02-01-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
"विश्व परिवर्तन की जिम्मेवारी संगमयुगी ब्राह्मणों पर"
सदा जागती ज्योति शिवबाबा अपने चैतन्य दीपकों के प्रति बोले:-
‘‘बापदादा अपने ब्राह्मण कुल दीपकों से मिलने के लिए आये हैं। चैतन्य दीपकों की माला को देख रहे हैं। हर एक दीपक विश्व को रोशन करने वाले चैतन्य दीपक हैं। सर्व दीपकों का सम्बन्ध एक जागती-ज्योति से है। हर दीपक की रोशनी से विश्व का अंधकार मिटता हुआ, रोशनी की झलक आ रही है। हर दीपक की किरणें फैलती हुई विश्व के ऊपर प्रकाश की छत्रछाया बनी हुई है। ऐसा सुन्दर दृश्य बापदादा दीपकों का देख रहे हैं। आप सभी भी सर्व दीपकों की मिली हुई रोशनी की छत्रछाया देख रहे हो? लाइट माइट स्वरूप अनुभव कर रहे हो? स्व-स्वरूप में भी स्थित और साथ-साथ विश्व की सेवा भी कर रहे हो। स्वस्व रूप और सेवा स्वरूप दोनों साथ-साथ अनुभव कर रहे हो? इसी स्वरूप में स्थित रहो। कितना शक्तिशाली स्वरूप है। विश्व की आत्मायें आप जगते हुए दीपकों की तरफ कितना स्नेह से देख रही हैं। अनुभव करते रहो - कि जरासी रोशनी के लिए भी कितनी आत्मायें अंधकार में भटकती हुई रोशनी के लिए तड़प रही हैं? वो तड़पती हुई आत्मायें नज़र आती हैं? अगर आप दीपकों की रोशनी टिमटिमाती रहेगी, अभी-अभी जगी, अभी-अभी बुझी तो भटकी हुई आत्माओं का क्या हाल होगा? जैसे यहां भी अंधकार हो जाता है तो सबकी इच्छा होती है अभी रोशनी हो। बुझती-जगती हुई लाइट पसन्द नहीं करेंगे। ऐसे आप हर जगे हुए दीपक के ऊपर विश्व के अंधकार मिटाने की जिम्मेवारी है। इतनी बड़ी जिम्मेवारी अनुभव करते हो?
ड्रामा के रहस्य अनुसार आज ब्राह्मण जगे तो सब जगे। ब्राह्मण जगे तो दिन, रोशनी हो जाती है। और ब्राह्मणों की ज्योति बुझी तो विश्व में अंधकार, रात हो जाती है। तो दिन से रात, रात से दिन बनाने वाले आप चैतन्य दीपक हो। इतनी जिम्मेवारी हर एक पर है। तो बापदादा हर एक के जिम्मेवारी समझने का चार्ट देख रहे हैं कि हर एक अपने को कितना जिम्मेवार समझते हैं? विश्व परिवर्तन की जिम्मेवारी का ताज धारण किया है वा नहीं? इसमें भी नम्बरवार ताजधारी बैठे हुए हैं। अपना ताज देख रहे हो? सदा पहनते हो वा कभी-कभी पहनते हो? अलबेले तो नहीं बनते? ऐसा तो नहीं समझते कि जिम्मेवारी बड़ों की है। विश्व का ताज बड़ों को देंगे या आप लेंगे? जैसे विश्व के राज्य अधिकारी सभी अपने को समझते हो, अगर कोई आपको कहे आप प्रजा ही बन जाना तो आप पसन्द करेंगे? सब विश्व का महाराजन बनने आये हो ना? वा प्रजा बनना भी पसन्द है? क्या बनेंगे? प्रजा बनने के लिए तैयार है कोई? सभी हाथ उठाते हो लक्ष्मी-नारायण बनने के लिए, तो जब वह राज्य का ताज पहनना है तो उस ताज का आधार सेवा की जिम्मेवारी के ताज पर है। तो क्या करना पड़ेगा? अभी से ताजधारी बनने के संस्कार धारण करने पड़ेंगे। कौन-सा ताज? जिम्मेवारी का।
तो आज बापदादा सबके ताज देख रहे हैं। तो यह कौन-सी सभा हो गई? ताजधारियों की सभा देख रहे हैं। सभी ने इस ताजपोशी का दिन मनाया है? मनाया है कि अभी मनाना है? जैसे आपके यादगार चित्र श्रीकृष्ण के चित्र में बचपन से ही ताज दिखाते हैं। बड़ा होकर तो होगा ही लेकिन बचपन से ही ताजधारी। देखा है अपना चित्र? डबल विदेशियों ने अपना चित्र देखा है? यह किसका चित्र है? एक ब्रह्मा का चित्र है या आप सबका है? तो जैसे श्रीकृष्ण के चित्र में बचपन से ही ताजधारी दिखाया है वैसे आप श्रेष्ठ आत्मायें भी मरजीवा बनीं, ब्राह्मण बनीं और जिम्मेवारी का ताज धारण किया। तो जन्म से ताजधारी बनते हो इसलिए यादगार में भी जन्म से ताज दिखाया है। तो ब्राह्मण बनना अर्थात् ताजपोशी का दिन मनाना। तो सबने अपनी ताजपोशी मना ली है ना? अभी सिर्फ यह देखना है कि सदा इस विश्व सेवा की जिम्मेवारी के ताजधारी बन सेवा में लगे हुए रहते हैं? तो क्या दिखाई दे रहा है? ताजधारी तो सब दिखाई दे रहे हैं लेकिन कोई की दृढ़ संकल्प की फिटिंग ठीक है और कोई की थोड़ी लूज है। लूज होने कारण ताज कभी उतरता है, कभी धारण करते हैं। तो सदा दृढ़ संकल्प द्वारा इस ताज को सदा के लिए सेट करो। समझा, क्या करना है? ब्रह्मा बाप बच्चों को देख कितने हर्षित होते हैं? ब्रह्मा बाप भी सदा गीत गाते हैं, कौनसा गीत गाते हैं? ‘‘वाह मेरे बच्चे, वाह''! और बच्चे क्या गीत गाते हैं? (वाह बाबा, वाह!) यह सहज गीत है इसीलिए गाते हैं। सबसे ज्यादा खुशी किसको होती है? सबसे ज्यादा ब्रह्मा बाप को खुशी होती है। क्यों? सभी बच्चे अपने को क्या कहलाते हो? ब्रह्माकुमार और ब्रह्माकुमारी, शिव कुमार और शिव कुमारी नहीं कहते हो। तो ब्रह्मा बाप रचयिता अपनी रचना को देख हर्षित होते हैं। ब्रह्मा मुख वंशावली हो ना! तो अपनी वंशावली को देख ब्रह्मा बाप हर्षित होते है।
अव्यक्त रूपधारी होते भी मधुबन में व्यक्त रूपधारी की अर्थात् चैतन्य साकार रूप की अनुभूति कराते ही रहते हैं। मधुबन में आकर ब्राह्मण बच्चे ब्रह्मा से साकार रूप की, साकार चरित्र की अनुभूति करते हो ना? विशेष मधुबन भूमि को वरदान है - साकार रूप की अनुभूति कराने का। तो ऐसी अनुभूति करते हो ना! आकारधारी ब्रह्मा है या साकार है? क्या अनुभव करते हो? रूह-रूहान करते हो? अच्छा-
आज वतन में बापदादा की यही रूह-रूहान चल रही थी कि डबल विदेशी बच्चे अपने समीप के सम्बन्ध के स्नेह में निराकार और आकार को साकार रूपधारी बनाने में बहुत होशियार हैं। बच्चों के स्नेह के जादू से आकार भी साकार बन जाता है। ऐसे स्नेह के जादूगर बच्चे हैं। स्नेह, स्वरूप को बदल लेता है। तो ब्रह्मा बाप भी ऐसे ही अनुभव करते हैं कि हरेक स्नेही बच्चे से साकार रूपधारी बन मिलते हैं, अर्थात् बच्चों के स्नेह का रेसपान्ड देते हैं। स्नेह की रस्सी से बापदादा को सदा साथ बाँध देते हैं। यह स्नेह की रस्सी ऐसी मजबूत है जो कोई तोड़ नहीं सकता। 21 जन्मों के लिए ब्रह्मा बाप के साथ भिन्न-भिन्न सम्बन्ध में बँधे हुए ही रहेंगे। अलग नहीं हो सकते। ऐसी रस्सी बाँधी है ना? इसको ही कहा जाता है अविनाशी मीठा बन्धन। 21 जन्मों तक निश्चित है। तो ऐसा बन्धन बाँध लिया है ना? जादूगर बच्चे हो ना? तो सुना आज वतन में क्या रूह-रूहान चली। ब्रह्मा बाप एक-एक बच्चे की विशेषता की चमकती हुई मणि को देख रहे थे। हर बच्चे की विशेषता मणि के समान चमक रही थी। तो अपनी चमकती हुई मणि को देखा है! अच्छा-
डबल विदेशी बच्चों से मिलने आते हैं, वाणी नहीं चलाते हैं। बाप की कमाल है लेकिन बच्चों की भी कम नहीं। आप समझते हो कि हम आपस में रूह-रूहान करते लेकिन बापदादा भी रूह-रूहान करते हैं। अच्छा-
ऐसे सदा विश्व सेवा के जिम्मेवारी के ताजधारी, सदा स्नेह के बंधन में बापदादा को अपना साथी बनाने वाले, 21 जन्म के लिए अविनाशी सम्बन्ध में आने वाले, ऐसे सदा जगे हुए दीपकों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।''
जर्मन ग्रुप:- सभी के मस्तक पर क्या चमक रहा है? अपने मस्तक पर चमकता हुआ सितारा देख रहे हो? बापदादा सभी के मस्तक पर चमकती हुई मणि को देख रहे हैं। अपने को सदा पद्मापद्म भाग्यशाली आत्मायें समझते हो? हर समय कितनी कमाई जमा करते हो? हिसाब निकाल सकते हो? सारे कल्प के अन्दर ऐसा कोई बिजनेसमैन होगा जो इतनी कमाई करे! सदा यह खुशी की याद रहती है कि हम ही कल्प-कल्प ऐसे श्रेष्ठ आत्मा बने हैं? तो सदा यही समझो कि इतने बड़े बिजनेसमैन हैं और इतनी ही कमाई में बिजी रहो। सदा बिजी रहने से किसी भी प्रकार की माया वार नहीं करेगी क्योंकि बिजी होंगे तो माया बिजी देखकर लौट जायेगी, वार नहीं करेगी। सहज मायाजीत बनने का यही साधन है कि सदा कमाई करते रहो और कराते रहो। जैसे-जैसे माया के अनेक प्रकारों के नालेजफुल होते जायेंगे तो माया किनारा करती जायेगी। दूसरी बात एक सेकण्ड भी अकेले नहीं हो, सदा बाप के साथ रहो तो बाप के साथ को देखते हुए माया आ नहीं सकती क्योंकि माया पहले बाप से अकेला करती है तब आती है। तो जब अकेले होंगे ही नहीं फिर माया क्या करेगी? बाप अति प्रिय है, यह तो अनुभव है ना? तो प्यारी चीज भूल कैसे सकती! तो सदा यह स्मृति में रखो कि प्यारे ते प्यारा कौन? जहाँ मन होगा वहाँ तन और धन स्वत: होगा। तो ‘‘मन्मनाभव'' का मन्त्र याद है ना! जहाँ भी मन जाए तो पहले यह चेक करो कि इससे बढ़िया, इससे श्रेष्ठ और कोई चीज है या जहाँ मन जाता है वही श्रेष्ठ है! उसी घड़ी चेक करो तो चेक करने से चेंज हो जायेंगे। हर कर्म, हर संकल्प करने के पहले चेक करो। करने के बाद नहीं। पहले चेकिंग पीछे प्रैक्टिकल। अच्छा –
04-01-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
"सतगुरू का प्रथम वरदान - ‘‘मन्मनाभव''"
सतगुरू शिव बाबा गुरू पौत्रों से बोले:-
‘‘आज ज्ञान सागर बाप, सागर के कण्ठे पर ज्ञान रत्न चुगने वाले होली हंसों से मिलने आये हैं। हरेक होली हंस कितना ज्ञान रत्नों को चुनकर खुशी में नाच रहे हैं, वह हंसों के खुशी का डांस देख रहे हैं। यह अलौकिक खुशी की रूहानी डांस कितनी प्यारी है और सारे कल्प से न्यारी है!
सागर की भिन्न-भिन्न लहरों को देख हरेक हंस कितना हर्षित हो रहे हैं। तो आज बापदादा क्या देखने आये हैं? हंसों की डांस। डांस करने में तो होशियार हो ना? हरेक के मन के खुशी के गीत भी सुन रहे हैं। बिना गीत के डांस तो नहीं होती है ना। तो साज भी बज रहे हैं और डांस भी हो रहा है। आप सभी भी खुशी के गीत सुन रहे हो? यह गीत कानों से नहीं सुनेंगे। लेकिन मन के गीत मन से ही सुनेंगे। ‘मन्मनाभव' हुए और गीत गाना व सुनना शुरू हुआ। ‘‘मन्मनाभव'' इस महामन्त्र के वरदानी तो सभी बन गये। सतगुरू के बने तो सतगुरू द्वारा पहला-पहला वरदान क्या मिला? ‘मन्मनाभव'। सतगुरू के रूप में वरदानी बच्चों को देख रहे हैं। सभी महामंत्रधारी, महादानी, वरदानी, सतगुरू के बच्चे ‘मास्टर सतगुरू' हो। वा यह कहो कि ‘गुरू पौत्रे' हो। पोत्रों का हक ज्यादा होता है। ब्रह्मा के बच्चे, तो पौत्रे भी हुए ना। बच्चे भी हो, पौत्रे भी हो। जितने बाप के सम्बन्ध उतने आपके सम्बन्ध। सर्व सम्बन्ध में अधिकारी आत्मायें हो। भोलेनाथ बाप से सब कुछ लेने में होशियार हो। सौदागर भी अच्छे हो। सौदा कर लिया है ना? ऐसे कभी सोचा था कि भगवान से सौदा करेंगे? और सौदे में लिया क्या? सौदे में क्या मिला? (मुक्ति-जीवनमुक्ति) बस सिर्फ मुक्ति-जीवनमुक्ति मिली? सौदागर के साथ जादूगर भी हो। सौदा किया है तो इतना बड़ा किया जो और सौदा करने की आवश्यकता ही नहीं। कोई वस्तु का सौदा नहीं किया है लेकिन वस्तु के दाता का सौदा कर लिया। उसमें तो सब आ गया ना! दाता को ही अपना बना लिया। अच्छा - डबल विदेशी बच्चों से ‘‘रूह-रूहान'' करनी है ना!''
(अलग-अलग पार्टियों से मुलाकात)
न्यूयार्क (अमेरिका)- अपने को कोटों में कोई, कोई में भी कोई आत्मा हम हैं - ऐसा अनुभव करते हो? ड्रामा के अन्दर हम आत्माओं का बाप के साथ डायरेक्ट सम्बन्ध और पार्ट है, इतना नशा और खुशी रहती है? सदा खुशी में रहने की कितनी बातें धारण कर ली हैं? बापदादा हर सिकीलधे बच्चे को देख हर्षित होते हैं। कितने समय के बाद मिले हो? स्मृति आती है ना? इसी स्मृति में रहो कि हम श्रेष्ठ आत्माओं का ऊँचे से ऊँचे बाप के साथ विशेष पार्ट है। तो जैसी स्मृति होगी वैसी स्थिति स्वत: बन जायेगी। जो सुनते हो उसको समाते जाओ। जितना समाते जायेंगे उतना प्रैक्टिकल स्वरूप बनते जायेंगे। हर गुण का अनुभव हो। एक-एक गुण की अनुभूति कहाँ तक है, यह सदा अपने आपको देखो। नालेजफुल हैं या अनुभवी मूर्त हैं? यह चेक करो, क्योंकि संगम पर ही हर गुण का अनुभव कर सकते हो। किसी भी गुण का अनुभव कम हो तो उसके ऊपर अटेन्शन देकर अनुभवी जरूर बनो। जितना अनुभवी मूर्त होंगे उतना फाउन्डेशन पक्का होगा। माया हिला नहीं सकेगी। किसी भी प्रकार का विघ्न व समस्या अभी खेल के समान अनुभव होनी चाहिए। वार नहीं है, खेल है! तो खेल समझने से खुशी-खुशी पार कर लेंगे और वार समझने से घबरायेंगे भी और हलचल में भी आ जायेंगे। ड्रामा में पार्टधारी होने के कारण कोई भी सीन सामने आती है तो ड्रामा के हिसाब से सब खेल है, यह स्मृति रहे तो एकरस रहेंगे, हलचल नहीं होगी। तो अभी से यह परिवर्तन करके जाना। हलचल यहाँ ही समाप्त करते जाना। सदा अपने मस्तक पर विजय का तिलक लगा हुआ अनुभव करो तो हलचल खत्म हो जायेगी। देखो, अमेरिका विश्व में ऊँचा स्थान है, तो ब्राह्मण कितने ऊँचे होंगे? जैसे देश की महिमा है उससे ज्यादा ब्राह्मण आत्माओं की महिमा है। तो आप लोगों को सेवा में नम्बरवन लेना चाहिए। हरेक अगर बाप को प्रत्यक्ष करने के लिए लाइट हाउस हो जाए तो ‘व्हाइट हाउस' और ‘लाइट हाउस' कांट्रास्ट हो जायेगा। वह विनाशकारी और यह स्थापना वाले। अभी कमाल करके दिखाओ। विशेष आत्माओं को निमित्त तो बनाया है, अभी और सम्पर्क से सम्बन्ध में लाना है। ऐसा समीप सम्बन्ध में लाओ जो उन्हों के मुख द्वारा बाप की महिमा सारे विश्व में हो जाए। देखो, बापदादा ने जो बच्चे और-और धर्मों में मिक्स हो गये हैं, उन्हों को भी चुन करके निकाला है। तो विशेष भाग्यवान हुए ना! आपने बाप को नहीं ढूँढा लेकिन बाप ने आपको ढूँढ लिया है। आप ढूँढते तो भी नहीं ढूँढ सकते क्योंकि परिचय ही नहीं था ना। इसीलिए बाप ने आप आत्माओं को चुनकर अपने बगीचे के पुष्प बना दिया। तो अभी आप सब अल्लाह के बगीचे के रूहानी गुलाब हो। ऐसे भाग्यवान अपने को समझते हो ना?
यह भी बाप को खुशी है कि भाषा को न समझते हुए भी कैसे स्नेही आत्मायें अपना अधिकार लेने के लिए पहुँच गई हैं। अपने को अधिकारी आत्मा समझते हो ना! बहुत लगन वाली आत्मायें हैं जो फिर से अपना अधिकार लेने के लिए महान तीर्थ पर पहुँच गई हैं। अच्छा –
जापान ग्रुप से- सभी बापदादा के दिलतख्तनशीन आत्मायें हो। अपने को इतनी श्रेष्ठ आत्मा समझते हो? वैरायटी फूलों का गुलदस्ता कितना बढ़िया है। आप उस गुलदस्ते में किस स्थान पर हो? छोटा सुभान अल्ला होता है। बच्चों को कितने समय से याद करते हैं? बापदादा जापानी बच्चों को कितने समय से, बहुत समय पहले आप बच्चों को याद किया और अभी प्रैक्टिकल में बाप की वरदान भूमि पर पहुँच गये हो। तो ऐसा भाग्यवान अपने को समझते हो? जापान की विशेष निशानी कौन-सी दिखाते हैं? एक तो फ्लैग दूसरा फैन (हवा के लिए सबको पंखा देते हैं) तो बापदादा भी बच्चों को सदैव याद दिलाते हैं उड़ते रहो, इसलिए पंखा दिखाते हैं। पहले-पहले विदेश की सेवा का फाउन्डेशन भी जापान ही है। तो महत्व हो गया ना। बापदादा के आह्वान से आप लोग यहाँ पहुँचे। बापदादा ने बुलाया तब आये हो। सभी अच्छे शोकेस के शोपीस हो। सभी ब्राह्मण परिवार भी आप ‘गोल्डन डॉल्स' को देखकर खुश होता है। ऐसा अनुभव किया है कि परिवार के भी सिकिलधे हैं और बापदादा के भी सिकिलधे हैं।
अब जापान से ऐसी कोई विशेष आत्मा निकालो जो एक के आने से अनेकों को सन्देश मिल जाए। वहाँ वैरायटी प्रकार की सर्विस निकल सकती है। थोड़ी-सी मेहनत करेंगे तो फल ज्यादा निकल आयेगा। इसके लिए एक तो स्थान का वातावरण बहुत पावरफुल बनाओ। ऐसे अनुभव हो जैसे एक चैतन्य मन्दिर में जा रहे हैं। ऐसा वातावरण रूहानी खुशबू का हो जो दूर-दूर से वायुमण्डल आकर्षण करे। वातावरण बहुत ही आत्माओं को खींच सकता है। धरनी बहुत अच्छी है और फल भी बहुत निकल सकता है, सिर्फ थोड़ी-सी मेहनत और वायुमण्डल चाहिए। सेवा का संकल्प करेंगे और सफलता आपके आगे आयेगी। वायुमण्डल जब रूहानी हो जायेगा तो और सब बातें स्वत: ठीक हो जायेंगी। सब एकमत और एकरस हो जायेंगे फिर माया भी नहीं आयेगी क्योंकि वायुमण्डल शक्तिशाली होगा। वायुमण्डल को शक्तिशाली बनाने के लिए याद के प्रोग्राम रखो और आपस में उन्नति के लिए रूह-रूहान की क्लासेज करो। स्नेह मिलन करो। धारणा की क्लासेज रखो तो सफलता मिल जायेगी।
विदाई के समय-दीदी दादी से- आप लोगों को भी जागना पड़ता है। सारा दिन मेहनत करते हो और रात को भी जागना पड़ता है। बापदादा तो बच्चों को सदा आफरीन देते हैं। हिम्मत और उमंग दोनों पर बलिहार जाते हैं। देख-देख हर्षित होते हैं। महिमा करें तो कितनी हो जायेगी। जैसे बाप की महिमा के लिए कहा हुआ है कि सागर को स्याही बनाओ तो बच्चों की भी कितनी महिमा करें! बाप बच्चों की महिमा देख सदा बार-बार बलिहार जाते हैं। हरेक बच्चा अपनी- अपनी स्टेज पर हीरो पार्ट बजा रहा है। एक बाप के सच्चे हीरो पार्टधारी हो तो बाप को कितना नाज़ होगा। सारे कल्प में ऐसा बाप भी नहीं हो सकता, तो ऐसे बच्चे भी नहीं हो सकते। एक-एक की महिमा के गीत गाने लगे तो कितनी बड़ी गीतमाला हो जायेगी। ब्रह्मा और शिवबाबा भी आपस में बहुत चिटचैट करते हैं। वह कहते हैं- वाह मेरे बच्चे! और वह भी कहते - वाह मेरे बच्चे! (किस समय चिटचैट करते हैं) जब चाहें तब कर सकते हैं। बिजी भी हैं और सारा दिन फ्री भी हैं। स्वतन्त्र भी है और साथी भी हैं। जब हैं ही कम्बाइन्ड तो अलग कैसे दिखाई देंगे, अलग कर सकते हो आप? आप अलग करेंगे वह आपस में मिल जायेंगे। जैसे बापदादा का आपस में कम्बाइन्ड रूप है तो आपका भी है ना! आप भी बाप से अलग नहीं हो सकते।
अच्छा - ओमशान्ति!
06-01-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
"संगमयुगी ब्राह्मण जीवन में पवित्रता का महत्त्व"
पवित्रता के सागर, सदा पूज्य शिव बाबा बोले:-
‘‘बापदादा आज विशेष बच्चों के प्यूरिटी की रेखा देख रहे हैं। संगमयुग पर विशेष वरदाता बाप से दो वरदान सभी बच्चों को मिलते हैं। एक- ‘सहजयोगी भव'। दूसरा- ‘पवित्र भव'। इन दोनों वरदानों को हर ब्राह्मण आत्मा पुरूषार्थ प्रमाण जीवन में धारण कर रहे हैं। ऐसे धारणा स्वरूप आत्माओं को देख रहे हैं। हर एक बच्चे के मस्तक और नयनों द्वारा पवित्रता की झलक दिखाई दे रही है। पवित्रता संगमयुगी ब्राह्मणों के महान जीवन की महानता है। ‘पवित्रता ब्राह्मण जीवन का श्रेष्ठ श्रृंगार है।' जैसे स्थूल शरीर में विशेष श्वास चलना आवश्यक है। श्वास नहीं तो जीवन नहीं। ऐसे ब्राह्मण जीवन का श्वास है - ‘पवित्रता'। 21 जन्मों की प्रालब्ध का आधार अर्थात् फाउण्डेशन पवित्रता है। आत्मा अर्थात् बच्चे और बाप से मिलन का आधार ‘पवित्र बुद्धि' है। सर्व संगमयुगी प्राप्तियों का आधार ‘पवित्रता' है। पवित्रता, पूज्य-पद पाने का आधार है। ऐसे महान वरदान को सहज प्राप्त कर लिया है? वरदान के रूप में अनुभव करते हो वा मेहनत से प्राप्त करते हो? वरदान में मेहनत नहीं होती। लेकिन वरदान को सदा जीवन में प्राप्त करने के लिए सिर्फ एक बात का अटेन्शन चाहिए कि ‘वरदाता और वरदानी' दोनों का सम्बन्ध समीप और स्नेह के आधार से निरन्तर चाहिए। वरदाता और वरदानी आत्मायें दोनों सदा कम्बाइन्ड रूप में रहें तो पवित्रता की छत्रछाया स्वत: रहेगी। जहाँ सर्वशिक्तवान बाप है वहाँ अपवित्रता स्वप्न में भी नहीं आ सकती है। सदा बाप और आप युगल रूप में रहो। सिंगल नहीं, युगल। सिंगल हो जाते हो तो पवित्रता का सुहाग चला जाता है। नहीं तो पवित्रता का सुहाग और श्रेष्ठ भाग्य सदा आपके साथ है। तो बाप को साथ रखना अर्थात् अपना सुहाग, भाग्य साथ रखना। तो सभी, बाप को सदा साथ रखने में अभ्यासी हो ना?
विशेष डबल विदेशी बच्चों को अकेला जीवन पसन्द नहीं है ना? सदा कम्पैनियन चाहिए ना! तो बाप को कम्पैनियन बनाया अर्थात् पवित्रता को सदा के लिए अपनाया। ऐसे युगलमूर्त के लिए पवित्रता अति सहज है। पवित्रता ही नैचरल जीवन बन जायेगी। पवित्र रहूँ, पवित्र बनूँ, यह क्वेश्चन ही नहीं। ब्राह्मणों की लाइफ ही ‘पवित्रता' है। ब्राह्मण जीवन का जीय-दान ही पवित्रता है। आदि- अनादि स्वरूप ही पवित्रता है। जब स्मृति आ गई कि मैं आदि-अनादि पवित्र आत्मा हूँ। स्मृति आना अर्थात् पवित्रता की समर्था आना। तो स्मृति स्वरूप, समर्थ स्वरूप आत्मायें तो निजी पवित्र संस्कार वाली - निजी संस्कार पवित्र हैं। संगदोष के संस्कार अपवित्रता के हैं। तो निजी संस्कारों को इमर्ज करना सहज है वा संगदोष के संस्कार इमर्ज करना सहज है? ब्राह्मण जीवन अर्थात् सहजयोगी और सदा के लिए पावन। पवित्रता ब्राह्मण जीवन के विशेष जन्म की विशेषता है। पवित्र संकल्प ब्राह्मणों की बुद्धि का भोजन है। पवित्र दृष्टि ब्राह्मणों के आँखों की रोशनी है। पवित्र कर्म ब्राह्मण जीवन का विशेष धन्धा है। पवित्र सम्बन्ध और सम्पर्क ब्राह्मण जीवन की मर्यादा है।
तो सोचो - कि ब्राह्मण जीवन की महानता क्या हुई? पवित्रता हुई ना! ऐसी महान चीज को अपनाने में मेहनत नहीं करो, हठ से नहीं अपनाओ। मेहनत और हठ निरन्तर नहीं हो सकता। लेकिन यह पवित्रता तो आपके जीवन का वरदान है, इसमें मेहनत और हठ क्यों? अपनी निजी वस्तु है। अपनी चीज को अपनाने में मेहनत क्यों? पराई चीज को अपनाने में मेहनत होती है। पराई चीज अपवित्रता है, न कि पवित्रता। रावण पराया है, अपना नहीं है। बाप अपना है, रावण पराया है। तो बाप का वरदान पवित्रता है रावण का श्राप अपवित्रता है। तो रावण पराये की चीज को क्यों अपनाते हो? पराई चीज अच्छी लगती है? अपनी चीज पर नशा होता है। तो सदा स्व-स्वरूप पवित्र है, स्वधर्म पवित्रता है अर्थात् आत्मा की पहली धारणा पवित्रता है। स्वदेश पवित्र देश है। स्वराज्य पवित्र राज्य है। स्व का यादगार परम पवित्र पूज्य है। कर्मेन्द्रियों का अनादि स्वभाव सुकर्म है, बस यही सदा स्मृति में रखो तो मेहनत और हठयोग से छूट जायेंगे। बापदादा बच्चों को मेहनत करते हुए नहीं देख सकते, इसलिए हो ही सब पवित्र आत्मायें। स्वमान में स्थित हो जाओ। स्वमान क्या है? - ‘‘मैं परम पवित्र आत्मा हूँ।'' सदा अपने इस स्वमान के आसन पर स्थित होकर हर कर्म करो। तो सहज वरदानी हो जायेंगे। यह सहज आसन है। तो सदा पवित्रता की झलक और फलक में रहो। स्वमान के आगे देह अभिमान आ नहीं सकता। समझा!
डबल विदेशी तो इसमें पास हो ना? हठयोगी तो नहीं हो? मेहनत वाले योगी तो नहीं हो? मुहब्बत में रहो तो मेहनत खत्म। लवलीन आत्मा बनो, सदा एक बाप दूसरा न कोई, यही नैचरल प्युरिटी है। तो यह गीत गाना नहीं आता है? यही गीत गाना सहज पवित्र आत्मा बनना है। अच्छा –
ऐसे सदा स्व-आसन के अधिकारी आत्मायें, सदा ब्राह्मण जीवन की महानता वा विशेषता को जीवन में धारण करने वाली आदि अनादि पवित्र आत्मायें, स्व स्वरूप, स्वधर्म, सुकर्म में स्थित रहने वाली श्रेष्ठ आत्माओं को वा परम पवित्र पूज्य आत्माओं को, पवित्रता के वरदान प्राप्त किये हुए महान आत्माओं को, बापदादा का याद प्यार और नमस्ते।''
फ्रांस, ब्राजील तथा अन्य कुछ स्थानों से आये हुए विदेशी बच्चों से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात –
(1) सभी अपने को सदा मास्टर सर्वशक्तिवान समझते हुए हर कार्य करते हो? सदा सेवा के क्षेत्र में अपने को मास्टर सर्वशक्तिवान समझकर सेवा करेंगे तो सेवा में सफलता हुई पड़ी है क्योंकि वर्तमान समय की सेवा में सफलता का विशेष साधन है - ‘वृत्ति से वायुमण्डल बनाना'। आजकल की आत्माओं को अपनी मेहनत से आगे बढ़ना मुश्किल है इसलिए अपने वायब्रेशन द्वारा वायुमण्डल ऐसा पावरफुल बनाओ जो आत्मायें स्वत: आकर्षित होते आ जाएँ। तो सेवा की वृद्धि का फाउण्डेशन यह है - बाकी साथ-साथ जो सेवा के साधन हैं वह चारों ओर करने चाहिए। सिर्फ एक ही एरिया में ज्यादा मेहनत और समय नहीं लगाओ और चारों तरफ सेवा के साधनों द्वारा सेवा को फैलाओ तो सब तरफ निकले हुए चैतन्य फूलों का गुलदस्ता तैयार हो जायेगा।
(2) बापदादा खुशनसीब बच्चों को देख अति हर्षित होते हैं। हरेक रूहे गुलाब हैं। रूहे गुलाब ग्रुप अर्थात् रूहानी बाप की याद में लवलीन रहने वाला ग्रुप। सभी के चेहरे पर खुशी की झलक चमक रही है।
बापदादा एक-एक रत्न की वैल्यु को जानते हैं। एक-एक रत्न विश्व में अमूल्य रत्न है इसलिए बापदादा उसी विशेषता को देखते हुए हर रत्न की वैल्यु को देखते हैं। एक-एक रत्न अनेकों की सेवा के निमित्त बनने वाला है। सदा अपने को विजयी रत्न अनुभव करो। सदा अपने मस्तक पर विजय का तिलक लगा हुआ हो क्योंकि जब बाप के बन गये तो विजय तो आपका जन्म सिद्ध अधिकार है। इसलिए यादगार भी ‘विजय माला' गाई और पूजी जाती है। सभी विजय माला के मणके हो ना? अभी फाइनल नहीं हुआ है इसलिए चांस है जो भी चाहे सीट ले सकते हैं।
(3) सदा अपने को हर गुण, हर शक्ति के अनुभवी मूर्त अनुभव करते हो? क्योंकि संगमयुग पर ही सर्व अनुभवी मूर्त बन सकते हो। जो संगम युग की विशेषता है उसको जरूर अनुभव करना चाहिए ना। तो सभी अपने को ऐसे अनुभवीमूर्त समझते हो? शक्तियाँ और गुण, दोनों ही बड़े खजाने हैं। तो कितने खजानों के मालिक बन गये हो? बापदादा तो सर्व खजाने बच्चों को देने के लिए ही आये हैं। जितना चाहो उतना ले सकते हो? सागर है ना! तो सागर अर्थात् अथाह। खुटने वाला नहीं। तो मास्टर सागर बने हो?
सबसे ज्यादा भाग्य विदेशियों का है। जो घर बैठे बाप का परिचय मिल गया है। इतना भाग्यवान अपने को समझते हो ना? बहुत लगन वाली आत्मायें हैं, स्नेही आत्मायें हैं। स्नेह का प्रत्यक्ष स्वरूप बाप और बच्चों का मेला हो रहा है। हरेक अपने को सूर्यवंशी आत्मा समझते हो? पहले राज्य में आयेंगे वा दूसरे नम्बर के राज्य में आयेंगे? फर्स्ट राज्य में आने का एक ही पुरूषार्थ है, वह कौन सा? सदा एक की याद में रहकर एकरस अवस्था बनाओ तो वन-वन और वन में आ जायेंगे। अच्छा-
08-01-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
"लंदन ग्रुप के साथ अव्यक्त बापदादा की मुलाकात"
अति मीठे, अति प्यारे बापदादा बोले:-
‘‘आज विशेष लंदन निवासी बच्चों से मिलन मनाने के लिए आये हैं। वैसे तो सभी बापदादा के लिए सदा प्रिय हैं, सभी को विशेष मिलने का चांस मिला है लेकिन आज निमित्त लंदन निवासियों से मिलना है। लंदन निवासी बच्चों ने सेवा में दिल व जान, सिक व प्रेम से अपना सहयोग दिया है और देते ही रहेंगे। स्व के उड़ती कला में भी अच्छा अटैन्शन है। नम्बरवार तो जहाँ-तहाँ हैं ही। फिर भी पुरूषार्थ की रफ्तार अच्छी है। (एक पक्षी उड़ता हुआ क्लास में आ गया) सभी उड़ना देखकर के खुश हो रहे हो। ऐसे ही स्वयं की भी उड़ती कला कितनी प्रिय होगी। जब उड़ते हो तो फ्री हो, स्वतन्त्र हो। और उड़ने के बजाए नीचे आ जाते हो तो बन्धन में आ जाते हो। उड़ती कला अर्थात् बन्धनमुक्त, योगयुक्त। तो लंदन निवासी क्या समझते हैं? उड़ती कला है ना? नीचे तो नहीं आते हो? अगर नीचे आते भी हो तो नीचे वालों को ऊपर ले जाने के लिए आते हो, वैसे नहीं आते। जो नीचे की स्टेज पर स्थित हैं उन्हों को हिम्मत और उल्लास दिला के उड़ाने के लिए सेवा के प्रति नीचे आये और फिर ऊपर चले गये, ऐसी प्रैक्टिस है? क्या समझते हो? लंदन निवासी ग्रुप सदा देह और देह की दुनिया की आकर्षण से न्यारे और सदा बाप के प्यारे हैं। इसको कहा जाता है - कमल-पुष्प समान। सेवा अर्थ रहते हुए भी ‘न्यारे और प्यारे'। तो न्यारा प्यारा ग्रुप है ना? लंदन से सारे विदेश के सेवा केन्द्रों का सम्बन्ध है। तो लंदन निवासी इस सेवा के वृक्ष का फाउण्डेशन हो गये। फाउण्डेशन कमजोर तो सारा वृक्ष कमजोर हो जायेगा। इसलिए फाउण्डेशन को सदा अपने ऊपर सेवा की जिम्मेवारी सहित अटेन्शन रखना है। वैसे तो हरेक के ऊपर अपनी और विश्व के सेवा की जिम्मेवारी है। उस दिन सुनाया था कि सब जिम्मेवारी के ताजधारी हैं। फिर भी आज लंदन निवासी बच्चों को विशेष अटैन्शन दिला रहे हैं। यह जिम्मेवारी का ताज सदा के लिए डबल लाइट बनाने वाला है। बोझ वाला ताज नहीं है। सर्व प्रकार के बोझ को मिटाने वाला है। अनुभवी भी हो कि जब तन-मन-धन, मंसा-वाचा-कर्मणा सब रूप से सेवाधारी बन, सेवा में बिजी रहते हो तो सहज ही मायाजीत जगतजीत बन जाते हो। देह का भान स्वत: ही, सहज ही भूला हुआ होता है? मेहनत नहीं करनी पड़ती। अनुभव है ना? सेवा के समय बाप और सेवा के सिवाए और कुछ नहीं सूझता। खुशी में नाचते रहते हो। तो यह जिम्मेवारी का ताज हल्का है ना? अर्थात् हल्का बनाने वाला है। इसलिए बापदादा सभी बच्चों को ‘रूहानी सेवाधारी' का टाइटल विशेष याद दिलाते हैं। बापदादा भी रूहानी सेवाधारी बन कर के आते हैं। तो जो बाप का स्वरूप वह बच्चों का स्वरूप। तो सभी डबल विदेशी ताजधारी हो ना? बाप समान सदा रूहानी सेवाधारी। आँख खुली, मिलन मनाया और सेवा के क्षेत्र पर उपस्थित हुए। गुडमार्निंग से सेवा शुरू होती है और गुडनाइट तक सेवा ही सेवा है। जैसे निरन्तर योगी ऐसे ही निरन्तर रूहानी सेवाधारी। चाहे कर्मणा सेवा भी करते हो तो कर्मणा द्वारा भी रूहों को रूहानियत की शक्ति भरते हो क्योंकि कर्मणा के साथ-साथ मंसा सेवा भी करते हो। तो कर्मणा सेवा में भी रूहानी सेवा। भोजन बनाते हो तो रूहानियत का बल भोजन में भर देते हो, इसलिए भोजन ‘ब्रह्मा भोजन' बन जाता है। शुद्ध अन्न बन जाता है। प्रसाद के समान बन जाता है। तो स्थूल सेवा में भी रूहानी सेवा भरी है। ऐसे निरन्तर सेवाधारी, निरन्तर मायाजीत हो जाते हैं। विघ्न विनाशक बन जाते हैं। तो लंदन निवासी क्या हैं? - ‘निरन्तर सेवाधारी'। लंदन में माया तो नहीं आती है ना कि माया को भी लंदन अच्छा लगता है? अच्छा—
लंदन निवासी अभी क्या वरना चाहते हैं? अच्छे-अच्छे रतन हैं लंदन के। जगह-जगह पर गये हैं। वैसे सभी विदेश के सेवाकेन्द्र एक से दूसरे, दूसरे से तीसरे, ऐसे खुलते हैं। अभी टोटल कितने सेवाकेन्द्र हैं? (50) तो 50 जगह का फाउण्डेशन लंदन है। तो वृक्ष सुन्दर हो गया ना। जिस तना से 50 टाल टालियाँ निकले वह वृक्ष कितना सुन्दर हुआ। तो विदेश का वृक्ष भी विस्तार वाला अच्छा फलीभूत हो गया है। बापदादा भी बच्चों के, सिर्फ लंदन नहीं सभी बच्चों के सेवा का उंमग उत्साह देख खुश होते हैं। विदेश में लगन अच्छी है। याद की भी और सेवा की भी, दोनों की लगन अच्छी है। सिर्फ एक बात है कि माया के छोटे रूप से भी घबराते जल्दी हैं। जैसे यहाँ इंडिया में कई ब्राह्मण जो हैं, वे चूहे से भी घबराते हैं, काकरोच से भी घबराते हैं। तो सिर्फ विदेशी बच्चे इससे घबरा जाते हैं। छोटे को बड़ा समझ लेते हैं। लेकिन है कुछ नहीं। कागज के शेर को सच्चा शेर समझ लेते हैं। जितनी लगन है ना उतना घबराने के संस्कार थोड़ा-सा मैदान पर आ जाते हैं। तो विदेशी बच्चों को माया से घबराना नहीं चाहिए, खेलना चाहिए। कागज के शेर से खेलना होता है या घबराना होता है? खिलौना हो गया ना? खिलौने से घबराने वाले को क्या कहेंगे? जितनी मेहनत करते हो उस हिसाब से, डबल विदेशी सभी नम्बरवन सीट ले सकते हो क्योंकि दूसरे धर्म के पर्दे के अन्दर, डबल पर्दे के अन्दर बाप को पहचान लिया है। एक तो साधारण स्वरूप का पर्दा और दूसरा धर्म का भी पर्दा है। भारतवासियों को तो एक ही पर्दे को जानना होता है लेकिन विदेशी बच्चे दोनों पर्दे के अन्दर जानने वाले हैं। हिम्मत वाले भी बहुत हैं, असम्भव को सम्भव भी किया है। जो क्रिश्चियन या अन्य धर्म वाले समझते हैं कि हमारे धर्म वाले ब्राह्मण कैसे बन सकते, असम्भव है। तो असम्भव को सम्भव किया है, जानने में भी होशियार, मानने में भी होशियार हैं। दोनों में नम्बर वन हो। बाकी चल करके चूहा आ जाता है तो घबरा जाते हो। है सहज मार्ग लेकिन अपने व्यर्थ संकल्पों को मिक्स करने से सहज भी मुश्किल हो जाता है। तो इसमें भी जम्प लगाओ। माया को परखने की आँख तेज करो। मिसअन्डरस्टैन्ड कर लेते हो। कागज को रीयल समझ लेना मिसअन्डरस्टैडिंग हो गई ना। नहीं तो डबल विदेशियों की विशेषता भी बहुत हैं। सिर्फ एक यह कमज़ोरी है - बस। फिर अपने ऊपर हँसते भी बहुत हैं, जब जान लेते हैं कि यह कागज का शेर है, रीयल नहीं है तो हँसते हैं। चेक भी कर लेते, चेन्ज भी कर लेते लेकिन उस समय घबराने के कारण नीचे आ जाते हैं या बीच में आ जाते हैं। फिर ऊपर जाने के लिए मेहनत करते तो सहज के बजाए मेहनत का अनुभव होता है। वैसे जरा भी मेहनत नहीं है। बाप के बने, अधिकारी आत्मा बने, खजाने के, घर के, राज्य के मालिक बने और क्या चाहिए? तो अभी क्या करेंगे? घबराने के संस्कारों को यहाँ ही छोड़कर जाना। समझा! बापदादा भी खेल देखते रहते हैं, हँसते रहते हैं। बच्चे गहराई में भी जाते हैं लेकिन गहराई के साथ-साथ कहाँ-कहाँ घबराते भी हैं। लास्ट सो फास्ट के भी संस्कार हैं। पहले विदेशियों में विशेष फँसने के संस्कार थे अभी हैं फास्ट जाने के संस्कार। एक में नहीं फँसते हैं लेकिन अनेकों में फँस जाते हैं। एक ही लाइफ में कितने पिंजरे होते हैं? एक पिंजरे से निकलते दूसरे में फँसते, दूसरे से निकलते तीसरे में फँसते। तो जितना ही फँसने के संस्कार थे उतना ही फास्ट जाने के संस्कार हैं। सिर्फ एक बात है, छोटी चीज को बड़ा नहीं बनाओ। बड़े को छोटा बनाओ। यह भी होता है क्या? यह क्वेश्चन नहीं। यह क्या हुआ? ऐसे भी होता है? इसके बजाए जो होता है, कल्याणकारी है। क्वेश्चन खत्म होने चाहिए। फुलस्टाप। बुद्धि को इसमें ज्यादा नहीं चलाओ नहीं तो एनर्जी वेस्ट चली जाती है और अपने को शक्तिशाली नहीं अनुभव करते। क्वेश्चन मार्क ज्यादा होते हैं। तो अब मधुबन की वरदान भूमि में क्वेश्चन मार्क खत्म करके, फुलस्टाप लगा के जाओ। क्वेश्चन मार्क मुश्किल है, फुलस्टाप सहज है। तो सहज को छोड़कर मुश्किल को क्यों अपनाते हो! उसमें एनर्जी वेस्ट है और फुलस्टाप में लाइफ ही बैस्ट हो जायेगी। वहाँ वेस्ट वहाँ बैस्ट। तो क्या करना चाहिए? अभी वेस्ट नहीं करना। हर संकल्प बैस्ट, हर सेकण्ड बैस्ट। अच्छा लंदन निवासियों के साथ-साथ की रूह- रूहान हो गई।
लंदन के सभी सिकीलधे बच्चों को बापदादा का पद्मापद्मगुणा यादप्यार स्वीकार हो। साकार में मधुबन में नहीं पहुँचे हैं लेकिन बापदादा सदा बच्चों को सम्मुख देखते हैं।
जो भी सर्विसएबुल बच्चे हैं, एक-एक का नाम क्या लें, जो भी सभी हैं, सभी सहयोगी आत्मायें हैं, सभी बेफिकर बन फखुर में रहना क्योंकि सबका साथी स्वयं बाप है। अच्छा- सभी को यादप्यार स्वीकार।
10-01-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
"कर्मातीत स्टेज की व्याख्या"
सदा कर्मबन्धन मुक्त शिव बाबा बोले:-
‘‘आज बापदादा ‘राज्य सभा' को देख रहे हैं। हरेक बच्चा स्वराज्य अधिकारी, अपने नम्बरवार ‘कर्मातीत स्टेज' के तख्त अधिकारी हैं। वर्तमान संगमयुगी स्वराज्य अधिकारी आत्माओं का आसन कहो वा सिंहासन कहो, वह है - ‘कर्मातीत स्टेज'। कर्मातीत अर्थात् कर्म करते भी कर्म के बन्धनों से अतीत। कर्मों के वशीभूत नहीं लेकिन कर्मेन्द्रियों द्वारा हर कर्म करते हुए अधिकारीपन के नशे में रहने वाले। बापदादा हर बच्चे के नम्बरवार राज्य अधिकार के हिसाब से नम्बरवार सभा देख रहे हैं। तख्त भी नम्बरवार है और अधिकार भी नम्बरवार है। कोई सर्व अधिकारी है और कोई - अधिकारी है। जैसे भविष्य में विश्वमहाराजा और महाराजा - अन्तर है। ऐसे यहाँ भी सर्व कर्मेन्द्रियों के अधिकारी अर्थात् सर्व कर्मों के बन्धन से मुक्त - इसको कहा जाता है ‘सर्व अधिकारी'। और दूसरे ‘सर्व' नहीं, लेकिन अधिकारी हैं। तो दोनों ही नम्बर की तख्तनशीन दरबार देख रहे हैं। हरेक राज्य अधिकारी के मस्तक पर बहुत सुन्दर रंग-बिरंगी मणियाँ चमक रही हैं। यह मणियाँ हैं - ‘दिव्य गुणों' की। जितना-जितना दिव्य गुणधारी बने हो उतनी ही मणियाँ मस्तक पर चमक रही हैं। किसकी ज्यादा हैं, किसकी कम है। चमक भी हरेक की अपनी-अपनी है। ऐसा अपना राज्य सभा का राज्य अधिकारी चित्र के दर्पण नालेज में दिखाई दे रहा है? सभी के पास दर्पण तो है। कर्मातीत चित्र देख सकते हो ना? देख रहे हो अपना चित्र? कितनी सुन्दर ‘राज्य सभा' है। कर्मातीत स्टेज का तख्त कितना श्रेष्ठ तख्त है। इसी स्टेज की अधिकारी आत्मायें अर्थात् तख्तनशीन आत्मायें विश्व के आगे ईष्ट देव के रूप में प्रत्यक्ष होंगी। स्वराज्य अधिकारी सभा अर्थात् इष्ट देव सभा। सभी अपने को ऐसे इष्ट देव आत्मा समझते हो? ऐसे परम पवित्र, सर्व प्रति रहमदिल, सर्व प्रति मास्टर वरदाता, सर्व प्रति मास्टर रूहानी स्नेह सागर, सर्व प्रति शुभ भावनाओं के सागर, ऐसे पूज्य इष्ट देव आत्मा हो। सभी ब्राह्मण आत्माओं में नम्बरवार यह सब संस्कार समाये हुए हैं। लेकिन इमर्ज रूप में अभी तक कम हैं। अभी इस इष्ट देवात्मा के संस्कार इमर्ज करो। वर्णन करने के साथ ‘स्मृति स्वरूप' सो समर्थ स्वरूप बन, स्टेज पर आओ। इस वर्ष में सर्व आत्मायें यही अनुभव करें कि जिन्हें हम ढूँढते हैं, जिन आत्माओं को हम चाहते हैं, जिन श्रेष्ठ आत्माओं से हम कुछ चाहना रखते थे, वही श्रेष्ठ आत्मायें, यही हैं। सबके मुख से वा मन से यही आवाज निकले, कि यह वही हैं। ऐसे अनुभव करें - बस, इन्हों से मिले तो बाप से मिले। जो कुछ मिला है, इन्हों द्वारा ही मिला है। यही मास्टर हैं, गाइड हैं, एंजिल हैं, मैसेन्जर हैं। बस यही हैं, यही हैं, और वही हैं - यह धुन सबके अन्दर लग जाए। इन्हीं दो शब्दों की धुन हो -’’यही हैं और वही हैं''। मिल गये-मिल गये...यह खुशी की तालियाँ बजायें। ऐसे अनुभव कराओ। ऐसी अनुभूति कराने के लिए विशेष अष्ट शक्ति स्वरूप, अलंकारी शक्ति स्वरूप चाहिए। लेकिन शक्ति स्वरूप भी माँ के स्वरूप में चाहिए। आजकल सिर्फ शक्ति स्वरूप से भी सन्तुष्ट नहीं होंगे लेकिन ‘शक्ति माँ'। जो प्रेम और पालना देकर हर बाप के बच्चे को खुशी के झूले में झुलायें। तब बाप के वर्से के अधिकारी बन सकें। बाप से मिलाने के योग्य बनाने में आप निमित्त शक्ति के रूप में ऐसा पवित्र प्रेम और अपनी प्राप्तियों द्वारा श्रेष्ठ पालना दो, योग्य बनाओ अर्थात् योगी बनाओ। मास्टर रचयिता बनना तो सबको आता है। अल्पकाल प्राप्ति कराने वाले नामधारी जो महान आत्मायें हैं, वे भी रचना तो बहुत रच लेते हैं, प्रेम भी देते हैं लेकिन पालना नहीं दे सकते हैं। इसलिए फालोअर्स बन जाते हैं लेकिन पालना से बड़ा कर बाप से मिलायें अर्थात् पालना द्वारा बाप के अधिकारी योग्य आत्मा बनायें, यह नहीं कर सकते हैं। इसलिए फालोअर्स ही रह जाते, बच्चे नहीं बनते। बाप के वर्से के अधिकारी नहीं बनते हैं। ऐसे ही आप ब्राह्मण आत्माओं में भी रचना बहुत जल्दी रच लेते हो अर्थात् निमित्त बनते हो लेकिन प्रेम और पालना द्वारा उन आत्माओं को अविनाशी वर्से के अधिकारी बनाना, इसमें बहुत कम योग्य आत्मायें हैं। जैसे लौकिक जीवन में माँ बच्चे को पालना द्वारा शक्तिशाली बनाती है, जिससे वह सदा किसी भी समस्या का सामना कर सके। सदा तन्दुरूस्त रहे, सम्पत्तिवान रहे। ऐसे आप श्रेष्ठ आत्मायें जगत माता बन एक दो आत्माओं की माँ नहीं, ‘जगत माँ', बेहद की माँ बन, मन से ऐसा शक्तिशाली बनाओ जो सदा आत्मायें अपने को विघ्न विनाशक, शक्ति सम्पन्न, हेल्दी और वेल्दी अनुभव करें। अब ऐसी पालना की आवश्यकता है। ऐसी पालना वाले बहुत कम हैं। परिवार का अर्थ ही है - ‘प्रेम और पालना' की अनुभूति कराना। इसी पालना की प्यासी आत्मायें हैं। तो समझा, इस वर्ष क्या करना है?
सबके मुख से यही निकले कि हमारे समीप के सम्बन्धी हमें मिल गये हैं। पहले रिलेशन की अनुभूति कराओ फिर कनेक्शन सहज हो जायेगा। ‘‘हमारे हमको मिल गये'' - ऐसी लहर चारों ओर फैल जाए। तब मुख से निकलेगा - जिन्हें पाना था वह पा लिया। जैसे बाप को भिन्न-भिन्न सम्बन्ध से आप अधिकारी आत्मायें अनुभव करती हो। ऐसे वो तड़पती हुई आत्मायें यही अनुभव करें कि जो कुछ मिलना हैं, जो कुछ पाना है, इन्हीं द्वारा ही मिलना है, पाना है। फिर नाम भिन्न-भिन्न कहेंगे। ऐसे वायुमण्डल बनाओ। माँ भी बच्चे को बाप का परिचय स्वयं ही देती है। माँ ही बच्चे को बाप से मिलाती है। अपने तक नहीं बनाना है लेकिन बाप से कनेक्शन जोड़ने योग्य बनाना है। सिर्फ माँ-माँ कहते रहें, ऐसे छोटे बच्चे नहीं बनाना। लेकिन बाबा-बाबा सिखाना। वर्से के अधिकारी बनाना। समझा?
जैसे बाप के लिए सबके मुख से एक ही आवाज निकलती है -’’मेरा बाबा''। ऐसे आप हर श्रेष्ठ आत्मा के प्रति यह भावना हो, महसूसता हो, जो हरेक समझे कि यह - ‘मेरी माँ' है। यह बेहद की पालना। हरेक से मेरे-पन की भावना आये। हरेक समझे कि यह मेरे शुभचिन्तक, सहयोगी सेवा के साथी हैं। इसको कहा जाता है - ‘बाप समान'। इसको ही कहा जाता है - कर्मातीत स्टेज के तख्तनशीन। जो सेवा के कर्म के भी बन्धन में न आओ। हमारा स्थान, हमारी सेवा, हमारे स्टूडेन्ट, हमारी सहयोगी आत्मायें, यह भी सेवा के कर्म का बन्धन है। इस कर्मबन्धन से - ‘कर्मातीत'। तो समझा - इस वर्ष क्या करना है? कर्मातीत बनना है और ‘‘यह वही हैं, यही सब कुछ हैं,'' यह महसूसता दिलाए, आत्माओं को समीप लाना है। ठिकाने पर लाना है। अपने प्रति भी सुनाया और सेवा के प्रति भी सुनाया। अच्छा - सबका संकल्प था ना कि अभी क्या करना है? कौन-सी लहर फैलानी है। अच्छा-
ऐसे स्वराज्य अधिकारी, कर्मातीत स्टेज के तख्तनशीन, सर्व को समीप सम्बन्ध की अनुभूति कराने वाले, बेहद की प्रेम भरी पालना देने वाले, ऐसे इष्ट देव आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।''
शक्ति सेना को देख बाप अति हर्षित होते हैं, शक्तियाँ सदा बाप की साथी हैं इसीलिए गायन ही है - ‘शिव शक्ति'। शक्तियों के साथ बाप का भी यादगार है तो कम्बाइण्ड हो गई ना! शक्ति - शिव से अलग नहीं, शिव -शक्ति से अलग नहीं। ऐसे कम्बाइण्ड। एक-एक जगतजीत हो, कम नहीं हो। सारे जगत पर जीत पाती हो। जगत पर राज्य करना है ना! उस सेना में टुकड़ियाँ होती हैं, दो टुकड़ी, चार टुकड़ी। यहाँ बेहद है। बेहद बाप की सेना और बेहद के ऊपर विजय। बापदादा को भी खुशी होती है, एक-एक बच्चा हद का नहीं, बेहद का मालिक है।
सभी बच्चे, बाप के मुख हो ना? बाप के मुख अर्थात् मुख द्वारा बाप का परिचय देने वाले। इसलिए ‘गऊ मुख' का भी गायन है। सदा मुख द्वारा ‘बाबा-बाबा' निकलता है, तो मुख का भी महत्व हो गया ना!
बापदादा सभी बच्चों को बाप के घर का और बाप का श्रृंगार कहते हैं, तो बाप के घर का श्रृंगार जा रहे हो, औरों को श्रृंगार कराने के लिए। कितनों को श्रृंगार करके लायेंगे? एक-एक को बाप के आगे गुलदस्ता लाना पड़ेगा। सभी रत्न अमूल्य हो क्योंकि बाप को जाना और बाप से सब कुछ पाया। तो सदा अपने को इसी खुशी में रखना और सबको यही खुशी बाँटते रहना। अच्छासंगम युग है ही चलने और चलाने का युग। किसी भी बात में रूकना नहीं है। चलने, चलाने में अपना और सर्व का कल्याण है। संगम पर बापदादा सदा आपके साथ हैं। क्योंकि अभी ही बाप बच्चों के आगे हाजर-नाज़र होते हैं। याद किया और हाजर हुए। देखते हुए न देखो, सुनते हुए न सुनो, बाप की सुनो तो चलते चलेंगे। अच्छा
12-01-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“विश्व का उद्धार आधारमूर्त्त आत्माओं पर निर्भर”
अव्यक्त बापदादा बोले:-
‘‘आज बापदादा विश्व की आधारमूर्त्त आत्माओं को देख रहे हैं। सर्वश्रेष्ठ आत्मा विश्व के आधारमूर्त्त हो। आप श्रेष्ठ आत्माओं की ही चढ़ती कला वा उड़ती कला होती है तो सारे विश्व का उद्धार करने के निमित्त बन जाते हो। सर्व आत्माओं की जन्म-जन्मान्तर की आशायें, मुक्ति वा जीवनमुक्ति प्राप्त करने की, स्वत: ही प्राप्त हो जाती हैं। आप श्रेष्ठ आत्मायें मुक्ति अर्थात् अपने घर का गेट खोलने के निमित्त बनती हो तो सर्व आत्माओं को स्वीट होम का ठिकाना मिल जाता है। बहुत समय का दु:ख और अशान्ति समाप्त हो जाती है क्योंकि शान्तिधाम के निवासी बन जाते हैं। जीवनमुक्ति के वर्से से वंचित आत्माओं को वर्सा प्राप्त हो जाता है। इसके निमित्त अर्थात् आधारमूर्त्त श्रेष्ठ आत्मायें, बाप - आप बच्चों को ही बनाते हैं। बापदादा सदा कहते - पहले बच्चे पीछे हम। आगे बच्चे पीछे बाप। ऐसे ही सदा चलाते आये हैं। ऐसे विश्व के आधारमूर्त्त अपने को समझकर चलते हो? बीज के साथ-साथ वृक्ष की जड़ में आप आधारमूर्त्त श्रेष्ठ आत्मायें हो। तो बापदादा ऐसी श्रेष्ठ आत्माओं से मिलन मनाने के लिए आते हैं। ऐसी श्रेष्ठ आत्मायें हो जो निराकार और आकार को भी आप समान साकार रूप में लाते हो। तो कितने श्रेष्ठ हो गये। ऐसे अपने को समझते हुए हर कर्म करते हो? इस समय स्मृति स्वरूप से सदा समर्थ स्वरूप हो ही जायेंगे। यह एक अटेन्शन स्वत: ही हद के टेन्शन को समाप्त कर देता है। इस अटेन्शन के आगे किसी भी प्रकार का टेन्शन, अटेन्शन में परिवर्तित हो जायेगा। और इसी स्व-परिवर्तन से विश्व परिवर्तन सहज हो जायेगा। यह अटेन्शन ऐसा जादू का कार्य करेगा जो अनेक आत्माओं के अनेक प्रकार के टेन्शन को समाप्त कर बाप तरफ अटेन्शन खिंचवायेगा। जैसे आजकल साइंस के अनेक साधन ऐसे हैं - स्विच आन करने से चारों ओर का किचड़ा, गंदगी अपने तरफ खींच लेते हैं। चारों ओर जाना नहीं पड़ता लेकिन पावर द्वारा स्वत: ही खिंच जाता है। ऐसे साइलेंस की शक्ति द्वारा, इस अटेन्शन के समर्थ स्वरूप द्वारा, अनेक आत्माओं के टेन्शन समाप्त कर देंगे अर्थात् वे आत्मायें अनुभव करेंगी कि हमारा टेन्शन जो अनेक तरह से बहुत समय से परेशान कर रहा था वह कैसे समाप्त हो गया! किसने समाप्त किया! इसी अनुभूति द्वारा अटेन्शन जायेगा-शिव शक्ति कम्बाइण्ड रूप की तरफ।
तो टेन्शन अटेन्शन में बदल जायेगा ना! अभी तो बार-बार अटेन्शन दिलाते हो-’’याद करो-याद करो'' लेकिन जब आधारमूर्त्त शक्तिशाली स्वरूप में स्थित हो जायेंगे तो दूर बैठे भी अनेकों के टेन्शन को खींचने वाले, सहज अटेन्शन खिंचवाने वाले, सत्य तीर्थ बन जायेंगे। अभी तो आप ढूंढने जाते हो। ढूँढने के लिए कितने साधन बनाते हो और फिर वे लोग आपको ढूँढने आयेंगे। वा सदा आप ही ढूँढते रहेंगे?
साइंस भी श्रेष्ठ आत्माओं के श्रेष्ठ कार्य में सहयोगी है। थोड़ी-सी हलचल होने दो और स्वयं को अचल बना दो, फिर देखो आप रूहानी चुम्बक बन अनेक आत्माओं को कैसे सहज खींच लेंगे! क्योंकि दिन प्रतिदिन आत्मायें ऐसी निर्बल होती जायेंगी जो अपने पुरूषार्थ के पाँव से चलने योग्य भी नहीं होंगी। ऐसी निर्बल आत्माओं को, आप शक्ति स्वरूप आत्माओं की शक्ति अपने शक्ति के पाँव दे करके चलायेंगी अर्थात् बाप के तरफ खींच लेगी।
ऐसी सदा उड़ती कला के अनुभवी बनो तो अनेक आत्माओं को दुख, अशान्ति की स्मृति से उड़ाकर ठिकाने पर पहुँचा दो। अपने पंखो से उड़ना पड़ेगा। पहले स्वयं ऐसे समर्थ स्वरूप होंगे तब सत्य तीर्थ बन इन अनेकों को पावन बनाए, मुक्ति अर्थात् स्वीट होम की प्राप्ति करा सकेंगे। ऐसे आधारमूर्त्त हो।
तो आज बापदादा ऐसे आधारमूर्त्त बच्चों को देख रहे हैं। अगर आधार ही हिलता रहेगा तो औरों का आधार कैसे बन सकेंगे? इसलिए आप अचल बनो तो दुनिया में हलचल शुरू हो जाए। और जरा-सी हलचल अनेकों को बाप तरफ सहज आकर्षित करेगी। एक तरफ कुम्भकरण जागेंगे, दूसरे तरफ कई आत्मायें जो सम्बन्ध वा सम्पर्क में भी आई हैं लेकिन अभी अलबेलेपन की नींद में सोई हुई हैं, तो ऐसे अलबेलेपन की नींद में सोई हुई आत्मायें भी जागेंगी। लेकिन जगाने वाले कौन? आप अचल मूर्त्त आत्मायें। समझा! सेवा रूप ऐसे बदलने वाला है। इसके लिए शिव-शक्ति स्वरूप। अच्छा-
ऐसे सदा शान्ति और शक्ति स्वरूप, अपने समर्थ स्थिति द्वारा अनेकों को स्मृति दिलाने वाले, टेन्शन समाप्त कर अटेन्शन खिंचवाने वाले, ऐसे आधारमूर्त्त विश्व परिवर्तक बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।
‘‘18 जनवरी स्मृति दिवस की सर्व बच्चों को यादप्यार देते हुए अव्यक्त बापदादा बोले'' –
‘‘18 जनवरी की यादप्यार तो है ही 18 अध्याय का समर्था स्वरूप। 18 जनवरी क्या याद दिलाती है? - ‘सम्पन्न फरिश्ता स्वरूप'। फालो फादर का पाठ हर सेकण्ड, हर संकल्प में स्मृति दिलाता है। ऐसे ही अनुभवी हो ना? 18 जनवरी के दिवस सब कहाँ होते हैं? साकार वतन में वा आकारी फरिश्तों के वतन में? तो 18 जनवरी सदा फरिश्ता स्वरूप, सदा फरिश्तों के दुनिया की स्मृति दिलाती है अर्थात् समर्थ स्वरूप बनाती है। है ही याद दिवस। तो याद स्वरूप बनने का दिन है। तो समझा। 18 जनवरी क्या है? ऐसे सदा बनना। यही स्मृति बार-बार दिलाती है। तो 18 जवनरी का यादप्यार हुआ -’’बाप समान बनना'' ‘‘सम्पन्न स्वरूप बनना''। अच्छा-
सभी को पहले से ही स्मृति की यादप्यार पहुँच ही जायेगी। अच्छा।
14-01-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“कर्मेन्द्रिय जीत ही विश्व राज्य अधिकारी”
राजऋषि आत्माओं के प्रति बापदादा बोले-
‘‘आवाज में आने के लिए वा आवाज को सुनने के लिए कितने साधन अपनाते हो? बापदादा को भी आवाज में आने के लिए शरीर के साधन को अपनाना पड़ता है। लेकिन आवाज से परे जाने के लिए इस साधनों की दुनिया से पार जाना पड़े। साधन इस साकार दुनिया में है। बापदादा के सूक्ष्म वतन वा मूल वतन में कोई साधनों की आवश्यकता नहीं है। सेवा के अर्थ आवाज में आने के लिए कितने साधनों को अपनाते हो? लेकिन आवाज से परे स्थिति में स्थित होने के अभ्यासी सेकण्ड में इन सबसे पार हो जाते हैं। ऐसे अभ्यासी बने हो? अभी-अभी आवाज में आये, अभी-अभी आवाज से परे। ऐसी कन्ट्रोलिंग पावर, रूलिंग पावर अपने में अनुभव करते हो? संकल्प शक्ति को भी, जब चाहो तब संकल्प मे आओ, विस्तार में आओ, जब चाहो तब विस्तार को फुलस्टाप में समा दो। स्टार्ट करने की और स्टाप करने की - दोनों ही शक्तियाँ समान रूप में हैं?
हे कर्मेन्द्रियों के राज्यधारी, अपनी राज्य सत्ता अनुभव करते हो? राज्य सत्ता श्रेष्ठ है वा कर्मेन्द्रियों अर्थात् प्रजा की सत्ता श्रेष्ठ है? प्रजा पति बने हो? क्या अनुभव करते हो? स्टाप कहा और स्टाप हो गया। ऐसे नहीं कि आप कहो स्टाप और वह स्टार्ट हो जाए। सिर्फ हर कर्मेंन्द्रिय की शक्ति को आँख से इशारा करो तो इशारे से ही जैसे चाहो वैसे चला सको। ऐसे कर्मेन्द्रिय जीत बनें तब फिर प्रकृतिजीत बन कर्मातीत स्थिति के आसनधारी सो विश्व राज्य अधिकारी बनो। तो अपने से पूछो - पहली पौढ़ी - कर्मेंन्द्रिय जीत बने हैं? हर कर्मेंन्द्रिय ‘‘जी हजूर'' ‘‘जी हाजर'' करती हुई चलती है? आप राज्य अधिकारियों का सदा स्वागत अर्थात् सलाम करती रहती हैं? राजा के आगे सारी प्रजा सिर झुकाकर सलाम करती है?
हे राज्य अधिकारी, आप सबकी राज्य कारोबार कैसी है? मंत्री, उपमंत्री कहाँ धोखा तो नहीं देते हैं? चैक करते हो अपनी राज्य कारोबार को? राज्य दरबार रोज लगाते हो या कभी-कभी? क्या करते हो? राज्य अधिकारी के यहाँ के संस्कार भविष्य में कार्य करेंगे। चैक करते हो कि वर्तमान समय मुझ आत्मा के राजवंश के संस्कार हैं? वा प्रजा के संस्कार हैं? वा स्टेट के राज्य अधिकारी के संस्कार हैं अर्थात् हद के राज्य अधिकारी के संस्कार हैं वा बेहद विश्व महाराजन के संस्कार हैं वा उनसे भी लास्ट पद दास-दासी के संस्कार हैं? साकार में भी सुनाया था कि दास-दासी बनने की निशानी क्या है? जो किसी भी समस्या वा संस्कार के अधीन बन उदास रहता है तो उदास वा उदासी ही निशानी है -दास दासी बनना। तो मैं कौन? यह स्वयं ही स्वयं को चैक करो। कहाँ किसी भी प्रकार की उदासी की लहर तो नहीं आती? उदास अर्थात् अभी भी दास हैं तो ऐसे को राज्य अधिकारी कैसे कहेंगे?
इसी तरह से साहूकार प्रजा भी होगी। तो यहाँ भी कई राजे नहीं बने हैं लेकिन साहूकार बने हैं क्योंकि ज्ञान रत्नों का खजाना बहुत है, सेवा कर पुण्य का खाता भी जमा बहुत है। लेकिन समय आने पर स्वयं को अधिकारी बनाकर सफलतामूर्त्त बन जाएं, वह कन्ट्रोलिंग पावर और रूलिंग पावर नहीं है अर्थात् नालेजफुल हैं लेकिन पावरफुल नहीं हैं। शस्त्रधारी हैं लेकिन समय पर कार्य में नहीं ला सकते हैं। स्टाक है लेकिन समय पर न स्वयं यूज़ कर सकते और न औरों को यूज़ करा सकते हैं। विधान आता है लेकिन विधी नहीं आती। ऐसे भी संस्कार वाली आत्माएं हैं अर्थात् साहूकार संस्कार वाली हैं। जो राज्य अधिकारी आत्माओं के सदा समीप के साथी जरूर होते हैं लेकिन स्व अधिकारी नहीं होते। समझा? अभी आप ही सोचो कि वर्तमान समय अब तक मैं कौन बना हूँ? अभी भी बदल सकते हो। अभी भी फाइनल सीट के सेटिंग की सीटी नहीं बजी है। फुल चांस है। लेकिन औरों को भी क्या कहते हो? अब नहीं तो कब नहीं क्योंकि कुछ समय के पहले के संस्कार चाहिए। लास्ट समय के नहीं। इसलिए डबल विदेशी ग्रुप, गोल्डन चांस लेने वाले चांसलर ग्रुप बनो। तो सब कौन से ग्रुप के हो? अच्छा –
आज अमेरिका और आस्ट्रेलिया का टर्न है तो दोनों ही कौन-सा ग्रुप हो? कौन-सा ग्रुप लाई हो? आस्ट्रेलिया वाले क्या समझते हैं? चांसलर्स ग्रुप है? आस्ट्रेलिया की शक्तियाँ क्या समझती हैं? शक्ति दल भी कम नहीं है। पाण्डव हैं तो शक्तियाँ, शक्तियाँ है। दोनों ही अपनी रफ्तार से चल रहे हैं। आस्ट्रेलिया में शक्तियाँ ज्यादा हैं या पाण्डव? (दोनों समान हैं।) शक्तियाँ थोड़ी रेस्ट कर रही हैं - फिर ज्यादा उड़ेगी ना, इसलिए रेस्ट कर रही हैं। बाकी जाना तो नम्बरवन है। ऐसे कई करते हैं, बीच में थोड़ी रेस्ट लेकर के फिर फास्ट जाते हैं और मंजिल पर पहुँच जाते हैं। अच्छा –
सदा कर्मेन्द्रिय जीत, प्रकृति जीत, सूक्ष्म संस्कार जीत अर्थात् मायाजीत, स्वराज्य अधिकारी, सो विश्व राज्य अधिकारी ऐसे राज्य वंशी, राजऋषि आत्माओं को बापदादा का याद प्यार और नमस्ते।''
आस्ट्रेलिया पार्टी से - बापदादा को आप लोगों से ज्यादा बच्चों की याद आती रहती है? बापदादा भी रोज बच्चों की माला स्मरण करते हैं। आप कभी मिस भी करो, बापदादा मिस नहीं करेंगे। हरेक मणके का अपना-अपना नम्बर है। हैं तो माला में। कितने बार बापदादा ने आप सबकी माला स्मरण की होगी? आस्ट्रेलिया वालों के ऊपर तो बापदादा को सदा ही नाज़ है - क्यों? क्योंकि आस्ट्रेलिया निवासियों ने बाप को पहचान अपना बनाने में नम्बरवन रिकार्ड दिखाया है। संख्या में देखो, वृद्धि में देखो, क्वालिटी में देखो, सबमें आगे है। और अच्छी तरह से सम्भाल रहे हैं। इसलिए आस्ट्रेलिया कम नहीं है, लंदन में फिर भी भारतवासी आत्मायें ज्यादा हैं लेकिन आस्ट्रेलिया में सब पर्दे के अन्दर छिपे हुए बाप को पहचानने में नम्बरवन हैं। इसलिए बापदादा को प्रिय हैं। समझा –
2- आस्ट्रेलिया निवासी सब अपने को डबल लाइट स्वरूप अनुभव करते हो? डबल लाइट अर्थात् सदा हर समस्या को सहज पार करने वाले। ऐसे अनुभव करते हो? शक्तियाँ क्या सोच रही हैं? शक्तियाँ सोचती हैं कि कोई ऐसा मधुबन से वरदान लेकर के जाएं जो जाते ही विजय का झण्डा लहरायें। आस्ट्रेलिया निवासियों के प्रति बापदादा सदा महिमा के पुष्प चढ़ाते हैं क्योंकि पहले-पहले सर्विस की वृद्धि का सबूत आस्ट्रेलिया निवासियों का है। लंदन में भी सेवा की वृद्धि तो हुई है लेकिन कई वृक्ष में जैसे शाखा ही तना बन जाता है। ऐसे आस्ट्रेलिया भी निकला लण्डन से ही है लेकिन अभी तना बन गया है। यह भी विशेषता है ना। सदा सब में राजी रहने वाले हो। राजी रहना अर्थात् सब राज़को जान लेना। इसलिए मैजारिटी सन्तुष्ट आत्माएं हो। सन्तुष्ट मणियाँ हो। कैसा भी वायुमण्डल में हलचल हो लेकिन आप सदा अचल रहने वाले हो ना? क्योंकि बाप के साथ रहने वाले हो। जैसे बाप सदा अचल है वैसे साथ रहने वाले भी अचल ही होंगे ना!
सानफ्रान्सिसको - सभी ब्रह्माकुमार और कुमारियों का विशेष कर्त्तव्य क्या है? ब्रह्मा बाप का विशेष कर्त्तव्य क्या है? ब्रह्मा का कर्त्तव्य ही है - नई दुनिया की स्थापना। तो ब्र.कु. और कुमारियों का विशेष कर्त्तव्य क्या हुआ? स्थापना के कार्य में सहयोगी। तो जैसे अमेरिका में विनाशकारियों के विनाश की स्पीड बढ़ती जा रही है। ऐसे स्थापना के निमित्त बच्चों की स्पीड भी तीव्र है? वे तो बहुत फास्ट गति से विनाश के लिए तैयार हैं। ऐसे आप सभी भी स्थापना के कार्य में इतने एवररेडी तीव्रगति से जा रहे हो? उन्हों की स्पीड तेज है या आपकी तेज है? वो 15 सेकण्ड में विनाश के लिए तैयार हैं और आप - एक सेकण्ड में? क्या गति है? सेकण्ड में स्थापना का कार्य अर्थात् सेकण्ड में दृष्टि दी और सृष्टि बन गई - ऐसी स्पीड है? तो सदा स्थापना के निमित्त आत्माओं को यह स्मृति रखनी चाहिए कि हमारी गति विनाशकारियों से तेज हो क्योंकि पुरानी दुनिया के विनाश का कनेक्शन नई दुनिया की स्थापना के साथ-साथ है। पहले स्थापना होनी है या विनाश? स्थापना की गति पहले तेज होनी चाहिए ना! स्थापना की गति तेज करने का विशेष आधार है - सदा अपने को पावरफुल स्टेज पर रखो। नालेजफुल के साथ-साथ पावरफुल, स्टेज पर रखो। नालेजफुल के साथ-साथ पावरफुल दोनों कम्बाइन्ड हो। तब स्थापना का कार्य तीव्रगति से होगा। तो कहाँ से तीव्रगति का फाउन्डेशन पड़ेगा? अमेरिका से। अमेरिका में भी 4-5 सेवाकेन्द्र हैं। तो सभी यह लक्ष्य रखना कि नम्बरवन हम ही जाएंगे! तो आपके सेन्टर द्वारा पहले-पहले आत्मिक बाम्ब चलेगा ना? उससे क्या होगा? सभी बाप के परिचय को जान लेंगे। जैसे उस बाम्ब से विनाश होता है ना! तो इस आत्मिक बाम्ब से अंधकार का विनाश हो जायेगा। तो यह बाम्ब छोड़ने की कौन-सी तारीख है? वह गवर्मेन्ट भी डेट बतलाती है ना कि इस तारीख को रिहर्सल होगी, तो आपके रिहर्सल की डेट कब होगी? अच्छा –
विदेश की टीचर्स बहनों ने अव्यक्त बाप दादा के साथ पिकनिक की
पिकनिक हो गई? सुनते तो रहते ही हो? कभी खाएंगे, कभी सुनेंगे...यही तो ईश्वरीय परिवार की विशेषता है। जो अभी-अभी शिक्षक के सामने, अभी-अभी बाप के सामने, अभी-अभी सखा के सामने। यह बहुरूप का अनुभव सारे कल्प में न कोई कर सकता है और न करा सकता है। यह एक ही बाप का पार्ट संगम पर है। सतयुग में अगर चाहो बापदादा से पिकनिक मनाएं तो मना सकेंगे? अभी जो चाहो, जिस रूप में चाहो उसी रूप में मिलन मना सकते हो। इसलिए यह भी आप विशेष सेवाधारियों का भाग्य है।
बापदादा तो अमृतवेले से हर बच्चे का भाग्य देखते रहते हैं कि कितने प्रकार के भाग्य हर आत्मा के नूंधे हुए हैं। अमृतवेला ही भाग्य ले आता है। रूहानी मिलन का भाग्य अमृतवेला ही ले आता है ना। हर कर्म में आपका भाग्य है। देखते हो तो बाप को। यह आँखें मिली ही हैं बाप को देखने के लिए। कान मिले हैं बाप का सुनने के लिए। तो भाग्य हो गया ना! हर कर्मेंन्द्रिय का भाग्य है। पाँव मिले हैं हर कदम पर कदम रखने के लिए। ऐसे हर कर्मेंन्द्रिय का अपना- अपना भाग्य है। तो लिस्ट निकालो कि कितने भाग्य सारे दिन में प्राप्त होते हैं! बाप को देखा, बाप का सुना, बाप के साथ सोया, बाप के साथ खाया, सब कुछ बाप के साथ करते हो। सेवा की तो भी बाप का परिचय दिया, बाप से मिलाया...तो कितना भाग्य हो गया? तो बापदादा सदा हर बच्चे के भाग्य की लकीर कितनी स्पष्ट और लम्बी है, क्लीयर है - वह देखते हैं। भाग्य की लकीर बीच-बीच में कट तो नहीं जाती है। जुड़ती है और टूटती है या जब से जुड़ी है तब से अखण्ड अटूट है? खण्डित होने से लकीर फिर बदल भी जाती है इसलिए अटूट और अखण्ड। तो ऐसा बच्चों का नजारा देखते रहते है। बाप को और क्या काम है? विश्व सेवा के लिए तो आपको निमित्त बना दिया। बाकी बाप का क्या काम रहा? (बाबा ही तो सब कर रहे हैं) सिर्फ बैकबोन बनने का काम बाप का है। बाकी बच्चों से मिलना, बच्चों को देखना, बच्चों से रूह-रूहान करना, बच्चों को चलाना, यही काम रह गया है ना! आप लोगों का विश्व से काम है और बाप का आप बच्चों से काम है। विश्व के आगे बाप को दिखाते तो आप बच्चे हो ना! बच्चों द्वारा बाप दिखाई देता है। बैकबोन तो बाप है ही। अगर बाप बैकबोन न बने तो आप अकेले थक जाओ। मोह भी है ना। तो बच्चों की थकावट भी बाप नहीं देख सकते। इसलिए देखो हर साल यहाँ आते हो थकावट खत्म करने। यहाँ आकर सेवा की जिम्मेवारी का ताज उतार देते हो ना। वहाँ तो एक-एक बात में देखेंगी कोई देख तो नहीं रहा है, कोई सुन तो नहीं रहा है? यहाँ अगर कुछ होगा भी तो समझेंगे दीदी, दादी बैठी है, बाप-दादा बैठा है, आपेही ठीक कर देगा। यहाँ फिर भी फ्री हो। तो विदेश की सेवा में अनुभव भी अच्छे होते हैं ना? डबल नालेजफुल हो गई ना? (आबू कांफ्रेंस के लिए कोई विशेष प्लैन) आबू कांफ्रेंस में स्नेही बनाकर लाना सिर्फ वी.आई. पीज नहीं। आप स्नेही बनाकर लाना - यहाँ संबंध जुड़ जायेगा। (स्नेही बनाने का साधन क्या है?) जितना-जितना बाप की जिगर से महिमा करेंगे, तो आप महिमा करेंगे और वे मोहित होते जायेंगे। आप ‘बाबा-बाबा' कहते जायेंगे, महानता सुनाते जायेंगे और वे स्नेही बनते जायेंगे। जहाँ महानता अनुभव होती है वहाँ स्वयं ही सिर झुक जाता है। जैसे भक्त लोग जड़ में महानता की भावना रखते हैं तो सिर झुक जाता है। कहाँ वह जड़, कहाँ वह चैतन्य, फिर भी सिर झुक जाता है। यहाँ भी देखो कोई प्राइम मिनिस्टर या प्रेजीडेन्ट है तो उसका भी महानता के आगे आटोमैटिक सिर झुक जाता है ना। तो आप भी बाप की महानता सुनाती जायेंगी और उनका सिर झुकता जायेगा। आप लोग तो होशियार हो गई हैं ना!साइंस का भी नॉलेज है, साइलेंस का भी है, देश का भी है तो विदेश का भी है। तो अनुभव भी एक शक्ति है, सबसे बड़ी शक्ति - ‘अनुभव' है। अनुभव सुनाते हो तो सभी खुश होते हैं ना। अनुभव करने वाला स्वयं भी शक्तिशाली बन जाता है। यह भी एक बड़ा शस्त्र है। वैसे बोलने वाले तो अनेक हैं लेकिन अनुभव की शक्ति किसी के पास भी नहीं है। यहाँ विशेषता ही अनुभव की है। बोलने वाले के आगे अनुभव वाले का ही महत्व है। धीरे-धीरे साइन्स वाले, चाहे शास्त्र वाले, दोनों ही यह समझेंगे कि हम ऊपर-ऊपर के हैं, फाउण्डेशन हम लोगों का नहीं है। और इन्हों का अनुभव फाउण्डेशन है। चाहे चन्द्रमा तक भी चले गये लेकिन अपने आप की अनुभूति नहीं है। चन्द्रमा पर गये तो क्या हुआ? तो यह महसूस करेंगे लेकिन अन्त में करेंगे क्योंकि वारिस तो बनना नहीं है। तो अन्त में साइंस अर्थात् शस्त्रधारी और शास्त्रधारी दोनों ही समझेंगे कि हम क्या हैं और यह क्या हैं! अच्छा –
सभी खुश तो हो ना! कोई मुश्किल तो नहीं है! सहजयोगी हो? सहज सेवाधारी हो? (विदेश की बहनें-दीदी-दादी को विदेश सेवा के लिए विदेश में आने का निमन्त्रण दे रही हैं।) वर्तमान समय जबकि 83 आदि में ही यहाँ सभी को लाना है, और सबको यहाँ आना ही है, तो यहाँ की सेवा के ऊपर विशेष अटेन्शन देने की आवश्यकता है। और वहाँ का भी अगर ऐसा कोई निमन्त्रण मिला, यू.एन.ओ. वगैरा का तो फिर जाना जरूरी है। बाकी जो अपनी कांफ्रेंस आदि करते हो उसके लिए इतनी आवश्यकता नहीं है क्योंकि उन्हें ही यहाँ लाना है। इसलिए सब बातों को देखते हुए अभी इतना आवश्यक दिखाई नहीं देता है। बाकी अभी विदेश तो ऐसा है, अभी-अभी यहाँ अभी-अभी वहाँ। ऐसा कोई कार्य हुआ तो पहुँच जायेंगे।
यू.एन.ओ. में जो सम्पर्क बढ़ा रहे हो, यह सम्पर्क बढ़ना ही सेवा है। और भी जितना हो सके उन्हों को होमली सम्पर्क में ले आओ। जैसे यह शैली (यू.एन.ओ.की) आई वह भी स्नेह सम्पर्क से आकर्षित हुई ना। प्रेम की पालना मिली। क्योंकि बड़े-बड़े आफीसर जहाँ जाते हैं वहाँ वह उसी पोस्ट पर होने के कारण आफिशियल रहते हैं, प्रेम की पालना उन्हें नहीं मिलती है। यहाँ तो सम्बन्ध का रस मिलता है। यही यहाँ की विशेषता है। जो भी सम्पर्क सम्बन्ध में आते हैं उन्हों को परिवार की फीलिंग आये। अनुभव करें कि यह कोई बहुत समीप की आत्मा खोई हुई मिली है। सम्पर्क बढ़ाना यही सेवा ठीक है। जितनाजितना नजदीक आते रहेंगे वह अनुभव करेंगे कि इन्हों के पास जो चाहिए वही है।
शैली बच्ची द्वारा बहुतों की सेवा हो रही है और होगी भी। स्नेह का तीर लग गया है। लगन अच्छी है। जो चाहती थी उसकी विधी भी मिल गई है। समझती भी है कि विधी यहाँ से ही मिलती है। उसको यादप्यार देना और यही कहना कि बापदादा की आप में बहुत उम्मीदें हैं और सफलता के सितारे की नूंधी हुई है। ऐसा बापदादा तकदीर देख रहे हैं। कई प्रकार की आत्माओं का पार्ट है। चाहे पूरा कनवर्ट न भी हो लेकिन कनवर्ट कराने के तो निमित्त है। दिल से बाप को माना है और यह डबल तरफ पार्ट बजाना यह भी जरूरी है, इसी से सेवा होगी। इसका इतना रहना ही सेवा है। पूरा बदल जाए तो सेवा नहीं होगी। इसको इस सेवा का फल भी अच्छा मिलेगा।
स्टीवनारायण (ग्याना के उपराष्ट्रपति) तथा उनके परिवार को यादप्यार देते हुए
उन्हें जिगरी बहुत-बहुत याद देना। बहुत अच्छे तन-मन-धन तीनों से पूरे सहयोगी, निश्चयबुद्धि नम्बरवन बच्चे हैं। उस बजट के कारण नहीं आ सके लेकिन पांडव गवर्मेन्ट की बजट में बुद्धि से यहाँ पहुंचे हुए हैं। बहुत ही नम्रचित्त बच्चा है। परिवार ही ड्रामा अनुसार सर्विसएबुल है। हिम्मत भी अच्छी है। परिवार का परिवार ही स्नेही है। अन्धश्रद्धा नहीं है, नालेज के आधार पर स्नेही है। इन्हों के ही सम्पर्क से अमेरिका में पहुँचे । यह बेहद सेवा के निमित्त, विशेष आत्माओं की सेवा के निमित्त बने हुए हैं। इसको कहते हैं - एक की नालेज से अनेकों पर प्रभाव। बड़ा माइक है। इनको देखकर वहाँ की गवर्मेन्ट पर भी अच्छा प्रभाव है। नालेज का, योग का अच्छा प्रभाव है। अच्छे सेवाधारी हैं।
16-01-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
अव्यक्त बापदादा का दूर दूर देशों से पधारे बच्चों से मधुर मिलन
आज बापदादा कहाँ आये हैं? और किन्हों से मिलने आये हैं? जानते हो? आज गॉड, गॉडली फ्रेंड बन करके आये हैं तो फ्रेंडस आपस में क्या करते हैं? गाते, हंसते, खाते, बहलते हैं। तो आज बापदादा सुनाने के लिए नहीं आये है लेकिन मिलन मनाने के लिए आये हैं। बापदादा देख रहे हैं, कितनी दूर-दूर से और कितने वैरायटी प्रकार के गॉडली फ्रेंडस पहुँच गये हैं। कितने अच्छे फ्रेंडस हो जो एक गॉड को फ्रेंड बनाने के बाद - एक गॉडली फ्रेंड दूसरा न कोई। तो हरेक की फ्रेंडशिप का अपना-अपना चित्र देख रहे हैं। सदा की सच्ची फ्रेंडशिप में जो भी दिल में संकल्प आता है वह सब फ्रेंड को सुनाया जाता है। तो गॉड को ऐसा फ्रेंड बनाया है ना? अविनाशी प्रीत का नाता जोड़ा है ना? अभी-अभी जोड़ा, अभी-अभी तोड़ा, ऐसा तो नहीं है! क्या समझते हो? अविनाशी फ्रेंडशिप है? सारे कल्प के अन्दर ऐसा बाप कहो, फ्रेंड कहो, जो भी कहो, सर्व सम्बन्ध निभाने वाला कहो - मिलेगा? सारे कल्प का चक्र लगाया तो मिला? और अपने फ्रेंड्स को वा सर्व सम्बन्धयों का ढूँढा भी बाप ने आकर के, आप नहीं ढूँढ सके। अविनाशी सर्व सम्बन्ध जोड़ने का आधार वा विधि अच्छी तरह से जानते हो? सदा एक ही बात याद रहे- कि ‘‘मेरा बाबा''। मेरामेरा कहने से अधिकारी आत्मा बन जायेंगे। यह मुश्किल है क्या? जब बाप ने कहा मेरा बच्चा, तो बच्चे को मेरा बाबा समझना क्या मुश्किल है? यह मेरा शब्द 21 जन्म के लिए अटूट सम्बन्ध जोड़ने का आधार है। ऐसा सहज साधन अपनाया हैं? अनुभवी हो गये हो ना?
आज बापदादा देख रहे हैं कि कितने नये-नये बच्चे अपना कल्प-कल्प का अधिकार पाने के लिए पहुँच भी गये हैं और अपना अधिकार पा भी रहे हैं तो अधिकारी बच्चों को देख बापदादा हर्षित हो रहे हैं।
जैपनीज ‘डॉल्स' ठीक हो ना? बहुत स्नेह से देख रही हैं। देखो, देश और धर्म के घूंघट में होते हुए भी बापदादा ने अपने बच्चों को अपना बना लिया है। तो जापानी डाल्स, क्या गीत गाती हो? - ‘‘माई बाबा''। सब एक दो से प्यारी हैं। ऐसे ही देखो फ्रांस के बच्चे भी कितने प्रिय हैं। भाषा को न समझते हुए भी बाप को तो समझते हैं। ब्राजील, मैक्सिको... के सभी ग्रुप बहुत अच्छे हैं। इस बारी दूर-दूर के ग्रुप अच्छा पुरूषार्थ करके पहुँच गये हैं। लंदन, अमेरिका, जर्मनी तो हैं ही शुरू के। लेकिन नये-नये स्थानों के बहुत सुन्दर गुलदस्तों को देखते हुए बापदादा अति हर्षित हो रहे हैं। सबसे ज्यादा दूर और कौन-सा स्थान है? (परमधाम) ठीक बोल रहे हो। लेकिन जितना ही दूर स्थान है उतना ही पहुँचने में सेकण्ड लगता है। सेकण्ड में पहुँच जाते हो ना- परमधाम में। सेकण्ड में पहुँचते हो वा देरी लगती है?
हाँगकाँग के भी (चाइनीज भाषा बोलने वाले) बच्चे पहुँच गये हैं। गॉडली गुलदस्ते के अति शोभनिक फूल हो! अपने को इसी गुलदस्ते के फूल अनुभव करते हो ना? अच्छा - हरेक देश अपने-अपने नाम से, सबके नाम तो बापदादा नहीं लेंगे ना। तो हरेक देश से आये हुए सभी बच्चे अति प्रिय हो । बापदादा से मिलन मनाने के लिए आये हो और बापदादा भी सर्व बच्चों को देख बच्चों की विशेषता के गीत गा रहे हैं। बॉरबडोज वाले भी बहुत खुश हो रहे हैं। ट्रिनिडैड की मातायें तो बहुत अच्छी हैं। वे तो ऐसे लगती हैं जैसे बहुत झूमने वाली, खुशी में झूलने वाली हैं। मॉरीशियस की कुमारी पार्टी भी बहुत अच्छी है। हरेक कुमारी 100 ब्राह्मणों से उत्तम है। अगर 4 कुमारियाँ भी आई तो 400 ब्राह्मण आ गये। यह सोच रही हैं कि हमारा ग्रुप बहुत छोटा है लेकिन आप में 400 समाये हुए हैं। छोटा नहीं है। बाकी आस्ट्रेलिया और लंदन तो रेस कर रहे हैं और जर्मनी फिर बीच का सिकीलधा हो गया। दुबई भी एक लाखों के समान है। नैरोबी ने सबसे ज्यादा कमाल की है। मिनी पाण्डव भवन जो किसी ने नहीं बनाया है, वह नैरोबी ने बनाया है। अच्छा व्हाइट हाउस बनाया है। जर्मनी की भी बहुत शाखायें हैं। अमेरिका की भी बहुत शाखायें हैं। पूरा ही यूरोप अच्छा पुरूषार्थ कर लंदन और आस्ट्रेलिया के समान वृद्धि को पा रहे हैं।
अमेरिका वाले क्या कर रहे हैं? अमेरिका ने चतुराई बहुत अच्छी की है जो अमेरिका के अनेक कोनों में अपना शक्ति सेना पाण्डवों का लश्कर रख दिया है। अभी चारों ओर से अपना घेराव तो कर लिया है, फिर जब समय आयेगा तो सेकण्ड में ‘व्हाइट हाउस' के ऊपर ‘लाइट हाउस' की विजय होगी। क्योंकि विनाश की ज्वाला भी अमेरिका से निमित्त बनेगी तो स्थापना के विशेष कार्य में भी अमेरिका की पाण्डव गवर्मेन्ट कहो,पाण्डव सेना कहो, वही निमित्त बनेगी। तो ऐसे तैयार हो ना? (हाँ) आर्डर दें?
जापानी डाल्स क्या करेगी? सबसे बड़ा सबसे सुन्दर गुलदस्ता बापदादा को भेंट करेंगी ना? जर्मनी क्या करेगा? जर्मनी वाले ऐसी रोशनी फैलायेंगे जो अन्धों को भी आँख मिल जाए, आत्मिक बाम्ब वा साइलेन्स की शक्ति के बाम्ब से।
दुबई वाले क्या करेंगे? वहाँ छिपे हुए ब्राह्मण अपना जलवा दिखायेंगे जरूर। और धर्म होते हुए भी ब्राह्मण आत्मायें छिपी नहीं रह सकतीं। इसलिए वह भी बड़ा ग्रुप बनाकर आयेंगे। अन्दर-अन्दर तैयार हो रहे हैं, बाहर आ जायेंगे। यह दूर वाले (ब्राजील-मैक्सिको वाले) बच्चे क्या सोच रहे हैं। दूर से ऐसा बुलन्द आवाज फैलायेंगे जो सीधा ही दूर से भारत के कुम्भकरण तक पहुँच जाए।
ग्याना तो अमेरिका (न्यूयार्क) का फाउण्डेशन है। ग्याना ने जो किया है, वह अभी तक किसी ने नहीं किया है। सुनाया था ना - ग्याना के आत्माओं की विशेषता है, वी. आई. पीज होते हुए भी पूरे वारिस क्वालिटी हैं।
कनाडा से भी त्रिमूर्ति आई है। त्रिमूर्ति में ही सारा संसार समाया हुआ है। कनाडा अभी गुप्त से प्रत्यक्षता की रेस में आगे बढ़ेगा। अच्छा नम्बर लेगा।
मलेशिया ने भी अच्छी मेहनत की है। ऐसे नहीं समझो मैं अकेला आया हूँ लेकिन आपके अन्दर सभी सोल समाये हुए हैं। बापदादा एक को नहीं देख रहे हैं लेकिन आप में समाये हुए समीप और स्नेही आत्माओं का दृश्य दूर से देख रहे हैं। आवाज आपको भी आ रहा है ना! आत्माओं का?
न्यूजीलैंड की निमित्त बनने वाली आत्मायें पावरफुल हैं, इसलिए सदा बापदादा की फुलवाड़ी खिली रहेगी। स्थान छोटा है लेकिन सेवा बड़ी है।
आस्ट्रेलिया और लंदन की ब्रांन्चेस तो बहुत हैं। पोलैंड में भी वृद्धि हो जायेगी। एक जगे दीपक से दीपमाला हो जायेगी। अभी तो देखो फिर भी नाम ले रहे हैं लेकिन अगले वर्ष आयेंगे तो इतनी वृद्धि करना जो नाम लेना ही मुश्किल हो जाए।
अभी जैसे मस्जिद के ऊपर, चर्च के ऊपर चढ़कर अपने-अपने गीत गाते हैं। मस्जिद में अल्लाह का नाम चिल्लाते हैं, चर्च में गॉड का... मन्दिरों में आओ, आओ कहते हैं लेकिन अब ऐसा समय आयेगा जो सभी मन्दिर, मस्जिद, गुरूद्वारे, चर्च आदि से सबसे मिलकर एक ही आवाज होगी कि ‘‘हमारा बाबा आ गया है।'' फिर आप फरिश्तों को ढूँढेंगे कि कहाँ गये वह। चारों ओर फरिश्ते ही फरिश्ते उन्हों को नज़र आयेंगे। सारे वर्ल्ड में फरिश्ते छा जायेंगे। जैसे बादल छाये हुए होते हैं और सबकी नज़र पर आप एन्जिल और बाप की तरफ होगी। तो ऐसी स्टेज पर पहुँच गये हो - जो साक्षात्कार कराओ फरिश्ते का! अभी अगर थोड़ा-थोड़ा हिलते भी हो तो समय आने पर यह सब खत्म हो जायेगा। क्योंकि कल्प-कल्प के निश्चित फरिश्ते तो आप ही हो ना। आप के सिवाए और कौन हैं तो यह जो थोड़ा-थोड़ा हिलने का पार्ट वा खेल दिखाते हो यह सब समाप्त जल्दी हो जायेगा। फिर सभी के मुख से यही आवाज निकलेगी कि माया चली गई और हम मायाजीत बन गये। वह टाइम आ रहा है। अच्छा –
आज सभी की पिकनिक है। बापदादा आज की पिकनिक में सभी बच्चों से एक गिफ्ट लेंगे। देने के लिए तैयार हो? सिर्फ दो शब्दों की गिफ्ट है - सदा क्लीयर और केयरफुल रहना। तो इसकी रिजल्ट चियरफुल हो ही जायेंगे। क्लीयर नहीं होते हो इसलिए सदा एकरस नहीं रहते हो। और जो एक शब्द बार-बार बोलते हो - डिपरेशन-डिपरेशन, यह तभी होता है। तो जो भी बात आवे- वह क्लीयर कर दो। चाहे बापदादा द्वारा, चाहे अपने आप द्वारा। चाहे निमित्त बनी हुई आत्माओं द्वारा। अन्दर नहीं रखो। क्यों, क्या, नहीं लेकिन आप दो शब्दों की गिफ्ट दो और बापदादा से त्रिमूर्ति बिन्दी की गिफ्ट लो। गिफ्ट को खो नहीं देना। गिफ्ट को सदा बुद्धि रूपी तिजोरी में कायम रखना। मंजूर है लेना और देना! अच्छा - जब भी कुछ हो जाए तो तिलक लगा देना तो सदा सेफ रहेंगे। तिलक लगाना आता है ना?
18-01-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
““18 जनवरी” जिम्मेवारी के ताजपोशी का दिवस”
अव्यक्त बापदादा अपने नूरे रत्न बच्चों के प्रति बोले:-
‘‘आज जहाँन के नूर अपने नूरे रत्नों से मिलने आये हैं। सिकीलधे बच्चे बाप के नूर हैं। जैसे शरीर में, आँखों में नूर नहीं तो जहाँन नहीं, ऐसे विश्व में आप रूहानी नूर नहीं तो विश्व में रोशनी नहीं, अंधकार है। बापदादा के नयनों के नूर अर्थात् विश्व की ज्योति हो। आज के विशेष स्मृति दिवस पर बापदादा के पास सबके स्नेह के गीत अमृतवेले से वतन में सुनाई दे रहे थे। हरेक बच्चे के गीत एक-दो से ज्यादा प्रिय थे। मीठी-मीठी रूह-रूहान भी बहुत सुनी। बच्चों के प्रेम के मोतियों की मालायें बापदादा के गले में पिरो गई। ऐसे मोतियों की मालायें बापदादा के गले में भी सारे कल्प के अन्दर अभी ही पड़ती हैं। फिर यह अमूल्य स्नेह के मोतियों की माला पिरो नहीं सकती, पड़ नहीं सकती। इस एक- एक मोती के अन्दर क्या समाया हुआ था, हरेक मोती में यही था - ‘‘मेरा बाबा'', ‘‘वाह बाबा''। बताओ कितनी मालायें होंगी? और इन्हीं मालाओं से बापदादा कितने अलौकिक सजे हुए श्रृंगारे हुए होंगे। जैसे स्थूल में स्नेह की निशानी मालाओं से सजाया है। तो यहाँ स्थूल सजावट से सजाया है लेकिन वतन में अमृतवेले से बापदादा को सजाना शुरू किया। एक के ऊपर एक माला बापदादा का सुन्दर श्रृंगार बन गई। आप सभी भी वह चित्र देख रहे हो ना?
आज का विशेष दिन सर्व बच्चों के ताजपोशी का दिन है। आज के दिन आदि देव ब्रह्मा बाप ने स्वयं साकारी जिम्मेवारियाँ अर्थात् साकारी रूप से सेवा का ताज, नयनों की दृष्टि द्वारा हाथ में हाथ मिलाते, मुरब्बी बच्चों को अर्पण किया। तो आज का दिन ब्रह्मा बाप का साकार रूप की जिम्मेवारियों का ताज बच्चों को देने का - ‘ताजपोशी दिवस' है। (दादी से) आज का दिन याद है ना? आज का दिन ब्रह्मा बाप का बच्चों को ‘‘बाप समान भव'' के वरदान देने का दिन है।
ब्रह्मा बाप के अन्तिम संकल्प के बोल वा नयनों की भाषा सुनी? क्या थी? नयनों के इशारे के बोल यही थे -’’बच्चे, सदा बाप के सहयोग की विधि द्वारा वृद्धि को पाते रहेंगे।'' यही अन्तिम बोल, वरदानी बोल प्रत्यक्षफल के रूप में देख रहे हैं। ब्रह्मा बाप के अन्तिम वरदान का साकार स्वरूप आप सब हो। वरदान के बीज से निकले हुए वैरायटी फल हो। आज शिव बाप, ब्रह्मा को वरदान के बीज से निकला हुआ सुन्दर विशाल वृक्ष दिखा रहे थे। साइंस के साधनों से तो बहुत प्रयत्न कर रहे हैं कि एक वृक्ष में वैरायटी फल निकलें लेकिन ब्रह्मा बाप वरदान का वृक्ष, सहज योग की पालना से पला हुआ वृक्ष कितना विचित्र और दिलखुश करने वाला ‘वृक्ष' है। एक ही वृक्ष में वैरायटी फल हैं। अलग-अलग वृक्ष नहीं हैं। वृक्ष एक है, फल अनेक प्रकार के हैं। ऐसा वृक्ष देख रहे हो? हरेक अपने को इस वृक्ष में देख रहे हो? तो आज वतन में ऐसा विचित्र वृक्ष भी इमर्ज हुआ। ऐसा वृक्ष सतयुग में भी नहीं होगा। हाँ, साइंस वाले जो कोशिश कर रहे हैं उसका फल आपको थोड़ा-बहुत मिल जायेगा। एक ही फल में दो-चार फल के रस का अनुभव होगा। मेहनत यह करेंगे और खायेंगे आप। अभी से खा रहे हो क्या?
तो सुना आज का दिन क्या है? आज का दिन जैसे आदि में ब्रह्मा बाप ने स्थूल धन विल किया बच्चों को, ऐसे अपनी अलौकिक प्रॉपर्टी बच्चों को विल की। तो आज का दिन बच्चों को विल करने का दिवस है। इसी अलौकिक प्रॉपर्टी के विल के आधार पर कार्य में आगे बढ़ने की विलपावर प्रत्यक्षफल दिखा रही है। बच्चों को निमित्त बनाए विलपावर की विल की। आज का दिन विशेष बाप समान वरदानी बनने का दिवस है। आज का दिन - स्नेह और शक्ति कम्बाईन्ड वरदानी दिन है। प्रैक्टिकल अनुभव किया ना - दोनों का? अति स्नेह और अति शक्ति। (दादी से) याद है ना अनुभव। ताजपोशी हुई ना? अच्छा - आज के दिन के महत्व को जाना। अच्छा –
ऐसे सदा बाप के वरदानों से वृद्धि को पाने वाले, सदा एक बाप दूसरा न कोई, इसी स्मृति स्वरूप, सदा ब्रह्मा बाप के समान फरिश्ता भव के वरदानी, ऐसे समान और समीप बच्चों को बापदादा का ‘समर्थ दिवस' पर यादप्यार और नमस्ते।''
(दादी-दीदी से):- साकार बाप के वरदानों की विशेष अधिकारी आत्मायें हो ना? साकार बाप ने आप बच्चों को कौन-सा वरदान दिया? जैसे ब्रह्मा को आदि में वरदान मिला ‘‘तत् त्वम्''। ऐसे ही ब्रह्मा बाप ने भी बच्चों को विशेष ‘तत् त्वम' का वरदान दिया। तो विशेष ‘तत् त्वम' के वरदान के अधिकारी वारिस हो। इसी वरदान को सदा स्मृति में रखना अर्थात् समर्थ आत्मा होना। इसी वरदान की स्मृति से जैसे ब्रह्मा बाप के हर कर्म में बाप प्रत्यक्ष अनुभव करते थे ऐसे आपके हर कर्म में ब्रह्मा बाप प्रत्यक्ष होगा। ब्रह्मा बाप को प्रत्यक्ष करने वाले आदि रत्न कितने थोड़े निमित्त बने हुए हैं? आप विशेष आत्माओं की सूरत द्वारा ब्रह्मा की मूर्त अनुभव करें, और करते भी हैं। ब्रह्माकुमारी नहीं। ब्रह्मा बाप के समान, ब्रह्मा बाप की अनुभूति हो। ऐसी सेवा के निमित्त वरदानी विशेष आत्मायें हो। सब क्या कहते हैं? बाबा को देखा, बाबा को पाया। तो अनुभव कराने वाले, प्रत्यक्ष करने वाले कौन? आप ताजधारी विशेष आत्मायें अभी जल्दी फिर से ब्रह्मा बाप और ब्रह्मा वत्स शक्तियों के रूप में, शक्ति में शिव समाया हुआ, शिव शक्ति और साथ में ब्रह्मा बाप, ऐसे साक्षात्कार चारों ओर शुरू हो जायेंगे। ब्रह्माकुमारी के बजाए ब्रह्मा बाप दिखाई देगा। साधारण स्वरूप के बजाए शिवशक्ति स्वरूप दिखाई देगा। जैसे आदि में साकार की लीला देखी। ऐसे ही अन्त में भी होगी। सिर्फ अभी एडीसन ‘शिवशक्ति' स्वरूप का भी साक्षात्कार होगा। फिर भी साकार पिता तो ब्रह्मा है ना। तो साकार रूप में आये हुए बच्चे बाप को देखेंगे और अनुभव जरूर करेंगे। यह भी समाचार सुनेंगे। ब्रह्मा बाप के सहयोग का, स्नेह का सदा अनुभव करते हो ना? साथ हैं या वतन में हैं? सिर्फ शरीर के बन्धन से बन्धनमुक्त हो और तीव्रगति रूप से सहयोगी बन गये। क्योंकि ड्रामा अनुसार वृद्धि होने की अनादि नूंध थी।
वैसे भी ज्यादा स्थान पर अगर रोशनी फैलानी होती है तो क्या करते हैं? ऊँची रोशनी करते हैं ना! सूर्य भी विश्व में रोशनी तब दे सकता है जब ऊँचा है। तो साकार सृष्टि को सकाश देने के लिए ब्रह्मा बाप को भी ऊँचे स्थान निवासी बनना ही था। अब तो सेकण्ड में जहाँ चाहें अपना कार्य कर सकते और करा सकते हैं। मुख द्वारा व पत्रों द्वारा कैसे इतना कार्य करते, इसलिए तीव्र विधि द्वारा बच्चों के सहयोगी बन कार्य कर रहे हैं। सबसे तीव्रगति की सेवा का साधन है - ‘संकल्प शक्ति'। तो ब्रह्मा बाप श्रेष्ठ संकल्प की विधि द्वारा वृद्धि में सदा सहयोगी है। तो वृद्धि की भी गति तीव्र हो रही है ना। विधि तीव्र है तो वृद्धि भी तीव्र है। बगीचे को देख खुशी होती है ना? अच्छा –
साकार बाबा का लौकिक परिवार
(नारायण तथा उनकी युगल)
सब कार्य ठीक चल रहे हैं? अभी जम्प कभी लगाते हो? इतनी वृद्धि को देख सहज विधि अनुभव में नहीं आती है? क्या सोच रहे हो? संकल्प की ही तो बात है ना? और कुछ करना है क्या? संकल्प किया और हुआ। यह (विदेशी) इतना दूर-दूर से पहुँच गये हैं, किस आधार पर? संकल्प किया - जाना ही है, करना ही है, तो पहुँच गये ना। तो दूर से दृढ़ संकल्प के आधार पर अधिकारी बन गये। आप तो बचपन के अधिकारी हो। याद है बचपन? तो क्या करेंगे? देखेंगे या उड़ती कला में जाकर बाप समान फरिश्ता बनेंगे? देख तो रहे ही हो। देखेंगे कब तक? सोचेंगे भी कब तक? 83 तक ? कब तक सोचना है? बापदादा उसी स्नेह के पंखों से बच्चों को उड़ाना चाहते हैं। तो पंखों पर बैठने के लिए भी क्या करना पड़े? डबल लाइट तो बनना पड़ेगा ना। सब कुछ करते भी तो डबल लाइट बन सकते हो। सिर्फ कल्पना का खेल है, बस! एक सेकण्ड का खेल है। तो सेकण्ड का खेल नहीं आता है? बाप ने क्या किया? सेकण्ड में खेल किया ना? जब दोनों एक दो के सहयोगी होंगे तब कर सकेंगे। एक पहिया भी नहीं चल सकता। दोनों पहिए चाहिए। फिर भी बापदादा के घर में आते हो। बापदादा तो बच्चों को सदा ऊपर देखते हैं। ऊँचा बाप बच्चों को भी ऊँचा देखने चाहते हैं। यह तो कायदा है ना! अभी बच्चे कहाँ सीट लेते हैं वह आपके हाथ में है। सोच लो भले अच्छी तरह से लेकिन है सेकण्ड की बात। सौदा करना तो सेकण्ड में है। अच्छा
20-01-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
"प्रीत की रीत न्न्निभाने का सहज तरीका"
शिव शमा अपने परवानों के प्रति बोले:-
‘‘आज शमा अपने परवानों के रूहानी महफिल में आये हैं। यह रूहानी महफिल कितनी अलौकिक और श्रेष्ठ है। शमा भी अविनाशी है, परवाने भी अविनाशी हैं और शमा-परवानों की प्रीति भी अविनाशी है। इस रूहानी प्रीति को शमा और परवानों के सिवाए और कोई जान नहीं सकता। जिन्होंने जाना उन्होंने प्रीत निभाया और उन्होंने ही सब कुछ पाया। प्रीत की रीति निभाना अर्थात् सब कुछ पाना। निभाना नहीं आता तो पाना भी नहीं आता। इस प्रीत के अनुभव जानें कि यह प्रीत की रीत निभाना कितना सहज है! प्रीत की रीत क्या है, जानते हो ना? सिर्फ दो बातों की रीत है। और वह भी इतनी सरल है जो सब जानते भी हैं और सब कर भी सकते हैं। वह दो बातें हैं - ‘गीत गाना और नाचना'। इसके सब अनुभवी हो ना? गाना और नाचना तो सबको पसन्द है ना? तो यहाँ करना ही क्या है? अमृतवेले से गीत गाना शुरू करते हो। दिनचर्या में भी उठते ही गीत से हो। तो बाप के वा अपने श्रेष्ठ जीवन की महिमा के गीत गाओ। ज्ञान के गीत गाओ। सर्व प्राप्तियों के गीत गाओ। यह गीत गाना नहीं आता? आता है ना? तो गीत गाओ और खुशियों में नाचो। खुशियों में नाचते-नाचते हर कर्म करो। जैसे स्थूल डांस में भी सारे शरीर की डांस हो जाती है। ड्रिल हो जाती है। भिन्न-भिन्न पोज से डांस करते हो। वैसे खुशी के डांस में भिन्न-भिन्न कर्मों के पोज करते। कभी हाथ से कोई कर्म करते, कभी पाँव से करते हो तो यह काम नहीं करते हो लेकिन भिन्न-भिन्न डांस के पोज करते हो। कभी हाथ की डांस करते हो, कभी पाँव को नचाते हो। तो कर्मयोगी बनना अर्थात् भिन्न-भिन्न प्रकार की खुशी में नाचते चलो। बापदादा को वा शमा को वही परवाना पसन्द है जो गाना और नाचना जानता हो। यही प्रीत की रीत है। तो यह तो मुश्किल नहीं है ना? क्या लगता है - सहज या मुश्किल? अभी मधुबन में तो इजी-इजी कर रहे हो, वहाँ जाकर भी इजी-इजी कहेंगे ना? बदल तो नहीं जायेंगे वहाँ जाकर? (यहाँ इजी हैं वहाँ बिजी हो जायेंगे) लेकिन इसी गाने और नाचने में ही बिजी रहेंगे ना?
सदा कानों में यही मीठा साज सुनते रहना। क्योंकि गाने और नाचने के साथ साज भी तो चाहिए ना! कौन-सा साज सुनते रहेंगे? (मुरली) मुरली का भी ‘सार' जो हर मुरली में बापदादा मीठे बच्चे, लाडले बच्चे, सिकीलधे बच्चे कहकर याद-प्यार देते हैं। यही बाप के स्नेह का साज सदा कानों में सुनते रहना। तो और बातें सुनते भी समझ में नहीं आयेंगी, बुद्धि में नहीं आयेंगी। क्योंकि एक ही साज सुनने में बिजी होंगे ना तो दूसरा सुनेंगे कैसे! ऐसे ही सदा गीत गाने में बिजी होंगे तो और व्यर्थ बातें मुख से बोलने की फुर्सत ही नहीं। सदा बाप के साथ खुशी में नाचते रहेंगे तो तीसरा कोई डिस्टर्ब कर नहीं सकता। दो के बीच में कोई आ नहीं सकता। तो मायाजीत तो हो ही गये ना! न सुनना, न बोलना, न माया का आना। तो प्रीत की रीति क्या हुई? - गाना और नाचना। जब दोनों से थक जाओ तो तीसरी बात है, सो जाना। यहाँ का सोना क्या है? सोना अर्थात् कर्म से डिटैच हो जाना। तो आप कर्मेन्द्रियों से डीटैच हो जाओ। अशरीरी बनना अर्थात् सो जाना। याद ही बापदादा की गोदी है। तो जब थक जाओ तो अशरीरी बन, अशरीरी बाप की याद में खो जाओ अर्थात् सो जाओ। जैसे शरीर से भी बहुत गाते और नाचते हैं और थक जाते हैं तो जल्दी ही नींद आ जाती है, ऐसे यह रूहानी गीत गाते, खुशी में नाचते-नाचते सोयेंगे और खो जायेंगे। तो समझा - सारा दिन क्या करना है? और डबल फारेनर्स तो इसमें बहुत शौकीन है। तो जिस बात का शौक है वही करो, बस। सोते भी शौक से हैं। तो तीनों ही बातें करने आती है। तो समझा - प्रीत की रीति निभाने का सहज तरीका क्या है? अच्छा - अभी एक शब्द तो यहाँ डबल फॉरेनर्स छोड़कर जाना। कौन-सा? (सभी ने कोई न कोई बात सुनाई- कोई ने कहा उदासी, कोई ने कहा थकावट) अच्छा - इससे सिद्ध है कि जो बोल रहे हो वह अभी तक है। अच्छा - बोलना माना छोड़ना। तो एक शब्द - ‘डिपरेशन-डिपरेशन' कभी नहीं कहना। ‘रियलाइजेशन न कि डिपरेशन'। जो बाप को डायवोर्स देते हैं, वह डिपरेशन में आते है। आप तो बाप के सदा कम्पेनियन हो। तो डिपरेशन शब्द शोभता नहीं है। सेल्फ रियलाइजेशन हो गया, रियलाइजेशन हो गया फिर यह कैसे हो सकता! समझा - जब द्वापर पूरा हो जाए, कलियुग शुरू हो तब फिर भले होना। इतने समय के लिए तो तलाक दे दो इसको। अच्छा –
परिवर्तन भूमि में अविनाशी परिवर्तन करने वाले, सदा प्रीत की रीति निभाने वाले, शमा के दिलपसन्द परवाने, सदा रूहानी गीत गाने वाले, खुशी में नाचते रहने वाले, जब चाहें बाप की गोदी में सो जाने वाले, ऐसे सिकीलधे, लाडले बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।''
टीचर्स के साथ-अव्यक्त बापदादा की मुलाकात
(डबल विदेशी टीचर्स)
सभी ने सेवा का सबूत अपने-अपने शक्ति प्रमाण दिया है और देते रहेंगे? सेवाधारी अर्थात् हर सेकण्ड, हर श्वांस, हर संकल्प में विश्व की स्टेज पर पार्ट बजाने वाले। तो सदा स्वयं को विश्व की स्टेज पर हीरो पार्ट बजाने वाली श्रेष्ठ आत्मायें हैं, यह समझकर चलते रहो। यह भी ड्रामा में चांस मिला है। तो दूसरे के निमित्त बनने से स्वयं स्वत: ही उसी बातों के अटेन्शन में रहते। इसलिए सदा अपने को बापदादा के साथी हैं, सेवा पर उपस्थित हैं, इस स्मृति में रहकर हर कार्य करते रहना। सदा आगे बढ़ते चलेंगे और बढ़ाते चलेंगे। हिम्मत अच्छी रखी है, मदद भी बाप की मिल रही है और मिलती रहेगी। निमित्त शिक्षक बनना वा रूहानी सेवाधारी बनना अर्थात् फादर को फालो करना। इसलिए बाप समान बाप के सिकीलधे। बापदादा भी सेवाधारियों को देख खुश होते हैं। सभी सदा अपने को निमित्त समझकर चलना और नम्रचित्त होकर चलना। जितना निमित्त और नम्रचित्त होकर चलेंगे उतनी सेवा में सहज वृद्धि होगी। कभी भी मैंने किया, मैं टीचर हूँ, यह ‘‘मैं'' का भाव नहीं रखना। इसको कहा जाता है सर्विस करने के बजाए सर्विस मे रूकती कला आने का आधार। चलते-चलते कभी सर्विस कम हो जाती है या ढीली होती है, उसका कारण विशेष यही होता है जो निमित्त के बजाए मैं-पन आ जाता है और इसके कारण ही सर्विस ढीली हो जाती है, फिर अपनी खुशी और अपना नशा ही गुम हो जाता है। तो कभी भी न स्वयं इस स्मृति से दूर होना, न औरों को बाप से वर्सा लेने से वंचित करना। दूसरी बात कि सदा यह स्लोगन याद रखना - कि स्व परिवर्तन से किसी भी परिवार की आत्मा को भी बदलना है और विश्व को भी बदलना है। स्व परिवर्तन के ऊपर विशेष अटेन्शन। तो सेवा स्वत: ही वृद्धि को पायेगी। घटने का कारण भी समझा और बढ़ाने का आधार भी समझा। तो सदा खुशी में आगे बढ़ते जायेंगे और औरों को भी खुशी में लाते रहेंगे। समझा!
तो नम्बरवन योग्य टीचर वा नम्बरवन सेवाधारियों की लाइन में आ जायेंगे। तो डबल विदेशी सभी नम्बरवन टीचर हो ना! मेहनत अच्छी कर रहे हो और मुहब्बत भी अच्छी है। सबूत भी लाया है। हरेक बच्चा सेवाधारी अर्थात् टीचर है। चाहें सेवाकेन्द्र पर रहे, चाहें जहाँ भी रहे लेकिन सेवाधारी हैं। क्योंकि ब्राह्मणों का आक्यूपेशन ही है - ‘सेवाधारी'। किसको सेवा का क्या पार्ट मिला है, किसको क्या... कोई को लाने की सेवा करनी है, कोई को सुनाने की, कोई को भोग बनाने की तो कोई को भोग लगाने की... सब सेवाधारी हैं। बापदादा सभी को सेवाधारी ही समझते हैं।
(83 के कांफ्रेंस के लिए सभी ने नये-नये प्लैन बनाये हैं, वह बापदादा को सुना रहे हैं)
प्लैन बनाने में मेहनत की है उसके लिए मुबारक। यह भी बुद्धि चलाई अर्थात् अपनी कमाई जमा की। तो मीटिंग नहीं की लेकिन जमा किया। सदा निर्विघ्न, सदा विघ्न-विनाशक और सदा सन्तुष्ट रहना तथा सर्व को सन्तुष्ट करना। यही सर्टीफिकेट सदा लेते रहना। यही सर्टीफिकेट लेना अर्थात् तख्तनशीन होना। सन्तुष्ट रहने का और सर्व को सन्तुष्ट करने का लक्ष्य रखो। दोनों का बैलेन्स रखो। अच्छा - जो प्लैन बनाये हैं - वह सब प्रैक्टिकल में लाना। वी. आई. पीज का संगठन लेकर आना।
22-01-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“बधाई और विदाई दो”
अव्यक्त बापदादा अलौकिक जन्मधारी विशेष आत्माओं के प्रति बोले:-
‘‘आज विश्व कल्याणकारी बापदादा विश्व के चारों ओर के बच्चों को सम्मुख देख रहे हैं। सभी बच्चे अपने याद की शक्ति से आकारी रूप में मधुबन पहुँचे हुए हैं। हरेक बच्चे के अन्दर मिलन मनाने का शुभ संकल्प हैं। बापदादा सर्व बच्चों को देख-देख हर्षित हो रहे हैं क्योंकि बापदादा हरेक बच्चे की विशेषता को जानते हैं। उसी विशेषता के आधार पर हरेक अपना-अपना विशेष पार्ट बजा रहे हैं। यही ब्राह्मण आत्माओं की वा ब्राह्मण परिवार में नवीनता है जो एक भी ब्राह्मण आत्मा विशेषता के सिवाए साधारण नहीं है। सभी ब्राह्मण अलौकिक जन्मधारी, अलौकिक हैं। इसलिए सभी अलौकिक अर्थात् कोई न कोई विशेषता के कारण विशेष आत्मा हैं। विशेषता की अलौकिकता है। इसलिए बापदादा को बच्चों पर नाज़ है। सब विशेष आत्मायें हो। ऐसे ही अपने में इस अलौकिक जन्म का, अलौकिकता का, रूहानियत का, मास्टर सर्वशक्तिवान का नशा अपने में समझते हो? यह नशा सर्व प्रकार की कमज़ोरियों को समाप्त करने वाला है। तो सदा के लिए सर्व कमज़ोरियों को विदाई देने का मुख्य साधन, सदा स्वयं को और सर्व को संगमयुगी विशेष आत्मा के विशेष पार्ट की बधाई दो। जैसे कोई भी विशेष दिन होता है वा कोई विशेष कार्य करता है तो क्या करते हो? उसको बधाई देते हो ना, एक दो को बधाई देते हो। तो सारे कल्प में संगमयुग का हर दिन विशेष दिन है और आप विशेष युग के विशेष पार्टधारी हो। इसलिए आप विशेष आत्माओं का हर कर्म अलौकिक अर्थात् विशेष है। तो सदा आपस में भी मुबारक दो और स्वयं को भी मुबारक दो, बधाई दो। जहाँ बधाई होगी वहाँ विदाई हो ही जायेगी। तो इस डबल विदेशियों की सीजन का सार यही याद रखो - ‘‘सदा बधाई द्वारा विदाई दे देना है।'' यहाँ आये ही हो विदाई दे बधाईयाँ मनाने के लिए तो ‘विदाई और बधाई' यही दो शब्द याद रखना। विदाई देनी है, नहीं, विदाई दे दी। वरदान भूमि में आना अर्थात् सदा के लिए कमज़ोरियों को विदाई देना। रावण को तो जला देते हो लेकिन रावण के वंश अपना दांव लगाते हैं। जैसे आपकी साकारी दुनिया में कोई बड़ी प्रॉपर्टी वाला शरीर छोड़ता है तो उनके भूले भटके हुए सम्बन्धी भी आकर निकलते हैं।
ऐसे रावण को तो मार लेते हो लेकिन उनके वंश जो अपना हक लेने के लिए सामना करते हैं, उस वंश को विनाश करने में कभी-कभी कमजोर हो जाते हो। जैसे काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार इन्हों के वंश अर्थात् अंश बड़े रायल रूप से अपना बना देते हैं। जैसे लोभ का अंश है - आवश्यकता। लोभ नहीं है लेकिन आवश्यकता सब है। आवश्यकता की भी हद है। अगर आवश्यकता बेहद में चली जाती है तो लोभ का अंश हो जाता है।
ऐसे काम विकार नहीं है, सदा ब्रह्मचारी हैं लेकिन किसी आत्मा के प्रति विशेष झुकाव है जिसका रायल रूप स्नेह है। लेकिन एकस्ट्रा स्नेह अर्थात् काम का अंश। स्नेह राइट है लेकिन ‘‘एकस्ट्रा'' अंश है।
इसी प्रकार क्रोध को भी जीत लिया है लेकिन किसी आत्मा के कोई संस्कार देखते हुए स्वयं अन्दर ज्ञान स्वरूप से नीचे आ जाते और उसी आत्मा से किनारा करने का प्रयत्न करते, क्योंकि उसको देख उसके सम्पर्क में रहते अवस्था नीचे ऊपर होती है इसलिए स्वभाव को देख किनारा करना, यह भी घृणा अर्थात् क्रोध का ही अंश है। जैसे क्रोध अग्नि से जलने के कारण दूर रहते हैं, तो यह सूक्ष्म घृणा भी क्रोध के अग्नि के समान, किनारा करा देती है। इसका रायल शब्द है - अपनी अवस्था को खराब करें इससे किनारा करना अच्छा है। न्यारा बनना और चीज है, किनारा करना और चीज है। प्यारे बन न्यारे बनते हो,वह राइट है। लेकिन सूक्ष्म घृणा भाव - ‘‘यह ऐसा है, यह तो बदलना ही नहीं है।'' ऐसे सदा के लिए उसको सूक्ष्म में श्रापित करते हो। सेफ रहो लेकिन उसको सर्टीफिकेट फाइनल नहीं दो। ऐसे ही विशेषता को देखते हुए सदा सर्व के प्रति श्रेष्ठ भावना और श्रेष्ठ कामना रखते हुए इस अंश को भी विदाई दो। अपनी श्रेष्ठ भावना और श्रेष्ठ कामना को छोड़ो नहीं, अपना बचाव करते हुए दूसरी आत्माओं को गिरा करके अपना बचाव नहीं करो। यह घृणा भाव अर्थात् गिराना। दूसरे को गिरा करके अपने को बचाना यह ब्राह्मणों की विशेषता नहीं। खुद को भी बचाओ, दूसरे को भी बचाओ। इसको कहा जाता है - विशेष बनना और विशेषता देखना। यह छोटी-छोटी बातें चलते-चलते दो स्वरूप धारण कर लेती हैं - एक दिलशिकस्त और दूसरा अलबेला। तो अभी रावण के अंश को सदा के लिए विदाई देने के लिए इन दोनों रूपों को विदाई दो। और सदा अपने में बाप द्वारा मिली हुई विशेषता को देखो। मेरी विशेषता नहीं, बाप द्वारा मिली हुई विशेषता है। मेरी विशेषता सोचेंगे फिर अहंकार का अंश आ जायेगा। मेरी विशेषता से काम क्यों नहीं लिया जाता, मेरी विशेषता को जानते ही नहीं है! ‘‘मेरी'' कहाँ से आई? विशेष जन्म की गिफ्ट है विशेषता पाना। तो जन्म दाता ने गिफ्ट दी, ‘‘मेरी'' कहाँ से आई? मेरी विशेषता, मेरी नेचर, मेरी दिल यह कहती है, वा मेरी दिल यह करती है, यह मेरी नहीं है लेकिन वरी (चिंता) है। आप लोग कहते हो ना - वरी, हरी, करी। समझा - यही अंश समाप्त करो और सदा बाप द्वारा मिली हुई स्वयं की विशेषता और सर्व की विशेषता देखो अर्थात् सदा स्वयं को और सर्व को बधाई दो। सबका अंश समझ लिया ना? अभी मोह का अंश क्या है? नष्टोमोहा नहीं हुए हो क्या? अच्छा - मोह का रायल रूप कोई भी वस्तु व व्यक्ति अच्छा लगता है, यह, यह चीज मुझे अच्छी लगती है, मोह नहीं लेकिन अच्छी लगती है। अगर किसी भी व्यक्ति या वस्तु में अच्छा लगता तो सब अच्छा लगना चाहिए - चत्तियों वाले कपड़े भी अच्छे तो बढ़िया कपड़ा भी अच्छा। 36 प्रकार के भोजन भी अच्छे तो सूखी रोटी और गुड़ भी अच्छा। हर वस्तु अच्छी, हर व्यक्ति अच्छा। ऐसे नहीं - यह ज्यादा अच्छा लगता है! यह वस्तु ज्यादा अच्छी लगती है ऐसा समझकर कार्य में नहीं लगाओ। दवाई है, दवाई करके भले खाओ। लेकिन अच्छा लगता है इसलिए खाओ, यह नहीं। अच्छा अर्थात् अट्रैक्शन जायेगी। तो यह है मोह का अंश। खाओ, पियो, मौज करो लेकिन अंश को विदाई दे करके न्यारे बन प्रयोग करने में प्यारे बनो। समझा! - बापदादा के भण्डारे से स्वत: ही सर्व प्रमाण, सर्व प्राप्ति का साधन बना हुआ है, खूब खाओ लेकिन बाप के साथ-साथ खाओ, अलग नही खाओ। बाप के साथ खायेंगे, बाप के साथ मौज मनायेंगे तो स्वत: ही सदा ‘लकीर के अन्दर अशोक वाटिका में होंगे'। जहाँ रावण का अंश आ नहीं सकता। खाओ, पियो, मौज करो लेकिन लकीर के अन्दर और बाप के साथ-साथ। फिर कोई बात मुश्किल नहीं लगेगी। हर बात मनोरंजन अनुभव होगी। समझा क्या करना है? सदा मनोरंजन करो। अच्छा - डबल विदेशी सदा मनोरंजन की विधि समझ गये? मुश्किल तो नही लगता ना? बाप के साथ बैठ जाओ तो कोई मुश्किल नहीं - हर घड़ी मनोरंजन अनुभव करेंगे। हर सेकण्ड स्व प्राप्ति और सर्व प्रति बधाई के बोल निकलते रहेंगे। तो विदाई देकर जाना है ना। साथ में तो नहीं ले जायेंगे ना? यह सर्व अंश को विदाई दे बधाई मनाके जाना। तैयार हो ना सभी डबल विदेशी। अच्छा बापदादा भी ऐसे सदाकाल की विदाई देने वालों को बधाई दे रहे हैं। पद्म-पद्म विदाई की बधाई। अच्छा-
ऐसे सदा मन्मनाभव अर्थात् सदा मनोरंजन करने वाले, सदा एक बाप मे सारा संसार अनुभव करने वाले, ऐसे विशेषतायें देखने वाले विशेष आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।''
सेवाधारियों से:- सेवाधारियों को मधुबन से क्या सौगात मिली? प्रत्यक्षफल भी मिला और भविष्य प्रालब्ध भी जमा हुई। तो डबल सौगात हो गई। खुशी मिली, निरन्तर योग के अभ्यासी बने, यह प्रत्यक्षफल मिला। लेकिन इसके साथसाथ भविष्य प्रालब्ध भी जमा हुई। तो डबल चांस मिला। यहाँ रहते सहजयोगी, कर्मयोगी, निरन्तर योगी का अभ्यास हो गया है। यही संस्कार अब ऐसे पक्के करके जाओ जो वहाँ भी यही संस्कार रहें। जैसे पुराने संस्कार न चाहते भी कर्म में आ जाते हैं ऐसे यह संस्कार भी पक्के करो। तो संस्कारों के कारण यह अभ्यास चलता ही रहेगा। फिर माया विघ्न नहीं डालेगी क्योंकि संस्कार बन गये। इसलिए सदा इन संस्कारों को अन्डरलाइन करते रहना। फ्रेश करते रहना। यहाँ रहते निर्विघ्न रहे? कोई विघ्न तो नहीं आया? कोई मन से भी आपस में टक्कर वगैरा तो नहीं हुआ? संगठन में भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हुए भी ‘‘सी फादर'' किया या सी ब्रदर-सिस्टर भी हो गया? जो सदा सी फादर करने वाले हैं वे बापदादा के समीप बच्चे हैं। और जो सी फादर के साथ- सी सिस्टर-ब्रदर कर देते वह समीप के बच्चे नहीं, दूर के हैं। तो आप सब कौन हो? समीप वाले हो ना? तो सदा इसी स्मृति में चलते चलो। बाहर रहते हुए भी यही पाठ पक्का करो - ‘‘सी फादर या फालो फादर'', फालो फादर करने वाले कभी भी किसी परिस्थिति में डगमग नहीं होंगे क्योंकि फादर कभी डगमग नहीं हुआ है ना। तो सी फादर करने वाले अचल, अडोल, एकरस रहेंगे। अच्छा - सब आशायें पूरी हुई? सभी ने अपनी-अपनी सेवा में अच्छा पार्ट बजाया है। अच्छा पार्ट बजाने की निशानी है - हर वर्ष आपे ही निमंत्रण आयेगा। यह है प्रैक्टिकल यादगार बनाना। वह यादगार तो बनेगा ही लेकिन अभी भी बन जाता है। कोई अच्छी सेवा करके जाते हैं तो सबके मुख से यही निकलता कि - उसी को बुलाओ। तो ऐसा सबूत दिखाना चाहिए- जो सेवाधारी से सदा के सेवाधारी बन जाओ - सब कहे इन्हें यहाँ ही रख लो। अच्छा –
मधुबन निवासियों से- मधुबन निवासी तो हैं ही सर्व प्राप्ति स्वरूप। क्योंकि मधुबन की महिमा, मधुबन की विशेष पढ़ाई, मधुबन का विशेष संग, मधुबन का विशेष वायुमण्डल सब आपको प्राप्त है। मधुबन में बाहर वाले अपनी सब इच्छायें पूर्ण करने आते हैं और आप तो यहाँ बैठे ही हो। शरीर से भी बापदादा के सदा साथ हो क्योंकि मधुबन में सभी साथ का अनुभव साकार रूप में करते हैं। तो शरीर से भी साथ हो अर्थात् साकार में भी साथ हो और आत्मा तो है ही बाप के साथ। तो डबल साथ हो गया ना? सर्व प्रकार की खानों पर बैठे हो। तो सर्व खानों के मालिक हो गये ना! मधुबन वालों के मन से हर सेकण्ड, हर श्वांस यही गीत निकलना चाहिए कि - ‘पाना था वह पा लिया, अप्राप्त नही कोई वस्तु भण्डारे में'। मधुबन वाले तो सदा ताजा माल खाने वाले हैं। तो जो सदा ताजा खाने वाले होते हैं वह कितने हेल्दी होंगे। आप सब वरदानी आत्मायें हो, सदा बापदादा की पालना में पलते हो। बाहर वालों को तो दूसरे वातावरण में जाना पड़ता है इसलिए खास उन्हों को कोई न कोई वरदान देना पड़ता, आप तो वरदान भूमि में बैठे हो। बाहर वालों को तो एक वर्ष के लिए रिफ्रेशमेन्ट चाहिए।
इसलिए आप लोगों से एक-एक से बापदादा क्या बोलें। उनको तो कहते हैं लाइट हाउस होकर रहना, माइट हाउस होकर रहना। क्या आपको भी यह बोलें? बाहर वालों को इस बात की आवश्यकता है क्योंकि यही उनके लिए कमलपुष्प बन जाता है जिस पर न्यारे और प्यारे बनकर रहते हैं। वैसे भी घर में कोई आता है तो उसका ख्याल करना ही होता है। आप तो सदा ही घर में हो। उन्हों को डबल पार्ट बजाना है इसलिए डबल फोर्स भरना पड़ता है। उन्हों के लिए यह एक-एक शब्द संसार के सागर में नाव का काम करता है और आप तो संसार सागर से निकल ज्ञान सागर के बीच में बैठे हो। आपका संसार ही बाप है।
प्रश्न- बाबा में ही संसार है, इसका भाव क्या है?
उत्तर- वैसे भी बुद्धि जाती है तो संसार में ही जाती है ना! संसार में दो चीजें हैं - एक व्यक्ति दूसरा, वस्तु। बाप ही संसार है अर्थात् सर्व व्यक्तियों से जो प्राप्ति है वह एक बाप से है। और जो सर्व वस्तुओं से तृप्ति होती है वह भी बाप से है। तो संसार हो गया ना। सम्बन्ध भी बाप से, सम्पर्क भी बाप से। उठना, बैठना भाr बाप से। तो संसार ही बाप हो गया ना। अच्छा –
आस्ट्रेलिया पार्टी से- आज सभी ने क्या संकल्प किया? सभी ने माया को विदाई दी? जिन्हों को अभी भी सोचना है वह हाथ उठाओ। अगर अभी से कहते हो सोचेंगे तो यह भी कमजोर फाउण्डेशन हो गया। सोचेंगे अर्थात् कमजोरी। ब्रह्माकुमार कुमारियों का धन्धा ही है मायाजीत बनना और बनाना। तो अपना निजी धन्धा- जो है उसके लिए सोचा जाता है क्या! बोलो हुआ ही पड़ा है। जैसे देखो अगले वर्ष दृढ़ संकल्प रखकर गये कि अनेक स्थानों पर सेवाकेन्द्र खोलेंगे तो खुल गये ना! अभी कितने सेन्टर हैं? 17, तो जैसे यह संकल्प किया और पूरा हुआ। ऐसे मायाजीत बनने का भी संकल्प करो। बापदादा तो बच्चों की हिम्मत पर बार-बार मुबारक देते हैं। और भी आगे सेवा में वृद्धि करते रहना। सभी बापदादा के दिल पसन्द बच्चे हो। बापदादा भी आप साथियों के बिना कुछ नहीं कर सकते। आप बहुत-बहुत वैल्युएबल हो। अच्छा - अभी रूह-रूहान करो, जो पूछना है पूछो।
07-03-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“संकल्प की गति धैर्यवत होने से लाभ”
सर्वगुणों के सागर शिव बाबा बोले:-
‘‘आज बापदादा अपने ‘एक बाप दूसरा न कोई' ऐसे एकनामी, एकरस स्थिति में स्थित होने वाले स्मृति स्वरूप बच्चों से मिलने आये हैं। हर बच्चे के मरजीवा जन्म की श्रेष्ठ रेखायें बापदादा देख रहे हैं। आजकल की दुनिया में विशेष हस्त रेखायें देखने से आत्मा के भाग्य का वर्णन करते हैं वा गुण, कर्त्तव्य की श्रेष्ठता का वर्णन करते हैं। लेकिन बापदादा हस्त रेखायें नहीं देखते हैं। हरेक बच्चे के मुख, नयन और मस्तक इन द्वारा हरेक की स्पीड और स्टेज की रेखायें देख रहे हैं। वैसे भी फेस द्वारा ही मनुष्य, आत्मा को परखने की कोशिश करते हैं। वे लोग देह अभिमानी होने के कारण स्थूल बातों को चेक करते हैं। बापदादा मस्तक द्वारा स्मृति स्वरूप को देखते हैं। नयनों द्वारा ज्वाला रूप को देखते हैं, मुख की मुस्कान द्वारा न्यारे और प्यारेपन की कमल पुष्प समान स्थिति को देखते हैं। जो सदा स्मृति स्वरूप रहते, उनकी रेखायें सदा मस्तक में संकल्पों की गति धैर्यवत होगी। किसी भी प्रकार का बोझ नहीं होगा। प्रेशर नहीं होगा। एक मिनट में एक संकल्प द्वारा अनेक संकल्पों को जन्म नहीं देंगे। जैसे शरीर में कोई भी बीमारी को नब्ज की गति से चेक करते हैं ऐसे संकल्प की गति, यह मस्तक की रेखा की पहचान है। अगर संकल्प की गति बहुत तीव्र गति में है, एक से एक, एक से एक संकल्प चलते ही रहते हैं तो संकल्पों की गति अति तीव्र होना, यह भी भाग्य की एनर्जी को वेस्ट करना है। जैसे मुख द्वारा अति तीव्र गति से और सदा ही बोलते रहने से शरीर की शक्ति वा एनर्जी वेस्ट होती है। कोई सदा बोलते ही रहते हैं, ज्यादा बोलते हैं, जोर से बोलते तो उसको क्या कहते हो? - धीरे बोलो, कम बोलो। ऐसे ही संकल्पों की गति रूहानी एनर्जी को वेस्ट करती है। सभी बच्चे अनुभवी हैं- जब व्यर्थ संकल्प चलते हैं तो संकल्पों की गति क्या होती है। और जब ज्ञान का मनन चलता है तो संकल्पों की गति क्या होती है? वह एनर्जी वेस्ट करता है, वह एनर्जी बनाता है। व्यर्थ संकल्प की तेज गति होने के कारण अपने आपको शक्ति स्वरूप कभी अनुभव नहीं करेंगे। जैसे शरीर की शक्ति गायब होने से वर्णन करते हो कि आज हमारा माथा खाली- खाली है। ऐसे आत्मा सर्व प्राप्तियों से अपने को खाली-खाली अनुभव करती है।
जैसे शारीरिक शक्ति के लिए इन्जेक्शन लगाकर ताकत भरते हैं वा ग्लूकोज की बोतल चढ़ाते हैं, ऐसे रूहानियत से कमजोर आत्मा पुरूषार्थ की विधि स्मृति में लाती है - मैं मास्टर सर्वशक्तिवान हूँ, आज मुरली में बापदादा ने क्या-क्या पॉइंटस सुनाये, व्यर्थ संकल्प का ब्रेक क्या है! बिन्दी लगाने का प्रयत्न करना, तो यह हुआ इन्जेक्शन लगाना। ऐसे पुरूषार्थ की विधि के इन्जेक्शन द्वारा कुछ समय शक्तिशाली हो जाते हैं वा विशेष याद के प्रोग्राम्स द्वारा वा विशेष संगठन और संग द्वारा ग्लूकोज चढ़ा लेते हैं। लेकिन संकल्प की गति फास्ट के अभ्यासी थोड़े समय की शक्ति भरने से कुछ समय तो अपने को शक्तिवान अनुभव करेंगे लेकिन फिर भी कमजोर बन जायेंगे। इसलिए बापदादा मस्तक की रेखाओं द्वारा रिजल्ट देखते हुए फिर से बच्चों को यही श्रीमत याद दिलाते हैं कि संकल्प की गति अति तीव्र नहीं बनाओ। जैसे मुख के बोल के लिए कहते हैं कि दस शब्द के बजाए दो शब्द बोलो, जो दो शब्द ही ऐसे समर्थ हो जो 100 बोल का कार्य सिद्ध कर दें। ऐसे संकल्प की गति, संकल्प भी वही चले जो आवश्यक हो। संकल्प रूपी बीज सफलता के फल से सम्पन्न हो। खाली बीज न हो जिससे फल न निकले। इसको कहा जाता है सदा समर्थ संकल्प हो। व्यर्थ न हो। समर्थ की संख्या स्वत: ही कम होगी लेकिन शक्तिशाली होगी और व्यर्थ की संख्या ज्यादा होगी प्राप्ति कुछ भी नहीं। व्यर्थ संकल्प ऐसे समझो जैसे बट (बांस) का जंगल। जो एक से अनेक स्वत: पैदा होते जाते हैं और आपस में टकरा कर आग लगा देते हैं। और स्वयं ही अपनी आग में भस्म हो जाते हैं। ऐसे व्यर्थ संकल्प भी एक दो से टकराकर कोई-न-कोई विकार की अग्नि प्रज्वलित करते हैं और स्वयं ही स्वयं को परेशान करते हैं। इसलिए संकल्प की गति धैर्यवत बनाओ। इस मरजीवे जन्म का खजाना कहो वा विशेष एनर्जी कहो, वह है ही - ‘संकल्प'। मरजीवे बनने का आधार ही शुद्ध संकल्प है। ‘‘मैं शरीर नहीं आत्मा हूँ'', इस संकल्प ने कौड़ी से हीरे तुल्य बना दिया ना! ‘‘मैं कल्प पहले वाला बाप का बच्चा हूँ, वारिस हूँ, अधिकारी हूँ'', इस संकल्प ने मास्टर सर्वशक्तिवान बनाया। तो खजाना भी यही है, एनर्जी भी यही तो संकल्प भी यही है। विशेष खजानों को कैसे यूज़ किया जाता है, ऐसे अपने संकल्प के खजाने वा एनर्जी को पहचान, ऐसे कार्य में लगाओ तब ही सर्व संकल्प सिद्ध होंगे और सिद्ध स्वरूप बन जायेंगे। तो समझा आज क्या रेखायें देखी? कम सोचो अर्थात् सिद्धि स्वरूप संकल्प करो। ऐसी रेखा वाले सदा बेगमपुर के बादशाह होंगे। मुख से सदैव महावाक्य बोलो। महावाक्य गिनती के होते हैं। जैसे महान आत्मायें गिनती की होती, आत्मायें अनेक होतीं और परमात्मा एक होता है। तो दोनों एनर्जी - संकल्प की और वाणी की व्यर्थ खर्च नहीं करो। महावीर महारथी अर्थात् मुख द्वारा महावाक्य बोलने वाले, बुद्धि द्वारा सिद्धि स्वरूप संकल्प करने वाले, यह निशानी है महावीर वा महारथी की। ऐसे महारथी बनो जो कोई भी सामने आये तो यही इच्छा रखे कि यह महान आत्मा मेरे प्रति श्रेष्ठ संकल्प सुनाये, आशीर्वाद के दो बोल बोले। आशीर्वाद के बोल सदा कम होते हैं। जो आप महारथी महावीर देवात्मायें, भक्तों की पूज्य आत्मायें हो। सदा संकल्प और बोल से आशीर्वाद के संकल्प और बोल बोलो। अमृतवाणी बोलो। लौकिक वाणी नहीं। अच्छा-
सदा महान संकल्प द्वारा स्वयं को और सर्व को शीतल बनाने वाले, वाणी द्वारा सदा आशीर्वाद के बोल बोलने वाले, ऐसे श्रेष्ठ रेखाओं वाले, सदा श्रेष्ठ आत्माओं को, महान आत्माओं को, देव आत्माओं को, पूज्य आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।''
विदेशी बच्चों से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात
बापदादा के सदा स्नेही, सदा सहयोगी और सदा सेवाधारी सर्विसएबल रत्न हो ना? हरेक रत्न कितना अमूल्य है जो विश्व के शो केश के बीच रखने वाला है। बापदादा जानते हैं कि कितनी ऊँची-ऊँची अनेक प्रकार की दीवारों को पार कर बाप के बने हैं! धर्म की दीवार, रीति रस्म की दीवार, ऐसे कितनी दीवारें पार की? लेकिन बाप के सहयोग के कारण इतनी ऊँची दीवारें भी ऐसे पार की जैसे एक कदम उठाया। कोई भी मुश्किल नहीं। इतना सहज लगा जो समझते हो कि हम तो थे ही बाप के। अगर आप सब बाप के नहीं बनते तो विदेश में इतने सेन्टर क्यों खुलते? सेवा के अर्थ अपने-अपने स्थान पर पहुँच गये थे, फिर से बाप ने आकर अपना बना लिया। तो अभी क्या समझते हो? मधुबन निवासी हो ना? आप सबका वोट मधुबन है। ऐसे समझते हो कि हम मधुबन निवासी सेवा पर गये हुए हैं? जैसे भारतवासी बच्चे भी और-और स्थान पर गये तो आप भी चले गये। हरेक बच्चे का भिन्न-भिन्न सर्विस का पार्ट है। अपनी हमजिन्स को जगाने के लिए कितना सहज सेवा के निमित्त बन गये। बापदादा वैरायटी स्थान के वैरायटी फूलों को देख बहुत खुश हैं। वैरायटी फूलों का एक वृक्ष हो जाए, ऐसा वृक्ष कभी देखा? एक वृक्ष के भिन्न-भिन्न प्रकार के गुलाब हो, फूल हो। सदा सिद्धि स्वरूप हो। क्योंकि बापदादा द्वारा वरदानी आत्मायें बन गये! तीन शब्द सदा याद रखो। एक - सदा बैलेन्स रखना है। दूसरा - सदा ब्लिसफुल रहना है। तीसरा - सर्व को ब्लैसिंग देना है। सेवा और स्व की सेवा दोनों का सदा बैलेन्स। बैलेन्स द्वारा कितनी कलायें दिखाते हैं। आप भी बुद्धि के बैलेन्स द्वारा सदा 16 कला सम्पन्न स्वरूप हो जायेंगे। आपका हर कर्म कला हो जायेगा। देखना भी कला! क्योंकि आत्मा होकर सुनते हो ना। ऐसे बोलना, चलना हर कदम में हर कर्म में कला। लेकिन इन सबका आधार है - ‘बुद्धि का बैलेंस'। ऐसे ही सदा ब्लिसफुल अर्थात् आनन्द स्वरूप। आनन्द के सागर के बच्चे सदा आनन्द स्वरूप। अच्छा - अब तो मिलते ही रहेंगे। संगमयुग है ही मेला। तो सदा मिलते ही रहेंगे। एक दिन भी बाप और बच्चों का मिलन न हो वा एक- एक सेकण्ड भी मिलन न हो ऐसा हो नहीं सकता। ऐसा अनुभव तो करते हो ना? सदा बाप के साथ-साथ कम्बाइन्ड हो ना? कम्बाइन्ड रूप से अलग करने की कोई को भी हिम्मत नहीं। किसी की भी ताकत नहीं। अच्छा-
09-03-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“होली मनाने और जलाने की अलौव्व्किक रीत्त्ति”
होली के उपलक्ष्य में अव्यक्त बापदादा के उच्चारे हुए महावाक्य: -
‘‘आज हाइस्ट बाप अपने होलीहंसों से मिलने आये हैं। हरेक होलीहंस की बुद्धि में सदा ज्ञान के मोती माणिक रतन भरे हुए हैं। ऐसे होलीहंस बापदादा को भी सारे कल्प में एक ही बार मिलते हैं। ऐसे विशेष होलीहंस से बापदादा सारा ही संगमयुग होली मनाते रहते हैं। संसारी लोग वर्ष में एक दो दिन होली मनाते लेकिन मनाने के साथ गंवाते भी हैं और आप होली हंस, मनाते भी हो तो कमाते भी हो, गंवाते नहीं हो। बापदादा से सभी बच्चे दूर बैठे भी होली मना रहे हैं। बापदादा के पास देश-विदेश के बच्चों का श्रेष्ठ स्नेह का संकल्प पहुँच रहा है। सभी बच्चों के नयनों और मस्तक की पिचकारी द्वारा प्रेम की धारा, अति स्नेह की सुगन्धित पिचकारी आ रही है। बापदादा भी रिटर्न में सर्व बच्चों को नयनों की पिचकारी द्वारा अष्ट शक्ति अर्थात् अष्ट रंगों की पिचकारी से खेल रहे हैं। बापदादा देख रहे हैं जैसे स्थूल रंगों द्वारा लाल रंग से लाल बना देते हैं। भिन्नभिन्न रंगों से भिन्न-भिन्न रूप बना देते हैं ऐसे हर शक्ति के रूहानी रंग से हर शक्ति स्वरूप बन जाते हैं, हर गुण स्वरूप हो जाते हैं। दृष्टि के द्वारा रूप परिवर्तन हो जाता है। ऐसी रूहानी होली मनाने के लिए आये हो ना?
बापदादा पुष्पों की वर्षा कर होली मनाने के बजाए हरेक बच्चे को सदा के लिए रूहाब द्वारा रूहानी गुलाब बना देते हैं। स्वयं ही पुष्प बन जाते हैं। ऐसी होली सिवाए बाप और बच्चों के कोई मना नहीं सकते हैं। जन्म लेते ही बाप ने होली मनाए होली बना दिया। तो वह है मनाने वाले और आप हो सदा ‘होली' बनने वाले। सदा हर गुण का रंग, हर शक्ति का रंग, स्नेह का रंग लगा हुआ ही है। ऐसे होली हंस हो ना! तिलक लगाने की भी जरूरत नहीं। हो ही सदा तिलकधारी। अविनाशी तिलक लगा हुआ ही है ना। जो मिटाते भी मिट नहीं सकता। अल्पकाल के बजाए सदाकाल मनाते रहते और औरों को भी बनाते रहते। वे लोग तो मंगल मिलन के लिए गले मिलते हैं लेकिन आप होली हंस बापदादा के गले का हार ही बन गये हो। सदा गले का हार बन चमकते हुए रत्न विश्व के आगे रोशनी फैला रहे हो। एक-एक रत्न ऐसे चमकते हुए लाइट स्वरूप हो जो हजारों बल्ब भी वह रोशनी नहीं दे सकते। ऐसे चमकते हुए रत्न - अपने लाइट माइट स्वरूप को जानते हो ना! सारे विश्व को अन्धकार से रोशनी में ले जाने वाले आप चमकते हुए रत्न हो। बापदादा ऐसे होली हंसों से विशेष दिन के प्रमाण रूहानी होली मना रहे हैं।
होली जलाई भी और मनाई भी। जलाना और मनाना दोनों ही आता है ना? जलाने के बाद ही मनाना होता है। संकल्प की तीली से, जो भी कुछ स्व प्रति वा सेवा प्रति व्यर्थ संकल्प अर्थात् कमज़ोरी के संकल्प संस्कार हैं, सबको इकट्ठे करके तीली लगा दो, इसी को ही सूखी लकड़ियाँ कहते हैं। तो सबको इकट्ठे करके दृढ़ संकल्प की तीली लगा दो। तो जलाना भी हो जायेगा। जलाना ही मनाना और बनना है। तीली लगाने आती है ना? तो जलाओ और मनाओ। अर्थात् स्व को सदा ‘होली' बनाओ। ऐसे तो नहीं तीली लगाते तो तीली लगती ही नहीं। तीली भी माचिस के सम्बन्ध बिना जलती नहीं। तो बाप के साथ सम्पर्क सम्बन्ध होगा, अभ्यास की तीली पर मसाला ठीक होगा तब सेकण्ड में संकल्प किया और बना। तो सब साधन ठीक चाहिए। सम्बन्ध भी चाहिए। अभ्यास भी चाहिए। सम्बन्ध है और अभ्यास कम है तो मेहनत के बाद सफलता मिलेगी। सेकण्ड में संकल्प का स्वरूप नहीं बन सकेंगे। बार-बार संकल्प करते-करते मेहनत के बाद सफलता होगी। आप सभी के मेहनत अर्थात् भक्ति का समय समाप्त हो गया ना! भक्ति का अर्थ ही है मेहनत! भक्ति का समय समाप्त हुआ अर्थात् मेहनत समाप्त हुई। अब भक्ति का फल लेने का समय है। भक्ति का फल है ‘ज्ञान' अर्थात् मुहब्बत न कि मेहनत। 63 जन्म मेहनत की, थोड़ी वा ज्यादा लेकिन मेहनत तो की ना! अब अन्तिम एक जन्म मुहब्बत के समय भी मेहनत करेंगे क्या? अब तो मेहनत का फल खाओ। फल खाने के समय भी बीज बोते रहेंगे क्या! अब तो सदा बाप की मुहब्बत द्वारा फल खाओ अर्थात् सदा फलीभूत बनो। फल खाओ अर्थात् सदा सफल रहो। फल खाना अर्थात् सदा होली मनाना वा होली बन जाना। अब मेहनत करने के, युद्ध करने के संस्कार समाप्त करो। अब तो राज्य भाग्य पा लिया फिर युद्ध काहे की? देवपद के भाग्य से भी श्रेष्ठ भाग्य तो अब पाया है। स्वराज्य का मजा विश्व के राज्य में भी नहीं होगा। तो राज्य भाग्यवान आत्मायें अभी भी युद्ध क्यों करती हो? इसलिए मेहनत के संस्कार, युद्ध के संस्कार वा संकल्प की पुरानी लकड़ियों को आग लगा दो। यही होली जलाओ। बापदादा को भी बच्चों के मेहनत के संस्कार देख तरस पड़ता है। अभी तक भी मेहनत करेंगे तो फल कब खायेंगे? इसका मतलब अलबेला नहीं बनना कि मेहनत तो करनी नहीं है। अलबेला नहीं बनना है लेकिन सदा मुहब्बत में मगन रहना है। लवलीन रहना है। सोचा और हुआ - ऐसे अभ्यासी बनो। मास्टर सर्वशक्तिवान हो तो संकल्प किया और अनुभूति हुई - ऐसे सहज अभ्यासी बनो। श्रेष्ठ संकल्पों के खजाने को स्वरूप में लाओ। कोई भी श्रेष्ठ कार्य करते हो तो सजाते हो ना! जैसे कल भी श्रृंगार किया ना? (कल मधुबन मे 5 कन्याओं का समर्पण समारोह हुआ जिसमें उन्हें खूब सजाया गया था) श्रृंगारी हुई सजी हुई मूर्त भी शुभ निशानी है। तो आप सदा शुभ कार्य में उपस्थित हो तो सदा गुणों के गहनों से सजायें हुए रहो। सिर्फ बुद्धि की तिजारी में बन्द कर नहीं रखो। सदा गुणों के गहनों से सजी सजाई हुई मूर्त, यही 16 श्रृंगार अर्थात् 16 कला सम्पन्न, सर्वगुण सम्पन्न बनो। ऐसे ऊँचे ते ऊँचे बाप के बच्चे सदा सुहागिन, सदा भाग्यवान आत्मायें बिगर श्रृंगार के कैसे सजेगी! सुहाग की निशानी भी श्रृंगार है और राज्य कुल की निशानी भी श्रृंगार है। तो आप कौन हो? राजाओं का राजा बनाने वाले के कुल के हो और सदा सुहागिन हो। तो गुणों के गहनों से सजी सजाई रूहानी मूर्त सदा बनो। ऐसी होली मनाई है?
मधुबन में होली मनाई ना? नाचना, गाना यह है मनाना। तो सदा गाते हो, सदा नाचते हो और स्थूल में भी नाचा और गाया भी। मनाया ना? गाया भी, खाया भी। योग भी लगाया, भोग भी लगाया। मन भी सदा मीठा, मुख भी सदा मीठा। तो होली हो गई ना! है ही कल्प कल्प की होली। बाकी क्या करेंगे? गुलबासी डालेंगे? गुलाब की पत्तियाँ डालेंगे? स्वयं ही गुलाब हो। बाकी कोई आशा रह गई हो तो कल गुलाब जल डाल देना। रंग में तो रंगे हुए ही हो। वह रंग तो मिटाना पड़ेगा और यह रंग तो जितना चढ़ा हुआ हो उतना अच्छा है।
ऐसे सदा रूहानी गुलाब, सदा ज्ञान के रंग में रंगे हुए, सदा प्रभु मिलन मनाने वाले, सदा गुणों के गहनों से सजी सजाई हुई मूर्त, बापदादा के समीप और समान रत्नों को, चाहे दूर हैं चाहे सम्मुख हैं, लेकिन सभी होली हंसों को बापदादा अविनाशी होली बनने की मुबारक दे रहे हैं। साथ-साथ सर्व लवलीन आत्माओं को स्नेह के रेसपान्ड में यादप्यार और सर्व श्रेष्ठ आत्माओं को नमस्ते।''
पार्टियों के साथ अव्यक्त मुलाकात (गुजरात)
1- आप सब बड़े ते बड़े व्यापारी हो ना? विश्व के अन्दर कोई भी इतना बड़ा बिजनेस नहीं कर सकता। जो होशियार बिजनेसमैन होते हैं वे कमाई को बढ़ाते जाते हैं। लौकिक में जब वृद्धि होती है तो एक-एक बिन्दी लगाते जाते हैं। आपको भी बिन्दी लगाना है। मैं भी बिन्दी, बाप भी बिन्दी। बड़े ते बड़े व्यापारी हो लेकिन लगाना है बिन्दी। 6 व 8 लिखने में मुश्किल भी हो सकती है लेकिन बिन्दी तो सब लगा सकते हो। यह सहज भी है और श्रेष्ठ भी। सारे दिन में कितनी बिन्दी लगाते हो? जब क्वेश्चन होता है तो बिन्दी मिट जाती है। बिन्दी के बिना क्वेश्चन भी हल नहीं होता। तो बिन्दी लगाने में सब होशियार हो ना? बिन्दी लगाने में समय भी नहीं लगता। मैं भी बिन्दी, बाबा भी बिन्दी। इसके लिए यह भी कोई नहीं कह सकता कि समय नहीं है। सेकण्ड की बात है। तो जितने सेकण्ड मिलें बिन्दी लगाओ फिर रात को गिनो कितनी बिन्दी लगाई! किसी बात को सोचो नहीं, जो बात ज्यादा सोचते हो वो ज्यादा बढ़ती है। सब सोच छोड़ एक बाप को याद करो, यही दुआ हो जायेगी। याद में बहुत फायदे भरे हैं - जितना याद करेंगे उतना शक्ति भरती जायेगी, सहयोग भी प्राप्त होगा। और सेवा भी हो जायेगी। अच्छा -
12-03-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“चैतन्य पुष्पों में रंग, रूप, खुशबु का आधार”
बागवान शिव बाबा अपने चैतन्य फूलों के प्रति बोले:-
‘‘आज बागवान बाप अपने चैतन्य बगीचे में वैरायटी प्रकार के फूलों को देख रहे हैं। ऐसा रूहानी बगीचा बापदादा को भी कल्प में एक बार मिलता है। ऐसा रूहानी बगीचा रूहानी खुशबूदार फूलों की रौनक और किसी भी समय मिल नहीं सकती। चाहे कितना भी नामीग्रामी बगीचा हो लेकिन इस बगीचे के आगे वो बगीचे क्या अनुभव होंगे! यह हीरे तुल्य वो कौड़ी तुल्य। ऐसे चैतन्य ईश्वरीय बगीचे का रूहानी पुष्प हूँ - ऐसा नशा रहता है? जैसे बापदादा हरेक फुल के रंग, रूप और खुशबू तीनों को देखते हैं ऐसे अपने रंग, रूप और खुशबू को जानते हो?
रंग का आधार है - ज्ञान की सबजेक्ट। जितना-जितना ज्ञान स्वरूप होंगे उतना रंग आकर्षण करने वाला होगा। जैसे स्थूल फूलों के रंग देखते हो, भिन्नभिन्न रंग देखते हुए कोई-कोई रंग विशेष दूर से ही आकर्षित करता है। देखते ही मुख से यह महिमा जरूर निकलेगी कि कितना सुन्दर फूल है! और सदा दिल होगी कि देखते रहें। ऐसे ही ज्ञान के रंग में रंगे हुए फूल कितने सुन्दर लगेंगे। ऐसे ही रूप और खुशबू का आधार है - याद और दिव्य गुण मूर्त। सिर्फ रंग हो और रूप न हो तो भी आकर्षण नहीं होगी। और रंग रूप हो लेकिन खुशबू न हो तो भी आकर्षित नहीं करेंगे। कहा जाता है - यह नकली है, यह असली है। सिर्फ रंग रूप वाले पुष्प डैकोरेशन के लिए ज्यादा काम आते हैं लेकिन खुशबूदार पुष्प मानव अपने समीप रखेंगे। खुशबूदार पुष्प सदा ही स्वत: ही सेवा का स्वरूप है। तो अपने से पूछो - कि मैं कौन-सा पुष्प हूँ? कहाँ भी हैं लेकिन स्वत: सेवा होती रहती है अर्थात् रूहानी वायुमण्डल बनाने के निमित्त बने हुए हैं। नजदीक आने से अर्थात् सम्पर्क में आने से खुशबू पहुँचती है वा दूर से ही खुशबू फैलाते हैं! अगर सिर्फ ज्ञान सुन लिया, योग लगाने के अभ्यासी बन गये लेकिन ज्ञान स्वरूप वा योगी जीवन वाले वा प्रैक्टिकल दिव्यगुण मूर्त न बने तो सिर्फ डैकोरेशन अर्थात् प्रजा बन जायेंगे। राजा की प्रजा डैकोरेशन ही है। तो अल्लाह के बगीचे के पुष्प तो बन गये लेकिन कौन से? यही अपनी चेकिंग करनी है। बगीचा एक है, बागवान भी एक है लेकिन फूलों में वैरायटी है। डबल विदेशी अपने को क्या समझते हैं? राज्य अधिकारी हो वा राज्य करने वालों को देखने वाले? आज बापदादा बगीचे में मिलने के लिए आये हैं। सभी के मन में रूह-रूहान करने का संकल्प रहता है। तो आज रूह-रूहान करने के लिए आये हैं। विशेष दो ग्रुप हैं ना। बापदादा को तो सभी देश-विदेश दोनों तरफ के बच्चे अति प्रिय हैं। कर्नाटक वाले और डबल विदेशी भी सदा खुशी में झूलते रहते हैं। मधुबन में आते सभी मायाजीत बनने के अनुभवी बन गये हो वा मधुबन में भी माया आती है? मधुबन में आते ही हो मायाजीत स्थिति की अनुभूति करने के लिए। तो यहाँ माया का वार नहीं लेकिन माया हार खा कर जायेगी क्योंकि मधुबन में विशेष अपनी कमाई जमा करने के लिए आते हो। डबल विदेशियों को तो डबल लाक लगा देना चाहिए।
मधुबन में आकर विशेष अपने में कौन-सी विशेषतायें धारण की? (बाबा विदेशियों से तथा कर्नाटक वालों से प्रश्न पूछ रहे थे) जैसे सहजयोगी बनने की विशेषता देखी वैसे और क्या देखा? लव भी मिला, पीस भी मिली, लाइट भी मिली। सब कुछ मिला ना! जितनी स्व को प्राप्ति होगी तो प्राप्ति वाला सेवा के सिवाए रह नहीं सकता। इसलिए प्राप्ति स्वरूप सो सेवा स्वरूप स्वत: ही हो।
कर्नाटक वालों ने भी वृद्धि अच्छी की है और विदेश में भी अच्छी वृद्धि हुई है। विदेश ने सेवाकेन्द्र और सेवाधारी भी अच्छे निकालें हैं। बापदादा भी बच्चों की हिम्मत, उमंग, उत्साह देख हर्षित होते हैं। चाहे देश में, चाहे विदेश में सेवा का उमंग उत्साह बच्चों में देख बाप खुश होते हैं। अच्छा जो सेवाकेन्द्र में रहते हैं वा सेवा में उपस्थित हैं - देश चाहे विदेश में, सब अमृतवेला शक्तिशाली रखते हो? यह ग्रुप बहुत अच्छा है लेकिन अच्छे-अच्छे बच्चों को माया भी अच्छी तरह से देखती है। माया को भी वे अच्छे लगते हैं। इसलिए मायाजीत बनना है क्योंकि निमित्त आत्मायें हो ना। इसलिए विशेष अटेन्शन। निमित्त बनी हुई आत्मायें जितनी शक्तिशाली होंगी उतना वायुमण्डल को शक्तिशाली बना सकेंगी। नहीं तो वायुमण्डल कमजोर हो जाएगा। प्रॉब्लम्स बहुत आयेंगी। शक्तिशाली वायुमण्डल होने कारण स्वयं भी विघ्न विनाशक होंगे और औरों के भी विघ्न-विनाशक अर्थ निमित्त बनेंगे। जैसे सूर्य खुद प्रकाशमय है तो अंधकार को मिटाकर औरों को रोशनी देता और किचड़ा भस्म करता है। तो जो निमित्त बनी हुई आत्मायें हैं वे शक्ति स्वरूप विघ्न विनाशक स्थिति में स्थित रहने का अटेन्शन रखो। सिर्फ स्वयं प्रति नहीं। स्टाक भी जमा हो जो औरों को भी विघ्न-विनाशक बना सको। तो यह मैजारिटी ग्रुप मास्टर ज्ञान सूर्य है! अभी सदा यही स्मृति स्वरूप बनकर रहना है कि - ‘मैं मास्टर ज्ञान सूर्य हूँ।' स्वयं भी प्रकाश स्वरूप और औरों का भी अंधकार मिटाना है। अच्छा-
मधुबन वाले भी बापदादा को याद हैं। मधुबन निवासी भी ब्राह्मण परिवार की नजरों में हैं। जब मधुबन की महिमा करते तो सामने मधुबन निवासी आते हैं। मधुबन की महिमा का तो पूरा भाषण बना हुआ है। जो मधुबन की महिमा है वह मधुबन निवासी हरेक अनुभव करते हो ना, कि हमारी महिमा है। अच्छा –
सदा सर्व विशेषता सम्पन्न विशेष आत्माओं को, सदा स्वयं के स्वरूप द्वारा सेवा के निमित्त बने हुए सेवाधारी आत्माओं को, सदा रंग रूप और खुशबूदार फूलों को बागवान बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।''
डबल विदेशी बच्चों का एक प्रश्न रहता है कि हमें डबल सर्विस (ईश्वरीय सेवा के साथ नौकरी) के लिए क्यों कहा जाता है? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए बापदादा बोले-
‘‘समय कम है और प्राप्ति करने चाहते हो सबसे ज्यादा। इसके कारण तन भी लगे, मन लगे और धन भी लगे, इसलिए तीनों प्रकार की सर्विस करनी पड़े। थोड़े समय में आपका तीनों प्रकार का लाभ जमा होता है क्योंकि धन की भी मार्क्स हैं। वह मार्क्स जमा होने कारण नम्बर आगे ले लेते हो। तो आप लोगों के फायदे के लिए कहा जाता है कि अपना धन लगाना तो धन की सबजेक्ट में भी एक का पद्म मिलता है। सब तरफ से अगर एक ही समय में लाभ हो सकता है तो क्यों न करो। बाकी जब निमित्त बनी हुई आत्मायें देखेंगी, समय ही नहीं है, इसे फुर्सत ही नहीं है, अपने खाने का भी समय नहीं मिलता, यह इतना बिजी हो गये हैं तो आटोमेटिकली उससे फ्री कर देंगी। लेकिन जब तक इतने बिजी हो जाओ तब तक यह जरूरी है। यह व्यर्थ नहीं जाता है, इसकी भी मार्क्स जमा हो रही हैं। बिजी हो जायेंगे तो ड्रामा ही आपको वह नौकरी करने नहीं देगा। कोई न कोई कारण ऐसा बनेगा जो चाहो भी लेकिन कर नहीं सकेंगे। इसीलिए जैसे अभी चल रहे हो उस में ही कल्याण है। ऐसे नहीं समझो हम सरेन्डर नहीं हैं। सरेन्डर हो, डायरेक्शन प्रमाण कर रहे हो। अपने मन से करते हो तो सरेन्डर नहीं हो। इसमें अगर अपनी मत चलाते हो, कि नहीं! मैं तो नहीं करूंगी, और ही मनमत है। इसलिए स्वयं को सदा हल्का रखो। जो निमित्त बनी हुई आत्मायें हैं वह अगर कहती हैं तो समझो इसमें हमारा कल्याण है। इसमें आप निश्चिन्त रहो। इसमें जो ज्यादा सोचेंगे - मेरा शायद पार्ट नहीं है, मेरे को क्यों नहीं कहा जाता है, यह फिर व्यर्थ है। समझा।
टीचर्स के प्रति:- टीचर्स के लिए सेवास्थान कौन-सा है? टीचर्स सदा विश्व की स्टेज पर हैं। आपका सेवास्थान है - विश्व स्टेज। तो स्टेज पर समझने से हर कर्म अटेन्शन से करेंगे। जब कोई प्रोग्राम करते हो तो स्टेज पर बैठते समय कितना अटेन्शन रहता है। अलबेला नहीं होते। तो टीचर्स बनना अर्थात् विश्व की स्टेज पर रहना। सेन्टर पर दो बहनें रहती हों, लेकिन दो नहीं, विश्व के आगे हो। अच्छा-
ओम् शान्ति
14-03-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“बापदादा द्वारा देश विदेश का समाचार”
बापदादा बोले:-
‘‘आज बापदादा बच्चों के साथ सैर करने गये थे। बापदादा को सारी सृष्टि की परिक्रमा लगाने में कितना समय लगता होगा? जितने समय में चाहें उतने समय में परिक्रमा को पूरा कर सकते हैं। चाहे विस्तार से करें, चाहे सार में करें। आज डबल विदेशियों से मिलने का दिन है ना। इसलिए सैर समाचार सुनाते हैं। विदेश में क्या देखा और देश में क्या देखा?
कुछ समय पहले विदेश की विशेषता की लहर भारत में आई - वह क्या थी? जैसे विदेश में अल्पकाल के सुख के साधनों की मस्ती में सदा मस्त रहते थे - ऐसे भारतवासियों ने भी विदेशी सुख के साधनों को खूब अपने प्रति कार्य में लाया। खूब विदेशी साधनों द्वारा अल्पकाल के सुखों में मस्त होने की अनुभूति की। और अब भी कर रहे हैं। भारत वालों ने अल्पकाल के साधनों की कापी की और कापी करने के कारण अपनी असली शक्ति को खो दिया। रूहानियत से किनारा कर लिया और विदेशी सुख के साधनों का सहारा ले लिया। और विदेश ने क्या किया? समझदारी का काम किया। भारत की असली रूहानी शक्ति ने उन्हों को विदेश में आकर्षित किया। इसका परिणाम हरेक नामधारी रूहानी शक्ति वाले के पास अथवा निमित्त गुरूओं के पास विदेशी फालोअर्स ज्यादा देखने में आयेंगे। विदेशी आत्मायें नकली साधनों को छोड़कर असलियत की तरफ, रूहानियत की तरफ ज्यादा आकर्षित हो रही हैं और भारतवासी नकली साधनों में मस्त हो गये हैं। अपनी चीज को छोड़ पराई चीज के तरफ जा रहे हैं और विदेशी आत्मायें असली चीज को ढूँढ़ने, परखने और पाने की ज्यादा इच्छुक हैं।
तो आज बापदादा देश-विदेश का सैर कर रहे थे। उस सैर में यही देखा कि भारतवासी क्या कर रहे हैं और विदेशी क्या कर रहे हैं? भारतवासियों को देख बापदादा को तरस आ रहा था कि इतने ऊँचे कुल की नम्बरवन धर्म की आत्मायें, पीछे के धर्म वालों की छोड़ी हुई चीजों को अपनाने में ऐसे मस्त हो गये हैं जो अपनी विशेष वस्तु को भूल गये हैं। इस कारण भारत रूपी घर में बैठे हुए, भारत रूपी घर में आये हुए श्रेष्ठ मेहमान बाप को भी नहीं जानते और विदेश की आत्मायें दूर बैठे भी सिर्फ सन्देश सुनते ही पहचान कर और पहुँच गई हैं। तो बापदादा देख रहे हैं कि डबल विदेशी बच्चों की परखने की आँख बहुत तेज है। दूर से परखने की आँख द्वारा, अनुभव द्वारा बाप देख लिया और पा लिया। और भारतवासी, उनमें भी बापदादा को आबू निवासियों पर ज्यादा तरस है जो पास होते भी परखने की आँख नहीं। परखने की आँख से अंधे रह गये ना! ऐसे बच्चों को देख तरस तो आयेगा ना! तो डबल विदेशियों की कमाल देख रहे थे।
दूसरा क्या देखा है कि आजकल जैसे भारत गरीब है ऐसे अब लास्ट समय नजदीक होने के कारण विदेशियों में भी सम्पन्नता में कमी आ गई है। जैसे वृक्ष जब हरा भरा होता है तो फल-फूल सब लगे हुए होते हैं लेकिन जब वृक्ष सूखने शुरू होता है तो सब फल फूल भी सूखने शुरू हो जाते हैं। तो यह देश की प्राप्ति रूपी विशेषता जिससे प्रजा सुखी रहे, खुश रहे, शान्ति का वातावरण रहे वह फल फूल सूखने लग गये हैं। अभी विदेश में भी नौकरी सहज नहीं मिलती। पहले कब विदेश में यह प्रॉब्लम सुनी थी? तो यह भी निशानी है सुख के साधन और शान्ति के फल सूख रहे हैं। भारत रूपी मुख्य तना सूख रहा है उसका प्रभाव मुख्य शाखाओं पर भी पड़ना शुरू हो गया है। यह क्रिश्चयन धर्म लास्ट की मुख्य बड़ी शाखा है। वृक्ष के चित्र में क्रिश्चयन धर्म कौन-सी शाखा है? जो मुख्य शाखायें दिखाते हो उसमें तो लास्ट हुआ ना। उस शाखा तक सम्पन्नता के प्राप्ति की हरियाली सूख गई है। यह निशानी है सारे वृक्ष के जड़जडीभूत अवस्था की। तो सारे विश्व में अल्पकाल के प्राप्ति रूपी फल-फूल सूखे हुए देखे। सिर्फ बाकी दो बातें हैं –
एक - मन से, मुख से चिल्लाना और दूसरा कैसे भी मजबूरी से जीवन को, देश को चलाना। चिल्लाना और कार्य से चलाना। यह दो काम बाकी रह गये हैं। खुशी-खुशी से चलना वह समाप्त हो गया है। कैसे भी चलाना है यह रह गया है। विदेश में भी यह रूपरेखा बन गई है। तो यह भी क्या निशानी हुई? मजबूरी से चलाना कहाँ तक चलेगा! अब जो चिल्ला रहे हैं ऐसे विश्व को क्या करना है? मजबूरी से चलाने वालों को प्राप्ति के पंख दे उड़ाना है। कौन उड़ा सकेगा? जो स्वयं उड़ती कला में होगा। तो उडती कला में हो? उड़ती कला वा चढ़ती कला - किस कला में हो? चढ़ती कला भी नहीं, अभी उड़ती कला चाहिए। कहाँ तक पहुँचे हो? डबल विदेशी क्या समझते हैं? मैजारिटी तो बाप समान शिक्षक क्वालिटी हैं ना। तो टीचर अर्थात् उड़ती कला वाले। ऐसे ही हो ना?
अच्छा - आज तो सिर्फ सैर समाचार सुनाया। अब देश-विदेश वाले प्रैक्टिकल में निशानियाँ स्पष्ट देख रहे हैं। आजकल जो बात होती तो कहते हैं 100 वर्ष पहले हुई थी। सब विचित्र बातें हो रही हैं। क्योंकि यह विचित्र बाप को प्रत्यक्ष करेंगी। सबके मुख से अभी यह आवाज निकल रहा है कि अब क्या होगा? यह क्वेश्चन मार्क सबकी बुद्धि में स्पष्ट हो गया है। अब फिर यह बोल निकलेंगे कि जो होना था वह हो गया। बाप आ गया। क्वेश्चन मार्क्स समाप्त हो, फुल स्टॉप लग जाएगा। जैसे मथनी से मक्खन निकाला जाता है तो पहले हलचल होती है बाद में मक्खन निकलता है। तो यह क्वेश्चन मार्क रूपी हलचल के बाद प्रत्यक्षता का मक्खन निकलेगा। अब तेजी से हलचल शुरू हो गई है। चारों ओर अब प्रत्यक्षता का मक्खन विश्व के आगे दिखाई देगा। लेकिन इस मक्खन को खाने वाले कौन? तैयार हो ना खाने के लिए? सभी आप फरिश्तों का आह्वान कर रहे हैं। अच्छा –
सर्व अप्राप्त आत्माओं को सर्व प्राप्ति कराने वाले, सर्व को परखने का नेत्र दान करने वाले महादानी, सर्व को सन्तुष्टता का वरदान देने वाले वरदानी सन्तुष्ट आत्मायें, सदा स्व के प्राप्ति के पंखों द्वारा अन्य आत्माओं को उड़ाने वाले, सदा उड़ती कला वाले, सदा स्व द्वारा बाप को प्रत्यक्ष करने वाले, विश्व के आगे प्रख्यात होने वाले श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का याद प्यार और नमस्ते।''
विदेशी बच्चों के साथ- अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात
सदा अपने को सर्व प्राप्ति सम्पन्न अनुभव करते हो? सर्व प्राप्तियों की अनुभूति है? जिस आत्मा को सर्व प्राप्तियों की अनुभूति होगी, उनकी निशानी क्या दिखाई देगी? वह सदा सन्तुष्ट होगा। उनके चेहरे पर सदा प्रसन्नता की निशानी दिखाई देगी। उनके चेहरे से दिखाई देगा कि यह सब कुछ पाई हुई आत्मा है। जैसे देखो लौकिक रीति से जो राजकुमार, राजकुमारी होते हैं वा ऊँचे कुल के होते हैं तो उनके चेहरे से दिखाई देता कि यह भरपूर आत्मायें हैं। ऐसे आप रूहानी कुल की आत्माओं के चेहरे से दिखाई दे - जो किसको नहीं मिला है वह इनको मिला है। ऐसे अनुभव होता है कि हमारी चलन और चेहरा बदल गया है चेहरे पर प्राप्ति की चमक आ गई है? डबल विदेशियों को डबल चांस मिला है तो सेवा भी डबल करनी है। डबल सेवा कैसे करेंगे? सिर्फ वाणी से नहीं लेकिन चलन से भी और चेहरे से भी। जैसे स्वयं परवाने बने हो, ऐसे अनेक परवानों को शमा के पास लाने वाली आत्मायें हो। तो आपकी उड़ान देखते ही अन्य परवाने भी आपके पीछे-पीछे उड़ने लग जायेंगे। जैसे आप सभी हर बात की गहराई में जाते हो, ऐसे हर गुण की अनुभूति की गहराई में जाओ। जितना गहराई में जायेंगे उतना रोज नया अनुभव कर सकेंगे। जैसे शान्त स्वरूप का अनुभव रोज करते हो लेकिन हर रोज नवीनता का अनुभव करो। नया अनुभव तब होगा जब एकान्तवासी होंगे। एकान्तवासी अर्थात सदा स्थूल एकान्त के साथ-साथ एक के अन्त में सदा रहना।
एक ‘‘बाबा'' शब्द भी जो बार-बार कहते हो, वह हर बार नया अनुभव होना चाहिए। जैसे शुरू में जब आये तब भी बाबा शब्द कहते थे, मधुबन में आये तब भी यही बोला और अब जब जायेंगे तब भी ‘बाबा' शब्द बोलेंगे लेकिन पहले बोलने में और अब के बोलने में कितना अन्तर होगा! यह अनुभव तो है ना? बाबा शब्द तो वही है लेकिन जिगरी प्राप्ति के आधार पर वही बाबा शब्द अनुभव में आगे बढ़ता गया। तो फर्क पड़ता है ना! ऐसे सब गुणों में भी रोज नया अनुभव करो। शान्त स्वरूप तो हो लेकिन शान्ति की अनुभूति किस प्वाइन्ट के आधार पर होती है, जैसे देखो मैं आत्मा परमधाम निवासी हूँ, इससे भी शान्ति की अनुभूति होती हैं और - मैं आत्मा सतयुग में सुख-शान्ति स्वरूप हूँगी उसका अनुभव देखो तो और होगा। ऐसे ही कर्म करते हुए अशान्ति के वातावरण में होते भी - मैं आत्मा शान्त स्वरूप हूँ, उसकी अनुभूति करते हो तो उसका अनुभव और होगा। फर्क हो गया ना तीनों में। हैं तो शान्त स्वरूप। ऐसे रोज उस शान्त स्वरूप की अनुभूति में भी प्रोग्रेस हो। कब किस प्वाइन्ट से शान्त स्वरूप की अनुभूति करो, कभी किससे तो रोज का नया अनुभव होगा और सदा इसी में बिजी रहेंगे कि नया-नया मिले। नहीं तो क्या होता है चलते- चलते वही याद की विधि, वही मुरली सुनने और सुनाने की विधि, फिर वही बात कहाँ-कहाँ कामन अनुभव होने लगती है। इसलिए फिर उमंग भी जैसे सदा रहता है वैसे ही रहता है, आगे नहीं बढ़ता। और इसकी रिजल्ट में फिर कहाँ अलबेलापन भी आ जाता है। यह तो मुझे आता ही है, यह तो जानते ही हैं! तो उड़ती कला के बजाय ठहरती कला हो जाती है। इसलिए स्वयं तथा जिन आत्माओं के लिए निमित्त बनते हो, उन्हें सदा नवीनता का अनुभव कराने के लिए यह विधि जरूर चाहिए। समझा! आप सब मैजारिटी सेवा के निमित्त आत्मायें हो ना तो यह विशेषता जरूर धारण करनी है। रोज कोई न कोई प्वाइन्ट निकालो - शान्त स्वरूप के अनुभूति की प्वाइन्टस क्या हैं? ऐसे प्रेम स्वरूप, आनन्द स्वरूप सबकी विशेष प्वाइन्ट बुद्धि में रखते हुए रोज नया-नया अनुभव करो। सदा ऐसे समझो कि आज नया अनुभव करके औरों को कराना है। फिर अमृतवेले बैठने में भी बड़ी रूचि होगी। नहीं तो कभी-कभी सुस्ती की लहर आ जाती है। जहाँ नई चीज मिलती है वहाँ सुस्ती नहीं होती है। और वही-वही बातें हैं तो सुस्ती आने लगती है। तो समझा क्या करना है? तरीका समझ में आया? अभी कोई प्रश्न पूछना है तो पूछो - विदेशियों को वैसे भी वैरायटी अच्छी लगती है। जैसे पिकनिक में नमकीन भी चाहिए, मीठा भी चाहिए। और वैरायटी प्रकार का चाहिए तो जब भी अनुभव करने बैठते हो तो समझो अभी बापदादा से वैरायटी पिकनिक करने जा रहे हैं। पिकनिक का नाम सुनकर ही फुर्त हो जायेंगे। सुस्ती भाग जायेगी। वैसे भी आप लोगों को पिकनिक करना, बाहर में जाना अच्छा लगता है ना! तो चले जाओ बाहर, कभी परमधाम में चले जाओ, कभी स्वर्ग में चले जाओ, कभी मधुबन में आ जाओ, कभी लण्डन सेन्टर में चले जाओ, कभी आस्ट्रेलिया पहुँच जाओ। वैरायटी होने से रमणीकता में आ जायेंगे। अच्छा-
‘‘विदेशी बच्चों द्वारा पूछे गये कुछ प्रश्न - बापदादा के उत्तर''
प्रश्न - चलते-चलते पुरूषार्थ मे जब रूकावट आती है तो क्या करना चाहिए? रूकावट आने का कारण क्या होता है?
उत्तर - जब कई प्रकार के पेपर्स सामने आते हैं, तो उन पेपर्स का सामना करने की शक्ति न होने के कारण पुरूषार्थ में रूकावट आ जाती है, ऐसे समय पर दूसरों का सहयोग लेना जरूरी होता है। जैसे कार में बैटरी जब थोड़ी ढीली हो जाती है, कार अपने आप नहीं चलती है तो दूसरों से थोड़ा धक्का लगवाते हैं ना! तो जिस भी आत्मा में आपका फेथ हो और समझो इनसे हमको मदद मिल सकती है तो उनसे थोड़ा-सा सहयोग लेकर आगे बढ़ जाना चाहिए। पहले उसे अपनी बात स्पष्ट सुनाना चाहिए कि ऐसे है, फिर सहयोग मिलने से चल पड़ेंगे। क्योंकि होता क्या है - जिस समय ऐसी स्टेज आती है उस समय डायरेक्ट बाप से सहयोग लेने की हिम्मत नहीं होती है, इसलिए फिर साकार में थोड़ासा सहयोग लेंगे तो फिर डायरेक्ट लेने में मदद मिल जायेगी।
प्रश्न - बाबा के साथ हम बच्चे भी चक्कर पर (विश्व परिक्रमा पर) कैसे जा सकते हैं?
उत्तर - इसके लिए बाप समान विश्व कल्याणकारी की बेहद की स्टेज में स्थित होना पड़े जब उस स्टेज में स्थित होंगे तो ऐसे अनुभव करेंगे जैसे चित्र दिखाते हो - ग्लोब के ऊपर श्रीकृष्ण बैठा हुआ है, ऐसे मैं विश्व के ग्लोब पर बैठा हूँ। तो आटोमेटिकली विश्व का चक्र लग जायेगा। जैसे बहुत ऊँचे स्थान पर चले जाते हो तो चक्कर लगाना नहीं पड़ता लेकिन एक स्थान पर रहते सारा दिखाई देता है। ऐसे जब टॉप की स्टेज पर, बीजरूप स्टेज पर, विश्व कल्याणकारी स्थिति में स्थित होंगे तो सारा विश्व ऐसे दिखाई देगा जैसे छोटा ‘बाल' है। तो सेकण्ड में चक्कर लगाकर आयेंगे क्योंकि ऊँची स्टेज पर रहेंगे। बाकी कभी-कभी दिव्य दृष्टि द्वारा अनुभव होता है प्रैक्टिकल चक्कर लगाने का। वह फिर सूक्ष्म आकारी स्वरूप द्वारा। जैसे प्लेन में चक्कर लगाकर आओ वैसे आकारी रूप द्वारा विश्व का चक्कर लगा सकते हो। दोनों प्रकार से चक्र लगा सकते। जब हैं ही विश्व के रचयिता के बच्चे तो सारी रचना का चक्र तो लगायेंगे ना!
प्रश्न - कई बार योग में बहुत अच्छी-अच्छी टाचिंग होती हैं लेकिन यह बाबा की ही टाचिंग है, उसका पता कैसे चले?
उत्तर - 1- बाबा की टाचिंग हमेशा पॉवरफुल होगी और अनुभव होगा कि यह मेरी शक्ति से कुछ विशेष शक्ति है।
2- जो बाबा की टाचिंग होगी उसमें सहज सफलता की अनुभूति होगी।3- जो बाबा की टाचिंग होगी उसमें कभी भी क्यों, क्या का क्वेश्चन नहीं होगा। बिल्कुल स्पष्ट होगा। तो इन बातों से समझ लो कि यह बाबा की टाचिंग है।
प्रश्न- हम बुद्धि से सरेन्डर हैं या नहीं, उसकी परख क्या है?
उत्तर- बुद्धि से सरेन्डर का अर्थ है - बुद्धि जो भी निर्णय करे वह श्रीमत के अनुकूल हो। क्योंकि बुद्धि का कार्य है निर्णय करना। तो बुद्धि में श्रीमत के सिवाए और कोई बात आये ही नहीं। बुद्धि में सदा बाबा की स्मृति होने के कारण आटोमेटिकली निर्णय शक्ति वही होगी और उसकी प्रैक्टिकल निशानी यह होगी - कि उनकी जजमेन्ट सत्य होगी तथा सफलता वाली होगी। उनकी बात स्वयं को भी जँचेगी और औरों को भी जँचेगी कि बात बड़ी अच्छी कही है। सभी महसूस करेंगे कि इनकी बुद्धि बड़ी क्लीयर और सरेन्डर है। अपनी बुद्धि पर सन्तुष्टता होगी। क्वेश्चन नहीं होगा कि पता नहीं राइट है या रांग है।
प्रश्न- कई निश्चयबुद्धि बच्चे 4-5 साल चलने के बाद चले गये, यह लहर क्यों? इस लहर को कैसे समाप्त करें?
उत्तर- जाने का विशेष कारण - सेवा में बहुत बिजी रहते है लेकिन सेवा और स्व का बैलेन्स खो देते हैं। तो जो अच्छे-अच्छे बच्चे रूक जाते हैं उन्हों का एक तो यह कारण होता और दूसरा उन्हों का कोई विशेष संस्कार ऐसा होता है जो शुरू से ही उसमें कमजोर होते हैं लेकिन उसे छिपाते हैं, युद्ध करते रहते हैं अपने आप से। बापदादा को वा निमित्त बनी हुई आत्माओं को अपनी कमज़ोरी स्पष्ट सुनाकर उसे खत्म नहीं करते। छिपाने के कारण वह बीमारी अन्दर ही अन्दर विकराल रूप लेती जाती है और आगे बढ़ने का अनुभव नहीं होता, फिर दिलशिकस्त हो छोड़ देते हैं। तीसरा कारण यह भी होता - कि आपस में संस्कार नहीं मिलते हैं। संस्कारों का टक्कर हो जाता है।
अब इस लहर को समाप्त करने के लिए एक तो सेवा के साथ-साथ स्व का फुल अटेन्शन चाहिए। दूसरा जो भी आते हैं उन्हों को बापदादा वा निमित्त बनी हुई आत्माओं के आगे बिल्कुल क्लीयर होना चाहिए। अगर सर्विस में थोड़ा भी अनुभव करो ‘टू मच' है तो अपनी उन्नति का साधन पहले सोचना चाहिए और निमित्त बनी हुई आत्माओं को भी अपनी राय दे देनी चाहिए। जो नये आते हैं उन्हों को पहले इन बातों का अटेन्शन दिलाना चाहिए। अपने संस्कारों की चेकिंग पहले से ही करनी चाहिए। अगर किसी से अपना संस्कार टक्कर खाता है तो उससे किनारा कर लेना अच्छा है। जिस सरकमस्टांस में संस्कारों का टक्कर होता है, उनमें अलग हो जाना ही अच्छा है।
प्रश्न- अगर किसी स्थान पर सेवा की रिजल्ट नही निकलती है तो अपनी कमी है या धरनी ऐसी है?
उत्तर- पहले तो सेवा के सब साधन सब प्रकार से यूज़ करके देखो। अगर सब तरह से सेवा करने के बाद भी कोई रिजल्ट नहीं तो धरनी का फर्क हो सकता है। अगर अपनी कोई कमज़ोरी है, जिस कारण सर्विस नहीं बढ़ती तो जरूर अन्दर मे दिल खाती है कि हमारे कारण सेवा नहीं होती। ऐसे समय में फिर एक दो का सहयोग ले फोर्स दिलाना चाहिए। यदि अपना कारण होगा तो उस धरनी से निकलने वाली आत्मायें भी ढीली ढाली होंगी। तीव्र पुरूषार्थ नहीं। अच्छा।
17-03-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“संगम युग का वेशेष वरदान - ‘अमर भव'”
अमरनाथ शिव बाबा बोले:-
‘‘आज बापदादा अपने कल्प-कल्प की अधिकारी आत्माओं को देख रहे हैं। कौन-कौन श्रेष्ठ भाग्य के अधिकारी बने हैं, वह देख हर्षित हो रहे हैं। बापदादा अधिकारी आत्माओं को देख आज आपस में रूह-रूहान करते मुस्करा रहे थे। ब्रह्मा बाप बोले कि ऐसे बच्चों पर बाप की नज़र गई है कि जिनके लिए दुनिया वालों का यह सोचना भी असम्भव है कि ऐसी आत्मायें भी श्रेष्ठ बन सकती हैं। जो दुनिया की नजरों में अति साधारण आत्मायें हैं उन्हों को बापदादा ने अपने नैनों के नूर बना लिया है। बिल्कुल ही नाउम्मीद आत्माओं को विश्व के आगे सर्वश्रेष्ठ आत्मायें बना दिया है। तो बापदादा अपनी सेना के महावीरों को, अस्त्रधारी आत्माओं को देख रहे थे कि कौन-कौन आलमाइटी अथार्टी पाण्डव सेना में मैदान पर उपस्थित हैं। क्या देखा होगा? कितनी वण्डरफुल सेना है! दुनिया के हिसाब से अनपढ़ दिखाई देते हैं लेकिन पाण्डव सेना में टाइटल मिला है - ‘नालेजफुल'। सभी नालेजफुल हो ना? शरीर से चलना, उठना भी मुश्किल है लेकिन पाण्डव सेना के हिसाब से सेकण्ड में परमधाम तक पहुँच कर आ सकते हैं। वे तो एक हिमालय के ऊपर झण्डा लहराते हैं लेकिन शिव शक्ति पाण्डव सेना ने तीनों लोकों में अपना झण्डा लहरा दिया है। भोले भाले लेकिन ऐसे चतुर सुजान हैं जो विचित्र बाप को भी अपना बना दिया है। तो ऐसी सेना को देख बापदादा मुस्करा रहे थे। चाहे देश में चाहे विदेश में सच्चे ब्राह्मण फिर भी साधारण आत्मायें ही बनते हैं। जो वर्तमान समय के वी. आई. पीज. गाये जाते, सबकी नजरों में हैं लेकिन बाप की नजरों में कौन हैं? वे नामीग्रामी, कलियुगी आत्माओं द्वारा स्वार्थ के कारण गाये जाते वा माने जाते हैं। उन्हों की अल्पकाल की कलियुगी जमाने की महिमा है। अभी-अभी महिमा है, अभी-अभी नहीं है। लेकिन आप संगमयुगी पाण्डव सेना के पाण्डव और शक्तियों की महिमा सारा कल्प ही कायम रहती है क्योंकि अविनाशी बाप के मुख द्वारा जो महिमा गाई जाती वह अविनाशी बन जाती है। तो कितना नशा रहना चाहिए! जैसे आजकल की दुनिया में कोई नामीग्रामी श्रेष्ठ आत्मा गुरू के रूप में मानते हैं जैसे जिनको लौकिक गुरू भी अगर कोई बात किसको कह देते हैं तो समझते हैं गुरू ने कहा है तो वह सत्य ही होगा। और उसी फलक में रहते हैं। निश्चय के आधार पर नशा रहता है। ऐसे ही सोचो आपकी महिमा कौन करता है? कौन कहता है- श्रेष्ठ आत्मायें! तो आप लोगों को कितना नशा होना चाहिए!
वरदाता कहो, विधाता कहो, भाग्यदाता कहो, ऐसे बाप द्वारा आप श्रेष्ठ आत्माओं को कितने टाइटल मिले हुए हैं! दुनिया में कितने भी बड़े-बड़े टाइटल हों लेकिन आप श्रेष्ठ आत्माओं के एक टाइटिल के आगे वह अनेक टाइटिल्स भी कुछ नहीं हैं। ऐसी खुशी रहती है?
संगमयुग का विशेष् वरदान कौन-सा है? अमर बाप द्वारा ‘अमर भव'। संगमयुग पर ही ‘अमर भव' का वरदान मिलता है। इस वरदान को सदा याद रखते हो? नशा रहता है, खुशी रहती है, याद रहती है लेकिन अमर भव के वरदानी बने हो? जिस युग की जो विशेषता है, उस विशेषता को कार्य में लगाते हो? अगर अभी यह वरदान नहीं लिया तो फिर कभी भी यह वरदान मिल नहीं सकता। इसलिए समय की विशेषता को जानकर सदा यह चेक करो कि ‘अमर भव' के वरदानी बने हैं? अमर कहो, निरन्तर कहो इस विशेष शब्द को बार-बार अण्डरलाइन करो। अमरनाथ बाप के बच्चे अगर ‘अमर भव' के वर्से के अधिकारी नहीं बने तो क्या कहा जायेगा? कहने की जरूरत है क्या!
इसलिए मधुबन वरदान भूमि में आकर सदा वरदानी भव! अच्छा - ऐसे सदा बापदादा के नयनों में समायें हुए नूरे रत्न, सदा वरदाता द्वारा वरदान प्राप्त कर वरदानी मूर्त, श्रेष्ठ भाग्यवान मूर्त, सदा विश्व के आगे चमकते हुए सितारे बन विश्व को रोशन करने वाले, ऐसे संगमयुगी पाण्डव शिव शक्ति सेना को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।''
(दीदी जी के साथ)- ‘‘चक्रधारी तो हो। चक्रधारी के साथ-साथ चक्रवर्ता भी हो गई। डबल चक्र लगाती हो। स्थूल भी और बुद्धि द्वारा भी। चक्रधारी सदा सर्व को वरदानों की नज़र से, वाणी से, कर्म से, वरदानों से झोली भरते रहते हैं। तो वर्तमान समय विधाता के बच्चे विधाता हो वा वरदाता बाप के बच्चे वरदानी मूर्त हो? ज्यादा क्या पार्ट चलता है? दाता का या वरदाता का? महादानी का या वरदानी का? दोनों ही पार्ट चलता है वा दोनों में से विशेष एक पार्ट चलता है? लास्ट पार्ट कौन-सा है? विधाता का या वरदानी का? वरदान लेना तो सहज है लेकिन देने वाले को इतना प्राप्ति स्वरूप की स्टेज पर स्थित रहना पड़े। लेने वालों के लिए वरदान एक गोल्डन लाटरी है क्योंकि लास्ट में वे ही आत्मायें आयेंगी जो बिल्कुल कमजोर होंगी। समय कम और कमजोर ज्यादा । इसलिए लेने की भी हिम्मत नहीं होगी। जैसे किसका हार्ट बहुत कमजोर हो और आप कितनी भी बढ़िया चीज दो लेकिन वह ले नहीं सकता। समझते भी हैं कि बाढिंया चीज है लेकिन ले नहीं सकते। ऐसे लास्ट आत्मायें सब बातों में कमजोर होंगी इसलिए वरदानी का पार्ट ज्यादा चलेगा। जो स्वयं के प्रति सम्पन्न हो चुके, ऐसी सम्पन्न आत्मायें ही वरदानी बन सकती हैं। सम्पन्न बनना यह है वरदानी स्टेज। अगर स्वयं प्रति कुछ रहा हुआ होगा तो दूसरों को देखते भी स्वयं तरफ अटेन्शन जायेगा और स्वयं में भरने में समय लगेगा। इसलिए स्वयं सर्व प्राप्तियों से सम्पन्न होंगे तब वरदानी बन सकेंगे। अच्छा-''
पार्टियों के साथ मुलाकात
1- सच्चे ब्राह्मणों के तकदीर की लम्बी लकीर - 21 जन्मों के लिए:- कितने भाग्यवान हो जो भगवान के साथ पिकनिक कर रहे हो! ऐसा कब सोचा था - कि ऐसा दिन भी आयेगा जो साकार रूप में भगवान के साथ खायेंगे, खेलेंगे, हंसेंगे... यह स्वप्न में भी नहीं आ सकता लेकिन इतना श्रेष्ठ भाग्य है जो साकार में अनुभव कर रहे हो। कितनी श्रेष्ठ तकदीर की लकीर है - जो सर्व प्राप्ति सम्पन्न हो। वैसे जब किसी को तकदीर दिखाते हैं तो कहेंगे इसके पास पुत्र है, धन है, आयु है लेकिन थोड़ी छोटी आयु है... कुछ होगा कुछ नहीं। लेकिन आपके तकदीर की लकीर कितनी लम्बी है। 21 जन्म तक सर्व प्राप्तियों के तकदीर की लकीर है। 21 जन्म गारन्टी है और बाद में भी इतना दुख नहीं होगा। सारे कल्प का पौना हिस्सा तो सुख ही प्राप्त होता है। इस लास्ट जन्म में भी अति दुखी की लिस्ट में नहीं हो। तो कितने श्रेष्ठ तकदीरवान हुए! इसी श्रेष्ठ तकदीर को देख सदा हर्षित रहो।
2- प्यार के सागर से प्यार पाने की विधि - न्यारा बनो:- कई बच्चों की कम्पलेन है कि याद में तो रहते हैं लेकिन बाप का प्यार नहीं मिलता है। अगर प्यार नहीं मिलता है तो जरूर प्यार पाने की विधि में कमी है। प्यार का सागर बाप, उससे योग लगाने वाले प्यार से वंचित रह जाएँ, यह हो नहीं सकता। लेकिन प्यार पाने का साधन है - ‘न्यारा बनो'। जब तक देह से वा देह के सम्बन्धियों से न्यारे नहीं बने हो तब तक प्यार नहीं मिलता। इसलिए कहाँ भी लगाव न हो। लगाव हो तो एक सर्व सम्बन्धी बाप से। एक बाप दूसरा न कोई... यह सिर्फ कहना नहीं लेकिन अनुभव करना है। खाओ, पियो, सोओ... बाप-प्यारे अर्थात् न्यारे बनकर। देहधारियों से लगाव रखने से दुख अशान्ति की ही प्राप्ति हुई। जब सब सुन, चखकर देख लिया तो फिर उस जहर को दुबारा कैसे खा सकते? इसलिए सदा न्यारे और बाप के प्यारे बनो।
मेहनत से छुटने की विधि- मेरा-पन समाप्त करोः- बापदादा सभी बच्चों को मेहनत से छुड़ाने आये हैं। आधाकल्प बहुत मेहनत की अब मेहनत समाप्त। उसकी सहज विधि सुनाई है, सिर्फ एक शब्द याद करो - ‘मेरा बाबा'। मेरा बाबा कहने में कोई भी मेहनत नहीं। मेरा बाबा कहो तो, दुख देने वाला ‘मेरामेरा' सब समाप्त हो जायेगा। जब अनेक मेरा है तो मुश्किल है, एक मेरा हो गया तो सब सहज हो गया। बाबा-बाबा कहते चलो तो भी सतयुग में आ जायेंगे। मेरा पोत्रा, मेरा धोत्रा, मेरा घर, मेरी बहू... अब यह जो मेरे-मेरे की लम्बी लिस्ट है इसे समाप्त करो। अनेकों को भुलाकर एक बाप को याद करो तो मेहनत से छूट आराम से खुशी के झूले में झूलते रहेंगे। सदा बाप की याद के आराम में रहो।
अच्छा- ओमशान्ति।
19-03-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“‘कर्म'' - आत्मा का दर्शर्न्न कराने का दर्पण”
कर्मों की गुह्य गति को जानने वाले बापदादा बोले-
‘‘आज सर्वशक्तिवान बाप अपने शक्ति सेना को देख हर्षित हो रहे हैं। हरेक मास्टर सर्वशक्तिवान आत्माओं ने सर्वशक्तियों को कहाँ तक अपने में धारण किया है? विशेष शक्तियों को अच्छी तरह से जानते हो और जानने के आधार पर चित्र बनाते हो। यह चित्र, चैतन्य स्वरूप की निशानी है - ‘‘श्रेष्ठता अथवा महानता।'' हर कर्म श्रेष्ठ, महान है इससे सिद्ध है कि शक्तियों को चरित्र अर्थात् कर्म में लाया है। निर्बल आत्मा है वा शक्तिशाली आत्मा है, सर्वशक्ति सम्पन्न है वा शक्ति स्वरूप सम्पन्न है - यह सब पहचान कर्म से ही होती है क्योंकि कर्म द्वारा ही व्यक्ति और परिस्थिति के सम्बन्ध वा सम्पर्क में आते हैं। इसलिए नाम ही है - ‘‘कर्म-क्षेत्र, कर्म-सम्बन्ध, कर्म-इन्द्रियां, कर्म भोग, कर्म योग''। तो इस साकार वतन की विशेषता ही - ‘कर्म' है। जैसे निराकार वतन की विशेषता कर्मों से अतीत अर्थात् न्यारे हैं। ऐसे साकार वतन अर्थात् कर्म। कर्म श्रेष्ठ है तो श्रेष्ठ प्रालब्ध है, कर्म भ्रष्ट होने के कारण दुख की प्रालब्ध है। लेकिन दोनों का आधार ‘कर्म' है। कर्म, आत्मा का दर्शन कराने का दर्पण है। कर्म रूपी दर्पण द्वारा अपने शक्ति स्वरूप को जान सकते हो। अगर कर्म द्वारा कोई भी शक्ति का प्रत्यक्ष रूप दिखाई नहीं देता तो कितना भी कोई कहे कि मैं मास्टर सर्वशक्तिवान हूँ लेकिन कर्मक्षेत्र पर रहते कर्म में नहीं दिखाया तो कोई मानेगा? जैसे कोई बहुत होशियार योद्धा हो, युद्ध में बहुत होशियार हो लेकिन युद्ध के मैदान में दुश्मन के आगे युद्ध नहीं कर पाये और हार खा ले तो कोई मानेगा कि यह होशियार योद्धा है? ऐसे अगर अपनी बुद्धि में समझते रहें कि मैं शक्ति स्वरूप हूँ लेकिन परिस्थितियों के समय, सम्पर्क में आने के समय, जिस समय जिस शक्ति की आवश्यकता है उस शक्ति को कर्म मे नहीं लाते तो कोई मानेगा कि यह शक्ति स्वरूप हैं? सिर्फ बुद्धि तक जानना वह हो गया घर बैठे अपने को होशियार समझना। लेकिन समय पर स्वरूप न दिखाया, समय पर शक्ति को कार्य में नहीं लगाया, समय बीत जाने के बाद सोचा तो शक्ति स्वरूप कहा जायेगा? यही कर्म में श्रेष्ठता चाहिए। जैसा समय वैसी शक्ति कर्म द्वारा कार्य में लगावें। तो अपने आपको सारे दिन की कर्म लीला द्वारा चेक करो कि हम मास्टर सर्वशक्तिवान कहाँ तक बने हैं!
विशेष कौन सी शक्ति समय पर विजयी बनाती है और विशेष कौन सी शक्ति की कमज़ोरी बार-बार हार खिलाती है? कई बच्चे अपनी कमजोर शक्ति को जानते भी हैं। कभी कोई धारणा युक्त संगठन होता या अपने स्व पुरूषार्थियों का वायुमण्डल होता तो वर्णन भी करेंगे लेकिन साधारण रीति में। मैजारिटी अपनी कमज़ोरी को दूसरों से छिपाने की कोशिश करते हैं। समय पर कोई सुनाते भी हैं फिर भी उसी कमज़ोरी के बीज को कम पहचानते हैं। ऊपर-ऊपर से वर्णन करेंगे। बाहर के रूप के विस्तार का वर्णन करेंगे लेकिन बीज तक नहीं जायेंगे। इसलिए रिजल्ट क्या होती है - उस कमज़ोरी के ऊपर की शाखायें तो काट देते हैं, इसलिए थोड़ा समय तो समाप्त अनुभव होती हैं लेकिन बीज होने के कारण कुछ समय के बाद परिस्थितियों का पानी मिलने से फिर उसी कमज़ोरी की शाखा निकल आती है। जैसे आजकल के वायुमंडल में, दुनिया में बीमारी खत्म नहीं होती है- क्योंकि बीमारी के बीज को डाक्टर नहीं जानते। इसलिए बीमारी दब जाती है लेकिन समाप्त नहीं होती है। ऐसे यहाँ भी बीज को जानकर बीज को समाप्त करो। कई बीज को जानते भी हैं लेकिन जानते हुए भी अलबेलेपन के कारण कहेंगे, हो जायेगा, एक बार से थोड़े ही खत्म होगा? समय तो लगता ही है! ऐसे ज्यादा समझदारी कर लेते हैं। जिस समय पावरफुल बनना चाहिए उस समय नालेजफुल बन जाते हैं। लेकिन नालेज की शक्ति है, उस नालेज को शक्ति रूप में यूज़ नहीं करते। प्वाइन्ट के रूप से यूज़ करते हैं लेकिन हर एक ज्ञान की प्वाइन्ट शस्त्र है, उसे शस्त्र के रूप से यूज़ नहीं करते। इसलिए बीज को जानो। अलबेलेपन में आकर अपनी सम्पन्नता में वा सम्पूर्णता में कमी नहीं करो। और अगर बीज को जानने के बाद स्वयं में जानने की शक्ति अनुभव करते हो लेकिन भस्म करने की शक्ति नहीं समझते हो तो अन्य ज्वाला स्वरूप श्रेष्ठ आत्माओं का भी सहयोग ले सकते हो, क्योंकि कमजोर आत्मा होने कारण डायरेक्ट बाप द्वारा कनेक्शन और करेक्शन नहीं कर पाते तो सेकण्ड नम्बर श्रेष्ठ आत्माओं का सहयोग ले स्वयं को वेरीफाय कराओ। वेरीफाय होने से सहज प्युरीफाय हो जायेंगे। तो समझा क्या चेक करना है और कैसे चेक करना है?
एक तो छिपाओ नहीं। दूसरा जानते हुए टाल नहीं दो, चला नहीं दो। चलाते हो तो चिल्लाते भी हो। तो आज बापदादा शक्ति सेना की शक्ति को देख रहे थे। अभी प्राप्त की हुई शक्तियों को कर्म में लाओ क्योंकि विश्व की सर्व आत्माओं के आगे, ‘कर्म' ही आपकी पहचान कराएंगे। कर्म से वह सहज जान लेंगे। कर्म सबसे स्थूल चीज है। संकल्प सूक्ष्म शक्ति है। आजकल की आत्मायें स्थूल मोटे रूप को जल्दी जान सकती हैं। वैसे सूक्ष्म शक्ति स्थूल से बहुत श्रेष्ठ है लेकिन लोगों के लिए सूक्ष्म शक्ति के बायब्रेशन कैच करना अभी मुश्किल है। कर्म शक्ति द्वारा आपकी संकल्प शक्ति को भी जानते जाएंगे। मंसा सेवा कर्मणा से श्रेष्ठ है। वृत्ति द्वारा वृत्तियों को, वायुमण्डल को परिवर्तन करना यह सेवा भी अति श्रेष्ठ है। लेकिन इससे सहज कर्म है। उसकी परिभाषा तो पहले भी सुनाई है लेकिन आज इस बात को स्पष्ट कर रहे हैं कि कर्म द्वारा शक्ति स्वरूप का दर्शन अथवा साक्षात्कार कराओ तो कर्म द्वारा संकल्प शक्ति तक पहुँचना सहज हो जायेगा। नहीं तो कमजोर कर्म, सूक्ष्म शक्ति बुद्धि को भी, संकल्प को भी नीचे ले आयेंगे। जैसे धरनी की आकर्षण ऊपर की चीज को नीचे ले आती है। इसलिए चित्र को चरित्र में लाओ। अच्छा –
ऐसे हर शक्ति को कर्म द्वारा प्रत्यक्ष दिखाने वाले, अपने शक्ति स्वरूप द्वारा सर्वशक्तिवान बाप को प्रत्यक्ष करने वाले, सदा परखने और परिवर्तन शक्ति स्वरूप, सदा चरित्र द्वारा विचित्र बाप का साक्षात्कार कराने वाले, ऐसे मास्टर सर्वशक्तिवान, श्रेष्ठ कर्म कर्ता, शक्ति स्वरूप आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।''
पार्टियों के साथ-
1- माया के मेहमान निवाजी की रिजल्ट है - उदासी - सदा अपने को बापदादा के साथी समझते हो? जब सदा बाप का साथ अनुभव होगा तो उसकी निशानी है - ‘सदा विजयी'। अगर ज्यादा समय युद्ध में जाता है, मेहनत का अनुभव होता है तो इससे सिद्ध है - बाप का साथ नहीं। जो सदा साथ के अनुभवी हैं वे मुहब्बत में लवलीन रहते हैं। प्रेम के सागर में लीन आत्मा किसी भी प्रभाव में आ नहीं सकती। माया का आना यह कोई बड़ी बात नहीं लेकिन वह अपना रूप न दिखाये। अगर माया की मेहमान-निवाजी करते हो तो चलते- चलते ‘उदासी' का अनुभव होगा। ऐसे अनुभव करेंगे जैसे न आगे बढ़ रहे हैं न पीछे हट रहे हैं। पीछे भी नहीं हट सकते, आगे भी नहीं बढ़ सकते - यह माया का प्रभाव है। माया की आकर्षण उड़ने नहीं देती। पीछे हटने का तो सवाल ही नहीं लेकिन अगर आगे नहीं बढ़ते तो बीज को परखो और उसे भस्म करो। ऐसे नहीं - चल रहे हैं, आ रहे हैं, सुन रहे हैं, यथाशक्ति सेवा कर रहे हैं। लेकिन चैक करो कि अपनी स्पीड और स्टेज की उन्नति कहाँ तक है। अच्छा।
2- महाप्रसाद वही बनता जो एक धक से बाप पर बलि चढ़े- सभी बच्चे जीवनमुक्त स्थिति का विशेष वर्सा अनुभव करते हो? जीवनमुक्त हो या जीवनबन्ध? ट्रस्टी अर्थात् जीवनमुक्त। तो मरजीवा बने हो या मर रहे हो? कितने साल मरेंगे? भक्ति मार्ग में भी जड़ चित्र को प्रसाद कौनसा चढ़ता हैं? जो झाटकू होता है। चिलचिलाकर मरने वाला प्रसाद नहीं होता। बाप के आगे प्रसाद वही बनेगा जो झाटकू होगा। एक धक से चढ़ने वाला। सोचा, संकल्प किया, ‘मेरा बाबा, मैं बाबा का' तो झाटकू हो गया। संकल्प किया और खत्म! लग गई तलवार! अगर सोचते, बनेंगे, हो जायेंगे... तो गें...गें अर्थात् चिलचिलाना। गें गें करने वाले जीवनमुक्त नहीं। बाबा कहा - तो जैसा बाप वैसे बच्चे। बाप सागर हो और बच्चे भिखारी हों, यह हो नहीं सकता। बाप ने आफर किया - मेरे बनो तो इसमें सोचने की बात नहीं। अच्छा –
22-03-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“राज्यसत्ता और धर्मर्स्सत्ता के अध्ध्धिकारी बच्चों से बापदादा की मुलाकात”
बापदादा अपने सर्व अधिकारी बच्चों को देख रहे हैं। आप श्रेष्ठ आत्माओं के लिए जो गायन है कि राज्य सत्ता और धर्म की सत्ता - दोनों सत्ता एक के हाथ में रहती है। यह महिमा आपके भविष्य प्रालब्ध रूप की गाई हुई है। लेकिन भविष्य प्रालब्ध का आधार वर्तमान श्रेष्ठ जीवन है। बापदादा चारों ओर के बच्चों को देख रहे हैं कि राज्य सत्ता और धर्म सत्ता दोनों कहाँ तक प्राप्त की हैं! संस्कार सब इस समय ही आत्मा में भरते हैं। अब के राजे वही भविष्य में राज्य अधिकारी बन सकते हैं। अब की धारणा स्वरूप आत्मायें ही धर्म सत्ता प्राप्त कर सकती हैं। तो दोनों ही सत्तायें हरेक ने अपने में कहाँ तक धारण की है?
राज्य सत्ता अर्थात् अधिकारी, अथार्टी स्वरूप। राज्य सत्ता वाली आत्मा अपने अधिकार द्वारा जब चाहे, जैसे चाहे वैसे अपनी स्थूल और सूक्ष्म शक्तियों को चला सकती है। यह अथार्टी राज्य सत्ता की निशानी है। दूसरी निशानी - राज्य सत्ता वाले हर कार्य को ला एण्ड आर्डर द्वारा चला सकते हैं। राज्य सत्ता अर्थात् मात-पिता के स्वरूप में अपनी प्रजा की पालना करने की शक्ति वाला। राज्य सत्ता अर्थात् स्वयं भी सदा सर्व में सम्पन्न और औरों को भी सम्पन्नता में रखने वाले। राज्य सत्ता अर्थात् विशेष सर्व प्राप्तियाँ होंगी - सुख, शान्ति, आनन्द, प्रेम, सर्व गुणों के खजानों से भरपूर। स्वयं भी और सर्व भी खजानों से भरपूर। राज्य सत्ता वाले अर्थात् अधिकारी आत्मायें बने हो? मातपिता के समान पालना की विशेषता अनुभव करते हो? जो भी आत्मायें सम्बन्ध वा सम्पर्क में आवें, वे अनुभव करें कि यही श्रेष्ठ आत्मायें हमारे ‘पूर्वज' हैं। इन्हीं आत्माओं द्वारा जीवन का सच्चा प्रेम, और जीवन की उन्नति का साधन प्राप्त हो सकता है क्योंकि पालना द्वारा ही प्रेम और जीवन की उन्नति प्राप्त होती है। पालना द्वारा आत्मा योग्य बन जाती है। छोटा सा बच्चा भी पालना द्वारा अपनी जीवन की मंजिल को पहुँचने के लिए हिम्मतवान बन जाता है। ऐसे रूहानी पालना द्वारा आत्मा निर्बल से शक्ति स्वरूप बन जाती है। अपनी मंजिल की ओर तीव्रगति से पहुंचने की हिम्मतवान बन जाती है। पालना में वह सदा प्रेम के सागर बाप द्वारा सच्चे अथाह प्रेम की अनुभूति करती है। ऐसे राज्य सत्ता की निशानियां अपने में अनुभव करते हो? अधीनता के संस्कार परिवर्तन हो, अधिकारीपन के संस्कार अनुभव करते हो? राज्य सत्ता के संस्कार भर गये हैं? निशानियाँ तो यहाँ दिखाई देंगी वा भविष्य में? राज्य सत्ता की एक और भी विशेषता है, जानते हो? ‘सदा अटल और अखण्ड राज्य।' यह महिमा अपने राज्य की करते हो ना! यह भी निशानी चेक करो कि राज्य सत्ता की जो भी निशानियाँ हैं वह अटल और अखण्ड हैं? सत्ता खण्डित तो नही होती! अभी-अभी अधिकारी, अभी-अभी अधीन होगा तो उनको अखण्ड कहा जायेगा? इससे ही अपने आपको जान सकते हो कि मेरी प्रालब्ध क्या है - राज्य अधिकारी हूँ वा राज्य के अन्दर रहने वाला हूँ?
इसी रीति - धर्म सत्ता अर्थात् हर धारणा की शक्ति स्वयं में अनुभव करने वाली आत्मा। जैसे पवित्रता के धारणा की शक्ति अनुभव करने वाली। पवित्रता की शक्ति से सदा परमपूज्य बन जाते। पवित्रता की शक्ति से इस पतित दुनिया को परिवर्तन कर लेते हो। पवित्रता की शक्ति विकारों की अग्नि में जलती हुई आत्माओं को शीतल बना देती है। पवित्रता की शक्ति आत्मा को अनेक जन्मों के विकर्मों के बन्धन से छुड़ा देती है। पवित्रता की शक्ति नेत्रहीन को तीसरा नेत्र दे देती है। पवित्रता की शक्ति से इस सारे सृष्टि रूपी मकान को गिरने से थमा सकते हैं। पवित्रता पिलर्स हैं - जिसके आधार पर द्वापर से यह सृष्टि कुछ न कुछ थमी हुई है। पवित्रता लाइट का क्राउन है। ऐसे पवित्रता की धारणा - ‘यह है धर्म सत्ता'। इसी प्रकार हर गुण की धारणा, हर गुण की विशेषता आत्मा में समाई हुई हो। इसको कहा जाता है ‘धर्म सत्ता'। धर्म सत्ता अर्थात् धारणा की सत्ता। ऐसी धर्म सत्ता वाली आत्मायें बने हो? धर्म में दो विशेषतायें होती हैं। धर्म सत्ता स्व को और सर्व को सहज परिवर्तन कर लेती है। परिवर्तन शक्ति स्पष्ट होगी। सारे चक्र में देखो जो भी धर्म सत्ता वाली आत्मायें आई हैं उन्हों की विशेषता है - मनुष्य आत्माओं को परिवर्तन करना। साधारण मनुष्य से परिवर्तन हो कोई बौद्धी, कोई क्रिश्चयन बना, कोई मठ पंथ वाले बने। लेकिन परिवर्तन तो हुए ना! तो धर्म सत्ता अर्थात् परिवर्तन करने की सत्ता। पहले स्वयं को फिर औरों को। धर्म सत्ता की दूसरी विशेषता है - ‘परिपक्वता'। हिलने वाले नहीं। परिपक्वता की शक्ति द्वारा ही परिवर्तन कर सकेंगे। चाहे सितम हों, ग्लानी हो, आपोजिशन हो लेकिन अपनी धारणा में परिपक्व रहें। यह हैं धर्म सत्ता की विशेषतायें। धर्म सत्ता वाली हर कर्म में निर्मान। जितना ही गुणों की धारणा सम्पन्न होगा अर्थात् गुणों रूपी फल स्वरूप होगा उतना ही फल सम्पन्न होते भी निर्मान होगा। अपनी ‘निर्मान' स्थिति द्वारा ही हर गुण को प्रत्यक्ष कर सकेंगे। जो भी ब्राह्मण कुल की धारणायें हैं उन सर्व धारणाओं की शक्ति होना अर्थात् धर्म सत्ताधारी होना। तो राज्य सत्ता और धर्म सत्ता दोनों संस्कार हर आत्मा में भर गये हैं! दोनों का बैलेन्स है?
आज बापदादा सभी बच्चों का यह चार्ट देख रहे थे कि कहाँ तक धर्म सत्ता और राज्य सत्ता अधिकारी बने हैं! नम्बरवार होंगे वा सभी एक जैसे होंगे? मेरा नम्बर क्या है यह जान सकते हो? यहाँ सब राजे बैठे हो ना! प्रजा बनाने वाले हो ना! स्वयं तो प्रजा नहीं हो ना! तो सभी अपने को ऐसे राज्य सत्ता और धर्म सत्ता अधिकारी बनाओ। समझा - राज्य वंश की निशानियाँ क्या हैं? देहली और महाराष्ट्र जोन वाले बैठे हैं ना! राजधानी वाले भी राज्य अधिकारी बनेंगे ना! और महाराष्ट्र वाले महान बनेंगे। महान अर्थात् राज्य अधिकारी। तो दोनों ही स्थान की महान श्रेष्ठ आत्मायें आई हुई हैं। और विदेशी क्या बनेंगे? राज्य करने वाले वा राज्य को देखने वाले बनेंगे? सबसे आगे जायेंगे ना! अच्छा –
ऐसे राज्य सत्ता और धर्म सत्ता अधिकारी, सदा सम्पन्न बन औरों को सम्पन्न बनाने वाले, परिवर्तन शक्ति द्वारा स्व परिवर्तन और विश्व परिवर्तन करने वाली श्रेष्ठ आत्मायें, सारा कल्प महिमा और पूजन होने वाली पवित्र आत्मायें, सदा अपने पवित्रता के गुण द्वारा सर्व को गुणवान बनाने वाली गुण मूर्त आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।''
पार्टियों के साथ:-
1. समय के प्रमाण स्वयं को परिवर्तन करो:- अभी समय के प्रमाण परिवर्तन की गति तीव्र चाहिए। जब समय तीव्रगति में जा रहा है और परिवर्तन करने वाले तीव्रगति में नहीं होंगे तो समय परिवर्तन हो जायेगा और स्वयं कमी वाले ही रह जायेंगे। कमी वाली आत्माओं की निशानी क्या दिखाई है? कमान। तो कमानधारी बनना है वा छत्रधारी बनना है? सूर्यवंशी बनना है ना? तो सूर्य सदा तेज होता है और तीव्रगति में कार्य करता है। सूर्य के अन्तर में चन्द्रमा शीतल गाया जाता है। तो पुरूषार्थ में शीतल नहीं होना है। पुरूषार्थ में शीतल हुए तो चन्द्रवंशी हो जायेंगे। सूर्यवंशी की निशानी है - तीव्र पुरूषार्थ। सोचा और किया। ऐसे नहीं, सोचा एक वर्ष पहले और किया दूसरे वर्ष में। तीव्र पुरूषार्थ अर्थात् उड़ती कला वाले। अभी चढ़ती कला का समय भी चला गया। अब तो आगे बढ़ने का बहुत सहज साधन मिला हुआ है सिर्फ एक शब्द की गिफ्ट है - वह कौन सी? ‘मेरा बाबा', यही एक शब्द ऐसी लिफ्ट है जो एक सेकण्ड में नीचे से ऊपर जा सकते हो। क्या यह लिफ्ट यूज़ करने नहीं आती? अब लिफ्ट का जमाना है फिर सीढ़ी क्यों चढ़ते हो? लिफ्ट में कोई थकावट नहीं होती। सोचा और पहुँचा। तो कौन हो? एक ही शब्द लिफ्ट है - ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं, एक शब्द एक नम्बर में पहुँचा देगा। ‘जब मेरा बाबा हुआ तो मैं उसमें समा गई।' इतनी सहज लिफ्ट यूज़ करो - यूज़ करने वाले पहुँच जाते और देखने वाले, सोचने वाले रह जाते। तो अब एक शब्द के स्मृति स्वरूप होकर सदा समर्थ आत्मा बन जाओ।
सदा हर कदम आगे बढ़ाते दूसरों को भी आगे बढ़ाते रहो। जितना स्वयं सम्पन्न होंगे उतना औरों को भी सम्पन्न बना सकेंगे।
अच्छा - ओमशान्ति।
24-03-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“ब्राह्मण जीवन की विशेषता है - ‘‘पवित्रता''”
परमपवित्र बापदादा बोले-
‘‘आज बापदादा अपने पावन बच्चों को देख रहे हैं। हरेक ब्राह्मण आत्मा कहाँ तक पावन बनी है - यह सबका पोतामेल देख रहे हैं। ब्राह्मणों की विशेषता है ही ‘पवित्रता'। ब्राह्मण अर्थात् पावन आत्मा। पवित्रता को कहाँ तक अपनाया है, उसको परखने का यन्त्र क्या है? ‘‘पवित्र बनो'', यह मन्त्र सभी को याद दिलाते हो लेकिन श्रीमत प्रमाण इस मन्त्र को कहाँ तक जीवन मे लाया है? जीवन अर्थात् सदाकाल। जीवन में सदा रहते हो ना! तो जीवन में लाना अर्थात् सदा पवित्रता को अपनाना। इसको परखने का यन्त्र जानते हो? सभी जानते हो और कहते भी हो कि ‘पवित्रता सुख-शान्ति की जननी है'। अर्थात् जहाँ पवित्रता होगी वहाँ सुख-शांति की अनुभूति अवश्य होगी। इसी आधार पर स्वयं को चैक करो - मंसा संकल्प में पवित्रता है, उसकी निशानी - मन्सा में सदा सुख स्वरूप, शान्त स्वरूप की अनुभूति होगी। अगर कभी भी मंसा में व्यर्थ संकल्प आता है तो शांति के बजाय हलचल होती है। क्यों और क्या इन अनेक क्वेश्चन के कारण सुख स्वरूप की स्टेज अनुभव नहीं होगी। और सदैव समझने की आशा बढ़ती रहेगी - यह होना चाहिए, यह नहीं होना चाहिए, यह कैसे, यह ऐसे। इन बातों को सुलझाने में ही लगे रहेंगे। इसलिए जहाँ शांति नहीं वहाँ सुख नहीं। तो हर समय यह चेक करो कि किसी भी प्रकार की उलझन सुख और शांति की प्राप्ति में विघ्न रूप तो नहीं बनती है! अगर क्यों, क्या का क्वेश्चन भी है तो संकल्प शक्ति में एकाग्रता नहीं होगी। जहाँ एकाग्रता नहीं, वहाँ सुख- शांति की अनुभूति हो नहीं सकती। वर्तमान समय के प्रमाण फरिश्ते-पन की सम्पन्न स्टेज के वा बाप समान स्टेज के समीप आ रहे हो, उसी प्रमाण पवित्रता की परिभाषा भी अति सूक्ष्म समझो। सिर्फ ब्रह्मचारी बनना भविष्य पवित्रता नहीं लेकिन ब्रह्मचारी के साथ ‘ब्रह्मा आचार्य' भी चाहिए। शिव आचार्य भी चाहिए। अर्थात् ब्रह्मा बाप के आचरण पर चलने वाला। शिव बाप के उच्चारण किये हुए बोल पर चलनेवाला। फुट स्टैप अर्थात् ब्रह्मा बाप के हर कर्म रूपी कदम पर कदम रखने वाले। इसको कहा जाता है - ‘ब्रह्मा आचार्य'। तो ऐसी सूक्ष्म रूप से चैंकिग करो कि सदा पवित्रता की प्राप्ति, सुख-शांति की अनुभूति हो रही है? सदा सुख की शैय्या पर आराम से अर्थात् शांति स्वरूप में विराजमान रहते हो? यह ब्रह्मा आचार्य का चित्र है।
सदा सुख की शैय्या पर सोई हुई आत्मा के लिए यह विकार भी छत्रछाया बन जाता हैं - दुश्मन बदल सेवाधारी बन जाते हैं। अपना चित्र देखा है ना! तो ‘शेष शय्या' नहीं लेकिन ‘सुख-शय्या'। सदा सुखी और शान्त की निशानी है - सदा हर्षित रहना। सुलझी हुई आत्मा का स्वरूप सदा हर्षित रहेगा। उलझी हुई आत्मा कभी हर्षित नहीं देखेंगे। उसका सदा खोया हुआ चेहरा दिखाई देगा और वह सब कुछ पाया हुआ चेहरा दिखाई देगा। जब कोई चीज खो जाती है तो उलझन की निशानी क्यों, क्या, कैसे ही होता है। तो रूहानी स्थिति में भी जो भी पवित्रता को खोता है, उसके अन्दर क्यों, क्या और कैसे की उलझन होती है। तो समझा कैसे चेक करना है? सुख-शांति के प्राप्ति स्वरूप के आधार पर मंसा पवित्रता को चेक करो।
दूसरी बात - अगर आपकी मंसा द्वारा अन्य आत्माओं को सुख और शांति की अनुभूति नहीं होती अर्थात् पवित्र संकल्प का प्रभाव अन्य आत्मा तक नहीं पहुँचता तो उसका भी कारण चेक करो। किसी भी आत्मा की जरा भी कमज़ोरी अर्थात् अशुद्धि अपने संकल्प में धारण हुई तो वह अशुद्धि अन्य आत्मा को सुख-शान्ति की अनुभूति करा नहीं सकेगी। या तो उस आत्मा के प्रति व्यर्थ वा अशुद्ध भाव है वा अपनी मंसा पवित्रता की शक्ति में परसेन्टेज की कमी है। जिस कारण औरों तक वह पवित्रता की प्राप्ति का प्रभाव नहीं पड़ सकता। स्वयं तक है, लेकिन दूसरों तक नहीं हो सकता। लाइट है, लेकिन सर्चलाइट नहीं है। तो पवित्रता के सम्पूर्णता की परिभाषा है - सदा स्वयं में भी सुख-शान्ति स्वरूप और दूसरों को भी सुख-शांति की प्राप्ति का अनुभव कराने वाले। ऐसी पवित्र आत्मा अपनी प्राप्ति के आधार पर औरों को भी सदा सुख और शान्ति, शीतलता की किरणें फैलाने वाली होगी। तो समझा सम्पूर्ण पवित्रता क्या है?
पवित्रता की शक्ति इतनी महान है जो अपनी पवित्र मंसा अर्थात् शुद्ध वृत्ति द्वारा प्रकृति को भी परिवर्तन कर लेते। मंसा पवित्रता की शक्ति का प्रत्यक्ष प्रमाण है - प्रकृति का भी परिवर्तन। स्व परिवर्तन से प्रकृति का परिवर्तन। प्रकृति के पहले व्यक्ति। तो व्यक्ति परिवर्तन और प्रकृति परिवर्तन - इतना प्रभाव है मंसा पवित्रता की शक्ति का। आज मंसा पवित्रता को स्पष्ट सुनाया - फिर वाचा और कर्मणा अर्थात् सम्बन्ध और सम्पर्क में सम्पूर्ण पवित्रता की परिभाषा क्या है वह आगे सुनायेंगे। अगर पवित्रता की परसेन्टेज में 16 कला से 14 कला हो गये तो क्या बनना पड़ेगा? जब 16 कला की पवित्रता अर्थात् सम्पूर्णता नहीं तो सम्पूर्ण सुख-शांति के साधनों की भी प्राप्ति कैसे होगी! युग बदलने से महिमा ही बदल जाती है। उसको सतोप्रधान, उसको सतो कहते हैं। जैसे सूर्यवंशी अर्थात् सम्पूर्ण स्टेज है। 16 कला अर्थात् फुल स्टेज है वैसे हर धारणा में सम्पन्न अर्थात् फुल स्टेज प्राप्त करना ‘सूर्यवंशी' की निशानी है। तो इसमें भी फुल बनना पड़े। कभी सुख की शय्या पर कभी उलझन की शय्या पर इसको सम्पन्न तो नहीं कहेंगे ना! कभी बिन्दी का तिलक लगाते, कभी क्यों, क्या का तिलक लगाते। तिलक का अर्थ ही है - ‘स्मृति'। सदा तीन बिन्दियों का तिलक लगाओ। तीन बिन्दियों का तिलक ही सम्पन्न स्वरूप है। यह लगाने नहीं आता! लगाते हो लेकिन अटेन्शन रूपी हाथ हिल जाता है। अपने पर भी हंसी आती है ना! लक्ष्य पावरफुल है तो लक्षण सम्पूर्ण सहज हो जाते हैं। मेहनत से भी छूट जायेंगे। कमजोर होने के कारण मेहनत ज्यादा करनी पड़ती है। शक्ति स्वरूप बनो तो मेहनत समाप्त। अच्छा –
सदा सफलता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है, यह अधिकार प्राप्त की हुई आत्मायें, सदा सम्पूर्ण पवित्रता द्वारा स्वयं और सर्व को सुख-शांति की अनुभूति कराने वाली, अनुभूति करने और कराने के यन्त्र द्वारा सदा पवित्र बनो - इस मंत्र को जीवन में लाने वाले, ऐसे सम्पूर्ण पवित्रता, सुख-शांति के अनुभवों में स्थित रहने वाले, बाप समान फरिश्ता स्वरूप आत्माओं को बापदादा का याद प्यार और नमस्ते।''
पार्टियों के साथ
1. सदा रूहानियत की खुशबू फैलाने वाले सच्चे-सच्चे रूहानी गुलाब:- सभी बच्चे- सदा रूहानी नशे में रहने वाले सच्चे रूहानी गुलाब हो ना? जैसे रूहे गुलाब का नाम बहुत मशहूर है वैसे आप सभी आत्मायें रूहानी गुलाब हो। रूहानी गुलाब अर्थात् चारों ओर रूहानियत की खुशबू फैलाने वाले। ऐसे अपने को रूहानी गुलाब समझते हो? सदा रूह को देखते और रूहों के मालिक के साथ रूह-रूहान करते यही रूहानी गुलाब की विशेषता है। सदा शरीर को देखते रूह अर्थात् आत्मा को देखने का पाठ पक्का है ना! इसी रूह को देखने के अभ्यासी रूहानी गुलाब हो गये। बाप के बगीचे के विशेष पुष्प हो क्योंकि सबसे नम्बरवन रूहानी गुलाब हो। सदा एक की याद में रहने वाले अर्थात् एक नम्बर में आना है, यही सदा लक्ष्य रखो।
(दीदी जी- दिल्ली मेले की ओपानिंग पर जाने की छुट्टी ले रहीं हैं)
सभी को उड़ाने के लिए जा रही हो ना! याद में, स्नेह में, सहयोग में, सबमें उड़ाने के लिए जा रही हो। यह भी ड्रामा में बाइप्लाट्स रखे हुए हैं। तो अच्छा है अभी-अभी जाना, अभी-अभी आना। आत्मा ही प्लेन बन गई। जैसे प्लेन में आना, जाना मुश्किल नहीं वैसे आत्मा ही उड़ता पंछी हो गई है। इसलिए आने-जाने में सहज होता है। यह भी ड्रामा में हीरो पार्ट है, थोड़े समय में भासना अधिक देने का। तो यह हीरो पार्ट बजाने के लिए जा रही हो। अच्छा - सभी को याद देना और सदा सफलता स्वरूप का शुभ संकल्प रखते आगे बढ़ते चलो - यही स्मृति स्वरूप बनाकर आना। फिर भी दिल्ली है। दिल्ली को तो पवित्र स्थान बनाना ही है। आवाज फिर भी दिल्ली से ही निकलेगा। सबके माइक दिल्ली से ही पहुँचेगे। जब गवर्मेंट से आवाज निकलेगा तब समाप्ति हो जायेगी। तो भारत के नेतायें भी जागेंगे। उसकी तैयारी के लिए जा रही हो ना! अच्छा-
27-03-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“बीजरूप स्थिति तथा अलौकिक अनुभूतियाँ”
बीजरूप शिव बाबा बिन्दु आत्माओं के प्रति बोले:-
‘‘आवाज से परे रहने वाला बाप, आवाज की दुनिया में आवाज द्वारा सर्व को आवाज से परे ले जाते हैं। बापदादा का आना होता ही है साथ ले जाने के लिए। तो सभी साथ जाने के लिए एवररेडी हो वा अभी तक तैयार होने के लिए समय चाहिए? साथ जाने के लिए बिन्दु बनना पड़े। और बिन्दु बनने के लिए सर्व प्रकार के बिखरे हुए विस्तार अर्थात् अनेक शाखाओं के वृक्ष को बीज में समाकर बीजरूप स्थिति अर्थात् बिन्दू में सबको समाना पड़े। लौकिक रीति में भी जब बड़े विस्तार का हिसाब करते हो तो सारे हिसाब को समाप्त कर लास्ट में क्या कहते? कहा जाता है - ‘कहो शिव अर्थात् बिन्दी'। ऐसे सृष्टि चक्र वा कल्प वृक्ष के अन्दर आदि से अन्त तक कितने हिसाब किताब के विस्तार में आये? अपने हिसाब किताब की शाखाओं अथवा विस्तार रूपी वृक्ष को जानते हो ना? देह के हिसाब की शाखा, देह के सम्बन्धों की शाखायें, देह के भिन्नभिन्न पदार्थों में बन्धनी आत्मा बनने की शाखा, भक्ति मार्ग और गुरूओं के बन्धनों के विस्तार की शाखायें, भिन्न-भिन्न प्रकार के विकर्मों के बन्धनों की शाखायें, कर्मभोग की शाखायें, कितना विस्तार हो गया। अब इन सारे विस्तार को बिन्दु रूप बन बिन्दी लगा रहे हो? सारे विस्तार को बीज में समा दिया है वा अभी भी विस्तार है? इस जड़जड़ीभूत वृक्ष की किसी भी प्रकार की शाखा रह तो नहीं गई है? संगमयुग है ही पुराने वृक्ष की समाप्ति का युग। तो हे संगमयुगी ब्राह्मणों! पुराने वृक्ष को समाप्त किया है? जैसे पत्ते-पत्ते को पानी नहीं दे सकते। बीज को देना अर्थात् सभी पत्तों को पानी मिलना। ऐसे इतने 84 जन्मों के भिन्न-भिन्न प्रकार के हिसाब-किताब का वृक्ष समाप्त करना है। एक-एक शाखा को समाप्त करने का नहीं। आज देह के स्मृति की शाखा को समाप्त करो और कल देह के सम्बन्धों की शाखा को समाप्त करो, ऐसे एक-एक शाखा को समाप्त करने से समाप्ति नहीं होगी। लेकिन बीज बाप से लगन लगाकर, लगन की अग्नि द्वारा सहज समाप्ति हो जायेगी। काटना भी नहीं है लेकिन भस्म करना है। आज काटेंगे, कुछ समय के बाद फिर प्रकट हो जायेगा - क्योंकि वायुमण्डल के द्वारा वृक्ष को नैचुरल पानी मिलता रहता है। जब वृक्ष बड़ा हो जाता है तो विशेष पानी देने की आवश्यकता नहीं होती। नैचरल वायुमण्डल से वृक्ष बढ़ता ही रहता है वा खड़ा हुआ रहता है। तो इस विस्तार को पाये हुए जड़जड़ीभूत वृक्ष को अभी पानी देने की आवश्यकता नहीं है। यह आटोमैटिक बढ़ता जाता है। आप समझते हो कि पुरूषार्थ द्वारा आज से देह सम्बन्ध की स्मृति रूपी शाखा को खत्म कर दिया, लेकिन बिना भस्म किये हुए फिर से शाखा निकल आती है। फिर स्वयं ही स्वयं से कहते हो वा बाप के आगे कहते हो कि यह तो हमने समाप्त कर दिया था फिर कैसे आ गया! पहले तो था नहीं फिर कैसे हुआ। कारण? काटा, लेकिन भस्म नहीं किया। आग में पड़ा हुआ बीज कभी फल नहीं देता। तो इस, हिसाब-किताब के विस्तार रूपी वृक्ष को लगन की अग्नि में समाप्त करो। फिर क्या रह जायेगा? देह और देह के सम्बन्ध वा पदार्थ का विस्तार खत्म हो गया तो बाकी रह जायेगा ‘बिन्दु आत्मा वा बीज आत्मा'। जब ऐसे बिन्दु, बीज स्वरूप बन जाओ तब आवाज से परे बीजरूप बाप के साथ चल सको। इसलिए पूछा कि आवाज से परे जाने के लिए तैयार हो? विस्तार को समाप्त कर दिया है? बीजरूप बाप, बीज स्वरूप आत्माओं को ही ले जायेंगे। बीज स्वरूप बन गये हो? जो एवररेडी होगा उसको अभी से अलौकिक अनुभूतियाँ होती रहेंगी। क्या होंगी?
चलते फिरते, बैठते, बातचीत करते पहली अनुभूति- यह शरीर जो हिसाबकिताब के वृक्ष का मूल तना है जिससे यह शाखायें प्रकट होती हैं, यह देह और आत्मा रूपी बीज, दोनों ही बिल्कुल अलग हैं। ऐसे आत्मा न्यारेपन का चलते फिरते बार-बार अनुभव करेंगे। नालेज के हिसाब से नहीं कि आत्मा और शरीर अलग हैं। लेकिन शरीर से अलग मैं आत्मा हूँ! यह अलग वस्तु की अनुभूति हो। जैसे स्थूल शरीर के वस्त्र और वस्त्र धारण करने वाला शरीर अलग अनुभव होता है ऐसे मुझ आत्मा का यह शरीर वस्त्र है, मैं वस्त्र धारण करने वाली आत्मा हूँ। ऐसा स्पष्ट अनुभव हो। जब चाहे इस देह भान रूपी वस्त्र को धारण करें, जब चाहे इस वस्त्र से न्यारे अर्थात् देहभान से न्यारे स्थिति में स्थित हो जायें। ऐसा न्यारेपन का अनुभव होता है? वस्त्र को मैं धारण करता हूँ या वस्त्र मुझे धारण करता है? चैतन्य कौन? मालिक कौन? तो एक निशानी - ‘न्यारेपन की अनुभूति'। अलग होना नहीं है लेकिन मैं हूँ ही अलग।
दूसरी निशानी वा अनुभूति- जैसे भक्तों को वा आत्मज्ञानियों का व कोई- कोई परमात्म-ज्ञानियों को दिव्य दृष्टि द्वारा ज्योति बिन्दु आत्मा का साक्षात्कार होता है, तो साक्षात्कार अल्पकाल की चीज है, साक्षात्कार कोई अपने अभ्यास का फल नहीं है। यह तो ड्रामा में पार्ट वा वरदान है। लेकिन एवररेडी अर्थात् साथ चलने के लिए समान बनी हुई आत्मा साक्षात्कार द्वारा आत्मा को नहीं देखेंगी लेकिन बुद्धियोग द्वारा सदा स्वयं को साक्षात् ‘ज्योति बिन्दु आत्मा' अनुभव करेगी। साक्षात् स्वरूप बनना सदाकाल है और साक्षात्कार अल्पकाल का है। साक्षात स्वरूप आत्मा कभी भी यह नहीं कह सकती कि मैंने आत्मा का साक्षात्कार नहीं किया है। मैंने देखा नहीं है। लेकिन वह अनुभव द्वारा साक्षात् रूप की स्थिति में स्थित रहेंगी। जहाँ साक्षात स्वरूप होगा वहाँ साक्षात्कार की आवश्यकता नहीं। ऐसे साक्षात आत्मा स्वरूप की अनुभूति करने वाले अथार्टी से, निश्चय से कहेंगे कि मैंने आत्मा को देखा तो क्या लेकिन अनुभव किया है। क्योंकि देखने के बाद भी अनुभव नहीं किया तो फिर देखना कोई काम का नहीं। तो ऐसे साक्षात् आत्म-अनुभवी चलते-फिरते अपने ज्योति स्वरूप का अनुभव करते रहेंगे।
तीसरी अनुभूति- ऐसी समान आत्मा अर्थात् एवररेडी आत्मा - साकारी दुनिया और साकारी शरीर में होते हुए भी बुद्धियोग की शक्ति द्वारा सदा ऐसा अनुभव करेगी कि मैं आत्मा चाहे सूक्ष्मवतन में, चाहे मूलवतन में, वहाँ ही बाप के साथ रहती हूँ। सेकण्ड में सूक्ष्मवतन वासी, सेकण्ड में मूलवतनवासी, सेकण्ड में साकार वतन वासी हो कर्मयोगी बन कर्म का पार्ट बजाने वाली हूँ लेकिन अनेक बार अपने को बाप के साथ सूक्ष्मवतन और मूलवतन में रहने का अनुभव करेंगे।
फुर्सत मिली और सूक्ष्मवतन व मूलवतन में चले गये। ऐसे सूक्ष्मवतन वासी, मूलवतनवासी की अनुभूति करेंगे जैसे कार्य से फुर्सत मिलने के बाद घर में चले जाते हैं। दफ्तर का काम पूरा किया तो घर में जायेंगे वा दफ्तर में ही बैठे रहेंगे! ऐसे एवररेडी आत्मा बार-बार अपने को अपने घर के निवासी अनुभव करेंगी। जैसे कि घर सामने खड़ा है। अभी-अभी यहाँ, अभी-अभी वहाँ। साकारी वतन के कमरे से निकल मूलवतन के कमरे में चले गये।
और अनुभूति - ऐसी समान आत्मा बन्धनमुक्त होने के कारण ऐसे अनुभव करेगी जैसे उड़ता पंछी बन ऊँचे से ऊँचे उड़ते जा रहे हैं और ऊँची स्थिति रूपी स्थान पर स्थित होते अनुभव करेंगे कि यह सब नीचे हैं। मैं सबसे ऊपर हूँ। जैसे विज्ञान की शक्ति द्वारा ‘स्पेस' में चले जाते हैं तो धरनी का आकर्षण नीचे रह जाता है और वह स्वयं को सबसे ऊपर अनुभव करते और सदा हल्का अनुभव करते हैं। ऐसे साइलेन्स की शक्ति द्वारा स्वयं को विकारों की आकर्षण, वा प्रकृति की आकर्षण सबसे परे उड़ती हुई स्टेज अर्थात् सदा डबल लाइट रूप अनुभव करेंगे। उड़ने की अनुभूति सब आकर्षण से परे ऊँची है। सर्व बन्धनों से मुक्त है। इस स्थिति की अनुभूति होना अर्थात् ऊँची उड़ती कला वा उड़ती हुई स्थिति का अनुभव होना। चलते-फिरते जा रहे हैं, उड़ रहे हैं, बाप भी बिन्दु, मैं भी बिन्दू, दोनों साथ-साथ जा रहे हैं। समान आत्मा को यह अनुभव ऐसा स्पष्ट होगा जैसे कि देख रहे हैं। अनुभूति के नेत्र द्वारा देखना, दिव्य दृष्टि द्वारा देखने से भी स्पष्ट है, समझा! ऐसे तो विस्तार बहुत है फिर भी सार में थोड़ी-सी निशानियां सुनाई। तो ऐसे एवररेडी हो अर्थात् अनुभवी स्वरूप हो? साथ जाने के लिए तैयार हो ना या कहेंगे अभी अजुन यह रह गया है! ऐसी अनुभूति होती है वा सेवा में इतने बिजी हो गये हो जो घर ही भूल जाता है। सेवा भी इसीलिए करते हो कि आत्माओं को मुक्ति वा जीवनमुक्ति का वर्सा दिलावें।
सेवा में भी यह स्मृति रहे कि बाप के साथ जाना है तो सेवा में सदा अचल स्थिति रह सकती है? सेवा के विस्तार में सार रूपी बीज की अनुभूति को भूलो मत। विस्तार में खो नहीं जाओ। विस्तार में आते स्वयं भी सार स्वरूप में स्थित रह और औरों को भी सार स्वरूप की अनुभूति कराओ। समझा -अच्छा।
ऐसे सदा साक्षात् आत्म स्वरूप के अनुभवी मूर्त, सदा सर्व हिसाब-किताब के वृक्ष को समाप्त कर बिन्दी लगाए बिन्दी रूप में स्थित रह बिन्दु बाप के साथ सदा रहने वाले, अभी-अभी कर्मयोगी, अभी-अभी सूक्ष्मवतन वासी, अभी-अभी मूलवतनवासी ऐसे सदा अभ्यासी आत्मा, सदा अपनी उड़ती कला का अनुभव करने वाली आत्मा, ऐसे बाप समान एवररेडी आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।''
पार्टियों के साथ:- (पंजाब तथा गुजरात जोन)
1.माया की छाया से बचने के लिए छत्रछाया के अन्दर रहो:- सदा अपने ऊपर बाप के याद की छत्रछाया अनुभव करते हो? याद की छत्रछाया है। इस छत्रछाया को कभी छोड़ तो नहीं देते? जो सदा छत्रछाया के अन्दर रहते हैं वे सर्व प्रकार के माया के विघ्नों से सेफ रहते हैं। किसी भी प्रकार से माया की छाया पड़ नहीं सकती। यह 5 विकार, दुश्मन के बजाए दास बनकर सेवाधारी बन जाते हैं। जैसे विष्णु के चित्र में देखा है - कि सांप की शय्या और सांप ही छत्रछाया बन गये। यह है विजयी की निशानी। तो यह किसका चित्र है? आप सबका चित्र है ना। जिसके ऊपर विजय होती है वह दुश्मन से सेवाधारी बन जाते हैं। ऐसे विजयी रत्न हो। शक्तियाँ भी गृहस्थी माताओं से, शक्ति सेना की शक्ति बन गई। शक्तियों के चित्र में रावण के वंश के दैत्यों को पांव के नीचे दिखाते हैं। शक्तियों ने असुरों को अपने शक्ति रूपी पाँव से दबा दिया। शक्ति किसी भी विकारी संस्कार को ऊपर आने ही नहीं देगी।
2.ज्ञान का दान करने वाले सच्चे-सच्चे महादानी बनो- सदा बुद्धि द्वारा ज्ञान सागर के कण्ठे पर रहने वाले अर्थात् सागर के द्वारा मिले हुए अखुट खजाने के मालिक अपने को समझते हो? सागर जैसे सम्पन्न है, अखुट है, अखण्ड है, ऐसे ही आत्मायें भी मास्टर, अखण्ड, अखुट खजानों के मालिक हैं। जो खजाने मिले हैं उसको महादानी बन औरों के प्रति कार्य में लगाते रहो। जो भी सम्बन्ध में आने वाली भक्त वा साधारण आत्मायें हैं उनके प्रति सदा यही लगन रहे कि भक्तों को भक्ति का फल मिल जाए, बिचारे भटक रहे हैं, भटकना देखकर तरस आता है ना! जितना रहमदिल बनेंगे उतना भटकती हुई आत्माओं को सहज रास्ता बतायेंगे। सन्देश देते चलो - यह नहीं सोचो कि कोई निकलता ही नहीं है। आप महादानी बनो, सन्देश देते रहो, उल्हना न रह जाए। अविनाशी ज्ञान का कभी विनाश नहीं होता। आज सुनेंगे, एक मास बाद सोचेंगे और सोचकर समीप आ जायेंगे। इसलिए कभी भी दिलशिकस्त नहीं बनना। जो करता है उसका बनता है। और जिसकी करते हो वह भी आज नहीं तो कल मानेंगे जरूर। तो अखुट सेवा अथक बनकर करते रहो। कभी भी थकना नहीं क्योंकि बापदादा के पास सबका जमा हो ही जाता है और जो करते हो उसका प्रत्यक्षफल खुशी भी मिल जाती है।
3-वातावरण को पावरफुल बनाने का लक्ष्य रखो तो सेवा की वृद्धि के लक्षण दिखाई देंगे:- जैसे मन्दिर का वातावरण दूर से ही खींचता है, ऐसे याद की खुशबू का वातावरण ऐसा श्रेष्ठ हो जो आत्माओं को दूर से ही आकर्षित करे कि यह कोई विशेष स्थान है। सदा याद की शक्ति द्वारा स्वयं को आगे बढ़ाओ और साथ-साथ वायु मण्डल को भी शक्तिशाली बनाओ। सेवाकेन्द्र का वातावरण ऐसा हो जो सभी आत्मायें खिंचती हुई आ जाएं। सेवा सिर्फ वाणी से ही नहीं होती, मंसा से भी सेवा करो। हरेक समझे मुझे वातावरण पावरफुल बनाना है, हम जिम्मेवार हैं। ऐसा जब लक्ष्य रख्गे तो सेवा की वृद्धि के लक्षण दिखाई देंगे। आना तो सबको है, यह तो पक्का है। लेकिन कोई सीधे आ जाते हैं, कोई चक्कर लगाकर, भटकने के बाद आ जाते हैं। इसलिए एक-एक समझे कि मैं जागती ज्योति बनकर ऐसा दीपक बनूँ जो परवाने आपेही आयें। आप जागती ज्योति बनकर बैठेंगे तो परवाने आपेही आयेंगे।
4-फुर्सत में रहने वाली आत्माओं की सेवा भी फुर्सत से करो-तो सफलता मिलेगी:- वानप्रस्थी जिन्हों को सदा फुर्सत है, जो रिटायर्ड हैं, उनकी सेवा के लि्ाए थोड़ी मेहनत करनी पड़ेगी - वे सिर्फ कार्ड बांटने से नहीं आयेंगे। फुर्सत वालों की सेवा भी फुर्सत अर्थात् समय देकर करनी पड़ेगी क्योंकि वे अपने को वानप्रस्थी होने के कारण अनुभवी समझते हैं। उन्हें अनुभव का अभिमान होता है। इसलिए उनकी सेवा के लिए थोड़ा ज्यादा समय देना पड़े और तरीका भी मित्रता का, स्नेह मिलन का हो। समझाने का नहीं। मित्रता के नाते से उन्हों को मिलो। ऐसे नहीं सुनाओ कि यह बात आप नहीं जानते हो, मैं जानता हूँ। अनुभव की लेन-देन करो। उनकी बात को सुनो तो समझेंगे यह हमें रिगार्ड देते हैं। किसी को भी समीप लाने के लिए उनकी विशेषता का वर्णन करो फिर उन्हें अपना अनुभव सुनाकर समीप ले आओ। अगर कहेंगे कोर्स करो, ज्ञान सुनो तो नहीं सुनेंगे इसलिए अनुभव सुनाओ। बापदादा को अभी ऐसे वानप्रस्थियों का गुलदस्ता भेंट करो। उन्हें मित्रता के नाते से सहयोगी बनाकर बुलाओ।
5.निर्मान बनो तो नव निर्माण का कर्त्तव्य आगे बढ़ता रहेगा:- सदा अपने को सेवा के निमित्त बने हुए सेवा का श्रृंगार समझकर चलते हो? सेवाधारी की मुख्य विशेषता कौन-सी है? सेवाधारी अर्थात् निर्माण करने वाले सदा निर्मान। निर्माण करने वाले और निर्मान रहने वाले। निर्मानता ही सेवा की सफलता का साधन है। निर्मान बनने से सदा सेवा में हल्के रहेंगे। निर्मान नहीं, मान की इच्छा है तो बोझ हो जायेगा। बोझ वाला सदा रूकेगा। तीव्र नहीं जा सकता। इसलिए निर्मान हैं या नहीं हैं उसकी निशानी ‘हल्का' होगा। अगर कोई भी बोझ अनुभव होता है तो समझो निर्मान नहीं हैं।
6.सच्चे रूहानी सेवाधारी अर्थात् सर्व सम्बन्धों की अनुभूति एक बाप से करने और कराने वाले- सर्व सम्बन्ध एक बाप से हैं, बाप सदा सम्मुख में हाजर-नाज़र हैं, ऐसा अनुभव होता है? तुम्हीं से खाऊँ, तुम्हीं से बैठूँ, तुम्हीं से सुनूँ...इसका अनुभव होता है ना? बाप ही सच्चा मित्र बन गया तो औरों को मित्र बनाने की जरूरत ही नहीं। जो सम्बन्ध चाहिए उस सम्बन्ध से बापदादा सदा सम्मुख में हाजर-नाज़र हैं। तो शिक्षक अर्थात् सर्व सम्बन्धों का रस एक बाप से अनुभव करने वाली, इसको कहा जाता है - ‘सच्चे सेवाधारी'। स्वयं में होगा तो औरों को भी अनुभूति करा सकेंगी। अगर निमित्त बनी हुई आत्माओं में कोई भी रसना की कमी है तो आने वाली आत्माओं में भी वह कमी रह जायेगी। तो सर्व रसनाओं का अनुभव करो और कराओ।
7. हम अल्लाह के बगीचे के पुष्प हैं - इस स्वमान में रहो- सदा अपने को बापदादा के अर्थात् अल्लाह के बगीचे के फूल समझकर चलते हो? सदा अपने आप से पूछो कि मैं रूहानी गुलाब बन सदा रूहानी खुशबू फैलाता हूँ? जैसे गुलाब की खुशबू सबको मीठी लगती है, चारों ओर फैल जाती है, तो वह है स्थूल, विनाशी चीज और आप सब अविनाशी सच्चे गुलाब हो। तो सदा अविनाशी रूहानियत की खुशबू फैलाते रहते हो? सदा इसी स्वमान में रहो कि हम अल्लाह के बगीचे के पुष्प बन गये - इससे बड़ा स्वमान और कोई हो नहीं सकता। ‘वाह मेरा श्रेष्ठ भाग्य' - यही गीत गाते रहो। भोलानाथ से सौदा कर लिया तो चतुर हो गये ना! किसको अपना बनाया है? किससे सौदा किया है? कितना बड़ा सौदा किया है? तीनों लोक ही सौदे में ले लिए। आज की दुनिया में सबसे बड़े ते बड़ा कोई भी धनवान हो लेकिन इतना बड़ा सौदा कोई नहीं कर सकता, इतनी महान आत्मायें हो - इस महानता को स्मृति में रखकर चलते चलो।
8. ब्राह्मणों का कर्त्तव्य है - खुशी का दान कर महादानी बनना- सबसे बड़े से बड़ा खजाना, खुशी का खजाना है, जो खजाना अपने पास होता है उसे दान किया जाता है। आप खुशी के खजाने का दान करते रहो। जिसको खुशी देंगे वह बार-बार आपको धन्यवाद देगा। दुखी आत्माओं को खुशी का दान दे दिया तो आपके गुण गायेंगे। महादानी बनो, खुशी के खजाने बांटो। अपने हमजिन्स को जगाओ। रास्ता दिखाओ। सेवा के बिना ब्राह्मण जीवन नहीं। सेवा नहीं तो खुशी नहीं। इसलिए सेवा में तत्पर रहो। रोज किसी न किसी को दान जरूर करो। दान करने के बिना नींद ही नहीं आनी चाहिए।
प्रश्न- बापदादा के गले में कौन से बच्चे माला के रूप में पिरोये रहते हैं?
उत्तर- जिनके गले अर्थात् मुख द्वारा बाप के गुण, बाप का दिया हुआ ज्ञान वा बाप की महिमा निकलती रहती, जो बाप ने सुनाया वही मुख से आवाज निकलता, ऐसे बच्चे बापदादा के गले का हार बन गले में पिरोये रहते हैं।
अच्छा - ओमशान्ति।
29-03-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“सच्चे वैष्णव अर्थात सदा गुण ग्राहक”
गुणों के सागर शिवबाबा गुण मूर्त बच्चों प्रति बोले:-
‘‘आज बापदादा माला बना रहे थे। कौन सी माला? हरेक श्रेष्ठ आत्मा के श्रेष्ठ गुण की माला बना रहे थे क्योंकि बापदादा जानते हैं कि श्रेष्ठ बाप के हरेक श्रेष्ठ बच्चे की अपनी-अपनी विशेषता है। अपने-अपने गुण के आधार से संगमयुग में श्रेष्ठ प्रालब्ध पा रहे हैं। बापदादा आज विशेष प्यादे ग्रुप के गुणों को देख रहे थे। चाहे पुरूषार्थ में लास्ट ग्रुप कहा जायेगा लेकिन उन्हों में भी विशेष गुण जरूर है। और वही विशेष गुण उन आत्माओं को बाप का बनने में विशेष आधार है। तो बापदादा पहले नम्बर से लास्ट नम्बर तक नहीं गये। लेकिन लास्ट से फर्स्ट तक गुण देखा। बिल्कुल लास्ट नम्बर में भी गुणवान थे। परमात्मसन्तान, और कोई गुण न हो यह हो नहीं सकता। उसी गुण के आधार से ही ब्राह्मण जन्म में जी रहे हैं अर्थात् जिन्दा हैं। ड्रामा अनुसार उसी गुण ने ही ऊँचे ते ऊँचे बाप का बच्चा बनाया है। उसी गुण के कारण ही प्रभु पसन्द बने हैं। इसलिए गुणों की माला बना रहे थे। ऐसे ही हर ब्राह्मण आत्मा के गुण को देखने से श्रेष्ठ आत्मा का भाव सहज और स्वत: ही होगा क्योंकि गुण का आधार है ही - श्रेष्ठ आत्मा। कई आत्मायें गुण को जानते हुए भी जन्म-जन्म की गन्दगी को देखने के अभ्यासी होने कारण गुण को न देख अवगुण ही देखती हैं। लेकिन अवगुण को देखना, अवगुण को धारण करना ऐसी ही भूल है जैसे स्थूल में अशुद्ध भोजन पान करना। स्थूल भोजन में अगर कोई अशुद्ध भोजन स्वीकार करता है तो भूल महसूस करते हो ना! लिखते हो ना कि खान-पान की धारणा में कमजोर हूँ। तो भूल समझते हो ना! ऐसे अगर किसी का अवगुण अथवा कमज़ोरी स्वयं में धारण करते हो तो समझो अशुद्ध भोजन खाने वाले हो। सच्चे वैष्णव नहीं, विष्णु वंशी नहीं। लेकिन राम सेना हो जायेंगे। इसलिए सदा गुण ग्रहण करने वाले - ‘गुण मूर्त' बनो।
बापदादा आज बच्चों की चतुराई के खेल देख रहे थे। याद आ रहे हैं ना अपने खेल! सबसे बड़ी बात दूसरे के अवगुण को देखना, जानना इसको बहुत होशियारी समझते हैं। इसको ही नालेजफुल समझ लेते हैं। लेकिन जानना अर्थात् बदलना। अगर जाना भी, दो घड़ी के लिए नालेजफुल भी बन गये, लेकिन नालेजफुल बनकर क्या किया? नालेज को लाइट और माइट कहा जाता है, जान तो लिया कि यह अवगुण है लेकिन नालेज की शक्ति से अपने वा दूसरे के अवगुण को भस्म किया? परिवर्तन किया? बदल के वा बदला के दिखाया वा बदला लिया? अगर नालेज की लाइट, माइट को कार्य में नहीं लाया तो क्या उसको जानना कहेंगे, नालेजफुल कहेंगे? सिवाए नालेज के लाइट। माइट को यूज़ करने के वह जानना ऐसे ही है जैसे द्वापरयुगी शास्त्रवादियों को शास्त्रं की नालेज है। ऐसे जानने वाले से अवगुण को न जानने वाले बहुत अच्छे हैं। ब्राह्मण परिवार में आपस में ऐसी आत्माओं को हँसी में ‘बुद्धू' समझ लेते हैं। आपस में कहते हो ना कि तुम तो बुद्धू हो। कुछ जानते नहीं हो। लेकिन इस बात में बुद्धू बनना अच्छा है। न अवगुण देखेंगे न धारण करेंगे, न वाणी द्वारा वर्णन कर परचिन्तन करने की लिस्ट में आयेंगे। अवगुण तो किचड़ा है ना। अगर देखते भी हो तो मास्टर ज्ञान सूर्य बन किचड़े को जलाने की शक्ति है, तो शुभ-चिन्तक बनो। बुद्धि में जरा भी किचड़ा होगा तो शुद्ध बाप की याद टिक नहीं सकेगी। प्राप्ति कर नहीं सकेंगे। गन्दगी को धारण करने की एक बार अगर आदत डाल दी तो बार-बार बुद्धि गन्दगी की तरफ न चाहते भी जाती रहेगी। और रिजल्ट क्या होगी? वह नैचुरल संस्कार बन जायेंगे। फिर उन संस्कारों को परिवर्तन करने में मेहनत और समय लग जाता है। दूसरे का अवगुण वर्णन करना अर्थात् स्वयं भी परचिन्तन के अवगुण के वशीभूत होना है। लेकिन यह समझते नहीं हो - दूसरे की कमज़ोरी वर्णन करना, अपने समाने की शक्ति की कमज़ोरी जाहिर करना है। किसी भी आत्मा को सदा गुणमूर्त से देखो। अगर किसकी कोई कमज़ोरी है भी, मर्यादा के विपरीत कार्य है भी तो बापदादा की निमित्त बनाई हुई सप्रीम कोर्ट में लाओ। खुद ही वकील और जज नहीं बन जाओ। भाई-भाई का नाता भूल, वकील और जज नहीं बन जाओ। भाई-भाई का नाता भूल वकील जज बन जाते हो इसलिए भाई-भाई की दृष्टि टिक नहीं सकती। केस दाखिल करने की मना नहीं है लेकिन मिलावट और खयानत नहीं करो। जितना हो सके शुभ भावना से इशारा दे दो। न अपने मन में रखो और न आैंरों को मन्मनाभव होने में विघ्न रूप बनो। तो चतुराई का खेल क्या करते हैं? जिस बात को समाना चाहिए उसको फैलाते हैं, और जिस बात को फैलाना चाहिए उसको समा देते हैं कि यह तो सब में है। तो सदा स्वयं को अशुद्धि से दूर रखो। मंसा में, चाहे वाणी में, कर्म में वा सम्बन्ध-सम्पर्क में अशुद्धि, संगमयुग की श्रेष्ठ प्राप्ति से वंचित बना देगी। समय बीत जायेगा। फिर ‘‘पाना था'' इस लिस्ट में खड़ा होना पड़ेगा। प्राप्ति स्वरूप की लिस्ट में नहीं होंगे। सर्व खजानों के मालिक के बालक और अप्राप्त करने वालों की लिस्ट में हों यह अच्छा लगेगा? इसलिए अपनी प्राप्ति में लग जाओ। शुभचिंतक बनो। किसी भी प्रकार के विकारों के वशीभूत हो अपनी उल्टी होशियारी नहीं दिखाओ। यह उल्टी होशियारी अब अल्पकाल के लिए अपने को खुश कर लेगी वा ऐसे साथी भी आपकी होशियारी के गीत गाते रहेंगे लेकिन कर्म की गति को भी स्मृति में रखो। उल्टी होशियारी उल्टा लटकायेगी। अभी अल्पकाल के लिए काम चलाने की होशियारी दिखायेंगे, इतना ही चलाने के बजाए चिल्लाना भी पड़ेगा। कई ऐसी होशियारी दिखाते हैं कि बापदादा दीदी दादी को भी चला लेंगे। यह सब तरीके आते हैं। अल्पकाल की उल्टी प्राप्ति के लिए मना भी लिया, चला भी लिया लेकिन पाया क्या और गंवाया क्या! दो तीन वर्ष नाम भी पा लिया लेकिन अनेक जन्मों के लिए श्रेष्ठ पद से नाम गंवा लिया। तो पाना हुआ या गंवाना हुआ?
और चतुराई सुनावें? ऐसे समय पर फिर ज्ञान की प्वाइन्ट यूज़ करते हैं कि अभी प्रत्यक्ष फल तो पा लो भविष्य में देखा जायेगा। लेकिन प्रत्यक्षफल अतीन्द्रिय सुख सदा का है, अल्पकाल का नहीं। कितना भी प्रत्यक्षफल खाने का चैलेन्ज करे लेकिन अल्पकाल के नाम से और खुशी के साथ-साथ बीच में असन्तुष्टता का कांटा फल के साथ जरूर खाते रहेंगे। मन की प्रसन्नता वा सन्तुष्टता अनुभव नहीं कर सकेंगे। इसलिए ऐसे गिरती कला की कलाबाजी नहीं करो। बापदादा को ऐसी आत्माओं पर तरस होता है - बनने क्या आये और बन क्या रहें हैं! सदा यह लक्ष्य रखो कि जो कर्म कर रहा हूँ यह प्रभु पसन्द कर्म है? बाप ने आपको पसन्द किया तो बच्चों का काम है - हर कर्म बाप पसन्द, प्रभु पसन्द करना। जैसे बाप गुण मालायें गले में पहनते हैं वैसे गुण माला पहनों, कंकड़ो की माला नहीं पहनों। रत्नों की पहनो। अच्छा –
ऐसे सदा गुण मूर्त, सदा प्रभु पसन्द, सदा सच्चे वैष्णव, विष्णु के राज्य अधिकारी, सदा शुभ भावना द्वारा भाई-भाई की दृष्टि में सहज स्थित होने वाले, सदा गुण ग्राहक दृष्टि वाले, ऐसे सदा बाप के समान बनने वाले, समीप रत्नों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।''
1. ऊँचे ते ऊँचे बाप के बच्चे, मिट्टी में खेलने के बजाए अतीन्द्रिय सुख के झूले में झूलो - सदा अपने को सर्व प्राप्ति स्वरूप अनुभव करते हो? प्राप्ति स्वरूप अर्थात् अतीन्द्रिय सुख के झूले में झूलने वाले। सदा एक बाप दूसरा न कोई....ऐसे साथ का अनुभव करेंगे। जब बाप सर्व सम्बन्धों से अपना बन गया तो सदा बाप का साथ चाहिए ना! कितनी भी बड़ी परिस्थिति हो, पहाड़ हो लेकिन बाप के साथ-साथ ऊपर उड़ते रहो तो कभी भी रूकेंगे नहीं। जैसे प्लेन को पहाड़ नहीं रोक सकते, पहाड़ पर चढ़ने वालों को बहुत मेहनत करनी पड़ती लेकिन उड़ने वाले उसे सहज ही पार कर लेते। तो कैसी भी बड़ी परिस्थिति हो, बाप के साथ उड़ते रहो तो सेकण्ड में पार हो जायेगी। कभी भी झूले से नीचे नहीं आओ, नहीं तो मैले हो जायेंगे। मैले फिर बाप से कैसे मिल सकते! बहुत काल अलग रहे अभी मेला हुआ तो मनाने वाले मैले कैसे होंगे। बापदादा हरेक बच्चे को कुल का दीपक, नम्बरवन बच्चा देखना चाहते हैं। अगर बार-बार मैले होंगे तो स्वच्छ होने में कितना टाइम वेस्ट होगा? इसलिए सदा मेले में रहो। मिट्टी में पांव क्यों रखते हो! इतने श्रेष्ठ बाप के बच्चे और मैले, तो कौन मानेगा कि यह उस ऊँचे बाप के बच्चे हैं! इसलिए बीती सो बीती। जो दूसरे सेकण्ड बीता वह समाप्त। कोई भी प्रकार की उलझन में नहीं आओ। स्वचिन्तन करो, परचिन्तन न सुनो, न करो, यही मैला करता है। अभी से क्वेश्चन-मार्क समाप्त कर बिन्दी लगा दो। बिन्दी बन बिन्दी बाप के साथ उड़ जाओ। अच्छा-
01-04-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“भाग्य का आधार - ‘‘त्याग''”
सर्व के भाग्य विधाता शिव बाबा तकदीरवान बच्चों प्रति बोले:-
‘‘आज भाग्य विधाता बापदादा अपने सर्व बच्चों के त्याग और भाग्य दोनों को देख रहे हैं। त्याग क्या किया है और भाग्य क्या पाया है - यह तो जानते ही हो कि एक गुणा त्याग उसके रिटर्न में पदमगुणा भाग्य मिलता है। त्याग की गुह्य परिभाषा जानते हुए भी जो बच्चे थोड़ा भी त्याग करते हैं तो भाग्य की लकीर स्पष्ट और बहुत बड़ी हो जाती है। त्याग की भी भिन्न-भिन्न स्टेज हैं। वैसे तो ब्रह्माकुमार वा ब्रह्माकुमारी बने तो यह भी त्याग का भाग्य - ब्राह्मण जीवन मिली। इस हिसाब से जैसे ब्राह्मण सभी कहलाते हो वैसे त्याग करने वाली आत्मा भी सब हो गये। लेकिन त्याग में भी नम्बर हैं। इसलिए भाग्य पाने में भी नम्बर हैं। ब्रह्माकुमार वा ब्रह्माकुमारी तो सब कहलाते हो लेकिन ब्रह्माकुमार-कुमारियों में से ही कोई माला का नम्बरवन दाना बना, कोई लास्ट दाना बना - लेकिन हैं दोनों ही ब्रह्माकुमार-कुमारी। शूद्र जीवन सबने त्याग दी फिर भी नम्बरवन और लास्ट का अन्तर क्यों? चाहे प्रवृत्ति में रह ट्रस्टी बन चल रहे हो, चाहे प्रवृत्ति से निवृत्त हो सेवाधारी बन सदा सेवाकेन्द्र पर रहे हुए हो लेकिन दोनों ही प्रकार की ब्राह्मण आत्मायें चाहे ट्रस्टी, चाहे सेवाधारी, दोनों ही नाम एक ही ब्रह्माकुमारकुमारी कहलाते हो। सरनेम दोनों का एक ही है लेकिन दोनों का त्याग के आधार पर भाग्य बना हुआ है। ऐसे नहीं कह सकते कि सेवाधारी बन सेवाकेन्द्र पर रहना यही श्रेष्ठ त्याग वा भाग्य है। ट्रस्टी आत्मायें भी त्याग वृत्ति द्वारा माला में अच्छा नम्बर ले सकती हैं। लेकिन सच्चे और साफ दिल वाला ट्रस्टी हो। भाग्य प्राप्त करने का दोनों को अधिकार है। लेकिन श्रेष्ठ भाग्य की लकीर खींचने का आधार है -’’श्रेष्ठ संकल्प और श्रेष्ठ कर्म।'' चाहे ट्रस्टी आत्मा हो, चाहे सेवाधारी आत्मा हो, दोनों इसी आधार द्वारा नम्बर ले सकते हैं। दोनों को फुल अथार्टी है - भाग्य बनाने की। जो बनाने चाहें, जितना बनाना चाहें बना सकते हैं। संगमयुग पर वरदाता द्वारा ड्रामा अनुसार समय को वरदान मिला हुआ है। जो चाहे वह श्रेष्ठ भाग्यवान बन सकता है। ब्रह्माकुमार-कुमारी बनना अर्थात् जन्म से भाग्य ले ही आते हो। जन्मते ही भाग्य का सितारा सर्व के मस्तक पर चमकता हुआ है। यह तो ‘जन्म-सिद्ध' अधिकार हो गया। ब्राह्मण माना ही - ‘भाग्यवान'। लेकिन प्राप्त हुए जन्म सिद्ध अधिकार को वा चमकते हुए भाग्य के सितारे को कहाँ तक आगे बढ़ाते, कितना श्रेष्ठ बनाते जाते हैं वह हरेक के पुरूषार्थ पर है। मिले हुए भाग्य के अधिकार को जीवन में धारण कर कर्म में लाना अर्थात् मिली हुई बाप की प्रॉपर्टी को कमाई द्वारा बढ़ाते रहना वा खा के खत्म कर देना, वह हरेक के ऊपर है। जन्मते ही बापदादा सबको एक जैसा श्रेष्ठ ‘भाग्यवान-भव' का वरदान कहो वा भाग्य की प्रॉपर्टी कहो, एक जैसी ही देते हैं। सब बच्चों को एक जैसा ही टाइटल देते हैं- ‘सिकीलधे बच्चे, लाडले बच्चे', कोई को सिकीलधे - कोई को न सिकीलधे नहीं कहते हैं। लेकिन प्रॉपर्टी को सम्भालना और बढ़ाना इसमें नम्बर बन जाते हैं। ऐसे नहीं कि सेवाधारियों को 10 पदम देते और ट्रस्टियों को 2 पदम देते हैं। सबको पदमापदमपति कहते हैं। लेकिन भाग्य रूपी खजाने को सम्भालना अर्थात् स्व में धारण करना और भाग्य के खजाने को बढ़ाना अर्थात् मन-वाणी-कर्म द्वारा सेवा में लगाना। इसमें नम्बर बन जाते हैं। सेवाधारी भी सब हो, धारणा मूर्त भी सब हो, परन्तु धारणा स्वरूप में नम्बरवार हो। कोई सर्वगुण सम्पन्न बने हैं, कोई गुण सम्पन्न बने हैं। कोई सदा धारणा स्वरूप हैं, कोई कभी धारणा स्वरूप, कभी डगमग स्वरूप। एक गुण को धारण करेंगे तो दूसरा समय पर कर्त्तव्य में ला नहीं सकेंगे। जैसे एक ही समय पर सहनशक्ति भी चाहिए और साथ-साथ समाने की शक्ति भी चाहिए। अगर एक शक्ति वा एक सहनशीलता के गुण को धारण कर लेंगे और समाने की शक्ति वा गुण को साथ-साथ यूज़ नहीं कर सकेंगे और कहेंगे कि इतना सहन तो किया ना? यह कोई कम किया क्या! यह भी मुझे मालूम है, मैंने कितना सहन किया, लेकिन सहन करने के बाद अगर समाया नहीं, समाने की शक्ति को यूज़ नहीं किया तो क्या होगा? यहाँ-वहाँ वर्णन होगा इसने यह किया, मैंने यह किया, तो सहन किया, यह कमाल जरूर की लेकिन कमाल का वर्णन कर कमाल को धमाल में चेन्ज कर लिया। क्योंकि वर्णन करने से एक तो देह अभिमान और दूसरा परचिन्तन दोनों ही स्वरूप कर्म में आ जाते हैं। इसी प्रकार से एक गुण को धारण किया दूसरे को नहीं किया तो जो धारणा स्वरूप होना चाहिए वह नहीं बन पाते। इस कारण मिले हुए खजाने को सदा धारण नहीं कर सकते अर्थात् सम्भाल नहीं सकते। सम्भाला नहीं अर्थात् गंवा दिया ना! कोई सम्भालता है कोई गंवा देता है। नम्बर तो होंगे ही ना! ऐसे सेवा में लगाना अर्थात् भाग्य की प्रॉपर्टी को बढ़ाना। इसमें भी सेवा तो सभी करते ही हो लेकिन सच्चे दिल से, लगन से सेवा करना, सेवाधारी बन करके सेवा करना इसमें भी अन्तर हो जाता है। कोई सच्चे दिल से सेवा करते हैं और कोई दिमाग के आधार पर सेवा करते हैं। अन्तर तो होगा ना!
दिमाग तेज है, प्वाइन्टस बहुत हैं, उसके आधार पर सेवा करना और सच्चे दिल से सेवा करना, इसमें रात-दिन का अन्तर है। दिल से सेवा करने वाला दिलाराम का बनायेगा। और दिमाग द्वारा सेवा करने वाला सिर्फ बोलना और बुलवाना सिखायेगा। वह मनन करता, वह वर्णन करता। एक है सेवाधारी बन सेवा करने वाले और दूसरे हैं नामधारी बनने के लिए सेवा करने वाले। फर्क हो गया ना। सच्चे सेवाधारी जिन आत्माओं की सेवा करेंगे उन्हों को प्राप्ति के प्रत्यक्षफल का अनुभव करायेंगे। नामधारी बनने वाले सेवाधारी उसी समय नामाचार को पायेंगे - बहुत अच्छा सुनाया, बहुत अच्छा बोला, लेकिन प्राप्ति के फल की अनुभूति नहीं करा सकेंगे। तो अन्तर हो गया ना! ऐसे एक है लगन से सेवा करना, एक है डयूटी के प्रमाण सेवा करना। लगन वाले हर आत्मा की लगन लगाने के बिना रह नहीं सकेंगे। डयूटी वाला अपना काम पूरा कर लेगा, सप्ताह कोर्स करा लेगा, योग शिविर भी करा लेगा, धारणा शिविर भी करा लेगा, मुरली सुनाने तक भी पहुँचा लेगा, लेकिन आत्मा की लगन लग जाए इसकी जिम्मेवारी अपनी नहीं समझेंगे। कोर्स के ऊपर कोर्स करा लेंगे लेकिन आत्मा में फोर्स नहीं भर सकेंगे। और सोचेंगे मैंने बहुत मेहनत कर ली। लेकिन यह नियम है कि सेवा की लगन वाला ही लगन लगा सकता है। तो अन्तर समझा? यह है मिली हुई प्रॉपर्टी को बढ़ाना। इस कारण जितना सम्भालते हैं, जितना बढ़ाते हैं उतना नम्बर आगे ले लेते हैं। भाग्यविधाता ने भाग्य सबको एक जैसा बांटा लेकिन कोई कमाने वाले कोई गंवाने वाले बन जाते। कोई खाके खत्म करने वाले बन जाते। इसलिए दो प्रकार की माला बन गई है। और माला में भी नम्बर बन गये हैं। समझा नम्बर क्यों बने? तो बापदादा त्याग के भाग्य को देख रहे थे। त्याग की भी लीला अपरमअपार है। वह फिर सुनायेंगे। अच्छा –
ऐसे श्रेष्ठ तकदीरवान, सदा श्रेष्ठ संकल्प और श्रेष्ठ कर्म द्वारा भाग्य की लकीर बढ़ाते रहने वाले, सदा सच्चे सेवाधारी, सदा सर्व गुणों, सर्व शक्तियों को जीवन में लगाने वाले, हर आत्मा को प्रत्यक्षफल अर्थात् प्राप्ति स्वरूप बनाने वाले, ऐसे श्रेष्ठ त्यागी और श्रेष्ठ भागी, सदा बाप द्वारा मिले हुए अधिकार को, खजाने को सम्भालने और बढ़ाने वाले, ऐसे धारणा स्वरूप सदा सेवाधारी बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।''
पार्टियों के साथ
1-ब्राह्मण सो फरिश्ता और फरिश्ता सो देवता - यह लक्ष्य सदा स्मृति में रखो:- सभी अपने को ब्राह्मण सो फरिश्ता समझते हो? अभी ब्राह्मण हैं और ब्राह्मण से फरिश्ता बनने वाले हैं फिर फरिश्ता सो देवता बनेंगे -वह याद रहता है? फरिश्ता बनना अर्थात् साकार शरीरधारी होते हुए लाइट रूप में रहना अर्थात् सदा बुद्धि द्वारा ऊपर की स्टेज पर रहना। फरिश्ते के पांव धरनी पर नहीं रहते। ऊपर कैसे रहेंगे? बुद्धि द्वारा। बुद्धि रूपी पांव सदा ऊँची स्टेज पर। ऐसे फरिश्ते बन रहे हो या बन गये हो? ब्राह्मण तो हो ही - अगर ब्राह्मण न होते तो यहाँ आने की छुट्टी भी नहीं मिलती। लेकिन ब्राह्मणों ने फरिश्तेपन की स्टेज कहाँ तक अपनाई है? फरिश्तों को ज्योति की काया दिखाते हैं। प्रकाश की काया वाले। जितना अपने को प्रकाश स्वरूप आत्मा समझेंगे - प्रकाशमय तो चलते फिरते अनुभव करेंगे जैसे प्रकाश की काया वाले फरिश्ते बनकर चल रहे हैं। फरिश्ता अर्थात् अपनी देह के भान का भी रिश्ता नहीं, देहभान से रिश्ता टूटना अर्थात् फरिश्ता। देह से नहीं, देह के भान से। देह से रिश्ता खत्म होगा तब तो चले जायेंगे लेकिन देहभान का रिश्ता खत्म हो। तो यह जीवन बहुत प्यारी लगेगी। फिर कोई माया भी आकर्षण नहीं करेगी। अच्छा - ओम शान्ति।
03-04-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“सर्वप्रथम त्याग है - देह-भान का त्याग”
सदा सहयोगी, त्यागी बच्चों प्रति बापदादा बोले-
‘‘बापदादा अपने त्यागमूर्त बच्चों को देख रहे हैं। हर एक ब्राह्मण आत्मा त्याग स्वरूप है, लेकिन जैसे भाग्य का सुनाया ना कि एक बाप के बच्चे होते, एक जैसा भाग्य का वर्सा मिलते, सम्भालने और बढ़ाने के आधार पर नम्बर बन जाते हैं। ऐसे त्यागमूर्त तो सभी बने हैं इसमें भी नम्बरवार हैं। त्याग किया और ब्राह्मण बने। लेकिन त्याग की परिभाषा बड़ी गुह्य है। कहने में तो सभी एक बात कहते कि तन-मन-धन, सम्बन्ध सब का त्याग कर लिया। लेकिन तन का त्याग अर्थात् देह के भान का त्याग। तो देह के भान का त्याग हो गया है वा हो रहा है? त्याग का अर्थ है किसी भी चीज को वा बात को छोड़ दिया, अपनेपन से किनारा कर लिया, अपना अधिकार समाप्त हुआ। जिसके प्रति त्याग किया वह वस्तु उसकी हो गई। जिस बात का त्याग किया उसका फिर संकल्प भी नहीं कर सकते - क्योंकि त्याग की हुई बात, संकल्प द्वारा प्रतिज्ञा की हुई बात फिर से वापिस नहीं ले सकते हो। जैसे हद के संन्यासी अपने घर का, सम्बन्ध का त्याग करके जाते हैं और अगर फिर वापिस आ जाएँ तो उसको क्या कहा जायेगा! नियम प्रमाण वापिस नहीं आ सकते। ऐसे आप ब्राह्मण बेहद के संन्यासी वा त्यागी हो। आप त्याग मूर्तियों ने अपने इस पुराने घर अर्थात् पुराने शरीर, पुराने देह का भान त्याग किया, संकल्प किया कि बुद्धि द्वारा फिर से कब इस पुराने घर में आकर्षित नहीं होंगे। संकल्प द्वारा भी फिर से वापिस नहीं आयेंगे। पहला-पहला यह त्याग किया। इसलिए तो कहते हो - देह सहित देह के सम्बन्ध का त्याग। देह के भान का त्याग। तो त्याग किए हुए पुराने घर में फिर से वापिस तो नहीं आते जाते हो! वायदा क्या किया है? तन भी तेरा कहा वा सिर्फ मन तेरा कहा? पहला शब्द ‘‘तन'' आता है। जैसे तन-मन-धन कहते हो, देह और देह के सम्बन्ध कहते हो। तो पहला त्याग क्या हुआ? इस पुराने देह के भान से विस्मृति अर्थात् किनारा। यह पहला कदम है त्याग का। जैसे घर में घर की सामग्री (सामान) होती है, ऐसे इस देह रूपी घर में भिन्न-भिन्न कर्मेन्द्रियाँ ही सामग्री हैं। तो घर का त्याग अर्थात् सर्व का त्याग। घर को छोड़ा लेकिन कोई एक चीज में ममता रह गई तो उसको त्याग कहेंगे? ऐसे कोई भी कर्मेन्द्रिय अगर अपने तरफ आकर्षित करती है तो क्या उसको सम्पूर्ण त्याग कहेंगे? इसी प्रकार अपनी चेकिंग करो। ऐसे अलबेले नहीं बनना कि और तो सब छोड़ दिया बाकी कोई एक कर्मेन्द्रिय विचलित होती है वह भी समय पर ठीक हो जायेगी। लेकिन कोई एक कर्मेन्द्रिय की आकर्षण भी एक बाप का बनने नहीं देगी। एकरस स्थिति में स्थित होने नहीं देगी। नम्बरवन में जाने नहीं देगी। अगर कोई हीरेजवाहर, महल-माड़िया छोड़ दे और सिर्फ कोई मिट्टी के फूटे हुए बर्तन में भी मोह रह जाए तो क्या होगा? जैसे हीरा अपनी तरफ आकर्षित करता वैसे हीरे से भी ज्यादा वह फूटा हुआ बर्तन उसको अपनी तरफ बार-बार आकर्षित करेगा। न चाहते भी बुद्धि बार-बार वहाँ भटकती रहेगी। ऐसे अगर कोई भी कर्मेन्द्रिय की आकर्षण रही हुई है तो श्रेष्ठ पद पाने से बार-बार नीचे ले आयेगी। तो पुराने घर और पुरानी सामग्री सबका त्याग चाहिए। ऐसे नहीं समझो यह तो बहुत थोड़ा है, लेकिन यह थोड़ा भी बहुत कुछ गंवाने वाला है, सम्पूर्ण त्याग चाहिए। इस पुरानी देह को बापदादा द्वारा मिली हुई ‘अमानत' समझो। सेवा अर्थ कार्य में लगाना है। यह मेरी देह नहीं लेकिन सेवा अर्थ अमानत है। जैसे मेहमान बन देह में रह रहे हैं। थोड़े समय के लिए बापदादा ने कार्य के लिए आपको यह तन दिया है। तो आप क्या बन गये? मेहमान! मेरे-पन का त्याग और मेहमान समझ महान कार्य में लगाओ। मेहमान को क्या याद रहता है? असली घर याद रहता है या उसी में ही फँस जाते हो! तो आप सबका यह शरीर रूपी घर भी, यह फारिश्ता स्वरूप है, फिर देवता स्वरूप है। उसको याद करो। इस पुराने शरीर में ऐसे ही निवास करो जैसे बापदादा पुराने शरीर का आधार लेते हैं लेकिन शरीर में फँस नहीं जाते हैं। कर्म के लिए आधार लिया और फिर अपने फरिश्ते स्वरूप में स्थित हो जाओ। अपने निराकारी स्वरूप में स्थित हो जाओ। न्यारेपन की ऊपर की ऊँची स्थिति से नीचे साकार कर्मेन्द्रियों द्वारा कर्म करने लिए आओ, इसको कहा जाता है - ‘मेहमान अर्थात् महान'। ऐसे रहते हो? त्याग का पहला कदम पूरा किया है?
बापदादा हँसी की बात यह सुनते हैं कि वर्तमान समय कोई भी अपने को कम नहीं समझते। अगर किसी को भी कहा जाए कि दो में से एक छोटा, एक बड़ा बन जाए तो क्या करते हैं? अपने को कम समझते हैं? क्यों, क्या के शस्त्र लेकर उल्टा शक्ति स्वरूप दिखाते हैं। यह भी अलंकार कोई कम नहीं हैं। जैसे सर्व शक्तियों के अलंकार हैं वैसे माया वा रावण की भुजायें भी कोई कम नहीं हैं। शक्तियों को भुजाएं धारी दिखाया है। अष्ट भुजाधारी, 16 भुजाधारी भी दिखाते हैं लेकिन रावण के सिर ज्यादा दिखाते हैं। यह क्यों? क्योंकि रावण माया की शक्ति पहले दिमाग को ही हलचल में लाती है। जिस समय कोई भी माया आती है तो सेकण्ड में उसके कितने रूप होते हैं? क्यों, क्या, ऐसे, वैसे, जैसे कितने क्वेश्चन के सिर पैदा हो जाते हैं। एक काटते हैं तो दूसरा पैदा हो जाता है। एक ही समय में 10 बातें बुद्धि में फौरन आ जाती हैं। तो एक बात को 10 सिर लग गये ना! इन बातों का तो अनुभव है ना? फिर एक-एक सिर अपना रूप दिखाता है। यही 10 शीश के शस्त्रधारी बन जाते हैं।
शक्ति अर्थात् सहयोगी। अभिमान के सिर वाली शक्ति नहीं लेकिन सदा सर्व भुजाधारी अर्थात् सर्व परिस्थिति में ‘सहयोगी'। रावण के 10 सिर वाली आत्मायें हर छोटी-सी परिस्थिति में भी कभी सहयोगी नहीं बनेगी। क्यों, क्या, कैसे के सिर द्वारा अपना उल्टा अभिमान प्रत्यक्ष करती रहेंगी। क्यों का क्वेश्चन हल करेंगी तो फिर कैसे का सिर ऊँचा हो जायेगा अर्थात् एक बात को सुलझायेंगी तो फिर दुसरी बात शुरू कर देंगी। दूसरी बात को ठीक करेंगी तो तीसरा सिर पैदा हो जायेगा। बार-बार कहेंगे यह बात ठीक है लेकिन यह क्यों? वह क्यों? इसको कहा जाता है कि एक बात के 10 शीश लगाने वाली शक्ति। सहयोगी कभी नहीं बनेंगे, सदा हर बात में अपोजीशन करेंगे। तो अपोजीशन करने वाले रावण सम्प्रदाय हो गये ना। चाहे ब्राह्मण बन गये लेकिन उस समय के लिए आसुरी शक्ति का प्रभाव होता है, वशीभूत होते हैं। और शक्ति स्वरूप हर परिस्थिति में, हर कार्य में सदा सहयोगी बन औरों को भी सहयोगी बनायेंगे। चाहे स्वयं को सहन भी करना पड़े, त्याग भी करना पड़े लेकिन सदा सहयोगी होंगे। सहयोग की निशानी भुजायें हैं, इसलिए कभी भी कोई संगठित कार्य होता है तो क्या शब्द बोलते हो? अपनी-अपनी अँगुली दो, तो यह सहयोग देना हुआ ना। अँगुली भी भुजा में है ना। तो भुजायें सहयोग की ही निशानी दिखाई हैं। तो समझा शक्ति की भुजायें और रावण के सिर। तो अपने को देखो कि सदा के सहयोगी मूर्त बने हैं? त्याग मूर्त बनने का पहला कदम फालो फादर के समान किया है? ब्रह्मा बाप को देखा, सुना - संकल्प में, मुख में सदैव क्या रहा? यह बाप का रथ है। तो आपका रथ किसका है? क्या सिर्फ ब्रह्मा ने रथ दिया वा आप लोगों ने भी रथ दिया? ब्रह्मा का प्रवेशता का पार्ट अलग है लेकिन आप सबने भी तन तेरा कहा - न कि तन मेरा। आप सबका भी वायदा है जैसे चलाओ, जहाँ बिठाओ... यह वायदा है ना? वा आँख को मैं चलाऊँगा बाकी को बाप चलायें? कुछ मनमत पर चलेंगे, कुछ श्रीमत पर चलेंगे। ऐसा वायदा तो नहीं है ना? तो कोई भी कर्मेन्द्रिय के वशीभूत होना यह श्रीमत है वा मनमत है? तो समझा, त्याग की परिभाषा कितनी गुह्य है! इसलिए नम्बर बन गये हैं। अभी तो सिर्फ देह के त्याग की बात सुनाई है। आगे और बहुत हैं। अभी तो त्याग की सीढ़ियाँ भी बहुत हैं, यह पहली सीढ़ी की बात कर रहे हैं। त्याग मुश्किल तो नहीं लगता? सबको छोड़ना पड़ेगा। अगर पुराने के बदले नया मिल जाए तो मुश्किल है क्या! अभी-अभी मिलता है। भविष्य मिलना तो कोई बड़ी बात नहीं लेकिन अभी-अभी पुराना भान छोड़ो, फरिश्ता स्वरूप लो। जब पुरानी दुनिया के देह का भान छोड़ देते हो तो क्या बन जाते हो? डबल लाइट। अभी ही बनते हो। परन्तु अगर न यहाँ के न वहाँ के रहते हो तो मुश्किल लगता है। न पूरा छोड़ते हो, न पूरा लेते हो तो अधमरे हो जाते हो, इसलिए बार-बार लम्बा श्वांस उठाते हो। कोई भी बात मुश्किल होती तो लम्बा श्वांस उठता है। मरने में जो मजा है - लेकिन पूरा मरो तो। लेने में कहते हो पूरा लेंगे और छोड़ने में मिट्टी के बर्तन भी नहीं छोड़ेंगे। इसलिए मुश्किल हो जाता है। वैसे तो अगर कोई मिट्टी का बर्तन रखता है तो बापदादा रखने भी दें, बाप को क्या परवाह है! भल रखो। लेकिन स्वयं ही परेशान होते हो। इसलिए बापदादा कहते हैं छोड़ो। अगर कोई भी पुरानी चीज रखते हो तो रिजल्ट क्या होती है? बार-बार बुद्धि भी उन्हों की ही भटकती है। फरिश्ता बन नहीं सकते। इसलिए बापदादा तो और भी हजारों मिट्टी के बर्तन दे सकते हैं - कितना इकट्ठे कर लो। लेकिन जहाँ किचड़ा होगा वहाँ क्या पैदा होंगे? मच्छर! और मच्छर किसको काटेंगे? तो बापदादा बच्चों के कल्याण के लिए ही कहते हैं - पुराना छोड़ दो। अधमरे नहीं बनो। मरना है तो पूरा मरो, नहीं तो भले ही जिंदा रहो। मुश्किल है नहीं लेकिन मुश्किल बना देते हो। कभी-कभी मुश्किल हो जाता है। जब रावण कि सिर लग जाते हैं तो मुश्किल होता है। जब भुजाधारी शक्ति बन जाते हो तो सहज हो जाता है। सिर्फ एक कदम सहयोग देना और पदम-कदमों का सहयोग मिलना हो जाता। लेकिन पहले जो एक कदम देना पड़ता है उसमें घबरा जाते हो। मिलना भूल जाता है, देना याद आ जाता है। इसलिए मुश्किल अनुभव होता है। अच्छा –
ऐसे सदा सहयोग मूर्त, सदा त्याग द्वारा श्रेष्ठ भाग्य अनुभव करने वाले, कदम-कदम में फालो फादर करने वाले, सदा अपने को मेहमान अर्थात् महान आत्मा समझने वाले, ऐसे बेहद के संन्यास करने वाले श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते''
पार्टियों के साथ-अव्यक्त बापदादा की मुलाकात-
1. परिस्थिति रूपी पहाड़ को स्वस्थिति से जम्प देकर पार करोः- अपने को सदा समर्थ आत्मायें समझते हो! समर्थ आत्मा अर्थात् सदा माया को चेलेन्ज कर विजय प्राप्त करने वाले। सदा समर्थ बाप के संग में रहने वाले। जैसे बाप सर्वशक्तिवान है वैसे हम भी मास्टर सर्वशक्तिवान हैं। सर्व शक्तियाँ शस्त्र हैं, अलंकार हैं, ऐसे अलंकारधारी आत्मा समझते हो? जो सदा समर्थ हैं वे कभी परिस्थितियों में डगमग नहीं होंगे। परिस्थिति से स्वस्थिति श्रेष्ठ है। स्वस्थिति द्वारा कैसी भी परिस्थिति को पार कर सकते हो। जैसे विमान द्वारा उड़ते हुए कितने पहाड़, कितने समुद्र पार कर लेते हैं, क्योंकि ऊँचाई पर उड़ते हैं। तो ऊँची स्थिति से सेकण्ड में पार कर लेंगे। ऐसे लगेगा जैसे पहाड़ को वा समुद्र को भी जम्प दे दिया। मेहनत का अनुभव नहीं होगा।
2. रोब को त्याग, रूहाब को धारण करने वाले सच्चे सेवाधारी बनोः- सभी कुमार सदा रूहानियत में रहते हो? रोब में तो नहीं आते? यूथ को रोब जल्दी आ जाता है। यह समझते हैं हम सब कुछ जानते हैं, सब कर सकते हैं। जवानी का जोश रहता है। लेकिन रूहानी यूथ अर्थात् सदा रूहाब में रहने वाले। सदा नम्रचित्त। क्योंकि जितना नम्रचित्त होंगे उतना निर्माण करेंगे। जहाँ निर्मान होंगे वहाँ रोब नहीं होगा, रूहानियत होगी। जैसे बाप कितना नम्रचित्त बनकर आते हैं, ऐसे फालो फादर। अगर जरा भी सेवा में रोब आता तो वह सेवा समाप्त हो जाती है।
3. भरपूर आत्माओं के चेहरे द्वारा सेवा:- सभी सागर के समीप रहने वाले सदा सागर के खजानों को अपने में भरते जाते हो। सागर के तले में कितने खजाने होते हैं। तो सागर के कण्ठे पर रहने वाले, समीप रहने वाले - सर्व खजानों के मालिक हो गये। वैसे भी जब किसी को कोई खजाना प्राप्त होता है तो खुशी में आ जाते हैं। अचानक कोई को थोड़ा धन मिल जाता है तो नशा चढ़ जाता है। आप बच्चों को ऐसा धन मिला है जो कभी भी कोई छीन नहीं सकता, लूट नहीं सकता। 21 पीढ़ी सदा धनवान रहेंगे। सर्व खजानों की चाबी है ‘‘बाबा''। बाबा बोला और खजाना खुला। तो चाबी भी मिल गई, खजाना भी मिल गया। सदा मालामाल हो गये। ऐसे भरपूर मालामाल आत्माओं के चेहरे पर खुशी की झलक होती है। उनकी खुशी को देख सब कहेंगे - पता नहीं इनको क्या मिल गया है, जानने की इच्छा रखेंगे। तो उनकी सेवा स्वत: हो जायेगी।
4. मायाजीत बनने के लिए स्वमान की सीट पर रहो:- सदा स्वयं को स्वमान की सीट पर बैठा हुआ अनुभव करते हो? पुण्य आत्मा हैं, ऊँचे ते ऊँची ब्राह्मण आत्मा हैं, श्रेष्ठ आत्मा हैं, महान आत्मा हैं, ऐसे अपने को श्रेष्ठ स्वमान की सीट पर अनुभव करते हो? कहाँ भी बैठना होता है तो सीट चाहिए ना! तो संगम पर बाप ने श्रेष्ठ स्वमान की सीट दी है, उसी पर स्थित रहो।
स्मृति में रहना ही सीट वा आसन है। तो सदा स्मृति रहे कि मैं हर कदम में पुण्य करने वाली पुण्य आत्मा हूँ। महान संकल्प, महान बोल, महान कर्म करने वाली महान आत्मा हूँ। कभी भी अपने को साधारण नहीं समझो। किसके बन गये और क्या बन गये? इसी स्मृति के आसन पर सदा स्थित रहो। इस आसन पर विराजमान होंगे तो कभी भी माया नहीं आ सकती। हिम्मत नहीं रख सकती। आत्मा का आसन स्वमान का आसन है, उस पर बैठने वाले सहज ही मायाजीत हो जाते हैं।
5. सर्व सम्बन्ध एक के साथ जोड़कर बन्धनमुक्त अर्थात् योगयुक्त बनो:- सदा स्वयं को बन्धनमुक्त आत्मा अनुभव करते हो? स्वतन्त्र बन गये या अभी कोई बन्धन रह गया है? बन्धनमुक्त की निशानी है - ‘‘सदा योगयुक्त''। योगयुक्त नहीं तो जरूर बन्धन है। जब बाप के बन गये तो बाप के सिवाए और क्या याद आयेगा? सदा प्रिय वस्तु या बढ़िया वस्तु याद आती है ना। तो बाप से श्रेष्ठ वस्तु या व्यक्ति कोई है? जब बुद्धि में यह स्पष्ट हो जाता है कि बाप के सिवाए और कोई भी श्रेष्ठ नहीं तो ‘सहजयोगी' बन जाते हैं। बन्धनमुक्त भी सहज बन जाते हैं, मेहनत नहीं करनी पड़ती। सब सम्बन्ध बाप के साथ जुड़ गये। मेरा-मेरा सब समाप्त, इसको कहा जाता है - सर्व सम्बन्ध एक के साथ।
6. समीप आत्माओं कि निशानी है - समानः- सदा अपने को समीप आत्मा अनुभव करते हो? समीप आत्माओं की निशानी है - समान। जो जिसके समीप होता है, उस पर उसके संग का रंग स्वत: ही चढ़ता है। तो बाप के समीप अर्थात् बाप के समान। जो बाप के गुण, वह बच्चों के गुण, जो बाप का कर्त्तव्य वह बच्चों का। जैसे बाप सदा विश्व-कल्याणकारी है ऐसे बच्चे भी विश्व-कल्याणकारी। तो हर समय यह चेक करो कि जो भी कर्म करते हैं, जो भी बोल बोलते हैं वह बाप समान हैं। बाप से मिलाते चलो और कदम उठाते चलो तो समान बन जायेंगे। जैसे बाप सदा सम्पन्न हैं, सर्वशक्तिवान हैं वैसे ही बच्चे भी मास्टर बन जायेंगे। किसी भी गुण और शक्ति की कमी नहीं रहेगी। सम्पन्न हैं तो अचल रहेंगे। डगमग नहीं होगे।
7. सेवा की भाग-दौड़ भी मनोरंजन का साधन है:- सभी अपने को हर कदम में याद और सेवा द्वारा पद्मों की कमाई जमा करने वाले पद्मापद्म भाग्यवान समझते हो? कमाई का कितना सहज तरीका मिला है! आराम से बैठे बैठे बाप को याद करो और कमाई जमा करते जाओ। मंसा द्वारा बहुत कमाई कर सकते हो, लेकिन बीच-बीच में जो सेवा के साधनों में भाग-दौड़ करनी पड़ती है - यह तो एक मनोरंजन है। वैसे भी जीवन में चेन्ज चाहते हैं तो यह चेन्ज हो जाती है। वैसे कमाई का साधन बहुत सहज है, सेकण्ड में पद्म जमा हो जाते हैं, याद किया और बिन्दी बढ़ गई। तो सहज अविनाशी कमाई में बिजी रहो।
पंजाब निवासी बच्चों को याद प्यार देते हुए बापदादा बोले:- पंजाब निवासी सेवाधारी बच्चों को सेवा के उमंग उत्साह के प्रति सदा मुबारक हो। जितनी सेवा उतना बहुत-बहुत मेवा खाने वाले बनेंगे। पंजाब में वैसे ही मेवा खाने के आदती हैं। तो यहाँ भी जितनी सेवा करेंगे उतना मेवा अर्थात् प्रत्यक्षफल खाने वाले बनेंगे। यह तो विशेष बेहद की सेवा है। मेला अर्थात् बाप से मिलन मनवाना। मेला कर रहे हैं अर्थात् आत्माओं को मिलन कराने के निमित्त बन रहे हैं। बेहद की सेवा, बेहद का उमंग-उत्साह है। इससे सफलता भी बेहद की होती है। बहुत अच्छा उमंग रख सेवा की है और सदा ऐसे उमंग उत्साह में रहते आगे बढ़ते रहना। बापदादा जानते हैं, बहुत अच्छे पुराने पालना लिए हुए बच्चे निमित्त बने हैं। पुराने बच्चों का भाग्य तो अब तक शास्त्र भी गा रहे हैं और चैतन्य में जो नये-नये बच्चे आते हैं वह भी उनका वर्णन करते हैं। तो ऐसे पद्मपति बनने का चान्स लेने वाले सेवाधारी बच्चों को पद्मगुणा यादप्यार। अच्छा-
06-04-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“दास व अधिकारी आत्माओं के लक्षण”
अव्यक्त बापदादा सर्व अधिकारी, महात्यागी, राजऋषि बच्चों प्रति बोले-
‘‘बापदादा राजऋषियों की दरबार देख रहे हैं। राज अर्थात् अधिकारी और ऋषि अर्थात् सर्व त्यागी। त्यागी और तपस्वी। तो बापदादा सर्व ब्राह्मण बच्चों को देख रहें हैं कि कहाँ तक अधिकारी आत्मा और साथ-साथ महात्यागी आत्मादोनों का जीवन में प्रत्यक्ष स्वरूप कहाँ तक लाया है! अधिकारी और त्यागी दोनों का बैलेन्स हो। अधिकारी भी पूरा हो और त्यागी भी पूरा हो। दोनों ही इकट्ठे हो सकता है? इसको जाना है वा अनुभवी भी हो? बिना त्याग के राज्य पा सकते हो? स्व का अधिकार अर्थात् स्वराज्य पा सकते हो? त्याग किया तब स्वराज्य अधिकारी बने। यह तो अनुभव है ना! त्याग की परिभाषा पहले भी सुनाई है।
त्याग का पहला कदम है - देहभान का त्याग। जब देह के भान का त्याग हो जाता है तो दूसरा कदम है - देह के सर्व सम्बन्ध का त्याग। जब देह का भान छूट जाता तो क्या बन जाते? आत्मा, देही वा मालिक। देह के बन्धन से मुक्त अर्थात् जीवनमुक्त राज्य अधिकारी। जब राज्य अधिकारी बन गये तो सर्व प्रकार की अधीनता समाप्त हो जाती। क्योंकि देह के दास से देह के मालिक बन गये। ऐसा अन्तर अनुभव किया ना! दासपन छूट गया। दास और अधिकारी दोनों साथ-साथ नहीं हो सकते। दासपन की निशानी है - मन से, चेहरे से उदास होना। उदास होना निशानी है दासपन की। और अधिकारी अर्थात् स्वराज्यधारी की निशानी है - मन और तन से सदा हर्षित। दास सदा अपसेट होगा। राज्यअधिकारी सदा सिंहासन पर सेट होगा, दास छोटी सी बात में और सेकेण्ड में कनफ्यूज हो जायेगा और अधिकारी सदा अपने को कम्फर्ट (आराम में) अनुभव करेगा। इन निशानियों से अपने आप को देखो - मैं कौन? दास वा अधिकारी? कोई भी परिस्थिति, कोई भी व्यक्ति, कोई भी वैभव, वायुमण्डल, शान से परे अर्थात् तख्त से नीचे उतार दास तो नहीं बना देते अर्थात् शान से परे परेशान तो नहीं कर देते हैं? तो दास अर्थात् परेशान, और अधिकारी अर्थात् सदा मास्टर सर्वशक्तिवान, विघ्न विनाशक स्थिति की शान में स्थित होगा। परिस्थति वा व्यक्ति, वैभव, शान में रह मौज से देखता रहेगा। दास आत्मा सदा अपने को परीक्षाओं के मजधार में अनुभव करेगी। अधिकारी आत्मा मांझी बन नैया को मजे से परीक्षाओं की लहरों से खेलते-खेलते पार करेगी।
बापदादा दास आत्माओं की कर्मलीला देख रहम के साथ-साथ मुस्कराते हैं। साकार में भी एक हँसी की कहानी सुनाते थे। दास आत्मायें क्या करत भई! कहानी याद है? सुनाया था कि चूहा आता, चूहे को निकालते तो बिल्ली आ जाती, बिल्ली को निकालते तो कुत्ता आ जाता। एक निकालते दूसरा आता, दूसरे को निकालते तो तीसरा आ जाता। इसी कर्म-लीला में बिजी रहते हैं। क्योंकि दास आत्मा है ना। तो कभी आँख रूपी चूहा धोखा दे देता, कभी कान रूपी बिल्ली धोखा दे देती। कभी बुरे संस्कार रूपी शेर वार कर लेता, और बिचारी दास आत्मा उन्हों को निकालते-निकालते उदास रह जाती है। इसलिए बापदादा को रहम भी आता और मुस्कराहट भी आती। तख्त छोड़ते ही क्यों हो, आटोमेटिक खिसक जाते हो क्या? याद के चुम्बक से अपने को सेट कर दो तो खिसकेंगे नहीं। फिर क्या करते हैं? बापदादा के आगे आर्जियों के लम्बे-चौड़े फाइल रख देते हैं। कोई अर्जा डालते कि एक मास से परेशान हूँ, कोई कहते 3 मास से नीचे ऊपर हो रहा हूँ। कोई कहते 6 मास से सोच रहा था लेकिन ऐसे ही था। इतनी आर्जियाँ मिलकर फाईल हो जाती - लेकिन यह भी सोच लो जितनी बड़ी फाइल है उतना फाइन देना पड़ेगा। इसलिए अर्जा को खत्म करने का सहज साधन है - सदा बाप की मर्ज़ी पर चलो। ‘‘मेरी मर्ज़ी यह है'' तो वह मनमर्ज़ी अर्जा की फाइल बना देती है। जो बाप की मर्ज़ी वह मेरी मर्ज़ी। बाप की मर्ज़ी क्या है? हरेक आत्मा सदा शुभचिंतन करने वाली, सर्व के प्रति सदा शुभचिंतक रहने वाली, स्व कल्याणी और विश्व-कल्याणी बनें। इसी मर्ज़ी को सदा स्मृति में रखते हुए बिना मेहनत के चलते चलो। जैसे कहा जाता है - आँख बन्द करके चलते चलो। ऐसा तो नहीं, वैसा तो नहीं होगा? यह आँख नहीं खोलो। यह व्यर्थ चिंतन की आँख बन्द कर बाप की मर्ज़ी अर्थात् बाप के कदम पीछे कदम रखते चलो। पाँव के ऊपर पाँव रखकर चलना मुश्किल होता है वा सहज होता है? तो ऐसे सदा फालो फादर करो। फालो सिस्टर, फालो ब्रदर यह नया स्टेप नहीं उठाओ। इससे मंजल से वंचित हो जायेंगे। रिगार्ड दो, लेकिन फालो नहीं करो। विशेषता और गुण को स्वीकार करो लेकिन फुटस्टेप बाप के फुटस्टेप पर हो। समय पर मतलब की बातें नहीं उठाओ। मतलब की बातें भी बड़ी मनोरंजन की करते हैं। वह डायलॉग फिर सुनायेंगे, क्योंकि बापदादा के पास तो सब सेवा स्टेशन्स की न्यूज आती है। आल वर्ल्ड की न्यूज आती है। तो दास आत्मा मत बनो।
यह हैं बहुत छोटी सी कर्मेन्द्रियाँ, आँख, कान कितने छोटे हैं लेकिन यह जाल बहुत बड़ी फैला देते हैं। जैसे छोटी सी मकड़ी देखी है ना! खुद कितनी छोटी होती। जाल कितनी बड़ी होती। यह भी हर कर्मेन्द्रिय का जाल इतना बड़ा है, ऐसे फँसा देगा जो मालूम ही नही पड़ेगा कि मैं फँसा हुआ हूँ। यह ऐसा जादू का जाल है जो ईश्वरीय होश से, ईश्वरीय मर्यादाओं से बेहोश कर देता है। जाल से निकली हुई आत्मायें कितना भी उन दास आत्माओं को महसूस करायें लेकिन बेहोश को महसूसता क्या होगी? स्थूल रूप में भी बेहोश को कितना भी हिलाओ, कितना भी समझाओ, बड़े-बड़े माइक कान में लगाओ लेकिन वह सुनेगा? तो यह जाल भी ऐसा बेहोश कर देता है और फिर क्या मजा होता है? बेहोशी में कई बोलते भी बहुत हैं। लेकिन वह बोल बेअर्थ होता है। ऐसे रूहानी बेहोशी की स्थिति में अपना स्पष्टीकरण भी बहुत देते हैं। लेकिन वह होता बेअर्थ है। दो मास की, 6 मास की पुरानी बात, यहाँ की बात, वहाँ की बात बोलते रहेंगे। ऐसी है यह रूहानी बेहोशी। तो है छोटी सी आँख लेकिन बेहोशी की जाल बहुत बड़ी है। इससे निकलने में भी टाइम बहुत लग जाता है क्योंकि जाल की एक-एक तार को काटने का प्रयत्न करते हैं। जाल कभी देखी है? आप लोगों के प्रदर्शनी के चित्रों में भी है। जाल खत्म करने का साधन है - सारी जाल को अपने में खा लो। खत्म कर लो। मकड़ी भी अपनी जाल को पूरा स्वयं ही खा लेती है। ऐसे विस्तार में न जाकर विस्तार को बिन्दी लगाए बिन्दी में समा दो। बिन्दी बन जाओ। बिन्दी लगा दो। बिन्दी में समा जाओ। तो सारा विस्तार, सारी जाल सेकण्ड में समा जायेगी। और समय बच जायेगा। मेहनत से छूट जायेंगे। बिन्दी बन बिन्दी में लवलीन हो जायेंगे। तो सोचों जाल में बेहोश होने की स्थिति अच्छी वा बिन्दी बन बिन्दी में लवलीन होना अच्छा! तो बाप की मर्ज़ी क्या हुई? लवलीन हो जाओ।
जबकि झाड़ को अभी परिवर्तन होना ही है। तो झाड़ के अन्त में क्या रह जाता है? आदि भी बीज, अन्त भी बीज ही रह जाता है। अभी इस पुराने वृक्ष के परिवर्तन के समय पर वृक्ष के ऊपर मास्टर बीजरूप स्थिति में स्थित हो जाओ। बीज है ही - ‘बिन्दु'। सारा ज्ञान, गुण, शक्तियाँ सबका सिन्धु व बिन्दु में समा जाता है। इसको ही कहा जाता है - बाप समान स्थिति। बाप सिन्धु होते भी बिन्दु है। ऐसे मास्टर बीज रूप स्थिति कितनी प्रिय है! इसी स्थिति में सदा स्थित रहो। समझा क्या करना है?
देखो, दोनों जोन की विशेषता भी यही है। कर्नाटक अर्थात् नाटक पूरा किया अभी चलो, लवलीन हो जाओ। और यू.पी. में भी नदियाँ बहुत होती हैं। तो नदी सदा सागर में समा जाती हैं। तो आप सागर में समा जाओ अर्थात् लवलीन हो जाओ। दोनों कि विशेषता है ना! इसलिए शान से लवलीन स्थिति में सदा बैठे रहो। नीचे ऊपर नहीं आओ। आवागमन का चक्कर तो अब पूरा किया ना! अभी तो आराम से शान से बैठ जाओ। अच्छा –
ऐसे सदा सर्व अधिकारी और सर्व त्यागी, सदा बेहोशी की जाल से मुक्त, आवागमन से मुक्त, मास्टर बीजरूप स्थिति में लवलीन रहने वाले, ऐसे राजऋषि आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते''
टीचर्स के साथ- सभी निमित्त आत्मायें हो ना? सदा अपने को सेवार्थ निमित्त आत्मा हूँ - ऐसा समझकर चलते हो? निमित्त आत्मा समझने से सदा दो विशेषतायें साकार रूप मे दिखाई देंगी।
1. सदा नम्रता द्वारा निर्माण करते रहेंगे।
2. सदा सन्तुष्टता का फल खाते और खिलाते रहेंगे। तो मैं निमित्त हूँ- इससे न्यारा और बाप का प्यारा अनुभव करेंगे। मैंने किया यह भी कभी वर्णन नहीं करेंगे। मैं शब्द समाप्त हो जायेगा। ‘‘मैं'' के बजाए ‘‘बाबा बाबा''। तो बाबाबाबा कहने से सबकी बुद्धि बाप की तरफ जायेगी। जिसने निमित्त बनाया उसके तरफ बुद्धि लगने से आने वाली आत्माओं को विशेष शक्ति का अनुभव होगा क्योंकि सर्वशक्तिवान से योग लग जायेगा। शक्ति स्वरूप का अनुभव करेंगे। नहीं तो कमजोर ही रह जाते हैं। तो ‘निमित्त' समझकर चलना यही सेवाधारी की विशेषता है। देखो - सबसे बड़े ते बड़ा सेवाधारी बाप है लेकिन उनकी विशेषता ही यह है - जो अपने को निमित्त समझा। मालिक होते हुए भी निमित्त समझा। निमित्त समझने के कारण सबका प्रिय हो गया। तो निमित्त हूँ, न्यारी हूँ, प्यारी हूँ, यही सदा स्मृति में रखकर चलो। सेवा तो सब कर रहे हो, यह लाटरी मिल गई लेकिन इस मिली हुई लाटरी को सदा आगे बढ़ाना या कहाँ तक रखना यह आपके हाथ में है। बाप ने तो दे दी, बढ़ाना आपका काम है। भाग्य सबको एक जैसा बांटा लेकिन कोई सम्भालता और बढ़ाता है, कोई नहीं। इसी से नम्बर बन गये। तो सदा स्वयं को आगे बढ़ाते, औरों को भी आगे बढ़ाते चलो। औरों को आगे बढ़ाना ही बढ़ना है। जैसे बाप को देखो, बाप ने माँ को आगे बढ़ाया फिर भी नम्बरवन नारायण बना। वह सेकण्ड नम्बर लक्ष्मी बनी। लेकिन बढ़ाने से बढ़ा। बढ़ाना माना पीछे होना नहीं, बढ़ाना माना बढ़ना।
सभी सेवाधारी मेहनत बहुत अच्छी करते हो। मेहनत को देखकर बापदादा खुश होते हैं लेकिन निमित्त समझकर सेवा करो तो सेवा एक गुणा से चार गुणा हो जायेगी। बाप समान सीट मिली है अभी इसी सीट पर सेट होकर सेवा को बढ़ाओ। अच्छा-''
पार्टियों के साथ
1. विशेष आत्मा बनने के लिए सर्व की विशेषताओं को देखो- बापदादा सदा बच्चों की विशेषताओं के गुण गाते हैं। जैसे बाप सभी बच्चों की विशेषताओं को देखते वैसे आप विशेष आत्मायें भी सर्व की विशेषताओं को देखते स्वयं को विशेष आत्मा बनाते चलो। विशेष आत्माओं का कार्य है विशेषता देखना और विशेष बनना। कभी भी किसी आत्मा के सम्पर्क में आते हो तो उसकी विशेषता पर ही नज़र जानी चाहिए। जैसे मधुमक्खी की नज़र फूलों पर रहती ऐसे आपकी नज़र सर्व की विशेषताओं पर हो। हर ब्राह्मण आत्मा को देख सदा यही गुण गाते रहो - ‘‘वाह श्रेष्ठ आत्मा वाह''! अगर दूसरे की कमज़ोरी देखेंगे तो स्वयं भी कमजोर बन जायेंगे। तो आपकी नज़र किसी की कमज़ोरी रूपी कंकर पर नहीं जानी चाहिए। आप होली हंस सदा गुण रूपी मोती चुगते रहो। अच्छा-
2- समय और स्वयं के महत्व को स्मृति में रखो तो महान बन जायेंगे संगम युग का एक-एक सेकण्ड सारे कल्प की प्रालब्ध बनाने का आधार है। ऐसे समय के महत्त्व को जानते हुए हर कदम उठाते हो? जैसे समय महान है वैसे आप भी महान आत्मा हो - क्योंकि बापदादा द्वारा हर बच्चे को महान आत्मा बनने का वर्सा मिला है। तो स्वयं के महत्व को भी जानकर हर संकल्प, हर बोल और हर कर्म महान करो। सदा इसी स्मृति में रहो कि हम ‘महान बाप के बच्चे महान हैं।' इससे ही जितना श्रेष्ठ भाग्य बनाने चाहो बना सकते हो। संगमयुग को यही वरदान है। सदा बाप द्वारा मिले हुए खजानों से खेलते रहो। कितने अखुट खजाने मिले है, गिनती कर सकते हो! तो सदा ज्ञान रत्नों से, खुशी के खजाने से शक्तियों के खजाने से खेलते रहो। सदा मुख से रतन निकलें, मन में ज्ञान का मनन चलता रहे। ऐसे धारणा स्वरूप रहो। महान समय है, महान आत्मा हूँ - यही सदा याद रखो।
08-04-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“लौकिक, अलौकिक सम्बन्ध का त्याग”
अव्यक्त बापदादा बोले:-
आज बापदादा अपने महादानी वरदानी विशेष आत्माओं को देख रहे हैं। महादानी वरदानी बनने का आधार है - ‘महात्यागी' बनने के बिगर महादानी वरदानी नहीं बन सकते। महादानी अर्थात् मिले हुए खजाने बिना स्वार्थ के सर्व आत्माओं प्रति देने वाले - ‘नि:स्वार्था'। स्व के स्वार्थ से परे आत्मा ही महादानी बन सकती है। वरदानी, सदा स्वयं में गुणों, शक्तियों और ज्ञान के खजाने से सम्पन्न आत्मा सदा सर्व आत्माओं प्रति श्रेष्ठ और शुभ भावना तथा सर्व का कल्याण हो, ऐसी श्रेष्ठ कामना रखने वाली सदा रूहानी रहमदिल, फराखदिल, ऐसी आत्मा ‘वरदानी' बन सकती है। इसके लिए ‘महात्यागी' बनना आवश्यक है। त्याग की परिभाषा भी सुनाई है कि पहला त्याग है - अपने देह की स्मृति का त्याग। दूसरा देह के सम्बन्ध का त्याग। देह के सम्बन्ध में पहली बात कर्मेंन्द्रियों के सम्बन्ध की सुनाई - क्योंकि 24 घण्टे का सम्बन्ध इन कर्मेन्द्रियों के साथ है। इन्द्रियजीत बनना, अधिकारी आत्मा बनना यह दूसरा कदम। इसका स्पष्टीकरण भी सुना। अब तीसरी बात यह है - देह के साथ व्यक्तियों के सम्बन्ध की। इसमें लौकिक तथा अलौकिक सम्बन्ध आ जाता है। इन दोनों सम्बन्ध में महात्यागी अर्थात् ‘नष्टोमोहा'। नष्टोमोहा की निशानी - दोनों सम्बन्धों में न किसी में घृणा होगी, न किसी में लगाव वा झुकाव होगा। अगर किसी से घृणा है तो उस आत्मा के अवगुण वा आपके दिलपसन्द न करने वाले कर्म बारबार आपकी बुद्धि को विचलित करेंगे, न चाहते भी संकल्प में, बोल में, स्वप्न में भी उसी का उल्टा चिन्तन स्वत: ही चलेगा। याद बाप को करेंगे और सामने आयेगी वह आत्मा। जैसे दिल के झुकाव में लगाव वाली आत्मा न चाहते भी अपने तरफ आकर्षित कर ही लेती है। वह गुण और स्नेह के रूप में बुद्धि को आकर्षित करती है और घृणा वाली आत्मा स्वार्थ की पूर्ति न होने के कारण, स्वार्थ बुद्धि को विचलित करता है। जब तक स्वार्थ पूरा नहीं होता तब तक उस आत्मा के साथ विरोधी संकल्प वा कर्म का हिसाब समाप्त नहीं होता।
घृणा का बीज है स्वार्थ का रॉयल स्वरूप - ‘‘चाहिए''। इसको यह करना चाहिए, यह न करना चाहिए, यह होना चाहिए। तो ‘चाहिए' की चाह उस आत्मा से व्यर्थ सम्बन्ध जोड़ देती है। घृणा वाली आत्मा के प्रति सदा व्यर्थ चिन्तन होने के कारण परदर्शन चक्रधारी बन जाते। लेकिन यह व्यर्थ सम्बन्ध भी ‘नष्टोमोहा' होने नहीं देंगे। मुहब्बत से मोह नहीं होगा लेकिन मजबूरी से। फिर क्या कहते हैं - मैं तो तंग हो गई हूँ। तो जो तंग करता है उसमें बुद्धि तो जायेगी ना। समय भी जायेगा, बुद्धि भी जायेगी और शक्तियाँ भी जायेंगी। तो एक है यह सम्बन्ध। दूसरा है विनाशी स्नेह और प्राप्ति के आधार पर वा अल्पकाल के लिए सहारा बनने के कारण लगाव वा झुकाव। यह भी लौकिक, अलौकिक दोनों सम्बन्ध में बुद्धि को अपनी तरफ खींचता है। जैसे लौकिक में देह के सम्बन्धियों द्वारा स्नेह मिलता है, सहारा मिलता है, प्राप्ति होती है तो उस तरफ विशेष मोह जाता है ना। उस मोह को काटने के लिए पुरूषार्थ करते हो, लक्ष्य रखते हो कि किसी भी तरफ बुद्धि न जाए। लौकिक को छोड़ने के बाद अलौकिक सम्बन्ध में भी यही सब बातें बुद्धि को आकर्षित करती हैं। अर्थात् बुद्धि का झुकाव अपनी तरफ सहज कर लेती हैं। यह भी देहधारी के ही सम्बन्ध हैं। जब कोई समस्या जीवन में आयेगी, दिल में कोई उलझन की बात होगी तो न चाहते भी अल्पकाल के सहारे देने वाले वा अल्पकाल की प्राप्ति कराने वाले, लगाव वाली आत्मा ही याद आयेगी। बाप याद नहीं आयेगा। फिर से ऐसे लगाव लगाने वाली आत्मायें अपने आपको बचाने के लिए वा अपने को राइट सिद्ध करने के लिए क्या सोचती और बोलती हैं कि बाप तो निराकार और आकार है ना! साकार में कुछ चाहिए जरूर। लेकिन यह भूल जाती हैं अगर एक बाप से सर्व प्राप्ति का सम्बन्ध, सर्व सम्बन्धों का अनुभव और सदा सहारे दाता का अटल विश्वास है, निश्चय है तो बापदादा निराकार या आकार होते भी स्नेह के बन्धन में बाँधे हुए हैं। साकार रूप की भासना देते हैं। अनुभव न होने का कारण? नॉलेज द्वारा यह समझा है कि सर्व सम्बन्ध एक बाप से रखने हैं लेकिन जीवन में सर्व सम्बन्धों को नहीं लाया है। इसलिए साक्षात् सर्व सम्बन्ध की अनुभूति नहीं कर पाते हैं। जब भक्ति मार्ग में भक्त माला की शिरोमणी मीरा को भी साक्षात्कार नहीं लेकिन साक्षात् अनुभव हुआ तो क्या ज्ञान सागर के डायरेक्ट ज्ञान स्वरूप बच्चों को साकार रूप में सर्व प्राप्ति के आधार मूर्त, सदा सहारे दाता बाप का अनुभव नहीं हो सकता! तो फिर सर्वशक्तिवान को छोड़ यथा शक्ति आत्माओं को सहारा क्यों बनाते हो! यह भी एक गुह्य कर्मों का हिसाब बुद्धि में रखो। कर्मों का हिसाब कितना गुह्य है - इसको जानो। किसी भी आत्मा द्वारा अल्पकाल का सहारा लेते हो वा प्राप्ति का आधार बनाते हो, उसी आत्मा के तरफ बुद्धि का झुकाव होने के कारण कर्मातीत बनने के बजाए कर्मों का बन्धन बंध जाता है। एक ने दिया दूसरे ने लिया - तो आत्मा का आत्मा से लेन-देन हुआ। तो लेन-देन का हिसाब बना वा समाप्त हुआ? उस समय अनुभव ऐसे करेंगे जैसे कि हम आगे बढ़ रहे हैं लेकिन वह आगे बढ़ना, बढ़ना नहीं, लेकिन कर्म बन्धन के हिसाब का खाता जमा किया। रिजल्ट क्या होगी! कर्म-बन्धनी आत्मा, बाप से सम्बन्ध का अनुभव कर नहीं सकेगी। कर्मबन्धन के बोझ वाली आत्मा याद की यात्रा में सम्पूर्ण स्थिति का अनुभव कर नहीं सकेगी, वह याद के सबजेक्ट में सदा कमजोर होगी। नॉलेज सुनने और सुनाने में भल होशियार, सेन्सीबुल होगी लेकिन इसेन्सफुल नहीं होगी। सर्विसएबुल होगी लेकिन विघ्न विनाशक नहीं होगी। सेवा की वृद्धि कर लेंगे लेकिन विधिपूर्वक वृद्धि नहीं होगी। इसलिए ऐसी आत्मायें कर्म बन्धन के बोझ कारण स्पीकर बन सकती हैं लेकिन स्पीड में नहीं चल सकती अर्थात् उड़ती कला की स्पीड का अनुभव नहीं कर सकती। तो यह भी दोनों प्रकार के देह के सम्बन्ध हैं जो ‘महात्यागी' नहीं बनने देंगे। तो सिर्फ पहले इस देह के सम्बन्ध को चेक करो - किसी भी आत्मा से चाहे घृणा के सम्बन्ध में, चाहे प्राप्ति वा सहारे के सम्बन्ध से लगाव तो नहीं है? अर्थात् बुद्धि का झुकाव तो नहीं है? बार-बार बुद्धि का जाना वा झुकाव सिद्ध करता है कि बोझ है। बोझ वाली चीज झुकती है। तो यह भी कर्मों का बोझ बनता है इसलिए बुद्धि का झुकाव न चाहते भी वहाँ ही होता है। समझा - अभी तो एक देह के सम्बन्ध की बात सुनाई।
तो अपने आप से पूछो - कि देह के सम्बन्ध का त्याग किया? वा लौकिक से त्याग कर अलौकिक में जोड़ लिया? कर्मातीत बनने वाली आत्मायें, इस कर्म के बन्धन का भी त्याग करो। तो ब्राह्मणों के लिए इस सम्बन्ध का त्याग ही त्याग है। तो समझा त्याग की परिभाषा क्या है? अभी और आगे सुनायेंगे। यह त्याग का सप्ताह कोर्स चल रहा है। आज का पाठ पक्का हुआ? ब्राह्मणों की विशेषता है ही ‘महात्यागी'। त्याग के बिना भाग्य पा नहीं सकते। ऐसे तो नहीं समझते ब्रह्माकुमार-कुमारी हो गये तो त्याग हो गया? ब्रह्माकुमार-ब्रह्माकुमारी के लिए त्याग की परिभाषा गुह्य हो जाती है। समझा? अच्छा-
ऐसे सदा निस्वार्था, सर्व कल्याणकारी, सर्व प्राप्तियों को सेवा में लगाए जमा करने वाले, सदा दाता के बच्चे देने वाले, लेने के अल्पकाल के प्राप्ति से निष्कामी, सदा सर्व प्रति शुभ भावना, कल्याण की कामना रखने वाले महादानी, वरदानी श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।''
टीचर्स के साथ- सेवाधारी आत्माओं का सदा एक ही लक्ष्य रहता है कि बाप समान बनना है? क्योंकि बाप समान सीट पर सेट हो। जैसे बाप शिक्षक बन, शिक्षा देने के निमित्त बनते हैं वैसे सेवाधारी आत्मायें बाप समान कर्त्तव्य पर स्थित हो। तो जैसे बाप के गुण वैसे निमित्त बने हुए सेवाधारी के गुण। तो सदा पहले यह चेक करो - कि जो भी बोल बोलते हैं यह बाप समान हैं? जो भी संकल्प करते हैं यह बाप समान है! अगर नहीं तो चेक करके चेन्ज कर लो। कर्म में नहीं जाओ। ऐसे चेक करने के बाद प्रैक्टिकल में लाने से क्या होगा? जैसे बाप सदा सेवाधारी होते हुए सर्व का प्यारा और सर्व से न्यारा है, ऐसे सेवा करते सर्व के रूहानी प्यारे भी रहेंगे और साथ-साथ सर्व से न्यारे भी रहेंगे! बाप की मुख्य विशेषता ही है - ‘जितना प्यारा उतना न्यारा'। ऐसे बाप समान सेवा में प्यारे और बुद्धियोग से सदा एक बाप के प्यारे सर्व से न्यारे। इसको कहा जाता है - ‘बाप समान सेवाधारी'। तो शिक्षक बनना अर्थात् बाप की विशेष इस विशेषता को फालो करना। सेवा में तो सभी बहुत अच्छी मेहनत करते हो लेकिन कहाँ न्यारा बनना है और कहाँ प्यारा बनना है - इसके ऊपर विशेष अटेन्शन। अगर प्यार से सेवा न करो तो भी ठीक नहीं और प्यार में फँसकर सेवा करो तो भी ठीक नहीं। तो प्यार से सेवा करनी है लेकिन न्यारी स्थिति में स्थित होकर करनी है तब सेवा में सफलता होगी। अगर मेहनत के हिसाब से सफलता कम मिलती है तो जरूर प्यारे और न्यारे बनने के बैलेन्स में कमी है। इसलिए सेवाधारी अर्थात् बाप का प्यारा और दुनिया से न्यारा। यही सबसे अच्छी स्थिति है। इसी को ही ‘कमल पुष्प समान' जीवन कहा जाता है। इसलिए शक्तियों को कमल आसन भी देते हैं! कमल पुष्प पर विराजमान दिखाते हैं। क्योंकि कमल समान न्यारे और प्यारे हैं। तो सभी सेवाधारी कमल आसन पर विराजमान हो ना? आसन अर्थात् स्थिति। स्थिति को ही आसन का रूप दिया है। बाकी कमल पर कोई बैठा हुआ तो नहीं है ना? तो सदा कमल आसन पर बैठो। कभी कमल कीचड़ में न चला जाए इसका सदा ध्यान रहे! अच्छा-
कुमारों के साथ
कुमार जीवन में बाप का बनना- कितने भाग्य की निशानी है! ऐसे अनुभव करते हो कि हम कितने बन्धनों में जाने से बच गये? कुमार जीवन अर्थात् अनेक बन्धनों से मुक्त जीवन। किसी भी प्रकार का बन्धन नहीं। देह के भान का भी बन्धन न हो। इस देह के भान से सब बन्धन आ जाते हैं। तो सदा अपने को आत्मा भाई-भाई हैं - ऐसे ही समझकर चलते रहो। इसी स्मृति से कुमार जीवन सदा निर्विघ्न आगे बढ़ सकती है। संकल्प वा स्वप्न में भी कोई कमज़ोरी न हो इसको कहा जाता है - विघ्न विनाशक। बस चलते फिरते यह नैचरल स्मृति रहे कि हम आत्मा हैं। देखो तो भी आत्मा को, सुनो तो भी आत्मा होकर। यह पाठ कभी भी न भूले। कुमार सेवा में तो बहुत आगे चले जाते हैं लेकिन सेवा करते अगर स्व की सेवा भूले तो फिर विघ्न आ जाता है। कुमार अर्थात् हार्ड वर्कर तो हो ही लेकिन निर्विघ्न बनना है। स्व की सेवा और विश्व की सेवा दोनों का बैलेन्स हो। सेवा में इतने बिजी न हो जाओ जो स्व की सेवा में अलबेले हो जाओ। क्योंकि कुमार जितना अपने को आगे बढ़ाने चाहें बढ़ा सकते हैं। कुमारों में शारीरिक शक्ति भी है और साथ-साथ दृढ़ संकल्प की भी शक्ति है इसलिए जो चाहे कर सकते हैं, इन दोनों शक्तियों द्वारा आगे बढ़ सकते हैं। लेकिन बैलेंस की कला चढ़ती कला में ले जाएगी। स्व सेवा और विश्व की सेवा, दोनों का बैलेंस हो तो निर्विघ्न वृद्धि होती रहेगी।
2. कुमार सदा अपने को बाप के साथ समझते हो? बाप और मैं सदा साथ-साथ हैं, ऐसे सदा के साथी बने हो? वैसे भी जीवन में सदा कोई न कोई साथी बनाते हैं। तो आपके जीवन का साथी कौन? (बाप) ऐसा सच्चा साथी कभी भी मिल नहीं सकता। कितना भी प्यारा साथी हो लेकिन देहधारी साथी सदा का साथ नहीं निभा सकते और यह रूहानी सच्चा साथी सदा साथ निभाने वाला है। तो कुमार अकेले हो या कम्बाइन्ड हो? (कम्बाइन्ड) फिर और किसको साथी बनाने का संकल्प तो नहीं आता है? कभी कोई मुश्किलात आये, बीमारी आये, खाना बनाने की मुश्किल हो तो साथी बनाने का संकल्प आयेगा या नहीं? कभी भी ऐसा संकल्प आये तो इसे ‘व्यर्थ संकल्प' समझ सदा के लिए सेकण्ड में समाप्त कर लेना। क्योंकि जिसे आज साथी समझकर साथी बनायेंगे कल उसका क्या भरोसा! इसलिए विनाशी साथी बनाने से फायदा ही क्या! तो सदा कम्बाइन्ड समझने से और संकल्प समाप्त हो जायेंगे क्योंकि सर्वशक्तिवान साथी है। जैसे सूर्य के आगे अंधकार ठहर नहीं सकता वैसे सर्वशक्तिवान के आगे माया ठहर नहीं सकती। तो सब मायाजीत हो जायेंगे।
अच्छा - ओमशान्ति।
11-04-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“व्यर्थ का त्याग कर समर्थ बनो”
सर्व समर्थ शिव बाबा बोले:-
‘‘आज बापदादा अपने सर्व विकर्माजीत अर्थात् विकर्म- संन्यासी आत्माओं को देख रहे हैं। ब्राह्मण आत्मा बनना अर्थात् श्रेष्ठ कर्म करना और विकर्म का संन्यास करना। हरेक ब्राह्मण बच्चे ने ब्राह्मण ब्राह्मण बनते ही यह श्रेष्ठ संकल्प किया कि हम सभी अब विकर्मा से सुकर्मा बन गये। सुकर्मा आत्मा श्रेष्ठ ब्राह्मण आत्मा कहलाई जाती है। तो संकल्प ही है विकर्माजीत बनने का। यही लक्ष्य पहले-पहले सभी ने धारण किया ना! इसी लक्ष्य को रखते हुए श्रेष्ठ लक्षण धारण कर रहे हो। तो अपने आप से पूछो - विकर्मों का संन्यास कर विकर्माजीत बने हो? जैसे लौकिक दुनिया में भी उच्च रॉयल कुल की आत्मायें कोई साधारण चलन नहीं कर सकतीं वैसे आप सुकर्मा आत्मायें विकर्म कर नहीं सकतीं। जैसे हद के वैष्णव लोग कोई भी तामसी चीज स्वीकार कर नहीं सकते, ऐसे विकर्माजीत विष्णुवंशी - विकर्म वा विकल्प का तमोगुणी कर्म वा संकल्प नहीं कर सकते। यह ब्राह्मण धर्म के हिसाब से निषेध है। आने वाली जिज्ञासु आत्माओं के लिए भी डायरेक्शन लिखते हो ना कि सहज योगी के लिए यह-यह बातें निषेध हैं तो ऐसे ब्राह्मणों के लिए वा अपने लिए क्या-क्या निषेध हैं वह अच्छी तरह से जानते हो? जानते तो सभी हैं और मानते भी सभी हैं लेकिन चलते नम्बरवार हैं। ऐसे बच्चों को देख बापदादा को इस बात पर एक हँसी की कहानी याद आई जो आप लोग सुनाते रहते हो। मानते भी हैं, कहते भी हैं लेकिन कहते हुए भी करते हैं। इस पर दूसरों को तोते की कहानी सुनाते हो ना। कह भी रहा है और कर भी रहा है। तो इसको क्या कहेंगे? ऐसा ब्राह्मण आत्माओं के लिए श्रेष्ठ लगता है? क्योंकि ब्राह्मण अर्थात् श्रेष्ठ। तो श्रेष्ठ क्या है? सुकर्म या साधारण कर्म? जब ब्राह्मण साधारण कर्म भी नहीं कर सकते तो विकर्म की तो बात ही नहीं। विकर्माजीत अर्थात् विकर्म, विकल्प के त्यागी। कर्मेंन्द्रियों के आधार से कर्म के बिना रह नहीं सकते। तो देह का सम्बन्ध कर्मेंन्द्रियों से है और कर्मेंन्द्रियों का सम्बन्ध कर्म से है। यह देह और देह के सम्बन्ध के त्याग की बात चल रही है। कर्मेंन्द्रियों का जो कर्म के साथ सम्बन्ध है - उस कर्म के हिसाब से विकर्म का त्याग। विकर्म के त्याग बिना सुकर्मा वा विकर्माजीत बन नही सकते। विकर्म की परिभाषा अच्छी तरह से जानते हो। किसी भी विकार के अंशमात्र के वशीभूत हो कर्म करना अर्थात् विकर्म करना है। विकारों के सूक्ष्म स्वरूप, रॉयल स्वरूप दोनों को अच्छी तरह से जानते हो और इसके ऊपर पहले भी सुना दिया है कि ब्राह्मणों के रॉयल रूप के विकार का स्वरूप क्या है? अगर रॉयल रूप में विकार है वा सूक्ष्म अंशमात्र है तो ऐसी आत्मा सदा सुकर्मा बन नहीं सकती।
अमृतवेले से लेकर हर कर्म में चेक करो कि सुकर्म किया वा व्यर्थ कर्म किया वा कोई विकर्म भी किया? सुकर्म अर्थात् श्रीमत के आधार पर कर्म करना। श्रीमत के आधार पर किया हुआ कर्म स्वत:ही सुकर्म के खाते में जमा होता है। तो सुकर्म और विकर्म को चेक करने की विधि यह सहज है। इस विधि के प्रमाण सदा चेक करते चलो। अमृतवेले के उठने के कर्म से लेकर रात के सोने तक हर कर्म के लिए ‘श्रीमत' मिली हुई है। उठना कैसे है, बैठना कैसे है, सब बताया हुआ है ना! अगर वैसे नहीं उठते तो अमृतवेले से श्रेष्ठ कर्म की श्रेष्ठ प्रालब्ध बना नहीं सकते। अर्थात् व्यर्थ और विकर्म के त्यागी नहीं बन सकते। तो इस सम्बन्ध का भी त्याग। व्यर्थ का भी त्याग करना पड़े। कई समझते हैं कि कोई विकर्म तो किया नहीं। कोई भूल तो की नहीं। कोई ऐसा बोल तो बोला नहीं। लेकिन व्यर्थ बोल, समर्थ बनने नहीं देंगे। अर्थात् श्रेष्ठ भाग्यवान बनने नहीं देंगे। अगर विकर्म नहीं किया लेकिन व्यर्थ कर्म भी किया तो वर्तमान और भविष्य जमा तो नहीं हुआ। श्रेष्ठ कर्म करने से वर्तमान में भी श्रेष्ठ कर्म का प्रत्यक्षफल खुशी और शक्ति की अनुभूति होगी। स्वयं के प्रति भी प्रत्यक्षफल मिल जाता है और दूसरे भी ऐसी श्रेष्ठ कर्मा आत्माओं को देख पुरूषार्थ के उमंग उत्साह में आते हैं कि हम भी ऐसे बन सकते हैं। तो अपने प्रति प्रत्यक्षफल और दूसरों की सेवा। डबल जमा हो गया। और वर्तमान के हिसाब से भविष्य तो जमा हो ही जाता है। इस हिसाब से देखो कि अगर व्यर्थ अर्थात् साधारण कर्म भी किया तो कितना नुकसान हुआ? तो ऐसे कभी नहीं सोचो कि साधारण कर्म किया - यह तो होता ही है। श्रेष्ठ आत्मा का हर कदम श्रेष्ठ, हर कर्म श्रेष्ठ, हर बोल श्रेष्ठ होगा। तो समझा, त्याग की परिभाषा क्या हुई! व्यर्थ अर्थात् साधारण कर्म, बोल, समय, इसका भी त्याग कर सदा समर्थ, सदा अलौकिक अर्थात् पद्मापद्म भाग्यवान बनो। तो व्यर्थ और साधारण बातों को भी अण्डरलाइन करो। इसके अलबेलेपन का त्याग। क्योंकि आप सभी ब्राह्मण आत्माओं का विश्व के मंच पर हीरो और हीरोइन का पार्ट है। ऐसी हीरो पार्टधारी आत्माओं का एक-एक सेकण्ड, एक-एक संकल्प, एक-एक बोल, एक-एक कर्म, हीरे से भी ज्यादा मूल्यवान है। अगर एक संकल्प भी व्यर्थ हुआ तो जैसे हीरे को गँवाया। अगर कीमती से कीमती हीरा किसका गिर जाए, खो जाए तो वह सोचेगा ना - कुछ गँवाया है। ऐसे एक हीरे की बात नहीं। अनेक हीरों की कीमत का एक सेकण्ड है। इस हिसाब से सोचो। ऐसे नहीं कि साधारण रूप में बैठे-बैठे साधारण बातें करते-करते समय बिता दो। फिर क्या कहते - कोई बुरी बात तो नहीं की, ऐसे ही बातें कर रहे थे, ऐसे ही बैठे थे, बातें कर रहे थे। ऐसे ही चल रहे थे। यह ऐसे-ऐसे करते भी कितना समय चला जाता है। ऐसे ही नहीं लेकिन हीरे जैसे हैं। तो अपने मूल्य को जानो। आपके जड़ चित्रों का कितना मूल्य है। एक सेकण्ड के दर्शन का भी मूल्य है। आपके एक संकल्प का भी इतना मूल्य है जो आज तक उसको वरदान के रूप में माना जाता है। भक्त लोग यही कहते हैं कि एक सेकण्ड का सिर्फ दर्शन दे दो। तो दर्शन ‘समय' की वैल्यु है, वरदान ‘संकल्प' की वैल्यु, आपके बोल की वैल्यु - आज भी दो वचन सुनने के लिए तड़पते हैं। आपके दृष्टि की वैल्यु आज भी नज़र से निहाल कर लो, ऐसे पुकारते रहते हैं। आपके हर कर्म की वैल्यु है। बाप के साथ श्रेष्ठ कर्म का वर्णन करते गद्गद् होते हैं। तो इतना अमूल्य है आपका हर सेकण्ड, हर संकल्प। तो अपने मूल्य को जान व्यर्थ और विकर्म वा विकल्प का त्याग। तो आज त्याग का पाठ क्या पक्का किया? ‘‘ऐसे ही ऐसे'' शब्द के अलबेलेपन का त्याग। जैसे कहते हैं आजकल की चालू भाषा। तो ब्राह्मणों की भी आजकल चालू भाषा यह हो गई है। यह चालू भाषा छोड़ दो। हर सेकण्ड अलौकिक हो। हर संकल्प अलौकिक अर्थात् अमूल्य हो। वर्तमान और भविष्य डबल फल वाला हो। जैसे देखा है ना - कभी-कभी एक में दो इकट्ठे फल होते हैं। दो फल इकट्ठे निकल जाते हैं। तो आप श्रेष्ठ आत्माओं का सदा डबल फल है अर्थात् डबल प्राप्ति है। भविष्य के पहले वर्तमान प्राप्ति है। और वर्तमान के आधार पर भविष्य प्राप्ति है। तो समझा - डबल फल खाओ। सिंगल नहीं। अच्छा-
सदा विकर्माजीत, हर सेकण्ड को अमूल्य बन और बनाने की सेवा में लगाने वाले ऐसे डबल हीरो, डबल फल खाने वाले, व्यर्थ और साधारण के महात्यागी, सदा बाप समान श्रेष्ठ संकल्प और कर्म करने वाले महा-महा भाग्यवान आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।''
पार्टियों के साथ
प्रश्नः- एक बल और एक भरोसे पर चलने वाले किस बात पर निश्चय रखकर चलते रहते हैं?
उत्तर:- एक बल एक भरोसा अर्थात् सदा निश्चय हो कि जो साकार की मुरली है, वही मुरली है, जो मधुबन से श्रीमत मिलती है वही श्रीमत है, बाप सिवाय मधुबन के और कहीं मिल नहीं सकता। सदा एक बाप की पढ़ाई में निश्चय हो। मधुबन से जो पढ़ाई का पाठ पढ़ाया जाता, वही पढ़ाई है, दूसरी कोई पढ़ाई नहीं। अगर कहाँ भोग आदि के समय सन्देशी द्वारा बाबा का पार्ट चलता है तो यह बिल्कुल रांग है, यह भी माया है, इसको ‘एक बल एक भरोसा नहीं कहेंगे'। मधुबन से जो मुरली आती है उस पर ध्यान दो, नहीं तो और रास्ते पर चले जायेंगे। मधुबन में ही बाबा की मुरली चलती है, मधुबन में ही बाबा आते हैं इसलिए हरेक बच्चा यह सावधानी रखे, नहीं तो माया धोखा दे देगी।
प्रश्नः- संगम पर ही तुम बच्चे बेगर टु प्रिन्स बन गये हो! कैसे?
उत्तर:- पुरानी दुनिया और पुराने संस्कारों से बेगर और ज्ञान के खजाने, शक्तियों के खजाने, सबके राज्य अधिकारी अर्थात् प्रिन्स। पहले अधीन आत्मा थे - कभी तन के, कभी मन के, कभी धन के। लेकिन अब अधीनता अर्थात् बेगरपन समाप्त हुआ, अब अधिकारी बन गए। अभी स्वराज्य - फिर विश्व का राज्य।
13-04-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“त्यागी - महात्यागी की व्याख्या”
अव्यक्त बापदादा, महादानी वफादार बच्चों के प्रति बोले:-
‘‘बापदादा सर्व ब्राह्मण आत्माओं में ‘सर्वस्व त्यागी' बच्चों को देख रहे हैं। तीन प्रकार के बच्चे हैं - एक हैं त्यागी, दूसरे हैं महात्यागी, तीसरे हैं सर्व त्यागी, तीनों हैं ही त्यागी लेकिन नम्बरवार हैं।
त्यागी- जिन्होंने ज्ञान और योग के द्वारा अपने पुराने सम्बन्ध, पुरानी दुनिया, पुराने सम्पर्क द्वारा प्राप्त हुई अल्पकाल की प्राप्तियों को त्याग कर ब्राह्मण जीवन अर्थात् योगी जीवन संकल्प द्वारा अपनाया है अर्थात् यह सब धारणा की कि पुरानी जीवन से ‘यह योगी जीवन श्रेष्ठ है'। अल्पकाल की प्राप्ति से यह सदाकाल की प्राप्ति प्राप्त करना आवश्यक है। और उसे आवश्यक समझने के आधार पर ज्ञान योग के अभ्यासी बन गये। ब्रह्माकुमार वा ब्रह्माकुमारी कहलाने के अधिकारी बन गये। लेकिन ब्रह्माकुमार-कुमारी बनने के बाद भी पुराने सम्बन्ध, संकल्प और संस्कार सम्पूर्ण परिवर्तन नहीं हुए लेकिन परिवर्तन करने के युद्ध में सदा तप्पर रहते। अभी-अभी ब्राह्मण संस्कार, अभी-अभी पुराने संस्कारों को परिवर्तन करने के युद्ध स्वरूप में। इसको कहा जाता है - त्यागी बने लेकिन सम्पूर्ण परिवर्तन नहीं किया। सिर्फ सोचने और समझने वाले हैं कि त्याग करना ही महा भाग्यवान बनना है। करने की हिम्मत कम। अलबेलेपन के संस्कार बारबार इमर्ज होने से त्याग के साथ-साथ आराम पसन्द भी बन जाते हैं। समझ भी रहे हैं, चल भी रहे हैं, पुरूषार्थ कर भी रहे हैं, ब्राह्मण जीवन को छोड़ भी नहीं सकते, यह संकल्प भी दृढ़ है कि ब्राह्मण ही बनना है। चाहे माया वा मायावी सम्बन्धी पुरानी जीवन के लिए अपनी तरफ आकर्षित भी कर सकते हैं तो भी इस संकल्प में अटल हैं कि ब्राह्मण जीवन ही श्रेष्ठ है। इसमें निश्चय-बुद्धि पक्के हैं। लेकिन सम्पूर्ण त्यागी बनने के लिए दो प्रकार के विघ्न आगे बढ़ने नहीं देते। वह कौन से? एक - तो सदा हिम्मत नहीं रख सकते अर्थात् विघ्नों का सामना करने की शक्ति कम है। दूसरा - अलबेलेपन का स्वरूप आराम पसन्द बन चलना। पढ़ाई, याद, धारणा और सेवा सब सबजेक्ट में कर रहे हैं, चल रहे हैं, पढ़ रहे हैं लेकिन आराम से! सम्पूर्ण परिवर्तन करने के लिए शस्त्रधारी शक्ति-स्वरूप की कमी हो जाती है। स्नेही हैं लेकिन शक्ति स्वरूप नहीं। मास्टर सर्वशक्तिवान स्वरूप में स्थित नहीं हो सकते हैं। इसलिए महात्यागी नहीं बन सकते हैं। यह है त्यागी आत्मायें।
महात्यागी- सदा सम्बन्ध, संकल्प और संस्कार सभी के परिवर्तन करने के सदा हिम्मत और उल्लास में रहते। पुरानी दुनिया, पुराने सम्बन्ध से सदा न्यारे हैं। महात्यागी आत्मायें सदा यह अनुभव करती कि यह पुरानी दुनिया वा सम्बन्धी मरे ही पड़े हैं। इसके लिए युद्ध नहीं करनी पड़ती है। सदा स्नेही, सहयोगी, सेवाधारी शक्ति स्वरूप की स्थिति में स्थित रहते हैं, बाकी क्या रह जाता है! महात्यागी के फलस्वरूप जो त्याग का भाग्य है - महाज्ञानी, महायोगी, श्रेष्ठ सेवाधारी बन जाते हैं! इस भाग्य के अधिकार को कहाँ-कहाँ उल्टे नशे के रूप में यूज़ कर लेते हैं। पास्ट जीवन का सम्पूर्ण त्याग है लेकिन ‘त्याग का भी त्याग नहीं है'। लोहे की जंजीरे तो तोड़ दीं, आइरन एजड से गोल्डन एजड तो बन गये, लेकिन कहाँ-कहाँ परिवर्तन सुनहरी जीवन के सोने की जंजीर में बंध जाता है। वह सोने की जंजीरें क्या है? ‘‘मैं'' और ‘‘मेरा''। मैं अच्छा ज्ञानी हूँ, मैं ज्ञानी तू आत्मा, योगी तू आत्मा हूँ। यह सुनहरी जंजीर कहाँ-कहाँ सदा बन्धनमुक्त बनने नहीं देती। तीन प्रकार की प्रवृत्ति है - (1) लौकिक सम्बन्ध वा कार्य की प्रवृत्ति (2) अपने शरीर की प्रवृत्ति और (3) सेवा की प्रवृत्ति।
तो त्यागी जो हैं वह लौकिक प्रवृत्ति से पार हो गये लेकिन देह की प्रवृत्ति अर्थात् अपने आपको ही चलाने और बनाने में व्यस्त रहना वा देह भान की नेचर के वशीभूत रहना और उसी नेचर के कारण ही बार-बार हिम्मतहीन बन जाते हैं। जो स्वयं भी वर्णन करते कि समझते भी हैं, चाहते भी हैं लेकिन मेरी नेचर है। यह भी देह भान की, देह की प्रवृत्ति है। जिसमें शक्ति स्वरूप हो इस प्रवृत्ति से भी निवृत्त हो जाएँ - वह नहीं कर पाते। यह त्यागी की बात सुनाई लेकिन महात्यागी लौकिक प्रवृत्ति, देह की प्रवृत्ति दोनों से निवृत्त हो जाते - लेकिन सेवा की प्रवृत्ति में कहाँ-कहाँ निवृत्त होने के बजाए फँस जाते हैं। ऐसी आत्माओं को अपनी देह का भान भी नहीं सताता क्योंकि दिन-रात सेवा में मगन हैं। देह की प्रवृत्ति से तो पार हो गये। इस दोनों ही त्याग का भाग्य - ज्ञानी और योगी बन गये, शक्तियों की प्राप्ति, गुणों की प्राप्ति हो गई। ब्राह्मण परिवार में प्रसिद्ध आत्मायें बन गये। सेवाधारियों में वी.आई.पी. बन गये। महिमा के पुष्पों की वर्षा शुरू हो गई। माननीय और गायन योग्य आत्मायें बन गये लेकिन यह जो सेवा की प्रवृत्ति का विस्तार हुआ, उस विस्तार में अटक जाते हैं। यह सर्व प्राप्ति भी महादानी बन औरों को दान करने के बजाए स्वयं स्वीकार कर लेते हैं। तो ‘मैं और मेरा' शुद्ध भाव की सोने की जंजीर बन जाती है। भाव और शब्द बहुत शुद्ध होते हैं कि हम अपने प्रति नहीं कहते, सेवा के प्रति कहते हैं। मैं अपने को नहीं कहती कि मैं योग्य टीचर हूँ लेकिन लोग मेरी मांगनी करते हैं। जिज्ञासु कहते हैं कि आप ही सेवा करो। मैं तो न्यारी हूँ लेकिन दूसरे मुझे प्यारा बनाते हैं। इसको क्या कहा जायेगा? बाप को देखा वा आपको देखा? आपका ज्ञान अच्छा लगता है, आपके सेवा का तरीका अच्छा लगता है, तो बाप कहाँ गया? बाप को परमधाम निवासी बना दिया! इस भाग्य का भी त्याग। जो आप दिखाई न दें, बाप ही दिखाई दे। महान आत्मा प्रेमी नहीं बनाओ ‘परमात्म प्रेमी बनाओ'। इसको कहा जाता है और प्रवृत्ति पार कर इस लास्ट प्रवृत्ति में सर्वांश त्यागी नहीं बनते। यह शुद्ध प्रवृत्ति का अंश रह गया। तो महात्यागी तो बने लेकिन सर्वस्व त्यागी नहीं बने। तो सुना दूसरे नम्बर का महात्यागी। बाकी रह गया सर्वस्व त्यागी।
यह है त्याग के कोर्स का लास्ट सो सम्पन्न पाठ। लास्ट पाठ रह गया। वह फिर सुनायेंगे। क्योंकि 83 में जो महायज्ञ कर रहे हो और महान स्थान पर कर रहे हो तो सभी कुछ तो आहुति डालेंगे ना वा सिर्फ हाल बनाने की तैयारी करेंगे। औरों की सेवा तो करेंगे। बाप की प्रत्यक्षता की आवाज बुलन्द करने के बड़े-बड़े माइक भी लायेंगे। यह तो प्लैन बनाया है ना। लेकिन क्या बाप अकेला प्रत्यक्ष होगा वा शिव शक्ति दोनों प्रत्यक्ष होंगे! शक्ति सेना में तो दोनों (मेल फीमेल) ही आ जाते। तो बाप बच्चों सहित प्रत्यक्ष होंगे। तो माइक द्वारा आवाज बुलन्द करने का तो सोचा है लेकिन जब विश्व में आवाज बुलन्द हो जायेगा और प्रत्यक्षता का पर्दा खुल जायेगा तो पर्दे के अन्दर प्रत्यक्ष होने वाली मूर्तियाँ भी सम्पन्न चाहिए ना। वा पर्दा खुलेगा तो कोई तैयार हो रहा है, कोई बैठ रहा है, ऐसा साक्षात्कार तो नहीं कराना है ना! कोई शक्ति स्वरूप ढाल पकड़ रही हैं, तो कोई तलवार पकड़ रही है। ऐसा फोटो तो नहीं निकालना है ना! तो क्या करना पड़े? सम्पूर्ण स्वाहा! इसका भी प्रोग्राम बनाना पड़े ना। तो महायज्ञ में यह सोने की जंजीरें भी स्वाहा कर देना। लेकिन उसके पहले अभी से अभ्यास चाहिए। ऐसे नहीं कि 83 में करना। जैसे आप लोग सेवाधारी तो पहले से बन जाते हो और समर्पण समारोह पीछे होता है। यह भी सर्व स्वाहा का समारोह 83 में करना। लेकिन अभ्यास बहुत काल का चाहिए। समझा। अच्छा –
ऐसे सदा बाप समान सर्वंश त्यागी, सदा ब्रह्मा बाप समान प्राप्त हुए भाग्य के भी महादानी, ऐसे सदा बाप के वफादार, फरमानदार फालो फादर करने वाली श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।''
पार्टियों से
प्रश्न:- कर्म करते भी कर्म बन्धन से मुक्त रहने की युक्ति क्या है?
उत्तरः- कोई भी कार्य करते बाप की याद में लवलीन रहो। लवलीन आत्मा कर्म करते भी न्यारी रहेगी। कर्मयोगी अर्थात् याद में रहते हुए कर्म करने वाला सदा कर्मबन्धन मुक्त रहता है। ऐसे अनुभव होगा जैसे काम नहीं कर रहे हैं लेकिन खेल कर रहे हैं। किसी भी प्रकार का बोझ वा थकावट महसूस नहीं होगी। तो कर्मयोगी अर्थात् कर्म को खेल की रीति से न्यारे होकर करने वाला। ऐसे न्यारे बच्चे कर्मेंन्द्रियों द्वारा कार्य करते बाप के प्यार में लवलीन रहने के कारण बन्धनमुक्त बन जाते हैं।
16-04-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“संगमयुगी स्वराज्य दरबार ही सर्वश्रेष्ठ दरबार”
बापदादा बोले:-
‘‘आज बापदादा किस दरबार में आये हैं? आज की इस दरबार में बापदादा अपने विश्व के राज्य स्थापना के कार्य में राज्य सहयोगी आत्माओं को अर्थात् अपने राज्य कारोबारी, राज्य अधिकारी बच्चों को देख रहे हैं। संगमयुगी स्वराज्य दरबार देख रहे हैं। स्वराज्य दरबार में सर्व प्रकार की सहयोगी आत्मायें चारों ओर की देख रहे हैं। इस स्वराज्य दरबार के विशेष शिरोमणी रतन बापदादा के सम्मुख साकार रूप में दूर होते हुए भी माला के रूप में राज्य अधिकारी सिंहासन पर सामने दिखाई दे रहे हैं। हरेक राज्य अधिकारी सहयोगी आत्मा अपनी-अपनी विशेषताओं की चमक से चमक रही हैं। हरेक भिन्न-भिन्न गुणों के गहनों से सजे सजाये हैं। सिंहासन की राज्य निशानी कौनसी होती है? सभी दरबार में बैठे हो ना! कोई आगे हैं कोई पीछे हैं लेकिन हैं दरबार में। तो सिंहासन की राज्य निशानी ‘छत्रछाया रूपी छतरी' बड़ी अच्छी चमक रही है। हरेक डबल छत्रधारी है। एक लाइट का क्राउन अर्थात् फरिश्ते स्वरूप की निशानी साथ-साथ विश्व कल्याण के बेहद सेवा के ताजधारी। ताज तो सभी के ऊपर है लेकिन नम्बरवार हैं। कोई के दोनों ताज समान हैं। कोई का एक छोटा तो दूसरा बड़ा है और कोई के दोनों ही छोटे हैं। साथ-साथ हरेक राज्य अधिकारी के प्युरिटी की पर्सनैलिटी भी अपनी-अपनी है। रूहानियत की रॉयल्टी अपनी-अपनी नम्बरवार दिखाई दे रही है ऐसे स्वराज्य अधिकारी सहयोगी आत्माओं की दरबार देख रहे हैं। संगमयुगी श्रेष्ठ दरबार, भविष्य की राज्य दरबार दोनों में कितना अन्तर है! अब की दरबार जन्म-जन्मान्तर की दरबार का फाउन्डेशन है। अभी के दरबार की रूपरेखा भविष्य दरबार की रूपरेखा बनाने वाली है। तो अपने आपको देख सकते हो कि अभी के राज्य अधिकारी सहयोगी दरबार में हमारा स्थान कहाँ है? चेक करने का यन्त्र सभी के पास है? जब साइन्स वाले नये-नये यन्त्रों द्वारा धरनी से ऊपर के आकाशमण्डल के चित्र खींच सकते हैं, वहाँ के वायुमण्डल के समाचार दे सकते हैं, इनएडवांस प्रकृति के तत्वों की हलचल के समाचार दे सकते हैं तो आप सर्व शक्ति-सम्पन्न बाप के अथॉरिटी वाली श्रेष्ठ आत्मायें अपने दिव्य बुद्धि के यन्त्र द्वारा तीन काल की नॉलेज के आधार से अपना वर्तमान काल और भविष्य काल नहीं जान सकते? यन्त्र तो सभी के पास है ना? दिव्य बुद्धि तो सबको प्राप्त है। इस दिव्य बुद्धि रूपी यन्त्र को कैसे यूज़ करना है, किस स्थान पर अर्थात् किस स्थिति पर स्थित हो करके यूज़ करना है, यह भी जानते हो! त्रिकालदर्शी-पन की स्थिति के स्थान पर स्थित हो तीनों काल की नॉलेज के आधार पर यन्त्र को यूज़ करो! यूज़ करने आता है? पहले तो स्थान पर स्थित होने आता है अर्थात् स्थिति में स्थित होने आता है? तो इसी यन्त्र द्वारा अपने आपको देखो कि मेरा नम्बर कौन-सा है? समझा!
आज सर्वस्व त्यागी वाली बात नहीं बता रहे हैं। अभी लास्ट कोर्स रहा हुआ है। आज बापदादा अपने राज्य दरबार वासी साथियों को देख रहे थे। सभी यहाँ पहुँच गये हैं। आज की सभा में विशेष स्नेही आत्मायें ज्यादा हैं तो स्नेही आत्माओं को बापदादा भी स्नेह के रिटर्न में स्नेह देने के लिए स्नेह ही दरबार में पहुँच गये हैं। मिलन मेला मनाने के उमंग उत्साह वाली आत्मायें हैं। बापदादा भी मिलन मनाने के लिए बच्चों के उत्साह भरे उत्सव में पहुँच गये हैं। यह भी स्नेह के सागर और नदियों का मेला है। तो मेला मनाना अर्थात् उत्सव मनाना। आज बापदादा भी मेले के उत्सव में आये हैं। बापदादा मेला मनाने वाले, स्नेह पाने के भाग्यशाली आत्माओं को देख हर्षित हो रहे हैं कि सारे इतने विशाल विश्व में अथाह संख्या के बीच कैसी-कैसी आत्माओं ने मिलन का भाग्य ले लिया! विश्व के आगे ना उम्मीदवार आत्माओं ने अपनी सर्व उम्मीदें पूर्ण करने का भाग्य ले लिया। और जो विश्व के आगे नामीग्रामी उम्मीदवार आत्मायें हैं वह सोचती और खोजती रह गई। खोजना करते-करते खोज में ही खो गये। और आप स्नेही आत्माओं ने स्नेह के आधार पर पा लिया। तो श्रेष्ठ कौन हुआ? कोई शास्त्रार्थ करते शास्त्र में ही रह गये। कोई महात्मायें बन आत्मा और परमात्मा की छोटी सी भ्रान्ति में अपने भाग्य से रह गये। बच्चे बन बाप के अधिकार से वंचित रह गये। बड़े-बड़े वैज्ञानिक खोजना करते उसी में खो गये। राजनीतिज्ञ योजनायें बनाते-बनाते रह गये। भोले भक्त कण-कण में ढूँढते ही रह गये। लेकिन पाया किन्हों ने? भोलेनाथ के भोले बच्चों ने। बड़े दिमाग वालों ने नहीं पाया लेकिन सच्ची दिल वालों ने पाया। इसलिए कहावत है - सच्ची दिल पर साहब राजी। तो सभी सच्ची दिल से दिलतख्तनशीन बन सकते। सच्ची दिल से दिलाराम बाप को अपना बना सकते। दिलाराम बाप सच्ची दिल के सिवाए सेकण्ड भी याद के रूप में ठहर नहीं सकते। सच्ची दिल वाले की सर्वश्रेष्ठ संकल्प रूपी आशायें सहज सम्पन्न होती हैं। सच्ची दिल वाले सदा बाप के साथ का साकार, आकार, निराकार तीनों रूपों में सदा साथ का अनुभव करते हैं। अच्छा –
ऐसे सदा स्नेह के सागर से मिलन मनाने वाली बहती गंगायें, सदा स्नेह के आधार से बापदादा को सर्व सम्बन्ध में अपना अनुभव करने वाले, भोलेनाथ बाप से सदा का सौदा करने वाले, ऐसे स्नेही सच्ची दिल वाली श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।''
टीचर्स के साथः- सेवाधारियों को सदा बुद्धि में क्या याद रहता है? सिर्फ सेवा या याद और सेवा? जब याद और सेवा दोनों का बैलेन्स होगा तो वृद्धि स्वत: होती रहेगी। वृद्धि का सहज उपाय ही है - ‘‘बैलेन्स''। वर्तमान समय के हिसाब से सर्व आत्माओं को सबसे ज्यादा शान्ति की चाहना है, तो जहाँ भी देखो सर्विस वृद्धि को नहीं पाती, वैसे की वैसे रह जाती - वहाँ अपने सेवाकेन्द्र के वातावरण को ऐसा बनाओ जैसे ‘शान्ति-कुण्ड' हो। एक कमरा विशेष इस वायुमण्डल और रूपरेखा का बनाओ जैसे बाबा का कमरा बनाते हो ऐसे ढंग से बनाओ जो घमसान के बीच में शान्ति का कोना दिखाई दे। ऐसा वायुमण्डल बनाने से, शान्ति की अनुभूति कराने से वृद्धि सहज हो जायेगी। म्यूजियम ठीक है लेकिन यह सुनने और देखने का साधन है। सुनने और जानने वालों के लिए म्यूजियम ठीक है लेकिन जो सुन-सुन करके थक गये हैं उन्हों के लिए शान्ति का स्थान बनाओ। मैजारटी अभी यही कहते हैं कि आपका सब कुछ सुन लिया, सब देख लिया। लेकिन ‘‘पा लिया है'' - ऐसा कोई नहीं कहता। अनुभव किया, पाया यह अभी नहीं कहते हैं। तो अनुभव कराने का साधन है - याद में बिठाओ, शान्ति का अनुभव कराओ। दो मिनट भी शान्ति का अनुभव कर लें तो छोड़ नहीं सकते। तो दोनों ही साधन बनाने चाहिए। सिर्फ म्यूजियम नहीं लेकिन ‘शान्ति-कुण्ड' का स्थान भी। जैसे आबू में म्यूजियम भी अच्छा है लेकिन शान्ति का स्थान भी आकर्षण वाला है। अगर चित्रों द्वारा नहीं भी समझते तो ‘दो घड़ी' याद में बिठाने से इम्प्रेशन बदल जाता है। इच्छा बदल जाती है। समझते हैं कि कुछ मिल सकता है। प्राप्ति हो सकती है। जहाँ पाने की इच्छा उत्पन्न होती वहाँ आने के लिए भी कदम उठना सहज हो जाता। तो ऐसे वृद्धि के साधन अपनाओ।
बाकी सेवाधारी जब स्व से और सर्व से सन्तुष्ट होते हैं तो सेवा का, सहयोग का उमंग उत्साह स्वत: होता है। कहना कराना नहीं पड़ता, सन्तुष्टता सहज ही उमंग उल्लास में लाती है। सेवाधारी का विशेष यही लक्ष्य हो कि सन्तुष्ट रहना है और करना है।
2. सदा सागर के कण्ठे में रहने वाले होलीहंस हो। सदा सागर के कण्ठे पर रहते हैं और सदा सागर की लहरों से खेलते रहते हैं। अपने को ऐसे होलीहंस अनुभव करते हो? सदा ज्ञान रतन चुगने वाले अर्थात् धारण करने वाले, सदा बुद्धि में ज्ञान रतन भरपूर। बाकी जो भी व्यर्थ बात, व्यर्थ दृश्य... यह सब कंकड़ हो गये। हंस कभी कंकड़ नहीं लेते - सदा रत्नों को धारण करते। तो कभी भी किसी भी व्यर्थ बात का प्रभाव न हो। अगर प्रभाव में भी आ गये तो वही मनन और वही वर्णन होगा। वर्णन, मनन से वायुमण्डल भी ऐसा बन जाता है। बात कुछ नहीं होती लेकिन वायुमण्डल ऐसा बन जाता है जैसे बड़े से बड़ा पहाड़ गिर गया हो। अगर अपने मन में मनन चलता या मुख से वर्णन होता तो छोटी सी बात भी पहाड़ बन जाती, क्योंकि वायुमण्डल में फैल जाती है। और अगर उस बात को समा दो, साक्षी होकर पार कर लो तो वह बात राई हो जायेगी। तो सदा होलीहंस और सदा सागर के कण्ठे पर रहने वाले। सदा स्वरूप की स्मृति में रहो।
सेवाधारियों को सदा सफलता स्वरूप रहने के लिए बाप समान बनना है। एक ही शब्द याद रहे - फालो फादर। जो भी कर्म करते हो - चेक करो कि यह बाप का कार्य है? अगर बाप का है तो मेरा भी है, बाप का नहीं तो मेरा भी नहीं। यह चेकिंग की कसौटी सदा साथ रहे। तो फालो फादर करने वाले अर्थात् -जो बाप का संकल्प वही मेरा संकल्प, जो बाप का बोल वही मेरा। इससे क्या होगा? जैसे बाप सदा सफलता स्वरूप है वैसे स्वयं भी सदा सफलता स्वरूप हो जायेंगे। तो बाप के कदम पर कदम रखते चलो। कोई चलता रहे उसके पीछेपीछे जाओ तो सहज ही पहुँच जायेंगे ना। तो फालो फादर करने वाले मेहनत से छूट जायेंगे और सदा सहज प्राप्ति की अनुभूति होती रहेगी।
कुमारियों के साथ:- कुमारियों का लक्ष्य क्या है? सेवा करने के लिए पहले स्वयं में सर्व प्राप्ति का अनुभव कर रही हो? क्योंकि जितना खजाना अपने पास होगा उतना औरो को दे सकेंगी। तो रोज इस अलौकिक पढ़ाई पर अटेन्शन देती हो? पढ़ने के साथ-साथ सेवा का भी चांस लेती हो? सदा अपने को गॉडली स्टूडेन्ट समझते हुए स्टडी के तरफ अटेन्शन। जितना स्वयं स्टडी के तरफ अटेन्शन रखेंगी उतना औरों को भी अनुभवी बन स्टडी करा सकेंगी। इस समय के हिसाब से गृहस्थी जीवन क्या है, उसको भी देख रही हो ना! गृहस्थी जीवन माना इस बेहद की जेल में फँसना। अभी फ्री हो ना! कितने बन्धनों से मुक्त हो! तो सदा ही ऐसे बन्धनमुक्त, जीवनमुक्त स्थिति में स्थित रहना। कभी भी यह संकल्प न आये कि गृहस्थी जीवन का भी अनुभव करके देखें। बहुत भाग्यवान हो जो कुमारी जीवन में बाप की बनी हो। तो राइट हैन्ड बनना, लेफ्ट हैन्ड नहीं।
2. सभी कुमारियों ने बाप से पक्का सौदा किया है? क्या सौदा किया है? आपने कहा - बाबा हम आपके और बाप ने कहा बच्चे हमारे, यह पक्का सौदा किया? और सौदा तो नहीं करेंगी ना! दो नांव में पांव रखने वाले का क्या हाल होगा! न यहाँ के न वहाँ के? तो सौदा करने में होशियार हो ना! देखो, देते क्या हो - पुराना शरीर जिसको सुईयों से सिलाई करते रहते, कमजोर मन जिसमें कोई शक्ति नहीं और काला धन... और लेते क्या हो? - 21 जन्म की गैरन्टी का राज्य। ऐसा सौदा तो सारे कल्प में कभी भी नहीं किया? तो पक्का सौदा किया? एग्रीमेंट लिख ली। बापदादा को कुमारियाँ बहुत प्रिय लगती हैं - क्योंकि कुमारी सरेन्डर हुई और टीचर बन गई। कुमार सरेन्डर हुए तो टीचर नहीं कहलायेंगे, सेवाधारी कहलायेंगे। कुमारी को टीचर की सीट मिल जाती है। आज कुमारी कल उसको सब बाप समान निमित्त शिक्षक की नज़र से देखते हैं। तो श्रेष्ठ हो गई ना! कुमारी जीवन में श्रेष्ठ बन जाए तो उल्टी सीढ़ी चढने से बच जाए। आप लोग न चढ़े न उतरने की मेहनत। प्रवृत्ति वालों को मेहनत करनी पड़ती है। तो सदा विश्व कल्याणकारी कुमारी। बापदादा सभी को सफलता स्वरूप समझते हैं - एक दो से आगे जाओ, रेस करना, रीस नहीं करना। हरेक की विशेषता को देखकर विशेष आत्मा बनना। अच्छा –
3. कुमारी वा सेवाधारी के बजाय अपने को शक्ति स्वरूप समझो:- सदा अपना शिव-शक्ति स्वरूप स्मृति में रहता है? शक्ति स्वरूप समझने से सेवा में भी सदा शक्तिशाली आत्माओं की वृद्धि होती रहेगी। जैसी धरनी होती है वैसा फल निकलता है। तो जितनी अपनी स्वयं की शक्तिशाली स्टेज बनाते, वायुमण्डल को शक्ति स्वरूप बनाते उतना आत्मायें भी ऐसी आती हैं। नहीं तो कमजोर आत्मायें आयेंगी और उनके पीछे बहुत मेहनत करनी पड़ेगी। तो सदा अपना ‘शिव-शक्ति स्वरूप' ‘स्मृति भव'। कुमारी नहीं, सेवाधारी नहीं - ‘शिव शक्ति'। सेवाधारी तो बहुत हैं, यह टाइटल तो आजकल बहुतों को मिल जाता है लेकिन आपकी विशेषता है - ‘शिव शक्ति कम्बाइन्ड'। इसी विशेषता को याद रखो। सेवा की वृद्धि में सहज और श्रेष्ठ अनुभव होता रहेगा। सेवा करने के लिफ्ट की गिफ्ट जो मिली है उसका रिटर्न देना है। रिटर्न क्या है? शक्तिशाली - सफलता मूर्त्त।
अच्छा - ओम् शान्ति।
18-04-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“ऊँच से ऊँच ब्राह्मण कुल की लाज रखो”
ब्राह्मण कुल दीपकों प्रति बापदादा बोले:-
‘‘आज बापदादा सर्व स्नेही और मिलन की भावना वाली श्रेष्ठ आत्माओं को देख रहे हैं। बच्चों की मिलन भावना का प्रत्यक्षफल बापदादा को भी इस समय देना ही है। भक्ति की भावना का फल डायरेक्ट सम्मुख मिलन का नहीं मिलता। लेकिन एक बार परिचय अर्थात् ज्ञान के आधार पर बाप और बच्चे का सम्बन्ध जुटा, तो ऐसे ज्ञान स्वरूप बच्चों को अधिकार के आधार पर शुभ भावना, ज्ञान स्वरूप भावना, सम्बन्ध के आधार पर मिलन भावना का फल सम्मुख बाप को देना ही पड़ता है। तो आज ऐसे ज्ञानवान मिलन की भावना स्वरूप आत्माओं से मिलने के लिए बापदादा बच्चों के बीच आये हुए हैं। कई ब्राह्मण आत्मायें शक्ति स्वरूप बन, महावीर बन सदा विजयी आत्मा बनने में वा इतनी हिम्मत रखने में स्वयं को कमजोर भी समझती हैं लेकिन एक विशेषता के कारण विशेष आत्माओं की लिस्ट में आ गई हैं। कौन-सी विशेषता? सिर्फ बाप अच्छा लगता है, श्रेष्ठ जीवन अच्छा लगता है। ब्राह्मण परिवार का संगठन, नि:स्वार्था स्नेह - मन को आकर्षित करता है। बस यही विशेषता है कि बाबा मिला, परिवार मिला, पवित्र ठिकाना मिला, जीवन को श्रेष्ठ बनाने का सहज सहारा मिल गया। इसी आधार पर मिलन की भावना में स्नेह के सहारे में चलते जा रहे हैं। लेकिन फिर भी सम्बन्ध जोड़ने के कारण सम्बन्ध के आधार पर स्वर्ग का अधिकार वर्से में पा ही लेते हैं - क्योंकि ब्राह्मण सो देवता, इसी विधि के प्रमाण देवपद की प्राप्ति का अधिकार पा ही लेते हैं। सतयुग को कहा ही जाता है - देवताओं का युग। चाहे राजा हो, चाहे प्रजा हो लेकिन धर्म देवता ही है - क्योंकि जब ऊँचे ते ऊँचे बाप ने बच्चा बनाया तो उँचे बाप के हर बच्चे को स्वर्ग के वर्से का अधिकार, देवता बनने का अधिकार, जन्म सिद्ध अधिकार में प्राप्त हो ही जाता है। ब्रह्माकुमार और ब्रह्माकुमारी बनना अर्थात् स्वर्ग के वर्से के अधिकार की अविनाशी स्टैम्प लग जाना। सारे विश्व से ऐसा अधिकार पाने वाली सर्व आत्माओं में से कोई आत्मायें ही निकलती हैं। इसलिए ब्रह्माकुमार-कुमारी बनना कोई साधारण बात नहीं समझना। ब्रह्माकुमार-कुमारी बनना ही विशेषता है और इसी विशेषता के कारण विशेष आत्माओं की लिस्ट में आ जाते हैं। इसलिए ब्रह्माकुमार-कुमारी बनना अर्थात् ब्राह्मण लोक के, ब्राह्मण संसार के, ब्राह्मण परिवार के बनना। ब्रह्माकुमार-कुमारी बन अगर कोई भी साधारण चलन वा पुरानी चाल चलते हैं तो सिर्फ अकेला अपने को नुकसान नहीं पहुँचाते - क्योंकि अकेले ब्रह्माकुमार-कुमारी नहीं हो लेकिन ब्राह्मण कुल के भाती हो। स्वयं का नुकसान तो करते ही हैं लेकिन कुल को बदनाम करने का बोझ भी उस आत्मा के ऊपर चढ़ता है। ब्राह्मण लोक की लाज रखना यह भी हर ब्राह्मण का फर्ज है। जैसे लौकिक लोकलाज का कितना ध्यान रखते हैं। लौकिक लोकलाज पद्मापद्मपति बनने से भी कहाँ वंचित कर देती है। स्वयं ही अनुभव भी करते हो और कहते भी हो कि चाहते तो बहुत हैं लेकिन लोकलाज को निभाना पड़ता है। ऐसे कहते हो ना? जो लोकलाज अनेक जन्मों की प्राप्ति से वंचित करने वाली है, वर्तमान हीरे जैसा जन्म कौड़ी समान व्यर्थ बनाने वाली है, यह अच्छी तरह से जानते भी हो फिर भी उस लोकलाज को निभाने में अच्छी तरह ध्यान देते हो, समय देते हो, एनर्जी लगाते हो। तो क्या इस ब्राह्मण लोकलाज की कोई विशेषता नहीं है! उस लोक की लाज के पीछे अपना धर्म अर्थात् धारणायें और श्रेष्ठ कर्म याद का, दोनों ही धर्म और कर्म छोड़ देते हो। कभी वृत्ति के परहेज की धारणा अर्थात् धर्म को छोड़ देते हों, कभी शुद्ध दृष्टि के धर्म को छोड़ देते हो। कभी शुद्ध अन्न के धर्म को छोड़ देते हो। फिर अपने आपको श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए बातें बहुत बनाते हो। क्या कहते - कि करना ही पड़ता है! थोड़ी सी कमज़ोरी सदा के लिए धर्म और कर्म को छुड़ा देती है। जो धर्म और कर्म को छोड़ देता है उसको लौकिक कुल में भी क्या समझा जाता है? जानते हो ना? यह किसी साधारण कुल का धर्म और कर्म नहीं है। ब्राह्मण कुल ऊँचे ते ऊँची चोटी वाला कुल है। तो किस लोक वा किस कुल की लाज रखनी है? और कई अच्छी-अच्छी बातें सुनाते हैं - मेरी इच्छा नहीं थी लेकिन किसी को खुश करने के लिए किया! क्या अज्ञानी आत्मायें कभी सदा खुश रह सकती हैं? ऐसे अभी खुश, अभी नाराज़रहने वाली आत्माओं के कारण अपना श्रेष्ठ कर्म और धर्म छोड़ देतेङ जो धर्म के नहीं वह ब्राह्मण दुनिया के नहीं। अल्पज्ञ आत्माओं को खुश कर लिया लेकिन सर्वज्ञ बाप की आज्ञा का उल्लंघन किया ना! तो पाया क्या और गंवाया क्या! जो लोक अब खत्म हुआ ही पड़ा है। चारों ओर आग की लकड़ियाँ बहुत जोर शोर से इकट्ठी हो गई हैं। लकड़ियाँ अर्थात् तैयारियाँ। जितना सोचते हैं इन लकड़ियों को अलग-अलग कर आग की तैयारी को समाप्त कर दें उतना ही लकड़ियों का ढेर ऊँचा होता जाता है। जैसे होलिका को जलाते हैं तो बड़ों के साथ छोटे-छोटे बच्चे भी लकड़ियाँ इकट्ठी कर ले आते हैं। नहीं तो घर से ही लकड़ी ले आते। शौक होता है। तो आजकल भी देखो छोटे-छोटे शहर भी बड़े शौक से सहयोगी बन रहे हैं। तो ऐसे लोक की लाज के लिए अपने अविनाशी ब्राह्मण सो देवता लोक की लाज भूल जाते हो! कमाल करते हो! यह निभाना है या गंवाना है! इसलिए ब्राह्मण लोक की भी लाज स्मृति में रखो। अकेले नहीं हो, बड़े कुल के हो तो श्रेष्ठ कुल की भी लाज रखो।
कई बच्चे बड़े होशियार हैं। अपने पुराने लोक की लाज भी रखने चाहते और ब्राह्मण लोक में भी श्रेष्ठ बनना चाहते हैं। बापदादा कहते लौकिक कुल की लोकलाज भल निभाओ उसकी मना नहीं है लेकिन धर्म कर्म को छोड़ करके लोकलाज रखना, यह रांग है। और फिर होशियारी क्या करते हैं? समझते हैं किसको क्या पता? - बाप तो कहते ही हैं - कि मैं जानी जाननहार नहीं हूँ। निमित्त आत्माओं को भी क्या पता? ऐसे तो चलता है। और चल करके मधुबन में पहुँच भी जाते हैं। सेवाकेन्द्रों पर भी अपने आपको छिपाकर सेवा में नामीग्रामी भी बन जाते हैं। जरा सा सहयोग देकर सहयोग के आधार पर बहुत अच्छे सेवाधारी का टाइटल भी खरीद कर लेते हैं। लेकिन जन्म-जन्म का श्रेष्ठ टाइटल सर्वगुण सम्पन्न, 16 कला सम्पन्न, सम्पूर्ण निर्विकारी... यह अविनाशी टाइटल गंवा देते हैं। तो यह सहयोग दिया नहीं लेकिन ‘‘अन्दर एक, बाहर दूसरा'' इस धोखे द्वारा बोझ उठाया। सहयोगी आत्मा के बजाए बोझ उठाने वाले बन गये। कितना भी होशियारी से स्वयं को चलाओ लेकिन यह होशियारी का चलाना, चलाना नहीं लेकिन चिल्लाना है। ऐसे नहीं समझना यह सेवाकेन्द्र कोई निमित्त आत्माओं के स्थान हैं। आत्माओं को तो चला लेते लेकिन परमात्मा के आगे एक का लाख गुणा हिसाब हर आत्मा के कर्म के खाते में जमा हो ही जाता है। उस खाते को चला नहीं सकते। इसलिए बापदादा को ऐसे होशियार बच्चों पर भी तरस पड़ता है। फिर भी एक बार बाप कहा तो बाप भी बच्चों के कल्याण के लिए सदा शिक्षा देते ही रहेंगे। तो ऐसे होशियार मत बनना। सदा ब्राह्मण लोक की लाज रखना।
बापदादा तो कर्म और फल दोनों से न्यारे हैं। इस समय ब्रह्मा ब्राप भी इसी स्थिति पर हैं। फिर तो हिसाब किताब में आना ही है लेकिन इस समय बाप समान हैं। इसलिए जो जैसा करेंगे अपने लिए ही करते हो। बाप तो दाता है। जब स्वयं ही करता और स्वयं ही फल पाता है तो क्या करना चाहिए? बापदादा वतन में बच्चों के वैरायटी खेल देख करके मुस्कराते हैं। अच्छा –
ऐसे ब्राह्मण कुल के दीपक, सदा सच्ची लगन से स्नेही और सहयोगी बनने वाले, सदाकाल का श्रेष्ठ फल पाने वाले, सदा सच्चे बाप के सच्चे स्नेह में अल्पकाल की प्राप्तियों को कुर्बान करने वाले ऐसे स्नेही आत्माओं को, श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।''
पार्टियों के साथ
1. कर्म बन्धन से मुक्त स्थिति का अनुभव करने के लिए कर्मयोगी बनो:- सदा हर कर्म करते, कर्म के बन्धनों से न्यारे और बाप के प्यारे - ऐसी न्यारी और प्यारी आत्मायें अपने को अनुभव करते हो? कर्मयोगी बन, कर्म करने वाले कभी भी कर्म के बन्धन में नहीं आते हैं, वे सदा बन्धनमुक्त-योगयुक्त होते। कर्मयोगी कभी अच्छे वा बुरे कर्म करने वाले व्यक्ति के प्रभाव में नहीं आते। ऐसा नहीं कि कोई अच्छा कर्म करने वाला कनेक्शन में आये तो उसकी खुशी में आ जाओ और कोई अच्छा कर्म न करने वाला सम्बन्ध में आये तो गुस्से में आ जाओ - या उसके प्रति ईर्ष्या वा घृणा पैदा हो। यह भी कर्मबन्धन है। कर्मयोगी के आगे कोई कैसा भी आ जाए - स्वयं सदा न्यारा और प्यारा रहेगा। नॉलेज द्वारा जानेगा, इसका यह पार्ट चल रहा है। घृणा वाले से स्वयं भी घृणा कर ले यह हुआ कर्म का बन्धन। ऐसा कर्म के बन्धन में आने वाला एकरस नहीं रह सकता। कभी किसी रस में होगा कभी किसी रस में। इसलिए अच्छे को अच्छा समझकर साक्षी होकर देखो और बुरे को रहमदिल बन रहम की निगाह से परिवर्तन करने की शुभ भावना से साक्षी हो देखो। इसको कहा जाता है - ‘कर्मबन्धन से न्यारे'। क्योंकि ज्ञान का अर्थ है समझ। तो समझ किस बात की? कर्म के बन्धनों से मुक्त होने की समझ को ही ज्ञान कहा जाता है। ज्ञानी कभी भी बन्धनों के वश नहीं होंगे। सदा न्यारे। ऐसे नहीं कभी न्यारे बन जाओ तो कभी थोड़ा सा सेक आ जाए। सदा विककर्माजीत बनने का लक्ष्य रखो। कर्मबन्धन जीत बनना है। यह बहुतकाल का अभ्यास बहुतकाल की प्रालब्ध के निमित्त बनायेगा। और अभी भी बहुत विचित्र अनुभव करेंगे। तो सदा के न्यारे और सदा के प्यारे बनो। यही बाप समान कर्मबन्धन से मुक्त स्थिति है।
बापदादा पुरानी बड़ी बहनों को देख बोले:- इस ग्रुप को कौन-सा ग्रुप कहेंगे? पहले शुरू में तो अपने-अपने नाम रहे - अभी कौन-सा नाम देंगे? सदा बाप के संग रहने वाले, सदा बाप के राइट हैण्ड। ऐसा ग्रुप हो ना! बापदादा भी भुजाओं के बिना इतनी बड़ी स्थापना का कार्य कैसे कर सकते! तो इसीलिए स्थापना के कार्य की विशेष भूजायें हो। विशेष भुजा राइट हैण्ड की होती है। बापदादा सदैव आदि रत्नों को रीयल गोल्ड कहते हैं। सभी आदि रत्न विश्व की स्टेज पर विशेष पार्ट बजा रहे हो। बापदादा भी हर विशेष आत्मा का - विशेष पार्ट देख हर्षित होते हैं। पार्ट तो सबका वैरायटी होगा ना! एक जैसा तो नहीं हो सकता लेकिन इतना जरूर है कि आदि रत्नों का विशेष ड्रामा अनुसार विशेष पार्ट है। हरेक रत्न में विशेष - विशेषता है जिसके आधार पर ही आगे बढ़ भी रहे हैं और सदा बढ़ते रहेंगे। वह कौन-सी विशेषता है - यह तो स्वयं भी जानते हो और दूसरे भी जानते हैं। लेकिन विशेषता सम्पन्न विशेष आत्मायें हो।
बापदादा ऐसे आदि रत्नों को लाख-लाख बधाईयाँ देते हैं क्योंकि आदि से सहन कर स्थापना के कार्य को साकार स्वरूप में वृद्धि को प्राप्त कराने के निमित्त बने हो। तो जो स्थापना के कार्य में सहन किया वह औरों ने नहीं किया है। आपके सहनशक्ति के बीज ने यह फल पैदा किये हैं। तो बापदादा आदि-मध्य- अन्त को देखते हैं - कि हरेक ने क्या-क्या सहन किया है और कैसे शक्ति रूप दिखाया है। और सहन भी खेल-खेल में किया। सहन के रूप में सहन नहीं किया, खेल-खेल में सहन का पार्ट बजाने के निमित्त बन अपना विशेष हीरो पार्ट नूँध लिया। इसलिए आदि रत्नों का यह निमित्त बनने का पार्ट बापदादा के सामने रहता है। और इसके फलस्वरूप आप सर्व आत्मायें सदा अमर हो। समझा अपना पार्ट? कितना भी कोई आगे चला जाये - लेकिन फिर भी... फिर भी कहेंगे। बापदादा को पुरानी वस्तु की वैल्यु का पता है। समझा। अच्छा –
प्रश्न:- संगमयुगी ब्राह्मण बच्चों को किस कर्त्तव्य में सदा तत्पर रहना चाहिए?
उत्तर:- समर्थ बनना है और दूसरों को भी समर्थ बनाना है, इसी कर्त्तव्य में सदा तत्पर रहो। क्योंकि व्यर्थ तो आधा कल्प किया, अब समय ही है समर्थ बनने और बनाने का। इसलिए व्यर्थ संकल्प, व्यर्थ बोल, व्यर्थ कर्म सब समाप्त, फुल स्टाप। पुराना चोपड़ा खत्म। जमा करने का साधन ही है - सदा समर्थ रहना। क्योंकि व्यर्थ से समय, शक्तियाँ और ज्ञान का नुकसान हो जाता है।
26-04-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“बापदादा के दिलतख्तनशीन बनने का सर्व को समान अधिकार”
बापदादा बोले:-
‘‘आज ज्ञान गंगाओं और ज्ञान सागर का मिलन मेला है। जिस मेले में सभी बच्चे बाप से रूहानी मिलन का अनुभव करते। बाप भी रूहानी बच्चों को देख हर्षित होते हैं और बच्चे भी रूहानी बाप से मिल हर्षित होते हैं। क्योंकि कल्पकल्प की पहचानी हुई रूहानी रूह जब अपने बुद्धियोग द्वारा जानती हैं कि हम भी वो ही कल्प पहले वाली आत्माएं हैं और उसी बाप को फिर से पा लिया है तो उसी आनन्द, सुख के, प्रेम के, खुशी के झूले में झूलने का अनुभव करती हैं। ऐसा अनुभव कल्प पहले वाले बच्चे फिर से कर रहे हैं। वो ही पुरानी पहचान फिर से स्मृति में आ गई। ऐसे स्मृति स्वरूप स्नेही आत्मायें इस स्नेह के सागर में समाई हुई लवलीन आत्मायें ही इस विशेष अनुभव को जान सकती हैं। स्नेही आत्मायें तो सभी बच्चे हो, स्नेह के शुद्ध सम्बन्ध से यहाँ तक पहुँचे हो। फिर भी स्नेह में भी नम्बरवार हैं, कोई स्नेह में समाई हुई आत्मायें हैं और कोई मिलन मनाने के अनुभव को यथाशक्ति अनुभव करने वाले हैं। और कोई इस रूहानी मिलन मेले के आनन्द को समझने वाले, समझने के प्रयत्न में लगे हुए हैं। फिर भी सभी को कहेंगे - ‘स्नेही आत्मायें'। स्नेह के सम्बन्ध के आधार पर आगे बढ़ते हुए समाये हुए स्वरूप तक भी पहुँच जायेंगे। समझना - समाप्त हो समाने का अनुभव हो ही जायेगा - क्योंकि समाने वाली आत्माएँ समान आत्माएँ हैं। तो समान बनना अर्थात् स्नेह में समा जाना। तो अपने आप को स्वयं ही जान सकते हो कि कहाँ तक बाप समान बने हैं? बाप का संकल्प क्या है? उसी संकल्प समान मुझ लवलीन आत्मा का संकल्प है? ऐसे वाणी, कर्म, सेवा, सम्बन्ध सब में बाप समान बने हैं? वा अभी तक महान अन्तर है वा थोड़ा सा अन्तर है? अन्तर समाप्त होना ही - ‘मन्मनाभव का महामंत्र है'। इस महामंत्र को हर संकल्प और सेकण्ड में स्वरूप में लाना इसी को ही समान और समाई हुई आत्मा कहा जाता है। बेहद का बाप, बेहद का संकल्प रखने वाला है कि सर्व बच्चे बाप समान बनें। ऐसे नहीं कि मैं गुरू बनूँ और यह शिष्य बनें। नहीं, बाप समान बन बाप के दिलतख्तनशीन बनें। यहाँ कोई गद्दीनशीन नहीं बनना है। वह तो एक दो बनेंगे लेकिन बेहद का बाप बेहद के दिलतख्तनशीन बनाते हैं। जो सर्व बच्चे अधिकारी बन सकते हैं। सभी को एक ही जैसा गोल्डन चांस है। चाहे आदि में आने वाले हैं, चाहे मध्य में वा अभी आने वाले हैं। सभी को पूरा अधिकार है - समान बनने का अर्थात् दिलतख्तनशीन बनने का। ऐसे नहीं कि पीछे वाले आगे नहीं जा सकते हैं। कोई भी आगे जा सकता है - क्योंकि यह बेहद की प्रॉपर्टी है। इसलिए ऐसा नहीं कि पहले वालों ने ले लिया तो समाप्त हो गई। इतनी अखुट प्रॉपर्टी है जो अब के बाद और भी लेने चाहें तो ले सकते हैं। लेकिन अधिकार लेने वाले के ऊपर है। क्योंकि अधिकार लेने के साथ-साथ अधीनता के संस्कार को छोड़ना पड़ता है। कुछ भी नहीं सिर्फ अधीनता है लेकिन जब छोड़ने की बात आती हो तो अपनी कमज़ोरी के कारण इस बात में रह जाते हैं और कहते हैं कि छूटता नहीं। दोष संस्कारों को देते कि संस्कार नहीं छूटता। लेकिन स्वयं नहीं छोड़ते हैं। क्योंकि चैतन्य शक्तिशाली स्वयं आत्मा है वा संस्कार है? संस्कार ने आत्मा को धारण किया वा आत्मा ने संस्कार को धारण किया? आत्मा की चैतन्य शक्ति संस्कार हैं वा संस्कार की शक्ति आत्मा है? जब धारण करने वाली आत्मा है तो छोड़ना भी आत्मा को है, न कि संस्कार स्वयं छूटेंगे। फिर भिन्न-भिन्न नाम देते - संस्कार हैं, स्वभाव है, आदत है वा नेचर है। लेकिन कहने वाली शक्ति कौन सी है? आदत बोलती है वा आत्मा बोलती है? तो मालिक है या गुलाम हैं? तो अधिकार को अर्थात् मालिकपन को धारण करना इसमें बेहद का चांस होते हुए भी यथा शक्ति लेने वाले बन जाते हैं। कारण क्या हुआ? कहते - मेरी आदत, मेरे संस्कार, मेरी नेचर। लेकिन मेरा कहते हुए भी मालिकपन नहीं है। अगर मेरा है तो स्वयं मालिक हुआ ना! ऐसा मालिक जो चाहे वह कर न सके, परिवर्तन कर न सके, अधिकार रख न सके, उसको क्या कहेंगे? क्या ऐसी कमजोर आत्मा को अधिकारी आत्मा कहेंगे? तो खुला चांस होते भी बाप नम्बरवार नहीं देते लेकिन स्वयं को नम्बरवार बना देते हैं। बाप का दिलतख्त इतना बेहद का बड़ा है जो सारे विश्व की आत्माएं भी समा सकती हैं इतना विराट स्वरूप है लेकिन बैठने की हिम्मत रखने वाले कितने बनते हैं! क्योंकि दिलतख्तनशीन बनने के लिए दिल का सौदा करना पड़ता है। इसलिए बाप का नाम ‘दिलवाला' पड़ा है। तो दिल लेता भी है, दिल देता भी है। जब सौदा होने लगता है तो चतुराई बहुत करते हैं। पूरा सौदा नहीं करते, थोड़ा रख लेते हैं फिर क्या कहते? धीरे-धीरे करके देते जायेंगे। किश्तों में सौदा करना पसन्द करते हैं। एक धक से सौदा करने वाले, एक के होने कारण सदा एकरस रहते हैं। और सबमें नम्बर एक बन जाते हैं। बाकी जो थोड़ा-थोड़ा करके सौदा करते हैं - एक के बजाए दो नाव में पाँव रखने वाले, सदा कोई न कोई उलझन की हलचल में, एकरस नहीं बन सकते हैं। इसलिए सौदा करना है तो सेकण्ड में करो। दिल के टुकड़े-टुकड़े नहीं करो। आज अपने से दिल हटाकर बाप से लगाई, एक टुकड़ा दिया अर्थात् एक किश्त दी। फिर कल सम्बन्धियों से दिल हटाकर बाप को दी, दूसरी किश्त दी, दूसरा टुकड़ा दिया, इससे क्या होगा? बाप की प्रॉपर्टी के अधिकार के भी टुकड़े के हकदार बनेंगे। प्राप्ति के अनुभव में सर्व अनुभूतियों के अनुभव को पा नहीं सकेंगे। थोड़ा-थोड़ा अनुभव किया इससे सदा सम्पन्न, सदा सन्तुष्ट नहीं होंगे। इसलिए कई बच्चे अब तक भी ऐसे ही वर्णन करते हैं कि जितना, जैसा होना चाहिए वह इतना नहीं है। कोई कहते पूरा अनुभव नहीं होता, थोड़ा होता है। और कोई कहते - होता है लेकिन सदा नहीं होता। क्योंकि पूरा फुल सौदा नहीं किया तो अनुभव भी फुल नहीं होता है। एक साथ सौदे का संकल्प नहीं किया। कभीकभी करके करते हैं तो अनुभव भी कभी-कभी होता है। सदा नहीं होता। वैसे तो सौदा है कितना श्रेष्ठ प्राप्ति वाला। भटकी हुई दिल देना और दिलाराम बाप के दिलतख्त पर आराम से अधिकार पाना। फिर भी सौदा करने की हिम्मत नहीं। जानते भी हैं, कहते भी हैं लेकिन फिर भी हिम्मतहीन भाग्य पा नहीं सकते। है तो सस्ता सौदा ना, या मुश्किल लगता है? कहने में सब कहते कि सस्ता है। जब करने लगते हैं तो मुश्किल बना देते हैं। वास्तव में तो देना, देना नहीं है। लोहा दे करके हीरा लेना, तो यह देना हुआ वा लेना हुआ? तो लेने की भी हिम्मत नहीं है क्या? इसलिए कहा कि बेहद का बाप देता सबको एक जैसा है लेकिन लेने वाले खुला चांस होते भी नम्बरवार बन जाते हैं। चांस लेने चाहो तो ले लो फिर यह उल्हना भी कोई नहीं सुनेगा कि मैं कर सकता था लेकिन यह कारण हुआ। पहले आता तो आगे चला जाता था। यह परिस्थितियाँ नहीं होती तो आगे चला जाता। यह उल्हने स्वयं के कमज़ोरी की बातें हैं। स्व-स्थिति के आगे परिस्थिति कुछ कर नहीं सकती। विघ्न विनाशक आत्माओं के आगे विघ्न पुरूषार्थ में रूकावट डाल नहीं सकता। समय के हिसाब से रफ्तार का हिसाब नहीं। दो साल वाला आगे जा सकता, दो मास वाला नहीं जा सकता, यह हिसाब नहीं। यहाँ तो सेकण्ड का सौदा है। दो मास तो कितना बड़ा है। लेकिन जब से आये तब से तीव्रगति है? तो सदा तीव्रगति वाले कई अलबेली आत्माओं से आगे जा सकते हैं। इसलिए वर्तमान समय को और मास्टर सर्वशक्तिवान आत्माओं को यह वरदान है - जो अपने लिए चाहो जितना आगे बढ़ना चाहो, जितना अधिकारी बनने चाहो उतना सहज बन सकते हो क्योंकि - वरदानी समय है। वरदानी बाप की वरदानी आत्माएं हो, समझा - वरदानी बनना है तो अभी बनो, फिर वरदान का समय भी समाप्त हो जायेगा। फिर मेहनत से भी कुछ पा नहीं सकेंगे। इसलिए जो पाना है वह अभी पा लो। जो करना है अभी कर लो। सोचो नहीं लेकिन जो करना है वह दृढ़ संकल्प से कर लो। और सफलता पा लो। अच्छा –
ऐसे सर्व अधिकारी, सेकण्ड में सौदा करने वाले अर्थात् जो सोचा वह किया - ऐसे सदा हिम्मतवान श्रेष्ठ आत्मायें, सदा मालिक बन परिवर्तन की शक्ति द्वारा कमज़ोरियों को मिटाने वाले, जो श्रेष्ठ कर्म करने चाहे वह करने वाले, ऐसे मास्टर सर्वशक्तिवान, दिलतख्तनशीन, अधिकारी बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।''
टीचर्स के साथ- अपने को सदा सेवाधारी समझकर सेवा पर उपस्थित रहते हो ना? सेवा की सफलता का आधार, सेवाधारी के लिए विशेष क्या है? जानते हो? सेवाधारी सदा यही चाहते हैं कि सफलता हो लेकिन सफल होने का अधार क्या है? आजकल विशेष किस बात पर अटेन्शन दिला रहे हैं? (त्याग पर) बिना त्याग और तपस्या के सफलता नहीं। तो सेवाधारी अर्थात् त्याग मूर्त और तपस्वी मूर्त। तपस्या क्या है? ‘एक बाप दूसरा न कोई' यह है हर समय की तपस्या। और त्याग कौनसा है? उस पर तो बहुत सुनाया है लेकिन सार रूप में सेवाधारी का त्याग - जैसा समय, जैसी समस्यायें हो, जैसे व्यक्ति हों वैसे स्वयं को मोल्ड कर स्व कल्याण और औरों का कल्याण करने के लिए सदा इजी रहें। जैसी परिस्थिति हो अर्थात् कहाँ अपने नाम का त्याग करना पड़े, कहाँ संस्कारों का, कहाँ व्यर्थ संकल्पों का, कहाँ स्थूल अल्पकाल के साधनों का... तो उस परिस्थिति और समय अनुसार अपनी श्रेष्ठ स्थिति बना सकें, कैसा भी त्याग उसके लिए करना पड़े तो कर लें, अपने को मोल्ड कर लें, इसको कहा जाता है - ‘त्याग मूर्त'। त्याग, तपस्या फिर सेवा। त्याग और तपस्या ही सेवा की सफलता का आधार है। तो ऐसे त्यागी जो त्याग का भी अभिमान न आये कि मैंने त्याग किया। अगर यह संकल्प भी आता तो यह भी त्याग नहीं हुआ।
सेवाधारी अर्थात् बड़ों के डायरेक्शन को फौरन अमल में लाने वाले। लोक संग्रह अर्थ कोई डायरेक्शन मिलता है तो भी सिद्ध नहीं करना चाहिए कि मैं राइट हूँ। भल राइट हो लेकिन लोकसंग्रह अर्थ निमित्त आत्माओं का डायरेक्शन मिलता है तो सदा - ‘जी हाँ', ‘जी हाजर', करना यही सेवाधारियों की विशेषता है, यह झुकना नहीं है, नीचे होना नहीं है लेकिन फिर भी ऊँचा जाना है। कभी-कभी कोई समझते हैं अगर मैंने किया तो मैं नीचे हो जाऊँगी, मेरा नाम कम हो जायेगा, मेरी पर्सनैलिटी कम हो जायेगी, लेकिन नहीं। मानना अर्थात् माननीय बनना, बड़ों को मान देना अर्थात् स्वमान लेना। तो ऐसे सेवाधारी हो जो अपने मान शान का भी त्याग कर दो। अल्पकाल का मान और शान क्या करेंगे। आज्ञाकारी बनना ही सदाकाल का मान और शान लेना है। तो अविनाशी लेना है या अभी-अभी का लेना है? तो सेवाधारी अर्थात् इन सब बातों के त्याग में सदा एवररेडी। बड़ों ने कहा और किया। ऐसे विशेष सेवाधारी, सर्व के और बाप के प्रिय होते हैं। झुकना अर्थात् सफलता या फलदायक बनना। यह झुकना छोटा बनना नहीं है लेकिन सफलता के फल सम्पन्न बनना है। उस समय भल ऐसे लगता है कि मेरा नाम नीचे जा रहा है, वह बड़ा बन गया, मैं छोटी बन गई। मेरे को नीचे किया गया उसको ऊपर किया गया। लेकिन होता सेकण्ड का खेल है। सेकण्ड में हार हो जाती और सेकण्ड में जीत हो जाती। सेकण्ड की हार सदा की हार है जो चन्द्रवंशी कमानधारी बना देती है और सेकण्ड की जीत सदा की खुशी प्राप्त कराती जिसकी निशानी श्रीकृष्ण को मुरली बजाते हुए दिखाया है। तो कहाँ चन्द्रवंशी कमानधारी और कहाँ मुरली बजाने वाले! ‘तो सेकण्ड की बात नहीं है लेकिन सेकण्ड का आधार सदा पर है'। तो इस राज़को समझते हुए सदा आगे चलते चलो। ब्रह्माबाप को देखा - ब्रह्मा बाप ने अपने को कितना नीचे किया - इतना निर्मान होकर सेवाधारी बना जो बच्चों के पाँव दबाने के लिए भी तैयार। बच्चे मेरे से आगे हैं, बच्चे मेरे से भी अच्छा भाषण कर सकते हैं। ‘‘पहले मैं'' कभी नहीं कहा। आगे बच्चे, पहले बच्चे, बड़े बच्चे कहा, तो स्वयं को नीचे करना नीचे होना नहीं है, ऊँचा जाना है। तो इसको कहा जाता है - ‘सच्चे नम्बरवन योग्य सेवाधारी'। लक्ष्य तो सभी का ऐसा ही है ना! गुजरात से बहुत सेवाधारी निकले हैं लेकिन गुजरात की नदियाँ गुजरात में ही बह रही हैं, गुजरात कल्याणकारी नहीं, विश्व-कल्याणकारी बनो। सदा एवररेडी रहो। आज कोई भी डायरेक्शन मिले - बोलो, ‘हाँ जी'। क्या होगा कैसे होगा - ट्रस्टी को क्या, कैसे का क्या सोचना। अपनी आफर सदा करो तो सदा उपराम रहेंगे। लगाव झुकाव से किनारा हो जायेगा। आज यहाँ हैं कल कहाँ भी चले जायें तो उपराम हो जायेंगे। अगर समझते, यहाँ ही रहना है तो फिर थोड़ा बनाना है, बनना है... यह रहेगा। आज यहाँ कल वहाँ। पंछी है आज एक डाल पर, कल दूसरी डाल पर तो स्थिति उपराम रहेगी, तो मन की स्थिति सदा उपराम चाहिए। चाहे कहाँ 20 वर्ष भी रहो लेकिन स्वयं सदा एवररेडी! स्वयं नहीं सोचो कि कैसे होगा! - इसको कहा जाता है महात्यागी। अच्छा –
28-04-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“सर्वस्व त्यागी की निशानियाँ”
सर्वस्व त्यागी बच्चों प्रति बापदादा बोले:-
बापदादा चारों ओर के सर्व महात्यागी, सर्वंश त्यागी बच्चों को देख रहे हैं। कौन से, कौन से बच्चे इस महान भाग्य को प्राप्त कर रहे हैं वा समीप पहुँच गये हैं - ऐसे समीप अर्थात् समान, श्रेष्ठ, सर्वंश त्यागी बच्चों को बापदादा भी देख हर्षित होते हैं। सर्वंश त्यागी बच्चों की विशेषता क्या है, जिन विशेषताओं के आधार पर समीप वा समान बनते हैं? साकार तन द्वारा भी लास्ट बोल में तीन विशेषतायें सुनाई थीं: -
1. संकल्प में सदा निराकारी सो साकारी, सदा न्यारी और बाप की प्यारी आत्मायें।
2. वाणी में सदा निरअहंकारी अर्थात् सदा रूहानी मधुरता और निर्मानता।
3. कर्म में हर कर्मेन्द्रिय द्वारा निर्विकारी अर्थात् प्युरिटी की पर्सनैलिटी वाली।
तो हर कर्मेंन्द्रिय द्वारा महादानी वा वरदानी। मस्तक द्वारा सर्व को स्वरूप की स्मृति दिलाने के वरदानी वा महादानी। नयनों से रूहानी दृष्टि द्वारा सर्व को स्व-देश अर्थात् मुक्तिधाम और स्वराज्य अर्थात् जीवनमुक्ति - अपने राज्य का दर्शन कराना वा रास्ता दिखाने का दृष्टि द्वारा ईशारा देना। ऐसा अनुभव कराने का वरदान देना कि जो आत्मायें महसूस करें कि यही हमारा असली घर और राज्य है। घर का रास्ता, राज्य पाने का रास्ता मिल गया। ऐसे महादान वा वरदान पाकर सदा हर्षित हो जाएँ। मुख द्वारा रचयिता और रचना के विस्तार को स्पष्ट जान, स्वयं को रचयिता की पहली रचना - श्रेष्ठ ब्राह्मण सो देवता बनने का वरदान पा लें। ऐसे हस्तों द्वारा सदा सहज योगी, कर्मयोगी बनने के वरदान देने वाले श्रेष्ठ कर्मधारी, श्रेष्ठ फल प्राप्त करने के वरदानी बनाने वाले। चरण कमल द्वारा हर कदम फालो फादर कर, हर कदम में पदमों की कमाई जमा करने के वरदानी। ऐसे हर कर्मेन्द्रिय द्वारा विशेष अनुभूति कराने के वरदानी अर्थात् - ‘निर्विकारी जीवन'। यह तीन विशेषतायें सर्वस्व त्यागी की सदा स्पष्ट दिखाई देंगी।
सर्वंश त्यागी आत्मा किसी भी विकार के अंश के भी वशीभूत हो कोई कर्म नहीं करेगी। विकारों का रायल अंश स्वरूप पहले भी सुनाया है कि मोटे रूप में विकार समाप्त हो रायल रूप में अंश मात्र के रूप में रह जाते हैं। वह याद है ना! ब्राह्मणों की भाषा भी रायल बन गई है। अभी वह विस्तार तो बहुत लम्बा है। मैं ही यथार्थ हूँ वा राइट हूँ - ऐसा अपने को सिद्ध करने के रायल भाषा के शब्द भी बहुत हैं। अपनी कमज़ोरी छिपाकर दूसरे की कमज़ोरी सिद्ध करने वा स्पष्ट करने का विस्तार करना, उसके भी बहुत रायल शब्द हैं। यह भी बड़ी डिक्शनरी हैं। जो वास्तविकता नहीं है लेकिन स्वयं को सिद्ध करने वा स्वयं की कमज़ोरियों के बचाव के लिए मनमत के बोल हैं। वह विस्तार अच्छी तरह से सब जानते हो। सर्वन्श त्यागी की ऐसी भाषा नहीं होती - जिसमें किसी भी विकार का अंश मात्र भी समाया हुआ हो। तो मंसा-वाचा-कर्मणा, सम्बन्ध-सम्पर्क में सदा विकारों के अंश मात्र से भी परे, इसको कहा जाता है ‘सर्वंश त्यागी'। सर्व अंश का त्याग।
सर्वंश त्यागी, सदा विश्व-कल्याणकारी की विशेषता वाले होंगे। सदा दाता का बच्चा दाता बन सर्व को देने की भासना से भरपूर होंगे। ऐसे नहीं कि यह करे वा ऐसी परिस्थिति हो, वायुमण्डल हो तब मैं यह करूँ। दूसरे का सहयोग लेकर के अपने कल्याण के श्रेष्ठ कर्म करने वाले अर्थात् लेकर फिर देले वाले, सहयोग लिया फिर दिया, तो लेना और देना दोनों साथ-साथ हुआ। लेकिन सर्वंश त्यागी स्वयं मास्टर दाता बन परिस्थितियों को भी परिवर्तन करने का, कमजोर को शक्तिशाली बनाने का, वायुमण्डल वा वृत्ति को अपनी शक्तियों द्वारा परिवर्तन करने का, सदा स्वयं को कल्याण अर्थ जिम्मेवार आत्मा समझ हर बात में सहयोग वा शक्ति के महादान वा वरदान देने का संकल्प करेंगे। यह हो तो यह करें, नहीं। मास्टर दाता बन परिवर्तन करने की, शुभ भावना से शक्तियों को कार्य में लगाने अर्थात् देने का कार्य करता रहेगा। मुझे देना है, मुझे करना है, मुझे बदलना है, मुझे निर्मान बनना है। ऐसे ‘‘ओटे सो अर्जुन'' अर्थात् दातापन की विशेषता होगी।
सर्वंश त्यागी अर्थात् सदा गुण मूर्त। गुण मूर्त का अर्थ है गुणवान बनना और सर्व में गुण देखना। अगर स्वयं गुण मूर्त है तो उसकी दृष्टि और वृत्ति ऐसी गुण सम्पन्न हो जायेगी जो उसकी दृष्टि वृत्ति द्वारा सर्व में जो गुण होगा वही दिखाई देगा। अवगुण देखते, समझते भी किसी का भी अवगुण बुद्धि द्वारा ग्रहण नहीं करेगा। अर्थात् बुद्धि में धारण नहीं करेगा। ऐसा ‘होलीहंस' होगा। कंकड़ को जानते भी ग्रहण नहीं करेगा। और ही उस आत्मा के अवगुण को मिटाने के लिए स्वयं में प्राप्त हुए गुण की शक्ति द्वारा उस आत्मा को भी गुणगान बनाने में सहयोगी होगा। क्योंकि मास्टर दाता के संस्कार हैं।
सर्वंश त्यागी सदा अपने को हर श्रेष्ठ कार्य के - सेवा की सफलता के कार्य में, ब्राह्मण आत्माओं की उन्नति के कार्य में, कमज़ोरी वा व्यर्थ वातावरण को बदलने के कार्य में जिम्मेवार आत्मा समझेंगे। सेवा में विघ्न बनने के कारण वा सम्बन्घ सम्पर्क में कोई भी नम्बरवार आत्माओं के कारण जरा भी हलचल होती है, तो सर्वंन्श त्यागी बेहद के आधारमूर्त समझ, चारों ओर की हलचल को अचल बनाने की जिम्मेवारी समझेंगे। ऐसे बेहद की उन्नति के आधार मूर्त सदा स्वयं को अनुभव करेंगे। ऐसा नहीं कि यह तो इस स्थान की बात है या इस बहन वा भाई की बात है। नहीं। ‘मेरा परिवार है'। मैं कल्याणकारी निमित्त आत्मा हूँ। टाइटल विश्व-कल्याणकारी का मिला हुआ हैं न कि सिर्फ स्व-कल्याणकारी वा अपने सेन्टर के कल्याणकारी। दूसरे की कमज़ोरी अर्थात् अपने परिवार की कमज़ोरी है, ऐसे बेहद के निमित्त आत्मा समझेंगे। मैं-पन नहीं, निमित्त मात्र हैं अर्थात् विश्व-कल्याण के आधारमूर्त बेहद के कार्य के आधारमूर्त हैं।
सर्वंश त्यागी सदा एकरस, एक मत, एक ही परिवार का एक ही कार्य है - सदा ऐसे एक ही स्मृति में नम्बर एक आत्मा होंगे।
सर्वंश त्यागी सदा स्वयं को प्रत्यक्षफल प्राप्त भई फलस्वरूप आत्मा अनुभव करेंगे। अर्थात् सर्वंश त्यागी आत्मा सदा सर्व प्रत्यक्ष फलों से सम्पन्न अविनाशी वृक्ष के समान होगी। सदा फलस्वरूप होंगी। इसलिए हद के कर्म का, हद के फल पाने की अल्पकाल की इच्छा से - ‘इच्छा मात्रम् अविद्या' होंगे। सदा प्रत्यक्ष फल खाने वाले, सदा मनदुरूस्त वाले होंगे। सदा स्वस्थ होंगे। कोई भी मन की बीमारी नहीं होगी। सदा ‘मन्मनाभव' होंगे। तो ऐसे सर्वंश त्यागी बने हो? तीनों ही विशेषता सामने रख स्वयं से पूछो कि मैं वौन-सा ‘त्यागी' हूँ? कहाँ तक पहुँचे हैं? कितनी पौड़ियाँ चढ़ करके बाप समान की मंजिल पर पहुँचे हैं? फुल स्टैप तक पहुँचे हो या अभी कुछ स्टैप तक पहुँचे हो? या अभी कुछ स्टैप रह गये हैं? त्याग की भी स्टैप सुनाई ना। तो किस स्टैप तक पहुँचे हो? सात कोर्स में से कितने कोर्स किये हैं? सप्ताह पाठ का लास्ट में भोग पड़ता है - तो बापदादा भी अभी भोग डाले? आप लोग तो हर गुरूवार को भोग लगाते हो लेकिन बापदादा तो महाभोग करेंगे ना। जैसे सन्देशियाँ ऊपर वतन में भोग ले जाती हैं - तो बापदादा भी कहाँ ले जायेंगे! पहले स्वयं को भोग में समर्पण करो। भोग भी बाप के आगे समर्पण करते हो ना। अभी स्वयं को सदा प्रत्यक्ष फलस्वरूप बनाकर समर्पण करो। तब महाभोग होगा। अपने आपको सम्पन्न बनाकर आफर करो। सिर्फ स्थूल भोग की आफर नहीं करो। सम्पन्न आत्मा बन स्वयं को आफर करो। समझा - बाकी क्या करना है वह समझ में आया?
अच्छा - बाकी एक बारी मिलने का रहा हुआ है। वैसे तो साकार द्वारा मिलन मेले का, इस रूपरेखा से मिलने का आज अन्तिम समय है। प्रोग्राम प्रमाण तो आज साकार मेले का समाप्ति समारोह है फिर तो आगे की बात आगे देखेंगे। एकस्ट्रा एक बाप का चुगा भी मिल जायेगा। लेकिन इस सारे मिलन मेले का स्व प्रति सार क्या लिया? सिर्फ सुना वा समाकर स्वरूप में लाया? इस मिलन मेले की सीजन विशेष किस सीजन को लायेगी? इस सीजन का फल क्या निकलेगा? सीजन के फल का महत्व होता है ना! तो इस सीजन का फल क्या निकला! बापदादा मिला यह तो हुआ लेकिन मिलना अर्थात् समान बनना। तो सदा बाप समान बनने के दृढ़ संकल्प का फल बापदादा को दिखायेंगे ना! ऐसा फल तैयार किया है? अपने को तैयार किया है? वा अभी सिर्फ सुना है, बाकी तैयार होना है? सिर्फ मिलन मनाना है वा बनना है? जैसे मिलन मनाने के लिए बहुत उमंग- उत्साह से भाग-भाग कर पहुँचते हो वैसे बनने के लिए भी उड़ान उड़ रहे हो? आने जाने के साधनों में तकलीफ भी लेते हो। लेकिन उड़ती कला में जाने के लिए कोई मेहनत नहीं है। जो हद की डालियाँ बनाकर डालियों को पकड़ बैठ गये हो, अभी हे उड़ते पंछी, डालियों को छोड़ो। सोने की डाली को भी छोड़ो। सीता को सोने के हिरण ने शोक वाटिका में भेजा। यह मेरा मेरा है, मेरा नाम, मेरा मान, मेरा शान, मेरा सेन्टर यह सब - सोने की डालियाँ हैं। बेहद का अधिकार छोड़, हद के अधिकार लेने में आ जाते हो। मेरा अधिकार यह है, यह मेरा काम है - इस सबसे उड़ते पंछी बनो। इन हद के आधारों को छोड़ो। तोते तो नहीं हो ना जो चिल्लाते रहो कि छुड़ाओ। छोड़ते खुद नहीं और चिल्लाते हैं कि छुड़ाओ। तो ऐसे तोते नहीं बनना। छोड़ो और उड़ो। छोड़ेंगे तो छूटेगें ना! बापदादा ने पंख दे दिये हैं - पंखो का काम है उड़ना वा बैठना? तो उड़ते पंछी बनो अर्थात् उड़ती कला में सदा उड़ते रहो। समझा - इसको कहा जाता है सीजन का फल देना। अच्छा-
ऐसे सदा प्रत्यक्ष फल सम्पन्न, सम्पूर्ण श्रेष्ठ आत्मायें, सदा बाप समान निराकारी, निरअहंकारी, निर्विकारी, सदा हर कर्म में विकारों के कोई भी अंश को स्पर्श न करने वाले, ऐसे सर्व अंश त्यागी, सदा उड़ती कला में उड़ने वाले उड़ते पंछी, ऐसे बाप समान श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।''
पार्टियों के साथ
मास्टर सर्वशक्तिवान की स्थिति से व्यर्थ के किचड़े को समाप्त करो:- सदा अपने को मास्टर सर्वशक्तिवान आत्मा समझते हो? सर्वशक्तिवान अर्थात् समर्थ। जो समर्थ होगा वह व्यर्थ के किचड़े को समाप्त कर देगा। मास्टर सर्वशक्तिवान अर्थात् व्यर्थ का नाम निशान नहीं। सदा यह लक्ष्य रखो कि - ‘मैं व्यर्थ को समाप्त करने वाला समर्थ हूँ'। जैसे सूर्य का काम है किचड़े को भस्म करना। अंधकार को मिटाना, रोशनी देना। तो इसी रीति मास्टर ज्ञान सूर्य अर्थात् - व्यर्थ किचड़े को समाप्त करने वाले अर्थात् अंधकार को मिटाने वाले। मास्टर सर्वशक्तिवान व्यर्थ के प्रभाव में कभी नहीं आयेगा। अगर प्रभाव में आ जाते तो कमजोर हुए। बाप सर्वशक्तिवान और बच्चे कमजोर! यह सुनना भी अच्छा नहीं लगता। कुछ भी हो - लेकिन सदा स्मृति रहे - ‘‘मैं मास्टर सर्वशक्तिवान हूँ''। ऐसा नहीं समझो कि मैं अकेला क्या कर सकता हूँ.. एक भी अनेकों को बदल सकता है। तो स्वयं भी शक्तिशाली बनो और औरों को भी बनाओ। जब एक छोटा-सा दीपक अंधकार को मिटा सकता है तो आप क्या नहीं कर सकते! तो सदा वातावरण को बदलने का लक्ष्य रखो। विश्व परिवर्तक बनने के पहले सेवाकेन्द्र के वातावरण को परिवर्तन कर पावरफुल वायुमण्डल बनाओ।
युगलों से बापदादा की मुलाकात:- सभी प्रवृत्ति में रहते, प्रवृत्ति के बन्धन से न्यारे और सदा बाप के प्यारे हो? किसी भी प्रवृत्ति के बन्धन में बंधे हुए तो नहीं हो? लोकलाज के बन्धन में, सम्बन्ध में बंधे हुए को बन्धनयुक्त आत्मा कहेंगे। तो कोई भी बन्धन न हो। मन का भी बन्धन नहीं। मन में भी यह संकल्प न आये कि हमारा कोई लौकिक सम्बन्ध है। लौकिक सम्बन्ध में रहते अलौकिक सम्बन्ध की स्मृति रहे। निमित्त लौकिक सम्बन्ध लेकिन स्मृति में अलौकिक और पारलौकिक सम्बन्ध रहे। सदा कमल आसन पर विराजमान रहो। कभी भी पानी वा कीचड़ की बूँद स्पर्श न करे। कितनी भी आत्माओं के सम्पर्क में आते - सदा न्यारे और प्यारे रहो। सेवा के अर्थ सम्पर्क है। देह का सम्बन्ध नहीं है, सेवा का सम्बन्ध है। प्रवृत्ति में सम्बन्ध के कारण नहीं रहे हो, सेवा के कारण रहे हो। घर नहीं, सेवास्थान है। सेवास्थान समझने से सदा सेवा की स्मृति रहेगी। अच्छा।
सार - सर्वस्व त्यागी आत्मा के लक्षण
1. सर्वस्व त्यागी आत्मा किसी भी विकार के अंश के भी वशीभूत हो कोई कर्म नहीं करेगा।
2. सर्वस्व त्यागी आत्मा सदा दाता का बच्चा बन सर्व को देने की भावना से सम्पन्न होगा।
3. सर्वस्व त्यागी आत्मा सदा गुण-मूर्त होगा। स्वयं भी गुणवान और सर्व में गुण देखेगा।
4. सर्वस्व त्यागी आत्मा चारों ओर की हलचल समाप्त करने की जिम्मेदारी समझेगा।
5. सदा एक रस, एक मत, एक ही परिवार का कार्य है - ऐसा समझेगा।
6. सदा फल, स्वरूप होगा।
30-04-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“विस्तार को बिंदी में समाओ”
बेहद के बापदादा अपने एवररेडी बच्चों प्रति बोले:-
‘‘बापदादा इस साकारी देह और दुनिया में आते हैं, सभी को इस देह और दुनिया से दूर ले जाने के लिए। दूर-देश वासी सभी को दूर-देश निवासी बनाने के लिए आते हैं। दूर-देश में यह देह नहीं चलेगी। पावन आत्मा अपने देश में बाप के साथ-साथ चलेगी। तो चलने के लिए तैयार हो गये हो वा अभी तक कुछ समेटने के लिए रह गया है? जब एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हो तो विस्तार को समेट परिवर्तन करते हो। तो दूर-देश वा अपने स्वीट होम में जाने के लिए तैयारी करनी पड़ेगी? सर्व विस्तार को बिन्दी में समाना पड़े। इतनी समाने की शक्ति, समेटने की शक्ति धारण करली है? समय प्रमाण बापदादा डायरेक्शन दे कि सेकण्ड में अब साथ चलो तो सेकण्ड में, विस्तार को समा सकेंगे? शरीर की प्रवृत्ति, लौकिक प्रवृत्ति, सेवा की प्रवृत्ति, अपने रहे हुए कमज़ोरी के संकल्प की और संस्कार प्रवृत्ति, सर्व प्रकार की प्रवृत्तियों से न्यारे और बाप के साथ चलने वाले प्यारे बन सकते हो? वा कोई प्रवृत्ति अपने तरफ आकर्षित करेगी? सब तरफ से सर्व प्रवृत्तियों का किनारा छोड़ चुके हो वा कोई भी किनारा अल्पकाल का सहारा बन बाप के सहारे वा साथ से दूर कर देंगे? संकल्प किया कि जाना है, डायरेक्शन मिला अब चलना है तो डबल लाइट के उड़न आसन पर स्थित हो उड़ जायेंगे? ऐसी तैयारी है? वा सोचेंगे कि अभी यह करना है, वह करना है? समेटने की शक्ति अभी कार्य में ला सकते हो वा मेरी सेवा, मेरा सेन्टर, मेरा जिज्ञासु, मेरा लौकिक परिवार या लौकिक कार्य - यह विस्तार तो याद नहीं आयेगा? यह संकल्प तो नहीं आयेगा? जैसे आप लोग एक ड्रामा दिखाते हो, ऐसे प्रकार के संकल्प - अभी यह करना है, फिर वापस जायेंगे - ऐसे ड्रामा के मुआफिक साथ चलने की सीट को पाने के अधिकार से वंचित तो नहीं रह जायेंगे - अभी तो खूब विस्तार में जा रहे हो, लेकिन विस्तार की निशानी क्या होती है? वृक्ष भी जब अति विस्तार को पा लेता तो विस्तार के बाद बीज में समा जाता है। तो अभी भी सेवा का विस्तार बहुत तेजी से बढ़ रहा है और बढ़ना ही है लेकिन जितना विस्तार वृद्धि को पा रहा है उतना विस्तार से न्यारे और साथ चलने वाले प्यारे, यह बात नहीं भूल जाना। कोई भी किनारे में लगाव की रस्सी न रह जाए। किनारे की रस्सियाँ सदा छूटी हुई हों। अर्थात् सबसे छूट्टी लेकर रखो। जैसे आजकल यहाँ पहले से ही अपना मरण मना लेते हैं ना- तो छुट्टी ले ली ना। ऐसे सब प्रवृत्तियों के बन्धनों से पहले से ही विदाई ले लो। समाप्ति-समारोह मना लो। उड़ती कला का उड़ान आसन सदा तैयार हो। जैसे आजकल के संसार में भी जब लड़ाई शुरू हो जाती है तो वहाँ के राजा हो वा प्रेजीडेन्ट हो उन्हों के लिए पहले से ही देश से निकलने के साधन तैयार होते हैं। उस समय यह तैयार करो, यह आर्डर करने की भी मार्जिन नहीं होती। लड़ाई का इशारा मिला और भागा। नहीं तो क्या हो जाए? प्रेजीडेन्ट वा राजा के बदले जेल बर्ड बन जायेगा। आजकल की निमित्त बनी हुई अल्पकाल की अधिकारी आत्मायें भी पहले से अपनी तैयारी रखती हैं। तो आप कौन हो? इस संगमयुग के हीरो पार्टधारी अर्थात् विशेष आत्मायें। तो आप सबकी भी पहले से तैयारी चाहिए ना कि उस समय करेंगे? मार्जिन ही सेकण्ड की मिलनी है फिर क्या करेंगे? सोचने की भी मार्जिन नहीं मिलनी है। करूँ न करूँ, यह करूँ, वह करूँ, ऐसे सोचने वाले ‘साथी' के बजाए ‘बाराती' बन जायेंगे। इसलिए अन्त:वाहक स्थिति अर्थात् कर्मबन्धन मुक्त कर्मातीत - ऐसी कर्मातीत स्थिति का वाहन अर्थात् अन्तिम वाहन, जिस द्वारा ही सेकण्ड में साथ में उड़ेंगे। वाहन तैयार है? वा समय को गिनती कर रहे हो? अभी यह होना है, यह होना है, उसके बाद यह होगा, ऐसे तो नहीं सोचते हो? तैयारी सब करो। सेवा के साधन भी भल अपनाओ। नये-नये प्लैन भी भले बनाओ। लेकिन किनारों में रस्सी बांधकर छोड़ नहीं देना। प्रवृत्ति में आते ‘कमल' बनना भूल न जाना। वापिस जाने की तैयारी नहीं भूल जाना। सदा अपनी अन्तिम स्थिति का वाहन - न्यारे और प्यारे बनने का श्रेष्ठ साधन - सेवा के साधनों में भूल नहीं जाना। खूब सेवा करो लेकिन न्यारेपन की खूबी को नहीं छोड़ना। अभी इसी अभ्यास की आवश्यकता है। या तो बिल्कुल न्यारे हो जाते या तो बिल्कुल प्यारे हो जाते। इसलिए ‘न्यारे और प्यारेपन का बैलेन्स' रखो। सेवा करो लेकिन ‘मेरेपन' से न्यारे होकर करो। समझा क्या करना है? अब नई-नई रस्सियाँ भी तैयार कर रहे हैं। पुरानी रस्सियाँ टूट रही हैं। समझते भी नई रस्सियाँ बाँध रहे हैं क्योंकि चमकीली रस्सियाँ हैं। तो इस वर्ष क्या करना है? बापदादा साक्षी होकर के बच्चों का खेल देखते हैं। रस्सियों के बंधने की रेस में एक दो से बहुत आगे जा रहे हैं। इसलिए सदा विस्तार में जाते सार रूप में रहो।
वर्तमान समय सेवा की रिजल्ट में क्वान्टिटी बहुत अच्छी है लेकिन अब उस क्वान्टिटी में क्वालिटीज भरो। क्वान्टिटी की भी स्थापना के कार्य में आवश्यकता है। लेकिन वृक्ष के पत्तों का विस्तार हो और फल न हो तो क्या पसन्द करेंगे? पत्ते भी हो और फल भी हों या सिर्फ पत्ते हों? पत्ते वृक्ष का श्रृंगार हैं और फल सदाकाल के जीवन का सोर्स हैं। इसलिए हर आत्मा को प्रत्यक्षफल स्वरूप बनाओ अर्थात् विशेष गुणों के, शक्तियों के अनुभवी मूर्त बनाओ। वृद्धि अच्छी है लेकिन सदा विघ्न-विनाशक, शक्तिशाली आत्मा बनने की विधि सिखाने के लिए विशेष अटेन्शन दो। वृद्धि के साथ-साथ विधि सिखाने का, सिद्धिस्वरूप बनाने का भी विशेष अटेन्शन। स्नेही सहयोगी तो यथाशक्ति बनने ही हैं लेकिन शक्तिशाली आत्मा, जो विघ्नों का, पुराने संस्कारों का सामना कर महावीर बन जाए, इस पर और विशेष अटेन्शन। स्वराज्य अधिकारी सो विश्व राज्य अधिकारी ऐसे वारिस क्वालिटी को बढ़ाओ। सेवाधारी बहुत बने हो, लेकिन सर्व शक्तियों धारी ऐसी विशेषता सम्पन्न आत्माओं को विश्व की स्टेज पर लाओ।
इस वर्ष- हरेक आत्मा प्रति विशेष अनुभवी मूर्त बन विशेष अनुभवों की खान बन, अनुभवी मूर्त बनाने का महादान करो। जिससे हर आत्मा अनुभव के आधार पर ‘अंगद' समान बन जाए। चल रहे हैं, कर रहे हैं, सुन रहे हैं,-सुना रहे हैं, नहीं। लेकिन अनुभवों का खजाना पा लिया - ऐसे गीत गाते खुशी के झूले में झूलते रहें।
इस वर्ष- सेवा के उत्सवों के साथ उड़ती कला का उत्साह बढ़ता रहे। तो सेवा के उत्सव के साथ-साथ उत्साह अविनाशी रहे, ऐसे उत्सव भी मनाओ। समझा। सदा उड़ती कला के उत्साह में रहना है और सर्व का उत्साह बढ़ाना है।
इस वर्ष - हर एक को यह लक्ष्य रखना है कि हरेक को भिन्न-भिन्न वर्ग के आत्माओं की सेवा कर वैरायटी वर्गों की हर आत्मा को बाप का बनाकर, वैरायटी वर्ग का गुलदस्ता तैयार कर बाप के आगे लाना है। लेकिन हों सभी रूहानी रूहे गुलाब। वृक्ष भल वैरायटी हों, वी.आइ.पी. भी हों तो अलग-अलग आक्यूपेशन वाले भी हों, साधारण भी हों, गांव वाले भी हों लेकिन सबको अनुभवों की खान द्वारा अनुभवी मूर्त बनाकर प्राप्ति स्वरूप बनाकर सामने लाओ। इसको कहा जाता है - रूहानी रूहे गुलाब। गुलदस्ता बनाना लेकिन मेरापन नहीं लाना। मेरा गुलदस्ता सबसे अच्छा है तो रूहे गुलाब नहीं बन सकेंगे। ‘‘मेरापन लाया तो गुलदस्ता मुरझाया''। इसलिए समझो - बाबा के बच्चे हैं, मेरे हैं इसको भूल जाओ। अगर मेरे बनायेंगे तो उन आत्माओं को भी बेहद के अधिकार से दूर कर देंगे। आत्मा चाहे कितनी भी महान हो लेकिन सर्वज्ञ नहीं कहेंगे। सागर नहीं कहेंगे। इसलिए किसी भी आत्मा को बेहद के वर्से से वंचित नहीं करना। नहीं तो वो ही आत्मायें आगे चल मेरे बनाने वालों को उल्हनें देंगी कि हमें वंचित क्यों बनाया? उन्हों के विलाप उस समय सहन नहीं कर सकेंगे। इतने दु:खमय दिल के विलाप होंगे। इसलिए इस विशेष बात को विशेष ध्यान से समझना। विशेष सेवा भल करो। तन की शक्ति, मन की शक्ति, धन की शक्ति, सहयोग देने की शक्ति, जो भी शक्तियाँ हैं, समय की भी शक्ति है इन सबको समर्थ कार्य में लगाओ। आगे का नहीं सोचो। 84 में क्या होगा, 85 में क्या होगा? जितना लगाया उतना जमा हुआ। तो समझा क्या करना है! सर्व शक्तियों को लगाओ। स्वयं को सदा उड़ती कला में उड़ाओ। और औरों को भी उड़ती कला में ले जाओ। उत्साह का स्लोगन भी मिला ना!
इस वर्ष- डबल उत्सव मनाने हैं और रूहानी रूहों का गुलदस्ता हरेक को तैयार करना है। आज आये हुए भी वैरायटी गुदलस्ता ही हैं। चारों ओर के आ गये हैं ना। देश-विदेश का वैरायटी गुलदस्ता हो गया ना! डबल विदेशियों ने भी लास्ट मिलन में हिस्सा ले लिया है। बापदादा भी आने की बधाई देते हैं। बधाई भी सबको मिल गई तो मिलना हो गया ना! सबने मिल लिया! बधाई ले ली बाकी क्या रहा? टोली! तो लाइन लगाते आना और टोली लेते जाना। ऐसा ही समय आने वाला है। जब इतना बड़ा हाल बना रहे हो तो क्या हाल होगा? सदा एक रसम तो नहीं चलती हैं ना! इस बार तो विशेष भारतवासी बच्चों का उल्हना पूरा किया। हर सीजन का अपना-अपना रसम-रिवाज होता है। अगले वर्ष क्या होता सो देखना। अभी ही बता दें तो फिर मजा नहीं आयेगा। सभी गुदलस्तों सहित आयेंगे ना। क्वालिटी बनाकर लाना - क्योंकि नम्बर तो क्वालिटी सहित क्वान्टिटी पर मिलेगा। ऐसे तो भीड़ इकट्ठी करने में तो नेतायें भी होशियार हैं। क्वान्टिटी हो लेकिन क्वालिटी सहित। ऐसा गुलदस्ता लाना। सिर्फ पत्तों का गुलदस्ता नहीं ले आना। अच्छा-
ऐसे सदा अन्तिम वाहन के एवररेडी, सर्व आत्माओं को अनुभवी मूर्त बनाने के महादानी, सदा वरदाता, विधाता, बेहद के बाप से बेहद का वर्सा दिलाने के निमित्त बनने वाली आत्मायें, सदा सेवाधारी के साथ-साथ शक्तिशाली आत्मायें बनाने वाले, वृद्धि के साथ विधि द्वारा प्राप्तियों की सिद्धि प्राप्त करने वाले, ऐसे बाप समान सेवा करते, सेवा से न्यारे और बाप के साथ चलने वाले प्यारे, ऐसे समीप और समान आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।''
सेवाधारियों से:- एक हैं - आत्माओं को बाप का परिचय दे बाप के वर्से के अधिकारी बनाने के निमित्त सेवाधारी और दूसरे हैं - यज्ञ सेवाधारी। तो इस समय आप सभी यज्ञ सेवा का पार्ट बजाने वाले हो। यज्ञ सेवा का महत्व कितना बड़ा है - उसको अच्छी तरह से जानते हो? यज्ञ के एक-एक कणे का कितना महत्व है? एक-एक कणा मुहरों के समान है। अगर कोई एक कणें जितना भी सेवा करते हैं तो मुहरों के समान कमाई जमा हो जाती है। तो सेवा नहीं की लेकिन कमाई जमा की। सेवाधारियों को - वर्तमान समय एक तो मधुबन वरदान भूमि में रहने का चांस का भाग्य मिला और दूसरा सदा श्रेष्ठ वातावरण उसका भाग्य और तीसरा सदा कमाई जमा करने का भाग्य। तो कितने प्रकार के भाग्य सेवाधारियों को स्वत: प्राप्त हो जाते हैं। इतने भाग्यवान सेवाधारी आत्मायें समझकर सेवा करते हो? इतना रूहानी नशा स्मृति में रहता है या सेवा करतेकरते भूल जाते हो? सेवाधारी अपने श्रेष्ठ भाग्य द्वारा औरों को भी उमंग उल्लास दिलाने के निमित्त बन सकते हैं। सभी सेवाधारी जितना भी समय जिस भी सेवा में रहे - निर्विघ्न रहे! मन्सा में भी निर्विघ्न। किसी भी प्रकार का कभी भी विघ्न वा हलचल न आये इसको कहा जाता है ‘सेवा में सफलतामूर्त'। चाहे कितना भी संस्कार वा परिस्थितयाँ नीचे-ऊपर हों लेकिन जो सदा बाप के साथ हैं, सदा फालो फादर हैं, सदा सी फादर हैं वह सदा निर्विघ्न रहेंगे और अगर कहाँ भी किसी आत्माओं को देखा, आत्माओं को फालो किया तो हलचल में आ जायेंगे। तो सेवाधारी के लिए सेवा में सफलता पाने का आधार - ‘सी फादर वा फालो फादर'। तो सभी ने सच्ची दिल से सेवा की ना? सेवा करते याद का चार्ट कैसे रहा? अच्छा! अपना श्रेष्ठ भाग्य बना लिया। रिजल्ट अच्छी है। बड़ी भाग्यवान आत्मायें हो जो यज्ञ सेवा का चांस मिला है। तो ऐसा कर्त्तव्य करके जाओ - जो आपका यादगार बन जायें और फिर कभी आवश्यकता पड़े तो आपको ही बुलाया जाए। अथक होकर जो सेवा करते हैं उनका फल वर्तमान और भविष्य दोनों जमा हो जाता है। तो सभी ने अपना-अपना अच्छा पार्ट बजाया।
02-05-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“विशेष जीवन कहानी बनाने का आधार - सदा चढ़ती कला”
अव्यक्त बापदादा श्रेष्ठ आत्माओं प्रति बोले:-
‘‘बापदादा हरेक बच्चे की जीवन कहानी देख रहे हैं। हरेक की जीवन कहानी में क्या-क्या तकदीर की रेखायें रही हैं। सदा एकरस उन्नति की ओर जाते रहे हैं वा उतराई और चढ़ाई में चल रहे हैं! ऐसे दोनों प्रकार की लकीर अर्थात् जीवन की लीला दिखाई दी। जब चढ़ाई के बाद किसी भी कारणवश चढ़ती कला के बजाए उतरती कला में आते हैं तो उतरने का प्रभाव भी अपनी तरफ खींचता है। जैसे बहुतकाल की चढ़ती कला का प्रभाव बहुत काल की प्राप्ति कराता है। सहज योगी जीवन वाले, सदा बाप के समीप और साथ की अनुभूति करते हैं। सदा स्वयं को सर्व शक्तियों में मास्टर समझने से सहज स्मृति स्वरूप हो जाते हैं। कोई भी परिस्थितयाँ वा परीक्षायें आते हुए सदा अपने को विघ्नविनाशक अनुभव करते हैं। तो जैसे बहुत काल की चढ़ती कला का, बहुतकाल ऐसी शक्तिशाली स्थिति का अनुभव करते हैं ऐसे चढ़ती कला के बाद फिर उतरती कला होने से स्वत: और सहज यह अनुभव नहीं होते। लेकिन विशेष अटेन्शन, विशेष मेहनत करने के बाद यह सब अनुभव करते हैं। सदा चढ़ती कला अर्थात् सदा सर्व प्राप्ति को पाई हुई मूर्ति। और चढ़ने के बाद उतरने और फिर चढ़ने वाले, गँवाई हुई वस्तु को फिर पाने वाले, ऐसे उतरने-चढ़ने वाली आत्मायें अनुभव करती हैं कि ‘पाया था लेकिन खो गया'। और पाने के अनुभवी होने के कारण फिर से उसी अवस्था को पाने के बिना रह भी नहीं सकते। इसलिए विशेष अटेन्शन देने से फिर से अनुभव को पा लेते हैं लेकिन सदाकाल और सहज की लिस्ट के बजाए दूसरे नम्बर की लिस्ट में आ जाते हैं। पास विद आनर नहीं लेकिन पास होने वालों की लिस्ट में आ जाते हैं। तीसरे नम्बर की तो बात स्वयं ही सोच सकते हो कि उसकी जीवन कहानी क्या होगी! तीसरा नम्बर तो बनना ही नहीं है ना?
अपनी जीवन कहानी को सदा उन्नति की ओर बढ़ने वाली, सर्व विशेषताओं सम्पन्न, सदा प्राप्ति स्वरूप ऐसा श्रेष्ठ बनाओ। अभी-अभी ऊपर, अभी-अभी नीचे वा कुछ समय ऊपर कुछ समय नीचे ऐसे उतरने-चढ़ने के खेल में सदा का अधिकार छोड़ नहीं देना। आज बापदादा सभी की जीवन कहानी देख रहे थे। तो सदा चढ़ती कला वाले कितने होंगे और कौन होंगे? अपने को तो जान सकते हो ना कि मैं किस लिस्ट में हूँ! उतरने की परिस्थितियाँ, परीक्षायें तो सबके सामने आती हैं, बिना परीक्षा के तो कोई भी पास नहीं हो सकता लेकिन - 1. परीक्षा में साक्षी और साथीपन की स्मृति स्वरूप द्वारा फुल पास होना वा पास होना वा मजबूरी से पास होना इसमें अन्तर हो जाता है। 2. बड़ी परीक्षा को छोटा समझना वा छोटी-सी बात को बड़ा समझना, इसमें अन्तर हो जाता है। 3. कोई छोटी-सी बात को ज्यादा सिमरण, वर्णन और वातावरण में फैलाए इससे भी छोटे को बड़ा कर देते हैं। और कोई फिर बड़ी बात को भी चेक किया और साथ-साथ चेन्ज किया और सदा के लिए कमजोर बात को फुल स्टाप लगा देते हैं! फुल स्टाप लगाना अर्थात् फिर से भविष्य के लिए फुल स्टाक जमा करना। आगे के लिए फुल पास के अधिकारी बनना। तो ऐसे बहुतकाल की चढ़ती कला के तकदीरवान बन जाते हैं। तो समझा जीवन कहानी की विशेषता क्या रखनी है? इससे सदा आपकी विशेष जीवन कहानी हो जायेगी! जैसे कोई की जीवन कहानी विशेष प्रेरणा दिलाती है, उत्साह बढ़ाती है, हिम्मत बढ़ाती है, जीवन के रास्ते को स्पष्ट अनुभव कराती है, ऐसे आप हर विशेष आत्मा की जीवन कहानी अर्थात् जीवन का हर कर्म अनेक आत्माओं को ऐसे अनुभव करावे। सबके मुख से, मन से यही आवाज निकले कि जब निमित्त आत्मा यह कर सकती है तो हम भी करें। हम भी आगे बढ़ेंगे। हम भी सभी को आगे बढ़ायेंगे, ऐसी प्रेरणा योग्य विशेष जीवन कहानी सदा बनाओ। समझा - क्या करना है? अच्छा-
आज तो डबल विदेशियों के मिलने का दिन है। एक तरफ है विदेशियों का और दूसरे तरफ है फिर बहुत नजदीक वालों (मधुबन निवासियों) का! दोनों का विशेष मिलन है। बाकी तो सब गैलरी में देखने के लिए आये हैं इसलिए बापदादा ने आये हुए सब बच्चों का रिगार्ड रख मुरली भी चलाई। अच्छा-
सदा मिलन-सीजन के सार को जीवन में लाने वाले, विशेष ईशारों को अपने जीवन का सदाकाल का वरदान समझ, वरदानी मूर्त बनने वाले, सुनना अर्थात् बनना, मिलना अर्थात् समान बनना - इसी स्लोगन को सदा स्मृति स्वरूप में लाने वाले, स्नेह का रिटर्न सदा निर्विघ्न बनाने का सहयोग देने वाले, सदा अनुभवी मूर्त बन सर्व में अनुभवों की विशेषता भरने वाले, ऐसे सदा बाप समान सम्पन्न, श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।''
दीदी जी के साथ:- सभी बाप की निमित्त बनी हुई भुजायें अपना-अपना कार्य यथार्थ रूप में कर रहीं हैं? यह सभी भुजायें हैं ना? तो सभी राइट हैण्ड हैं वा कोई लेफ्ट हैण्ड भी है? जो स्वयं को ब्राह्मण कहलाते हैं, ऐसे ब्राह्मण कहलाने वाले सब राइट हैण्ड हैं या ब्राह्मणों में ही कोई लेफ्ट हैण्ड हैं, कोई राइट हैण्ड हैं? (ब्राह्मण कभी राइट हैण्ड बन जाते कभी लेफ्ट हैण्ड) तो भुजायें भी बदली होती हैं क्या? वैसे तो रावण के शीश दिखाते हैं अभी-अभी उड़ा, अभी-अभी आ गया। लेकिन ब्राह्मणों में भी ब्रह्मा की भुजायें बदली होती रहती हैं क्या? ऐसे तो फिर रोज भुजायें बदलती होंगी?
वास्तव में ब्रह्माकुमार और ब्रह्माकुमारी कहलाते तो सब हैं लेकिन अन्दर में वह स्वयं महसूस करते हैं कि हम प्रत्यक्षफल खाने वाले नहीं है, मेहनत का फल खाने वाले हैं। यह भी अन्तर है ना। कोई प्रत्यक्षफल खाने वाले हैं और कोई मेहनत का फल खाने वाले हैं। बहुत मेहनत की आवश्यकता नहीं है। सिर्फ दृढ़ संकल्प और श्रीमत - इसी आधार पर हर संकल्प और कर्म करते चले तो मेहनत की कोई बात ही नहीं। इन दोनों ही आधार पर न चलने के कारण जैसे गाड़ी पटरी से उतर जाती है फिर बहुत मुश्किल होता है। अगर गाड़ी पटरी पर चल रही है तो कोई मेहनत नहीं, इंजन चला रहा है, वह चल रही है। तो इन दोनों आधार में से, चाहे दृढ़ संकल्प, चाहे श्रीमत इनमें से एक की भी कमज़ोरी है तो एक पटरी हो गई। कोई श्रीमत पर चले, बहुत अटेन्शन रखे लेकिन दृढ़ संकल्प की कमज़ोरी हो तो इसकी रिजल्ट क्या होगी? मेहनत का फल खायेंगे। ऐसे मेहनत का फल खाने वाले भी ‘क्षत्रिय' की लाइन में आ गये। जब भी उनसे कोई बात पूछो तो मेहनत या मुश्किल की बात ही सुनायेंगे। जैसे सुनाया था एक बात को निकालते तो दूसरी आ जाती, चूहे को निकालते तो बिल्ली आ जाती, बिल्ली को निकालते तो - कुत्ता आता.. ऐसे निकालने में ही लगे रहते हैं। तीन धर्म साथ-साथ स्थापन हो रहे हैं ना, ब्राह्मण, देवता और क्षत्रिय। तो तीनों ही प्रकार के दिखाई देंगे ना। कईयों का तो जन्म ही बहुत मेहनत से हुआ है। और कइयों ने बचपन से ही मेहनत करना आरम्भ किया है। यह भी भिन्न-भिन्न तकदीर की लकीरें हैं। कोई से पूछेंगे तो कहेंगे हमने शुरू से कोई मेहनत नहीं की। श्रीमत पर चलना है, योगी बनना है यह स्वत: लक्ष्य स्वरूप हो गया। ऐसे नहीं, अलबेले होंगे लेकिन स्वत: स्वरूप बन करके चलते हैं। अलबेले भी मेहनत नहीं महसूस करते हैं लेकिन वह है उल्टी बात! उसका फिर भविष्य नहीं बनता है। बाप समान प्राप्ति का अनुभव नहीं करते हैं। बाकी जन्म से अलबेले - बस खाया, पिया और अपनी पवित्र जीवन बिताई, नियम-प्रमाण चलने वाले लेकिन - धारणा को जीवन में लाने वाले नहीं। उनका भी यहाँ नेमीनाथ के रूप में गायन होता है। तो कई सिर्फ नेमीनाथ भी हैं। योग में, क्लास में आयेंगे सबसे पहले। लेकिन पाया क्या? कहेंगे हाँ सुन लिया। आगे बढ़ना-बढ़ाना वह लक्ष्य नहीं होगा। सुन लिया मजा आ गया, ठीक है। आया, गया, चला, खाया - ऐसे को कहेंगे - नेमीनाथ। फिर भी ऐसों की भी पूजा होती है। इतना तो करते हैं कि नियम प्रमाण चल रहे हैं। उसका भी फल - पूज्य बन जाते हैं। बरसात में अनन्य नहीं आयेंगे लेकिन वह जरूर आयेंगे। फिर भी पवित्र रहते हैं इसलिए पूज्य जरूर बन जाते हैं। ऐसे भी तो चाहिए ना। दस वर्ष भी हो जायेंगे - तो भी अगर उनसे कोई बात पूछते तो पहले दिन का उत्तर होगा वही 10 वर्ष के बाद भी देंगे। अच्छा-
अभी बापदादा वतन में बहुत चिटचैट करते हैं। दोनों स्वतंत्र आत्मायें हैं। सेवा तो सेकण्ड में किया, सर्व को अनुभव कराया फिर आपस में क्या करेंगे? रूह-रूहान करते रहते हैं। ब्रह्मा बाप की यही जन्म के पहले दिन की आशा थी। कौन-सी? सदा यह फखुर और नशा रहा - कि मैं भी बाप समान जरूर बनूँगा। आदि के ब्रह्मा के बोल याद हैं? ‘‘आ रहा हूँ, समा रहा हूँ,'' यही सदा नशे के बोल जन्म के संकल्प और वाणी में रहे। तो यही आदि के बोल अब कार्य समाप्त कर जो लक्ष्य रखा है उसी लक्ष्य रूप में समा गये। पहले अर्थ मालूम नहीं था लेकिन बनी हुई भावी पहले से बोल रही थी। और लास्ट में क्या देखा? बाप समान व्यक्त के बन्धन को कैसे छोड़ा! साँप के समान पुरानी खाल छोड़ दी ना! और कितने में खेल हुआ? घड़ियों का ही खेल हुआ ना। इसको कहा जाता है बाप समान व्यक्त भाव को भी सहज छोड़ ‘नष्टोमोहा स्मृति स्वरूप'। यह संकल्प भी उठा - मैं जा रहा हूँ, क्या हो रहा है! बच्चे सामने हैं लेकिन देखते भी नहीं देखा। सिर्फ लाइट-माइट, समानता की दृष्टि देते उड़ता पंछी उड़ गया। ऐसे ही अनुभव किया ना! कितनी सहज उड़ान हुई, जो देखने वाले देखते रहे और उड़ने वाला उड़ गया। इसको कहा जाता है - आदि में यही बोल और अन्त में वह स्वरूप हो गया। ऐसे ही फालो फादर। अच्छा-''
डबल विदेशियों के साथ
सभी स्नेही और सहयोगी आत्मायें हो ना! स्नेह के कारण बाप को पहचाना और सहयोगी आत्मा हो गये। तो स्नेही और सहयोगी हो, सेवा का उमंग उत्साह सदा रहना है लेकिन बाकी क्या रह गया? स्नेही-सहयोगी के साथ सदा शक्ति स्वरूप। शक्तिशाली आत्मा सदा विघ्न-विनाशक होगी और जो विघ्न विनाशक होंगे वह स्वत: ही बाप के दिलतख्तनशीन होंगे। तख्त से नीचे लाने वाली है ही माया का कोई-न-कोई विघ्न। तो जब माया ही नहीं आयेगी तो फिर सदा तख्तनशीन रहेंगे। उसके लिए सदा अपने को कम्बाइन्ड समझो। हर कर्म में भिन्न-भिन्न सम्बन्ध से साथ का अनुभव करो। तो सदा साथ में रहेंगे, सदा शक्तिशाली भी रहेंगे और सदा अपने को रमणीक भी अनुभव करेंगे। किसी भी प्रकार का अकेलापन नहीं महसूस करेंगे क्योंकि भिन्न-भिन्न सम्बन्ध में साथ रहने वाले सदा रमणीक और खुशी का अनुभव करते हैं। वैसे भी जब सदा एक ही बात होती है, एक ही बात रोज-रोज सुनो वा करो तो दिल उदास हो जाती है। तो यहाँ भी बाप के साथ भिन्न-भिन्न सम्बन्धों का अनुभव करने से सदा उमंग उत्साह बना रहेगा। सिर्फ बाप है, मैं बच्चा हूँ यह नहीं, भिन्न-भिन्न सम्बन्ध का अनुभव करो। तो जैसे मधुबन में आने से ही अपने को मनोरंजन में अनुभव करते हो और साथ का अनुभव करते हो ऐसे ही अनुभव करेंगे कि पता नहीं दिन से रात, रात से दिन कैसे हुआ? वेसे भी विदेशी लोग चेन्ज पसन्द करते हैं। तो यहाँ भी एक द्वारा भिन्न-भिन्न अनुभव करने का बहुत अच्छा चांस है।
महावीर की विशेषता - सदा एक बाप दूसरा न कोई
सदा अपने को महावीर समझते हो? महावीर की विशेषता - एक राम के सिवाए और कोई याद नहीं! तो सदा एक बाप दूसरा न कोई ऐसी स्मृति में रहने वाले ‘सदा महावीर'। सदा विजय का तिलक लगा हुआ हो। जब एक बाप दूसरा न कोई तो अविनाशी तिलक रहेगा। संसार ही बाप बन गया। संसार में व्यक्ति और वस्तु ही होती, तो सर्व सम्बन्ध बाप से तो व्यक्ति आ गये और वस्तु, वह भी सर्व प्राप्ति बाप से हो गई। सुख-शान्ति-ज्ञान-आनन्द-प्रेम.. सर्व प्राप्तियाँ हो गई। जब कुछ रहा ही नहीं तो बुद्धि और कहाँ जायेगी, कैसे? अच्छा-
13-06-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“मुख्य सेवाधारी (टीचर्स बहनों) के संगठन के अव्यक्त बापदादा के मधुर महावाक्य”
‘‘आज बच्चों के संगठन और स्नेह, सहयोग, परिवर्तन का दृढ़ संकल्प, इस खुशबू को लेने के लिए आये हैं। बच्चों की खुशी में बापदादा की खुशी है। सदा यह अविनाशी खुशी और अविनाशी खुशबू बच्चों के साथ रहे - ऐसा ही अविनाशी संकल्प किया है ना! शुरू-शुरू में आदि स्थापना के समय एक दो को क्या लिखते थे और कहते थे - वह याद है? क्या शब्द बोलते थे? - ‘‘प्रिय निज आत्मा''। यही आत्म-अभिमानी बनने और बनाने का सहज साधन रहा। नाम, रूप नहीं देखते थे। याद हैं वह अभ्यास के दिन! कितना नैचुरल रूप रहा? मेहनत करनी पड़ी? यही आदि शब्द अभी गुह्य रहस्य सहित प्रैक्टिकल में लाओ तो स्वत: ही स्मृति स्वरूप हो जायेंगे। ‘‘एक'' का मन्त्र - एक बाप, एक घर, एक मत, एक रस, एक राज्य, एक धर्म, एक नाम, एक आत्मा, एक रूप। ‘‘एक'' का मन्त्र सदा याद रहे तो क्या हो जायेगा? सर्व में एक दिखाई देगा। यह सहज है ना! जब एक ही दिखाई देगा तो जो गीत गाते हो - मेरा तो एक बाप... यह स्वत: ही होगा। ऐसा ही संकल्प किया है ना!
बापदादा तो सिर्फ नैन मिलन करने आये हैं। बच्चों ने बुलाया और बाप आये। बाप ने बच्चें के स्नेह का रेसपान्ड दिया। जो कहा वह हुआ ना! आप लोगों ने संदेश भेजा कि दो घड़ी के लिए भी आओ। सबका संदेश तो पहुँच गया! आपका संकल्प करते ही बापदादा ने सुन लिया। वाणी में आने से पहले बापदादा के पास पहुँच जाता है।
(जयन्ति बहन को देख) विदेश से आना क्या सिद्ध करता है? दिल दूर नहीं तो देश भी दूर नहीं। दिल नजदीक है। इसलिए यह भी एक दो के समीप होने का सबूत है। सदा एक दो के साथी हैं, यह प्रैक्टिकल स्वरूप दिखाया। यही मुरबी बच्चों की निशानी है। बापदादा निमित्त बने हुए, सदा उमंग उत्साह बढ़ाने वाली विशेष आत्मा को प्रत्यक्ष सबूत की मुबारक दे रहे हैं। एक आप को नहीं देख रहे हैं लेकिन सभी बच्चों की दिल यहाँ है और देह वहाँ है। ऐसे सर्व बच्चों को भी बापदादा संगठन में देख रहे हैं। याद तो वैसे भी उन्हों को पहुँच जाती है फिर भी सभी बच्चों को देख स्नेह के सूत्र में बंधे हुए सदा समीप रहने वाली आत्माओं को विशेष यादप्यार दे रहे हैं। ऐसे तो देश में से भी जो बच्चे साकार में यहाँ नहीं है लेकिन उन्हों की भी दिल यहाँ है। उन बच्चों को भी बापदादा विशेष यादप्यार दे रहे हैं। अच्छा -''
(निर्वैर भाई विदेश सेवा पर जाने की छुट्टी ले रहे हैं)
यह भी जा रहे हैं! एवररेडी बन गये ना! इसको कहा जाता है मीठा ड्रामा। तीनों बिन्दियों के तिलक की सौगात हो गई। जब से संकल्प किया और तीन बिन्दियों का तिलक ड्रामा अनुसार फिर से लग गया। लगा हुआ है और फिर से लग गया। यह अविनाशी तिलक सदा मस्तक पर लगा हुआ है ना! तीनों ही बिन्दी साथ-साथ हैं। बापदादा ने इस तिलक से वतन में स्वागत कर लिया, ठीक है ना! विशेष कौन से स्वरूप द्वारा सन्देश देने जा रहे हो? विशेष पाठ क्या याद दिलायेंगे?
‘‘सदा उमंग उत्साह में उड़ते चलो'' यही विशेष पाठ सभी को अनुभव द्वारा पढ़ाना। अनुभव द्वारा पाठ पढ़ना यह अविनाशी पाठ हो जाता है। तो विशेष नवीनता यही हो - अनुभव में रह अनुभव कराना। मुख की पढ़ाई तो बहुत समय चली। अभी सभी को इसी पढ़ाई की आवश्यकता है। इसी विधि द्वारा सभी को उड़ती कला में ले जाना। क्योंकि अनुभव बड़े से बड़ी अथार्टी है। जिसको अनुभव की अथार्टी है उसको और कोई अथार्टी वार नहीं कर सकती। माया की अथार्टी चल नहीं सकती। तो यही विधि विशेष ध्यान में रखकर चक्कर लगाना। तो यह नवीनता हो जायेगी ना। क्योंकि जब भी कोई जाता है तो तभी सभी यही सोचते हैं कि कोई नवीनता मिले। बोलना और स्वरूप बनकर स्वरूप बनाना, यह साथ-साथ हो। आपकी पसन्दी भी यह है ना! ड्रामा अनुसार अभी समय जो नूँधा हुआ है वही सेवा के लिए योग्य समझो। संकल्प तो समाप्त हो गया ना! एवररेडी बन सब तैयारियाँ भी सेकण्ड में हो गई हैं ना। स्थूल साधन तो वहाँ सब हैं। बने बनाये साधन हैं। कुछ रह गया तो भी कोई बड़ी बात नहीं। यहाँ से तो दो ड्रेस में भी चले जाओ तो हर्जा नहीं। वहाँ रेडीमेड मिल जाता है। सूक्ष्म तैयारी तो हो गई है ना! स्थूल तैयारी बड़ी बात नहीं।
उन्हों को खुशखबरी सुनानी है। वे चाहते हैं कि विनाश न हो। इस दुनिया की स्थापना ही रहे। विनाश से डरते क्यों हैं? क्योंकि समझते हैं हमारी यह दुनिया खत्म हो जायेगी इसलिए डरते हैं। लेकिन दुनिया तो और ही नई आने वाली है। उन्हों को यह खुशखबरी मिल जाए तो जो आप सबका संकल्प है कि हमारी यह दुनिया सदा वृद्धि को पाती रहे और अच्छे ते अच्छे बनती जाए, यह आपका संकल्प विश्व के रचयिता बाप के पास पहुँच गया है। और विश्व का मालिक, विश्व में शान्ति स्थापना हो - उसका कार्य करा रहे हैं। और जो आप सब की आश है कि एक विश्व हो जाए, विश्व में स्नेह हो, प्यार हो, लड़ाई झगड़ा न हो, यही आप सब आत्माओं की आश पूर्ण होने का समय पहुँच गया है। लेकिन किस विधि से होगा, उस विधि को सिर्फ जानो। विधि यथार्थ है तो सिद्धि भी होगी। सिद्धि तो मिलनी है लेकिन किस विधि द्वारा मिलेगी वह नहीं जानते हैं। कोन्फेरेंस आदि तो करके देखी है, लेकिन संकल्प मन से नहीं निकलता। लड़ाई-झगड़े का बीज ही खत्म हो जाए तो शस्त्र आदि होते भी यूज़ नहीं करना पड़े। क्योंकि नुकसान कोई शस्त्र नहीं करते, नुकसान करने वाला ‘क्रोध' है, ना कि शस्त्र, बीज क्रोध है। तो उसी विधिपूर्वक बीज को ही खत्म कर दें तो सिद्धि हुई पड़ी है। लड़ाई-झगड़े का बीज ही खत्म हो जाए। तो सर्व आत्माओं की आश पूर्ण होने का समय आ गया है। समय सबकी बुद्धि को प्रेर रहा है। गुप्त कार्य जो चल रहा है वह कार्य सभी को अपनी तरफ खींच रहा है लेकिन वह जान नहीं सकते कि यह संकल्प क्यों आ रहा है! बनाया भी खुद और फिर यूज़ न करें यह संकल्प क्यों चल रहा है! तो स्थापना का कायर् प्रेरित कर रहा है लेकिन वह जानते नहीं। यह आप स्वयं समझते हो कि परिवर्तन में विनाश के सिवाए स्थापना होगी नहीं। लेकिन भावना तो उन्हों की भी वही है ना! उन्हों की भावना को लेकर यह खुशखबरी उन्हों को सुनाओ तो विधि यही सुनायेंगे कि - ‘शान्ति के सागर द्वारा ही शान्ति होगी'। हम सब एक हैं। यह ब्रदरहुड की भावना किस आधार से बन सकती? जिससे यह संकल्प ही ना उठे, मेहनत नहीं करनी पड़े। कभी हथियार यूज़ करें, कभी नहीं करें। लेकिन यह संकल्प ही समाप्त हो जाए, ब्रदरहुड हो जाए, यह है विधि। ब्रदरहुड आ गया तो बाप तो है ही। ऐसे खुशखबरी के रूप से उन्हों को सुनाओ। शान्ति का पाठ पढ़ना पड़ेगा। शान्ति की विधि से अशान्ति खत्म होगी। लेकिन वह शान्ति आवे कैसे? उसके लिए फिर ‘मन्त्र' देना पड़े। शान्ति का पाठ पढ़ाते हो ना! मैं भी शान्त, घर भी शान्त, बाप भी शान्ति का सागर, धर्म भी शान्त। तो ऐसा पाठ पढ़ाओ। शान्ति ही शान्ति का पाठ। दो घड़ी के लिए तो अनुभव करेंगे ना। एक घड़ी भी डेड साइलेन्स की अनुभूति हो जाए तो वह बार-बार आपको थैंक्स देंगे। आपको ही भगवान समझने लग जायेंगे। क्योंकि बहुत परेशान हैं ना। जितनी ज्यादा बड़ी बुद्धि है उतनी बड़ी परेशानी भी है, ऐसी परेशान आत्माओं को अगर जरा भी अंचली मिल जाती तो वही उन्हों के लिए एक जीवन का वरदान हो जाता। जिसको भी चांस मिले वह बोलते-बोलते शान्ति में ले जाएँ। एक सेकण्ड भी अनुभूति में उन्हों को ले जाएँ तो वह बहुत-बहुत थैंक्स मानेंगे। वातावरण ऐसा बना दो जो सभी ऐसे अनुभव करें जैसे कोई शान्ति की किरण आ गई है। चाहे एक, आधा सेकण्ड ही अनुभव हो क्योंकि यह तो वायुमण्डल द्वारा होगा ना! ज्यादा समय नहीं रह सकेंगे। एक आधा सेकण्ड भी वायुमण्डल ऐसा हल्का बन जाए तो अन्दर से बहुत शुक्रिया मानेंगे। क्योंकि विचारे बहुत हलचल में हैं। उन्हों को देख बापदादा को तो रहम आता है। ना रात की नींद, न दिन की, भोजन भी खाने की रीति से नहीं खाते। जैसे कि ऊपर में बोझ पड़ा हुआ है। क्या होगा, कैसे होगा! तो ऐसी आत्माओं को एक झलक भी मिल जाए तो क्या मानेंगे! उन्हों के लिए तो समझो सूर्य नीचे उतर आया। एक झलक ही चाहिए। ज्यादा समय तो वह शक्ति को धारण भी नहीं कर सकेंगे। यह तो थोड़ी घड़ी की बात है। जैसे लहर आती और चली जाती है। इतना भी अनुभव हुआ तो उन्हों के लिए तो बहुत है क्योंकि बहुत परेशान हैं। उन्हों को थोड़ा तिनके का सहारा भी बहुत है। अच्छा-
संकल्प पूरा हुआ? बच्चों की खुशी में बाप की खुशी है। सफलता मूर्त हो ना! सफलता तो साथ है ही। जब बाप साथ है तो सफलता कहाँ जायेगी! जहाँ बाप है वहाँ सर्व सिद्धियाँ साथ हैं।
बिन्दी लगाना आता है वा बिन्दी पर फिर क्वेश्चन आ जाता? आजकल की दुनिया में ऐसा बारूद चलाते हैं जो इतनी छोटी बिन्दी से इतना बड़ा सांप बन जाता है। यहाँ भी लगानी चाहिए बिन्दी। बिन्दी में सब समा जाता है। अगर संकल्प की तीली लगा देते तो फिर वह सांप हो जाता। न तीली लगाओ, न सांप बने। बापदादा बच्चों का यह खेल देखता रहता है। जो होता, सब में कल्याण भरा हुआ है। ऐसा क्यों वा क्या? नहीं। जो कुछ अनुभव करना था वह किया। परिवर्तन किया और आगे बढ़ो। यह है बिन्दी लगाना। सभी विदेशियों को भी यह खेल बताना। उन्हों को ऐसी बातें अच्छी लगती है।
(पूना की हरदेवी, विदेश जाने की छुट्टी ले रही थी)
विशेष विधि क्या रहेगी? पालना ली है, वही पालना सभी की करना। प्यार और शान्ति इन दो बातों द्वारा सबकी पालना करना। प्यार सबको चाहिए और शान्ति सबको चाहिए। यह दो सौगातें सबके लिए ले जाना। सिर्फ प्यार से दृष्टि दी और दो बोल बोले - वह स्वत: ही समीप ही समीप आते जायेंगे। जैसे पालना ली है, पालना की अनुभवीमूर्त तो बहुत हो ना? तो वही पालना का अनुभव औरों को कराना। टापिक पर भाषण भल नहीं करना लेकिन सबसे टाप की चीज है - ‘प्यार और शान्ति की अनुभूति'। तो यह टाप की चीजें दे देना जो हर आत्मा अनुभव करें कि ऐसा प्यार तो हमको कभी मिला नहीं, कभी देखा ही नहीं। प्यार ऐसी चीज है जो प्यार के अनुभव के पीछे स्वत: ही खिंचते हैं। बहुत अच्छा है। आदि महावीर जा रहे हैं। सती और कुन्ज भी गई हैं ना। पालना के स्वरूप जा रहे हैं, बहुत अच्छा है। इन्हों द्वारा साकार से सहज सम्बन्ध जुट जायेगा। क्योंकि इन्हों की रग-रग में बाप की पालना समाई हुई है। तो चलतेफिरते वही दिखाई देगा जो अन्दर समाया हुआ होगा। आप द्वारा बाप के पालना की अनुभूति होगी। भल खुशी से जाओ। बापदादा भी खुश हैं बच्चों के जाने में। क्योंकि घूमने फिरने वाले तो हैं नहीं। यज्ञ के हड्डी सेवाधारी हैं। उन्हों के एक- एक कदम में सेवा होगी। इसलिए बापदादा भी खुश हैं बच्चों के चक्रवर्ता बनने में (चन्द्रमणि और दादी जी बाबा के पास में बैठी हैं)
यह तो बारात की शान हैं। बापदादा का विशेष श्रृंगार यह हैं। आप सभी के आगे परिवार के श्रृंगार कौन हैं? यही (दादियाँ) हैं ना। आज सबके मन में इन विशेष आत्माओं प्रति सदा क्या संकल्प रहता कि यह सदा जीती रहें। यह सब आप लोगों को अमर भव का सहयोग देती रहती। एक दादी को भी कुछ होता है तो सबका संकल्प चलता है ना! यह स्थूल में निमित्त छत्रछाया हैं। वैसे तो बाप की छत्रछाया है लेकिन निमित्त यह अनुभवी आत्माएँ मास्टर छत्रछाया हैं। कभी धूप अथवा कभी बारिश आती है तो छत्रछाया में चले जाते हैं ना। आप लोग के पास भी कोई प्राब्लम आती है तो क्या करते हो? साकार में इन्हों के पास आना पड़ता है। बाप से तो रूह-रूहान करेंगे लेकिन पत्र तो मधुबन में लिखेंगे ना! जैसे वहाँ देखा है ना जहाँ एक्सकरशन करने जाते हैं तो बीच-बीच में छतरी लगा देते हैं फिर उनके बीच मनोरंजन प्रोग्राम करते हैं। यह भी ऐसे हैं। छतरियाँ जहाँ-तहाँ लगी हुई है। जब कुछ होता तो मनोरंजन भी करते हैं। मधुबन में हंसते, नाचते, गाते हो ना। तो बापदादा को भी खुशी होती है। बच्चे मनोरंजन मना रहे हैं। यही स्नेह सभी को बाप के स्नेह तरफ आकर्षित करता है। जैसे यह निमित्त बनी हुई हैं ऐसे ही आप भी अपने को हर स्थान की छतरी समझो। जिनके निमित्त बनते हो उन्हों को सेफ्टी का साधन मिल जाए। झुकाव नहीं हो लेकिन सहारा दो। निमित्त बनकर सहारा, सहयोग देना दूसरी बात है लेकिन सहारे दाता बनकर सहारा नहीं दो। निमित्त बन सहारा देना और सहारे दाता बन सहारा देना, इसमें अन्तर हो जाता है। अगर आप नहीं समझते हो कि मैं सहारा हूँ परन्तु दूसरा आपको समझता है तो भी नाम तो दोनों का होगा ना! सेवा समझ करके निमित्त बन उमंग-उत्साह बढ़ाने का सहारा देना, इस विधि पूर्वक सहारा दे तो कभी भी रिपोर्ट नहीं निकले। सब कुछ उनको ही समझने लग जाते कि यह मेरा सहारा है, इसको कहा जाता है - सहारा दाता बन सहारा दिया। लेकिन सेवा समझ निमित्त बन सहयोग का सहारा देना वह दूसरी बात है। आप सब कौन हो?
अन्त में सब पार्टधारी इकट्ठे स्टेज पर आयेंगे। चाहे इस शरीर द्वारा सेवाधारी, चाहे भिन्न-भिन्न शरीर द्वारा सेवाधारी। सब इकट्ठे पार्टधारी स्टेज पर आना अर्थात् जयजयकार हो समाप्ति होना क्योंकि उन्हों का है ही गुप्त रूप में स्थापना के सहयोगी का पार्ट। आप प्रत्यक्ष रूप में हो। वह गुप्त रूप में अपना स्थापना का पार्ट बजा रहे हैं, अभी प्रत्यक्ष नहीं होंगे क्योंकि पर्दा उठने का समय तब आये जब सब एवररेडी हो जाएँ। सम्पन्न हो जाएँ। पर्दा उठा फिर तो समाप्ति होगी ना। ऐसे सब तैयार हैं? पर्दा उठने की तैयारी है? अभी वारिस क्वालिटी की माला तैयार हुई है? 108 भी सम्पन्नता के काफी समीप हों, बिल्कुल सम्पन्न हो जाएं। समय के हिसाब से भी सम्पूर्णता के नजदीक हों। ऐसे समझते हो? उसकी निशानी क्या होगी? माला की विशेषता क्या होगी? माला तैयार है उसकी विशेष निशानी क्या दिखाई देगी? एक के साथ एक दाना मिला हुआ है। यह माला की निशानी है। माला की विशेषता है - एक दो के संस्कारों के समीप। दाने से दाना मिला हुआ। वह तैयारी है? जिसको भी देखें, चाहे 108वाँ नम्बर हो लेकिन दाना मिला हुआ, तो वह भी है ना! ऐसे जुड़े हुए हैं। सभी को यह महसूसता आवे कि यह तो माला के समान पिरोये हुए मणके हैं। ऐसे नहीं - संस्कार सबके वैरायटी हैं तो नजदीक कैसे होंगे? नहीं। वैरायटी संस्कार होते भी समीप दिखाई दें। वैरायटी के आधार पर नम्बर हो गये लेकिन दाने तो नजदीक हैं ना - एक दो के। जब तक एक दूसरे से न मिलें तब तक माला बन नहीं सकती। एक भी दाना निकल जाए तो माला खण्डित हो जाए। पूज्य माला नहीं कही जायेगी। दूर भी रह जाए तो भी कहेंगे यह पूज्यनीय माला नहीं। 108वाँ नम्बर भी अगर थोड़ा दूर है तो माला रेडी नहीं हो सकती। अच्छा-
बापदादा ने सभी बच्चों प्रति यादप्यार टेप में भरी-
सर्व लगन में मगन रहने वाले बच्चों को यादप्यार के साथ बापदादा सभी बच्चों के उमंग उत्साह देख सदा हर्षित होते हैं। सभी के यादप्यार और पुरूषार्थ के उमंग-उत्साह के और विघ्न विनाशक बनने के पत्र बापदादा के पास आये हैं और बापदादा सभी विघ्न विनाशक बच्चों को यादप्यार दे रहे हैं और सदा ही मायाजीत, सदा ही मास्टर सर्वशक्तिवान की स्मृति की सीट पर स्थित हो डबल लाइट बन उड़ते और उड़ाते चलो। तो चारों ओर के, सिर्फ विदेशी नहीं लेकिन सब दिल तख्तनशीन बच्चों को दिलाराम बाप की तरफ से बहुत-बहुत याद...ओम् शान्ति।
25-12-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“विधि, विधान और वरदान”
विश्व अधिकारी, विश्व निर्माता, वरदानी मूर्त अव्यक्त बाप-दादा, बड़े दिन के अवसर पर अपने बच्चों के प्रति बोले:-
‘‘आज सर्व स्नेही बच्चों के स्नेह का रेसपान्ड करने के लिए बापदादा को भी मिलने के लिए आना पड़ा है। सारे विश्व के बच्चों के स्नेह का, याद का आवाज बाप-दादा के वतन में मीठे-मीठे साज के रूप में पहुँच गया। जैसे बच्चे स्नेह के गीत गाते हैं, बापदादा भी बच्चों के गुणों के गीत गाते हैं। जैसे बच्चे कहते कि ऐसा बाप-दादा कल्प में नहीं मिलेगा, बाप-दादा भी बच्चों को देख कहते कि ऐसे बच्चे भी कल्प में नहीं मिलेंगे। ऐसी मीठी-मीठी रूह-रूहान बाप और बच्चों की सदा सुनते रहते हो? बाप और आप कम्बाइन्ड रूप हैं ना। इसी स्वरूप को ही ‘सहजयोगी' कहा जाता है। योग लगाने वाले नहीं लेकिन सदा कम्बाइन्ड अर्थात् साथ रहने वाले। ऐसी स्टेज अनुभव करते हो वा बहुत मेहनत करनी पड़ती है? बचपन का वायदा क्या किया? साथ रहेंगे, साथ जियेंगे, साथ चलेंगे। यह वायदा किया है ना, पक्का? साकार की पालना के अधिकारी आत्मायें हो। अपने भाग्य को अच्छी तरह से सोचो और समझो।''
(बापदादा के सामने (हांगकांग के) दादाराम और सावित्री बहन का लौकिक परिवार बैठा हुआ है)
ऐसे कोटों में कोई भाग्य विधाता के सम्मुख सम्पर्क में आते हैं। अभी समय आने पर यह अपना भाग्य स्मृति में आयेगा। आदि पिता को पाना - यह है भाग्य की श्रेष्ठ निशानी। सदा साथ रहने वाले निरन्तर योगी, सदा सहजयोगी, उड़ती कला में जाने वाले, सदा फरिश्ता स्वरूप हो!
आज बड़ा दिन मनाने के लिए बुलाया है। बड़े ते बड़े बाप के साथ बड़े ते बड़े बच्चे बड़ा दिन और मिलन मना रहे हैं। बड़ा दिन अर्थात् उत्सव का दिन। जब बड़ा दिन मनाते हैं तो बुरे दिन समाप्त हो जाते हैं। सिर्फ आज का दिन मनाने का नहीं, लेकिन सदा मनाना अर्थात् उमंग उत्साह में सदा रहना। अविनाशी बाप, अविनाशी दिन, अविनाशी मनाना। बड़ा दिन मनाना अर्थात् स्वयं को सदा के लिए बड़े ते बड़ा बनाना। सिर्फ मनाना नहीं है लेकिन बनना और बनाना है। सर्व आत्माओं को बड़े दिन की गिफ्ट कौन सी देंगे? जो भी आत्मा सम्पर्क में आवे उनको ईश्वरीय अलौकिक स्नेह, शक्ति, गुण, सर्व का सहयोग देने की लिफ्ट की गिफ्ट दो। जिससे ऐसी सम्पन्न आत्मायें बन जाएँ जो कोई भी अप्राप्ति अनुभव न करें। ऐसी गिफ्ट दे सकते हो? स्वयं सम्पन्न हो? औरों को देने के लिए पहले अपने पास जमा होगा तब तो दे सकेंगे ना। अच्छा - - आज तो गिफ्ट देने और गिफ्ट लेने आये हैं ना। सिर्फ लेंगे वा देंगे भी? शक्ति सेना क्या करेगी? लेने और देने में मजा आता है वा सिर्फ लेने में? दाता को देना हुआ या लेना हुआ? बाप भी लेते हैं किस लिए? पदमगुणा करके परिवर्तन कर देने के लिए। बाप को आवश्यकता है क्या? बाप के पास है ही बच्चों को देने के लिए। इसलिए बाप दाता भी है, विधाता भी है, वरदाता भी है। जितना बाप बच्चों के भाग्य को जानते उतना बच्चे अपने भाग्य को नहीं जानते। यह भाग्य के दिन, सदा समर्थ बनाने के दिन याद रखना। यह सारा ही लकी परिवार है क्योकि इस परिवार के निमित्त बीज की विशेष शुभभावना और शुभकामना, इस आशीर्वाद से यह वृक्ष आगे बढ़ रहा है और बढ़ता ही रहेगा। उस आत्मा की श्रेष्ठ कामनायें सारे परिवार को लिफ्ट की गिफ्ट के रूप में मिली हुई हैं क्योंकि पवित्र शुद्ध आत्मा थी। इसलिए पवित्रता का जल प्रत्यक्ष फल दे रहा है। समझा? साकार रूप में निमित्त माता गुरू (सावित्री) भी बैठी है। माता गुरू बनी और पिता ने लिफ्ट की गिफ्ट दी। अब इस परिवार को क्या करना है? फालो फादर तो करना है ना। इसमें कुछ छोड़ना नहीं पड़ेगा, डरो नहीं। अच्छा।
डबल विदेशी बच्चे भी पहुँच गये हैं। बाप-दादा भी अभी विदेशी हैं, ब्रह्मा बाप भी तो विदेशी हो गया ना। विदेशी, विदेशी से मिले तो कितनी बड़ी अच्छी बात है। बाप-दादा को सर्व बच्चों की, उसमें भी विशेष निमित्त डबल विदेशी बच्चों की एक विशेष बात देख हर्ष होता है। वह कौन सी? विदेशी बच्चों के विशेष मिलन की लगन बापदादा के पास आज विशेष रूप में पहुँची। साकारी दुनिया के हिसाब से भी आज का दिन विशेष विदेशियों का माना हुआ है। टोली, मिठाई खाई वा अभी खानी है? बाप-दादा मिठाई खिलाते-खिलाते मीठा बना देते हैं, स्वयं ही मीठे बन गये ना! चारों और के आये हुये बच्चों को, मधुबन निवासी बच्चों को बापदादा स्नेह का रिटर्न सदा कम्बाइन्ड अर्थात् सदा साथ रहने का वरदान और वर्सा दे रहे हैं। डबल अधिकारी हो। वर्सा भी मिलता है और वरदान भी। जहाँ कोई मुश्किल अनुभव हो तो वरदाता के रूप में स्मृति में लाओ। तो वरदाता द्वारा वरदान रूप में प्राप्ति होने से मुश्किल सहज हो जायेगी और प्रत्यक्ष प्राप्ति की अनुभूति होगी।
आज के दिन का विशेष स्लोगन सदा स्मृति में रखना। तीन शब्द याद रखना - ‘विधि, विधान और वरदान'। विधि से सहज सिद्धि स्वरूप हो जायेंगे। विधान से विश्व निर्माता, वरदान से वरदानी मूर्त बन जायेंगे। यही तीन शब्द सदा समर्थ बनाते रहेंगे। अच्छा –
चारों ओर के सर्व सिकीलधे, बड़े ते बड़े बाप के बड़े ते बड़े बच्चे, सर्व को सम्पन्न बनाने वाले, ऐसे मास्टर विधाता, वरदानी बच्चों को, माया को विदाई देने की बधाई।। इस बधाई के साथ-साथ आज विशेष रूप में बच्चों को उमंग-उत्साह की भी बधाई। सर्व को, जो आकार वा साकार में सम्मुख हैं, ऐसे सर्व सम्मुख रहने वाले बच्चों को बहुत-बहुत याद प्यार और नमस्ते।
दीदी-दादी से –
आप दोनों को देख बापदादा को क्या याद आता होगा? जहाँन के नूर तो हो ही लेकिन पहले बाप के नयनों के नूर हो। कहावत है कि - ‘नूर नहीं तो जहाँन नहीं'। तो बापदादा भी नूरे रत्नों को ऐसे ही स्थापना के कार्य में विशेष आत्मा देखते हैं। करावनहार तो कर रहा है, लेकिन करनहान निमित्त बच्चों को बनाते हैं। ‘करनकरावनहार', इस शब्द में भी बाप और बच्चे दोनों कम्बाइन्ड हैं ना। हाथ बच्चों का और काम बाप का। हाथ बढ़ाने का गोल्डन चांस बच्चों को ही मिला है। बड़े ते बड़ा कार्य भी कैसा लगता है? अनुभव होता है ना कि कराने वाला करा रहा है। निमित्त बनाए चला रहा है। यही आवाज सदा मन से निकलता है। बापदादा भी सदा बच्चों के हर कर्म में करावनहार के रूप में साथी हैं। साथ हैं वा चले गये हैं? आँख मिचौली का खेल खेला है। खेल भी बच्चों से ही करेंगे ना। खेल में क्या होता है? ताली बजाई और खेल शुरू हुआ। यह भी ड्रामा की ताली बजी और आँख मिचौली का खेल शुरू हुआ।
अब स्वीट होम का गेट कब खोलेंगे? जैसे कोन्फेरेंस की डेट फिक्स की है, हाल बनाने की डेट फिक्स की, तो उसका प्रोग्राम नहीं बनाया? गेट खोलने के पहले सामग्री तो आप तैयार करेंगे वा वह भी बाप करे - वह तैयार है? ब्रह्मा बाप तो एवररेडी है ही। अब साथी भी एवररेडी चाहिए ना।
8 की माला बना सकते हो? अभी बन सकती है? पहले 8 की माला तैयार हो गई तो फिर और पीछे वाले तैयार हो ही जायेंगे। आठ एवररेडी हैं? नाम निकाल कर भेजना। सभी वेरीफाय करें कि हाँ। इसको कहेंगे एवररेडी। बाप पसन्द, ब्राह्मण परिवार पसन्द और विश्व की सेवा के पसन्द। यह तीनों विशेषता जब होगी तब कहेंगे एवररेडी हैं। पहले कंगन तैयार होगा फिर बड़ी माला तैयार होगी। अच्छा –
सावित्री बहन से – अपने गुप्त वरदानों को प्रत्यक्ष रूप में देख रही हो? अब समझती हो मैं कौन हूँ? सर्विसएबुल की लिस्ट में अपना नम्बर आगे समझती हो ना! सर्विस के प्रत्यक्ष फल के निमित्त बनी। निमित्त तो फिर भी बीज कहेंगे ना। सर्विसएबुल की लिस्ट में बहुत आगे हो, सिर्फ कभी-कभी अपने को भूल जाती हो। जब बापदादा स्वीकार कर रहे हैं तो बाकी क्या चाहिए। सभी की सर्विस एक जैसी नहीं होती। वैरायटी आत्मायें हैं, वैरायटी सेवा का तरीका है। ज्यादा सोचने से नहीं होगा, स्वत: होगा। अपने को सदा बाप के समीप रत्न समझो, अधिकारी जन्म से हो। जन्म से फास्ट गई ना। समीप रहने का वरदान जन्मते ही मिला। साकार में समीप रहने का वरदान कितनों को मिला? गिनती करो तो ऐसे वरदानी ढूँढते भी मुश्किल मिलेंगे। इसलिए बाप के समीप समझते हुए आगे बढ़ते रहो। जितना होता, जैसा होता कल्याणकारी। सोचो नहीं, नि:संकल्प रहो। बाप का वायदा है, बाप सदा साथ निभाते रहेंगे। अपना संकल्प भी बाप के ऊपर छोड़ दो। सर्विस बढ़ेगी या नहीं बढ़ेगी, बाप जाने। नहीं बढ़ेगी तो बाप जिम्मेवार है, आप नहीं। इतनी निश्चिन्त रहो। आपने तो बाप के आगे अपना संकल्प रख दिया ना। तो जिम्मेवार कौन? सिकीलधी हो - कितने सिक से बाप ने ढूँढ़ा। पहला-पहला सेवा का रत्न सारी विश्व से चुना है, इसलिए भूलो नहीं। अच्छा।''
सावित्री बहन के लौकिक परिवार वालों से
‘‘सभी डबल वर्से के अधिकारी हो ना। लौकिक बाप के भी श्रेष्ठ संकल्प का खजाना मिला और पारलौकिक बाप का भी वर्सा मिला। अलौकिक का भी वर्सा मिला। तीन का वर्सा साथ-साथ मिला। तीनों बाप के आशाओं के दीपक हो। वैसे भी बच्चे को कुल का दीपक कहा जाता है। कुल के दीपक तो बने लेकिन साथ-साथ विश्व के दीपक बनो। सदा मस्तक पर भाग्य का सितारा चमक रहा है, बापदादा भी ऐसे हिम्मत रखने वाले बच्चों को सदा मदद करते हैं। जब भी संकल्प किया और बाप हाजर। बाप के ऊपर सारा कार्य छोड़ दिया तो बाप जाने, कार्य जाने। स्वयं सदा डबल लाइट फरिश्ता, ट्रस्टी बनकर रहो तो सदा हल्के रहेंगे। साफ दिल मुराद हासिल। श्रेष्ठ संकल्पों की सफलता जरूर होती है, एक श्रेष्ठ संकल्प बच्चे का और एक हजार श्रेष्ठ संकल्प का फल बाप द्वारा प्राप्त हो जाता है। एक का हजार गुणा मिल जाता है। अभी जो खजाने बाप के मिले हैं, उन्हें बाँटते रहो। महादानी बनो। सदैव कोई भी आवे तो आपके भंडारे से खाली न जाए। ज्ञान का फाउन्डेशन पड़ा हुआ है, वही बीज अभी फल देगा। अच्छा-''
विदाई के समय बापदादा ने सभी बच्चों प्रति टेप में याद प्यार भरी
‘‘चारों ओर के सभी स्नेही बच्चों की यादप्यार और बधाई पाई। बापदादा के साथ सभी बच्चे दिल तख्तनशीन हैं। जो दिल पर हैं वह भूल कैसे सकते हैं! इसलिए सदा बच्चे साथ हैं और साथ ही रहेंगे, साथ ही चलेंगे। बापदादा सर्व बच्चों के दिल के उमंग-उत्साह और सेवा में वृद्धि और मायाजीत बनने के समाचार भी सुनते रहते हैं। हरेक बच्चा महावीर है, महावीर बन विजय का झण्डा लहरा रहे हैं। इसलिए बापदादा सभी को विजय की मुबारक देते हैं। बधाई दे रहे हैं। सदा बड़े बाप के साथ बड़े से बड़े दिन उमंग-उत्साह से बिता रहे हो और सदा ही बड़े दिन मनाते रहेंगे। हरेक बच्चा यही समझे कि विशेष मेरे नाम से यादप्यार आया है। हरेक बच्चे को नाम सहित बापदादा सामने देखते हुए, मिलन मनाते हुए यादप्यार दे रहे हैं। अच्छा-''
प्रश्न:- एयरकन्डीशन की सीट बुक कराने का तरीका क्या है?
उत्तर:- एयरकन्डीशन की सीट बुक कराने के लिए बाप ने जो भी कन्डीशन्स बताई हैं उन पर सदा चलते रहो। अगर कोई भी कन्डीशन को अमल में नहीं लाया तो एयरकन्डीशन की सीट नहीं मिल सकेगी। जो कहते हैं कोशिश करेंगे तो ऐसे कोशिश करने वालों को भी यह सीट नहीं मिल सकती है।
प्रश्न:- कौन सा एक गुण परमार्थ और व्यवहार दोनों में ही सर्व का प्रिय बना देता है?
उत्तर:- एक दो को आगे बढ़ाने का गुण अर्थात् ‘‘पहले आप'' का गुण परमार्थ और व्यवहार दोनों में ही सर्व का प्रिय बना देता है। बाप का भी यही मुख्य गुण है। बाप कहते - ‘बच्चे पहले आप।' तो इसी गुण में फालो फादर।
28-12-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“सदा एक रस, सम्पूर्ण चमकता हुआ सितारा बनो”
परमशिक्षक, सदगुरू, बाप अपने चमकते हुए सितारों, बच्चों प्रति बोले :-
‘‘बापदादा सभी बच्चों को देख हर बच्चे के वर्तमान लगन में मगन रहने की स्थिति, और भविष्य प्राप्ति को देख हर्षित हो रहे हैं। क्या थे, क्या बने हैं और भविष्य में भी क्या बनने वाले हैं। हरेक बच्चा विश्व के आगे विशेष आत्मा है। हर एक के मस्तक पर भाग्य का सितारा चमक रहा है। ऐसा ही अभ्यास हो, सदा चमकते हुए सितारे को देखते रहें, इसी प्रैक्टिस को सदा बढ़ाते चलो। जहाँ देखो, जब भी किसको देखो, ऐसा नैचुरल अभ्यास हो जो शरीर को देखते हुए न देखो। सदा नज़र चमकते हुए सितारे की तरफ जाये। जब ऐसी रूहानी नज़र सदा नैचुरल रूप में हो जायेगी तब विश्व की नज़र आप चमकते हुए धरती के सितारों पर जायेगी। अभी विश्व की आत्मायें ढूँढ रही हैं। कोई शक्ति कार्य कर रही है, ऐसी महसूसता, ऐसी टाचिंग अभी आने लगी है। लेकिन कहाँ है, कौन है, यहæ ढूँढते हुए भी जान नहीं सकते। भारत द्वारा ही आध्यात्मिक लाइट मिलेगी, यह भी धीरे-धीरे स्पष्ट होता जा रहा है। इस कारण विश्व की चारों तरफ से नज़र हटकर भारत की तरफ हो गई है लेकिन, भारत में किस तरफ और कौन आध्यात्मिक लाइट देने के निमित्त हैं, अभी यह स्पष्ट होना है। सभी के अन्दर अभी यह खोज है कि भारत में अनेक आध्यात्मिक आत्मायें कहलाने वाली हैं, आखिर भी इनमें धर्मात्मा कौन और परमात्मा कौन है? यह तो नहीं है, यह तो नहीं है - इसी सोच में लगे हुए हैं। ‘‘यही है'' इसी फैसले पर अभी तक पहुँच नहीं पाये हैं। ऐसी भटकती हुई आत्माओं को सही निशाना, यथार्थ ठिकाना दिखाने वाले कौन? डबल विदेशी समझते हैं कि हम ही वह हैं। फिर इतना बिचारों को भटकाते क्यों हो? सदा के लिए ऐसी स्थिति बनाओ जो सदा चमकते हुए सितारे देखें। दूर से ही आपकी चमकती हुई लाइट दिखाई दे। अभी तक जो सम्मुख आते हैं, सम्पर्क में आते हैं, उन्हीं को अनुभव होता है लेकिन दूर-दूर तक यह टाचिंग हो, यह वायब्रेशन फैलें - उसमें अभी और भी अभ्यास की आवश्यकता है। अभी निमंत्रण देना पड़ता है कि आओ, आकर अनुभव करो। लेकिन जब चमकते हुए सितारे - सूर्य, चन्द्रमा समान, अपनी सम्पूर्ण स्टेज पर स्थित होंगे फिर क्या होगा? जैसे स्थूल रोशनी के ऊपर परवाने स्वत: ही आते हैं, शमा बुलाने नहीं जाती है लेकिन प्यासे परवाने कहाँ से भी पहुँच जाते हैं। ऐसे आप चमकते हुए सितारों पर भटकती हुई आत्मायें, ढूंढने वाली आत्मायें स्वत: ही पाने के लिए, मिलने के लिए ऐसी फास्ट गति से आयेंगे जो आप सबको सेकेण्ड में बाप द्वारा मुक्ति, जीवनमुक्ति का अधिकार दिलाने की तीव्रगति से सेवा करनी पड़ेगी। इस समय मास्टर दाता का पार्ट बजा रहे हो। मास्टर शिक्षक का पार्ट चल रहा है। लेकिन अभी सतगुरू के बच्चे बन ‘गति और सद्गति' के वरदाता का पार्ट बजाना है। मास्टर सतगुरू का स्वरूप कौन सा है, जानते हो? अभी तो बाप का भी, बाप और शिक्षक का पार्ट विशेष रूप में चल रहा है इसलिए बच्चों के रूप में कभी-कभी बाप को भी नाज़ और नखरे देखने पड़ते हैं। शिक्षक के रूप में बार-बार एक ही पाठ याद कराते रहते हैं। सतगुरू के रूप में ‘गति-सद्गति का सर्टीफिकेट', फाइनल वरदान सेकण्ड में मिलेगा।
मास्टर सतगुरू का स्वरूप अर्थात् सम्पूर्ण फालो करने वाले। सतगुरू के वचन पर सदा सम्पूर्ण रीति चलने वाले - ऐसा स्वरूप अब प्रैक्टिकल में बाप का और अपना अनुभव करेंगें। सतगुरू का स्वरूप अर्थात् सम्पन्न, समान बनाकर साथ ले जाने वाले। सतगुरू के स्वरूप में मास्टर सतगुरू भी नज़र से निहाल करने वाले है। मत दी और गति हुई। इसलिए ‘गुरू मंत्र' प्रसिद्ध है। सेकण्ड का मंत्र लिया और समझते हैं, गति हो गई। मंत्र अर्थात् श्रेष्ठ मत। ऐसी पावरफुल स्टेज से श्रीमत देंगे जो आत्मायें अनुभव करेंगे कि हमें गति सद्गति का ठिकाना मिल गया। ऐसी शक्तिशाली स्थिति को अब से अपनाओ। सितारे तो अभी हो लेकिन अभी लाइट क्या होती है....?
सदा एक रस सम्पूर्ण चमकता हुआ सितारा हो, ऐसे स्वयं को प्रत्यक्ष करो। सुना, क्या करना है? डबल विदेशी तीव्रगति वाले हो ना? या रूकते हो, चलते हो? कभी बादलो के बीच छिप तो नहीं जाते हो? - बादल आते हैं? ऐसा सम्पूर्ण स्वरूप बहुत काल सदा-सदा रहे तब प्रत्यक्षता हो। अभी-अभी चमकता हुआ सितारा और अभी अभी फिर बादलों में छिप जाये तो विश्व की आत्मायें स्पष्ट अनुभव कर नहीं सकतीं। इसलिए एक रस रहने का, सदा सूर्य समान चमकते रहने का संकल्प करो। अच्छा –
सभी डबल विदेशी बच्चों को और चारों ओर के सेवाधारी बच्चों को, सदा बाप समान मन, वाणी और कर्म में फालो करने वाले, सदा बाप के दिलतख्तनशीन, मास्टर दिलाराम, सदा भटकती हुई आत्माओं को रास्ता दिखाने वाले लाइट हाउस बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।''
पार्टियों के साथ
नेरोबी पार्टी से - ‘‘सभी रेस में नम्बरवन हो ना? नम्बरवन की निशानी है - हर बात में विन करने वाले अर्थात् वन नम्बर में आने वाले। किसी भी बात में हार न हो। सदा विजयी। तो नेरोबी निवासी सदा विजयी हो ना! कभी चलते- चलते रूकते तो नहीं हो। रूकने का कारण क्या होता? जरूर कोई न कोई मर्यादा वा नियम थोड़ा भी नीचे ऊपर होता है तो गाड़ी रूक जाती है। लेकिन यह संगमयुग है ही ‘मर्यादा पुरूषोत्तम' बनने का युग। पुरूष नहीं, नारी नहीं लेकिन ‘पुरूषोत्तम' हैं, इसी स्मृति में सदा रहो। पुरूषों में उत्तम पुरूष - ‘प्रजापिता ब्रहमा' को कहा जाता है। तो ब्रह्मा के बच्चे आप सब ‘ब्रह्माकुमार-कुमारियाँ' भी पुरूषोत्तम हो गये ना। इस स्मृति में रहने से सदा उड़ती कला में जाते रहेंगे, नीचे नहीं रूकेंगे। चलने से भी ऊपर सदा उड़ते रहेंगे क्योंकि संगमयुग उड़ती कला का युग है, और कोई ऐसा युग नहीं जिसमें उड़ती कला हो। तो स्मृति में रखो कि यह युग उड़ती कला का युग है, ब्राह्मणों का कर्त्तव्य भी उड़ना और उड़ाना है। वास्तविक स्टेज भी उड़ती कला है। उड़ती कला वाला सेकण्ड में सर्व समस्यायें पार कर लेगा। ऐसा पार करेगा जैसे-कुछ हुआ ही नहीं। नीचे की कोई भी चीज डिस्टर्ब नहीं करेगी। रूकावट नहीं डालेगी। प्लेन में जाते हैं तो हिमालय का पहाड़ भी रूकावट नहीं डालता, पहाड़ को भी मनोरंजन की रीति से पार करते हैं। तो ऐसे ही उड़ती कला वाले के लिए बड़े ते बड़ी समस्या भी सहज हो जाती है।
नेरोबी अपना नम्बर आगे ले रही है ना! अभी वी.आई.पीज. की सर्विस में नम्बर आगे लेना है। संख्या तो अच्छी है, अभी देखेंगे कांफ्रेंस में वी.आई.पीज. कौन कौन ले आता है? अभी है वह नम्बर। सबसे नम्बरवन वी.आई.पीज. कौन लाता है, अभी यह रेस बापदादा देखेंगे।''
नये हाल के लिए चित्र बनाने वाले चित्रकारों प्रति बापदादा का ईशारा - ‘‘चित्रकार बन करके चित्र बना रहे हो वा स्वयं उस स्थिति में स्थित हो करके चित्र बनाते हो! क्या करते हो? क्योंकि और कहाँ भी कोई चित्र बनाते हैं तो वह रिवाजी चित्रकार चित्र बना देते हैं। यहाँ चित्र बनाने का लक्ष्य क्या है? जैसे बाप का चित्र बनायेंगे तो उसकी विशेषता क्या होनी चाहिए? चित्र चैतन्य को प्रत्यक्ष करें। चित्र के आगे जाते ही अनुभव करें कि यह चित्र नहीं देख रहा है, चैतन्य को देख रहा है। वैसे भी चित्र की विशेषता - चित्र जड़ होते चैतन्य अनुभव हो, इसी पर प्राइज मिलती है। उसमें भी भाव और प्रकार का होता। लेकिन रूहानी चित्र का लक्ष्य है - चित्र रूहानी रूह को प्रत्यक्ष कर दे। रूहानियत का अनुभव कराये। ऐसे अलौकिक चित्रकार, लौकिक नहीं। लौकिक चित्रकार तो लौकिक बातों को - नयन, चैन को देखेंगे लेकिन यहाँ रूहानियत का अनुभव हो - ऐसा चित्र बनाओ। (आशीर्वाद चाहिए) आशीर्वाद तो क्या आशीर्वाद की खान पर पहुँच गये हो, मांगने की आवश्यकता नहीं है, अधिकार लेने का स्थान है। जब वर्से के रूप में प्राप्त हो सकता है तो थोड़ी सी ब्लेसिंग क्यों? खान पर जाकर दो मुट्ठी भरकर आना उसको क्या कहा जायेगा? बाप जैसे स्वयं सागर है तो बच्चों को भी मास्टर सागर बनायेंगे ना। सागर में कोई भी कमी नहीं होती। सदा भरपूर होता है। अच्छा -''
स्वीडन पार्टी से :-’’सदा निश्चयबुद्धि विजयी रत्न हैं।'' - इसी नशे में रहो। निश्चय का फाउन्डेशन सदा पक्का है! अपने आप में निश्चय, बाप में निश्चय और ड्रामा की हर सीन को देखते हुए उसमें भी पूरा निश्चय। सदा इसी निश्चय के आधार पर आगे बढ़ते चलो। अपनी जो भी विशेषतायें हैं, उनको सामने रखो, कमज़ोरियों को नहीं, तो अपने आप में फेथ रहेगा। कमज़ोरी की बात को ज्यादा नहीं सोचना तो फिर खुशी में आगे बढ़ते जायेंगे। बाप का हाथ लिया तो बाप का हाथ पकड़ने वाले सदा आगे बढ़ते हैं, यह निश्चय रखो। जब बाप सर्वशक्तिवान है तो उसका हाथ पकड़ने वाले पार पहुँचे कि पहुँचे। चाहे खुद भले कमजोर भी हो लेकिन साथी तो मजबूत है ना। इसलिए पार हो ही जायेंगे। सदा निश्चयबुद्धि विजयी रत्न, इसी स्मृति में रहो। बीती सो बीती, बिन्दी लगाकर आगे बढ़ो।''
महावाक्यों का सार
1. सदा नज़र चमकते हुए सितारे की तरफ जाए। जब ऐसी रूहानी नज़र सदा नेचुरली रूप में हो जावेगी तब विश्व की नज़र आप चमकते हुए धरती के सितारों पर जायेगी।
31-12-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
बापदादा की सर्व अलौकिक फ्रेंड्स को बधाई
खुदा दोस्त बापदादा अपने रूहानी मीत बच्चों प्रति बोले :-
‘‘आज सर्व ब्राह्मण आत्माओं के मन के मीत , दिल के गीत, प्रीत की रीति निभाने के लिए वन्डरफुल रीति से रूहानी गुलाब-फूलों के बगीचे में वा अल्लाह अपने बगीचे में मिलने के लिए आये हैं। वैसे भी मीत कहो वा फ्रेंड्स कहो, बगीचे में मिलन मनाते हैं। ऐसा बगीचा सारे कल्प में मिल नहीं सकता। आज चारों तरफ के बच्चे इसी एक लगन में हैं कि हम भी अपने मन के मीत से यह ‘न्यू ईयर डे' मनावें। बापदादा आज सिर्फ साकारी स्वरूप में सन्मुख बैठे हुए रूहानी फ्रेंड्स से नहीं मिल रहे हैं लेकिन साकार सभा से, आकार रूपधारी बच्चों की वा मन के मीत स्नेही आत्माओं की बहुत बड़ी सभा देख रहे हैं। इतने रूहानी फ्रेंड्स, सच्चे फ्रेंड्स और किसको होंगे? बापदादा को भी रूहानी फखुर है कि ऐसे और इतने फ्रेंड्स न किसको मिले हैं न मिलेंगे। सबवे दिल का गीत दूर से वा समीप से सुनाई दे रहा है। कौन सा गीत? ओ बाबा! यही ‘‘बाबा बाबा'' का गीत एक ही साज और राज़से चारों ओर से सुनाई दे रहा है। बच्चे कहो वा फ्रेंड्स कहो, सभी का एक ही बोल है - ‘‘तुम ही मेरे'' और खुदा दोस्त भी एक-एक को यही कहते कि - ‘‘तुम ही मेरे। ‘वाह मेरे फ्रेंड्स।'' गीत गाओ - (बहनों ने साकार बाबा का प्यारा गीत गाया, तुम्हीं मेरे......)
यह मुख का गीत तो थोड़ा समय गा सकते लेकिन मन का गीत तो अविनाशी बजता रहता। आज के ‘न्यू इयर डे' पर अनेक बच्चों के बहुत अच्छे संकल्प, स्नेह के बोल बापदादा के पास पहले से पहुँच गये हैं। आज का दिन खुशियों का दिन मनाते हो ना! एक दो को बधाई देते हो। बापदादा भी सर्व मन के मीत अलौकिक रूहानी फ्रेंड्स को बधाई देते हैं।
सदा विधि द्वारा वृद्धि को पाते रहेंगे। सदा सर्व खजानों से सम्पन्न रहेंगे। सदा फरिश्ता बन सर्व के देह के रिश्तों से पार उड़ते रहेंगे। सदा नयनों में, दिल में बाप को समाते हुए, ‘एक बाप दूसरा न कोई' - इसी लगन में मगन रहेंगे। सदा आई हुई परीक्षाओं को, समस्याओं को, व्यर्थ संकल्पों को पानी पर लकीर के समान पार कर पास विद् आनर बनेंगे। ऐसी श्रेष्ठ शुभ कामनाओं से बधाई दे रहे हैं। एक एक अमूल्य रत्न की विशेषताओं के गीत गा रहे हैं। आज के दिन नाचते गाते हैं ना। सिर्फ आज नहीं लेकिन सदा नाचते और गाते रहो। सदा हरेक को एक अलौकिक गिफ्ट देते रहना। जैसे बड़े आदमी कहाँ जाते हैं वा उनके पास कोई आते हैं तो खाली हाथ न जाते हैं। आप सब भी बड़े ते बड़े बाप केबच्चे बड़े ते बड़े हो ना! कभी भी किसी भी ब्राह्मण आत्मा से वा किसी से भी मिलते हो तो कुछ देने के बिना कैसे मिलेंगे! हरेक को शुभभावना और शुभ कामना की गिफ्ट सदा देते रहो। विशेषता दो और विशेषता लो। गुण दो और गुण लो। ऐसी गाडली गिफ्ट सभी को देते रहो। चाहे कोई किसी भी भावना वा कामना से आये लेकिन आप शुभ भावना की गिफ्ट दो। शुभ भावना और श्रेष्ठ कामना की गिफ्ट का स्टाक सदा भरपूर रहे। यह संकल्प मात्र भी उत्पन्न न हो कि आखिर भी कहाँ तक शुभ भावना से देखें। आखिर भी कोई हद है वा नहीं! यह संकल्प भी सिद्ध करता है कि इस गोल्डन गिफ्ट का स्टाक जमा नहीं है।
दाता, विधाता, वरदाता के बच्चे, भाग्य की लकीर खींचने वाले ब्रह्मा के बच्चे ब्रह्माकुमार और ब्रह्माकुमारियाँ हो इसलिए सदा भण्डारा भरपूर रहे। इस वर्ष खाली किसको नहीं रहने देना। न खाली हाथ जाना, न खाली हाथ आना। सबको देना भी और सबसे लेना भी। यह गिफ्ट बाँटने का वर्ष है। सिर्फ एक दिन नहीं, लेकिन सारा वर्ष हर दिन, हर घण्टा, हर सेकण्ड, हर संकल्प जो बीता उससे और रूहानी नवीनता लाने वाला हो। नया दिन, नई रात तो सब कहते हैं लेकिन श्रेष्ठ आत्माओं का नया सेकण्ड, नया संकल्प हो तब ही आने वाली नई दुनिया की नई झलक विश्व की आत्माओं को स्वप्न के रूप में वा साक्षात्कार के रूप में दिखाई देगी। अब तक विश्व की आत्मायें जानने की इच्छुक हैं कि विनाश के बाद क्या होगा? नई दुनिया में क्या होगा? लेकिन इस वर्ष सर्व आधार स्वरूप आत्माओं का हर सेकण्ड, और हर संकल्प, नये ते नया, ऊँचे ते ऊँचा, अच्छे ते अच्छा रहे तो चारों ओर से नई दुनिया की झलक देखने का आवाज फैलेगा और क्या होगा इसके बजाये ‘ऐसे होगा'। ऐसी वन्डरफुल दुनिया जल्दी आवे और जल्दी तैयारी करें - इसमें जुट जायेंगे। जैसे स्थापना के आदि में स्वप्न और साक्षात्कार की लीला विशेष रही, ऐसे अन्त में भी यही विचित्र लीला प्रत्यक्षता करने के निमित्त बनेंगी। चारों ओर से ‘‘यही है, यही है'', यही आवाज गूजेंगी और यह आवाज अनेकों के भाग्य की श्रेष्ठता के निमित्त होगा। एक से अनेक दीपक जग जायेंगे।
तो इस वर्ष क्या करना है? सच्ची दीपमाला मनाने की तैयारी करनी है। पुरानी बातें, पुराने संस्कार का दशहरा मनाओ। क्योंकि दशहरे के बाद ही दीपमाला होगी। तो आज मन के मीत आत्माओं से मन की बात कर रहे हैं। मन की बात किससे करते हैं? फ्रेंड्स से करते हो ना। अच्छा बधाई तो मिली। बधाई के साथ-साथ नये साल की सौगात भी सदा साथ रखना। कितनी सौगात चाहिए? एक एक में बहुत समाई हुई भी है ओर बहुत भी एक है। सबसे बढ़िया सौगात जो खजाना चाहो वह हाजर हो जायेगा। ‘‘डायमण्ड की'' क्या है? एक तो बापदादा ने सब बच्चों को डायमण्ड की चाबी दी है जिससे एक ही बोल ‘‘बाबा''। इससे बढ़िया चाबी कोई मिलेगी-क्या? सतयुग में भी ऐसी चाबी नहीं मिलेगी। सब के पास यह ‘‘डायमण्ड की'' सम्भाली हुई है ना! चोरी तो नहीं हो गई है ना! चाबी को खोया तो सब खजाने खोये। इसलिए चाबी सदा साथ रखना। ‘की-चेन है? वा अकेली चाबी है? ‘‘की''की चेन है - सदा सर्व सम्बन्धों से स्मृति स्वरूप होते रहो। तो ‘की-चेन' की गिफ्ट मिली ना। सबसे बढ़िया गिफ्ट तो है यह ‘चाबी'। उस के साथ-साथ वर्ष के लिए विशेष प्रतिज्ञा का कंगन भी दे रहे हैं। वह प्रतिज्ञा का कंगन क्या है? जो सुनाया हर सेकण्ड, हर संकल्प, हर आत्मा के सम्पर्क में सदा नये ते नया अर्थात् ऊँचे ते ऊँचा। नीचे की बात को न देखना है, न नीचे की स्टेज अपनानी है, सदा ऊँचा। ऊँचा बाप, ऊँचे बच्चे, ऊँची स्टेज और ऊँचे ते ऊँची सर्व की सेवा हो। यह प्रतिज्ञा का कंगन है।
साथ-साथ सर्व गुणों के श्रृंगार का बाक्स। वैरायटी सेट का श्रृंगार बाक्स। जिस समय जो श्रृंगार चाहिए उस समय वही सेट धारण कर सदा सजे-सजाये रहना। कभी सहनशीलता का सेट पहनना, लेकिन फुलसेट पहनना। सिर्फ एक सेट नहीं पहनना। कानों द्वारा भी सहनशीलता हो, हाथों द्वारा भी सहनशीलता का श्रृंगार हो। ऐसे समय-समय पर भिन्न-भिन्न श्रृंगार करते हुए विश्व के आगे फरिश्ते रूप और देव रूप में प्रख्यात हो जायेंगे। यह त्रिमूर्ति सौगात सदा साथ रखना।
फ्रेंडशिप निभाने तो आती है ना! डबल विदेशी फ्रेंड्स तो बहुत अच्छे बनाते हैं लेकिन अविनाशी फ्रेंडशिप रखना! डबल विदेशी छोड़ने में भी होशियार हैं, करने में भी होशियार हैं। अभी अभी हैं और अभी अभी नहीं, ऐसे तो नहीं करेंगे ना? बापदादा डबल विदेशी बच्चों को देख हर्षित होते हैं, कैसे चारों कोनों से इशारा मिलते पुरानी पहचान कर ली। बाप ने बच्चों को ढूंढा और बच्चों ने पहचान लिया। इसी विशेषता को देख बापदादा भी बधाई देते है। बापदादा का बहुत समय का आह्वान साकार स्वरूप में दिखाई दे रहा है। इसलिए सदा मायाजीत रहो। अच्छा –
ऐसे सिकीलधे बच्चों को, अविनाशी प्रीत की रीति निभाने वाले अविनाशी फ्रेंड्स को सदा फूलों के बगीचे में हाथ में हाथ दे साथी बन सैर करने वाले, सदा गाडली गोल्डन गिफट को कार्य में लाने वाले, सदा सम्पन्न, सदा मास्टर दाता, सर्व के मास्टर भाग्य विधाता ऐसे स्नेही सहयोगी चारों ओर के बच्चों को, साकारी वा आकारी रूपधारी बच्चों को यादप्यार और नमस्ते।''
विदेशी टीचर्स से :- ‘‘निमित्त शिक्षक को देख बापदादा अति हर्षित हो रहे हैं। कितनी लगन से, स्नेह से अपने अपने स्थान पर रहते सभी सदा शक्ति स्वरूप स्थिति में स्थित हो सर्व शक्तियों का अनुभव कराते रहते हैं! अभी साधारण नारी वा कुमारी का रूप नहीं लेकिन सर्व श्रेष्ठ सेवाधारी आत्मायें! बापदादा शोकेस के शोपीस हो। आप सबको देख सर्व आत्मायें बाप को पहचानती हैं। हरेक निमित्त शिक्षक के ऊपर विश्व परिवर्तन की जिम्मेवारी है। बेहद के सेवाधारी हो - ऐसे अपने को समझती हो? एक एरिया के कल्याणकारी तो नहीं समझती? चाहे एक स्थान पर बैठे हो लेकिन हो तो ‘लाइट हाउस' ना। चारों ओर लाइट देने वाले। तो छोटा सा बल्ब बनकर एक ही स्थान पर रोशनी देते या लाइट हाउस बन विश्व को रोशनी देते? लाइट हो, सर्चलाइट हो या लाइट हाउस हो? हिम्मत तो बहुत अच्छी रखी है। बहुत अच्छा कर रहे हो और आगे भी अच्छे ते अच्छा करते रहो। टीचर्स तो सदा मायाजीत है ना? अगर टीचर्स के पास माया आयेगी तो स्टूडेन्ट का क्या हाल होगा? आपके पास यदि एक बार माया आयेगी तो उनके पास 10 बार आयेगी। इसलिए टीचर्स के पास माया नमस्ते करने आवे, वैसे नहीं।
निमित्त शिक्षक का स्वरूप - सदा हर्षित, सदा मास्टर सर्वशक्तिवान - ऐसी सीट पर सदा सेट रहो। टीचर्स के रहने का स्थान ही ‘ऊँची स्थिति' है। सेन्टर पर नहीं रहती हो लेकिन ऊँची स्टेज पर रहती हो। ऊँची स्टेज अर्थात् दिलतख्त पर माया आ नहीं सकती। नीचे उतरे तो माया आयेगी। पाण्डव भी बापदादा के सहयोगी राइट हैण्ड हो ना! गद्दी सम्भालने वाले को राइट हैण्ड कहा जाता है। सभी पाण्डव विजयी हो ना! अभी तक माया से बहुत समय खेल खेला। अभी विदाई दो। आज से सदा के लिए विदाई की बधाई मनाना। बहुत अच्छा चान्स मिला है और चान्स ले भी रहे हो। अच्छा –
(पार्टियों से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात)
बापदादा हर एक बच्चे के भाग्य को देख हर्षित होते हैं। हरेक बच्चा अपना भाग्य ले रहा है। संगम पर हरेक आत्मा का भाग्य अपना-अपना है। और हरेक का श्रेष्ठ भाग्य है। क्यों? क्योंकि जब श्रेष्ठ ते श्रेष्ठ बाप के बच्चे बने तो श्रेष्ठ भाग्य हो गया ना। न इससे कोई बाप श्रेष्ठ है, न इससे कोई भाग्य श्रेष्ठ है। ऊँचे ते ऊँचा बाप। यही याद रहता है ना! भाग्य विधाता मेरा बाप है। इससे बड़ा नशा और क्या हो सकता है। लौकिक रीति से बच्चे को नशा रहता - मेरा बाप इन्जीनियर है, डाक्टर है, जज है या प्राइम मिनिस्टर है। लेकिन आपको नशा है कि हमारा बाप ‘भाग्यविधाता' है। ऊँचे ते ऊँचा भगवान है। यही नशा सदा रहता है या कभी कभी भूल जाते हो? भाग्य को भूला तो क्या होगा? फिर भाग्य कोपाने का प्रयत्न करना पड़ेगा। खोई हुई चीज को पा ने के लिए मेहनत करनी पड़ती है। बाप ने आकर मेहनत से बचाया। आधाकल्प मेहनत की, व्यवहार में भी मेहनत, भक्ति में, धर्म के क्षेत्र में, सब में मेहनत ही की। और अभी सभी मेहनत से छूट गये। अभी व्यवहार भी परमार्थ के आधार पर सहज हो जाता है। निमित्त मात्र कर रहे हैं। निमित्त मात्र करने वाले को सदा सहज अनुभव होगा। व्यवहार नहीं है लेकिन खेल है। माया का तूफान नहीं लेकिन यह ड्रामा अनुसार आगे बढ़ने का तोफा है। तो मेहनत छूट गई ना! तोफा अर्थात् सौगात लेने में मेहनत नहीं होती है ना। तो ऐसे मेहनत से अपने को बचाने वाले, सदा भाग्य विधाता के साथ मास्टर भाग्य विधाता बन रहने वाले, इसको कहा जाता है - श्रेष्ठ आत्मा।
सैन्टानियो:- सभी अपने को विशेष आत्मा समझते हो? किस स्थान पर पहुँचे हो? सोचो कि ऐसा भाग्य विश्व में कितनी आत्माओं का होगा जो सम्मुख मिलन मनायें? इससे बड़ा भाग्य और क्या चाहिए? सदा अपने इसी भाग्य को स्मृति में रखो तो आपके भाग्य की प्राप्ति की खुशी को देख और आपके समीप आयेंगे। और अपना भाग्य बनायेंगे। सदा खुश रहो। बाप के बच्चे बने तो वर्से में क्या मिला? खुशी मिली ना! तो इस वर्से को सदा साथ रखना, छोड़कर नहीं जाना। खुशी के खजानों के मालिक बन गये। तो सदा खुशी में उड़ते रहना। इसमें ट्राई करने की बातें नहीं। अगर कहते ट्राई तो क्राई होते रहेंगे। क्या बच्चा बनने मे भी ट्राई करनी होती है? तो न ट्राई, न क्राई। ट्राई करेंगे, यह शब्द यहाँ छोड़कर जाना। बाप और वर्सा सदा साथ रहे। कम्बाइन्ड रहना। तो जहाँ बाप है वहाँ सर्व खजाने स्वत: ही होंगे। यही एक बात सदा याद रखना - कि बाप हमारे साथ है। ‘वर्सा हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है'।
नर्व वर्ष की मुबारक (रात्रि 12 बजे)
नये वर्ष की सभी बच्चों को सारे वर्ष के लिए बधाई हो। ऐसे अमूल्य रत्न जिन्होंने बाप को पहचाना और बाप को प्रत्यक्ष करने की जिम्मेवारी का ताज धारण किया, ऐसे सदा सेवाधारी अनन्य ताजधारी, तख्तनशीन बच्चों को अपने अपने नाम सहित बधाई स्वीकार हो।
लंदन निवासी निमित्त जनक बेटी, और साथ-साथ आदि रत्न रजनी बच्ची, साथ में मुरली बच्चा और सबसे अति स्नेही छोटी समान-बाप जयन्ती बच्ची को और जो साथ साथ बच्चे सेवा पर उपस्थित है जैसे बृजरानी अच्छा अपना शो दिखा रही हैं, जो सेवा कर रहे हैं उस सेवा में रूहानियत भरी हुई है - ऐसे सभी बच्चे अपने अपने नाम से बधाई स्वीकार करें।
नया वर्ष, नया उमंग, नया उत्साह और इस वर्ष में सदा ही रोज उत्सव समझकर उत्साह दिलाते रहना। इसी सेवा में सदा तत्पर रहना। अच्छा - सभी बच्चों को बापदादा की दिल व जान, सिक व प्रेम से यादप्यार।
ओमशान्ति