्र लगाते हैं? तो फिर सभी को निकालेंगे कैसे? जैसे भक्ति-मार्ग के अनेक प्रकार के व्यर्थ चक्रों से निकल चुके हो, तब ही अपने निश्चय और नशे के आधार पर सभी को चेलेंज करती हो कि इन भक्ति के चक्रों से छूटो। ऐसे ही वह है तन द्वारा चक्र काटना, और यह है मन द्वारा चक्र काटना। तो तन द्वारा चक्र लगाना अब छोड़ दिया। बाकी मन का चक्र अभी नहीं छूटा है? कब वियोग, कब योग - वह मन द्वारा ही तो चक्र लगाती हो। क्या अब तक भी माया में इतनी शक्ति रही है क्या, जो मास्टर सर्वशक्तिवान को भी चक्र में ला देवे? अब तक माया को इतनी शक्तिशाली देखकर, क्या माया को मूर्छित करना वा माया को हार खिलाना नहीं आता है? अभी तक भी उसको देखते रहते हो कि हमारे ऊपर वार कर रही है। अभी तो आप शक्ति-सेना और पाण्डव-सेना को अन्य आत्माओं के ऊपर माया का वार देखते हुये रहमदिल बनकर रहम करने का समय आया है। तो क्या अब तक अपने ऊपर भी रहम नहीं किया है? अब तो शक्तियों की शक्ति अन्य आत्माओं की सेवा प्रति कर्त्तव्य में लगने की हैं। अब अपने प्रति शक्ति काम में लगाना, वह समय नहीं है। अब शक्तियों का कर्त्तव्य विश्व-कल्याण का है। विश्व-कल्याणी गाई हुई हो कि स्वयं कल्याणी हो? नाम क्या है और काम क्या है। नाम एक, काम दूसरा? जैसे लौकिक रूप में भी जब अलबेले छोटे होते हैं, जिम्मेवारी नहीं होती है; तो समय वा शक्ति वा धन अपने प्रति ही लगाते हैं। लेकिन जब हद के रचयिता बन जाते हैं तो जो भी शक्तियाँ वा समय है वह रचना के प्रति लगाते हैं। तो अब कौन हो? अब मास्टर रचयिता, जगत्-माताएं नहीं बनी हो? विश्व के उद्धार मूर्त नहीं बनी हो? विश्व के आधार मूर्त नहीं बनी हो? जैसे शक्तियों का गायन है कि एक सेकेण्ड की दृष्टि से असुर संहार करती है। तो क्या अपने से आसुरी संस्कार वा अपवित्रता को सेकेण्ड में संहार नहीं किया है? वा दूसरों प्रति संहारनी हो, अपने प्रति नहीं? अब तो माया अगर सामना भी करे तो उसकी क्या हालत होनी चाहिए? जैसे छुईमुई का वृक्ष देखा है ना। अगर कोई भी मनुष्य का रा भी हाथ लगता है तो शक्तिहीन हो जाती है। उसमें टाइम नहीं लगता। तो आप के सिर्फ एक सेकेण्ड के शुद्ध संकल्प की शक्ति से माया छुईमुई माफिक मूर्छित हो जानी चाहिए। ऐसी स्थिति नहीं आई है? अब तो यही सोचो कि विश्व के कल्याण प्रति ही थोड़ा-सा समय रहा हुआ है। नहीं तो विश्व की आत्माएं आप लोगों को उलहना देंगी कि - आप लोगों ने 35 वर्षों में इतनी पालना ली, फिर भी कहती हो ‘योगी भव’, ‘पवित्र भव’ बन रहे हैं, और हमको कहती हो 4 वर्ष में वर्सा ले लो। फिर आपका ही उलहना आपको देंगे। फिर आप क्या कहेंगे? यह जो कहते हो कि अभी बन रहे हैं वा बनेंगे, करेंगे - यह भाषा भी बदलनी है। अभी मास्टर रचयिता बनो। विश्व- कल्याणकारी बनो। अब अपने पुरूषार्थ में समय लगाना, वह समय बीत चुका। अब दूसरों को पुरूषार्थ कराने में लगाओ। जबकि कहते हो दिन-प्रति-दिन चढ़ती कला है; तो चढ़ती कला, सर्व का भला’ - इसी लक्ष्य को हर सेकेण्ड स्मृति में रखो। जो अपने प्रति समय लगाते हैं वह दूसरों की सेवा में लगाने से ऑटोमेटिकली अपनी सेवा हो ही जायेंगी। अपनी अपनी तरक्की करने के लिये पुराने तरीकों को चेंज करो। जैसे समय बदलता जाता है, समस्याएं बदलती जाती हैं, प्रकृति का रूप-रंग बदलता जाता है, वैसे अपने को भी अब परिवर्तन में लाओ। वही रीति-रस्म, वही रफ्तार, वही भाषा, वही बोलना अभी बदलना चाहिए। आप अपने को ही नहीं बदलेंगे तो दुनिया को कैसे बदलेंगे। जैसे तमोगुण अति में जा रहा है, यह अनुभव होता है ना। तो आप फिर अतीन्द्रिय सुख में रहो। वह अति गिरावट के तरफ और आप उन्नति के तरफ। उन्हों की गिरती कला, आपकी चढ़ती कला। अभी सुख को अतीन्द्रिय सुख में लाना है। इसलिये अन्तिम स्टेज का यही गायन है कि अतीन्द्रिय सुख गोप-गोपियों से पूछो। सुख की अति होने से विशेष अर्थात् दु:ख की लहर के संकल्प का भी अन्त हो जावेगा। तो अब यह नहीं कहना कि करेंगे, बनेंगे। बनकर बना रहे हैं। अब सिर्फ सेवा के लिये ही इस पुरानी दुनिया में बैठे हैं। नहीं तो जैसे बाबा अव्यक्त बने, वैसे आपको भी साथ ले जाते। लेकिन शक्तियों की जिम्मेवारी, अंतिम कर्त्तव्य का पार्ट नूँधा हुआ है। सिर्फ इसी पार्ट के लिये बाबा अव्यक्त वतन में और आप व्यक्त में हो। व्यक्त भाव में फँसी हुई आत्माओं को इस व्यक्त भाव से छुड़ाने का कर्त्तव्य आप आत्माओं का है। तो जिस कर्त्तव्य के लिये इस स्थूल वतन में अब तक रहे हुये हो, उसी कर्त्तव्य को पालन करने में लग जाओ। तब तक बाप भी आप सभी का सूक्ष्मवतन में आह्वान कर रहे हैं। क्योंकि घर तो साथ चलना है ना। आपके बिना बाप भी अकेला घर में नहीं जा सकता। इसलिये अब जल्दी- जल्दी इस स्थूल वतन के कर्त्तव्य का पालन करो, फिर साथ घर में चलेंगे वा अपने राज्य में राज्य करेंगे। अब कितना समय अव्यक्त वतन में आह्वान करेंगे? इसलिये बाप समान बनो। क्या बाप विश्व-कल्याणकारी बनने से अपने आप को सम्पन्न नहीं बना सके? बनाया ना। तो जैसे बाप ने हर संकल्प, हर कर्म बच्चों के प्रति वा विश्व की आत्माओं प्रति लगाया, वैसे ही फालो फादर करो। अच्छा!

ऐसे हर संकल्प, हर कर्म विश्व कल्याण अर्थ लगाने वाले, बाप समान बनने वाले बच्चों प्रति याद-प्यार और नमस्ते।



02-08-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


हर कर्म विधिपूर्वक करने से सिद्धि की प्राप्ति

पने को विधि द्वारा सिद्धि प्राप्त समझते हो? क्योंकि जो भी पुरूषार्थ करते हैं, पुरूषार्थ का लक्ष्य ही है सिद्धि को पाना। जैसे दुनिया वालों के पास आजकल ऋद्धि-सिद्धि बहुत है। उस तरफ है ऋद्धि-सिद्धि और यहां है विधि से सिद्धि। यथार्थ है विधि और सिद्धि, इनको ही दूसरे रूप में लेने कारण ऋद्धि-सिद्धि में चले गये हैं। तो अपने को सिद्धि-स्वरूप समझते हो? जो भी संकल्प करते हो अगर यथार्थ विधिपूर्वक है तो उनकी रिजल्ट क्या निकलेगी? सिद्धि। तो हर संकल्प वा कर्म अगर विधिपूर्वक है तो सिद्धि रूर होती है। अगर सिद्धि नहीं है तो विधिपूर्वक भी नहीं है। इसलिये भक्ति में भी जो कार्य करते हैं वा कराते हैं, वैल्यू उसकी विधि पर होती है। विधिपूर्वक होने कारण उस सिद्धि का अनुभव करते हैं। सभी शुरू तो यहां हुआ है ना। इसलिये पूछ रहे हैं सिद्धिस्वरूप अपने को समझते हो वा अभी बनना है? समय के प्रमाण दोनों ही फील्ड में रिजल्ट अब तक 95% रूर होनी चाहिए। क्योंकि जैसे समय की रफ्तार को देख रहे हो; और चैलेंज भी करते हो तो जो चैलेंज की है वह सम्पन्न तब होगी जब आप लोगों की स्थिति सम्पन्न होगी। यह जो चैलेंज करते हो वह परिवर्तन किसके आधार पर होगा? उसका फाउन्डेशन कौन है? आप लोग ही फाउन्डेशन हो ना। अगर फाउन्डेशन तैयार हो जाये तब फिर उसके बाद नंबरवार राजधानी भी तैयार हो। तो जिन्हों को राज्य करने का अधिकारी बनना है वह अपना अधिकार नहीं लेंगे तो दूसरों को फिर नंबरवार अधिकार कैसे प्राप्त होगा? और 4 वर्ष की जो चैलेंज देते हो उसके हिसाब से जो विश्व-परिवर्तन का कार्य होना है, वह, जब तक आप लोगों की स्थिति विधि द्वारा सिद्धि को प्राप्त न हुई होगी, तो इस विश्व-कल्याण के कर्त्तव्य में भी कैसे सिद्ध होंगे? पहले स्वयं की सिद्धि होगी। इतना बड़ा कर्त्तव्य इतने थोड़े समय में सम्पन्न करना है तो कितनी तेज स्पीड होनी चाहिए? जबकि 35 वर्ष की स्थापना के कार्य में 50% तक पहुँचे हैं तो अब वर्ष में 100% तक लाना है, तो उसके लिये क्या करना पड़ेगा? इसके लिये कोई प्लैन बनाते हो? स्पीड को कैसे पूरा करेंगे? सिद्धि-स्वरूप बने अर्थात् संकल्प किया और सिद्धि प्राप्त हो। यह है 100% सिद्धिस्वरूप की निशानी। कर्म किया और सिद्धि प्राप्त। जब साधारण नॉलेज के आधार से ऋद्धि-सिध्दि को प्राप्त कर सकते हैं, तो यह श्रेष्ठ नॉलेज के आधार पर विधि से सिद्धि को नहीं प्राप्त कर सकते? यह चेकिंग चाहिए -- कौनसी विधि में कमी रह जाती है जो फिर सिद्धि भी सम्पूर्ण नहीं होती? विधि को चेक करने से सिद्धि आटोमेटिकली ठीक हो जावेगी। इसमें भी सिद्धि ना प्राप्त होने का मुख्य कारण यह है जो एक ही समय तीनों रूप से सर्विस नहीं करते। तीनों रूपों और तीनों रीति से एक समय करना है। नॉलेजफुल, पावरफुल और लवफुल। लव और लॉ - दोनों साथ-साथ आ जाते हैं। इन तीनों रूप से तो सर्विस करनी ही है लेकिन तीनों रीति से भी करनी है। अर्थात् मन्सा, वाचा, कर्मणा - तीनों रीति से और एक ही समय तीनों रूप से करनी है। जब वाणी द्वारा सर्विस करते हो तो मन्सा भी पावरफुल हो। पावरफुल स्टेज से उनकी मन्सा को भी चेंज कर देंगे और वाणी द्वारा उनको नॉलेजफुल बना देंगे और फिर कर्मणा सर्विस अर्थात् जो उनके सम्पर्क में आते हैं, वह सम्पर्क ऐसा फुल हो जो आटोमेटिकली वह महसूस करे कि यह कोई अपने गॉडली फैमिली में पहुंच गया हूं। वह चलन ही ऐसी हो जिससे वह फील करें कि यह मेरी असली फैमिली है। अगर इन तीनों रीति से उनकी मन्सा को भी कंट्रोल कर लो और वाणी से नॉलेज दे लाइट-माइट का वरदान दो और कर्मणा अर्थात् सम्पर्क द्वारा, अपनी स्थूल एक्टिविटी द्वारा गॉडली फैमिली का अनुभव कराओ - तो इस विधिपूर्वक सर्विस करो तो सिद्धि नहीं होगी? एक ही समय तीनों रीति और तीन रूप से सर्विस नहीं करते हो। जब वाचा में आते हो तो मन्सा जो पावरफुल होनी चाहिए वह कम हो जाती है। जब रमणीक एक्टिविटी से किसको सम्पर्क में लाते तो भी मन्सा जो पावरफुल होनी चाहिए वह नहीं रहती है। तो एक ही समय तीनों अगर इकट्ठी हों तो सिद्धि रूर मिलेगी। इस रीति से सर्विस करने का अभ्यास और अटेन्शन होना चाहिए। सम्बन्ध में नहीं आते, डीप सम्पर्क में नहीं, ऊपर-ऊपर के सम्पर्क में आते हैं। वह ऊपर का समय अल्पकाल का रहता है। भले लव में लाते भी हो लेकिन लवफुल के साथ पावरफुल हो, उन आत्माओं में भी पावर भरे जिससे वह समस्याओं, वायुमण्डल, वायब्रेशन का सामना कर सदाकाल सम्बन्ध में रहें, वह नहीं होता। या तो नॉलेज पर अट्रैक्टिव होते हैं वा लव पर होते हैं। ज्यादा लव पर होते हैं, सेकण्ड नंबर नॉलेज। लेकिन पावरफुल ऐसा हो जो कोई भी बात सामने आवे तो हिले नहीं, यह कमी अजुन है। जो सर्विसएबल निमित्त बनते हैं उन्हों में भी नॉलेज ज्यादा है, लव भी है लेकिन पावर कम है। पावरफुल स्टेज की निशानी क्या होगी? एक सेकेण्ड में कोई भी वायुमण्डल वा वातावरण को, माया के कोई भी समस्या को खत्म कर देंगे। कब हार नहीं खावेंगे। जो भी आत्मायें समस्या का रूप बन कर आती हैं वह उनके ऊपर बलिहार जावेंगे, जिसको दूसरे शब्दों में प्रकृति दासी कहें। जब 5 तत्व दासी बन सकते हैं तो मनुष्य आत्मायें बलिहार नहीं जावेंगी? तो पावरफुल स्टेज का प्रैक्टिकल रूप यह है। इसलिये कहा कि एक ही समय तीनों रूपों से सर्विस करने की जब रूपरेखा बन जावेगी तब हरेक कर्त्तव्य में सिद्धि दिखाई देगी। विधि का कारण सिद्धि हुआ ना। विधि में कमी होने कारण सिद्धि में कमी है। अब सिद्धि-स्वरूप बनने लिये इस विधि को पहले ठीक करो। भक्ति-मार्ग में करते हैं साधना, यहां है साधन। साधन कौनसा? बापदादा की हरेक विशेषता को अपने में धारण करते-करते विशेष आत्मा बन जावेंगे। जैसे इम्तिहान के दिन जब नजदीक होते हैं तो जो कुछ स्टडी की हुई होती है थ्योरी वा प्रैक्टिकल, दोनों को रिवाइज कर और चेक करते हैं कि कौनसी सब्जेक्ट में क्या-क्या कमी रही हुई है? इसी प्रकार अब जबकि समय नजदीक आ रहा है, तो हर सब्जेक्ट में अपने आपको देखो कि कौनसी कमी और कितनी परसेन्ट तक कमी रही हुई है? थ्योरी में भी और प्रैक्टिकल में - दोनों में चेक करना है। हरेक सब्जेक्ट की कमी को देखते हुये अपने आपको कम्पलीट करते जाओ, लेकिन कम्पलीट तब होंगे जब पहले रिवाइज करने से अपनी कमी का मालूम पड़ेगा। सब्जेक्ट्स को तो जानते हो। सब्जेक्ट को बुद्धि में धारण किया है वा नहीं, उसकी परख क्या है? जैसे-जैसे सिद्धि की परसेन्टेज बढ़ती जावेगी तो टाइम भी वेस्ट नहीं जावेगा। थोड़े टाइम में सफ़लता जास्ती मिलेगी। इसको कहा जाता है सिद्धि। अगर समय ज्यादा, मेहनत भी ज्यादा करते हो फिर सफ़लता मिलती है तो इसको भी परसेन्ट कम कहेंगे। सभी रीति से कम लगना चाहिए। तन भी कम, मन के संकल्प भी कम लगें। नहीं तो संकल्प करते हो, प्लैन बनाते-बनाते मास डेढ़ लग जाता है। तो समय और संकल्प वा अपनी जो भी सर्व शक्तियां हैं, उन सर्व शक्तियों के खज़ाने को ज्यादा काम में नहीं लगाना है। कम खर्च बाला नशीन। संकल्प वही उत्पन्न होगा जिससे सिद्धि प्राप्त हो ही जावेगी। समय भी वही निश्चित होगा जिसमें सफलता हुई पड़ी है। इसको ही कहते हैं सिद्धि-स्वरूप। तो सर्व सब्जेक्ट्स में हम कहां तक पास हैं, इसकी परख क्या है? जो जितना जिस सब्जेक्ट में पास होगा, उतना ही उस सब्जेक्ट के आधार पर ऑब्जेक्ट और रेस्पेक्ट मिलेगा। एक तो प्राप्ति का अनुभव होगा। जैसे ज्ञान के सब्जेक्ट हैं तो उससे जो आब्जेक्ट प्राप्त होती है लाइट और माइट, वह प्राप्ति का अनुभव करेंगे। उस नॉलेज के सब्जेक्ट के आधार पर रेस्पेक्ट भी इतना मिलेगा चाहे दैवी परिवार से, चाहे अन्य आत्माओं से। जैसे देखो, आजकल के महात्माएं हैं, उन्हों को इतना रेस्पेक्ट क्यों मिलता है? क्योंकि जो साधना की है, जो भी सब्जेक्ट अध्ययन करते हैं उनकी ऑब्जेक्ट ‘रेस्पेक्ट’ उन्हों को मिलती है, प्रकृति दासी होती है। तो यह एक ज्ञान की बात सुनाई। वैसे योग की भी सब्जेक्ट है। उनसे क्या ऑब्जेक्ट होनी चाहिए? योग अर्थात् याद की शक्ति द्वारा ऑब्जेक्ट प्राप्त होनी चाहिए- वह जो भी संकल्प करेंगे वह समर्थ होगा और जो भी कोई समस्या आने वाली होगी, उनका पहले से ही योग की शक्ति से अनुभव होगा कि यह होने वाला है, तो पहले से ही मालूम होने कारण कभी भी हार नहीं खावेंगे। ऐसे ही योग की शक्ति द्वारा अपने पिछले संस्कारों का बीज खत्म होता है। कोई भी संस्कार अपने पुरूषार्थ में विघ्न नहीं बनेगा, जिसको नेचर कहते हो वह भी विघ्न रूप नहीं बनेंगे पुरूषार्थ में। तो जिस सब्जेक्ट की जो ऑब्जेक्ट है, वह अनुभव होनी चाहिए। आब्जेक्ट है तो इसका परिणाम रेस्पेक्ट रूर मिलेगी। आप मुख से जो भी शब्द रिपीट करेंगे वा जो भी प्लैन बनावेंगे वह समर्थ होने कारण सभी रेस्पेक्ट देंगे अर्थात् जो भी एक-दो को राय देते हैं उस राय को सभी रेस्पेक्ट देंगे क्योंकि समर्थ है। इस प्रकार हर सब्जेक्ट का देखो। दिव्य गुणों की वा सर्विस की सब्जेक्ट है तो उसकी प्राप्ति यह है जो नजदीक सम्पर्क में और सम्बन्ध में आना चाहिए। नजदीक सम्पर्क-सम्बन्ध में आने से आटोमेटिकली रेस्पेक्ट रूर मिलेगा। ऐसे हर सब्जेक्ट की ऑब्जेक्ट को चेक करो और आब्जेक्ट को चेक करने का साधन है रेस्पेक्ट। अगर मैं नॉलेजफुल हूँ तो जि्ासको भी नॉलेज देती हूँ वह उस नॉलेज को इतना रेस्पेक्ट देते हैं? नॉलेज को रेस्पेक्ट देना अर्थात् नॉलेजफुल को रेस्पेक्ट देना है। अगर नॉलेज की सब्जेक्ट में आबजेक्ट है तो और भी किसके संकल्प को परिवर्तन में ला समर्थ बना सकते हैं, तो रूर रेस्पेक्ट देंगे। तो इस रीति हर सब्जेक्ट में चेकिंग करनी है। हर संकल्प में ऑब्जेक्ट और रेस्पेक्ट दोनों की प्राप्ति का अनुभव करते हैं तो परफेक्ट कहेंगे। परफेक्ट अर्थात् कोई भी इफेक्ट से दूर परफेक्ट। इफेक्ट से परे है तो परफेक्ट है। चाहे शरीर का, चाहे संकल्पों का, चाहे कोई भी सम्पर्क में आने से किसके भी वायब्रेशन वा वायुमण्डल - सभी प्रकार के इफेक्ट से परे हो जावेंगे। तो समझो सब्जेक्ट में पास अर्थात् परफेक्ट हैं। ऐसे बन रहे हो ना। लक्ष्य तो यही है ना। अब अपनी चेकिंग ज्यादा होनी चाहिए। जैसे दूसरों को कहते हो कि समय के साथ स्वयं को भी परिवर्तन में लाओ, वैसे ही सदैव अपने को भी यह स्मृति में रहे कि समय के साथ-साथ स्वयं को भी परिवर्तन लाना है। अपने को परिवर्तन में लाते-लाते सृष्टि परिवर्तन हो जावेगी। अपने परिवर्तन के आधार से सृष्टि में परिवर्तन लाने का कार्य कर सकेंगे। यही श्रेष्ठता है जो दूसरे लोगों में नहीं है। वह सिर्फ दूसरों को परिवर्तन करने के यत्न में हैं। यहां स्वयं के आधार से सृष्टि को परिवर्तन करते हो। तो जो आधार है उसके लिये अपने ऊपर इतना अटेन्शन देना है -- सदैव यह स्मृति रहे कि हमारे हर संकल्प के पीछे विश्व-कल्याण का संबंध है। जो आधारमूर्त हैं उनके संकल्प में समर्थी नहीं तो समय के परिवर्तन में भी कमजोरी पड़ जाती। इस कारण जितना-जितना समय समर्थ बनेंगे उतना ही सृष्टि के परिवर्तन का समय समीप ला सकेंगे। ड्रामा अनुसार भले निश्चित है लेकिन वह भी किस आधार से बना है? आधार तो होगा ना। तो आधारमूर्त आप हो। अभी तो आप सभी की नजरों में हो। चैलेंज की है ना 4 वर्ष की! जब यह बातें सुनते हो तो थोड़ा-बहुत संकल्प चलता है कि - ‘‘अगर सचमुच नहीं हुआ तो, यह भी हो सकता है कि 4 वर्ष में ना हो-यह संकल्प रूप में नहीं चलता है? सामना कर लेंगे, वह दूसरी बात है। इसका मतलब यह संकल्प में कुछ है तब तो आता है ना। बिल्कुल पक्का है कि 4 वर्ष में होगा? अच्छा, समझो आप लोगों से कोई पूछते हैं कि विनाश न हो तो क्या होगा? फिर आप क्या कहेंगे? जिस समय समझाते हो तो यह स्पष्ट समझाना चाहिए - ऐसे नहीं 4 वर्ष में कम्पलीट विनाश हो जावेगा। नहीं, 4 वर्ष में ऐसे नज़ारे हो जावेंगे जिससे लोग समझेंगे कि बरोबर यह विनाश हो रहा है, विनाश शुरू हो गया। एक बात सहज लग गई तो दूसरी बातें भी सहज लगेंगी ही। विनाश में भी समय तो लगेगा। स्वयं सम्पूर्ण हो जावेंगे तो कार्य भी सम्पूर्ण होगा कि सिर्फ स्वयं सम्पूर्ण होंगे? एडवांस पार्टी का कार्य चल रहा है। आप लोगों के लिये सारी फील्ड तैयार करेंगे। उनके परिवार में जाओ, ना जाओ, लेकिन जो स्थापना का कार्य होना है उसके लिये वह निमित्त बनेंगे। कोई पावरफुल स्टेज लेकर निमित्त बनेंगे। ऐसी पावर्स लेंगे जिससे स्थापना के कार्य में मददगार बनेंगे। आजकल आप देखेंगे दिन-प्रतिदिन न्यू-ब्लड का रिगार्ड ज्यादा है। जितना आगे बढ़ेंगे उतना छोटों की बुद्धि जो काम करेगी वह बूढ़ों की नहीं, यह चेंज होगी। बड़े भी बच्चों की राय को रिगार्ड देंगे। अब भी जो बड़े हैं वह समझते हैं - ‘‘हम तो पुराने जमाने के हैं, यह हैं आजकल के। उन्हों को रिगार्ड ना देंगे, बड़ा समझ न चलायेंगे तो काम न चलेगा।’’ पहले बच्चों को रोब से चलाते थे, अभी ऐसे नहीं। बच्चे को भी मालिक समझ चलाते हैं। तो यह भी ड्रामा है। छोटे ही कमाल कर दिखायेंगे। एडवांस पार्टी का तो अपना कार्य चल रहा है। लेकिन वह भी आपकी स्थिति एडवांस में जाने लिये रूके हुए हैं। उनका कार्य ही आपके कनेक्शन से चलना है। सारे कार्य का आधार विशेष आत्माओं के ऊपर है। चलते-चलते ठंडाई हो जाती है। आग लगती है, फिर शीतल हो जाते हैं। लेकिन शीतल तो नहीं होनी चाहिए ना? बाहर का जो रूप होता है, मनुष्य तो वह देखते हैं। समझते हैं - ‘‘यह तो चलता आता है, बड़ी बात क्या है? परम्परा का खेल चलता आ रहा है।’’ लेकिन यह चलते-चलते शीतलता क्यों आती है? इसका कारण क्या है? परसेन्टेज बहुत कम है। लेक्चर्स तो करते हैं लेकिन लेक्चर के साथ-साथ फीचर्स भी अट्रैक्ट करें तक लेक्चर का इफेक्ट हो। तो अपने को हर सब्जेक्ट में चेक करो। आजकल लेक्चर में आपका कम्पीटीशन करें तो इसमें कई और भी जीत लेंगे। लेकिन जो प्रैक्टिकल में है उसमें सभी आपसे हार लेंगे। मुख्य विशेषता प्रैक्टिकल लाइफ की है। प्रैक्टिकल कोई भी बात आप बताओ तो एकदम चुप हो जावेंगे। तो लेक्चर्स से फिर प्रैक्टिकल का भाव प्रकट हो जावेगा। तब वह लेक्चर देने से न्यारा दिखाई दे। जो शब्द बोलते हो वह नैनों से दिखाई दें।

यह जो बोलते हैं वह प्रैक्टिकल है, यह अनुभवीमूर्त हैं। तब उसका प्रभाव पड़ सकता है। बाकी सुन-सुन कर तो सभी थक गये हैं। बहुत सुना है। अनेक सुनाने वाले होने कारण सुनने से सभी थके हुये हैं। कहते हैं -- सुना तो बहुत है, अब अनुभव करना चाहते हैं, कोई ‘प्राप्ति’ कराओ। तो लेक्चर में ऐसी पावर होनी चाहिए जो वह एक-एक शब्द अनुभव कराने वाला हो। जैसे आप समझाते हो न कि अपने को आत्मा समझो, ना कि शरीर। तो ये शब्द बोलने में भी इतनी पावर होनी चाहिए जो सुनने वालों को आपके शब्दों की पावर से अनुभव हो। एक सेकेण्ड के लिये भी अगर उनको अनुभव हो जाता है; तो अनुभव को वह कब छोड़ नहीं सकते, आकर्षित हुआ आपके पास पहुँचेगा। जैसे बीच-बीच में आप भाषण करते-करते उनको साइलेंस में ले जाने का अनुभव कराते हो, तो इस प्रैक्टिस को बढ़ाते जाओ। उन्हों को अनुभव में ले जाते जाओ। इस पुरानी दुनिया से बेहद का वैराग दिलाना चाहते हो तो भाषण में जो प्वाईंटस देते हो वह देते हुये वैराग्य-वृति के अनुभव में ले आओ। वह फील करें कि सचमुच यह सृष्टि जाने वाली है, इससे तो दिल लगाना व्यर्थ है। तो रूर प्रैक्टिकल करेंगे। उन पंडितों आदि के बोलने में भी पावर होती है। एक सेकेण्ड में खुशी दिला देते, एक सेकेण्ड में रूला देते। तब कहते हैं इनका भाषण इफेक्ट करने वाला है। सारी सभा को हंसाते भी हैं, सभी को श्मशानी वैराग्य में लाते भी हैं ना। जब उन्हों के भाषण में इतनी पावर होती है; तो क्या आप लोगों के भाषण में वह पावर नहीं हो सकती है? अशरीरी बनाना चाहो तो वह अनुभव करा सकते हैं? वह लहर छा जावे। सारी सभा के बीज बाप के स्नेह की लहर छा जावे। उसको कहा जाता है प्रैक्टिकल अनुभव कराना। अब ऐसे भाषण होने चाहिए, तब कुछ चेंज होगी। वह समझें कि इन्हों के भाषण तो दुनिया से न्यारे हैं। वह भले भाषण में सभा को हंसा लेते, रूला लेते, लेकिन अशरीरीपन का अनुभव नहीं करा सकते, बाप से स्नेह नहीं पैदा करा सकते। कृष्ण से स्नेह करा सकते, लेकिन बाप से नहीं करा सकते। उन्हों को पता नहीं है। तो निराली बात होनी चाहिए। समझो, गीता के भगवान् पर प्वाइंट्स देते हो, लेकिन जब तक उनको बाप क्या चीज़ है, हम आत्मा हैं वह परमात्मा है - जब तक यह अनुभव ना कराओ तब तक यह बात भी सिद्ध कैसे होगी? ऐसा कोई भाषण करने वाला हो जो उन्हों को अनुभव करावे - आत्मा और परमात्मा में रात- दिन का फर्क है। जब अन्तर महसूस करेंगे तो गीता का भगवान् सिद्ध हो जावेगा। सिर्फ प्वाइंट्स से उन्हों की बुद्धि में नहीं बैठेगा, और ही लहरें उत्पन्न होंगी। लेकिन अनुभव कराते जाओ तो अनुभव के आगे कोई बात जीत नहीं सकता। भाषण में अब यह तरीका चेंज करें। अच्छा!



04-08-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


सर्विसएबल, सेंसीबल और इसेंसफुल की निशानियां

पने को सर्विसएबल, सेन्सीबल और इसेन्सफुल समझते हो? तीनों ही गुण बाप समान अपने में अनुभव करते हो? क्योंकि वर्तमान समय का जो अपने सामने सिम्बल रखा है, उसी प्रमाण समानता में समीप आते जाते हो ना। सिम्बल कौन-सा रखा है? बाप का। विष्णु का सिम्भले तो है भविष्य का लेकिन संगम का सिम्भले तो बाप ही है ना। तो सिम्भले को सामने रखते हुये समानता लाते रहते हैं ना। इन तीनों ही गुणों में समानता अनुभव करते हो कि एक गुण की विशेषता अनुभव करते हो और दूसरे-तीसरे की नहीं? तीनों ही गुण समय प्रमाण जिस परसेन्टेज में होने चाहिए वह हैं? वर्तमान समय के अनुसार पुरूषार्थ की स्टेज की परसेन्टेज जितनी होनी चाहिए इतनी है? 95 प्रतिशत तक तो पहुंचना चाहिए ना। जबकि समय ही थोड़ा- सा रह गया है, उस समय के प्रमाण 95% होना चाहिए। 100% तो नहीं कह सकते हैं, कहें तो समय का कारण दे देंगे। इसलिए 100% नहीं कह रहे हैं। 50% छोड़ रहे हैं। संगमयुग के पुरूषार्थ के समय प्रमाण 4 वर्ष कितनी परसेन्टेज है? समय की परसेन्टेज अनुसार 95% तो कोई बड़ी बात नहीं है। तो इतना लक्ष्य रखते हुये स्पीड को आगे बढ़ाते जा रहे हो कि अभी भी समझते हो समय पड़ा है? यह संकल्प तो नहीं आता है कि-’’अभी अजुन 4 वर्ष पड़े हैं। उसमें तब क्या करेंगे अगर अभी ही पुरूषार्थ समाप्त कर दें’’?

यह संकल्प तो नहीं आता है? कोई कमी रही हुई है तब तो ड्रामा में 4 वर्ष रहे हुए हैं तो फिर जब कमी को भरने लिये 4 वर्ष हैं, तो कमी भी रहनी चाहिए ना? अगर कमी रह भी जाती है तो कितनी रहनी चाहिए? ऐसे नहीं 50-50 रहे। अगर 50% जो सम्पन्न करना है, फिर तो स्पीड बहुत तेज चाहिए। इतनी तेज स्पीड जो कर सकता है वह 95% तक ना पहुंचे - यह तो हो नहीं सकता। तो अब लक्ष्य क्या रखना है? अगर समय प्रमाण ड्रामा अनुसार कुछ कमी रह भी जाती है तो 5% का अलाऊ है, ज्यादा नहीं। अगर इससे ज्यादा है तो समझना चाहिए फाइनल स्टेज से दूर हैं। फिर बापदादा के समीप और साथ रहने का जो लक्ष्य रखते हो वह पूर्ण नहीं हो पावेगा। क्योंकि जब फर्स्ट नंबर अव्यक्त स्थिति को पा चुके हों, उसके बाद जो समीप के रत्न होंगे वह कम से कम इतना तो समीप हों जो बाकी सिर्फ 5 प्रतिशत की कमी रहे। बाप अव्यक्त हो चुके हैं और समीप रत्नों में 50% का फर्क हो; तो क्या इसको समीप कहेंगे? क्या वह आठ नंबर के अन्दर आ सकता है? साकार बाप साक्षी हो अपनी स्थिति का वर्णन नहीं करते थे? साक्षी हो अपनी स्थिति को चेक करना है। जो जैसे हैं वह वर्णन करने में ख्याल क्यों आना चाहिए? बाहर से अपनी महिमा करना दूसरी बात है, लेकिन अपने आपकी चेकिंग में बुद्धि की जजमेंट देना है। दूसरों को आपकी ऐसी स्टेज का अनुभव तो होना चाहिए ना? तो समीप रत्न बनने के लिये इतनी स्पीड से अपनी परसेन्टेज को बनाना पड़े। 50 प्रतिशत तो मैजारिटी कहेंगे, लेकिन अष्ट देवताएं, मैनारिटी कैसे कह सकते? अगर मैजारिटी के समान मैनारिटी के भी लक्षण हों तो फर्क क्या रहा? तो तीनों ही बातें जो सुनाई वह अपने आप में देखो। सर्विसएबल का रूप क्या होता है, इसको सामने रखते हुए अपने आपको चेक करो कि वर्तमान स्थिति के प्रमाण व वर्तमान एक्टिविटी के प्रमाण अपने को सर्विसएबल कह सकते हैं? सर्विसएबल का हर संकल्प, हर बोल, हर कर्म सर्विस करने योग्य होगा। उसका संकल्प भी आटोमेटिकली सर्विस करेगा। क्योंकि उनका संकल्प सदा विश्व के कल्याण प्रति ही होता है अर्थात् विश्व-कल्याणकारी संकल्प ही उत्पन्न होता है। व्यर्थ नहीं होगा। समय भी हर सेकेण्ड मन्सा, वाचा, कर्मणा सर्विस में ही व्यतीत करेंगे। उसको कहा जाता है सर्विसएबल। जैसे जिसको जो स्थूल धन्धा वा व्यापार होता है तो आटोमेटिकली उनके संकल्प वा कर्म भी उसी प्रमाण चलते हैं ना। ना सिर्फ संकल्प, स्वप्न में भी वहीं देखेंगे। तो सर्विसएबल के संकल्प आटोमेटिकली सर्विस प्रति ही चलेंगे क्योंकि उनका धन्धा ही यह है। अच्छा, सेन्सीबल के लक्षण क्या होंगे? (हरेक ने सुनाया) इतने लक्षण सुनाये हैं जो अभी ही लक्ष्य में स्थित हो सकते हो। सेन्सीबल अर्थात् समझदार। लौकिक रीति जो समझदार होते हैं वह आगे-पीछे को सोच- समझ कर फिर कदम उठाते हैं। लेकिन यहां तो है बेहद की समझ। तो समझदार जो होगा उसका मुख्य लक्षण त्रिकालदर्शा बन तीनों कालों को पहले से ही जानते हुए फिर कर्म करेगा। कल्प पहले की स्मृति भी स्पष्ट रूप में होंगी कि कल्प पहले भी मैं ही विजयी बना हूँ, अभी भी विजयी हूँ, अनेक बार के विजयी बनते रहेंगे। यह विजयीपन के निश्चय के आधार पर वा त्रिकालदर्शा- पन के आधार पर जो भी कार्य करेंगे वह कब व्यर्थ वा असफल नहीं होंगे। तो समझ त्रिकालदर्शापन की होनी चाहिए। सिर्फ वर्तमान समय को समझना, इसको भी सम्पूर्ण नहीं कहेंगे। जो कोई भी कार्य में असफलता होती वा व्यर्थ हो जाता, इसका कारण ही यह है कि तीनों कालों को सामने रखते हुए कार्य नहीं करते, इतनी बेहद की समझ धारण कर नहीं सकते। इस कारण वर्तमान समस्याओं को देखते हुए घबरा जाते हैं और घबराने कारण सफलता पा नहीं सकते। सेन्सीबल जो होगा वह बेहद को समझ कर वा त्रिकालदर्शा बन हर कर्म करेंगे वा हर बोल बोलेंगे, जिसको ही अलौकिक वा असाधारण कहा जाता है। सेन्सीबल कब भी समय वा संकल्प वा बोल को व्यर्थ नहीं गंवायेंगे। जैसे लौकिक रीति भी अगर कोई धन को वा समय को व्यर्थ गंवाते हैं तो कहने में आता है - इनको समझ नहीं है। इस रीति से जो सेन्सीबल होगा, वह हर सेकेण्ड को समर्थ बना कर कार्य में लगावेंगे, व्यर्थ कार्य में नहीं लगावेंगे। सेन्सीबल कभी भी व्यर्थ संग के रंग में नहीं आवेंगे, कब भी कोई वातावरण के वश नहीं होंगे। यह सभी लक्षण सेन्सीबल के हैं। तीसरा है इसेन्सफुल। इसके लक्षण क्या होंगे? (हरेक ने सुनाया) सभी ने ठीक सुनाया क्योंकि सभी सेन्सीबल हो बैठे हैं ना। जो इसेन्सफुल होगा उसमें रूहानियत की खुशबुएं होंगी। रूहानी खुशबुएं अर्थात् रूहानियत की सर्व-शक्तियां उसमें होंगी, जिन सर्व-शक्तियों के आधार से सहज ही अपने तरफ किसको आकर्षित कर सकेंगे। जैसे स्थूल खुशबुएं वा इसेन्स दूर से ही किसको अपने तरफ आकर्षित करता है ना। ना चाहने वाले को भी आकर्षित कर देता है। इसी प्रकार कैसी भी आत्माएं इसेन्सफुल के सामने आवें, तो भी उस रूहानियत के ऊपर आकर्षित हो जावेंगी। जिसमें रूहानियत है उनकी विशेषता यह है जो दूर रहते हुए आत्माओं को भी अपनी रूहानियत से आकर्षित कर सकते हैं। जैसे आप मन्सा-शक्ति के आधार से प्रकृति का परिवर्तन वा कल्याण करते हो ना। आकाश अथवा वायुमण्डल आदि-आदि को समीप जाकर तो नहीं बोलेंगे। लेकिन मन्सा-शक्ति से जैसे प्रकृति को तमोप्रधान से सतोप्रधान बनाते हो, वैसे अन्य विश्व की आत्माएं जो आप लोगों के आगे नहीं आ सकेंगी, तो उनको दूर रहते हुए आप रूहानियत की शक्ति से बाप का परिचय वा बाप का जो मुख्य संदेश है, वह मन्सा द्वारा भी उनके बुद्धि में टच कर सकते हो। विश्व- कल्याणकारी हो, तो क्या इतनी सारी विश्व की आत्माओं को सामने संदेश दे सकेंगे क्या? सभी को वाणी द्वारा संदेश नहीं दे सकेंगे। वाणी के साथ-साथ मन्सा-सर्विस भी दिन-प्रतिदिन बढ़ते हुए अनुभव करेंगे। जैसे बाप भक्तों की भावना को सूक्ष्म रूप से पूर्ण करते हैं, तो क्या वाणी द्वारा सामने जाए करते हैं क्या? सूक्ष्म मशीनरी है ना। वैसे ही आप शक्तियों का वा पाण्डवों का प्रैक्टिकल में भक्त आत्माओं को वा ज्ञानी आत्माओं को दोनों बाप का परिचय वा संदेश देने का कार्य अर्थात् सूक्ष्म मशीनरी तेज होने वाली है। यह अन्तिम सर्विस की रूपरेखा है। जैसे खुशबुएं चाहे नजदीक वालों को, चाहे दूर वालों को खुशबुएं देने का कर्त्तव्य करते हैं, वैसे ना सिर्फ सम्मुख आने वालों तक लेकिन दूर बैठी हुई आत्माओं तक भी आपकी यह रूहानियत की शक्ति सेवा करेगी। तभी प्रैक्टिकल रूप में विश्व-कल्याणकारी गाये जावेंगे। अब तो विश्व-कल्याण के प्लैन्स बना रहे हो, प्रैक्टिकल नहीं है। फिर यह सूक्ष्म मशीनरी जब शुरू होगी तो प्रैक्टिकल कर्त्तव्य में लग जावेंगे। अनुभव करेंगे कि ‘‘कैसे आत्माएं बाप के परिचय रूपी अंचली लेने के लिए तड़प रही हैं और तड़पती हुई आत्माओं को बुद्धि द्वारा वा सूक्ष्म शक्ति द्वारा ना देखते हुए भी ऐसा अनुभव करेंगे जैसे दिखाई दे रहे हैं।’’ तो ऐसी सर्विस में जब लग जावेंगे तो विश्व-कल्याणकारी प्रैक्टिकल में नाम बाला होगा। अब देखो आप लोग क्या कहते हैं कि हमने विश्व-कल्याण का संकल्प उठाया है; लोग आपको क्या कहते हैं? तो कल्याण का इतना बड़ा कार्य आपकी ऐसी स्पीड से होगा? विश्व-कल्याण का कार्य अब तक तो बहुत थोड़ा किया है। विश्व तक कैसे पहुंचावेंगे? अभी प्रैक्टिकल नहीं है ना। फिर चारों ओर जहां-जहां से मास्टर बुद्धिवानों की बुद्धि बन सूक्ष्म मशीनरी द्वारा सभी की बुद्धियों को टच करेंगे तो आवाज फैलेगा कि कोई शक्ति, कोई रूहानियत अपने तरफ आकर्षित कर रही है। ढूंढ़ेंगे मिलने लिए वा एक सेकेण्ड सिर्फ दर्शन करने लिये तड़पेंगे जिसकी निशानी जड़ चित्रों की अब तक चलती आती है। जब कोई ऐसा उत्सव होता है जड़ मूर्तियों का तो कितनी भीड़ लग जाती है! कितने भक्त उस दिन उस घड़ी दर्शन करने लिये तड़पते हैं वा तरसते हैं। अनेक बार दर्शन करते हुए भी उस दिन के महत्व को पूरा करने लिये बेचारे कितने कठिन प्रयत्न करते हैं! यह निशानी किसकी है? प्रैक्टिकल होने से ही तो यह यादगार निशानियां बनी हैं। अच्छा!



06-08-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


वृत्ति चंचल होने क कारण - व्रत में हल्कापन

रिवर्तन-भूमि में आकर अपने परिवर्तन का अनुभव करते हो? भट्ठी में आना अर्थात् कमजोरियों वा कमियों को भस्म करना। तो ऐसे अनुभव करते हो कि कमजोरियों का सदा के लिये किनारा होता जा रहा है? अपने में इतनी विल-पावर भरते जा रहे हो? क्योंकि इस समय का परिवर्तन सदाकाल का परिवर्तन हो जावेगा। जैसे अग्नि में कोई भी वस्तु डाली जाती है तो अग्नि में डाली हुई वस्तु का रूप, रंग और कर्त्तव्य बदल जाता है, वह फिर से पहले वाला हो नहीं सकता। सदाकाल के लिए रूप, रंग, कर्त्तव्य बदल जावेगा। तो ऐसे ही अपने में अनुभव करते हो? कमजोरियों का रूप- रंग बदल रहा है, ऐसा परिवर्तन कर रहे हो? अपने अन्दर दृढ़ संकल्प हो कि मुझे परिवर्तित होकर ही जाना है। इस दृढ़ संकल्प की लग्न की अग्नि एसी तेज प्रज्वलित की है जो इस श्रेष्ठ संकल्प की लग्न की अग्नि में पूरी तरह से कमजोरियां भस्म हो जायें? अगर आग तेज नहीं होती है तो ना पहला रूप रहता, ना परिवर्तन वाला रूप रहता है, बीच में ही अधूरा रह जाता है। तो अपने आपको देखो - इस श्रेष्ठ संकल्प की अग्नि इतनी तेज प्रज्वलित हुई वा साधारण संकल्प किया है कि हां, प्रयत्न कर रहे हैं, हो ही जावेगा? इनको तीव्र पुरूषार्थ नहीं कहा जाता। करके ही दिखावेंगे, इसको कहा जाता है तीव्र पुरुषार्थी। इस समय इस भट्ठी में आये हुए अपनी स्टेज तीव्र पुरुषार्थी का अनुभव कर रहे हो? जो समझते हैं कि परिवर्तन-भूमि में आते ही तीव्र पुरुषार्थी की लिस्ट में आ गये हैं, वह हाथ उठाओ। तीव्र पुरुषार्थी की अविनाशी छाप लगा ली है? अविनाशी बाप द्वारा अविनाशी प्राप्ति कर रहे हो ना। जब बाप अविनाशी है और प्राप्तियां भी अविनाशी हैं; तो अविनाशी प्राप्ति द्वारा जो अपनी स्टेज बना रहे हो वह भी अविनाशी हो। इतनी हिम्मत अपने में समझते हो कि अपनी शुभ वृत्ति द्वारा प्रवृत्ति को, परिस्थिति को, प्रकृति को बदल सकते हो? अगर अपनी वृत्ति श्रेष्ठ है तो इसके आगे प्रवृति वा परिस्थिति कोई भी प्रकार का वार कर नहीं सकती, क्योंकि शुभ वृत्ति है ही यह कि मैं मास्टर सर्वशक्तिवान्, नॉलेजफुल हूं, पावरफुल हूं। तो क्या अपनी वृति को इतना श्रेष्ठ बनाया है? सदैव वृति को चेक करो कि हर समय अपनी वृति श्रेष्ठ है, साधारण वृति तो नहीं रहती है? वृति को श्रेष्ठ बनाने के लिए वा प्रवृति में रहते हुए प्रवृति की परिस्थितियों से निवृत रहने का क्या साधन अपनाना पड़े? सुनाया था ना कि भक्ति में करते हैं साधना, यहां ज्ञान-मार्ग में है साधन। वह कौनसा साधन है? वृति चंचल हो तो क्या करेंगे? पहले तो वृति चंचल होने का कारण क्या है? वृति चंचल वा साधारण होने का कारण यही है कि जो आने से ही पहला व्रत लेते हो वा प्रतिज्ञा करते हो, उनसे नीचे आ जाते हो। व्रत को भंग कर लेते हो वा प्रतिज्ञा को भूल जाते हो। पहला-पहला व्रत है - मन, वाणी, कर्म में पवित्र रहेंगे। यह पहला-पहला व्रत लिया। और, दूसरा व्रत- एक बाप दूसरा ना कोई - यह व्रत सभी ने लिया हुआ है। जो व्रत लेकर बीच में छोड़ देते हैं, तो भक्तिमार्ग में भी व्रत रख फिर बीच में खण्डन कर दें तो इसको क्या कहा जावेगा? पुण्यात्मा के बदले पापात्मा। आपने व्रत कहां तक धारण किया है? व्रत को सदा कायम रखा जाता है। भक्त लोगों की अगर जान भी चली जाये तो भी व्रत नहीं तोड़ते। तो जब आप लोगों ने आने से ही व्रत धारण किया तो सदैव स्मृति में रखो। स्मृति से कब भी वृत्ति चंचल न होगी। वृत्ति चंचल ना होगी तो प्रवृति वा परिस्थिति वा प्रकृति के कोई भी विघ्नों वश नहीं होंगे, प्रकृति को दासी, परिस्थिति को स्व-स्थिति, प्रवृति को शुद्ध प्रवृत्ति का सैम्पल बनाकर दिखावेंगे। व्रत को हल्का करने से ही वृति चंचल होती है। राखी पर यह प्रतिज्ञा करावेंगे ना कि पवित्र बनो। तो पहले स्वयं को कंगन बांधना पड़े तब दूसरों को भी इस कंगन में बांध सकेंगे। जिनको राखी बांधते हो वह पवित्र बनते हैं वा व्रत लेते हैं? इतनी हिम्मत भी नहीं रखते। कारण? पहले बांधने वाले स्वयं व्रत में रहते हैं? मंसा में कोई भी अपवित्रता अगर आ जाती है तो पूरा व्रत कहेंगे? इस कारण जितनी बांधने वाले में कमी है, तो जिसको बांधते हो उन्हों के ऊपर भी इतना आपकी पवित्रता के आकर्षण का प्रभाव नहीं पड़ता है। एक रीति-रस्म के माफिक सिर्फ संदेश लेते हैं कि इन्हों का यह रहस्य है। व्रत नहीं लेते, क्यों? अपना ही कारण कहेंगे ना वा कहेंगे कि भाग्य में नहीं है? भाग्य बनाने वाले तो आप हो ना। भाग्य बनाकर ही आओ वा भाग्य बनाने की इतनी तीव्र प्रेरणा देकर आओ जो आपके पीछे- पीछे आकर्षित हो भाग्य बनाने बिना रह न सकें। इतनी आकर्षण वाली है ना। रिवाजी आत्माओं के लिये भी मिसाल देते हैं कि फलाने के दो शब्दों में इतनी शक्ति थी जो उनके पीछे सभी लोग भागते रहते। उन्हों के आगे आप कितनी श्रेष्ठ आत्माएं हो! आजकल के जो महात्माएं गाये जाते हैं वह आप लोगों की प्रजा के भी प्रजा सदृश्य नहीं हैं क्योंकि स्वर्ग के अधिकारी तो नहीं बनते हैं ना। आपकी प्रजा की भी जो प्रजा होगी वह स्वर्गवासी तो होंगे ना। स्वर्ग के सुख का अनुभव तो करेंगे ना। यह तो स्वर्ग में आ ही नहीं सकते। तो जब इतनी श्रेष्ठ आत्माएं हो तो कोई विशेष कर्त्तव्य करना चाहिए ना। आप लोगों के एक-एक बोल में इतनी शक्ति होनी चाहिए जो जैसे कि अनुभवीमूर्त होकर बोलते हो, आप बोलते जाओ और वह अनुभव करते जायें। आजकल के जो सो-काल्ड (so-called; तथाकथित) महात्माएं, पंडित आदि हैं, जब उन्हों में भी अल्पकाल की इतनी शक्ति है तो आप मास्टर सर्वशक्तिवान् के एक- एक बोल में कितनी शक्ति होनी चाहिए? एक-एक बोल के साथ किसको अनुभव कराते जाओ। जैसे किसी को पहला पाठ देते हो-आप आत्मा हो। बोल के साथ उन्हों को अनुभव कराते जाओ। यही तो विशेषता है। ऐसे ही भाषण करना, वह तो लोग भी करते हैं। उस रीति बोलना, यह वह भी करते हैं। लेकिन जो अन्य लोग नहीं कर सकते हैं वह श्रेष्ठ आत्माएं कर सकते हो, वह अन्तर ही इसमें है। तो यह विशेषता प्रैक्टिकल में दिखाई दे। वह कैसे होगी? जब अपने में सर्व विशेषताओं को धारण करो। अपने आप में भी अगर विशेषता को धारण नहीं किया है तो औरों को भी धारणामूर्त नहीं बना सकते हो। इसलिये वृति को श्रेष्ठ बनाओ। बापदादा के सम्मुख जो व्रत लिया है उसमें सदा कायम रहो। फिर देखो, रिजल्ट क्या निकलती है! जब व्रत लिया है कि ‘एक बाप दूसरा ना कोई’, तो फिर बुद्धि क्यों जाती है? यह व्रत लिया है क्या कि दूसरे से सुनेंगे? तुम्हीं से सुनेंगे, तुम्हीं से बोलेंगे.... यह व्रत लिया है। तो फिर दूसरी आत्माओं के तरफ चंचल वृति से देखते ही क्यों हो वा सुनते ही क्यों हो? जो बाप से सुना है वही बोलना है, फिर और शब्द वा व्यर्थ बातें कैसे कर सकते हो? यह तो व्रत को तोड़ना हुआ ना। जब आत्म- अभिमानी हो रहने का व्रत लिया है तो फिर देह को देखते ही क्यों हो? यह व्रत को तोड़ना हुआ ना। अमृतवेले से लेकर अपने आपको चेक करो कि जो व्रत लिया है उस पर चल रहे हैं? संकल्प क्या करना है, वाणी में क्या बोलना है, कर्म करते हुए कैसे कर्मयोगी की स्थिति रहेगी -- यह व्रत लिया है ना। प्रवृति में रहते कमल पुष्प समान रहेंगे-यह भी व्रत लिया है ना। जो कमल फूल समान होगा वह परिस्थितियों के वश हो सकता है क्या? वह तो न्यारा और प्यारा होना चाहिए। अगर श्रेष्ठ वृत्ति में स्थित हों तो कोई भी वायुमण्डल, वायब्रेशन आदि डगमग कर सकते हैं क्या? वृति से ही वायुमण्डल बनता है। अगर आपकी वृति श्रेष्ठ है तो वृति के आधार से वायुमण्डल को शुद्ध बना सकते हो। इतनी पावर है? वा वायुमण्डल की पावर तेज है? जिस समय भी कोई वायुमण्डल के वश हो जाते हैं, एक होता है मन्सा में कमजोरी आई और वहां ही उसको समाप्त करना। लेकिन वर्णन भी करते हो -- वÌया करें वायुमण्डल ऐसा है, वायुमण्डल के कारण मेरी वृति चंचल हुई। जब यह शब्द बोलते हो उस समय अपने को क्या समझते हो? उस समय कौनसी आत्मा हो? कमजोर आत्मा। अपने आपको भूले हुए हो। लौकिक रूप में भी कोई अपने आपको भूलता है क्या? मैं कौन हूँ, किसका बच्चा हूं, मेरा आक्यूपेशन क्या है -- अगर यह किसको भूल जाये तो सभी हंसेंगे ना। उस समय अपने को देखो-क्या हम अपने को, अपने बाप को, अपने पोजीशन को भूल गया? इस व्रत को अब पक्का करो। फिर देखो, कैसे सदा के विजयी होते हैं। कोई भी बातें हिला नहीं सकेंगी। इस व्रत को बार-बार अपने बुद्धि में रिवाइज करो कि कौनसी कौनसी प्रतिज्ञा बाप से की है, कौनसा व्रत लिया है; तो फिर यह व्रत रिफ्रेश होगा, स्मृति में रहेगा। और, जितना स्मृति में रहेगा उतनी समर्थी रहेगी। तो ऐसा अपने को समर्थ बनाओ। लक्ष्य यह रखना है कि हमको नंबरवन आना चाहिए। नंबरवन ग्रुप की यादगार निशानी वरदान-भूमि में क्या देकर जाते हो-उस निशानी से नंबर आपेही सिद्ध हो जावेगा। ऐसी यादगार निशानी देकर जाना। यादगार से उनकी स्मृति आती है ना। ऐसा एग्जाम्पल बनने के लिये फिर विशेष कमाल करनी पड़ेगी। कोई कमाल की बात करके दिखावेंगे तब तो यादगार रहेगा। अब देखेंगे यह ग्रुप कौनसी यादगार निशानी कायम कर जाता है। निशानी भी अविनाशी हो। अब तो अपने में सर्व-शक्तियों की प्राप्ति का अनुभव करते हो ना। धारणामूर्त का पेपर तो यहां हो जाता है। बाकी प्रैक्टिकल पेपर परिस्थितियों को सामना करने का, वह फिर वहां जाकर देना होता है। उसकी रिजल्ट भी यहां आवेगी। ऐसा प्रैक्टिकल पेपर देना है जो सभी महसूस करें कि इनमें तो बहुत परिवर्तन है। हिम्मत रखने से मदद स्वत: ही मिलती है। हिम्मत में कुछ जरा-सा भी कमी होती है तब मदद में भी कमी पड़ती है। कई समझते हैं मदद मिलेगी तो करके दिखावेंगे। लेकिन मदद मिलेगी ही हिम्मत रखने वालों को। पहले हिम्मते बच्चे, फिर मददे बाप है। हिम्मत धारण करो तो आपकी एक गुणा हिम्मत बाप की सौ गुणा मदद। अगर एक भी कदम ना उठावें तो बाप भी 100 कदम ना उठावेंगे। जो करेगा वो पावेगा। हिम्मत रखना अर्थात् करना। सिर्फ बाप के ऊपर रखना कि बाबा मदद करेगा तो होगा -- यह भी पुरूषार्थहीन के लक्षण हैं। बापदादा को मालूम नहीं है कि हमको मदद करनी है? क्या आपके कहने से करेंगे? जो कहने से करता है उसको क्या कहा जाता है? जो स्वयं दाता बन कर रहे हैं उनको कह करके कराना, यह इनसल्ट नहीं है? देने वाले दाता के आगे 5 पैसे क्या देते हो? तो बापदादा को भी शिक्षा स्मृति में दिलाते हो कि आपको मदद करनी चाहिए? यह संकल्प कब ना रखो। यह तो स्वत: ही प्राप्त होंगे। जब अपने को वारिस समझते हो तो वारिस वर्से के अधिकारी स्वत: ही होते हैं, मांगना नहीं पड़ता है। लौकिक में तो उन्हों को स्वार्थ रहता है तब मांगते हैं। यहां अपना स्वार्थ ही नहीं तो बाकी रख कर क्या करेंगे। इसलिये यह संकल्प रखना भी कमजोरी है। पूरा निश्चय-बुद्धि बनना है -- बाप हमारा साथी है, बाबा सदा मददगार है। निश्चय बुद्धि विजयन्ति। ऐसा सदा स्मृति में रखते हुये, हर कदम उठाओ तो देखो विजय आपके गले का हार बन जावेगी। जिन्हों के गले में विजय की माला पड़ती वही विजय माला के मणके बनते हैं। अगर अभी विजयी नहीं बनते तो विजय माला में नहीं आते। तो यह सदा स्मृति में रख कदम उठाओ तो फिर सदा सिद्धि-स्वरूप हो जावेंगी। कोई संकल्प वा बोल वा कर्म सिद्ध ना हो - यह हो ही नहीं सकता, अगर पुरूषार्थ की विधि यथार्थ है तो। कोई भी कर्म विधिपूर्वक करने से ही सिद्धि होती है। विधिपूर्वक नहीं करते हो तो सिद्धि भी नहीं होती। विधिपूर्वक का प्रत्यक्षफल ‘सिद्धि’ मिलेगी ही। अच्छा!



19-09-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


मजबूरियों को समाप्त करने क साधन -बूती

भी अचल, अडोल, अटल स्थिति में स्थित हो? जो महावीरों की स्थिति गाई हुई है, उस कल्प पहले के गायन वा वर्णन हुई स्थिति में स्थित हो? वा अपने अंतिम साक्षीपन, हर्षितमुख, न्यारी और अति प्यारी स्थिति के समीप आ रहे हो, कि वह स्थिति अभी दूर है? जो वस्तु समीप आ जाती है उसके कोई-ना-कोई लक्षण वा चिह्न नजर आने लगते हैं। तो आप लोग क्या अनुभव करते हो? क्या वह अंतिम स्थिति समीप आ रही है? समीप से भी ज्यादा और कौनसी स्टेज होती है? बाप के समीप आ रहे हो? क्या अनुभव करते हो? समीप जा रहे हो ना। चलते-चलते ठहर तो नहीं जाते हो? कोई साइड-सीन देखकर ठहर तो नहीं जाते हो? चढ़ती कला का अनुभव करते हो? ठहरती कला तो नहीं? स्थूल यात्रा पर भी जब जाते हैं तो चलते रहते हैं, रूकते नहीं हैं। यह भी रूहानी यात्रा है ना। इसमें भी रूकना नहीं है। अथक, अटल, अचल हो चलते रहना है। तो मंजिल पर पहुंच जावेंगे। यह लक्ष्य रखा है ना। अगर लक्ष्य मजबूत है तो लक्षण भी आ जाते हैं। मजबूती से मजबूरियां समाप्त हो जाती हैं। अगर मजबूती नहीं है तो फिर अनेक मजबूरियां भी दिखाई देती हैं। तो अपने को महावीर समझते हो ना। महावीर कभी भी किसी मजबूरी को मबूरी नहीं समझेंगे। एक सेकेण्ड में मजबूती के आधार से मजबूरी को समाप्त कर देते हैं। ऐसे ही अंगद समान अपने बुद्धि रूपी पांव को एक बाप की याद में स्थित करना है, जो कोई भी हिला ना सके। कल्प पहले भी ऐसे ही बने थे ना, याद आता है? जब कल्प पहले ऐसे बने थे, तो वही पार्ट रिपीट करने में क्या मुश्किल है? अनेक बार किये हुये पार्ट को रिपीट करना मुश्किल होता है? तो आप बहुत-बहुत पद्म भाग्यशाली हो। इतने सारे विश्व के अन्दर बाप को जानने और अपना जन्म-सिद्ध अधिकार प्राप्त करने वाले कितने थोड़े हैं? अनगिनत नहीं हैं, गिनती वाले हैं। उन थोड़े जानने वालों में आप हो ना। तो पद्मापद्म भाग्यशाली नहीं हुए? अभी तो दुनिया अज्ञान की नींद में सोई है और आप अनेकों में से थोड़ी-सी आत्माएं बाप के वर्से के अधिकारी बन रहे हो। जब वह सभी जाग जावेंगे, कोशिश करेंगे कि हम भी कुछ कणा-दाना ले आवें, लेकिन क्या होगा? ले सकेंगे? जब लेट हो जावेंगे तो क्या ले पावेंगे? उस समय आप सभी आत्माओं को भी अपने श्रेष्ठ भाग्य का प्रत्यक्ष रूप में साक्षात्कार होगा। अभी तो गुप्त है ना। अभी गुप्त में न बाप को जानते हैं, न आप श्रेष्ठ आत्माओं को जानते हैं। साधारण समझते हैं। लेकिन वह समय दूर नहीं जबकि जागेंगे, तड़पेंगे, रोयेंगे, पश्चाताप करेंगे लेकिन फिर भी पा न सकेंगे। बताओ, उस समय आपको अपने ऊपर कितना ना होगा कि हम तो पहले से ही पहचान कर अधिकारी बन गये हैं! ऐसी खुशी में रहना चाहिए। क्या मिला है, कौन मिला है और फिर क्या-क्या होने वाला है! यह सभी जानते हुए सदैव अतिइन्द्रिय सुख में झूमते रहना है। ऐसी अवस्था है कि कभी-कभी पेपर्स हिला देते हैं? हिलते तो नहीं हो? घबराते तो नहीं हो? कि एक दो से सुनकर घबराने की लहर आती है, फिर अपने को ठीक कर देते हो? रिजल्ट क्या समझते हो? मधुबन निवासियों की रिजल्ट क्या है? मधुबन निवासी लाइट-हाऊस हैं। लाइट- हाऊस ऊंचा होता है और रास्ता बताने वाला होता है। मधुबन के डायरेक्शन प्रमाण सभी चल रहे हैं-तो लाइट-हाऊस हुआ ना। और ऊंच स्टेज भी हुई। जैसे बाप का कहते हो ऊंचा काम, वैसे ही मधुबन अर्थात् ऊंचा धाम। तो नाम और काम भी ऊंचा होगा ना। नाम भी है मधुबन। मधुबन-निवासियों की यह विशेषता है ना-मधुरमूर्त और बेहद के वैराग्यमूर्त। एक तरफ मधुरता, दूसरे तरफ इतना ही फिर बेहद की वैराग्यवृति। वैराग्यवृति से सिर्फ गम्भीरमूर्त रहेंगे? नहीं, वास्तविक गम्भीरता रमणीकता में समाई हुई है। वह तो अज्ञानी लोगों का गम्भीर रूप होगा तो बिल्कुल ही गम्भीर, रमणीकता का नाम-निशान नहीं होगा। लेकिन यथार्थ गम्भीरता का गुण रमणीकता के गुण सम्पन्न है। जैसे लोगों को भी समझाते हो कि हम आत्मा शान्तस्वरूप हैं लेकिन सिर्फ शान्तस्वरूप नहीं है लेकिन उस शान्तस्वरूप में आनन्द, प्रेम, ज्ञान सभी समाया हुआ है। तो ऐसे बेहद के वैराग्यमूर्त वाले और साथ-साथ मधुरता भी, यही विशेषता मधुबन निवासियों की है। तो जो बेहद के वैराग्यवृति में रहने वाले हैं वह कब घबराते हैं क्या? डगमग हो सकते हैं? हिल सकते हैं?कितना भी जोर से हिलावें लेकिन बेहद के वैरागवृति वाले ‘नष्टोमोहा स्मृतिस्वरूप’ होते हैं। तो नष्टोमोहा स्मृतिस्वरूप हो? कि थोड़ा-बहुत देख कर कुछ अंश मात्र भी स्नेह कहो वा मोह कहो, लेकिन स्नेह का स्वरूप क्या होता है, इसको तो जानते हो ना? जिसके प्रति स्नेह होता है तो उसके प्रति सहयोगी बन जाना होता है। बाकी कोई रीति-रस्म से स्नेह का रूप प्रकट करना, इसको स्नेह कहेंगे वा मोह कहेंगे? तो इसमें मधुबन निवासी पास हुए? मधुबन का वायुमण्डल, मधुबन निवासियों की वृति, वायब्रेशन - लाइट-हाऊस होने कारण चारों ओर एक सेकेण्ड में फैल जाती है। तो ऐसे समझ कर हर पार्ट बजाते हो? निमित्त समझ कर वा ऐसे समय छोटे बच्चे हो जाते हो? क्या रिजल्ट हुई? यह तो अभी कुछ नहीं हुआ। अब तो बहुत कुछ होना है। आप सोचेंगे अचानक हो गया, इसलिये थोड़ा-सा हुआ। लेकिन पेपर तो अचानक आवेंगे, पेपर कोई बता कर नहीं आवेंगे। पहले बता तो दिया है कि ऐसे-ऐसे पेपर होने वाले हैं। लेकिन उस समय अचानक होता है। तो अचानक पेपर में अगर रा संकल्प में भी हिलना हुआ तो अंगद मिसल हुए? अब वह लास्ट स्टेज नहीं आई है क्या? पूछ रहे थे ना समीप से भी ज्यादा नदीक कौनसी स्टेज होती है? वह होती है सम्मुख दिखाई देना। समीप आते-आते वही वस्तु सम्मुख हो जाती है। तो समीप का अनुभव करते हो वा बिल्कुल वह स्टेज सम्मुख दिखाई देती है? आज यह हैं, कल यह बन जावेंगे-ऐसे सम्मुख अनुभव करते हो? जैसे साकार में अनुभव देखा-तो भविष्यस्वरूप और अंतिम सम्पूर्ण स्वरूप सदा सम्मुख स्पष्ट रूप में रहता था ना। तो फालो फादर करना है। जैसे बाप के सामने सम्पूर्ण स्टेज वा भविष्य स्टेज सदा सामने रहती है, वैसे ही अनुभव हो रहा है? कि सोचते हो - ‘‘पता नहीं क्या भविष्य होना है? वह स्पष्ट होता कहां है? अनाउन्स त् होता नहीं।’’ लेकिन जो महावीर पुरुषार्थी हैं उनकी बुद्धि में सदा अपने प्रति स्पष्ट रहता है। तो स्पष्ट देखने में आता है वा थोड़ा- बहुत घूंघट बीच में है? आजकल ट्रान्सपेरेन्ट घूंघट भी होता है। दिखाई सभी कुछ देता है फिर भी घूंघट होता है। लेकिन वैसे स्पष्ट देखना और घूंघट बीच देखना - फर्क तो होगा ना? तो अपने पुरूषार्थ प्रमाण ट्रान्सपेरेन्ट रूप में घूंघट तो नहीं रह गया है? बिल्कुल ही स्पष्ट है ना? तो मधुबन निवासी अटल हैं ना। कि कि यह संकल्प भी है कि यह क्या होता है? क्यों, क्या का क्वेश्चन तो नहीं? जो भी पार्ट चलते हैं उन हरेक पार्ट में बहुत कुछ गुह्य रहस्य समाए हुए हैं, वह रहस्य क्या था? सुनाया था ना समय की सूचना देने लिये बीच- बीच में घंटी बजा कर जगाते हैं। इसलिए आपके जड़ चित्रों के आगे घंटी बजाते हैं। उठाते भी हैं घंटी बजा कर, फिर सुलाते भी हैं घंटी बजा कर। यह भी समय की सूचना - घंटियां बजती हैं। क्योंकि जैसे शास्त्रवादियों ने लम्बा- चौड़ा टाइम बता कर सभी को सुला दिया है। खूब अज्ञान नींद में सभी सो गये हैं क्योंकि समझते हैं अभी बहुत समय पड़ा है। तो यहां फिर जो दैवी परिवार की आत्माएं हैं उन्हों को चलते-चलते माया कई प्रकार के रूप-रंग, रीति-रस्म के द्वारा अलबेला बना कर समय की पहचान से दूर, पुरूषार्थ के ढीलेपन में सुला देती है। जब कोई अलबेला होता है तो आराम से रहता है। ज़िम्मेवारी होने से अटेंशन रहता है कि हमको टाइम पर उठना है, यह करना है। अगर कोई प्रोग्राम में नहीं तो अलबेला ही सो जावेगा। तो यह भी अलबेलापन आ जाता है। जब कोई अलबेले हो ढीले पुरूषार्थ के नींद के नशे में मस्त हो जाते हैं तो क्या करना पड़ता है? उनको हिलाना पड़ता है, हलचल करनी पड़ती है कि उठ जायें। जैसी-जैसी नींद होती है वैसा किया जाता है। बहुत गहरी नींद होती है तो उसको हिलाना पड़ता है लेकिन कोई की हल्की नींद होती है तो थोड़ी हलचल करने से भी उठ जाता है। अभी हिलाया नहीं है, थोड़ी हलचल हुई है। दूसरी चीज़ को निमित्त रख उसको हिलाया जाता है। तो जागृति हो जाती है। यह भी ड्रामा में निमित बनी हुई जो सूचना-स्वरूप मूर्तियां हैं, उन्हों को थोड़ा हिलाया, हलचल की तो सभी जाग गये। क्योंकि हल्की नींद है ना। जागे तो रूर लेकिन जागने के साथ रड़ी तो नहीं की? ऐसे होता है, कोई को अचानक जगाया जाता है तो वह घबरा जाता है - क्या हुआ? तो कोई यथार्थ रूप से जागते हैं, कोई कुछ घबराने बाद होश में आते हैं। लेकिन यह होना न चाहिए, रा भी चेहरे पर रूपरेखा घबराने की न आनी चाहिए। आवाज में भी चेंज न हो। आवाज में भी अगर अन्तर आ जाता है वा चेहरे में भी कुछ चेंज आ जाती है तो इसको भी पास कहेंगे? यह तो कुछ नहीं हुआ। अभी बहुत कड़े पेपर तो आने वाले हैं। पेपर को बहुत समय हो जाता है तो पढ़ाई में अलबेलापन हो जाता है। फिर जब इम्तिहान के दिन नजदीक होते हैं तो फिर अटेंशन देते हैं। तो यह अभी तो कुछ नहीं देखा। पहले के पेपर कुछ अलग हैं, लेकिन अभी तो ऐसे पेपर्स आने वाले हैं जो स्वप्न में, संकल्प में भी नहीं होगा। प्रैक्टिस ऐसी होनी चाहिए जैसे हद का ड्रामा साक्षी हो देखा जाता है। फिर चाहे दर्दनाक हो वा हंसी का हो, दोनों पार्ट को साक्षी हो देखते हैं, अन्तर नहीं होता है क्योंकि ड्रामा समझते हैं। तो ऐसी एकरस अवस्था होनी चाहिए। चाहे रमणीक पार्ट हो, चाहे कोई स्नेही आत्मा का गम्भीर पार्ट भी हो तो भी साक्षी होकर देखो। साक्षी दृष्टा की अवस्था होनी चाहिए। घबराई हुई या युद्ध करती हुई अवस्था ना हो। कोई घबराते भी नहीं हैं, युद्ध में लग जाते हैं। रूर कुछ कल्याण होगा। लेकिन साक्षी दृष्टा की स्टेज बिल्कुल अलग है। इसको ही एकरस अवस्था कहा जाता है। वह तब होगी जब एक ही बाप की याद में सदा मग्न होंगे। बाप और वर्सा, बस, तीसरा ना कोई। और, कोई बात देखते-सुनते वा कोई संबंध-सम्पर्क में आते हुए ऐसे समझेंगे जैसे साक्षी हो पार्ट बजा रहे हैं। बुद्धि उस लग्न में मग्न। बाप और वर्से की मस्ती रहे। इसलिए अब ऐसी स्टेज बनाओ, इसके लिए अपनी परख करने के लिए यह पेपर आते हैं। नहीं तो मालूम कैसे पड़े? हरेक की अपनी स्थिति को परखने के लिये थर्मामीटर मिलते हैं, जिससे अपनी स्थिति को स्वयं परख सको। कोई को कहने की दरकार नहीं, घबराना नहीं, गहराई में जाओ तो घबराहट बंद हो जावेगी। गहराई में न जाने कारण घबराते हो। मधुबन निवासियों के लिए खास मिलने लिये आये हुए हैं। इसमें भी श्रेष्ठ भाग्यशाली हुए ना। और तो प्रोग्राम बनाते रहते। आप बिगर प्रोग्राम प्राप्त करते हो। तो विशेषता हुई ना। मधुबन में बाप स्वयं दौड़ी पहन आते हैं। रिजल्ट तो अच्छी है। वह तो... रा-सी हलचल थी। उस ‘रा’ को समझ गये ना। अब इसको भी निकालना है। रा भी फ्लॉ (Flaw; दोष) फेल कर देता है। लास्ट फाइनल पेपर में अगर रा-सा फ्लॉ आ गया तो फेल हो जावेंगे। इसलिए पहले से पेपर होते हैं परिपक्व बनाने लिये। बाकी अभी की रिजल्ट बहुत अच्छी है। सभी एक दो में स्नेही, सहयोगी अच्छे हैं। सुनया था ना कि सूक्ष्म सर्विस की मशीनरी अब चालू होती है। तो मधुबन निवासियों से विशेष सूक्ष्म सर्विस की मशीनरी अब चालू हो गई है। और भी सेवाकेन्द्रों पर सूक्ष्म सर्विस चालू तो है लेकिन फिर भी वर्तमान रिजल्ट अनुसार इस सर्विस में नंबरवन मधुबन निवासी हैं। इसलिए मुबारक हो! जैसे अभी तक स्नेह और सहयोग का सबूत दे रहे हो, वही सबूत औषधि के रूप में जहां पहुंचाने चाहते हो वहां पहुंच रहा है। आपकी पावरफुल औषधि है ना। जैसे-जैसे आप की पावरफुल औषधि पहुंचती जाती है, वैसे-वैसे स्वस्थ होते जा रहे हैं। इसमें भी पावरफुल औषधि भेजते रहेंगे तो एक हफ्ता में भी ठीक हो सकते हैं। मार्जिन है तेज करने की। फिर भी रिजल्ट अच्छी है। ऐसी अच्छी रिजल्ट को देखते हुये लाइट- हाऊस की लाइट चारों तरफ पहुंच रही है। उससे और स्थानों में भी लाइट- हाऊस का प्रभाव पड़ रहा है। अच्छा!

ऐसे सदा आपस में एकमत और श्रेष्ठ गति से चलने वाले, सदा एक की याद में रहने वाले, पाण्डव सेना और शक्ति सेना को याद-प्यार और नमस्ते।



09-11-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


ज्ञान-सितारों का सम्बन्ध ज्ञान-सूर्य और ज्ञान-चन्द्रमा के साथ

स्मृतिस्वरूप स्पष्ट सितारे सदैव अपने को दिव्य सितारा समझते हो? वर्तमान समय का श्रेष्ठ भाग्य बापदादा के नैनों के सितारे और भविष्य जो प्राप्त होने वाली तकदीर बना रहे हो, उन श्रेष्ठ तकदीर के सितारे अपने को देखते हुए चलते हो? जब अपने को दिव्य सितारा नहीं समझते हो तो यह दोनों सितारे भी स्मृति में नहीं रहते। तो अपने त्रिमूर्ति सितारा रूप को सदैव स्मृति में रखो। जैसे सितारों का सम्बन्ध चन्द्रमा और सूर्य के साथ है। गुप्त रूप में सूर्य के साथ रहता है और प्रत्यक्ष रूप में चन्द्रमा के साथ रहता है। आप चैतन्य सितारों का सम्बन्ध भी प्रैक्टिकल रूप में किसके साथ रहा? चन्द्रमा के साथ रहा ना। ज्ञानसूर्य तो गुप्त ही है। लेकिन साकार रूप में प्रसिद्ध रूप में तो बड़ी मां ही के साथ संबंध रहा ना। तो अपने को सितारा समझते रहना है। जैसे सितारों का सम्बन्ध चन्द्रमा और सूर्य के साथ रहता है, ऐसे सदा बापदादा के साथ ही सम्बन्ध रहे। जैसे सितारे चमकते हैं वैसे ही अपने चमकते हुए ज्योति-स्वरूप में सदैव स्थित रहना है। सितारे आपस में संगठन में रहते सदा एक दो के स्नेही और सहयोगी रहेंगे। आप चैतन्य सितारों की यादगार यह सितारे हैं। तो ऐसे श्रेष्ठ सितारे बने हो? चैतन्य और चित्र समान हुए हैं? अपने भिन्न-भिन्न रूप के भिन्न-भिन्न कर्त्तव्य के यादगार चित्र देखते, समझते हो कि यह मुझ चैतन्य का ही चित्र है? चैतन्य और चित्र में अंतर समाप्त हो गया है वा अजुन समीप आ रहे हो? सितारे कब आपस में संगठन में रहते एक दो के स्नेह और सहयोग से दूर रहते हैं क्या? आप लोगों ने कब सम्मेलन नहीं किया है? संदेश देने के सम्मेलन तो बहुत किये हैं। बाकी कौनसा सम्मेलन रहा हुआ है? जो अंतिम सम्मेलन है उसका उद्देश्य क्या है? सम्मेलन के पहले उद्देश्य सभी को सुनाते हो ना। तो अंतिम सम्मेलन का उद्देश्य सभी को सुनाते हो ना। तो अंतिम सम्मेलन का उद्देश्य क्या है? उसकी डेट फिक्स की है? जैसे और सम्मेलन की डेट फिक्स करते हो ना, यह फिक्स की है? वह सम्मेलन तो सभी को मिल कर करना है। आपके उस अंतिम सम्मेलन का चित्र है। जो चित्र है उसको ही प्रैक्टिकल में लाना है। सभी का सहयोग, सभी का स्नेह और सभी का एकरस स्थिति में स्थित रहने का चित्र भी है ना। जैसे गोवर्धन पर्वत पर अंगुली दिखाते हैं, तो अंगुली को बिल्कुल सीधा दिखायेंगे। अगर टेढ़ी-बांकी होगी तो हिलती रहेगी। सीधा और स्थित, उसकी निशानी इस रूप में दिखाई है। ऐसे ही अपने पुरूषार्थ को भी बिल्कुल ही सीधा रखना है। बीच-बीच में जो टेढ़ा-बांका रास्ता हो जाता है अर्थात् बुद्धि यहां-वहां भटक जाती है, वह समाप्त हो एकरस स्थिति में स्थित हो जाना है। ऐसा पुरूषार्थ कर रहे हो? लेकिन अपने पुरूषार्थ से स्वयं संतुष्ट हो? वा जैसे भक्तों को कहते हो कि चाहना श्रेष्ठ है लेकिन शक्तिहीन होने कारण जो चाहते हैं वह कर नहीं पाते हैं, ऐसे ही आप भी जो चाहते हो कि ऐसे श्रेष्ठ बनें, चाहना श्रेष्ठ और पुरूषार्थ कम, लक्ष्य अपने सन्तुष्टता के आधार से दूर दिखाई दे तो उसको क्या कहा जावेगा? महान ज्ञानी? अपने को सर्व- शक्तिवान् की सन्तान कहते हो लेकिन सन्तान होने के बाद भी अपने में शक्ति नहीं है? मनुष्य जो चाहे सो कर सकता है, ऐसे समझते हो ना? तो आप भी मास्टर सर्व-शक्तिवान् के नाते जो आप 3 वर्ष की बात सोचते हो वह अभी नहीं कर सकते हो? अपनी वह अंतिम स्टेज अभी प्रैक्टिकल में नहीं ला सकते हो? कि अंतिम है इसलिये अंत में हो जावेगी? यह कब भी नहीं समझना कि अंतिम स्टेज का अर्थ यह है कि वह स्टेज अंत में ही आवेगी। लेकिन अभी से उस सम्पूर्ण स्टेज को जब प्रैक्टिकल में लाते जावेंगे तब अंतिम स्टेज को अंत में पा सकेंगे। अगर अभी से उस स्टेज को समीप नहीं लाते रहेंगे तो दूर ही रह जावेंगे, पा न सकेंगे। इसलिये अब पुरूषार्थ में जम्प लगाओ। चलते- चलते पुरूषार्थ की परसेन्टेज में कमी पड़ जाती है। इसलिये आप पुरूषार्थ की स्टेज पर हो लेकिन स्टेज पर होते भी परसेन्टेज को भरो। परसेन्टेज में बहुत कमी है। जैसे मुख्य सब्जेक्ट ‘याद की यात्रा’ जो है वह नंबरवार बना भी चुके हो लेकिन स्टेज के साथ जो परसेन्टेज होनी चाहिए वह अब कम है। इसलिये जो प्रभाव दिखाई देना चाहिए, वह कम दिखता है। जब तक परसेन्टेज नहीं बढ़ाई है तब तक प्रभाव फैल नहीं सकता है। फैलाव के लिये परसेन्टेज चाहिए। जैसे बल्ब होते हैं, लाइट तो सभी में होती है लेकिन जितनी लाइट की परसेन्टेज होगी इतनी जास्ती फैलेगी। तो बल्ब बने हो लेकिन लाइट की जो परसेन्टेज होनी चाहिए, वह अभी नहीं है, उसको बढ़ाओ। सुनाया था ना - एक है लाइट, दूसरी है सर्चलाइट, तीसरा है लाइट-हाऊस। भिन्न स्टेजेस हैं ना। लाइट तो बने हो लेकिन लाइट-हाऊस हो चारों ओर अंधकार को दूर कर लाइट फैलाओ। सभी को इतनी रोशनी प्राप्त कराओ जो वह अपने आपको देख सकें। अभी तो अपने आपको भी देख नहीं सकते। जैसे बहुत अंधकार होता है तो न अपने को, न दूसरे को देख सकते हैं। तो ऐसे लाइट-हाऊस बनो जो सभी अपने आपको तो देख सकें। जैसे दर्पण के आगे जो भी होता है उसको स्वयं का साक्षात्कार होता है। ऐसे दर्पण बने हो? अगर इतने सभी दर्पण बन अपना कर्त्तव्य करने शुरू कर दें तो क्या चारों ओर सर्वात्माओं को स्वयं का साक्षात्कार नहीं हो जावेगा? जब किसको साक्षात्कार हो जाता है तो उनके मुख से जय-जय का नारा रूर निकलता है। ऐसे दर्पण तो बने हो ना? सारे दिन में कितनों को स्वयं का साक्षात्कार कराते हो? जो सामने आता है वह साक्षात्कार करता है? अगर दर्पण पावरफुल न हो तो रीयल रूप के बजाय और रूप दिखाई देता है। होगा पतला, दिखाई पड़ेगा मोटा। तो ऐसे पावरफुल दर्पण बनो जो सभी को स्वयं का साक्षात्कार करा सको अर्थात् आप लोगों के सामने आते ही देह को भूल अपने देही रूप में स्थित हो जायें। वास्तविक सर्विस अथवा सर्विस की सफलता का रूप यह है। अच्छा!

सदा सफलतामूर्त, संस्कारों के मिलन का सम्मेलन करने वाले, अपने सम्पूर्ण स्थिति को समीप लाने वाले दिव्य सितारों को, बापदादा के नैनों के सितारों को, तकदीर के सितारे को जगाने वालों को याद-प्यार और नमस्ते।



12-11-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


अलौकिक कर्म करने की कला

व्यक्तमूर्त अर्थात् इस शरीर में पार्ट बजाने वाले अति न्यारे और अति प्यारे की स्थिति में स्थित रहने के अनुभवीमूर्त बन गये हो? हर समय मालिक और बालक, दोनों ही साथ-साथ पार्ट बजाने में यत्न करने वाले नहीं, लेकिन सहज स्वरूप बन गये हो? वा मालिक बनते हो तो बालकपन भूल जाता है वा बालक बनते हो तो मालिकपन भूल जाता है? अभी-अभी मालिक, अभी-अभी बालक। अभी-अभी कर्मयोगी, अभी-अभी देह से भी परे, कर्म से भी परे, लग्न में मग्न रहने वाले योगी बन सकते हो? संकल्प और कर्म - दोनों ही समान बने हैं वा संकल्प और कर्म में अन्तर है? संकल्प किया और प्रैक्टिकल रूप में आया, ऐसी प्रैक्टिस हुई है? याद की यात्रा पर चलने वाले राही इतने समीप आये हो? सहज भी और समीप भी हैं, यह दोनों ही अनुभव होते हैं? इस याद की यात्रा के अनेक अनुभव करते- करते अब नॉलेजफुल और पावरफुल बने हो? जैसे यात्रा में बीच-बीच में चट्टियां आती हैं, जिससे मालूम पड़ता है कि कहां तक पहुंचे हैं और कहां तक अब पहुंचना है। आप याद की यात्रा के राही इस यात्रा की कितनी चट्टियां पार कर चुके हो अर्थात् याद की कितनी स्टेजेस को पार कर चुके हो? लास्ट स्टेज वा फाइनल स्टेज कौनसी है? उसको ऐसे ही स्पष्ट देख और जान रहे हो जैसे कोई वस्तु बहुत समीप और सम्मुख आ जाती हैं। तो उसको सहज जान, देख रहे हो कि अभी देखने से दूर है? देखते रहते हो वा सिर्फ जाना है? वा इतना सम्मुख वा समीप आ गये हो जो कई बार उस मंजिल पर पहुंच, थोड़े समय का अनुभव भी करते रहते हो? अनुभव होता है? फिर उसी अनुभव में रहते क्यों नहीं हो? स्थिति का अनुभव होता है, बाकी स्थित रहना नहीं आता, ऐसे? सदा स्थित क्यों नहीं हो पाते हो, कारण? सर्विस वा जो ब्राह्मणों के कर्म हैं, जिस कर्म को अलौकिक कर्म कहा जाता है, ऐसे अलौकिक कर्म वा ईश्वरीय सेवा कब भी स्थिति से नीचे लाने के निमित्त नहीं बन सकते। अगर कोई को ऐसे अनुभव होता है कि अलौकिक कर्म के कारण नीचे आते हैं तो उसका अर्थ है कि उस आत्मा को अलौकिक कर्म करने की कला नहीं आती है। जैसे कला दिखाने वाले कलाबाज वा सर्कस में काम करने वाले हर कर्म करते हुए, हर कर्म में अपनी कलाबाजी दिखाते हैं। उन्हों का हर कर्म कला बन जाता है। तो क्या आप श्रेष्ठ आत्माएं, कर्मयोगी, निरंतर योगी, सहयोगी, राजयोगी हर कर्म को न्यारे और प्यारे रहने की कला में नहीं कर सकते? जैसे उन्हों के शरीर की कला देखने के लिये कितने लोग इच्छुक होते हैं! आपकी बुद्धि की कला, अलौकिक कर्म की कला देखने के लिए सारे विश्व की आत्माएं इच्छुक बन कर आवेंगी। तो क्या अब यह कला नहीं दिखावेंगे? जैसे वह लोग शरीर के कोई भी अंग को जैसे चाहें, जहां चाहें, जितना समय चाहें कर सकते हैं, यही तो कला है। आप सभी भी बुद्धि को जब चाहो, जितना समय चाहो, जहां स्थित करना चाहो वहां स्थित नहीं कर सकते हो? वह है शरीर की बाजी, यह है बुद्धि की। जिसको यह कला आ जाती है वही 16 कला सम्पन्न बनते हैं। इस कला से ही अन्य सर्व कलाएं स्वत: ही आ जाती हैं। ऐसे एक देही-अभिमानी स्थिति सर्व विकारों को सहज ही शान्त कर देती है। ऐसे यही बुद्धि की कला सर्व कलाओं को अपने में भरपूर कर सकती है वा सर्व कला सम्पन्न बना सकती है। तो इस कला में कहां तक अभ्यासी वा अनुभवी बने हो? अभी-अभी सभी को डायरेक्शन मिले कि एक सेकेण्ड में अशरीरी बन जाओ; तो बन सकते हो? सिर्फ एक सेकेण्ड में स्थित हो सकते हो? जब बहुत कर्म में व्यस्त हों ऐसे समय भी डायरेक्शन मिले। जैसे जब युद्ध प्रारम्भ होता है तो अचानक आर्डर निकलते हैं -- अभी-अभी सभी घर छोड़ बाहर चले जाओ। फिर क्या करना पड़ता है? रूर करना पड़े। तो बापदादा भी अचानक डायरेक्शन दें कि इस शरीर रूपी घर को छोड़, इस देह-अभिमानी की स्थिति को छोड़ देही-अभिमानी बन जाओ, इस दुनिया से परे अपने स्वीटहोम में चले जाओ; तो कर सकेंगे? युद्धस्थल में रूक तो नहीं जावेंगे? युद्ध करते-करते ही समय तो नहीं बिता देंगे कि - ‘‘जावें न जावें? जाना ठीक होगा वा नहीं? यह ले जावें वा छोड़ जावें?’’ इस सोच में समय गंवा देते हैं। ऐसे ही अशरीरी बनने में अगर युद्ध करने में ही समय लग गया तो अंतिम पेपर में मार्क्स वा डिवीजन कौन-सा आवेगा? अगर युद्ध करते- करते रह गये तो क्या फर्स्ट डिवीजन में आवेंगे? ऐसे उपराम, एवररेडी बने हो? सर्विस करते और ही स्थिति शक्तिशाली हो जाती है। क्योंकि आपकी श्रेष्ठ स्थिति ही इस समय की परिस्थितियों को परिवर्तन में लावेगी। तो सर्विस करने का लक्ष्य क्या है? किसलिये सर्विस करते हो? परिस्थितियों को परिवर्तन करने लिये ही तो सर्विस करते हो ना। सर्विस में स्थिति साधारण रहे तो वह सर्विस हुई? इस याद की यात्रा की मुख्य 4 सब्जेक्ट्स हैं जिसे चेक करो कि कहां तक पहुंचे हैं? पहले स्थिति थी वो अब भी कोई-कोई की है, वह क्या? वियोगी। दूसरी स्टेज - वियोगी के बाद योगी बनते हैं। तीसरी स्टेज - योगी के बाद सहयोगी बनते हैं। सहयोगी बनने के बाद लास्ट स्टेज है सर्वत्यागी बनते हैं? इन चार सब्जेक्ट्स को सामने रखते हुये देखो कि कितनी पौड़ियां पार की हैं, कितने तक ऊपर चढ़े हो? क्या अभी तक भी बार-बार कब वियोगी तो नहीं बनते हो? सदा योगी वा सहयोगी बनकर के चलते हो? अगर कोई भी विघ्न आता है, विघ्न के वश होना अर्थात् वियोगी होना, तो वियोगी तो नहीं बनते हो? विघ्न योगयुक्त अवस्था को समाप्त कर सकता है? बाप की स्मृति को विस्मृति में ला देता है। विस्मृति अर्थात् वियोगी। तो योगीपन की स्टेज ऐसे ही निरंतर रहे जैसे शरीर और आत्मा का जब तक पार्ट है तब तक अलग नहीं हो पाती है, वैसे बाप की याद बुद्धि से अलग न हो। बुद्धि का साथ सदैव याद अर्थात् बाप के साथ हो। ऐसे को कहा जाता है योगी जिसको और कोई भी स्मृति अपनी तरफ आकर्षित न कर पावे। जैसे बहुत ऊंची वा श्रेष्ठ पावर के आगे कम पावर वाले कुछ भी नहीं कर पाते हैं, ऐसे अगर सर्वशक्तिवान् की याद सदा साथ है तो और कोई भी याद बुद्धि में अंदर आ नहीं सकती। इसको ही सहज और स्वत: योगी कहा जाता है। वह लोग कहते हैं और यहां हैं स्वत: योगी। तो ऐसे योगी बने हो? ऐसा योगी सदा हर सेकेण्ड, हर संकल्प, हर वचन, हर कर्म में सहयोगी अवश्य होगा। अगर संकल्प में सहयोगी नहीं सिर्फ कर्म में है, वा कर्म में सहयोगी हैं, किसी बात में नहीं है तो ऐसे को सहयोगी की स्टेज तक पहुंची हुई आत्माएं नहीं कहेंगे। एक संकल्प भी सहयोग के बिना चलता है-इसको व्यर्थ कहेंगे।

जो व्यर्थ गंवाने वाले होते हैं वह कब किसके सहयोगी नहीं बन सकते, स्वयं में शक्तिशाली नहीं बन सकते। ऐसे सर्व स्नेही, सहयोगी, सर्वांश त्यागी वा सर्वत्यागी सहज ही बन जाते हैं। जबकि भक्ति में भी सिर्फ कोई ईश्वर के अर्थ दान करते हैं तो उन्हों को भी विनाशी राजपद की प्राप्ति होती है। तो सोचो जो हर संकल्प और सेकेण्ड ईश्वरीय सेवा के सहयोग में लगाते हैं, उसकी कितनी श्रेष्ठ प्राप्ति होगी! ऐसे महादानी सर्वत्यागी सहज ही बन जाते हैं। ऐसे सर्वत्यागी वर्तमान और भविष्य में सर्वश्रेष्ठ भाग्यशाली बनते हैं। न सिर्फ भविष्य लेकिन वर्तमान समय भी ऐसे श्रेष्ठ भाग्यशाली आत्मा के भाग्य को देखते हुये, अनुभव करते हुए अन्य आत्माएं उनके भाग्य के गुण गाते हैं और अनेक आत्माओं को अपने श्रेष्ठ भाग्य के आधार से भाग्यशाली बनाने के निमित्त बनते हैं। तो देखो इन 4 सब्जेक्ट्स से किस स्टेज तक पहुंचे हो वा मंजिल के कितना समीप आये हो। अच्छा!

ऐसे सहज और स्वत: योगी आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।



20-11-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


स्थिति का आइना – सर्विस

दा विजयी अपने को अनुभव करते हो? जब विश्व पर विजयी बन राज्य करने वाले हो तो अब स्वयं सदा विजयी बने हो? जिस विश्व के ऊपर राज करने वाले हो उस राज्य के अधिकारी अपने को अभी से समझते हो? पहले स्वयं के सर्व अधिकार प्राप्त किये हैं वा अभी करने हैं? जो स्वयं के सर्व अधिकार प्राप्त करते हैं वही विश्व के अधिकारी बनते हैं। तो अपने से पूछो कि स्वयं के सर्व अधिकार कहां तक प्राप्त किये हैं? सर्व अधिकार कौनसे हैं? जानते हो? जो आत्मा की मुख्य शक्तियां वर्णन करते हो मन, बुद्धि और संस्कार, - इन तीनों स्वयं की शक्तियों के ऊपर विजयी अर्थात् अधिकारी बने हो? अपनी शक्तियों के अधीन तो नहीं होते हो? जो विश्व की सेवा के निमित्त बने हुये हैं, उन्हों की यह स्थिति तो सहज और स्वत: ही होगी ना। वा पुरूषार्थ कर स्थित होना पड़ता है? पुरूषार्थ की सिद्धि का अनुभव अपने में करते जा रहे हो वा संगम का समय सिर्फ पुरूषार्थ का ही है और सिद्धि भविष्य की बात है? संगम पर ही सिद्धि-स्वरूप वा मास्टर सर्वशक्तिवान स्वरूप अनुभव करना है वा नहीं? अभी से ही अनुभव करना है वा अंत में कुछ थोड़ा समय करना है? सिर्फ उम्मीदों के सितारे ही रहना है? अभी से सिद्धि-स्वरूप अनुभव होना चाहिए। सिद्धि तब प्राप्त होगी जब स्वयं के सर्व अधिकार प्राप्त होंगे। मन, बुद्धि और संस्कार - तीनों को स्वयं जैसा चाहें वैसा चला सकें, ऐसा अब हो तब ही अन्य आत्माओं के मन, बुद्धि व संस्कारों को चेंज कर सकेंगे। अगर स्वयं को चेंज करने में समय लगता है वा सदा विजयी न हैं तो औरों को विजयी बनाने में समय और शक्ति ज्यादा लगानी पड़ती है। सर्विस आप सभी की स्थिति का आइना है। तो आइने में क्या दिखाई देता है? जैसे आप पुरुषार्थी आत्माओं की स्टेज बनी है, वैसे जिन्हों की सर्विस करते हो उन्हों को अनुभव होता है? अपनी स्टेज कहां तक बनाई है -- इसका साक्षात्कार सर्विस से करते जा रहे हो। कौन-सी स्टेज बनाई है? कहां तक पहुंचे हो? सर्विस अच्छी लगती है। खुश होकर गये ना। सभी से ज्यादा खुशी किसको हुई? सर्विस की सिद्धि को देख कर खुशी हुई? बाप का परिचय लेकर गये। जैसे ब्राह्मण आत्माओं में मैजारिटी की स्टेज में विशेष- विशेष गुण प्रसिद्ध दिखाई पड़ते हैं -- एक प्योरिटी और दूसरा स्नेह। इन दो बातों में मैजारिटी पास हैं। ऐसे ही सर्विस की रिजल्ट में स्नेह और प्योरिटी यह स्पष्ट दिखाई देता है अथवा आने वाले अनुभव करते हैं। लेकिन जो नवीनता वा नॉलेज में विशेषता है, वह नॉलेजफुल स्टेज वा मास्टर सर्वशक्तिवान् की स्टेज वा सर्वशक्तिवान् बाप की प्रैक्टिकल कर्त्तव्य की विशेषता विशेष रूप से जो अनुभव करने का है, वह अभी कमी है। ‘शक्ति अवतार’ जो नाम बाला होना है वह शक्ति रूप का वा सर्वशक्तिवान् बाप का पूरा परिचय अनुभव करते हैं? आपके जीवन से प्रभावित हुए, स्नेह और सहयोग से प्रभावित हुए लेकिन श्रेष्ठ नॉलेज और नॉलेजफुल के ऊपर इतना प्रभावित हुए जैसे निमित्त बने हुये ब्राह्मण स्वयं शक्ति रूप का अनुभव अपने में भी परसेन्टेज में करते हैं, ऐसे ही सर्विस के आइने में शक्ति रूप का अनुभव स्नेह और सहयोग की तुलना में कम करते हैं। जो कुछ चल रहा है, जो कर रहे हो वह ड्रामा प्रमाण बहुत अच्छा है लेकिन अभी समय प्रमाण, समीपता के प्रमाण शक्ति रूप का प्रभाव स्वयं शक्ति रूप हो दूसरों के ऊपर डालेंगे तब ही अंतिम प्रत्यक्षता समीप ला सकेंगी। शक्ति का झण्डा लहराओ। जैसे कोई झण्डा लहराया जाता है तो ऊंचा होने के कारण सभी की नजर आटोमेटिकली जाती है। ऐसे ही शक्ति का झण्डा, अपनी श्रेष्ठता वा सारी सृष्टि से नवीनता का झण्डा अब लहराओ। जो कहां भी किस आत्मा को अनुभव नहीं हो सकता है, ऐसा विशेष अनुभव सर्व आत्माओं को कराओ। तो सर्विस दर्पण हुआ ना। अपने सर्व शक्ति स्वरूप से सर्वशक्तिवान् बाप का परिचय देने वाले, अपनी शक्ति द्वारा सर्व शक्तियों का साक्षात्कार कराने वाले, विश्व पर शक्ति का झण्डा लहराने वाले स्नेही, सहयोगी और शक्ति रूप श्रेष्ठ आत्माओं को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।



22-11-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


अंतिम सर्विस का अंतिम स्वरूप

पने अंतिम स्वरूप का साक्षात्कार होता रहता है? क्योंकि जितना- जितना नदीक आते जाते हैं उतना ऐसे अनुभव होगा, जैसे कोई सम्मुख वस्तु दिखाई दे रही है। ऐसे ही अनुभव होगा कि अभी-अभी यह बनेंगे। जैसे वृद्ध अवस्था वालों को यह सदा स्मृति रहती है कि अभी- अभी वृद्ध हूं, अभी-अभी जाकर बच्चा बनूंगा। ऐसे ही अपने अंतिम स्वरूप की स्मृति नहीं लेकिन सम्मुख स्पष्ट रूप से साक्षात्कार होता है-अभी यह हूं, फिर यह बनेंगे? जैसे शुरू में सुनाते थे कि जब मंजिल पर पहुंच जावेंगे तो ऐसे समझेंगे कि कदम रखने की देरी है। एक पांस रख चुके हैं, दूसरा रखना है। बस, इतना अन्तर है। तो ऐसे अपनी अंतिम स्टेज की समीपता का अनुभव होता है? अपरोक्ष स्पष्ट साक्षात्कार होता है? जैसे आइने में अपना रूप स्पष्ट दिखाई देता है, वैसे ही इस नॉलेज के दर्पण में ऐसा ही अपना अंतिम स्वरूप स्पष्ट दिखाई दे-जैसे कोई बहुत अच्छा सुन्दर चोला सामने रखा हो और मालूम हो कि हमको अभी यह धारण करना है तो न चाहते हुये भी जैसा-जैसा समय नजदीक धारण करने का आता रहेगा तो अटेंशन जावेगा क्योंकि सामने दिखाई दे रहा है। ऐसा ही अपना अंतिम स्वरूप सामने दिखाई देता है और उस स्वरूप तरफ अटेंशन जाता है? वह लाइट का स्वरूप कहो वा चोला कहो, लाइट ही लाइट दिखाई पड़ेगी। फरिश्तों का स्वरूप क्या होता है? लाइट। देखने वाले भी ऐसे अनुभव करेंगे कि यह लाइट के वस्त्रधारी हैं, लाइट ही इन्हों का ताज है, लाइट ही वस्त्र हैं, लाइट ही इन्हों का श्रृंगार है। जहां भी देखेंगे तो लाइट ही देखेंगे। मस्तक के ऊपर देखेंगे तो लाइट का क्राउन दिखाई पड़ेगा। नैनों में भी लाइट की किरणें निकलती हुई दिखाई देंगी। तो ऐसा रूप सामने दिखाई पड़ता है? क्योंकि माइट रूप अर्थात् शक्ति रूप का जो पार्ट चलता है वह प्रसिद्ध किससे होगा? लाइट रूप से कोई भी सामने आये तो एक सेकेण्ड में अशरीरी बन जाये - वह लाइट रूप से ही होगा। ऐसा चलता-फिरता लाइट-हाऊस हो जावेंगे जो किसी को भी यह शरीर दिखाई नहीं पड़ेगा। विनाश के समय पेपर में पास होना है तो सर्व परिस्थितियों का सामना करने के लिये लाइट-हाऊस होना पड़े, चलते-फिरते अपना यह रूप अनुभव होना चाहिए। यह प्रैक्टिस करनी है। शरीर बिल्कुल भूल जाये। अगर कोई काम भी करना है, चलना है, बात करनी है वह भी निमित्त आकारी लाइट का रूप धारण कर करना है। जैसे पार्ट बजाने के समय चोला धारण करते हो, कार्य समाप्त हुआ चोला उतारा। एक सेकेण्ड में धारण करेंगे, एक सेकेण्ड में न्यारे हो जावेंगे। जब यह प्रैक्टिस पक्की हो जावेगी, फिर यह कर्मभोग समाप्त होगा। जैसे इन्जेक्शन लगा कर दर्द को खत्म कर देते हैं। हठयोगी तो शरीर से न्यारा करने का अभ्यास कराते हैं। ऐसे ही यह स्मृति- स्वरूप का इंजेक्शन लगाकर और देह की स्मृति से गायब हो जायें। स्वयं भी अपने को लाइट रूप अनुभव करो तो दूसरे भी वही अनुभव करेंगे। अंतिम सर्विस, अंतिम स्वरूप यही है। इससे सारे कारोबार भी लाइट अर्थात् हल्के होंगे। जो कहावत है ना -- पहाड़ भी राई बन जाती है। ऐसे कोई भी कार्य लाइट रूप बनने से हल्का हो जावेगा, बुद्धि लगाने की भी आवश्यकता नहीं रहेगी। हल्के काम में बुद्धि नहीं लगानी पड़ती है। तो इसी लाइट-स्वरूप की स्थिति में, जो मास्टर जानी-जाननहार वा मास्टर त्रिकालदर्शा के लक्षण हैं, वह आ जाते हैं। करें या न करें -- यह भी सोचना नहीं पड़ेगा। बुद्धि में वही संकल्प होगा जो यथार्थ करना है। उसी अवस्था के बीच कोई भी कर्मभोग की भासना नहीं रहेगी। जैसे इंजेक्शन के नशे में बोलते हैं, हिलते हैं, सभी कुछ करते भी स्मृति नहीं रहती है। कर रहे हैं - यह स्मृति नहीं रहती है, स्वत: ही होता रहता है। वैसे कर्मभोग व कर्म किसी भी प्रकार का चलता रहेगा लेकिन स्मृति नहीं रहेगी। वह अपनी तरफ आकर्षित नहीं करेगा। ऐसी स्टेज को ही अंतिम स्टेज कहा जाता है। ऐसा अभ्यास होना है। यह स्टेज कितना समीप है? बिल्कुल सम्मुख तक पहुंच गये हैं? जब चाहें तब लाइट रूप हो जावें, जब चाहें तब शरीर में आवें वा जो कुछ करना हो वह करें। सदाकाल वह स्थिति एकरस जब तक रहे तब तक बीच-बीच में कुछ समय तो रहे। फिर ऐसे रहते-रहते सदाकाल हो जावेगी। जैसे साकार में आकार का अनुभव करते थे ना। फर्स्ट में रहते भी फरिश्ते का अनुभव करते थे। ऐसी स्टेज तो आनी है ना। शुरू-शुरू में बहुतों को यह साक्षात्कार होते थे। लाइट ही लाइट दिखाई देती थी। अपने लाइट के क्राउन के भी अनेक बार साक्षात्कार करते थे। जो आदि में सैम्पल था वह अंत में प्रैक्टिकल स्वरूप होगा। संकल्प की सिद्धि का साक्षात्कार होगा। जैसे वाचा से आप डायरेक्शन देती हो ना, वैसे संकल्प से सारे कारोबार चला सकती हो। नीचे पृथ्वी से ऊपर तक डायरेक्शन लेते रहते हैं, तो क्या श्रेष्ठ संकल्प से कारोबार नहीं चल सकती है? साईंस ने कॉपी तो साइलेंस से ही किया है। तो एग्जाम्पल देने अर्थ पहले से ही स्पष्ट रूप में आपके सामने है। कल्प पहले तो आप लोगों ने किया है ना। फिर बोलने की आवश्यकता नहीं। जैसे बोलने में बात को स्पष्ट करते हैं, वैसे ही संकल्प से सारे कारोबार चलें। जितना-जितना अनुभव करते जाते हो, एक दो के समीप आते जाते हो तो संकल्प भी एक-दो से मिलते जाते हैं। लाइट रूप होने से व्यर्थ संकल्प, व्यर्थ समय समाप्त हो जाने के बाद संकल्प वही उठेगा जो होना है। आपकी बुद्धि में भी वही संकल्प उठेगा और जिसको करना है उनकी बुद्धि में भी वही संकल्प उठेगा कि यही करना है। नवीनता तो यह है ना। यह कारोबार कोई देखे तो समझेंगे इन्हों की कारोबार कहने से नहीं, इशारों से चलती है। नर से देखा और समझ गये। सूक्ष्मवतन यहां ही बनना है। ऐसी प्रैक्टिस कराती हो? टीचर्स को यह सिखलाती हो कि अजुन भाषण करना सिखलाती हो? आप लोगों की स्टेज अपनी है। आप लोग वह स्टेज पार कर चुके हैं। नंबरवार तो हैं ना। जैसे भविष्य में ताज, तख्त धारण करके फिर छोडकर देते जावेंगे ना। तब तो दूसरे लेंगे। यहां भी आप लोग स्टेज को पार करते चलते जावेंगे तब दूसरे उस स्टेज पर आवेंगे। भविष्य की रूपरेखा यहां चलेगी ना। उस स्टेज से ऐसी लगन लग जावेगी जो उनके बिना जैसे अच्छा ही नहीं लगेगा। न चाहते भी बार-बार उस तरफ चले जावेंगे। अच्छा!



23-11-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


शक्ति-दल की विशेषताएं

(मधुबन-निवासियों के सम्मुख बापदादा के उच्चारे हुए महावाक्य)

धुबन निवासी शक्तिसेना अपने को सदा शक्ति रूप में अनुभव करते हुये चलते हो? गायन ही है शक्ति दल। शक्ति दल के कारण ही बाप का नाम भी सर्वशक्तिवान् है। तो यह है सर्व-शक्तिवान् का शक्ति दल। शक्ति दल की विशेषता है सदा और सर्व समस्याओं को ऐसे पार करे जैसे कोई सीधा रास्ता सहज ही पार कर लेते हैं। सोचेंगे नहीं, ठहरेंगे नहीं। इसी प्रकार शक्ति दल की विशेषता यही है जो समस्याएं उनके लिऐ चढ़ती कला का सहज साधन अनुभव होगा। समस्या साधन के रूप में परिवर्तन हो जाये। तो साधन अपनाने में मुश्किल नहीं लगता है क्योंकि मालूम होता है कि यह साधन ही सिद्धि का आधार है। शक्ति दल को सदैव हर समस्या जानी- पहचानी हुई अनुभव होगी। वह कभी भी आश्चर्यवत नहीं होंगे। आश्चर्यवत के बजाये सदा सन्तुष्ट रहेंगे। कोई सहज साधन है वा जो भी सम्बन्ध में बातें आती हैं वह अपने अनुकूल हों - इस कारण संतुष्ट रहे तो इसको कोई संतुष्टता नहीं कहेंगे। जो अपने संबंध में वा अपनी स्थिति के प्रमाण अनुकूल न भी महसूस हों तो भी उसमें संतुष्ट रहें - ऐसी स्थिति होनी चाहिए। शक्ति दल के मुख से कभी ‘कारण’ शब्द नहीं निकलेगा। इस कारण से यह हुआ।

‘कारण’ शब्द निवारण में परिवर्तित हो जावेगा। यह तो अज्ञानी भी कहते हैं कि इस कारण से यह हुआ। आपकी यह स्टेज न होनी चाहिए। सामने कोई कारण आवे भी तो उसी घड़ी उसको निवारण के रूप में परिवर्तन करना है। फिर यह भाषा खत्म हो जावेगी, समय गंवाना खत्म हो जावेगा। 10-20 मिनट लगें वा 2 मिनट लगें, समय तो गया ना। उसी समय फौरन त्रिकालदर्शा बन कल्प-कल्प इस कारण का निवारण किया था - वह स्पष्ट स्मृति में आने से कारण को निवारण में बदली कर देंगे। सोचेंगे नहीं कि - ‘‘यह करना चाहिए वा नहीं? यह ठीक होगा वा नहीं? यह कैसे होगा?’’ ऐसी भाषा खत्म हो जावेगी। जैसे मकान बनता है तो पहले छत डालने का आधार बनाते हैं। तो पहले वह समय था। अभी तो निराधार होना है। पहले यह बातें सुनने के लिये समय देते थे, पूछते थे -- कोई समस्या तो नहीं है, कोई सम्पर्क वाले विघ्न तो नहीं डालते। अब यह पूछने की आवश्यकता नहीं। अब अनुभवी हो चुके हो। तो ऐसी स्टेज तक पहुंची हो वा अभी तक यह बातें करती हो कि यह हुआ, फिर यह हुआ? इन बातों को कहते हैं रामायण की कथाएं-यह हुआ, फलानी ने यह बोला। रामायण की कथाओं में टाइम तो नहीं गंवाती हो? अभी तक भी कथा-वाचक नहीं हो? रामायण की कथा भी कोई एक हफ्ते में, कोई 10 दिन में पूरी करता है। ऐसी कथाएं तो नहीं करती हो? आपस में एक दो से मिलती भी हो तो याद की यात्रा की युक्तियां वा दिन-प्रतिदिन जो गुह्य-गुह्य बातें सुनते जाते हो उनकी लेन-देन करो। अब ऐसी स्टेज हो जानी चाहिए। जैसे भक्ति मार्ग को दुर्गति मार्ग समझ छोड़ देती हो ना। अगर भक्ति मार्ग की कोई भी रीति-रस्म अब तक भी हो तो आश्चर्य लगेगा ना। क्योंकि समझते हो वह दुर्गति मार्ग है। वैसे ही यह बातें करना वा इन बातों में समय गंवाना, इसको भी ऐसे समझना चाहिए जैसे भक्ति मार्ग दुर्गति मार्ग की रीति रस्म। जब ऐसा अनुभव होगा तब समझो परिवर्तन। जैसे अनुभव करती हो ना - भक्ति मार्ग जैसे पिछले जन्म की बातें। इस जन्म में कब घंटी बजावेंगे वा माला सुमिरण करेंगे? पास्ट लाइफ पर हंसी आवेगी। वैसे यह भी क्या है? अगर समझो, किसी के अवगुण वा ऐसी चलन का सुमिरण करती हो तो यह भी भक्ति हुई ना? जैसे बाप के गुणगान करना, सुमिरण करना वह माला हुई, अगर किसी के अवगुण वा ऐसी देखी हुई बातों का सुमिरण करती हो तो वह भी भक्ति मार्ग दुर्गति की माला फेरती हो। मन में संकल्प करना, यह भी जाप हुआ ना। जैसे वह अजपाजाप करते रहते हैं, वैसे संकल्प चलते रहते हैं, बंद नहीं होते। तो यह भी जाप हुआ। यह है भक्ति के दुर्गति की रस्म। एक दो को सुनाते हो, यह घंटियां बजाती हो -- फलानी ने यह किया, यह किया। यह भक्ति, दुर्गति की रस्म है। मधुबन निवासी तो ज्ञान स्वरूप हैं ना। कोई भी दुर्गति की रीति-रस्म चाहे स्थूल, चाहे सूक्ष्म है, उनसे वैराग्य आना चाहिए। जैसे भक्ति के स्थूल साधनों से वैराग्य आ गया नॉलेज के आधार पर, वैसे इन भक्ति-मार्ग के रस्म से भी ऐसे वैराग्य आना चाहिए। इस वैराग के बाद ही याद की स्पीड बढ़ सकेगी। नहीं तो कितना भी पुरूषार्थ करो। जैसे भक्त लोग कितना भी पुरूषार्थ करते हैं भगवान की याद में बैठने का, बैठ सकते हैं? कितना भी अपने को मारते हैं, कष्ट करते हैं, भिन्न रीति से समय देते हैं, सम्पत्ति लगाते हैं, फिर भी हो सकता है? यहां भी अगर दुर्गति मार्ग की रीति-रस्म है तो याद की यात्रा की स्पीड़ बढ़ नहीं सकती, अटूट याद हो नहीं सकती। घंटिया बजाना आदि छूट गया कि स्थूल रूप में छोड़ सूक्ष्म रूप ले लिया? भक्तों को तो खूब चैलेंज करते हो कि टाइम वेस्ट, मनी वेस्ट करते हो। अपने को चेक करो - कहां तक ‘ज्ञानी तू आत्मा’ बने हो? ‘ज्ञानी तू आत्मा’ का अर्थ ही है हर संस्कार, हर बोल ज्ञान सहित हो। कर्म भी ज्ञान-स्वरूप हो। इसको ‘ज्ञानी तू आत्मा’ कहा जाता है। आत्मा में जैसे-जैसे संस्कार हैं वह आटोमेटिकली वर्क करते हैं। ‘ज्ञानी तू आत्मा’ के नेचरल कर्म, बोल ज्ञान-स्वरूप होंगे। तो अपने को देखो - ‘ज्ञानी तू आत्मा’ बने हैं? भक्ति अर्थात् दुर्गति में जाने का रा भी नाम-निशान न होना चाहिए। जैसे आप लोग कहते हो - जहां ज्ञान है वहां भक्ति नहीं, जहां भक्ति है वहां ज्ञान नहीं। रात और दिन की मिसाल देकर बताती हो ना। तो भक्तिपन के संस्कार स्थूल व सूक्ष्म रूप में भी न हों। ज्ञान के संस्कार भी बहुत समय से चाहिए ना। बहुत समय से अभी संस्कार न भरेंगे तो बहुत समय राज्य भी नहीं करेंगे। अन्त समय भरने का पुरूषार्थ करेंगे तो राज्य-भाग्य भी अंत में पावेंगे। अभी से करेंगे तो राज्य-भाग्य भी आदि से पावेंगे। हिसाब-किताब पूरा है। जितना और उतना। मधुबन निवासियों को तो लिफ्ट है और एकस्ट्रा गिफ्ट है क्योंकि सामने एग्जाम्पल है, सभी सहज साधन हैं। सिर्फ कारण को निवारण में परिवर्तन कर दो तो मधुबन निवासियों को जो गिफ्ट है उनसे अपने को बहुत परिवर्तित कर सकते हैं। सदैव आपके सामने निमित्त बनी हुई मूर्तियां एग्जाम्पल हैं। शक्तियों का संकल्प भी पावरफुल होता है, कमजोर नहीं। जो चाहे सो करें, ऐसे को शक्ति सेना कहा जाता है। यहां तो बहुत सहज साधन है। काम किया और अपने पुरूषार्थ में लग गये। मधुबन निवासियों से ही मधुबन की शोभा है। फिर भी बहुत लक्की हो। अपने को जानो न जानो, फिर भी लक्की हो। कई बातों से बचे हुए हो। स्थान के महत्व को, संग के महत्व को, वायुमण्डल के महत्व को भी जानो तो एक सेकेण्ड में महान् बन जावेंगे। कोई बड़ी बात नहीं। माला फिक्स नहीं है। सभी को चाँस है। अब देखेंगे प्रैक्टिकल में क्या परिवर्तन दिखाते हैं? उम्मीदवार तो हो ना? अच्छा।



04-12-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


महावीर आत्माओं की रूहानी ड्रिल

स समय सभी कहां बैठे हो? साकारी दुनिया में बैठे हो वा आकारी दुनिया में बैठे हो? आकारी दुनिया में, इस साकार दुनिया के आकर्षण से परे अपने को अनुभव करते हो वा आकारी रूप में स्थित होते साकारी दुनिया की कोई भी आकर्षण अपनी तरफ आकर्षित नहीं करती है? साकारी दुनिया के भिन्न-भिन्न प्रकार के आकर्षण से एक सेकेण्ड में अपने को न्यारा और बाप का प्यारा बना सकते हो? कर्म करते हुये कर्मबंधनों से परे, बंधनयुक्त से बंधनमुक्त स्थिति अनुभव करते हो? अभी-अभी आप रूहानी महावीर महावीरनियों को डायरेक्शन मिले कि शरीर से परे अशरीरी, आत्म- अभिमानी, बंधनमुक्त, योगयुक्त बन जाओ; तो एक सेकेण्ड में स्थित हो सकते हो? जैसे हठयोगी अपने श्वास को जितना समय चाहें उतना समय रोक सकते हैं। आप सहज योगी, स्वत: योगी, सदा योगी, कर्म योगी, श्रेष्ठ योगी अपने संकल्प को, श्वास को प्राणेश्वर बाप के ज्ञान के आधार पर जो संकल्प, जैसा संकल्प जितना समय करना चाहो उतना समय उसी संकल्प में स्थित हो सकते हो? अभी-अभी शुद्ध संकल्प में रमण करना, अभी-अभी एक संकल्प में स्थित होना - यह प्रैक्टिस सहज कर सकते हो? जैसे स्थूल में चलते-चलते अपने को जहां चाहें रोक सकते हो। अचल, अडोल स्थिति का जो गायन है वह किन्हों का है? तुम महावीर-महावीरनियां श्रीमत पर चलने वाले श्रेष्ठ आत्मायें हो ना। श्रीमत के सिवायय् और सभी मतें समाप्त हो गई ना। कोई और मत वार तो नहीं करती? मनमत भी वार न करे। शास्त्रवादियों की मतें, गुरूओं की मत, कलियुगी संबंधियों की मत - यह तो समाप्त हो ही गई। लेकिन मनमत अर्थात् अपनी अल्पज्ञ आत्मा के संस्कारों के अनुसार संकल्प उत्पन्न होता है और उस संकल्प को वाणी वा कर्म तक भी लाते हैं; तो उसको क्या कहेंगे? इसको श्रीमत कहेंगे? वा व्यर्थ संकल्पों की उत्पत्ति को श्रीमत कहेंगे? तो श्रीमत पर चलने वाले एक संकल्प भी मनमत वा आत्माओं के मत अर्थात् परमत पर नहीं कर सकते। स्थिति की स्पीड तेज न होने कारण कुछ न कुछ श्रीमत में मनमत वा परमत मिक्स होती है। जैसे स्थूल कार चलाते हो, पैट्रोल के अंदर अगर रा भी कुछ किचड़ा मिक्स हो जाता, रिफाइन नहीं होता है तो स्पीड नहीं पकड़ेगी। ऐसे ही यहां भी स्पीड नहीं बढ़ती। चेक करो वा कराओ कि कहीं मिक्स तो नहीं है? यह मिक्स, फिक्स होने नहीं देती, डगमग होती रहती है। श्रेष्ठ आत्माएं, पद्मापद्म भाग्यशाली आत्माएं एक कदम भी पद्मों की कमाई के बिना नहीं गंवाते हैं। रूहानी ड्रिल आती है ना। अभी-अभी निराकारी, अभी-अभी आकारी, अभी-अभी साकारी कर्मयोगी। देरी नहीं लगनी चाहिए। जैसे साकार रूप अपना है वैसे ही निराकारी, आकारी रूप भी अपना ही है ना। अपनी चीज़ को अपनाना, उसमें देरी क्या? पराई चीज़ को अपनाने में कुछ समय लगेगा, सोच चलेगा लेकिन यह तो अपना ही असली स्वरूप है। जैसे स्थूल चोले को कर्त्तव्य के प्रमाण धारण करते हो और उतार देते हो, वैसे ही इस साकार देह रूपी चोले को कर्त्तव्य के प्रमाण धारण किया और न्यारा हुआ। लेकिन जैसे स्थूल वस्त्र भी अगर टाइट होते हैं तो सहज उतरते नहीं हैं, ऐसे ही अगर आत्मा का यह देह रूपी वस्त्र देह के, दुनिया के, माया के आकर्षण में टाइट अर्थात् खिंचा हुआ है तो सरल उतरेगा नहीं अर्थात् सहज न्यारा नहीं हो सकेंगे। समय लग जाता है। थकावट होती है। कोई भी कार्य जब सम्भव नहीं होता है तो थकावट वा परेशानी हो ही जाती है। परेशानी कभी एक ठिकाने टिकने नहीं देती। तो यह भक्ति का भटकना क्यों शुरू हुआ? जब आत्मा इस शरीर रूपी चोले को धारण करने और न्यारे होने में असमर्थ हो गई। यह देह का भान अपने तरफ खैंच गया तब परेशान होकर भटकना शुरू किया। लेकिन अब आप सभी श्रेष्ठ आत्माएं इस शरीर के आकर्षण से परे एक सेकेण्ड में हो सकते हो, ऐसी प्रैक्टिस है? प्रैक्टिस की परीक्षा का समय कौन-सा होता है? जब कर्मभोग का जोर होता है। कर्मेन्द्रियां बिल्कुल कर्मभोग के वश अपने तरफ आकर्षण करें, जिसको कहा जाता है बहुत दर्द है। कहते हैं ना - बहुत दर्द है, इसलिये थोड़ा भूल गई। लेकिन यह तो टग ऑफ वार ( Tug of War; रस्सा-कशी) का समय है, ऐसे समय कर्मभोग को कर्मयोग मे परिवर्तन करने वाले, साक्षी हो कर्मेन्द्रियों को भोगवाने वाले जो होते हैं, उनको ही अष्ट रत्न कहा जाता है, जो ऐसे समय विजयी बन दिखाते हैं। क्योंकि अष्ट रत्नों में सदैव अष्ट शक्तियां कायम रहती हैं। ऐसे अष्ट ही भक्तों को अल्पकाल की शक्तियों का वरदान देने वाले इष्ट बनते हैं।

ऐसे अष्ट भुजाधारी अर्थात् अष्ट शक्ति सम्पन्न, शक्ति रूप महावीर- महावीरनियां, एक सेकेण्ड में संकल्प को कंट्रोल करने में सर्वश्रेष्ठ आत्माएं, सर्व आत्माओं को बाप का परिचय दिलाने वाली आत्माएं, बिछुड़ी हुई आत्माओं को बाप से मिलाने वाली आत्माएं, प्यासी आत्माओं को सदाकाल के लिये तृत्प करने वाली आत्माएं, बंधनमुक्त, योगयुक्त, युक्तियुक्त, जीवनमुक्त आत्माओं को याद-प्यार और नमस्ते।

मेला अर्थात् मिलन। यहां अंतिम मेला कौन-सा होगा? संगम की बात सुनाओ। कर्मातीत अवस्था भी तब होगी जब पहले मेला होगा। बाप के संस्कार, बाप के गुण, बाप के कर्त्तव्य की स्पीड और बाप के अव्यक्त निराकारी स्थिति की स्टेज - सभी में समानता का मेला लगेगा। जब आत्माएं बाप की समानता के मेले को मनावेंगी तब जय-जयकार होगी, विनाश के समीप आवेंगे। बाप की समानता ही विनाश को समीप लावेगी। मेला लगने के बाद क्या होता है? अति शांति। तो आत्माएं भी मेला मनावेंगी, फिर वानप्रस्थ में चली जावेंगी। वानप्रस्थ कहो अथवा कर्मातीत कहो, लेकिन पहले यह मेला होगा। अच्छा!



24-12-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


संगमयुगी श्रेष्ठ आत्माओं की ज़िम्मेवारी

भी विधाता, विधान और विधि को अच्छी रीति से जान चुके हो? अगर विधाता को जाना तो विधान और विधि स्वत: ही बुद्धि में वा कर्म में आ जाती है। विधाता द्वारा आप सभी श्रेष्ठ आत्माएं विधान बनाने वाली बनी हो, ऐसा अपने को समझ कर हर कर्म करते हो? क्योंकि इस समय तुम ब्राह्मणों का जो श्रेष्ठ कर्म है वही विश्व के लिये सारे कल्प के अंदर विधान बन जाता है। आप ब्राह्मणों के कर्म इतने महत्वपूर्ण हैं! ऐसे अपने हर कर्म को महत्वपूर्ण समझ कर करते हो? अपने को विधान के रचयिता समझ करके हर कर्म करना है। सभी रीति-रस्म कब से और किन्हों द्वारा शुरू होते हैं, जो फिर सारे कल्प में चलते आते हैं? इस समय आप ब्राह्मणों की जो रीति-रस्म, रिवाज प्रैक्टिकल जीवन के रूप में चलता है वह सदा के लिये अनादि विधान बन जाता है, ऐसे समझ कर हर कर्म करने से कभी भी अलबेलापन नहीं आवेगा। इस विधिपूर्वक स्मृतिस्वरूप होकर चलना है। इतनी बड़ी जिम्मेवारी समझ कर कर्म करना है-यह स्मृति रहती है? संगमयुग की यही विशेषता है जो हरेक श्रेष्ठ आत्मा को जिम्मेवारी मिली हुई है। ऐसे नहीं कि किन्हीं विशेष आत्माओं की जिम्मेवारी है, हम उन्हों के बनाये हुये विधान पर चलने वाले हैं। नहीं, हरेक आत्मा विधान बनाने वाली है, इस निश्चय से हर कर्म की सम्पूर्ण सिद्धि को पा सकेंगे। क्योंकि अपने को विधान के रचयिता समझ कर हर कर्म यथार्थ विधि से करेंगे। यथार्थ विधि की सम्पूर्ण सिद्धि अवश्य प्राप्त होती है। सिद्धि को पाने के लिए सिर्फ एक बात बुद्धि में स्पष्ट आ जाये तो सहज ही विधि को पा सकते हो। वह कौनसी बात? यह स्मृति भी विस्मृति में क्यों आ जाती है? निमित्त क्या बात बनती है? सिर्फ एक युक्ति आ जाये तो विस्मृति से सदा के लिए सहज ही मुक्त हो सकते हैं, वह कौनसी युक्ति है? कोई भी बात सामने विघ्न रूप में आती है, इस आई हुई बात को परिवर्तन करना - यह युक्ति अ जाये तो सदा विघ्नों से मुक्त हो सकते हैं। विस्मृति के कारण स्मृति, वृत्ति, दृष्टि और संपर्क बनता है। इन सभी को परिवर्तन करना आ जाये तो परिपक्वता आ जावेगी। कोई भी व्यर्थ स्मृति आती है, देह वा देह के संबंध, देह के पदार्थों की स्मृति को परिवर्तन करना आ जाये तो परिपक्व स्थिति नहीं बन जायेगी? ऐसे ही वृत्ति वा दृष्टि को परिवर्तन करना आ जाये, संपर्क का परिवर्तन करना आ जाये तो सम्पूर्णता के समीप आ जावेंगे ना। परिवर्तन करने का तरीका नहीं आता है। देह की दृष्टि के बजाय देही की दृष्टि परिवर्तन करना, व्यक्त संपर्क को अव्यक्त-अलौकिक संपर्क में परिवर्तन करना - इसी में ही कमी होने से संपूर्ण स्टेज को नहीं पा सकते। देखना चाहिए कि प्रकृति में भी परिवर्तन करने की शक्ति है। साईंस प्रकृति की शक्ति है। जब प्रकृति की शक्ति साईंस वस्तु को एक सेकेण्ड में परिवर्तन कर सकती है। गर्म को शीतल, शीतल को गर्म बना सकती है। साईंस में यह शक्ति है ना। गर्म वातावरण को शीतल और शीतल वातावरण को गर्म बना देती है। प्रकृति की पावर वस्तु को परिवर्तन कर सकती है। तो परमात्म-शक्ति या श्रेष्ठ आत्मा की शक्ति अपनी दृष्टि, वृत्ति को परिवर्तन नहीं कर पाती है? अपनी ही वृत्ति, अपनी ही दृष्टि परिवर्तन न कर सकने के कारण अपने लिये विघ्न रूप बन जाते हैं। जबकि प्रकृति आपकी रचना है, आप तो मास्टर रचयिता हो ना। तो सोचो, जब मेरी रचना में यह पावर है और मुझ मास्टर रचयिता में यह पावर नहीं हो, यह श्रेष्ठ आत्मा का लक्षण है? आज प्रकृति की पावर एक सेकेण्ड में जो चाहे वह प्रैक्टिकल में करके दिखाती है। इसलिए आज की भटकी हुई आत्माएं परमात्म-शक्ति ईश्वरीय शक्ति वा साईंलेन्स की शक्ति को प्रैक्टिकल सबूत रूप में अर्थात् प्रमाण रूप में देखना चाहते हैं। कोई अपकार करे, आप एक सेकेण्ड में अपकार को उपकार में परिवर्तित कर लो। कोई अपने संस्कार वा स्वभाव के रूप में आपके सामने परीक्षा के रूप में आवे लेकिन आप सेकेण्ड में अपने श्रेष्ठ संस्कार, एक की स्मृति से ऐसी आत्मा के प्रति भी रहमदिल के संस्कार वा स्वभाव धारण कर सकते हो। कोई देहधारी दृष्टि से सामने आये आप एक सेकेण्ड में उनकी दृष्टि को आत्मिक दृष्टि में परिवर्तित कर लो। कोई गिराने की वृत्ति से, वा अपने संगदोष में लाने की दृष्टि से सामने आवे तो आप उनको सदा श्रेष्ठ संग के आधार से उसको भी संगदोष से निकाल श्रेष्ठ संग लगाने वाले बना दो। ऐसी परिवर्तन करने की युक्ति आने से कब भी विघ्न से हार नहीं खायेंगे। सर्व सम्पर्क में आने वाले आप की इस सूक्ष्म श्रेष्ठ सेवा पर बलिहार जावेंगे। जैसे बाप आत्माओं को परिवर्तित करते हैं तो बाप के लिये शुक्रिया गाते हो, बलिहार जाते हो, ऐसे सर्व सम्पर्क में आने वाली आत्माएं आप लोगों का शुक्रिया मानेंगी। एक ही सहज युक्ति है ना। वैसे भी कोई भी बात, कोई दृय्श्य, कोई भी चीज़ परिवर्तन तो होनी ही है। यह ड्रामा ही परिवर्तनशील है। लेकिन जैसे लोगों को कहते हो कि विनाश तो होना ही है, मुक्तिधाम में तो सभी को जाना ही है लेकिन अगर विनाश के पहले ज्ञान- योग के आधार से विकर्म विनाश कर देंगे तो सजाओं से छूट जावेंगे। जाना तो है ही, फिर भी जो करेगा सो पावेगा। इस प्रकार हर बात परिवर्तित होनी है लेकिन जिस समय आपके सामने वह बात विघ्न रूप बन जाती है उस समय अपनी शक्ति के आधार से एक सेकेण्ड में परिवर्तित कर दिया तो उस पुरूषार्थ करने का फल आपको प्राप्त हो जावेगा। परिवर्तन तो होना है लेकिन सही रूप में, श्रेष्ठ रूप में परिवर्तन करने से श्रेष्ठ प्राप्ति होती है। समय के आधार पर परिवर्तन हुआ तो प्राप्ति नहीं होगी। जो विघ्न आया है समय प्रमाण जावेगा रूर लेकिन समय से पहले अपने परिवर्तन की शक्ति से पहले ही परिवर्तन कर लिया तो इसकी प्राप्ति आपको ही हो जावेगी। तो यह भी नहीं सोचना कि जो आया है वह आपेही चला जावेगा, वा इस आत्मा का जितना हिसाब-किताब होगा वह पूरा हो ही जावेगा वा समय आपे ही सभी को सिखलावेगा। नहीं, मैं करूँगा मैं पाऊंगा। समय करेगा तो आप नहीं पावेंगे। वह समय की विशेषता हुई, न कि आपकी। समय पर जो भी बात स्वत: होती है उसका गायन नहीं होता लेकिन बिना समय के आधार से कोई कार्य करता है तो कमाल गाई जाती है। मौसम के फल की इतनी वैल्यू नहीं होती है लेकिन उस फल को बगैर मौसम प्राप्त करो तो वैल्यू हो जाती है। तो समय आपेही सम्पूर्ण बना देगा, यह भी नहीं। सम्पूर्ण बन समय को समीप लाना है। समय रचना है, आप रचयिता हो। रचयिता रचना के आधार पर नहीं होते। रचयिता रचना को अधीन करते हैं। तो ऐसे परिवर्तन करने की शक्ति धारण करो। आज एक छोटी-सी मशीनरी चीज़ को कितना परिवर्तन कर देती है! बिल्कुल बेकार चीज़ काम वाली बना देती है, पुरानी को नया बना देती है। तो आपकी सर्वश्रेष्ठ शक्ति की सूक्ष्म मशीनरी अपनी वृत्ति, दृष्टि वा दूसरे की वृत्ति, दृष्टि को परिवर्तित नहीं कर सकती? फिर यह कब भी मुख से न निकलेगा कि यह हुआ, यह हुआ। कोई बहाना नहीं लगावेंगे। यह भी बहाने हैं। अपने आपको सेफ रखने के भिन्न-भिन्न बहाने होते हैं। सुनाया था ना कि संगमयुग में ब्राह्मणों को सभी से जास्ती यह बाजी आती है। इसी से ही परिवर्तन करना है। सर्व के संस्कारों को बदलना है, यही लक्ष्य ब्राह्मणों की जीवन का आधार है। दूसरे बदलें तब हम बदलें, ऐसे नहीं। हम बदल कर औरों को बदलें, सदा इसमें अपने को आगे करना चाहिए। दूसरा बदले न बदले, मैं बदल जाऊंगी। तो दूसरा स्वत: ही बदल जावेगा। तो आप बदलने वाले हो, विश्व को परिवर्तन करने वाले हो न कि कोई बात में स्वयं परिवर्तित होने वाले हो, ऐसा लक्ष्य सदा स्मृति में रखते हुए अपने आपको परिपक्व बनाओ। अब समय समीपता की घंटियां बजा रहा है। आप लोग भी जोर-शोर से बाप के परिचय का प्रत्यक्ष सबूत दिखाने का पुरूषार्थ करो। जो पालना ली है उस पालना का फल दिखाओ। व्यक्त साकार रूप द्वारा शिक्षा और पालना मिली। अव्यक्त रूप द्वारा भी बहुत ही शिक्षा की पालना मिली। अब कौनसा समय है? अभी तक पालना ही लेनी है कि पालना का फल दिखाना है? अब तो ड्रामा का यह पार्ट ही दिखा रहा है। जैसे सतयुग में मां-बाप पालना कर राजभाग के अधिकारी बनाकर, तख्तनशीन बनाकर राजतिलक दे अर्थात् ज़िम्मेवारी का तिलक दे स्वयं साक्षी हो देखते हैं। साथ होते भी साक्षी हो देखते हैं। तो यह विधान भी कहां से शुरू होगा? अब भी बापदादा इस विश्व सेवा के ज़िम्मेवारी का तिलक दे स्वयं साक्षी हो देखते हैं। साक्षी हैं ना। साथ होते भी साक्षी हैं। अभी का वर्ष और भी साक्षी बनने का है। यह अव्यक्त रूप का मिलन व्यक्त द्वारा भी कब तक! इसलिये इस नये वर्ष में अव्यक्त स्थिति में स्थित कराने की वा अनुभव कराने की ड्रिल सिखला रहे हैं, जो अव्यक्त बन अव्यक्त बाप से अव्यक्त मिलन मना सकें। कोई भी पार्ट सदा एक जैसे नहीं चलता, बदलता है आगे बढ़ाने लिए। तो अब बापदादा विशेष व्यक्त रूप में अव्यक्त मुलाकात करने का सहज वरदान दे रहे हैं। इस नये वर्ष के पहले मास को विशेष वरदान है ड्रामा प्लैन अनुसार, जो अव्यक्त स्थिति का, बाप से मीठी- मीठी रूह रूहान करने का पुरूषार्थ करेगा उस पुरुषार्थी आत्मा को वा लगन लगाने वाली आत्मा को, सच्चे दिल से बाप से प्राप्ति करने वाली आत्मा को सहज ही वरदान के रूप में अव्यक्ति अनोखे अनुभव प्राप्त होंगे। इसलिये अब व्यक्त द्वारा अव्यक्त मिलन भी समाप्त होता जावेगा। फिर क्या करेंगे? मिलन नहीं मनावेंगे? अल्पकाल के मिलन के बजाय सदाकाल के मिलन के अनुभवी बन जायेंगे। ऐसे अनुभव करेंगे जैसे बिल्कुल समीप, सम्मुख मिलन मना रहे हैं। समझा? इस नये वर्ष में हरेक की लग्न के प्रमाण कई अलौकिक अनुभव हो सकते हैं। इसलिए विघ्न-विनाशक बन लग्न में मग्न रहना। लग्न से यह विघ्न भी अपना रूप बदल देंगे। विघ्न, विघ्न नहीं अनुभव होंगे लेकिन विघ्न विचित्र अनुभवीमूर्त बनाने के निमित्त बने हुए दिखाई देंगे। विघ्न भी एक खेल दिखाई देंगे। बड़ी बात छोटी-सी अनुभव होगी। ‘कैसे’ शब्द बदल ‘ऐसे’ हो जावेगा। ‘पता नहीं’ शब्द बदल ‘सभी पता है’ अर्थात् नॉलेजफुल बन जावेंगे। तो इस वर्ष को विशेष पुरूषार्थ में तीव्रता लाने का वर्ष समझ मनाना। स्वयं को परिवर्तित कर विश्व को परिवर्तन करने का विशेष वर्ष मनाना। अच्छा!

ऐसे विधान, विधि और विधाता को जानने वाले तीव्र पुरुषार्थी, परिवर्तन करने वाले परिपक्व आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।