05-01-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
त्यागी और तपस्वी बच्चे सदा पास हैं
ज्ञानसूर्य शिवबाबा नैन मुलाकात करते हुए अपने नूरे रत्नों से बोले :-
आज नैनों में समाये हुए बच्चों से नैन मिलन कर रहे हैं, ऐसे बच्चों की दृष्टि में बाप-दादा और ब्राह्मण ही हैं और ये ही उनकी सृष्टि है। वे और कुछ भी देखते हुए देखते नहीं हैं क्योंकि बाप के लव (Love) में सदा लवलीन रहते हैं। सदा बाप के गुणों अर्थात् ज्ञान, सुख, आनन्द के सागर में समाए हुए रहते हैं ऐसे बच्चों को बापदादा भी देख-देख हर्षित होते हैं। चाहे शरीर से कितना भी दूर हो, लेकिन ऐसे बच्चों का बाप के पास समीप से समीप स्थान सदा के लिए फिक्स (Fix) है। वह कौन-सा स्थान है, जानते हो?
जो अति प्रिय वस्तु होती है, वह समीप स्थान पर होती है। वह स्थान है - एक नैन और दूसरा दिल। तो दिल में समाने वाले श्रेष्ठ हैं या नैनों में समाने वाले श्रेष्ठ हैं? दोनों में नम्बर वन (Number One) कौन? दोनों का महत्व एक है या अलग- अलग? जो समझते हैं दोनों का महत्व एक है अथवा जो दिल में होते सो नैनों में होते हैं, वे हाथ उठाओ। जो समझते हैं कि दोनों का महत्व अलग-अलग है, नैनों में समाने वाले अलग, दिल में समाने वाले अलग वे हाथ उठाओ। एक होते हुए भी अलग- अलग महत्व है इसलिए दोनों ही ठीक हैं। जब इतने त्यागी और तपस्वी बच्चे अपने अनेक धर्मों और अपनी देह के धर्म के कर्म में हरेक रस्म का त्याग कर बाप-दादा की याद की तपस्या में लगे हुए हैं, ऐसे त्यागी और तपस्वी बच्चों को फैल (Fail) कैसे कर सकते हैं, इसलिए सदा पास हैं।
विदेशी सभी Short (थोड़े में) में पढ़ते हैं; क्योंकि बिज़ी रहते हैं। बाप-दादा ने एक ही शब्द याद दिलाया है, वो कौन-सा शब्द? एक ही शब्द है पास (Pass) होना है, पास (Near) रहना है, और जो कुछ बीत जाता है वह पास हो गया - एक शब्द के तीन अर्थ हैं। ये ही Short Cut (छोटा रास्ता) हो जाएगा; और पास विद् ऑनर (Pass With Honour) (सम्मान पूर्वक सफलता पाना) होना है।
लेकिन इस अर्थ में स्थित होने के लिए सदैव बाप समान समाने की शक्ति और बाप समान बनाने की शक्ति, दोनों भरने की आवश्यकता है। क्योंकि बाप समान बनने के लिए जब सेवा की स्टेज पर आते हो तो अनेक प्रकार की बातें सामने आती हैं। उन बातों को समाने की शक्ति के आधार से मास्टर सागर बन जाते हो और औरों को भी बाप समान बना सकते हो। समाना अर्थात् संकल्प रूप में भी किसी की व्यक्त बातों और भाव का आंशिक रूप समाया हुआ न हो। अकल्याणकारी बोल कल्याण की भावना में ऐसे बदल जाए जैसे अकल्याण का बोल था ही नहीं, ऐसी स्टेज को विश्व-कल्याणकारी स्टेज कहा जाता है। किसी का भी कोई अवगुण देखते हुए एक सेकेण्ड में उस अवगुण को गुण में बदल दें। नुकसान को फायदे में बदल दें। निन्दा को स्तुति में बदल दें, ऐसी दृष्टि और स्मृति में रहने वाला ही विश्व-कल्याणकारी कहा जाता है। विश्व-कल्याणकारी ही नहीं, लेकिन स्वयं-कल्याणकारी भी बनें। ऐसी स्टेज बाप-समान कही जाती है।
अच्छा, विदेशी सो स्वदेशी; बाप-दादा तो स्वदेशी देख रहे हैं, न कि विदेशी। स्वदेशी बच्चों की स्नेह की यादगार ‘प्रत्यक्ष फल’ विशेष बाप-दादा का मिलना है। विदेशी सो स्वदेशी बच्चों की अमृतवेले की रूह-रूहान बहुत रमणीक होती है। उस समय विशेष दो रूप होते हैं - एक अधिकार रूप से मिलते और बातचीत करते हैं; और दूसरे उल्हनों के और तड़पती हुई आत्माओं के रूप में बात करते हैं। बाप-दादा को सुनकर के मज़ा आता है। लेकिन एक विशेषता मैजारिटी (अधिकतर) आत्माओं की देखी कि विदेशी सो स्वदेशी आत्माएं थोड़े में राज़ी होने वाले नहीं हैं। मैजारिटी विशेष दाव लगाते हैं। राम-सीता भी बनने वाले नहीं, लक्ष्मी-नारायण बनना चाहते हैं। इसलिए श्रेष्ठ लक्ष्य रखने के कारण बच्चों को बाप-दादा भी मुबारक देते हैं। आपको सदा इसी श्रेष्ठ लक्ष्य और लक्षण में रहना है। बाप-दादा के आगे दूर नहीं हो। जो तख्त-नशीन हैं, वह सदैव समीप हैं, आज सर्व विचारशील बच्चों को एक ही संकल्प है ‘मिलन’ का। ऐसे ही सोते हुए भी याद में रहना है। बाप-दादा भी चारों ओर के विदेशी बच्चों को सम्मुख देखते हुए याद दे रहे हैं।
श्रेष्ठ लक्ष्य रखने वाले, खुशी-खुशी से बाप से सौदा करने वाले, बाप और सेवा में सदा मगन रहने वाले, लास्ट सो फास्ट, स्नेही-सहयोगी आत्माओं को, बाप को भी आप समान व्यक्त रूप बनाने वाले, कल्प पहले वाले, चमकते हुए सितारों प्रति बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।
07-01-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
विश्व-कल्याणकारी कैसे बनें?
विश्व-कल्याणकारी शिव बाबा अपने बच्चों को भी आप समान विश्व-कल्याणकारी स्थिति में स्थित होने की विधि बताते हुए बोले :-
सभी आवाज़ से परे अपने शान्त स्वरूप स्थिति में स्थित रहने का अनुभव बहुत समय कर सकते हो? आवाज़ में आने का अनुभव ज्यादा कर सकते हो वा आवाज़ से परे रहने का अनुभव ज्यादा समय कर सकते हो? जितना लास्ट स्टेज़ (Last Stage) अथवा कर्मातीत स्टेज समीप आती जाएगी उतना आवाज़ से परे शान्त स्वरूप की स्थिति अधिक प्रिय लगेगी इस स्थिति में सदा अतीन्द्रिय सुख की अनुभूति हो। इसी अतीन्द्रिय सुखमय स्थिति द्वारा अनेक आत्माओं का सहज ही आह्वान कर सकेंगे। यह पॉवरफुल (Powerful) स्थिति ‘विश्व-कल्याणकारी स्थिति’ कही जाती है। जैसे आजकल साईन्स के साधनों द्वारा सब चीजें समीप अनुभव होती जाती हैं - दूर की आवाज़ टेलीफोन के साधन द्वारा समीप सुनने में आती है, टी.वी. (दूर दर्शन) द्वारा दूर का दृश्य समीप दिखाई देता है, ऐसे ही साईलैन्स की स्टेज द्वारा कितने भी दूर रहती हुई आत्मा को सन्देश पहुँचा सकते हो? वो ऐसे अनुभव करेंगे जैसे साकार में सम्मुख किसी ने सन्देश दिया है। दूर बैठे हुए भी आप श्रेष्ठ आत्माओं के दर्शन और प्रभु के चरित्रों के दृश्य ऐसे अनुभव करेंगे जैसे कि सम्मुख देख रहे हैं। संकल्प के द्वारा दिखाई देगा अर्थात् आवाज़ से परे संकल्प की सिद्धि का पार्ट (Part) बजाएंगे। लेकिन इस सिद्धि की विधि ज्यादा-से-ज्यादा अपने शान्त स्वरूप में स्थित होना है। इसलिए कहा जाता है - साइलेन्स इज़ गोल्ड (Silence Is Gold), यही गोल्डन ऐजड स्टेज (Golden Aged Stage) कही जाती है।
इस स्टेज पर स्थित रहने से ‘कम खर्च बाला नशीन’ बनेंगे। समय रूपी खज़ाना, एनर्जी का खज़ाना और स्थूल खज़ाना में ‘कम खर्च बाला नशीन’ हो जायेंगे। इसके लिए एक शब्द याद रखो। वह कौन-सा है? ‘बैलेन्स’ (Balance)। हर कर्म में, हर संकल्प और बोल, सम्बन्ध वा सम्पर्क में बैलेन्स हो। तो बोल, कर्म, संकल्प, सम्बन्ध वा सम्पर्क साधारण के बजाए अलौकिक दिखाई देगा अर्थात् चमत्कारी दिखाई देगा। हर एक के मुख से, मन से यही आवाज़ निकलेगा कि यह तो चमत्कार है। समय के प्रमाण स्वयं के पुरूषार्थ की स्पीड और विश्व सेवा की स्पीड तीव्र गति की चाहिए तब विश्व कल्याणकारी बन सकेंगे।
विश्व की अधिकतर आत्मएं बाप की और आप इष्ट देवताओं की प्रतयक्षता का आह्वान ज्यादा कर रही हैं और इष्ट देव उनका आह्वान कम कर रहे हैं। इसका कारण क्या है? अपने हद के स्वभाव, संस्कारों की प्रवृत्ति में बहुत समय लगा देते हो। जैसे अज्ञानी आत्माओं को ज्ञान सुनने की फुर्सत नहीं वैसे बहुत से ब्राह्मणों को भी इस पावरफुल स्टेज पर स्थित होने की फुर्सत नहीं मिलती। इसलिए ज्वाला रूप बनने की आवश्यकता है।
बाप-दादा हर एक की प्रवृत्ति को देख मुस्कराते रहते हैं कि कैसे टू मच (Too Much;बहुत ज्यादा) बिजी (Busy) होगए हैं। बहुत बिजी रहते हो ना? वास्तविक स्टेज में सदा फ्री (Free) रहेंगे। सिद्धि भी होगी और फ्री भी रहेंगे।
जब साईन्स के साधन धरती पर बैठे हुए स्पेस (Space;अंतरिक्ष) में गए हुए यन्त्र को कन्ट्रोल कर सकते हैं, जैसे चाहे जहाँ चाहे वहाँ मोड़ सकते हैं, तो साईलेन्स के शक्ति-स्वरूप, इस साकार सृष्टि में श्रेष्ठ संकल्प के आधार से जो सेवा चाहे, जिस आत्मा की सेवा करना चाहे वो नहीं कर सकते? लेकिन अपनी-अपनी प्रवृत्ति से परे अर्थात् उपराम रहो।
जो सभी खज़ाने सुनाए वह स्वयं के प्रति नहीं, विश्व-कल्याण के प्रति युज़ (USE;प्रयोग) करो। समझा, अब क्या करना है? आवाज़ द्वारा सर्विस, स्थूल साधनों द्वारा सर्विस और आवाज़ से परे ‘सूक्ष्म साधन संकल्प’ की श्रेष्ठता, संकल्प शक्ति द्वारा सर्विस का बैलेन्स प्रत्यक्ष रूप में दिखाओ तब विनाश का नगाड़ा बजेगा। समझा?
प्लान्स (Plans;योजनाएं) बहुत बना रहे हो, बाप-दादा भी प्लान बता रहे हैं। बैलेन्स ठीक न होने के कारण मेहनत ज्यादा करनी पड़ती है। विशेष कार्य के बाद विशेष रेस्ट (REST) भी लेते हो ना। फाईनल प्लान में अथकपन का अनुभव करेंगे।
ऐसे सर्व शक्तियों को विश्व-कल्याण के प्रति कार्य में लगाने वाले, संकल्प की सिद्धि स्वरूप, स्वयं की प्रवृत्ति से स्वतन्त्र, सदा शान्त और शक्ति स्वरूप स्थिति में स्थित रहने वाले सर्व श्रेष्ठ आत्माओं को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
10-01-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
जैसा लक्ष्य वैसा लक्षण
सदा बर्थ-राईट (Birth-Right) के नशे में रहने वाले, ईश्वरीय नशे में मस्त रहने वाले, लक्ष्य और लक्षण समान करने वाले, सर्व को सर्व उलझनों से निकालने वाले बच्चों प्रति बाप-दादा बोले :-
आज बाप-दादा हर बच्चे के मस्तक और नैनों द्वारा एक विशेष बात देख रहे हैं। अब तक लक्ष्य और लक्षण कितना समीप हैं। लक्ष्य के प्रभाण लक्षण प्रैक्टीकल रूप में कहाँ तक दिखाई देते हैं? लक्ष्य सब का बहुत ऊँचा है लेकिन लक्षण धारण करने में तीन प्रकार के पुरुषार्थी हैं। वह कौन-से हैं?
(1) एक हैं - जिन्हें सुन कर अच्छा लगता है, करना चाहिए, लेकिन सुनना आता है पर करना नहीं आता है।
(2) दूसरे हैं - जो सोचते हैं, समझते भी हैं, करते भी हैं। लेकिन शक्ति-स्वरूप न होने के कारण डबल पार्ट बजाते हैं। अभी-अभी ब्राह्मण, तीव्र पुरुषार्थी अभी-अभी हिम्मतहीन। कारण? पांच विकार और प्रकृति के तत्व, दोनों में से किसी न किसी के वशीभूत हो जाते हैं। इसलिए लक्ष्य और लक्षण में अन्तर पड़ जाता है। इच्छा है लेकिन इच्छा मात्रम् अविद्या बनने की शक्ति नहीं, इस कारण अपने लक्ष्य की इच्छा तक पहुँच नहीं पाते हैं।
(3) तीसरे हैं - जो सुनना, सोचना और करना, तीनों को समान करते हुए चलते हैं। ऐसी आत्माओं का लक्ष्य और लक्षण 99% समान दिखाई पड़ता है। ऐसे तीन प्रकार के पुरुषार्थी देख रहे हैं।
वर्तमान समय हरेक ब्राह्मण आत्मा के संकल्प और बोल को लक्ष्य की कसौटी पर चैक करना चाहिए: लक्ष्य के प्रमाण संकल्प और बोल हैं? लक्ष्य है - फरिश्ता सो देवता। जैसे लौकिक परिवार और आक्यूपेशन (Occupation) के प्रमाण अपना संकल्प, बोल और कर्म चैक (Check) करते हैं वैसे ब्राह्मण आत्माएं अपने ऊँच से ऊँच परिवार और आक्यूपेशन को सामने रखते हुए चलते हैं? वर्तमान मरजीवा ब्राह्मण जन्म नैचुरल (Natural) स्मृति में रहता है वा पास्ट शुद्रपन के लक्षण नैचुरल रूप में पार्ट में आ जाते हैं? जैसा जन्म होता है वैसे कर्म होते हैं। श्रेष्ठ जन्म के कर्म भी स्वत: ही श्रेष्ठ होने चाहिए। अगर मेहनत लगती है तो ब्राह्मण जन्म की स्मृति कम है। वास्तव में श्रेष्ठ कर्म व श्रेष्ठ लक्ष्य श्रेष्ठ जन्म का बर्थ-राईट (Birth Right) जन्मसिद्ध अधिकार है। जैसे लौकिक जन्म में स्थूल सम्पत्ति बर्थ-राईट होती है। वैसे ब्राह्मण जन्म का दिव्य गुण रूपी सम्पत्ति, ईश्वरीय सुख शक्ति बर्थ-राईट है। बर्थ-राईट का नशा नैचुरल रूप में रहता ही है, मेहनत करने की आवश्यकता ही नहीं। अगर मेहनत करनी पड़ती है तो अवश्य सम्बन्ध और कनेक्शन में कोई कमी है। अपने आप से पूछो बर्थ-राईट का नशा रहता है? इस नशे में रहने से ही लक्ष्य और लक्षण समान हो जायेगा, इसके लिए सहज युक्ति जिससे मेहनत से मुक्ति मिल जाये वो कौन-सी है? स्वयं को जो हूँ, जेसा हूँ, जिस श्रेष्ठ बाप और परिवार का हूँ वैसा जानते हो; लेकिन हर समय मानते नहीं हो। अपनी तकदीर की तस्वीर नहीं देखते हो। अगर सदैव अपनी तकदीर की तस्वीर को देखते रहो तो जैसा साकार शरीर को देखते हुए नैचुरल देह की स्मृति-स्वरूप रहते हो वेसे ही नैचुरल तकदीर की तस्वीर के स्मृति में रहेंगे। चलते फिरते वाह बाबा! और वाह मेरी तकदीर की तस्वीर! यह अजपाजाप अर्थात् मन से यह आवाज़ निकलती रहे। जो भक्त लोग अनहद आवाज़ सुनने का प्रयत्न करते हैं, यह आप की ही स्थिति का गायन भक्ति में चलता रहता है। अपने कल्प पहले की खुशी में सदा नाचने का चित्र जिसको रास-लीला का चित्र कहते हैं - हर गोपी वा गोप सदा गोपीवल्लभ के साथ रास करते हुए दिखाते हैं, यह खुशी में नाचने का यादगार चित्र है। आप के प्रैक्टीकल चरित्र का चित्र बना है। ऐसा प्रैक्टीकल चरित्रवान चित्र सदा देखने में आता है? ऐसे अनुभव करते हो कि यह मेरा ही चित्र है? इसको कहा जाता है ‘तकदीर की तस्वीर’। रोज़ अपनी तकदीर की तस्वीर को देखते हुए हर कर्म करेंगे तो मेहनत से मुक्त हो बर्थ-राईट की खुशी का अनुभव करेंगे।
अब मेहनत करने का समय नहीं रहा, अब तो यह स्मृति-स्वरूप बनो - जो जानना था वह जान लिया, पाना था सो पा लिया ऐसा अनुभव करते हो? बाप-दादा तो हर एक के तकदीर की तस्वीर देख हर्षित होते हैं। ऐसे ही तत् त्वम्। बाप-दादा को विशेष आश्चर्य एक बात का लगता है - मास्टर सर्वशक्तिवान श्रेष्ठ तकदीरवान छोटी-छोटी उलझनों में कैसे उलझ जाते हैं जैसे कि शेर चींटी से घबरा जाता है। अगर शेर कहे ‘‘मैं चीटीं को कैसे मारूं, क्या करूँ’’ तो क्या सोचेंगे? सम्भव बात लगेगी या असम्भव लगेगी? ऐसे मास्टर सर्व शक्तिवान ज़रा-सी उलझन में उलझ जाएं तो क्या बाप को सम्भव बात लगेगी या आश्चर्य की बात लगेगी? इसलिए अब छोटी-छोटी उलझनों से घबराने का समय नहीं है, अब तो सर्व उलझी हुई आत्माओं को निकालने का समय है। समझा ये बचपन की बातें हैं। मास्टर रचयिता के लिए यह बचपन की बातें शोभती नहीं इस लिए कहा है कि सदैव उमंग, उल्लास की रास में नाचते रहो। सदा वाह मेरा भाग्य! और वाह भाग्य विधाता!! इस सूक्ष्म मन की आवाज़ को सुनते रहो। नाचने के साथ जेसे साज चाहिए ना, तो यह अनादि मन का आवाज़ सुनते रहो और खुशी में नाचते रहो।
ऐसे सदा बर्थ-राईट के नशे में रहने वाले, ईश्वरीय मस्ती में सदा रहने वाले, मेहनत से मुक्त होने वाले, लक्ष्य और लक्षण समान करने वाले, सर्व उलझनों से निकालने वाले,ऐसे श्रेष्ठ तकदीर वाले, पद्मापद्म भाग्यशाली बच्चों को यादप्यार और नमस्ते।
11-01-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
स्वयं का परिवर्तन ही विश्व-परिवर्तन का आधार
स्वयं के परिवर्तन से विश्व परिवर्तन करने की युक्ति बताते हुए अव्यक्त बाप-दादा बोले :-
बापदादा अपनी फुलवाड़ी को देख भी रहे हैं और सदा देखते भी रहते हैं। अमृतवेले से लेकर फुलवाड़ी को देखते हैं। आज भी बाप-दादा फुलवाड़ी को देख रहे थे कि हर एक किस प्रकार का, कितना खुशबूदार और कैसा रूप-रंग वाला फूल है। कली है या कली से फूल बने हैं? हर एक की विशेषता क्या है और आवश्यकता क्या है? खुशबूदार तो बने, लेकिन वह खुशबू अविनाशी और दूर तक फैलने वाली है? एक फूल होते हैं जिनकी खुशबू सामने से आती है, दूर से नहीं आती। तो यहाँ भी खुशबूदार तो बने हैं, लेकिन जब बाप के सम्मुख वा सेवा के निमित्त आत्माओं के सामने जाते हैं तो खुशबू होती है, लेकिन सेवा के बिना साधारण कर्म करते हुए वा शरीर निर्वाह करते हुए वह खुशबू नहीं रहती। कोई-कोई फूल दूर से भी आकर्षण करता है। रंग-रूप के आधार पर आकर्षण करता है न कि खुशबू के आधार पर। रंग, रूप, खुशबू आदि सभी में सम्पन्न हों - ऐसे बहुत थोड़े से चुने हुए फूल देखे। रंग, रूप अर्थात् सेन्सीबुल (Sensible;समझदार) हैं और खुशबू वाले इसेन्सफुल (Essenceful) हैं। मैजारिटी (Majority) सेन्सीबुल हैं। इसेन्सफुल थोड़े हैं। सेन्स (Sense) के आधार पर सेवाधारी तो बन गए हैं, लेकिन रूहानी सेवाधारी बनें - ऐसे कम हैं। कारण? जैसे बाप निराकार सो साकार बन सेवा का पार्ट बजाते हैं, वैसे बच्चों को इस ‘मंत्र का यंत्र’ भूल जाता है कि हम भी निराकार सो साकार रूप में पार्ट बजा रहे हैं। ‘निराकार सो साकार’ - यह दोनों स्मृति साथ-साथ नहीं रहती हैं। या तो निराकार बन जाते और या साकारी हो जाते हैं। सदा यह मंत्र याद रहे कि ‘निराकार सो साकार’ - यह पार्ट बजा रहे हैं। यह साकार सृष्टि, साकार शरीर स्टेज है। स्टेज और पाटर्धारी दोनों अलग-अलग होते हैं। पार्टधारी स्वयं को कब स्टेज नहीं समझेंगे। स्टेज आधार है, पार्टधारी आधार मूर्त्त है, मालिक है। इस शरीर को स्टेज समझने से स्वयं को पार्टधारी स्वत: ही अनुभव करेंगे। तो कारण क्या हुआ? स्वयं को न्यारा करना नहीं आता है।
सदैव यह समझ कर चलो कि मैं विदेशी हूँ। पराये देश और पुराने शरीर में विश्वकल्याण का पार्ट बजाने के लिए आया हूँ। तो पहला पाठ कमज़ोर होने के कारण सेन्सीबल बने हैं, लेकिन इसैन्स कम है। रूप, रंग है लेकिन खुशबू अविनाशी और फैलने वाली नहीं। इसलिए अभी फिर से बाप-दादा को पहला पाठ रिपीट करना पड़ता है। सेकेण्ड में स्वयं का परिवर्तन सहज करेंगे। पहले अपने-आप से पूछो कि स्वयं के परिवर्तन में कितना समय लगता है। कोई भी संस्कार , स्वभाव, बोल व सम्पर्क यथार्थ नहीं लेकिन व्यर्थ है तो व्यर्थ को परिवर्तन कर श्रेष्ठ बनाने में कितना समय लगता है। सूक्ष्म संकल्पों को, संस्कारों को जो सोचा और किया। चेक किया और चेंज किया - ऐसी तेज़ स्पीड की मशीनरी है?
वर्तमान समय ऐसे स्वयं की परिवर्तन की मशीनरी फास्ट स्पीड की चाहिए। तब ही विश्व-परिवर्तन की मशीन तेज़ होगी। अभी स्थापना के निमित्त बनी हुई आत्माओं के सोचने और करने में अन्तर है। क्योंकि पुराने भक्ति के संस्कार समय प्रति समय इमर्ज (Emerge) हो जाते हैं। भक्ति में भी सोचना और कहना बहुत होता है। ‘यह करेंगे, यह करेंगे’ - यह कहना बहुत होता है, लेकिन करना कम होता है। कहते हैं, बलिहार जायेंगे, लेकिन करते कुछ भी नहीं। कहते हैं ‘तेरा’, मानते हैं ‘मेरा’ (अर्थात् अपना), वेसे यहाँ भी सोचते बहुत हैं, रूह-रूहान के समय वायदे बहुत करते हैं - ‘आज से बदल कर दिखायेंगे। आज यह छोड़कर जा रहे हैं। आज यह संकल्प करते हैं।’ लेकिन कहने और करने में अन्तर है। सोचने और करने में अन्तर है। ऐसे विनाश के निमित्त बनी हुई आत्माएं सोचती हैं लेकिन कर नहीं पाती हैं। तो अब बाप समान बनने के पहले इस एक बात में समान बनो अर्थात् स्वयं के परिवर्तन करने की मशीनरी तेज़ करो। इस अन्तर को मिटाने का मंत्र वा यंत्र सुनाया कि ‘साकार सो निराकार’ में पार्ट बजाने वाले हैं। इस मंत्र से सोचने और करने में अन्तर को मिटाओ। यही आवश्यकता है। समझा, अब क्या करना है?
स्वयं के परिवर्तन से विश्व-परिवर्तन होगा। विश्व परिवर्तन की डेट नहीं सोचो। स्वयं के परिवर्तन की घड़ी निश्चित करो। स्वयं को सम्पन्न करो तो विश्व का कार्य सम्पन्न हो ही जाएगा। विश्व-परिवर्तन की घड़ी आप हो। अपने-आप में ही देखो कि बेहद की रात समाप्त होने में कितना समय है? सम्पूर्णता का सूर्य उदय होना अर्थात् रात-अन्धकार समाप्त होना। बाप से पूछते हो अथवा बाप आप से पूछे? आधार मूर्त्त आप हो। अच्छा।
ऐसे सेकेण्ड में परिवर्तन करने वाले, सोचने और कर्म में समान बनने वाले, निरन्तर ‘निराकार सो साकार’ मन्त्र स्मृति स्वरूप में लाने वाले, सम्पन्न बन विश्व पर मास्टर ज्ञान सूर्य समान अन्धकार को समाप्त करने वाले, सदा न्यारे और सदा बाप के प्यारे - ऐसे विशेष आत्माओं को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
दीदी के साथ
विनाश की डेट का पता है? कब विनाश होना है? जल्दी विनाश चाहते हो वा हाँ और ना की चाहना से परे हो? विनाश के बजाय स्थापना के कार्य को सम्पन्न बनाने में सभी ब्राह्मण एक ही दृढ़ संकल्प में स्थित हो जाएं तो परिवर्तन हुआ ही पड़ा है। जैसे विनाश की डेट में सभी एकमत हो गए ना। वैसे कोई भी सम्पन्न बनने की विशेष बात लक्ष्य में रखते हुए और डेट फिक्स करें - होना ही है। तब सम्पन्न हो जायेंगे। अभी संगठित रूप में एक ही दृढ़ संकल्प परिवर्तन का नहीं करते हो। कोई करता है कोई नहीं करता है। इसलिए वायुमण्डल पावरफुल (Powerful) नहीं बनता है। मैनारिटी (Minority;अल्प संख्यक) होने कारण जो करता है उसका वायुमण्डल में प्रसिद्ध रूप से दिखाई नहीं देता है। इसलिए अब ऐसे प्रोग्राम बनाओ, जो ऐसे विशेष ग्रुप का कर्त्तव्य विशेष हो - ‘दृढ़ संकल्प से करके दिखाना’। जैसे शुरू में पुरूषार्थ के उत्साह को बढ़ाने के लिए ग्रुप्स (Groups) बनाते थे और पुरूषार्थ की रेस (RACE) करते थे, एक दूसरे को सहयोग देते हुए उत्साह बढ़ाते थे, वैसे अब ऐसा तीव्र पुरूषार्थियों का ग्रुप बने, जो यह पान का बीड़ा उठाये कि ‘जो कहेंगे वही करेंगे, करके दिखायेंगे।’ जैसे शुरू में बाप से पवित्रता की प्रतिज्ञा की कि मरेंगे, मिटेंगे, सहन करेंगे, मार खायेंगे, घर छोड़ देंगे, लेकिन पवित्रता की प्रतिज्ञा सदा कायम रखेंगे - ऐसी शेरनियों के संगठन ने स्थापना के कार्य में निमित्त बन करके दिखाया, कुछ सोचा नहीं, कुछ देखा नहीं - करके दिखाया, वैसे ही अब ऐसा ग्रुप चाहिए। जो लक्ष्य रखा उस लक्ष्य को पूर्ण करने के लिए सहन करेंगे, त्याग करेंगे, बुरा-भला सुनेंगे, परीक्षाओं को पास करेंगे लेकिन लक्ष्य को प्राप्त करके ही छोड़ेंगे। ऐसे ग्रुप सैम्पल (Sample) बनें तब उनको और भी फॉलो (Follow) करें। जो आदि में सो अन्त में। ऐसे मैदान में आने वाले, जो निन्दा, स्तुति, मान-अपमान सभी को पार करने वाले हों - ऐसा ग्रुप चाहिए। कोई भी बात में सुनना वा सहन करना, किसी भी प्रकार से, यह तो करना ही होगा, कितना भी अच्छा करेंगे, लेकिन अच्छे को ज्यादा सुनना, सहन करना पड़ता है - ऐसी सहन शक्ति वाला ग्रुप हो। जैसे शुरू में पवित्रता के व्रत वाला ग्रुप मैदान में आया तो स्थापना हुई, वैसे अब यह ग्रुप मैदान में आए तब समाप्ति हो। ऐसा ग्रुप नज़र आता है? जैसे वह पार्लियामेन्ट बनाते हैं ना - यह फिर सम्पन्न बनने की पार्लियामेन्ट हो, नई दुनियाँ, नया जीवन बनाने का विधान बनाने वाली ‘विधान सभा’ हो। अब देखेंगे कौन-सा ग्रुप बनाती हो। विदेशी भी ऐसा ही ग्रुप बनाना। सच्चे ब्राह्मण बनकर दिखाना। मधुबन से क्या बनकर जा रहे हो? जहाँ से आए हैं वहाँ पहऊँचते ही सभी समझें कि यह तो अवतार अवतरित हुए हैं। जब एक ‘अवतार’ दुनिया में क्रान्ति ला सकता है तो इतने सभी अवतार जब उतरेंगे तो कितनी बड़ी क्रान्ति हो जायेगी! विश्व में क्रान्ति लाने वाले अवतार हो - ऐसे समझते हुए कार्य करना है। अच्छा।
इस ग्रुप को कौन-सा ग्रुप कहेंगे? बाप-दादा इस ग्रुप को मैसेन्जर (Messenger;सन्देश देने वाले) ग्रुप देख रहे हैं। एक-एक अनेक आत्माओं को बाप का सन्देश देने वाले हैं। ऐसे अपने को समझते हो? अब देखेंगे कि कौन-सा माली, कौन-से फूल लाते हैं और कितना बड़ा गुलदस्ता तैयार करते हो! सदैव माली अपने मालिक को बहुत प्यार से गुलदस्ता बनाकर पेश करता है, तो बाप भी देखेंगे। सुनाया इसेन्स (Essence;खुशबू) वाला होना चाहिए। रूहानियत की इसेन्स हो। अपने को माली समझते हो? इतने सारे तैयार हो जायेंगे तो विश्व का कल्याण हो जाएगा। बापदादा की यही उम्मीद है।
सभी पाण्डव कल्प पहले की तरह अपनी ऊँची स्टेज को प्राप्त होते हुए देह- अभिमान से पूर्ण रीति से गल गए हैं? जैसे पाण्डवों को दिखाते हैं कि पहाड़ों पर गल गए अर्थात् समाप्त हुए। ऐसे देह-अभिमान की स्थिति से समाप्त हो गए हो? अभी पूरे पाण्डव समान मरजीवा नहीं बने हो? मरजीवा अर्थात् देहभान से मरना। तो मरजीवा बने हो? मरना तो मरना, या अभी मर रहे हो? ऐसे होता है क्या? एक स्थान से मरना दूसरे स्थान में जीना होता है। यह सब में होता है ना? यहाँ भी देह-अभिमान से मरना और देही-अभिमान से जीना। इसमें कितना टाइम चाहिए? कम से कम 6 मास तो हो गए हैं ना। पाण्डव प्रसिद्ध हैं - ऊँची स्टेज को प्राप्त करने में। इसलिए पाण्डव के शरीर भी लम्बे-लम्बे दिखाते हैं। शरीर नहीं लेकिन आत्मा की स्टेज इतनी ऊँची हो। तो वही पाण्डव हो ना। तीव्र पुरूषार्थ का सहज साधन है - दृढ़ संकल्प। देही-अभीमानी बनने के लिए भी दृढ़ संकल्प करना है कि मैं शरीर नहीं हूँ, आत्मा हूँ। संकल्प में दृढ़ता नहीं तो कोई भी बात में सफलता नहीं। कोई भी बात में जब दृढ़ संकल्प रखते हैं तब ही सफलता होती है। दृढ़ संकल्प वाले ही मायाजीत होते हैं। माया से हार खाने वाले तो नहीं हो ना? जब माया को परखते नहीं तब ही धोखा खाते हैं। परखने वाला कभी धोखा नहीं खा सकता। लक्की (Lucky; खुशनसीब) हो जो प्राप्ति से पहले वर्सा लेने का अधिकार प्राप्त हुआ। जब खुशियों के सागर बाप के बने, तो कितनी खुशी होनी चाहिए! अप्राप्ति क्या है, जो खुशी गायब होती है? जहाँ प्राप्ति होती है, वहाँ खुशी होती है। अल्पकाल की प्राप्ति वाले भी खुश होते हैं। तो सदाकाल की प्राप्ति वालों को सदा खुश रहना चाहिए। कभी-कभी खुशी में रहेंगे तो अन्तर क्या हुआ? ‘ज्ञानी अर्थात् सदा खुश।’ अज्ञानी अर्थात् कभी-कभी खुश। तो सदा खुश रहने का दृढ़ संकल्प करके जाना।
टीचर्स के साथ:-
टीचर्स अर्थात् फरिश्ता। टीचर का काम है - पण्डा बन करके यात्रियों को ऊँची मंज़िल पर ले जाना। ऊँची मंज़िल पर कौन ले जा सकेगा? जो स्वयं फरिश्ता अर्थात् डबल लाईट होगा। हल्का ही ऊँचा जा सकता है। भारी नीचे जाएगा। टीचर का काम है ऊँची मंज़िल पर ले जाना। तो खुद क्या करेंगे? फरिश्ता होंगे ना। अगर फरिश्ते नहीं तो खुद भी नीचे रहेंगे और दूसरों को भी नीचे लायेंगे। अपने को फरिश्ता अनुभव करती हो? बिल्कुल हल्का। देह का भी बोझ नहीं। मिट्टी बोझ वाली होती है ना। देहभान भी मिट्टी है। जब इसका भान है तो भारी रहेंगे। इससे परे हल्का अर्थात् फरिश्ता होंगे। तो देह के भान से भी हल्कापन। देह के भान से परे तो और सभी बातों से स्वत: ही परे हो जायेंगे। फरिश्ता अर्थात् बाप के साथ सभी रिश्ते हों। अपनी देह के साथ भी रिश्ता नहीं। बाप का दिया हुआ तन भी बाप को दे दिया था। अपनी वस्तु दूसरे को दे दी तो अपना रिश्ता खत्म हुआ। सब हिसाब-किताब बाप से, और किसी से नहीं। तुम्हीं से बैठूं, तुम्हीं से बोलूं......... तो लेन-देन सब खाता बाप से हुआ ना? जब एक बाप से सब खाता हुआ तो और सभी खाते खत्म हो गए ना? टीचर अर्थात् जिसके सब खाते बाप से अर्थात् सब रिश्ते बाप से। कोई पिछला खाता नहीं, सब खत्म हो गया। इसको ही तुम्हीं से बोलूं...... तो लेन-देन सब खाता बाप से हुआ ना! जब एक बाप से सब खाता हुआ तो और सभी खाते खत्म हो गए ना? टीचर अर्थात् जिसके सब खाते बाप से अर्थात् सब रिश्ते बाप से। कोई पिछला खाता रह नहीं जाता। जब बाप के बने तो पिछला खाता सब खत्म हो गया। इसको ही कहा जाता है सम्पूर्ण बेगर (Beggar)। बेगर का कोई बैंक बैलेन्स (Bank Balance) नहीं होता। खाता नहीं, कोई रिश्ता नहीं। न किसी व्यक्ति से, न किसी वैभव से - खाते समाप्त। पिछले कर्मों के खाते में कोई भी बैंक बैलेन्स नहीं होना चाहिए। ऐसी चेकिंग करनी है। ऐसे कई होते हैं कि मरने के बाद कोई सड़ा हुआ खाता रह जाता है तो पीछे वालों को तंग करता है। तो चेक करते हो कि सब खाते समाप्त हैं? स्वभाव, संस्कार, सम्पर्क, सब बातें, सब रिश्ते खत्म। फिर खाली हो जायेंगे ना। जब इतना हल्का बने तभी पण्डा बन औरों को ऊँचा उठा सकंगे। तो समझा, टीचर को क्या करना होता है? टीचर बनना सहज है या मुश्किल? टीचर बनना भी बाप समान बनना हुआ तो जो टीचर की सीट लेता है वह बाप समान बनता है। टीचर बनते हैं अर्थात् जिम्मेवारी का संकल्प लेते हैं। तो बाप भी इतना सहयोग देते हैं। जो जितनी जिम्मेवारी लेता, उतना ही बाप सहयोग देने का जिम्मेवार हैं। जब बाप जिम्मेवारी ले लेते तो मुश्किल हुआ या सहज? जब बाप को जिम्मेवारी दे दी, तो स्वयं नहीं उठानी चाहिए। जिसके निमित्त बनते, उनकी जिम्मेवारी अपनी समझते हो। तो मुश्किल हो जाती है। जिम्मेवार बाप है न कि आप। अपने-आप के ऊपर बोझ तो नहीं रख लेते? कइयों को बोझ उठाने की आदत होती है। कितना भी कहो फिर भी उठा लेते हैं। यह न हो जाय, ऐसा न हो जाय यह व्यर्थ का बोझ है, बोझ बाप के ऊपर छोड़ दो। बाप का बन बाप के ऊपर छोड़ने से सफलता भी ज्यादा, उन्नति भी ज्यादा और सहज हो जाएगा। टीचर्स तो बाप-दादा को प्रिय हैं, क्यों? फिर भी हिम्मत तो रखी है ना। बाप-दादा हिम्मत देख हर्षित होते, लेकिन हिम्मतहीन देख आश्चर्य भी खाते हैं। टीचर्स को ‘क्यों’ और ‘क्या’ के क्वेश्चन में नहीं जाना चाहिए। नहीं तो आपकी ‘क्यू’ (Queue;कतार) भी ऐसी हो जाएगी। टीचर अर्थात् फुल स्टॉप (Full Stop) की स्थिति में स्थित। क्वेश्चन वाले प्रजा में आ जाते हैं। फुल स्टॉप अर्थात् राजा। क्वेश्चन वाले को कब अति-इन्द्रिय सुख नहीं हो सकता। इसलिए टीचर्स की विशेष धारणा ही ‘फुल स्टॉप की स्टेज है’। टीचर्स अर्थात् इन्वेन्टर बुद्धि (Inventor;आविष्कार), प्रोग्राम प्रमाण ही सिर्फ चलने वाले नहीं। इन्वेन्शन करने वाले। क्या ऐसी नई बात निकाले, जो सहज और ज्यादा से ज्यादा को सन्देश पहुँच जाए। यह इन्वेन्शन हरेक को निकालनी है। अच्छा।
12-01-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
‘बालक सो मालिक’ बनने वालों के तीनों कालों का साक्षात्कार
त्रिकालदर्शी शिवबाबा हर आत्मा के तीनों कालों को देखते हुए बोले :-
आज बाप-दादा हर बच्चे के तीनों कालों को देख रहे हैं। पास्ट (Past;भूतकाल) में आदि काल के भक्त हैं या मध्यकाल के? क्या भक्ति काल समाप्त हो गया है? भक्ति का फल - ज्ञान सागर और ज्ञान की प्राप्ति प्राप्त करते हुए ज्ञानी तू आत्मा बने हैं, या बन रहे हैं? भक्ति के संस्कार अधीनता अर्थात् किसी के अधीन रहना, मांगना, पुकारना, स्वयं को सदा सम्पन्नता से दूर समझना, इस प्रकार के संस्कार अभी तक अंश मात्र में रहे हुए हैं, या वंश रूप में भी हैं? वर्तमान समय बाप समान गुण, कर्त्तव्य और सेवा में कहाँ तक सम्पन्न बने हैं? वर्तमान के आधार से भविष्य प्रालब्ध कितनी श्रेष्ठ बना रहे हैं? ऐसे हरेक के तीनों कालों को देखते हुए, ‘बालक सो मालिक’ बनने वालों को देखते हुए गुण भी गाते हैं, लेकिन साथ-साथ कहीं-कहीं आश्चर्य भी लगता है। अपने-आप से पूछो और अपने-आपको देखो कि अभी तक भक्तपन के संस्कार अंश रूप में भी रह तो नहीं गए हैं? अगर अंश मात्र भी किसी स्वभाव, संस्कार के अधीन हैं, नाम, मान, शान के मंगता (मांगने वाले) हैं; ‘क्या’ और ‘कैसे’ के क्वेश्चन (Question) में चिल्लाने वाले, पुकारने वाले, भक्त समान ‘अन्दर एक बाहर दूसरा’, ऐसे धोखा देने के बगुले भक्त के संस्कार हैं, तो जहाँ भक्ति का अंश है वहाँ ज्ञानी तू आत्मा हो नहीं सकती, क्योंकि ‘भक्ति है रात और ज्ञान है दिन’। रात और दिन इकट्ठे नहीं हो सकते।
ज्ञानी तू आत्मा, सदा भक्ति के फल-स्वरूप, ज्ञान सागर और ज्ञान में समाया हुआ रहता है, इच्छा मात्रम् अविद्या, सर्व प्राप्ति स्वरूप होता है। ऐसे ज्ञानी तू आत्मा का चित्र अपनी बुद्धि द्वारा खींच सकते हो? जैसे आपके भविष्य श्री कृष्ण के चित्र को जन्म से ही ताजधारी दिखाते हैं, मुख में गोल्डन स्पून (Golden Spoon In Mouth) अर्थात् जन्मते ही सर्व प्राप्ति स्वरूप दिखाते हैं। हेल्थ (Health), वेल्थ (Wealth), हैपीनेस (Happiness) सबमें सम्पन्न स्वरूप हैं। प्रकृति भी दासी है। यह सब बातें, जो भविष्य में प्राप्त होने वाली हैं, उसका अनुभव अब संगमयुग में भी होना है, या सिर्फ भविष्य का ही गायन है? संस्कार यहाँ से ले जाने हैं या वहाँ बनने हैं? त्रिकालदर्शी की स्टेज अभी है या भविष्य में? सम्मुख बाप और वर्से की प्राप्ति अभी है अथवा भविष्य में? श्रेष्ठ स्टेज अब है या भविष्य में? अभी श्रेष्ठ है ना।
संगमयुग के ही अन्तिम सम्पूर्ण स्टेज का चित्र भविष्य चित्र में दिखाते हैं। भविष्य के साथ पहले सर्व प्राप्ति का अनुभव संगमयुगी ब्राह्मणों का है। अन्तिम स्टेज पर ताज, तख्त, तिलकधारी, सर्व अधिकारी मूर्त्त बनते हो, मायाजीत, प्रकृतिजीत बनते हो। सदा साक्षीपन के तख्त नशीन, बाप-दादा के दिल तख्त-नशीन, विश्व-कल्याणकारी के जिम्मेवारी का ताजधारी, आत्म-स्वरूप की स्मृति के तिलकधारी, बाप द्वारा मिली हुई अलौकिक सम्पत्ति - ज्ञान, गुण और शक्तियाँ इस सम्पत्ति में सम्पन्न होते हो। सिंगल ताज (Single Crown) भी नहीं, डबल ताजधारी (DOUBLE Crown) होते हो। जैसे डबल तख्त - दिल तख्त और साक्षीपन की स्टेज का तख्त का तख्त है, वैसे जिम्मेवारी अर्थात् सेवा का ताज और साथ-साथ सम्पूर्ण प्योरिटी (Purity) लाईट (Light) का क्राउन (Crown) भी होता है। तो डबल ताज, डबल तख्त और सर्व प्राप्ति सम्पन्न स्वरूप गोल्डन स्पून (Golden Spoon;सोने तुल्य) तो क्या लेकिन हीरे-तुल्य बन जाते हो। हीरे के आगे तो सोना कुछ भी नहीं। ‘जीवन ही हीरा बन जाता है’। ज्ञान के गहने, गुणों के गहनों से सजे-सजाए बनते हो। भविष्य का श्रृंगार इस संगमयुगी श्रृंगार के आगे कोई बड़ी बात नहीं लगेगी। वहाँ तो दासियां श्रृंगारेगी, और यहाँ स्वयं ज्ञान-दाता बाप श्रृंगारता है। वहाँ सोने वा हीरे के झूले में झूलेंगे, यहाँ बाप-दादा की गोदी में झूलते हो, अतीन्द्रिय सुख के झूले में झूलते हो। तो श्रेष्ठ चित्र कौन-सा हुआ? वर्तमान का या भविष्य का? सदैव अपने ऐसे श्रेष्ठ चित्र को सामने रखो। इसको कहा जाता है - ‘ज्ञानी तू आत्मा’ का चित्र।
तो बाप-दादा सबके तीनों कालों को देख रहे हैं कि हरेक का प्रैक्टीकल (Practical;व्यवहारिक) चित्र कहाँ तक तैयार हुआ है? सबका चित्र तैयार हुआ है? जब चित्र तैयार हो जाता है तब दर्शन करने वालों के लिए खोला जाता है। ऐसे चैतन्य चित्र तैयार हो जो समय का पर्दा खुले? दर्शन सदैव सम्पूर्ण मूर्ति का किया जाता है, खंडित मूर्ति का दर्शन नहीं होता। किसी भी प्रकार की कमी अर्थात् खंडित मूर्ति। दर्शन कराने योग्य बने हो? स्वयं का सोचते हो या समय का सोचते हो? स्वयं के पीछे समय का परछाई है। स्वयं को भी भूल जाते हो; इसलिए मास्टर त्रिकालदर्शी बन अपने तीनों कालों को जानते हुए स्वयं को सम्पन्न-मूर्त्त अर्थात् दर्शन मूर्ति बनाओ। समझा?
समय को गिनती नहीं करो। बाप के गुणों व स्वयं के गुणों की गिनती करो। स्मृति दिवस तो मनाते रहते हो, लेकिन अब स्मृति-स्वरूप दिवस मनाओ। इसी स्मृति दिवस का यादगार शान्ति स्तम्भ, पवित्रता स्तम्भ, शक्ति स्तम्भ बनाया है, वैसे ही स्वयं को सब बातों का स्तम्भ बनाओ जो कोई हिला न सके। बाप के स्नेह के सिर्फ गीत नहीं गाओ, लेकिन स्वयं बाप समान अव्यक्त स्थिति स्वरूप बनो, जो सब आपके गीत गाए। गीत भले गाओ - लेकिन जिसके गीत गाते हो वह स्वयं आपके गीत गाए, ऐसे अपने को बनाओ।
इस स्मृति दिवस पर बाप स्नेह का प्रैक्टीकल रूप देखना चाहते हैं। स्नेह की निशानी है - कुर्बानी। जो बाप बच्चों से कुर्बानी चाहते हैं, वह सब जानते भी हो। प्रैक्टीकल स्वरूप स्वयं की कमज़ोरियों की कुर्बानी। इस कुर्बानी के मन से गीत गाओ कि बाप के स्नेह में कुर्बान किया। स्नेह के पीछे कुर्बान करने में कोई मुश्किल व असम्भव बात भी सम्भव और सहज अनुभव होती है। ‘अब का स्मृति दिवस समर्थी दिवस के रूप में मनाओ’। स्मृति स्वरूप समर्थ स्वरूप। समझा? बाप उस दिन विशेष देखेंगे कि किस-किस ने कौन-कौन सी कुर्बानी और किस परसेंट और किस रूप में चढ़ाई है। मजबूरी से या मोहब्बत से, नियम प्रमाण नहीं करना। नियम है इसलिए करना है - ऐसे मजबूरी से नहीं करना। दिल के स्नेह का ही स्वीकार होता है। अगर स्वीकार नहीं हुआ तो बेकार हुआ। इसलिए सुनाया कि ‘बगुला भगत’ नहीं बनना स्वयं को धोखा नहीं देना। सत्य बाप के पास सत्य ही स्वीकार होता है। बाकी सब पाप के खाते में जमा होता है, न कि बाप के खाते में। पाप का खाता समाप्त कर बाप के खाते में भरो; कदम में पद्मों की कमाई कर पद्मापति बनो। अच्छा।
ऐसे इशारे से समझने वाले, समय को नहीं लेकिन स्वयं की सोचने वाले, बाप के स्नेह में एक सेकेण्ड के दृढ़ संकल्प में कुर्बानी करने वाले, डबल ताज, डबल तख्तनशीन, ज्ञानी तू आत्माओं को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
टीचर्स के साथ:
टीचर्स अर्थात् सेवाधारी। सेवा में सफलता का मुख्य साधन है - त्याग और तपस्या। दोनों में से अगर एक की भी कमी है तो सेवा की सफलता में भी इतने परसेन्ट कमी होती है। त्याग अर्थात् मन्सा संकल्प से भी त्याग, सरकमस्टेंस (Circumstance;परिस्थिति) के कारण या मर्यादा के कारण मजबूरी से त्याग बाहर से कर भी लेंगे तो संकल्प से त्याग नहीं होगा। त्याग अर्थात् ज्ञान-स्वरूप से संकल्प से भी त्याग, मजबूरी से नहीं। ऐसे त्यागी और तपस्वी अर्थात् सदा बाप की लगन में लवलीन, प्रेम के सागर में समाए हुए, ज्ञान, आनन्द, सुख, शान्ति के सागर में समाये हुए को ही कहेंगे - ‘तपस्वी’। ऐसे त्याग तपस्या वाले ही सेवाधारी कहे जाते हैं। ऐसे सेवाधारी हो ना? त्याग ही भाग्य है। बिना त्याग के भाग्य नहीं बन सकता। इसको कहा जाता है टीचर। तो नाम और काम दोनों टीचर के हैं। केवल नाम टीचर का नहीं। टीचर अर्थात् पोजीशन नहीं, लेकिन सेवाधारी। टीचर्स अर्थात् सभी को पोजिशन दिलाने वाली, न कि पोजीशन समझ उसमें अपने को नामधारी टीचर समझने वाली। जैसे कहा जाता है देना, देना नहीं लेकिन लेना है - ऐसे ही टीचर अपने पोजिशन का त्याग करती है तो यही भाग्य लेना है। अच्छा।
16-01-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
सन्तुष्ट आत्मा ही अनेक आत्माओं का इष्ट बन सकती है
सर्व शक्तियों से सम्पन्न, श्रेष्ठ कर्म सिखलाने वाले, नज़र से निहाल करने वाले शिवबाबा बोले :-
वरदाता बाप द्वारा सर्व वरदानों को प्राप्त करते हुए बाप समान वरदानी मूर्त्त बने हो? एक है - ज्ञान रत्नों का महादान। दूसरा है - कमज़ोर आत्माओं प्रति अपने शुद्ध संकल्प व शुभ भावना द्वारा सर्वशक्तिवान से, प्राप्त हुई शक्तियों का वरदान। ज्ञान-धन दान देने से आत्मा स्वयं भी ज्ञान-स्वरूप बन जाती है। लेकिन जो कमज़ोर आत्माएं ज्ञान को धारण नहीं कर सकती, ज्ञानी तू आत्मा नहीं बन सकती, स्वयं के पुरूषार्थ द्वारा श्रेष्ठ प्रालब्ध नहीं बना सकती - ऐसी सिर्फ स्नेह, सहयोग, सम्पर्क, भावना में रहने वाली आत्माएं आप वरदानी मूर्तों द्वारा वरदान के रूप में कोई न कोई विशेष शक्ति प्राप्त कर थोड़ी-सी प्राप्ति में भी अपने को भाग्यशालाr अनुभव करेंगी, जिसको प्रजा पद की प्राप्ति करने वाली आत्माएं कहेंगे। ऐसी आत्माएं डायरेक्ट (सम्मुख) योग द्वारा वा स्वयं की सर्व धारणाओं द्वारा, बाप-दादा द्वारा सर्व शक्तियों को प्राप्त नहीं कर पातीं। लेकिन प्राप्त की हुई आत्माओं द्वारा आत्माओं के सहयोग से कुछ न कुछ वरदान प्राप्त कर लेती हैं।
शक्तियों को विशेष रूप में ‘वरदानी’ कह कर पुकारते हैं। तो अभी अन्त के समय में महादानी से भी ज्यादा, वरदानी रूप की सेवा होगी। स्वयं की अन्तिम स्टेज पावरफुल होने के कारण, सम्पन्न होने के कारण ऐसी प्रजा आत्माएं थोड़े समय में, थोड़ी-सी प्राप्ति में भी बहुत खुश हो जाती हैं। स्वयं की संतुष्ट स्थिति होने के कारण वे आत्माएं भी जल्दी संतुष्ट हो जाती हैं और खुश हो कर बार-बार महान आत्माओं के गुण गायेंगी। ‘कमाल है’ यही आवाज़ चारों ओर अनेक आत्माओं के मुख से निकलेगा। बाप का शुक्रिया और निमित्त बनी आत्माओं का शुक्रियां, यही गीतो के रूप में चारों ओर गूंजेगा। प्राप्ति के आधार पर हर एक आत्मा अपने दिल से महिमा के फूलों की वर्षा करेगी। अब ऐसे वरदानी मूर्त्त बनने के लिए विशेष अटेंशन एक बात का रखना है। सदा स्वयं से और सर्व से संतुष्ट - संतुष्ट आत्मा ही अनेक आत्माओं का इष्ट बन सकती है व अष्ट देवता बन सकती है। सबसे बड़े से बड़ा गुण कहो या दान कहो या विशेषता कहो या श्रेष्ठता कहो, वह संतुष्टता ही है। संतुष्ट आत्मा ही प्रभु प्रिय, लोक प्रिय और स्वयं प्रिय होती है। संतुष्ट आत्मा की परख इन तीनों बातों से होती है। ऐसी संतुष्ट आत्मा ही वरदानी रूप में प्रसिद्ध होगी। तो अपने को चेक करो कि कहाँ तक सन्तुष्ट आत्मा सो वरदानी आत्मा बने हैं? समझा? अच्छा।
ऐसे विश्व-कल्याणकारी, महा वरदानी, एक सेकेण्ड के संकल्प द्वारा अनुभव कराने वाले, सर्व शक्तियों का प्रसाद तड़पती हुई आत्माओं को दे प्रसन्न करने वाले, ऐसे साक्षात्कार मूर्त्त, दर्शनीय मूर्त्त, सम्पन्न और समान मूर्त्त, सर्व की श्रेष्ठ भावनाएं, श्रेष्ठ कामनायें पूर्ण करने वाली आत्माओं को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
टीचर्स के साथ:
सभी टीचर्स अपने को जैसे बाप विश्व शिक्षक है वैसे स्वयं को भी विश्व के निमित्त शिक्षक समझती हैं अथवा हद के? टीचर्स के प्रति विशेष पुरूषार्थ का स्लोगन कौन-सा है? हर सेकेण्ड मन, वाणी और कर्म तीनों द्वारा साथ-साथ सर्विस करेंगे। अर्थात् एक सेकेण्ड में व हर सेकेण्ड में तीनों रूपों की सेवा में उपस्थित रहेंगे। जब टीचर्स इस स्लोगन को सदा प्रैक्टीकल में लाएं तब ही विश्वकल्याण कर सकेंगे। इतने बड़े विश्व का कल्याण करने के लिए एक ही समय पर जब तीनों ही रूपों से सेवा हो तब यह सेवा का कार्य समाप्त हो सकेगा। वाणी द्वारा वा मन्सा द्वारा अलग-अलग समय नहीं। एक ही समय तीनों रूपों से सेवा करने वाले विश्व-कल्याणकारी बन सकेंगे। तो यही चेक करों कि हर समय तीनों ही रूपों से सेवा होती है? बाप के साथ तीन सम्बन्ध हैं। बाप, शिक्षक और सतगुरू के स्वरूप से सेवा करते हैं तो निमित्त टीचर्स को एक ही समय में तीन रूपों से सेवा करनी है। तो मास्टर त्रिमूर्त्रि हो जायेंगे। समझा? जितना-जितना टीचर्स शक्ति सम्पन्न बनेंगी उतना ही सर्व आत्माओं के प्रति निमत्त बन सकेंगी। निमित्त बनने वालों के ऊपर बहुत जिम्मेवारी होती है। निमित्त बनने वाले का एक सेकेण्ड में एक का पद्मगुण बनना भी है, प्राप्ति का भी चान्स है और फिर अगर निमित्त बने हुए कोई ऐसा कर्म करते जिसको देख और सभी विचलित हों उसकी पद्मगुणा उल्टी प्राप्ति भी होती है। संकल्प से वृत्ति बनेगी और वृत्ति से वातावरण बनेगा। तो ऐसा कोई संकल्प व वृत्ति न हो जिससे वातावरण अशुद्ध बने। ऐसा कोई बोल न हो जिसको सुन कर कोई विचलित हो। क्योंकि सबका अटेंशन निमित्त बनी हुई टीचर्स के प्रति रहता है तो टीचर्स को डबल अटेंशन रखना पड़े। सभी ऐसे ही डबल अटेंशन रखते हुए चल रहे हो ना? ‘पहले सोचो फिर करो’। पहले करो फिर सोचो नहीं। नहीं तो टाईम और एनर्जी वेस्ट चली जाती है। टीचर्स को तो विशेष खुशी होनी चाहिए क्योंकि टीचर्स को लिफ्ट है - एक बाप और सेवा में रहने की और कोई वातावरण नहीं है। तो इस लिफ्ट का लाभ उठाना चाहिए ना? तो सदा हर्षित हो ना? सदा हर्षित कौन रहता है? जो कहाँ भी आकर्षित न हो। अगर किसी भी तरफ चाहे प्रकृति, चाहे आत्माओं, चाहे आत्माओं के गुणों की तरफ आकर्षित होते हो तो हर्षित नहीं रह सकेंगे। सर्व आकर्षण से परे, सिवाए एक बाप के, ऐसी आत्मा ही सदा हर्षित रह सकती है। अच्छा।
18-01-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
18 जनवरी का विशेष महत्व
अटल, अचल, अखंड, सदा हर परिस्थिति में भी अड़ोल, सर्व गुण और सर्व शक्तियों से सम्पन्न बनाने वाले बाबा बोले:-
सभी स्मृति-स्वरूप अर्थात् समर्थी-स्वरूप स्थिति में स्थित हो? आज का दिन विशेष रूप में स्मृति-स्वरूप बनने का है। बाप-दादा के स्नेह में समाए हुए अर्थात् बाप समान बनने वाले स्नेह की निशानी है - समानता। तो आज सारा दिन स्मृति-स्वरूप अर्थात् बाप समान स्वयं को अनुभव किया? बाप-दादा के स्नेह का रेसपान्स (RESPONSE) ‘बाप समान भव’ का वरदान अनुभव किया? आज का विशेष दिवस स्वत: और सहज और थोड़े समय में बाप समान स्थिति अनुभव करने का दिन है। जैसे सभी युगों में से संगमयुग सहज प्राप्ति का युग गाया जाता है, वैसे ब्राह्मण के लिए संगमयुग में भी यह दिन विशेष सर्वशक्तियों के वरदान प्राप्त होने का, ‘बाप समान’ की स्थिति का अनुभव करने का ड्रामा में नूंधा हुआ है। विशेष दिन का विशेष महत्व जान, महान रूप से मनाया? अमृतवेले से बाप-दादा ने विशेष अनुभवों के गोल्डन चान्स (Golden Chance) की लाटरी (Lottery) खोली है। ऐसी लाटरी लेने के अधिकार को अनुभव किया? स्नेह-युक्त रह व योग-युक्त, सर्वशक्तयों के प्रति युक्त, सर्व प्रकार के प्रकृति व माया के आकर्षण से परे रहे? आज बाप-दादा ने बच्चों के पुरूषार्थ की रिज़ल्ट देखीं। रिज़ल्ट में क्या देखा, जानते हो?
बहुत बच्चे बाप-दादा के सिर के ताज के रूप में देखे। और कई बच्चे गले के हार के रूप में देखे; और कई बच्चे भुजाओं के श्रृंगार के रूप में देखे। अब हर एक अपने से पूछे कि ‘‘मेरा स्थान कहाँ है?’’ (जहाँ बाबा बिठायेंगे) बाबा बिठाये, लेकिन बैठना तो आपको पड़ेगा ना! बाप की आज्ञा बहुत बड़ी है। उसको जानते हो ना? विदेशी सो स्वदेशी किस में होंगे? सब विदेशी ताज में आयेंगे तो स्वदेशी कहाँ जायेंगे? ताज में तो बहुत थोड़े होते हैं। मेजारिटी (Majority) गले और भुजाओं का श्रृंगार हैं। ताजधारी अर्थात् बाप के ताज में चमकते हुए रत्न, जिन की विशेष पूजा होती है उनकी निशानी है ‘सदा बाप में समाए हुए और समान’। उन के हर बोल और कर्म से सदा और स्वत: बाप प्रत्यक्ष होगा। उनकी सीरत और सूरत को देख हर एक के मुख से यही बोल निकलेंगे कि कमाल है, जो बाप ने ऐसे योग्य बनाया! उनके गुण देखते हुए निरन्तर बाप-दादा के गुण सब गायेंगे। उन की दृष्टि सभी की वृत्ति को परिवर्तन करेंगी। ऐसी स्थिति वाले सिर के ताज गाए जाते हैं।
गले का श्रृंगार अर्थात् सेकेण्ड नम्बर सदैव अपने गले की आवाज़ अर्थात् मुख के आवाज़ द्वारा बाप को प्रत्यक्ष करने के प्रयत्न में रहते हैं। सदा बाप-दादा को अपने सामने रखते हैं; लेकिन समाए हुए नहीं रहते। सदा बाप-दादा के गुण गाते रहते लेकिन स्वयं सदा गुण मूर्त्त नहीं रहते। समान बनने की भावना और श्रेष्ठ कामना रखते हैं लेकिन हर प्रकार की माया के वारों का सामना नहीं कर पाते। ऐसी स्थिति वाले गले का श्रृंगार हैं।
तीसरी क्वालिटी (Quality-प्रकार) तो सहज ही समझ गए होंगे, भुजा की निशानी है सहयोग की, जो किसी भी प्रकार से, मन से, वाणी से आथवा कर्म से, तनमन वा धन से बाप के कर्त्तव्य में सहयोगी होते हैं, लेकिन सदा योगी नहीं होते - ऐसे भी अनेक बच्चे हैं। बाप-दादा ने रिवाईज़ कोर्स (REVISE Course) के साथ रियलाईजेशन कोर्स (REALIZATION Course) भी दिया है। अब बाकी क्या रहा? क्या कमी रह गई है बाकी?
नष्टोमोह: स्मृति-स्वरूप हो गए कि अभी होना है? 1976 तक होना ही था ना? फाईनल विनाश तक रूकी हुई है क्या? इन्तजार तो नहीं कर रहे हो ना? विनाश का इन्तजार करना अर्थात् अपनी डैथ (Death;मृत्यु) की डेट की स्मृति रखना, अपनी डैथ का आह्वान कर रहे हो? कितने संकल्प कर रहे हो, विनाश क्यों नहीं हुआ? कब होगा? कैसे होगा? संगमयुग सुहावना लगता है वा सतयुग? तो घबराते क्यों हो कि विनाश क्यों नहीं हुआ? अगर स्वयं इस प्रश्न से प्रसन्न हैं तो दूसरे को भी प्रसन्न कर सकते हैं। स्वयं ही क्वेश्चन में हैं तो दूसरे भी जरूर पूछेंगे। इसलिए घबराओ नहीं। कोई पूछते हैं कि विनाश क्यों नहीं हुआ, तो और ही उसको कहो कि आप के कारण नहीं हुआ। बाप के साथ हम सभी भी विश्व-कल्याणकारी हैं। विश्व के कल्याण में आप जैसी और आत्माओं का कल्याण रहा हुआ है। इसलिए अभी भी चान्स है। होता क्या है कि जब कोई क्वेश्चन करता है तो आप लोग स्वयं ही ‘क्यों’’क्या’ में कनफ्यूज (Confuse) हो जाते हो - हाँ ‘‘कहा तो है, लिखा हुआ तो है, होना तो चाहिये था’’। इसलिए दूसरे को संतुष्ट नहीं कर पाते हो। फलक से कहो कि कल्याणकारी बाबा के इस बोल में भी कल्याण समया हुआ है। उसको हम जानते हैं, आप भी आगे चलकर जानेंगे। डरो मत। ‘क्या कहेंगे, कैसे कहेंगे’ ऐसे सोचकर किनारा न करो। जिन लोगों को कहा है, उनसे डर के मारे किनारा न करो। क्या करेंगे? अगर उल्टा प्रोपगण्डा (Propaganda) करेंगे तो वो उल्टा बोल अनेकों को सुल्टा बना देगा। प्रत्यक्षता का साधन बन जायेगा। बच्चे भी पूछते रहते हैं, तो लोगों ने पूछा तो क्या बड़ी बात हुई! सोचते हैं ‘‘यह करें या ना करें? प्रवृत्ति को कैसे चलायें! व्यवहार को कैसे सैट करें! बच्चों की शादी करें या नहीं करें! मकान बनायें या नहीं?’’ वास्तव में इस क्वेश्चन का विनाश की डेट से कोई कनेक्शन (Connection;सम्बन्ध) नहीं है। अगर प्रॉपर्टी है और बनाने का संकल्प है तो इससे सिद्ध है कि स्वयं प्रति यूज़ (USE;प्रयोग) करने की भावना है। अगर ईश्वरीय सेवा में लगाना ही है तो मकान बनाना या वैसे ही प्रॉपर्टी रखना उसका तो क्वेश्चन ही नहीं उठता। लेकिन आवश्यकता है और डायरेक्शन प्रमाण बनाते भी हैं, तो उसका बनाना व्यर्थ नहीं होगा, लेकिन जमा होगा। तो विनाश के कारण घबराने की बात ही नहीं, क्योंकि श्रीमत पर चलना अर्थात् इन्श्योरेन्स (Insurance) करना। उसका उनको फल मिल ही जाता है।
बाकी रहा शादी कराने का वा करने का क्वेश्चन। इसके लिए तो पहले से ही डायरेक्शन (Direction) है जहाँ तक स्वयं को और अन्य आत्माओं को बचा सकते हो वहाँ तब तक बचाओ। विनाश अगर 1976 में नहीं हुआ तो क्या विनाश के कारण पवित्र रहते थे क्या? पवित्रता तो ब्राह्मण जन्म का स्वधर्म है। पवित्रता का संकल्प ब्राह्मण जन्म का लक्ष्य और लक्षण है। जिसका निजी लक्षण ही पवित्रता है उसका विनाश की डेट के साथ कोई कनेक्शन नहीं। यह तो स्वयं की कमज़ोरी छिपाने का बहाना है। क्योंकि ब्राह्मण बहानेबाजी बहुत जानते हैं। अच्छा, बाकी रही दूसरों को शादी कराने की बात। उसके लिए जहाँ तक बचा सको बचाओ। स्वयं कमज़ोर बन उसको उत्साह नहीं दिलाओ। मन में भी यह संकल्प न करो कि अब तो करना ही पड़ेगा। दस वर्ष पहले भी जिन को बचा न सके तो उनका क्या किया! साक्षी होकर संकल्प से वाणी से, भी बचाने का प्रयत्न किया वैसे ही अभी भी इसी प्रकार दृढ़ रहो। बाकी जिनको गिरना ही है उनको क्या करेंगे! विनाश के कारण स्वयं हलचल में न आओ। आपकी हलचल अज्ञानियों को भी हलचल में लायेगी। आप अचल रहो। फलक से, निर्भयता से बोलो। फिर वो लोग आपे ही चुप हो जायेंगे, कुछ बोल नहीं सकेंगे। आप निश्चय बुद्धि से संकल्प रूप में भी संशय-बुद्धि न बनो। रॉयल रूप का संशय है कि ‘ऐसा होना तो चाहिए था’, पता नहीं बाबा ने क्यों ऐसा कहा था। पहले से ही बाप-दादा बता देते थे। अब सामने कैसे जायेंगे? यह रॉयल रूप का संशय, दुनिया वालों को भी संशय-बुद्धि बनाने के निमित्त बनेगा। ‘‘हाँ! कहा है, अभी भी कहेंगे’’ - इसी निश्चय और नशे में रहो तो वो नमस्कार करने आयेंगे कि धन्य है आपका निश्चय। समझा? घबराओ नहीं, क्या जेल में जाने से डरते हो? डरते नहीं, घबराते हैं। सामना करने की शक्ति नहीं है। यही कहो कि जो कुछ कहा था उसमें कल्याण था। अब भी है। हम अभी भी कहते हैं। उनको अगर ईश्वरीय नशे और रमणीकता से सुनाओ तो वो और ही हंसेंगे। लेकिन पहले स्वयं मजबूत हो। समझा?
आज सबके संकल्प पहुँचे, सबको इन्तजार था 18 तारीख को क्या सुनायेंगे। अब सुना? बाप-दादा साथ हैं; कोई कुछ कर नहीं सकता; कह नहीं सकता, जलती हुई भट्टी में भी पूंगरे सलामत रहे, यह तो कुछ भी नहीं है। बाल भी बांका नहीं कर सकता। साधारण साथ नहीं, सर्वशक्तिवान का साथ है। इसलिए ‘निश्चयबुद्धि विजयन्ति’।
डेट बताने की जरूरत ही नहीं। कभी भी फाइनल (Final) विनाश की डेट फिक्स (Fix) नहीं हो सकती। अगर डेट फिक्स हो जाए तो सब सीट्स (Seats) भी फिक्स हो जाएं, फिर तो पास विद् ऑनर्स (Pass With Honours) की लम्बी लाइन हो जाए। इसलिए डेट से निश्चिन्त रहो। जब सब निश्चिन्त होंगे तो डेट आ ही जायेगी। जब सभी इस संकल्प से निरसंकल्प होंगे वही डेट विनाश की होगी। अच्छा।
ऐसे अचल, अटल, अखण्ड, सदा हर परिस्थिति में भी श्रेष्ठ स्थिति में अड़ोल, सर्व गुणों और सर्व शक्तियों के स्तम्भ स्वरूप आत्माओं को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
23-01-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
महीनता ही महानता है
एक सेकेण्ड में इस लोक से परलोक निवासी बनने वाली, इन्द्रसभा की परियों प्रति अव्यक्त बाप-दादा बोले:-
गायन है ‘इन्द्रप्रस्थ की इन्द्रसभा’। इन्द्र अर्थात् सदा ज्ञान की बरसात बरसाने वाले, कांटों के जंगल में हरियाली लाने वाले - ऐसी इन्द्रसभा, जिसका गायन है परियों की सभा, अर्थात् सदा उड़ने वाली। परियों के पंख प्रसिद्ध हैं। इन्द्रपस्थ में सिवाए परियों के और कोई भी मनुष्य निवास नहीं कर सकता। मनुष्य अर्थात् जो अपने को आत्मा न समझ, मानव अर्थात् देह समझते हैं। ऐसे देह-अभिमानी इन्द्रप्रस्थ में निवास नहीं कर सकते। इन्द्रप्रस्थ निवासियों को देह-अभिमानी मनुष्यों की बदबू फौरन अनुभव होती है। ऐसे इन्द्रप्रस्थ निवासी मनुष्य के बदबू अर्थात् देह की बदबू से भी दूर अपने को इन्द्रसभा की परियां समझते हो? ज्ञान और योग के पंख मजबूत हैं? अगर पंख मजबूत नहीं होते तो उड़ना चाहते भी बार-बार नीचे आ जाते हैं। देह-अभिमान और देह की पुरानी दुनिया, पुराने सम्बन्धों से सदा ऊपर उड़ते रहते हो अर्थात् इससे परे ऊँची स्थिति में रहते हो? जरा भी देह-अभिमान अर्थात् मनुष्यपन की बदबू तो नहीं? देह- अभिमान, इन्द्रप्रस्थ निवासी नहीं हो सकता। ऐसे अनुभव होता है कि देह-अभिमान बहुत गन्दी बदबू है? जैसे बदबू से किनारा किया जाता है, वा मिटाने के साधन अपनाए जाते हैं, वैसे अपने को देह-अभिमान से मिटाने के साधन अपनाते हो? यह साधारण सभा नहीं - यह अलौकिक सभा है, फरिश्तों की सभा है। अपने को फरिश्ता अनुभव करते हो? एक सेकेण्ड में इस देह की दुनिया से परे अपने असली स्थिति में स्थित हो सकते हो? यह ड्रिल (Drill) करनी आती है? जब चाहो, जहाँ चाहो, जितना समय चाहो, वैसे स्थित हो सकते हो?
आज अमृतवेले बाप-दादा बच्चों की ड्रिल देख रहे थे, क्या देखा? ड्रिल करने के लिए समय की सीटी पर पहुँचने वाले नम्बरवार पहुँच रहे थे। पहुँचने वाले काफी थे लेकिन तीन प्रकार के बच्चे देखे। एक थे - समय बिताने वाले; दूसरे थे - संयम निभाने वाले; तीसरे थे - स्नेह निभाने वाले। हरेक का पोज (Pose) अपना-अपना था। बुद्धि को ऊपर ले जाने वाले बाप से, बाप समान बन, मिलन मनाने वाले कम थे। रूहानी ड्रिल करने वाले ड्रिल करना चाहते थे लेकिन कर नहीं पा रहे थे। कारण क्या होगा? जैसे आजकल स्थूल ड्रिल करने के लिए भी हल्कापन चाहिए, मोटापन नहीं चाहिए, मोटापन भी बोझ होता है। वेसे रूहानी ड्रिल में भी भिन्न-भिन्न प्रकार के बोझ वाले अर्थात् मोटी बुद्धि - ऐसे बहुत प्रकार के थे। जैसे मोटे शरीर की भी वैरायटी (Variety) होती है, वैसे ही आत्माओं के भारीपन के पोज भी वैरायटी थे। अगर अलौकिक कैमरा (Camera) से फोटो निकालो वा शीश महल में यह वैरायटी पोज देखो तो बड़ी हंसी आए। जैसे आपकी दुनिया में वैरायटी पोज का खूब हँसी का खेल दिखाते हैं ना, वैसे यहाँ भी खूब हँसते हैं। देखेंगे हँसी का खेल? बहुत ऐसे भी थे जो मोटेपन के कारण अपने को मोड़ना चाहते भी मोड़ नहीं सकते। ऊपर जाने के बदले बार-बार नीचे आ जाते थे। बीज रूप स्टेज को अनुभव करने के बदले, विस्तार रूपी वृक्ष में अर्थात् अनेक संकल्पों के वृक्ष में उलझ जाते हैं। यह मोटी बुद्धि वालों के पोज सुना रहे हैं। रूह-रूहान करने बैठते हैं लेकिन रूह-रूहान के बदले स्वयं की वा अन्य आत्माओं की शिकायतों की पूरी फाइल खोल कर बैठते हैं। बैठते हैं चढ़ती कला का अनुभव करने के लिए हैं, लेकिन बाप-दादा को बहाने-बाज़ी की कलायें बहुत दिखाते हैं। बाप-दादा के आगे बोझ उतारने आते हैं, लेकिन बोझ उतारने की बजाय बाप की श्रीमत के प्रमाण न चलने के कारण अनेक प्रकार की अवज्ञाओं का बोझ अपने ऊपर चढ़ाते रहते हैं। ऐसे अनेक प्रकार के बोझ वाली भारी आत्माओं के दृश्य देखे।
संयम निभाने वाली आत्माओं का दृश्य भी बहुत हँसी वाला होता है। वह क्या होता है, मालूम है? बाप के आगे गुणगान करने के बजाय, बाप द्वारा सर्व शक्तियों की प्राप्ति करने के बजाय, निन्द्रा के नशे की प्राप्ति ज्यादा आकर्षण करती है। सेमी (Semi) नशा भी होता है। समय की समाप्ति का इन्तजार होता है। बाप से लगन के बजाय सेमी निन्द्रा के नशे की लगन ज्यादा होती है। इन सभी का कारण? आत्मा का भारीपन अर्थात् मोटापन। जैसे आजकल के डाक्टर्स (Doctors) मोटेपन को कम कराते हैं, वजन कम कराते हैं, हल्का बनाते हैं, वैसे ब्राह्मणों की भी आत्मा के ऊपर जो वजन अथवा बोझ है अर्थात् मोटी बुद्धि है, उस बोझ को हटाकर ‘महीन बुद्धि’ बनो। वर्तमान समय यही विशेष परिवर्तन चाहिए। तब ही इन्द्रप्रस्थ की परियां बनेंगे। मोटेपन को मिटाने के लिए श्रेष्ठ साधन कौन-सा है? खान-पान का परहेज और एक्सरसाइज (Exercise)। परहेज में भी अन्दाज फिक्स (Fix) होता है। वैसे यहाँ भी बुद्धि द्वारा बार-बार अशरीरीपन की एक्सरसाइज करो और बुद्धि का भोजन संकल्प है उनकी परहेज रखो। जिस समय जो संकल्प रूपी भोजन स्वीकार करना हो उस समय वही स्वीकार करो। व्यर्थ संकल्प रूपी एक्सट्रा (Extra) भोजन न हो। तो व्यर्थ संकल्पों के भोजन की परहेज हो। परहेज के लिए सेल्फ कन्ट्रोल (Self Control;स्वयं पर नियन्त्रण) चाहिए। नहीं तो परहेज पूर्ण रीति नहीं कर सकते। तो सेल्फ कन्ट्रोल अर्थात् जिस समय जैसे चाहे, वहाँ बुद्धि लगा सके तब ही महीन बुद्धि बन जायेंगे। ‘महीनता ही महानता है।’ जैसे शरीर की रीति से हल्कापन परसनैलिटी (Personality) है; वैसे बुद्धि की महीनता व आत्माओं का हल्कापन ब्राह्मण जीवन की परसनैलिटी है। तो अब क्या करना है? अनेक प्रकार के मोटेपन को मिटाओ। मोटेपन का विस्तार फिर सुनायेंगे कि किस प्रकार का मोटापन है। बोझ के अनेक प्रकार हैं उसका विस्तार फिर सुनायेंगे। तो आज के ड्रिल का समाचार क्या हुआ? बोझ का मोटापन। इसको मिटाने का ही लक्ष्य रख स्वयं को फरिश्ता अर्थात् हल्का बनाओ। अच्छा।
ऐसे इन्द्रप्रस्थ की परियाँ, सेकेण्ड में इस लोक से पार परलोक निवासी बनने वाली, सदा बाप समान बन बाप से मिलन मनाने वाली महीन बुद्धि अर्थात् महान आत्माओं को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
पार्टियों के साथ :-
अभी-अभी ऊपर, अभी-अभी नीचे, इतनी एक्सरसाईज करने की प्रैक्टिस है? जिसको प्रैक्टिस नहीं होती है वे मुश्किल ही कर पाते हैं। रूहानी एक्सरासईज़ के अनुभवी हो? अभी-अभी डायरेक्शन मिले एक सेकेण्ड में बीज रूप स्थिति में स्थित हो जाओ। जैसे डायरेक्शन देते हैं तो सेकेण्ड में करते हैं ना, ऐसे ही डायरेक्शन मिले कि ऊँची से ऊँची स्थिति में स्थित हो जाओ तो हो सकते हो या टाईम लगेगा? अगर टीचर हैंड्स अप (Hands Up;हाथ ऊपर) कहे और हैंड्स अप न कर सकें तो टीचर क्या कहेगा कि लाईन से किनारे हो जाओ। लाईन से बाहर निकाल देते हैं ना? तो यहाँ भी निकालना नहीं पड़ता लेकिन ऑटोमेटीकली (AUTOMATICALLY;स्वत:) तीव्र पुरूषार्थ की लाईन से किनारे हो जाते हैं। पुरूषार्थ के लाईन में आ जाते हैं। अगर कोई अच्छी स्टेज पर एक्सरसाईज दिखानी पड़ती हो तो जो होशियार होंगे वही ग्रुप स्टेज पर आयेगा ना। इसके लिए फर्स्ट प्राइज़ विन (Win) करने वाला ग्रुप चाहिए। तो फर्स्ट (First) अर्थात् फास्ट (Fast;तीव्र) पुरुषार्थी। अगर फास्ट पुरुषार्थी नहीं तो फर्स्ट नहीं; सेकेण्ड ग्रुप हो गया। जो भारी होता है वो फास्ट नहीं जा सकता है। कोई भी प्रकार का भारीपन वा बोझ नहीं हो। निरन्तर योग नहीं लगता इसका मतलब भारीपन है, बोझ है। बोझ नीचे ले आता है। नीचे ले आना ही सिद्ध करता है कि बोझ है। बॉडी- कोन्सेस(Body-Conscious;देह-अभिमान) नीचे ले आता है। जैसे बाप ऊँचे से ऊँचा है, उनका निवास स्थान ऊँचे से ऊँचा है, उनका कर्त्तव्य व गुण ऊँचे से ऊँचा है, तो आप सबके भी निवास स्थान, गुण और कर्त्तव्य ऊँचे से ऊँचा है ना? बाप समान हो ना? ऊँचे निवास स्थान वाले, ऊँचे गुण व कर्त्तव्य वाले, नीचे कैसे आ सकते हैं? आना नहीं चाहिए लेकिन आ जाते हैं। उसको क्या कहेंगे - फर्स्ट पुरुषार्थी या सेकेण्ड? लक्ष्य फर्स्ट क्लास का और लक्षण सेकेण्ड का, यह कैसे होगा? बैठना है फर्स्ट क्लास में और टिकट ली है सेकेण्ड क्लास की तो फर्स्ट में बैठ सकेंगे? मातायें और कन्यायें तो विशेष लक्की हैं। क्योंकि ये सबसे गरीब हैं। बाप को भी गरीब-निवाज गाया हुआ है। साहुकार-निवाज नहीं। तो गरीब जल्दी पद पा सकते हैं। साहुकार नहीं। तकदीर वान गरीब ही हैं। तो कुमारियाँ और मातायें तकदीरवान हैं जो संगमयुग पर कुमारी वा माता बनी हैं। चरित्र भी ज्यादा गोपी वल्लभ के साथ गोपियों के ही गाये गये हैं, गोपों के कम। तो लक्की हो जो गोपी तन में हो। संगमयुग में ‘शक्ति फर्स्ट’ का बाप-दादा का नारा है। स्वयं ब्रह्मा बाप ने भी माताओं को समर्पण किया। सुनाया ना कि ब्रह्मा बाप की भी ‘माता गुरू’ है। तो इतने तकदीरवान हो। इतना अपनी तकदीर को जानती हो या मानकर चलती हो? एक होता है जानना, दूसरा होता है मानना और चलना। माताओं का मर्तबा कोई कम नहीं है, ऐसी माताएं जिनका शिवबाबा के साथ पार्ट है। इतना नशा है? इतनी खुशी है? इस स्टेज पर रहो तो खुशी में उड़ते रहेंगे। परियाँ सदा उड़ती रहती हैं। तो ऐसे संगमयुग की परियाँ जो बाप के साथ-साथ अव्यक्त वतन, मूलवतन में उड़ती रहती हैं। उड़ना माना ध्यान में जाना नहीं, लेकिन बुद्धि के विमान में सदा उड़ते रहो। बुद्धि का विमान बहुत बड़ा है। बुद्धि द्वारा जब चाहो, जहाँ चाहो पहुँच जाओ। मोटी बुद्धि नहीं, लेकिन महीन बुद्धि। तो अभी क्या करना है? बिल्कुल इस लोक के लगाव से परे। ऐसा ही पुरूषार्थ है ना? इस लोक में है ही क्या? असार संसार से क्या काम है? तो फिर क्यों जाते हो? जहाँ कोई काम नहीं होता है वहाँ जाना होता है क्या? तो अब बुद्धि द्वारा जाना बन्द करो। जब कोई प्राप्ति नहीं, कोई फायदा नहीं तो बुद्धि क्यों जाती है? टाईम वेस्ट होगा ना? फिर वापस लौटना पड़ेगा। वापस लौटने में समय और एनर्जी (Energy;शक्ति) वेस्ट (Waste;व्यर्थ) जायेगी। तो वेस्ट क्यों करते हो? अभी तो 21 जन्मों के लिए जमा करना है सिर्फ थोड़े से समय में। तो क्या इतना थोड़ा-सा मिला टाईम व्यर्थ करना चाहिए? एक सेकेण्ड वेस्ट करना अर्थात् एक जन्म की प्रालब्ध वेस्ट करना। इतना महत्व संगम के समय का है। अच्छा, सदा खुशी में तो रहती हो ना? कभी रोती तो नहीं हो? एक होता है आंख के आंसू, दूसरा होता है मन के आँसू। तो मन के आँसू भी नहीं आने चाहिए। मन में दु:ख की लहर आना माना मन के आँसू। दोनों प्रकार के आँसू नहीं बहाना। रोने से मुक्त होना है। अभी जो रोते हैं, वे खोते हैं। जो हंसते हैं वह पाते हैं। तो कभी भी गलती से भी दु:ख की दुनिया नहीं देखनी चाहिए। अनुभवी फिर धोखा खाते हैं क्या? धोखा खा कर अनुभव कर लिया, तो फिर धोखा खायेंगे? फिर दु:ख की दुनिया में क्यों जाती हो? एक बार खेल में गिरने वाला दोबारा गिरता है क्या? यह खेल तो एकदम रौरव नर्क है। इसमें गिरने का संकल्प तो स्वप्न में भी न आना चाहिए। तो माताएं पद्मापद्म भाग्यशाली हैं। बाप तो उसी श्रेष्ठ नज़र से देखते हैं। सौभाग्यशाली नहीं, लेकिन पद्मापद्म भाग्यशाली। सौभाग्यशाली बनना तो साधारण बात है। लेकिन पद्मापद्म भाग्यशाली बनना है। सदा खुश रहो। बाप के खज़ाने को सुमिरण करते हुए सदा हर्षित रहो। इतना खज़ाना सारे कल्प में किसी जन्म में भी नहीं मिलेगा। तो कितनी खुशी में उड़ना चाहिए? परियां नीचे नहीं आती, ऊपर उड़ती रहती है। सदा एक की लगन में रहने वाली हो ना? सिवाए एक बाप के और कोई लगन नहीं। एक बाप दूसरा न कोई, गलती से भी दूसरी जगह बुद्धि नहीं जानी चाहिए। सब संग तोड़ एक संग जोड़ - यही बाप का डायरेक्शन है। सदा मन से यही आलाप निकलता रहे - ‘एक बाप दूसरा न कोई’। इसी को अजपाजाप कहते हैं। एक दूसरे से आगे जाना है। जिसको देखो वही नम्बर- वन नज़र आए। बाप की सदैव बच्चों प्रति यही आशा रहती है; सब नम्बर-वन हो। नम्बर-वन अर्थात् सदैव विजयी। विजयी रत्न हार खिलाने वाले होते हैं, हार खाने वाले नहीं। शक्ति अर्थात् विकर्माजीत। अच्छा।
26-01-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
अन्तर्मुखता द्वारा सूक्ष्म शक्ति की लीलाओं का अनुभव
साइलेन्स (Silence;शान्ति) शक्ति द्वारा आत्माओं की सेवा करने की विधि बताते हुए विश्व-कल्याणकारी पिता शिवबाबा बोले :-
अपनी वास्तविक साइलेन्स की शक्ति को अच्छी तरह से जान गए हो? जैसे वाणी की शक्ति का, कर्म की शक्ति का प्रत्यक्ष परिणाम दिखाई देता है, वैसे सभी से पावरफुल (Powerful;शक्तिशाली) साइलेन्स शक्ति का प्रत्यक्ष प्रमाण देखा है, अनुभव किया? जैसे वाणी द्वारा किसी आत्मा को परिवर्तन कर सकते हो, वैसे साइलेन्स की शक्ति द्वारा अर्थात् मन्सा द्वारा किसी आत्मा की वृत्ति, दृष्टि को परिवर्तन करने का अनुभव है? वाणी द्वारा तो जो सामने हों उनका ही परिवर्तन करेंगे, लेकिन मन्सा द्वारा वा सायलेंस की शक्ति द्वारा कितनी भी स्थूल में दूर रहने वाली आत्मा हो, उनको सम्मुख का अनुभव करा सकते हो। जैसे साइंस (Science;विज्ञान) के यंत्रों द्वारा दूर का दृश्य सम्मुख अनुभव करते हो, वेसे साइलेन्स की शक्ति से भी दूरी समाप्त हो सामने का अनुभव आप भी करेंगे और अन्य आत्माएं भी करेंगी। इसको ही योगबल कहा जाता है। लेकिन जैसे साइंस के साधन का यंत्र भी तब काम करेगा जिसका कनेक्शन (Connection;जोड़) मेन स्टेशन (Main Station) से होगा, इसी प्रकार साइलेन्स की शक्ति द्वारा अनुभव तब कर सकेंगे, जब कि बाप-दादा से निरन्तर क्लीयर कनेक्शन (Clear Connection;सीधा सम्बन्ध) होगा। वहाँ सिर्फ कनेक्शन होता है, लेकिन यहाँ कनेक्शन अर्थात् रिलेशन (RELATION;सम्बन्ध)। सभी क्लीयर अनुभव होंगे तब मन्सा शक्ति का प्रत्यक्ष प्रमाण देख सकेंगे।
अभी तक मन्सा शक्ति द्वारा आत्माओं का आह्वान कर परिवर्तन करने की यह सूक्ष्म सेवा बहुत कम करते हो। जब आत्मिक शक्ति वाली, सेमी प्योर (Semi Pure;अर्द्ध पवित्र) आत्माएं अपनी साधना द्वारा आत्माओं का आह्वान कर सकती हैं, अल्पकाल के साधनों द्वारा दूर बैठी हुई आत्माओं को चमत्कार दिखाकर अपनी तरफ आकर्षित कर सकती हैं, तो परमात्म शक्ति अर्थात् सर्व श्रेष्ठ शक्ति क्या नहीं कर सकती? इसके लिए विशेष एकाग्रता चाहिए। संकल्पों की भी एकाग्रता, स्थिति की भी एकाग्रता। एकाग्रता का आधार है - ‘अन्तर्मुखता।’ अन्तर्मुखता में रहने से अन्दर ही अन्दर बहुत कुछ विचित्र अनुभव करेंगे। जैसे दिव्य दृष्टि में सूक्ष्मवतन, सूक्ष्मसृष्टि अर्थात् सूक्ष्मलोक की अनेक विचित्र लीलाएं देखते हो, वैसे अन्तर्मुखता द्वारा सूक्ष्म शक्ति की लीलाएं अनुभव करेंगे। आत्माओं का आह्वान करना, आत्माओं से रूह-रूहान करना, आत्माओं के संस्कार, स्वभाव को परिवर्तन करना, आत्माओं का बाप से कनेक्शन जुड़वाना, ऐसे रूहानी लीला का अनुभव कर सकते हो? अप्राप्त आत्मा को, अशान्त, दु:खी, रोगी आत्मा को दूर बैठे भी शान्ति, शक्ति, निरोगीपन का वरदान दे सकते हो? जैसे शक्तियों के जड़ चित्रों में वरदान देने का स्थूल रूप हस्तों के रूप में दिखाया है, हस्त भी एकाग्र रूप दिखाते हैं। वरदान का पोज (Pose,स्थिति) हस्त, दृष्टि और संकल्प एकाग्र ही दिखाते हैं, ऐसे चैतन्य रूप में एकाग्रचित की शक्ति को बढ़ाओ, तो रूहों की दुनिया में रूहानी सेवा होगी। रूहानी दुनिया मूलवतन नहीं लेकिन रूह रूह को आह्वान करके रूहानी सेवा करे। यह रूहानी लीला का अनुभव करो। यह रूहानी सेवा फास्ट स्पीड़ (तीव्र गति) में कर सकते हो। तो वाचा और कर्मणा की सेवा में, जो तेरी-मेरी का टकराव होता है, नाम, मान, शान का टकराव होता है, स्वभाव, संस्कारों का टकराव होता है, समय व सम्पत्ति का अभाव होता है, इसी प्रकार के जो भी विघ्न पड़ते हैं, यह सर्व विघ्न समाप्त हो जायेंगे। रूहानी सेवा का एक संस्कार बन जायेगा। इसी संस्कार में भी तत्पर रहेंगे। इस वर्ष यह पॉवरफुल सर्विस भी आरम्भ करो। जो भी आत्माएं वाणी द्वारा व प्रैक्टीकल लाईफ (Practical Life;व्यवहारिक जीवन) के प्रभाव द्वारा सम्पर्क में आई हैं, वा सम्पर्क में आने की उम्मीदवार हैं, उन आत्माओं को रूहानी शक्ति का अनुभव कराओ। मेहनत का अनुभव, महानता का अनुभव कराया है। अब मेहनत तथा महानता के साथ रूहानियत का भी अनुभव कराओं। तीनों बातों का अनुभव हो।
इस शिवरात्रि पर ऐसी स्थूल और सूक्ष्म स्टेज बनाओ, जिससे आने वाली आत्माओं को अपने स्वरूप रूह और रूहानियत का अनुभव हो। वाणी द्वारा वाणी से परे जाने का अनुभव हो। ऐसे सम्पर्क में आने वाली आत्माओं का विशेष प्रोग्राम रखो। लक्ष्य रखो कि अनुभव कराना है, न कि सिर्फ भाषण करना है, चाहे छोटे-छोटे संगठन बनाओ लेकिन रूहानियत और रूहानी बाप के सम्बन्ध और अनुभव में समीप लाओ। कुछ नवीनता करो। स्थान और स्थिति दोनों से दूर से ही रूहानियत की आकर्षण हो। जनरल सन्देश देने की बात अलग है। वह करना है भले करो, लेकिन यह जरूर करो। इसके लिए निमित्त बनी हुई आत्माओं को अर्थात् सर्विसएबल (Serviceable;सेवाधारी) आत्माओं को विशेष उस दिन एकाग्रता का अन्तर्मुखता का व्रत रखना पड़ेगा। इस व्रत से वृत्तियों को परिवर्तन करेंगे। जैसे भक्त लोग स्थूल भोजन का व्रत रखते हैं, तो सार्विसेबल ज्ञानी तू आत्माओं को व्यर्थ संकल्प, व्यर्थ बोल, व्यर्थ कर्म की हलचल से परे एकाग्रता अर्थात् रूहानियत में रहने का व्रत लेना पड़े। तब आत्माओं को ज्ञान सूर्य का चमत्कार दिखा सकेंगे। कोई अलौकिक प्लान (Plan;योजना) बनाओ। जैसे भक्ति में अगरबत्ती की खुशबू दूर से आकर्षण करेगी। समझा, अब क्या करना है? सम्पर्क वालों को सम्बन्ध में लाओ। अनुभवों द्वारा उन विशेष आत्माओं को आवाज़ फैलाने के निमित्त बनाओ। अच्छा।
ऐसे रूहानियत में एकाग्रता का अनुभव कराने वाले, हर संकल्प और हर सेकेण्ड रूहानी सेवा में तत्पर रहने वाले, रूह को अनुभवों द्वारा राहत देने वाले, ऐसे रूहानी सेवाधारियों को बाप-दादा का याद-प्यार ओर नमस्ते।
दादी जी के
साथ साकार रूप में एकाग्रता की शक्ति के कई प्रत्यक्ष प्रमाण देखे। दूर बैठे हुए बच्चे प्रैक्टीकल अनुभव करते थे कि आज विशेष रूप से बाप-दादा ने मुझे याद किया वा विशेष रूप से मुझे शक्ति की प्राप्ति का अनुभव करा रहे हैं। संकल्प और बातें दोनों तरफ की मिलती थी। ऐसे प्रैक्टीकल अनुभव देखे ना? जैसे टेलीफोन द्वारा कोई मैसेज (Message;सन्देश) मिलना होता है, तो रिंग (Ring;घंटी) बजती है। वैसे बाप का सन्देश वा संकल्प का डायरेक्शन बच्चों को जब पहुँचता है तो अन्दर ही अन्दर आत्मा में अचानक खुशी की लहर में रोमांच खड़े हो जाते हैं। लेकिन जैसे कई रिंग सुनते हुए भी अनसुना कर देते तो मैसेज नहीं ले सकते। वैसे बच्चों को अनुभव होते जरूर हैं, लेकिन अलबेलेपन में चला देते हैं। एकाग्रता की शक्ति की लीला को कैच (Catch) नहीं कर पाते। लेकिन अनुभव होता जरूर है। वैसे आत्माओं को भी आत्माओं का होता है, लेकिन जैसे तारों में हलचल हो जाए, टेलीफोन के स्तम्भों में हलचल हो जाए तो मैसेज कैच नहीं कर सकते। वहाँ वातावरण का, वायुमण्डल का प्रभाव होता है; यहाँ फिर वृत्ति का प्रभाव होता है। वृत्ति चंचल होने के कारण मैसेज को कैच नहीं कर पाते। तो इस वर्ष में एकाग्रता का दृढ़ संकल्प करने वाला ग्रुप तैयार होना चाहिए, जो यह विचित्र अनुभव कर सके। यह सागर के तले में जाकर अनुभव के हीरे, मोती लेना और वह है ज्ञान सागर की लहरों में लहराने का अनुभव करना। लहरों में हो यह तो अनुभव किया अब अन्दर तले में जाना है। अमूल्य खज़ाने तले में मिलते हैं। यह बात पक्की करने से और सभी बातों से आटोमेटिकली किनारा हो जायेगा। इसको ही स्वचिन्तन, स्वदर्शन, समर्थ सेवा कहा जाता है। लाईट हाऊस (Light House) माईट हाऊस (Might House) की यह स्टेज है। फिर दृष्टि का दान देना पड़ेगा। नज़र से निहाल करने की यह स्टेज है। एकाग्रता शक्ति बहुत विचित्र रंग दिखा सकती है। वो सिद्धियां वाले भी एकाग्रता से ही सिद्धि प्राप्त करते हैं। स्वयं की औषधि भी एकाग्रता की शक्ति से कर सकते हैं। अनेक रोगियों को निरोगी भी बना सकते हैं। बहुत विचित्र अनुभव इससे कर सकती हो। कोई ने चलती हुई चीज़ को रोका, यह एकाग्रता की सिद्धि है। स्टॉप कहो तो स्टॉप हो जाए तब वरदानी रूप में जय-जयकार के नारे बजेंगे। अभी वाह-वाह के नारे लगाते हैं। भाषण बहुत अच्छा किया, मेहनत बहुत अच्छी की है, लाईफ बहुत अच्छी है। फिर जय-जयकार के नारे बजेंगे। तो इस वर्ष का एम आब्जेक्ट (AIM-Object;उद्देश्य) समझा ना। डबल सेवा चाहिए। अमृतवेले यह स्पेशल (Special;विशेष) सेवा कर सकती हो। फिर भक्तों के आवाज़ भी सुनाई देंगे। ऐसे समझेंगे जैसे यहाँ सम्मुख कोई बुला रहे हैं, यह शक्ति बढ़ानी है। जितना भी समय मिले दो मिनट, पांच मिनट - चले जाओ इस एकाग्रता की शक्ति में। तो थोड़ा-थोड़ा करते भी जमा हो जायेगा, तब शक्तियों द्वारा सर्व शक्तिवान की प्रत्यक्षता होगी। शक्तियों की सम्पूर्णता जैसे अन्धों के आगे आईने का काम करेगी। सम्पूर्णता वर्ष अर्थात् यह सम्पूर्णता। अच्छा।
28-01-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
ब्राह्मणों का धर्म और कर्म
सर्व शक्तिवान, विश्व-परिवर्तक, विश्व-कल्याणकारी बाबा बोले :-
अपने को ब्रह्मा-मुखावंशावली ब्राह्मण समझते हो ना? ब्राह्मणों का धर्म और कर्म क्या है, वह जानते हो? धर्म अर्थात् मुख्य धारणा है - सम्पूर्ण पवित्रता। सम्पूर्ण पवित्रता की परिभाषा जानते हो? संकल्प व स्वप्न में भी अपवित्रता का अंशमात्र भी न हो? ऐसी श्रेष्ठ धारणा करने वाले ही सच्चे ब्राह्मण कहलाते हैं, इसी धारणा के लिए ही गायन है ‘प्राण जाएँ पर धर्म न जाएँ।’ ऐसी हिम्मत, ऐसा दृढ़ निश्चय करने वाले अपने को समझते हो? किसी भी प्रकार की परिस्थिति में अपने धर्म अर्थात् धारणा के प्रति कुछ त्याग करना पड़े, सहन करना पड़े, सामना करना पड़े, साहस रखना पड़े तो खुशी-खुशी से करेंगे? पीछे हटेंगे नहीं? घबरायेंगे नहीं?
त्याग को त्याग न समझ भाग्य अनुभव करना, इसको कहा जाता है - ‘सच्चा त्याग’। अगर संकल्प में, वाणी में भी इस भावना का बोल निकलता है कि मैंने यह त्याग किया, तो उसका भाग्य नहीं बनता। जैसे भक्ति मार्ग में भी जब बलि चढ़ाते हैं, तो वह बलि चढ़ाने वाला पशु ज़रा भी आवाज़ करता या चिल्लाता है, तो वह ‘महाप्रसाद’ नहीं माना जाता; वा बलि नहीं मानी जाती - यह भी अभी का यादगार चल रहा है। अगर त्याग करने के साथ यह संकल्प उठा कि मैंने त्याग किया; नाम, मान, शान का अभिमान आया तो वह त्याग नहीं, उसे भाग्य नहीं कहेंगे। ऐसी धारणा वाले ही सच्चे ब्राह्मण कहलाते हैं।
ब्राह्मणों द्वारा यज्ञ की रचना कराते हो। इस महायज्ञ में पुरानी दुनिया की आहुति पड़ने के बाद यज्ञ समाप्त होना है। पहले अपने आपसे पूछो - पुरानी दुनिया की आहुति के पहले निमित्त बने हुए ब्राह्मणों ने अपने पुराने व्यर्थ संकल्प वा विकल्प, जिसको भी संकल्पों की सृष्टि कहा जाता है, इन पुराने संकल्पों की सृष्टि को, पुराने स्वभाव-संस्कार रूपी सृष्टि को महायज्ञ में स्वाहा किया है? अगर अपने हद की सृष्टि को स्वाहा न किया वा अपने पास रही सामग्री की आहुति नहीं डाली तो बेहद की पुरानी सृष्टि की आहुति कैसे पड़ेगी? यज्ञ की समाप्ति का आधार हर एक निमित्त ब्राह्मण है तो चैरिटि बिगेन्स एट होम (Charity Begins At Home) करना पड़े, तो अपने मन के अन्दर चैक करो कि आहुति डालाr है? सम्पूर्ण अन्तिम आहुति कौन-सी है? उसको जानते हो? जैसे आत्म-ज्ञानी आत्मा का परमात्मा में समा जाना ही आत्मा की सम्पूर्ण स्थिति मानते हैं। इस अन्तिम आहुति का स्वरूप है - मैं-पन समाप्त हो, बाबा! बाबा! बोल मुख से व मन से निकले अर्थात् बाप में समा जाएं। इसको कहा जाता है, ‘समा जाना अर्थात् समान बन जाना’। इसको कहा जाता है अन्तिम आहुति, संकल्प, स्वप्न में भी देहभान का ‘मैं-पन’ न हो। अनादि आत्मिक स्वरूप की स्मृति हो; बाबा-बाबा! अनहद शब्द हो। आदि ब्राह्मण स्वरूप को धर्म और कर्म की धारणा हो। इसको कहा जाता है ‘सच्चे ब्राह्मण’।
ऐसे सच्चे ब्राह्मण ही यज्ञ की समाप्ति निमित्त बनते हैं। यज्ञ रचने वाले तो बने, अब समाप्ति के भी निमित्त बनो। अर्थात् अपनी अन्तिम आहुति डालो। तो बेहद की पुरानी दुनिया की आहुति भी पड़ ही जाएगी। समझा, अब क्या करना है? सम्पूर्ण बनने का यही सहज साधन है। सम्पूर्ण आहुति देना - इसको ही सम्पूर्ण स्वाहा कहा जाता है। तो स्वाहा हो गए वा अभी होना है? अन्तिम आहुति अन्तिम घड़ी पर ही डालनी है क्या? जब स्वयं डालेंगे तब दूसरों से डलवा सकेंगे। फिर करेंगे - ऐसा न सोच, अब करना ही है। जैसे सुनने के लिए चात्रक रहते हो, मिलने के लिए प्लान्स (Plans) बनाते हो, हमारा टर्न (Turn) पहले हो। तो जैसे यह सोचते हो वैसे मिटने में भी पहले टर्न लो। करने में फर्स्ट टर्न लो। अच्छा।
ऐसे सम्पूर्ण स्वाहा होने वाले, सम्पूर्ण आहुति डालने वाले, स्वयं के परिवर्तन से विश्व-परिवर्तन के निमित्त बनने वाले, सच्चे ब्राह्मणों को, बाप समान सम्पूर्ण ब्राह्मणों को सर्व श्रेष्ठ धर्म और कर्म में स्थित रहने वाले ब्राह्मणों को, बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
29-01-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
मधुबन की महिमा
नॉलेजफुल, निराकारी, निर्विकारी बाबा मधुबन निवासी बच्चों से बोले :-
सभी सदा खुश हो ना? जो तीनों कालों के राज़ को जान गए तो राज़ी हो गए हो ना? कभी भी कोई नाराज़ होता है अर्थात् ड्रामा के राज़ को भूल जाता है। जो सदा ड्रामा के राज़ को और तीनों कालों को जानता है तो वह राज़ी रहेगा ना। नाराज़ होने का कारण राज़ को नहीं जानना है। तीनों कालों के ज्ञाता बनने वाले को ‘त्रिकालदर्शी’ कहा जाता है। वह सदा राज़ी और खुश रहता है। मधुबन निवासी अर्थात् सदा खुश और राज़ी रहने वाले। दूसरे से नाराज़ होना अर्थात् अपने को राज़ जानने की स्टेज से नीचे ले आना। तख्त छोड़ कर नीचे आते हो तब नाराज़ होते हो। त्रिकालदर्शी अर्थात् नॉलेजफुल (Knowledgeful) नॉलेजफुल की स्टेज एक तख्त है, ऊँचाई है। जब इस तख्त को छोड़कर नीचे आते हो तब नाराज़ होते हो। जैसा स्थान वैसी स्थिति होनी चाहिए।
मधुबन को स्वर्ग भूमि कहते हो ना! यह तो मानते हो मधुबन स्वर्ग का माडल (Model) है तो स्वर्ग में माया आती है क्या? इसकी भी अविद्या होनी चाहिए कि माया क्या है। स्वर्ग में माया का ज्ञान नहीं होता है। इस भूमि को साधारण समझने के कारण माया आती है। मधुबन वरदान भूमि को साधारण स्थान नहीं समझो। मधुबन की स्मृति भी समर्थी दिलाती है। मधुबन में रहने वाले ‘फरिश्ते’ होने चाहिए। मधुबन की महिमा अर्थात् मधुबन निवासियों की महिमा। मधुबन की दीवारों की महिमा तो नहीं है ना! मधुबन निवासियों को सारी दुनिया किस नज़र से देखती है; विश्व अब तक भी याद के रूप में कितनी ऊँची नज़र से देखती, भक्त भी मधुबन निवासियों के गुणगान करते हैं। ब्राह्मण परिवार भी ऊँची नज़र से देखता है। अगर आपकी भी इतनी ऊँची नज़र हो तो फरिश्ता तो हो ही गए ना?
मधुबन निवासी ‘यज्ञ निवासी’ भी कहे जाते हैं। यज्ञ में रहने वालों को अपनी आहुति डालनी है। तब फिर दूसरे फालो (Follow) करेंगे। यादगार के यज्ञ में भी आहुति सफल तब होती हैं, जब मन्त्र जपते हैं। यहाँ भी सदा मन्मनाभव मन्त्र स्मृति में रहे तब आहुति सफल होती है। मधुबन निवासी तो निरन्तर मन्त्र में स्थित होने वाले हैं। सिर्फ बोलने वाले नहीं, लेकिन मन्त्रस्वरूप हो। अभी तो बाप ने रियलाईजेशन कोर्स (REALIZATION Course;अनुभूति करना) दिया है तो अपने को रियलाईजेशन कर चेंज किया? सभी ठीक हैं? कोई ठीक कहता है तो बाप-दादा तो कहते हैं - मुख में गुलाब। कहने से भी ठीक हो ही जायेगा। कमी को बार-बार सोचने से कमी रह जाती है। कमी को देखते खत्म करते जाओ। चैक करने के साथ-साथ चेंज भी करो। कोई कमाल करके दिखाना है ना? इतने समय में जितना भी साथ मिला, कमाल की। कोई ऐसा काम जो कमाल का गाया जाए, या करते हुए भी भूल जाते हो? अपने को सदा गुणमूर्त्त देखते ऊँची स्टेज पर स्थित रहते रहो। नीचे नहीं आओ। सुनाया था ना कि जो रॉयल फैमली (ROYAL Family;उच्च परिवार) के बच्चे होते हैं वह कब धरती पर, मिट्टी पर पांव नहीं रखेंगे। यहाँ देह-भान मिट्टी है, इसमें नीचे नहीं आओ। इस मिट्टी से सदा दूर रहो। संकल्प से भी देहाभिमान में आए अर्थात् मिट्टी में पांव रखा। वाचा, कर्मणा में आना अर्थात् मिट्टी खा ली। रॉयल फैमली के बच्चे कभी मिट्टी नहीं खाते। सदा स्मृति में रहो कि ऊँचे से ऊँचे बाप के ऊँची स्टेज वाले बच्चे हैं तो नीचे नज़र नहीं आएगी। पुरानापन तो स्वप्न से भी खत्म कर देना है। जो योगी तू आत्मा, ज्ञानी तू आत्मा होगा उनका स्वप्न भी नई दुनिया, नई जीवन का होगा। जब स्वप्न ही बदल गया तो संकल्प की बात ही नहीं। मधुबन निवासियों के स्वप्न भी श्रेष्ठ। बाप-दादा भी उसी नज़र से देखते हैं। मधुबन निवासी नाम की महिमा है जो अन्त समय तक भी, नामधारी (वृन्दावन, मधुबन) सिर्फ नामपर अपना शरीर निर्वाह करते रहते हैं। नाम की इतनी महिमा है, तो मधुबन निवासियों का नाम ही महान है। जब नाम की इतनी महिमा है तो स्वयं स्वरूप की क्या होगी? अच्छा, सभी सन्तुष्ट तो हो ही, अच्छा।
31-01-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
भक्तों को सर्व प्राप्ति कराने का आधार है- इच्छा मात्रम् अविद्या की स्थिति
साक्षात् बाप समान, सदा साक्षात्कार मूर्त्त, सर्व आत्माओं की कामनाओं को सम्पन्न करने वाले, सदा अपने भाग्य के गुणगान करने वाले दाता के समान सदा देने वाले महादानी, वरदानी आत्माओं प्रति बाबा बोले:-
अपने को हाइएस्ट अथॉरिटी (Highest Authority;ऊँच ते ऊँच हस्ती) समझते हो? अपनी प्यूरिटी (Purity;पवित्रता) की पर्सनालिटी (Personality;व्यक्तित्व) को जानते हो? अपनी अविनाशी प्रॉपर्टी (Property;सम्पत्ति) को बाप द्वारा प्राप्त कर सम्पन्न अनुभव करते हो? इस पुरानी दुनिया में अल्प काल के हद की पढ़ाई और हद के पोजिशन (Position) की अथॉरिटी समझते हैं, उनके आगे आप सभी की ऑलमाईटी अथॉरिटी (ALMIGHTY Authority;सर्वशक्तिवान्) बेहद की और अविनाशी है। ऐसी अथॉरिटी में सदा रहते हुए हर कर्म करते हो? बाप-दादा हर बच्चे को बेहद का मालिक बनाता है। बेहद की मालिकपन में बेहद की खुशी रहती है। अपने खुशी के खज़ाने को जानते हो ना? बाप बच्चों के भाग्य की रेखाएं देखते हुए हर्षित होते हैं कि श्रेष्ठ भाग्य बनाने वाले कोटों में कोई-कोई आत्माएं हैं।
बाप बच्चों को देख ज्यादा हर्षित होते हैं या बच्चे अपने भाग्य को देख ज्यादा हर्षित होते हैं? कौन ज्यादा हर्षित होते हैं? आप ऐसी श्रेष्ठ आत्माएं हो जो आपके हर कर्म चरित्र के रूप में गाए जाते हैं। हर चरित्र की अभी तक भी पूजा होती रहती है। अभी तक भी भक्त लोग आप दर्शनीय मूर्तियों का एक सेकेण्ड दर्शन करने के लिए तड़फ रहे हैं। ऐसे भक्तों की तड़फ अनुभव करते हो? भक्तों को प्रसन्न करने के लिए दिल में रहम और कल्याण की शुभ भावना उत्पन्न होती है? भक्तों को प्रसन्न करने का साधन कौन-सा है, उसको जानते हो? भक्तों को आप देवताओं द्वारा क्या प्राप्त होने की इच्छा है, इसको जानते हो ना? भक्तों की सर्व प्राप्ति करने का आधार ‘भक्तों की भावना’ है। भक्तों को सर्व प्राप्ति कराने का आधार - आपकी ‘इच्छा मात्रम् अविद्या’ की स्थिति है। जब स्वयं ‘इच्छा मात्रम् अविद्या’ हो जाते हो, तब ही अन्य आत्माओं की सर्व इच्छाएं पूर्ण कर सकते हो। ‘इच्छा मात्रम् अविद्या’ अर्थात् सम्पूर्ण शक्तिशाली बीज रूप स्थिति। जब तक मास्टर बीज रूप नहीं बनते, बीज के बिना पत्तों को कुछ प्राप्ति नहीं हो सकती। अनेक भक्त आत्माएं रूपी पत्ते जो सूख गए हैं, मुरझा गए हैं, उनको फिर से अपने बीज रूप स्थिति द्वारा शक्तियों का दान दो। जैसे जड़ चित्रों के दर्शन पर भक्तों की क्यू (Queue;लाईन) लग जाती हैं, वैसे आपको चैतन्य में भी अपने भक्तों की क्यू अनुभव होती है? क्या अभी तक भी भक्तों के पुकार के गीत सुनना अच्छा लगता है? बाप-दादा जब विश्व का सैर करते हैं तो भक्तों का भटकना, पुकारना देखते और सुनते हैं तो तरस आता है। आप कहेंगे कि बाप-दादा ही साक्षात्कार करा दे, और भक्तों की इच्छा पूर्ण कर दे। ऐसे सोचते हो? लेकिन ड्रामा में नाम बच्चों का, काम बाप का है। तो बच्चों को निमित्त बनना ही पड़ता है। विश्व के मालिक बच्चे बनेंगे या बाप बनेगा? प्रजा आपकी बनेगी या बाप की बनेगी? तो जो पूज्य होते हैं उनकी प्रजा बनती है, उनके ही फिर बाद में भक्त बनते हैं। तो अपनी प्रजा को या अपने भक्तों को अब भी निमित्त बन शान्ति और शक्ति का वरदान दो।
जैसे बाप बच्चों के आगे प्रत्यक्ष हुए, वैसे अब आप इष्टदेव भी अपने भक्तों के आगे प्रत्यक्ष होवो। देवता व देवी अर्थात् देने वाले, तो विधाता के बच्चे विधाता बनो। अपने लाईट का क्राउन (Crown) दिखाई देता है? रत्न जड़ित ताज इस लाईट के ताज के आगे कोई बड़ी बात नहीं लगेगी। जितना-जितना संकल्प, बोल और कर्म में प्यूरिटी को धारण करते जाते हैं, उतना यह लाईट का क्राउन स्पष्ट होता जाता है। बापदादा भी सभी बच्चों के नम्बरवार क्राउन देखते हैं। जैसे भविष्य में राज्य के ताज भी नम्बरवार होंगे, वैसे यहाँ भी नम्बरवार हैं। तो अपने नम्बर जानते हो? छोटा ताज है या बड़ा ताज? ताज है तो सभी के ऊपर! जब से बाप के बच्चे बने, पवित्रता की प्रतिज्ञा की, तो रिटर्न (Return;बदले) में ताज प्राप्त हो ही जाता है। सुनाया था ना- आलमाइटी अथॉरिटी के बच्चे बनने से अर्थात् अलौकिक जन्म होते ही ताज, तख्त और तिलक जन्मसिद्ध अधिकार के रूप में प्राप्त होता है। ऐसे अपने भाग्य के चमकते हुए सितारे को देखते हो? अगर सदा अपने भाग्य और भाग्य विधाता के गुण गाते रहो तो सदा गुण सम्पन्न बन ही जायेंगे। अपनी कमजोरियों के गुण नहीं गाओ, भाग्य के गुण गाते रहो। ‘प्रश्न से पार हो प्रसन्न चित्त रहो।’ जब तक खुद के प्रति कोई न कोई प्रश्न है, कैसे करें? क्या करे? तब तक दूसरों को प्रसन्न नहीं कर सकेंगे। समझा? अब अपना नहीं सोचो, भक्तों का ज्यादा सोचो। अब तक लेना नहीं सोचो, लेकिन देना सोचो। कोई भी इच्छाएं अपने प्रति न रखो लेकिन अन्य आत्माओं की इच्छाएं पूर्ण करने का सोचो। तो स्वयं स्वत: ही सम्पन्न बन जायेंगे। अच्छा।
ऐसे साक्षात् बाप समान सदा साक्षात्कार मूर्त्त, सर्व आत्माओं की कामनाओं को सम्पन्न करने वाले, सदा हाइएस्ट अथॉरिटी की स्थिति में स्थित, प्यूरिटी के पर्सनेलिटी में रहने वाले, सदा अपने भाग्य के गुणगान करने वाले, दाता के समान सदा देने वाले महादानी, सर्व वरदानों से सम्पन्न वरदानी, ऐसे महान आत्माओं को बाप-दादा का याद- प्यार और नमस्ते।
02-02-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
सदा अलंकारी स्वरूप में स्थित रहने वाला ही स्वयं का तथा बाप का साक्षात्कार करा सकता है
सदा अलंकारी, निरहंकारी, निराकारी स्थिति में स्थित, विश्व को रोशन करने वाले दीपकों के प्रति बाबा बोले-
बापदादा स्नेही बच्चों के रूहानी स्नेह की महफिल में आए हैं। ऐसे रूहानी स्नेह की महफिल कल्प में अब संगम पर ही होती है। और किसी भी युग में रूहानी बाप और बच्चों के स्नेह की महफिल नहीं हो सकती है। इस महफिल में अपने को पद्मापद्म भाग्यशाली समझते हो? ऐसा श्रेष्ठ भाग्य जो स्वयं ऑलमाइटी अथॉरिटी बाप, बच्चों के इस भाग्य का वर्णन करते हैं। ऐसे भाग्यशाली बच्चों को स्वयं बाप देख हर्षित होते हैं। तो सोचो ऐसा भाग्य क्या होगा? भाग्य को सुमिरण करते ही बाप की सुमरणी के मणके बन सकते हो। इतना ऊँचा भाग्य जिसका आज कलियुग के अन्त में भी सुमिरण करने वाले भक्त अपने को भाग्यशाली समझते हैं। ऐसे श्रेष्ठ भाग्य के अनुभव के अंचली के लिए भी सभी तड़फते हैं। ऐसे भाग्यशाली हो जिनके नाम से भी अपने जीवन को सफल समझते हैं। तो सोचो वह कितना बड़ा भाग्य है! सदैव अपने को इतना भाग्यशाली आत्मा समझते हो? तो सोचो वह कितना बड़ा भाग्य है!
बड़े से बड़ा ब्राह्मण कुल है, ऐसे ब्राह्मण कुल के भी आप दीपक हो। कुल के दीपक अर्थात् सदा अपनी स्मृति की ज्योति से ब्राह्मण कुल का नाम रोशन करता रहे। ऐसे अपने को कुल के दीपक समझते हो? सदा स्मृति की ज्योति जगी हुई है? बुझ तो नहीं जाती? अखंड ज्योति अर्थात् कभी भी बुझने वाली नहीं। आपके जड़ चित्रों के आगे भी ‘अखण्ड ज्योति’ जगाते हैं। चैतन्य अखण्ड ज्योति का ही वह यादगार है तो चैतन्य दीपक बुझ सकते हैं? क्या बुझी हुई ज्योति अच्छी लगती है? तो स्वयं को भी चेक करो, जब स्मृति की ज्योति बुझ जाती है तो कैसा लगता होगा? क्या वह अखण्ड ज्योति हुई? ज्योति की निशानी है - सदा स्मृति स्वरूप और समर्थी स्वरूप होगा। स्मृति और समर्थी का सम्बन्ध है। अगर कोई कहे स्मृति तो है कि बाबा का बच्चा हूँ, लेकिन समर्थी नहीं है, यह हो ही नहीं सकता। क्योंकि स्मृति ही है कि ‘मैं मास्टर सर्वशक्तिवान हूँ।’ मास्टर सर्वशक्तिवान अर्थात् समर्थ स्वरूप। समर्थ अर्थात् शक्ति। फिर वह गायब क्यों हो जाती है? कारण? एक शब्द की गलती करते हो। कौन-सी गलती? बाप कहते हैं ‘साकारी सो अलंकरी’ बनो। लेकिन बन क्या जाते हो? अंलकारी के बजाए देह-अहंकारी बन जाते हैं। बुद्धि के अहंकारी, नाम और शान के अहंकारी बन जाते हो। सदा सामने अलंकारी स्वरूप का सिम्बल (Symbol;चिन्ह) होते हुए भी अपने अलंकारों को धारण नहीं कर पाते। जैसे हद के राजकुमार और राजकुमारियाँ भी सदा सजे सजाएँ रॉयलिटी (ROYALTY) में होते हैं। वैसे ही ब्राह्मण कुल की श्रेष्ठ आत्माएं सदा अलंकारों से सजे-सजाएं होने चाहिए। यह अलंकार ब्राह्मण जीवन का श्रृंगार हैं, न कि देवता जीवन का। तो अपने अलंकार के श्रृंगार को सदा कायम रखो। लेकिन करते क्या हो, एक अलंकार को पकड़ते तो दूसरे अलंकार को छोड़ देते हैं। कोई तीन पकड़ सकते हैं तो कोई चार पकड़ सकते हैं। बाप-दादा भी बच्चों का खेल देखते रहते हैं। भुजा अर्थात् शक्ति, जिस शक्ति के आधार से ही अलंकारी बन सकते हैं, वह शक्तियों रूपी भुजायें हिलती रहती हैं। जब भुजाएं हिलती रहती हैं तो सदा अलंकारी कैसे बन सकते हैं? इसलिए कितनी भी कोशिश करते हैं अलंकारी बनने की, लेकिन बन नहीं सकते। तो एक शब्द कौन-सा याद रखना है? किसी भी प्रकार के ‘अहंकारी’ नहीं लेकिन अलंकारी बनना है। सदा अलंकारी स्वरूप में स्थित न होने के कारण स्वयं का, बाप का साक्षात्कार नहीं करा सकते। इसलिए अपने शक्ति रूपी भुजाओं को मजबूत बनाओ, नहीं तो अलंकारों की धारणा नहीं कर सकेंगे। अलंकारों को तो जानते हो ना? जानते हो और वर्णन भी करते हो फिर भी धारण नहीं कर सकते। क्यों? बाप-दादा बच्चों की कमज़ोरी की लीला बहुत देखते हैं जैसे प्रभु की लीला अपरम्पार है तो बच्चों की भी लीला अपरम्पार है। रोज की नई रंगत होती है। माया के नई रंगत में रंग जाते हैं। स्वदर्शन चक्र के बजाए व्यर्थ दर्शन का चक्र चल जाता है। द्वापर से जो व्यर्थ कथाएं और व्हानियां बड़ी रूचि से सुनने और सुनाने की आदत है, वह संस्कार अभी भी अंश रूप में आ जाता है। इसलिए कमल पुष्प समान अर्थात् कमल पुष्प के अलंकार धारी नहीं बन सकते। कमल की बजाय कमज़ोर बन जाते हैं। मायाजीत बनने का दूसरों को सन्देश देते, लेकिन स्वयं मायाजीत हैं या नहीं, यह सोचते ही नहीं। इसलिए अलंकारी नहीं बन सकते। अहंकारी।’
ऐसे सदा अलंकारी, निरहंकारी, निराकारी स्थिति में स्थित होने वाले, सदा के विजयी, सदा जागते हुए दीपक, विश्व को रोशन करने वाले दीपक, बाप-दादा के नैनों के दीपकों को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
दीदी जी के साथ
‘‘नई दुनिया बनाने वालों की, अपने जीवन को नया बनाने की रफ्तार कैसे चल रही है? पहले अपने जीवन में नवीनता लायेंगे तब दुनिया में भी नवीनता आयेगी। तो अपने जीवन रूपी बिल्डिंग (Buidling;इमारत) को सुन्दर और सम्पन्न बनायेंगे, उतना ही नई दुनिया में भी सुन्दर और सम्पन्न राज्य-भाग्य मिलेगा। कर्म द्वारा अपने तकदीर की लकीर खींच रहे हैं। वह है हद की हस्त रेखाएं और ये हैं कर्म की रेखाएं। जितना कर्म श्रेष्ठ और स्पष्ट होगा, उतनी भाग्य की रेखाएं श्रेष्ठ और स्पष्ट होगी। तो कर्म की रेखाओं से अपना भविष्य खुद ही देख सकते हो। यमुना के किनारे पर कौन रह सकेंगे? जिन्होंने सदा के लिए पुरानी दुनिया से किनारा किया है और बाप को सदा साथी बनाया है, वही यमुना के किनारे साथ महल वाले होंगे। श्री कृष्ण के साथ पढ़ने वाले कौन होंगे? पढ़ने पढ़ाने वाले साथी भी होंगे ना? जिसका सदैव पढ़ाई पढ़ाने और पढ़ने में विशेष पार्ट है वही वहाँ भी विशेष पढ़ाई के साथी बनेंगे। रास करने वाले कौन होंगे? जिन्होंने संगम पर बाप के साथ समान संस्कार मिलाने की रास मिलाई होगी। तो यहाँ जिनके बाप समान संस्कारों के रास मिलती है वे वहाँ रास करेंगे। रॉयल फैमली (ROYAL Family;उच्च परिवार) में कौन आयेंगे? जो सदैव अपनी प्यूरिटी की रॉयलटी में रहते हैं। कहाँ भी हद के आकर्षण में आँख नहीं डूबती। सदा अलंकारों से सजे हुए होते हैं। सदा श्रृंगारे हुए मूर्ति, ऐसी रॉयलटी वाले रॉयल फैमली में आयेंगे। वारिस कौन बनेंगे? वारिस अर्थात् अधिकारी। तो जो यहाँ सदा अधिकारी स्टेज पर रहते, कभी भी माया के अधीन नहीं होते, अधिकारीपन के शुभ नशे में रहते, ऐसे अधिकारी स्टेज वाले ही वहाँ भी अधिकारी बनेंगे। अब हर एक को अपने आप को देखना पड़े कि मैं कौन हूँ? यह पहेली है। किसी-किसी का सारे जीवन में साथ-साथ पार्ट भी है - साथ पढ़ने का, साथ रास करने का, साथ महल में रहने का, रॉयल फैमली में भी साथ होंगे। कुछेक आत्माओं का सर्व अधिकार भी है। यह है नई दुनिया की रूपरेखा।’’
टीचर्स के साथ:-
बाप-दादा को विशेष खुशी होती है। क्यों, जानते हो? आप समान शिक्षक हो ना। जैसे बाप विश्व का शिक्षक, सेवक है वैसे टीचर भी शिक्षक और सेवक हैं। तो समानता वालों को देखकर खुशी होती है। शिक्षक की स्थिति में तो समान हो। बिना सेवा के और कोई बात आकर्षित न करे। दिन-रात सेवा में लगी रहो। अगर सेवा से फ्री (Free;खाली) रहेंगे तो फिर और बातें भी आ जायेंगी। खाली घर में ही बिच्छू, टिंडन आते हैं। खाली घर हो या पुराना घर हो। यहाँ भी ऐसे होता है। बुद्धि या तो खाली होती है या तो पुराने संस्कारों वाली होती है, तो व्यर्थ संकल्प रूपी बिच्छू, टिंडन पैदा हो जाते। (1) टीचर अर्थात् सदा बिजी (Busy;व्यस्त) रहने वाली। कभी फुर्सत में रहने वाली नहीं। संकल्प, बोल, कर्म से भी फ्री रहने वाली नहीं।
(2) टीचर का अर्थ ही बाप समान अथवा बाप के समीप विजयी माला के मणके। टीचर का यही लक्ष्य है ना - ‘विजयी माला के मणके’ बनना।
(3) टीचर अर्थात् कभी हार, कभी जीत में आने वाले नहीं, लेकिन ‘सदा विजयी।’ (4) टीचर अर्थात् सदा तिलकधारी, सदा सौभाग्यवती, सुहागवती। तिलक सुहाग की निशानी है ना। तो सदा सुहागवती अर्थात् बाप को सदा साथी बनाने वाली। सुहागवती अर्थात् तिलक वाली।
टीचर का स्थान है - दिल-तख्त। स्थान छोड़ेंगे तो दूसरे ले लेंगे। टीचर का आसन बाप का दिल-तख्त है। आसन छोड़ दिया तो त्याग, तपस्या खत्म। तो यह आसन कभी नहीं छोड़ना। जगह लेने वाले बहुत हैं। सभी को यही उमंग उत्साह होता है कि हम टीचर से आगे जायें। टीचर फिर उनसे भी आगे जाए तब तो दिल तख्त नशीन होगी? टीचर का छोटा-सा संसार है ना। टीचर का संसार एक बाप ही है। मात-पिता, बन्धुसखा.....। तो संसार में क्या होता है? सर्व सम्बन्ध होता है, वैभव होता है। यहाँ सर्व सम्बन्ध की प्राप्ति बाप से है। है छोटा-सा संसार लेकिन सम्पन्न और शक्तिशाली है। इस छोटे से संसार में कोई अप्राप्त वस्तु नहीं। सर्व सम्बन्ध बाप से। ऐसे नहीं पिता का सम्बन्ध है तो माता का नहीं, माता का है तो बन्धु का नहीं। अगर एक भी सम्बन्ध की प्राप्ति बाप से न होगी तो बुद्धि दूसरे तरफ जरूर जायेगी। बाप से सर्व सम्बन्धों का अनुभव होना चाहिए। नहीं तो दूसरा सम्बन्ध अपनी तरफ खींच लेगा। सारा संसार ही ‘एक बाप’ हो गया तो सब रूप हो गया ना। इसको कहा जाता है नम्बर वन टीचर। फ्लॉलेस (Flawless;बेदाग) टीचर, योग्य टीचर, नामी-ग्रामी टीचर। बाप तो सदा ऊँची नज़र से देखते हैं। अगर बाप कमी को देखे तो सदा के लिए उस कमी को अन्डर लाईन (Underline) लग जाती है। बाप भाग्य-विधाता है ना। इसलिए बाप सदा श्रेष्ठ नज़र से देखते हैं। श्रेष्ठता के आगे, कमज़ोरी आप ही मन को खाती है। श्रेष्ठ बातें सुनने से कमज़ोरी स्पष्ट हो ही जाती है। इसलिए बाप सदैव श्रेष्ठता का वर्णन करते हैं जिससे कमज़ोरी स्वत: ही दिखाई दे। अगर कमज़ोरी को देखें तो लम्बी-चौड़ी वेद- शास्त्रों की खानियाँ बन जाएं।
सभी टीचर्स को विशेष एक बात का ध्यान रखना है - कभी भी, किसी में भी रॉयल रूप में भी झुकाव न हो, किसी भी आत्मा के गुणों की तरफ, सेवा, सहयोग की तरफ, बुद्धि की तरफ, प्लानिंग (Planning;योजना) की तरफ झुकाव नहीं हो। उसी को अपना आधार बनाने से झुकाव होता है। जब किसी आत्मा का आधार हो जाता है तो बाप का आधार स्वत: ही निकल जाता है; और अब आगे चलकर अल्प काल का आधार हिल जाता है तो भटक जाते हैं। इसलिए कभी भी किसी आत्मा के किसी विशेष प्रभाव के कारण प्रभावित होना, यह ‘महान भूल’ है। भूल नहीं महान भूल है। इसमें खुश न हो जाना कि सर्विस वृद्धि को पा रही है। यह अल्प काल का जलवा होता है। फाउन्डेशन (Foundation;नींव) हिला तो सर्विस हिली। इसलिए कभी भी कोई आत्मा को आधार न बनाओ। ऐसे नहीं कि इसके कारण सर्विस वृद्धि को नहीं पायेगी, उन्नति नहीं होगी। यह कारण नहीं कालापन है, जो स्वच्छ आत्मा को काला कर देता है। यह बड़े से बड़ा दाग है। किसी आत्मा को आधार बनाना - यह बड़े ते बड़ा फ्ला है। तो फ्लालेस (Flawless) नहीं बन सकेंगे। बाकी मेहनत बहुत करती हो। मेहनत की बाप-दादा मुबारक देते हैं। सुनाया न कि शास्त्रों की कहानियाँ भी बहुत होती हैं जिनका कोई फाउण्डेशन नहीं। इसलिए पहले सुनाया कि टीचर अर्थात् सदा सेवा में बिजी। संकल्प में भी बाप के साथ बिजी रहो तो किसी आत्मा में बिजी नहीं होंगे। जो बिजी होता है वह कहाँ झुकेगा नहीं। फ्री होने के बाद ही मनोरंजन के साधन, स्नेह, सहयोग की तरफ झुकाव होता है। जो बिजी होगा, उनको इन बातों के लिए फुर्सत ही नहीं। बाप-दादा टीचर्स को देख खुश होते हैं। हिम्मत, उमंग, उल्लास तो बहुत अच्छा है। कदम आगे बढ़ा रही हो लेकिन अपने कार्यों की कहानी का शास्त्र नहीं बनाना। कर्म की रेखा से श्रेष्ठ तकदीर बनानी है। ऐसी कहानी नहीं बनाना जिसका जन्म भी उल्टा तो कहानी भी उल्टी। स्टुडेंट (Student;जिज्ञासु) को पढ़ाना भी खुद को पढ़ाना है। टीचर्स से रूह-रूहान करना बाप-दादा को भी अच्छा लगता है। फालो करने वाले तथा समान वालों से ज्यादा स्नेह होता है। जिससे स्नेह होता है उसकी छोटी कमज़ोरी भी बड़ी लगती है। इसलिए इशारा देते हैं। हम कितने समीप हैं देखना है। तो अमृतवेले दर्पण स्पष्ट होता है। टीचर्स सैलवेशन (Salvation;सहुलियत) देने वाली बन गई ना, लेने वाली नहीं। टीचर्स से पूछने की आवश्यकता नहीं कि खुश-राज़ी हो। सदा खुश रहो और सेवा में वृद्धि करती रहो। परन्तु जब बाहें लड़खड़ाती हैं तो यह सीन (Scene;दृश्य) भी अच्छा लगता है। एक अलंकार उठाती तो दूसरा छूटता है। कभी स्वदर्शन चक्र को ठीक करती तो शंख छूट जाता है, शंख पकड़ती तो कमल छूट जाता है। अब टीचर्स को शास्त्रों की कथा बन्द करनी है। हर संकल्प, हर सेकेण्ड में तकदीर बनाओ। कोई कथा सुनने वाली, सुनाने वाली और बनाने वाली भी होती है। जैसे व्यास की कमाल है, वैसे यहाँ भी कमाल करते हैं। जन्म देते, पालना करते परन्तु विनाश नहीं कर पाते। तो फिर पश्चात्ताप करते हैं और कहते हैं मदद करो। अच्छा।
05-02-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
महानता का आधार
सदा काल के लिए महिमा के योग्य बनाने वाले, त्रिकालदर्शी बनाने वाले, सदा जागती ज्योति शिव पिता बोलेः-
बच्चों की क्या-क्या महिमा है जिस आधार से इतने महान् बनते हैं, बाप उस महिमा को देख रहे हैं। आप सब अपने तीनों स्वरूपों की महिमा को जानते हो? एक है - अनादि स्वरूप की महिमा। दूसरी है - वर्तमान ब्राह्मण जीवन की महिमा। तीसरी है - भविष्य आदि स्वरूप की महिमा।
आदि स्वरूप की महिमा तो अभी तक भक्त भी गा रहे हैं, सर्वगुण सम्पन्न, सोलह कला सम्पूर्ण, सम्पूर्ण निर्विकारी, मर्यादा पुरूषोत्तम, सम्पूर्ण आहिंसक। यह महिमा है अन्तिम फरिश्ते स्वरूप की अर्थात् भविष्य आदि स्वरूप की। जैसे ब्रह्मा सो श्री कृष्ण कहते हैं वैसे अन्तिम फरिश्ता सो देवता। तो यह है आदि स्वरूप की महिमा।
अनादि स्वरूप की महिमा - जो बाप की महिमा सो मास्टर स्वरूप में आपके अनादि रूप की महिमा है। जैसे मास्टर सर्वशक्तिवान, मास्टर नॉलेजफुल (Knowledgeful;ज्ञान का सागर), मास्टर ब्लिसफुल (Blissful;दया का सागर), मास्टर पीसफुल (Peaceful;शान्ति का सागर)।
वर्तमान श्रेष्ठ ब्राह्मण स्वरूप की महिमा कौन सी है? ब्राह्मणों के जीवन के मुख्य चार आधार हैं। ब्राह्मण कहा ही जाता है - पढ़ने और पढ़ाने वाले वो। ब्राह्मण जीवन अर्थात् गॉडली स्टुडेन्ट लाइफ (Godly Student Life;ईश्वरीय विद्यार्थी जीवन)।
पढ़ाई के जो मुख्य चार सब्जेक्ट्स हैं, वही ब्राह्मण जीवन के चार आधार हैं और इसी आधार पर ब्राह्मण स्वरूप की महिमा है और वह है - 1. परमात्म ज्ञानी, 2. सहज राजयोगी, 3. दिव्य गुणधारी, 4. विश्व सेवाधारी। यह है वर्तमान ब्राह्मण जीवन की महिमा। अपने तीनों स्वरूपों की महिमा को जानते हुए अपनी महानता को देखो और चेक करो - कौन-कौन से लक्षण प्रैक्टीकल लाइफ (Practical Life;व्यवहारिक जीवन) में निरन्तर रूप में अपनाये हैं। परमात्म ज्ञानी का विशेष लक्षण कौन-सा है, जिससे प्रत्यक्ष हो कि यह परमात्म-ज्ञानी हैं। मुख्य लक्षण कौन सा है? हर सब्जेक्ट का लक्षण अलग होता है। परमात्म-ज्ञानी अर्थात् नॉलेजफुल; नॉलेजफुल अर्थात् परमात्म- ज्ञानी। ज्ञान की विशेष प्राप्ति क्या है? ज्ञान का फल क्या है? ज्ञान का फल अर्थात् परमात्म-ज्ञानी का मुख्य लक्षण - हर संकल्प में, बोल में, कर्म में, सम्पर्क में मुक्ति और जीवन्मुक्ति की स्टेज होगी जिसको न्यारा और प्यारा कहते हैं। वह स्टेज है ‘जीवन्मुक्ति’ की। कर्म करते हुए भी बन्धनों से मुक्त। अत: परमात्म-ज्ञानी का विशेष लक्षण है सब में मुक्त और जीवन मुक्त स्थिति। ज्ञान अर्थात् समझ। समझदार सदा स्वयं को बन्धनमुक्त, सर्व आकर्षणों से मुक्त बनाने की समझ रखता है। तो परमात्म-ज्ञानी का विशेष लक्षण हुआ - मुक्त और जीवन्मुक्त।
इसी प्रकार सहज राजयोगी का लक्षण क्या होगा? योगी अर्थात् योगयुक्त अर्थात् युक्तियुक्त। वह संकल्प और कर्म की समानता की सिद्धि-स्वरूप होगा। अच्छा।
दिव्य गुणधारी का मुख्य लक्षण क्या होगा? सन्तुष्ट रहना और सबको सन्तुष्ट करना। उनको सब की सन्तुष्टता का आशीर्वाद प्राप्त होगा अर्थात् गाडली यूनिवार्सिटी (Godly University;ईश्वरीय विश्वविद्यालय) का सर्टिफिकेट प्राप्त होगा। विश्व सेवाधारी का विशेष लक्षण क्या है?
‘विश्व सेवाधारी अर्थात् निर्माण और अथक।’ सदा जागती ज्योति होकर रहेगा। जागती ज्योति माना केवल निद्राजीत नहीं लेकिन सर्व विघ्न जीत। उसको कहते हैं जागती ज्योति। स्मृति रहना भी जागना है। तो अब इन सभी लक्षणों को सामने रखते हुए देखो कि गॉडली यूनिवार्सिटी की सम्पूर्ण डिग्री ली है? चार सब्जेक्टस के आधार पर जो महिमा बताई, वही ब्राह्मण जीवन की डिग्री है। तो यह डिग्री ली है? यह वर्तमान समय की डिग्री है। फरिश्ते स्वरूप की डिग्री तो और है किन्तु अभी तो हर एक अपने को ज्ञानी, योगी, सेवाधारी तो कहते हो ना? तो जो अपने को कहते हो, समझते हो, चैलेन्ज करते हो कि सभी शास्त्र-ज्ञानी हैं, हम परमात्म-ज्ञानी हैं; वे सब हठयोगी हैं, हम दिव्य गुणधारी अर्थात् कमल फूल समान जीवन वाले हैं। हम विश्व-कल्याणकारी अर्थात् सेवाधारी हैं। इसलिए जो चैलेन्ज करते हो, वे ही लक्षण दिखाई देने चाहिए। क्या यह कठिन है? यह तो ब्राह्मणों का निजी धर्म और कर्म है। जो जन्म-जाति का धर्म और कर्म होता है वह मुश्किल नहीं होता। ‘वर्तमान महिमा को निजी, निरन्तर धर्म और कर्म बनाओ।’ समझा? अच्छा।
ऐसे लक्ष्य और लक्षण को समान बनाने वाले, तीनों स्वरूपों की महिमा से महान बनाने वाले, सदा मुक्त, जीवनमुक्त, युक्तियुक्त, सदा सन्तुष्ट, सदा अथक, निर्माण, सदा जागती ज्योति, श्रेष्ठ ब्राह्मणों को आदि पिता और अनादि पिता का याद-प्यार और नमस्ते।
06-02-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
रियलाइजेशन द्वारा लिबरेशन
विश्व अधिकारी, सर्वगुण सम्पन्न बनने वाली श्रेष्ठ आत्माओं के प्रति बाप-दादा बोलेः-
आज बाप-दादा हर एक गाडली स्टुडेंट की रिजल्ट (परिणाम) को देख रहे हैं। कोर्स किया, रिवाईज कोर्स (REVISE Course) भी किया। रियलाइजेशन कोर्स (REALIZATION Course) भी किया। उसका रिजल्ट क्या हुआ? हर एक ने अपने को रियलाईज (Realise;अनुभव) किया कि पढ़ाई के अनुसार किस स्टेज को पा सकेंगे। राज्य-पद के संस्कार या प्रजा-पद के संस्कार दोनों में से मुझ आत्मा में कौन से संस्कार भरे हैं, यह जानते हो? राज्य-पद के संस्कार अर्थात् श्रेष्ठ पद के संस्कार क्या दिखाई देंगे? ‘अधिकारी और सत्कारी, निराकारी और निरहंकारी।’ ये विशेष धारणायें राज्य-पद का विशेष आसन है। यह आसन ही सिंहासन की प्राप्ति कराता है। चारों ही बातों का बैलेन्स हो। ऐसा आसन मजबूत है या हिलता रहता है? बाप-दादा आज रिजल्ट पूछ रहे हैं। रियलाइजेशन कोर्स का होम-वर्क दिया था, उसका क्या रिजल्ट हुआ? आप सब तो फाइनल पेपर के लिए तैयार थे, फिर अपना रिजल्ट क्या देखा, अपनी स्थिति का क्या अनुभव किया? बाप समान बाप के साथ-साथ जाने वाले बने हो? अगर समान नहीं तो साथ के बजाय वाया (Via) में रूकना पड़ेगा। वाया इसलिए करना पड़ेगा क्योंकि खाता क्लीयर (Clear;चुक्ता) नहीं हुआ होगा। रिफाइन (Refine;स्वच्छ) नहीं तो फाईन (दण्ड) भरना पड़ेगा। इसलिए साथ नहीं चल सकेंगे। वायदा किया है? साथ चलेंगे या रूककर चलेंगे? बाप से पूछते हैं कि आप पुराने बच्चों से क्यों नहीं मिलते; तो बाप भी रिजल्ट पूछते हैं - रिफाइन बने हो? क्या अभी कोई कोर्स की आवश्यकता है? रियलाइजेशन के बाद और क्या रह जाता है? अन्तिम रिजल्ट का स्वरूप है - लिबरेशन (Liberation) अर्थात् सबसे मुक्त।
आज बाप-दादा बाप और बच्चों का अन्तर देख रहे थे। बाप क्या कहते हैं और बच्चे क्या करते हैं। रिजल्ट क्या देखी होगी? मजेदार रिजल्ट होगी ना! बतायें या समझते हो? समझते हुए भी करते रहें तो क्या कहेंगे? मैजोरिटी (Majority;अधिकतर) साधारण पुरुषार्थी हैं। मुख्य कारण क्या है? बाप कहते हैं प्रभु-पसन्द बनो, विश्व-पसन्द बनो। लेकिन करते क्या हैं? आराम-पसन्द बन जाते। हो जायेगा, किसने किया है, सब ऐसे ही हैं। औरों से फिर भी हम ठीक हैं। ऐसी अनेक प्रकार की गिरती कला के डनलप के तकिए लगा कर आराम-पसन्द हो गए हैं। बाप कहते हैं कनेक्शन जोड़ो, गुणों और शक्तियों का वरदान लो और दो, लेकिन कई बच्चे कनेक्शन के महत्व को नहीं जानते। कनेक्शन जोड़ना आता नहीं, लेकिन करेक्शन करना (Correction;गलतियां निकालना) बहुत आता है। दूसरों की करेक्शन करने वाले कनेक्शन का अनुभव नहीं कर सकते। बाप कहते सदा याद की साधना में रहो लेकिन साधना के स्थान पर अल्पकाल के साधनों में ज्यादा बिजी रहते हैं। साधनों के आधार पर साधना बना देते हैं। साधन ज्यादा आकर्षित करते हैं। ऐसे साधकों की साधना सफल नहीं होती। जीवन मुक्त के स्थान पर बन्धन मुक्त आत्मा बन जाते हैं। समझा? बाप क्या कहते और बच्चे क्या करते हैं? रिजल्ट सुनी?
बाप-दादा श्रेष्ठ आत्माओं को सदा श्रेष्ठ नज़र से देखते हैं। श्रेष्ठ तकदीर की रेखाएं देखते हैं। यही आत्माएं विश्व के सामने चमकते हुए सितारे हैं। विश्व आपके कल्प पहले वाले सम्पन्न-स्वरूप, पूज्य-स्वरूप का सुमिरण कर रहा है, इसलिए अपना सम्पन्न स्वरूप प्रैक्टीकल में प्रख्यात करो। बीती हुई कमज़ोरियों पर फुल स्टाप लगाओ तब सम्पन्न रूप का साक्षात्कार होगा। सब पुराने संस्कार और स्वभाव दृढ़ संकल्प रूपी आहुति से समाप्त करो। दूसरों की कमज़ोरी की नकल मत करो। अवगुण धारण करने वाली बुद्धि का नाश करो, दिव्य गुण धारण करने वाली सतोप्रधान बुद्धि धारण करो। अधिकारी और सत्कारी दोनों का बैलेन्स बराबर रखना है। दूसरों की कमज़ोरी को विस्तार में नहीं लाओ और अपनी कमज़ोरी को छिपाओ नहीं। सफलता में स्वयं और असफलता में दूसरों को दोषी मत बनाओ। शान और मान का त्याग, साधनों का त्याग यही महान त्याग है। साकार बाप के समान अल्पकाल की महिमा के त्यागी बनो तब ही श्रेष्ठ भाग्यवान बन सकेंगे। शिव बाबा इन सब बातों से लिबरेशन चाहते हैं। इस अन्तिम फोर्स के कोर्स के लिए समय मिला है।
ऐसे विश्व अधिकारी, सत्कार दे विश्व के द्वारा सत्कारी बनने वाले, निर्माण से विश्व द्वारा नमन योग्य बनने वाले, बीती को समाप्त करने वाले, सर्व गुणों में सम्पन्न बनने वाले सदा समान और साथी रहने वाले, श्रेष्ठ भाग्यशाली आत्माओं को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
टीचर्स के प्रति
जो कुछ सुना है उन सबका सार अपने जीवन में ला रही हो ना? क्योंकि टीचर का अर्थ ही है ‘राजयुक्त और सारयुक्त’। टीचर की विशेषता यह है - (1) जो विस्तार को सेकेण्ड में सार में लायें। जैसे इसेन्स (Essence;खुशबू) की एक बूंद होती है लेकिन वो बहुत कार्य कर लेती है, वैसे टीचर्स अर्थात् इसेंसफुल (Essenceful)। यर्थ के विस्तार को सेकेण्ड में सार रूप में करने वाली और अन्य को कराने वाली। (2) टीचर्स भी पावर हाउस (Power House) बाप के समान सब-स्टेशन हैं। तो जैसे पावर हाउस में सदा अटेंशन और चेकिंग रहती है कि कहीं भी फ्यूज न हो जाये। ऐसे टीचर्स को भी क्या चैकिंग करनी है? कभी भी कोई परिस्थिति में कनफ्यूज (Confuse) न हो जाएं। जैसे पॉवर हाउस की छोटी सी हलचल सारे एरिया (Area) की लाईट को हिला देती है। वैसे ही टीचर के कनफ्यूज होने से वातावरण में प्रभाव पड़ जाता है और वातावरण का प्रभाव आने वालों पर पड़ता है तो टीचर्स को अपने-आपको अनेक आत्माओं के चढ़ाने और डगमग करने के निमित्त समझना चाहिए। (3) टीचर्स अथक हो ना। छोटी-सी बातों में थकने वाली तो नहीं हो? पुरूषार्थ में अपने-आप से भी थकना होता है? कोई भी प्रकार के संस्कार या स्वभाव को परिवर्तन करने में दिल शिकस्त होना या अलबेलापन होना भी थकना है। यह तो होता ही रहता है, यह तो होगा ही, यह है अलबेलापन। बहुत मुश्किल है, कहाँ तक चलेंगे यह है दिल शिकस्त होना। तो पुरूषार्थ में अलबेलापन होना या दिल शिकस्त होना भी थकना है। (4) जिसमें परिस्थितियों को सामना करने की शक्ति है, वे सदा उमंग उत्साह में रहेंगे, कनफ्यूज नहीं होंगे। (5) टीचर्स हैं ही बाप के समान सेवाधारी, तो समान वाले हो ना? समानता की भी खुशी होती है। टीचर्स इस खुशी में रहती है कि बाप समान ‘मास्टर शिक्षक’ हैं, बाप समान निमित्त बने हुए हैं। बाप समान अनेक आत्माओं के कल्याण की जिम्मेवारी भी है तो बाप समान हैं। यह खुशी बहुत आगे बढ़ा सकती है। टीचर्स को देख बाप-दादा भी खुश होते हैं। समान को कहते हैं ‘फ्रेन्डशिप ग्रुप’ (Friendship Group) तो फ्रेन्डस का ग्रुप हो गया। (6) टीचर्स को सदा नया प्लान बनाना चाहिए। प्लानिंग बुद्धि हो और बहुत सहज प्लानिंग बुद्धि बन भी सकती हो। कैसे? अमृतवेले प्लान बुद्धि हो तो बाप-दादा द्वारा प्लान टच होंगे। तो प्लानिंग बुद्धि बनते जायेंगे। साकार आधार लेती हो इसलिए प्लानिंग बुद्धि नही बनती। नहीं तो टीचर्स का सम्बन्ध फ्रेन्डशिप होने के कारण समीप का है। तो बहुत सहयोग ले सकती हो। जब बाप देखते हैं हद के आधार बना रखे हैं, तो बाप क्यों मदद करें? (7) टीचर्स की विशेषता क्या है? टीचर्स इन्वेंटर (Inventor;आविष्कारक), क्रियेटर (Creator;रचयिता), प्लानिंग बुद्धि है; अनेक आत्माओं को उमंग उल्लास दिलाने वाली है, इन सब विशेषताओं को अब इमर्ज करो। तो हद की बातें मर्ज हो जायेंगी। समझा? (8) टीचर की विशेषता है अनुभवी मूर्त्त। बोलने वाली मूर्त्त नहीं, अनुभवी मूर्त्त। बोलना भी अनुभव के आधार पर। इतनी सब विशेषताओं से सम्पन्न नज़र से बाप-दादा देखते हैं। तो कितने महान हो गये! महानता को मेहमान समझ कर चलाना। महानता को अपनी प्रॉपर्टी नहीं समझ लेना। महानता को अपना समझ, बाप का नहीं समझा तो नुकÌसान है। बाप द्वारा मिली हुई महानता है तो बाप को बीच में से नहीं भूलना। अच्छा।
सदा खुश रहने का साधन
सर्व खज़ानों से सम्पन्न आत्मा की निशानी कौन सी होगी? जो खज़ानों से सम्पन्न होगा वा सदा अति इन्द्रिय सुख में मगन रहेगा। उसे बाप और सेवा के सिवाए कुछ भी याद नहीं रहेगा। वह हद की प्रवृत्ति को सम्भालते हुए ईश्वरीय सेवा अर्थ अपने को ट्रस्टी समझ करके प्रवृत्ति का कार्य करेगा। उसका हर कर्म श्रीमत प्रमाण होगा - उसमें जरा भी मनमत या परमत मिक्स नहीं करेगा। श्रीमत में अगर जरा भी मनमत या परमत मिक्स है तो उसकी रिजल्ट क्या दिखाई देगी? अगर श्रीमत के अन्दर मनमत या परमत मिक्स है तो जैसे शुद्ध चीज़ में कोई अशुद्ध चीज़ मिक्स हो जाती है तो कोई न कोई नुकसान हो जाता है। ऐसे यहाँ भी श्रीमत में मनमत या परमत मिक्स होती है तो सेवा से जो प्राप्ति होनी चाहिए वो नहीं होती। खुशी, सफलता, शक्ति का अनुभव भी नहीं होगा, श्रीमत की रिजल्ट है सफलता अर्थात् सर्व प्राप्ति। यह अनुभव भी करते होंगे कि किसीकिसी समय मेहनत बहुत करते हो लेकिन सफलता कम मिलती, अनुभव कम होता और कभी मेहनत कम पुरूषार्थ कम होते भी प्राप्ति ज्यादा होती है, इसका कारण यथार्थ और मिक्स। तो यह सूक्ष्म चेकिंग चाहिए। क्योंकि मनमत बहुत सूक्ष्म है। माया मनमत को ईश्वरीय मत में रॉयल रूप से मिक्स करती, आप समझेंगे यह ईश्वरीय मत है लेकिन होगी मनमत। इसके लिए परखने और निर्णय करने की शक्ति चाहिए। अगर यह दोनों शक्तियां पॉवरफुल हैं तो धोखा नहीं खायेंगे।
शान और मानका त्याग, साधनों का त्याग- यही महान त्याग है।
जिनमें रोने की आदत है वे बच्चे बाप से स्वत: ही विमुख हो जाते हैं। मन में दु:ख की लहर आना यह भी रोना हुआ। रोने वाले को बाप की प्राप्ति वाला नहीं कहा जाएगा। जब बाप के सम्बन्ध से वंचित होता है तब दु:ख की लहर आती है। तो रोना अर्थात् बाप से नाता तोड़ना। बाप से अपना मुख मोड़ लेना। जब कोई रोता है तो देखा होगा - किसके आगे मुख नहीं करेगा, छिपायेगा जरूर। तो जैसे स्थूल रोने से स्वत: मुख छिपाया जाता तो मन से रोने से भी बाप से विमुख स्वत: हो जाते। बाप की ओर पीठ हो जाती है। कभी भी दु:ख की लहर संकल्प में भी नहीं आना चाहिए। सुख दाता के बच्चे और दु:ख की लहर हो यह शोभता नहीं। मूड ऑफ करना भी मुख से रोना है। तो मूड ऑफ (Mood Off) करते हो? कभी कोई सर्विस का चान्स कम मिला, तो मूड ऑफ नहीं होती? अथक और आलस्य रहित अपने को समझते हो? आलस्य सिर्फ सोने का नहीं होता। अथक का अर्थ ही है जिसमें आलस्य नहीं हो। तो सदा अथक ही रहना अर्थात् सदा बाप के सम्मुख रहना तो सदा खुश रहेंगे।
फॉस्ट स्पीड (Fast Speed;तीव्र गति) वाले किसी भी समस्या में रूकेंगे नहीं। समस्या रोकने की कोशिश करेगी लेकिन वो जम्प देकर निकल जायेंगे। समस्याओं के सोच में समय नहीं गवाएंगे। फॉस्ट स्पीड अर्थात् जो बाप ने कहा वो किया। दूर से ही अनुभव होगा कि यह कोई अलौकिक व्यक्ति है।
शक्ति और खुशी प्राप्त करने का आधार है - श्रेष्ठ कर्म। श्रेष्ठ कर्म तभी होते हैं जब कर्म और योग दोनों साथ-साथ हो। सदैव चेक करो कि कर्म करते भी योगी हैं। कर्म करते योग भूलता तो नहीं? जैसे आत्मा और शरीर साथ-साथ है, अलग हो जाए तो मुर्दा बन जाते। वैसे अगर कर्म के साथ योग नहीं तो वो कर्म बेकार हो जाते। बन्धन डालने वाली आत्मा भी पुरूषार्थ में सहयोगी है। बन्धन से और ही अधिक इच्छा बढ़ती है तो बन्धन, बन्धन नहीं लकिन सहयोग हुआ ना! अगर सहयोग की दृष्टि से देखो तो मजा आयेगा। बन्धन को बन्धन की दृष्टि देखेंगे तो कमजोर बन जायेंगे।
14-04-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
श्रेष्ठ तकदीर की तस्वीर
अपनी तकदीर की तस्वीर द्वारा तकदीर बनाने वाले, हर परिस्थिति के पेपरों में एवररेडी, सदा महावीर रहने वाले बच्चों प्रति बाबा बोले :-
आज बाप-दादा हर बच्चे के तकदीर की तस्वीर देख रहे हैं। हर एक ने यथा- शक्ति अपनी-अपनी तस्वीर तैयार की है। तस्वीर के अन्दर विशेषता रूहानियत की चाहिए। रूहानियत भरी तस्वीर हर आत्मा को रूहानी बाप की राह बता देती है। जैसे लौकिक में बहुत सुन्दर बनी हुई तस्वीर अपनी रचयिता की स्मृति दिलाती है कि इसको बनाने वाला कौन? ऐसे ही रूहानी तस्वीर अर्थात् श्रेष्ठ तकदीर-वाली तस्वीर बनाने वाले बाप के तरफ स्वत: ही आकर्षित करती है। आपका भाग्य, भाग्य बनाने वाले भगवान की स्वत: याद दिलाता है। ऐसे श्रेष्ठ तकदीर की तस्वीर बनाई है? रूहानी तकदीर अर्थात् चलता-फिरता लाईट हाउस (Light House)। लाईट हाउस का कर्त्तव्य है - हरेक को सही राह दिखाना। चलते-फिरते इतने लाईट हाउस क्या कमाल करेंगे? ऐसे बने हो वा अब तक बनने के प्लान बना रहे हो?
इस बार बाप-दादा रिजल्ट लेने के लिए आए हैं। जब पेपर अर्थात् इम्तहान के दिन होते हैं तो उस समय पढ़ाई पढ़ायी नहीं जाती है, लेकिन पढ़े हुए का इम्तहान होता है। तो बाप-दादा ने भी संकल्प द्वारा, वाणी द्वारा, कर्म द्वारा पढ़ाई बहुत पढ़ायी है, अब उसकी रिजल्ट देखेंगे। हरेक अपनी रिजल्ट से संतुष्ट हैं? चैक किया है कि समय प्रमाण वा बाप की पढ़ाई प्रमाण, विश्व के आगे स्वयं को प्रत्यक्ष प्रमाण बनाया है? कोई भी बात को स्पष्ट करने के लिए अनेक प्रकार के प्रमाण दिए जाते हैं। लेकिन सभी प्रमाण में श्रेष्ठ प्रमाण, ‘पत्यक्ष प्रमाण’ ही है। तो ऐसे बने हो? जो कोई भी देखे तो अनुभव करे कि इन्हें पढ़ाने वाला वा बनाने वाला सर्वशक्तिवान बाप है। प्रत्यक्ष प्रमाण ही बाप को प्रत्यक्ष करने का सहज और श्रेष्ठ साधन है। इस साधन को अपनाया है? प्रत्यक्षता वर्ष तो मनाया लेकिन स्वयं को प्रत्यक्ष प्रमाण बनाया? सहज है वा मुश्किल है? क्योंकि प्रत्यक्ष प्रमाण अर्थात् जो हो, जिसके हो उसी स्मृति में रहना। वह मुश्किल होता है? अपने आपको याद करना किसको मुश्किल लगता है? टेम्पररी? (Temporary;अस्थायी) पार्ट बजाने के समय अपना टेम्पररी टाईम का स्मृति में रखना मुश्किल होता है। जैसे कोई फीमेल (Female) से मेल (Male) बनेगा तो फिर भी पार्ट बजाते-बजाते फीमेल का रूप कब स्मृति में आ जायेगा। लेकिन निजी स्वरूप कब भूलता नहीं है। तो आप जो हो, जिसके हो और जहाँ के हो वह अनादि निजी स्वरूप, अनादि बाप, अनादि स्थान है, न कि टेम्पररी। अनादि की स्मृति सहज होती है वा मुश्किल? प्रत्यक्ष प्रमाण अर्थात् अनादि रूप में स्थित रहना। फिर भी भूल जाते हो? वास्तव में भूलना मुश्किल होना चाहिए। क्योंकि भूलकर जो स्वरूप स्मृति में लाते हो वह अनादि नहीं, मध्यकाल का है। मध्यकाल अर्थात् द्वापर का समय, तो मध्यकाल का स्वरूप मुश्किल याद आता है। यह यथार्थ नहीं लेकिन अयथार्थ है।
बाप-दादा रिजल्ट लेने आये हैं, खास पुरानों से। जिन्होंने विशेष उल्हनों द्वारा आह्वान किया है। पुरानों का आह्वान करना अर्थात् रिजल्ट देने के लिए तैयार रहना। क्योंकि बाप-दादा ने पहले ही कह दिया था। जैसे नयों को सुनाते हो, बाप का आना अपने आपको जीते जी मरने का साहस रखना। क्योंकि बाप का आना अर्थात् वापस ले जाना वा पुरानी दुनिया का परिवर्तन करना। वैसे ही आपको बाप का बुलाना अर्थात् रिजल्ट देने के लिए तैयार रहना। तो पेपर के लिए तैयार हो ना? विश्व को परिवर्तन करने की हलचल देखते हुए अचल हो? स्वयं को हलचल कराने वाले निमित्त समझते हो वा अब तक अपने ही हलचल में हो? बाप-दादा हिलाने के पेपर लेवे? अचल रहेंगे वा डगमग होंगे? रेडी (REady) हो या एवररेडी (Eveready;सदा तैयार) हो? रिजल्ट क्या है? स्वयं के संस्कारों के पेपर, स्वयं के व्यर्थ संकल्पों के पेपर वा कोई न कोई शक्ति की कमी के कारण पेपर, सर्व से संस्कार मिलाने के पेपर, अब तक इन छोटे-छोटे हद के पेपर में भी हलचल में आते हो वा अचल हो? बेहद के पेपर अर्थात् अनादि तत्वों द्वारा पेपर, बेहद के विश्व के हलचल द्वारा पेपर, बेहद के वातावरण द्वारा पेपर, बेहद सृष्टि के तमोप्रधान अशुद्ध वायब्रेशन (Vibration) वायुमण्डल द्वारा पेपर। ऐसे बेहद के पेपर देने के लिए पहले है - ‘स्वयं द्वारा स्वयं का पेपर’, छोटे से ब्राह्मण संसार द्वारा वा ब्राह्मणों के संस्कारों द्वारा आया हुआ पेपर, यह कच्चा इम्तहान है वा पक्का इम्तहान है? जैसे छ: मास का और बारह मास का पक्का इम्तहान होता है ना! तो हद का पेपर दे पास हो गये हो? अभी बेहद का पेपर शुरू हो? इसी तरह अपने आपको चैक करो कि - किसी भी सब्जेक्ट के पेपर में पास मार्कस (Marks;नम्बर) लेने योग्य बने हैं वा पास विद् ऑनर (Pass With Honour;सम्मान सहित पास) बने हैं। समझा, क्या करना है? घबराते बहुत हो और घबराते किससे हो? माया के बुदबुदों से। जो अभी-अभी हैं, अभी-अभी नहीं होंगे। छोटे बच्चे भी बुदबुदों से नहीं डरते हैं। खेलते हैं न कि डरते हैं। मास्टर सर्वशक्तिवान बुदबुदों से खेलने वाले हैं न कि डरने वाले। अच्छा फिर आगे सुनाते रहेंगे। अच्छा।
ऐसे चलते-फिरते लाईट हाउस, अपने तकदीर की तस्वीर द्वारा तकदीर बनाने वाले, बाप को हर समय प्रत्यक्ष करने वाले, हर परिस्थिति के पेपरों में एवररेडी रहने वाले, सदा प्रत्यक्ष प्रमाण बन अन्य को प्रेरणा देने वाले, ऐसे सदा महावीर रहने वाले बच्चों को याद-प्यार और नमस्ते।
दीदी जी से वार्तालाप
आप सभी विशेष आत्माएं बाप-दादा के कार्य में सहयोगी हो। सहयोग के रिटर्न में विशेष सर्व और सहज प्राप्तियां होती हैं। जितना समय जो सर्व प्रकार से सहयोगी बनते हैं, उसका प्रत्यक्ष-फल सर्व प्राप्तियों का अनुभव सहज होता है। जैसे समय प्रति समय बाप के सहयोगी बनते हैं तो बाप भी रिटर्न में मदद करते हैं। हिम्मत का संकल्प एक बच्चे का और हज़ार श्रेष्ठ संकल्पों का सहयोग बाप का। ऐसा सहयोग समय पर देते रहते हैं। बच्चों ने सोचा और बाप के सहयोग से हुआ। यह है विशेष आत्माओं को सहयोगी बनने का प्रत्यक्ष फल। प्रत्यक्ष फल प्राप्त करने वाली आत्मा कब मुश्किल का अनुभव नहीं करेगी - इतना सहज लगेगा जैसे अभी-अभी की हुई बात को रिपीट कर रहे हैं। कल्प पहले की है - नहीं, अभी-अभी की है, अभी-अभी रिपीट कर रहे हैं। कल की बात को भी सोचना पड़ेगा, खेंचना पड़ेगा - लेकिन अभी-अभी की है। इसमें बुद्धि पर बोझ नहीं आयेगा। करना है, कैसे होगा यह बोझ भी नहीं। अभी-अभी किया है और अभी-अभी रिपीट करना है। ऐसा प्रत्यक्ष फल प्राप्त होता है। तो प्रत्यक्ष फल खाने वाले हो ना भविष्य के आधार पर सोच रहे हो। भविष्य तो है ही। लेकिन भविष्य से भी श्रेष्ठ ‘प्रत्यक्ष फल’ है। प्रत्यक्ष को छोड़ भविष्य के इन्तजार में नहीं रहना है। अभी-अभी बाप के बने और अभी-अभी मिला। बाप से दूर रहने वाली आत्माएं भविष्य अर्थात् दूर की बातें सोचेंगे। समीप रहने वाली आत्माएं सदा प्रत्यक्षफल का अनुभव करेंगी। एक का लाख गुणा के रूप में रिटर्न में अनुभव करेंगी। ऐसे होता है ना।
चल नहीं रहे हैं लेकिन कोई चला रहा है। अपनी गोदी में बिठाकर चला रहे हैं, तो मुश्किल थोड़े ही होगा! जैसे बच्चा अगर बाप की गोदी में घूमता है तो उसको कब थकावट नहीं होगी, मजा आयेगा। अपने पांव से चले तो थकेगा भी, रोयेगा भी, चिल्लायेगा भी। यह तो बाप चलाने वाला चला रहा है। बाप की गोदी में बैठे हुए चल रहे हैं। कितना अति इन्द्रिय सुख व आनन्द का अनुभव होता है! जरा भी मेहनत वा मुश्किल का अनुभव नहीं। प्राप्ति है वा मेहनत है? संगमयुगी सदा साथी बनने वाली आत्माओं को मेहनत क्या होती है, वह ‘अविद्या मात्रम्’ होते हैं। ऐसे बहुत थोड़े होंगे जिन्हों को मेहनत अविद्या मात्रम् होगी। यह है फाईनल स्टेज की निशानी। उसके समीप आ रहे हैं। पुरूषार्थ भी एक नैचुरल कर्म हो जाए। जैसे और कर्म नैचुरल है ना। उठना, बैठना, चलना, सोना नैचुरल कर्म हैं, वैसे स्वयं को सम्पन्न बनाने का पुरूषार्थ भी नैचुरल कर्म अनुभव हो तब इस नेचर को परिवर्तन कर सकेंगे। अभी तो वह सर्विस रही हुई है। अभी आप सब जा रहे हो, सभी को फाईनल पेपर देने लिए तैयार करने। क्योंकि आप सब निमित्त हो ना। ऐसे एवररेडी बन जाओ जो कोई भी छोटी वा बड़ी परीक्षा में अचल रहे। अभी तो छोटे पेपर में हलचल में आ जाते हैं। स्वयं के पेपर्स द्वारा ही हलचल में हैं। तो अब ऐसी तैयारी कर भेजना जो पुराने यहाँ आवें तो एवररेडी दिखाई पड़े। बाप-दादा ने रियलाइजेशन कोर्स दिया है तो उसकी रिजल्ट भी लेंगे। अनुभवी बनाते जाओ। उच्चारण करने वाले बन जाते हैं लेकिन अनुभवी कम बनते हैं। अगर अनुभवी मूर्त्त बन जाए तो अनुभवी कब धोखा नहीं खायेंगे। धोखा खाना अर्थात् अनुभवी नहीं। ऐसा ही लक्ष्य रख करके सभी में ऐसे लक्षण भरते जाओ। यह रिजल्ट देख लेंगे। अभी तो यही उमंग सर्व का होना चाहिए कि ‘सम्पन्न बन विश्व परिवर्तन का कार्य सम्पन्न करेंगे।’ नहीं तो विश्व परिवर्तन का कार्य भी हलचल में है। अभी-अभी बादल भरते हैं, थोड़ा बरसते हैं - फिर बिखर जाते हैं। कारण? स्थापना करने वाले विश्व परिवर्तक ही हिलते रहते हैं। अपने निशाने से बिखर जाते हैं तो परिवर्तन के बादल भी बिखर जाते हैं। गरजते हैं लेकिन बरसते नहीं। अच्छा।
16-04-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
ब्राह्मण जन्म की दिव्यता और अलौकिकता
मर्यादा पुरूषोत्तम, बाप समान बनने वाले, सदा सिरताज, सदा बाप के सर्व प्राप्तियों के सहारे में रहने वाले बच्चों प्रति उच्चारे हुए बाबा के महावाक्य :-
सुनना और समाना। ‘सुनना’ सहज लगता है रूचि होती है सुनते ही रहें। यह इच्छा सदैव रहती है। ऐसे ही समाना भी इतना ही सहज अनुभव होता है। सदा इच्छा रहती है कि समाने से बाप समान बनना है। समाने का स्वरूप है बाप समान बनना। तो अभी तक फर्स्ट स्टेज पर हो, सेकेण्ड स्टेज पर हो वा लास्ट स्टेज तक हो? लास्ट स्टेज है सुनना और बनना। सुन रहे हैं, बन ही जायेंगे, बनना ही है। कल्प पहले भी बने थे, अब भी अवश्य बनेंगे, यह बोल लास्ट स्टेज में समाप्त हो जाते हैं। एक- एक बोल जैसे-जैसे सुनते जा रहे हैं, वैसे-वैसे बनते जा रहे हैं। लास्ट स्टेज वालों का लक्ष्य और बोल, स्वरूप द्वारा स्पष्ट दिखाई देगा। जैसे पहला पाठ आत्मा का सुनते हो और सुनाते हो। लास्ट स्टेज वाली आत्मा सिर्फ शब्द सुनेंगी, सुनावेंगी नहीं। लेकिन साथ-साथ स्वरूप में स्थित होगी। इसको कहते हैं बाप समान बनना। स्वयं का वा बाप का स्वरूप व गुण वा कर्त्तव्य, सिर्फ सुनायेंगे नहीं लेकिन हर गुण और कर्त्तव्य अपने स्वरूप द्वारा अनुभव करायेंगे। जैसे बाप अनुभवी मूर्त्त है, सिर्फ सुनाने वाले नहीं हैं। तो ऐसे फॉलो फादर करना है। जैसे साकार में बाप को देखा, सुनाने के साथ कर्म में, स्वरूप में करके दिखाया। सुनना, सुनाना और स्वरूप बन दिखाना - तीनों ही साथसाथ चला। ऐसे सुनना और सुनाना और दिखाना साथ-साथ है? अभी तक जितना सुना है उतना ही समाया है। विश्व के आगे कर दिखलाया है! महान् अन्तर है वा थोड़ा सा अन्तर है? रिजल्ट क्या है? सुनना और सुनाना तो कामन (Common;साधारण) बात है। ब्राह्मणों की अलौकिकता कहाँ तक दिखाई देती है? जैसे बाप के महावाक्य हैं कि ‘मेरा जन्म और कर्म प्राकृत मनुष्यों सदृश्य नहीं, लेकिन दिव्य और अलौकिक है।’ बाप-दादा के साथ-साथ आप ब्राह्मणों का जन्म भी साधारण नहीं, दिव्य और अलौकिक है। जैसा जन्म, जैसा दिव्य नाम वैसा ही दिव्य अलौकिक काम है।
जैसे हरेक लौकिक कुल की मर्यादा की भी लकीर होती है। ऐसे ब्राह्मण कुल की मर्यादाओं की लकीर के अन्दर रहते है? मर्यादाओं की लकीर, संकल्प में भी किसी आकर्षण वश उल्लंघन तो नहीं करते हैं। अर्थात् लकीर से बाहर तो नहीं जाते हैं। शूद्रपन के स्वभाव वा संस्कार की स्मृति आना अर्थात् अछूत बनना। अर्थात् ब्राह्मण परिवार से अपने आप ही अपने को किनारे करना। तो यह चैक करो कि सारे दिन में बाप का सहारा कितना समाय रहता और अपने आप किनारा कितना समय किया? बारबार किनारा करने वाले बाप के सहारे का अनुभव, बाप के साथ-साथ रहने का अनुभव, बाप द्वारा प्राप्त हुए सर्व खज़ानों का अनुभव, चाहते हुए भी नहीं कर पाते हैं। सागर के किनारे पर रहते सिर्फ देखते ही रह जाते हैं, पा नहीं सकते। पाना है, यह इच्छा बनी रहती है लेकिन ‘पा लिया है’, यह अनुभव नहीं कर पाते हैं। जिज्ञासा ही रह जाते हैं। ‘अधिकारी’ नहीं बन पाते हैं। तो सारे दिन में ‘जिज्ञासु’ की स्टेज कितना समय रहती है और ‘अधिकारी’ की स्टेज कितना समय रहती है? आप लोग के पास भी जब कोई नया आता है तो उसको पहले ‘जिज्ञासु’ बनाते हो। जिज्ञासु अर्थात् जिज्ञासा रहे कि पाना है। आप लोग भी ‘जिज्ञासु’ को किनारे रखते हो। संगठन में या रैगुलर क्लास में आने नहीं देते हो। जब वह कहता है कि अब अनुभव हुआ, निश्चय हुआ वा मान लिया, जान लिया, तब संगठन में आने की परमीशन (Permission;अनुमति) देते हो। तो अपने आप से पूछो कि जब जिज्ञासु की स्टेज रहती है तो बाप का सहारा वा कुल का सहारा अर्थात् संगठन का सहारा स्वत: ही समीप के बजाए, अपने को दूर-दूर वाला अनुभव नहीं करते? सहारे के बजाये स्वत: बुद्धि द्वारा किनारा नहीं हो जाता? बच्चे के बजाय मांगने वाले भक्त नहीं बन जाते? शक्ति दो, मदद करो, माया को भगाओ, युक्ति दो, माया से छुड़ाओ, यह ‘ब्राह्मणपन’ के संस्कार नहीं हैं। ब्राह्मण कब पुकारते नहीं। ब्राह्मणों को स्वयं बाप भिन्न-भिन्न ‘श्रेष्ठ टाईटल’ से पुकारते हैं। जानते हो ना? आपके कितने टाईटल हैं? ब्राह्मण अर्थात् पुकारना बन्द। ब्राह्मण अर्थात् सिरताज। कभी भी प्रकृति के वा माया के मोहताज नहीं। तो ऐसे सिरताज बने हो? माया आ जाती है अर्थात् मोहताज बनना। पुराने संस्कार वश हो जाते हैं, स्वभाव वश हो जाते हैं, यह है मोहताज पन। ऐसा मोहताज बाप के सिरताज नहीं बन सकता। विश्व के राज्य के ताजधारी नहीं बन सकता, बाप के सिरताज बनने वाले स्वप्न में भी मोहताज नहीं बन सकते। समझा, रियलाइज करो। अब सेल्फ रियलाईजशन कोर्स (Self-Realization Course) चल रहा है ना। अच्छा।
सदा अपने ब्राह्मण कुल की मर्यादा के लकीर के अन्दर रहने वाले ‘मर्यादा पुरूषोत्तम’, सुनने, सुनाने और समान बनने वाले, अभी-अभी स्वरूप से दिखाने वाले, सदा सिरताज, सदा बाप के सर्व प्राप्तियों के सहारे में रहने वाले श्रेष्ठ आत्माओं को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
दीदी जी से
जाना और आना कहेंगे? जाना और आना तब कहें जब साथ छोड़ कर जाता? कहाँ से भी जाना होता है, जाना अर्थात् कुछ छोड़ कर जाना। लेकिन यहाँ जाना और आना शब्द कह सकते हैं? यहाँ हैं तो भी साथ हैं, वहाँ हैं तो साथ हैं। जो सदा साथ रहता, स्थान में भी और स्थिति में भी, तो उसके लिए जाना नहीं कहेंगे। जैसे मधुबन में भी एक कमरे से दूसरे कमरे में जाओ तो यह नहीं कहेंगे हम जा रहे हैं, छुट्टी लेवें, नहीं। नैचुरल जाना आना चलता रहता है, क्योंकि साथ-साथ है ना। यह भी एक कमरे से दूसरे कमरे में चक्कर लगाते हैं। हैं मधुबन वासी। इसलिए विदाई शब्द भी नहीं कहते। सदा सेवा की बधाई देते हैं। सदा साथ रहते, सदा साथ चलते, अंग-संग हैं। ऐसे ही अनुभव होता है ना? महारथी अर्थात् बाप समान। महारथियों के हर कदम में पद्मों की कमाई तो कामन बात है, लेकिन हर कदम में अनेक आत्माओं को पद्मापति बनाने का वरदान भरा हुआ है। महारथी कहेंगे हम जाते हैं? नहीं, लेकिन साथ जाते हैं। महारथियों की सर्विस, नैनों द्वारा बाप से प्राप्त हुए वरदान अनेकों को प्राप्ति कराना अर्थात् अपने द्वारा बाप को प्रत्यक्ष करना है। आप को देखते-देखते बाप की स्मृति स्वत: आ जाए। हरेक के दिल से निकले कि कमाल है बनाने वाले की! तो बाप प्रत्यक्ष हो जाएगा। बाप, आप द्वारा प्रत्यक्ष दिखाई देगा और आप गुप्त हो, जायेंगे। अभी आप प्रत्यक्ष हो, बाप गुप्त है, फिर हरेक दिल से बाप की प्रत्यक्षता के गुणगान् करते हुए सुनेंगे। आप दिखाई नहीं देंगे, लेकिन जहाँ भी देखेंगे तो बाप दिखाई देगा। इसी कारण जहाँ भी देखें वहाँ बाप ही बाप है। यह संस्कार लास्ट में समा जाते हैं जो फिर भक्ति में जहाँ देखते वहाँ ‘तू ही तू’ कह पुकारते हैं। लास्ट में आप सबके चेहरे दर्पण का कार्य करेंगे। जैसे आजकल मन्दिरों में ऐसे दर्पण रखते हैं जिसमें एक ही सूरत अनेक रूपों में दिखाई देती है। ऐसे आप सबके चेहरे चारों ओर बाप को प्रत्यक्ष दिखाने के निमित्त बनेंगे। और भक्त कहेंगे जहाँ देखते तू ही तू। सारे कल्प के संस्कार तो यहाँ ही भरते हैं। तो भक्त इसी संस्कार से मुक्ति को प्राप्त करेंगे। इसलिए द्वापर की आत्माओं में या मुक्ति पाने का संस्कार या तू ही तू के संस्कार ज्यादा इमर्ज रहते हैं तो अपने वा बाप के भक्त भी अभी ही निश्चित होते हैं। राजधानी भी अभी बनती तो भक्त भी अभी बनते। तो भक्तों को जगाने जाती हो वा बच्चों से मिलने के लिए जाती हो? चैक करना कि इस चक्कर में मेरे भक्त कितने बने और बाप के बच्चे कितने बने। दोनों का विशेष पार्ट है। भक्तों का भी आधा कल्प का पार्ट है और बच्चों का भी आधा कल्प का अधिकार है। भक्त भी अभी दिखाई देंगे या अन्त में? जो नौधा भक्ति करने वाले नम्बरवन ‘भक्त माला’ के मणके होंगे, वह भी प्रत्यक्ष यहाँ ही होने हैं। विजय माला भी और भक्त माला भी। क्योंकि संस्कार भरने का समय ‘संगमयुग’ ही है। भक्त अन्त में पुकारते रह जायेंगे, हे भगवान, हमें भी कुछ दे दो। यह संस्कार भी यहाँ से भरेंगे और बच्चे साथ का अनुभव करेंगे। अच्छा।
18-04-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
योग्य शिक्षक का हर कर्म रूपी बीज फलदायक होगा, निष्फल नहीं
सेवा केन्द्रों पर निमित्त बनी बहनों प्रति बाबा बोले:-
टीचर्स अर्थात् शिक्षक है। शिक्षक का अर्थ क्या है? शिक्षक का यहाँ अर्थ है, ‘शिक्षा स्वरूप।’ बड़े से बड़ा शिक्षा देने का सहज साधन कौन-सा है? अनेक प्रकार के शिक्षा देने के साधन होते हैं ना। तो शिक्षा देने का सबसे सहज साधन कौनसा है? स्वरूप द्वारा शिक्षा देना, मुख द्वारा नहीं। साकार बाप ने सबसे सहज साधन ‘स्वरूप’ द्वारा ही शिक्षा दी ना? सिर्फ बोल में नहीं, कर्म से। कहेंगे वह सीखेंगे नहीं। लेकिन ‘जो करेंगे वह देख और भी करेंगे।’ यह मंत्र है। तो सबसे सहज तरीका, स्वरूप द्वारा शिक्षा देना। किसको कितना भी समझाओ तुम आत्मा हो, तुम शान्त स्वरूप, ज्ञानस्व रूप हो लेकिन वह समझेंगे तब तक नहीं, जब तक स्वयं उस स्वरूप में स्थित नहीं होंगे। ऐसे अनुभव की पढ़ाई पढ़ने वालों को कोई भी हरा नहीं सकते। पढ़ाई इतनी अविनाशी हो जाती है। तो कैसे शिक्षा देती हो - वाणी से या स्वरूप से?
हर कदम द्वारा अनेक आत्माओं को शिक्षा देना - यह है योग्य टीचर। भाषण द्वारा व सप्ताह कोर्स द्वारा किसको शिक्षा-स्वरूप बनाना। ऐसे शिक्षक के हर बोल - वाक्य नहीं, लेकिन ‘महावाक्य’ कहे जाते हैं। क्योंकि हर बोल महान बनाने वाला है तो महावाक्य कहेंगे। हर कर्म अनेकों को श्रेष्ठ बनाने का फल निकालने वाला हो। कर्म को बीज कहा जाता है, और रिजल्ट को कर्म का फल कहा जाता है। ऐसे शिक्षक का कर्म रूपी बीज फलदायक होगा। बीज अगर पावरफुल होता है तो फल भी इतना अच्छा निकलता है। हर कर्म रूपी बीज फलदायक होगा, निष्फल नहीं। इसको कहा जाता है ‘योग्य शिक्षक।’ उनका हर संकल्प, जैसे ब्रह्मा के संकल्प के लिए गायन है कि ब्रह्मा के एक संकल्प ने नई सृष्टि रच ली, वैसे ऐसी शिक्षक के संकल्प, नई सृष्टि के अधिकारी बनाने वाला है। समझा? शिक्षक की परिभाषा यह है।
टीचर्स को एक ‘लिफ्ट की गिफ्ट’ भी है। कौन-सी? टीचर्स बनना अर्थात् पुराने सम्बन्ध से त्याग करना। इस त्याग के भाग्य के लिफ्ट की गिफ्ट टीचर को है, पहले त्याग तो कर दिया ना। पहला त्याग है सम्बन्ध का। वो तो कर लिया। आगे भी त्याग की लिफ्ट लम्बी है। लेकिन इस त्याग का, हिम्मत रखने का, सहयोगी बनने का संकल्प किया, यह ‘लिफ्ट ही गिफ्ट’ बन जाती है। लेकिन सम्पूर्ण त्याग कर दो तो बाप के लिए गिफ्ट, दुनिया के लिए लिफ्ट बन जाओ। ऐसी लिफ्ट बन जाओ जो बैठा और पहऊँचा। मेहनत नहीं करनी पड़े। टीचर्स को चान्स बहुत है, लेकिन लेने वाला लेवे। टीचर्स बनने के भाग्य का तो सब गायन करते हुए, इच्छा रखते हैं। इच्छा रखते हैं अर्थात् श्रेष्ठ भाग्य है ना। उसको सदा श्रेष्ठ रखना वह है हरेक का नम्बरवार। टीचर्स जितना चाहे उतना अपना भविष्य सहज उज्वल बना सकती है - लेकिन वह टीचर जो योग्य टीचर हो। थोड़े में खुश होने वाली टीचर तो नहीं हो ना? बाप-दादा तो टीचर्स को किस नज़र से देखते हैं? हमजिन्स की नज़र से। क्योंकि बाप भी टीचर है ना। टीचर, टीचर को देखेंगे तो हमजिन्स की नज़र से देखेंगे। हमजिन्स को देख खुश होंगे। टीचर्स तो सदा सन्तुष्ट होंगी। पूछना अर्थात् हमजिन्स की इनसल्ट करना। अच्छा।
23-04-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
बाप द्वारा प्राप्त सर्व खज़ानों को बढ़ाने का आधार है - महादानी बनना
सदा सर्व खज़ानों से सम्पन्न, व्यर्थ को समर्थ बनाने वाले, सदा प्राप्ति स्वरूप, हर सेकेण्ड और संकल्प् में पद्मापति बनने वाले, ऐसे अखुट खज़ाने के अधिकारी आत्माओं प्रति बाबा बोले :-
बापदादा सभी बच्चों को सब खज़ानों से सम्पन्न स्वरूप में देख रहे हैं। एक ही सर्व अधिकार देने वाला, एक ही समय सभी को समान अधिकार देते हैं। अलग-अलग नहीं देते हैं। किसको गुप्त विशेष खज़ाना अलग नहीं देते हैं। लेकिन रिजल्ट में नम्बर वार ही बनते हैं। सर्व खज़ानों के अधिकार होते भी, देने वाला सागर और सम्पन्न होते हुए भी, नम्बर क्यों बनते हैं? क्या कारण बनता है? समाने की शक्ति अपनी परसेंटेज में है। इस कारण सभी सेंट-परसेंट (Cent-Percent;सम्पूर्ण) नहीं बन पाते। अर्थात् सर्व बाप समान नहीं बन सकते। संकल्प सभी का है, लेकिन स्वरूप में ला नहीं सकते। हर एक को अपने खज़ानें की परसेंटेज चैक करनी चाहिए कि सभी से ज्यादा कौनसा खज़ाना है, जिसको व्यर्थ करने से सर्व खज़ानों में भी कमी हो जाती है - और वह खज़ाना मैजारिटी (Majority;अधिकतर) व्यर्थ करते हैं। वह कौनसा खज़ाना है? वह है ‘समय का खज़ाना।’ मगर समय के खज़ाना को सदा स्वयं के वा सर्व के कल्यण के प्रति लगाते रहो तो अन्य सर्व खज़ाने स्वत: ही जमा हो जाए। संकल्प के खज़ाने में सदा कल्याणकारी भावना के आधार पर, हर सेकेण्ड में अनेक पद्मों की कमाई कर सकते हो। सर्व शक्तियों के खज़ाने को कल्याण करने के कार्य में लगाते रहने से, महादानी बनने के आधार से एक का पद्म गुणा सर्व शक्तियों का खज़ाना बढ़ता जायेगा। ‘एक देना दस पाना’ नहीं, लेकिन ‘एक देना पद्म पाना।’
ज्ञान का खज़ाना समय की पहचान के कारण अब नहीं तो कब नहीं दे सकते। अब देंगे तो भविष्य में अनेक जन्म प्राप्त होगा। इस आधार पर समय के महत्व के कारण सदा विश्व-सेवाधारी बनने से सेवा का प्रत्यक्ष फल खुशी का खज़ाना अखुट बन जाता है। स्वासों का खज़ाना, समय के महत्व प्रमाण एक का पद्म गुणा या बनने के वरदान का समय समझने से अर्थात् कर्म और फल की गुह्य गति समझने से, व्यर्थ स्वासों को सफल बनाने की सदा स्मृति रहने से, श्रेष्ठ कर्मों का खाता वा श्रेष्ठ कर्मों का सूक्ष्म संस्कार रूप में बना हुआ खज़ाना स्वत: ही भरता जाता है। तो ‘सर्व खज़ानों के जमा का आधार समय के श्रेष्ठ खज़ानों को सफल करो’ तो सदा और सर्व सफलता मूर्त्त सहज बन जाएंगे। लेकिन करते क्या हो? अलबेला अर्थात् करने के समय करते हुए भी उस समय जानते नहीं हो कि कर रहे हैं, पीछे पश्चात्ताप करते हो। इस कारण डबल, ट्रिपल समय एक बात में गंवा देते हो। एक करने का समय, दूसरा महसूस करने का समय, तीसरा पश्चात्ताप करने का समय, चौथा फिर उसको चैक करने के बाद चेंज करने का समय। तो एक छोटी सी बात में इतना समय व्थर्थ कर देते हो। और फिर बार-बार पश्चात्ताप करते रहने के कारण, कर्मों का फल संस्कार रूप में पश्चात्ताप के संस्कार बन जाते हैं। जिसको साधारण भाषा में ‘मेरी आदत’ या नेचर (Nature;प्रकृति व स्वभाव) कहते हो। नेचुरल नेचर ब्राह्मणों की सदा सर्व प्राप्ति की है। अर्थात् ब्राह्मणों के आदि अनादि संस्कार विजय के हैं अर्थात् सम्पन्न बनने के हैं। पश्चात्ताप के संस्कार ब्राह्मणों के नहीं हैं। यह क्षत्रियपन के संस्कार हैं। चंद्रवंशी के संस्कार हैं। सूर्यवंशी सदा सर्व प्राप्ति सम्पन्न स्वरूप है। चंद्रवंशी बार-बार अपने आप में वा बाप से इन शब्दों में पश्चात्ताप करते हैं - ऐसे सोचना नहीं चाहिए था, बोलना नहीं चाहिए था, करना नहीं चाहिए था, लेकिन हो गया, अब से नहीं करेंगे। कितने बार सोचते वा कहते हो। यह भी रॉयल रूप का पश्चात्ताप ही है। समझा? कौन से संस्कार हैं? सूर्यवंशी के वा चंद्रवंशी के? बहुत समय के संस्कार समय पर धोखा दे देते हैं। तो पहले स्वयं को स्वयं के धोखे से बचाओ तो समय के धोखे से भी बच जायेंगे। माया के अनेक प्रकार के धोखे से भी बच जायेंगे। दु:ख के अंश मात्र के महसूसता से सदा बच जायेंगे, लेकिन सर्व का आधार - ‘समय को व्यर्थ नहीं गंवाओ।’ हर सेकेण्ड का लाभ उठाओ। समय के वरदानों को स्वयं प्रति और सर्व के प्रति कार्य में लगाओ। अच्छा।
सदा सर्व खज़ानों से सम्पन्न, व्यर्थ को समर्थ बनाने वाले, सदा प्राप्ति स्वरूप, हर सेकेण्ड और संकल्प में पद्मापति बनने वाले, ऐसे अखुट खज़ाने के अधिकारी आत्माओं को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
पार्टियों से:-
सूर्यवंशी संस्कार हैं ना? बार-बार एक ही भूल करने से संस्कार पक्के हो जाते हैं। तो सूर्यवंशी अर्थात् सूर्य समान मास्टर सूर्य हो। अपनी शक्तियों की किरणों द्वारा किसी भी प्रकार का किचड़ा अर्थात् कमी व कमजोरी है, तो सूर्य का काम है सेकेण्ड में किचड़े को भस्म करना। ऐसा भस्म कर देना जो नाम, रूप, रंग सदा के लिए समाप्त हो जाए। जैसे शरीर को अग्नि द्वारा जलाते हैं, तो सदा के लिए नाम, रूप, रंग समाप्त हो जाता है। तो भस्म करना अर्थात् ‘भस्म’ बना देना। राख को भस्म भी कहते हैं। तो सूर्यवंशी का यह कर्त्तव्य है। न सिर्फ अपनी लेकिन औरों की कमजोरियों को भी भस्म बना देना, इतनी शक्ति है ना? सूर्य की शक्ति से और कोई शक्तिवान है क्या? चन्द्रमा के ऊपर सूर्य है, सूर्य के ऊपर तो और कोई नहीं है ना? चन्द्रमा में भस्म करने की शकि्त नहीं, लेकिन सूर्य में भस्म करने की शक्ति है। तो ऐसे हो ना? मास्टर सूर्य हो कि चन्द्रमा हो? या समय पर चन्द्रमा, समय पर सूर्य बन जाते हो? मास्टर सर्व शक्तिवान अर्थात् मास्टर ज्ञानसूर्य की हर शक्ति बहुत कमाल कर सकती है - लेकिन समय पर यूज़ करना आता है? तो समय है सहन शक्ति का और यूज़ करो निर्णय करने में समय ही गंवा दो तो रिजल्ट क्या होगी? जिस समय जिस शक्ति की आवश्यकता है उस समय उसी शक्ति से काम लेना पड़े। समय पर वही शक्ति श्रेष्ठ गाई जाती है। तो समय प्रमाण यूज़ करने का तरीका हो तो हर शक्ति कमाल कर सकती है; दो-चार शक्तियाँ भी यूज़ करने आवे तो बहुत-कुछ कर सकते हैं। दो-चार में राजी नहीं होना है, बनना तो सम्पन्न है, लेकिन अगर दो भी हैं तो भी कमाल कर सकते हो। हर शक्ति का महत्व है। भक्ति मार्ग में देखा होगा - हर शक्ति को, प्रकृति की शक्ति को भी देवता के रूप में दिखाया है। सूर्य देवता, वायु देवता, पृथ्वी देवता। तो इन सब शक्तियों को देवताओं व देवियों के रूप में दिखाया है; अर्थात् इनका इतना महत्व दिखाया है। जब कि आपकी हर शक्ति का भी पूजन होता है - जैसे निर्भयता की शक्ति का स्वरूप ‘काली देवी’ है। सामना करने की शक्ति का स्वरूप ‘दुर्गा’ है। यह भिन्न-भिन्न नाम से आपके हर शक्ति का गायन और पूजन हो रहा है। संतुष्ट रहना और करने की शक्ति है तो ‘संतोषी’ माता के रूप में गायन हो रहा है। सन्तुष्ट रहना अर्थात् सहन शक्ति। इतनी महिमा है आपकी।
वायु समान हल्के बनने की, अथवा डबल लाईट बनने की शक्ति आप में है तो उसका पूजन वायु देवता रूप में कर रहे हैं वा ‘पवनपुत्र’ के रूप में पूजन कर रहे हैं। है यह आपके डबल लाईट रहने का पूजन। समझा? तो जिसके हर शक्ति का इतना पूजन है वह स्वयं क्या होगा? इतना महत्व अपना जानो। जानते हो अपना महत्व! अनगिनत देवी-देवताएं हैं, नाम भी याद नहीं कर सकेंगे। इतने परम-पूज्य हो! जानते हो अपने को कि साधारण ही समझते हो? अगर अपने पूजन को भी स्मृति में रखो तो हर कर्म पूज्य हो जाएगा।
हरेक को स्वयं को देखना है कि मैं रेस में किस नम्बर पर जा रहा हूँ। रेस कर रहा हूँ, यह कोई बड़ी बात नहीं, लेकिन नम्बर कौनसा है? चल तो रहे हैं लेकिन कहाँ चींटी की चाल चलना, कहाँ शेर की चाल चलना! फर्क कितना है! चल तो सभी रहे हैं लेकिन चाल कौनसी है? शेर अर्थात् राजा। तो राजा किसके अधीन नहीं होता। ऐसे हो? कभी किसी भी प्रकृति या माया के अधीन तो नहीं होते? अधीन न होना अर्थात् शेर व शेरनी की चाल चलना। चींटी की चाल से तो बकरी की चाल अच्छी।
मधुबन निवासियों के साथ:-
सबसे समीप कौन है? कहावत है सिन्धी में - ‘जो चूल्हे पर वो दिल पर।’ तो सबसे समीप रहने वाले मधुवन निवासी हैं। तो समीप रहने का रिटर्न क्या है? भक्ति में भी पुकारते हैं तो यही कहते हैं, ‘अपने सदा चरणों में बैठने दो’, वह तो हुए भक्त। लेकिन ज्ञानी तू आत्मा तो सदा दिल पर रहते। तो ऐसे समीप ते समीप रहने वाले जैसे सब स्थानों से समीप हो, वेसे स्थिति में भी समीप हो? स्थिति में समीप रहने वालों का स्थान ‘दिल तख्त’ है। स्थान में समीप रहने वाले स्थिति में भी समीप रहने वाले हैं? सभी ने सुना तो बहुत है अब कर्त्तव्य क्या रहा है? सुना हुआ जो है उसका रिटर्न देना। वह रिटर्न दे रहे हो। सुनाया ना एक हैं हार्ड-वर्कर (Hard Worker;अधिक मेहनती), दूसरे हैं चलते-फिरते योगी हो? अगर सिर्फ हार्ड-वर्कर हो तो हार्ड-वर्क करने के टाईम स्थिति भी हार्ड रहती है या लाइट रहती है? जैसे हार्ड-वर्क करने के समय शरीर हलचल में होता है, वैसे स्थिति भी हलचल में होती है या फरिश्ते रूप में होती है? काम बहुत अच्छा करते हो, कर्त्तव्य की महिमा सब करते हैं, लेकिन कर्त्तव्य के साथ स्थिति की भी सब महिमा करें। जो कुछ करते हो तो किए हुए श्रेष्ठ कार्यों का फल यहाँ के साथ भविष्य के लिए भी जमा करते हो? वा यहाँ ही किया, यहाँ ही खाया? संगम युग पर कार्य का फल ‘अतीन्द्रिय सुख’ है इसके सिवाय अल्प काल का नाम, मान, शान व प्रकृति दासी का फल स्वीकार किया तो भविष्य खत्म हो जाता है। जो जैसा और जितना बाप ने कहा है, उसका प्रत्यक्ष फल यहाँ भी लें तो भविष्य खत्म हो जाता है। तो चैक करो यहाँ ही किया, यहाँ ही खाया, या जमा भी होता है? जो जैसा और जितना बाप ने कहा है उसका प्रत्यक्ष-फल यहाँ भी लें और भविष्य जमा भी हो। जिस फल के लिए बाप ने कहा है, वह स्वीकार करने के सिवाय और कोई फल स्वीकार कर लेते तो नुकसान हो जाता। तो समीप रहने वाले अर्थात् समान बनने वाले। समीपता का लाभसमान बन करके दिखाना। लक्ष्य को लक्षण में लाओ। हर लक्षण लक्ष्य को स्पष्ट करे। लक्ष्य तो बहुत ऊँचा है ना। तो लक्षण भी इतने ऊँच हो। ऐसे सैम्पल बन दिखाओ जो बाप-दादा चैलेंज कर सके कि ‘जैसे यह चल रहे हैं ऐसे चलो।’
मधुवन के वायुमंडल का प्रभाव आटोमेटीकली (स्वत:) चारों ओर फैलता ही है जैसे मधुवन के वातावारण को कोई स्वर्ग का माडल कह करके वर्णन करते हैं। वैसे ही ब्राह्मण परिवार में चारों ओर मधुवन का वातावरण बाप समान चलते फिरते योगीपन का फैलता है। मधुवन निवासियों का सिर्फ कर्त्तव्य नहीं कि अपने आप में ठीक चल रहे हैं। आपका कर्त्तव्य है चारों ओर मधुवन के वातावरण और वायब्रेशन (Vibration) द्वारा सर्व को सहयोग देना। जैसे चान्स डबल, ट्रिपल है तो कर्त्तव्य भी डबल। मधुवन निवासियों का हर संकल्प और कर्म वरदान योग्य होना चाहिए। क्योंकि मधुवन है ‘वरदान भूमि’। आखिर वह दिन भी आएगा जो सबके मुख से यह शब्द निकलेगा कि ‘मधुबन निवासी हर संकल्प व कर्म में वरदानी हैं संगठित रूप में।’ अभी बाप इस डेट को देख रहे हैं। अच्छा।
26-04-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
स्वतन्त्रता ब्राह्मणों का जन्म-सिद्ध अधिकार है
सदा स्वतंत्र रहने तथा सर्व प्राप्ति के अधिकारी, प्रकृति और माया को अधीन बनाने की युक्ति बताते हुए अव्यक्त बाप-दादा बोले:-
आवाज़ से परे रहने वाली स्थिति प्रिय लगती है, वा आवाज़ में आने वाली स्थिति प्रिय लगती है? मास्टर ऑलमाईटी अथॉरिटी (Master ALMIGHTY Authority;मास्टर सर्वशक्तिवान) इस श्रेष्ठ स्टेज पर स्थित हो? आवाज़ से परे स्थिति में स्थित हो सकते हो? ऑलमाईटी अथॉरिटी के हर डायरेक्शन को प्रैक्टिकल में लाने की हिम्मत का अभ्यास हो गया है? बाप-दादा डायरेक्शन दे कि व्यर्थ संकल्पों को एक सेकेण्ड में स्टॉप (समाप्त) करो, तो कर सकते हो? बाप-दादा कहे इस सेकेण्ड में मास्टर शक्ति का सागर बन विश्व को शक्ति का महादान दो, तो एक सैकण्ड में इस स्टेज पर स्थित हो, देने वाले दाता का कार्य कर सकते हो? डायरेक्शन मिलते ही मास्टर सर्वशक्तिवान बन विश्व को शक्तियों का दान दे सकते हो? ऐसे एवररेडी (सदा तैयार) हो? इस स्टेज पर आने से पहले अपने आप से रिहर्सल (Rehersal;पूर्व अभ्यास) करो। कोई भी इन्वेन्शन (Invention;आविष्कार) विश्व के आगे रखने से पहले अपने आप से रिहर्सल की जाती है। ऐसी रिहर्सल करते हो? इस कार्य में वा अभ्यास में सफल कौन हो सकता है? जो हर बात में स्वतंत्र होगा - किसी भी प्रकार की परतंत्रता न हो। बाप-दादा भी स्वतंत्र बनने की ही शिक्षा देते रहते हैं। आजकल के वातावरण प्रमाण स्वतंत्रता चाहते हैं। सबसे पहली स्वतंत्रता पुरानी देह के अन्दर के सम्बन्ध से है। इस एक स्वतंत्रता से और सब स्वतंत्रता सहज आ जाती हैं। देह की परतंत्रता अनेक परतंत्रता में, न चाहते हुए भी ऐसे बांध लेती है जो उड़ते पक्षी आत्मा को पिंजरे का पक्षी बना देती है। तो अपने आपको देखो स्वतंत्र पक्षी हैं वा पिंजरे के पक्षी हैं? पुरानी देह वा पुराने स्वभाव संस्कार व प्रकृति के अनेक प्रकार के आकर्षण वश वा विकारों के वशीभूत होने वाली परतंत्र आत्मा तो नहीं हो? परतंत्रता सदैव नीचे की ओर ले जाएगी अर्थात् उतरती कला की तरफ ले जायेगी। कभी भी अतीइन्द्रिय सुख के झूले में झूलने का अनुभव नहीं करने देगी। किसी न किसी प्रकार के बन्धनों में बंधी हुई परेशान आत्मा अनुभव करेंगे, बिना लक्ष्य, बिना कोई रस, नीरस स्थिति का अनुभव करेंगे। सदा स्वयं को अनुभव करेंगे - न किनारा, न कोई सहारा स्पष्ट दिखाई देगा; न गर्मी का अनुभव, न खुशी का अनुभव - बीच में भंवर में होंगे। कुछ पाना है, अनुभव करना है, चाहिए-चाहिए में मंजिल से अपने को सदा दूर अनुभव करेंगे। यह है पिंजरे के पक्षी की स्थिति। (बिजली घड़ी-घड़ी बन्द हो जाती थी) अभी भी देखो प्रकृति के बन्धनों से मुक्त आत्मा खुश रहती है। अब अपना स्वतंत्र-दिवस मनाओ। जैसे बाप सदा स्वतंत्र है - ऐसे बाप समान बनो। बाप-दादा अभी भी बच्चों को परतंत्र आत्मा देख क्या सोचेंगे? नाम है मास्टर सर्वशक्तिवान और काम है पिंजरे का पक्षी बनना? जो अपने आपको स्वतंत्र नहीं कर सकते, स्वयं ही अपनी कमजोरियों में गिरते रहते वे विश्व परिवर्तक कैसे बनेंगे। तो अपने बन्धनों की सूची (List) सामने रखो। सूक्ष्म-स्थूल सबको अच्छी रीति चैक करो। अब तक भी अगर कोई बन्धन रहा है तो बन्धनमुक्त कभी भी नहीं बन सकेंगे। ‘अब नहीं तो कब नहीं!’ सदा यही पाठ पक्का करो। समझा? स्वतंत्रता ब्राह्मण जन्म का अधिकार है। अपना जन्म सिद्ध अधिकार प्राप्त करो। अच्छा।
बाप समान सदा स्वतंत्र आत्माएं, सर्व प्राप्ति के अधिकारी, प्रकृति और माया को अधीन बनाने वाले, सदा अतीन्द्रिय सुख में झूलने वाले ऐसे मास्टर सुख के सागर बच्चों को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
पार्टियों से-
जैसे लौकिक में हद के रचता कहलाए जाते हो, वैसे ब्राह्मण जीवन में अपने को इस प्रकृति वा माया के रचता समझ करके चलते हो? रचता कभी भी अपनी रचना के वशीभूत, अधीन नहीं होता। रचता अर्थात् मालिक। मालिक कभी अधीन नहीं होता, अधिकारी होते हैं। 63 जन्म तो पिंजरे में रहे, अब बाप आ करके पिंजरे से मुक्त करते हैं। जब मुक्त आत्मा बन गए फिर पिंजरे में क्यों जाए? अर्थात् बन्धन में क्यों आए? निर्बन्धन हो? कभी भी क्या करे - माया आ गई! चाहते नहीं थे - लेकिन हो गया; ऐसे तो नहीं बोलते या सोचते? पुरुषार्थी हैं, अभी थोड़ा बहुत तो रहेगा ही, कर्मातीत तो नहीं है - यह पुरूषार्थहीन बनाने के संकल्प है। बाप द्वारा प्राप्त हुआ खज़ाना और उस खज़ाने के सुख व आनन्द का अनुभव अभी नहीं किया तो सतयुग में भी नहीं करेंगे। सतयुग में, बाप द्वारा यह खज़ाना प्राप्त हुआ है, यह स्मृति इमर्ज नहीं होगी। अभी त्रिकालदर्शी ही बाप के सम्मुख हो; फिर बाप वानप्रस्थ में चले जायेंगे।
अभी जो पाना है, वह अभी ही पाना है। पा लेंगे, नहीं। सारा दिन खुशी में ऐसे खोये हुए रहो जो माया देख भी न सके। दूर से ही भाग जाए। जैसे आजकल की बिजली की शक्ति ऐसा करेन्ट लगाती जो मनुष्य नजदीक से दूर जाकर पड़ता। शॉक आता है ना। ऐसे ईश्वरीय शक्ति माया को दूर फेंक दे। ऐसी करेन्ट होनी चाहिए। लेकिन करेन्ट किसमें होगी? जिसका कनेक्शन ठीक होगा। अगर कनेक्शन ठीक नहीं तो करेन्ट नहीं आयेंगी। कनेक्शन (Connection;सम्बन्ध) शब्द का अर्थ यह नहीं, जिस समय याद में बैठते उस समय कनेक्शन जुट जाता, लेकिन चलते-फिरते हर सेकेण्ड कनेक्शन जुटा हुआ हो। ऐसा अटूट कनेक्शन है जो करेन्ट आये? पाण्डवों का टाईटिल (पद) है - ‘विजयी’। कल्प-कल्प के विजयी हैं, यह पक्का है। यादगार देखकर खुशी होती है ना।
रोज अमृतवेले बाप वरदान देते हैं; अगर रोज वरदान लेते रहो तो कभी भी कमज़ोर नहीं हो सकते। वरदान लेने के सिर्फ पात्र बनना। जो भी चाहिए अमृतवेले सब मिल सकता है। ब्राह्मणों के लिए स्पेशल (Special;विशेष) समय फिक्स (Fix;नियुक्त) है जैसे कितना भी कोई बड़ा आदमी हो, लेकिन फिर भी अपने फैमली (परिवार) के लिए विशेष टाईम (समय) जरूर रखेंगे। तो अमृतवेला विशेष बच्चों के प्रति है, फिर विश्व की आत्माओं प्रति। पहला चान्स बच्चों का है। तो सब अच्छी तरह से चान्स लेते हो? इसमें अलबेले नहीं बनना।
मायाजीत बच्चों को देख बाप-दादा को भी खुशी होती है। जो बार-बार चढ़ते और गिरते रहते तो बाप भी देख रहम दिल होने कारण विशेष उन आत्माओं को रहम की दृष्टि से देखते कि यह कब मायाजीत बन जाए। अच्छा।
28-04-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
सदा सुहागिन की निशानियाँ
सदा सुहाग के तिलकधारी, श्रेष्ठ भाग्यवान, सर्व प्राप्ति स्वरूप आत्माओं प्रति बाबा बोले:-
बापदादा बच्चों के सुहाग और भाग्य को देख रहे हैं। सुहाग का तिलक और भाग्य का लाईट का क्राउन (Crown Of Light;प्रकाश का ताज) ताज और तिलकधारी अर्थात् सुहाग और भाग्य वाले। सदा सुहाग की निशानी है अविनाशी स्मृति का तिलक। सदा भाग्य की निशानी है पवित्रता और बाप द्वारा सर्व प्राप्तियाँ अर्थात् लाईट का क्राउन। स्मृति कम, तो तिलक भी स्पष्ट चमकता हुआ नहीं दिखाई देगा। चमकता हुआ तिलक सदा बाप के साथ रहने के सुहाग की निशानी है। ऐसी सुहागिन तिलकधारी वा सदा सुहागिन होने के कारण सदा विश्व के आगे श्रेष्ठ अर्थात् ऊँच आत्मा दिखाई देती है। जैसे लौकिक रूप में भी सुहागिन को श्रेष्ठ नज़र से देखते हैं और हर श्रेष्ठ कार्य में सुहागिन को ही आगे रखते हैं। अगर ‘सुहाग गया तो संसार गया’ - ऐसे लौकिक में भी माना जाता है। इसी प्रकार अलौकिक जीवन में भी हर आत्मा एक साजन की सजनी है, अर्थात् सुहागिन है। सदा अपने सुहाग के तिलक को देखते हो? सदा एक की ही लगन में मगन रहने की निशानी, स्मृति का तिलक अर्थात् सुहाग का तिलक है। अगर तिलक मिट जाता है तो गोया अपने सुहाग को मिटा देते हैं।
अपने आप से पूछो कि मैं सदा सुहागिन हूँ? सदा सुहागिन एक श्वास वा एक पल भी साथ नहीं छोड़ती है। सदा सुहागिन के मन के बोल हैं - ‘साथ रहेंगे, साथ जीयेंगे, साथ मरेंगे।’ सदा सुहागिन के नयनों में, मुख में साजन की सूरत और सीरत समाई हुई होती, कानों में उनके बोल ही सदा सुनने में आते हैं। जैसे भक्ति में अनहद शब्द सुनने के अभ्यासी होते हैं। बहुत प्रयत्न के बाद एक बार भी अगर शब्द सुनाई देते तो अपनी भक्ति को सफल समझते हैं। यह सब भक्ति की रीति-रस्म इस समय के प्रैक्टिकल लाईफ (Practical Life;व्यवहारिक जीवन) से कापी की है। सदा सुहागिन अर्थात् जिनके कानों में अनादि महामन्त्र ‘मन्मनाभव’ का स्वर गूंजता रहेगा। सदा यह अनुभव करेंगे कि बाप यह महामंत्र बार-बार सुनाते हुए स्मृति दिला रहे हैं। चलते-फिरते यही अनहद अर्थात् अविनाशी बोल बाप के सम्मुख सुनने का अनुभव करेंगे और कोई भी आत्माओं के बोल सुनते हुए भी नहीं सुनेंगे। बस ‘तुम्हीं से बोलूं, तुम्हीं से सुनूं वा तुम्हारा सुनाया ही बोलूं’ - ऐसी स्टेज सदा सुहागिन की ही होती है। ऐसे सदा सुहागिन संकल्प में भी अन्य आत्मा प्रति एक सेकेण्ड भी स्मृति में नहीं लायेगी अर्थात् संकल्प में भी किसी देहधारी के झुकाव में नहीं आयेगी। लगाव तो बड़ी बात हैं, झुकाव भी नहीं। जैसे लौकिक जीवन में भी पर पुरूष प्रति संकल्प करना वा स्वप्न में भी आना सुहागिन के लिए महापाप गिना जाता है, ऐसे ही अलौकिक जीवन में भी अगर संकल्प मात्र भी, स्वप्न मात्र भी कोई देहधारी आत्मा तरफ झुकाव हुआ तो सदा सुहागिन के लिए महापाप गिना जाता है। तो ‘सदा सुहागिन अर्थात् एक बाप दूसरा न कोई।’ ऐसे सुहाग का तिलक लगा हुआ है? माया तिलक मिटा तो नहीं देती? सदा सुहाग के साथ सदा भाग्य। सिर्फ सुहाग नहीं लेकिन भाग्य भी अर्थात् - भाग्यवान हो। सदा भाग्यवान की निशानी है लाईट का क्राउन। जैसे लौकिक दुनिया में भाग्य की निशानी राज्य अर्थात् राजाई होती है, और राजाई की निशानी ताज होता है, ऐसे ईश्वरीय भाग्य की निशानी लाईट का क्राउन है। उस ताज की प्राप्ति का आधार है प्यूरिटी (Purity;पवित्रता) और सर्व प्राप्ति। सम्पूर्ण प्यूरिटी अर्थात् मनसा में भी किसी एक विकार का अंश भी न हो। और सर्व प्राप्ति अर्थात् ज्ञान, सर्व गुण और सर्व शक्तियों की प्राप्ति। अगर कोई भी प्राप्ति की कमी है तो लाईट का क्राउन स्पष्ट दिखाई नहीं देगा; अपवित्रता और अप्राप्ति के बादलों में छिपा हुआ दिखाई देगा। स्वयं को सदा लाईट-आत्मिक रूप अनुभव नहीं करेगा। कर्म में भी अपने को लाईट (Light;हल्का) महसूस नहीं करेगा। बार-बार मेहनत के बाद वा अटेन्शन (Attention;ध्यान) रखने के अभ्यास के बाद अल्प समय के लिए स्वयं को डबल लाईट अनुभव करेगा। जैसे ही सोचेगा कि मैं आत्मा लाईट हूँ, तो आत्मा के बजाए शरीर अर्थात् देह अपने को अनुभव करेगा। भाग्य का आधार सर्व प्राप्तियां हैं। सर्व प्राप्तियों की निशानी है ‘अविनाशी खुशी।’ सदा भाग्यवान सदा खुश होगा। भाग्य कम तो खुशी भी कम, खुशी कम अर्थात् सदा भाग्यवान नहीं। तो समझा? सदा सुहागिन और सदा भागिन अर्थात् भाग्यवान की निशानियां क्या हैं? अब तो सब बातें सामने रखते हुए स्वयं को चैक करो कि मैं कौन हूँ? अच्छा।
सदा सुहाग के तिलक धारी श्रेष्ठ भाग्यवान, सर्व प्राप्ति स्वरूप सदा बाप के साथी ऐसी श्रेष्ठ आत्माओं को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
दीदी जी के साथ:-
ऐसे सदा सुहागिन और सदा भागयवान और सम्पूर्ण भाग्यवान कितने होंगे? निरन्तर डबल लाईट और निरन्तर सर्व प्राप्ति सम्पन्न सम्पूर्ण पवित्र हों, ऐसे कितने मणके होंगे? जो अंगुलियों पर गिनती जितने! ऐसे रत्नों की ही विशेष पूजा होती है। विशोष नौ रत्नों की पूजा होती है ना। तो जो अच्छी क्वालिटी (Quality;प्रकार) का रत्न होता है, उस एक रत्न में एक रंग का होते हुए भी सब रंग दिखाई देंगे। जैसे सफेद हीरा होता है, जो बढ़िया हीरा होगा, चमकता हुआ फ्लालेस (Flawless;दाग रहित) दिखाई देगा। ध्यान से देखेंगे तो सफेद होते हुए भी उसमें सब रंग दिखाई देंगे। इसका कारण क्या है? सर्व शक्तियों के सम्पन्न की निशानी यह है। सर्व शक्तियाँ भिन्न-भिन्न रंग के रूप में दिखाई देती हैं। वह साईन्स (विज्ञान) का हिसाब और यहाँ है सायलेन्स (Silence) द्वारा सर्व प्राप्तियाँ। जैसे वर्षा के बाद इन्द्र धनुष दिखाई देता है, तो उसमें भी सब रंग दिखाई देते हैं यह भी ज्ञान वर्षा के बाद। वर्षा का फल सर्व प्राप्ति स्वरूप। तो ऐसा श्रेष्ठ हीरा वा रत्न सर्व प्राप्ति स्वरूप होने कारण जो शक्ति पाने चाहे वह उस रत्न द्वारा प्राप्त कर सकते हैं। तो ऐसे रत्न कितने होंगे? नौ रत्नों का पूजन, निर्विघ्न होने के लिए विशेष होता है। कोई के ऊपर विशेष विघ्न आता है, तो नौ रत्नों का पूजन करते हैं। तो इतने निर्विघ्न बने हो? हर रत्न सम्पन्न होता है, लेकिन फिर भी हर रत्न की मुख्य विशेषता अपनी होती है। इसलिए नौ रत्नों की इकट्ठी पूजा भी होती है, और अलग-अलग भी विशेष कोई विघ्न अर्थ कोई रत्न गाया हुआ होता है। मानो धन की समस्या वा विघ्न है तो धन की प्राप्ति के लिए वा अप्राप्ति का विघ्न मिटाने के लिए विशेष रत्न भी होता है। बीमारी ज्यादा मार्क ली होंगी तो उसका यादगार फिर अब तक भी अपने हाथ में रिंग (अंगूठी) बनाकर पहनते हैं या गले में लॉकेट बना कर डालते हैं। तो यह सब हिसाब वर्तमान समय के प्राप्ति के हैं। तो ऐसे कितने होंगे? गिनती करने में आते हैं? नाम बताने के नहीं दिखाने के हैं। अगर एनाउन्स (Announce) भी करे और भविष्य में वह प्रसिद्ध भी होंगे लेकिन अभी सम्पूर्ण स्टेज पर न देख करके क्वेश्चन (Question;प्रश्न) करेंगे यह क्यों, यह कैसे। इसलिए बाप भी बता नहीं सकता। दिखा सकते हैं - यह इस गिनती में हैं। यह हो सकता है। बताने की बात नहीं है। अब एक का भी नाम बतावें तो देखना कितने क्वेश्चन उठते। इसमें क्या है, हमारे में क्या नहीं है। इसमें तो यह है। कई क्वेश्चन में समय व्यर्थ गंवाए, यह भी बाप नहीं चाहते। बाकी कल्प-कल्प के प्रसिद्ध हुए रत्न, कल्प पहले मुवाफिक प्रसिद्ध जरूर होंगे। आजकल नाम नहीं, काम चाहते हैं। अभी तो हरेक के अन्दर यह लक्ष्य है कि मैं ही अपने को क्यों नहीं इतना आगे बढ़ा कर योग्य बनाऊं। अच्छा।
विशेष जो मेले की सेवा पर उपस्थित हैं - उन्हीं को याद देना। क्योंकि यह सेवा द्वारा बाप से मिलना ही है। योगयुक्त हो सुना है, इसलिए बाप-दादा सेवाधारियों को सदा सम्मुख ही देखते हैं। ऐसे सेवाधारी कभी भी अपने को दूर नहीं समझेंगे। सम्मुख ही समझेंगे। अच्छा।
अन्य दादियों के साथ:-
दूर-दूर से अपने जन्मभूमि पर आए हैं - ब्राह्मणों की जन्मभूमि ‘मधुबन’ है ना। ऐसे समझते हो कि अपनी जन्मभूमि पर आए हैं। जन्मभूमि का बहुत महत्व रखते हैं। और यह फिर अलौकिक जन्मभूमि है। इस अलौकिक जन्मभूमि पर आने से ही लौकिकपन स्वत: ही भूल जाता है। क्योंकि ‘जैसे धरनी वैसे करनी’ यह गायन् है। ‘जैसा संग वैसा रंग, जैसा अन्न वेसा मन’ गाया हुआ है। वैसे ही, जैसे धरनी वैसी करनी। अगर कोई तमोगुणी धरनी है तो करनी भी ऐसी हो जाती है। धरनी का प्रभाव कर्म और संस्कार पर पड़ जाता है। जैसे मन्दिर में जाते हैं तो भूमि का ही प्रभाव होता है ना। अगर मन्दिर की भूमि पर किसी बुरा संकल्प आवे तो वह अपने को बहुत पापी समझेगा। वैसे अगर बुरा संकल्प आता तो बुरा समझते। तो यह है अलौकिक भूमि लौकिकता स्मृति में भी नहीं आयेगी। निरन्तर कर्मयोगी हो जायेंगे। इसलिए बाप-दादा सदैव कहते हैं कि कहाँ भी रहते हो लेकिन अपने को सदा परमधाम निवासी व मधुबन निवसी समझो। निराकार स्थिति के हिसाब से परमधाम निवासी, साकार स्थिति के हिसाब से मधुबन निवासी। मधुबन कहने से ही वैराग्य वृत्ति और मधुरता दोनों ही आ जाती है। स्थिति में बेहद की वैराग वृत्ति और सम्पर्क में मधुरता दोनों ही चाहिए। स्थान से स्थिति का कनेक्शन (Connection;सम्बन्ध) है।
सभी बेहद के वैरागी बने हो कि अभी कहाँ लगाव है? बेहद के वैरागी का कहाँ भी लगाव व झुकाव नहीं होगा। उसका सदैव इस पुरानी दुनिया से किनारा होगा। बेहद के वैरागी तब बन सकेंगे जब बाप को ही अपना संसार समझेंगे। बाप ही संसार है तो जब बाप में संसार देखेंगे अनुभव करेंगे तो बाकी रहा ही क्या? आटोमेटिक (स्वत:) वैराग आ जाएगा ना। बाप ही मेरा संसार है तो संसार में ही रहेंगे; दूसरे में जाएंगे ही नहीं तो किनारा हो जाएगा। संसार में व्यक्ति व वैभव सब आ जाता है तो बाप को ही अपना संसार बनाया है कि आगे कोई संसार है? कोई सम्बन्ध व कोई सम्पत्ति है क्या? बाप की सम्पत्ति सो अपनी सम्पत्ति। तो इसी स्मृति में रहने से आटोमेटिक बेहद के वैरागी हो जायेंगे। कोई को देखते हुए भी नहीं देखेंगे। दिखाई ही नहीं देखेंगे। दिखाई ही नहीं देगा। अच्छा।
‘स्मृति में रहने से समर्थी आती है।’ अगर समर्थी होगी तो कोई भी परिस्थिति स्वस्थिति को डगमग नहीं करेगी। परीक्षाओं को एक खेल समझकर चलेंगे। अगर खेल में या नाटक में किसी प्रकार की परिस्थिति देखते तो डगमग होते हैं क्या? कोई मरे वा कुछ भी हो लेकिन स्थिति डगमग नहीं होगी। क्योंकि समझते हैं यह खेल है। ऐसे ही परिस्थितियों को एक पार्ट समझो। परिस्थिति के पार्ट को साक्षी हो देखने से डगमग नहीं होंगे, मुरझायेंगे नहीं, मजा आएगा। मुरझाते तब हैं जब ड्रामा की प्वाइन्ट को भूल जाते हैं।
30-04-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
हाईएस्ट अथॉरिटी की स्थिति का आधार - कम्बाइन्ड रूप की स्मृति है
सदा प्रीति की रीति निभाने वाले, मर्यादाओं की लकीर में रहने वाले, आर्टाफिशल सोने हिरण के पीछे सच्चे साथी को किनारा न कर साथी से एक सेकेण्ड भी दूर न रहने वाले, सदा स्मृति की अंगुली साथी के साथ देते हुए चलने वाले, ऐसे वर्तमान और भविष्य तख्तनशीन आत्माओं प्रति बाबा बोले:-
अपने कम्बाइन्ड (Combined;मिला-जुला) रूप की स्थिति में सदा स्थित रहते हो? पहले, आत्मा और शरीर यह कम्बाइन्ड स्वरूप है जो अनादि सृष्टि चक्र में अनादि पार्ट बजाते रहते हैं। दूसरा, इस पुरूषोत्तम संगमयुग पर ब्राह्मण आत्माएं अर्थात् बच्चों और बाप का सदा साथ कम्बाइन्ड रूप है। तीसरा, यादगार रूप में भी चतुर्भुज रूप दिखाया है। सदैव कम्बाइन्ड रूप की नॉलेज को धारण करते हुए चलो तो सदा हाइएस्ट अथॉरिटी अपने को अनुभव करेंगे।
पहले अपने शरीर और आत्मा के कम्बाइन्ड रूप को सदा स्मृति में रखो। शरीर रचना है, आत्मा रचता है। रचता और रचना का कम्बाइन्ड रूप है। तो स्वत: ही मालिक पन स्मृति में रहेगा। मालिक की स्मृति अर्थात् हाइएस्ट अथॉरिटी में रहेंगे। चलाने वाले होंगे न कि उनके वश चलने वाले। लेकिन चलते-चलते जैसे लोगों ने आत्मा परमात्मा को मिलाकर एक कर लिया, वैसे आत्मा और शरीर को अलग-अलग के बजाए मिलाकर एक मान लिया है। अर्थात् अपनी अथॉरिटी की स्मृति समाप्त कर दी। चलते- चलते बॉडी-कानसेस (Body-Conscious;देह अभिमान) हो गये तो कम्बाइन्ड के बजाए एक ही मानने लगे। लो अपने को भूला उसकी रिजल्ट क्या होगी! सब कुछ गंवाया तो बेहोश की स्टेज में अपना सब कुछ लुटा दिया।
ऐसे ही वर्तमान संगमयुग पर बाप और बच्चे के कम्बाइन्ड रूप की स्मृति भूल जाते हो तो हाईएस्ट अथॉरिटी के बदले अपने को निर्बल, शक्तिहीन, उदास, उलझी हुई आत्मा वा वशीभूत हुई आत्मा अनुभव करते हो। कम्बाइन्ड रूप की स्मृति समर्थी लाती है। किसी भी प्रकार के माया के विघ्नों को कम्बाइन्ड रूप की स्मृति से सामना करने की अथॉरिटी आटोमेटीकली अनुभव करते हैं। चाहे स्वयं कमजोर आत्मा भी हो लेकिन बाप के साथ के कारण सर्वशक्तिवान के संग वा स्मृति से मास्टर सर्वशक्तिवान अनुभव करते। तो कम्बाइन्ड रूप में स्मृति में रहेंगे तो यादगार स्वरूप सदा स्मृति में रहेगा। अलंकारी स्वरूप मायाजीत की निशानी है। अलंकारी सदा अपने को शक्तिशाली अनुभव करेंगे तो तीनों ही प्रकार के कम्बाइन्ड रूप को स्मृति में रखो।
युगल रूप से अकेले नहीं बनो। जैसे दुनिया में आजकल विशेष सभी कम्पैनियन (Companion;साथी) Dर कंपनी (साथ) चाहते हैं। इसके पीछे ही अपना समय, तन-मन-धन लगाते हैं। तो आपको बाप जैसा कम्पैनियन और कम्पनी सारे कल्प में नहीं मिल सकेगी। लौकिक में कम्पैनियन धोखा भी दे देते, दु:ख भी देते, मूड भी बदलते, कभी हंसेंगे, कभी रूलायेंगे। लेकिन अलौकिक कम्पैनियन तो सदा हर्षाते हैं। कब मूड ऑफ (Mood Off;बदलते) नहीं करते। धोखे से बचाते हैं। सदा एक का हजार गुना देने वाला दाता है, फिर भी कम्पैनियन को न पहचानने कारण सदा साथ के बजाय किनारा कर लेते। नखरे बहुत करते हैं। कभी मन को मोड़ लेते, कभी बुद्धि से यहाँ वहाँ भटकने लग जाते हैं। कभी संकल्प से तलाक भी दे देते हैं। किसी भी व्यक्ति या वैभव के वशीभूत हो जाना अर्थात् प्रभावित हो जाना। तो इतना समय अपने कम्पैनियन को संकल्प से तलाक देना हुआ। किनारा करना अर्थात् तलाक देना। दिल के सिंहासन पर सच्चे साथी के बजाय अल्पकाल के साथ निभाने वाले, हद की प्राप्ति का लोभ देकर धोखा खिलाने वाला अर्थात् आर्टिफिशल (Artificial;बनावटी) सोने का हिरण अपने तरफ आकर्षित कर देता है। तो तख्तनशीन सच्चे साथी के बजाए धोखेबाज साथी बना देते हैं। संकल्प में आकर्षित होना अर्थात् तलाक देना। वास्तव में बार-बार संकल्प में तलाक देना सदाकाल के राज्य भाग्य का तलाक लेना है।
कोई-कोई रूसते भी बहुत हैं। रूसने को एक मनोरंजन समझते हैं। बार-बार साथी को रोब भी बहुत दिखाते हैं - हम तो ऐसे चलेंगे ही। हम तो यह करेंगे ही। आपको भी करना है। आपने वायदा किया है आपको लेकर ही जाना है। सर्वशक्तिवान हो तो शक्ति दो। मदद देना आपका काम है। लेकिन मदद लेना मेरा काम है - यह याद नहीं रखते। ‘एक कदम मेरा हज़ार कदम साथी का’ - यह भूल जाते हैं। जो बातें साथी ने सुनाई हैं वहीं बातें फिर साथी को ही याद दिलाते हैं। तो यह रोब हुआ ना? स्मृति की अंगुली बार-बार खुद छोड़ देते हैं और फिर कहते आप अंगुली क्यों नहीं पकड़ते हो। ऐसे नाज़ नखरेली बहुत हैं। लेकिन याद रखो ऐसा कम्पैनियन जो नयनों पर बिठाकर ले जाए ऐसा कब मिलेगा? तो कम्पैनियन से सदा तोड़ निभाओ। अर्थात् कम्बाइन्ड रूप में रहो।
साथ-साथ ब्राह्मणों की कम्पनी सबसे श्रेष्ठ कम्पनी है जो ड्रामा के भाग्य प्रमाण आप थोड़ी सी आत्माओं को ही प्राप्त है। लेकिन कम्पनी में भी देखा जाता है कि यह कंपनी लाभ देने वाली है वा प्राप्ति कराने वाली है। तो ब्राह्मण कंपनी सर्व प्राप्ति कराने वाली है। ब्राह्मणों में फुल कास्ट (Full Caste) ब्राह्मण और हाफ कास्ट (Half Caste) ब्राह्मण दोनों ही हैं। हाफ कास्ट अर्थात् क्षत्रिय - तो कम्पनी भी ब्राह्मणों की चाहिए। जो साथी की कंपनी वहीं कंपनी चाहिए। अगर हाफ कास्ट ब्राह्मणों की कंपनी कर लेते हैं तो सच्चे साथी से स्वत: समीप के बजाए दूर हो जाते हैं। ब्राह्मणों की कंपनी चढ़ती कला होती है। क्षत्रियों की कंपनी में ठहरती कला हो जाती है। जो जितना श्रेष्ठ होता है उसको कंपनी भी श्रेष्ठ होती है। तो ब्राह्मण श्रेष्ठ, क्षत्रियों को कम कर देते हैं। जो कम्पनी साथी को मंजूर नहीं। वफादार साथी कभी ऐसी कम्पनी नहीं करेंगे। ऐसे नहीं कहना कि क्या करें? कम्पनी तो चाहिए लेकिन कौन सी कम्पनी चाहिए यह भी सोचना। तो सदा कम्पैनियन और कंपनी को समझकर साथ निभाओ। कम्पैनियनन से प्रीति की रीति निभाओ। और कंपनी में मर्यादाएं निभाओ। समझा! इसको ही कहा जाता है कम्बाइन्ड रूप की स्मृति में हाईएस्ट अथॉरिटी की स्थिति में रहना। अच्छा।
सदा प्रीति की रीति निभाने वाले, मर्यादाओं की लकीर में रहने वाले, आर्टाफिशल सोने हिरण के पीछे सच्चे साथी को किनारा न कर साथी से एक सेकेण्ड भी दूर न रहने वाले, सदा स्मृति की अंगुली साथी के साथ देते हुए चलने वाले, ऐसे वर्तमान और भविष्य तख्तनशीन आत्माओं को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
दीदी जी से:-
इस बार ड्रामानुसार पुरानों से मिलने का पार्ट न चाहते भी हो गया है। महूर्त्त ही महारथियों से हुआ। और जो महारथी, बाप और बाप के गुह्य ईशारों को जान सकते हैं वह और सुनते हुए भी नहीं जान सकते। चाहे कितनी भी पब्लिक हो लेकिन बाप पब्लिक में भी पर्सनल मुलाकात भी करते हैं। लेकिन गुह्यता के रहस्य को समझ नहीं सकेंगे। जैसे वर्षा एक ही समय चारों तरफ पड़ती है लेकिन अगर धरती योग्य है तो वह वर्षा पड़ने से मालामाल हो जाती है। अगर धरती ही योग्य नहीं तो वर्षा पड़ते हुए भी मालामाल नहीं होगी।
तो महारथियों को बाप सदैव आदि से लेकर किस नज़र से देखते? बच्चे नहीं लेकिन भाई-भाई हैं। बड़े बच्चे भाई के ही समान हैं। जैसे बाप दाता हैं, वैसे महारथियों को भी बाप, दाता की नज़र से देखते हैं, न लेने वाले लेकिन बाप समान देने वाले हैं। जैसे बाप भाग्य विधाता हैं तो महारथियों को भी कौन सी कंपनी अच्छी लगती है? वैसे भी अगर कम्पैनियनशिप (Companionship;साथीपन) में एक लम्बा एक छोटा हो तो क्या होगा? कार्टून लगेगा ना? तो स्थिति में भी अगर कम्पैनियन समान नहीं होते अर्थात् मास्टर सर्वशक्तिवान नहीं बनते, साथी सर्वशक्तिवान और वह कमजोर तो यह भी एक कार्टून हो गया ना? लम्बे और छोटे की जोड़ी हो गई ना। वैसे लौकिक दुनिया में भी अगर साथी दोनों समान नहीं होते, चाहे शरीर के हिसाब से, चाहे नॉलेज के हिसाब से, चाहे लक्षण के हिसाब से वा मर्यादाओं के हिसाब से तो कभी भी साथी उनको साथ नहीं रखेंगे। किनारे रख देंगे। दुनिया के आगे उसको नहीं लायेंगे। तो बाप भी सदा साथी किसको बनायेंगे - जो समान होंगे। दुनिया के आगे सैम्पुल किसको रखेंगे? कार्टून को? तो महारथी अर्थात् समान साथी। ऐसे साथियों को ही हर कार्य में बाप साथ रखते वा और ही आगे रखते हैं। अगर कम्पैनियन की लाईन लगाकर बाप देखे तो क्या दिखाई देता होगा? कैसी सीन लगती होगी? लेकिन फिर भी बाप सागर होने कारण जैसे भी है समा लेते। सागर में तो सब समा जाते हैं ना। लेकिन नम्बर वार तो कहेंगे ना। हर एक को अपने आपको देखना है कि मैं कैसा साथी हूँ, कितने बार तलाक देते, कितने बार नाज़ नखरे करते, कितने बार रोब दिखाते? सारे दिन की दिनचर्या में देखें तो क्या-क्या करते हैं।
पार्टियों से:-
निरन्तर स्मृति में रहने का साधन है - ‘मेरापन भूल जाना।’ सब कुछ बाप का है। यह तन भी आपका नहीं - बाप का है। बाप ने सेवा अर्थ दिया है - तो मेरापन निकल गया न? मेरापन खत्म तो ‘देही अभिमानी’ स्वत: बन गए। अगर बाप की स्मृति थोड़ी भी किनारे हो जाती तो माया आती। सदा कम्बाइन्ड रहो तो माया की हिम्मत नहीं देहभान में लाने की। सदा बाप के सिवाए और कुछ सूझे ही नहीं।
जब बाप के साथ से किनारा करते तब कमज़ोर होते हो। जिस समय सोचते हो क्या करें? कैसे करें? माया पर जीत पाना मुश्किल है, यह सोचना अर्थात् किनारा करना। सर्वशक्तिवान बाप साथ हो तो क्या यह संकल्प आ सकता है? माया, बाप से अलग कराने लिए भिन्न-भिन्न रूप से आती हैं। मैं नहीं कर सकता? मैं कमजोर हूँ - कैसे करूँ? यह कमजोरी के संकल्प माया रावण की सेना के अकासुर-बकासुर हैं। उनसे डरना नहीं हैं सदैव सोचो ‘मैं हँ ही विजयी-पहले भी रहा हूँ और अब भी हूँ।’
इस ड्रामा के अन्दर विशेष पार्ट बजाने वाली विशेष आत्माएं आप बच्चे हो; क्योंकि सबसे विशेष ते विशेष है बाप। बाप के साथ पार्ट बजाने वाली आत्माएं आटोमेटीकली विशेष होंगी। दुनिया में भी अगर कोई विशेष आत्माओं के साथ थोड़ा सा भी समय रहता है तो उससे नशा रहता है। अगर प्राईम-मिनिस्टर (Prime Minister;प्रधान मंत्री) के साथ थोड़ा भी समय रहे तो कितना नशा रहता है। वह तो आज है कल नहीं। लेकिन यह कितना ऊँचा है, वह भी अविनाशी है। तो इतना नशा रहता है? सदा एक रस नशा - ‘मैं बाप का, बाप मेरा।’ बाप सदा सागर और दाता, तो बच्चे भी सागर और दाता हो। बाबा मदद करो यह भी नहीं। बाप ने अपने पास कुछ रखा है क्या? अगर दे ही दिया फिर मांगेंगे क्या? जन्मते ही बाप ताज, तख्त, तिलक सब दे देता है। फिर मांगे क्यों? सदैव यह सोचो कि हमारे जैसे खुश-नसीब कोई नहीं, न हुआ है न होगा। तो सदा झूमते रहेंगे।
कर्मयोग का फल है, सहजयोग और खुशी जो कुछ करता उसका प्रत्यक्षफल यहाँ ही पद्मगुणा मिलता है। दुनिया में जो कुछ करते हैं खुशी के लिए। यह बेहद की अविनाशी खुशी है। मन के खुश रहने से शरीर की व्याधी भी ‘सूली से कांटा’ हो जाती है। ज्यादा सोचना नहीं; सोचने से निर्णय शक्ति कम हो जाती है। पेपर आना माना परिपक्व होना। घबराना नहीं। पेपर्स फाउन्डेशन (Foundation;नींव) को पक्का करते। फाउन्डेशन को कूटते हैं - वह कूटना नहीं लेकिन मजबूत करना है।
कितनी भी बाहर की हलचल हो लेकिन एक सेकेण्ड में स्टाप, कितना विस्तार हो एक सेकेण्ड में समेट लें। स्वभाव, संस्कार, संकल्प, सम्बन्ध सब एक सेकेण्ड में समेट लें - यह प्रैक्टिस बहुत चाहिए। भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी सब कुछ होते हुए संस्कार प्रकट न हों। स्वभाव भी समय पर धोखा देते हैं। इसलिए स्वभाव, संकल्प, संस्कार सब समेट लो, इसे कहा जाता है - ‘समेटने की शक्ति।’ जैसे प्रैक्टिस सदा कायम रखो। बहुत समय के अभ्यासी होंगे तब पास हो सकेंगे। अच्छा।
03-05-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
कर्मों की अति गुह्य गति
संगमयुगी ब्राह्मणों की विचित्र लीला को देखते हुए बाबा बोले:-
बापदादा बेहद के अनादि अविनाशी ड्रामा की सीन के अन्दर विशेष कौन सी सीन देख हर्षाते हैं? जानते हो? वर्तमान समय बाप-दादा ब्राह्मणों की लीला, विचित्र और हर्षाने वाली देख रहे हैं। जैसे बच्चे कहते हैं, ‘हे प्रभु तेरी लीला आपरम्पार है’ वैसे बाप भी कहते हैं, ‘बच्चों की लीला बहुत वन्डरफुल (Wonderful;आश्चर्यवत) है, वैरायटी लीला है।’ सबसे वन्डरफुल लीला कौन सी देखने में आती है, वह जानते हो? अभी-अभी कहते बहुत कुछ हैं, लेकिन करते क्या हैं? वह खुद भी समझते। क्यों कर रहे हैं, यह भी जानते। जैसे किसी भी आत्मा के, वा किसी भी विकारों के वशीभूत आत्मा; परवश आत्मा, बेहोश आत्मा क्या कहती, क्या करती, कुछ समझ नहीं सकते। ऐसी लीला ब्राह्मण भी करते हैं। तो बाप-दादा ऐसी लीला को देख रहमदिल भी बनते हैं, और साथ-साथ न्यायकारी सुप्रीम जस्टिस (Supreme Justice) भी बनते हैं अर्थात् लव और लॉ (Love And Law;प्यार और कानून) दोनों का बैलेंस (Balance;संतुलन) करते हैं। एक तरफ रहमदिल बन बाप के सम्बन्ध से रियायत भी करते हैं। अर्थात् एक, दो, तीन बार माफ भी करते हैं। दूसरी तरफ सुप्रीम जस्टिस के रूप में कल्याणकारी होने के कारण, बच्चों के कल्याण अर्थ ईश्वरीय लॉज (Laws;कानून) भी बताते हैं। सबसे बड़े ते बड़ा संगम का अनादि लॉ कौन सा है? ड्रामा प्लान अनुसार एक लाख गुणा प्राप्ति और पश्चात्ताप, वा भोगना,यह ऑटोमेटीकली (AUTOMATICALLY;स्वत:) लॉ अर्थात् नियम चलता ही रहता है। बाप को स्थूल रीति-रस्म माफक कहना वा करना नहीं पड़ता, कि इस कर्म का यह लेना, वा इस कर्म की सज़ा यह है। लेकिन यह ऑटोमेटिक ईश्वरीय मशीनरी (Automatic Godly Machinery;स्वचालित ईश्वरीय यंत्र) है, जिस मशीनरी को कोई बच्चे जान नही सकते, इसलिए गाया हुआ है - ‘कर्मों की गति अति गुह्य है।’
बाप को जान लिया, पा लिया वा वर्सा भी पा लिया, ब्राह्मण परिवार के अन्दर ब्राह्मण भी स्वयं को मान लिया, ब्रह्माकुमार वा ब्रह्माकुमारी का टाईटल (Title) भी लग गया; ईश्वरीय सेवा अर्थ निमित्त बन गए। सहज राजयोगी भी कहलाया, प्राप्ति के अनुभव भी करने लग गए, ईश्वरीय नशा, प्राप्ति का नशा भी चढ़ने लगा, प्रालब्ध का निशाना भी दिखाई देने लगा, लेकिन आगे क्या हुआ? माया की चैलेन्ज (Challenge;चेतावनी) को सफलता पूर्वक सामना नहीं कर पाया। माया के वैरायटी रूपों को परख नहीं पाते हैं, इसलिए कोई माया को बलवान देख दिल-शिकस्त हो जाते हैं; क्या हम विजयी बन सकेंगे? कोई सामना करते-करते कब हार, कब जीत अनुभव करते हैं, थक जाते हैं। अर्थात् थककर जहाँ हैं, जैसा है वहाँ ही रूक जाते हैं। आगे बढ़ने का सोचते भी हिम्मत नहीं आती।
कोई अपने में, बाप के डायरेक्ट (Direct) साथ और सहयोग लेने की हिम्मत न देख, राह पर चलने वाले साथियों को ही पंडा बनाते अर्थात् उन द्वारा ही साथ और सहयोग की प्राप्ति समझते हैं। बाप के बजाए कोई आत्मा को सहारा समझ लेते हैं, इसलिए बाप से किनारा हो जाता है। तिनके को अपना सहारा समझने कारण, बार-बार तुफानों में हिलते और गिरते रहते हैं। और सदैव किनारा दूर अनुभव करते हैं। ऐसे ही कोई व्यक्ति के सहारे के साथ-साथ कई आत्माएं, किसी न किसी प्रकार के सैलवेशन (Salvation;सहुलियत) के आधार पर चलने का प्रयत्न करती हैं - यह होगा वा ऐसा होगा तो पुरूषार्थ करूँगा, यह मिलेगा तो पुरूषार्थ करूँगा। ऐसे सैलवेशन रूपी लाठी के आधार पर चलते रहते हैं। अविनाशी बाप का आधार न लें, अल्पकाल के अनेक आधार बना लेते हैं।
जो आधार विनाशी और परिवर्तनशील है, उसको आधार बनाने कारण, स्वयं भी सर्व प्राप्तियों के अनुभव को विनाशी समय के लिए ही अनुभव करते हैं, और स्थिति भी एकरस नहीं, लेकिन बार-बार परिवर्तन होती रहती। अभी-अभी बहुत खुशी और आनन्द में होंगे, अभी-अभी मुरझाई हुई मूर्त्त, उदास और नीरस मूर्त्त होंगे। कारण? कि आधार ही ऐसा है। कई आत्माएं बहुत अच्छे हुल्लास, उमंग, हिम्मत और बाप के सहयोग से बहुत आगे मंजिल के समीप तक पहऊँच जाती हैं, लेकिन 63 जन्मों के हिसाब यहाँ ही चुक्तू होने हैं। अपने पिछले संस्कार, स्वभाव बाहर इमर्ज (Emerge) ही, सदा के लिए समाप्त हो रहे हैं, उस कर्मों की गुह्य गति को न जान घबरा जाते हैं - क्या लास्ट तक यही चलेगा? अब तक भी यह टक्कर क्यों होता? इन व्यर्थ संकल्पों की उलझन के कारण प्यार नहीं कर पाते। सोचने में ही टाईम वेस्ट कर देते हैं और कोटों में कोई तूफानों को भी ड्रामा का तोफा समझ स्वभाव संस्कारो की टक्कर को आगे बढ़ने का आधार समझ, माया को परखते हुए पार करते, सदा बाप को साथी बनाते हुए, साक्षी हो हर पार्ट देखते, सदा हर्षित हो चलते रहते। सदैव यह निश्चय रहता है कि अब तो पहऊँचे। तो बाप इतने प्रकार की लीला बच्चों की देखते हैं।
याद रखो, सच्चे बाप को अपने जीवन की नैया दे दी, तो सत्य के साथ की नांव हिलेगी, लेकिन डूब नही सकती। बाप को जिम्मेवारी देकर वापिस नहीं ले लो। मैं चल सकूंगा - ‘मैं’ कहां से आई? मैं-पन मिटाना अर्थात् बाप का बनना। यही गलती करते हो, और इसी गलती में स्वयं उलझते परेशान होते। मैं करता हूँ, या मैं कर नहीं सकता हूँ, इस देह-अभिमान के ‘मैं-पन’ का अभाव हो। इस भाषा को बदली करो। जब मैं बाप की हो गई, वा हो गया, तो जिम्मेदार कौन? अपनी जिम्मेवारी सिर्फ एक समझो - जैसे बाप चलावे वैसे चलेंगे, जो बाप कहे वह करेंगे। जिस स्थिति के स्थान पर बाप बिठाए वहाँ बैठेंगे। श्रीमत में मैं पन की मनमत मिक्स नहीं करेंगे, तो पश्चात्ताप से परे, प्राप्ति स्वरूप और पुरूषार्थ की सहज गति प्राप्त करेंगे अर्थात् सदा सद्बुद्धि प्राप्त करेंगे। अपने को वा दूसरों को देख घबराओ मत। क्या होगा? यह भी होगा? घबराओ नहीं लेकिन गहराई में जाओ। क्योंकि वर्तमान, ‘अन्तिम समय’ समीप के कारण एक तरफ, अनेक प्रकार के रहे हुए हिसाब-किताब, स्वभाव-संस्कार वा दूसरे के सम्बन्ध सम्पर्क द्वारा बाहर निकलेंगे अर्थात् अिन्तम विदाई लेंगे। तो बाहर निकलते हुए अनेक प्रकार के मानसिक परीक्षाओं रूपी बीमारियों को देख घबराओ नहीं। लेकिन यह अति, अन्त की निशानी समझो। दूसरे तरफ, अन्तिम समय समीप होने के कारण कर्मों की गति की मशीनरी भी तेज़ रफ्तार से दिखाई देगी। धर्मराजपुरी के पहले यहाँ ही कर्म और उसकी सज़ा का बहुत साक्षात्कार अभी भी होंगे - आगे चलकर भी। और सत्य बाप के सच्चे बच्चे बन, सत्य स्थान के निवासी बन, जरा भी असत्य कर्म किया तो प्रत्यक्ष दंड के साक्षात्कार अनेक वंडरफुल (Wonderful;आश्चर्य) रूप के होंगे। ब्राह्मण परिवार वा ब्राह्मणों की भूमि पर पांव ठहर न सकेंगे, हर दाग स्पष्ट दिखाई देगा, छिपा नहीं सकेंगे। स्वयं अपने गलती के कारण मन उलझता हुआ टिका नहीं सकेगा। अपने आप को, अपने आप सजा के भागी बनावेंगे। इसलिए यह सब होना ही है। इसके नॉलेजफुल बन घबराओ मत। समझा? मास्टर सर्वशक्तिवान घबराते नहीं हैं। अच्छा।
कर्मों की गति को जानने वाले, सदा हर सेकेण्ड, हर संकल्प, बाप की श्रीमत प्रमाण चलने वाले, अपने जीवन की जिम्मेवारी बाप के हवाले करने वाले, सदा बाप के सहारे को सामने रखते हुए सर्व विघ्नो से किनारा करने वाले, सम्पूर्ण स्थिति के किनारे को सदैव सामने रखने वाले, ऐसे हिम्मत, हुल्लास, उमंग में सदा रहने वालों को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
दीदी जी से-
अभी तो बाप बच्चों को सम्पन्न रूप में देखना चाहते हैं। लेकिन सम्पन्न बनने में ही वन्डरफुल बातें देखेंगे। क्योंकि यह प्रैक्टीकल पेपर हो जाते हैं। किसी भी प्रकार नया दृश्य वा आश्चर्यजनक दृश्य सामने आये, लेकिन दृश्य ‘साक्षी दृष्टा’ बनावे, हिलावे नहीं। कोई भी ऐसा दृश्य जब सामने आता है तो पहले साक्षी दृष्टा की स्थिति की सीट पर बैठ देखने वा निर्णय करने से बहुत मजा आयेगा। भय नहीं आयेगा। अब हुआ ही पड़ा है, तो घबराना वा भयभीत होना हो ही नहीं सकता। जैसे कि अनेक बार देखी हुई सीन फिर से देख रहे हैं - इस कारण क्या हुआ? क्यों हुआ? ऐसे भी होता है? यह तो नई बातें हैं! यह संकल्प वा बोल नहीं होगा। और ही राजयुक्त, योगयुक्त हो, लाईट हाउस (Light House) हो, वायुमण्डल को डबल लाईट बनावेंगे। घबराने वाला नहीं। ऐसे अनुभव होता है ना? इसको कहा जाता है - पहाड़ समान पेपर राई के समान अनुभव हो। कमज़ोर को पहाड़ लगेगा और मास्टर सर्वशक्तिवान को राई अनुभव होगा। इसी पर ही नम्बर बनते हैं। प्रैक्टीकल पेपर पास करने के ही नम्बर बनते हैं। सदैव पेपर पर नम्बर मिलते हैं। पढ़ाई तो चलती रहती है लेकिन नम्बर पेपर के आधार पर होते। अगर पेपर नहीं, तो नम्बर भी नहीं। इसलिए श्रेष्ठ पुरुषार्थी पेपर को ‘खेल’ समझते हैं। खेल में कब घबराया नहीं जाता है। खेल तो मनोरंजन होता है। तो मनोरंजन में घबराया नहीं जाता है। दिन प्रतिदिन बहुत कुछ आगे बढ़ने और बढ़ाने के दृश्य देखेंगे। छोटी सी गलती मुश्किल बना देती है। वह कौन सी गलती ? सुनाया ना। मैं कैसे करूँ, मैं कर नहीं सकती, मैं चल नहीं सकती, किसने कहा आप चलो? बाप ने तो कहा नहीं कि अपने आप चलो। साथी का साथ पकड़ कर चलो। साथ छोड़ अपने ऊपर क्यों बोझ उठा कर चलते, जो कहना पड़े - मैं नहीं चल सकती, मैं नहीं कर सकती। गलती अपनी और फिर उल्हाने देंगे बाप को। अंगुली खुद छोड़ते, बोझ खुद उठाते, फिर कहते बोझ उठाया नहीं जाता। किसने कहा तुम उठाओ? आदत है ना बोझ उठाने की। जिसकी आदत होती है बोझ उठाने की, उनको बैठने का सहज काम करने कहो तो कर नहीं सकेगा। तो यह भी पिछली आदत के वश हो जाते हैं। यह भी नहीं कह सकते, मेरे पिछले संस्कार हैं। पिछले संस्कार हैं अर्थात् मरजीवा नहीं बने हैं। जब मरजीवा बन गए तो नया जन्म, नए संस्कार होने चाहिए। पिछले संस्कार पिछले जन्म के हैं। इस जन्म के नहीं। वह कुल ही दूसरा, यह कुल ही दूसरा। वह शुद्र कुल, यह ब्राह्मण कुल। जब कुल बदलता है तो उसी कुल की मर्यादा को पालन करना है। जैसे लौकिक रीति में भी अगर कन्या का कुल शादी के बाद बदल जाता है तो उसी कुल की मर्यादा प्रमाण अपने को चलाना होता है। यह भी कुल बदल गया ना। तो यह सोचकर भी कमज़ोर न होना कि पिछली आदत है ना। इसलिए यह तो होगा ही। लेकिन अब के कुल की मर्यादा क्या है, उस मर्यादा के प्रमाण यह है ही नहीं।
पार्टीयों के साथ-
शक्ति सेना वा पांडव सेना दोनों ही माया को परखते हुए उसे भगाने वाले हो ना। घबरा करके रूकने वाले तो नहीं हो? ऐसे भी युद्ध करने वाले जो योद्धे होते हैं, उन्हों का स्लोगन होता है - हारना वा पीछे लौटना वा रूकना - यह कमज़ोरों का काम है। योद्धा अर्थात् मरना और मारना। तो आप भी रूहानी योद्धे हो। रूहानी सेना में हो। तो रूहानी योद्धे भी डरते नहीं, पीछे नहीं हटते, लेकिन आगे बढ़ते सदा विजयी बनते हैं। तो विजयी बनने वाले हो या घबराने वाले हो? कभी-कभी बहुत युद्ध करके थक जाते हो या रोज-रोज युद्ध करके अलबेले हो जाते हो। वैसे भी रोज-रोज एक ही कार्य करना होता है तो कई बार ऐसे भी होता है - सोचते हैं यह तो चलता ही रहेगा, कहां तय करें, यह तो सारी जिन्दगी की बात है। एक वर्ष की तो नहीं। लेकिन सारी जिन्दगी को अगर 5000 वर्ष की प्रालब्ध के हिसाब से देखो तो सेकेण्ड की बात है वा सारी जिन्दगी है? बेहद के हिसाब से देखो तो सेकेण्ड की बात है। विशाल बुद्धि बेहद के हिसाब से देखेंगे। वह कब थकेंगे नहीं। सारे कल्प के अन्दर पौना भाग प्राप्ति है, यह तो लास्ट (Last) में गिरावट का अनुभव होता है। इस थोड़े से समय के आधार पर कल्प का पौना भाग प्राप्ति है, उस हिसाब से देखो, तो यह कुछ भी नहीं हैं। बेहद का बाप है, बेहद का वर्सा है तो बुद्धि भी बेहद में रखो, हद की बातें समाप्त करो। समझा? जब कोई के सहारे से वा कोई स्वयं आपको साथ ले जाए, तो फिर थकने की तो बात ही नहीं है। बाप तो याद के साथ की गोदी में ले जाते हैं। पैदल करते ही क्यों हो जो थकते हो। सदा और साथ की गोद से उतरते ही क्यों हो, जो चिल्लाते हो। क्या करे? करना कुछ भी नहीं है, फिर भी थकते हो। कारण? अपनी बेसमझी। अपना हठ करते हो। जैसे बालहठ होता है ना। बालहठ करके अपनी मनमत पर चल पड़ते हो, इसलिए अपने आपको परेशान करते हो। यह बाल हठ नहीं करो। श्रीमत में अगर मनमत मिक्स करते तो ऐसे मिक्स करने वालों को सज़ा मिलती। सज़ा बाप नहीं देता, लेकिन स्वयं, स्वयं को सज़ा के भागी बना देते हैं। खुशी, शक्ति गायब हो जाना ही सज़ा है ना।
जो जिसके नजदीक होता उसके संग का रंग अवश्य लगता है। अगर बाप के नजदीक हो तो उसके संग का रंग जरूर लगेगा। जैसे बाप का रूहानी रंग है तो जो संग करेंगे, उसे रूहानी रंग लगेगा। एक ही संग होगा, तो एक ही रंग होगा। अगर सर्व शक्तिवान बाप का सदा संग है तो माया मुरझा नहीं सकती। कनेक्शन (Connection;जोड़) है तो करेंट आती रहेगी। कनेक्शन ठीक हो तो आटोमेटिकली सर्वशक्तियों की करेंट आएगी। जब सर्व शक्तियां मिलती रहेगी तो सदा हर्षित रहेंगे। गम ही खत्म हो जाएगी। संगम का समय है खुशियों का, अगर ऐसे समय पर कोई गम करे तो बुरा लगेगा ना?
महावीर वा महाविरनी की मुख्य निशानी क्या होगीं? वर्तमान समय के प्रमाण महावीर की निशानी हर सेकेण्ड, हर संकल्प में चढ़ती कला का अनुभव करेंगे। जो महावीर नहीं वह कोई सेकेण्ड वा कोई संकल्प में चढ़ती कला का अनुभव, कोई में ठहरती कला का। चढ़ती कला आटोमेटिकली सर्व के प्रति भला अर्थात् कल्याण करने के सेवा निमित्त बना देती। वायब्रेशन (Vibration) वातावरण द्वारा भी कइयों के कल्याण कर सकते हैं। इसलिए कहा जाता है, ‘‘चढ़ती कला तेरे भाने सब का भला।’’ वह अनेकों को रास्ता बताने के निमित्त बन जाते। उन्हें रूकने वा थकने की अनुभूति नहीं होगी। वह सदा अथक, सदा उमंग, उत्साह में रहने वाले होंगे। उत्साह कभी भी कम न हो, इसको कहा जाता है ‘महावीर।’ रूकने वाले घोड़े सवार, थकने वाले प्यादे, सदा चलते रहने वाले महावीर। उनकी माया के किसी भी रूप में आंख नहीं डूबेगी, उसको देखेंगे ही नहीं। वह माया के किसी भी रूप को देखते हुए भी देखेंगे नहीं। महावीर अर्थात् फुल नॉलेज (Full Knowledge;पूर्ण ज्ञान) फुल नॉलेज वाले कभी फेल नहीं हो सकते। फेल (Fail;नापास) तब होते हैं जब नॉलेज का कोई पाठ याद नहीं होता। नॉलेजफुल बनना है, सिर्फ नॉलेज नहीं। यह नई बात है, यह पता नहीं - उन्हों के यह शब्द कभी नहीं होंगे।
लास्ट का पुरूषार्थ वा लास्ट की सर्विस कौन सी है? आजकल जो पुरूषार्थ चाहिए वा सर्विस चाहिए, वह है वृत्ति से वायुमण्डल को पावरफुल (Powerful;शक्तिशाली) बनाना। क्योंकि मैजारिटी अपने पुरूषार्थ से आगे बढ़ने में असमर्थ होते हैं। तो ऐसे असमर्थ व कमज़ोर आत्माओं को अपने वृत्ति द्वारा बल देना यह अति आवश्यक है। अभी यह सर्विस चाहिए। क्योंकि वाणी से बहुत सुनकर समझते, अभी हम सब फुल हो गए हैं, कोई नई बात नहीं लगेगी। वाणी से नहीं लेने चाहते। वृत्ति का डायरेक्ट (Direct) कनेकशन वायुमण्डल से है। वायुमण्डल पावर फुल होने से सब सेफ हो जाएंगे। यही आजकल की विशेष सेवा है। वरदानी का अर्थ ही है - ‘वृत्ति से सेवा करने वाले।’ महादानी है वाणी से सेवा करने वाले। वरदानी की स्टेज की आजकल जरूरत है। वृत्ति से जो चाहो वह कर सकते हो।
अब वरदान लेने का समय समाप्त हुआ। दाता के बच्चे दाता होते हैं। दाता को लेने की आवश्यकता नहीं, इसलिए अभी ‘वरदानी’ बनो।
जैसे सर्विस के वृद्धि के प्लान बनाते हो, वैसे अपने पुरूषार्थ के वृद्धि के प्लान बनाओ। सर्विस में तो औरों के सहयोग की जरूरत पड़ती, लेकिन अपने पुरूषार्थ की वृद्धि के प्लान में बाप के सहयोग से बहुत कुछ कर सकते हैं। अभी तुम सबको मन्सा, वाचा, कर्मणा तीनों के प्रोग्राम फिक्स करो। अपनी डेली-डायरी (Daily Diary) रखो तब ही नम्बर आगे का ले सकेंगे। नहीं तो आगे नम्बर नहीं ले सकेंगे, पीछे रहना पड़ेगा। आगे बढ़ने वालों की निशानियां यह होती हैं। अच्छा। ओम् शान्ति।
05-05-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
वरदानी, महादानी और दानी आत्माओं के लक्षण
वरदानी, महादानी बच्चों को देख बाबा बोले:-
वरदाता बाप अपने वरदानी, महादानी और दानी बच्चों को देख रहे हैं। जिन्होंने स्वयं को सर्व खज़ानों से सम्पन्न किया है, वह हैं ‘वरदानी’ बच्चे। जिन्होंने सर्व खज़ानों से स्वयं को सम्पन्न नहीं किया है, लेकिन थोड़ा बहुत यथा शक्ति जमा किया है, वह है ‘महादानी।’ जिन्होंने जमा नहीं किया, लेकिन अभी-अभी मिला, अभी-अभी लिया और उसी समय ही जो कुछ लिया, वह दिया, वह हैं दानी आत्माएं, जो जमा नहीं करते, लेकिन कमाया, कुछ खाया, कुछ दिया। ऐसे तीन प्रकार के बच्चे बाप देख रहे हैं।
‘वरदानी’ बच्चे, स्वयं के जमा किए हुए खज़ानों को अर्थात् स्वयं की शक्ति, स्वयं के गुण द्वारा, स्वयं के ज्ञान खज़ाने द्वारा, निर्बल आत्माओं को वरदान द्वारा, हिम्मत, हुल्लास की शक्ति और खुशी का खज़ाना, अपने सहयोग की शक्ति से देकर, उन कमज़ोर को शक्तिशाली बना देते हैं।
‘महादानी’ पुरूषार्थ कराने की युक्तियां या हुल्लास, उमंग में लाने की युक्तियां बताते हुए, कमज़ोर आत्माओं द्वारा पुरूषार्थ कराने के निमित्त बनते हैं। स्मृति दिलाते हुए, समर्थी में लाने के निमित्त बनते हैं - अपने शक्तियों का सहयोग नहीं दे पाते, लेकिन रास्ता स्पष्ट दिखाने के निमित्त बनते हैं। ऐसे करो, ऐसे चलो, इस तरह मार्ग दर्शन कराने के निमित्त बनते हैं।
‘दानी’ बच्चे, जो सुना, जो अच्छा लगा, जो अनुभव किया, वह वर्णन द्वारा आत्माओं को बाप तरफ आकर्षण करने के निमित्त बनते हैं, लेकिन मार्ग दर्शन कराने वाले, वा अपने शक्तियों के सहयोग द्वारा किसी को श्रेष्ठ बनाने वाले, महादानी नहीं बन सकते। तो ‘पहला नम्बर है, सहयोग देने वाले। दूसरा, मार्गदर्शन कराने वाले। तीसरा, मार्ग बताने वाले।’ अब, तीनों में अपने से आपको देखो कि मैं कौन? क्योंकि रियलाइजेशन (REALIZATION;अनुभव) करना है। किसको? सेल्फ (Self;स्वयं) को। सेल्फ रियलाइजेशन, यही कोर्स चल रहा है - जिससे अब तक जो कमी रह गई है, उससे स्वयं को लिबरेट कर सकेंगे।
जैसे बाप लिबरेटर (Liberator) वैसे बच्चे भी ‘मास्टर लिबरेटर’ हैं। लेकिन पहले ‘सेल्फ लिबरेटर’ बनेंगे, तब औरों को भी लिबरेट कर अपने स्व-स्वरूप और स्वदेश को स्वमान में स्थित कर सकेंगे। आजकल के वातावरण में हर आत्मा किसी न किसी बात के बन्धन वश हैं। चारों ओर की आत्माएं, कोई तन के दु:ख के वशीभूत, कोई सम्बन्ध के वशीभूत, कोई इच्छाओं के वशीभूत, कोई अपने संस्कार जो कि दु:खदाई संस्कार हैं, दु:खदाई स्वभाव हैं, उनके दु:ख के वशीभूत, कोई प्रभु-प्राप्ति न मिलने के अशान्ति में भटकने के दु:ख वशीभूत, कोई जीवन का लक्ष्य स्पष्ट न होने के कारण परेशान, कोई पशुओं की तरह खाया-पिया, जीवन बिताया, लेकिन फिर भी संतुष्टता नहीं। काई साधना करते, त्याग करते, अध्ययन करते, फिर भी मंजिल को प्राप्त नहीं होते, पुकारने, चिल्लाने के ही दु:ख के वशीभूत, ऐसे अनेक प्रकार के बन्धनों वश, दु:ख- अशान्ति के वश आत्माएं अपने को लिबरेट करना चाहते हैं। ऐसे अपने आत्मा के नाते, भाइयों को दु:खी देख रहम आता? दिखाई देता है? आत्माओं के दु:खमय जीवन को कोई सहारा नहीं मिल रहा है। देखने आता है वा अपने में बिजी हो?
लौकिक रीति से जीवन में बचपन का समय, स्टडी (Study;पढ़ाई) का समय अपने प्रति होता है। उसके बाद रचना के प्रति समय होता है अर्थात् दूसरों के प्रति जिम्मेवारी का समय होता है। अलौकिक जीवन में भी पहले स्वयं को परिपक्व करने का पुरूषार्थ किया, अब विश्व-कल्याणकारी बन विश्व की आत्माओं के प्रति वा अपने निजी परिवार के प्रति। विश्व की सर्व आत्माएं आपका परिवार हैं, क्योंकि बेहद के बाप के बच्चे हो; तो बेहद के परिवार के हो। तो अपने परिवार प्रति रहम नहीं आता? तो अभी रहम दिल बनो। मास्टर रचता बनो। स्वयं कल्याणकारी नहीं, लेकिन साथ-साथ ‘विश्वकल्याणकारी’ बनो। अपने जमा की हुई शक्तियों वा ज्ञान के खज़ाने को मास्टर ज्ञान-सूर्य बन, वृत्ति, दृष्टि और स्मृति के अर्थात् शुभ भावना के श्रेष्ठ संकल्प द्वारा, अपने जीवन में गुणों की धारणाओं द्वारा, इन सब साधनों की किरणों द्वारा अशान्ति को मिटाओ। जैसे सूर्य एक स्थान पर होते हुए भी अपने किरणों द्वारा चारों ओर का अन्धकार दूर करता है, ऐसे मास्टर ज्ञान-सूर्य बन दु:खी आत्माओं पर रहम करो।
स्वयं और सेवा - दोनों का बैलेन्स (Balance;सन्तुलन) रखो। स्वयं को भी नहीं भूलो और विश्व-सेवा को भी नहीं भूलो। विश्व की परिक्रमा देना कितने समय का काम है? विश्व के मालिक के बालक हो तो मालिक बन विश्व-परिक्रमा लगाओ। जब तीनों लोकों का चक्र लगा सकते हो, तो विश्व का चक्कर लगाना क्या बड़ी बात है! जैसे पहले के योग्य राजाएं सदा अपने राज्य का चक्र लगाते थे। प्रजा को सदा सुखी और संतुष्ट रखते थे। यह सब किससे सीखे? ‘सब रीतिरस्म का फाउन्डेशन (Foundation;आधार) संगम समय है, और संगम निवासी ब्राह्मण हैं।’ इसलिए ही अब तक भी कोई रस्म करने के लिए ब्राह्मणों को ही बुलाया जाता है। तो आप लोगों से राजाएं रस्म सीखे हैं, आप सिखलाने वाले स्वयं तो अवश्य कर सकते हो इसलिए मास्टर रचता बन विश्व की रेखदेख करो। समझा, क्या करना है? अभी बचपन के अलबेलेपन को छोड़ो, समय और शक्तियों को सेवा में सफल करो। अच्छा।
सदा सर्व खज़ानों को सफल करने वाले, स्वयं और विश्व प्रति का बैलेंस रखने वाले, मास्टर ज्ञान-सूर्य, सदा रहम दिल, सदा सर्व प्रति सहयोग की भावना और कामना रखने वाले, ऐसे श्रेष्ठ आत्माओं को बाप-दादा का याद-प्यार, और नमस्ते।
विश्व परिक्रमा लगाते हो? कितने समय में? क्योंकि जितनी जिसकी दिव्य बुद्धि होती है, तो दिव्यता के आधार पर स्पीड है। जैसे ऐरोप्लेन भी उड़ते हैं, तो जितनी पावर वाला होगा उतनी स्पीड तेज़ होगी। तो यहाँ भी जिसकी जितनी दिव्यता है, ‘दिव्यता ही स्वच्छता’ है। अर्थात् डबल रिफाइननेस (Refineness) है। जिसकी बुद्धि दिव्य है, उतनी उसकी स्पीड तेज होगी। एक सैकन्ड में और स्पष्ट रूप में चक्कर लगा सकेंगे। क्योंकि यहाँ से ही सर्व को सन्तुष्ट अर्थात् सर्व प्राप्ति कराने का संस्कार भरना है। तब ही, जब विश्व-महाराजन बनेंगे तो राज्य में कोई अप्राप्त वस्तु नहीं, सदा सन्तुष्ट, सर्व प्राप्ति स्वरूप होंगे। तो वह संस्कार कहां से भरेंगे? यहाँ से, इसी विश्व-चक्र की यादगार का समय भी बहुत महत्वपूर्ण गाया जा रहा है। नुमाशाम के समय को ‘चक्र को समय’ गाया जाता है तो यह यादगार कैसे बना? जब प्रैक्टिकल किया तब ही, अभी तक भी चक्र लगाने का यादगार कायम है। नुमाशाम अर्थात् परिवर्तन का समय, परिवर्तन का यह युग है न। तो परिवर्तन का युग का यादगार परिवर्तन के समय पर बनाया है। जितनाजितना चक्रवर्ती बनकर चक्र चलायेंगे, उतना चारों ओर का अवाज़ निकलेगा कि हम लोगों ने ज्योति देखी, चलते हुए फरिश्ते देखे, यह आवाज़ फैलता जायेगा और ज्योति को फरिश्तों को ढूंढ़ने निकलेंगे कि कहां से यह ज्योति आई है, कहाँ से यह फरिश्ते चक्र लगाने आते हैं। जैसे आदि में बाप साक्षात्कार अर्थ निमित्त बने, अब अन्त में बाप सहित बच्चों को भी निमित्त बनना है। जागते हुए जैसे देखेंगे। स्वप्न में जैसे अचानक कई दृश्य आ जाते हैं ना। तो ऐसे अनुभव करेंगे तब ही साईन्स वाले भी इस विचित्र लीला को जानने और देखने के लिए समीप आयेंगे। ऐसे विचित्र नज़ारे भी थोड़े समय में ही देखेंगे और सुनेंगे। लेकिन परिक्रमा लगाओ तब तो देखेंगे ना! ऐसे कैसे देखेंगे? बैठे-बैठे ऐसे अनुभव करेंगे, जैसे कि बहुत दूर से कोई रेज़ (Rays) आयीं, किरणें आयीं और कुछ जगाकर चली गयीं, ऐसे भी बहुत अनुभव करेंगे। इसके लिए कहा कि, अभी सम्पूर्ण मूर्त्त बन सेवा में समय और शक्तियां लगाओ। घर बैठे सब भागते हुए ढूंढ़ते हुए आयेंगे। अच्छा।
कमज़ोरियों को दूर करने का सहज साधन कौन सा है? जो कुछ संकल्प में आता है, वह बाप को अर्पण कर दो। जो भी आवे वह बाप को सामने रखते हुए जिम्मेवारी बाप को दो, तो स्वयं स्वतंत्र हो जाएंगे। सिर्फ एक दृढ़ संकल्प रखो कि ‘मैं बाप का और बाप मेरा।’ जब मेरा बाप है, तो मेरे के ऊपर अधिकार होता है न? अधिकारी स्वरूप में स्थित होंगे तो अधीनता ऑटोमेटिकली निकल जाएगी। हर सेकेण्ड यह चैक करो कि अधिकारी स्टेज पर हूँ? विश्व के मालिक का मैं बालक हूँ, यह पक्का है? तो ‘बालक सो मालिक।’
‘बाप समान सर्व शक्तियों का अधिकारी मास्टर सर्व-शक्तिवान हूँ’, इस स्मृति को बार-बार रिवाइज़ (REVISE) और रियलाइज (Realize) करो, फिर ‘सदा मास्टर सर्व-शक्तिवान अनुभव करेंगे।’ तीव्र पुरुषार्थी कभी भी किसी कारण से थकेंगे नहीं। कारण को निवारण का रूप देते हुए आगे चलते जायेंगे। बहुत लक्की (Lucky) हो, जो ब्राह्मण परिवार में ब्राह्मण बनने की लाटरी मिली है। कोटों में कोऊ को यह लॉटरी मिलती है। कुछ भी हो, क्या भी सामने आये, लेकिन रूकना नहीं है, हटना नहीं है, मंजिल को पाना ही है, इस ‘एक बल एक भरोसे’ के आधार पर अवश्य पहूँचेंगे। गैरन्टी है। ‘दृढ़ संकल्प बच्चों का और पहुँचाना बाप का काम।’
सदा स्वयं को बाप के साथ रहने वाले हैं, ऐसे साथीपन का अनुभव करते हो? जब स्वयं ‘सर्वशक्तिवान’ साथी बन गया तो उसका परिणाम क्या दिखाई देगा? ‘सदा विजयी।’ भक्ति में भी कोई विघ्न आता है तो क्या कहते हैं? एक सेकेण्ड का साथ दे, तो विघ्न मुक्त हो जाए। लेकिन अभी ज्ञान से बाप का सदा साथ, तो जो बाप के सदा साथी हैं वह सदा निर्विघ्न होगा और जो निर्विघ्न होगा वह सदा खुश रहेगा। विघ्न खुशी को गायब करते हैं। अगर मास्टर सर्वशक्तिवान भी विघ्नों से परेशान हों, तो दूसरे बिचारे क्या होंगे! तो मास्टर सर्वशक्तिवान कभी भी परेशान नहीं हो सकते।
किसी के संस्कार-स्वभाव को न देखो, अपने अनादि संस्कार-स्वभाव को देखो, बाप के स्वभाव-संस्कार को देखो। सुनते हुए भी न सुनने की आदत होगी तो हिलेंगे नहीं, पास हो जायेंगे।
सबसे सहज बात कौन सी है जिसको समझने से सदा के लिए सहज मार्ग अनुभव होगा? वह सहज बात है, सदा अपनी जिम्मेदारी बाप को दे दो। जिम्मेवारी देना सहज है ना। स्वयं को हल्का करो तो कभी भी मार्ग मुश्किल नहीं लगेगा। म्श्किल तब लगता है जब थकना होता या उलझते हैं। जब सब जिम्मेवारी बाप को दे दी तो फरिश्ते हो गये। फरिश्ते कब थकते हैं क्या? लेकिन यह सहज बात नहीं कर पाते तब मुश्किल हो जाता। गलती से छोटी-छोटी जिम्मेवारियों का बोझ अपने ऊपर ले लेते इसलिए मुश्किल हो जाता। भक्ति में कहते थे - ‘सब कर दो राम हवाले’ - अब जब करने का समय आया तब अपने हवाले क्यों करते? मेरा स्वभाव, मेरा संस्कार - यह मेरा कहां से आया? अगर मेरा खत्म, तो नष्टो मोहा हो गये। जब मोह नष्ट हो गया तो सदा स्मृति स्वरूप हो जायेंगे। सब कुछ बाप के हवाले करने से सदा खुश और हल्के रहेंगे। देने में फिराकदिल बनो, अगर पुरानी कीचड़पट्टी रख लेंगे तो बीमारी हो जाएगी।
‘निश्चय बुद्धि की निशानी है सदा निश्चिन्त।’ जो निश्चिन्त होगा वही एक रस रहेगा, डगमग नहीं होगा। अचल रहेगा। कुछ भी हुआ, सोचो नहीं। क्यों, क्या में कभी नहीं जाओ, त्रिकालदर्शी बन निश्चिन्त रहो। हर कदम में कल्याण है। जिस बात में अकल्याण भी दिखाई देता उसमें भी कल्याण समाया हुआ है, सिर्फ अन्तर्मुखी हो देखो। ब्राह्मणों का कभी भी अकल्याण हो नहीं सकता। क्योंकि कल्याणकारी बाप का हाथ पकड़ा है ना! अकल्याण को भी वह कल्याण में परिवर्तन कर देगा। इसलिए ‘सदा निश्चिन्त रहो।’
सभी सदा सन्तुष्ट हो? सदा सन्तुष्ट रहने वाला ही बाप के समीप रह सकता है। सन्तुष्टता सदा बाप के समीप ले जाने का साधन है। सन्तुष्टता नहीं तो सदा बाप से दूर हैं। जो कुछ होता उसको बीती सो बीती करते हुए, परखने की शक्ति से परखते हुए चलते चलो तो सदा सन्तुष्ट रहेंगे।
अपने प्राप्त किए हुए खज़ानों को सदैव चैक करते रहो कि कितना खज़ाना और कौन-कौन सा खज़ाना जमा है; और कौन-सा नहीं है? समय भी बड़े से बड़ा खज़ाना है, ज्ञान भी खज़ाना है, शक्तियाँ और दिव्यगुण भी खज़ाना है, तो सभी खज़ाने जमा हो तब सम्पन्न कहेंगे। सब हैं इसमें भी सन्तुष्ट नहीं रहना, लेकिन इतना है जो स्वयं भी खा सकें और दूसरों को भी सम्पन्न बना सकें। जिस रूप में उसके पास कमी होगी उसी रूप में माया आएगी। क्योंकि माया बड़ी चतुर है। इसलिए सर्व खज़ानों को जमा करते जाओ, खाली नहीं होने दो। अच्छा। ओम् शान्ति।
09-05-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
सम्पूर्ण पवित्रता ही विशेष पार्ट बजाने वालों का शृंगार है
विशेष पार्टधारी आत्माओं प्रति बाप-दादा बोले –
अपने को इस ड्रामा के अन्दर विशेष पार्ट बजाने वाले, विशेष पार्टधारी समझते हो? विशेष पार्ट की विशेषता क्या है, उसको जानते हो? विशेषता यह है कि बाप के साथ साथी बन पार्ट बजाते हो, और साथ-साथ हर पार्ट अपने साक्षीपन की स्थिति में स्थित हो बजाते हो। तो विशेषता हुई - ‘बाप के साथ साथी की और साक्षीपन की।’ उस विशेषता के कारण ही विशेष पार्टधारी गाए जाते हैं। तो अपने आपको सदा चैक (Check;निरीक्षण) करो कि हर पार्ट बजाते हुए दोनों ही विशेषताएं रहती हैं? नहीं तो साधारण पार्टधारी कहलाए जायेंगे। बाप श्रेष्ठ और बच्चे साधारण! यह शोभेगा नहीं।
विशेष पार्ट बजाने का शृंगार कौन सा है? सम्पूर्ण पवित्रता ही आपका शृंगार है। संकल्प में भी अपवित्रता का अंश मात्र न हो। ऐसा शृंगार निरन्तर है? क्योंकि आप सब हद के, अल्प काल के पार्ट बजाने वाले नहीं हो। लेकिन बेहद का, हर सेकेण्ड, हर संकल्प से सदा पार्ट बजाने वाले हो। इसलिए सदा शृंगार की हुई मूर्त्त अर्थात् सदा पवित्र स्वरूप हो। इस समय का शृंगार जन्म जन्मान्तर के लिए अविनाशी बन जाता है।
मुख्य संस्कार भरने का समय अभी है। आत्मा में हर जन्म के संस्कारों का रिकार्ड इस समय भर रहे हो। तो रिकार्ड भरने के समय सेकेण्ड-सेकेण्ड का अटेंशन रखा जाता है। किसी भी प्रकार के टेंशन (तनाव) का अटेंशन; टेंशन में अटेंशन रहे। अगर किसी भी प्रकार का टेंशन होता है, तो रिकार्ड ठीक नहीं भर सकेगा। सदा काल के लिए श्रेष्ठ नाम के बजाए, यही गायन होता रहेगा कि जितना अच्छा भरना चाहिए, उतना नहीं भरा है। इसलिए हर प्रकार के टेंशन से परे, स्वयं और समय का, बाप के साथ का अटेंशन रखते हुए सेकेण्ड-सेकेण्ड का, पार्ट बजाओ। मास्टर सर्वशक्तिवान, आलमाइटी अथॉरिटी (ALMIGHTY Authority) की सन्तान - ऐसी नॉलेजफुल (Knowledgeful;ज्ञान सागर) आत्माओं में टेंशन का आधार दो शब्द हैं। कौन से दो शब्द? ‘क्यों और क्या?’ किसी भी बात में, यह क्यों हुआ? यह क्या हुआ? जब यह दो शब्द बुद्धि में आ जाते हैं, तब किसी भी प्रकार का टेंशन पैदा होता है। लेकिन संगमयुगी श्रेष्ठ पार्टधारी आत्माएं क्यों, क्या का टेंशन नहीं रख सकती हैं, क्योंकि सब जानते हैं। ‘साक्षी और साथीपन’ की विशेषता से, ड्रामा के हर पार्ट को बजाते हुए कभी टेंशन नहीं आ सकता। तो अपने इस विशेष कल्याणकारी समय को समझते हुए हर सेकेण्ड के संस्कारों का रिकार्ड नम्बरवन स्टेज में भरते जाओ।
नॉलेजफुल स्टेज अर्थात् इस संगमयुग की स्थिति का आसन जानते हो? भक्ति मार्ग में विद्या की देवी, सरस्वती को कौन सा आसन दिखाया है? इसे क्यों दिखाया है? इसका विशेष गुण कौन सा गाया हुआ है? उसका ‘विशेष गुण’ (1) भी नॉलेजफुल का ही दिखाया है ना। राइट और रांग (RIGHT And Wrong;सत्य और असत्य) को जानने वाला यह भी नॉलेज हुई ना। तो नॉलेजफुल का आसन भी नॉलेज वाला ही दिखाया है। विशष नॉलेज है ‘राइट और रांग को जानने’ की (2) दूसरी बात, आपकी स्थिति का यादगार भी आसन के रूप में दिखाया है। सदा शुद्ध संकल्प का भोजन बुद्धि द्वारा ग्रहण करने वाला, सदा की सर्व आत्माओं द्वारा वा रचना द्वारा गुण धारण करने वाला, उसी को मोती चुगने वाला दिखाया है। (3) तीसरी बात, ‘स्वच्छता’। स्वच्छता की निशानी सफेद रंग दिखाया है। ‘स्वच्छता अर्थात् पवित्रता’। तो सदा नॉलेजफुल स्थिति में स्थित ही रहने की निशानी ‘हंस का आसन’ दिखाया जाता है। सरस्वती को, सदा सेवाधारी रूप की निशानी, बीन बजाते हुए दिखाया है। यह ज्ञान की वीणा सदा बजाते रहना अर्थात् सदा सेवाधारी रहना। जैसे आसन यादगार रूप में दिखाया है, वैसे सब विशेषताएं धारण कर पार्ट बजाना, यही विशेष पार्ट है। तो सदा ऐसे विशेष पार्टधारी समझते हुए पार्ट बजाओ।
प्रकृति के अधीन तो नहीं हो ना? प्रकृति का कोई भी तत्व हलचल में नहीं लावे। आगे चलकर तो बहुत पेपर आने हैं। किसी भी साधनों के आधार पर, स्थिति का आधार न हो। मायाजीत के साथ-प्रकृतिजीत भी बनना है। प्रकृति की हलचल के बीच - यह क्या? यह क्यों हुआ? यह कैसे होगा? ज़रा भी संकल्प में टेंशन हुआ अर्थात् अटेंशन कम हुआ, तो फुल पास नहीं होंगे। इसलिए सदा अचल होना है। अच्छा।
सदा अपने नॉलेजफुल आसन पर स्थित रहने वाले, हर सेकेण्ड श्रेष्ठ पार्ट बजाने वाले, हर प्रकार के पेपर में फुल पास हो, पास विद् ऑनर (Pass With Honour;सम्मान सहित सफलतामूर्त्त) बनने वाले, सदा एक बाप की याद के रस में एकरस रहने वाले, ऐसे सदा बाप समान श्रेष्ठ आत्माओं को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
11-05-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
सम्पन्न स्वरूप की निशानी - शुभ चिन्तन और शुभ चिन्तक
बाप समान सम्पूर्ण स्वरूप बच्चों को देख बाबा बोले:-
बाप-दादा सदैव बच्चों को सम्पूर्ण स्वरूप में देखते हैं। हरेक बच्चा बाप समान आनन्द, प्रेम-स्वरूप, सुख, शान्ति स्वरूप है। हरेक के मस्तक से, नयनों से क्या नज़र आते हैं? जो बाप के गुण है, वही गुण बच्चों से नज़र आते है? हरेक गुणों और शक्ति का भंडार है। अपने को भी सदैव ऐसे सम्पन्न समझकर चलते हो? सम्पन्न स्वरूप की निशानी, सर्व आत्माओं को दो बातों से दिखाई देगी। वह दो बातें कौन-सी हैं? ऐसी सम्पन्न आत्मा, सदैव स्वयं प्रति शुभ-चिन्तन में रहेगी और अन्य आत्माओं के प्रति शुभ-चिन्तक रहेगी। तो ‘शुभ-चिन्तन और शुभ-चिन्तक’ - यह दोनों ही निशानियाँ सम्पन्न आत्माओं में दिखाई देंगी। सम्पन्न आत्मा के पास अशुभ चिन्तन, वा व्यर्थ चिन्तन स्वत: ही समाप्त हो जाता है, क्योंकि शुभ चिन्तन का खज़ाना, सत्य ज्ञान, ऐसी आत्मा के पास बहुत होता है। जैसे रॉयल फैमिली (ROYAL FAMILY;राज्य परिवार) के बच्चे अशुभ चिन्तन वा व्यर्थ चिन्तन के पत्थरों वा मिट्टी से नहीं खेलते। शुभ चिन्तन के लिए कितना अथाह खज़ाना मिला है, उस को जानते हो ना? अखुट खज़ाना है ना? ‘शुभ चिन्तन अर्थात् समर्थ संकल्प।’ तो समर्थ और व्यर्थ, दोनों नहीं रह सकते। जैसे रात और दिन नहीं होते। अमृतवेले उठते और आंख खोलते ही, क्या शुभ संकल्प वा चिन्तन करना है, यह भी बाप ने सुना दिया है। जैसे अमृतवेले शक्तिशाली बाप के स्नेह सहित शुभ संकल्प करेंगे, वैसा ही सारे दिन पर प्रभाव पड़ेगा, क्योंकि अमृतवेला आदि काल है; सतो प्रधान समय है। बाप द्वारा बच्चों को विशेष वरदानों, वा विशेष सहयोग का समय है। इसलिए अमृतवेले के, पहले संकल्प का आधार, सारे दिन की दिनचर्या पर होता है। जैसे गायन है - ‘ब्रह्मा ने संकल्प से सृष्टि रची’, संकल्प का इतना महत्व दिखाया हुआ है। ब्रह्मा आदि काल में रचना रचते हैं। वैसे तुम ब्राह्मण आदि काल अर्थात् अमृतवेले, जैसा संकल्प रचेंगे, वैसा ही सारे दिन की दिनचर्या रूपी सृष्टि ऑटोमेटिकली (AUTOMATICALLY;स्वत:) होती रहेगी।
ब्राह्मणों का पहला संकल्प कौन-सा है? उस समय कौन-सी स्टेज होती है? बाप समान स्थिति में स्थित हो मिलते हो ना? आँख खोलते, कौन-सा संकल्प आता है? बाप के सिवाए और कोई दिखाई देता है? जब गुडमार्निंग (Good Morning) करते हो, तो बच्चा समझ बाप को गुड मार्निंग करते हो ना? तो बच्चा अर्थात् मालिक। और बाप भी बच्चों को क्या रेसपांड (Respond;जवाब) करते हैं - ‘बालक सो मालिक बच्चे।’ बाप के भी सिरताज बच्चे। तो पहला ही संकल्प समर्थ हुआ ना। पहली मुलाकात बाप से होती है, और पहले मिलन में बाप हर रोज़, ‘समान भव’ का वरदान देता है। जिसमें सब वरदान समाए हुए हैं। तो जिसका आरम्भ ही इतना महान् हो तो उनका सारा दिन कैसा होगा? व्यर्थ हो सकता है?
लेकिन ऐसी श्रेष्ठ मुलाकात सदा कौन कर सकता है? जिसका संकल्प भी बाबा और संसार भी बाबा है। ऐसे बाप के समीप बच्चों की मुलाकात समीप से होती है। नहीं तो समीप की मुलाकात नहीं, लेकिन सामने की मुलाकात होती है। सब बच्चे, मुलाकात जरूर करते हैं, लेकिन (1) नम्बर वन बच्चे समान स्वरूप से, समीप अर्थात् साथ का अनुभव करते हैं, साथ भी इतना जैसे कि दो नहीं, लेकिन एक हैं। (2) सेकेण्ड नम्बर, बाप के स्नेह को, बाप के वरदानों को, बाप के मिलन को, समान स्वरूप से नहीं, लेकिन समान बनने के शुभ संकल्प स्वरूप होकर मिलते हैं। सम्मुख का अनुभव अर्थात् बाप से सर्व प्राप्ति हो रही हैं, ऐसी अनुभूति करते हैं। तो फर्स्ट नम्बर, समान बनकर मिलते; सेकेण्ड नम्बर, समान बनने के संकल्प से मिलते हैं। तीसरे नम्बर की तो बात ही नहीं पूछो। (3) तीसरे नम्बर वालों की लीला, विचित्र होती है। अभी-अभी बच्चा बन मिलेंगे, और अभी-अभी मांगने वाले बन जायेंगे। बहुरूपी होते हैं, कब किस रूप में मिलेंगे, कब किस रूप में। तो बच्चों में भी मिलन मनाने में नम्बर वार हो जाते हैं।
लेकिन जिनका संकल्प सदा श्रेष्ठ है अर्थात् बाप के समान-स्वरूप का मिलन है, उन्हों का अमृतवेले का पहला संकल्प सारे दिन की दिनचर्या पर प्रभाव डालता है। ऐसी आत्माएँ, निरन्तर शुभ चिन्तन में स्वत: ही रहती हैं। सेकेण्ड नम्बर स्वत: नहीं रहते, लेकिन बार-बार अटेंशन रखने से शुभ चिन्तन में रहते। तीसरा नम्बर शुभ चिन्तन और व्यर्थ चिन्तन दोनों युद्ध में रहते, कब विजयी, कब दिलशिकस्त हो जाते। सदा शुभ चिन्तन में रहो। उसका साधन सुनाया - ‘आदि काल का समर्थ संकल्प।’ ऐसे शुभ चिन्तन में रहने वाला, सारे दिन में, सम्बन्ध-सम्पर्क में आई हुई आत्मा प्रति सदा शुभ चिन्तक रहता है। कैसी भी कोई आत्मा, चाहे सतोगुणी, चाहे तमोगुणी सम्पर्क में आवे, लेकिन सभी के प्रति शुभ-चिन्तक अर्थात् अपकारी के ऊपर भी उपकार करने वाले। कभी किसी आत्मा के प्रति घृणा दृष्टि नहीं होगी, क्योंकि जानते हैं कि अज्ञान के वशीभूत हैं। अर्थात् बेसमझ बच्चा है। बेसमझ बच्चे के कोई भी कर्म पर घृणा नहीं होती है, और ही बच्चे के ऊपर रहम, वा स्नेह आयेगा। ऐसा शुभ चिन्तक सदैव अपने को विश्वपरिवर्त क, विश्व-कल्याणकारी समझते हुए आत्माओं के ऊपर रहम दिल होने के कारण, घृणा भाव नहीं, लेकिन सदा शुभ भाव और भावना रखेंगे। इसी कारण सदा शुभ चिन्तक होंगे। इसने ऐसा क्यों किया, यह नहीं सोचेंगे, लेकिन इस आत्मा का कल्याण कैसे हो, वह सोचेंगे। ऐसी शुभ चिन्तक स्टेज सदा होती है? अगर शुभ चिन्तन नहीं, तो शुभ चिन्तक भी नहीं। दोनों का सम्बन्ध है। ऐसे सम्पन्न बनने के लक्ष्य रखने वाले, इन दोनों लक्षण को धारण करो। समझा? अगर व्यर्थ संकल्प चलेंगे, तो शुभ चिन्तन की स्टेज ठहर नहीं सकेगी। इसलिए अपनी चैतन्य शक्ति को देखो। शुभ चिन्तक बनने का अभ्यासी बनो, आपकी ही शक्तियां हैं ना!
जो सेवा करते हैं, ऐसे सेवाधारियों के प्रति बाप का सदा विशेष स्नेह रहता है, क्योंकि त्याग मूर्त्त हैं ना। तो त्याग का भाग्य स्वत: ही मिल जाता है। क्या और कैसे मिलता है, उसको जानते हो? जैसे एक होता है मेहनत से कमाना और दूसरा होता है अचानक कोई लॉटरी मिल जाए तो अपने पुरूषार्थ की शक्तियों वा सर्वगुणों की अनुभूति करना, यह तो सभी करते हैं, लेकिन विशेष सहयोग का प्रत्यक्ष फल, ऐसी अनुभूति होगी, जैसे मेरे पुरूषार्थ की स्टेज से प्राप्ति अधिक है। जिस अनुभूतियों के पुरूषार्थ का लक्ष्य बहुत समय से रखते आए, वह अनुभूतियाँ ऐसे सहज और पॉवरफुल स्टेज की होगी, जो न चाहते हुए मन से यही निकलेगा कि - कमाल है बाबा की! मैंने जो सोचा भी नहीं कि ऐसे हो सकता है - वह साकार में अनुभव कर रहे हैं। तो ऐसे बाप के विशेष वरदान की प्राप्ति का अनुभव, सहयोगी आत्माओं को होता है। ऐसे अनुभव जीवन का एक विशेष यादगार रूप बन जाता हैं। अच्छा।
ऐसे बाप के सदा सहयोगी आत्माएं, हर कदम से फालो फादर करते हुए बाप को प्रत्यक्ष करने वाले, सदा स्वयं की गुणों की प्राप्ति की लहरों में लहराते हर्षित रहने वाले, बाप के स्नेह में समाए हुए, ऐसी समान आत्माओं को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
पार्टियों से
सदा इन कर्म इन्द्रियों से न्यारे अर्थात् अपने को ‘आत्मा मालिक’ समझ, बाप के प्यारे बन चलते हो? बाप के प्यारे कौन हैं? जो न्यारे हैं। बाप भी सर्व का प्यारा क्यों है? क्योंकि न्यारा है। अगर न्यारा नहीं होता, आप जैसे जन्म-मरण में आता तो सर्व का प्यारा नहीं हो सकता। तो आप भी सब बाप के प्यारे तब बनेंगे जब सदा अपने को शरीर के भान से न्यारे समझकर चलेंगे। बिना न्यारे बनने के, प्यारे नहीं बन सकते। जितना जो न्यारे अर्थात् आत्मिक स्मृति में रहते उतना ही बाप का प्यारे होते। इसलिए नम्बर वार याद-प्यार देते हैं ना। नम्बर का आधार है - न्यारे बनने पर। अपने नम्बर को न्यारेपन की स्थिति से जान सकते हो? बाप बच्चों की माला सुमरते हैं। माला सुमरने में नम्बर वन कौन आएंगे? जो न्यारे अथवा समान होंगे। ऐसे नहीं - हम तो पीछे आए हैं हमको कोई जानते नहीं है। बाप तो सब बच्चों को जानते हैं। इसिलए प्यारा बनने का आधार न्यारा बनना है - यह पक्का करो। इसी पहले पाठ के पेपर में फुल मार्क्स मिलने हैं। इसलिए चेक करो - चल रहा हूँ, बोल रहा हूँ जो भी कर रहा हूँ वह करते हुए, कराने वाला बन करके करा रहे हैं। आत्मा कराने वाली है और कर्म इन्द्रियां करने वाली हैं। इसी पाठ को पक्का करने से सदा सर्व खज़ाने के मालिकपन का नशा रहेगा। कोई अप्राप्त वस्तु अनुभव नहीं होगी। बाप मिला, सब मिला। सिर्फ कहने मात्र नहीं - उसे सर्व प्राप्ति का अनुभव होगा, सदा खुशी, शान्ति, आनन्द में मगन रहेगा। ‘मिल गया, पा लिया’ - यही नशा रहेगा।
सदा अपने स्वभाव के सीट (Seat;आसन) पर सेट रहते हो? स्वमान की सीट कौन-सी है? ऊँचे ते ऊँचा बाप के ऊँचे बच्चे व ब्राह्मण हैं। इस श्रेष्ठ स्वमान पर सदा सटे रहते हो या सीट हिलती है? माया सीट को हिलाने की कोशिश करती है। जब हैं ही ऊँचे ते ऊँच बाप के बच्चे तो फिर यह भूलना क्यों चाहिए? यह ब्राह्मण जन्म भी नेचुरल लाइफ (Natural Life;स्वाभाविक जीवन) है। नेचुरल लाइफ की बात भूलती नहीं। टेम्पररी (Temporary;अल्पकालिक) बात भूलती है। शुभ चिन्तन का खज़ाना, जो बाप देते हैं, उस खज़ाने का बार-बार सुमिरन करना अर्थात् यूज़ (USE) करना। यूज़ करने से खुशी होगी।
शुभ चिन्तन में रहना भी मनन है। मनन से जो खुशी रूपी मक्खन निकलेगा, वह जीवन को शक्तिशाली बना देगा। फिर कोई हिला नहीं सकता। माया हिलेगी, खुद नहीं हिलेगा। अंगद का मिसाल किन्हों का है? महारथियों का। तो आप महारथी हो ना? जब कल्प पहले नहीं हिले थे तो अभी कैसे हिलेंगे? सदा अचल, ‘अंगद समान’ सदा एक रस स्थिति में स्थित, जरा भी संकल्प में भी हिलता नहीं-’यह है अंगद।’
सदा शस्त्रधारी बन माया का सामना करते चल रहे हो? जो शस्त्रधारी होते हैं वह सदा निर्भय होते हैं। किससे? दुश्मन से। जैसे पहरे वाला चौकीदार अगर शस्त्रधारी होता है और उसको निश्चय है कि - मेरा शस्त्र दुश्मन को भगाने वाला है, हार खिलाने वाला है तो वह कितना निर्भय हो करके चलता रहता है। तो यहाँ भी माया कितना भी सामना करे लेकिन शस्त्रधारी हैं तो माया से कभी घबड़ायेंगे नहीं, डरेंगे नहीं, हार नहीं खायेंगे, अर्थात् सदा विजयी होंगे। तो सर्व शस्त्र सदा कायम रहते हैं? एक भी कम हुआ तो हार हो सकती है। शस्त्र है शक्तियाँ, तो सर्व शक्तियाँ रूपी शस्त्र सदा कायम रहते हैं? संभालने आते हैं? पाण्डवों की बहादुरी को बहुत लम्बे चौड़े रूप में दिखा दिया है - शक्तियों की बहादुरी शस्त्र दिखाये हैं। पाण्डव सदा प्रभु के साथी थे और साथ के कारण विजयी हुए। आपको भी सदा बाप के साथ का अनुभव होता है? जब साथ का अनुभव होगा तो जो बाप के गुण, बाप की शक्तियाँ वह आपकी हैं। जैसे बाप रूहानी है वैसे साथ में रहने वाले भी रूहानियत में रहेंगे। शरीर को देखते भी रूह को देखेंगे।
अमृतवेले का अनुभव सभी करते हो? अगर किसी को घर बैठे लॉटरी मिले और फिर भी उसको वह छोड़ दे तो उसको क्या कहेंगे? वह भी घर बैठे लॉटरी मिलती है, अगर अभी इस लॉटरी को न लेंगे तो यह दिन भी याद करेंगे। अभी यह प्राप्ति के दिन हैं, थोड़े समय के बाद यही दिन पश्चात्ताप के हो जाएंगे! तो जितना चाहो उतना लो। स्पीड तेज करो। सदैव याद रखो - ‘अब नहीं तो कभी नहीं।’ आज भी नहीं, लेकिन अभी - उसको कहा जाता है ‘तीव्र पुरुषार्थी।’
घर चलने की तैयारी की है? तैयार होना अर्थात् सब रस्सियां टूटी हुई हों। तो सब टूटी हुई हैं? अगर रस्सियां टूटी हुई होंगी तो घर जाएंगे नहीं तो जन्म लेना पड़ेगा। सर्विस में समाप्ति की है? ज्यादा उलहने वाले रहे हैं या सन्देश वाले? जब तक विश्व को सन्देश नहीं दिया तो विश्व-कल्याणकारी नाम कैसे पड़ेगा? फिर तो इण्डिया के कल्याणकारी हुए।
इतने अभ्यासी हुए हो कि कुछ भी हो - सहज ही शरीर से निकल जाएंगे। यह प्रेक्टिस है? कोई भी सम्बन्ध व संस्कार कसमकसा न करे। जाना तो सबको है लेकिन एक जाएंगे सहज, एक जाएंगे युद्ध करते-करते। तो जाने के लिए तैयार हो - यह तो ठीक, लेकिन सहज जाएंगे, यह तैयारी है? डायरेक्ट जायेंगे या वाया जायेंगे? ‘धर्मराजपुरी कस्टमपुरी है।’ अगर कुछ साथ में रह गया तो कस्टम में रूकना पड़ेगा। तो जाने के साथ यह भी तैयारी चाहिए। देखना कस्टम क्लियर है? पासपोर्ट आदि सब चेक करना, बैग-बैगेज सब चेक करना।
अच्छा। ओम् शान्ति।
14-05-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
स्वमान और फरमान
सदा फरमान पर चलने वाले फरमानवरदार, सदा स्वमान में रहने वाले, सदा भाग्य का सुमिरण करने वाले हर्षित मुख बच्चों प्रति बाबा बोले-
सदा भाग्यविधाता बाप द्वारा प्राप्त हुए अपने भाग्य को सुमिरण करते हुए, हर्षित रहते हो? क्योंकि सारे कल्प के अन्दर सर्व श्रेष्ठ भाग्य इस समय ही प्राप्त करते हो। इस समय ही सदा भाग्यशाली स्थिति का अनुभव कर सकते हो। भविष्य नई दुनिया में भी ऐसा भाग्य प्राप्त नहीं होगा। तो जितना बाप बच्चों को श्रेष्ठ भाग्यशाली समझते हैं, उतना ही हरेक स्वयं को समझते हुए चलते हो? इसी को ही कहा जाता है - ‘स्वमान में स्थित होना।’ मन-वचन-कर्म तीनों में ध्यान रखो। एक तो सदा स्वमान में रहना; दूसरा, हर कदम बाप के फरमान पर चलना है। स्वमान और फरमान इन दो बातों का ध्यान रखना है। साथ-साथ सर्व के सम्पर्क में आने में सम्मान देना है।
स्वमान में स्थित होने से सदा विघ्न विनाशक स्थिति में होंगे। स्वमान क्या है, उसको तो अच्छी तरह से जानते हो? जो बाप की महिमा है, वही आपका स्वमान है। सिर्प एक महिमा भी स्मृति में रखो, तो स्वमान में स्वत: ही स्थित हो जायेंगे। स्वमान में स्थित होने से, किसी भी प्रकार का अभिमान, चाहे देह का वा बुद्धि का अभिमान, नाम का अभिमान, सेवा का अभिमान, वा विशेष गुणों का अभिमान, स्वत: समाप्त हो जाता हैं, इसलिए सदा विघ्न-विनाशक होते हैं। ऐसे स्वमान में स्थित होने वाला सदा निर्मान रहता है। अभिमान नहीं लेकिन निर्मान। इससे सर्व द्वारा सदा स्वत: ही सदा मान मिलता है। मान लेने की इच्छा से परे होने के कारण सर्व द्वारा श्रेष्ठ मान मिलने का पात्र बन जाता है - यह अनादि नियम है। सर्व द्वारा मान मांगने से नहीं मिलता, लेकिन सम्मान देने से, स्वमान में स्थित होने से, प्रकृति दासी के समान, स्वमान के अधिकार के रूप में मान प्राप्त होता है। मान के त्याग में सर्व के माननीय बनने का भाग्य प्राप्त होता है। जैसे स्वमान में रहने वालों का सिर्फ इस एक जन्म में मान नहीं होता, लेकिन सारे कल्प में - आधा कल्प अपने रॉयल राजाई फैमली (परिवार) द्वारा और प्रजा द्वारा मान प्राप्त होता है, और आधा कल्प भक्तों द्वारा मान प्राप्त होता है। इतने तक जो लास्ट जन्म में चैतन्य रूप में अपने प्राप्त हुए मान की प्रालब्ध को स्वयं ही देखते हो। चैतन्य अपने जड़ चित्रों को देखते हो ना। तो सारे कल्प में प्राप्त हुए मान का आधार क्या हुआ? अल्प काल के विनाशी मान का त्याग। अर्थात् स्वमान में स्थित हो, निर्मान बन, सम्मान देना है। यह देना ही लेना बन जाता है। सम्मान देना अर्थात् उस आत्म को उमंग उल्लास में लाकर आगे करना है। अल्प काल का पुण्य, अल्प काल की वस्तु देने से होता है, वा अल्प काल के सहयोग देने से होता है। लेकिन यह सदा काल का उमंग उत्साह अर्थात् खुशी का खज़ाना वा स्वयं के सहयोग का, आत्मा को सदा के लिए पुण्यात्मा बना देता है। इसलिए यह बड़े ते बड़ा पुण्य हो जाता है। एक जन्म में किए हुए इस पुण्य का फल सारा कल्प मिलता है। इस कारण कहा कि ‘सम्मान देना, देना नहीं लेकिन लेना है।’ लौकिक रूप में भी कोई पुण्य का काम करता है तो सबके आगे माननीय होता है। लेकिन इस श्रेष्ठ पुण्य का फल - पूजनीय और माननीय दोनों बनते हो। तो अपने आप से पूछो, ऐसे पुण्यात्मा बन, सदैव पुण्य का कार्य करते हो? सम्मान दो वा सम्मान मिलना चाहिए, वा मेरा सम्मान क्यों नहीं रखा जाता, इसका क्यों रखा जाता? लेने वाले हो या देने वाले हो? यह भी लेने की भावना रॉयल बेगरपन (ROYAL Beggar) अर्थात् भिखारीपन है। तो स्वमान और सम्मान। स्वमान में रहना है सम्मान देना है।
बाकी क्या करना है? हर कदम फरमान पर चलना है। हर कदम फरमान पर चलने वाले के आगे सारी विश्व सदा कुर्बान जाती है। साथ-साथ माया भी अपने वंश सहित कुर्बान हो जाती है। अर्थात् सरेन्डर (समर्पण) हो जाती है। माया बारबार वार करती है, इससे सिद्ध है कि हर कदम फरमान पर नहीं है। सदा फरमान पर न चलने कारण, माया भी झाटकू रूप में कुर्बान नहीं होती है। इसलिए बार-बार वार करती है। और बार-बार आप लोगों को चिल्लाने के निमित्त बन जाती है। चिल्लाना हुआ ना - माया आ गयी। आज इस रूप में आ गई। अब क्या करे! माया को अर्थात् विघ्न को कैसे मिटावें? तो झाटकू न होने के कारण, माया भी चिल्लाती - आप भी चिल्लाते हो। इसलिए फरमान पर चलो, तो वह कुर्बान हो जाए। आप बाप पर कुर्बान जाओ, माया आप पर कुर्बान जायेगी। कितना सहज साधन है फरमान पर चलना। स्वमान और फरमान सहज है ना। इस से जन्म-जन्मान्तर की मुश्किल से छूट जायेंगे। अभी सहज योगी और भविष्य में सहज जीवन होगी। ऐसी सहज जीवन बनाओ। समझा? अच्छा,
ऐसे सदा फरमान पर चलने वाले फरमानवरदार, सदा स्वमान में रहने वाले, अल्प काल के विनाशी मान को त्याग करने वाले, सदा माननीय, पूजनीय का पार्ट प्राप्त करने वाले, ऐसे बाप पर सदा कुर्बान होने वाली आत्माएँ, सदा सर्व के प्रति सम्मान दे, स्नेह लेने वाली स्नेही आत्माओं को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
पाण्डव सेना युद्ध के मैदान पर है। पाण्डवों को महावीर कहा जाता है। महावीर अर्थात् सदा मायाजीत। महावीर कभी माया से घबराते नहीं, चैलेंज करते हैं। किसी भी रूप में माया आवे, लेकिन परखने की शक्ति से माया को परखते हुए विजयी होंगे। तो परखने की शक्ति आई है? माया को दूर से आते हुए परख लेते हो वा जब माया वार करने शुरू करती तब परखते हो? जितनी-जितनी परखने की शक्ति तेज होती जाएगी तो दूर से ही माया को भगा देंगे। अगर आ गई, फिर भगाया, तो उसमें भी टाईम वेस्ट (Time Waste;समय व्यर्थ) हो जाता। फिर आते-आते कभी बैठ भी जाएगी इसलिए आने ही नहीं देना है। आजकल के जमाने में दूरन्देशी बनने का अभ्यास करना होगा। साइन्स के साधन भी दूर से परखने का प्रयत्न करते हैं। पहले या, तुफान आना और उससे बचाव करना लेकिन अभी ऐसे नहीं है। अभी तो तुफान आ रहा है, उसको जान करके भगाने का प्रयत्न करते हैं। जब साइन्स (विज्ञान) भी आगे बढ़ रही है तो साइलेन्स (Silence;शान्ति) की शक्ति कितनी आगे चाहिए? दूर से भगाने के लिए सदैव ‘त्रिकालदर्शीपन की स्थिति में स्थित रहो।’ हर बात को तीनों कालों से देखो - क्या बात है? वर्तमान रूप क्या है? और पहले भी इस रूप से आई थी और अब जो आई है उसको समाप्त कैसे करें? तो तीनों को देखने से कभी भी माया का वार आपके ऊपर हार खिलाने के निमित्त नहीं बनेगा। लेकिन त्रिकालदर्शी होकर नहीं देखते, वर्तमान को देखते। इसलिए कभी हार, कभी जीत होती, सदा विजयी नहीं होते। त्रिकालदर्शी स्थिति में स्थित रहने वाले से कभी भी माया बच नहीं सकती। अगर बारबार माया का वार होता रहेगा तो अति इन्द्रिय सुख का अनुभव चाहते हुए भी कर नहीं पायेंगे। जो गायन है, ‘अति इन्द्रिय सुख संगमयुग का वरदान है’ - यह और किसी युग में नहीं होता। यह अब का अनुभव है। तो अगर अति इन्द्रिय सुख का अनुभव नहीं किया तो ब्राह्मण बनकर क्या किया? जो ब्राह्मणपन की विशेषता है - अति इन्द्रिय सुख, वह नहीं किया तो कुछ भी नहीं। इसी कारण सदैव यह देखो कि सदा अति इन्द्रिय सुख में रहते हैं।
बाप-दादा से प्रश्न उत्तर
प्रश्नः- अति इन्द्रिय सुख में रहने वालों की निशानी क्या होगी?
उत्तरः- अति इन्द्रिय सुख में रहने वाला कभी अल्पकाल के इन्द्रिय के सुख की तरफ आकर्षित नहीं होगा। जैसे कोई साहूकार रास्ते चलते हुए कोई चीज़ पर आकर्षित नहीं होगा - क्योंकि वह सम्पन्न है, भरपूर है। इसी रीति से अति इन्द्रिय सुख में रहने वाला इन्द्रियों के सुख को ऐसे मानेगा जैसे ज़हर के समान है। तो ज़हर की तरफ आकर्षित होते हैं क्या? ऐसे इन्द्रियो के सुख से सदा परे रहेंगे। मेहनत नहीं करनी पड़ेगी, लेकिन नॉलेजफुल होने के कारण उसके सामने वह तुच्छ दिखाई देगा। अगर चलते-चलते इन्द्रियों के सुख के तरफ आकर्षित होते, इससे सिद्ध है कि अति इन्द्रिय सुख की अनुभूति में कोई कमी है। इच्छा है लेकिन प्राप्ति नहीं। जिज्ञासु है, बच्चा नहीं। बच्चा अर्थात् अधिकारी, जिज्ञासु अर्थात् इच्छा रखने वाले। प्राप्त हो - यह इच्छा नहीं, लेकिन प्राप्त है - इस अधिकार की खुशी में रहने वाले। सदा इस अति इन्द्रिय सुख में रहो। इन्द्रियों के सुख का अनुभव कितने जन्म से कर रहे हो? उससे प्राप्ति का भी ज्ञान है ना? क्या प्राप्त हुआ? कमाया और गंवाया। जब गंवाना ही है तो फिर अभी भी उस तरफ आकर्षित क्यों होते? अति इन्द्रिय सुख की प्राप्ति का समय अभी भी थोड़ा है। यह अभी नहीं तो कभी नहीं मिलेगा। इसका सौदा अभी नहीं किया तो कभी नहीं कर सकेंगे। फिर भी सोचते रहते - छोड़े, नहीं छोड़े? बाप कहते हैं तो छोड़ो तो छूटे। कहते हैं छूटता नहीं है। पकड़ा खुद है और कहते हैं छूटता नहीं है। रचता तो आप हो ना। बार-बार ठोकर मत खाओ।
प्रश्नः- सदा अचल, अड़ोल रहने के लिए विशेष किस गुण को धारण करना है?
उत्तरः- सदा गुण ग्राहक बनो। अब हर बात में गुणग्राही होंगे तो हलचल में नहीं आयेंगे। गुणग्राही अर्थात् कल्याणकारी भावना। अवगुण देखने से अकल्याण की भावना और हलचल में रहेंगे। अवगुण में गुण देखना, इसको कहते हैं-’गुणग्राही।’ अवगुण देखते भी अपने को गुण उठाना चाहिए। अवगुण वाले से गुण उठाओ कि जैसे यह अवगुण में दृढ़ है वैसे हम गुण में दृढ़ रहें। गुण का ग्राहक बनो अवगुण का नहीं।
प्रश्नः- कौन सा भोजन आत्मा को सदा शक्तिशाली बना देगा?
उत्तरः- खुशी का। कहते हैं ना खुशी जैसी खुराक नहीं। खुशी में रहने वाला शक्तिशाली होगा। ड्रामा की ढ़ाल को अच्छी तरह से कार्य में लाने से सदा खुश रहेंगे, मुरझायेंगे नहीं। अगर सदा ड्रामा ही स्मृति रहे तो कभी भी मुरझा नहीं सकते। सदा खुशी बुद्धि तक, नॉलेज के रूप में नहीं। कोई भी दृश्य हो अपना कल्याण निकाल लेना चाहिए। तो सदा खुश रहेंगे।
ऐसी श्रेष्ठ भूमि पर आना अर्थात् भाग्यशाली बनना। इसी भाग्य को सदा कायम रखने के लिए सदा अटेंशन - स्थिति सदा एकरस रहे। एकरस स्थिति अर्थात् एक के ही रस में रहना और कोई भी रस अपनी तरफ खींचे नहीं। अगर किसी अन्य रस में बुद्धि जाती है तो एकरस नहीं रह सकते।
बाप के समान स्वयं को नॉलेजफुल अर्थात् ज्ञान का सागर अनुभव करते हो? नॉलेजफुल अर्थात् सदा सत्य कर्म करने वाले, व्यर्थ नहीं करेंगे। जब सत्य बाप के बच्चे हैं, सतयुग स्थापन करते हैं तो कर्म भी सत्य होने चाहिए। बोल, कर्म, संकल्प सब सत्य होने चाहिए। इसको कहते ‘बाप के समान मास्टर नॉलेजफुल अर्थात् ज्ञान-स्वरूप।’
16-05-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
माया के वार का सामना करने के लिए दो शक्तियों की आवश्यकता
मास्टर नॉलेजफुल, सदा सक्सेसफुल, सदा हर्षित बनाने वाले अव्यक्त बाप-दादा, मंजिल के समीप पहुँची हुई आत्माओं प्रति बाबा बोले-
बापदादा सभी बच्चों के पुरूषार्थ के रफ्तार की रिजल्ट देख रहे थे। नए अथवा पुराने, दोनों की पुरूषार्थ की रफ्तार देखते हुए, बाप को बच्चों पर अति स्नेह भी हुआ और साथ-साथ रहम भी हुआ। स्नेह क्यों हुआ? देखा कि छोटे-बड़े परिचय मिलते, परिचय के साथ अपने यथा शक्ति प्राप्ति के आधार पर पास्ट लाईफ (Past Life;गत जीवन) और वर्तमान ब्राह्मण लाइफ, दोनों में महान अन्तर अनुभव करते, भटकते हुए का सहारा दिखाई देते हुए, निश्चय बुद्धि बन, एक दो के सहयोग से, एक दो के अनुभव के आधार से मंजिल की ओर चल पड़े हैं। खुशी, शक्ति, शान्ति वा सुख की अनुभूति में कोई लोक-लाज़ की परवाह न करते हुए, अलौकिक जीवन का अनुभव कदम को आगे बढ़ाता जा रहा है। प्राप्ति के आगे कुछ छोड़ रहे हैं वा त्याग कर रहे हैं, कोई सुध-बुध नहीं रहती। बाप मिला सब कुछ मिला, उस खुमारी वा नशे में त्याग भी, त्याग नहीं लगा, याद और सेवा में तन-मन-धन से लग गए। पहला नशा, पहली खुशी, पहला उमंग, उत्साह, ‘न्यारा और अति प्यारा’ अनुभव किया। यह त्याग और आदिकाल का नशा, त्रिकालदर्शी मास्टर ज्ञान सागर, मास्टर सर्वशक्तिवान की स्थिति का पहला जोश जिसमें कुछ होश नहीं, पुरानी दुनिया का सब कुछ तुच्छ अनुभव हुआ, असार अनुभव हुआ। ऐसी हरेक की पहली स्टेज देखते हुए अति स्नेह हुआ कि हरेक ने बाप के प्रति कितना त्याग और लगन से आगे बढ़ने का पुरूषार्थ किया है। ऐसे त्यागमूर्त्त, ज्ञान मूर्त्त, निश्चय बुद्धि बच्चों के ऊपर बाप-दादा भी अपने सर्व सम्पत्ति सहित कुर्बान हुए। जैसे बच्चों ने संकल्प किया, ‘बाबा! हम आपके हैं।’ वैसे बाप भी रिटर्न में (बदले में) यही कहते कि, ‘जो बाप का सो आपका’, ऐसे अधिकारी भी बने, लेकिन आगे क्या होता है? चलते-चलते जब महावीर अर्थात् रूहानी योद्धा बन माया को चैलेंज (चेतावनी) करते हैं, विजयी बनने का अधिकार भी समझते हैं लेकिन माया के अनेक प्रकार के वार को सामना करने के लिए दो बातों की कमी हो जाती है। वह दो बातें कौन सी हैं? ‘एक सामना करने की शक्ति की कमी, दूसरा परखने और निर्णय करने की शक्ति की कमी।’ इन कमियों के कारण माया के अनेक प्रकार के वार से कब हार, कब जीत होने से कब जोश, कब होश में आ जाते हैं। सामना करने की शक्ति न होने का कारण? बाप को सदा साथी बनाना नहीं आता है, साथ लेने का तरीका नहीं आता। सहज तरीका है - ‘अधिकारीपन की स्थिति।’ इसलिए कमज़ोर देखते हुए माया अपना वार कर लेती है।
परखने की शक्ति न होने का कारण? बुद्धि की एकाग्रता नहीं है। व्यर्थ संकल्प वा अशुद्ध संकल्पों की हलचल है। एक में सर्व रस लेने की एकरस स्थिति नहीं। अनेक रस में बुद्धि और स्थिति डगमग होती है। इस कारण परखने की शक्ति कम हो जाती है। और न परखने के कारण माया अपना ग्राहक बना देती है। यह माया है, यह भी पहचान नहीं सकते। यह रांग (गलत) है, यह भी जान नहीं सकते। और ही माया के ग्राहक अथवा माया के साथी बन, बाप को वा निमित्त बनी हुई आत्माओं को भी अपनी समझदारी पेश करते हैं कि - यह तो होता ही है, जब तक सम्पूर्ण बनें तक यह बातें तो होंगी। ऐसे कई प्रकार के विचित्र प्वाइंटस (संकेत) माया के तरफ से वकील बनकर बाप के सामने वा निमित्त बने हुए के सामने रखते हैं। क्योंकि माया के साथी बनने के कारण आपोजीशन पार्टी (Oppossition Party;विरूद्ध दल) के बन जाते हैं। मायाजीत बनने की पोजीशन (Position;स्थिति) छोड़ देते हैं। कारण? परखने की शक्ति कम है।
ऐसे वन्डरफुल (Wonderful;आश्चर्यजनक) और रमणीक केस बाप-दादा के सामने बहुत आते हैं। प्वाईन्टस भी बड़ी अच्छी-अच्छी होती हैं। इनवेन्शन (Invention;आविष्कार) भी बहुत नई-नई करते हैं, क्योंकि बैकबोन (Backbone) माया होती है। जब बच्चें की ऐसी स्थिति देखते हैं तो रहम आता है, बाप सिखाते हैं और बच्चे छोटी सी गलती के कारण क्या करते रहते हैं? छोटी सी गलती है, श्रीमत में मनमत मिक्स (Mix;मिलाना) करना। उसका आधार क्या है? ‘अलबेलापन और आलस्य।’ अनेक प्रकार के माया के आकर्षण के पीछे आकर्षित होना। इसीलिए जो पहला उमंग और उत्साह अनुभव करते हैं, वह चलते-चलते, मायाजीत बनने की सम्पूर्ण शक्ति न होने के कारण कोई पुरूषार्थ हीन हो जाते हैं। क्या करें, कब तक करें, यह तो पता ही नहीं था? ऐसे व्यर्थ संकल्पों के चक्कर में आ जाते हैं। लेकिन यह सब बातें साइडसीन (Sight Seeing) अर्थात् रास्ते के नज़ारे हैं। मंजिल नहीं है। इनको पार करना है, न कि मंजिल समझकर यहाँ ही रूक जाना है। लेकिन कई बच्चे इसको ही अपनी ही मंजिल अर्थात् मेरा पार्ट ही यह है, वा तकदीर ही यह है, ऐसे रास्ते के नज़ारे को ही मंजिल समझ वास्तविक मंजिल से दूर हो जाते हैं। लेकिन ऊँची मंजिल पर पहुँचने से पहले आँधी तूफान लगते हैं, स्टीमर (Steamer;जहाज) को उस पर जाने के लिए बीच भँवर में क्रास (Cross;पार) करना ही पड़ता है। इसलिए जल्दी में घबराओ मत, थको मत, रूको मत। भगवान को साथ बनाओ तो हर मुश्किल सहज हो जाएगी। हिम्मतवान बनो तो मदद मिल ही जायेगी। सी फादर (See Father) करो। फॉलो फादर (Follow Father) करो तो सदा सहज उमंग उल्लास जीवन में अनुभव करेंगे। रास्ते चलते कोई व्यक्ति वा वैभव को आधार नहीं बनाओ। जो आधार ही स्वयं विनाशी है, वह अविनाशी प्राप्ति क्या करा सकता। ‘एक बल एक भरोसा’ इस पाठ को सदा पक्का रखो, तो बीच भँवर से सहज निकल जायेंगे। और मंजिल को सदा समीप अनुभव करेंगे।
सुना, यह थी पुरूषार्थियों की रिजल्ट (परिणाम)। मैजारिटी (Majority;अधिकतर) बीच भँवर में उलझ रहे हैं, लेकिन बाप कहते हैं यह सब बातें अपने मंजिल में आगे बढ़ने की गुड साइन (Good Signs;शुभ चिन्ह) समझो। जैसे विनाश को ‘गुड साइन’ कल्याणकारी कहते हो, यह परीक्षाएं भी परिपक्व करने का आधार है। मार्ग क्रास कर आगे बढ़ रहे हैं - यह निशानियां हैं। इस सब बातों को देखते हुए घबराओ मत। सदा यही एक संकल्प रखो कि अब मंजिल पर पहुँचे कि पहुँचे। समझा? जैसे बिजली की हलचल पसन्द नहीं आती, एक रस स्थिति पसन्द आती है, ऐसे बाप को भी बच्चों की एकरस स्थिति पसन्द आती है - यह प्रकृति खेल करती है लेकिन ऐसा खेल नहीं करना - सदा अचल, अटल, अड़ोल रहना।
ऐसे मास्टर नॉलेजफुल, सदा सक्सेसफुल (Successful;सफलतामूर्त्त) सदा हर्षित रहने वाले, माया के सर्व आकर्षण से परे रहने वाले, मंजिल के समीप पहुँची हुई आत्माओं को बाप-दादा का याद प्यार और नमस्ते।
मेला सेवाधारी ग्रुप:-
कितना भविष्य जमा किया? सेवा का मेवा मिलता ही है अर्थात् जो करते हैं उसका पदमगुणा ज्यादा जमा हो जाता है। जैसे एक बीज डाला तो फल कितने निकलते, एक तो नहीं निकलता? बीज एक डाले, फल हर सीजन (Season;मौसम) में मिलता रहता। यह भी सेवा का मेवा पदम गुणा जमा हो जाता है और हर जन्म में मिलता रहता । मन्सा-वाचा-कर्मणा तीनों प्रकार की सेवा हरेक ने की? वाणी और कर्म की सेवा के साथ-साथ मन्सा शुभ संकल्प वा श्रेष्ठ वृत्ति द्वारा भी बहुत सेवा कर सकते हो। अगर तीनों सेवाएं साथ-साथ नहीं तो फल इतना फलीभूत नहीं होगा। वर्तमान समय प्रमाण तीनों साथ-साथ होनी चाहिए - अलग-अलग नहीं। वाणी में भी शक्ति तब आती जब मन्सा शक्तिशाली हो। नहीं तो बोलने वाले पंडित समान हो जाते। पंडित लोग कथा कितनी बढ़िया करते, लेकिन पंडित क्यों कहते, क्योंकि तोते मुआफ़िक पढ़कर रिपीट (Repeat;दोहराते) करते हैं। ज्ञानी अर्थात् समझदार, समझ कर सर्विस करने से सफलता होगी। समझदार बच्चे तीनों प्रकार की सेवा साथ-साथ करेंगे। चित्र कानसेस (Conscious;चित्रों की ओर ध्यान) नहीं लेकिन बाप कानसेस (बाप की ओर ध्यान) हो तो तीनों ही सेवा साथ में हो जाएगी।
ड्यूटी (Duty;कर्त्तव्य) समझकर अगर सेवा करेंगे तो आत्माओं को आत्मिक स्मृति नहीं आएगी। वह भी एक सुनने की ड्यूटी समझ चले जाएंगे। अगर रहम दिल बन कल्याण की भावना रखकर सर्विस करते तो आत्माएं जाग्रत हो जातीं। उन्हों को भी अपने प्रति रहम आता है कि हम कुछ करें। बाप तो बच्चों को सदैव आगे बढ़ने का ईशारा देते। बाकी जितना किया वह ड्रामानुसार बहुत अच्छा मेहनत किया, समय दिया उससे वर्तमान भी हुआ और भविष्य भी जमा हुआ। अच्छा।
19-05-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
आत्म ज्ञान और परमात्म ज्ञान में अन्तर
सदा अन्तर्मुखी अर्थात् हर्षित मुखी, नॉलेजफुल, पॉवरफुल, सदा बाप के साथ का अनुभव करने वाले अनुभवी मूर्त्त बच्चो प्रति बाबा बोले:-
स्वयं को सदा स्वदर्शन चक्रधारी अनुभव करते हो? सिर्फ समझते हो वा हर समय अनुभव होता है? एक होता है समझना, दूसरा होता है स्वरूप में लाना अर्थात् अनुभव करना। इस श्रेष्ठ जीवन की वा श्रेष्ठ नॉलेज की श्रेष्ठता है अनुभव करना। हर बात जब तक अनुभव में नहीं लाई है तो फिर आत्म ज्ञान और परमात्म ज्ञान में कोई अन्तर नहीं रहता। आत्माएं हैं, आत्म ज्ञान सुनाने और समझाने वाली न कि अनुभव कराने वाली। परमात्म ज्ञान, हर बात का अनुभव कराते हुए चढ़ती कला की ओर ले जाता है। अपने आप से पूछो कि ज्ञान की हर बात अनुभव में लाई है? समझने वाले हो, सुनने वाले हो वा अनुभवी मूर्त्त हो? जीवन में अनेक प्रकार के अनुभव आत्मा को नॉलेजफुल और पॉवरफुल बनाते हैं? किसी भी ज्ञान की प्वाइन्ट में पॉवरफुल नहीं हो तो अवश्य वह सब प्वाइन्ट के अनुभवी मूर्त्त नहीं बने हो। समझने, समझाने वाले वा वर्णन मूर्त्त बने हो लेकिन मनन मूर्त्त नहीं बने हो। जैसे औरों को सप्ताह कोर्स में विशेष सात प्वाइन्टस सुनाते हो, वह सात ही प्वाइन्टस सामने रखो और चैक करो कि सब प्वाइन्टस में अनुभवी मूर्त्त है और किसी प्वाइन्टस में समझने तक है, किस प्वाइन्टस में सुनने तक है? बाप-दादा रिजल्ट को देखते हुए जानते हैं कि अनुभवी मूर्त्त सर्व बातों में बहुत कम हैं। क्योंकि अनुभवी अर्थात् सदा किसी भी प्रकार के धोखे से, दु:ख, दुविधा से परे रहेंगे। अनुभव ही फाउन्डेशन (Foundation;नींव) है। अनुभव रूपी फाउन्डेशन मजबूत है तो किसी भी प्रकार के स्वयं के संस्कार, अन्य के संस्कार वा माया के छोटे-बड़े विघ्नों से मजबूर हो जाते हैं, तो सिद्ध है कि अनुभव का फाउन्डेशन मजबूत नहीं है। अनुभवी मूर्त्त सदा स्वयं को सम्पन्न समझते हुए मजबूरी को मजबूरी न समझ, जीवन के लिए मजबूती का आधार समझेंगे। मजबूरी की स्थिति अप्राप्ति की निशानी है। अनुभवी मूर्त्त सर्व प्राप्ति स्वरूप है।
इसी प्रकार दु:ख की लहर वा धोखा खा लेते हैं - उसका भी कारण माया कहते हैं, लेकिन माया के अनेक रूपों के अनुभवी नहीं हैं। अनुभवी जो हैं वह माया को बेसमझ बच्चे की तरह समझते हैं। जैसे बेसमझ बच्चे कोई भी कर्म करते हैं तो समझा जाता है कि - हैं ही बेसमझ, बच्चे का काम ही ऐसा होता है। इसी प्रकार अनुभवी अर्थात् बुजुर्ग के आगे छोटे बच्चे खेल करते हैं तो माया के अनेक प्रकार की लीला को अनुभवी मूर्त्त, बच्चों का खेल अनुभव करेंगे। और दूसरे माया के छोटे से विघ्न को पहाड़ समान समझेंगे और सदा यही संकल्प करेंगे कि - माया बड़ी बलवान है, माया को जीतना बड़ा मुश्किल है। कारण क्या? अनुभव की कमी। ऐसी आत्माएं बाप-दादा के शब्दों को लेंगी, भाव को नहीं समझेंगी। अनुभव का आधार नहीं होगा लेकिन शब्दों को आधार बनावेंगी कि - बाप-दादा भी कहते हैं, ‘माया को जीतना मासी का घर नहीं है वा माया भी सर्व शक्तिमान है। अभी अजुन सम्पूर्ण नहीं बने हैं - अन्त में सम्पूर्ण बनेंगे।’ ऐसे-ऐसे शब्दों को अपना आधार बनाए चलने से, आधार कमज़ोर होने कारण बार-बार डगमग होते रहते हैं। इस लिए शब्दों को आधार नहीं बनाओ। लेकिन बाप के भाव को समझो। अनुभव को अपना आधार बनाओ। डगमग होने का कारण ही है अनुभव की कमी। कहलाते हैं ‘मास्टर सर्वशक्तिवान’, ‘विजयी रत्न’, ‘स्वदर्शन चक्रधारी’, ‘शिव शक्ति पांडव सेना’, ‘सहज राजयोगी’, ‘महादानी वरदानी’, ‘विश्व कल्याणकारी’ हैं, लेकिन जब स्वयं के कल्याण की कोई बात आती है, मायाजीत बनने की कोई बात आती है तो क्या करते हैं और क्या कहते हैं? जानते हो ना कि क्या करते हैं? बहुत मजेदार खेल करते हैं। नॉलेजफुल से बिल्कुल अनजान बन जाते हैं। जैसे माया बेसमझ बच्चा है वैसे माया के वश हो, नॉलेजफुल को भूल बेसमझ बच्चे के समान करते हैं। क्या करते हैं? ‘ऐसे थोड़े ही समझा था, यह पहले मालूम होता तो त्याग नहीं करते, ब्राह्मण नहीं बनते। इतना सामना करना पड़ेगा। सहन करना पड़ेगा। हर बात में अपने को बदलना पड़ेगा। मिटना पड़ेगा, मरना पड़ेगा। यह तो मालूम ही नहीं था।’ त्रिकालदर्शी नॉलेजफुल होते हुए यह बहाना, बेसमझ बचपन नहीं? लेकिन यह सब क्यों होता है? क्योंकि बाप के सदा साथ का अनुभव नहीं। सदा बाप के साथ के अनुभवी ऐसा कमज़ोरी का संकल्प भी नहीं कर सकते। बाप के साथ के नशे का कल्प पहले वाला यादगार भी अभी तक गाया जा रहा है। कौन सा? अक्षोणी सेना के सामने होते, बड़े-बड़े महावीर सामने होते भी पांडवों को किसका नशा था? बाप के साथ का। अक्षोणी सेना अर्थात् माया के अनेक भिन्न-भिन्न स्वरूप भी बाप के साथ से अक्षोणी नहीं लेकिन एक क्षण में भस्मी भूत हुए पड़े हैं। ऐसा नशा यादगार में भी गाया हुआ है। महावीर को महावीर नहीं समझा, लेकिन मरे हुए मुर्दे समझे। यह किसका यादगार है? बाप के साथ रहने वाले अनुभवी आत्माओं का। इस कारण कहा अनुभवी कभी धोखा नहीं खाते। मुश्किल अनुभव नहीं करते। अन्जान अनुभव नहीं करते। कल्प पहले के यादगार को प्रेक्टीकल अनुभव कर रहे हो वा सिर्फ वर्णन करते हो? बाप-दादा जब बच्चों की ऐसी स्थिति देखते हैं, जो स्वयं का कल्याण नहीं कर सकते, स्वयं को परिवर्तन नहीं कर सकते और अपनी कमज़ोरी को बहादुरी समझ कर वर्णन करते हैं तो बाप भी समझते हैं - समझने वाले हैं लेकिन अनुभवी नहीं। इस कारण नॉलेजफुल हैं, लेकिन पॉवरफुल नहीं। सुनने सुनाने वाले हैं, लेकिन समझने वाले बाप समान बनने वाले नहीं। जो समान नहीं वो सामना भी नहीं कर सकते। कभी मुरझाते कभी मुस्कराते रहते। इसलिए एकान्त वासी बनो, अन्तर्मुखी बनो। हर बात के अनुभव में स्वयं को सम्पन्न बनाओ। पहला पाठ बाप और बच्चे का है - किसका बच्चा हूँ? क्या प्राप्ति है? इस पहले पाठ के अनुभवीमूर्त्त बनो तो सहज ही मायाजीत हो जाएंगे। अल्प समय अनुभव में रहते हो। ज्यादा समय सुनने और समझने में रहते हो। लेकिन अनुभवी मूत अर्थात् सदा सर्व अनुभव में रहना। समझा? सागर के बच्चे बने हो लेकिन सागर अर्थात् सम्पन्न का अनुभव नहीं किया है? अच्छा।
सदा अन्तर्मुखी अर्थात् हर्षितमुखी, माया के हर वार को माखन से बाल समझ पार करने वाले, ऐसे सहज योगी, सदा बाप के साथ का अनुभव करने वाले, सर्व अनुभवी मुर्तों को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
दीदी जी से:-
साक्षी होकर सर्व आत्माओं का अपना-अपना पार्ट देखते हुए कोई भी पार्ट को देख, ‘ऐसा क्यों’ की हलचल होती है? महारथी और घोड़े सवार दोनों का विशेष अन्तर यही है। घोड़े सवार की निशानी क्या होगी? क्वेश्चन मार्क (Question Mark;प्रश्न चिन्ह) और महारथियों की निशानी होगी फुल स्टॉप (Full Stop;पूर्ण विराम) जैसे कोई भी सेना होती है तो उसमें फर्स्ट नम्बर है, यह सेकेण्ड है, उसकी निशानी होती है। फिर उनको मैडल मिलता है जिससे मालूम पड़ जाता है कि यह फर्स्ट, यह सेकेण्ड है। तो अनादि ड्रामा में रूहानी सेना के सेनानियों को कोई मैडल नहीं देता है लेकिन ऑटोमेटीकली (AUTOMATICALLY;स्वत:) ड्रामानुसार उन्हों को स्थिति रूपी मैडल प्राप्त हो ही जाता है। कोई मैडल लगाता नहीं है - स्वत: ही लगा हुआ होता है। तो सुनाया कि महावीर का मैडल होगा - फुल स्टाप। स्टाप भी नहीं फुल स्टाप। और सेवेण्ड नम्बर अर्थात् घोड़े सवार की निशानी - कब स्टाप, कब क्वेश्चन। विशेष निशानी ‘क्वेश्चन’ की होगी। इससे ही समझना चाहिए कि किस स्टेज वाली आत्मा है। यह निशानी ही मैडल है। स्पष्ट दिखाई देता है न? दिन-प्रतिदिन हरेक आत्मा अपना स्वयं ही साक्षात्कार कराती रहती। न चाहते हुए भी हरेक की स्टेज प्रमाण स्थिति दिखाई देती जा रही है। सरकमटेंसस (Circumstance;परिस्थिति) ऐसे आयेंगे, समस्याएं ऐसी उन्हों के सामने आयेगी जो न चाहते हुए भी स्वयं को छिपा नहीं सकेंगे। क्योंकि अब जैसे समय समीप आ रहा है तो समीप समय के कारण माला स्वयं ही अपना साक्षात्कार करायेगी। स्थिति अपना नम्बर आटोमेटीकली प्रसिद्ध करती जा रही है। ऐसे अनुभव होता है ना? किसको आगे बढ़ना है तो उसको चान्स ही ऐसा मिल जाता। किसको पीछे का नम्बर है तो ऑटोमेटिकली समस्या वा बातें ऐसी सामने आयेगी जिस कारण स्वत: आगे बढ़ने की ठहरती कला हो जायेगी। कितना भी चाहें लेकिन आगे बढ़ नहीं सकेंगे। दीवार को पार करने की शक्ति नहीं होगी। और इसका भी मूल कारण कि शुरू से हर गुण, शक्ति का पाइन्ट का अनुभवी बनकर नहीं चले हैं। बहुत थोड़ी आत्माएं होंगी जिन्हों का फाउन्डेशन अनुभव है। लेकिन मैजारिटी का आधार संगठन को देखना वा सिर्फ सात्विक जीवन पर प्रभावित होना, एक सहारा समझ कर चलना वा किसके साथ से उल्लास उमंग से चल पड़ना, किसके कहने से चल पड़ना, नॉलेज अच्छी है उसके सहारे चल पड़े - ऐसे चलने वालों का अनुभव का फाउन्डेशन मजबूत न होने कारण चलते-चलते उलझते बहुत हैं। लेकिन नम्बर तो बनने ही हैं। कई ऐसे अब भी हैं जो योग सिखाते हैं लेकिन योग का अनुभव नहीं है। वर्णन करते हैं योग किसको कहा जाता है, योग से यह प्राप्ति होती है, लेकिन योगी जीवन किसको कहा जाता है, उसका अनुभव बहुत अल्पकाल का है। ‘‘ड्रामा’’ कहते, लेकिन ड्रामा के रहस्य को जान ड्रामा के आधार पर जीवन में अनुभव करना वह बहुत कम। ऐसा दिखाई देता है ना? फिर भी बाप कहते हैं ऐसी आत्माओं को भी साथ देते हुए मंजिल तक तो ले जाना ही है ना? बाप अपना वायदा तो निभायेंगे ना। लेकिन संगमयुग की प्राप्ति का जो ‘श्रेष्ठ भाग्य’ है उससे खाली रह जाते हैं। सहयोग की लिफ्ट से चलते रहेंगे। लेकिन जो सारे कल्प में नहीं मिलना है और अब मिल रहा उससे वंचित रह जाते हैं। ऐसे को देख करके रहम भी आता है, तरस भी पड़ता है। सागर के बच्चे बन कर भी तालाब में नहाने के अधिकारी बन जाते हैं। अपनी छोटी-छोटी कमज़ोरी की बातों में समय बिताना यह तालाब में नहाना हुआ ना? अच्छा।
पार्टियों से:-
सभी सदा साथ का अनुभव करते हो? क्योंकि मुख्य बात है बाप को अपना साथी बनाना। अगर सदा का साथी बनाएंगे तो माया स्वत: ही अपना साथ छोड़ देगी। क्योंकि जब देखेगी इन आत्माओं ने मुझे छोड़ और को साथी बना दिया तो किनारे हो जाएगी। सदा बाप के साथी बनो, सेकेण्ड भी किनारा नहीं। जब साथी साथ निभाने के लिए तैयार है फिर किनारा क्यों करते? फायदा भी है। फायदे वाली बात कभी छोड़ी जाती है क्या? साथी का साथ न होने कारण अकेले करते इसलिए मेहनत लगती। बाप का साथ अर्थात् हुआ ही पड़ा है। किनारा करते तो छोटी बात भी मुश्किल लगती। इसलिए अन्तर्मुखी हो इन अनुभवों के अन्दर जाओ फिर शक्तिशाली अनुभव करेंगे।
सदा अपने को खुशी में अनुभव करते हो? जैसे स्थूल खज़ाने के मालिक सदा खज़ाने के नशे में रहते, ऐसे खुशी के खज़ाने से भरपूर अपने को समझते हुए चलते हो? सदा खुशी का खजाना कायम रहता है वा कभी लूट जाता है? अगर खजाना कोई लूट लेता तो खुशी भी चली जाती। खुशी जाना अर्थात् खज़ाने का जाना। खज़ाना तो बाप ने दिया लेकिन उसे सम्भालने वाले नम्बरवार हैं। यह खजाना अपना है तो अपनी चीज़ की कितनी सम्भाल रखी जाती। छोटी-सी चीज़ को भी सम्भाला जाता, यह तो बड़े ते बड़ा खजाना है। अगर सम्भालना आता तो सदा सम्पन्न होंगे। तो सदा खुशी से रहते हो? ब्राह्मण जीवन है ही खुशी। अगर खुशी नहीं तो कुछ भी नहीं। सदैव अटेंशन रखो, रास्ता जान लो कि किस रास्ते से खजाना लूट जाता है। उस रास्ते को बन्द करो फिर सदा शक्तिशाली अनुभव करेंगे। खज़ाने को सम्भालना सीखो। सम्भालने का आधार है - ‘अटेंशन।’ तो सदा खुश रहने का अपने से वचन लो। दूसरे के आगे वचन लेने से टेम्पररी (अस्थायी) टाईम रहता। लेकिन स्वयं अपने आप से वचन लो कि कुछ भी हो जाए लेकिन प्रतिज्ञा को कभी नहीं तोड़ेंगे। बाप मिला, वर्सा मिला बाकी क्या रहा? इतनी श्रेष्ठ प्राप्ति वाला कितना नशे में रहेगा? सदा मायाजीत अर्थात् सदा हर्षित। स्वयं और दूसरों की सेवा का बैलेन्स हो तो मेहनत कम और सफलता ज्यादा होगी।
21-05-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
संगमयुगी ब्राह्मण जीवन का विशेष गुण और कर्त्तव्य
मास्टर ज्ञान सागर, विश्व सेवाधारी, गाडली सर्विसएबल, सर्व प्रति कल्याण और रहम की भावना रखने वाली आत्माओं प्रति उच्चारे हुए महावाक्य:-
अपने वर्तमान संगमयुगी ब्राह्मण जीवन की विशेषता को जानते हो? अपने विशेष गुण और कर्त्तव्य को जानते हो? जो गुण और कर्त्तव्य और कोई भी युग में हो नहीं सकता, वह कौन सा विशेष गुण है? नॉलेजफुल मास्टर ज्ञान सागर और कर्त्तव्य है, विश्व सेवाधारी अर्थात् गाडली सर्विसएबल। दोनों विशेषताओं को निरन्तर स्मृति में रखते हो? आप लोग कहलाते भी हो कि हम वर्ल्ड सर्वेन्ट (World Servant;विश्व सेवाधारी) हैं। वर्ल्ड सर्वेन्ट की परिभाषा क्या है? किसको वर्ल्ड सर्वेन्ट कहा जाता है? उनके लक्षण क्या होते हैं? लक्ष्य क्या होता है और प्राप्ति क्या होती है? विश्व सेवाधारी अर्थात् सर्विसएबल का लक्षण सदैव यही रहता है कि विश्व को अपनी सेवा द्वारा सम्पन्न व सुखी बनावें। किससे? जो अप्राप्त वस्तु है, ईश्वरीय सुख, शान्ति और ज्ञान के धन से, सर्व शक्तियों से, सर्व आत्माओं को भिखारी से अधिकारी बनावें। क्योंकि विश्व सेवाधारी सदा कल्याण और रहम की दृष्टि से सबको देखते हैं। इसलिए सदा यही लक्ष्य रहता कि विश्व का परिवर्तन करना ही है। यही लगन रात-दिन रहती है।
सेवाधारी के लक्षण क्या दिखाई देंगे? सेवाधारी अपना हर सेकेण्ड, संकल्प, बोल और कर्म, सम्बन्ध, सम्पर्क, सेवा में ही लगाते। सेवाधारी सेवा करने का विशेष समय नहीं निश्चित करते कि चार घण्टे वा छ: घंटे के सेवाधारी हैं। हर कदम में अथक सेवा ही करते रहते। उनके देखने में, चलने में, खाने-पीने में, सबमें सेवा समाई हुई होती है। मुख्य सेवा के साधन - स्मृति, वृत्ति, दृष्टि और कृति इस सब प्रकार से सेवा में तत्पर होगा। (1) स्मृति द्वारा सर्व आत्माओं को समर्थी स्वरूप बनावेगा। (2) वृत्ति द्वारा वायुमण्डल को पावन और शक्तिशाली बनावेगा (3) दृष्टि द्वारा आत्माओं को स्वयं का और बाप का साक्षात्कार करावेगा (4) कृति द्वारा श्रेष्ठ कर्म करने के अपने आप को निमित्त बनाकर हिम्मत दिलाने की प्रेरणा दिलावेंगे।
ऐसा सेवाधारी, स्वयं के रात-दिन के आराम को भी त्यागकर सेवा में ही आराम महसूस करेंगे। ऐसे सेवाधारी हो? सेवाधारी के सम्पर्क में रहने वाली वा सम्बन्ध में आने वाली आत्माएं उनकी समीपता वा साथ से ऐसा अनुभव करेंगे जैसे शीतलता वा शक्ति, शान्ति के झरने के नीचे बैठे हैं, वा कोई सहारे वा किनारे की प्राप्ति का अनुभव करेंगे। ऐसे सेवाधारी के संकल्प वा शुभ भावनाएं, शुभ कामनाएं, सूर्य की किरणों मुवाफिक चारों ओर फैलेंगी। जैसे सेवाधारियों के जड़ चित्र अल्पकाल के लिए अल्पकाल की कामनाएं पूर्ण करती है, ऐसे चैतन्य चरित्रवान सेवाधारी सदाकाल के लिए सर्व कामनाएं पूर्ण करते हैं। इसलिए ‘कामधेनु’ का गायन है। जैसे कोई खान सम्पन्न होती है तो जितना चाहे, उतना सम्पन्न हो सकता है। और ही हद की खान से विशेषता होगी। हद की खान से एक वस्तु मिलती। लेकिन यह विचित्र खान है जिसको जो चहिए वह मिल सकता है। ऐसा सेवाधारी तड़फती हुई आत्माओं को सहज ही मंजिल का अनुभव कराता हैं। सदा हर्षित, सदा संतुष्ट इस प्राप्ति का वरदान, सेवाधारी को स्वत: ही प्राप्त होता है। क्योंकि वह जानते हैं कि हर आत्मा का भिन्न पार्ट है। पार्टधारी के किसी भी प्रकार के पार्ट को देख, असंतुष्ट न हो। ऐसे सेवाधारी के मन से सदैव हर्षित और संतुष्ट रहने के गीत कौन-से निकलते? वाह बाबा! वाह मेरा पार्ट! और वाह मीठा ड्रामा! जब स्वंय सदा यह मन के गीत गाते तब ही सर्व आत्माएं भी अब भी और सारे कल्प में भी उनकी वाह-वाह करती हैं।
ऐसे सेवाधारी सदा विजय के मालाधारी होते हैं। सफलता स्वत: अधिकार है - इसी निश्चय और नशे में रहते हैं। सदा सम्पन्न और बाप के समीप अनुभव करते हैं। यह है सेवाधारियों की प्राप्ति। तो ऐसे लक्ष्य और लक्षण और प्राप्ति अनुभव करते हो? जब ब्राह्मणों के जीवन का विशेष कर्त्तव्य ही यह , अपने कर्त्तव्य को यथार्थ रीति से निभा रहे हो? एक है - बाप से प्रीत की रीति निभाना, दूसरा है - कर्त्तव्य निभाना। तो दोनों निभाने वाले हो? सिर्फ कहने वाले हो? सिर्फ कहने वाले तो नहीं हो ना? कहने वाले नहीं, करने वाले बनो! समझा! सेवाधारियों का महत्व क्या है? अच्छा।
ऐसे दिन रात सेवा में तत्पर रहने वाले, सम्पन्न बन सर्व को सम्पन्न बनाने वाले, सर्व स्वरूप से आलराउन्ड (Allround) सेवा करने वाले, सदा सर्व प्रति कल्याण और रहम की भावना रखने वाले, ऐसे विशेष सेवाधारियों को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
पार्टियों के साथ:-
1. सदैव एक मंत्र याद रखो - बाप को दिल का सच्चा साथी बनाकर रखेंगे तो सदा अनुभव करेंगे खुशियों की खान मेरे साथ है। सदा इस संग का रूहानी रंग लगा रहेगा। क्योंकि बड़े से बड़ा संग ‘सर्वशक्तिवान’ का है। सत्संग की महिमा है तो सदा बुद्धि द्वारा सत् बाप, सत् शिक्षक, सत् गुरू का संग करना - यही ‘सत्संग’ है। इस सत्संग में रहने से सदा हर्षित और हल्के रहेंगे। किसी भी प्रकार का बोझ अनुभव नहीं होगा। निश्चय बुद्धि हो - यह तो ठीक है। लेकिन निश्चय का रिटर्न है- बाप को सदा का साथी बनाकर रखना। पल-पल बाप का साथ हो। सदा साथ के अनुभव से सम्पन्न का अनुभव करेंगे। ऐसे लगेगा जैसे भरपूर हैं। जब बाप को अपना बनाया तो बाप का जो भी हैं, सब अपना हो गया।
सदा ईश्वरीय नशे में और भविष्य देवपद के नशे में रहते हो? संगम युग की प्रालब्ध क्या है? बाप को पाना। और भविष्य की प्रालब्ध देवपद पाना। तो दोनों प्रालब्ध की स्मृति रहती है? जिसको बाप मिल गया उसको नशा कितना होगा, बाप से ऊपर और कुछ नहीं! बाप मिला सब कुछ मिला। सदा याद में रहने से जो भी प्राप्ति है, उसका अनुभव कर सकते हो। याद नहीं तो प्राप्ति का अनुभव नहीं। सदा प्राप्ति के नशे में रहो मैं मास्टर सर्वशक्तिवान हूँ। शक्तियां बाप की प्रॉपर्टी (Property;सम्पत्ति) हैं तो बच्चे का उस पर अधिकार है। अधिकारी बच्चों के मन से सदैव यही गीत निकलेंगे जो पाना था पा लिया।
किसी भी प्रकार का विघ्न रास्ते चलते आवे तो निर्विघ्न रहने का तरीका आ गया है? विघ्न को हटाना सहज है वा मुश्किल? जब बाप का हाथ छोड़ते तो मुश्किल लगता। अगर बाप सदा साथ रहे तो कोई मुश्किल नहीं। बाप का साथ छोड़ने से कमज़ोर हो जाते। कमज़ोर को छोटी बात भी बड़ी लगती। बहादूर को बड़ी बात भी छोटी लगती। जब बाप साथ देने के लिए तैयार है, लेने वाले न लें तो बाप क्या करे? किनारा नहीं करो तो सदा सहज लगेगा।
पाण्डव अर्थात् बाप के साथ की स्मृति में रहने वाले। कल्प पहले भी पाण्डवों की स्मृति की विशेषता क्या गाई हुई है? पाण्डवों को नशा था बाप हमारे साथ है। बाप के साथ का नशा होने के कारण चैलेन्ज (चेतावनी) करने वाले बने। चैलेन्ज की ना कि हम विजयी बनेंगे। चैलेन्ज का आधार था बाप का साथ। तो जब पाण्डवों के साथ की यह विशेषता गाई हुई हो तो प्रेक्टीकल में कितना नशा होगा? माया के बड़े-बड़े महावीर की पाण्डवों के आगे क्या रिजल्ट हुई? विनाश को प्राप्त हुए। ऐसे माया के विघ्नों को पार करने वाले अनुभव करते हो कि माया से घबराते हो? किसी भी प्रकार के माया के विघ्न आवे लेकिन त्रिकालदर्शी हो अर्थात् माया क्यों आती है और उसको भगानो का तरीका क्या है - यह सब जानने वाले। माया आ गई क्या करे, ऐसे घबराने वाले नहीं। पाण्डवों का चित्र भी ग्वालों के रूप में दिखाते हैं। सदा ग्वालबाल साथ रहते थे। चैतन्य अपना जड़ यादगार देख रहे हैं - यह वन्डरफुल बात है ना।
शक्तियों का या गोपिकाओं का यादगार है, ‘खुशी में नाचना।’ पांव में घुंघरू डालकर नाचते हुए दिखाते हैं। जो सदा खुशी में रहते उनके लिए कहते - खुशी में नाच रहा है। नाचते हैं तो पांव ऊपर रखते हैं। ऐसे ही जो खुशी में नाचने वाले होंगे उनकी बुद्धि ऊपर रहेगी। देह की दुनिया व देहधारियों में नहीं, लेकिन आत्माओं की दुनिया में, आत्मिक स्थिति में होंगे। ऐसे खुशी में नाचते रहो। सदा खुशी किसको रहेगी? जो अपने को गोपिका समझेंगे। गोपिका का अर्थ है - जिसकी लगन सदा गोपी वल्लभ के साथ हो। अपने को गृहस्थी माता नहीं लेकिन ‘गोपिका’ समझो, गृहस्थी शब्द ही अच्छा नहीं लगता। गोपिकाओं का नाम लेते ही सब खुश हो जाते हैं। जब नाम लेने से दूसरे खुश हो जाते तो स्वयं गोपिकाएं कितना खुश होंगी!
24-05-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
बाप के डायरेक्ट बच्चे ही डबल पूजा के अधिकारी बनते हैं
पद्मापद्म भाग्यशाली, डायरेक्ट बाप की पहली रचना, डबल पूजा के अधिकारी, बाप के सिर के ताजधारी श्रेष्ठ आत्माओं प्रति बाबा बोले:-
बापदादा हरेक बच्चे के भाग्य को देख हर्षित हो रहे हैं। सारे विश्व के अन्दर कोटों में कोई गाई हुई आत्माएं कितनी थोड़ी सी हैं, जिन्होंने बाप को पाया है। न सिर्फ जाना, लेकिन जानने के साथ-साथ, जिसको पाना था, वो पा लिया। ऐसे बाप के अति स्नेही, सहयोगी बच्चों के भाग्य को देख रहे थे। वैसे सर्व आत्माएं बच्चे हैं, लेकिन आप आत्माएं डायरेक्ट बच्चे हो। शिव वंशी ब्रह्माकुमार और कुमारियाँ हो। सारे विश्व में जो भी अन्य आत्माएं धर्म के क्षेत्र में वा राज्य के क्षेत्र में महान वा नामी-ग्रामी बने हैं, धर्म-पिताएं बने हैं, जगत् गुरू कहलाने वाले बने हैं; लेकिन मात-पिता के सम्बन्ध से, अलौकिक जन्म और पालना किसी को भी प्राप्त नहीं होता है। अलौकिक माता-पिता का अनुभव स्वप्न में भी नहीं करते। और आप श्रेष्ठ आत्माएं वा पद्मापद्मपति आत्माएं हर रोज मात-पिता की वा सर्व सम्बन्धों की याद प्यार लेने के पात्र हो। हर रोज यादप्यार मिलती है ना। न सिर्फ यादप्यार, लेकिन स्वयं सर्वशक्तिवान बाप, आप बच्चों का सेवक बन हर कदम में साथ निभाता है। अति स्नेह से सिर का ताज बनाकर नयनों का सितारा बनाकर, साथ ले जाते हैं। ऐसा भाग्य जगत् गुरू वा धर्मपिता का नहीं हैं, क्योंकि आप श्रेष्ठ आत्माएं सम्मुख बाप की ‘श्रीमत’ लेने वाली हो। प्रेरणा द्वारा व टचिंग (Touching;प्रेरणा) द्वारा नहीं, ‘मुख वंशावली’ हो। डायरेक्ट मुख द्वारा सुनते हो। ऐसा भाग्य किन आत्माओं का है? मैजारिटी (Majority;अधिकतर) भारतवासी गरीब, भोली सी आत्माओं का है। जो ना उम्मीदवार थे कि हमें कब बाप मिल सकता है। इतना श्रेष्ठ भाग्य, फिर ऐसे नाउम्मीदवार को ही मिला है। जब कोई नाउम्मीदवार से उम्मीदवार बनता है वा असम्भव से सम्भव बात होती है, तो कितना नशा और खुशी होती है! ऐसा भाग्य अपना सदैव स्मृति में रहता है?
सारे ड्रामा के अन्दर और धर्म की आत्माओं को देखो और अपने को देखो तो महान अन्तर है। पहली बात सुनाई कि डायरेक्ट बच्चे हो। माता-पिता वा सर्व सम्बन्धों का सुख का अनुभव करने वाले, डायरेक्ट बच्चे होने के कारण, विश्व के राज्य का वर्सा सहज प्राप्त हो जाता है। सृष्टि के आदिकाल सतयुग अर्थात् स्वर्ग की सतो प्रधान, सम्पूर्ण प्राप्ति आप आत्माओं को ही प्राप्त होती है। और सर्व आत्माएं आती ही मध्यकाल में हैं। आप श्रेष्ठ आत्माओं का भोगा हुआ सुख वा राज्य रजो प्रधान रूप में प्राप्त करते हैं। जैसे आप आत्माओं को धर्म और राज्य दोनों प्राप्ति हैं, लेकिन अन्य आत्माओं को धर्म है तो राज्य नहीं, राज्य है तो धर्म नहीं। क्योंकि द्वापर युग से धर्म और राज्य का दोनों पुर अलग-अलग हो जाते हैं। जिसकी निशानी सारे ड्रामा के अन्दर डबल ताजधारी सिर्फ आप हो। और कोई देखा है? और भी विशेषताएं हैं। सम्पूर्ण प्राप्ति अर्थात् तन, मन, धन, सम्बन्ध और प्रकृति के सर्व सुख, जिसमें अप्राप्त कोई वस्तु नहीं, दु:ख का नाम-निशान नहीं - ऐसी श्रेष्ठ प्राप्ति अन्य कोई आत्मा को प्राप्त नहीं होती है। डायरेक्ट बच्चे होने के कारण, ऊँच ते ऊँच बाप की सन्तान होने के कारण, परम पूज्य पिता की सन्तान होने कारण आप आत्माएं भी डबल रूप में पूजी जाती हो। एक सालिग्राम के रूप में, दूसरा देवी वा देवता के रूप में। ऐसे विधि पूर्वक पूज्य, धर्मपिता वा कोई भी नामी-ग्रामी आत्मा नहीं बनती। कारण? क्योंकि तुम डायरेक्ट वंशावली हो। समझा कितने भाग्यशाली हो, जो स्वयं भगवान आपका भाग्य बाला करते हैं! तो सदा अपने ऐसे भाग्य को स्मृति में रखो। कमज़ोरी के गीत नहीं गाओ। भक्त कमज़ोरी के गीत गाते हैं और बच्चे भाग्य के गीत गाते हैं। तो अपने आप से पूछो कि भक्त हूँ वा बच्चा हूँ? समझा अपने श्रेष्ठ भाग्य को? अच्छा।
ऐसे पद्मापद्म भाग्यशाली, डायरेक्ट बाप की पहली रचना, सर्व सम्बन्धों के सुख के अधिकारी, सर्व प्राप्ति के अधिकारी, राज्यभाग के अधिकारी, डबल पूजा के अधिकारी, बाप के भी सिर के ताजधारी, ऐसी श्रेष्ठ आत्माओं को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
27-05-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
पॉवरफुल स्टेज अर्थात् बाप समान बीजरूप स्थिति
सदा समर्थ, सदा ज्ञान के खज़ाने से सम्पन्न, बाप समान गुणमूर्त्त और शक्ति मूर्त्त, ज्ञानी तू आत्मा, ऐसी विदेशी सो स्वदेशी आत्माओं प्रति बाप-दादा के उच्चारे हुए महावाक्य:-
आज बाप-दादा के सामने कौन सी सभा बैठी हुई है? जानते हो? आज डबल प्रकार की सभा है। एक, जो सभी सामने बैठी हैं - भारतवासी बच्चों की सभा। दूसरे, विदेशी बच्चों की सभा। विदेशी बच्चे बहुत उमंग, उत्साह और लगन से बाप को प्रत्यक्ष करने के प्लान्स (Plans) बनाते हुए, बार-बार बाप के गुण गाते, खुशी में नाच रहे हैं। उन्हों की खुशी का, मन का गीत बाप-दादा के सामने सुनाई दे रहा है। सब तरफ, विशेष रूप से बाप के स्नेह और सेवा का वातावरण आकर्षण करने वाला है। बाप-दादा को भी बच्चों को देख, बच्चों के उमंग पर खुशी होती है। साथ-साथ आप सभी बच्चों का मिलन का उमंग देख हर्षित होते हैं।
आज अमृतवेले बाप-दादा चारों ओर के बच्चों के पास चक्कर लगाने निकले। क्या देखा? मधुबन वरदान भूमि में, खुशी-खुशी से आए हुए बच्चे, इस ही मिलन की खुशी में और सब बाते भूले हुए हैं। हरेक नम्बरवार पुरूषार्थ अनुसार वरदान प्राप्त करने के उमंग, उत्साह में थे। और सब तरफ चक्कर लगाते हुए क्या देखा? मैजारिटी (Majority;अधिकतर) का शरीर भल अपने-अपने स्थान पर है, लेकिन मन की लगन मधुबन तरफ है। अव्यक्त रूप से योगयुक्त बच्चे मधुबन में ही अपने को अनुभव करते हैं। चारों ओर स्वरूप चात्रक समान दिखाई दे रहा था। याद की यात्रा के चार्ट में क्या दिखाई दिया? पोजीशन (Position;मर्तबा) और आपोजीशन (Opposition;विरोध) दोनों का खेल देखा था। यथा शक्ति हरेक अपने पोजीशन पर स्थित रहने का प्रयत्न बहुत करते, लेकिन माया की आपोजीशन, एक रस स्थिति में स्थित होने में विघ्न-स्वरूप बन रही थी। इसका कारण क्या? (1) एक तो सारे दिन की दिनचर्या पर बार-बार अटेंशन की कमी है। (2) दूसरा शुद्ध संकल्प का खजाना जमा न होने कारण व्यर्थ संकल्पों में ज्यादा समय व्यतीत करते हैं। मनन शक्ति बहुत कम है। (3) तीसरा, किसी भी प्रकार की छोटी-छोटी परिस्थितियाँ जो हैं कुछ भी नहीं, उन छोटी सी बातों की कमज़ोरी का कारण बहुत बड़ा समझ, उसको मिटाने में टाईम बहुत वेस्ट (Time Waste;समय व्यर्थ) करते हैं। कारण क्या? समय प्रति समय जो अनेक प्रकार की परिस्थितियों को पार करने की युक्तियाँ सुनते हैं, वह उस समय घबराने के कारण स्मृति में नहीं आती हैं। (4) चौथा अपने ही स्वभाव संस्कार, जो समझते भी हैं कि नहीं होने चाहिए, बार-बार उन स्वभाव-संस्कार के वशीभूत होने से धोखा भी खा चुके हैं, लेकिन फिर भी रचता कहलाते हुए भी, वशीभूत हो जाते हैं। अपने अनादि, आदि संस्कार बार-बार स्मृति में नहीं लाते हैं। इस कारण संस्कार स्वभाव मिटाने की समर्थी नहीं आ सकती हैं। ऐसे चारों ही प्रकार के योद्धा देखे। योद्धा शब्द सुनकर हँसी आती है। और जिस समय प्रेक्टीकल एक्ट (Practical Act;व्यवहारिक कर्म) में आते हो, उस समय हँसी आती है? बाप-दादा को ऐसा खेल देखते हुए, बच्चों पर रहम और कल्याण का संकल्प आता है। अब तक मैजारिटी व्यर्थ संकल्पों की कम्पलेन (Complain;शिकायत) बहुत करते हैं। व्यर्थ संकल्प के कारण तन और मन दोनों कमज़ोर हो जाते हैं। व्यर्थ संकल्प का कारण क्या? सुनाया था, अपनी दिनचर्या को सेट करना नहीं आता।
अमृतवेले रोज़ की दिनचर्या, तन की और मन को सेट करो। जैसे तन की दिनचर्या बनाते हो कि सारे दिन में यह-यह कर्म करना है, वैसे अपने स्थूल कार्य के हिसाब से, मन की स्थिति को भी सेट करो। जैसे अमृतवेले याद की यात्रा का समय सेट है, तो ऐसे सुहावने समय पर, जबकि समय का भी सहयोग है, सतोप्रधान बुद्धि का सहयोग है, ऐसे समय पर मन की स्थिति भी सबसे पॉवरफुल स्टेज (Powerful Stage;शक्तिशाली स्थिति) की चाहिए। पॉवरफुल स्टेज अर्थात् बाप समान बीजरूप स्थिति। तो यह अमृतवेले का जैसा श्रेष्ठ समय है, वैसी श्रेष्ठ स्थिति होनी चाहिए। साधारण स्थिति में तो, कर्म करते भी रह सकते हो, लेकिन यह विशेष वरदान का समय है। इस समय को यथार्थ रीति यूज़ (USE;प्रयोग) न करने का कारण, सारे दिन की याद की स्थिति पर प्रभाव पड़ता है। तो पहला अटेंशन - ‘अमृतवेले की पॉवरफुल स्थिति की सैटिंग करो।’
दूसरी बात, जब ज्ञान की गुह्य बातें सुनते हो, अर्थात् रेग्युलर स्टडी (नियमित अध्ययन) करते हो, उस समय जो प्वाइन्टस निकलती हैं, उस हर प्वाइन्ट को सुनते हुए, अनुभवी मूर्त्त होकर नहीं सुनते। ज्ञानी तू आत्मा हर बात के स्वरूप का अनुभव करती हैं। सुनना अर्थात् उस स्वरूप के अनुभवी बनकर सुनना। लेकिन अनुभवी मूर्त्त बनना बहुत कम आता है। सुनना अच्छा लगता है, गुह्य भी लगता है, खुश भी होते हैं, बहुत अच्छा खजाना मिल रहा है, लेकिन समाना अर्थात् स्वरूप बनना - इसका अभ्यास होना चाहिए। मैं आत्मा निराकार हूँ - यह बार-बार सुनते हो, लेकिन निराकार स्थिति के अनुभवी बनकर सुनो। जैसी पाइंट, वैसा अनुभव। परमधाम की बातें सुनो तो परमधाम निवासी होकर परमधाम की बातें सुनो। स्वर्गवासी देवताई स्थिति के अनुभवी बन, स्वर्ग की बातें सुनो। इसको कहा जाता है सुनना अर्थात् समाना। समाना अर्थात् स्वरूप बनना। अगर इसी रीति से मुरली सुनो तो शुद्ध संकल्प का खजाना जमा हो जाएगा। और इसी खज़ाने के अनुभव को बार-बार सुमिरण करने, सारा समय बुद्धि इसी में ही बिजी रहेगी। व्यर्थ संकल्पों से सहज किनारा हो जाएगा। अगर अनुभवी होकर नहीं सुनते, तो बाप के खज़ाने को अपना खजाना नहीं बनाते। इसीलिए खाली रहते हो। अर्थात् व्यर्थ संकल्पों को स्वयं ही जगह देते। और आगे बढ़कर सारी दिनचर्या में क्या-क्या कमी करते हो, वह फिर दूसरे दिन सुनायेंगे। पहले इन दो बातों को ठीक करो। ज्यादा डोज़ (Dose;खुराक) नहीं देते हैं। अच्छा।
सदा समर्थ, सदा ज्ञान के खज़ाने से सम्पन्न, याद की यात्रा द्वारा सर्व शक्तियों के अनुभवी मूर्त्त, सदा हर परिस्थति को स्वस्थिति द्वारा सेकेण्ड में और सहज पार करने वाले, ऐसे बाप समान गुण मूर्त्त और शक्तिमूर्त्त ज्ञानी तू आत्माओं को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
दीदी जी के साथ:-
आज विशेष विदेश वालों का बाप को अपनी तरफ खींचने का चल रहा है। यह सभा देखते हुए भी बाप-दादा को बार-बार सामने विदेशी नज़र आते हैं। विशेष याद के आकर्षण का बहुत फुलफोर्स से मीठी-मीठी बातें करते हैं। हरेक अपने मन के उमंग का संकल्प बाप के आगे ऐसे रख रहे हैं, जैसे सम्मुख बातें की जाती हैं, विदेश में रहने वालों को इतनी खुशी क्यों है? इसका कारण क्या है? क्योंकि नई-नई फुलवाड़ी समझती हैं कि हम पीछे आने वाले जब तक कोई विशेष कार्य नहीं करेंगे तो हाई जम्प (ऊँची छलांग) देकर आगे कैसे बढ़ेंगे।? उन्होंको यह लगन है हम कुछ विशेष करके दिखावें। जो न हुआ है वह करके दिखावें। इस कारण इस नशे में रात-दिन तन-धन कुछ दिखाई नहीं देता है। लक्ष्य अच्छा रखा है। हरेक स्थान यही सोच रहा है कि हमारे देश का चारों ओर नाम निकले। इस रेस के कारण एक दो से आगे बढ़ रहे हैं। विदेश से नाम निकलना है - यह तो ठीक है, लेकिन किस कोने से निकलता? कौन सा स्थान निमित्त बनता? किस स्थान का व्यक्ति निमित्त बनता है? इसलिए हरेक अपने धुन में लगे हुए हैं। और बाप-दादा को भी बच्चों की मेहनत और उत्साह अच्छा लगता है। (दादी को) आप यहाँ बैठी हो या विदेश में? विदेश सर्विस के प्लान चलते हैं कि जब प्लेन (Plane) में चढ़ेंगी तब प्लान चलेंगे?
महारथियों से एक प्रश्न पूछते हैं। बाप से तो बहुत पूछते हैं। महारथियों के लिए विशेष है – रूह-रूहान, महारथियों से अच्छी लगती है। विजय माला के जो मणके बनते हैं पहला नम्बर वा 108 वाँ नम्बर, दोनों में अन्तर क्या है? कहलाते तो सब विजयी रत्न हैं। नाम ही है विजयमाला। लेकिन पहला नम्बर विजयी रत्न और जो लास्ट का विजयी रत्न है उनमें कोई विशेष सब्जेक्ट (विषय) पर विजय का आधार है वा टोटल नम्बर पर आधार है। एक होता है विशेष सब्जेक्ट में। दूसरा होता है सब सब्जेक्ट के टोटल मार्क्स का अन्तर। तो इसकी गुह्यता क्या है अर्थात् विजय की गुह्य गति? इसमें बहुत कुछ रहस्य भरा हुआ है। युगल दाने की विशेष सब्जेक्ट कौन सी है और अष्ट रत्नों की कौन सी है। 100 रत्नों की कौन सी है? उसमें भी आगे और पीछे वालों में क्या अन्तर है? इस गुह्य गति को आपस में मनन करना। फिर बतायेंगे। आज चक्कर लगाया ना। यह तो हुई मोटी बात। लेकिन विशेष महारथियों के पुरूषार्थ में क्या महीन अन्तर रह जाता है जिससे दो नम्बर के बाद तीसरा आता, फिर चौथा आता? हैं महारथी, नामी-ग्रामी लेकिन दूसरा तीसरा नम्बर भी किस आधार से बनता है? तो आज महारथियों के इस गुह्य गति के पुरूषार्थ को देख रहे थे। अष्ट में भी पहला नम्बर और आठवाँ नम्बर में क्या अन्तर है? पूजते तो आठ ही हैं लेकिन पूजा में भी अन्तर, विजय में अन्तर है। हरेक की विशेषता भी विशेष है और फिर जो कमी रह जाती है वह भी विशेष है जिसके आधार पर फिर नम्बर बनते हैं। आज दोनों ही देख रहे थे तो यह आपस में विचार करना। समझा?
दिल्ली पार्टी से:-
दिल्ली को दरबार बनाया है? दिल्ली दरबार कहते हैं तो दिल्ली को अपनी राज्य दरबार बनाई है? राजाई तैयार हो गई है? दरबार में कौन बैठेंगे? दरबार में पहले तो महाराजा, महारानियाँ चाहिए। कितने महाराजा, महारानियाँ तैयार हुई हैं? दिल्ली वालों को राज्य का फाउण्डेशन (Foundation;नींव) लगाना है। राज्य का फाउन्डेशन कैसे लगेगा, उसका आधार क्या? राज्य अर्थात् अधिकार प्राप्त कर लेना। पहले स्वयं का राज्य, फिर विश्व का राज्य। तो दिल्ली निवासी स्वयं पर अधिकारी बने हैं? विदेश से तो नाम निकलेगा, लेकिन नाम पहुँचेगा कहाँ? (दिल्ली में) तो दिल्ली वालों को नवीनता करनी चाहिए क्योंकि सेवा का आदि स्थान है। सेवा की ‘बीज रूप’ दिल्ली है। तो जैसे दिल्ली आदि स्थान है सेवा के हिसाब से और राज्य का स्थान राजस्थान भी है, तो दोनों ही हिसाब से दिल्ली वालों को विशेषता करनी चाहिए तो क्या करेंगे? मेला करेंगे? कान्फ्रेंस करेंगे? यह तो पुरानी बातें हो गयीं। लेकिन नवीनता क्या करेंगे? पहली बात तो दिल्ली वालों का एक दृढ़ संकल्प संगठित रूप से होना चाहिए कि ‘हम सब दिल्ली का किला मजबूत कर सफलता होनी ही है, इस संकल्प का व्रत एक हो।’ जैसे कोई भी कार्य में सफलता के लिए व्रत रखते हैं ना। वह तो स्थूल व्रत रखते हैं, लेकिन यह मन्सा का व्रत है जिस व्रत से निमित्त कोई भी कार्य करेंगे।
भला कार्य साधारण भी हो, रिजल्ट नवीनता की हो। मानो कानफ्रेंस करते, बाहर का जैसे रूप साधारण का होता लेकिन सफलता नवीनता की हो। जब एक ही समय और सर्व का एक ही संकल्प व्रत होगा कि होना ही है, तो देखो दिल्ली क्या कमाल करती है! कमज़ोरी के संकल्प न हो - होना है, नहीं होना है, होगा, नहीं होगा, अभी तक तो हुआ नहीं - यह कमज़ोरी के संकल्प हैं। एक दृढ़ संकल्प की भट्ठी हो फिर सब दिल्ली को कापी करेंगे। अभी ऐसी कोई नवीनता दिखाओ। भाषण किया, जनता आई, सुना और गए। भाषण करने वाले ने भाषण किया और चले - यह तो होता रहता है। अब डबल स्टेज स्वयं की और दूसरी स्थान की तैयार करो। जब डबल स्टेज हो तब सफलता हो। स्थूल स्टेज पर झंडा लगाना, स्लोगन लगाना, चित्र लगाना बहुत सहज है, लेकिन हर एक चैतन्य चित्र हो। हरेक की बुद्धि में विजय का झंडा लगा हो। स्लोगन सबका एक हो - सफलता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। फिर देखो दिल्ली वाले कमाल करेंगे। दिल्ली वालों को विशेष एक लिफ्ट की गिफ्ट भी है, वह कौन सी है? दिल्ली वालों का, उसमें भी विशेष शक्ति सेना का विशेष गुण कौनसा है? यज्ञ की स्थापना के कार्य में दिल्ली की शक्ति सेना का सुदामा मिसल जो चावल चपटी काम में आई है। वह बहुत महत्व के समय काम में आई है। तो महत्व के समय पर अगर कार्य में चावल चपटी भी लगाते तो वह बहुत वृद्धि हो जाती है। जैसे समय इतना फलीभूत नहीं होता। समय पर सहयोग देने से दिल्ली वालों को विशेष गिफ्ट की लिफ्ट मिली है। बाप की ओर से ड्रामा प्रमाण दिल्ली वालों को सदा सम्पन्न रहने का वरदान प्राप्त है। दिल्ली की धरनी का फाउन्डेशन अच्छा है। एक्जाम्पल (Example;मिसाल) बनने वालों को विशेष सहयोग मिलता है। दिल्ली को निमित्त सेवा, अन्य सेवा स्थानों के निमित्त एक्जाम्पल बने। जैसे आदि में विशेषता दिखाई, वैसे अभी दिखाओ। तो उसका सहयोग मिल जाएगा। दिल्ली वाले फारेन (विदेशी) वालों से भी अच्छे प्लान बना सकते हैं; क्योंकि यहाँ बहुत सेवा के साधन हैं। यहाँ मेहनत की जरूरत नहीं सिर्फ किला मजबूत की बात है। अच्छा। जब सबके संकल्प की अंगुली इकट्ठी होगी तो हर कार्य सफल होगा। सबकी नज़र दिल्ली पर है। जब एक दो के समीप हो हाथ में हाथ मिलाएंगे तब घेराव डाल सकेंगे। हाथ में हाथ मिलाना अर्थात् संकल्प मिलाना। सबमें एक जैसा उमंग उत्साह हो, दिलाना ना पड़े। अच्छा।
पुरूषार्थ की गुह्य गति क्या है? अथवा श्रेष्ठ पुरूषार्थ कौन सा है? हर संकल्प, स्वांस में स्वत: बाप की याद हो। इसको कहा जाता है स्मृति स्वरूप। जैसे भक्ति में भी कहते हैं - अनहद शब्द सुनाई दे, अजपाजप चलता रहे, ऐसा पुरूषार्थ निरन्तर हो - इसको कहा जाता है श्रेष्ठ पुरूषार्थ। याद करना नहीं, याद आता ही रहे। महारथियों का पुरूषार्थ यह है - महारथी अर्थात् स्वत: याद। महारथी हर संकल्प महान होगा। जितनाजितना आगे बढ़ते जायेंगे साधारणता खत्म होती जायेगी, महातना आती जायेगी। यह है बढ़ने की निशानी।
28-05-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
बाप-दादा के सदा दिल तख्तनशीन समान बच्चों के लक्षण
बाप के सदा स्नेही, सदा सहयोगी, दिल तख्त नशीन व राज्य तख्त नशीन बच्चों प्रति उच्चारे हुए महावाक्य:-
बापदादा समीप और समान सितारों को देख रहे हैं। बाप को सदा स्मृति रहती। जैसे बच्चे स्मृति स्वरूप हैं, वैसे ही बाप भी अपने समीप बच्चों के स्मृति स्वरूप हैं। जैसे बच्चे स्मृति स्वरूप होने से समर्थी स्वरूप का अनुभव करते हैं। बापदादा भी स्वयं समर्थी स्वरूप होते भी, समान बच्चों के सहयोग वा स्मृति से, स्वयं स्वरूप में और एडीशन (Addition;वृद्धि) हो जाती है। इसलिए साकार बाप ब्रह्मा को सहयोगी स्वरूप की निशानी ‘हजार भुजाएं’ दिखाई हैं। भुजाएं है सहयोग की निशानी। तो बाप के साथ-साथ जो सदा सहयोगी हैं उन्हों की निशानी भुजाओं के रूप में हैं। ऐसे समान बच्चों का स्थान कौन सा होता है? किस स्थान पर वह निवास करते हैं? वह सदा दिल तख्त पर या विश्व के राज्य तख्त नशीन स्वयं को समझते है अर्थात् स्थिति में स्थित होते हैं। जैसे बड़ी से बड़ी महान् आत्माएं कभी भी धरनी पर पाँव नहीं रखती। जैसे यहाँ भी देखा, जब बड़े आदमी आते हैं तो पूरे रास्ते पर सीढ़ियों पर गलीचा बिछा देते हैं। ऐसी श्रेष्ठ आत्माओं का पाँव धरती पर नहीं लेकिन गलीचे पर होते हैं। यह निशानी किसकी है? शुरू कहाँ से हुई? यहाँ तो उन्हों के पाँव सिर्फ गलीचे तक हैं। लेकिन जो बाप समान बच्चे हैं, उनका बुद्धि रूपी पाँव सिवाए तख्त के नीचे नहीं आते हैं। उन्होंको तख्त नशीन कहा जाता है अर्थात् सदा तख्त पर ही रहते हैं। नीचे नहीं आते हैं। ऐसे जो सदा दिल तख्त नशीन वा राज्य नशीन ही रहते हैं, उन्हों को सर्व आत्माओं से रिटर्न में (Return;बदले में) क्या मिलता है? स्नेह तो मिलता ही है, लेकिन दिल तख्त नशीन वाले जो भी कर्म करते, जो भी बोल बोलते, सभी के दिल पर ऐसे लगता है, जैसे बाप द्वारा जो भी निकलता वह सदा का यादगार बन जाता, सबके दिलों में समा जाता है। यादगार रह जाता है। फिर आधा कल्प के बाद यादगार ‘गीता’ के रूप में होता। तो बाप के महावाक्य यादगार रूप में ऊपर हो जाते हैं। इसी प्रकार जो दिल तख्त नशीन बच्चे हैं वह जिस आत्मा के प्रति संकल्प करते तो उनके दिल को लगता है। मानो, आप किस आत्मा प्रति शुभ भावना, शुभ कामना रखते हैं - उनके दिल को लगेगा कि सचमुच यह मेरे प्रति शुभ-भावना, शुभ कामना रखते हैं। एक होता है ऊपर-ऊपर से, दूसरा होता है निमित्त बने हुए स्थान के कारण रेसपेक्ट (RESPECT;आदर) देना। तीसरा होता है दिल से स्वीकार करना।
जो समान बच्चे हैं उन्हों का संकल्प भी दिल से लगेगा, जैसे कि तीर लगता है। जैसे पहले जमाने में तीर लगाते थे। तो जिसको तीर लगता था वा तीर सहित ही नीचे आ गिरते थे। इस प्रकार से जो दिल तख्त नशीन हैं - (1) वह दिल के संकल्प जिस आत्मा प्रति करेंगे वह व्यक्ति अर्थात् आत्मा स्वयं अपने दिल का भाव प्रकट करने के लिए सामने आ जायेगी। (2) दूसरी बात जो उस स्थिति में स्थित हो बोल बोलेंगे उनके दो शब्द दिल को राहत देने वाले होंगे। महसूस करेंगे कि भल दो शब्द बोले लेकिन दिल को राहत मिल गई, खुराक मिल गई (3) तीसरी बात - सदैव ऐसी आत्माओं को दूर होते हुए भी दिल से याद करेंगे। दिल से याद करने की निशानी क्या होगी? ऐसे अनुभव करेंगे जैसे कि साथ समीप हैं, दूर नहीं हैं। ऐसे नहीं अनुभव करेंगे कि यह आबू में हैं हम दूसरे देश में हैं। ऐसे समझेंगे कि सदा सम्मुख और साथ हैं। जैसे बाप को दिल से याद करते हैं तो क्या अनुभव होता है? दूर लगता है क्या? साथ का अनुभव होता है ना? इस प्रकार जो दिलतख्त नशीन बच्चे होंगे उन्हों का भी प्रेक्टीकल में रिटर्न दिखाई देगा। इसको कहा जाता है - ‘प्रत्यक्ष फल।’ (4) चौथी बात - वह दिल तख्त नशीन होंगे। दिल तख्त नशीन कौन होते हैं? राजा होगा ना? जैसे कोई बड़ा होता है तो उसको सब अपना समझते हैं। छोटे जो होंगे, वह बडों को अपना समझेंगे - ‘मेरा है।’ तो दिल तख्त नशीन बच्चे की यही निशानी होती जो हरेक उनको अपना बड़ा समझेंगे। अपनापन महसूस करेंगे। हमारे पूर्वज बड़े हैं, पूज्य हैं। यह शब्द कहने में भक्ति मार्ग के हैं, लेकिन जैसे पूर्वज का नशा होता है ना - यह हमारे पूर्वज पूज्य हैं, इसी रीति से हर आत्मा जो भी सम्पर्क में हैं वह ऐसे महसूस करेंगे कि यह ही हमारे पूर्वज हैं, पूज्य हैं। अपनापन महसूस करेंगे। ऐसे दिल तख्त नशीन कितने बनेंगे? थोड़े ही होते। यही अष्ट रत्नों की विशेषता है, जो फिर 100 में नहीं होती। उनमें भी माँबाप हैं फिर भी उनमें नम्बर तो हैं ना। तो जब पहले युग में भी नम्बर हैं, तो जो और पीछे हैं उनमें भी नम्बर होंगे।
दादी जाती है इसकी सबको खुशी है। क्यों? वैसे तो जाने में दूसरी लहर होनी चाहिए, लेकिन खुशी क्यों है? और विशेष खुशी की लहर है, क्यों? विशेष सबको खुशी इसी बात की है जो सभी बहुत समय से इन्तजार कर रहे हैं कि कुछ होना है, कुछ परिवर्तन आना है। तो इस पार्ट को देखते हुए सबके बुद्धि में कुछ नवीनता, परिवर्तन की भावना आ रही है। सभी को ऐसा लगता है, जैसे कि यह जा नहीं रहे हैं, लेकिन कुछ समीप जा रहे हैं। कुछ परिवर्तन, नवीनता का नक्शा सामने आने से जाने का संकल्प उसमें समा गया है। सबकी बुद्धि में यही है कि अब कुछ परिवर्तन की भूमिका बन रही है। बहुत समय से सबको यही संकल्प में रहता है कि कोई नई बात अब होनी चाहिए। बहुत समय वही सीन चलती रही है, कुछ नवीनता होनी चाहिए। यह निमित्त फारेन में जाने का जो पार्ट बना है उसमें सबके दिलों मे जैसे ऑटोमेटीकली सबमें लहर है। किसको कहा नहीं गया है, लेकिन एक नया उमंग उत्साह है। वहाँ तो उमंग में हैं। लेकिन भारत में भी समझते हैं नवीनता होगी। इसलिए सबको जैसे नई लहर खुशी की है। समझते हैं - समीपता को पहुँचने का दिखाई दे रहा है, समीप नजारा आ रहा है - यह भासना आती है। इसलिए जो विशेष आत्माएं हैं उन्हों का ही समय के साथ बहुत सम्बन्ध है जैसे ब्रह्मा की आत्मा का समय के साथ गहरा कनेक्शन है, ब्रह्मा का जन्म और संगम का होना। अगर ब्रह्मा का पार्ट नहीं होता तो संगम भी नहीं होता। ब्रह्मा के साकार पार्ट की समाप्ति और अन्य पार्ट का आरम्भ होना, यह भी समय को समीप लाने का एक आधार है। ब्रह्मा का समाप्त अर्थात् संगम युग समाप्त। तो जैसे ब्रह्मा की आत्मा का समय के साथ गहरा सम्बन्ध है, वैसे ही जो फॉलो करने वाली समीप आत्माएं हैं, उन्हों के हर कार्य का भी समय के साथ उतना ही समीप सम्बन्ध है। वह जैसे समय की घड़ी बन जाते हैं। जैसे देखो, आप लोग जो निमित्त बने हुए हो, उन्हों के संकल्पों को रीड़ (Read) करते हैं। सब समय की तुलना करते हैं कि इन लोगों की स्टेज यहाँ तक पहुँच गई है। तो समय क्या दिखाता है, चैक तो करते हो ना? जैसे आप लोगो के सामने समय की घड़ी ‘साकार बाप’ था। उनकी स्टेज को देखते आप लोग भी समझते थे जैसे कि कुछ होने वाला है। समीपता लग रही थी। जैसा फरिश्ता रूप! साकार नहीं है - ऐसा फील (Feel;अनुभव) होता था। तो समय की घड़ी हो गए ना। ऐसे आप लोग भी जो निमित्त हैं वह भी समय की घड़ी हो। उस नज़र से ही आप लोगों को देखते हैं कि घड़ी क्या दिखा रही है? यह जो विदेश जाने का पार्ट है, यह भी जैसे विशेष घंटी बजी है - ऐसा अनुभव होगा।
(परदादी को) ड्रामा आपको भी समीप पार्ट बजाने के निमित्त बनाता है। जैसे कल्प पहले बजाया था, वैसे अभी भी बजाते हैं। प्लॉन सोचने से नहीं होता है, लेकिन न चाहते भी ड्रामा का पार्ट निमित्त बना देता हैं। इसमें भी बड़ा रहस्य है। वरदान है आपको। लौकिक अलौकिक बाप के कुल का नाम बाला करने वाली निमित्त आत्मा हो। यह भी विशेष वरदान है। इसलिए आपको देखकर के दोनों याद आ जाते हैं। लौकिक भी फीचर्स (Features;शक्ल) याद आयेंगे और फीचर्स द्वारा जो फ्यूचर (Future;भविष्य) बनता है, वह भी याद आयेगा। आपके हर कदम में जो वरदान है - दोनों कुल का नाम बाला करना, वह समाया हुआ है। इसलिए ड्रामा स्वयं ही सीट की तरफ खींचता जा रहा हैं। समय प्रति समय जो भी महावाक्य आत्माओं के प्रति बापदादा के उच्चारण किए हुए हैं, वह प्रेक्टीकल में आ रहे हैं। विशेष वरदान है; और सर्विस का चांस भी आपको विशेष है। डबल सर्विस करने का चान्स है आपको। सूरत द्वारा भी, और सीरत द्वारा भी। इन लोगों की सूरत से अव्यक्त स्थिति होने से अनुभव करेंगे लेकिन आपकी सूरत चलते-फिरते ब्रह्मा बाप की सूरत और सीरत को प्रत्यक्ष करेंगे। यह एक्सट्रा सर्विस की फील्ड हुई ना? जहाँ भी जायेंगे तो क्या कहेंगे? सबको बाप की भासना आती है ना? तो यह सूरत भी सर्विस के निमित्त बनी है। डबल सर्विस हुई ना? (दादी को) वर्तमान समय आप आत्मा की डबल रूप से आह्वान की लीला चल रही है। एक तरफ भक्त आत्माएं अनजान रूप में आह्वान कर रही हैं - अष्ट देव के रूप में। दूसरी तरफ ज्ञान-स्वरूप होकर के ज्ञानी तू आत्मा बच्चे आह्वान कर रही हैं। ऐसे ही आह्वान कर रहे हैं जैसे आपकी जड़ चित्र अष्ट देव के रूप में करते हैं। लेकिन वह अन्जान हैं, इसलिए उन्होंको वह रस नहीं आता। लेकिन उन्हों को आह्वान से भी वरदान की अनुभूति की प्राप्ति का अनुभव होगा, डबल आह्वान हो गया ना?
दो मूर्तियाँ जा रही हैं, तीन मूर्तियाँ जा रही हैं वा अष्ट भी जा रही हैं? यह भी एक विशेष लहर है ना। जो सब समझते हैं - हम लोग भी जैसे साथ जा रहे हैं। इसका भी कारण? यह स्नेह की समीपता की निशानी है। जो इतना समय ड्रामानुसार निमित्त बन पार्ट बजाया है उसका प्रत्यक्ष रूप रिटर्न स्वरूप देख रहे हैं। निमित्त बन पार्ट बजाने की रिजल्ट सामने आ रही है।
इस समय आप तीनों के पार्ट में - जैसे ब्रह्मा का पार्ट रचना का, विष्णु का पार्ट पालना का, शंकर का पार्ट विनाश का दिखाते हैं। है तो ड्रामानुसार, लेकिन हर एक के साथ विशेषता दिखाई है। तो अभी-अभी बाप देख रहे हैं तीनों का विशेष गुण, कौनसा वर्तमान पार्ट चल रहा है? आप कौन सी मूर्त्त हो? वर्तमान पार्ट के प्रमाण तीनों का विशेष पार्ट प्रेक्टीकल में है। यह (दादी) तो निमित्त सर्व के उमंग, उत्साह और सेवा की फील्ड में नया मोड़ लाने के निमित्त आधारमूर्त्त बन जा रही है। तो यह आधारमूर्त्त हो जा रही है, और आपका (दीदी) सभी विशेष यह देख रहे हैं कि कितनी उद्धारमूर्त्त हैं, जो एक में दो का जाना महसूस करती हैं। किसको निमित्त बनाना यह उद्धारमूर्त्त हैं। और यह (पर दादी) है उदाहरण दिखाया कि प्रेक्टीकल हम सब एक हैं। तो आधारमूर्त्त, उद्धारमूर्त्त और उदाहरणमूर्त्त। तीनों की विशेषता हुई ना।
इस समय प्रेक्टीकल पार्ट में ‘जनक’ का पार्ट सेवा की सचेली कौड़ी का चल रहा है। लंडन में दोनों ही सुदेश और जयन्ती सर्विस के निमित्त बनी हुई हैं। यह दोनों भी वर्तमान समय बहुत अच्छी स्टेज पर हैं। समझती हैं एक साथ अंगुली देकर सेवा को बढ़ाना ही है। इस समय अच्छी रफ्तार से सर्विस में मस्त आत्माएं दिखाई देती हैं। यह भी एक चारों ओर के वातावरण का प्रत्यक्ष रूप है। सबकी नज़र वहाँ है। अभी सबका शुभ संकल्प उस तरफ है। कुछ होने वाला है - वायुमण्डल का प्रभाव है। सुमन जर्मनी में है, उनको भी विशेष वरदान मिल गया है। क्योंकि उसने अपने को रियलाइज किया, तो रियलाइज का उनको वरदान मिल गया है। जो महसूस करता है तो उसका आधा तो खत्म हो जाता है। तो हल्कापन भी आ गया और दूसरा फिर सर्विस का लक्ष्य रखा है इसलिए विशेष वरदान मिल गया है जम्प लगाने का। क्योंकि सच्ची दिल से रियलाइज किया। रियलाइज करने वाला बहुत आगे बढ़ सकता है। सरकमटेंस (परिस्थितियाँ) ऐसी थीं, यह ऐसा था तब मेरा भी ऐसा था - उनको कोई रियलाइजेशन नहीं कहेंगे। उसने अपने आपको रियलाइज किया। दिल से स्वीकार किया, इसलिए उनको विशेष वरदान की लिफ्ट मिल गई। वरदान के कारण खुद भी नहीं समझती कि मैं कैसे सर्विस कर रही हूँ। समझती है, मेरे से जितना हो रहा है, रेसपांड मेरी स्टेज से ज्यादा मिल रहा है। इसलिए खुशी भी है। इस गुण के कारण उनको यह लिफ्ट मिला है। वह भी आगे बढ़ करके कमाल कर सकती है। लाईन क्लीयर होने से रफ्तार तेज हो सकती।
संकल्प की सिद्धि का प्रत्यक्ष प्रमाण कैसे होता है? संकल्प किया और सिद्ध हुआ। वृत्ति और स्मृति द्वारा सेवा कैसे हो उसके ऊपर कुछ रूह-रूहान की? समय प्रमाण वाणी के साथ-साथ संकल्प अर्थात् स्मृति और वृत्ति अर्थात् शुभभावना हो - इससे सर्विस बहुत अच्छी हो सकती है। क्योंकि सुना हुआ तो रिपीटेशन समझते हैं। जो ज्यादा सम्पर्क में आत्माएं हैं वह प्वाईन्ट को कामन समझती हैं। लेकिन नए रूप की सेवा का उन्हों को भी तरीका सिखाओ। जब तक स्वयं अनुभवी नहीं तो औरों को कोई नई ररूपरेखा चाहिए। नया अनुभव कराओ। संगठन में भी ऐसा सेवा का प्रोग्राम बनाकर कर सकते हो। विशेष लक्ष्य देकर बिठाओ। फिर उन्हों से अनुभव पूछो। बहुत अच्छा सुनायेंगे। जैसे वाणी द्वारा सेवा का बहुत अनुभव किया है - जो आप लोग की रचना है। अभी सर्विस में जो एडीशन चाहिए - वह है संकल्प और वृत्ति द्वारा। इसके लिए प्लान्स बनाओ। जब मजा आयेगा तब महसूस करेंगे कि हमारी नवीनता की चढ़ती कला है। जैसे साइंस वाले कोई न कोई इन्वेन्शन करने में बीजी रहते हैं, इसी प्रकार से जो पाइंट चल चुकी है उनकी गुह्यता में नए रूप की इन्वेन्शन करने के लिए अमृतवेले लक्ष्य ले बठेंगे तो टच होगा। नई-नई इन्वेन्शन निकलेंगी जिससे औरों को भी नवीनता का अनुभव होगा। अच्छा।
29-05-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
पुरूषार्थ की रफ्तार में रूकावट का कारण और उसका निवारण
सदा मर्यादा पुरूषोत्तम, सर्व खजानों को सफल करने वाले, सफलतामूर्त्त, बाप के आज्ञाकारी, श्रीमत पर चलने वाले आत्माओं प्रति बाबा बोले-
हरेक पुरुषार्थी यथा शक्ति पुरूषार्थ में चल रहे हैं - बाप-दादा भी हरेक पुरुषार्थी की रफ्तार को देखते, जानते हैं हरेक के सामने कौन से विघ्न आते हैं और कैसे लगन से विघ्न-विनाशक बनते हैं। कभी रूकते हैं, कभी दौड़ लगाते हैं, और कभी हाई जम्प (ऊँची छलांग) भी लगाते हैं। लेकिन रूकावटें क्यों आती हैं, जिसके कारण तीव्र पुरुषार्थी से पुरुषार्थी बन जाते हैं? चढ़ती कला की बजाए ठहरती कला में आ जाते हैं। मालिक वा मास्टर सर्वशक्तिवान के बजाए, उदास वा दास बन जाते हैं। कारण? बहुत छोटी-छोटी बातें हैं। जैसे उस दिन सुनाया, मूल बात मैजारिटी के सामने व्यर्थ संकल्पों का तूफान ज्यादा है।
व्यर्थ संकल्प आने का आधार है, शुभ संकल्प अर्थात् शुद्ध विचार, ज्ञान के खज़ाने की कमी। मिलते हुए भी यूज़ (USE) करना नहीं आता है। और जमा करना नहीं आता है। वा तो विधि नहीं आती, इस कारण वृद्धि नहीं होती। सुना अर्थात् मिला, लेकिन उसी समय अल्पकाल की खुशी, वा शक्ति का अनुभव करके, खत्म कर देते हैं। जैसे लौकिक रूप में कमाया और खाया, कुछ खाया कुछ उड़ाया। इसी रीति से धारणा शक्ति की कमजोरी होने कारण, विधि स्ो वृद्धि न करने कारण सदा स्वयं को ज्ञान और शक्तियों के खज़ाने से खाली अनुभव करते हैं। इसलिए निरन्तर शक्तिशाली नहीं बन पाते हैं। निरन्तर हर्षित नहीं रह सकते। कमज़ोर होने के कारण, माया के विघ्नों के वशीभूत वा माया के दास बन जाते हैं। साथ-साथ अन्य आत्माओं को सम्पन्न देखते हुए, स्वयं उदास हो जाते हैं। ज्ञान का खजाना जमा करना, श्रेष्ठ समय का खजाना जमा करना, वा स्थूल खज़ाने को, एक से लाख गुणा बनाना अर्थात् जमा करना, इन सब खजानों को जमा करने का मुख्य साधन है - स्वच्छ अर्थात् हमारे बुद्धि और सच्छी दिल। प्योर बुद्धि का आधार है बुद्धि द्वारा बाप को जान, बुद्धि को भी बाप के आगे समर्पण करना। समर्पण करना अर्थात् मेरापन मिटाना। ऐसे बद्धि को समर्पण किया है? शुद्रपन की बुद्धि समर्पण करना अर्थात् देना। तो देने के साथ दिव्य बुद्धि का लेना है। देना ही लेना है। जैसा सौदा करते हैं, तो देकर फिर लेते हैं ना। पैसा देना, वस्तु लेना। वैसे यहाँ भी देना ही लेना है। पहले सब कुछ देना है। कैसे? शुभ संकल्प द्वारा। सब कुछ बाप का है, मेरा नहीं। मेरेपन का अधिकार छोड़ना, इसी को ही समर्पण कहा जाता है। इसी को ही नष्टोमोहा स्टेज कहा जाता है। स्मृति स्वरूप न होने का कारण, वा व्यर्थ संकल्प चलने का कारण, उदास वा दास बनने का कारण, मेरेपन से नष्टोमोहा नहीं हैं। मेरेपन का विस्तार बहुत है। बाप-दादा भी सारा दिन सभी बच्चें का, विशेष देने की चतुराई का खेल देखते रहते हैं। अभी-अभी देंगे, अभी-अभी फिर वापिस ले लेंगे। अभी-अभी मुख से कहेंगे-मेरा कुछ नहीं, लेकिन मन्सा में अधिकार रखा हुआ है। अधिकार अर्थात् लगाव। कभी कर्म से देकर वाणी से वापिस ले लेते। चतुराई यह करते हैं कि नए के साथ पुराना भी अपने पास रखना चाहते हैं। कहलाते हैं ट्रस्टी, लेकिन प्रेक्टीकल (Practical;व्यवहार) हैं गृहस्थी। तो व्यर्थ संकल्प मिटाने का आधार है, गृहस्थीपन छोड़ना। चाहे कुमारी है वा कुमार है लेकिन, मेरा स्वभाव, मेरा संस्कार, मेरी बुद्धि यह विस्तार गृहस्थीपन है। जो समर्पण हो गए तो जो बाप का स्वभाव, वह आपका स्वभाव। जो बाप का संस्कार, वह आपके संस्कार। जैसे बाप की दिव्य बुद्धि, वैसे आपकी। तो दिव्य बुद्धि में स्मृति न रहे, यह नहीं हो सकता। एक घंटे की अवस्था भी चेक करो तो सदैव संकल्पों का आधार कोई न कोई मेरापन ही होगा। मेरेपन की निशानी सुनाई लगाव।
लगाव की भी स्टेजस (Stages;अवस्थाएं) हैं। एक है सूक्ष्म लगाव, जिसको सूक्ष्म आत्मिक स्थिति में स्थित होकर ही जान सकते हैं। दूसरे हैं स्थूल रूप के लगाव, जिसको सहज जान सकते हो। सूक्ष्म लगाव का भी विस्तार बहुत है। बिना लगाव के, बुद्धि की आकर्षण वहाँ तक जा नहीं सकती। वा बुद्धि का झुकाव वहाँ जा नहीं सकता। तो लगाव की चैकिंग हुई झुकाव। चाहे संकल्प में हो, वाणी में हो, कर्म में हो, सम्बन्ध में हो, सम्पर्क में हो, न चाहते हुए भी समय उस तरफ लगेगा जरूर। इस कारण व्यर्थ संकल्प का मूल कारण है - लगाव। इसको चैक करो। जिन बातों को आप नहीं चाहते हो, वह भी व्यर्थ संकल्पों के रूप में डिस्टर्ब (Disturb;दखल) करती हैं। इसका भी कारण, पुराने स्वभाव और संस्कारों में मेरेपन की कमी है। जब तक मेरा स्वभाव, मेरा संस्कार है, तो वह खीचेंगे। जैसे मेरी रचना, रचता को खेंचती है, वैसे मेरा स्वभाव संस्कार रूपी रचना आत्मा रचता को अपनी तरफ खींचेंगे। मेरा नहीं, यह शूद्रपन का संस्कार है, शूद्रपन के संस्कार को मेरा कहना, यह महापाप है, चोरी भी है और ठगी भी है। शूद्रों की चीज़ अगर ब्राह्मण चोरी करते, अर्थात् मेरा कहते, तो यह महापाप हुआ। और बाबा! यह सब कुछ आपका है, ऐसे कहकर फिर मेरा कहना, यह ठगी है। और इसी प्रकार के पाप होने से, पापों का बोझ बढ़ते जाने से, बुद्धि ऊँची स्टेज पर टिक नहीं सकती। इस कारण व्यर्थ संकल्पों के नीचे की स्टेज पर बार-बार आना पड़ता है। और फिर चिल्लाते हैं कि क्या करें?
व्यर्थ संकल्पों का दूसरा कारण है सारे दिन की दिनचर्या में मन्सा, वाचा, कर्मणा जो बाप द्वारा मर्यादाओं सम्पन्न श्रीमत है, उसका किसी न किसी रूप से उल्लंघन करते हो। आज्ञाकारी से अवज्ञाकारी बन जाते हो। मर्यादाओं की लकीर से मन्सा द्वारा भी अगर बाहर निकलते, तो व्यर्थ संकल्प रूपी रावण, वार कर सकता है। तो यह भी चैकिंग करो, संकल्प द्वारा, वाणी, कर्म, सम्बन्ध, सम्पर्क द्वारा ब्राह्मणों की नीति और रीति को उल्लंघन तो नहीं करते हैं? अवश्य कोई नीति व रीति मिस (Miss;गुम) है तब बुद्धि में व्यर्थ संकल्प मिक्स (Mix;मिश्रित) होते हैं। समझा दूसरा कारण? इसलिए चैकिंग अच्छी तरह होनी चाहिए। तब व्यर्थ संकल्पों की निवृत्ति हो सकती है। सारा दिन बाप द्वारा जो शुद्ध प्रवृत्ति मिली हुई है, बुद्धि की प्रवृत्ति है शुद्ध संकल्प करना, वाणी की प्रवृत्ति है जो बाप द्वारा सुना वह सुनाना, कर्म की प्रवृत्ति है कर्मयोगी बन हर कर्म करना, कमल समान न्यारा और प्यारा बन रहना, हर कर्म द्वारा बाप के श्रेष्ठ कार्यों को प्रत्यक्ष करना तथा हर कर्म चरित्र रूप से करना। चतुराई नहीं लेकिन चरित्र, वह भी दिव्य चरित्र। सम्पर्क में प्रवृत्ति है निमित्त स्वयं सम्पर्क में आते सदा सर्व का जो बाप है, उससे सम्पर्क कराना। त् ऐसी पवित्र प्रवृत्ति में बिजी रहने से व्यर्थ संकल्पों से निवृत्ति होगी। वह लोग कहते हैं प्रवृत्ति से निवृत्ति। बाप कहते हैं ‘पवित्र प्रवृत्ति से ही निवृत्ति हो।’ गृहस्थी अलग है - उनको गृहस्थी नहीं कहेंगे। पवित्र प्रवृत्ति को ट्रस्टी कहेंगे न कि गृहस्थी। तो समझा निवृत्ति का आधार पवित्र प्रवृत्ति है। अच्छा।
सदा मर्यादा पुरूषोत्तम, सर्व खजानों को सफल करने वाले, सफलतामूर्त्त, व्यर्थ को समर्थ में परिवर्तन करने वाले, ऐसे बाप के आज्ञाकारी, सदा श्रीमत पर चलने वाले बच्चों को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
पार्टियों के साथ-
शक्तियाँ अपना जलवा दिखाएंगी, पाण्डव साथ देंगे। शक्तियों को आगे रखना अर्थात् स्वयं आगे होना। उन्हों को आगे रखने से आपका नाम बाला हो जाएगा। जो त्याग करता उसका भाग्य ऑटोमेटिकली जमा हो जाता है। शक्तियाँ शस्त्रधारी हो? शस्त्रं से थक तो नहीं जाती? शस्त्रधारी शक्तियों का ही पूजन होता है। तो आप सभी पूज्य हो? पूज्य अर्थात् शस्त्रधारी। अगर किसी भी समय शस्त्र छोड़ देती तो उस समय पूज्य नहीं। शक्ति रूप नहीं तो कमज़ोर हो। कमज़ोर की पूजा नहीं होती। पूज्य अर्थात् सदा पूज्य - ऐसे नहीं, कभी पूज्य कभी कमज़ोर। तो शस्त्र सदा कायम रहते हैं? जब अपने को गृहस्थी समझते तब गृहस्थी का जाल होता। गृहस्थी बनना अर्थात् जाल में फँसना। ट्रस्टी अर्थात् मुक्त। सदा यही स्मृति रखो कि हम पूज्य हैं।
कैसा भी कोई परिवर्तन आवे, उसमें विजयी होने कारण राजी रहते। कभी बच्चों आदि से नाराज तो नहीं होती? जब कहते हो बच्चे, तो बच्चे अर्थात् बेसमझ। बच्चे अर्थात् चंचल, जब हैं ही चंचल स्वभाव, बेसमझ तो उनसे नाराज क्यों होते? जब राज को जानते हैं कि कलियुगी बच्चे हैं, तमोगुणी पैदाइश है, जरूर चंचल होंगे। जैसी मिट्टी वैसा ही मटका बनेगा। मिट्टी गर्म है तो पानी ठण्डा हो - यह हो कैसे सकता? तो नाराज होना अर्थात् ज्ञानवान नहीं। राज को नहीं जानते। अगर योगयुक्त होकर उन्हें शिक्षा दो तो वह परिवर्तन हो जाएंगे। नाराज नहीं होना है।
सारा दिन संकल्प, बोल और कर्म बाप के याद और सेवा में ही लगे रहते हैं? हर संकल्प बाप की याद व सेवा। ऐसे ही हर बोल द्वारा बाप की याद दिलाना या दिया हुआ खजाना दूसरों को देना। कर्म द्वारा भी बाप के चरित्रों को सिद्ध करना। तो ऐसे याद और सेवा में सदैव रहते हो? अगर याद और सेवा इन दोनों में सदा बिजी रहो तो माया आ सकती है? अगर याद और सेवा को भूलते तो माया का गेट (Gate;द्वार) खोल देते हैं। तो यह गेट नहीं खोलो। विस्मृति अर्थात् माया का गेट खोलना, स्मृति अर्थात् पक्का गाडरेज का लॉक लगाना। याद और सेवा की स्मृति डबल लॉक है। डबल लॉक लगायेंगे तो माया कभी नहीं आ सकती। अगर सिंगल लॉक सिर्फ याद का लगाते, सेवा नहीं तो भी माया आ जायेगी। ब्राह्मण जीवन ही है याद और सेवा। तो जीवन का कार्य कोई भूलता है क्या? अगर भूलते तो माया से धोखा खाते। धोखा खाने से दु:ख की लहर आती। तो डबल लॉक सदैव बन्द रखना। इससे सदा सेफ रहेंगे, खुश रहेंगे, सन्तुष्ट रहेंगे।
सदा हर कदम श्रीमत पर उठाने वाले श्रेष्ठ आत्मा अपने को समझते हो? हर कदम श्रीमत पर है या मनमत पर है? उसकी परख जानते हो? परखने का साधन क्या है? श्रीमत और मनमत को परखने का साधन यही है कि अगर श्रीमत पर कदम होगा तो कभी भी अपना मन असन्तुष्ट नहीं होगा। मन में किसी प्रकार की हलचल नहीं होगी। स्वत: श्रीमत पर चलने से नैचुरल (Natural;वास्तविक) खुशी रहेगी। जैसे कोई अच्छा कर्म किया जाता तो उसकी स्वत: अन्दर से खुशी होती है। बुरा काम किया जाता तो अन्दर से मन जरूर खाता है - चाहे बाहर से बोले नहीं। मनमत पर चलने वाले के मन में हलचल होगी। श्रीमत पर चलने वाला सदा हल्का और खुश होगा। इससे परख सकते हो कि श्रीमत पर हूँ या मनमत पर हूँ? - यह थर्मामीटर है। जब भी मन में हलचल हो, जरा सी खुशी का परसेन्टेज कम हो तो चेक करो - जरूर कोई श्रीमत की अवज्ञा होगी। सदा चैकिंग और चेन्ज। चैकिंग का अर्थ है चेन्ज करना। चैकिंग और चेन्ज यह दोनों ही शक्तियाँ चाहिए। मगर दोनों में से एक की भी कमी है तो संतुष्ट नहीं रह सकते। न स्वयं संतुष्ट रहेंगे न औरों को संतुष्ट कर सकेंगे। ‘चेन्ज होने की शक्ति तब आएगी जब सहनशक्ति होगी। बुद्धि की लाइन क्लीयर होने से परख शक्ति आएगी।’ अच्छा।
31-05-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
विश्व-कल्याण करने का सहज साधन है - श्रेष्ठ संकल्पों की एकाग्रता
मास्टर सर्वशक्तिवान, सदा मायाजीत सो जगतजीत, सदा ज्ञानस्वरूप, शक्तिस्वरूप स्थिति में स्थित रहने वाले, विजयी रत्नों प्रति बाबा बोले-
अपने निराकारी और साकारी दोनों स्थितियों को अच्छी तरह से जान गए हो? दोनों ही स्थितियों में स्थित रहना सहज अनुभव होता है, वा साकार स्थिति में स्थित रहना सहज लगता है और निराकारी स्थिति में स्थित होने में मेहनत लगती है? संकल्प किया और स्थित हुआ। सैकंड का संकल्प जहाँ चाहे वहाँ स्थित कर सकता है। संकल्प ही ऊँच ले जाने और नीचे ले आने की रूहानी लिफ्ट है जिस द्वारा चाहे तो सर्व श्रेष्ठ अर्थात् ऊँची मंजिल पर पहुँचो अर्थात् निराकारी स्थिति में स्थित हो जाओ, चाहे आकारी स्थिति में स्थित हो जाओ, चाहे साकारी स्थिति में स्थित हो जाओ। ऐसी प्रैक्टिस अनुभव करते हो? संकल्प की शक्ति को जहाँ चाहो वहाँ लगा सकते हो? क्योंकि आत्मा मालिक है इन सूक्ष्म शक्तियों की। मास्टर सर्वशक्तिवान अर्थात् सर्वशक्तियों को जब चाहें, जहाँ चाहें, जैसे चाहें वैसे कार्य में लगा सकते हैं। ऐसा मालिकपन अनुभव करते हो? संकल्प को रचने वाले रचता, स्वयं को अनुभव करते हो? रचना के वशीभूत तो नहीं होते हो? ऐसा अभ्यास है जो एक सेकेण्ड में जिस स्थिति में स्थित होने का डायरेक्शन (Direction) मिले उसी स्थिति में सेकेण्ड में स्थित हो जाओ - ऐसी प्रैक्टिस है? वा युद्ध करते ही समय बीत जायेगा? अगर युद्ध करते हुए समय बीत जाए, स्वयं को स्थित न कर सको तो उसको मास्टर सर्वशक्तिवान कहेंगे वा क्षत्रिय कहेंगे? क्षत्रिय अर्थात् चन्द्रवंशी।
वर्तमान समय विश्व-कल्याण करने का सहज साधन अपने श्रेष्ठ संकल्प के एकाग्रता द्वारा, सर्व आत्माओं की भटकती हुई बुद्धि को एकाग्र करना है। सारे विश्व की सर्व आत्माएं विशेष यही चाहना रखती हैं कि भटकी हुई बुद्धि एकाग्र हो जाए वा मन चंचलता से एकाग्र हो जाए। यह विश्व की मांग वा चाहना कैसे पूर्ण करेंगे? अगर स्वयं ही एकाग्र नहीं होंगे, तो औरों को कैसे कर सकेंगे? इसलिए एकाग्रता, अर्थात् सदा एक बाप दूसरा न कोई, ऐसे निरन्तर एक रस स्थिति में स्थित होने का विशेष अभ्यास करो। उसके लिए जैसे सुनाया था, एक तो व्यर्थ संकल्पों को शुद्ध संकल्पों में परिवर्तन करो। दूसरी बात, माया के आने वाले अनेक प्रकार के विघ्नों को अपनी ईश्वरीय लगन के आधार से सहज समाप्त करते, कदम को आगे बढ़ाते चलो। विघ्नों से घबराने का मुख्य कारण कौनसा है? जब भी कोई विघ्न आता है, तो विघ्न आते हुए यह भूल जाते हो कि बाप-दादा ने पहले से ही यह नॉलेज दे दी है कि लगन की परीक्षा में यह सब आयेंगे ही। जब पहले से ही मालूम है कि विघ्न आने ही हैं, फिर घबराने की क्या जरूरत? नई बात क्यों समझते हो?
माया क्यों आती है? व्यर्थ संकल्प क्यों आते हैं? बुद्धि क्यों भटकती है? वातावरण क्यों प्रभाव डालता है? सम्बन्धी साथ क्यों नहीं देते हैं? पुराने संस्कार अब तक क्यों इमर्ज होते हैं? यह सब क्वेश्चन (Question;प्रश्न) विघ्नों को मिटाने के बजाए, बाप की लगन से हटाने के निमित्त बन जाते हैं। क्या यह बाप के महावाक्य भूल जाते हो कि जितना आगे बढ़ेंगे उतना माया भिन्न-भिन्न रूप से परीक्षा लेने के लिए आयेंगी। लेकिन परीक्षा ही आगे बढ़ाने का साधन है न कि गिराने का। क्योंकि कारण के निवारण के बजाए कारण सोचने में समय गंवा देते हो। शक्ति गंवा देते हो। कारण की बजाए निवारण सोचो और निर्विघ्न हो जाओ। क्यों आया? नहीं, लेकिन यह तो आना ही है - इस स्मृति में रहने से, समर्थी स्वरूप हो जाएंगे।
दूसरी बात, छोटे से विघ्नों को, क्यों के क्वेश्चन उठने से व्यर्थ संकल्पों की क्यू (Queue;कतार) लग जाती है, और उसी क्यू को समाप्त करने में काफी समय लग जाता है। इसलिए मुख्य कमज़ोरी है, जो ज्ञान स्वरूप अर्थात् नॉलेजफुल स्थिति में स्थित होते हुए, विघ्नों को पार नहीं कर पाते हैं। ज्ञानी हो, लेकिन ज्ञान-स्वरूप होना है।
वातावरण प्रभाव क्यों डालता है? उसका भी कारण? अपने पॉवरफुल वृत्ति द्वारा वायुमण्डल को परिवर्तन करने वाले हैं, यह स्मृति भूल जाते हो। जब कहते ही हो विश्वपरिवर्त क हैं तो विश्व के परिवर्तन में वायुमंडल को भी परिवर्तन करना है। अशुद्ध को ही शुद्ध बनाने के लिए निमित्त हो। फिर यह क्यों सोचते हो कि वायुमण्डल ऐसा था, इसलिए कमज़ोर हो गया। जब है ही कलियुगी, तमोप्रधान, आसुरी सृष्टि, उसमें वातावरण अशुद्ध न होगा तो क्या होगा? तमोगुणी सृष्टि के बीच रहते हुए, वातावरण को परिवर्तन करना, यही ब्राह्मणों का कर्त्तव्य है। कर्त्तव्य की स्मृति में रहने से अर्थात् रचतापन की स्थिति में स्थित रहने से, वातावरण अर्थात् रचना के वश नहीं होंगे। तो जो सोचना चाहिए कि परिवर्तक होके परिवर्तन कैसे करूँ, इस सोचने के बजाए यह सोचने लग जाते कि वातावरण ऐसा है इसलिए कमज़ोर हो गया हूँ, वातावरण बदलेगा तो मैं बदलूंगी, वातावरण अच्छा होगा तो स्थिति अच्छी होगी। लेकिन वातावरण को बदलने वाला कौन? यह भूल जाते हो। इस कारण थोड़े से वातावरण का प्रभाव पड़ जाता है।
और क्या कहते कि सम्बन्धी नहीं सुनते वा संग अच्छा नहीं है, इस कारण शक्तिशाली नहीं बनते। बाप-दादा ने तो पहले से ही सुना दिया है कि हर आत्मा का अपना-अपना अलग-अलग पार्ट है। कोई सतोगुणी, कोई रजोगुणी, कोई तमोगुणी। जब वैरायटी आत्माएं हैं और वैरायटी ड्रामा है, तो सब आत्माओं को एक जैसा पार्ट हो नहीं सकता। अगर किसी आत्मा का तमोगुणी अर्थात् अज्ञान का पार्ट है, तो शुभ भावना और शुभकामना से उन आत्मा को शान्ति और शक्ति का दान दो। लेकिन उसी अज्ञानी के पार्ट को देख, अपनी श्रेष्ठ स्थिति के अनुभव को भूल क्यों जाते हो? अपनी स्थिति में हलचल क्यों करते हो? साक्षी हो पार्ट देखते हुए, जो शक्ति का दान देना है, वह दो। लेकिन घबराओ मत। अपने सतोप्रधान पार्ट में स्थित रहो। तमोगुणी आत्मा के संग के रंग का प्रभाव पड़ने का कारण है - सदा बाप के श्रेष्ठ संग में नहीं रहते। सदा श्रेष्ठ संग में रहने वाले के ऊपर और कोई संग का रंग प्रभाव नहीं डाल सकता। तो निवारण का सोचो। और क्या कहते, हमारे सम्बन्धी के बुद्धि का ताला खोलो। बाप ने सर्व आत्माओं की बुद्धियों का ताला खोलने की चाबी बच्चों को पहले से ही दे दी है। तो चाबी को युज क्यों नहीं करते हो? अपना कार्य भूलने कारण, बाप को भी बार-बार याद दिलाते हो कि ताला खोलना वा बुद्धि को परिवर्तन करना। बाप तो सर्व आत्माओं रूपी बच्चों के प्रति सदा विश्व-कल्याणकारी हैं ही। फिर बार-बार क्यों याद दिलाते हो? बाप को अपने समान भूलने वाले समझते हो क्या? कहने की भी आवश्यकता नहीं। जितना आपको अपने हद के पार्ट के सम्बन्ध का ख्याल है, बाप तो सदा बच्चे के सम्बन्ध में रहने वाले, तो बाप बच्चों को भूल नहीं सकता। लेकिन बाप जानते हैं कि हरेक आत्मा का, कोई अपना समय-समय का पार्ट है, कोई का आदि में पार्ट है, कोई का मध्य में, कोई का अन्त में पार्ट है, कोई का भक्ति का पार्ट है, कोई का ज्ञान का पार्ट है। इसलिए बार-बार यह चिन्तन मत करो, ताला कब खुलेगा? लेकिन ताला खोलने का साधन है - अपने मन्सा संकल्प द्वारा सेवा, अपनी वृत्ति द्वारा वायुमण्डल को परिवर्तन करने की सेवा। अपने जीवन के परिवर्तन द्वारा आत्माओं को परिवर्तन करने की सेवा की फर्ज अदाई निभाते चलो। अभी बार-बार यह नहीं बोलना कि ताला खोलो। अपना ताला खोला, तो उनका खुल ही जायेगा। मुख्य तीन बातें बार-बार लिखते और कहते हो - योग क्यों नहीं लगता? ताला क्यों नहीं खुलता? और माया क्यों आती है? सोचते बहुत हो, इसलिए माया को भी मजा आता है। जैसे मल्ल युद्ध में भी अगर थोड़ा सा भी गिरने लगता है तो दूसरे को मजा आता है और गिराकर ऊपर चढ़ने का। तो जब यह सोचते हो माया आ गई। माया क्यों आई? तो माया घबराया हुआ देख, और वार कर लेती है। इसलिए सुनाया माया आनी ही है। माया का आना अर्थात् विजयी बनाने के निमित्त बनना। शक्तियों की प्राप्ति को अनुभव में लाने के लिए निमित्त कारण माया बनती है। अगर दुश्मन न हो तो विजयी कैसे कहा जायेगा? विजयी रत्न बनाने के निमित्त यह माया के छोटे-छोटे रूप हैं। इसलिए मायाजीत समझ, विजयी रत्न समझ, माया पर विजय प्राप्त करो। समझा? मास्टर सर्व शक्तिवान, कमज़ोर मत बनो, माया को चैलेन्ज करने वाले बनो। अच्छा।
सदा मायाजीत सो जगतजीत, वातावरण को अपनी समर्थ वृत्ति से सतो प्रधान बनाने वाले, अपने श्रेष्ठ बाप के संग से अनेक मायावी संगदोष से पार रहने वाले, सदा ज्ञानस्वरूप, शक्तिस्वरूप में स्थित रहने वाले, ऐसे सदा विजयी रत्नों को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
पार्टियों से-
संगमयुग का बड़े ते बड़ा खजाना कौनसा है? सबसे बड़े ते बड़ा खजाना है-’अति इन्द्रिय सुख’, जो किसी भी युग में प्राप्त नहीं हो सकता। सतयुग में भी अति इन्द्रिय सुख का वर्णन नहीं करेंगे। यह अति इन्द्रिय सुख अब का ही खजाना है। इस खज़ाने का अनुभव है? जो सबसे बढ़िया चीज़ होती, या अच्छी लगती उसको कभी भूला नहीं जाता। अति इन्द्रिय सुख बड़े ते बड़ा और अच्छे ते अच्छा खजाना है तो सदा याद रहना चाहिए। याद अर्थात् अनुभव में आना। जो इस अनुभव में रहेंगे वह इन्द्रियो के सुख में नहीं होंगे। जो सदा अति इन्द्रिय सुख में नहीं रहते वह इन्द्रियो के सुख की तरफ आकर्षित हो जाते। इन्द्रियों के सुख के अनुभवी तो हो ना। उस अल्पकाल के सुख में भी दु:ख भरा हुआ है। जैसे आजकल कड़वी दवाई के ऊपर मीठा बोर्ड लगा देते। तो यह इन्द्रियों का सुख, दिखाई सुख देता लेकिन है क्या? जब समझते हो दु:ख है फिर उनकी आकर्षण में क्यों आते?
सदा अपने को विशेष पार्टधारी समझ पार्ट बजाते हो? जो विशेष पार्टधारी होते हैं उनकी हर एक्ट विशेष होती है। तो आपका भी हर कर्म के ऊपर इतना अटेंशन है? कोई भी कर्म साधारण न हो। साधारण आत्मा जो भी कर्म करेगी वह देह अभिमान से। विशेष आत्मा देही अभिमानी बन कर्म करेगी। देही अभिमानी बन पार्ट बजाने वाले की रिजल्ट क्या होगी? वह स्वयं भी सन्तुष्ट और सर्व भी उनसे संतुष्ट होंगे। जो अच्छा पार्ट बजाते तो देखने वाले वंस मोर (Once More;एक बार और) करते। तो सर्व का संतुष्ट रहना अर्थात् वंस मोर करना। सिर्फ स्वयं से संतुष्ट रहना बड़ी बात नहीं लेकिन ‘स्वयं संतुष्ट रहकर दूसरों को भी सन्तुष्ट करना’ - यह है पूरा सलोगन। वह तब हो सकता जब देही अभिमानी होकर विशेष पार्ट बजाओ। ऐसा पार्ट बजाने में मजा आएगा, खुशी भी होगी।
सदा स्वयं के श्रेष्ठ स्वमान मास्टर सर्वशक्तिवान के स्मृति में रहते हो? सबसे श्रेष्ठ स्वमान कौनसा है? मास्टर सर्वशक्तिवान। जैसे कोई बड़ा ऑफिसर वा राजा होता, जब वह स्वमान की सीट पर स्थित होता तो दूसरे भी उसे सम्मान देते। अगर स्वयं सीट पर नहीं तो उसका ऑडर्र कोई नहीं मानेगा। तो ऐसे ही जब तक आप अपने स्वमान की सीट पर नहीं तो माया भी आपके आगे सरेन्डर नहीं हो सकती। क्योंकि वह जानती है, यह सीट पर सेट नहीं है। सीट पर सेट होना अर्थात् स्वयं को मास्टर सर्वशक्तिवान समझना।
संगमयुग ही प्रत्यक्ष फल देने वाला है। सतयुग में संगमयुग का ही फल चलता रहता। संगम पर एक का सौ गुणा भर करके प्रत्यक्ष फल मिलता है। सिर्फ एक बार संकल्प किया - ‘मैं बाप का हूँ’ तो अनेक जन्म एक संकल्प के आधार पर फल प्राप्त होता रहता है। एक बार संकल्प किया - ‘मैं मास्टर सर्वशक्तिवान हूँ’ तो मायाजीत बनने के, विजयी बनने के नशे का अनुभव होगा। प्रत्यक्षफल संगमयुग पर ही अनुभव होता। जैसे बीज बोया जाता तो फल मिलता है ना। ऐसे संकल्प करना वा पुरूषार्थ करना यह है बीज और उसका फल, एक का पद्म गुणा मिल जाता। तब तो संगम की महिमा है। सब से बड़े ते बड़ा संगमयुग का फल है, जो स्वयं बाप प्रत्यक्ष रूप में मिलता। परमात्मा भी साकार रूप में, साकार मनुष्य रूप में मिलने आता। इस फल में और सब फल आ जाते। अच्छा।
02-06-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
सर्व आत्माओं के आधार मूर्त्त, उद्धार मूर्त्त और पूर्वज ‘‘ब्राह्मण सो देवता है’’
सदा अपने पूर्वज की पोजीशन में स्थित रहनेवाले, सर्व के आधार मूर्त्त आत्माओं प्रति अव्यक्त बाप-दादा बोले:-
बापदादा चारों ओर के बच्चों को उन्हों के विशेष दो रूपों से देख रहे हैं। वह दो रूप कौनसे हैं, जानते हो? वह दो रूप हैं - एक सर्व के पूर्वज, दूसरा सर्व के पूजनीय। पूर्वज और पूजनीय! पूजन के साथ-साथ गायन योग्य तो हैं ही। ऐसे अपने दोनों की स्मृति रहती है कि हम ही सर्व धर्म स्थापक व सर्व धर्म की आत्माओं के पूर्वज हैं? ‘ब्राह्मण सो देवता’ अर्थात् आदि सनातन धर्म की आत्माएं बीज अर्थात् बाप द्वारा डायरेक्ट तना के रूप में हैं। सृष्टि वृक्ष के चित्र में भी आपका स्थान कहां है? मूल स्थान है ना। तो मूल तना, जिस द्वारा ही सर्व धर्म रूपी शाखाएं उत्पन्न हुई हैं। तो मूल आधार अर्थात् सर्व के पूर्वज ‘ब्राह्मण सो देवता’ हैं, ऐसे पूर्वज अर्थात् आदि देव द्वारा आदि रचना हो। हर एक को अपने पूर्वज का रिगार्ड और स्नेह रहता है। हर कर्म का आधार, कुल की मर्यादाओं का आधार, रीति-रस्म का आधार, पूर्वज होते हैं। तो सर्व आत्माओं के आधार मूर्त्त और उद्धार मूर्त्त आप पूर्वज हो। ऐसे अपने श्रेष्ठ स्वमान में स्थित रहते हो?
पूर्वज का स्वमान होने के कारण पूर्वजों के स्थान का भी स्वमान हैं। किसी भी धर्म वाले न जानते हुए भी भारत भूमि अर्थात् पूर्वजों के स्थान को महत्व की नज़र से देखते हैं। साथ-साथ सर्व महान् प्राप्तियों का आधार सहजयोग वा किसी भी प्रकार का योग वा आध्यात्मिक शक्ति की प्राप्ति का केन्द्र भारत को ही मानते हैं। भारत के यादगार गीता शास्त्र को भी सर्व शास्त्रों के श्रेष्ठ स्वमान का शास्त्र मानते हैं। साइंस और साइलेन्स दोनों को प्रेरणा देने वाले गीता शास्त्र को मानते हैं। अपने पूर्वजों का चित्र और चारित्र देखने और सुनने की मन में इच्छा उत्पन्न होती है। पूरी पहचान न होने का कारण, स्मृति न होने का कारण, इच्छा होते हुए भी धर्म और देश की भिन्नता होने कारण, इतने समीप नहीं आ पाते हैं। इन सब बातों का कारण, उन सबके पूर्वज आप हो। जैसे लौकिक रीति में भी अपने पूर्वजों की भूमि अर्थात् स्थान से, चित्रों से, वस्तुओं से, बहुत स्नेह होता है, ऐसे ही जाने अनजाने भारत की पुरानी वस्तुओं और पुराने चित्रों का मूल्य और धर्म वालों को अब तक भी है।
ऐसे निमित्त बने हुए पूर्वज आत्माएं सदा यह महामंत्र याद रखते हैं कि जो इस समय अपना संकल्प अर्थात् मन्सा, वाचा और कर्मणा द्वारा कर्म व संकल्प चलता है वह सर्व आत्माओं तक पहुँचता है? तना द्वारा ही सर्व शाखाओं को शक्ति प्राप्त होती है। ऐसे आप आत्माओं द्वारा ही सर्व आत्माओं को श्रेष्ठ संकल्पों की शक्ति वा सर्वशक्तियों की प्राप्ति ऑटोमेटीकली होती रहती है। इतना अटेंशन रहता है? पूर्वज को ही सब फॉलो करते हैं। तो जो संकल्प, जो कर्म आप करेंगे उसको स्थूल वा सूक्ष्म रूप में सब फॉलो करते हैं। इतनी बड़ी जिम्मेवारी समझते हुए संकल्प व कर्म करते हो? आप पूर्वज आत्माओं के आधार से सृष्टि का समय और स्थिति का आधार है। जैसे आप सतो प्रधान हैं। गोल्डन एज प्रकृति वा वायुमंडल सारे विश्व का सतो प्रधान है। तो समय और स्टेज का आधार, प्रकृति का आधार आप पूर्वज के ऊपर है। ऐसे नहीं समझो कि हमारे कर्म का आधार सिर्फ अपने कर्म के हिसाब से प्रालब्ध प्रति है। लेकिन पूर्वज आत्माओं के कर्मों की प्रालब्ध स्वयं के साथ-साथ सर्व आत्माओं के और सृष्टि चक्र के साथ सम्बन्धित हैं। ऐसे महान आत्माएं हो? ऐसी स्मृति में रहने से सदा स्वत: ही अटेंशन रहेगा। किसी भी प्रकार का अलबेलापन नहीं आयेगा। साधारण वा व्यर्थ संकल्प वा कर्म नहीं होगा। सदा इस श्रेष्ठ पाज़ीशन में रहो। आपकी पोज़ीशन के आगे माया नमस्कार करेगी। पांच विकार और पांच तत्व आपके आगे दास रूप में बन जायेंगे। और आप पांच विकारों को ऑर्डर करेंगे कि आधा कल्प के लिए विदाई ले जाओ। प्रकृति सतो प्रधान सुखदाई बन जायेगी। अगर पूर्वज की पोजीशन से संकल्प द्वारा आर्डर करेंगे तो वह न माने, यह हो नहीं सकता। अर्थात् प्रकृति परिवर्तन में न आए व पांच विकार विदाई न लें, यह हो नहीं सकता। समझा! ऐसा श्रेष्ठ स्वमान बाप चारों ओर के महावीर बच्चों को दे रहे हैं। नम्बरवार तो सब हैं ही। अच्छा।
ऐसे सर्व के आधार मूर्त्त, माया और प्रकृति के भी बन्धनों से मुक्त, सदा अधिकारी सदा अपने पूर्वज की पोजीशन में स्थित रहने वाले, अपने हर संकल्प और कर्म द्वारा सर्व आत्माओं को श्रेष्ठ और शक्तिशाली बनाने के निमित्त समझने वाले, ऐसे मास्टर रचता, मास्टर सर्वशक्तिवान, नॉलेजफुल आत्माओं को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
निर्मलशान्ता दादी जी से
स्वयं को पूर्वज समझती हो? अभी विदेश में भी जो निमित्त दादी गई है लेकिन किस लिए गई है? सर्व धर्म वालों को अपने पूर्वज की नज़र से देखेंगी। भासना आएगी, वायब्रेशन आयेगी कि यह आत्माएं हमारे सम्बन्धी हैं। हमारे हैं। लेकिन कैसे हैं, वह जब सम्पर्क में आयेंगे तो समझ सकेंगे। लेकिन वायब्रेशन जरूर आयेगा। हर स्थान पर ऊँची नज़र से ऊँच आत्माओं की भावना से वायब्रेशन द्वारा, दृष्टि द्वारा कुछ प्राप्त हो जाए, इस भावना से देखेंगे। और देख भी रहे हैं। जैसे बादलों के बीच छिपा हुआ चाँद आकर्षित कर रहा है। ऐसे बहुत श्रेष्ठ वस्तु वा श्रेष्ठ व्यक्ति हैं ऐसे अनुभव करेंगे। लेकिन नॉलेज न होने के कारण बादलों के बीच में अभी अनुभव करेंगे। बादलों के बीच थोड़ी किरणें थोड़ी शीतलता नज़र आयेगी और आकर्षण होंगे स्पष्ट पाने लिए। तो पूर्वजों की प्रत्यक्षता की सेवा अर्थ निमित्त बन रहे हैं - कोई साकार में कोई आकार में। लेकिन सदा एक दो के सहयोगी हैं - ऐसा है ना? आप सभी भी स्वयं को सहयोगी समझते हो ना? निमित्त तो एक ही बनता है - लेकिन साक्षात्कार तो शक्ति सेना का होगा कि एक का होगा? जैसे बाप द्वारा बच्चों का साक्षात्कार होता है, बच्चों द्वारा बाप का होता है, वैसे ही निमित्त एक आत्मा द्वारा सर्व सहयोगी आत्माओं का भी साक्षात्कार होता है। अगर सब वहाँ चले जाएं तो बाकी यहाँ देखने किसको आयेंगे? सुनेंगे, और भी ऐसे हैं - तो आकर्षण होगी। सब चीज़ एक बारी थोड़ी दिखाई जाती है। सौदागर भी होता है तो सब चीज़ एक ही बार बाहर निकाल देता है क्या? एक-एक बात का महत्व रखते हुए फिर उसको आगे करते हैं। ड्रामानुसार हर रत्न की वैल्यू अलग-अलग समय और अलग-अलग स्टेज पर प्रत्यक्ष होती है। इसलिए चारों ओर यादगार मन्दिर बने हुए हैं। सिर्फ एक स्थान पर है क्या? फिर तो एक ही स्थान पर सबका मन्दिर बन जाए। लेकिन हर रत्न का हर स्थान भिन्न-भिन्न सेवा के महत्व का है, इसलिए चारों ओर मन्दिर है। चारों ओर यादगार है ना। गाँव में भी यादगार होगा। ऐसा कोई नहीं होगा जहाँ आप पूर्वजों का यादगार न हो। है कोई ऐसा गाँव?
दीदी जी से: -
आपका विमान तेज है वा दादी का? उनका विमान तो स्थूल है और आपका? वह है साइंस का विमान और आपका साइलेन्स का। साइंस का रचता है साइलेन्स। साइलेन्स की शक्ति से ही साइंस निकली है। रचता तो पॉवरफुल होता है ना! जैसे निमित्त बनी हुई साथी विशेष इस समय किस स्थिति में स्थित है? साक्षात्कार वा वरदानी मूर्त्त, महादानी मूर्त्त हैं, जो भी खज़ाने हैं उनको (महादानी मूर्त्त) बाप से शक्ति लेते सहज स्वयं की शक्ति द्वारा सर्व को संकल्प द्वारा वायब्रेशन द्वारा लाइट-माइट का अनुभव कराना यह वरदान है। तो जैसे निमित्त एक रत्न बना ऐसे और भी रत्न बनेंगे। विशेष इस सेवा का कंगन बाँधना चाहिए। तब ही सर्विस का नया मोड़ प्रैक्टीकल में दिखाई देगा। निमित्त बनी हुई आत्माएं जो पर्दे के अन्दर हैं, वह स्टेज पर आने की हिम्मत दिखायेगी तब तो नया मोड़ होगा। सारा समय पूर्वज की पोजीशन पर स्थित हो, स्वयं को तना समझ सर्व शाखाओं को शक्तियों का जल दो। नहीं तो सूखी पड़ी हुई हैं, उन्होंको फिर फिर से ताजा बनाओ। अच्छा।
पार्टियों से: -
हरेक स्वयं को विश्व कल्याणकारी समझते हुए, हर संकल्प और कर्म द्वारा विश्व का कल्याण हो, ऐसे संकल्प वा कर्म करते हो? जब हर संकल्प श्रेष्ठ होगा तब ही स्वयं का और विश्व का कल्याण होगा। अपनी ड्यूटी सदा स्मृति में रहनी चाहिए कि मैं विश्व कल्याण की इन्चार्ज हूँ। इन्चार्ज अपनी ड्यूटी को नहीं भूलता। लौकिक रीति में भी कोई ड्यूटी वाला अपनी ड्यूटी को अच्छी तरह न सम्भाले तो उसको क्या करते हैं (निकाल देते हैं) यहाँ किसी को भी निकाला नहीं जाता लेकिन स्वत: ही निकल जाता। वहाँ तनख्वाह कट कर देंगे, या वार्निंग देंगे निकाल भी, लेकिन यहाँ अगर अपनी ड्यूटी ठीक नहीं बजाते तो ड्रामानुसार प्राप्ति की तनख्वाह कट ही जाती है, खुशी कम हो जाती, शक्ति कम हो जाती। स्वत: ही अनुभव करते - नामालूम खुशी कम क्यों हो गयी? कारण क्या होता? किसी न किसी प्रकार से अपनी ड्यूटी यथार्थ रीति बजाते नहीं। कुछ मिस जरूर करते। तो ड्यूटी पर अच्छी तरह से लगे हुए हो? विश्व कल्याण के सिवाए और कोई संकल्प चले, यह हो नहीं सकता। अगर चलता है तो ड्यूटी पूरी हुई है क्या? तो अपनी ड्यूटी पर सदा कायम रहते हो? कि हद की जिम्मेवारी निभाते इस अलौकिक जिम्मेवारी को भूल जाते हो? सदा यह निश्चय रहे कि मैं विश्वकल्याणकारी हूँ, जितना निश्चय उतना नशा। अगर नशा कम तो सेवा भी कम करेंगे। इसलिए सदा ड्यूटी पर एक्यूरेट रहो। जो ड्यूटी पर एक्यूरेट रहता है उसको सभी ईमानदार की नज़र से देखते हैं। फेथफुल की नज़र से देखते हैं ना। बाप भी समझते हैं, जो एक्यूरेट अपनी सेवा में रहते हैं वही बाप के फेथफुल हैं।। एक होता है बाप के निश्चय में पूर्ण, लेकिन बाप के निश्चय के साथ-साथ सेवा में भी फेथफुल। यह भी सब्जेक्ट है ना। जैसे ज्ञान की सब्जेक्ट है वैसे सेवा की भी सब्जेक्ट है। तो इसमें फेथफुल ही नम्बर आगे जा सकता। नम्बर टोटल मार्क्स का होता है। लेकिन दूसरों की सेवा करते स्वयं की भी सेवा करो, ऐसे नहीं कि अपनी सेवा करते दूसरों की भूल जाओ; या दूसरों की करते अपनी भूल जाओ। दोनों का बैलेंस चाहिए; ऐसे को कहा जाता है विश्व कल्याणकारी। तो आत्मज्ञानी भी हो। लेकिन विश्व-कल्याणकारी, बाप द्वारा निमित्त बच्चे ही हो सकते। तो माताएं व शक्ति सेना शक्ति रूप से सेवा में उपस्थित रहती हो, स्वयं की कमज़ोरी होंगी तो सेवा में भी कमज़ोरी हो जाएगी। इसलिए शक्ति स्वरूप हो सेवा करो तब सफलता निकले। अपने को साधारण माता नहीं समझो - जगत् माता समझो, जगतमाता अर्थात् विश्व-कल्याणकारी।
पांडव भी महावीर समझ सेवा में उपस्थित हो? महावीर मुश्किल को सहज बनाता, यादगार देखा ना, संजीवनी बूटी लाना कितना मुश्किल था, लेकिन सारा पहाड़ ही ले आया। महावीर अर्थात् पहाड़ को राई बनाने वाला। ऐसे महावीर बन सेवा की स्टेज पर आओ। जैसी स्टेज होगी वैसा रेस्पान्ड मिलेगा। एक्टर जब कोई एक्ट करता तो अगर स्टेज अच्छी होगी तो एक्ट की भी वैल्यू होगी। काम भला कितना करो लेकिन कौनसी? स्टैज पॉवरफुल है, कि सिर्फ एक्ट करते रहते? स्टेज पर स्थित रहते हर एक्ट करो फिर देखो कितनी सफलता मिलतती।
मधुबन वासी: -
निर्विघ्न हो ना? अखण्ड योगी हो? योग कब खंडन तो नहीं होता? जिससे प्रीत होती, वह प्रीत की रीति निभाने वाले अखंड योगी होते। आजकल जो महान आत्माएं भी कहलाती हैं उन्हों के नाम भी अखंडानन्द हैं, लेकिन सब में अखंड स्वरूप तो आप हो ना! आनन्द में भी अखंड, सुख में भी अखंड..... सबमें अखंड हो? वातावरण और वायब्रेशन का भी सहयोग है, भूमि का भी सहयोग है, तो मधुबन निवासियों के लिए सहज है - सिर्फ संगदोष में न आएं, दूसरा - दूसरे के अवगुणों को देखते-सुनते ‘डोन्ट केयर।’ तो इस विशेषता से अखंड योगी बन सकते। अगर कोई के संगदोष में आ जाते या अवगुण देखते तो योग खंडित होता। जो अखंड योगी नहीं वह पूज्य नहीं हो सकते, अगर योग खंडित होता तो थोड़े समय के लिए पूज्य होंगे; सदा का पूज्य बनना है ना। आधा कल्प स्वयं पूज्य-स्वरूप, आधा कल्प जड़ चित्रों का पूजन। ऐसे हो? अच्छा।
05-06-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
अलौकिक जीवन का कर्त्तव्य ही है - विकारी को निर्विकारी बनाना
लौकिक से अलौकिक बनाने वाले, स्वयं के परिवर्तन से विश्व-परिवर्तन करने वाले अनुभवी बच्चों प्रति बाप-दादा बोले:-
सदा स्वयं को बाप-दादा के सहयोगी विश्व परिवर्तन के कार्य में उसी लगन से लगे हुए हो समझकर चलते हो? जो बाप-दादा का कार्य, वही हमारा - यह स्मृति रहती है? जैसे बाप सर्व शक्तियों और गुणों के सागर हैं वैसे स्वयं को भी सम्पन्न अनुभव करते हो? स्वयं के कमज़ोर संकल्प और संस्कारों को परिवर्तन करने की शक्ति में समर्थी आई है? क्योंकि जब तक स्वयं परिवर्तन करने की शक्ति में समर्थ नहीं होंगे, तो विश्व को भी परिवर्तन नहीं कर सकेंगे। तो स्वयं को देखो कि अब कहाँ तक परिवर्तन हुआ है। संकल्प में, वाणी में, कर्म में कितने परसैन्ट में ‘लौकिक से अलौकिक’ हुए हैं। परिवर्तन है ही - ‘लौकिक से अलौकिक’ होना। तो यह शक्ति अनुभव होती है? किसी भी लौकिक वस्तु वा व्यक्ति को देखते हुए अलौकिक स्वरूप में परिवर्तन करना आता है? दृष्टि को, वृत्ति को, वायब्रेशन्स को, वायुमण्डल को लौकिक से अलौकिक बनाने का अभ्यास है? जब ब्राह्मणों का जन्म ही अलौकिक है तो ऐसा अलौकिक जन्म, अलौकिक बाप, अलौकिक परिवार, वैसे ही कर्म भी अलौकिक है? ब्राह्मण जीवन का विशेष कर्म ही है - लौकिक को अलौकिक बनाना। अपने जन्म के कर्म का अटेन्शन रहता है? सिर्फ यह लौकिक को अलौकिक बनाने का पुरूषार्थ ही सर्व समस्याओं, से सर्व कमज़ोरियों से मुक्त कर सकता है।
अमृतवेले से रात तक जो भी देखते हो, सुनते हो, सोचते हो वा कर्म करते हो, उसको लौकिक से अलौकिक में परिवर्तन करो। यह प्रैक्टिस है बहुत सहज। लेकिन अटेन्शन रखने की आवश्यकता है। जैसे शरीर की क्रियाएं - खाना-पीना-चलना स्वत: ही सहज रीति करते रहते हो, तो शरीर की क्रियाओं के साथ-साथ आत्मा का मार्ग, आत्मा का भोजन, आत्मा का पुरूषार्थ अर्थात् चलना, आत्मा का सैर, आत्मा रूप का देखना वा आत्मा रूप का सोचना क्या है - यह साथ-साथ करते चलो तो ‘लौकिक से अलौकिक’ जीवन सहज अनुभव करेंगे। किसी भी लौकिक व्यवहार को निमित्त-मात्र करते हुए, अपने लौकिक कार्य का आकर्षण वा बोझ अपने तरफ खींचेगा नहीं। ऐसे अनुभव करेंगे जैसे लौकिक कार्य होते हुए अलौकिक कार्य के कारण डबल कमाई का अनुभव होगा। अलौकिक स्वरूप है ही ट्रस्टी, ट्रस्टी बनकर कार्य करने से, क्या होगा? कैसे होगा? यह बोझ समाप्त हो जाता है। ‘अलौकिक स्वरूप अर्थात् कमल पुष्प समान।’ कैसा भी तमोगुणी वातावरण होगा, वायब्रेशन्स होंगे, लेकिन सदा कमल समान। लौकिक कीचड़ में रहते भी न्यारे अर्थात् आकर्षण से परे और सदा बाप के प्यारे अनुभव करेंगे। किसी भी प्रकार के मायावी अर्थात् विकारों के वशीभूत व्यक्ति के सम्पर्क से, स्वयं वशीभूत नहीं होंगे। क्योंकि अपना अलौकिक कार्य सदा स्मृति में रहेगा कि वशीभूत आत्माओं को बन्धनयुक्त से बन्धनमुक्त बनाना, विकारी से निर्विकारी बनाना, अर्थात् लौकिक से अलौकिक बनाना यही अलौकिक जीवन का हमारा कार्य अर्थात् कर्त्तव्य है। वशीभूत आत्मा को छुड़ाने वाला स्वयं वशीभूत हो नहीं सकता।
हम सब एक बाप की सन्तान रूहानी भाई हैं - यह अलौकिक दृष्टि की स्मृति रहने से देहधारी दृष्टि अर्थात् लौकिक दृष्टि, जिसके आधार से विकारों की उत्पत्ति होती है, वह बीज ही समाप्त हो जाता है। जब बीज समाप्त हो गया, तो फिर अनेक प्रकार के विस्तार रूपी विकारों का वृक्ष स्वत: ही समाप्त हो जाता है।
अभी तक भी बहुत बच्चों की कम्पलेन्ट (Complaint;शिकायत) है कि दृष्टि चंचल होती है वा दृष्टि खराब होती है। क्यों होती है? जबकि बाप का फरमान है - लौकिक देह अर्थात् शरीर में अलौकिक आत्मा को देखो, फिर देह को देखते क्यों हो? अगर आदत कहते हो, आदत से मजबूर हो वा अल्पकाल के किसी न किसी रस के वशीभूत हो जाते हैं, तो इससे सिद्ध है कि आत्मा-परमात्मा-प्राप्ति के रस में अभी तक अनुभवी नहीं है। परमात्मा-प्राप्ति का रस और देहधारी कर्मेन्द्रियों द्वारा अल्पकाल का प्राप्त हुआ रस - इसके महान् अन्तर को अनुभव नहीं किया है। जब अल्पकाल का कान का रस, मुख का रस, नयनों का रस वा किसी भी कर्मेन्द्रिय का रस आकर्षित करता है, उस समय इस महान् अन्तर के यंत्र को यूज़ करो। पहले भी सुनाया था, जबकि अब जान गए हो कि यह देह की आकर्षण, देह की दृष्टि, देह द्वारा प्राप्त हुए यह रस, सांप समान सदाकाल के लिए खत्म करने वाला है। यह सांप का विष है न कि आकर्षण करने वाला रस है। फिर भी अमृत-रस को छोड़ विष की तरफ आकर्षित होना, इसको क्या कहा जाएगा? ऐसे को नॉलेजफुल वा मास्टर सर्वशक्ततिवान कहेंगे? वशीभूत आत्मा सदा कमज़ोर और स्वयं से असन्तुष्ट होगी। इसी कारण लौकिक को अलौकिक में परिवर्तन करो।
पहला पाठ आत्मिक स्मृति का पक्का करो। आत्मा इस शरीर द्वारा किसको देखेगी? आत्मा-आत्मा को देखेगी न कि शरीर को, आत्मा कर्मेन्द्रियों द्वारा कर्म कर रही है। तो अन्य आत्माओं का भी कर्म देखते हुए यह स्मृति रहेगी कि यह भी आत्मा कर्म कर रही है। ऐसे अलौकिक दृष्टि - जिसको देखो आत्मा रूप में देखो। इस अभ्यास की कमी होने के कारण का पाठ पक्का नहीं किया। लेकिन औरों को पाठ पढ़ाने लग गए। इस कारण स्वयं प्रति अटेंशन कम रहता, दूसरों के प्रति अटेंशन ज्यादा रहता है। स्वयं को देखने के कारण दूसरों को देखते हुए अलौकिक के बजाए लौकिक रूप दिखाई दे देता है। अपनी कमज़ोरियों को कम देखते हुए, दूसरों की कमज़ोरियों को ज्यादा देखते हैं। अलौकिक वृत्ति द्वारा हरेक से शुभ भावना, कल्याण की भावना से सम्पर्क में आना - इसको कहा जाता है अलौकिक जीवन की अलौकिक वृत्ति। लेकिन अलौकिक वृत्ति के बजाए लौकिक वृत्ति, अवगुण धारण करने की वृत्ति, ईर्ष्या और घृणा की वृत्ति धारण करने से अलौकिक जीवन के अलौकिक परिवार द्वारा अलौकिक सहयोग की खुशी, अलौकिक स्नेह की प्राप्ति की शक्ति प्राप्त नहीं कर पाते। इस कारण लौकिक वृत्ति को भी अलौकिक वृत्ति में परिवर्तन करो। तो पुरूषार्थ में कमज़ोर रहने का कारण? लौकिक को अलौकिक में परिवर्तन करना नहीं आता। लौकिक सम्बन्ध में भी अलौकिक सम्बन्ध - ‘रूहानी भाई-बहन की स्मृति में रखो।’ किसी भी सम्बन्ध की तरफ लौकिक सम्बन्ध की आकर्षण आकर्षित करती है, अर्थात् मोह की दृष्टि जाती है, तो लौकिक सम्बन्ध के अन्तर में बाप से सर्व अविनाशी सम्बन्ध की स्मृति की वा बाप के सर्व सम्बन्धों के अनुभव की नॉलेज कम होने के कारण, लौकिक सम्बन्ध तरफ बुद्धि भटकती है। तो सर्व सम्बन्धों के अनुभवी मूर्त्त बनो, तो लौकिक सम्बन्ध की तरफ आकषण नहीं होगी। उठते-बैठते लौकिक और अलौकिक के अन्तर को स्मृति में रखो तो लौकिक से अलौकिक हो जायेंगे। फिर यह कम्पलेन्ट समाप्त हो जाएगी। बार-बार एक ही कम्पलेन्ट करना क्या सिद्ध करता है? अलौकिक जीवन का अनुभव नहीं। तो अभी स्वयं को परिवर्तन करते हुए विश्व-परिवर्तक बनो। समझा? छोटी सी बात समझ में नहीं आती? ठेका तो बहुत बड़ा लिया है। दुनिया को चैलेन्ज तो बहुत बड़ी की है। चैलेन्ज करते हो ना कि सेकेण्ड में मुक्ति-जीवन्मुक्ति देंगे! निमंत्रण में क्या लिखते हो? एक सेकेण्ड में बाप से वर्सा आकर प्राप्त करो, वा मुक्ति-जीवन्मुक्ति के अधिकारी बनो। तो दुनिया को चैलेन्ज करने वाले अपने वृत्ति, दृष्टि को चेन्ज नहीं कर सकते? स्वयं को भी चैलेन्ज दो कि परिवर्तन करके ही छोड़ेंगे। अर्थात् विजयी बनकर ही दिखायेंगे। अच्छा।
हर संकल्प, समय, सम्बन्ध और सम्पर्क, लौकिक से अलौकिक बनाने वाले, अलौकिक ब्राह्मण जीवन के अनुभवी मूर्त्त, विश्व परिवर्तन के साथ-साथ स्वयं परिवर्तन द्वारा विश्व को सही रास्ता दिखाने वाले, सदा बाप के सर्व सम्बन्धों के अनुभवी मूर्त्त सर्व प्राप्तियों के रस में मगन रहने वाले, एक बाप दूसरा न कोई ऐसे अनुभव में रहने वाले अनुभवी मूर्त को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
पार्टीयों के साथ-
ट्रस्टी का विशेष लक्षण क्या दिखाई देगा? जो ट्रस्टी होगा उसका विशेष लक्षण, सदैव स्वयं को हर बात में हल्का अनुभव करेगा। डबल लाइट अनुभव करेगा। शरीर के भान का भी बोझ न हो - इसको कहा जाता है - ‘ट्रस्टी।’ अगर देह के भान का बोझ है तो एक बोझ के साथ अनेक प्रकार के बोझ से परे रहने का यह साधन है। तो चैक करो बॉडी कान्सेसे (Body Conscious;देहभान) में कितना समय रहते? जब बाप के बने, तो तन-मन-धन सहित बाप के बने ना? सब बाप को दिया ना? जब दे दिया तो अपना कहाँ से रहा? जब अपना नहीं तो मान किस चीज़ का? अगर मान आता, तो सिद्ध है, देकर के फिर लेते हो। अभी-अभी दिया, अभी-अभी लिया, यह खेल करते हो। ‘ट्रस्टी अर्थात् मेरापन नहीं।’ जब मेरापन समाप्त हो जाता, तो लगाव भी समाप्त हो गया। ट्रस्टी बन्धन वाला नहीं होता, स्वतंत्र आत्मा होता, किसी भी आकर्षण में परतंत्र होना भी ट्रस्टीपन नहीं। ‘ट्रस्टी माना ही स्वतंत्र।’
नष्टोमोहा बनने की सहज युक्ति कौनसी है? सदैव अपने घर की स्मृति में रहो। आत्मा के नाते, आपका घर ‘परमधाम’ है और ब्राह्मण जीवन के नाते, साकार सृष्टि वृक्ष में यह ‘मधुबन’ आपका घर है, क्योंकि ब्रह्मा बाप का घर मधुबन है। यह दोनों ही घर स्मृति में रहे, तो नष्टोमोहा हो जायेंगे। क्योंकि जब अपना परिवार, अपना घर कोई बना लेते तो उसमें मोह जाता, अगर उसको दफ्तर समझो तो मोह नहीं जाएगा।
सदैव बुद्धि में रहे, सेवा स्थान पर सेवा के निमित्त रूप आत्माएं हैं - न कि मेरा कोई लौकिक परिवार है। सब अलौकिक सेवाधारी हैं; कोई सेवा करने के निमित्त हैं, कोई की सेवा करनी है। लौकिक सम्बन्ध भी सेवा के अर्थ मिला है - ‘यह मेरा लड़का या लड़की है’ नहीं। सेवा के निमित्त यह सम्बन्ध मिला है। मैं पति हूँ, पिता हूँ, चाचा हूँ - यह सम्बन्ध समाप्त हो जाए, तो ट्रस्टी हो जायेंगे। स्मृति विस्मृति का रूप तब लेती जब मेरापन है। अगर मेरापन खत्म हो जाए, तो नष्टोमोहा हो जाएंगे। ‘नष्टोमोहा अर्थात् स्मृति स्वरूप।’
माताओं का सबसे बड़ा पेपर ही ‘मोह’ का है। अगर माताएं नष्टोमोहा हो गई तो नम्बर आगे ही जाएंगी। पांडवों को नम्बर वन बनने के लिए कौनसा पुरूषार्थ करना है? पांडव अगर एकरस स्थिति में एकाग्र बुद्धि हो गए तो नम्बर वन हो जाएंगे। पांडवों की बुद्धि यहाँ-वहाँ भागने में तेज होती है, तो पांडवों की बुद्धि एकाग्र हुई तो नम्बर वन। वैसे भी पांडवों को घर में एक स्थान पर बैठने की आदत नहीं होती, स्थिर होकर नहीं बैठेंगे - चलेंगे, उठेंगे यह आदत होती है। बुद्धि को भी भागने की आदत पड़ जाती। उसका असर बुद्धि पर भी आ जाता है। ऐसे तो नहीं समझते चक्रवर्ती बनना है तो यही चक्र लगावें। यह व्यर्थ चक्र नहीं लगाओ। स्वदर्शन चक्रधारी बनो, परदर्शन चक्रधारी नहीं।
सभी अपने नई जीवन अर्थात् ब्राह्मण जीवन के ऊँचे ते ऊँचे नशे में रहते हो? सबसे ऊँच जीवन है ब्राह्मण जीवन। नया जन्म है ऊँचे ते ऊँचा ब्राह्मण जन्म, जिसको अलौकिक जन्म कहा जाता है। तो यह नशा रहता है? ऊँचे ते ऊँची आत्माओं का संकल्प, कर्म सब ऊँचा, साधारण नहीं। जैसे लौकिक में भी अगर कोई साहुकार भिखारी का कार्य करे, तो क्या होगा? सब हंसेंगे ना? तो ऊँचे कार्य की बजाए साधारण करें तो सब क्या कहेंगे? तो ब्राह्मण कब व्यर्थ कार्य व व्यर्थ संकल्प नहीं कर सकते।
सुनने के बाद सुने हुए को स्वरूप में लाना अर्थात् समाना। सुनाना तो परम्परा से चला आता, लेकिन संगमयुग की विशेषता है - स्वरूप में लाकर विश्व को दिखाना। सुनाने वाले भी बहुत, लेकिन स्वरूप में लाने वाले कोटों में कोई। तो आप स्वरूप में लाने वाले हो, न कि सुनाने वाले। देखना चाहिए जो सुना वह स्वरूप में कहाँ तक लाए। स्वरूप में लाने वाले को कौनसी मूर्त्त कहेंगे? ‘साक्षात् और साक्षात्कार मूर्त्त।’ तो साक्षात्कार मूर्त्त हो ना? स्वयं को भी साक्षात्कार कराने वाले और स्वयं द्वारा बाप का भी साक्षात्कार कराने वाले। स्वयं का साक्षात्कार अर्थात् आत्मिक स्वरूप का साक्षात्कार कराने वाले ऐसे साक्षात्कार मूर्त्त को ही ‘स्वरूप’ मूर्त्त कहा जाता। सभी ऐसे हो ना? अच्छा।
07-06-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
संगमयुग (धर्माऊ युग) को ‘चढ़ती कला सर्व का भला’ का विशेष वरदान
स्वयं को माया के अनेक प्रकार के रॉयल रूप से बचाने की युक्तियाँ बताते हुए अव्यक्त बाप-दादा ने महावाक्य उच्चारे:-
सभी समय के प्रमाण स्वयं को चढ़ती कला में हर सेकेण्ड वा संकल्प में अनुभव करते हो? क्योंकि यह तो सब जानते हो कि यह छोटा सा संगमयुग चढ़ती कला का है। इस युग को वा समय को ड्रामानुसार वरदान मिला हुआ है - ‘चढ़ती कला सर्व का भला’ - और कोई भी युग को ऐसा वरदान प्राप्त नहीं है।
यह विशेषता धर्माऊयुग भी है अर्थात् यथार्थ धर्म और यथार्थ कर्म करने वाली श्रेष्ठ आत्माएं इस धर्माऊयुग में पार्ट बजाती हैं। धर्म सत्ता, राज्य सत्ता, विज्ञान की सत्ता, सर्व सत्ताएं इस युग में ही अपना विशेष पार्ट दिखाती हैं अर्थात् इस समय ही यह तीनों सत्ताएं आत्माओं को प्राप्त होती हैं। ऐसे श्रेष्ठ समय के विशेष पार्टधारी कौन हैं? स्वयं का ऐसे समय पर श्रेष्ठ पार्टधारी समझते हो?
चढ़ती कला का आधार आप विशेष आत्माओं के ऊपर है। आपकी चढ़ती कला से ही सर्व आत्माओं का भला अर्थात् कल्याण होता है। सर्व आत्माओं की बहुत समय की आशाएं - मुक्ति को प्राप्त करने की, आपकी चढ़ती कला के आधार से ही पूर्ण होती हैं। सर्व आत्माओं की मुक्ति प्राप्ति का आधार, आप आत्माओं के जीवन मुक्ति की प्राप्ति है। ऐसे अपने को आधार मूर्त्त समझ चलते हो? देने वाला दाता बाप है - लेकिन निमित्त किसको बनाया है? वर्सा बाप द्वारा प्राप्त होता है, लेकिन बाप भी निमित्त बच्चों को बनाते हैं। इतना अटेंशन हर कदम अपने ऊपर रहता है? कि हम विशेष आत्माओं के आधार से सर्व आत्माओं का भला है। यह स्मृति रखने से अलबेलापन और आलस्य समाप्त हो जाएगा, जो वर्तमान समय किसी न किसी रूप में मैजारिटी में दिखाई देता है। जिस कारण चढ़ती कला के बजाए रूकती कला में आ जाते हैं और इस रूकने की कला में भी बहुत होशियार हो गए हैं। होशियारी क्या करते हैं? ज्ञान की सुनी हुई बातें वा समय-समय पर जो युक्तियाँ बाप द्वारा मिलती रहती हैं, उन युक्तियों वा बातों को यथार्थ से यूज़ नहीं करते, मिस यूज़ करते हैं। भाव को बदल बोल को पकड़ लेते हैं। अपने पुराने स्वभाव के वशीभूत हो यथार्थ भाव को, स्वभाव वश बदल लेते हैं।
जैसे बाप-दादा ड्रामा के रहस्य को मास्टर त्रिकालदर्शी बनाने के कारण सर्व रहस्य बच्चों के आगे स्पष्ट करते हैं। बाप ड्रामा के राज अनुसार पुरूषार्थियों के नम्बर वा राजधानी के रहस्य सुनाते हैं कि ड्रामा में राजधानी में सब प्रकार के पद पाने वाले होते हैं। वा माला नम्बर वार बनती है तो सब महारथी तो बनेंगे नहीं। अथवा सभी विजयमाला में तो आयेंगे नहीं। सब महाराजा तो बनेंगे नहीं। इसलिए हमारा पार्ट ही ऐसा दिखाई देता है। बाप सुनाते हैं एडवान्स में जाने के लिए, लेकिन बच्चे एडवान्स जाने की बजाए उल्टा एडवान्टेज (Advantage;लाभ) उठा लेते हैं। अर्थात् अपने अलबेलेपन और आलस्य को नहीं मिटाते लेकिन बाप की बात का भाव बदल उसी बात को आधार बना देते हैं। और बाप को सुनाते हैं कि आपने ऐसे कहा। इसी प्रकार अपने भिन्न-भिन्न स्वभाव के वश यथार्थ बातों का भाव बदल, रूकती कला की बाज़ी बहुत अच्छी दिखाते हैं। मायाजीत बनने की युक्तियों को समय पर कार्य में लगाने का अटेंशन खुद कम रखते हैं, लेकिन अपने आप को बचाने का साधन - बाप के बोल को यूज़ करते हैं, क्या कहते हैं कि आपने ही तो कहा है कि माया बड़ी दुस्तर है। ब्रह्मा बाप को भी नहीं छोड़ती, महारथियों को भी माया वार करती है। जब ब्रह्मा बाप को भी नहीं छोड़ती, महारथियों को भी नहीं छोड़ती तो हमारे पास आई और हार खाई तो क्या बड़ी बात है, यह तो होना ही है, अन्त तक यह तो चलना ही है! इस प्रकार पुरूषार्थ में रूकने के बोल, अपना आधार बनाए चढ़ती कला में जाने से वंचित हो जाते हैं। बाप कहते हैं माया आयेगी लेकिन मायाजीत जगतजीत बनना कौन गाए हुए हैं? अगर माया ही न आवे तो बिना दुश्मन का सामना करने कोई विजयी कहलाते हैं? माया आयेगी लेकिन हार खाना यह तो बाप नहीं कहते। माया पर वार करना है न कि हार खाना है। कल्पकल्प के विजयी रत्न हैं और विजयी बनकर ही दिखायेंगे - यह समर्थ बोल भूल जाते हैं। लेकिन अपनी कमज़ोरी के कारण बाप के बोल को भी कमज़ोर बना देते हैं। जैसे ब्रह्मा बाप ने मायाजीत बन जगतजीत का पद प्राप्त कर ही लिया, जो कल्प-कल्प की नूंध यादगार रूप में भी है। तो जैसे बाप ब्रह्मा ने, माया प्रबल होते हुए भी, स्वयं को बलवान बनाया; न कि घबराया। तो ऐसे फॉलो फादर (Follow Father;बाप के पद-चिन्ह पर) करो।
विजयी बनने का भाव उठाओ। पुरूषार्थ हीन होने का भाव, अपने अल्प बुद्धि के प्रमाण समझते हुए स्वयं को धोखा मत दो। बाप के हर बोल में हर आत्मा के तीनों काल का कल्याण भरा हुआ है। तब ही विश्व-कल्याणी गाए हुए हैं। कल्याण के बोल को स्वयं के अकल्याण अर्थ कार्य में न लगाओ। आजकल मैजारिटी इसी प्रकार के नॉलेजफुल बहुत हैं। इस प्रकार के नॉलेजफुल समझने से अपने को समझदार बहुत कहलाते हैं, और करते हैं व्यर्थ और उल्टे कार्य, जिसको रॉयल रूप के विकर्म कहें। लेकिन अपने को समझदार सिद्ध करने का तरीका बहुत अच्छा आता है। व्यर्थ कर्म वा रॉयल रूप के विकर्म जो दिखाई कुछ देते हैं, लेकिन होता है स्वयं को और दूसरों को नुकसान दिलाने वाला। उसकी परख ही है, ऐसे कर्म करने से स्वयं भी अन्दर से सन्तुष्ट नहीं होगा। खुशी का अनुभव, शक्ति का अनुभव नहीं करेगा। अपने को गुणों से, शक्तियों के खज़ाने से खाली अनुभव करेगा। लेकिन बाहर से देह अहंकार के कारण, समझ का अहंकार होने के कारण अपनी समझदारी को स्पष्ट करता रहेगा। उसका हर बोल अन्दर से खाली, लेकिन बाहर से स्वयं को छिपाने का रूप होगा। जैसे कहावत भी है ‘खाली वस्तु आवाज ज्यादा करती है।’ दिखावा बहुत होता है लेकिन अन्दर का धोखा, बाहर का दिखावा होता है। साथ-साथ ऐसे कर्मों का परिणाम अनेक ब्राह्मण आत्माएं और दुनिया की अज्ञानी आत्माओं की डिस-सर्विस करने के निमित्त बन जाते हैं। ऐसे विकर्मों से वा व्यर्थ कर्मों, एक स्वयं से डिससैटिसफायड (Dissatisfied;असन्तुष्ट) दूसरा अनेकों की डिससर्विस इस कारण चढ़ती कला की बजाए रूकती कला में आ जाते हैं।
अपने आप को चेक करो, चलते-चलते खुशी कम क्यों हो जाती है? वा तीव्र पुरूषार्थ का उमंग, उत्साह कम क्यों हो जाता? वा योगयुक्त की बजाए व्यर्थ संकल्पों तरफ क्यों भटक जाते? वा अपने स्वभाव-संस्कारों का बन्धन क्यों नहीं चुक्तू होता? कारण क्या होता है? कारण जानते हो? विशष कारण है - जैसे शुरू में आते हो तो बाप से प्राप्त हुए पुरूषार्थ की युक्तियों और मेहनत से करने लग जाते हो। दिन-रात थकावट अथवा माया की रूकावट कोई की परवाह नहीं करते। बाप मिला, वर्सा पाना है, अधिकारी बनना है - इसी नशे में कदम को बहुत तीव्र रूप से आगे बढ़ाते चलते हो। लेकिन अब क्या करते? जैसे आजकल के जमाने में मेहनत करना मुश्किल लगता है। तनख्वाह चाहिए लेकिन मेहनत नहीं चाहिए। वैसे ब्राह्मण आत्माएं भी मेहनत से अलबेली हो जाती हैं वा आलस्य में आ जाती हैं। बनना चाहते सभी महावीर, महारथी, लेकिन मेहनत प्यादे की भी नहीं करते। बनी बनाई स्टेज चाहते हैं - मेहनत से स्टेज बनाने नहीं चाहते। सोचेंगे हम कम किसमें भी न होवें, नाम महारथियों के लिस्ट में हो। लेकिन महारथी का वास्तविक अर्थ है ‘महारथी की महानता’; उसमें स्थित होना मुश्किल अनुभव करते हैं। सहयोगी नाम का एडवान्टेज ठीक उठाते हैं। इस कारण जो कदमकदम पर मेहनत और अटेंशन चाहिए; पुरुषार्थी जीवन की स्मृति चाहिए, बाप के साथ की समर्थी चाहिए, वह प्रेक्टिकल में नहीं है। मेहनत नहीं करने चाहते, लेकिन बाप की मदद से पार होना चाहते हैं। बाप का काम ज्यादा याद रखते हैं, अपना काम भूल जाते हैं, इस कारण जो युक्तियाँ बताई जाती हैं वह कार्य में नहीं लगाते, समय पर यूज़ करने नहीं आती। लेकिन बार-बार बाप से पूछने आते हैं - योग क्यों नहीं लगता, क्या करूँ? बन्धन क्यों नहीं कटता, क्या करूँ? जब रिवाईज कोर्स चल रहा है, रियलाइजेशन कोर्स (REALIZATION;अनुभूति) चल रहा है, तो क्या कोर्स में बाप-दादा ने यह बताया नहीं है? कुछ रह गया है क्या जो फिर सुनाना पड़े? यह तो पहले दूसरे क्लास का कोर्स है। इस कारण सुने हुए को मनन करो। मनन न करने से शक्तिशाली न बन कमज़ोर हो गए हो। और कमज़ोर होने के कारण बार-बार रूकते हो। चढ़ती कला का अनुभव नहीं कर पाते हो। इसलिए सदा यह याद रखो कि हम निमित्त बनी हुई आत्माओं की चढ़ती कला से ही सर्व का भला है। अच्छा।
बाप को और बाप के हर बोल को यथार्थ रूप से समझने वाले, अपने पर सदा मेहनत से स्वयं को महान् बनाए सर्व को महान् बनाने वाले, हर कदम में चढ़ती कला का लक्ष्य और लक्षण अनुभव करने वाले, सदा स्वयं को अनेक प्रकार के माया के रॉयल रूप से बचाने वाले, ऐसे मायाजीत कल्प-कल्प के विजयी रत्नों को बाप-दादा का याद- प्यार और नमस्ते।
पार्टियों से
सदा निश्चय बुद्धि विजयी रत्न हैं - यह स्मृति रहती है? निश्चय का फल है - ‘विजय।’ कोई भी कार्य करते हैं, अगर कार्य करते हुए स्वयं में, बाप में, ड्रामा में निश्चय है, सब प्रकार से निश्चय है तो कभी भी विजय न हो ऐसा हो नहीं सकता। अगर हार होती तो उसका कारण - निश्चय में कमी। अगर स्वयं में भी संशय है - यह होगा नहीं होगा; सफलता होगी या नहीं, तो भी सम्पूर्ण निश्चय नहीं कहेंगे। निश्चय बुद्धि का संकल्प दृढ़ होगा, कमज़ोरी का नहीं। जो होगा वह कर लेंगे, यह भी संशय का संकल्प है। जो होगा, नहीं, हुआ ही पडा है - ऐसा निश्चय। कर्म करने के पहले भी निश्चय हो कि हुआ ही पड़ा है। ऐसी स्टेज है? कैसी भी माया आवे लेकिन डगमग न हों। निश्चय बुद्धि हर तूफान व माया के विघ्न को ऐसे पार करेगा जैसे कुछ है ही नहीं। जैसे साइंस के साधन हैं तो गर्मी होते भी उसके लिए गर्मी नहीं है। ऐसे जो निश्चयबुद्धि होगा उनके आगे माया के तूफान आएंगे लेकिन उसके लिए बड़ी बात नहीं होगी। सेफ (Safe;बचाव) रहने के साधन उसके पास हैं तो मायाजीत बन जाएंगे।
हर कार्य में स्वयं निश्चयबुद्धि। ऐसा निश्चय बुद्धि सदा साक्षी होकर अपना पार्ट भी देखते और दूसरों का भी देखते, विचलित नहीं होते। क्या, क्यों में नहीं जाते।
स्थापना के कार्य में जो आदि रत्न हैं, उन्हें ‘आदि रत्न’ का नशा है? यह नशा भी खुशी दिलाता है। जिस भाग्य को आज स्वप्न में भी देखने की इच्छा रखते, वह भाग्य अपने प्रैक्टिकल जीवन बिताकर अनुभव किया। आप लोगों ने चेतन्य में अनुभव किया अभी सब चरित्र सुनने वाले हैं; तो यह कम भाग्य है क्या? और किसी भी प्रकार का भाग्य अभी भी प्राप्त कर सकते, लेकिन यह भाग्य प्राप्त नहीं कर सकते। ऐसा भाग्य तो कोटों में कोऊ, कोई में कोई प्राप्त होता है। अगर आदि में आने वाले और कुछ भी याद न करें, सिर्फ भाग्य का सुमिरण करते रहें कि कल्प-कल्प का नूंधा हुआ हमारा पार्ट है तो भी सदा खुश रहेंगे। ब्राह्मणों की विशेषता है खुशी। खुशी’नहीं तो ब्राह्मण नहीं।
वर्तमान समय विदेश से फास्ट (Fast;तीव्र गति वाली) सर्विस शुरू हो रही है। थोड़े समय में बहुतों को एक ही समय सब साधनों से पैगाम देने का शुरू हो गया है, जैसे अभी विदेश संदेश देने में ज्यादा सहयोगी हैं। सब साधन सहज ही प्राप्त होते जा रहे हैं; यही कॉपी विदेश से भारत करेगा। भारत वासी फिराक दिल नहीं होते हैं; संकोच वाले होते हैं। और विदेशी फिराक दिल होते हैं। तो यही वहाँ का आवाज़ भारत तक पहुँचते भारत को शिक्षा मिलेगी, शर्म आएगा कि विदेशी हमारे भारत की फिलासफी को महत्त्व देते और हम नहीं देते। यह एक ही समय में सब साधनों द्वारा फास्ट सर्विस का फाउन्डेशन फैलता जा रहा है। हर वर्ष में कोई नवीनता चाहिए तो विदेश से यह आकर्षित होंगे ज्ञान और योग की नॉलेज में। यह भारत वासियों को एक पाठ मिल जाएगा। जो भी होता है उस पार्ट में कोई न कोई विशेषता। तो रेसपान्ड चारों ओर के उमंग उत्साह होने कारण अच्छा है। यह भी यादगार बनते जाएंगे। यही विदेश जहाँजहाँ ब्राह्मणों द्वारा सेवा का पार्ट चलता है, वही फिर भविष्य में सैर के स्थान बन जाएंगे। यादगार के रूप में बनेंगे, मन्दिर नहीं होंगे। प्रेक्टीकल स्थान की व्यू (View;दृश्य) यादगार के रूप में होती। विशेष नामी-ग्रामी व्यक्तियों द्वारा जो सेवा हो रही है, उससे भारत को शिक्षा भी मिल रही है और भविष्य राजधानी के स्थान भी निश्चित होते जा रहे हैं। अच्छा।
10-06-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
मंत्र और यंत्र के निरन्तर प्रयोग से अन्तर समाप्त
बाप से मिली सर्व विधियों तथा सर्व शक्तियों को विश्व-कल्याण की सेवा में समार्पित करने वाले बच्चों प्रति बाबा बोले-
बाप-दादा सर्व बच्चों की वर्त्तमान स्थिति और अन्तिम स्थिति दोनों को देखते हुए कहाँ-कहाँ वर्तमान और अन्तिम स्थिति में अन्तर दिखाई देता और कहाँ-कहाँ महान् अन्तर दिखाई देता। महान् अन्तर क्यों रह जाता? लक्ष्य भी सभी का एक ही सर्व श्रेष्ठ बनने का है, और पद प्राप्त कराने वाला भी एक है, समय का वरदान और वरदाता का वरदान भी सभी को मिला हुआ है, पुरूषार्थ का मार्ग भी एक है, ले जाने वाला भी एक है, फिर भी इतना अन्तर क्यों हो जाता? कारण क्या होता है - उस कारण को देख रहे थे।
वर्त्तमान समय प्रमाण मुख्य कारण क्या देखे? एक तो जो पहले-पहले महामंत्र - ‘मन्मनाभव’ का वा ‘हम सो देवता’ का बाप-दादा द्वारा मिला, उस मंत्र को सदा स्मृति में नहीं रखते हो। भक्ति मार्ग में भी मंत्र को कभी नहीं भूलते। मंत्र भूलना अर्थात् गुरू से किनारे होना, यह डर रहता है। लेकिन बच्चे बनने के बाद क्या कर लिया? भक्तों माफक डर तो निकल गया और ही पुरूषार्थ में अधिकारी समझने का एडवांटेज ले बाप के दिए हुए मंत्र को वा ‘श्रीमत’ को पूर्ण रीति से प्रैक्टिकल में नहीं लाते। एक तो मंत्र को भूल जाते, दूसरा मायाजीत बनने के जो अनेक प्रकार के मंत्र देते हैं उन मंत्रों को समय पर कार्य में नहीं लाते। अगर ये दोनों बातें - ‘मंत्र और यंत्र’ प्रेक्टिकल जीवन के लिए यंत्र और बुद्धियोग लगाने के लिए वा बुद्धि को एकाग्र करने के लिए मंत्र को स्मृति में रखो तो ‘अन्तर’ समाप्त हो जाएगा। रोज सुनते और सुनाते हो - मन्मनाभव लेकिन स्मृति स्वरूप कहाँ तक बने हो? पहला पाठ महामंत्र है। इसी मंत्र की प्रैक्टिकल धारणा से पहला नम्बर आ सकते हो। इसी पहले पाठ के स्मृति स्वरूप की कमी होने के कारण विजयी बनने में भी नम्बर कम हो जाते हैं। मंत्र क्यों भूल जाता? क्योंकि बापदादा ने जो हर समय की स्मृति प्रति डायरेक्शन दिए हैं। उनको भूल जाते हो।
अमृतवेले की स्मृति का स्वरूप, गॉडली स्टडी (Godly Study;ईश्वरीय अध्ययन) करने की स्मृति का स्मृति स्वरूप, कर्म करते हुए कर्मयोगी रहने के स्मृति स्वरूप, ट्रस्टी बन अपने शरीर निर्वाह के व्यवहार के समय का स्मृति स्वरूप, अनेक विकारी आत्माओं के सम्पर्क में आने समय का स्मृति स्वरूप, वाइब्रेशन्स वाली आत्माओं का वाइब्रेशन परिवर्तन करने के कार्य करने समय का स्मृति स्वरूप सब डायरेक्शन मिले हुए हैं। याद हैं? जैसे भविष्य में जैसा समय होगा वैसी ड्रेस चेन्ज करेंगे। हर समय के कार्य की ड्रेस और श्रृंगार अपना अपना होगा। तो यह अभ्यास यहाँ धारण करने से भविष्य में प्रालब्ध रूप में प्राप्त होंगे। वहाँ स्थूल ड्रेस चेंज करेंगे और यहाँ जैसा समय, जैसे कार्य, वैसा स्मृति स्वरूप हो। अभ्यास है वा भूल जाता है? इस समय के आपके अभ्यास का यादगार भक्तिमार्ग में भी जो विशेष नामी-ग्रामी मन्दिर हैं वहाँ भी समय प्रमाण ड्रेस बदली करते हैं। हर दर्शन की ड्रेस अपनी-अपनी बनी हुई होती है। तो यह यादगार भी किन आत्माओं का है? जो आत्माएं इस संगमयुग पर जैसा समय वैसा स्वरूप बनने के अभ्यासी हैं।
बाप-दादा बच्चों के सारे दिन की दिनचर्या को चैक करते हैं। रिजल्ट में समय प्रमाण ‘स्मृति स्वरूप’ का अभ्यास कम दिखाई देता है। स्मृति में है, लेकिन स्वरूप में आना नहीं आता है। समय होगा अमृतवेले का, जिस समय विशेष बच्चों के प्रति सर्वशक्तियों के वरदान का, सर्व अनुभवों के वरदान का, बाप समान शक्तिशाली लाईट हाऊस, माइट हाऊस स्वरूप में स्थित होने का, मेहनत कम और प्राप्ति अधिक होने का गोल्डन समय है। उस समय भी जो मास्टर बीज रूप वरदानी स्वरूप की स्मृति होनी चाहिए, उसके बजाए, समर्थी स्वरूप के बजाए, बाप समान स्थिति का अनुभव करने के बजाए, कौन-सा स्वरूप धारण करते हैं? मैजारिटी उल्हने देते या शिकायत करते हैं या दिलसिकस्त स्वरूप हो कर बैठते। वरदानी, विश्वकल्याणी स्वरूप के बजाए स्वयं के प्रति वरदान माँगने वाले बन जाते हैं। या अपनी शिकायतें या दूसरों की शिकायतें करेंगे। तो जैसा समय, वैसा स्मृति स्वरूप न होने से समर्थी स्वरूप भी नहीं बन पाते। इसी प्रकार से सारे दिन की दिनचर्या में, जैसा सुनाया कि समय प्रमाण स्वरूप धारण न करने के कारण सफलता नहीं हो पाती। प्राप्ति नहीं हो पाती। फिर कहते हैं - खुशी क्यों नहीं होती, इसका कारण क्या हुआ? ‘मंत्र और यंत्र को भूल जाते हैं।’
आजकल के नामीग्रामी वा जिनको बड़े आदमी कहते हैं उनका भी अभ्यास होता है, जैसी स्टेज पर जायेंगे, वैसी ड्रेस, वैसा रूप अर्थात् अपने स्वभाव को भी उसी प्रमाण बनाएंगे। अगर खुशी के उत्सव की स्टेज पर जायेंगे तो अपना स्वरूप भी उसी प्रमाण देखेंगे ‘जैसे स्टेज, वैसा स्वरूप’ के अभ्यासी होते हैं। चाहे अल्पकाल के लिए हो, बनावटी हो, लेकिन जो ऐसे अभ्यासी व्यक्ति होते हैं वे ही सब द्वारा महिमा के पात्र होते हैं। उनका है बनावटी, आपका रीयल। तो रीयल्टी और रॉयल्टी के अभ्यासी बनो। ‘जो हो, जैसे हो, जिसके हो’ उस स्मृति में रहो। पहले मनन करो कि हर समय वैसा स्वरूप रहा? अगर नहीं तो फौरन अपने को चैक करने के बाद चेंज करो। कर्म करने के पहले स्मृति स्वरूप को चैक करो, कर्म करने के बाद नहीं करो। कहीं भी कोई कार्य अर्थ जाना होता है तो जाने के पहले तैयारी करनी होती है, न कि बाद में। ऐसे हर काम करने के पहले स्थिति में स्थित होने की तैयारी करो। करने के बाद सोचने से कर्म की प्राप्ति के बजाए पश्चात्ताप हो जाता है। तो द्वापर से प्राप्ति के बजाए प्रार्थना और पश्चात्ताप किया लेकिन अब प्राप्ति का समय है। तो प्राप्ति का आधार हुआ - ‘जैसा समय वैसा स्मृति स्वरूप’। अब समझा कमी क्या करते हो? जानते सब हो, जानने में तो जानीजाननहार हो गये, लेकिन जानने के बाद है चलना और बनना। अगर कोई भी विस्मृति के बाद किसी को भी नॉलेज दे कि ऐसे नहीं करो वा ऐसे नहीं करना चाहिए तो क्या उत्तर देते? यही कहेंगे कि हम सब जानते हैं जो आप नहीं जानते। तो हर प्वाइंट के जानी-जाननहार बन गए हो ना। लेकिन जानी-जाननहार कमज़ोर कैसे होता है? इतना कमज़ोर जो समझते भी हैं न करना चाहिए फिर भी कर रहे हैं। तो जानने में नम्बर वन हैं ही, अब चलने में नम्बरवन बनो, समझा, अब क्या करना है? सुनना और स्वरूप बनना। हर एक सप्ताह समय के प्रमाण स्मृति स्वरूप बनने की प्रैक्टिस करना। प्रैक्टिकल अनुभूति करना। अच्छा।
सदा बाप की याद में रहते हुए हर कार्य करते हो? बाप की याद सहज है या मुश्किल है? अगर सहज बात है तो निरन्तर याद रहनी चाहिए। सहज काम निरन्तर और स्वत: होता रहेगा। तो निरन्तर बाप की याद रहती है? याद निरन्तर रहना उसका साधन बहुत सहज है। क्यों? अगर लौकिक रीति से देखा जाए - याद स्वत: सहज ही किसकी रहती है? जिससे प्यार होता है। जिस व्यक्ति व वैभव से प्यार होता, वह न चाहे भी याद आता। देह से प्यार हो गया तो देह का भान भूलता है? नहीं न। चाहते भी नहीं भूलता। क्यों? क्योंकि आधा कल्प देह के बहुत प्यारे रहे हो। जैसे लौकिक रीति भी प्यारी वस्तु या व्यक्ति स्वत: याद रहती, तो ऐसे ही यहाँ सबसे प्यारे ते प्यारा कौन? बाप है ना! इससे और कोई प्यारा हो नहीं सकता ना! तो प्यारे ते प्यारे होने के नाते से सहज और निरन्तर होना चाहिए ना? फिर भी क्यों नहीं? उसका कारण क्या? इससे सिद्ध है कि अब तक भी कहीं कुछ प्यार अटका हुआ है। पूरा प्यार बाप से नहीं लगाया है। इसलिए ही निरन्तर के बजाए, एक बाप के बजाए, दूसरे तरफ भी बुद्धि चली जाती है। तो प्यारे ते प्यारे बाप के प्यार को पहले अनुभव किया है, रूहानी प्यार का अनुभव किया है? रूह है तो रूह का प्यार भी रूहानी होगा ना? तो रूहानी प्यार का अनुभव है? अनुभव वाली बात कभी भूल नहीं सकती। रूहानी प्यार का अनुभव एक सेकेण्ड का अनुभव भी कितना श्रेष्ठ है! अगर एक सेकेण्ड के उस प्यार के अनुभव में चले जाओ तो सारा दिन क्या होगा? जैसे कोई पॉवरफुल (Powerful;शक्तिशाली) चीज़ होती तो उसकी एक बूंद भी बहुत कुछ कर लेती। ताकत कम वाली चीज़ कितनी भी बूंद डालो तो इतना नहीं कर सकती। तो रूहानी प्यार की एक घड़ी भी बहुत शक्ति देती, तब भूलाने के अभ्यास में मदद देती। तो अनुभवी हो या सिर्फ सुना या मान लिया? चैक करो जो बाप के गुण हैं, उन सर्व गुणों के अनुभवी हैं? जितना अनुभवी आत्मा, इतना मास्टर सर्वशक्तिवान। पुरूषार्थ की स्पीड ढीली होने का कारण अनुभव के बजाए सनने-सुनाने वाले हो। अनुभव में जाने से स्पीड ऑटोमेटिक तेज़ हो जाती है।
जैसे बाप सदा समर्थ है, ऐसे ही अपने को भी सदा समर्थ समझते हो? बाप कभीकभी समर्थ, कभी-कभी कमज़ोर है, या सदा समर्थ है? सदा समर्थ है ना। ऐसा समर्थ है तो सब समर्थी का दान बाप से लेते हैं। बाप समर्थी स्वरूप अर्थात् समर्थी का भी दाता है तो बच्चों को क्या बनना है? समर्थी लेने वाले या देने वाले? बाप आते ही, सर्व अधिकारी बना देते। जब आने से ही सब दे देते तो मांगने की क्या आवश्यकता? बिन मांगे मिल जाए तो मांगने की जरूरत ही क्या? मांगने से खुशी नहीं होती। जिनमें ज्ञान नहीं, वे मांगते हैं - ‘‘शक्ति दो, मदद दो’’। मदद मिलने का रास्ता - ‘हिम्मत।’ ‘हिम्मते बच्चे मददे बाप’। मांगने से मदद देनेवाला बाप नहीं। हिम्मत रखो तो मदद लाख गुणा मिलेगी। एक करना और लाख पाना - इस हिसाब को तो जानते हो न? तो हिम्मत कभी नहीं छोड़नी चाहिए। हिम्मत को छोड़ा अर्थात् प्रॉपर्टा को छोडा, प्रॉपर्टा को छोड़ा अर्थात् बाप को छोड़ा। क्या भी हो जाए, कैसी भी परिस्थति आ जाए, हिम्मत नहीं छोड़नी चाहिए। हिम्मत छोड़ी तो श्वास छोड़ी। ‘हिम्मत ही इस मरजीवा जीवन का श्वास है। श्वास ही चला जाए तो क्या रह गया? हिम्मत है तो मूर्छित से सुरजीत हो जाएगा।’ साइंस की वृद्धि का कारण भी ‘हिम्मत’ है। हिम्मत के आधार से चन्द्रमा तक पहुँच जाते, दिन को रात और रात को दिन बना देते। हिम्मत रख कर चलने वाले को सहज वरदान प्राप्त हो जाता है, मुश्किल भी सहज हो जाती है, असम्भव बात भी सम्भव हो जाती है।
सभी देखते हैं ब्रह्माकुमारियाँ क्या कहती हैं और क्या करती हैं। इसलिए जो कहते हो वह करने वाले बनो। ‘भगवान मिला’, ‘भगवान मिला’ का नारा तो लगाते, लेकिन भगवान मिला तो और कुछ रह गया है क्या जो उस तरफ बुद्धि जाती? तो सर्व प्राप्तियों का अनुभव सबके आगे दिखाओ। आपका शक्ति-स्वरूप अब सब देखना चाहते हैं। अभी महारथियों को कोई प्लान बनाना है। विघ्न-विनाशक बनने का साधन कौन सा है? ड्रामा अनुसार जो होता है उसको भावी समझ आगे चलते जावे। आत्माओं का जो अकल्याण हो जाता है, तो रहमदिल के नाते क्या होना चाहिए, जिससे उन आत्माओं का अकल्याण न हो। इसकी कोई न कोई युक्ति रचनी चाहिए। वातावरण भी पॉवरफुल बनाने के लिए अब कोई प्लान चाहिए। अभी यह एक लहर चल रही है। एक जनरल विघ्न, दूसरा जिसमें अनेक आत्माओं का अकल्याण है। आजकल जो लहर है - कई आत्माएं अपने आप ही अकल्याण के निमित्त बनी हैं। उनके लिए प्लान बनाओ। महारथियों का संकल्प करना या प्लान बनाना - यह भी वातावरण में फैला है। वातावरण को चेंज करना है। आजकल इस बात की आवश्यकता है जो विघ्न-विनाशक नाम है, वह अपने संकल्प, वाणी, कर्म में दिखाई दे। जैसे आग बुझाने वाले होते हैं - वह आग लगी है तो आग बुझाने सिवाय रह नहीं सकते। कैसा भी मुश्किल काम है, प्लान बना कर आग को बुझाते हैं। आप भी विघ्न विनाशक हो। वातवारण कैसे समाप्त हो? संकल्प रचेंगे तभी वायुमण्डल बदलेगा। हल्का मत करो, यह तो शुरू से ही चलता आया है, ये विघ्न तो पड़ने हैं। झाड़ को तो झड़ना ही है। विघ्न पड़े हुए को खत्म करो। जैसे कोई स्थूल नुकसान होता हुआ देख छोड़ नहीं देते, दूर से भी भागते हो नुकसान को बचाने के लिए, नैचुरल बचाने का संकल्प आएगा। ऐसे नहीं कि यह तो होता रहता है। यह तो ड्रामा है। हर आत्मा का अपना-अपना पार्ट है। हलचल में नहीं आते, परन्तु आप सेफ्टी तथा रहम करने वाले हो - इस भावना से सोचना है। विघ्न विनाशक हो - यह लक्ष्य रखना है। जिस बात का लक्ष्य रखते हो वह धीरे-धीरे हो जाता है। सिर्फ लक्ष्य और अटेंशन चाहिए। महारथियों सिर्फ स्वयं प्रति सर्व विधियां, सर्व शक्तियां यूज़ नहीं करनी हैं, अभी यह सोच चलता है वा नहीं? चलना चाहिए। इनसे किनारा नहीं करना है। किनारा करेंगे तो इन्डिविज्युल (Individual;व्यक्तिगत) राजा बनेंगे। विश्व-महाराजन नहीं। विश्व-कल्याण की भावना रखने से विश्व-महाराजन बनेंगे।
12-06-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
कमल पुष्प समान स्थिति ही ब्राह्मण जीवन का श्रेष्ठ आसन है
सर्व प्राप्तियों के आधार बाप ने समर्थ, बन्धनमुक्त, योगयुक्त आत्माओं के प्रति बाप-दादा ने ये महावाक्य उच्चारे:-
सदा ब्राह्मण जीवन का श्रेष्ठ आसन, कमल पुष्प समान स्थिति में स्थित रहते हो? ब्राह्मणों का आसन सदा साथ रहता है तो आप सब ब्राह्मण भी सदा आसन पर विराजमान रहते हो? कमल पुष्प समान स्थिति अर्थात् सदा हर कर्मेंन्द्रियों द्वारा कर्म करते हुए भी इन्द्रियों के आकर्षण से न्यारे और प्यारे। सिर्फ स्मृति में न्यारा और प्यारा नहीं, लेकिन हर सैकेंड का सर्व कर्म न्यारे और प्यारे स्थिति में हो। इसी का यादगार आप सबके गायन में अब तक भी भक्त हर कर्म इन्द्रिय के प्रति महिमा में नयन-कमल, मुख-कमल, हस्त-कमल कह कर गायन करते हैं। तो यह किस समय की स्थिति का आसन है? इस ब्राह्मण जीवन का। अपने आपसे पूछो, हर कर्म इन्द्रिय कमल समान बनी है? नयन कमल बने हैं? हस्त कमल बने हैं? कमल अर्थात् कर्म करते हुए भी विकारी बन्धनों से मुक्त। देह को देख भी रहे हैं लेकिन देखते हुए भी नयन कमल वाले, देह के आकर्षण के बन्धन में नहीं आयेंगे। जैसे कमल जल में रहते हुए जल से न्यारा अर्थात् जल के आकर्षण के बन्धन से न्यारा, अनेक भिन्न-भिन्न सम्बन्ध से न्यारा रहता है। कमल के सम्बन्ध भी बहुत होते हैं। अकेला नहीं होता है, प्रवृत्ति मार्ग की निशानी का सूचक है। ऐसे ब्राह्मण अर्थात् कमल पुष्प समान बनने वाली आत्माएं प्रवृत्ति में रहते, चाहे लौकिक, चाहे अलौकिक साथ-साथ किचड़े अर्थात् तमोगुणी पतित वातावरण रहते हुए भी न्यारे। जो गुण रचना में है तो मास्टर रचता में वही गुण है। सदा इस आसन पर स्थित रहते हो वा कभी-कभी स्थित होते हो? सदा अपने इस आसन को धारण करने वाले ही सर्व बन्धनमुक्त और सदा योगयुक्त बन सकते हैं। अपने आपको देखो - पांच विकार पांच प्रकृति के तत्त्वों के बन्धन से कितने परसेन्ट में मुक्त हुए हैं। लिप्त आत्मा हो व मुक्त आत्मा हो?
आप सबने बाप-दादा से वायदा किया है कि सबको छोड़ कर आपके ही बनेंगे, जो कहेंगे, जैसे करायेंगे, जैसे चलायेंगे वैसे चलेंगे। वायदा निभा रहे हो? सारे दिन में कितना समय वायदा निभाते हो और कितना समय वायदा भुलाते हो? गीत रोज गाते हो - ‘मेरा तो एक शिवबाबा दूसरा न कोई।’ ऐसी स्थिति है? दूसरा कोई सम्बन्ध, स्नेह, सहयोग वा प्राप्ति, व्यक्ति वा वैभव द्वारा बाप से किनारा करने वाला रहा है? है कोई व्यक्ति व वस्तु जो बन्धनमुक्त आत्मा को अपने आकर्षण के बन्धन में बांधने वाली? जब दूसरा कोई नहीं तो निरन्तर बन्धनमुक्त और योगयुक्त आत्मा का अनुभव करते हो? व कहते हो, दूसरा कोई नहीं परन्तु है। कोई है व सब समाप्त हो गये? अगर है तो गीत क्यों गाते हो? बाप-दादा को खुश करने लिए गाते हो? वा कह कर अपनी स्थिति बानाने के लिए गाते हो? ब्राह्मण जीवन की विशेषता जानते हो? ‘ब्राह्मण अर्थात् सोचना, बोलना, करना सब एक हो। अन्तर न हो।’ तो ब्राह्मण जीवन की विशेषता कब धारण करेंगे? अभी वा अन्त में? कई ऐसे भी बच्चे हैं जो स्वयं के पुरूषार्थ के बजाए समय पर छोड़ देते हैं। समय आने पर आत्माएं स्वयं कमज़ोर होने कारण समय पर रखते हैं आप लोगों के पास भी जब म्युजियम व प्रदर्शनी देखने आते हैं तो क्या कहते हैं? समय मिलेगा तो आयेंगे। अभी हम को समय नहीं है। यह अज्ञानियों के बोल हैं। क्योंकि समय के ज्ञान से अज्ञानी हैं लेकिन आपको तो ज्ञान है कि कौन सा समय चल रहा है; इस वर्तमान समय को कौन सा समय कहते हैं। कल्याणकारी युग अथवा समय कहते हो न! सारे कल्प की कमाई का समय कहते हो, श्रेष्ठ कर्म रूपी बीज बोने का समय कहते हो। पांच हजार वर्ष के संस्कारों का रिकार्ड भरने का समय कहते हो। विश्वकल्याण, विश्व परिवर्तन का समय कहते हो। समय के ज्ञान वाले भी वर्तमान समय को गंवाते हुए आने वाले समय पर छोड़ दें तो उसको क्या कहा जायेगा? समय भी आपकी क्रियेशन (Creation;रचना) है। क्रियेशन के आधार पर क्रियेटर (Creator;रचियता) का पुरूषार्थ हो अर्थात् समय के आधार पर स्वयं का पुरूषार्थ हो तो उसे क्रियेटर कहा जायेगा।
बाप-दादा ने पहले भी सुनाया है आप श्रेष्ठ आत्माएं सृष्टि के आधार मूर्त्त हो, ऐसे आधार मूर्त्त, समय के व किसी भी प्रकार के आधार पर रहें तो अधीन कहेंगे वा आधार मूर्त्त कहेंगे? तो अपने आप को चेक करो कि सृष्टि के आधार मूर्त्त आत्मा किसी भी प्रकार के आधार पर तो नहीं चल रहे है? सिवाए एक बाप के आधार मूर्त्त किसी भी हद के सहारे के आधार पर चलने वाली आत्मा तो नहीं है? वायदा तो यही किया है मेरा तो एक ही सहारा है लेकिन प्रेक्टिकल क्या है? एक सहारे का प्रैक्टीकल प्रमाण क्या अनुभव होगा? सदा एक अविनाशी सहारा लेते, इस कलयुगी पतित दुनिया से किनारा किया हुआ अनुभव करेगा। ऐसी आत्मा की जीवन नैया कलयुगी दुनिया का किनारा छोड़ चली। सदा स्वयं को कलयुगी पतित विकारी आकर्षण से किनारा किया हुआ अर्थात् परे महसूस करेंगे। कोई भी कलयुगी आकर्षण उसको खैंच नहीं सकते। जैसे साइंस के द्वारा धरती के आकर्षण से परे हो जाते, ‘स्पेस’ (Space) में चले जाते अर्थात् दूर चले जाते। अगर किसी भी प्रकार की आकर्षण चाहे देह के सम्बन्ध की व देह के पदार्थ की आकर्षित करती है, इससे सिद्ध है कोई न कोई के सहारे का प्रत्यक्ष प्रमाण विनाशी अल्प काल का सहारा होने के कारण प्राप्ति भी अल्प काल की होती है, अर्थात् विनाशी, थोड़े समय के लिए होती है। जैसे कई कहते हैं थोड़ा अनुभव होता है, याद रहती है, शक्ति मिलती है। शक्ति स्वरूप का अनुभव होता है लेकिन सदा नहीं रहता, उसका कारण? अवश्य एक सहारे के बजाए कोई न कोई हद के सहारे का आधार लिया हुआ है। आधार भी हिलता है और स्वयं भी हिलता है अर्थात् हलचल में आते हैं। तो अपने आधार को चैक करो। चैक करना आता है? चैक करने के लिए दिव्य अर्थात् समर्थ बुद्धि चाहिए। अगर नहीं तो बुद्धिवान आत्माओं के सहयोग से अपनी चेकिंग करो।
बाप-दादा ने हर ब्राह्मण आत्मा को जन्म होते ही दिव्य-समर्थ बुद्धि और दिव्य नेत्र ब्राह्मण जन्म का वरदान रूप में दिया है। वा यूं कहो कि ब्राह्मण के बर्थ डे (Birth Day;जन्म दिन) की गिफ्ट (Gift;सौगात) बाप द्वारा हरेक को प्राप्त है। क्या अपने जन्म की गिफ्ट को सम्भालना आता है? अगर सदैव इस गिफ्ट को यथार्थ रीति से यूज़ करो तो सदा कमल पुष्प समान रहो अर्थात् सदा कमल पुष्प समान स्थिति के आसन पर स्थित रहो। समझा क्या चैकिंग करनी है? सर्व कर्म इन्द्रियां कहाँ तक ‘कमल’ बनी हैं? ऐसे कमल समान बनने वाले सदा आकर्षण से परे अर्थात् सदा हर्षित रहेंगे। सदा हर्षित न रहना अर्थात् कहाँ-न-कहाँ आकर्षित होते हैं तब हर्षित नहीं रह सकते। अब इन सब बातों से बुद्धि द्वारा किनारा करो। ‘कहना और करना’ एक करो। वायदा करने वाला नहीं लेकिन निभाने वाले बनो। अच्छा।
सदा सर्व सम्बन्धों से, एक बाप दूसरा न कोई ऐसे सदा स्वयं को आधार मूर्त्त समझने वाले, समय के आधार से परे स्वयं को समर्थ समझ चलने वाले ऐसी समर्थ आत्माओं को बन्धनमुक्त आत्माओं को, सदा योगयुक्त आत्माओं को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
पार्टियों से
पांडव और शक्तियां दोनों ही युद्धस्थल पर उपस्थित हैं? युद्ध करते हुए विजय प्राप्त करते हुए, आगे बढ़ते चल रहे हो? तो विजयी आत्माओं को सदा विजय की खुशी होगी। विजय वालों को दु:ख की लहर नहीं होगी। दु:ख होता है हार में। विजयी रत्न सदा खुश अर्थात् हर्षित रहते हैं। स्वप्न में भी दु:ख का दृश्य न आए अर्थात् दु:ख के अनुभव की महसूसता न आए। स्वप्न में भी तो दु:ख होता है। कोई ऐसा दृश्य देख करके स्वप्न में भी दु:ख की लहर आती है? सदा विजयी के स्वप्न भी सुखदायी होते है, दुःख के नहीं। जब स्वप्न भी सुखदाई होंगे तो जरूर साकार में सुख स्वरूप होंगे। जब आप अपने गुणों की महिमा करते हो तो कहते हो, सुख स्वरूप..... या दु:ख भी कहते हो? आत्मा का अनादि स्वरूप सुख है तो दु:ख कहाँ से आया? जब अनादि स्वरूप से नीचे आते हो तो दु:ख होता। तो ऐसे अनुभव करते ही दु:ख से किनारा हो गया है? दूसरों के दु:ख की बातें सुनते दु:ख की लहर न आए। क्योंकि मालूम है, दु:खों की दुनिया है, आपके लिए दु:ख की दुनिया समाप्त हो गयी। आपके लिए तो कल्याणकारी चढ़ती कला का युग है। तो संकल्प में भी दु:ख की दुनिया को छोड़। चले लंगर उठ गया है ना? अगर दु:ख देने वाले सम्बन्धी या दु:ख की परिस्थिति अपनी तरफ खेंचती हैं तो समझो कुछ रस्सियां सूक्ष्म में रह गयी हैं। सूक्ष्म रस्सियाँ सब समाप्त हैं या कुछ रही हैं? उसकी परख अथवा निशानी है - ‘खिंचावट।’ अगर बन्धी हुई रस्सियाँ हैं तो आगे बढ़ नहीं सकेंगे। अगर अभी तक दु:ख का, दु:ख की दुनिया का किनारा छोड़ा नहीं तो संगमयुगी हुए नहीं ना? फिर तो कलियुग, संगम के बीच के हो गए। न यहाँ के न वहाँ के ऐसे की अवस्था अब क्या होगी? कब कहां, कब कहां। बुद्धि का एक ठिकाना अनुभव नहीं करेंगे। भटकना अच्छा लगता है क्या? जब अच्छा नहीं लगता तो खत्म करो। सदा अपने सुख स्वरूप में स्थित रहो। बोलो तो भी सुख के बोल, सोचो तो भी सुख की बातें, देखो तो भी सुख स्वरूप आत्मा को देखो। शरीर को देखेंगे तो शरीर तो है ही अन्तिम विकारी तत्त्वों का बना हुआ। इसीलिए सुख स्वरूप आत्मा को देखो। ऐसा अभ्यास चाहिए जैसे सतयुगी देवताओं को ‘दु:ख’ शब्द का पता भी नहीं होगा। अगर उनसे पूछो तो कहेंगे दु:ख कुछ होता भी है क्या। तो वह संस्कार यहाँ ही भरने हैं। ऐसे संस्कार बनाओ जो दु:ख शब्द का ज्ञान भी न हो। प्राप्ति के आधार पर मेहनत कुछ भी नहीं है। सजा के संस्कार बन जाए, उसके लिए अगर एक जन्म के कुछ वर्ष मेहनत भी करनी पड़े तो क्या बड़ी बात है? पाँच हजार वर्ष के संस्कार बनाने के लिए थोड़े समय की मेहनत है।
विघ्न आता है, उसमें कोई नुकसान नहीं, क्योंकि आता है विदाई लेने के लिए। लेकिन अगर रूक जाता है तो नुकसान है। आए और चला जाए। विघ्न को मेहमान बना कर बिठाओ नहीं। अभी ऐसा पुरूषार्थ चाहिए - आया और गया। विघ्न को अगर घड़ी- घड़ी का भी मेहमान बनाया तो आदत पड़ जाएगी, फिर ठिकाना बना देंगे। इसलिए आया और गया। आधा कल्प माया मेहमान है इसलिए तरस तो नहीं पड़ता? अब तरस मत करो।
अभी भी याद की यात्रा के अनुभव और डीप (Deep;गहराई) रूप में हो सकते हैं। वर्णन सब करते हैं, याद में रहते भी हैं; लेकिन याद से जो प्राप्तियाँ होनी हैं उस प्राप्ति की अनुभूति को और आगे बढ़ाते जाएं। उसमें अभी समय और अटेंशन देने की आवश्यकता है; जिससे मालूम पड़ेगा कि सचमुच अनुभव के सागर में डूबे हुए हैं। जैसे पवित्रता-शान्ति के वातावरण की भासना आती है, वैसे श्रेष्ठ योगी लगन में मगन रहने वाले हैं यह अनुभव हो। नॉलेज का प्रभाव है - योग की सिद्धि स्वरूप का प्रभाव हो। वह तब होगा जब आपको अनुभव होगा। जैसे उस सागर के तले में जाते हैं वैसे अनुभव के सागर के तले में जाओ। रोज नया अनुभव हो, तो याद की यात्रा पर अटेंशन हो। अन्तर्मुख होकर आगे बढ़ना, वह अभी कम है। सेवा करते हुए भी याद में डूबा हुआ है - यह प्रभाव अभी नहीं पड़ता। सेवा करते हैं - यह प्रभाव है। लेकिन निरन्तर योगी हैं - वो स्टेज पर आओ। इसकी इन्वेन्शन (Invention;आविष्कार) निकालने की धुन में लगो। जो किसी ने न किया है, वह मैं करूँ - यह रेस करो। याद की यात्रा के अनुभवों की रेस करो। इसके लिए जो योग शिविर कराते हैं, उनको चान्स अच्छा है। और कोई ड्यूटी नहीं, एक ही ड्यूटी है।
इससे निर्विघ्न सहज होते, वातावरण चेन्ज होता है। सब अपने में बिजी, दूसरे को देखने, सुनने की, विघ्नों में कमज़ोर होने की मार्जिन नहीं रहती। ऐसा प्लान बनाओ जो हरेक अपने में डूबा हुआ हो, चाहे साकार चीजों का नशा हो, चाहे प्राप्ति का। उसमें ही लवलीन रहो, वातावरण में मत आओ जो लहर फैले। अच्छा।
14-06-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
बाप-दादा का देश और विदेश का सैर-समाचार
सदा बाप समान गुणों का, ज्ञान का, शक्तियों का दान करने वाली महादानी आत्माओं प्रति बाप-दादा के उच्चारे हुए महावाक्य :-
विदेश की विशेषता- एक तरफ सृष्टि के परिवर्तन करने के स्थूल साधन इनवेन्ट (Invent;खोज) करने के निमित्त बनी हुई आत्माएं विज्ञानी लोग अपनी इन्वेंशन की रिफाईननेस (Refineness;महीनता) में लगे हुए थे। वैज्ञानियों की लगन, समय और प्रकृति के तत्त्वों के ऊपर विजय प्राप्त करने की, सर्व तत्वों को अपने वशीभूत करने की इच्छा में लगे हुए हैं। हर वस्तु को रिफाईन करने में वह अपनी विजय समझते हैं। जैसे कल्प पहले की यादगार में भी रावण राज्य की विशेषता सर्व तत्त्वों को अपने वशीभूत करना गाया हुआ है - कल्प पहले माफक इसी कार्य में विदेशी आत्माएं लगी हुई हैं। साथ-साथ विज्ञानी आत्माएं आप योगी आत्माओं के लिए, आपके श्रेष्ठ योग की जो प्रालब्ध स्वर्ग के राज्य भाग की प्राप्ति होनी है; उस आने वाले राज्य में सर्व सुखों के साधन आप राजयोगी आत्मओं को प्राप्त हों, ऐसे साधन न जानते हुए भी बनाने में खूब व्यस्त हैं। अर्थात् आप होवनहार देवताओं के लिए प्रकृति के सतोप्रधान श्रेष्ठ साधनों की इन्वेंशन करने में आपकी ही सेवा में लगे हुए हैं। जैसे आप को करने की एक ही लगन है। बाप द्वारा सर्व प्राप्तियों की लगन में रहते, वैसे विदेशी आत्माएं भी अपने साइन्स बल द्वारा सृष्टि को स्वर्ग बनाने के इच्छुक हैं। स्वर्ग अर्थात् जहाँ अप्राप्त कोई वस्तु न हो। इसी कार्य के लगन में लगी हुई आत्माएं ड्रामानुसार निमित्त बन अपना कार्य बहुत अच्छी तरह से कर रही हैं। लेकिन आपके लिए ही कर रही हैं। ऐसे आप सबको अनुभव होता है कि यह सब हमारी तैयारियों में लगे हुए हैं? कितनी सच्चाई, सफाई से सेवा करने वाले हैं। अगर उन्हीं का कार्य देखो और लगन देखो तो अनुभव करेंगे। सेवा के कार्य में अच्छा ही वफादारी से दिन रात लगे हुए हैं। सेवाधारी तो एक ही लगन में मगन हैं। लेकिन आप आत्माएं जो सर्व सुखों के साधन प्राप्त करने वाली हैं, विश्व के राज्य के अधिकारी बनने वाली हैं, वह इसी लगन में मगन रहती हो, या विघ्न लगन को अविनाशी बनाने नहीं देते? लगन की अग्नि अविनाशी प्रज्वलित रहती है, वा अभी लगन और अभी विघ्न?
विदेश के विज्ञानी आत्माओं में निरन्तर अपने कार्य के लगन की विशेषता देखी, तो जो आपके सेवाधारियों में गुण हैं - वह विश्व का मालिक बनने वाली आत्माओं में भी गुण हैं ना। अपने आपको चैक करो। दूसरी तरफ विदेश में परमात्म-ज्ञानी बच्चों को देख उन्हों में भी वर्तमान समय एक ही दृढ़ संकल्प की लगन है, उमंग, उत्साह है कि अब जल्दी से जल्दी बाप का संदेश देवें। विदेश द्वारा निमित्त बनी हुई विशेष आत्माएं जिन आत्माओं के अनुभव के आवाज़ से भारतवासी कुम्भकरण जागेंगे। ऐसे निमित्त बनी हुई आत्माओं को बाप के सम्मुख प्रत्यक्ष करें अर्थात् सम्बन्ध व सम्पर्क में लावें। समीप समय की सूचना विदेश द्वारा भारत में फैलावें। इसी एक लगन में दृढ़ संकल्प के कंगन में बंधे हुए परमात्म-ज्ञानी बच्चों को देखा। उन्हों को भी न दिन, न रात दोनों समान हैं। इस लगन में मगन हैं। वर्तमान समय की लगन में मैजारिटी विघ्नमुक्त आत्माएं एक दो के स्नेह और सहयोग के धागे में पिरोए हुए माला के मणके अच्छे चमकते हुए नज़र आ रहे थे। नए व पुराने हर आत्मा में एक ही उमंग है कि इस श्रेष्ठ कार्य में हम भी अंगुली दें। कुछ करके दिखावें और क्या देखा? संदेश पाने वाली आत्माएं, इच्छुक आत्माएं अर्थात् जिज्ञासा वाली आत्माएं थोड़े से समय में शान्ति और शक्ति की अंचली प्राप्त कर बहुत खुश होती हैं। निमित्त बनी हुई आत्माओं को परमात्मा द्वारा वा गॉड फॉदर (God Father) द्वारा भेजे हुए अलौकिक फरिश्ते अनुभव करते हैं। थोड़ी सी ली हुई सेवा का भी रिटर्न देने में भी अपनी खुशी अनुभव करते हैं और फौरन रिटर्न करते। थोड़ी सी सेवा का शुक्रिया बहुत मानते हैं। यह वर्तमान समय के परमात्म-ज्ञानियों की वा निमित्त बनी हुई श्रेष्ठ आत्माओं की इस सेवा के चक्र में चक्रवर्ती बनने की जो ड्रामा की नूंध हैं इसी नूंध में स्थापना और विनाश के रहस्य का बहुत कनेक्शन है। यह थोड़े समय की सेवा देना वा चक्रवर्ती बन अपने दृष्टि द्वारा, वाणी द्वारा, वा सम्पर्क द्वारा, वा सूक्ष्म शुभभावना और शुभकामना के वृत्ति द्वारा अनेक प्रकार के आपकी राजधानी के तैयारी के निमित्त बने हुए सेवाधारी आत्माओं को सेवा के फल में सेवाधारी बनने के कार्य में सर्व श्रेष्ठ आत्मा की नज़र द्वारा सब निमित्त बनने वाली आत्माएं ज्ञानी व विज्ञानी प्रसिद्ध हो रही हैं। समझा रहस्य को?
भारत में तो आपकी भक्त आत्माएं मिलेंगी। लेकिन तीन प्रकार की आत्माएं चाहिए - एक ‘ब्राह्मण सो देवता’ बनने वाली और प्रजा बनने वाली आत्माएं; दूसरी भक्त आत्माएं; और तीसरी आपकी राजधानी तैयार कर देने वाली आत्माएं। सेवाधारी सर्व सुखों के साधन और सामग्री तैयार करने के निमित्त बनते हैं। और आप प्रालब्ध भोगते हो। यह पाँच तत्व और पाँच तत्वों द्वारा बनी हुई रिफाईन चीजें सब आपके सेवा के निमित्त बनेगी। इतना श्रेष्ठ स्वमान स्मृति में रहता है वा अब तक भी स्मृति-विस्मृति के खेल में ही चल रहे हो? ‘स्मृति स्वरूप से समर्थी स्वरूप’ बनो। सुना, विदेश का समाचार? और भी वर्तमान चक्रवर्ती आत्माओं के चक्र लगाने का रहस्य है। जहाँ-जहाँ परमात्म-ज्ञानी आत्माएं ईश्वरीय सेवा-स्थान खोलने के निमित्त बनी हैं और आगे भी बनने हैं। तो अब के विदेश सेवा-स्थान भविष्य में आपके सैर स्थान बनेंगे। जैसे भारत में यादगार स्थान मंदिर हैं लेकिन यह द्वापर के बाद हैं। इसलिए विदेशी आत्माओं का भी भविष्य स्थापना में कनेक्शन है, समझा? आज विदेश समाचार सुनाया, फिर भारत का सुनायेंगे। यह सब समाचार सुनने के बाद करना क्या है? सिर्फ सुनाना है वा कुछ करना भी है? ऐसे सर्व साधनों को प्राप्त करने के लिए स्वयं को सदैव विश्व के मालिक बनने योग्य बनाओ। ‘निरन्तर योगी बनना ही योग्य आत्मा बनना है।’ ऐसे अपने को समझते हो? तीव्र पुरुषार्थी बन स्वयं को भी सम्पन्न बनाओ और निमित्त बने हुए सेवाधारी आत्माओं को भी कार्य में सम्पन्न बनने की प्रेरणा दो। तब विश्व-परिवर्तन होगा।
सदा लगन द्वारा विघ्न विनाश करने वाले विघ्न-विनाशक आत्माओं को, सदा अपने दृष्टि और वृत्ति द्वारा भी विश्व सेवा में तत्पर रहने वाली आत्माओं को, सदा बाप समान गुणों का, ज्ञान का, शक्तियों का दान करने वाली महादानी, रूहानी नज़र से वरदान देने वाली आत्माओं को बाप-दादा को याद-प्यार और नमस्ते।
पार्टियों से-
विश्व की सर्व आत्माओं प्रति सदा रहम व कल्याण की भावना रहती है? हद के प्रति कल्याण की भावना रहती है वा बेहद के प्रति? अब विश्व के प्रति कल्याण की भावना रहेगी तो ऑटोमेटीकली स्वयं प्रति रहेगी। संगमयुगी ब्राह्मणों की विशेष ड्यूटी व धर्म और कर्म ही है ‘विश्व कल्याण’ करना। अपने जन्म का काम करना मुश्किल नहीं होता। तो सदा अमृतवेले अपने पोजीशन को स्मृति में लाओ कि हमारा पोजीशन विश्व कल्याणकारी का है। अपने पोजीशन पर सेट होने से आपोजीशन से बच जाएंगे।
सदैव साक्षीपन की सीट पर स्थित होकर रहते हुए हर एक्ट अपनी और दूसरों की देखते हो? कोई ड्रामा की सीन सीट पर स्थित ही देखने में मजा आता है। कोई भी सीन सीट के बिना नहीं देखा जाता। तो साक्षीपन की सीट पर सदा स्थित रहते हो? यह बेहद का ड्रामा सदा चलता रहता है। यह दो-तीन घंटे का नहीं, अविनाशी है तो सदा देखने के लिए सीट भी सदा चाहिए। ऐसे नहीं दो घंटे सीट पर बैठा फिर उतर जाओ। तो सदा साक्षी हो देखेंगे वह ‘कभी हार और जीत’ के दृश्य को देखकर डगमग नहीं होंगे। सदा एक रस रहेंगे। ड्रामा याद रहे तो सदा एकरस रहेंगे। ड्रामा को भूले तो डगमग रहेंगे। अगर ड्रामा कभी-कभी याद रहता तो राज्य भी कभी-कभी करेंगे? अगर साक्षी कभी-कभी रहते तो स्वर्ग में साथी भी कभी-कभी होंगे। नॉलेजफुल तो हो ना? सब जानते हो लेकिन जानते हुए भी ‘साक्षीपन’ की स्टेज पर न रहने का कारण अटेंशन में अलबेलापन, स्वाचिंतन की बजाए अपना व्यर्थ बातों में स्वचिन्तन को गंवा देते। स्वचिन्तन में न रहने वाला साक्षी नहीं रह सकता। परचिन्तन को समाप्त करने का आधार क्या है? अगर हर आत्मा के प्रति शुभ चिन्तक होंगे तो परचिन्तन कभी नहीं करेंगे। तो सदा शुभचिन्तन और शुभचिन्तक रहने से सदा साक्षी रहेंगे। साक्षी अर्थात् अभी भी साथी और भविष्य में भी साथी।
विशेष आत्माओं ने अपनी विशेषता क्या दिखाई है? लास्ट विशेषता कौन-सी होगी विशेष आत्माओं की? जिसका इन-एडवान्स (InAdvance;पहले से) बाप-दादा दृश्य देख रहे हैं। वह क्या विशेषता होगी? जैसे साइंस वाले हर चीज़ रिफाईन भी कर रहे हैं और अपनी स्पीड क्वीक (Quick;तेज) भी कर रहे हैं। जैसे कहने में आता है मिनट-मोटर वैसे विशेष आत्माओं की लास्ट विशेषता यही रहेगी - सेकेण्ड में किसी भी आत्मा को मुक्ति और जीवन्मुक्ति के अनुभवी बना देंगी। सिर्फ रास्ता नहीं बतलायेगी लेकिन एक सेकेण्ड में शान्ति का वा अतिइन्द्रिय सुख का अनुभव करायेगी। जीवन्मुक्ति का अनुभव है सुख, और मुक्ति का अनुभव है शान्ति। सामने आया और अनुभव किया। ऐसी स्पीड जब होगी तब साइंस के ऊपर साइलेन्स की विजय देखते हुए सबके मुख से वाह-वाह का आवाज़ निकलेगा कि साइंस के ऊपर भी इनकी विजय हो गई। जो साइंस नहीं कर सके वह साइलेन्स करके दिखावे। साइंस का लक्ष्य भी है - सबको शान्तिमय, सुखमय जीवन व्यतीत करना। तो जो साइंस नहीं कर सके वह करो तब कहेंगे साइंस के ऊपर विजय। शान्ति वालों को शान्ति और सुख वालों को सुख मिले, तब आपका गायन करेंगे, आपको पूर्वज मानेंगे, अष्टदेव समझेंगे और बारम्बार बाप की महिमा करेंगे। इसी आधार पर फिर द्वापर में भक्त और धर्मपिता के संस्कार इमर्ज होंगे। यह विशेष कार्य अब होने वाला है तब समझो लास्ट विजय का समय आ गया। सबको कुछ न कुछ मिलेगा, सिर्फ भातरवासी ही नहीं समझेंगे कि ‘हमारा बाबा है’, सभी समझेंगे हमारा है तब तो ग्रेट-ग्रेट ग्रैन्ड फादर (Great Great Grand Father) कहा जायेगा ना! दूसरे देश वाले अभी समझते हैं भारत के पिता का परिचय देते हैं, लेकिन जब कहा जाता गाड इज वन (God Is One;भगवान एक है) तो सभी वन (One;एक) का अनुभव तो करें ना। जब ऐसे वन का अनुभव करें तब सब समझो विन (Win;विजय) होगी। सबके मुख से एक आवाज़ निकले -हमारा बाबा; तब फिर द्वापर में सभी ‘ओ गाड फॉदर’ कह पुकारेंगे। अच्छा।
16-06-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
एक ही पढ़ाई द्वारा नम्बरवार पूज्य पद पाने का गुह्य रहस्य
सृष्टि के आधारमूर्त्त, विश्व परिवर्तक आत्माओं प्रति बाप-दादा के उच्चारे हुए महावाक्य:-
आज बाप-दादा हर आत्मा के पुरूषार्थ करने के कर्म की गती और पुरूषार्थ अनुसार राज्य पद वा पूज्य पद की गति जो कि अति रमणीक और गुह्य है वह देख रहे हैं। जैसे पुरूषार्थ में नम्बरवार हैं, वैसे ही पद और पूज्य पद में नम्बरवार हैं। जो नम्बर वन श्रेष्ठ पुरुषार्थी हैं उन्हीं का राज्य पद और पूज्य पद अति श्रेष्ठ और गुह्य रहस्य भरा है। पूज्य तो सब बनते हैं। सृष्टि के लिए सब पुरुषार्थी आत्माएं परम पूज्य हैं। अष्ट रत्न हैं वा 108 की माला है वा 16 हजार की माला है वा 9 लाख प्रजा पद वाले हैं, लेकिन सभी कोई न कोई रूप में पूज्य अवश्य बनते हैं। अब तक भी अनेक अनगिनत सालिग्राम बना कर पूजा करते हैं। लेकिन अनेक सालिग्राम रूप की पूजा और विशेष इष्ट-देव के मन्दिर रूप की पूजा, उसमे अन्तर कितना होता है, उनको जानते हो ना? सालिग्राम रूप में अनेकों की पूजा होती है और अष्ट देव के रूप में नामीग्रामी कोई- कोई आत्मा की पूजा होती है। 16 हजार की माला भी कभी-कभी सुमिरण करते। 108 की माला अनेक बार सुमिरण करते हैं, और अष्ट रत्नों को वा अष्ट देवों को वा देवियों को बाप के समान सदा अपने दिल में याद रखते हैं। इतना अन्तर क्यों हुआ? बाप-दादा तो सर्व बच्चों को एक ही पढ़ाई, एक ही लक्ष्य - मनुष्य से देवता वा विजयी रत्न बनने को देते हैं, फिर भी पूजन में इतना अन्तर क्यों? कोई की डबल पूजा अर्थात् सालिग्राम रूप में भी और देवी या देवताओं के रूप में भी, कोई की सिर्फ सालिग्राम रूप में माला के मणके के रूप में पूजा होती है। इसका भी क्या रहस्य है? मुख्य कारण है आत्माभिमानी बनने का लक्ष्य व आत्मिक स्वरूप में स्थित रहने का पुरूषार्थ, हर ब्राह्मण आत्मा जन्म से ही करते हैं। ऐसा कोई भी ब्राह्मण नहीं होगा जो आत्माभिमानी बनने का पुरुषार्थी न हो। लेकिन निरन्तर आत्माभिमानी, जिससे कर्मइन्द्रियों के ऊपर विजय हो जाए, हरेक कर्मइन्द्रिय सतोप्रधान स्वच्छ हो जाए - इस सब्जेक्ट में अर्थात् देह के पुराने संस्कार और सम्बन्ध से सम्पूर्ण मरजीवा हो जाए, इस पुरूषार्थ में नम्बर बनते हैं। कोई पुरुषार्थी की कर्म इन्द्रियों पर विजय हो जाती है अर्थात् कर्मेंन्द्रिय जीत बन जाते हैं और कोई-कोई आँख के धोखे में, मुख द्वारा अनेक रस लेने के धोखे, इसी प्रकार कोई न कोई कर्मइन्द्रिय के धोखे में आ जाते हैं। अर्थात् सम्पूर्ण निर्विकारी, सर्व इन्द्रिय जीत नहीं बन पाते हैं। इसी कारण ऐसे कर्म इन्द्रिय पर हार खाने वाले कमज़ोर पुरुषार्थीयों की, ऊँच ते ऊँच बाप के बच्चे बनने के कारण, ऊँच बाप के संग के कारण, पढ़ाई और पालना के कारण विश्व के अन्दर श्रेष्ठ आत्माएं होने के कारण, आत्मा अर्थात् सालिग्राम रूप में पूजे जाते हैं। लेकिन सर्व कर्मइन्द्रिय जीत न होने के कारण साकार रूप में देवी और देवता के रूप में पूजा नहीं होती है। सम्पूर्ण पवित्र न बनने के कारण सम्पूर्ण निर्विकारी, महिमा योग्य देवी वा देवता रूप की पूजा नहीं होती है। सदा बापदादा के दिलतख्त नशीन न बनने के कारण वा सदा दिल में एक दिल लेने वाले बाप की याद वा सदा दिल पर दिलवाला की याद नहीं रहती। इसलिए भक्त आत्माएं भी अष्ट देव के रूप में दिल में नहीं समाती हैं। निरन्तर याद नहीं तो सदा काल का मन्दिर रूप में यादगार भी नहीं। तो फर्क पड़ गया ना? सिंगल पूजा और डबल पूजा में कितना अन्तर रहा! वह प्रजा का पूजन रूप और वह राज्य पद प्राप्त करने वाले पूजा का रूप। इसमें भी अन्तर है।
विशेष देवताओं का हर कर्म का पूजन होता है और कोई-कोई देवताओं का रोज पूजन होता है, परन्तु हर कर्म में नहीं। कोई-कोई का पूजन कभी विशेष निश्चित दिनों पर होता है इसका भी रहस्य है। अपने आप से पूछो कि - हम कौन से पूज्य बनते हैं? अगर कोई भी सब्जेक्ट में विजयी नहीं बने, तो जैसे खण्डित मूर्त्ति का पूजन नहीं होता, पूज्य से साधारण पत्थर बन जाता, कोई मूल्य नहीं रहता, ऐसे अगर कोई भी सब्जेक्ट में सम्पूर्ण विजयी नहीं बनते तो ‘परम पूज्य’ नहीं बन सकते। पूज्य बनेंगे और गायन योग्य बनेंगे। गायन योग्य क्यों बनते? क्योंकि बाप के बच्चे बनने के कारण, बाप के साथ-साथ पार्ट बजाने के कारण, बाप की महिमा के गुणगान करने के कारण, यथा शक्ति त्याग करने के कारण, वा यथा शक्ति याद में रहने के कारण बनती हैं।
और पूजन का रहस्य है - एक पवित्रता के कारण पूजा है, दूसरा श्रेष्ठ आत्माओं के सर्व शक्तिवान बाप द्वारा जो शक्तियों की धारणा की है, उन शक्तियों के भी भिन्न रूप से यादगार रूप में पूजा होती है, जैसे जिन आत्माओं ने विद्या अर्थात् ज्ञान धारण करने की शक्ति सम्पूर्ण रूप में धारण की है तो ज्ञान अर्थात् नॉलेज की शक्ति का यादगार ‘सरस्वती’ के रूप में हैं। संहार करने की शक्ति का यादगार दुर्गा के रूप में हैं। ज्ञान धन को देने वाली महादानी का, सर्व खजानों के धन को देने वाली लक्ष्मी के श्रेष्ठ रूप में पूजे जाते हैं। हर विघ्न पर विजय प्राप्त करने का यादगार - विघ्न विनाशक रूप में पूजा जाता है। मायाजीत अर्थात् माया के विकराल रूप को भी सहज और सरल बनाने की शक्ति का पूजन, महावीर के रूप में है। तो श्रेष्ठ आत्माओं की हर शक्ति और श्रेष्ठ कर्म का भी पूजन होता है। शक्तियों का पूजन हर देवी देवता की पूजा के रूप में दिखाया हुआ है तो ऐसे पूज्य, जिन्हों के हर श्रेष्ठ कर्म और शक्तियों का पूजन है उसको कहा जाता है - परम पूज्य। तो सदा अपने को सम्पूर्ण बनाओ। चेक करो कि खण्डित मूर्त्ति हूँ वा पूज्य मूर्त्ति हूँ? गायन है सम्पूर्ण निर्विकारी व 16 कला सम्पन्न। सिर्फ निर्विकारी बने हो या सम्पूर्ण निर्विकारी बने हो? अखंड योग है वा खण्डन होता है? अचल है वा हलचल है? बाप क्या चाहते हैं? हर आत्मा बाप समान सम्पूर्ण बनें। और बच्चे भी चाहते सब हैं, लेकिन करते कोई-कोई हैं, इसलिए नम्बर बन जाते हैं। अच्छा, सुनते तो बहुत हो। सुनना और करना - इनको समान बनाओ। समझा क्या करना है?
ऐसे परम पूज्य, सदा एक बाप को साथ रखने वाले, हर कदम श्रेष्ठ मन के आधार पर चलने वाले, ऐसे सृष्टि के आधार मूर्त्त, विश्व परिवर्तक आत्माओं को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते। अच्छा।
पार्टियों से:-
सदा स्वयं को चलते-फिरते फरिश्ते अनुभव करते हो? फरिश्ता अर्थात् जिसका देह के वा देह के दुनिया से वा देह के पदार्थों के आकर्षण से कोई रिश्ता नहीं। सदा बाप की याद और सेवा - इसी में रहने वाले। सदा बाप और सेवा - यही लगन रहती है। सिवाए बाप और सेवा के और क्या है जहाँ बुद्धि जाए? ट्रस्टी सदा न्यारा रहता है। ट्रस्टी के लिए सिर्फ एक काम है - याद और सेवा। अगर कर्मणा भी करते तो भी सेवा के निमित्त। गृहस्थी स्वार्थ के निमित्त करता और ट्रस्टी सेवा अर्थ।
सर्व सब्जेक्ट में सम्पन्न करने का स्वत: पुरूषार्थ चलता है? जैसे-जैसे समय और सम्पूर्णता के समीप आते जाते हैं, तो पुरूषार्थ करने का स्वरूप भी बदलता जाता है। जो शुरू का पुरूषार्थ और मध्य काल का पुरूषार्थ है या अन्त काल का है, तीनों का फर्क है ना? अब सम्पूर्ण स्टेज के समीप का पुरूषार्थ क्या है? जैसे कोई भी ऑटोमेटिक चलने वाली वस्तु को एक बारी स्टार्ट कर दिया तो चलती रहती; बार-बार चलाना नहीं पड़ता। इसी प्रकार से एक बार लक्ष्य मिला और फिर ऑटोमेटिक हर कदम, हर संकल्प, समय के चढ़ती कला प्रमाण चलते रहे - ऐसे अनुभव होता है? पुरूषार्थ के समर्थ स्वरूप की निशानी क्या होगी? (समय के पहले पहुँचेंगे) समय से पहले पहुँचने का अनुभव सर्व सब्जेक्ट में होता हैं वा कोई विशेष सब्जेक्ट में? सब सब्जेक में समान मार्क्स हैं। एडवान्स जाना तो अच्छा है, लेकिन सब सब्जैट से एडवान्टेज लेना - यह भी जरूरी है। लक्ष्य अच्छा है और लक्ष्य में परिवर्तन भी है।
सदा स्वयं को बाप के कार्य में वा अपने कार्य में सहयोगी बनने वाले सहयोगी, समीप आत्मा समझते हो? बाप के कार्य में जो जितना सहयोगी होगा तो सहयोगी ही योगी बन सकता है। सहयोगी नहीं तो योगी नहीं। सहयोग देना अर्थात् बाप और बाप के कार्य की याद में रहना। लौकिक में भी किसी को सहयोग देते तो उसकी याद रहती है। तो ‘योगी अर्थात् सहयोगी।’ सहयोगी बनने से स्वत: योगी बन जाते और दूसरा सहयोगी बनने से पद्मगुणा जमा कर लेते। सहयोग क्या देते? पुराने तन या तमोगुणी मन! उसकी याद से सतोप्रधान बनाकर मन को सेवा में लगाते या चावल चपटी धन लगाते। और क्या लगाते? ‘तन-मन-धन तीनों से सहयोगी बनना अर्थात् योगी बनाना।’ गीत गाते हो न - जहाँ तन जाएगा, धन भी वहाँ ही लगाएंगे। तो यह निरन्तर योगी बनने का सहज साधन है। क्योंकि सहयोगी बनने से सहयोग के रिटर्न मिलने से योग सहज हो जाता। तो हर संकल्प में बाप के वा अपने कर्म के सहयोगी बनो। हर कर्म, सेवा में, कार्य में सहयोगी बनने से व्यर्थ खत्म हो जाएगा, क्योंकि बाप का कार्य समर्थ है। ऐसा सहयोगी तीव्र पुरुषार्थी ऑटोमेटिक हो जाता है।
सदा अपने को निश्चय बुद्धि, निश्चिंत आत्मा अनुभव करते हो? जो निश्चय बुद्धि होगा वह निश्चिंत होगा। किसी प्रकार का चिन्तन वा चिन्ता नहीं होगी। क्या हुआ? क्यों हुआ? ऐसे नहीं होता - यह व्यर्थ चिंतन है। निश्चय बुद्धि निश्चिंत और व्यर्थ चिन्तन नहीं करेगा। सदा स्वचिन्तन में रहने वाले, स्वस्थिति में रहने से परिस्थिति पर विजय प्राप्त करते हैं। दूसरे तरफ से आई हुई परीस्थिति को स्वीकार क्यों करते? परिस्थिति को किनारा करो तो स्वचिन्तन में रहेंगे। और जो स्वचिन्तन में स्थित रहता वह सदा सुख के सागर में समाया हुआ रहता। सुख के सागर में समाए हुए हो? जब बाप सुख का सागर है तो बच्चे मास्टर सुख के सागर हुए। संकल्प में भी दु:ख की लहर आती है, कि सदा सुखी रहते हो? सुख के सागर के मास्टर उसमें दु:ख हो ही नहीं सकता। अगर दु:ख आता तो मास्टर दु:ख के सागर अर्थात् रावण, आँख से भी आता, कान से भी आता, मुख से भी आता। सर्व शक्तिवान के आगे रावण आ नहीं सकता। बाप की याद सबसे बड़ी ते बड़ी सेफ्टी है।
जो माया वा विघ्नों से कभी धोखा नही खाता वह सदा ऐसे दिखाई देगा जैसे इस दुनिया से ‘न्यारा और प्यारा’ है। तो कमल पुष्प समान रहते हो कि कीचड़ के छींटे पड़ जाते? अगर श्रीमत पर हर कदम उठाएं तो सदा कमल पुष्प समान रहेंगे। मनमत मिक्स होने से सदा कमल समान नहीं रह सकते। संसार सागर की कोई लहर का प्रभाव पड़ना अर्थात् पानी के छींटे पड़ना।
सदैव संगम युग का श्रेष्ठ खजाना ‘अतिइन्द्रिय सुख’ है ऐसे खज़ाने की प्राप्ति का अनुभव करते हो? अति इन्द्रिय सुख का खजाना प्राप्त हुआ है? खजाना मिला हुआ खो क्यों जाता? पहरा कौन सा? अटेंशन। अटेंशन कम करना अर्थात् अपने प्राप्त किए हुए खज़ाने को खो देना। सारे कल्प में फिर यह खजाना प्राप्त होगा? तो ऐसी अमूल्य चीज़ कितनी संभाल कर रखनी होती है? स्थूल में भी बढ़िया चीज़ संभाल कर रखते हैं। जैसे वहाँ भी पहरेदार अलबेले होते तो नुकसान कर देते, यहाँ भी अलबेलापन आता तो खजाना खो जाता। बार-बार अटेंशन चाहिए। ऐसे नहीं - अमृतवेले याद में बैठे, अटेंशन दिया फिर चलते-फिरते खो दिया। अमृतवेले अटेंशन देते और समझते सब कुछ कर लिया, लेकिन चलते-फिरते भी अटेंशन देना है। अतिइन्द्रिय सुख का अनुभव अभी नहीं किया, तो कभी नहीं करेंगे। पाँच हजार वर्ष के हिसाब से यह कितना श्रेष्ठ समय है! इतनी श्रेष्ठ प्राप्ति के लिए थोड़ा समय भी अटेंशन न रखेंगे तो क्या करेंगे? कर्म और योग दोनों साथ चाहिए। योग माना ही याद का अटेंशन, जैसे कर्म नहीं छोड़ते वैसे याद भी न छूटे। इसको कहा जाता है ‘कर्मयोगी।’
पांडवों की जो विशेषता गाई हुई है वह जानते हो? पांडवों के विजय का मुख्य आधार - ‘एक बाप दूसरा न कोई।’ पांडवों का संसार बाप था। यह किसका यादगार है? आपका यादगार हर कल्प गाया जाता है। तो ऐसे अनुभव होता है? संसार ही बाप है। जहाँ देखो वहाँ बाप ही नज़र आता है। संसार में सम्बन्ध और सम्पत्ति होती, तो सम्बन्ध भी बाप में है और सम्पत्ति भी बाप में है। और बाकी कुछ रह गया है? पांडव अर्थात् जिसका संसार ही बाप है। ऐसे पांडव हर कार्य में विजयी होंगे ही। होंगे या नहीं यह सवाल नहीं उठ सकता। कर्म करने के पहले संकल्प उठता है, होगा या नहीं होगा, कि हुआ ही पड़ा है यह निश्चय है? पांडवों को पहले ही निश्चय होता, हमारी जीत है, क्योंकि सर्वशक्तिवान साथ है। ‘पाण्डव अर्थात् सदा विजयी रत्न। विजयी रत्न ही बाप को प्रिय लगते हैं।’
18-06-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
योग की पॉवरफुल स्टेज कैसे बने?
सदा बाप के हर आज्ञा का पालन करने वाले, आज्ञाकारी, वफादार, सदा स्वयं को अभ्यास में बिजी रखने वाले, सम्पूर्ण ज्ञान और योग की हर विशेषता को जीवन में लाने वाली आत्माओं के प्रति बाप-दादा ने ये महावाक्य उच्चारे:-
रूहानी मिलन मनाने के लिए वरदान भूमि पर आये हो। रूहानी मिलन वाणी से परे स्थिति में स्थित होने से होता है वा वाणी द्वारा होता है? वाणी से परे स्थिति प्रिय लगती है वा वाणी में आने की स्थिति प्रिय लगती है? वाणी से परे स्थिति शक्तिशाली है और सर्व की सेवा के निमित्त बनाती वा वाणी द्वारा सर्व की सेवा करने से स्थिति शक्तिशाली अनुभव होती है? बेहद की सेवा वाणी से परे स्थिति द्वारा होती है वा वाणी से होती है? अन्तिम सम्पूर्ण स्टेज जिसमें सर्व शक्तियों से सम्पन्न मास्टर सर्वशक्तिवान, मास्टर नॉलेजफुल की स्थिति प्रैक्टिकल रूप में होती है। ऐसी सम्पूर्ण स्थिति वाणी से परे की होती है वा वाणी में आने से होती है? सर्व आत्माओं के प्रति विश्व कल्याणकारी, महादानी, वरदानी, सर्व प्रति सर्व कामनाओं की पूर्ति करने वाली स्टेज वाणी से परे स्थिति की है वा वाणी में आने की? दोनों के अनुभवी दाेनों स्टेजेस को जानने वाले हो? दोनों में से ज्यादा समय किसमें स्थित हो सकते हो? कौन-सी स्थिति सहज अनुभव होती है? ऐसे एवररेडी हो जो सेकेण्ड में जिस स्थिति में स्थित होने का डायरेक्शन मिले तो उसी समय स्वयं को स्थित कर सको वा स्थित होने में ही समय निकल जाएगा? क्योंकि जैसे समय सम्पन्न होने का समीप आ रहा है, तो समय के पहले स्वयं में यह विशेषता अनुभव करते हो? अन्तिम समय फुल स्टॉप (Full Stop;पूर्ण विराम) होने सर्वश्रेष्ठ साधन यही है, जो डायरेक्शन मिले उसी प्रमाण, इसी घड़ी उस स्थिति में स्थित हो जाना। इस साधन के प्रैक्टिस को अनुभव में ला रहे हो? प्रैक्टिस है? बाप-दादा ने अभ्यास तो बहुत समय से सिखाया है और सिखा रहे हैं लेकिन इस अभ्यास में स्वयं को सम्पन्न कितने समझते हो? अभी इस वर्ष के अन्त तक स्वयं को ऐसे एवररेडी बना सकेंगे? तैयार हो वा समय को देखते स्वयं का अभ्यास करने में और ही अलबेल हो गए हो? नाम रूप कब विनाश होगा? इस बात को सोचते हुए पुरूषार्थ में सम्पन्न होने के बजाए, व्यर्थ चिन्तन वा व्यर्थ संकल्पों की कमज़ोरी में आराम पसन्द हो गए हो?
आजकल बच्चों के पुरूषार्थ की रफ्तार देखते हुए बाप-दादा मुस्कराते रहते हैं। सर्व आत्माओं को बार-बार सन्देश यही देते रहते कि ‘योगी बनो, ज्ञानी बनो’ और सन्देश देने वाले स्वयं को यह सन्देश देते हो? मैजारिटी आत्माएं विशेष सब्जैक्ट याद की यात्रा वा योगी बनो कि स्टेज में कमज़ोर दिखाई दे रही हैं। बार-बार एक ही शिकायत बाप-दादा के आगे वा निमित्त बनी हुई आत्माओं के आगे करते हैं - योग क्यों नहीं लगता वा निरन्तर योग क्यों नहीं रहता? योग की पॉवरफुल स्टेज कैसे बने? अनेक बार अनेक प्रकार की युक्तियां मिलते हुए भी बार-बार यही चिटकियां बाप-दादा के मिलती हैं। उससे क्या समझा जाए? सर्व शक्तिवान के बच्चे बन शक्तिहीन आत्मा होना, जो स्वयं को भी कंट्रोल न कर सके, वे विश्व के राज्य का कन्ट्रोल कैसे करेंगे? कारण क्या है? योग तो सीखा, लेकिन योगयुक्त रहने की युक्तियों को प्रयोग करना नहीं आता है। योग-योग करते परन्तु प्रयोग में लाने का अटेन्शन नहीं रखते।
वर्तमान समय विशेष एक लहर दिखाई देती है। कोई भी बात सामने आती तो बाप द्वारा मिली हुई सामना करने की शक्ति का स्वयं प्रयोग नहीं करते, लेकिन बाप को सामने कर देते हैं कि, आपको साथ ले जाना है, हमें शक्ति दो, मदद देना आप का काम है, आप न करेंगे तो कौन करेगा? थोड़ी सी आशीर्वाद कर दो, आप तो सागर हो, हम को थोड़ी सी अंचली दे दो। स्वयं की सामना करने की हिम्मत छोड़ देते हैं, और हिम्मतहीन बनने के कारण मदद से भी वंचित रह जाते हैं। ब्राह्मण जीवन का विशेष आधार है - ‘हिम्मत।’ जैसे श्वास नहीं तो जीवन नहीं, वैसे हिम्मत नहीं तो ब्राह्मण नहीं। बाप का भी वायदा है - ‘हिम्मते बच्चे मदत् दे बाप’ सिर्फ मदत् दे बाप नहीं है। आजकल की लहर में बाप के ऊपर छोड़ देते हैं। और स्वयं अलबेले रह जाते हैं। अब करना क्या है? विशेष कमज़ोरी यह है जो हर शक्ति को वा हर ज्ञान की युक्ति को सुनते हुए वा मिलते हुए स्वयं के प्रति यूज़ नहीं करते अर्थात् अभ्यास में नहीं लाते। सिर्फ वर्णन करने तक लाते। लेकिन अन्तर्मुख हो हर शक्ति की धारणा करने के अभ्यास में जाओ। जैसे कोई नई इन्वेंशन (Invention;आविष्कार) करने वाला व्यक्ति दिन रात उसी इन्वेंशन की लगन में खोया हुआ रहता है वैसे हर शक्ति के अभ्यास में खोए हुए रहना चाहिए। जैसे सहनशक्ति वा सामना करने की शक्ति किसको कहा जाता है? सहन शक्ति से प्राप्ति क्या होती है, सहनशक्ति को किस समय यूज़ किया जाता है? सहनशक्ति न होने के कारण किस प्रकार के विघ्नों के वशीभूत हो जाते हैं? अगर कोई माया का रूप क्रोध के रूप में सामना करने आये तो किस रीति से विजयी बन सकते हो? कौन-कोन सी परिस्थितियों के रूप में माया सहनशक्ति के पेपर ले सकती है? वन इन एडवान्स (One In Advance;पहले से ही) विस्तार से बुद्धि द्वारा सामने लाओ। रीयल पेपर हॉल में जाने के पहले स्वयं का मास्टर बन स्वयं का पेपर लो, तो रीयल इम्तहान में कभी फेल नहीं होंगे। ऐसे एक-एक शक्ति के विस्तार और अभ्यास में जाओ। अभ्यास कम करते हैं, ‘व्यास’ सब बन गए हो, लेकिन अभ्यास नहीं करते हो। इसी प्रकार स्वयं को बिज़ी (Busy;व्यस्त) रखने नहीं आता, इसलिए माया आपको बिज़ी कर देती है। अगर सदा अभ्यास में बिजी रहो तो व्यर्थ संकल्पों की कम्पलेन्ट भी समाप्त हो जाए। साथ-साथ आपके अभ्यास में रहने का प्रभाव आपके चेहरे से दिखाई दे। क्या दिखाई देगा? ‘अन्तर्मुखी सदा हर्षितमुखी’ दिखाई देंगे, क्योंकि माया का सामना करना समाप्त हो जाएगा। जैसे अनुभवों को बढ़ाते चलने से बार-बार एक ही शिकायत करने से छूट जाएंगे। जैसे सर्वशक्तियों के अभ्यास के लिए सुनाया वैसे ही स्वयं को योगी तू आत्मा कहलाते हो, लेकिन योग की परिभाषा जो औरों को सुनाते हो उसका स्वयं को अभ्यास है?
योग की मुख्य विशेषताएं - सहज योग है, कर्म योग है, राजयोग है, निरन्तर योग है, प्रमात्म योग है। जो वर्णन करते हो वे सब बातें स्वयं के अभ्यास में लाए हो? सहज योग क्यों कहा जाता है? उसका स्पष्टीकरण अच्छी तरह से जानते हो? वा अभ्यास में भी लाया है? अगर सिर्फ नॉलेजफुल हो, तो अभ्यास में लाओ। और सर्व विशेषताओं का अभ्यास चाहिए तब सम्पूर्ण योगी बन सकेंगे। सहज योग का अभ्यास है और राजयोग का नहीं, तो फुल पास नहीं हो सकेंगे। इसलिए हर योग की विशेषता का, हर शक्ति का और हर एक ज्ञान की मुख्य प्वाइंट का अभ्यास करो। यही कमी होने के कारण मैजोरिटी कमज़ोर बन जाती है, वैसे अभ्यास की कमी के कारण कमज़ोर आत्मा बन जाते हैं। अभ्यासी आत्मा, लगन में मगन रहने वाली आत्मा के सामने किसी भी प्रकार का विघ्न सामने नहीं आता। लगन की अग्नि से विघ्न दूर से ही भस्म हो जाते हैं। जैसे आप लोग मॉडल बनाते हो ना - शक्ति-स्वरूप के, शक्ति से असुर वा पांच विकार भस्म हुए दिखाते हो ना, या भागते हुए दिखाते हो। तो यह मॉडल किस का बनाते हो? अभी क्या करेंगे? हर बात का प्रयोग करने की विधि में लग जाओ। अभ्यास की प्रयोगशाला मे बैठे रहो तो एक बाप का सहारा और माया के अनेक प्रकार के विघ्नों का किनारा अनुभव करेंगे। अभी ज्ञान के सागर, गुणों के सागर, शक्तियों के सागर में ऊपर-ऊपर की लहरों में लहरा रहे हो। इसलिए अल्पकाल की रिफ्रेशमेंट अनुभव करते हो। लेकिन अब सागर के तले में जाओ तो अनेक प्रकार के विचित्र अनुभव कर रत्न प्राप्त कर सकेंगे। स्वयं भी समर्थ बनो। अब यही चिटकियाँ नहीं लिखना, बाप को हंसी आती है। छोटी-छोटी बातें और वही-वही बातें लिखते हो। विनाशी डाक्टर का कार्य भी बाप के ऊपर रखते हैं। रचना अपनी, कर्मबन्धन अपना बनाया हुआ और तोड़ने की ड्यूटी फिर बाप के ऊपर। बाप की ड्यूटी है युक्ति बताना वा खुद ही करना? बाप बताने के लिए निमित्त है वा करने के लिए भी निमित्त है? नटखट हो जाते हैं ना। नटखट बच्चे सब बाप के ऊपर ही छोड़ देते हैं। कहते हैं - लौकिक बच्चा कहना नहीं मानता आप इसको ठीक करो। बाप तो ठीक करने का तरीका सुना रहे हैं। ‘करेंगे तो पायेगे।’ बाप को वर्ल्ड सर्वेंट समझते हुए सब बाप के ऊपर छोड़ना चाहते हैं, इसलिए जो डायरेक्शन मिलते हैं उस पर ध्यान देकर प्रैक्टिकल में लाओ तो सब विघ्नों से मुक्त हो जायेंगे। समझा? अच्छा।
सदा बाप के हर आज्ञा का पालन करने वाले आज्ञाकारी, ‘एक बाप दूसरा न कोई’ इस पाठ का पालन करने वाले, सदा स्वयं को अभ्यास में बिजी रखने वाले, सम्पूर्ण ज्ञान और योग की हर विशेषता को जीवन में लाने वाले ऐसी विशेष आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।
विदाई के समय:-
महारथियों की स्पीड सबसे फास्ट अर्थात् तीव्र है, लेकिन साथ-साथ ब्रेक भी इतनी पॉवरफुल हो। हर सेकेण्ड में संकल्प द्वारा सारी विश्व तो क्या, तीनों लोंकों के चक्र को सामने लाते, तीनों लोंकों का चक्कर भी लगावें और ऊपर स्टॉप करें तो बुद्धि बिल्कुल बीज रूप स्थिति में सेकेण्ड में स्थित हो जावें - ऐसी प्रैक्टिस हो। अति विस्तार और स्टॉप। ब्रेक इतनी पॉवरफुल हो; स्टॉप करने में टाईम न लगे। जैसे स्थूल मिलिट्री वालों को अगर मार्शल (Marshal) आर्डर करता है, दौड़ रहे हैं फुल फोर्स में और मार्शल ऑर्डर करे - ‘स्टॉप’ - कोई सेकेण्ड भी लगावे तो शूट किया जाए। तो जैसे वह शारीरिक प्रैक्टिस है, वैसे यह है सूक्ष्म प्रैक्टिस। महारथियों के पुरूषार्थ की गति भी तीव्र और ब्रेक भी पॉवरफुल हो, तब अन्त में ‘पास विद् ऑनर’ बनेंगे। क्योंकि उस समय की परिस्थितियां बुद्धि में संकल्प लाने वाली होगी, उस समय सब संकल्पों से परे एक संकल्प में होने की स्थिति चाहिए। परिस्थितियां खींचेंगी। ऐसे टाइम पर ब्रेक पॉवरफुल न होगी तो पास न हो सकेंगे। इसलिए महारथियों की प्रैक्टिस ऐसी होनी चाहिए, जिस समय विस्तार में बिखरी हुई बुद्धि हो और उसी समय स्टॉप की पैक्टिस करें। जैसे ड्राईवर को जब मोटर चलाने की प्रैक्टिस कराते हैं तो जान-बूझ कर ऐसा रास्ता बना हुआ होता है जिससे मालूम पड़े कि यह कहां तक एक्सीडेन्ट से परे रह सकते हैं। इसी रीति से यह भी पहले से ही प्रैक्टिस चाहिए। स्टॉप कहना और होना। यह हैं अष्ट रत्नों की सौगात। एक सेकेण्ड भी यहाँ-वहाँ नहीं। इसलिए सिर्फ 8 निकलते हैं। ऐसी प्रैक्टिस है? बिल्कुल ऐसे अनुभवी हो जैसे स्थूल हाथ आदि कंट्रोल में हैं, वैसे सूक्ष्म शक्तियां तथा संकल्प कंट्रोल में हो। वास्तव में हैं यह विस्तार के संकल्प को कंट्रोल करने की बात, लेकिन उन लोंगों ने श्वास को कंट्रोल करने का साधन बना दिया है। यहाँ है विस्तार के बजाए एक संकल्प में स्थित होना, उन लोंगों ने श्वास को कंट्रोल करने का अभ्यास चालू कर दिया है। अब महारथियों के याद की यात्रा की ऐसी सिद्धि चाहिए। ऐसे एक संकल्प को धारण करने वाले, जो जितना समय चाहे बुद्धि को स्थित करें। अच्छा।
सदा बाप के हर आज्ञा को पालन करने वाले, आज्ञाकारी, ‘एक बाप दूसरा न कोई’ - इस पाठ को प्रैक्टिकल में लाने वाले वफादार, सदा अपने को अभ्यास में बिज़ी रखने वाले, सम्पूर्ण ज्ञान और योग की हर विशेषता को जीवन में लाने वाले, ऐसी विशेष आत्माओं को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
20-06-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
सदा सहजयोगी बनने का साधन है - महादानी बनना
सदा हर संकल्प से सेवा करने वाले, उदारचित्त आत्माएं, सदा सर्व खजानों की महादानी आत्माओं के प्रति बाप-दादा बोले:-
सभी ब्राह्मण आत्माएं स्वयं को सहजयोगी वा निरन्तर योगी की श्रेष्ठ स्टेज पर सदा स्थित रहने के पुरूषार्थ में, सभी का लक्ष सहजयोगी बनने का है। लेकिन अपने कमज़ोरियों के कारण कभी सहज अनुभव करते, कब मुश्किल। कमज़ोरी कहकर मुश्किल बना देते हैं। वास्तव में हरेक श्रेष्ठ आत्मा वा ब्राह्मण आत्मा, मास्टर सर्वशक्तिवान आत्मा, त्रिकालदर्शी, मास्टर ज्ञान सागर आत्मा कोई भी कर्म में वा संकल्प में मुश्किल अनुभव नहीं कर सकती। सहजयोगी के साथ-साथ ऐसी श्रेष्ठ आत्मा, स्वत: होती है। क्योंकि ऐसी श्रेष्ठ आत्मा के लिए बाप और सेवा - यही संसार है। बाप की याद और सेवा के ब्राह्मण जन्म के संस्कार हैं। बाप और सेवा के सिवाए, न कुछ संसार में दिखाई देता है, संस्कार में और कोई संकल्प उत्पन्न हो सकता। किसी भी मनुष्यात्मा की बुद्धि संसार में सम्बन्ध और प्राप्ति की तरफ ही जाती है। ब्राह्मण आत्माओं के लिए सर्व सम्बन्ध का आधार और सर्व प्राप्ति का आधार एक बाप के सिवाए और कोई नहीं। तो स्वत: योगी बनना मुश्किल है वा सहज है? न चाहते भी बुद्धि वहाँ आयेगी जहाँ सर्व सम्बन्ध और सर्व प्राप्ति है। तो स्वत: योगी हुए न? अगर सहजयोगी और स्वत: योगी नहीं हैं; तो अवश्य बाप से सर्व सम्बन्ध और सर्व प्राप्ति नहीं है । तो स्वत: योगी हुए न? अगर सहजयोगी और स्वत: योगी नहीं है; तो अवश्य बाप से सर्व सम्बन्धों का अनुभव नहीं है। सर्व सम्बन्धों से बाप को अपना नहीं बनाते हैं। सर्व प्राप्ति का आधार एक बाप हैं। इस अनुभव को अपनाया नहीं है।
अब सहजयोगी बनने के लिए कौन-सा प्रयत्न करेंगे? सहजयोगी बनने चाहते हो न? तो सदा सहजयोगी अर्थात् सदा सहयोगी। सदा सहजयोगी बनने का साधन - सदा अपने को संकल्प द्वारा, वाणी द्वारा और हर कार्य द्वारा विश्व के सर्व आत्माओं के प्रति सेवाधारी समझ, सेवा में ही सब कुछ लगाओ। जो भी ब्राह्मण जीवन के खज़ाने, बाप द्वारा प्राप्त हुये है उन सर्व खज़ानों को आत्माओं की सेवा प्रति लगाओ। जो बाप द्वारा शक्तियों का खज़ाना, गुणों का खजाना, ज्ञान का खजाना वा श्रेष्ठ कमाई के समय का खजाना प्राप्त हुआ है, वह सेवा में लगाओ अर्थात् सहयोगी बनो। अपनी वृत्ति द्वारा वायुमंडल को श्रेष्ठ बनाने का सहयोग दो। स्मृति द्वारा सर्व को मास्टर समर्थ शक्तिवान स्वरूप की स्मृति दिलाओ। वाणी द्वारा आत्माओं को स्वदर्शन चक्रधारी मास्टर त्रिकालदर्शी बनने का सहयोगी, कर्म द्वारा सदा कमल पुष्प समान रहने का वा कर्मयोगी बनने का सन्देश हर कर्म द्वारा दो। अपने श्रेष्ठ बाप से सर्व सम्बन्धों की अनुभूति द्वारा सर्व आत्माओं को सर्व सम्बन्धों का अनुभव कराने का सहयोग दो। अपने रूहानी सम्पर्क के महत्व को जानते हुए, श्रेष्ठ समय की सूचना देने का वा समय प्रमाण वर्तमान संगम का एक सेकेण्ड अनेक जन्मों की प्राप्ति के निमित्त बना हुआ है। एक कदम में पद्मों की कमाई भरी हुई है। ऐसे समय के खज़ाने को जानते हुए औरों को भी समय पर प्राप्ति होने का परिचय दो। हर बात द्वारा सहयोगी बनो, तो सहजयोगी बन ही जायेंगे।
सहयोगी बनना आता है ना? सहयोगी वही बन सकेंगे जो स्वयं खजानों से सम्पन्न होगा। सम्पन्न आत्मा को अनेक आत्माओं के प्रति महादानी बनने का संकल्प स्वत: आयेगा। महादानी बनना अर्थात् सहयोगी बनना और सहयोगी बनना अर्थात् सहजयोगी बनना। महादानी सर्व खज़ाने स्वयं प्रति कम यूज़ करेंगे, सेवा प्रति ज्यादा यूज़ करेंगे। क्योंकि अनेक आत्माओं के प्रति महादानी बन देना ही लेना है। सर्व प्रति कल्याणकारी बनना ही स्वयं कल्याणकारी बनना है। धन देना अर्थात् एक से सौगुणा जमा होता है। तो वर्तमान समय स्वयं के प्रति छोटीछोटी बातों में, वा चींटी समान आने वाले विघ्नों में अपने सर्व खज़ाने स्वयं प्रति लगाने का समय नहीं है। बेहद के सेवाधारी बनो। तो स्वयं की सेवा सहज हो जाएगी। फिराकदिल से उदारचित्त होकर प्राप्ति के खजानों को बाँटते जाओ। उदारचित्त बनने से स्वयं का उद्धार सहज हो जाएगा। विघ्न मिटाने में समय लगाने के बजाय सेवा की लगन में समय लगाओ। ऐसे महादानी बनो, जो हर संकल्प, श्वांस में सेवा ही हो। तो सेवा की लगन का फल, विघ्न सहज ही विनाश हो जाएगा। क्योंकि वर्तमान प्रत्यक्षफल प्राप्त होने का समय है। अभी-अभी सेवा का फल स्वयं में खुशी और शक्ति का अनुभव करेंगे। लेकिन सच्ची दिल की सेवा हो। सच्ची दिल पर साहब राजी होता है।
कई बच्चे कहते हैं, सेवा तो हम करते हैं, लेकिन मेवा नहीं मिलता, अर्थात् सफलता नहीं मिलती। यह क्यों होता है? क्योंकि सेवा दो प्रकार से करते हैं। एक दिल से और दूसरी दिखावे से। अर्थात् नाम प्राप्त करने के अल्पकाल की इच्छा से। जब बीज ही अल्पकाल का है - ऐसे बीज का अल्पकाल का फल नामीग्रामी बनने का तो लेते हैं, तो सफलता का फल कैसे मिलेगा। नाम की भावना का फल, नाम और शान के रूप में तो प्राप्त हो ही जाता है। दिखावा करने का, संकल्प करने का बीज होने के कारण सर्व के सामने दिखावें में आ ही जाते हैं। सर्व के मुख से अल्पकाल के लिए महिमा का फल प्राप्त हो जाता है, कि सर्विस बहुत अच्छी करते हैं। जब अल्पकाल की महिमा का फल मिल गया अर्थात् कच्चा फल ही स्वीकार कर लिया, तो सम्पूर्ण फल की प्राप्ति अर्थात् पके हुए फल की प्राप्ति कैसे हो सकती? रिजल्ट क्या होगी? कच्चे फल को स्वीकार करने कारण वा अल्पकाल की कामना की पूर्ति होने के कारण सदा शक्तिशाली नहीं बन सकते। अधिकारी नहीं बन सकते। और सेवा करते हुए भी कमज़ोर होने के कारण, न स्वयं से सदा सन्तुष्ट रहेगा, न सर्व को सन्तुष्ट कर सकेगा। सदैव क्वेश्चन मार्क में रहेगा कि इतना करते हुए भी क्यों नहीं होता? ये ऐसे करता, यह ऐसे क्यों करते? ऐसा नहीं होना चाहिए, यह होना चाहिए। इसी क्वेश्चन में रहेगा। इसलिए सेवाधारी भी दिल से बनो। सच्ची दिल से सेवाधारी बनने का विशेष लक्ष्य क्या होगा? दिलसिकस्त आत्मा को शक्तिशाली बनाने वाले, कैसे भी अवगुण वाली आत्मा हो, गरीब आत्मा हो, लेकिन सदा बाप द्वारा मिले हुए, गुणों से दान द्वारा गुणों के खज़ाने से गरीब को साहुकार बनाने का श्रेष्ठ संकल्प वा शुभ भावना रखेंगे। ऐसे सच्ची दिल वाले सेवाधारी सदा प्रत्यक्षफल से प्राप्त हुई आत्मा में, सफलता मूर्त्त को अनुभव करेगी। तो ऐसे सदा सहयोगी बनो तो सहयोगी का फल सहजयोग प्राप्त होगा। सदा सहयोगी बनने से सदा बिजी रहेंगे। संकल्प में भी बिजी रहेंगे तो व्यर्थ की शिकायतें, जो स्वयं से वा बाप से करते हो, वह सब सहज ही समाप्त हो जाएगी।
सदा हर संकल्प से सेवा करने वाले, अल्पकाल के फल का त्याग करने वाले, सदा सफलता मूर्त्त बनने वाले, हर आत्मा के उद्धार अर्थ निमित्त बनने वाले, उदारचित्त आत्माएं, सदा बाप और सेवा में तत्पर रहने वाली समीप आत्माएं, सदा सर्व खजानों की महादानी आत्माएं, ऐसी श्रेष्ठ आत्माओं को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
पार्टियों से
आत्मा के सर्व गुणों का अनुभव किया है? जो स्वयं के गुण हैं ज्ञान-स्वरूप, प्रेम-स्वरूप वा सुख, शक्ति, आनन्द स्वरूप - इन सभी गुणों का अनुभव है? आनन्द-स्वरूप वा ज्ञान-स्वरूप की स्टेज क्या है, उस स्टेज पर स्थित होने का अनुभव है? यह अनुभव करना अर्थात् सर्व गुणों का अनुभव करना है। सिर्फ शान्ति को प्राप्त करना स्वयं पर है। अगर हर गुण का अनुभव होगा, तो परिस्थिति के समय भी अनुभव के आधार से परिस्थिति को बदल देगा, इसलिए वर्तमान समय का पुरूषार्थ है हर गुण के अनुभवी बनना। ऐसा अभ्यास चाहिए जैसे स्थूल लिफ्ट होती है, तो जिस नम्बर का स्वीच दबाओ उसमें ही पहुँच जाएगी। तो यह बुद्धि की लिफ्ट है, स्मृति का स्वीच ऑन किया और पहुँच जाएंगे। कई बार ऐसे भी होता लिफ्ट होते भी काम नहीं करती, स्वीच दबाते ऊपर का और आ नीचे जाते, या स्वीच दबाएंगे 2 नम्बर का पहँच जाएंगे 3- 4 में। तो ऐसे तो नहीं है? लिफ्ट अपने कन्ट्रोल में होनी चाहिए। अगर न चाहते भी नीचे आ जाते तो जरूर कुछ लूज (Loose;ढ़ीला) है। कन्ट्रोलिंग पॉवर नहीं। जो स्वयं का स्वयं कन्ट्रोल नहीं कर सकते वह राज्य का कन्ट्रोल नहीं कर सकते, वह राज्य का कन्ट्रोल कैसे करेंगे? वहाँ राज्य भी लॉफुल है, प्रकृति भी ऑर्डर पर चलती। यहाँ तो प्रकृति धोखा दे देती है। तो प्रकृति के आधिकारी कौन बनेंगे? जो स्वयं के अधिकारी हैं। किसी भी संकल्प, स्वभाव, व्यक्ति व वैभव के अधीन न हो - इसको कहा जाता है ‘अधिकारी।’ अपने स्वभाव के भी अधीन नहीं, मेरा स्वभाव ऐसा है इसलिए कर लिया, तो अधीन हुए ना? अधिकारी सदा शक्तिशाली रहता।
वाह बाबा और वाह ड्रामा के गीत गाते रहो, तो सदा लगन में मगन रहेंगे, क्योंकि लगन में मगन वही रह सकता है जो साक्षी होकर हर पार्ट बजाता है। जब गीत कोई गाता है तो उसी में मगन हो जाता है। ऐसे यह गीत गाने वाले सदा एक ही लगन में मगन रहते। एक बाप दूसरा न कोई यही गीत गाते रहो। बहुत लश्कर है। जितना बड़ा लश्कर होता है, उतना अपना राज्य सहज ही प्राप्त कर लेते हैं। इतना बड़ा लश्कर है तो दिल्ली पर विजय हुई पड़ी है। इतने सब अपने दृढ़ संकल्प से जो चाहें सो कर सकते हैं। वह आत्मज्ञानी भी जिस्मानी तपस्या से, अल्पकाल की तपस्या से अल्पकाल की सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं। आप रूहानी तपस्वी परमात्मज्ञानी हो, उन्होंका संकल्प क्या करेगा। सदैव विजयी रत्न की स्मृति रहने से माया के अनेक प्रकार के विघ्न ऐसे समाप्त हो जाएंगे जैसे कुछ था नहीं। जैसे कहा जाता है न - ऐसे विजयी बनो जो उनका नामनिशान गुम कर दो। सदा विजयी का नशा व स्मृति रहेगी, तो माया के विघ्नों का नाम, निशान नहीं रहेगा। माया के विघ्न मरी हुई चींटी के समान हैं तो उनसे धबराने वाले तो नहीं हो ना? शूर, वीर, महावीर विघ्नों से घबराएंगे नहीं। विघ्नों का समझ गए होना? क्यों आते, कैसे समाप्त हो इन सबका ज्ञान है ना। विघ्न आते हैं आगे बढ़ाने के लिए। विघ्न आने से अनुभवी और मजबूत हो जाएंगे। जानने वाले ज्ञानी-समझदार, विघ्नों से लाभ उठाएंगे, न कि घबराएंगे। विघ्न आया है - आगे बढ़ाने के लिए, यह याद आने से महावीर हो जाएंगे। व्यर्थ संकल्पों से घबराते तो नहीं? संकल्प के ऊपर विजय प्राप्त करने वाले घबराते नहीं; घबराएंगे तो माया कमज़ोर देख और वार करेगी। देखेगी बहादुर हैं तो विदाई ले लेगी।
22-06-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
सितारों की दुनिया का रहस्य
विश्व को लाईट, माईट देने के निमित्त बने हुए सर्व चमकते हुए चैतन्य सितारों प्रति ज्ञान-सूर्य ने महावाक्य उच्चारे:-
आज बाप-दादा सर्व सितारों को चमकते हुए रूप में देख रहे हैं। चमकते सब सितारे हैं लेकिन चमकने में भी नम्बर हैं। सितारों की दुनिया अर्थात् अपनी दुनिया, देखी है? सितारों की दुनिया का गीत गाते हैं लेकिन वह कौन से सितारों की दुनिया है जिसका गायन है, इस रहस्य को भी आप सब जानते हो? हर सितारे का अपना-अपना प्रभाव दिखाते हैं। सितारों के आधार पर जन्मपत्रि और भविष्य बताते हैं। चैतन्य रूप में आप ज्ञान सितारे सारे कल्प के हर आत्मा के जन्मपत्रि के आधार मूर्त्त हो। ज्ञान सितारों के श्रेष्ठ जन्म और वर्तमान जन्म के आधार पर प्रालब्ध के जन्म, अर्थात् पूज्य पद के जन्म और पूज्य के आधार पर पुजारी के जन्म, ऐसे 84 जन्मों की कहानी के आधार पर अन्य धर्म आत्माओं के जन्म की पत्रि का आधार है। आपकी जन्मपत्री में उन्हों की जन्मपत्री नूंधी हुई है। आप हीरो और हीरोइन पार्टधारी के आधार पर सारा ड्रामा नूंधा हुआ है।
आप आत्माओं का पुजारीपन आरंभ होना और अन्य धर्म की आत्माओं की स्थापन होना, आप पूर्वज आत्माओं के आधार पर है। यह छोटी-छोटी बिरादरियाँ निकलती हैं, इसलिए यादगार रूप में भी हद के सितारों के आधार पर भविष्यदर्शा बनते हैं। क्योंकि इस समय आप त्रिकालदर्शी बनते हैं, आप चैतन्य सितारे त्रिकालदर्शी हो। हर आत्मा को भविष्य बनाने के निमित्त बने हुए हो। चाहे मुक्ति दो, चाहे जीवन्मुक्ति दो। लेकिन जीवन्मुक्ति के गेट खोलने के निमित्त ज्ञान-सूर्य बाप के साथ ज्ञान-सितारे निमित्त बनते हैं। इसलिए आपकी जड़ यादगार सितारे भी भविष्यदर्शा बने हुए हैं अर्थात् भविष्य दिखाने के निमित्त बने हुए हो। अभी जड़ यादगार हद के सितारे को देखते, अपना सितारा स्वरूप स्मृति में आता है? सितारों में भी अलग-अलग स्पीड दिखाते हैं। चक्र लगाने की स्पीड कोई की तेज गति दिखाते और कोई की धीमी गति दिखाते। कोई सितारे संगठित रूप हैं, कोई सितारे एक दो से कुछ दूरी पर दिखाते हैं, कोई बार-बार जगह बदली करते हैं और कोई पुच्छल तारे होते हैं। यह सब प्रकार की चैतन्य सितारों की स्थिति, पुरूषार्थ की स्पीड, अचल और हलचल का रूप संगठित रूप में, सेवाधारी वा सर्व स्नेही वा सहयोगी का स्वरूप, श्रेष्ठ गुणों और कर्त्तव्य का स्वरूप, यादगार रूप में दिखाया है।
सितारों का चन्द्रमा के साथ सम्बन्ध दिखाया है। कोई चन्द्रमा के समीप हैं और कोई दूर हैं। ज्ञान सूर्य की सन्तान होते हुए भी चन्द्रमा के साथ का चित्र क्यों बना हुआ है? इसका भी रहस्य है। चन्द्रमा अर्थात् बड़ी माँ, ब्रह्मा को कहा जाता है। ज्ञान सूर्य से सर्व शक्तियों की नॉलेज की लाईट जरूर लेते हैं, लेकिन ड्रामा के अन्दर पार्ट बजाने में साकार रूप में साथ आदि पिता ब्रह्मा और ब्राह्मणों का है। ज्ञान सूर्य इस चक्र से न्यारा रहता है। इसीलिए अनेक जन्मों का भिन्न नाम-रूप में, साथ चन्द्रमा और ज्ञान सितारों का रहता है। इसी कारण यादगार चित्र में भी चन्द्रमा और सितारों का सम्बन्ध है। अपने आपसे पूछो कि मैं कौनसा सितारा हूँ? संगठित रूप में सर्व के स्नेही और सदा सहयोगी बनने की स्थिति रहती है? वा संगठन में स्वभाव, संस्कार, स्थिति बदल लेते हैं, अर्थात् स्थान बदल लेते हैं? सदा चमकते हुए विश्व को रोशन करने वाले सितारे हो? वा स्वयं को स्वयं भी नॉलेज की लाईट और याद की माईट नहीं दे सकते हो? अन्य आत्माओं को लाईट और माईट के आधार पर ठहरे हुए हैं? सदा स्वयं को त्रिकालदर्शी स्थिति में स्थित रखते हो? ऐसे अपने आपको चेक करो। सुनाया था ना कि तीन प्रकार के सितारे हैं - एक है सदा लकी सितारे, दूसरे हैं सदा सफलता के सितारे, तीसरे हैं उम्मीदवार सितारे। अपने से पूछो तीनों में से मैं कौन? अपने आपको जानते हो ना - मैं कौन हूँ? पहेली हल कर ली है ना? स्वयं ही स्वयं को जज करो, समझा! अच्छा, आज मुरली चलाने नहीं आए हैं। मिलने के लिए आये हैं, यह मिलन ही कल्पकल्प की नूंध है। इस मिलन की यादगार जगह-जगह पर अनेक रूपों से मेला मनाते हैं।
पार्टियों से:-
सदा स्वयं को हर कर्म करते हुए तन के भी, धन के भी, प्रवृत्ति के भी ट्रस्टी समझ कर चलते हो? ट्रस्टी की विशेषता क्या होती है? एक शब्द में कहें - ट्रस्टी अर्थात् नष्टोमोहा। ट्रस्टी का किसी में मोह नहीं होता; क्यों? क्योंकि मेरापन नहीं है। मेरे में मोह जाता है। जो भी प्रवृत्ति के अर्थ साधन मिले हुए हैं वा सेवा के अर्थ सम्बन्ध होता है, उसमें मेरापन नहीं लेकिन बाप-दादा का दिया हुआ अमानत समझकर सेवा करेंगे वा साधनों को कार्य में लगाएंगे तो सहज ही ट्रस्टी बन जाएंगे। ट्रस्टी अथार्त् मैं-पन समाप्त और बाबा-बाबा ही मुख से निकले ऐसी स्थिति है? या जिन साधनों को कार्य में लगाते हो उसमें मेरापन का भान है? मेरापन है तो देहभान आता है। अगर तन के भी ट्रस्टी है तो देह का भान हो नहीं सकता। जब से जन्म हुआ तो पहला वायदा क्या किया? जो मेरा सो बाप का। मरजीवा हो गए ना? फिर मेरापन कहां से आया? दी हुई चीज़ कभी वापिस नहीं ली जाती। तो सदा देही अभिमानी बनने का अर्थात् नष्टोमोहा बनने का सहज साधन क्या हुआ? ट्रस्टी हूँ, मैं ट्रस्टी हूँ। कल्प पहले के यादगार में भी अर्जुन का जो यादगार दिखाया है - उसमें अर्जुन को मुश्किल कब लगा? जब मेरापन आया। मेरा खत्म तो नष्टोमोहा। अर्थात् स्मृति स्वरूप हो गए। मेरा पति, मेरी पत्नी, मेरा घर, मेरे बच्चे, मेरी दुकान, मेरा दफ्तर - यह मेरा-मेरी सहज को मुश्किल कर देता है। सहज मार्ग का साधन है - ‘नष्टो मोहा अर्थात् ट्रस्टी।’ इस स्मृति से स्वयं और सर्व को सहज योगी बनाओ। समझा?
व्यर्थ समाप्त हो समर्थ बनने की सहज युक्ति बताते हुए बाप-दादा बोले –
वैरायइटी स्थानों से आते हुए इस समय सब मधुबन निवासी हो? इस समय अपने को गुजराती, पंजाबी, यू.पी. निवासी तो नहीं समझते? सदैव अपने को परमधाम निवासी वा पार्ट बजाने लिए मधुबन निवासी समझो। मधुबन निवासी समझने से नशा वा खुशी रहती है। मधुबन में कितनी भी लकलीफ में हो, फिर भी यहाँ रहना पसन्द करते। घर में भल डनलप के गद्दे हो फिर भी यहाँ अच्छा लगता। क्योंकि मधुबन निवासी बनने से ऑटोमेटिकली सहज और निरन्तर योगी बन जाते। मधुबन की महिमा भी है। मधुबन और मधुबन की मुरली मशहूर है। इसलिए मधुबन में आना सब पसन्द करते हैं। तो सदैव अपने को मधुबन निवासी समझकर चलना। तो सहज योगी की स्थिति रहेगी। मधुबन याद आने से स्थिति सदा खुश हो जाएगी। मधुबन याद आया तो व्यर्थ संकल्प समाप्त हो समर्थ संकल्प का अनुभव याद आने से समर्थ हो जाएंगे। घर नहीं जाते हो सेवास्थान पर जाते हो। घर में जाकर भी अगर पढ़ाई और बाप को साथी बनाने वाला सदा नशे और खुशी में अटल रहेगा। सदा बाप और सेवा इसी स्मृति में रहो तो समर्थ रहेंगे। स्थिति सदा अटल रहेगी। अच्छा।
जब किसी भी प्रकार का पेपर आता है तो घबराओ नहीं। क्वेश्चन मार्क में नहीं आओ कि यह क्यों आया? इस सोचने में टाईम वेस्ट मत करो। क्वेश्चन मार्क खत्म और फुल स्टाप, तब क्लास चेन्ज होगा अर्थात् पेपर में पास हो जाएंगे। फुल स्टाप देने वाला फुल पास होगा। क्योंकि फुल स्टाप है बिन्दी की स्टेज। देखते हुए न देखो, सुनते हुए न सुनो। बाप का सुनाया हुआ सुनो, बाप ने जो दिया है वह देखो, इसी प्रैक्टिस से फुल पास होंगे। पेपर में पास होने की निशानी है - आगे बढ़ना अर्थात चढ़ती कला का अनुभव करेंगे। अतिइन्द्रिय सुख के झूले में झूलते रहेंगे। सर्व प्राप्ति का अनुभव ऑटोमेटिकली होता रहेगा। अच्छा।
सदा बाप से मिलन मनाने वाले, संकल्प, बोल और कर्म में सफलता के सितारे, सदा बाप को साथी बनाने वाले समीप सितारे, हर संकल्प से विश्व को लाईट-माईट देने वाले, सदा चमकते हुए सितारों को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
25-06-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
पवित्रता की सम्पूर्ण स्टेज
सदा सच्च्ची दिल वाले, सत्यता के आधार पर सर्व के आधार मूर्त्त बनने वाले, हर अनुभव और प्राप्ति के आधार पर अपने जीवन को श्रेष्ठ मत पर चलाने वाले पुरूषार्थियों के प्रति बाप-दादा बोले:-
बापदादा सभी बच्चों की विशेष दो बातें देख रहे हैं। हरेक आत्मा यथा योग्य तथा यथा शक्ति ऑनेस्ट (Honest;ईमानदार) और होलिएस्ट (Holiest; परमपूज्य) कहाँ तक बने हैं। हरेक पुरुषार्थी आत्मा बाप के सम्बन्ध में ऑनेस्ट अर्थात् बाप से ईमानदार, सच्ची दिल वाले बनने का लक्ष्य रख चल रहे हैं, लेकिन ऑनेस्ट बनने में भी नम्बरवार हैं।
(1) जितना ऑनेस्ट होगा उतना ही होलीएस्ट होगा। होलीएस्ट बनने की मुख्य बात है - ‘बाप से सच्चा बनना।’ सिर्फ ब्रह्मचर्य धारण करना यह प्यूरिटी की हाइएस्ट स्टेज (Highest Stage;सर्वोच्च स्थिति) नहीं है; लेकिन प्यूरिटी अर्थात् रीयल्टी अर्थात् सच्चाई। ऐसे सच्ची दिल वाले दिलवाला बाप के दिलतख्त नशीन हैं और दिलतख्त नशीन बच्चे ही राज्य राज्यतख्त नशीन होते हैं।
(2) ऑनेस्ट अर्थात् ईमानदार उसको कहा जाता है जो बाप के प्राप्त खजानों को बाप के डायरेक्शन बिना किसी भी कार्य में नहीं लगावे। अगर मनमत और परमत प्रमाण समय को, वाणी को, कर्म को, श्वांस को वा संकल्प को परमत वा संगदोष में व्यर्थ तरफ गंवाते, स्व-चिन्तन की बजाए परचिन्तन करते हैं, स्वमान की बजाए किसी भी प्रकार के अभिमान में आ जाते हैं, इसी प्रकार से ‘श्रीमत’ के विरूद्ध अर्थात् श्रीमत के बदले मनमत के आधार पर चलते हैं, उसको ऑनेस्ट वा ईमानदार नहीं कहेंगे। यह सब खज़ाने बाप-दादा ने विश्व-कल्याण के सेवा अर्थ दिए हैं, तो जिस कार्य के अर्थ दिए है उस कार्य के बजाए अगर अन्य कार्य में लगाते हैं, तो यह अमानत में ख्यानत करना है। इसलिए सबसे बड़ी ते बड़ी प्यूरिटी की स्टेज है - ‘ऑनेस्ट बनना।’ हरेक अपने आपसे पूछो कि हम कहाँ तक आनेस्ट बने हैं।
(3) ऑनेस्ट का तीसरा लक्षण है - सदा सर्व प्रति शुभ भावना व सदा श्रेष्ठ कामना होगी?
(4) ऑनेस्ट अर्थात् सदा संकल्प और बोल वा कर्म द्वारा सदा निमित्त और निर्माण होंगे।
(5) ऑनेस्ट अर्थात् हर कदम में समर्थ स्थिति का अनुभव हो। सदा हर संकल्प में ‘बाप का साथ और सहयोग के हाथ’ का अनुभव हो।
(6) ऑनेस्ट अर्थात् हर कदम में चढ़ती कला का अनुभव हो।
(7) ऑनेस्ट अर्थात् जैसे बाप - जो है, जैसा है बाप बच्चों के आगे प्रत्यक्ष हैं; वैसे बच्चे जो हैं, जैसे हैं वैसे ही बाप के आगे स्वयं को प्रत्यक्ष करें। ऐसे नहीं कि बाप तो सब कुछ जानता है, लेकिन बाप के आगे स्वयं को प्रत्यक्ष करना सबसे बड़े ते बड़ा ‘सहज चढ़ती कला’ का साधन है। अनेक प्रकार के बुद्धि के ऊपर बोझ समाप्त करने की सरल युक्ति है। वा स्वयं को स्पष्ट करना अर्थात् पुरूषार्थ का मार्ग स्पष्ट होना है। स्वयं को स्पष्टता से श्रेष्ठ बनाना है। लेकिन करते क्या हो? कुछ बताते कुछ छिपाते हैं। और बताते भी हैं तो कोई सैलवेशन (Salvation;सहूलियत) के प्राप्ति के स्वार्थ के आधार पर। चतुराई से अपना केस सज-धज कर मनमत और परमत के प्लान अच्छी तरह से बनाकर, बाप के आगे वा निमित्त बनी हुई आत्माओं के आगे पेश करते हैं। भोलानाथ बाप समझ और निमित्त बनी हुई आत्माओं को भी भोला समझ चतुराई से अपने आपको सच्चा सिद्ध करने से रिजल्ट क्या होती है? बाप-दादा वा निमित्त बनी हुई आत्माएं जानते हुए भी खुश करने के अर्थ अल्पकाल के लिए, ‘हाँ जी’ का पाठ तो पढ़ लेंगे। क्योंकि जानते हें कि हर आत्मा की सहन शक्ति, सामना करने की शक्ति कहां तक हैं। इस राज को जानते हुए नाराज़ नहीं होंगे। उनको और ही आगे बढ़ाने की युक्ति देंगे। राजी भी करेंगे, लेकिन राज से राजी करना और दिल से राजी करना - फर्क होता है। बनने चतुर चाहते हैं, लेकिन भोले बन जाते हैं। कैसे जो थोड़े में राजी हो जाते हैं। हार को जीत समझ लेते हैं। है जन्म-जन्म की हार, लेकिन अल्पकाल की प्राप्ति में राजी हो अपने आपको सयाना, होशियार समझ विजयी मान बैठते हैं। बाप को ऐसे बच्चों के ऊपर रहम भी पड़ता है कि समझदारी के पर्दे के अन्दर अपने ऊपर सदा काल के अकल्याण के निमित्त बन रहे हैं। फिर भी बाप-दादा क्या कहेंगे? श्रेष्ठ पुरूषार्थ की भावी नहीं है।
(8) ऑनेस्ट अर्थात् किसी भी बातों के आधार पर फाउन्डेशन न हो। हरेक बात के अनुभव के आधार पर, प्राप्ति के आधार पर फाउन्डेशन हो। बात बदली और फाउन्डेशन बदला, निश्चय से संशय में आ गया। और क्यों, कैसे के क्वेश्चन में आ गया, उसको प्राप्ति के आधार पर अनुभव नहीं कहेंगे। ऐसा कमज़ोर फाउन्डेशन छोटी सी बात में हलचल पैदा कर लेता है। जैसे आजकल की एक रमणीक बात बाप के आगे क्या रखते हैं कि 1977 तक पवित्र रहना था, अब तो ज्यादा समय पवित्र रहना मुश्किल है। इसलिए बाप के ऊपर बात रखते हुए खुद को निर्दोष बनाकर खुदा को दोषी बना देते हैं। लेकिन पवित्रता ब्राह्मणों का निजी संस्कार है। हद के संस्कार नहीं है। हद की पवित्रता अर्थात् एक जन्म तक की पवित्रता हद का सन्यास है। बेहद के संन्यासियों को जन्मजन्मान्तर के लिए अपवित्रता का संन्यास है। बाप-दादा ने पवित्रता के लिए कब समय की सीमा दी थी क्या? सलोगन (Slogan) में भी यह लिखते हो कि बाप से सदा काल के लिए पवित्रता सुख-शान्ति का वर्सा लो। समय के आधार पर पवित्र रहना, इसको कौन-सी पवित्रता की स्टेज कहेंगे? इससे सिद्ध है कि स्वयं का अनुभव और प्राप्ति के आधार पर फाउन्डेशन नहीं हैं। तो ऑनेस्ट बच्चों के यह लक्षण नहीं हैं। ‘ऑनेस्ट अर्थात् सदा होलीएस्ट।’ समझा, ऑनेस्ट किसको कहा जाता है? अच्छा।
ऐसे सदा सच्ची दिलवाले, सत्यता के आधार पर सर्व के आधार मूर्त्त बनने वाले, हर कदम और प्राप्ति के आधार पर अपने जीवन के हर कदम को चलाने वाले, सदा श्रेष्ठ मत और श्रेष्ठ गति पर चलने वाले, ऐसे तीव्र पुरूषार्थियों को बाप-दादा का याद- प्यार और नमस्ते।
पार्टियों से
स्वयं को सदा विजयी अनुभव करते हो? मास्टर सर्वशक्तिवान अर्थात् सदा विजयी। श्रेष्ठ पार्टधारी आत्माओं का यादगार भी विजयमाला के रूप में है सिर्फ माला नहीं कहते लेकिन ‘विजय माला।’ इससे क्या सिद्ध होता है? कि श्रेष्ठ आत्मा ही विजयी आत्मा है। इसलिए विजयमाला गाई हुई है। ऐसे विजयी हो? या कभी माला में पिरो जाते, कभी निकल जाते।
किसी भी बात में हार होने का कारण क्या होता है वह जानते हो? हार खाने का मूल कारण - स्वयं को बार-बार चेक नहीं करते हो। जो समय प्रति समय युक्तियां मिलती, उनको समय पर यूज़ नहीं करते। इस कारण समय पर हार खा लेते हैं। युक्तियां हैं, लेकिन समय बीत जाने के बाद, पश्चात्ताप के रूप में स्मृति में आती - ऐसे होता था तो ऐसे करते.....। तो चेकिंग की कमज़ोरी होने कारण चेन्ज (Change;परिवर्तन) भी नहीं हो सकते। चेकिंग करने का यंत्र है - ‘दिव्य बुद्धि।’ वैसे चेकिंग का तरीका चार्ट रखना तो है, लेकिन चार्ट भी दिव्य बुद्धि द्वारा ही ठीक रख सकेंगे। दिव्य बुद्धि नहीं तो रांग को भी राईट समझ लेते। अगर कोई यंत्र ठीक नहीं तो रिजल्ट उल्टी निकलेगी। दिव्य बुद्धि द्वारा चेकिंग करने से यथार्थ चेकिंग होती है। तो दिव्य बुद्धि द्वारा चेकिंग करो, तो चेंज हो जाएंगे; हार के बदले जीत हो जाएगी।
सदा अपने को चलते-फिरते लाईट के कार्ब के अन्दर आकारी फरिश्ते के रूप में अनुभव करते हो? जैसे ब्रह्मा बाप अव्यक्त फरिश्ते के रूप में चारों ओर की सेवा के निमित्त बने हैं, ऐसे बाप समान स्वयं को भी लाईट स्वरूप आत्मा और लाईट के आकारी स्वरूप फरिश्ते स्वरूप में अनुभव करते हो? बाप-दादा दोनों के समान बनना है ना? दोनों से स्नेह है ना? स्नेह का सबूत है - ‘समान बनना।’ जिससे स्नेह होता है तो जैसे वह बोलेगा वैसे ही बोलेगा, स्नेह अर्थात् संस्कार मिलाना। और संस्कार मिलन के आधार पर स्नेह भी होता। संस्कार नहीं मिलता तो कितना भी स्नेही बनाने की कोशिश करो, नहीं बनेगा।
तो दोनों बाप के स्नेही हो? बाप समान बनना अर्थात् लाईट रूप आत्मा स्वरूप में स्थित होना और दादा समान बनना अर्थात् ‘फरिश्ता’। दोनों बाप को स्नेह का रिटर्न (Return) देना पड़े। तो स्नेह का रिटर्न दे रहे हो? फरिश्ता बनकर चलते हो कि पांच तत्वों से अर्थात् मिट्टी से बनी हुई देह अर्थात् धरनी अपने तरफ आकर्षित करती? जब आकारी हो जाएंगे तो यह देह (धरनी) आकर्षित नहीं करेगी। बाप समान बनना अर्थात् डबल लाईट बनना। दोनों ही लाईट हैं? वह आकरी रूप में, वह निराकारी रूप में। तो दोनों समान हो ना? समान बनेंगे तो सदा समर्थ और विजयी रहेंगे। समान नहीं तो कभी हार, कभी जीत, इसी हलचल में होंगे।
अचल बनने का साधन है समान बनना। चलते-फिरते सदैव अपने को निराकारी आत्मा या कर्म करते अव्यक्त फरिश्ता समझो। तो सदा ऊपर रहेंगे, उड़ते रहेंगे खुशी में। फरिश्ते सदैव उड़ते हुए दिखाते हैं। फरिश्ते का चित्र भी पहाड़ी के ऊपर दिखाएंगे। फरिश्ता अर्थात् ऊँची स्टेज पर रहने वाला। कुछ भी इस देह की दुनिया में होता रहे, लेकिन फरिश्ता ऊपर से साक्षी हो सब पार्ट देखता रहे और सकाश देता रहे। सकाश भी देना है क्योंकि कल्याण के प्रति निमित्त है। साक्षी हो देखते सकाश अर्थात सहयोग देना है। सीट से उतर कर सकाश नहीं दी जाती। सकाश देना ही निभाना है। निभाना अर्थात् कल्याण की सकाश देना, लेकिन ऊँची स्टेज पर स्थित होकर देना - इसका विशेष अटेंशन हो। निभाना अर्थात् मिक्स नहीं हो जाना, लेकिन निभाना अर्थात् वृत्ति- दृष्टि से सहयोग की सकाश देना। फिर सदा किसी भी प्रकार के वातावरण के सेक में नहीं आएगा। अगर सेक आता तो समझना चाहिए साक्षीपन की स्टेज पर नहीं हैं। कार्य के साथी नहीं बनना है, बाप के साथी बनना है। जहाँ साक्षी बनना चाहिए वहाँ साथी बन जाते तो सेक लगता। ऐसे निभाना सीखेंगे तो दुनिया के आगे लाईट हाउस बन करके प्रख्यात होंगे।
आजकल की लहर कौन-सी है? महारथियों के मन में जैसे शुरू में जोश था कि अपने हमजन्स को अपवित्रता से पवित्रता में लाना ही है। पहला जोश याद है? कैसी लगन थी? सबको छुड़ाने की भी लगन थी; शक्ति भरने की भी लगन थी। आदि में जोश था कि हमजिन्स को छुड़ाना ही है, बचाना है। अभी ऐसी लहर है? चाहे चलते- चलते कमज़ोर होने वाले, चाहे नई आत्मएं जो कि बन्धनयुक्त हैं, ऐसे को बन्धनमुक्त बनाएं - इतना जोश है या ड्रामा कह छोड़ देते हो? वर्तमान समय आप लोगों का पार्ट कौन सा है? वरदानी का, महादानी का, कल्याणकारी का। ड्रामा तो है, लेकिन ड्रामा में आपका पार्ट क्या है? तो यह लहर जरूर फैलनी चाहिए? जैसे फायर ब्रिगेडियर को जोश आता है। आग लग रही है, तो रूक नहीं सकते। तो ऐसी लहर होनी चाहिए। आपकी लहर से उन्हों का बचाव हो। अगर आप लोग ड्रामा कह छोड़ देंगे, या सोचेंगे राजधानी स्थापन हो रही है, तो उन्हों का कल्याण कैसे होगा? नॉलेजफुल होने के कारण यह नॉलेज है कि यह ड्रामा है, लेकिन ड्रामा के अन्दर आपका कर्त्तव्य कौन सा है? तो महारथियों की लहर क्या होनी चाहिए? कुछ भी सुनते हो तो ‘शुभचिन्तन’ चलना चाहिए, परचिन्तन नहीं। आपका शुभचिन्तन उन्हीं की बुद्धियों को शीतल कर सकता है। आप लोग छोड़ देंगे तो वह तो गए। क्योंकि प्रैक्टिकल में निमित्त शक्तियों का पार्ट है। बाप तो बैक बोन (Backbone;सहारा) है। शक्तियों को कौन सी स्थिति में रहना चाहिए? जैसे देवियों के चित्र में दो विशेषताएं दिखाते हैं। आंखों में मात्र भावना और हाथों से शस्त्रधारी अर्थात् असुर का संहार करने वाली। मात्र भावना अर्थात् रहम की भावना और संघार की भावना भी। संघार करना अर्थात् उन्होंके आसुरी संस्कारों के खत्म करने का प्लान भी हो और रहम भी हो। लॉफुल (Lawful) और लवफुल (Loveful) का बैलेन्स हो। दोनों साथ-साथ हों। यह जो कमज़ोरी की लहर है, यह ऐसे नहीं कि विनाश के कारण प्रत्यक्ष हो गए हैं, कमज़ोरी बहुत समय की होती, लेकिन अभी छिप नहीं सकते। पहले अन्दर-अन्दर गुप्त कमज़ोरी चलती रहती, अभी समय नजदीक आ रहा है। इसलिए कमज़ोरी छिप नहीं सकती। राजा बनने वाला, प्रजा पद वाले, कम पद पाने वाले, सेवाधारी बनने वाले, सब अभी प्रत्यक्ष होंगे। अन्त में जो साक्षात्कार कहा है, वह कैसे होगा? यह साक्षात्कार करा रहे हैं। बाकी ऐसे नहीं है, कमज़ोरी नहीं थीं अब हुई है - लेकिन अब प्रसिद्ध रूप में चान्स मिला है। जैसे समाप्ति के समय सब बीमारी निकलती, वैसे समाप्ति का समय होने के कारण हरेक की वैरायटी कमज़ोरियां प्रत्यक्ष होंगी। अभी तो एक लहर देखी है और भी कई लहरें देखेंगे। अति में जाना जरूर है, अति हो तब तो अन्त हो। जो भी अन्दर कमज़ोरियां हैं, अन्दर छिप नहीं सकती, किसी न किसी रूप में प्रत्यक्ष रूप में आएगी, लेकिन आपकी भावना रहे कि - इन सबका भी कल्याण हो जाए। आप वरदानी हो तो आपका हर संकल्प, हर आत्मा के प्रति कल्याण का हो। लहरें तो और भी आएगी एक खत्म होगी, दूसरी आएगी, यह सब मनोरंजन के बाइप्लाटस हैं। और पद भी स्पष्ट हो रहे हैं। यह होते रहेंगे। आश्चर्यवत् सीन होनी चाहिए। एक तरफ नए-नए रेस में आगे दिखाई देंगे। दूसरे तरफ थकने वाले, रूकने वाले भी प्रसिद्ध होंगे। तीसरे तरफ जो बहुत समय से कमज़ोरियाँ रही हुई हैं, वह भी प्रत्यक्ष होगी। नथिंग न्यू (Nothing New) हैं, लेकिन रहम की दृष्टि और भावना दोनों साथ हों। अच्छा।
28-06-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
वेस्ट (Waste) मत करो और वेट (Weight) कम करो
सर्व खज़ानों को महादानी बन दान करने वाले, अपने शक्तियों के खजानों में सम्पन्न हो विश्व-कल्याणकारी आत्माओं प्रति बाप-दादा बोले:-
आवाज़ से परे अपने निराकारी स्टेज और आकारी स्टेज, जहाँ इशारों की भाषा ज्यादा है अर्थात् मूवी है, दोनों ही स्थिति में साकारी सृष्टि के समान आवाज़ नहीं है - ऐसे आवाज़ से परे स्थिति अच्छी लगती है? मुख द्वारा सुनना, सुनाना इससे ऊपर अपनी वृत्ति द्वारा वा दृष्टि द्वारा वा वायब्रेशन्स द्वारा वा अपने श्रेष्ठ अनुभवों के प्रभाव द्वारा किसी आत्माओं की सेवा करना अर्थात् सुनाना वा परिचय देना, सम्बन्ध जोड़ना इसके अनुभवी हो? जैसे वाणी द्वारा सम्बन्ध जोड़ना इसके अनुभवी हो, वैसे वाणी द्वारा डायरेक्शन मिले कि इन आत्माओं की वृत्ति वा दृष्टि वा श्रेष्ठ अनुभवों के प्रभाव से सेवा करो तो कर सकते हो वा सिर्फ वाणी द्वारा कर सकते हो? जैसे वाणी द्वारा आत्माओं को बाप से सम्बन्ध जुटाने के नम्बरवार निमित्त बनते हो वैसे अपनी सूक्ष्म स्थिति के वा मास्टर सर्व शक्तिवान वा मास्टर ज्ञान सूर्य की स्थिति द्वारा, आत्माओं को स्वयं के स्थिति वा बाप के सम्बन्ध का अनुभव, पॉवरफुल वातावरण, वायब्रेशन वा स्वयं के शक्ति स्वरूप के सम्पर्क से उन्हें भी करा सकते हो? क्योंकि जैसे समय समीप आ रहा है, पाण्डव सेना के प्रत्यक्ष होने का प्रभाव गुप्त रूप में फैलता जा रहा है। सेवा की रूपरेखा समय प्रमाण और सेवा प्रमाण परिवर्तन अवश्य होगी। जैसे आजकल भी साइंस द्वारा हर चीज़ को क्वान्टिटी (Quantity;मात्र) बजाए क्वालिटी (Quality;गुण) में ला रहे हैं, ऐसा छोटा सा रूप बना रहे हैं, जो रूप है छोटा लेकिन शक्ति अधिक भरी हुई होती है। जैसे मिठास के विस्तार को सैक्रीन (Seccharine) के रूप में लाते हैं। विस्तार को सार में ला रहे हैं, इसी प्रकार पाण्डव सेना अर्थात् साइलेन्स की शक्ति वाली श्रेष्ठ आत्माएं भी जो एक घन्टे के भाषण द्वारा किसको परिचय दे सकते हो, वह एक सेकेन्ड की पॉवरफुल दृष्टि, द्वारा पॉवरफुल स्टेज द्वारा, कल्याण की भावना द्वारा, आत्मिक भाव द्वारा ‘स्मृति’ दिला सकते हो वा अपरोक्ष साक्षात्कार करा सकते हो? अभी ऐसी प्रैक्टिस की आवश्यकता है। इसके लिए दो बातों की आवश्यकता है, जिससे ऐसी श्रेष्ठ सेवा के निमित्त बन सकते हो, वह कौनसी दो बातों की तरफ विशेष अटेन्शन दिलाते हैं। वह जानते हो कौन सी होगी?
एक तो चारों ओर यह अटेन्शन दिलाते हैं की कोई भी चीज़ वेस्ट (Waste;बेकार) मत करो और दूसरी बात वेट (Weight;वजन) कम करो। वह लोग तो शरीर की वेट कम करने के लिए कहते हैं, लेकिन बाप-दादा आत्मा के ऊपर जो बोझ है, जिस बोझ के कारण ऊँची स्टेज का अनुभव नहीं कर पाती, तो इस वेट को कम करो। एक वेस्ट मत करो और दूसरा वेट कम करो। इन दो बातों के ऊपर विशेष अटेंशन चाहिए। अपनी शक्तियां वा समय वेस्ट करने से जमा नहीं होती और जमा न होने के कारण जो खुशी वा शक्तिशाली स्टेज का अनुभव होना चाहिए, वह चाहते हुए भी नहीं कर सकते। जैसे आप श्रेष्ठ आत्माओं का विश्व-कल्याणकारी बनने का कार्य है। उसी प्रमाण समय वा शक्तियाँ न सिर्फ अपने प्रति लेकिन अनेक आत्माओं की सेवा प्रति भी स्टॉक जमा होना चाहिए। अगर वेस्ट होता रहेगा तो स्वयं भी अपने को भरपूर अनुभव नहीं करेंगे। जैसे आजकल की गवर्नमेंट भी बचत की स्कीम बनाती है। वैसे अपने प्रति आवश्यक समय वा शक्तियों में से एकानामी (Economy;बचत) का लक्ष्य रखते हुए बचत करनी चाहिए। क्योंकि विश्व की सर्व आत्माएं आप श्रेष्ठ आत्माओं का परिवार है। जितना बड़ा परिवार होता है उतना ही एकानामी का ख्याल रखा जाता है।
आप जैसा बड़ा परिवार और किसका है? तो सब आत्माओं को सामने रखते हुए, स्वयं को बेहद की सेवा अर्थ निमित्त समझते हुए, अपने समय और शक्तियों को कार्य में लगाते हो? मास्टर रचता की स्थिति स्मृति में रहती है वा अपने प्रति ही कमाया और खाया, वा कुछ खाया, कुछ गंवाया, ऐसे अलबेले हो चल रहे हो? तो अपने सर्व खजानों की बजट (Budget) बनाओ। इतनी बड़ी जिम्मेवारी का कार्य उठाने वाली आत्माएं अगर जमा न होगा तो कार्य कैसे सफल कर सकेंगी। ड्रामानुसार होना ही है - यह हुई नॉलेज की बात। लेकिन ड्रामा में मुझे भी निमित्त बन सेवा द्वारा श्रेष्ठ प्राप्ति करनी है, यह लक्ष्य रखते हुए हर खज़ाने की ‘बजट’ बनाओ। बजट में लक्ष्य क्या रखना है? सलोगन याद है? ‘कम खर्च बाला नशीन’। हर खज़ाने को चेक करो कितना जमा है? उस जमा के खाते से बेहद के आत्माओं की सेवा हो सकती है। हरेक सब्जेक्ट की भी चेकिंग करो कि हर सब्जेक्ट द्वारा बेहद की सेवा के निमित्त बन सकते हैं, वा सिर्फ ज्ञान द्वारा कर सकते हैं, धारणा द्वारा नहीं? जब फुल पास होना है तो फुल सब्जेक्ट द्वारा सेवा के निमित्त बनना आवश्यक है। अगर एक भी सब्जेक्ट में कमी है तो फुल पास नहीं लेकिन पास होंगे। एक है पास विथ ऑनर और दूसरी स्टेज है पास होना। जो सिर्फ पास होते हैं पास विथ ऑनर नहीं तो उन्हों को पास विथ ऑनर के अन्तर में धर्मराज की सजाओं से पास होना पड़ता है अर्थात् थोड़ा बहुत भी सजाओं का अनुभव में पास करेंगे। पास विथ ऑनर औरों को पास करते हुए देखेंगे। इसलिए हर सब्जेक्ट में फुल पास होना है - हर खज़ाने की बजट करो और बजट बनाओ अर्थात् वेस्ट मत करो। हर सेकेण्ड, संकल्प या स्वयं के प्रति शक्तिशाली बनाने अर्थ वा सर्व आत्माओं की सेवा अर्थ कार्य में लगाओ।
दूसरी बात ‘वेट कम करो।’ एक तो पिछले जन्मों का रहा हुआ हिसाब-किताब का बोझ समाप्त करने में लगे हो, लेकिन वह बोझ कोई बड़ी बात नहीं है। ब्राह्मण बनकर वा ब्रह्माकुमार/ब्रह्माकुमारी कहलाकर विश्व-कल्याणकारी वा विश्व-सेवाधारी कहलाकार फिर भी अगर ऐसा कोई विकल्प वा विकर्म करते हैं तो वह बोझ उस बोझ से सौगुणा है। ऐसे कितने प्रकार के बोझ अपने संस्कारों के वश, स्वभाव के वश, ज्ञान, बुद्धि के अभिमान वश, नाम और शान के स्वार्थ वश, स्वयं के सैलवेशन प्राप्त करने के वश, वा अलबेलेपन वा आलस्य के वश, अब तक कितने बोझ उठाए हैं? सदैव यह ध्यान पर रखना है कि ज्ञानी तू आत्मा कहलाते अथवा सर्विसएबुल कहलाते ऐसा कोई कर्म वा वातावरण फैलाने के वायब्रेशन उत्पन्न होने के निमित्त न बने जिससे सर्विस के बजाए डिस सर्विस हो। क्योंकि सर्विस भी हो लेकिन एक बार की डिस-सर्विस दस बार की सर्विस को समाप्त कर देती है। जैसे रबड़ मिट जाता है वैसे एक बार की डिस-सर्विस दस बार के सर्विस के खाते को खत्म कर देती है। और वह समझता रहता कि मैं बहुत सर्विस करता हूँ। लेकिन खाता खाली होने के कारण निशानी दिखाई भी देती हैं लेकिन अभिमान के वश बाहर से मियामिùè बन जाते हैं। निशानी क्या होती है? एक तो याद में शक्ति वा प्राप्ति का अनुभव नहीं होता। अन्दर की सन्तुष्टता नहीं होगी। हर समय कोई न कोई परिस्थिति वा व्यक्ति वा प्रकृति का वैभव, स्थिति को हलचल में लाने के वा खुशी, शक्ति खत्म करने के निमित्त बनेंगे। बाहर का दिखावा इतना सुन्दर होगा जो अनेक आत्माएं उन्हें न परखने कारण सबसे अच्छा खुश मिजाज और पुरुषार्थी समझेंगे। लेकिन अन्दर बिल्कुल उलझन में खोखलापन होता है। नाम, शान का खाता फुल होता है - लेकिन खज़ानों का खाता, अनुभूतियों का खाता खाली के बराबर होता है अर्थात् नाम मात्र होता है। और निशानी क्या होगी? ऐसी आत्मा स्वयं विघ्नों के वश होने के कारण सेवा के कार्य में विघ्न रूप बन जाती है। नाम विध्न विनाशक है लेकिन बनते विघ्न रूप हैं। ऐसे आत्माओं के ऊपर समय प्रति समय के बोझ से वेट बढ़ने के कारण अनेक प्रकार के मानसिक व्यर्थ चिन्तन वा मानसिक अशान्ति, ऐसे अनेक रोग पैदा कर लेते हैं। दूसरी बात वेट होने के कारण पुरूषार्थ की रफ्तार तीव्र नहीं हो सकती। हाई जम्प (ऊँची कूद) तो छोड़ो लेकिन दौड़ भी नहीं लगा सकते। प्लान बनायेंगे कि यह करेंगे, यह करेंगे लेकिन सफल नहीं हो सकते। तीसरी गुह्य बात ऐसी वेट वाली आत्माएं, जो विघ्न रूप वा डिस-सर्विस के निमित्त बनती है, बाप को अर्पण किया हुआ अपना तन-मन वा ईश्वरीय सेवा अर्थ मिला हुआ धन, अपने विघ्नों के कारण वेस्ट करती है अर्थात् सफलता नहीं पाती, उसके वेस्ट करने का भी बोझ चढ़ता है। इसलिए पापों की गहन गति को भी अच्छी रीति जानो। अब क्या करना है? वेस्ट मत करो और वेट कम करो। धर्मराज पुरी में जाने के पहले अपना धर्मराज बनो। अपना पूरा चोपडा खोलो और चेक करो पाप और पुण्य का खाता क्या रहा हुआ है, क्या जमा करना है; और विशेष स्वयं प्रति प्लान बनाओ। पाप के खाते को भस्म करो। पुण्य के खाते को बढ़ाओ। बाप-दादा बच्चों के खाते को देखते हुए समझते हैं मालामाल हो जाए। (बरसात पड़ रही है) प्रकृति भी पाठ पढ़ा रही है। जैसे प्रकृति अपने मौसम वा समय प्रमाण अपने तीव्र गति से कार्य कर रही है ऐसे ब्राह्मणों की कमाई जमा करने की मौसम है। तो मौसम प्रमाण तीव्र रफ्तार से जमा करो। अच्छा।
सदा फरिश्ते, वेटलेस अर्थात् लाईट रूप, हर सेकेण्ड और संकल्प में भी पिछला बोझ भस्म करते, भविष्य जमा करने वाले, सदा विश्व सेवाधारी स्वरूप में स्थित रह आत्माओं को सर्व खज़ाने महादानी बन दान करने वाले, अपने शक्तियों के खजानों में सम्पन्न हो शक्तियों द्वारा वरदानी बनने वाले, रहम दिल आत्माएं, सदा विश्व कल्याणकारी आत्माओं को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
पार्टियों से
सदा स्वचिन्तन और शुभचिन्तक दोनों स्टेज रहती हैं? जब शुभचिन्तक होता है तो व्यर्थ समाप्त हो जाता है। व्यर्थ का रहता है अर्थात् शुभ चिन्तक का अनुभव कम है। जैसे अगर एक बार बढ़िया चीज़ का टेस्ट (Taste) कर लिया तो घटिया चीज़ स्वीकार करने का संकल्प भी नहीं आएगा। वैसे शुभ चिन्तन में रहने वाला व्यर्थ चिन्तन कर नहीं सकता। चिन्तन चलाना अर्थात् उसका स्वरूप बन जाए। जैसे सागर के अन्दर रहने वाले जीव-जन्तु सागर में समाए हुए होते, बाहर नहीं निकलना चाहते। मछली भी पानी के अन्दर रहती, बाहर आई तो खत्म। सागर व पानी ही उसका संसार है, इतना बड़ा बाहर का संसार उसके लिए कुछ भी नहीं, ऐसे ज्ञान सागर बाप में समाए हुए - इन्हों का संसार भी बाप अर्थात् सागर होता है। ऐसे अनुभव करते हो वा बाहर चक्र लगाने को दिल होती है? जब तक यह अनुभव नहीं किया, स्वरूप में समाने का, तब तक जो ब्राह्मण जीवन का गायन है - अतीन्द्रिय सुख के झूले में झूलने का, हर्षित होने का, वह नहीं हो सकता। ऐसे अनुभवी ही इस ब्राह्मण जीवन के सुख के महत्व को जानते हैं। ब्राह्मणों को चोटी कहते हैं, यह चोटी अर्थात्, ऊँची स्टेज है। अगर यहाँ तक नहीं पहुँचे तो विजय का झंडा कैसे लहरायेंगे? ऊँची चोटी पर जाकर झंडा लहराएंगे तो ‘विजयी’ कहा जाएगा।
वर्तमान समय का पुरूषार्थ क्या है? सुनना, सुनाना चलता रहता, अभी अनुभवी बनना है। अनुभवी का प्रभाव ज्यादा होता। वही बात अनुभवी सुनावे और वही बात सुनी हुई सुनावे तो अन्तर पड़ेगा ना? लोग भी अभी अनुभव करना चाहते। योग शिविर में विशेष अनुभव क्यों करते? क्योंकि अनुभवी बनने का साधन है - सुनाने के साथ अनुभव कराया जाता है। इससे रिजल्ट अच्छी निकलती है। जब आत्माएं अनुभव चाहती हैं तो आप भी अनुभवी बनकर अनुभव कराओ। अनुभव कैसे हो? उसके लिए कौन सा साधन अपनाना है? जैसे कोई इन्वेन्टर (आविष्कारक) वह कोई भी इन्वेन्शन निकालने के लिए बिल्कुल एकान्त में रहते हैं। तो यहाँ की एकान्त अर्थात् एक के अन्त में खोना है, तो बाहर की आकर्षण से एकान्त चाहिए। ऐसे नहीं सिर्फ कमरे में बैठने की एकान्त चाहिए, लेकिन मन एकान्त हो। मन की एकाग्रता अर्थात् एक की याद में रहना, एकाग्र होना यही एकान्त है। एकान्त में जाकर इन्वेन्शन निकालते है ना! चारों ओर के वायब्रेशन से परे चले जाते तो यहाँ भी स्वयं को आकर्षण से परे जाना पड़े। ऐसे भी कई होते जिन्हें एकान्त पसन्द आता, संगठन में रहना, हंसना, बोलना ज्यादा पसन्द नहीं आता, लेकिन यह हुआ बाहर मुखता में आना। अभी अपने को एकान्त वासी बनाओ अर्थात् सर्व आकर्षण के वायब्रेशन से अन्तर्मुख बनो। अब समय ऐसा आ रहा है जो यही अभ्यास काम में आएगा। अगर बाहर के आकर्षण के वशीभूत होने का अभ्यास होगा तो समय पर धोखा दे देगा। सरकमस्टन्सेस (परिस्थितियां) ऐसे आयेंगे जो इस अभ्यास के सिवाए और कोई आधार ही नहीं दिखाई देगा। एकान्तवासी अर्थात् अनुभवी मूर्त्त। दिल्ली वाले सेवा के आदि के निमित्त बने हैं तो इस विशेषता में भी निमित्त बनो। तो इस स्थिति के अनुभव को दूसरे भी कॉपी करेंगे। यह सबसे बड़े ते बड़ी सेवा है। संगठित रूप में और इन्डीविजवल रूप में दोनों ही रूप से ऐसे अभ्यास का वातावरण फैलाओ।
30-06-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
बाप-दादा की हर ब्राह्मण आत्मा प्रति श्रेष्ठ कामनाएं
भविष्य तकदीर बनाने के निमित्त बने हुए मास्टर आलमाईटी अथॉरिटी बच्चों प्रति अव्यक्त बाप-दादा बोले:-
सर्व खुशनसीब, सर्व श्रेष्ठ आत्माओं के कल्याण अर्थ निमित्त बने हुए बाप-दादा के साथ सदा सहयोगी रहने के पार्ट बजाने वाली सर्व आत्माओं को देख बापदादा भी हर्षित होते हैं। बाप के स्नेह वा लगन में रहने वाली स्नेही आत्माओं को मिलन के उमंग, उत्साह में देख बाप भी बच्चों को स्नेह और उमंग का रिटर्न दे रहे हैं। बापदादा जानते हैं कि सभी बच्चों के अन्दर स्नेह, सहयोग की भावना और बाप समान बनने का श्रेष्ठ संकल्प भी है। इन सबको देख बाप-दादा बच्चों को स्वयं से भी सर्व श्रेष्ठ ताज, तख्त नशीन परमधाम के चमकते हुए सितारे और विश्व के सर्व आत्माओं के दिल के सहारे, विश्व की आत्माओं के आगे सदा पूर्वज और पूज्य - ऐसे श्रेष्ठ देखने चाहते हैं। बच्चों को श्रेष्ठ देखते बाप को ज्यादा खुशी होती है। हरेक ब्राह्मण आत्मा सदा ऊँचे ते ऊँचे बाप के साथ ऊँची स्थिति में स्थित रहे। जैसा ऊँचा नाम, वैसा ऊँचा काम। जैसा विश्व के आगे ऊँचा मान है, ऐसा ही स्वमान वा शान सदा कायम रहे - यही बाप-दादा की हर ब्राह्मण आत्मा में श्रेष्ठ कामना है।
बच्चों को क्या करना है? जो बाप-दादा द्वारा ज्ञान का, गुणों का, शक्तियों का श्रृंगार मिला है, उस श्रृंगार को धारण करो। जैसे आपके जड़ चित्र सदा सजे सजाए हैं, ऐसे चैतन्य रूप में भी सदा सजे सजाए, बाप-दादा के दिल तख्त नशीन, अति इन्द्रिय सुख में झूमते हुए सदा फरिश्ते रूप के नशे में रहना है। यही बाप-दादा को रिटर्न करना है। रिटर्न करना आता है? दिल की चाहना और करना समान हो। ऐसे नहीं कि चाहते हैं, लेकिन करते नहीं हैं। अपनी सर्व श्रेष्ठ अथॉरिटीज (Authorities)को, कौनसी अथॉरिटी? साकारी कर्मेन्द्रियाँ अर्थात् कर्मचारी और साथ-साथ अपनी सूक्ष्म शक्तियाँ मन, बुद्धि, संस्कार अर्थात् कार्य कलाओं को यथार्थ रीति से चलाने की अथॉरिटी। ऐसी अथॉरिटी धारण की है? मास्टर सर्वशक्तिवान, मास्टर आलमाइटी अथॉरिटी होकर अपने कर्मेन्द्रियों को चलाते हो वा ब्राह्मण परिवार के ही सहयोगी कार्यकर्त्ताओं अर्थात् मददगार आत्माओं वा सर्विस साथियों के ऊपर अथॉरिटी चलाते हो? ब्राह्मण आत्माओं के सम्पर्क में स्नेह और सहयोग की भावना रखनी है, न कि अथॉरिटी यूज़ करनी है। और कर्मेन्द्रियों के ऊपर सूक्ष्म शक्तियों के ऊपर अथॉरिटी चलानी है। उसमें कभी भी अधीन होना कि - मेरे स्वभाव, संस्कार ऐसे हैं, आलमाईटी अथॉरिटी के यह बोल नहीं हैं। जो स्वयं के ऊपर अथॉरिटी नहीं चलाते तो अथॉरिटी को मिस यूज़ (Misuse;दुरूपयोग) करते हैं। तो अथॉरिटी को मिस यूज़ मत करो।
बाप-दादा ने सर्व बच्चों के मिलन-मेले में बच्चों का उमंग-उत्साह भी देखा, श्रेष्ठ भावना भी देखी, विश्व-कल्याण की कामना भी देखी। साथ-साथ बाप समान बनने की श्रेष्ठ इच्छा भी देखी। लेकिन इन सब बातों को संकल्प और वाणी तक देखा। प्रैक्टिकल में सदा ‘लक्ष्य के प्रमाण लक्षण’ स्वयं को वा सर्व को दिखाई दे - उसके बैलेन्स में अन्तर देखा। बैलेन्स करने की कला अभी चढ़ती कला में चाहिए। संकल्प है, लेकिन संकल्प की सम्पूर्ण स्टेज - ‘दृढ़ संकल्प’ है। सकंल्प है, लेकिन दृढ़ता चाहिए। स्वदर्श न जिससे माया को सदा के लिए विदाई मिल जाती है, उसके साथ-साथ स्व-दर्शन और परदर्शन दोनों चक्कर घूमते रहते हैं। परदर्शन माया का आह्वान करता है। स्वदर्शन माया को चैलेन्ज करता है। परदर्शन की लीला की लहर भी अच्छी तरह से दिखाई देती है। बेहद के ड्रामा के हर पार्ट के ‘त्रिकालदर्शी’ बनने का लक्ष्य भी देखा। लेकिन व्यर्थ बातों के त्रिकालदर्शी भी ज्यादा बनते हैं। पहले भी ऐसे हुआ था, अभी है और यह होता ही रहेगा - ऐसे त्रिकालदर्शी बन गए हैं। और एक मजे की बात क्या होती है, जो भक्ति में भी आपको कापी की है, वह कौन सी बात है? ‘मनगढ़ंत कहानियाँ’ - जैसे गणेश वा हनुमान रीयल हैं क्या? लेकिन कहानी कितनी रमणीक हैं! ऐसे छोटी सी बात का भाव बदल, मनगढ़ंत भाव भरकर पूरी स्टोरी (Story;कहानी) तैयारी कर लेते हैं। और सुनने, सुनाने वाले बड़ी रूचि और समय देकर सुनते-सुनाते हैं। ऐसी भी लहर देखी।
बाप-दादा, श्रेष्ठ पद पाने के लिए वा सर्व के स्नेही बनने के लिए सदैव यही शिक्षा देते हैं कि ‘स्वयं को बदलना है।’ लेकिन स्वयं को बदलने के बजाए, परिस्थितियों को और अन्य आत्माओं को बदलने का सोचते हैं - यह बदले, तो मैं ठीक हूँगा। परिस्थिति बदले तो मैं परिवर्तन हूँगा। सैलवेशन मिले तो परिवार्तित हूँगा। सहयोग व सहारा मिले तो परिवर्तन हूँगा। इसकी रिजल्ट क्या होती? जो किसी भी आधार पर परिवर्तन होता है, उसको जन्म-जन्म प्रालब्ध भी किसी आधार पर ही रहेगी। उसका कमाई का खाता जिस बात में जितनों का आधार लेते हैं वह शेयर्स (Shares;हिस्से) में बंट जाता है। स्वयं का खाता जमा नहीं होता। इसलिए जमा होने की शक्ति और खुशी से सदा वंचित रहते हैं। इसलिए सदा लक्ष्य रखो कि स्वयं को परिवर्तन होना है। मैं स्वयं विश्व की आधार मूर्त्त हूँ, सिवाए बाप के आधार के अल्पकाल के आधार समय पर छोड़ देंगे। विनाशी हिलने वाले आधार आपको भी सदा कोई न कोई हलचल में लाते रहेंगे। एक समाप्त होंगे, दूसरा जन्म लेंगे - इसी में ही और शक्तियां व्यर्थ होंगी। और बात, चलते-चलते अलबेले होने के कारण, कमज़ोरी के बोल बार-बार ऐसे बोलते, जैसे बड़ा मान से बोल रहे हैं - संकोच नहीं होता। सच्चाई, सफाई समझकर बोलते हैं। क्या बोलते हैं? मैं डिस्टर्ब (Disturb) हूँ, मैं कुछ करके दिखाऊंगी। क्या करके दिखाऊंगी? हंगामा? या अपने आपको कुछ करके दिखाऊंगी। डिस-सर्विस होगी यह देख लेना, मैं हूँ ही कमज़ोर, संस्कार वश हूँ। मैं बदल नहीं सकती। आपको यह सैलवेशन देनी ही होगी। ऐसे-ऐसे बोल बहुत इजी रूप में, बहादुरी दिखाने के रूप में, दबाने और धमकाने के रूप में, बहुत बोलते हैं। बाप-दादा को रहम आता है। ऐसी कमज़ोर आत्माएं, जो संकल्प के बाद वाणी तक भी लाती हैं, कर्म तक भी लाती हैं। इसमें अकल्याण किसका? समझते ऐसे हैं जैसे कि बाप का अकल्याण होना है, सर्विस का अकल्याण। समझते हैं बाप को नुकसान पड़ेगा। लेकिन इन बातों के संस्कार बनाने वाले अपना ही अकल्याण करने के निमित्त बन जाते हैं। ड्रामानुसार विश्व-सेवा का कार्य निश्चित ही सफल हुआ पड़ा है। कोई हिला नहीं सकता।
यह तो बाप-दादा निमित्त बना है, एक कर्म का पद्म गुणा फल देने के लिए। बच्चों को सेवा अर्थ निमित्त बनाते हैं। करेंगे तो पद्मगुणा पायेंगे। तो बच्चों के भाग्य बनाने के लिए निमित्त बनाया हुआ है। बाकी कोई के हिलने से कार्य नहीं हिल जाता है। कल्पकल्प की निश्चित भावी, विजय की हुई पड़ी है। इसलिए ऐसी कमज़ोर भाषा को परिवर्तन करो। अर्थात् स्वयं का कल्याण करो। बाप, कल्याणकारी समय और विश्व कल्याण करने के कार्य के समर्थ बन, स्वयं का भविष्य बनाओ।
बाप जानते हैं, मेहनत भी बहुत करते हैं; त्याग भी किया है, सहन भी बहुत करते हैं। लेकिन जिससे स्नेह होता है उसकी छोटी-सी कमज़ोरी भी देख नहीं सकते हैं। सदा श्रेष्ठ बनाने की शुभ भावना रहती है। इसलिए यह सब देखते, सुनते हुए भी, सम्पन्न बनाने के लिए इशारा दे रहे हैं। बाप-दादा सदा बच्चों के साथ हर कदम में सहयोगी है और अन्त तक रहेंगे। बाप को किसी के प्रति घृणा नहीं होती। सदैव अपकारी के भी ‘शुभ चिन्तक’ हैं। इसलिए सदा सहयोग लेते चलते चलो। अमृतवेले का महत्व जान बाप द्वारा वरदान लेते रहो। सीज़न की समाप्ति की अर्थात् सहयोग की समाप्ति नहीं है। हरेक बच्चे के साथ सर्व स्वरूपों से सर्व सम्बन्धों से, ‘बाप-दादा का सदा हाथ और साथ है।’ अभी ड्रामानुसार समय मिला है, यह अपना लक (Luck;भाग्य) समझ समय का लाभ उठाओ। विनाश की घड़ी के कांटे ‘आप’ हो। आपका सम्पन्न होना समय का सम्पन्न होना है। इसलिए सदा स्व-चिन्तन, स्वदर्शन चक्रधारी बनो। अच्छा।
ऐसे भविष्य तकदीर बनाने के निमित्त बनी हुई आत्माएं, स्वयं द्वारा कल की तस्वीर दिखाने वाले, सदा बाप को रिटर्न देने वाले मास्टर आलमाइटी अथॉरिटी बच्चों को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।
पार्टियों से
महादानी बच्चों की निशानी क्या दिखाई देगी? महादानी बनने से लाभ कौन-कौन से होते हैं? महादानी अर्थात् बाप और सेवा के सिवाए और कोई भी बात अपने तरफ आकर्षित न करे। सदा इसी लगन में मगन। महादानी अर्थात् जो हर समय देता रहे। कोई भी आत्मा खाली हाथ न जाए। अगर महादानी नहीं बनेंगे तो वरदानी फिर कैसे बनेंगे? जो महादानी, वरदानी दोनों है वही विश्व-कल्याणकारी हैं। सदैव जो मिलता रहता है वह देने से बढ़ेगा। महादानी बच्चों का ऐसा कोई समय या दिन नहीं जा सकता जिसमें दान न करे।
महादानी बनना अर्थात् दूसरों की सेवा करना, दूसरों की सेवा करने से स्वयं की सेवा स्वत: हो जाती है। महादानी बनना अर्थात् स्वयं को मालामाल करना, दूसरों को दान ही देना है। जितनी आत्माओं को सुख वा शक्ति का वा ज्ञान का दान देते हो, उतनी आत्माओं की प्राप्ति की आवाज़ या सुक्रिया जो निकलता, वह आपके लिए आशीर्वाद का रूप हो जाता। उनकी आशीर्वाद आपको आगे बढ़ाती रहेगी। इतनी आत्माओं की आशीर्वाद मिलने से अपार खुशी रहेगी। इसलिए चारों ही सब्जेक्ट में महादानी बनने के लिए अमृतवेले अपना प्रोग्राम बनाओ। एक भी सब्जेक्ट में कम न होना चाहिए।
‘और संग तोड़ एक संग जोड़ो’ -- यह कहावत क्यों प्रसिद्ध हैं? क्योंकि एक बाप का प्यारा बनने के लिए सर्व से न्यारा बनना पड़ता है। जब एक में सर्व सम्बन्धों की प्राप्ति हो जाती है तो सहज ही सर्व से किनारा हो जाता। तो सर्व से तोड़ना और एक से जोड़ना आपके लिए सहज है। क्योंकि एक द्वारा सर्व प्राप्ति होने से अप्राप्त कोई वस्तु नहीं रहती जिस तरफ बुद्धि भटके। पहले प्यार मिलता है फिर न्यारे होते - इसलिए भी सहज है। तो ‘सबसे न्यारा और बाप का प्यारा, इसी को ही कमल पुष्प समान कहा जाता है।’ तो चेक करो कमल पुष्प समान हैं? कीचड़ के छींटे तो नहीं पड़ते?
योग्य टीचर की निशानी क्या है? योग्य टीचर अर्थात् हर सेकेण्ड, हर संकल्प द्वारा सेवा करने वाली। अगर सेकेण्ड व संकल्प व्यर्थ जाता है उसे टीचर कहेंगे, लेकिन योग्य टीचर नहीं। ‘योग्य टीचर अर्थात् योगयुक्त अर्थात् युक्तियुक्त।’ जो योगयुक्त होगा उसका हर संकल्प समर्थ होगा। जब संकल्प रूपी बीज समर्थ होगा तो फल भी समर्थ होगा। निमित्त है अर्थात् एक्जाम्पल (Example;उदाहरण) है, जैसे एक्जाम्पल होगा वैसे और भी होंगे।
सुनने का अन्दाज कितना है? इसी सीजन में भी कितना सुना होगा? अब ड्रामा की भावी सुना रही है कि - आवाज़ से परे जाना है। यह शरीर की खिटखिट भी निमित्त सुना रही है कि शिक्षा बहुत हो गई है। अभी सुनने के बाद समाना अर्थात् स्वरूप बनना - उसकी सीजन है। सुनने की सीजन कितने वर्ष चली! चाहे साकार द्वारा, चाहे रिवाईज कोर्स द्वारा, सुनने का सीजन बहुत चला है। तो अभी स्वरूप द्वारा सर्विस करना। अभी लास्ट यही सीजन रह गया है ना, जिसमें ही प्रत्यक्षता का नगाड़ा बजेगा। आवाज़ बन्द होगा, साइलेन्स होगा। लेकिन साइलेन्स द्वारा ही नगाड़ा बजेगा। जब तक मुख से नगाड़े ज्यादा हैं, तब तक प्रत्यक्षता का नहीं। जब प्रत्यक्षता का नगाड़ा बजेगा तब मुख के नगाड़े बन्द हो जाएंगे। गाया हुआ भी है ‘साइंस के ऊपर साइलेन्स की जीत’, न कि वाणी की। समय की समाप्ति की निशानी क्या होगी? ऑटोमेटीकली आवाज़ में आने की दिल नहीं होगी - प्रोग्राम प्रामाण नहीं, लेकिन नैचुरल स्थिति। जैसे साकार बाप को देखा, तो सम्पूर्णता की निशानी क्या दिखाई दी? दो मिनट हैं या एक मिनट है, उसकी पहचान इस स्थिति से होती जा रही है। ऑटोमेटिक वैराग आएगा ज्यादा आवाज़ में आने से। जैसे अभी चाहते हुए भी आदत आवाज़ में ले आती, वैसे चाहते हुए भी आवाज़ से परे हो जाएंगे। प्रोग्राम बनाकर आवाज में आएंगे। जब यह चेन्ज दिखाई दे, तब समझो अभी विजय का नगाड़ा बजने वाला है। आजकल चारों ओर मैजारिटी से पूछेंगे तो सबको सुख से भी शान्ति आधिक चाहिए। वह एक घड़ी भी शान्ति का अनुभव इतना श्रेष्ठ मानते हैं जैसे भगवान की प्राप्ति हो गई। तो एक सेकेण्ड में शान्ति का अनुभव कराने वाले स्वयं शान्त स्वरूप में स्थित होंगे ना। विनाश कब होगा? उसके लिए कौन निमित्त बनेगा? घड़ी की सुइयां कौन सी होगी? घंटे बजने के निमित्त सुई होती है ना? तो विनाश के घंटे बजने के लिए सुई कौन है?
सर्व शक्तियों का स्टॉक जमा किया है? क्योंकि अगर स्टॉक जमा नहीं होगा तो अनेक जन्म की प्रालब्ध को भी पा न सकेंगे। इसी एक जन्म में अनेक जन्मों का जमा करते हो। इतना जमा किया है जो 21 जन्म वह प्रालब्ध भोगते रहो? इतनी जमा किया है, जो भिखारी आत्माओं को महादानी बन दान कर सको? सदा स्टॉक को चेक करो। स्टॉक में सर्वशक्तियां चाहिए। ऐसे नहीं समाने की शक्ति है, सहन शक्ति नहीं तो हर्जा नहीं। लेकिन फाइनल पेपर में क्वेश्चन वही आएगा जिस शक्ति की कमी है। ऐसे कभी नहीं सोचना - छ: नहीं दो तो हैं, धारण नहीं है, सर्विस तो है ही। सर्विस नहीं है, योग तो है ही। लेकिन सब चाहिए। जैसे बाप में सब है ना ज्ञान, शक्ति, गुण.... तो फालो फादर करना है।
सदा स्वचिन्तन में अपने स्टॉक को जमा करने में लगो। इसी समय को आगे चल करके बहुत याद करना पड़ेगा। तो पीछे यह न सोचना पड़े, पश्चात्ताप नहीं करना पड़े, उसके लिए अभी से ‘स्वचिन्तन’ में लगो। सदैव अपने को हर सब्जेक्ट में आगे बढ़ाने में लगे हो? हर गुण के अनुभव को आगे बढ़ाते जाओ। जितना आगे बढ़ाएंगे उतनी नवीनता का अनुभव करेंगे। अनुभवी मूर्त्त होने की रिसर्च (Research;खोज) करो तो बहुत मजा आएगा। जैसे बाप सागर है वैसे मास्टर सागर बनो। अभी ऐसा पुरूषार्थ चाहिए।
सेवाधारियों ने सेवा का पार्ट तो बजाया। सेवाधारी की विशेषता कौन सी होती है जिसे सब देख कहें कि यह सबसे फर्स्ट क्लास सेवाधारी है? सेवा करने में भी नम्बरवार होते हैं। नम्बर वन सेवाधारी की विशेषता क्या होगी? फर्स्ट क्लास सेवाधारी की विशेषता यही दिखाई देगी - जो सेवा करते भी सेवा द्वारा बाप के गुणों और कर्त्तव्य को प्रसिद्ध करे - सिर्फ कर्मणा सर्विस नहीं। चाहे स्थूल कर रहे हो, लेकिन हर कर्म द्वारा, हर कदम द्वारा बाप के गुण और कर्त्तव्य को प्रसिद्ध करे। यह है फर्स्ट क्लास सेवा। सेवा करते हुए भी मास्टर ज्ञान सागर, सुख का सागर, शान्ति का सागर अनुभव हो। तो ऐसा लक्ष्य रखा या सिर्फ कर्मणा में अथक बनने का लक्ष्य रखा? फर्स्ट क्लास सेवाधारी अर्थात् एक समय में तीनों प्रकार की सेवा करे। मूर्त्त द्वारा भी, मन्सा द्वारा भी और कर्म द्वारा भी। मूर्त्त से अलौकिक सेवाधारी की झलक अर्थात् फरिश्तेपन की झलक दिखाई दे और मन्सा अपने श्रेष्ठ वृत्ति द्वारा सेवा करे - ऐसे एक ही समय में तीन सेवाएं इकट्ठी हो - इसको कहा जाता है फर्स्ट क्लास सेवाधारी। सेवा करना यह एक गुण हुआ, लेकिन मास्टर सर्व गुण के सागर रहना यह विशेषता है जो और कहाँ हो नहीं सकती। अथक तो सब बन सकते, लेकिन ऑलराउन्ड सेवाधारी, एक समय में तीन प्रकार के सेवाधारी नहीं मिलेंगे। तो जो ब्राह्मणों की विशेषता है वह लक्ष्य रख लक्षण द्वारा दिखाना।
अभी विशेष काम क्या करेंगे? सुनाया था ना कि याद की यात्रा का, हर प्राप्ति का और भी अन्तर्मुख हो, अति सूक्ष्म और गुह्य ते गुह्य अनुभव करो, रिसर्च करो, संकल्प धारण करो और फिर उसका परिणाम देखो, सिद्धि देखो - जो संकल्प किया वह सिद्ध हुआ या नहीं? जो शक्ति धारण की उस शक्ति की प्रैक्टिकल रिजल्ट होने कितने परसेन्ट रही? ‘अभी अनुभवों की गुह्यता की प्रयोगशाला में रहना।’ ऐसे महसूस हो जैसे यह सब कोई विशेष लगन में मगन इस संसार से उपराम हैं। कर्म और योग का बैलेंस और आगे बढ़ाओ। कर्म करते योग की पॉवरफुल स्टेज रहे - इसका अभ्यास बढ़ाओ। बैलेंस रहना अर्थात् तीव्र गति। बैलेंस न होने के कारण चलते-चलते तीव्र गति की बजाए साधारण गति हो जाती हैं। तो अभी जैसे सेवा के लिए इन्वेन्शन करते वैसे इन विशेष अनुभवों के अभ्यास के लिए समय निकालो और नवीनता लाकर के सबके आगे ‘एक्जाम्पल’ बनो। अभी वर्णन सब करते योग अर्थात् याद, योग अर्थात् कनेक्शन। लेकिन कनेक्शन का प्रैक्टिकल रूप, प्रमाण क्या है, प्राप्ति क्या है, उसकी महीनता में जाओ। मोटे रूप में नहीं, लेकिन रूहानियत की गुह्यता में जाओ। तब फरिश्ता रूप प्रत्यक्ष होगा। ‘प्रत्यक्षता का साधन ही है स्वयं में पहले सर्व अनुभव प्रत्यक्ष हो।’ जैसे विदेश की सेवा में भी रिजल्ट क्या सुनी? प्रभाव किसका पड़ता? दृष्टि का और रूहानियत की शक्ति का, चाहे भाषा ना समझे लेकिन जो छाप लगती है वह फरिश्तेपन की, सूरत और नयनों द्वारा रूहानी दृष्टी की। रिजल्ट में यही देखा ना। तो अन्त में न समय होगा, न इतनी शक्ति रहेगी। चलते-चलते बोलने की शक्ति भी कम होती जाएगी। लेकिन जो वाणी कर्म करती है उससे कई गुणा अधिक रूहानियत की शक्ति कार्य कर सकती है। जैसे वाणी में आने का अभ्यास हो गया है, वैसे रूहानीयत का अभ्यास हो जाएगा तो वाणी में आने का दिल नहीं होगा।