18-01-76 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
समर्थी दिवस के रूप में स्मृति-दिवस सर्व आत्माओं के परम स्नेही परमपिता शिव बोले:-
आज बाप-दादा अपने सर्व लवलीन बच्चों को देख बच्चों के स्नेह का रेसपान्स दे रहे हैं। सदा बाप-समान विधाता और वरदाता भव! सदा विश्व-कल्याणकारी, विश्व के राज्य-अधिकारी भव! सदा माया, प्रकृति और सर्व परिस्थितियों के विजयी भव! आज बाप-दादा सर्व विजयी बच्चों के मस्तक के बीच विजय का तिलक चमकता हुआ देख रहे हैं। सर्व बच्चों के हस्तों में यही विजय का झण्डा देख रहे हैं। हर-एक के दिल की आवाज ‘विजय हमारा जन्म-सिद्ध अधिकार है’ - यह नारा गूंजता हुआ सुन रहे हैं। आज अमृतवेले सर्व बच्चों के स्नेह और आह्वान के मीठे-मीठे आलाप सुन रहे थे। दूर-दूर बिछुड़ी हुई, तड़पती हुई गोपिकायें नदी के समान सागर में समा रही थीं। बापदादा भी बच्चों के स्नेह के स्वरूप में समा गये। हर-एक के मीठे-मीठे मोती ह्दय का हार बन बाप-दादा के गले में समा गये। हर-एक के भिन्न-भिन्न संकल्प, वैरायटी, मधुर साजों के रूप में सुनाई दे रहे थे। अभी-अभी चारों ओर बाप-दादा को याद की मालायें अनेक बच्चे डाल रहे हैं। आज के दिन को ‘स्मृति दिवस’ के साथ-साथ ‘समर्थी-दिवस’ भी कहते हैं। आज के इस यादगार दिवस पर बाप-दादा ने जैसे आदि में बच्चों के सिर पर ज्ञान-कलश रखा, साकार द्वारा शक्तियों को तन, मन, धन विल (Will) किया, वैसे ही साकार तन द्वारा साकार पार्ट के अन्तिम समय शक्ति सेना को विश्व-कल्याण के विल-पॉवर की विल की। स्वयं सूक्ष्मवतन निवासी बन साकार में बच्चों को निमित्त बनाया। इसीलिये यह समर्थी-दिवस है।
आज बाप सर्व बच्चों के स्नेह में, आवाज से परे स्वयं में समाने जा रहा है। इस समय चारों ओर सबका फुल-फोर्स से उलाहने और आह्वान के मन का आवाज़ आ रहा है। सब स्वयं में समाने जा रहे हैं। आप सबको सुनाई दे रहा है? नये-नये बच्चों को विशेष रूप से बाप-दादा याद का रिटर्न दे रहे हैं। जैसे पुराने बच्चों को डबल इन्जन की लिफ्ट मिली, वैसे नये बच्चों को गुप्त मदद की प्राप्ति के अनुभव की, खुशी के खजाने की विशेष लिफ्ट, (Lift) बाप-दादा गिफ्ट (Gift) में दे रहे हैं। उनके अनेक उलाहनों को सेवा और सदा साथ के अनुभव द्वारा उलाहने उमंग-उत्साह के रूप में परिवर्तन कर रहे हैं। जैसे नये बच्चों का विशेष लगाव बाप और सेवा से हैं, वैसे बापदादा की भी विशेष सहयोग की नजर नये बच्चों पर है। बाप भी ऐसे बच्चों की कमाल के गुण गा रहे हैं। अच्छा!
सर्व स्नेही, सदा एक बाप के लव में लीन रहने वाले, बाप-दादा को प्रख्यात करने वाले, सर्व आत्माओं द्वारा जय-जयकार की विजय मालायें धारण करने के निमित्त बने हुए, ऐसे विजयी, बाप-समान सर्व गुणों को साकार रूप में प्रत्यक्ष करने वाले, सर्व सिद्धियों को सेवा प्रति लगाने वाले, ऐसे विश्व-कल्याणकारी बाप-दादा के भी दिलतख्त अधिकारी बच्चों को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
दीदी जी तथा वत्सों को सामने देख बाप-दादा बोले –
‘‘आज बच्चों का विशेष स्वरूप कौन-सा रहा? स्नेह के स्वरूप के साथ-साथ उलाहने भी दिये। जैसे बाप ज्ञान का सागर है, तो सागर की विशेषता क्या होती है? जितनी लहरें, उतना ही शान्त। लेकिन एक ही समय दोनों विशेषतायें हैं। वैसे ही बाप के समान बनने वालों की भी यह विशेषता है कि बाहर से स्मृति-स्वरूप और अन्दर से समर्थी-स्वरूप। जितना ही साकार स्वरूप में स्मृति-स्वरूप उतना ही अन्दर समर्थी स्व रूप हो। दोनों का साथ-साथ बैलेन्स हो। ऐसा बैलेन्स रहा? जैसा समय व जैसा दिन वैसा स्वरूप तो होता ही है। लेकिन अलौकिकता यह है कि दोनों के बैलेन्स का स्वरूप स्पष्ट दिखाई दे। पार्ट भी बजा रहे हैं, लेकिन साथ-साथ साक्षीपन की स्टेज भी हो। ‘साक्षीपन’ की स्टेज होने से पार्ट भी एक्यूरेट (Accurate) बजायेंगे। लेकिन पार्ट का स्वरूप नहीं बन जायेंगे अर्थात् पार्ट के वश नहीं होंगे। विल-पॉवर होगी।
जो चाहें, जिस घड़ी चाहें, वैसा अपना स्वरूप धारण कर सकते हो। इसको कहते हैं विल-पॉवर। प्रेम-स्वरूप में भी शक्तिशाली-स्वरूप साथ-साथ समाया हुआ हो। सिर्फ प्रेम-स्वरूप बन जाना - यह लौकिकता हो गई। अलौकिकता यह है कि जो प्रेम-स्वरूप के साथ-साथ शक्तिशाली स्वरूप भी रहे। इसलिए शक्तिशाली स्वरूप का अन्तिम दृश्य ‘नष्टोमोह: स्मृति-स्वरूप’ का दिखाया है। जितना ही अति स्नेह, उतना ही अति नष्टोमोह:। तो लास्ट पेपर क्या देखा? स्नेह होते हुए भी नष्टोमोह: स्मृति-स्वरूप। यही लास्ट पेपर यादगार में भी गायन रूप में है, यही प्रैक्टिकल कर्म करके दिखाया। साकार सम्बन्ध सम्मुख होते हुए समाने की भी शक्ति और सहन करने की भी शक्ति। यही दोनों शक्तियों का स्वरूप देखा। एक तरफ स्नेह को समाना, दूसरे तरफ रहा हुआ लास्ट का हिसाब-किताब सहन शक्ति से समाप्त करना। समाना भी और सहन भी करना-दोनों का स्वरूप कर्म में देखा। क्या बाप का बच्चों में स्नेह नहीं होता? स्नेह का सागर होते हुये भी शान्त! अपने शरीर से भी उपराम! यही लास्ट स्टेज है। यह प्रैक्टिकल में कर्म करके दिखलाया। यही (रात्रि का) समय था ना। लास्ट पेपर को फर्स्ट नम्बर में प्रैक्टिकल में किया। स्वरूप में लाना सहज होता है, लेकिन समाना, इसमें विल-पॉवर चाहिये। सारा पार्ट समाने का देखा। कर्मभोग को भी समाना और स्नेह को भी समाना। यही विल-पॉवर है। यही विल-पॉवर अन्त में बच्चों को ‘विल’ की। अच्छा!
वाणी का सार
1. बाबा बोले - यह दिवस केवल स्मृति-दिवस नहीं, ‘समर्थी दिवस’ भी है क्योंकि स्वयं सूक्ष्मवतन निवासी बन बाबा ने साकार में बच्चों को निमित्त बनाया।
2. बाबा कहते हैं कि जैसे पुराने बच्चों को डबल इंजन की लिफ्ट मिली, वैसे नये बच्चों को गुप्त मदद, प्राप्ति के अनुभव की खुशी के खज़ाने की विशेष लिफ्ट बापदादा गिफ्ट में देते हैं।
3. जो चाहें जिस घड़ी चाहें, वैसा अपना स्वरूप धारण कर सको, इसको कहते हैं ‘विल पॉवर।’ प्रेम-स्वरूप में शक्तिशाली-स्वरूप भी साथ-साथ समाया हुआ हो - यही अलौकिकता है। सिर्फ प्रेम-स्वरूप बन जाना तो लौकिकता हो गई।
22-01-76 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
वर्तमान लास्ट समय का फास्ट पुरूषार्थ
विश्व कल्याणकारी, विश्व-सेवाधारी और आत्माओं को पद्मापद्म सौभाग्यशाली बनाने वाले भाग्य-विधाता परमात्मा शिव बोले:-
आज विशेष अति स्नेही, सिकीलधे, मिलन मनाने के चेतन चात्रक बच्चों के प्रति बाप-दादा मुखड़ा देखने के लिए आये हैं। ऐसे सदा मिलन के संकल्प में, सदा इसी लगन में लगे हुए बच्चे जितना बाप को याद करते हैं उतना बाप-दादा भी रिटर्न में करते हैं। ऐसे पद्मापद्म भाग्यशाली आत्मायें बाप को भी प्रिय हैं और विश्व की भी प्रिय हैं। जैसे बच्चे बाप का आह्वान करते हैं, वैसे विश्व की आत्मायें आप सब सर्वश्रेष्ठ आत्माओं का आह्वान कर रही हैं। ऐसे आह्वान के आलाप कानों में सुनाई देते हैं? विशेष इस नुमाः शाम के समय जब सूर्य अस्त होता है, ऐसे समय पर बाप के साथसाथ ज्ञान-सूर्य के साथ लक्की सितारों को, अन्धकार को मिटाने वाले, ज्योति-स्वरूप समझकर इस हद की लाइट को नमस्कार करते हैं। यह किस की यादगार है? अनुभव होता है कि रोज़ आप श्रेष्ठ आत्माओं को नमस्कार हो रहा है? क्योंकि बाप भी ऐसी श्रेष्ठ आत्माओं व विश्व एवं ब्रह्माण्ड की मालिक आत्माओं को रोज नमस्कार करते हैं। तो विश्व की आत्माओं ने भी रोज़ नमस्कार करने का नियम बना लिया है। ऐसे नमस्कार- योग्य स्वयं को अनुभव करते हो? ऐसे तो नहीं समझते हो कि यह गायन व पूजन तो पुरानों व अनन्य वत्सों का है?
नये-नये, तीव्र पुरूषार्थ से चलने वाले, बाप-दादा के नयनों में विशेष समाये हुए हैं। जैसे बच्चों के नयनों में सदा बाप समाया हुआ है, सदा साथ का और समीप का अनुभव करते हैं। ऐसे देरी से आते हुए भी दूर नहीं, समीप हैं। इसलिए लास्ट में आने वाले बच्चों को ड्रामा अनुसार हाई जम्प द्वारा फास्ट (Fast) अर्थात् फर्स्ट (First) जाने का गोल्डन चॉन्स विशेष मिला हुआ है। ऐसे गोल्डन चान्स को सदा स्मृति में रखते हुए फुल अटेन्शन रखो। बाप-दादा भी नये बच्चों के उमंग, उत्साह और हिम्मत को देख हर्षित भी होते हैं और साथ-साथ सहयोग और विशेष स्नेह भी दे रहे हैं।
अब इस वर्ष विश्व की आत्माओं की अनेक प्रकार की इच्छाएं अर्थात् कामनायें पूर्ण करने का दृढ़ संकल्प धारण करो। औरों की इच्छायें पूर्ण करना अर्थात् स्वयं को ‘इच्छा मात्रम् अविद्या’ बनाना। जैसे देना अर्थात् लेना है, ऐसे ही दूसरों की इच्छायें पूर्ण करना अर्थात् स्वयं को सम्पन्न बनाना है। वर्तमान लास्ट समय का फास्ट पुरूषार्थ यह है - एक ही समय में डबल कार्य करना है; वह कौनसा? अन्य के प्रति देना, अर्थात् स्वयं में भी वह कमी भरना, अर्थात् अन्य को बनाना ही बनना है। जैसे भक्ति-मार्ग में जिस वस्तु की कमी होती है उसी वस्तु का दान करते हैं; तो दान देने से उस वस्तु की कभी कमी नहीं रहेगी। तो देना अर्थात् लेना हो जाता है। ऐसे ही जिस सब्जेक्ट में, जिस विशेषता में, जिस गुण की स्वयं में कमी महसूस करते हो उसी विशेषता व गुण का दान करो अर्थात् अन्य आत्माओं के प्रति सेवा में लगाओ; तो सेवा का रिटर्न प्रत्यक्ष फल वा मेवे के रूप में स्वयं में अनुभव करेंगे। सेवा अर्थात् मेवा मिलना। अब इतना समय पुरूषार्थ का नहीं रहा है जो पहले स्वयं के प्रति समय दो, फिर अन्य की सेवा के प्रति समय दो। फास्ट पुरूषार्थ अर्थात् स्वयं और अन्य आत्माओं की साथ-साथ सेवा हो। हर सेकेण्ड, हर संकल्प में स्वयं के कल्याण की और विश्व के कल्याण की साथ-साथ भावना हो। एक ही सेकेण्ड में डबल कार्य हो, तब ही डबल ताज-धारी बनेंगे। अगर एक समय में एक ही कार्य करेंगे तो स्वयं का व विश्व का; एक समय भी एक कार्य करने की प्रालब्ध नई दुनिया में एक लाइट का क्राउन अर्थात् पवित्र जीवन, सुख-सम्पत्ति वाला जीवन प्राप्त होगा। लेकिन राज्य का तख्त और ताज प्राप्त नहीं होगा अर्थात् प्रजा पद की प्रालब्ध होगी। तो डबल क्राउन प्राप्त करने का आधार हर समय डबल सेवा -- स्वयं की और अन्य आत्माओं की करो। यह है लास्ट सो फास्ट पुरूषार्थ। ऐसा फास्ट पुरूषार्थ करते हो? ऐसी चेकिंग विशेष रूप से वर्तमान समय करो। इस साधन द्वारा ही स्वयं का और समय का परिवर्तन करेंगे। अच्छा!
ऐसे सदा उम्मीदवार, स्वयं और विश्व के परिवर्तक, बाप-दादा के समान सदा विश्वकल्याण की शुभ भावना में रहने वाले, सर्व आत्माओं की सर्व कामनाएं सम्पन्न करने वाले तीव्र पुरुषार्थी, समय और संकल्प को सेवा में लगाने वाले विश्व-सेवाधारी, विश्वकल्याणकारी, सर्वश्रेष्ठ आत्माओं को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
इस मुरली का सार
1. सदा मिलन के संकल्प में, सदा इसी लगन में लगे हुए बच्चे जितना बाप को याद करते हैं उतना बाप-दादा भी रिटर्न में करते हैं। ऐसे पद्मापद्म भाग्यशाली आत्माएँ बाप को भी प्रिय हैं और विश्व को भी प्रिय हैं।
2. फास्ट पुरूषार्थ अर्थात् एक ही समय में डबल कार्य सिद्ध करना अर्थात् स्वयं और अन्य आत्माओं की सेवा हो, हर सेकेण्ड, हर संकल्प में स्वयं के कल्याण की और विश्व के कल्याण की साथ-साथ भावना हो।
22-01-76 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
परिवर्तन का मूल आधार- हर सेकेण्ड सेवा में बिज़ी रहना
विश्व-सेवाधारी, महादानी बनाने वाले, वरदाता शिव बाबा बोले –
महारथियों के रूह-रूहान में विशेष कौनसी रूह-रूहान चलती है? बहुत करके महारथियों के रूह-रूहान में यही बात निकलती है कि समय-प्रमाण परिवर्तन कैसे होना है? समय और स्वयं को देखते हुए यह प्रश्न उठता है कि क्या होगा? लेकिन परिवर्तन का मूल आधार है - हर सेकेण्ड सेवा में बिज़ी (Busy) रहना। हर महारथी के अन्दर सदा यह संकल्प रहे कि जो भी समय है, वह सेवा-अर्थ ही देना है। चाहे अपने देह व शरीर के आवश्यक कार्य में भी समय लगाते हो, तो भी स्वयं के प्रति लगाते हुए मन्सा विश्व-कल्याण की सेवा साथ-साथ कर सकते हैं। अगर वाचा और कर्मणा नहीं कर सकते तो मन्सा कल्याणकारी भावना का संकल्प रहे तो वह भी सेवा के सब्जेक्ट में जमा हो जाता है।
भक्ति-मार्ग में महादानी किसको कहा जाता है? जो स्वयं के प्रति नहीं बल्कि हर वस्तु, हर समय अन्य को दान-पुण्य करने में लगावे, उसको महादानी कहा जाता है। वर्ना तो दानी कहा जाता। जो अविनाशी दान करता ही रहे, सदा दान चलता रहे उसको कहा जाता है महादानी। ऐसे ही स्वयं के प्रति समय देते हुए भी सदा समझे कि मैं विश्व की सेवा पर हूँ। जब जैसे स्टेज पर बैठते हैं तो सारा समय विशेष अटेन्शन रहता है कि मैं इस समय सेवा की स्टेज पर हूँ; तो हल्कापन नहीं रहता है, सेवा का फुल अटेन्शन रहता है। ऐसे ही सदा अपने को सेवा की स्टेज पर समझो। इसी द्वारा ही परिवर्तन होगा। जो भी कुछ स्वयं में कमज़ोरी महसूस होती है वह सब इस सेवा के कार्य में निरन्तर रहने से सेवा के फलस्वरूप अन्य आत्माओं के दिल से आशीर्वाद की प्राप्ति या गुणगान होता है; उस प्राप्ति के आधार से खुशी और उसके आधार से और बिज़ी (Busy) रहने से वह कमी समाप्त हो जायेगी। तो परिवर्तन होने का साधन यही है जिसको ही एक-दूसरे में अटेन्शन (Attention) खिंचवाते प्रैक्टिकल में लाना है। तो याद की यात्रा में स्थित रहना - यह भी वर्तमान समय विश्व-कल्याणकारी की स्टेज प्रमाण सेवा में जमा हो जाता है। क्योंकि अब महारथियों की याद की यात्रा का समय सिर्फ स्वयं प्रति नहीं, याद की यात्रा का समय भी स्वयं के साथ-साथ सर्व के कल्याण व सर्व की सेवा के प्रति है। स्वयं का अनुभव करने का तो समय काफी मिला लेकिन अब महादानी और वरदानी की स्टेज है।
(अव्यक्त बाप-दादा ने पुन: पूछा) महारथी की परिभाषा क्या हुई? महारथी अर्थात् डबल ताजधारी अर्थात् डबल सेवाधारी। स्वयं की और सर्व की सेवा का बैलेन्स हो, उसको कहेंगे महारथी। बच्चों के बचपन का समय स्वयं के प्रति होता है और ज़िम्मेवार आत्माओं का समय सेवा प्रति होता है। तो घोड़ेसवार और प्यादों का समय स्वयं प्रति ज्यादा जायेगा। स्वयं ही कभी बिगड़ेंगे, कभी धारणा करेंगे, कभी धारणा में फेल होते रहेंगे। कभी तीव्र पुरूषार्थ में, कभी साधारण पुरूषार्थ में होंगे। कभी किसी संस्कार से युद्ध तो कभी किसी संस्कार से युद्ध। वे स्वयं के प्रति ज्यादा समय गँवायेंगे। लेकिन महारथी ऐसे नहीं करेंगे। जैसे बच्चे होते हैं - खिलौने से खेलेंगे भी, बनायेंगे भी और बिगाड़ेंगे भी। यह भी अपने संस्कार रूपी खिलौने से कभी खेलते, कभी बिगाड़ते, कभी बनाते हैं, कभी वशीभूत हो जाते हैं और कभी उसको वशीभूत कर लेते हैं। लेकिन यह बचपन की निशानी है, महारथी की नहीं। अच्छा!
23-01-76 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
संकल्प, वाणी और स्वरूप के हाईएस्ट और होलीएस्ट होने से
बाप की प्रत्यक्षताहाईएस्ट और होलीएस्ट शिव ब्रह्मा-वत्सों से बोले:-
अपने को हाईएस्ट और होलीएस्ट समझते हुए हर संकल्प व कर्म करते रहते हो? हाईएस्ट अर्थात् ऊँच से ऊँच ब्राह्मण। ब्राह्मणों को विराट रूप में चोटी का स्थान दिया गया है। जैसे स्थान ऊँच चोटी का है, वैसे ही स्थान के साथ-साथ स्थिति भी ऊँची है? जैसा ऊँचा नाम, वैसी ऊँची शान और वैसा ही ऊँचा काम। जैसे बाप के लिए गायन है - ऊँचे ते ऊँचा भगवान; वैसे बच्चों का भी गायन है - ऊँचे ते ऊँचे ब्राह्मण। इस ऊँची स्थिति का यादगार आज तक चला आया है कि जो कोई श्रेष्ठ कर्त्तव्य व शुभ कार्य करते हैं तो नामधारी ब्राह्मणों से ही कराते हैं। इस समय के श्रेष्ठ कर्म की यादगार अब भी चैतन्य सच्चे ब्राह्मण के रूप में देख और सुन रहे हो। श्रेष्ठ कर्म की महिमा व गायन भी सुन रहे हो, दूसरे तरफ स्वयं श्रेष्ठ पार्ट बजा रहे हो! यादगार और प्रैक्टिकल-दोनों साथ-साथ देख रहे हो। यादगार द्वारा भी सिद्ध होता है कि कितने ऊँचे थे, अब हैं और फिर होंगे। जैसे ब्राह्मण ऊँचे हैं, वैसे ही ब्राह्मणों का समय भी सब युगों में से सर्वश्रेष्ठ युग, अर्थात् संगमयुग का समय, अर्थात् अमृतवेला व ब्रह्ममुहूर्त का समय है। यह सर्वश्रेष्ठ स्थिति ब्राह्मणों की क्यों बनी? क्योंकि ब्राह्मण ही ऊँचे-से-ऊँचे अथवा श्रेष्ठ कर्त्तव्य में सहयोगी बनने का श्रेष्ठ भाग्य प्राप्त करते हैं। इतना अपना ऊँचा पार्ट, श्रेष्ठ बाप, श्रेष्ठ स्थान और श्रेष्ठ शान स्मृति में रहते हैं? इतना श्रेष्ठ भाग्य सारे कल्प के अन्दर फिर प्राप्त नहीं कर सकोगे। ऐसे हाईएस्ट और साथ-साथ होलीएस्ट का यादगार अब तक भी सुनते हो। लोग ब्राह्मणों की बजाय आपके देवता रूप का गायन करते हैं।
होलीएस्ट का कौनसा गायन है? कमल-नयन, कमल-हस्त, कमल-मुख के रूप में अब तक भी गायन करते रहते हैं। अब प्रैक्टिकल में चेक करो कि हर कर्म-इन्द्रिय कमल समान न्यारी बनी है? जैसे कमल सम्बन्ध और सम्पर्क में रहते हुए न्यारा है, ऐसे कर्मेन्द्रियाँ कर्म के और कर्म के फल के सम्पर्क में आते हुए न्यारी हैं? अर्थात् देह और देह के सम्बन्ध के, देह की इस पुरानी दुनिया के आकर्षण से परे हैं? कोई भी कर्म-इन्द्रिय का रस - देखने का, सुनने का, बोलने का अपने वशीभूत तो नहीं बनाता है? वशीभूत होने का अर्थ है होलीएस्ट से भूत बन जाना। जब भूत बन जाते हैं तो भूतों का कर्त्तव्य है - दु:खी होना और दु:खी करना। हाईएस्ट ब्राह्मण से शूद्र बन जाते हैं। इसलिये सदैव यह स्मृति में रखो कि ‘मैं हाईएस्ट और होलीएस्ट हूँ।’ जब यह प्रत्यक्ष रूप में अर्थात् संकल्प और स्वरूप में स्मृति रहेगी तब ही प्रत्यक्षता वर्ष मना सकेंगे। ऊँचे से ऊँचे बाप को प्रत्यक्ष करने के लिए जब तक स्वयं स्वरूप में होलीएस्ट और हाईएस्ट नहीं बने हैं तो बाप को प्रत्यक्ष कैसे करेंगे? स्वयं में बाप-समान गुण और कर्त्तव्य को प्रख्यात करना ही बाप को प्रत्यक्ष करना है। ऊँचे काम से ऊँचे बाप का नाम होगा। अपनी रूहानी मूरत से रूहानी बाप की प्रत्यक्षता करनी है जो हर आत्मा हर ब्राह्मण में ब्रह्मा बाप को देखे। रचना अपने रचयिता को दिखाये। हर एक के मुख से एक ही बोल निकले कि ‘स्वयं भगवान ने इन्हें इतना तकदीरवान बनाया है।’ हर-एक की तकदीर बाप-दादा की तस्वीर को प्रसिद्ध करे। हर एक अपने को ऐसा दिव्य-स्वच्छ दर्पण बनाओ कि हर दर्पण द्वारा अनेकों को बाप-दादा का साक्षात्कार हो। साक्षात् बाप समान की स्थिति ही बाप का साक्षात्कार करा सकती है।
प्रत्यक्षता वर्ष मनाने का अर्थ है स्वयं को बाप के समान बनाना। यह स्थूल साधन तो निमित्त मात्र साधन हैं। सदाकाल का साधन सिद्धि-स्वरूप का है। सिद्धि-स्वरूप ही स्वत: सिद्ध करेगा कि ऐसा ऊँचा बनाने वाला ऊँचे से ऊँचा भगवान् है। तो साधनों के साथ-साथ सिद्धि स्वरूप को अपनाओ। संकल्प, वाणी और स्वरूप - तीनों ही होलीएस्ट और हाईएस्ट हों। ऐसी स्टेज से ही बाप को प्रत्यक्ष कर सकोगे। बाप-दादा बच्चों का उमंग-उत्साह, श्रेष्ठ संकल्प, मेहनत और लगन को देख कर हर्षित भी होते हैं, लेकिन आगे के लिये सहयोग देने के लिये प्लैन बतला रहे हैं। सबका एक ही संकल्प है। एक संकल्प में महान् शक्ति है। एकरस स्थिति में स्थित हो इस संकल्प को स्वरूप में लाओ। कल्प-कल्प के विजय की तकदीर की तस्वीर का तो अब भी गायन है अथवा कायम है। अच्छा!
ऐसे अपने तकदीर द्वारा बाप-दादा की तस्वीर दिखाने वाले, सदा कमल के समान अल्पकाल के आकर्षण से परे रहने वाले, बाप-समान होलीएस्ट और हाईएस्ट स्वमान में स्थित रहने वाले, हर आत्मा में बाप के स्नेह को, स्वरूप को, और सम्बन्ध को प्रत्यक्ष करने वाले, सर्वश्रेष्ठ, ऊँचे से ऊँचे ब्राह्मणों को ऊँचे से ऊँचे बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते!
इस मुरली के विशेष ज्ञान-बिन्दु
अपने ऊँचे पार्ट, श्रेष्ठ बाप, श्रेष्ठ समय, श्रेष्ठ गायन, श्रेष्ठ कर्त्तव्य, श्रेष्ठ स्टेज, श्रेष्ठ स्थान, और श्रेष्ठ शान की स्मृति में रहना है।
23-01-76 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
लास्ट स्टेज का पुरूषार्थ
न्यारी ड्रिल सिखाने वाले, सुख-शान्ति के दाता, सर्व की मन की इच्छा पूर्ण करने वाले, दिव्य-ज्योतिर्बिन्दु-स्वरूप शिव बाबा बोले –
प्रत्यक्षता वर्ष मनाने के लिये सभी ने बाप-दादा को अखबारों और कार्डस द्वारा विशेष रूप से प्रत्यक्ष करने का प्रयत्न किया है। यह भी सेवा के आवश्यक साधन हैं। लेकिन यह अखबार व कार्डस आदि तो उस दिन देखा, पढ़ा व सुना; फिर स्मृति में समा जाते हैं। समाप्त तो नहीं कहेंगे क्योंकि समय पर यही स्मृति, जो अब समा गई, वह स्वरूप में आयेगी। इसलिये समाप्त नहीं कहेंगे। लेकिन समा गई कहेंगे। इससे भी धरनी में थोड़ा बहुत स्नेह का और परिचय का जल पड़ा। लेकिन इस बीज से प्रत्यक्षता का फल कैसे निकले? पानी तो डाला, किस लिये डाला? फल के लिये। वह फल कैसे निकलेगा अर्थात् संकल्प प्रैक्टिकल स्वरूप में कैसे आयेगा? इसके लिये सदैव तो कार्डस नहीं छपवाते रहेंगे?
आजकल मैजॉरिटी आत्माओं की इच्छा क्या है? सुख-शान्ति की प्राप्ति की इच्छा तो है, लेकिन विशेष जो भक्त आत्माएँ हैं उन्हों की इच्छा क्या है? मैजॉरिटी भक्तों की इच्छा सिर्फ एक सेकेण्ड के लिये भी लाइट देखने की है। तो वह इच्छा कैसे पूर्ण होगी? वह इच्छा पूर्ण करने के साधन ब्राह्मणों के नयन हैं। इन नयनों द्वारा बाप के ज्योतिस्वरूप का साक्षात्कार हो। यह नयन, नयन नहीं दिखाई देंगे अपितु लाइट का गोला दिखाई देंगे। जैसे आकाश में चमकते हुए सितारे दिखाई देते हैं, वैसे यह आंखों के तारे सितारे-समान चमकते हुए दिखाई दें। लेकिन वह तब दिखाई देंगे जब स्वयं लाइट-स्वरूप में स्थित रहेंगे। कर्म में भी लाइट अर्थात् हल्कापन और स्वरूप भी लाइट-स्टेज भी लाइट हो। जब ऐसा पुरूषार्थ व स्थिति व स्मृति-स्वरूप विशेष आत्माओं का रहेगा, तो विशेष आत्माओं को देख सर्व पुरूषार्थियों का भी यही पुरूषार्थ रहेगा। बार-बार कर्म करते हुए चेक करो कि कर्म में लाइट और हल्कापन है? कर्म का बोझ तो नहीं है? कर्म का बोझ अपने तरफ खींचेगा। अगर कर्म में बोझ नहीं तो अपने तरफ खिंचाव नहीं करेंगे बल्कि कर्मयोग में परिवर्तन हो जायेंगे।
तो प्रत्यक्षता वर्ष मनाने का स्वरूप और साधन यही सबकी बुद्धि में है ना? ऐसा प्लैन बनाया है ना? जैसे साकार में देखा कि जितना ही अति कर्म में आना, विस्तार में आना, रमणीकता में आना, सम्बन्ध और सम्पर्क में आना, उतना ही अभी-अभी सम्बन्ध-सम्पर्क में आते भी न्यारा बन जाना। जैसे सम्बन्ध व कर्म में आना सहज, वैसे ही न्यारा होना भी सहज। ऐसी प्रैक्टिस चाहिये। अति के समय एक सेकेण्ड में अति हो जाये। अभी-अभी अति, अभी-अभी अन्त। यह है लास्ट वर्ष का व लास्ट स्टेज का पुरूषार्थ। ऐसे प्लैन बनाओ। यह रिहर्सल (Rehearsal) करो और ड्रिल करो अति और अन्त की ड्रिल। अभी-अभी अति सम्बन्ध में और अभी-अभी जितना सम्पर्क में उतना न्यारा। जैसे लाइट हाउस में समा जाए! लाइट-हाउस अर्थात् अपना ज्योति देश। अभी-अभी कर्म-क्षेत्र, अभी-अभी परमधाम। अच्छा!
माताओं से मधुर मुलाकात करते समय उच्चारे हुए अव्यक्त बाप-दादा के मधुर महावाक्य:-
दु:ख अथवा गाली में भी कल्याण
बाप-दादा का माताओं से आदि से विशेष स्नेह है। यज्ञ की स्थापना में भी विशेष किसका पार्ट रहा, निमित्त कौन बने? और अन्त में भी प्रत्यक्षता और विजय का नारा लगाने में निमित्त कौन बनेंगे? मातायें। संगम पर गोपिकाओं का विशेष पार्ट है, गोपी-वल्लभ गाया हुआ है। मातायें सदैव यह इच्छा रखती हैं - ऐसा हमें अपना बनावे जो श्रेष्ठ हो, अच्छा वर मिले, अच्छा घर मिले। जब बाप ने अपना बनाया तो और क्या चाहिए? कोई भी इस कल्याणकारी युग में परिस्थिति आती है तो उस परिस्थिति को न देख, वर्तमान को न देख, वर्तमान में भविष्य को देखो। मानो कोई दु:ख देता है व गाली देता है, तो उसमें भी यह देखो कि मेरा कल्याण है। कल्याण यह है कि वह दु:ख अथवा गाली ही सुखदाता की याद के नजदीक लायेगी। बाहर के रूप से न देखो, कल्याण के रूप से देखो तो कोई भी परिस्थिति, कठिन परिस्थिति नहीं लगेगी। इससे अपनी उन्नति कर सकोगे। अच्छा!
24-01-76 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
पुरूषार्थ को तीव्र करने की युक्ति- अब नहीं तो कभी नहीं
रूहानी सेवाधारी टीचर्स से मधुर मुलाकात करते हुए अव्यक्त बाप-दादा ने ये मधुर महावाक्य उच्चारे:-
टीचर्स जैसे विशेष सेवार्थ निमित्त बनी हुई विशेष आत्मायें हैं, वैसा पुरूषार्थ भी चलता है या जैसे स्टूडेण्ट्स का चलता है, वैसे ही चलता है? पार्ट के अनुसार विशेष पुरूषार्थ कौनसा चलता है? सम्पूर्ण बनना है, सतोप्रधान बनना है - यह तो सभी का लक्ष्य है, यह तो इन-जनरल हो गया। लेकिन टीचर्स का विशेष पुरूषार्थ कौनसा चलता है? आजकल जो विशेष पुरूषार्थ करना है व होना चाहिये, वह यही है कि हर संकल्प पॉवरफुल हो- साधारण न हो, समर्थ हो व्यर्थ न हो। टीचर का अर्थ क्या है? सर्विसएबल, एक सेकेण्ड भी सर्विस के बिना न हो। मुरली पढ़ना, और चेकिंग करना - यह तो मोटी बात है!
जैसे समय समीप आ रहा है, तो निमित्त बनी हुई विशेष आत्माओं को पुरूषार्थ यह करना है कि समय से तेज दौड़ लगायें। ऐसे नहीं कहना है कि इतना समय पड़ा है, कमी दूर हो ही जाएगी। नहीं। यह बुद्धि में रखना है कि अभी नहीं तो कभी नहीं। हर संकल्प, हर सेकेण्ड के लिए यह स्लोगन कि अब नहीं तो कभी नहीं। जब ऐसे अभी के संस्कार भरेंगे तो ऐसी अभी कहने वाली आत्मायें सतयुग के आदि में आयेंगी। कभी कहने वाले मध्य में आयेंगे। कभी कहने वाले समय का इन्तज़ार करते हैं। तो पद में भी इन्तज़ार करेंगे। तो हर सेकेण्ड, हर संकल्प में यह स्लोगन याद रहे। अगर यह पाठ पक्का नहीं होगा तो सदैव कमज़ोरी के संस्कार रहेंगे। महावीर के संस्कार हैं - ‘अब नहीं तो कभी नहीं!’ हमारे से ये आगे हैं, यह करेंगे तो हम करेंगे - यह अलबेलेपन के संस्कार हैं। जो संकल्प आया वह अब करना ही है। कल नहीं आज, आज नहीं अब, अर्थात् अभी करना है।
सभी विशेष आत्मायें हो न? अपने को छोटा तो नहीं समझते हो? पुरूषार्थ में हर एक बड़ा है। कारोबार में छोटा-बड़ा होता है, पुरूषार्थ में छोटा-बड़ा नहीं होता। पुरूषार्थ में छोटा आगे जा सकता है। कारोबार में मर्यादा की बात है। पुरूषार्थ में मर्यादा की बात नहीं। ‘पुरूषार्थ में जो करेगा, सो पायेगा। अब ऐसे चेक करना है कि ऐसा पुरूषार्थ है या कि जैसे साधारण सबका चलता है, वैसे चलता है? टीचर्स सदा हर्षित हैं? टीचर्स को अनेकों की आशीर्वाद की लिफ्ट भी मिलती है और किसी को कमज़ोर बनाने के निमित्त बनती है, तो पाप भी चढ़ता है। जिस बोझ के कारण जो चाहते हैं वह कर नहीं पाते। बोझ वाला ऊपर उठ नहीं सकेगा। इसलिए चाहते हुए भी चेन्ज नहीं होते तो ज़रूर बोझ है। उस बोझ को भस्म करो - विशेष योग से, मर्यादाओं से और लगन से। नहीं तो बोझ में समय बीत जावेगा, आगे बढ़ न सकोगे। अमृतवेले उठ कर अपनी सीट को सेट करो। जैसी सीट है, उसी प्रमाण सेट हैं? - यह चेक करो। अपने पोज़ (Pose) को ठीक करो। अगर पोज़ ठीक न भी होगा तो चेक करने से ठीक हो जावेगा। अच्छा!
इस वाणी की मुख्य पॉइन्ट
आजकल का विशेष पुरूषार्थ यह होना चाहिए कि हर संकल्प पॉवरफुल हो साधारण न हो, समर्थ हो, व्यर्थ न हो। जो संकल्प आया, वह अब करना ही है। कल नहीं आज, आज नहीं अब, अर्थात् अभी करना है।
25-01-76 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
डबल लाइट स्वरूप बनो
निरन्तर योगी की स्थिति तक पहुँचने का मार्ग बताने वाले तथा डबल लाइट स्वरूप बनाने वाले शिव बाबा बोले –
भक्तिमार्ग में लक्ष्मी को महादानी दिखाते हैं तो महादानी की निशानी कौनसी दिखाते हैं? (लक्ष्मी का हाथ खुला, देने के रूप में दिखाया जाता है) सम्पत्ति झलकती रहती है। यह शक्तियों का यादगार है। लक्ष्मी अर्थात् सम्पत्ति की देवी। वह स्थूल सम्पत्ति नहीं, नॉलेज की सम्पत्ति, शक्तियों रूपी सम्पत्ति की देवी अर्थात् देने वाली। तो जो यह चित्र बनाया है, ऐसी सम्पत्ति की देवी बनना है। चाहे नॉलेज देवे, चाहे शक्तियाँ देवे। ऐसा जो यादगार चित्र है, चेतन में अपने को ऐसा अनुभव करते हो? एक सेकेण्ड भी कोई आपके सामने आवे तो भी दृष्टि से ऐसा अनुभव करे कि मैंने कुछ पाया। तब कहेंगे देने वाली देवी। अब चाहिये यह सर्विस, तब विश्व का कल्याण होगा। इतनी सभी आत्माओं को देना तो ज़रूर है, तो देने का स्वरूप सूक्ष्म और अति शक्तिशाली। समय कम और प्राप्ति ऊँची। ऐसे देने वाली शक्तियाँ या देवियाँ कितनी तैयार हुई हैं? ऐसी कितनी देवियाँ होंगी? इसी प्रमाण यादगार में भी नम्बर हैं। कोई हर समय देने वाली, कोई कभी-कभी देने वाली, कोई किन्हीं-किन्हीं को देने वाली, कोई सभी को देने वाली, कोई कहती है चॉन्स मिले तो करें, फील्ड होगी या सहयोग मिलेगा तो करेंगे। तो उनका यादगार क्या है? उनकी यादगार में भी तिथि-तारीख फिक्स होती है। जो सदा के करने वाले होते हैं, उनकी पूजा भी सदा होती है। जो समय व सहयोग के आधार से चॉन्स लेते हैं, उनके यादगार की डेट फिक्स होती है। कई देवियों के वस्त्र बदलने की, हर कर्म की पूजा होती है। इससे सिद्ध है कि उन्होंने हर कर्म करते, सारा समय दान किया है, जिसको ‘महादानी’ कहेंगे। इसलिये उनकी महान् पूजा, महान् यादगार है। एक होती हैं जो सदा साथियों के साथ स्नेह निभा के चलती हैं, दूसरे साथ होते भी स्नेह का साथ नहीं निभाते। उनके यादगार में भी सारा समय पुजारियों का साथ नहीं मिलता। जो यहाँ स्वार्थ के लिए आवेंगे, यादगार में भी स्पष्ट होता है कि यह किसका यादगार है। यह भी राज़ है। अभी ऐसा बनना है। सदा साथियों के साथ स्नेह का साथ निभाना है, सिर्फ समय पर नहीं, सदा के लिये साथ निभाना है। स्वार्थ से नहीं, काम निकालने के लिये नहीं बल्कि स्नेह से और सदा के लिये साथ निभाना है। अच्छा!
ग्रुप्स से मुलाकात
अपने को सदा बाप-दादा के साथ अनुभव करते हो? या अकेला अनुभव करते हो? जैसे बाप को हजारों भुजाओं वाला दिखाते हैं, सर्वशक्तिवान् होते हुए भी बच्चों के साथ यादगार भुजाओं के रूप में दिखाते हैं, ऐसे तुम बच्चे ही अपने को सदा सर्वशक्तिवान् बाप के साथ अनुभव करते हो या कभी-कभी अनुभव करते हो? जो सदा साथ का अनुभव करेंगे, वे कभी किसी देहधारी के साथ की आवश्यकता अनुभव नहीं करेंगे। कभी भी किसी सेवा में देहधारी का आधार नहीं लेंगे। मर्यादा प्रमाण, संगठन प्रमाण सहयोग लेना अलग बात है। बाकी किसी परिस्थिति में देहधारी की याद आये कि यह मुझे परिस्थिति से पार करेंगे, राय देंगे या सहारा देंगे - इससे सिद्ध है कि सर्वशक्तिवान् का सहारा सदा साथ नहीं रहता। सदा साथ रहने वाले का बाप से समीप सम्बन्ध होने के कारण संकल्प में, रूह-रूहान में भी बाबा याद आयेगा कि यह बाबा से पूछें। कोई निमित्त टीचर याद आये, कोई साथी याद आये या हमशरीक याद आये - यह भी होता है, वह भी कार्य के प्रति। लेकिन मन में, बुद्धि में सदा बाबा-बाबा याद आये। जब डायरेक्ट साथ निभाने का वायदा है, तो वायदे का फायदा उठाओ। इस समय तो बाप के साथ व्यक्तिगत अनुभव हो सकता है, फिर सारे कल्प में नहीं होगा। जो सिर्फ अभी की ही प्राप्ति है, फिर होगी ही नहीं, तो उसका पूरा-पूरा लाभ उठाओ। कोई भी बात हो, सदा बाबा ही याद रहे। इसको कहा जाता है ‘निरन्तर योगी।’ हर कदम बाप की याद रहे, तो यह भी योग हुआ। ऐसे निरन्तर योगी हो अथवा बनना है? जब बाप स्वयं साथ देने का ऑफर कर रहे हैं, उस ऑफर को स्वीकार करना चाहिए ना? जब आधा कल्प भक्ति-मार्ग में बाप को मनाया साथ देने के लिए; अभी तो बाप खुद ऑफर कर रहे हैं। तो ऑफर को स्वीकार करना चाहिये। जैसे स्थूल में कोई किसी को कोई चीज़ ऑफर करे, वह स्वीकार न करे तो इसको सभ्यता नहीं समझेंगे। यह इज्जत कहेंगे? यह तो गॉड की ऑफर है। सदा बाप के साथ अर्थात् निरन्तर योगी। वह तो सदा लाइट रूप है, तो ऐसे संग से लाइट रूप भी और हल्के भी हो जायेंगे। तो डबल लाइट हुई ना। जब ‘लाईट’ बोझ उठाने के लिए ऑफर कर रहे हैं तो फिर तुम बोझ क्यों उठा रहे हो? बोझ वाला फुल स्पीड में चल नहीं सकता। तो अब इन अनेक प्रकार के बोझों से हल्के हो जाओ। अपना कोना-कोना साफ करो, किचड़े को अन्दर ही अन्दर सम्भाल के नहीं रखो। ऐसे नहीं कि चॉन्स मिलेगा तो देंगे। है तो किचड़ा ही ना, किचड़े से तो कीड़े पैदा होते हैं। उन को रखने का अर्थ है उनकी वृद्धि करना। तो जब किचड़े से खाली रहेंगे तब बाप द्वारा मिला हुआ खज़ाना अपने में भर सकेंगे। अच्छा!
27-01-76 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
तीन श्रेष्ठ ईश्वरीय वरदान
एवर हेल्दी-वेल्दी-हैप्पी बनने का वरदान देने वाले वरदाता, रूहानी नज़र से निहाल करने वाले रूहानी पिता, रंक से राजा बनाने वाले परम शिक्षक और सूली को कांटा करने वाले सद्गुरू शिव बाबा बोले: –
आज अति पुराने सो नये बच्चे अपने निजी स्थान व अपने साकार स्वीट होम, मधुबन स्वर्गाश्रम में मिलन का जन्म-सिद्ध अधिकार प्राप्त कर हर्षित हो रहे हैं। ऐसी हर्षित आत्माओं को देख बाप-दादा भी हर आत्मा की प्राप्ति वा तकदीर को देख हर्षित हो रहे हैं। जैसे बच्चों को बाप द्वारा वर्सा प्राप्त होते हर्ष होता है अर्थात् खुशी होती है, वैसे ही बाप-दादा को भी ‘लास्ट सो फास्ट’ पुरूषार्थियों को तीव्र पुरूषार्थ की लगन में मग्न देख हर्ष होता है। फास्ट पुरूषार्थ करने वालों की सूरत और सीरत बाप-समान सदा रूहानी नज़र आती है। सिवाय रूहानियत के अन्य कोई भी संकल्प व स्मृति नहीं रहती, अर्थात् बाप द्वारा प्राप्त हुई सर्व शक्तियाँ स्वरूप में दिखाई देती हैं। उनकी हर नज़र में हर आत्मा को ‘नज़र से निहाल’ करने की रूहानियत दिखाई देगी।
ऐसी श्रेष्ठ स्टेज प्राप्त करने के लिए सदैव दो बातें याद रखो। एक - स्वयं को अकालमूर्त्त समझो, दूसरे - स्वयं को सदा ‘त्रिकालदर्शी-मूर्त्त’ समझो। निराकारी स्टेज में - अकालतख्त-नशीन, अकालमूर्त्त हैं; साकार कर्मयोगी की स्टेज में - त्रिकालदर्शी मूर्त्त त्रिमूर्ति बाप के तख्त-नशीन। हर संकल्प को स्वरूप में लाने से पहले यह दोनों बातें चेक करो। निराकारी और साकारी दोनों स्वरूप में हैं? इस स्मृति से स्वत: ही समर्थी-स्वरूप बन जायेंगे अर्थात् हेल्थ, वेल्थ और हैप्पीनेस का अनुभव हर समय होगा। चाहे शरीर का कर्मभोग सूली से कितना भी बड़े रूप में हो लेकिन सदा अपने को साक्षी समझने से कर्मभोग के वश नहीं होंगे। हर कर्मभोग सूली से कांटे-समान अनुभव होगा। भविष्य जन्म-जन्मान्तर कर्मभोग से मुक्त होने की खुशी इस कर्मभोग को चुक्ता करने के लिये औषधि का रूप बन जाती है। खुशी दवाई की खुराक बन जाती है।
अब अपने को चेक करो कि मैं सदैव हैल्दी रहता हूँ? मैंने एवर हेल्दी का वरदान प्राप्त किया है? वरदाता बाप द्वारा तीनों वरदान - एवर हेल्दी, वेल्दी और हैप्पीनेस को प्राप्त किया है? सदाकाल का वर्सा प्राप्त किया है या अल्पकाल का? किसी भी मायावी बीमारी के वश हो अपना सदाकाल का एवर हेल्दी का वर्सा गँवा तो नहीं देते हो? बाप द्वारा एवर वेल्दी अर्थात् सर्व शक्तियों के खजानों से सम्पन्न वरदान को प्राप्त किया है? सर्व खजानों के मालिक अनुभव करते हो? अर्थात् अप्राप्त कोई भी वस्तु नहीं देवताओं के खजाने में - यह गायन तो है; लेकिन देवताओं से भी श्रेष्ठ ब्राह्मणों का गायन है - अप्राप्त कोई शक्ति नहीं ब्राह्मणों के खजाने में। ऐसे एवर वेल्दी अनुभव करते हो?
एवर वेल्दी के साथ-साथ अपने को एवर हैप्पी अर्थात् सदा हर्षित भी अनुभव करते हो? अगर कोई भी प्रकृति व माया के आकर्षण नहीं हैं, तो सदा हर्षित होंगे। ऐसे सदा हर्षित का सदैव एक ही संकल्प स्मृति में रहता है कि पाना था सो पा लिया, पाने के लिये अब कुछ नहीं रहा। ऐसे संकल्प में स्थित रहने वाले की अर्थात् एवर हैप्पी रहने वाले की निशानी क्या होगी? सदा हर्षित रहने वाला मन, वाणी और कर्म से सर्व आत्माओं को सदा खुशी का दान देता रहेगा। किसी भी आत्मा के प्रति बाप-समान दु:ख-हर्ता, सुख-कर्ता, सदा बेगमपुर का बादशाह अनुभव करेगा। बादशाह अर्थात् दाता। ऐसे हर्षितमुख रहने वाली आत्मा के हर संकल्प के वायब्रेशन्स् द्वारा, एक सेकेण्ड की रूहानी नज़र द्वारा, एक सेकेण्ड के सम्पर्क द्वारा, मुख के एक बोल द्वारा दु:खी व गम में रहने वाली आत्मा अपने को सुखी व खुशी का अनुभव करेगी। उसका कर्त्तव्य होगा - सुख देना और सुख लेना। जैसे प्रजा अपने योग्य राजा को देख खुश हो जाती है, ऐसे एवर हेल्दी, वेल्दी और हैप्पी आत्मा को देख कैसी भी दु:खी आत्मा सुख का अनुभव करेगी। अप्राप्त आत्मा दाता को देख प्राप्ति की खुशी में झूमने लगेगी। ऐसे अपने को अनुभव करते हो? देने वाले दाता के बच्चे, बाप-समान दाता हो या भक्त के समान लेने वाले हो या लेना और देना साथ-साथ चलता है? लेना है ही देने के लिये, खज़ाना है बाँटने के लिये और विश्व-कल्याण के लिये। हर सेकेण्ड लेने के साथ-साथ देने वाले दाता भी बनो, तब ही विश्व-कल्याणकारी कहला सकेंगे। अपना लेने और देने का पोतामेल चेक करो - जितना लेना है, उतना लेते हैं और लेने के साथ-साथ जितना देना है उतना ही देते हैं? लेना और देना साथसाथ और समान है? ऐसे विश्व-कल्याणी ही विश्व-महाराजन् बन सकते हैं। समझा?
ऐसे महादानी, सर्व प्राप्तियों द्वारा सर्व आत्माओं को सम्पन्न बनाने वाले, भिखारी को अधिकारी बनाने वाले, निर्बल आत्माओं को शक्तिशाली बनाने वाले, एवर हेल्दी, वेल्दी और हैप्पी आत्माओं को व सर्वश्रेष्ठ आत्माओं को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते!
28-01-76 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
रूहानी सितारों की महिफल
प्रकृति और माया पर विजय प्राप्त कराने वाले, सफलता के लक्षण देने वाले, सर्व शक्तियों का अधिकारी बनाने वाले शिव बाबा बोले –
आज बाप-दादा सितारों की रूहानी महफिल को देख रहे हैं। महफिल में विशेष तीन प्रकार के सितारे हैं। हर एक सितारा अपने आपको जानता है कि मैं कौनसा सितारा हूँ? एक हैं सफलता के सितारे, दूसरे हैं लक्की सितारे और तीसरे हैं उम्मीदवार सितारे। अभी हर-एक अपने आप से पूछे कि मैं कौन हूँ? सारे दिन की दिनचर्या में संकल्प, श्वास, समय, बोल, कर्म और सम्बन्ध व सम्पर्क में सफलतामूर्त्त अर्थात् सफलता के सितारे स्वयं को अनुभव करते हो? जैसे बाप द्वारा सुख शान्ति, ज्ञान-रत्नों की सम्पत्ति जन्म-सिद्ध अधिकार के रूप में प्राप्त हुई है, वैसे हर बात में और हर समय सफलता भी जन्म-सिद्ध अधिकार के रूप में अनुभव होती है अर्थात् सहज प्राप्ति अनुभव होती है? अथवा मेहनत के बाद? मेहनत ज्यादा और सफलता कम अनुभव होती है? जितना सोचते हैं, करते हैं, उतना संकल्प और कर्म का प्रत्यक्ष फल प्राप्त होता है? या हो ही जावेगा, अभी नहीं कभी तो होगा - ऐसे भविष्य-फल की उम्मीदों पर चलते हैं? संकल्प की उत्पत्ति के साथ सफलता हुई पड़ी है, यह निश्चय का संकल्प साथ-साथ होता है? हर कदम में जैसे पद्म का गायन है, वैसे हर कदम में सफलता समाई हुई है। संकल्प व कर्म के बीज में सफलता रूपी वृक्ष समाया हुआ है। ऐसे अनुभव हो जैसे सफलता परछाई के समान कर्म के पीछे-पीछे है ही। उसको कहते हैं ‘सफलता का सितारा।’
दूसरे हैं लक्की। लक्की सितारों में भी नम्बर हैं। लक्की सितारों की विशेषता यह है कि वे जो भी संकल्प व कर्म करेंगे, उसमें निमित्त-मात्र मेहनत होगी, लेकिन फल की प्राप्ति मेहनत के हिसाब से ज्यादा होगी। लक्की सितारे अपने लक्क को जानते हुए हर समय बाप-दादा का लाख-लाख शुक्रिया मानेंगे कि मेरे लक्क (Luck) का लॉक (Lock) खोल दिया। लक्की सितारे की वाणी में महान् बनाने वाले बाप की महिमा दिल से स्वत: ही निकलती रहेगी और उनके रूप में खुशी की झलक विशेष दिखाई देगी। उनका विशेष प्लैन - सदा बाप का नाम बाला कर, रिटर्न करने का अर्थात् बाप का हर कार्य अपने जीवन द्वारा प्रत्यक्ष करने का होगा। सदा बाप के स्नेही रहने वाले और बाप के स्नेही बनाने वाले होंगे। सदैव यही स्लोगन (Slogan) स्मृति और वाणी में होगा कि वाह बाबा और वाह तकदीर! ऐसे अपने को लक्की सितारे समझते हो?
तीसरे हैं उम्मीदवार सितारे। उनकी विशेषता क्या होगी? कई उम्मीदवार सितारों में से सफलतामूर्त्त भी बन जाते हैं। उम्मीदवार सितारे सदैव बाप का व श्रेष्ठ आत्माओं का साथ लेते हुए चलते हैं। हर कदम पर सहारे के आधार पर चलते हैं। हर संकल्प और कर्म में ‘होगा या नहीं होगा’, ‘श्रेष्ठ है या साधारण’ है, ‘करें या न करें’ - जजमेंट की शक्ति नहीं होगी अर्थात् स्वयं जस्टिस नहीं बन सकते। जजमेण्ट कराने के लिये बार-बार किसी जज की आवश्यकता होगी। श्रेष्ठ संकल्प वाला होगा लेकिन दृढ़ संकल्प वाला नहीं होगा। हर परिस्थिति में व सेवा के कार्य में उमंग-उल्लास होगा लेकिन हिम्मत कम होगी। उसके लिए हिम्मत दिलाने वाला साथी चाहिए। प्लैन्स बहुत अच्छे होंगे, संकल्प समर्थ भी होंगे लेकिन स्वरूप में पूरा नहीं ला सकेंगे। आधा या पौना कुछ वाणी द्वारा, कुछ कर्म द्वारा सम्पन्न कर सकेंगे। लेकिन उनकी एक विशेषता होगी। हर समय सहारा लेने के कारण बाबा की याद रहेगी। उनके मुख से नशे से और निश्चय से यह बोल निकलेंगे - कि हमारा बाबा हमारे साथ है। आखिर वह दिन आयेगा जब संकल्प को कर्म में लाकर ही दिखायेंगे। ऐसी उम्मीद हर समय रहती है। दिल-शिकस्त नहीं बनते हैं। सम्बन्ध और सम्पर्क में भी सर्व का सत्कार करने के कारण स्नेही होते हैं। उनके चेहरे पर परिवार के साथ स्नेह की झलक दिखाई देती है। ऐसे उम्म्दवार सितारे माया के एक विशेष वार से बचे रहते हैं। वह कौन-सा? वे देह-अभिमान में कभी नहीं आते। देह-अभिमान अर्थात् होशियारी का अभिमान और बुद्धि का अभिमान। वे इससे सेफ रहते हैं। ऐसे नहीं कि उनकी बुद्धि में कुछ चलता नहीं है। प्लैन्स चलते हैं, संकल्प भी आते हैं लेकिन दृढ़ संकल्प न होने के कारण साथ लेना पड़ता है। अब समझा - तीन प्रकार के सितारे कौनसे हैं? उम्मीदवार सितारों में बाप को भी उम्मीद है, कभी भी हाई जम्प दे सकते हैं। कभी भी न-उम्मीद वाले सबकी उम्मीद अपने में रखाने के निमित्त बन जाते हैं। लेकिन यह उम्मीदवार हैं। उम्मीदवार में उम्मीद रखना। यह ड्रामा में किसी-किसी का वण्डरफुल पार्ट भी बना हुआ है। अच्छा!
सदा स्वयं को सफलता का सितारा बनाने का लक्ष्य और लक्षण दिखाने वाले, सर्व शक्तियों के अधिकारी, बाप की सर्व प्राप्तियों के अधिकारी, ब्रह्माण्ड और विश्व के अधिकारी, प्रकृति और माया पर विजय प्राप्त करने वाले, विजयी सितारों को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते!
01-02-76 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
रूहानी शमा और तीन प्रकार के रूहानी परवाने
सर्व प्रकार के चक्करों से छुड़ा कर चक्रवर्ता महाराजा बनाने वाले, सदा जागती ज्योति, रूहानी शमा परमपिता शिव बोले –
आज रूहानी शमा रूहानी परवानों को देख रही है। सभी परवाने एक ही शमा पर स्वाहा होने के लिए नम्बरवार प्रयत्न में लगे हुए हैं। जो नम्बरवन परवाने हैं उनको स्वयं का अर्थात् इस देह-भान का, दिन-रात का, भूख और प्यास का, अपने सुख के साधनों का, आराम का - किसी भी बात का आधार नहीं। सब प्रकार की देह की स्मृति से खोये हुए हो, अर्थात् निरन्तर शमा के लव में लवलीन हुए हो? जैसे शमा ज्योति-स्वरूप है, लाइट-माइट रूप है, वैसे शमा के समान स्वयं भी लाइट-माइट रूप हो? दूसरे प्रकार के परवाने, शमा की लाइट और माइट को देखते हुए उसकी तरफ आकर्षित ज़रूर होते हैं, समीप जाना चाहते हैं, समान बनना चाहते हैं, लेकिन देह-भान की स्मृति व देह के सम्बन्ध की स्मृति, देह के वैभवों की स्मृति, देह-भान के वश तमोगुणी संस्कारों की स्मृति समीप जाने का साहस व हिम्मत धारण करने नहीं देती है। इन भिन्न-भिन्न स्मृतियों के चक्कर में समय गँवा देते हैं! फर्स्ट नम्बर हैं लवलीन परवाने अर्थात् बाप के समान स्वरूप और शक्तियाँ धारण करने वाले, बाप के सर्व खजाने स्वयं में समाने वाले, समान बनने अर्थात् समा जाने अर्थात् मर मिटने वाले। दूसरा नम्बर - अनेक प्रकार के चक्कर काटने वाले और अनेक स्मृतियों का चक्कर काटने वाले। वह हैं समाने वाले, यह हैं सोचने वाले। तीसरे नम्बर के परवाने - शमा को देख आकर्षित भी होते, सोचते भी लेकिन दुविधा के चक्कर में रहते हैं। अर्थात् दो नाव में पाँव रखना चाहते हैं। माया के, अल्पकाल के सुख भी चाहते हैं और शमा द्वारा व बाप द्वारा अविनाशी प्राप्ति भी चाहते है। ये हैं बार-बार पूछने वाले। वह सोचने वाले और ये पूछने वाले ‘‘ऐसा करें या न करें? प्राप्ति होगी या नहीं होगी? हो सकता है, या नहीं हो सकता है? मुश्किल है या सहज है? यही एक रास्ता सही है या और भी है?’’ - ऐसे स्वयं से व अन्य अनुभवी आत्माओं से पूछने वाले। इच्छा है लेकिन ‘इच्छा मात्रम् अविद्या’ होने का साहस ही नहीं है। मिलना भी चाहते हैं, लेकिन जीते-जी मरना नहीं चाहते। जीते-जी मरने अथवा छोड़ने में ह्दय विदीर्ण होता है। ऐसे तीन प्रकार के परवाने शमा पर आते हैं।
अब अपने-आप से पूछो कि मैं कौन-सा परवाना हूँ? अनेक प्रकार की स्मृतियों के चक्कर समाप्त हुए हैं या अब तक भी कोई-न-कोई चक्कर अपनी तरफ खींच लेता है? अगर कोई भी व्यर्थ स्मृति के चक्कर अब तक लगाते हो तो स्वदर्शन चक्रधारी, संगमयुगी ब्राह्मणों का टाइटल प्राप्त नहीं हो सकेगा! जो स्वदर्शन-चक्रधारी नहीं, वह भविष्य का चक्रवर्ता राजा भी नहीं होगा। 63 जन्म भक्ति-मार्ग के अनेक प्रकार के व्यर्थ चक्कर लगाने में गंवाया। वही संस्कार अब संगम पर भी न चाहते हुए भी क्यों इमर्ज कर लेते हो? चक्कर लगाने में प्राप्ति का अनुभव होता है या निराशा होती है? 63 जन्म चक्कर लगाते, सब-कुछ गंवाते, स्वयं को और बाप को भूलते हुए अब तक भी थके नहीं हो? कि ठिकाना मिलते भी चक्कर काटते हो? अविनाशी प्राप्ति होते, विनाशी अल्प-काल की प्राप्ति अब भी आकर्षित करती है? अब तक कोई अन्य ठिकाना प्राप्ति कराने वाला नज़र आता है क्या? या श्रेष्ठ ठिकाना जानते हुए भी अल्पकाल के ठिकाने आईवेल अर्थात् ऐसे समय के लिये बना कर रखे हैं? ऐसे भी बहुत चतुर हैं। लेने के समय सब लेने में होशियार हैं, लेकिन छोड़ने के समय बाप से चतुराई करते हैं। क्या चतुराई करते हैं? छोड़ने के समय भोले बन जाते हैं। ‘‘पुरुषार्थी हैं, समय पर छूट जावेगा, सरकमस्टाँसिज़ ऐसे हैं, हिसाब-किताब कड़ा है, चाहता हूँ लेकिन क्या करूँ? धीरे-धीरे हो ही जायेगा’’ - ऐसे भोले बन बातें बनाते हैं। नॉलेजफुल बाप को भी नालेज देने लग जाते हैं! कर्मों की गति को जानने वाले को अपनी कर्म-कहानियाँ सुना देते हैं। और लेते समय चतुर बन जाते हैं। चतुराई में क्या बोलते हैं - ‘‘आप तो रहमदिल हो, वरदाता हो। मैं भी अधिकारी हूँ, बच्चा बना हूँ तो पूरा अधिकार मुझे मिलना चाहिये।’’ लेने में पूरा लेना है और छोड़ने में कुछ-न-कुछ छुपाना है अर्थात् कुछ-न-कुछ अपने पुराने संस्कार, स्वभाव व सम्बन्ध - वह भी साथ-साथ रखते रहना है। तो चतुर हो गये ना। लेंगे पूरा लेकिन देंगे यथा-शक्ति। ऐसे चतुराई करने वाले कौनसी प्रारब्ध को पायेंगे। ऐसे चतुर बच्चों के साथ ड्रामा अनुसार कौन-सी चतुराई होती है?
स्वर्ग के अधिकारी तो सब बन जाते हैं, लेकिन राजधानी में नम्बरवार तो होते ही हैं ना। स्वर्ग का वर्सा बाप सबको देता है, लेकिन सीट हरेक की अपने नम्बर की है। तो ड्रामा-अनुसार जैसा पुरूषार्थ, वैसा पद स्वत: प्राप्त हो जाता है। बाप नम्बर नहीं बनाते, किसी को राजा का, किसी को प्रजा का ज्ञान अलग-अलग नहीं देते; किसी को सूर्यवंशी, किसी को चन्द्रवंशी की अलग पढ़ाई नहीं पढ़ाते किसी को महारथी, किसी को घोड़ेसवार की छाप नहीं लगाते, लेकिन ड्रामा के अनुसार जैसा और जितना जो करता है वैसा ही पद प्राप्त कर जाता है। इसलिए जैसा लेने में चतुर बनते हो वैसे देने में भी चतुर बनो, भोले न बनो! माया की चतुराई को जानकर मायाजीत बनो। चेक करो कि एक यथार्थ ठिकाने की बजाय और कोई अल्प-काल के ठिकाने अब तक रह तो नहीं गये हैं; जहाँ न चाहते हुए भी बुद्धि चली जाती है? बुद्धि के कहीं जाने का अर्थ है कि ठिकाना है। तो सब हद के ठिकाने चेक करके अब समाप्त करो। नहीं तो यही ठिकाने सदाकाल के श्रेष्ठ ठिकाने से दूर कर देंगे। बाप श्रीमत स्पष्ट देते हैं कि ऐसे करो लेकिन बच्चे ‘ऐसे को कैसे’ में बदल लेते हैं। ‘कैसे’ को समाप्त कर, जैसे बाप चला रहे हैं, ऐसे चलो। अच्छा!
शमा-समान लाइट-हाउस, माइट-हाउस नम्बरवन परवाने, अनेक चक्कर समाप्त कर स्वदर्शन चक्रधारी बनने वाले, विश्व के मालिक बनने के अधिकार को प्राप्त करने वाले, बाप की श्रीमत पर हर कदम उठाने वाले, ऐसे कदमों में पद्मों की श्रेष्ठ कमाई जमा करने वाले, सदा लवलीन रहने वाले परवानों को बाप शमा का याद-प्यार और नमस्ते!
इस मुरली का सार
1. अगर कोई भी व्यर्थ स्मृति के चक्कर अब तक लगाते हो तो स्वदर्शन-चक्रधारी, संगम युगी ब्राह्मणों का टाइटल प्राप्त नहीं हो सकेगा।
2. नम्बरबन परवाने वही है जो निरन्तर शमा के लव में लवलीन हुए हो, जो बाप के समान स्वरूप और शक्तियाँ धारण करने वाले हो, बाप के सर्व खज़ाने स्वयं में समाने वाले हो, समान बनने अर्थात् मर मिटने वाले हो।
02-02-76 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
बाप-स्नेही बनने की निशानी- फरिश्ता-स्वरूप बनना
फरिश्तेपन की योग्यतायें भरने वाले, सर्व गुणों के भण्डार शिव बाबा वत्सों से बोले –
सदा अपना फ्युचर सामने रहता है? जितना निमित्त बनी हुई आत्मायें अपने फ्युचर को सदा सामने रखेंगी, उतना अन्य आत्माओं को भी अपना फ्युचर बनाने की प्रेरणा दे सकेंगी। अपना फ्युचर स्पष्ट नहीं तो दूसरों को भी स्पष्ट बनाने का रास्ता नहीं बता सकेंगी। अपना फ्युचर स्पष्ट है? ‘महाराजा या महारानी’ - जो भी बने, लेकिन उससे पहले अपना भविष्य फरिश्तेपन का, कर्मातीत अवस्था का - वह सामने स्पष्ट आता है? ऐसा अनुभव होता है कि मैं हर कल्प में फरिश्ते स्वरूप में ये पार्ट बजा चुकी हूँ और अभी बजाना है? वो झलक सामने आती है। जैसे दर्पण में अपने स्वरूप की झलक देखते हो, ऐसे नॉलेज के दर्पण में अपने पुरूषार्थ से फरिश्तेपन की झलक स्पष्ट दिखाई देती है? जब तक फरिश्तेपन की झलक स्पष्ट दिखाई नहीं देगी, तब तक भविष्य भी स्पष्ट नहीं होगा। यह संकल्प आता ही रहेगा कि शायद मैं ये बनूँ या वो बनूँ? लेकिन फरिश्तेपन की झलक स्पष्ट दिखाई देगी तो वह भी स्पष्ट दिखाई देगी। तो वह दिखाई देता है या अभी घूँघट में है? जैसे चित्र का अनावरण कराते; हो तो अपने फरिश्ते स्वरूप का अनावरण कब करेंगे? आपेही करेंगे या चीफ गेस्ट को बुलायेंगे? यह पुरूषार्थ की कमजोरी का पर्दा हटाओ तो स्पष्ट फरिश्ता रूप हो जायेगा।
अभी तो चलते-फिरते ऐसे अनुभव होना चाहिये जैसे साकार को देखा -- चलते-फिरते या तो फरिश्ते रूप का या भविष्य रूप का अनुभव होता था, तभी तो औरों को भी होता था। मैं टीचर हूँ, मैं सेवाधारी हूँ - यह तो जैसा समय, वैसा स्वरूप हो जाता है। अब स्वयं को फरिश्ते रूप में अनुभव करो तो साक्षात्कार होगा। साक्षात्कार का रूप कौन-सा है? फरिश्ता रूप बनना। चलते फिरते ‘फरिश्ता स्वरूप’। अगर साक्षात् फरिश्ते नहीं बनेंगे तो साक्षात्कार कैसे करा सकेंगे? तो टीचर्स के लिये अब विशेष पुरूषार्थ कौन-सा है? यही कि फरिश्ता इस साकार सृष्टि पर आया हूँ सेवा अर्थ। फरिश्ते प्रकट होते हैं, फिर समा जाते हैं। फरिश्ते सदा इस साकारी सृष्टि पर ठहरते नहीं, कर्म किया और गायब! तो जब ऐसे फरिश्ते होंगे तो इस देह और देह के सम्बन्ध व पुरानी दुनिया में पाँव नहीं टिकेगा। जब कहते हो कि हम बाप के स्नेही हैं; तो बाप सूक्ष्मवतन-वासी और आप सारा दिन स्थूलवतन-वासी, तो स्नेही कैसे? तो सूक्ष्मवतन-वासी फरिश्ते बनो। सर्व आकर्षणों या लगावों के रिश्ते और रास्ते बन्द करो तो कहेंगे कि बाप स्नेही हो। यहाँ होते हुए भी जैसे कि नहीं है - यह है लास्ट स्टेज। विशेष सेवार्थ निमित्त हो, तो पुरूषार्थ में भी विशेष होना चाहिये। जब दूसरों को चलते-फिरते यह अनुभव होगा कि आप लोग फरिश्ते हैं, तो दूसरे भी प्रेरणा ले सकेंगे। अगर साकार सृष्टि की स्मृति से परे हो जाओ तो जो छोटी-छोटी बातों में टाइम वेस्ट करते हो, वह नहीं होगा। तो अब हाई जम्प लगाओ - साकार सृष्टि से एकदम फरिश्तों की दुनिया में व फरिश्ता स्वरूप इसको कहते हैं हाई जम्प। तो छोटी-छोटी बातें शोभेंगी नहीं। तो यह बाप की विशेष सौगात है। सौगात लेना अर्थात् फरिश्ता स्वरूप बनना। तो बाप भी यह फरिश्ता स्वरूप का चित्र सौगात में देते हैं। इस सौगात से पुरानी बातें सब समाप्त हो जायेंगी। ‘क्या’ और ‘क्यों’ की रट नहीं लगानी है। निर्णय-शक्ति, परखने की शक्ति, परिवर्तन-शक्ति - जब ये तीनों शक्तियाँ होंगी तो ही एकदूसरे को खुशखबरी सुनायेंगे। अगर खुद में परिवर्तन नहीं तो दूसरों में भी परिवर्तन नहीं ला सकेंगे। अच्छा!
परिवर्तन-शक्ति वाला ही सफल
प्रश्न:- किसी भी प्लैन को प्रैक्टिकल में लाने के लिये विशेष कौन-सी शक्ति की आवश्यकता है?
उत्तर:- परिवर्तन करने की शक्ति। जब तक परिवर्तन करने की शक्ति नहीं होगी, तब तक निर्णय को भी प्रैक्टिकल में नहीं ला सकते हैं। क्योंकि हर स्थान पर, हर स्थिति में, चाहे स्वयं के प्रति व सेवा के प्रति हो, परिवर्तन ज़रूर करना पड़ता है। जैसे सफलतामूर्त्त बनने के लिए संस्कार व स्वभाव परिवर्तन करना पड़ता है, वैसे ही सेवा में अपने विचारों को कहीं-न-कहीं परिवर्तन करना पड़ता है। परिवर्तन-शक्ति वाला कैसी भी परिस्थिति में सफल हो जाता है क्योंकि वह बहुरूपी होता है। प्लैन को सेवा में लायेंगे और प्वाइन्ट्स को प्रैक्टिकल जीवन में लायेंगे - तो दोनों के लिये परिवर्तन करने की शक्ति चाहिये। नॉलेजफुल होने के नाते यह तो निर्णय कर लेते हैं कि ‘ये होना चाहिये’ लेकिन परिवर्तन नहीं होता है। इसका कारण है परिवर्तन-शक्ति की कमी। जिसमें परिवर्तन-शक्ति है, वे सर्व के स्नेही होंगे और सदा सफल भी होंगे। संकल्प में दृढ़ता लाने से प्रत्यक्ष फल निकल आता है। परिवर्तन करके सफल बनना ही है - यह है दृढ़ संकल्प। सफलता सफलता-मूर्तों का आह्वान कर रही है कि सफलता-मूर्त्त आवें तो मैं उनके गले की माला बनूँ। अच्छा!
02-02-76 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
भक्तों और पाण्डवों का पोतामेल
भक्तों को भक्ति का फल देने वाले भगवान् और पाण्डवों को विश्व-परिवर्तन अर्थ शक्ति, प्रेम और सहयोग देने वाले रूहानी बाप शिव बोले:-
आज बाप-दादा अपने तीन प्रकार के बच्चों का पोतामेल देख रहे थे। तीन प्रकार कौन-से? एक -- मुख-वंशावली ब्राह्मण जो बाप-दादा के साथ-साथ नयी दुनिया की स्थापना के कार्य में सहयोगी हैं। दूसरेõ बाप-दादा के, ब्राह्मणों के सुमिरण में व पुकारने में सदा मस्त रहने वाले भक्त। तीसरे - पुरानी दुनिया के परिवर्तन करने अर्थ निमित्त बने हुए यादव। इन तीनों के सम्बन्ध से स्थापना का कार्य सम्पन्न होना है। इसलिये तीनों के कार्य का पोतामेल देख रहे थे। तो क्या देखा? कार्य-अर्थ निमित्त बने हुए तीनों प्रकार के बच्चे अपने-अपने कार्य में लगे हुए तो ज़रूर है लेकिन तीनों ही कार्यकर्त्ताओं के कार्य में जब तक तीव्रता में अति नहीं हुई है तब तक अन्त नहीं हो सकता। क्योंकि अन्त की निशानी अति है। तीनों में ही कार्य का फोर्स है, लेकिन फुल फोर्स (Full Force) ही कार्य के कोर्स को समाप्त करेगा।
भक्तों के पोतामेल में भक्ति के अल्पकाल का फल जो भक्तों को प्राप्त होता है उसमें देखा कि 75% भक्त सिर्फ अपने नाम, मान और शान प्रति स्वार्थ स्वरूप के भक्त हैं। इसलिये उनके कर्म के फल का खाता समाप्त हुआ पड़ा है। बाप को फल देने की आवश्यकता नहीं। बाकी 25% भक्त नम्बरवार लगन प्रमाण भक्ति कर रहे हैं। उनकी भक्ति का फल इसी पुरानी दुनिया में प्राप्त होना है क्योंकि भक्ति का खाता अब आधा कल्प के लिए समाप्त होना है। उसकी गतिविधि क्या देखी कि भक्तों को भी अपनी भक्ति का फल - अभी-अभी किया, अभी-अभी मिला। अर्थात् अल्पकाल की लगन का फल अभी ही अल्पकाल में प्राप्त हो जाता है, भविष्य जमा नहीं होता। भक्तों की प्राप्ति का रूप ऐसे है कि जैसे बारिश के मौसम में चींटियों को पंख लग जाते हैं और वे बहुत खुशी में उड़ने लग जाती हैं। लेकिन वह अल्पकाल की उड़ान उसी सीज़न (Season) में ही उनको समाप्त कर देती है। वहाँ ही प्राप्ति और वहाँ ही समाप्ति। वैसे ही अब के भक्त अर्थात् कलियुगी तमोप्रधान भक्त अल्पकाल के फल की प्राप्ति में खुश हो जाने वाले हैं। इसलिये उनके फल की प्राप्ति का कार्य ड्रामा अनुसार जैसे समाप्त हुआ ही पड़ा है। सिर्फ 5% प्राप्ति का कार्य अब रहा हुआ है, जो अब अति अर्थात् फुल फोर्स से चिल्लायेंगे। उसमें भी विशेष शक्तियों को पुकारेंगे कि - ‘‘वरदान दो, शक्ति दो, साहस और हिम्मत दो।’’ अभी यह अति में जाकर फिर समाप्त होने वाला है। तो भक्तों के पोतामेल का रजिस्टर समाप्त हुआ ही पड़ा है। जो थोड़ा-बहुत रहा है वह अभी-अभी कर्म और अभी-अभी फल के रूप में समाप्त हो जावेगा। यह था भक्तों का समाचार।
दूसरा - यादव-सेना का समाचार। उनके पोतामेल में क्या देखा? हर कदम पर उनके क्वेश्चन-मार्क्स (?) देखे। स्पीड (Speed) तेज करने के बहुत चात्रक देखे। लेकिन जितना स्पीड को तेज करते, उतना ही क्वेश्चन-मार्क की दीवार बार-बार आने के कारण स्पीड (Speed) को तीव्र नहीं कर पाते। क्वेश्चन मार्क्स कौन-से? एक तो आरम्भ कौन करे - मैं करूँ या वह करे? दूसरा - अब करें या कब करें? तीसरा- इसकी रिजल्ट क्या होगी? कभी क्रोध-अग्नि प्रज्वलित होती, कभी फिर ‘क्या होगा’ का संकल्प रूपी पानी छींटे समान अग्नि शीतल कर देता है। चौथा क्वेश्चन (Question) यह सब कराने वाला कौन, प्रेरक कौन? इसमें कन्फ्यूज़ (Confuse) हो जाते। उनकी गतिविधि क्या देखी? अपने आप को ही नहीं समझ रहे हैं। होश और जोश - इसी दुविधा में हैं। इसलिये स्वयं से ही परेशान हो जाते हैं। एकान्तवासी बनना चाहते, लेकिन बुद्धि एकाग्र नहीं होती। इसलिये बार-बार जोश में आ जाते। बहुत तेजी से प्लैन बनाते, फुल तैयारी भी कर लेते, समय, सेना, शस्त्र और स्थान सब सेट कर लेते हैं, ऐसे ही समझते कि अभी हुआ कि हुआ। बहुत फास्ट (Fast) तैयारी में रहते। लेकिन लास्ट प्रैक्टिकल के समय में कन्फ्यूज्ड (Confused) रूपी सिग्नल (Signal) लग जाता। इसलिये उनकी तैयारी में सिर्फ प्रेरक की प्रेरणा के एक सेकेण्ड का फर्क है। इन्तज़ाम है लेकिन उस सेकेण्ड की प्रेरणा के इन्तज़ार में हैं। उनकी गतिविधि सेकेण्ड तक पहुँची है। इन्तज़ाम समाप्त कर इन्तज़ार कर रहे हैं। तो उनका पोतामेल सम्पन्न तैयारियों का देखा। अब सिर्फ एक कार्य में लगे हुए हैं - रिफाइन है लेकिन अपने विवेक द्वारा अपनी तैयारी को फाइनल कर रहे हैं। फाइनल करने की एक फाइल अभी रही हुई है। यह था यादवों का समाचार। अभी अपना सुनने की इच्छा है?
प्रेरणा लेने वाले तो तैयार हैं लेकिन प्रेरणा देने वालों का क्या हाल है? वैसे कहावत है - ‘देने वाला दे, लेने वाला थक जाये।’ लेकिन इस बात में लेने वाले, न मिलने के कारण थक रहे हैं। लेने वाले लेने के लिए तैयार हैं और देने वाले स्वयं में ही अब तक लगे हुये हैं। तो ब्रह्मा मुखवंशावली ब्राह्मणों का पोतामेल क्या हुआ है? वो जानते होया सुनायें? ब्राह्मणों के रजिस्टर में विशेषता क्या देखी? विश्व-परिवर्तन व विश्व-कल्याण की शुभ भावना मैजॉरिटी (Majority) के पास इमर्ज (Emerge) है, लेकिन चलते-चलते जैसे यादवों की स्पीड क्वेश्चन-मार्क्स (?) के कारण तीव्र नहीं होती, ऐसे ब्राह्मणों की श्रेष्ठ भावना का प्रत्यक्ष फल प्राप्त होने वाला ही होता है तो बीच में कोई-न-कोई रॉयल (Royal) रूप की कामना शुभ कामना को मर्ज (Merge) कर देती है। तो ब्राह्मणों की गतिविधि में शुभ भावना और रॉयल (Royal) रूप की कामना - इन दोनों की कलाबाज़ी चल रही है। जैसे पके हुये फल को पंछी समाप्त कर देते हैं वैसे भावना के प्राप्त हुये फल को कामना रूपी पंछी समाप्त कर देता है। तो ब्राह्मणों के परिवर्तन करने की विधि सिद्धि-स्वरूप न बनने का कारण भावना बदल ‘कामना’ हो जाना है। इसलिये पुरूषार्थ ज्वाला रूप में नहीं होता है। ब्राह्मणों का ज्वाला-रूप विनाशज्वाला को प्रज्वलित करेगा। इसलिये ब्राह्मणों के पोतामेल में अब लास्ट सो फास्ट (Last So Fast) पुरूषार्थ ज्वाला-रूप का ही रहा हुआ है। यादवों का कार्य जैसे सम्पन्न हुआ ही पड़ा है, पाण्डवों का कार्य सम्पन्न होने वाला है। पाण्डवों के कारण यादव रूके हुए हैं। पाण्डवों की श्रेष्ठ शान, रूहानी शान की स्थिति यादवों के परेशानी वाली परिस्थिति को समाप्त करेगी। तो अपनी शान से परेशान आत्माओं को शान्ति और चैन का वरदान दो। समझा? तीनों का पोतामेल सुना? अच्छा!
ऐसे ज्वाला-स्वरूप सर्व विनाशी कामनाओं को श्रेष्ठ और शुभ भावना में परिवर्तन करने वाले, भक्तों के अल्पकाल के अन्तिम फल महादानी, वरदानी रूप में देने वाले दाता और वरदाता बाप समान सदा देने वाले और सर्व की मनोकामनाओं को सम्पन्न करने वाले सम्पूर्ण फरिश्ता आत्माओं को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
03-02-76 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
धर्म और कर्म का कम्बाइन्ड रूप
गुण-मूर्त्त और त्याग-मूर्त्त दीदी जी तथा वत्सों से मधुर मुलाकात करते हुए अव्यक्त बाप-दादा ने विशेष युग ‘संगमयुग’ की विशेषता बतलाते हुए ये मधुर महावाक्य उच्चारेः-
आज-कल की दुनिया में धर्म और कर्म - दोनों ही विशेष गाये जाते हैं। धर्म और कर्म - ये दोनों ही आवश्यक हैं। लेकिन आजकल धर्म वाले अलग, कर्म वाले अलग हो गये हैं। कर्म वाले कहते हैं कि धर्म की बातें नहीं करो, कर्म करो और धर्म वाले कहते हैं कि हम तो हैं ही कर्म-सन्यासी। लेकिन संगम पर ब्राह्मण ‘धर्म और कर्म’ को कम्बाइन (Combined) करते हैं। तो सारे दिन में धर्म और कर्म कम्बाइन्ड (Combined) रूप में रहते हैं? धर्म का अर्थ है - दिव्य गुण धारण करना। सब प्रकार की धारणायें ज्ञान-स्वरूप की, दिव्य गुणों की व याद-स्वरूप की धारणा। कोई भी धारणा, उसको धर्म कहते हैं। तो सारे दिन में चाहे वैसी भी जिम्मेवारी का कर्म हो, स्थूल कर्म हो, साधारण कर्म हो या बुद्धि लगाने का कर्म हो - लेकिन हर कर्म में धारणा अर्थात् कर्म और धर्म कम्बाइन्ड रहता है? मैजॉरिटी (Majority) की रिजल्ट (RESULT) क्या है?
वैसे कहावत है कि ‘एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकती’ अथवा एक हाथ मे दो लड्डू नहीं आते। लेकिन संगम पर असम्भव बात ही सम्भव हो जाती है। यहाँ एक ही समय में दोनों बातें साथ-साथ हैं। ‘धर्म भी हो और कर्म भी हो’ - इसका ही अभ्यास सिखलाते हैं। तो संगमयुग विशेष युग है। इसलिए विशेष है, क्योंकि जो-जो विशेषताएं और युगों में नहीं हो सकतीं, वह सब विशेषताएं संगम पर होती हैं। इसलिए इसको ‘विशेष-युग’ कहते हैं। तो जो इस बात के कम्बाइन्ड रूप में अभ्यासी हैं, वही कम्बाइन्ड रूप संगम का - बाप और बच्चा और प्रारब्ध का - श्री लक्ष्मी और श्री नारायण - इन दोनों के कम्बाइन्ड रूप के अनुभवी बन सकते हैं व अधिकारी बन सकते हैं। तो दोनों ही साथ-साथ रहते हैं? मैजॉरिटी का रहता है अथवा नहीं? क्या रिजल्ट समझते हो? सब अभ्यास में लगे हुए हैं? जब यह निरन्तर कम्बाइन्ड रूप हो जाय तब ही प्रारब्ध का कम्बाइन्ड रूप - श्री लक्ष्मी श्री नारायण का धारण कर सकेंगे। कर्म में यदि धर्म कम्बाइन्ड नहीं तो साधारण कर्म रह गया ना। इसलिये हर कर्म में धर्म का रस भरना चाहिये।
यह चेक करना पड़े कि धर्म और कर्म दोनों साथ हैं अथवा धर्म को किनारे कर कर्म कर रहे हैं या धर्म के समय कर्म को किनारे तो नहीं कर देते हैं? यह भी निवृत्ति हो गई, जैसे निवृत्ति मार्ग में अकेले हैं। प्रवृत्ति अर्थात् कम्बाइन्ड, तो जबकि आदि पार्ट से कम्बाइन्ड हैं, प्रवृत्ति मार्ग वाले हैं तो पुरूषार्थ में भी प्रवृत्ति का पुरूषार्थ हो। निवृत्ति मार्ग का न हो अर्थात् अकेला न हो। जैसे वह छोड़कर किनारा कर चले जाते हैं, इसी रीति धर्म को छोड़ कर्म में लग गये, यह भी निवृत्ति मार्ग हो गया। तो सदा प्रवृत्ति मार्ग रहे। ऐसा अभ्यास जब सबका सम्पन्न हो जाए तब समय भी सम्पन्न हो। क्योंकि प्रवृत्ति मार्ग के संस्कार पुरुषार्थी जीवन में भरने हैं। तो अभी से यह कम्बाइन्ड (Combined) रूप के संस्कार नहीं भरेंगे तो वहाँ कैसे होंगे? वन्डरफुल प्रवृत्ति मार्ग है ना। धर्म और कर्म का प्रवृत्ति मार्ग कहो या कर्म और योग का प्रवृत्ति मार्ग कहो, बात एक ही हो जाती है। अच्छा!
06-02-76 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
बाबा के सहयोगी - राइट हैण्ड और लेफ्ट हैण्ड
रात को दिन में परिवर्तन करने वाले, पुराने को नया बनाने वाले, विश्व-परिवर्तक, विश्व के हितकारी और विश्व-कल्याणी बाबा बोले:-
बाप-दादा सभी बच्चों को आज विशेष अपने सहयोगी रूप में देख रहे हैं। बाप के सहयोगी-स्वरूप का अपना यादगार जानते हो व देखा है? कौन-सा है? सहयोगी-स्वरूप भुजाओं के रूप में दिखाया है। जैसे शरीर के विशेष कार्यकर्ता भुजायें हैं, वैसे बाप-दादा के कर्त्तव्य में कार्यकर्ता निमित्त रूप में आप सब बच्चे हैं। सदैव बाप के सहयोगी अर्थात् स्वयं को बाप की भुजाएँ समझ कार्य करते हो? भुजाओं में भी राइट (Right) और लेफ्ट (Left) होता है। ऐसे कर्त्तव्य में, सदा यथार्थ रूप में साथ निभाने वाले साथी को व मददगार को भी कहा जाता है कि यह हमारा राइट हैण्ड (Right Hand) है। तो एक है राइट हैण्ड (RIGHT Hand), दूसरे हैं लेफ्ट हैण्ड (Left Hand)। लेकिन सहयोगी दोनों हैं। इसलिये साकार बाप ब्रह्मा की अनेक भुजायें प्रसिद्ध हैं। राइट हैण्ड किसको कहते हैं? हैण्ड तो सभी हो। बिना हैण्ड के कोई भी कार्य सिद्ध नहीं हो सकता। इसलिये इस साकारी दुनिया में कहावत भी है कि इस कार्य में अंगुली देना वा इस कार्य में हाथ बँटाना । तो हाथ अर्थात् बाँहों की व अंगुली सहयोगी की निशानी है। सब हो, लेकिन नम्बरवार हैं।
राइट हैण्ड की विशेषता सदा स्वच्छ अर्थात् शुद्ध और श्रेष्ठ है। जैसे कोई भी श्रेष्ठ व शुद्ध कार्य शरीर के राइट हैण्ड द्वारा ही किया जाता है, ऐसे बाप-दादा के सहयोगी राइट हैण्ड सदा बोल में, कर्म में और सम्पर्क में श्रेष्ठ और शुद्ध अर्थात् प्योर (Pure) रहते हैं। अर्थात् सदा श्रेष्ठ कार्य अर्थ स्वयं को निमित्त समझ कर चलते हैं। जैसे भुजाओं द्वारा कार्य कराने वाली शक्ति ‘आत्मा’ है, भुजायें करनहार हैं और आत्मा करावनहार है, ऐसे ही राइट हैण्ड सहयोगी सदैव अपने करावनहार बाप को स्मृति में रखते हुए निमित्त करनहार बनते हैं। स्वयं को करावनहार नहीं समझते, इसीलिये उनके हर कर्म में न्यारेपन, निरहंकारीपन और नम्रतापन के नव-निर्माण की श्रेष्ठता भरी हुई होगी। हर सेकेण्ड, हर संकल्प सम्पूर्ण पवित्र अर्थात् स्वच्छ होगा, जिसको सच्चाई और सफाई कहते हैं। राइट हैण्ड विशेष शक्तिशाली होते हैं। वैसे कोई भी विशेष बोझ उठाने के लिये राइट हैण्ड ही उठाया जाता है। ऐसे राइट हैण्ड सहयोगी आत्मा सदैव विश्वकल्याण, विश्व-परिवर्तन के कार्य के जिम्मेवारी का बोझ अर्थात् रिस्पोन्सीबिलिटी (Responsibility) अति सहज रीति से उठा सकते हैं। अर्थात् वे अपने को रिस्पॉन्सीबल (Responsible) अनुभव करेंगे, सदा मास्टर सर्वशक्तिवान की स्थिति अनुभव करेंगे। राइट हैण्ड की विशेषता - कार्य की गति में अर्थात् स्पीड में तीव्रता होती है। ऐसे ही राइट हैण्ड (RIGHT Hand) सहयोगी आत्मा भी हर सब्जेक्ट (Subject) की धारणा में व प्रैक्टिकल स्वरूप को लाने में तीव्र पुरुषार्थी होंगे, सदा एवर-रेडी (Ever-Ready) होंगे। यह है राइट हैण्ड की विशेषता।
लेफ्ट हैण्ड सहयोगी सदा रहते हैं, लेकिन स्वच्छता के साथ-साथ अस्वच्छता अर्थात् संकल्प, वाणी और कर्म में कभी-कभी कुछ-न-कुछ अशुद्धि भी रह जाती है अर्थात् सम्पूर्ण स्वच्छ नहीं। पुरूषार्थ की गति में भी तीव्रता कम रहती है। करेंगे, सोचेंगे, लेकिन लेफ्ट अर्थात् लेट करेंगे। साथ देंगे, कार्य करेंगे, लेकिन पूरी जिम्मेदारी उठाने की हिम्मत नहीं रखेंगे। सदा उल्लास, हिम्मत रखेंगे, लेकिन निराधार नहीं होंगे। उनकी स्टेज (Stage) बहुत समय वकील अर्थात् लॉयर (Lawer) की होती है। कायदे ज्यादा सोचेंगे लेकिन फायदा कम पायेंगे। स्वयं, स्वयं के जस्टिस (Justice) नहीं बन सकेंगे। हर छोटी बात में भी फाइनल जजमेन्ट (Final Judgement) के लिये जस्टिस की आवश्यकता अनुभव करेंगे। राइट हैण्ड लॉ फुल (Lawful) है, जस्टिस है लेकिन लॉयर नहीं।
अब अपने को चेक करो कि राइट हैण्ड (RIGHT Hand) हो या लेफ्ट हैण्ड; लॉयर हो या लॉ फुल हो? बाप-दादा के तो दोनों ही सहयोगी हैं। सदा अपने को सहयोगी समझने से सहज योगी बन जायेंगे। करावनहार बाप-दादा के निमित्त करनहार समझ कर चलने से सदैव निश्चिन्त और हर्षित रहेंगे।
तो आज बाप-दादा अपने सहयोगी भुजाओं को देख रहे हैं। भुजाएं तो सभी हो ना? सभी के दिल में यह शुभ संकल्प सदा रहता है कि हम सब विश्व नव निर्माण करने वाले विश्व-परिवर्तक हैं? विश्व के परिवर्तन के पहले स्वयं का सम्पूर्ण परिवर्तन किया है? जितना स्वयं के परिवर्तन में कमी होगी उतना ही विश्व-परिवर्तन की गति कम होगी। स्वयं के परिवर्तन से ही समय का परिवर्तन कर सकेंगे। स्वयं को देखो तो समय का मालूम स्वत: ही पड़ जायेगा। परिवर्तन के समय की घड़ी आप हो। तो स्वयं की घड़ी में टाइम देखो। सारे विश्व का अर्थात् सर्व आत्माओं का अटेन्शन अब आप निमित्त बनी हुई समय की घड़ी पर है कि अब और कितना समय रहा हुआ है। इसलिये इस पुरानी दुनिया के समय को समाप्त करने के निमित्त स्वयं को समझते हुए स्वयं को सम्पन्न बनाओ। समझा? अच्छा!
ऐसे विश्व-परिवर्तक, रात को दिन में परिवर्तन करने वाले, पुराने को नया बनाने वाले, बाप-दादा के श्रेष्ठ सहयोगी अर्थात् सदा सहज योगी, ऐसे सदा विश्व के हितकारी, विश्व-कल्याणी श्रेष्ठ आत्माओं को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
इस वाणी का सार
1. अपने को चेक करो कि राइट हैण्ड (RIGHT Hand) हो या लेफ्ट हैण्ड (Left Hand) हो, लॉयर या लॉ फुल हो? सदा अपने को सहयोगी समझने से सहजयोगी बन जायेंगे। करावनहार बाबा के निमित्त स्वयं को करनहार समझ कर चलने से सदैव निश्चिन्त और हर्षित रहेंगे।
2. स्वयं के परिवर्तन से समय का परिवर्तन कर सकेंगे। इसलिये इस पुरानी दुनिया के समय को समाप्त करने के निमित्त स्वयं को समझते हुए स्वयं को सम्पन्न बनाओ।
3. जो बच्चे करावनहार बाप को स्मृति में रखते हुए निमित्त करनहार बनते हैं, उन के कर्म में न्यारेपन और निरहंकारीपन और नम्रतापन तथा नव निर्माण की श्रेष्ठता भरी हुई होगी।
4. विश्व के परिवर्तन के पहले स्वयं का सम्पूर्ण परिवर्तन करना है। जितनी स्वयं के परिवर्तन में कमी होगी, उतनी ही विश्व-परिवर्तन की गति कम होगी।
07-02-76 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
अव्यक्त फरिश्तों की सभा
सभी आत्माओं को सुख, शान्ति व शक्ति की अंजली देकर, वरदान देकर तृप्त करने वाले, जन्म-जन्म की प्यासी आत्माओं की प्यास बुझाने वाले, सर्व को ठिकाने पर लगाने वाले रूहानी बाप बोले:-
बाप-दादा सदा हर्षित, सदा हद के आकर्षणों से परे अव्यक्त फरिश्तों को देख रहे हैं। यह फरिश्तों की सभा है। हर फरिश्ते के चारों ओर लाइट का क्राउन (Crown) कितना स्पष्ट दिखाई देता है अर्थात् हर फरिश्ता लाइट-हाउस (Light House) और माइट-हाउस (Might House) कहाँ तक बना है, यह आज बापदादा देख रहे हैं।
जैसे भविष्य स्वर्ग की दुनिया में सब देवता कहलायेंगे, वैसे वर्तमान समय संगम पर फरिश्ते समान सब बनते हैं लेकिन नम्बरवार। जैसे वहाँ हर-एक अपनी स्थिति प्रमाण सतोप्रधान होते हैं, वैसे यहाँ भी हर पुरुषार्थी फरिश्तेपन की स्टेज को प्राप्त ज़रूर करते हैं। तो आज बाप-दादा हर एक की रिजल्ट को देख रहे थे। क्योंकि अब अन्तिम रियलाइजेशन कोर्स (Realization Course) चल रहा है। रियलाइजेशन कोर्स में हर एक अपने आपको कहाँ तक रियलाइज कर रहे हैं? तो रिजल्ट में दो विशेष बातें देखीं। वह कौनसी?
हर एक किस पोजीशन (Position) तक पहुँचे हैं? ऑपोजीशन (Opposition) ज्यादा है अथवा पोज़ीशन की स्टेज ज्यादा है? दूसरा - पुरानी देह और पुरानी दुनिया से स्मृति को कहाँ तक ट्रॉन्सफर (Transfer) किया है? साथ-साथ ट्रान्सफर के आधार पर ट्रान्सपेरेन्ट (Transparent) कहाँ तक बने हैं? चारों ही सब्जेक्ट्स में कहाँ तक प्रैक्टिकल स्वरूप बने हैं? बाप-दादा के तीनों स्वरूप - साकार, आकार और निराकार द्वारा ली हुई पालना और पढ़ाई का रिटर्न (Return) कहाँ तक किया है? आदि से अब तक जो बाप-दादा से वायदे किये हैं, उन सब वायदों को निभाने का स्वरूप कहाँ तक है? जितना कायदा, उतना फायदा उठाया है? ऐसी चेकिंग (Checking) हर-एक अपनी करते हो? चारों ही सब्जेक्ट्स की चेकिंग का सहज साधन आपकी गाई हुई महिमा से सिद्ध हो जाता है। वह महिमा जानते हो? वह कौन-सी महिमा है जिससे चारों ही सब्जेक्ट्स चेक कर सकते हो? वह महिमा तो सबको याद है ना। (सर्व गुण सम्पन्न...) इन चारों ही बातों में चारों ही सब्जेक्ट्स की रिजल्ट आ जाती है। तो यही चेक करो कि इन चारों ही बातों में सम्पन्न बने हैं? अब तक सोलह कला बने हैं अथवा चौदह कला तक पहुँचे हैं? सर्व गुण सम्पन्न बने हैं या गुण सम्पन्न बने हैं अर्थात् कोई- कोई गुण धारण किया है? सब मर्यादायें धारण कर मर्यादा पुरूषोत्तम बने हैं? सम्पूर्ण आहिंसक बने हैं? संकल्प द्वारा भी किसी आत्मा को दु:ख देना व दु:ख लेना - यह भी हिंसा है। सम्पूर्ण आहिंसक अर्थात् संकल्प द्वारा भी किसी को दु:ख न देने वाला। पुरूषोत्तम अर्थात् हर संकल्प और हर कदम उत्तम अर्थात् श्रेष्ठ हो, साधारण न हो, लौकिक न हो और व्यर्थ न हो। ऐसे कहाँ तक बने हैं? बाप-दादा ने क्या देखा? अब तक विशेष दो शक्तियों की बहुत आवश्यकता है। वह कौन-सी हैं?
एक स्वयं को परखने की शक्ति, दूसरी स्वयं को परिवार्तित करने की शक्ति। इन दोनों शक्तियों की रिजल्ट में जितना तीव्र पुरुषार्थी तीव्र गति से आगे बढ़ना चाहते हैं, उतना बढ़ नहीं पाते। इन दोनों शक्तियों की कमी के कारण ही कोई-न-कोई रूकावट गति को तीव्र करने नहीं देती है। दूसरे को परखने की गति तीव्र है दूसरे को परिवर्तन होना चाहिये - यह संकल्प तीव्र है; इसमें ‘पहले आप’ का पाठ पक्का है। जहाँ ‘पहले मैं’ होना चाहिये, वहाँ ‘पहले आप’ है और जहाँ ‘पहले आप’ होना चाहिये, वहाँ ‘पहले मैं’ है। तीसरा नेत्र जो हर एक को वरदान में प्राप्त है उस तीसरे नेत्र द्वारा जो बाप-दादा ने कार्य दिया है, उसी कार्य में नहीं लगाते। तीसरा नेत्र दिया है रूह को देखने, रूहानी दुनिया को देखने के लिए व नई दुनिया को देखने के लिये। उसके बदले जिस्म को देखना, जिस्मानी दुनिया को देखना - इसको कहा जाता है कि यथार्थ रीति कार्य में लगाना नहीं आया है। इसलिये अब समय की गति को जानते हुए परिवर्तन-शक्ति को स्वयं प्रति लगाओ। समय का परिवर्तन न देखो लेकिन स्वयं का परिवर्तन देखो। समय के परिवर्तन का इन्तज़ार बहुत करते हो। स्वयं के परिवर्तन के लिए कम सोचते हो और समय के परिवर्तन के लिये सोचते हो कि होना चाहिये। स्वयं रचयिता हैं, समय रचना है। रचयिता अर्थात् स्वयं के परिवर्तन से रचना अर्थात् समय का परिवर्तन होना है। परिवर्तन के आधारमूर्त्त स्वयं आप हो। समय की समाप्ति अर्थात् इस पुरानी दुनिया के परिवर्तन की घड़ी आप हो। सारे विश्व की आत्माओं की आप घड़ियों के ऊपर नजर है कि कब यह घड़ियाँ समाप्ति का समय दिखाती हैं। आपको मालूम है कि आपकी घड़ी में कितना बज़ा है? आप बताने वाले हो या पूछने वाले हो? इन्तज़ार है क्या? समय दिखाने वालों को समय के प्रति हलचल तो नहीं है ना? हलचल है अथवा अचल हो? ‘‘क्या होगा, कब होगा, होगा या नहीं होगा?’’ ड्रामा अनुसार समय-प्रति-समय हिलाने के पेपर्स आते रहे हैं और आयेंगे भी।
जैसे वृक्ष को हिलाते हैं ना। तो निश्चय की नींव अर्थात् फाउन्डेशन (Foundation) को हिलाने के पेपर्स भी आयेंगे। फिर पेपर देने के लिये तैयार हो अथवा कमजोर हो? पाण्डव सेना तैयार है या शक्तियाँ तैयार हैं अथवा दोनों तैयार हैं? होशियार स्टूडेण्ट पेपर का आह्वान करते हैं और कमजोर डरते हैं। तो आप कौन हो? निश्चयबुद्धि की निशानी यह है कि वह हर बात व हर दृश्य को निश्चित जानकर सदा निश्चिन्त होगा, ‘‘क्यों, क्या और कैसे’’ की चिन्ता नहीं होगी। फरिश्तेपन की लास्ट स्टेज की निशानी है - सदा शुभचिन्तक और सदा निश्चिन्त। ऐसे बने हो? रियलाइजेशन कोर्स में स्वयं को रियलाइज करो। और अब अन्तिम थोड़े-से पुरूषार्थ के समय में स्वयं में सर्वशक्तियों को प्रत्यक्ष करो।
प्रत्यक्षता वर्ष मना रहे हो ना। बाप को प्रत्यक्ष करने से पहले स्वयं में (जो स्वयं की महिमा सुनाई) इन सब बातों की प्रत्यक्षता करो, तब बाप को प्रत्यक्ष कर सकेंगे। यह वर्ष विशेष ज्वाला-स्वरूप अर्थात् लाइट-हाउस और माइट-हाउस स्थिति को समझते हुए इसी पुरूषार्थ में रहो - विशेष याद की यात्रा को पॉवरफुल (Powerful) बनाओ, ज्ञान-स्वरूप के अनुभवी बनो। ऐसा स्वयं की उन्नति के प्रति विशेष प्रोग्राम बनाओ। जिस द्वारा आप श्रेष्ठ आत्माओं की शुभ वृत्ति व कल्याण की वृत्ति और शक्तिशाली वातावरण द्वारा अनेक तड़पती हुई, भटकती हुई, पुकार करने वाली आत्माओं को आनन्द, शान्ति और शक्ति की अनुभूति हो। समझा? अब क्या करना है? सिर्फ सुनाना नहीं है, अनुभव करना है। अनुभव कराने के लिये पहले स्वयं अनुभवीमूर्त्त बनो। इस वर्ष का विशेष संकल्प लो। स्वयं को परिवर्तन कर विश्व को परिवर्तन करना ही है। समझा? दृढ़ संकल्प की रिजल्ट (RESULT) सदा सफलता ही है। अच्छा।
ऐसे दृढ़ संकल्प द्वारा सृष्टि का नव-निर्माण करने वाले, अपनी रूहानी वृत्ति द्वारा वायुमण्डल को परिवर्तन करने वाले, हर आत्मा को सुख, शान्ति व शाक्ति की अन्जली देकर एवं वरदान देकर, तृप्त आत्मा बनाने वाले, जन्म-जन्म की प्यासी आत्माओं की प्यास बुझाने वाले, सर्व को अपने ठिकाने पर लगाने वाले, सदा निश्चयबुद्धि, हलचल में भी अचल रहने वाले, ज्ञान-स्वरूप एवं याद-स्वरूप आत्माओं को बाप-दादा का यादप् यार और नमस्ते।
इस अव्यक्त वाणी का सार
1. सर्व गुण सम्पन्न, सोलह कला सम्पूर्ण, मर्यादा पुरूषोत्तम, सम्पूर्ण आहिंसक - इन चारों बातों में चारों सब्जेक्ट्स का रिजल्ट आ जाता है। तो यह चेक करो कि इन चारों ही बातों में कहाँ तक सम्पन्न बने हैं?
2. बाबा कहते - तुम्हें तीसरा नेत्र दिया है रूह को, रूहानी दुनिया को व नई दुनिया को देखने के लिये। अगर उसके बदले जिस्म को, जिस्मानी दुनिया को देखते हो तो माना तीसरे नेत्र को यथार्थ रीति कार्य में लगाना नहीं आया है।
3. स्वयं रचयिता हो, समय रचना है, रचयिता अर्थात् स्वयं के परिवर्तन से ही रचना अर्थात् समय का परिवर्तन होना है।
4. परखने की शक्ति व स्वयं को परिवार्तित करने की शक्ति में कमी होने के कारण ही कोई-न-कोई थकावट गति को तीव्र करने नहीं देती है। समय की गति को जानते हुए परिवर्तन-शक्ति को स्वयं प्रति लगाओ।
07-02-76 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
महारथी की ‘नथिंग-न्यू’ की स्थिति और व्यर्थ के खाते की समाप्ति
बाप-दादा की सहयोगिनी, अथक सेवाधारी, विश्व-कल्याणी दीदी जी से मुलाकात करते हुए शिव बाबा बोले:–
महारथियों के महान् स्थिति की विशेष निशानी, जिससे स्पष्ट हो जाये कि यह महारथी-पन का पुरूषार्थ है, वह क्या होगी? एक तो महान् पुरुषार्थी अर्थात् महारथी जो भी दृश्य देखेंगे, वह समझेंगे - ड्रामा प्लैन अनुसार अनेक बार का अब फिर से रिपीट हो रहा है, वह ‘नथिंग-न्यू’ लगेगा। कोई नई बात अनुभव नहीं होगी जिसमें ‘क्यों’ और ‘क्या’ का क्वेश्चन उठे। और, दूसरा - ऐसे अनुभव होगा जैसे प्रैक्टिकल में, स्मृति-स्वरूप में अनेक बार देखी हुई सीन अब सिर्फ निमित्त मात्र रिपीट कर रहे हैं। कोई नई बात नहीं कर रहे हैं, लेकिन रिपीट कर रहे हैं। स्मृति लानी नहीं पड़ेगी। कल्प पहले जो हुआ था वही अब हो रहा है। लेकिन जैसे एक सेकेण्ड की बीती हुई बात बहुत स्पष्ट रूप से स्मृति में रहती है वैसे वह कल्प पहले की बीती हुई सीन ऐसे ही स्मृति में होगी जैसे कि एक सेकेण्ड पहले बीती हुई सीन स्मृति में रहती है। क्योंकि एक साक्षीपन, दूसरा त्रिकालदर्शी - यह दोनों स्टेज महारथियों की होने के कारण कल्प पहले की स्मृति बिल्कुल फ्रेश व ताज़ी रहेगी। इसलिये नथिंग-न्यू और दूसरा क्या होगा?
कोई भी कितनी भी विकराल रूप की परिस्थिति हो या बड़े रूप की समस्या हो लेकिन अपनी स्टेज ऊँची होने के कारण वह बिल्कुल छोटी लगेगी। बड़ी बात अनुभव नहीं होगी और न विकराल अनुभव होगी। जैसे ऊँची पहाड़ी पर खड़े होकर नीचे की कोई भी चीज को देखो तो बड़ी चीज़ भी छोटी नजर आती है ना। बड़े से बड़ा कारखाना भी एक मॉडल रूप-सा दिखाई पड़ता है। इसी रीति महारथी के महान् पुरूषार्थ के सामने उसे कोई भी बड़ी बात बड़ी अनुभव नहीं होगी। तो महावीर अर्थात् महारथी के महान् पुरूषार्थ की यह दो निशानियाँ हैं जिसको दूसरे शब्दों में कहा जाता - सूली काँटा अनुभव होगी। ऐसे महावीर के मुख से जो होने वाली रिजल्ट होगी अर्थात् जो होनी होगी, सदैव वही शब्द मुख से निकलेंगे जो भावी बनी हुई होगी। इसको ही ‘सिद्धि-स्वरूप’ कहा जाता है। जो बोल निकलेगा, जो कर्म होगा वह सिद्ध होने वाले होंगे, व्यर्थ नहीं होंगे। महारथी की निशानी है - विकर्मों का खाता तो समाप्त होता ही है लेकिन व्यर्थ का खाता भी समाप्त। मास्टर सर्वशक्तिवान् है ना। तो मास्टर सर्वशक्तिवान् की स्टेज का प्रैक्टिकल स्वरूप विकर्मों के खाते के साथ-साथ व्यर्थ का खाता भी समाप्त होगा। यह है महारथियों के पुरूषार्थ की निशानी।
नज़र से निहाल करने की सर्विस शुरू की हैं? एक हैं महादानी, दूसरे हैं वरदानी और तीसरे हैं विश्व-कल्याणी। तो यह तीनों ही विशेषताएं एक ही में हैं या कोई विशेषता किसी में है और कोई किसी में? किसी का वरदानी रूप का पूजन है, किसी का विश्व-कल्याणी के रूप में पूजन है। पूजन में अथवा गायन में भी फर्क क्यों है? होंगे तीनों ही लेकिन परसेन्टेज में फर्क होगा। कोई में किसी बात की, अन्य कोई में किसी बात की परसेन्टेज कम अथवा ज्यादा होगी।
एक है कर्मों की गति, दूसरी है प्रालब्ध की गति और तीसरी फिर है गायन और पूजन की गति। जैसे कर्मों की गति गुह्य है वैसे इन दोनों की गति भी गुह्य है। प्रालब्ध का भी साक्षात्कार प्रैक्टिकल में अभी होना तो है ना। कौन क्या बनेगा और क्यों बनेगा, किस आधार से बनेगा - यह सब स्पष्ट होगा। न चाहते हुये भी, न सोचते हुए भी उनका कर्म, सेवा, चलन, स्थिति, सम्पर्क व सम्बन्ध ऑटोमेटिकली ऐसा ही होता रहेगा जिससे समझ सकेंगे कि कौन क्या बनने वाला है। चलन अर्थात् कर्म ही उनका दर्पण हो जावेगा। कर्म में और दर्पण में हर एक का स्पष्ट साक्षात्कार होता रहेगा। अच्छा!
इस वाणी का मूल तत्व
1. जैसे ऊँची पहाड़ी पर खड़े होकर नीचे की कोई भी चीज़ को देखो तो बड़ी चीज भी छोटी नजर आती है। इसी प्रकार महारथी के महान् पुरूषार्थ के सामने कोई भी बात बड़ी अनुभव नहीं होगी। अर्थात् सूली काँटा अनुभव होगी।
2. मास्टर सर्वशक्तिवान् की स्टेज का प्रैक्टिकल स्वरूप - विकर्मों के खाते के साथ-साथ व्यर्थ का खाता भी समाप्त होगा।
3. महारथी की मुख्य निशानी - उसे कोई भी बात नई नहीं लगेगी। जैसे एक सेकेण्ड की बीती हुई बात बहुत स्पष्ट रूप से स्मृति में रहती है वैसे कल्प पहले की बीती हुई सीन भी स्मृति में होगी। क्योंकि महारथी एक तो साक्षी होगा दूसरा त्रिकालदर्शी होगा।
08-02-76 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
कनेक्शन और करेक्शन के बैलेन्स से कमाल
यथार्थ टीचर की विशेषताओं को बतलाते हुए परम शिक्षक शिव बाबा बोले:-
टीचर्स को विशेष दो बातों का अटेन्शन रखना चाहिये, वह दो बातें कौन-सी हैं? मधुबन से, बाप के साथ तथा दैवी परिवार के साथ मर्यादा-पूर्वक कनेक्शन (Connection) हो। मर्यादापूर्वक कनेक्शन (Connection) यह है कि जो भी संकल्प व कर्म करते हो, उसके हर समय करेक्शन (Correction) करने के अभ्यासी हो। दो बातें - एक यथार्थ कनेक्शन (Connection) और दूसरा हर समय अपनी हर करेक्शन (Correction) करने की अटेन्शन (ATTENTION)। अगर दोनों ही बातों में से एक में भी कमी है तो सफलतामूर्त्त नहीं बन सकते। करेक्शन करने के लिये सदैव साक्षीपन की स्टेज चाहिये। अगर साक्षी हो करेक्शन नहीं करेंगे तो यथार्थ कनेक्शन (Connection) रख न सकेंगे। तो यह सदैव चेक करो कि हर समय हर बात में करेक्शन करते हैं? एक है बुद्धि की करेक्शन जिसको याद की यात्रा कहते हैं दूसरा है साकार कर्म में आते हुए, साकार परिवार व साकार सम्बन्ध के कनेक्शन में आना। दोनों ही कनेक्शन ठीक हों। साकार में कनेक्शन में आने में मर्यादापूर्वक हैं? जैसे रूहानी परिवार का कनेक्शन रूहानियत के बजाय देह-अभिमान का कनेक्शन है तो वह भी यथार्थ कनेक्शन (Connection) नहीं हुआ।
जो करेक्शन और कनेक्शन करना जानते हैं, वह सदा रूहानी नशे में होंगे। उनका न्यारापन और प्यारापन का बैलेन्स (Balance) होगा। देखो, सिर्फ बैलेन्स (Balance) का खेल दिखाने के लिये कितनी कमाई का साधन बना है, वह है सर्कस। बैलेन्स को कमाल के रूप में दिखाते हैं। तो यहाँ भी अगर बैलेन्स होगा तो कमाल भी होगा और कमाई भी होगी। अगर ज़रा भी कम अथवा ज्यादा हो जाता है तो न कमाल होता है, न कमाई। जैसे कोई भी खाने की चीज़ बनाते हैं, अगर उसमें सब चीजों का बैलेन्स न हो तो कितनी भी अच्छी चीज़ हो पर उसमें टेस्ट नहीं आयेगा। तो अपने जीवन को भी श्रेष्ठ और सफल बनाने के लिये बैलेन्स (Balance) रखो अर्थात् समानता रखो।
दूसरी बात - जैसी समस्या हो, जैसा समय हो, तो वैसे अपने शक्तिशाली रूप को बना सको। अगर परिस्थिति सामना करने की है, तो सामना करने की शक्ति का स्वरूप हो जाओ। अगर परिस्थिति सहन करने की है, तो सहन शक्ति का स्वरूप हो जाओ। ऐसा अभ्यास हो। टीचर्स माना बैलेन्स। जैसा समय, वैसा स्वरूप धारण करने की शक्ति हो। स्नेह की जगह अगर शक्ति को धारण करते हो और शक्ति की जगह अगर स्नेह को धारण किया तो इसको क्या कहेंगे? अर्थात् जैसा समय, वैसा स्वरूप धारण करने की शक्ति नहीं है। तो सर्विस की रिजल्ट (RESULT) भी नहीं निकलती और सफल भी नहीं होते हैं। ‘अगर नम्बरवन टीचर बनना है तो कोई भी धारणा पहले स्वयं करो, फिर कहो। ऐसे नहीं कि खुद करो नहीं, केवल औरों को कहो।’ जो दूसरों को डायरेक्शन देते हो, वह पहले स्वयं में देखो कि वह आप में है? दूसरों को कहो कि सहनशील बनो और खुद न हो तो वह टीचर नहीं। टीचर माना शिक्षक अर्थात् शिक्षा देने वाला। अगर स्वयं शिक्षा स्वरूप नहीं तो वह यथार्थ टीचर कहला नहीं सकते। सदैव यह स्लोगन याद रखो - शिक्षक अर्थात् शिक्षा-स्वरूप और बैलेन्स रखने वाला। अब क्वॉलिटी की टीचर बनना है। क्वॉन्टिटी (Quantity) पर नज़र न हो। क्वॉलिटी (Quality) ही सबके कल्याण के निमित्त बन सकती है। तो अब टीचर की क्वॉन्टिटी नहीं बढ़ानी है लेकिन क्वॉलिटी (Quality) बढ़ानी है। समझा!
इस अव्यक्त वाणी का सार
1. जो करेक्शन (Correction) और कनेक्शन (Connection) करना जानते हैं, वह सदा ही रूहानी नशे में होंगे।
2. अगर नम्बरवन टीचर बनना है तो कोई भी धारणा पहले स्वयं करो, फिर दूसरों को कहो। ऐसे नहीं - खुद करो नहीं और दूसरों से कहते रहो। जो दूसरों को डायरेक्शन (Direction) देते हो, वह पहले स्वयं में देखो कि वह आप में है?
3. जैसा समय, वैसा स्वरूप धारण करने की शक्ति बढ़ाओ।
4. सफलतामूर्त्त बनने के लिए चाहिए। एक तो यथार्थ कनेक्शन और दूसरा हर समय अपनी करेक्शन करने की अटेन्शन। करेक्शन करने के लिए सदैव साक्षीपन की स्टेज चाहिए। अगर साक्षी हो करेक्शन नहीं करेंगे तो यथार्थ कनेक्शन रख न सकेंगे।
09-02-76 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
बिन्दु-रूप स्थिति से प्राप्ति
सेवाधारी ग्रुप के साथ मुलाकात करते समय जो प्रश्नोत्तर के रूप में वार्तालाप हुआ, वह यहाँ प्रस्तुत है:-
प्रश्न:- सर्व प्वॉइन्ट्स का सार एक शब्द में सुनाओ?
उत्तर:- प्वाइन्ट्स का सार - प्वाइन्ट रूप अर्थात् बिन्दु रूप हो जाना।
प्रश्न : - बिन्दु रूप स्थिति होने से कौन-सी डबल प्राप्ति होती है?
उत्तर:- बिन्दु रूप अर्थात् पॉवरफुल स्टेज, जिसमें व्यर्थ संकल्प नहीं चलते हैं और बिन्दु अर्थात् ‘बीती सो बीती।’ इससे कर्म भी श्रेष्ठ होते हैं और व्यर्थ संकल्प न होने के कारण पुरूषार्थ की गति भी तीव्र होगी। इसलिए बीती सो बीती को सोच-समझ कर करना है। व्यर्थ देखना, सुनना व बोलना सब बन्द। समर्थ आंखें खुली हों अर्थात् साक्षीपन की स्टेज पर रहो।
प्रश्न:- कमल-पुष्प समान न्यारा बनने की युक्ति क्या है?
उत्तर:- कोई की भी कमी देखकर के उनके वातावरण के प्रभाव में न आये, तो इसके लिए उस आत्मा के प्रति रहम की दृष्टि-वृत्ति हो और सामना करने की नहीं, अर्थात् यह आत्मा भूल के परवश है, इसका दोष नहीं है - इस संकल्प से उस वातावरण का व बात का प्रभाव आप आत्मा पर नहीं होगा। इसी को कहते हैं कमलपुष् प समान न्यारा।
प्रश्न:- सफलतामूर्त्त बनने के लिए क्या करना है?
उत्तर:- बदला नहीं लेना, बल्कि स्वयं को बदलना है। महावीर बनना है, मल्ल- युद्ध नहीं करना है। मल्ल-युद्ध करना माना अगर कोई ने कोई बात कही तो उसके प्रति संकल्प चलने लगें - यह क्या किया, यह क्यों कहा उसको कहा जाता है मन्सा से व वाचा से मल्ल-युद्ध करना। नमना अर्थात् झुकना। तो जब नमेंगे तब ही नमन योग्य होंगे। ऐसे नहीं समझो कि हम तो सदैव झुकते ही रहते हैं लेकिन हमारा कोई मान नहीं। जो झुकते नहीं व झूठ बोलते हैं उनका ही मान है - नहीं। यह अल्पकाल का है। लेकिन अब दूरन्देश बुद्धि रखो। यहाँ जितनों के आगे झुकेंगे अर्थात् नम्रता के गुण को धारण करेंगे तो सारा कल्प ही सर्व आत्मायें मेरे आगे नमन करेंगी। सतयुग त्रेता में राजा के रिगार्ड से काँध से नहीं लेकिन मन से झुकेंगे और द्वापर, कलियुग में काँध झुकायेंगे।