02-01-85 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
सर्वोत्तम स्नेह, सम्बन्ध और सेवा
सर्व स्नेही, सर्वशक्तिवान शिवबाबा बोले
‘‘आज बापदादा सभी बच्चों की स्नेह भरी सौगातें देख रहे थे। हर एक बच्चे की स्नेह सम्पन्न याद सौगात भिन्न-भिन्न प्रकार की थी। एक बापदादा को, अनेक बच्चों की सौगातें अनेक संख्या में मिलीं। ऐसी सौगातें और इतनी सौगातें विश्व में किसी को भी मिल नहीं सकती। यह थी दिल की सौगातें दिलाराम को! और सभी मनुष्य आत्मायें स्थूल सौगात देते हैं। लेकिन संगमयुग में यह विचित्र बाप और विचित्र सौगातें हैं। तो बापदादा सभी के स्नेह की सौगात देख हर्षित हो रहे थे। ऐसा कोई भी बच्चा नहीं था - जिसकी सौगात नहीं पहुँची हो। भिन्न-भिन्न मूल्य की जरूर थीं। किसकी ज्यादा मूल्य की थी। किसी की कम। जितना अटूट और सर्व सम्बन्ध का स्नेह था उतने वैल्यु की सौगात थी। नम्बरवार स्नेह और सम्बन्ध के आधार से दिल की सौगात थी। दोनों ही बाप सौगातों में से नम्बरवार मूल्यवान की माला बना रहे थे, और माला को देख चेक कर रहे थे कि मूल्य का अन्तर विशेष किस बात से है। तो क्या देखा? स्नेह सभी का है, सम्बन्ध भी सभी का है, सेवा भी सभी की है लेकिन स्नेह में आदि से अब तक संकल्प द्वारा वा स्वप्न में भी और कोई व्यक्ति या वैभव की तरफ बुद्धि आकर्षित नहीं हुई हो। एक बाप के एक रस अटूट स्नेह में सदा समाये हुए हों। सदा स्नेह के अनुभवों के सागर में ऐसा समाया हुआ हो जो सिवाए उस संसार के और कोई व्यक्ति वा वस्तु दिखाई न दे। बेहद के स्नेह का आकाश और बेहद के अनुभवों का सागर। इस आकाश और सागर के सिवाए और कोई आकर्षण न हो। ऐसे अटूट स्नेह की सौगात नम्बरवार वैल्युएबल थी। जितने वर्ष बीते हैं उतने वर्षों के स्नेह की वैल्यु आटोमेटिक जमा होती रहती है और उतनी वैल्यु की सौगात बापदादा के सामने प्रत्यक्ष हुई। तीनों बातों की विशेषता सभी की देखी-
1. स्नेह अटूट है - दिल का स्नेह है वा समय प्रमाण आवश्यकता के कारण, अपने मतलब को सिद्ध करने के कारण है - ऐसा स्नेह तो नहीं है? 2. सदा स्नेह स्वरूप इमर्ज रूप में है वा समय पर इमर्ज होता, बाकी समय मर्ज रहता है? 3. दिल खुश करने का स्नेह है वा जिगरी दिल का स्नेह है? तो स्नेह में यह सब बातें चेक की।
2. सम्बन्ध में - पहली बात सर्व सम्बन्ध है वा कोई-कोई विशेष सम्बन्ध है? एक भी सम्बन्ध की अनुभूति अगर कम है तो सम्पन्नता में कमी है और समय प्रति समय वह रहा हुआ एक सम्बन्ध भी अपनी तरफ आकर्षित कर लेता है। जैसे बाप शिक्षक सतगुरू यह विशेष सम्बन्ध तो जोड़ लिया लेकिन छोटा सा सम्बन्ध पोत्रा धोत्रा भी नहीं बनाया तो वह भी सम्बन्ध अपने तरफ खींच लेगा। तो सम्बन्ध में सर्व सम्बन्ध है?
दूसरी बात - बाप से हर सम्बन्ध 100 प्रतिशत है वा कोई सम्बन्ध 100 प्रतिशत है, कोई 50 प्रतिशत है वा नम्बरवार हैं? परसेन्टेज में भी फुल है वा थोड़ा अलौकिक थोड़ा लौकिक, दोनों में परसेन्टेज में बांटा हुआ है?
तीसरा - सर्व सम्बन्ध की अनुभूति का रूहानी रस सदा अनुभव करते वा जब आवश्यकता होती है तब अनुभव करते? सदा सर्व सम्बन्धों का रस लेने वाले हैं वा कभी-कभी?
3. सेवा में - सेवा में विशेष क्या चेक किया होगा? पहली बात - जो मोटे रूप में चेकिंग है - मन वाणी कर्म वा तन-मन-धन सब प्रकार की सेवा का खाता जमा है? दूसरी बात - तन-मन-धन, मन-वाणी-कर्म इन 6 बातों में जितना कर सकते हैं उतना किया है वा जितना कर सकते हैं, उतना न कर यथा शक्ति स्थिति के प्रमाण किया है? आज स्थिति बहुत अच्छी है तो सेवा की परसेन्टेज भी अच्छी, कल कारण अकारण स्थिति कमज़ोर है तो सेवा की परसेन्टेज भी कमज़ोर रही है। जितना और उतना नहीं हुआ। इस कारण यथा शक्ति नम्बरवार बन जाते हैं।
तीसरी बात - जो बापदादा द्वारा ज्ञान का खजाना, शक्तियों का खजाना, गुणों का खजाना, खुशियों का खजाना, श्रेष्ठ समय का खजाना, शुद्ध संकल्पों का खजाना मिला है, उन सब खजानों द्वारा सेवा की है वा कोई-कोई खजाने द्वारा सेवा की है? अगर एक खजाने में भी सेवा करने में कमी की है वा फराखदिल हो खजानों को कार्य में नहीं लगाया है, थोड़ा बहुत कर लिया अर्थात् कन्जूसी की तो इसका भी रिजल्ट में अन्तर पड़ जाता है!
चौथी बात - दिल से की है वा ड्युटी प्रमाण की है! सेवा की सदा बहती गंगा है वा सेवा में कभी बहना कभी रूकना। मूड है तो सेवा की, मूड नहीं तो नहीं की। ऐसे रूकने वाले तालाब तो नहीं है।
ऐसे तीनों बातों की चेकिंग प्रमाण हरेक की वैल्यु चेक की। तो ऐसे-ऐसे विधिपूर्वक हर एक अपने आपको चेक करो। और इस नये वर्ष में यही दृढ़ संकल्प करो कि कमी को सदा के लिए समाप्त कर सम्पन्न बन, नम्बरवार मूल्यवान सौगात बाप के आगे रखेंगे। चेक करना और फिर चेन्ज करना आवेगा ना। रिजल्ट प्रमाण अभी किसी न किसी बात में मैजारिटी यथाशक्ति है। सम्पन्न शक्ति स्वरूप नहीं है। इसलिए अब बीती को बीती कर वर्तमान और भविष्य में सम्पन्न, शक्तिशाली बनो।
आप लोगों के पास भी सौगातें इकट्ठी होती हैं तो चेक करते हो ना - कौनसी कौन-सी वैल्युएबल है। बापदादा भी बच्चों का यही खेल कर रहे थे। सौगातें तो अथाह थीं। हर एक अपने अनुसार अच्छे ते अच्छा उमंग उत्साह भरा संकल्प, शक्तिशाली संकल्प बाप के आगे किया है। अब सिर्फ यथाशक्ति के बजाए सदा शक्तिशाली - यह परिवर्तन करना। समझा। अच्छा –
सभी सदा के स्नेही, दिल के स्नेही, सर्व सम्बन्धों के स्नेही, रूहानी रस के अनुभवी आत्मायें, सर्व खजानों द्वारा शक्तिशाली, सदा सेवाधारी, सर्व बातों में यथाशक्ति को सदा शक्तिशाली में परिवर्तन करने वाले, विशेष स्नेही और समीप सम्बन्धी आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।’’
दादी जानकी जी से - मधुबन का शृंगार मधुबन में पहुंच गया। भले पधारे। बापदादा और मधुबन का विशेष शृंगार हो, विशेष शृंगार से क्या होता है? चमक हो जाती है ना। तो बापदादा और मधुबन विशेष शृंगार को देख हर्षित हो रहे हैं। विशेष सेवा में बाप के स्नेह और सम्बन्ध को प्रत्यक्ष किया यह विशेष सेवा सबके दिलों को समीप लाने वाली है। रिजल्ट तो सदा अच्छी है। फिर भी समय-समय की अपनी विशेषता की रिजल्ट होती है तो बाप के स्नेह को अपनी स्नेही सूरत से, नयनों से प्रत्यक्ष किया यह विशेष सेवा की। सुनने वाला बनाना यह कोई बड़ी बात नहीं है लेकिन स्नेही बनाना यह है विशेष सेवा। जो सदा होती रहेगी। कितने पतंगे देखे, शमा पर फिदा होने की इच्छा वाले कितने परवाने देखे? अभी नयनों की नजर से परवानों को शमा की ओर इशारा करने का ही विशेष समय है। इशारा मिला और चलते रहेंगे। उड़ते-उड़ते पहुँच जायेंगे। तो यह विशेष सेवा आवश्यक भी है और की भी है। ऐसी रिजल्ट है ना! अच्छा है हर कदम में अनेक आत्माओं की सेवा समाई हुई है, कितने कदम उठाये? तो जितने कदम उतने ही आत्माओं की सेवा। अच्छा चक्र रहा। उन्हों के भी उमंग उत्साह की अभी सीजन है। जो होता है वह अच्छे से अच्छा होता होता है। बापदादा के मुरबी बच्चों के हर कर्म की रेखा से अनेकों के कर्मों की रेखा बदलती है। तो हर कर्म की रेखा से अनेकों की तकदीर की लकीर खींची। चलना अर्थात् तकदीर खींचना। तो जहाँ-जहाँ जाते हैं अपने कर्मों की कलम से अनेकों की तकदीर का कलम है। कलम से लकीर खिचेंगी ना। अनेक आत्माओं के तकदीर की लकीरें खींचते जाते। तो कदम अर्थात् कर्म ही मुरबी बच्चों के तकदीर की लकीर खींचने की सेवा के निमित्त बनीं। तो अभी बाकी लास्ट आवाज़ है - ‘‘यही हैं, यही हैं’’ जिसको ढूँढते हैं वे यही हैं। अभी सोचते हैं - यह हैं वा वह हैं। लेकिन सिर्फ एक ही आवाज़ निकले - यही है। अभी वह समय समीप आ रहा है। तकदीर की लकीर लम्बी होते-होते यह भी बुद्धि का जो थोड़ा सा ताला रहा हुआ है वह खुल जायेगा। चाबी तो लगाई है, खुला भी है लेकिन अभी थोड़ा सा अटका हुआ है, वह भी दिन आ जायेगा। अच्छा – ओम शान्ति।
सदा स्नेह के अनुभवों के सागर में ऐसा समाया हुआ हो जो सिवाए उस संसार के और कोई व्यक्ति वा वस्तु दिखाई न दे। बेहद के स्नेह का आकाश और बेहद के अनुभवों का सागर। इस आकाश और सागर के सिवाए और कोई आकर्षण न हो।
07-01-85 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
नये वर्ष का विशेष संकल्प
सदा दाता, भाग्य विधाता अव्यक्त बापदादा बोले
आज विधाता बाप अपने मास्टर विधाता बच्चों से मिलने आये हैं। विधाता बाप हर बच्चे के चार्ट को देख रहे हैं। विधाता द्वारा मिले हुए खजानों में से कहाँ तक विधाता समान मास्टर विधाता बने हैं? ज्ञान के विधाता हैं? याद के शक्तियों के विधाता हैं? समय प्रमाण आवश्यकता प्रमाण हर शक्ति के विधाता है? गुणों के विधाता बने हैं? रूहानी दृष्टि के, रूहानी स्नेह के विधाता बने हैं? समय प्रमाण हर एक आत्मा को सहयोग देने के विधाता बने हैं? निर्बल को अपने श्रेष्ठ संग के विधाता, सम्पर्क के विधाता बने हैं? अप्राप्त आत्माओं को तृप्त आत्मा बनाने के उमंग-उत्साह के विधाता बने हैं? यह चार्ट हर मास्टर विधाता का देख रहे थे।
विधाता अर्थात् हर समय, हर संकल्प द्वारा देने वाले। विधाता अर्थात् फराखदिल। सागर समान देने में बड़ी दिल वाले। विधाता अर्थात् सिवाए बाप के और किसी आत्मा से लेने की भावना रखने वाले नहीं। सदा देने वाले। अगर कोई रूहानी स्नेह, सहयोग देते भी हैं तो एक के बदले में पद्मगुणा देने वाले। जैसे बाप लेते नहीं, देते हैं। अगर कोई बच्चा अपना पुराना कखपन देता भी है, उसके बदले में इतना देता है जो लेना, देना में बदल जाता है। ऐसे मास्टर विधाता अर्थात् हर संकल्प, हर कदम में देने वाला। महान दाता अर्थात् विधाता। सदा देने वाला होने कारण सदा निःस्वार्थी होंगे। स्व के स्वार्थ से सदा न्यारे और बाप समान सर्व के प्यारे होंगे। विधाता आत्मा के प्रति स्वत: ही सर्व का रिगार्ड का रिकार्ड होगा। विधाता स्वत: ही सर्व की नजर में दाता अर्थात् महान होंगे। ऐसे विधाता कहाँ तक बने हैं? विधाता अर्थात् राजवंशी। विधाता अर्थात् पालनहार। बाप समान सदा स्नेह और सहयोग की पालना देने वाले। विधाता अर्थात् सदा सम्पन्न। तो अपने आपको चेक करो कि लेने वाले हो वा देने वाले मास्टर विधाता हो?
अब समय प्रमाण मास्टर विधाता का पार्ट बजाना है। क्योंकि समय की समीपता है अर्थात् बाप समान बनना है। अब तक भी अपने प्रति लेने की भावना वाले होंगे तो विधाता कब बनेंगे? अभी देना ही लेना है, जितना देंगे उतना स्वत: ही बढ़ता जायेगा। किसी भी प्रकार के हद की बातों के लेवता नहीं बनो। अभी तक अपने हद की आशायें पूर्ण करने की इच्छा होगी तो विश्व की सर्व आत्माओं की आशायें कैसे पूर्ण करेंगे? थोड़ा-सा नाम चाहिए, मान चाहिए, रिगार्ड चाहिए, स्नेह चाहिए, शक्ति चाहिए। अब तक स्वार्थी अर्थात् स्व के अर्थ यह इच्छायें रखने वाले होंगे तो ‘इच्छा मात्रम् अविद्या’ की स्थिति का अनुभव कब करेंगे? यह हद की इच्छायें कभी भी अच्छा बनने नहीं देंगी। यह इच्छा भी रायल भिखारीपन का अंश है। अधिकारी के पीछे यह सब बातें स्वत: ही आगे आती हैं। चाहिए-चाहिए का गीत नहीं गाते मिल गया, बन गया, यही गीत गाते हैं। बेहद के विधाता के लिए यह हद की आशायें वा इच्छायें स्वयं ही परछाई के समान पीछे-पीछे चलती हैं। जब गीत गाते हो - ‘पाना था वह पा लिया’ फिर यह हद के नाम, मान,शान, पाने का कैसे रह जाता है? नहीं तो गीत को बदली करो। जब 5 तत्व भी आप विधाता के आगे दासी बन जाते हैं, प्रकृति जीत मायाजीत बन जाते हो, उसके आगे यह हद की इच्छायें ऐसी हैं जैसे सूर्य के आगे दीपक। जब सूर्य बन गये तो इन दीपकों की क्या आवश्यकता है? चाहिए की तृप्ति का आधार है, जो चाहिए वह ज्यादा से ज्यादा देते जाओ। मान दो, लो नहीं। रिगार्ड दो, रिगार्ड लो नहीं। नाम चाहिए तो बाप के नाम का दान दो। तो आपका नाम स्वत: ही हो जायेगा। देना ही लेने का आधार है। जैसे भक्ति मार्ग में भी यह रसम चली आई है, कोई भी चीज़ की कमी होगी तो प्राप्ति के लिए उसी चीज़ का दान कराते हैं। तो वह देना लेना हो जायेगा। ऐसे आप भी दाता के बच्चे देने वाले देवता बनने वाले हो। आप सबकी महिमा देने वाले देवा, शान्ति देवा, सम्पत्ति देवा, कहा करते हैं। लेवा कहकर महिमा नहीं करते हैं। तो आज यह चार्ट देख रहे थे। देवता बनने वाले कितने हैं और लेवता (लेने वाले) कितने हैं। लौकिक आशायें, इच्छायें तो समाप्त हो गई। अब अलौकिक जीवन की बेहद की इच्छायें समझते हैं कि यह तो ज्ञान की हैं ना। यह तो होनी चाहिए ना। लेकिन कोई भी हद की चाहना वाला माया का सामना नहीं कर सकता है। मांगने से मिलने वाली यह चीज़ ही नहीं है। कोई को कहो मुझे रिगार्ड दो या रिगार्ड दिलाओ। मांगने से मिले यह रास्ता ही रांग है तो मंज़िल कहाँ से मिलेगी। इसलिए ‘मास्टर विधाता’ बनो। तो स्वत: ही सब आपको देने आयेंगे। शान मांगने वाले परेशान होते हैं। इसलिए मास्टर विधाता की शान में रहो। मेरा मेरा नहीं करो। सब तेरा-तेरा। आप तेरा करेंगे तो सब कहेंगे तेरा-तेरा। मेरा-मेरा कहने से जो आता है वह भी गँवा देंगे। क्योंकि जहाँ सन्तुष्टता नहीं वहाँ प्राप्ति भी अप्राप्ति के समान है। जहाँ सन्तुष्टता है वहाँ थोड़ा भी सर्व समान है तो तेरातेरा कहने से प्राप्ति स्वरूप बन जायेंगे। जैसे यहाँ गुम्बद के अन्दर आवाज़ करते हो तो वही आवाज़ वापस आता है। ऐसे इस बेहद के गुम्बद के अन्दर अगर आप मन से मेरा कहते हो तो सबकी तरफ से वही ‘मेरा’ का ही आवाज़ सुनते हो!
आप भी कहेंगे मेरा, वह भी कहेगा मेरा। इसलिए जितना मन के स्नेह से (मतलब से नहीं) तेरा कहेंगे उतना ही मन के स्नेह से आगे वाले आपको ‘तेरा’ कहेंगे। इस विधि से मेरे-मेरे की हद बेहद में परिवर्तन हो जायेगी। और लेवता के बजाए मास्टर विधाता बन जायेंगे। तो इस वर्ष यह विशेष संकल्प करो कि सदा मास्टर विधाता बनेंगे। समझा –
महाराष्ट्र जोन आया है, तो महान बनना है ना। महाराष्ट्र अर्थात् सदा महान बन सर्व को देने वाले बनना। महाराष्ट्र अर्थात् सदा सम्पन्न राष्ट्र। देश सम्पन्न हो न हो लेकिन आप महान आत्मायें तो सम्पन्न हो। इसलिए महाराष्ट्र अर्थात् महादानी आत्मायें।
दूसरे यू.पी. के हैं। यू.पी. में भी पतित पावनी गंगा का महत्व है। तो सदा प्राप्ति स्वरूप हैं, तब ‘पतित पावनी’ बन सकते हैं। तो यू.पी. वाले भी पावनता के भण्डार हैं। सदा सर्व के प्रति पावनता की अंचली देने वाले मास्टर विधाता हैं। तो दोनों ही महान हुए ना। बापदादा भी सर्व महान आत्माओं को देख हर्षित होते हैं।
डबल विदेशी तो हैं ही डबल नशे में रहने वाले। एक याद का नशा, दूसरा सेवा का नशा। मैजारिटी इस डबल नशे में सदा रहने वाले हैं। और यह डबल नशा ही अनेक नशों से बचाने वाला है। सो डबल विदेशी बच्चे भी दोनों ही बातों की रेस में नम्बर अच्छा ले रहे हैं। बाबा और सेवा के गीत स्वप्न में भी गाते रहते हैं। तो तीनों नदियों का संगम है। गंगा, जमुना, सरस्वती तीनों हो गये ना। सच्चा अल्लाह का आबाद किया हुआ स्थान तो यही मधुबन है ना। इसी अल्लाह के आबाद किये हुए स्थान पर तीनों नदियों का संगम है। अच्छा –
सभी सदा मास्टर विधाता, सदा सर्व को देने की भावना में रहने वाले, देवता बनने वाले, सदा तेरा-तेरा का गीत गाने वाले सदा अप्राप्त आत्माओं को तृप्त करने वाले, सम्पन्न आत्माओं को विधाता वरदाता बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।’’
टीचर्स के साथ मुलाकात - सेवाधारी सेवा करने से स्वयं भी शक्तिशाली बनते हैं और दूसरों में भी शक्ति भरने के निमित्त बनते हैं। सच्ची रूहानी सेवा सदा स्व उन्नति और औरों की उन्नति के निमित्त बनाती है। दूसरे की सेवा करने से पहले अपनी सेवा करनी होती। दूसरे को सुनाना अर्थात् पहले खुद सुनते, पहले अपने कानों में जायेगा ना। सुनाना नहीं होता, सुनना होता है। तो सेवा से डबल फायदा होता है। अपने को भी और दूसरों को भी। सेवा में बिजी रहना अर्थात् सहज मायाजीत बनना। बिजी नहीं रहते तब माया आती है। सेवाधारी अर्थात् सदा बिजी रहने वाली। सेवाधारियों को कभी फुर्सत ही नहीं होती। जब फुर्सत ही नहीं तो माया कैसे आयेगी। सेवाधारी बनना अर्थात् सहज विजयी बनना। सेवाधारी माला में सहज आ सकते हैं। क्योंकि सहज विजयी हैं। तो विजयी विजय माला में आयेंगे। सेवाधारी का अर्थ है ताजा मेवा खाने वाले। ताजा फल खाने वाले बहुत हेल्दी होंगे। डाक्टर भी कहते हैं ताजा फल ताजी सब्जियाँ खाओ। तो सेवा करना माना विटमिन्स मिलना। ऐसे सेवाधारी हो ना! कितना महत्व है सेवा का। अभी इसी बातों को चेक करना। ऐसी सेवा की अनुभूति हो रही है। कितना भी कोई उलझन में हो - सेवा खुशी में नचाने वाली है। कितना भी कोई बीमार हो सेवा तन्दरूस्त करने वाली है। ऐसे नहीं सेवा करतेकरते बीमार हो गये। नहीं। बीमार को तन्दरूस्त बनाने वाली सेवा है। ऐसे अनुभव हो। ऐसे विशेष सेवाधारी विशेष आत्मायें हो। बापदादा सेवाधारियों को सदा श्रेष्ठ सम्बन्ध से देखते हैं क्योंकि सेवा के लिए त्यागी तपस्वी तो बने हैं ना। त्याग और तपस्या को देख बापदादा सदा खुश है।
(2) सभी सेवधारी अर्थात् सदा सेवा के निमित्त बनी हुई आत्मायें। सदा अपने को निमित्त समझ सेवा में आगे बढ़ते रहो। मैं सेवाधारी हूँ, यह मैं-पन तो नहीं आता है ना। बाप करावनहार है, मैं निमित्त हूँ। कराने वाला करा रहा है। चलाने वाला चला रहा है - इस श्रेष्ठ भावना से सदा न्यारे और प्यारे रहेंगे। अगर मैं करने वाली हूँ तो न्यारे और प्यारे नहीं। तो सदा न्यारे और सदा प्यारे बनने का सहज साधन है करावनहार करा रहा है, इस स्मृति में रहना। इससे सफलता भी ज्यादा और सेवा भी सहज। मेहनत नहीं लगती। कभी मैं-पन के चक्र में आने वाली नहीं। हर बात में बाबा-बाबा कहा तो सफलता है। ऐसे सेवाधारी सदा आगे बढ़ते भी हैं और औरों को भी आगे बढ़ाते हैं। नहीं तो स्वयं भी कभी उड़ती कला कभी चढ़ती कला, कभी चलती कला। बदलते रहेंगे और दूसरे को भी शक्तिशाली नहीं बना सकेंगे। सदा बाबा-बाबा कहने वाले भी नहीं लेकिन करके दिखाने वाले। ऐसे सेवाधारी सदा बापदादा के समीप हैं। सदा विघ्न विनाशक हैं।
(3) टीचर्स अर्थात् सदा सम्पन्न। तो सम्पन्नता की अनुभूति करने वाली हो ना! स्वयं सर्व खजानों से सम्पन्न होंगे तब दूसरों की सेवा कर सकेंगे। अपने में सम्पन्नता नहीं तो दूसरे को क्या देंगे। सेवाधारी का अर्थ ही है सर्व खजानों से सम्पन्न। सदा भरपूरता का नशा और खुशी। कोई एक भी खजाने की कमी नहीं। शक्ति है, गुण नहीं। गुण हैं शक्ति नहीं - ऐसा नहीं, सर्व खजाने से सम्पन्न। जिस शक्ति का जिस समय आह्वान करें, शक्ति स्वरूप बन जाएँ - इसको कहा जाता है - सम्पन्नता। ऐसे हो? जो याद और सेवा के बैलेंस में रहता है, कभी याद ज्यादा हो कभी सेवा ज्यादा हो - नहीं, दोनों समान हों, बैलेंस में रहने वाले हो, वही सम्पन्नता की ब्लैसिंग के अधिकारी होते हैं। ऐसे सेवाधारी हो, क्या लक्ष्य रखती हो? सर्व खजानों में सम्पन्न, एक भी गुण कम हुआ तो सम्पन्न नहीं। एक शक्ति भी कम हुई तो भी सम्पन्न नहीं कहेंगे। सदा सम्पन्न और सर्व में सम्पन्नता दोनों ही हो। ऐसे को कहा जाता है - योग्य सेवाधारी। समझा। हर कदम में सम्पन्नता। ऐसे अनुभवी आत्मा अनुभव की अथॉरिटी है। सदा बाप के साथ का अनुभव हो!
कुमारियों से - सदा लकी कुमारियाँ हो ना। सदा अपना भाग्य का चमकता हुआ सितारा अपने मस्तक पर अनुभव करते हो! मस्तक में भाग्य का सितारा चमक रहा है ना कि चमकने वाला है। बाप का बनना अर्थात् सितारा चमकना। तो बन गये या अभी सौदा करने का सोच रही हो? सोचने वाली हो या करने वाली हो? कोई सौदा तुड़ाने चाहे तो टूट सकता है? बाप से सौदा कर फिर दूसरा सौदा किया तो क्या होगा? फिर अपने भाग्य को देखना पड़ेगा। कोई लखपति का बनकर गरीब का नहीं बनता। गरीब साहूकार का बनता है। साहूकार वाला गरीब का नहीं बनेगा। बाप का बनने के बाद कहाँ संकल्प भी जा नहीं सकता - ऐसे पक्के हो? जितना संग होगा उतना रंग पक्का होगा। संग कच्चा तो रंग भी कच्चा। इसलिए पढ़ाई और सेवा दोनों का संग चाहिए। तो सदा के लिए पक्के अचल रहेंगे। हलचल में नहीं आयेंगे। पक्का रंग लग गया तो इतने हैण्डस से इतने ही सेन्टर खुल सकते हैं। क्योंकि कुमारियाँ हैं ही निर्बन्धन। औरों का भी बन्धन खत्म करेंगी ना। सदा बाप के साथ पक्का सौदा करने वाली। हिम्मत है तो बाप की मदद भी मिलेगी। हिम्मत कम तो मदद भी कम। अच्छा –
सेवा में बिजी रहना अर्थात् सहज मायाजीत बनना। बिजी नहीं रहते तब माया आती है। सेवाधारी अर्थात् सदा बिजी रहने वाली। सेवाधारियों को कभी फुर्सत ही नहीं होती। जब फुर्सत ही नहीं तो माया कैसे आयेगी। सेवाधारी बनना अर्थात् सहज विजयी बनना। सेवाधारी माला में सहज आ सकते हैं। क्योंकि सहज विजयी हैं।
09-01-85 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
श्रेष्ठ भाग्यवान आत्माओं की रूहानी पर्सनैलिटी
भाग्य विधाता बाप अपने भाग्यवान बच्चों प्रति बोले
आज भाग्यविधाता बाप अपने श्रेष्ठ भाग्यवान बच्चों को देख रहे हैं। हर एक बच्चे के भाग्य की लकीर कितनी श्रेष्ठ और अविनाशी है। भाग्यवान तो सभी बच्चे हैं क्योंकि भाग्यविधाता के बने हैं। इसलिए भाग्य तो जन्म-सिद्ध अधिकार है। जन्म-सिद्ध अधिकार के रूप में सभी को स्वत: ही अधिकार प्राप्त है। अधिकार तो सभी को है लेकिन उस अधिकार को स्व प्रति वा औरों के प्रति जीवन में अनुभव करना और कराना उसमें अन्तर है। इस भाग्य के अधिकार को अधिकारी बन उस खुशी और नशे में रहना। और औरों को भी भाग्यविधाता द्वारा भाग्यवान बनाना है, यह है अधिकारीपन के नशे में रहना। जैसे स्थूल सम्पत्तिवान की चलन और चेहरे से सम्पत्ति का अल्पकाल वा नशा दिखाई देता है, ऐसे भाग्य की सम्पत्ति का प्राप्ति स्वरूप अलौकिक और रूहानी है। श्रेष्ठ भाग्य की झलक और रूहानी फलक विश्व में सर्व आत्माओं से श्रेष्ठ, न्यारी और प्यारी है। श्रेष्ठ भाग्यवान आत्मा सदा भरपूर, फखुर में रहने वाले अनुभव होंगे। दूर से ही श्रेष्ठ भाग्य के सूर्य की किरणें चमकती हुई अनुभवी होंगी। भाग्यवान के भाग्य की प्रॉपर्टी की पर्सनैलिटी दूर से ही अनुभव होगी। श्रेष्ठ भाग्यवान आत्मा की दृष्टि से सदा सर्व को रूहानी रायल्टी अनुभव होगी। विश्व में कितने भी बड़े-बड़े रायल्टी वा पर्सनैलिटी वाले हों लेकिन श्रेष्ठ भाग्यवान आत्मा के आगे विनाशी पर्सनैलिटी वाले स्वयं अनुभव करते कि यह रूहानी पर्सनैलिटी अति श्रेष्ठ अनोखी है। ऐसे अनुभव करते कि यह श्रेष्ठ भाग्यवान आत्मायें न्यारे अलौकिक दुनिया के हैं। अति न्यारे हैं। जिसको अल्लाह लोग कहते हैं। जैसे कोई नई चीज़ होती है तो बड़े स्नेह से देखते ही रह जाते हैं। ऐसे श्रेष्ठ भाग्यवान आत्माओं को देख-देख अति हर्षित होते हैं। श्रेष्ठ भाग्यवान आत्माओं की श्रेष्ठ वृत्ति द्वारा वायुमण्डल ऐसा बनता जो दूसरे भी अनुभव करते कि कुछ प्राप्त हो रहा है। अर्थात् प्राप्ति का वातावरण वायुमण्डल अनुभव करते हैं। कुछ पा रहे हैं, मिल रहा है इसी अनुभूति में खो जाते हैं। श्रेष्ठ भाग्यवान आत्मा को देख ऐसा अनुभव करते जैसे प्यासे के आगे कुंआ चलकर आये। अप्राप्त आत्मा प्राप्ति के उम्मीदों का अनुभव करती है। चारों ओर के नाउम्मीदों के अंधकार के बीच शुभ आशा का जगा हुआ दीपक अनुभव करते हैं। दिलशिकस्त आत्मा को दिल की खुशी की अनुभूति होती है। ऐसे श्रेष्ठ भाग्यवान बने हो? अपनी इन रूहानी विशेषताओं को जानते हो? मानते हो? अनुभव करते हो? वा सिर्फ सोचते और सुनते हो? चलते-फिरते इस साधारण रूप में छिपे हुए अमूल्य हीरा श्रेष्ठ भाग्यवान आत्मा को कभी स्वयं भी भूल तो नहीं जाते हो, अपने को साधारण आत्मा तो नहीं समझते हो? तन पुराना है, साधारण है लेकिन आत्मा महान और विशेष है। सारे विश्व के भाग्य की जन्मपत्रियाँ देख लो, आप जैसी श्रेष्ठ भाग्य की लकीर किसी की भी नहीं हो सकती है। कितनी भी धन से सम्पन्न आत्मायें हों, शास्त्रं के आत्म ज्ञान के खजाने से सम्पन्न आत्मायें हों, विज्ञान के नॉलेज की शक्ति से सम्पन्न आत्मा हों लेकिन आप सबके भाग्य की सम्पन्नता के आगे वह क्या लगेंगे? वह स्वयं भी अभी अनुभव करने लगे हैं कि हम बाहर से भरपूर हैं, लेकिन अन्दर खाली है और आप अन्दर भरपूर हैं, बाहर साधारण हैं। इसीलिए अपने श्रेष्ठ भाग्य को सदा स्मृति में रखते हुए समर्थ-पन के रूहानी नशे में रहो। बाहर से भले साधारण दिखाई दो लेकिन साधारणता में महानता दिखाई दे। तो अपने को चेक करो हर कर्म में साधारणता में महानता अनुभव होती है? जब स्वयं, स्वयं को ऐसे अनुभव करेंगे तब दूसरों को भी अनुभव करायेंगे। जैसे और लोग कार्य करते हैं ऐसे ही आप भी लौकिक कार्य व्यवहार ही करते हो वा अलौकिक अल्लाह लोग होकर कार्य करते हो? चलते फिरते सभी के सम्पर्क में आते यह जरूर अनुभव कराओ जो समझें कि इन्हों की दृष्टि में, चेहरे में न्यारा पन है। और देखते हुए स्पष्ट समझ में न भी आये लेकिन यह क्वेश्चन जरूर उठे कि यह क्या है? यह कौन है? यह क्वेश्चन रूपी तीर बाप के समीप ले ही आयेगा। समझा। ऐसे श्रेष्ठ भाग्यवान आत्मायें हो। बापदादा कभी-कभी बच्चों के भोलेपन को देख मुस्कराते हैं। भगवान के बने हैं लेकिन इतने भोले बन जाते हैं जो अपने भाग्य को भी भूल जाते हैं। अपने आपको कोई भूलता है? बाप को कोई भूलता है? तो कितने भोले हो गये! 63 जन्म उल्टा पाठ इतना पक्का किया जो भगवान भी कहते कि भूल जाओ तो भी नहीं भूलते। और श्रेष्ठ बात भूल जाते हैं। तो कितने भोले हो! बाप भी कहते ड्रामा में इन भोलों से ही मेरा पार्ट है। बहुत समय भोले बने, अब बाप समान मास्टर नॉलेजफुल, मास्टर पावरफुल बनो। समझा। अच्छा –
सदा श्रेष्ठ भाग्यवान, सर्व को अपने श्रेष्ठ भाग्य द्वारा भाग्यवान बनने की शक्ति देने वाले, साधारणता में महानता अनुभव कराने वाले, भोले से भाग्यवान बनने वाले, सदा भाग्य के अधिकार के नशे में और खुशी में रहने वाले, विश्व में भाग्य का सितारा बन चमकने वाले, ऐसे श्रेष्ठ भाग्यवान आत्माओं को भाग्यविधाता बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।’’
मधुबन निवासी भाई-बहनों से - मधुबन निवासी अर्थात् सदा अपने मधुरता से सर्व को मधुर बनाने वाले और सदा अपने बेहद के वैराग वृत्ति द्वारा बेहद का वैराग दिलाने वाले। यही मधुबन निवासियों की विशेषता है। मधुरता भी अति और वैरागवृत्ति भी अति। ऐसे बैलेन्स रखने वाले सदा ही सहज और स्वत: आगे बढ़ने का अनुभव करते हैं। मधुबन की इन दोनों विशेषताओं का प्रभाव विश्व में पड़ता है। चाहे अज्ञानी आत्मायें भी हैं लेकिन मधुबन लाइट हाउस, माइट हाउस है। तो लाइट हाउस की रोशनी कोई चाहे न चाहे लेकिन सबके ऊपर पड़ती है। जितना यहाँ का यह वायब्रेशन होता है उतना वहाँ समझते हैं कि यह कुछ न्यारे हैं। चाहे समस्याओं के कारण, चाहे सरकमस्टांस के कारण, चाहे अप्राप्ति के कारण, लेकिन अल्पकाल की भी वैराग वृत्ति का प्रभाव जरूर पड़ता है। जब आप यहाँ शक्तिशाली बनते हो तो वहाँ भी शक्तिशाली कोई न कोई विशेष बात होती है। यहाँ की लहर ब्राह्मणों के साथ-साथ दुनिया वालों पर भी पड़ती है। अगर विशेष निमित्त बने हुए थोड़ा उमंग में आते और फिर साधारण हो जाते तो वहाँ भी उमंग में आते फिर साधारण हो जाते हैं। तो मधुबन एक विशेष स्टेज है। जैसे उस स्टेज पर कोई भाषण करने वाला है या स्टेज सेक्रेट्री है, अटेन्शन तो स्टेज का रखेगा ना। या समझेगा यह तो भाषण करने वाले के लिए है। कोई छोटा सा गीत गाने वाला या गुलदस्ता देने वाला भी होगा तो भी जिस समय वह स्टेज पर आयेगा तो उसी विशेषता से, अटेन्शन से आयेगा। तो मधुबन में किस भी ड्युटी पर रहते हो, अपने को छोटा समझो या बड़ा समझो लेकिन मधुबन की विशेष स्टेज पर हो। मधुबन माना महान स्टेज। तो महान स्टेज पर पार्ट बजाने वालों महान हुए ना। सभी आपको ऊँची नजर से देखते हैं ना। क्योंकि मधुबन की महिमा अर्थात् मधुबन निवासियों की महिमा।
तो मधुबन वालों का हर बोल मोती है। बोल नहीं हो लेकिन मोती हो। जैसे मोतियों की वर्षा हो रही है, बोल नहीं रहे हैं, मोतियों की वर्षा हो रही है। इसको कहा जाता है - ‘मधुरता’। ऐसा बोल बोलें जो सुनने वाले सोचें कि ऐसा बोल हम भी बोलेंगे। सबको सुनकर सीखने की प्रेरणा मिले, फॉलो करने की प्रेरणा मिले। जो भी बोल निकलें वह ऐसे हों जो कोई टेप करके फिर रिपीट करके सुने। अच्छी बात लगती है तब तो टेप करते हैं ना - बार-बार सुनते रहें। तो ऐसे मधुरता के बोल हों। ऐसे मधुर बोल का वायब्रेशन विश्व में स्वतः ही फैलता है। यह वायुमण्डल वायब्रेशन को स्वत: ही खींचता है। तो आपका हर बोल महान हो। हर मंसा संकल्प हर आत्मा के प्रति मधुर हो, महान हो। और दूसरी बात - मधुबन में जितने भण्डारे भरपूर हैं उतने बेहद के वैरागी। प्राप्ति भी अति और वैराग वृत्ति भी उतनी ही, तब कहेंगे बेहद की वैराग वृत्ति है। हो ही नहीं तो वैराग वृत्ति कैसी। हो और होते हुए भी वैराग वृत्ति हो इसको कहा जाता है - बेहद के वैरागी। तो जितना जो करता है उतना वर्तमान भी फल पाता है और भविष्य में तो मिलना ही है। वर्तमान में सच्चा स्नेह वा सबके दिल की आशीर्वादें अभी प्राप्त होती हैं और यह प्राप्ति स्वर्ग के राज्य भाग्य से भी ज्यादा है। अभी मालूम पड़ता है कि सबका स्नेह और आशीर्वाद दिल को कितनी आगे बढ़ाती है। तो वह सबके दिल की आशीर्वाद की खुशी और सुख की अनुभूति एक विचित्र है। ऐसे अनुभव करेंगे जैसे कोई सहज हाथों पर उड़ाते हुए लिए जा रहा है। यह सर्व का स्नेह और सर्व की आशीर्वाद इतना अनुभव कराने वाली हैं। अच्छा –
इस नये वर्ष में सभी ने नया उमंग-उत्साह भरा संकल्प किया है ना। उसमें दृढ़ता है ना! अगर कोई भी संकल्प को रोज रिवाइज करते रहो तो जैसे कोई भी चीज़ पक्की करते जाओ तो पक्की हो जाती। तो जो संकल्प किया उसे छोड़ नहीं दो। रोज उस संकल्प को रिवाइज कर दृढ़ करो तो फिर यही दृढ़ता सदा कार्य में आयेगी। कभी-कभी सोच लिया क्या संकल्प किया था, या चलते-चलते संकल्प भी भूल जाए क्या किया था तो कमज़ोरी आती है। रोज रिवाइज करो और रोज बाप के आगे रिपीट करो तो पक्का होता जायेगा और सफलता भी सहज मिलेगी। सभी जिस स्नेह से मधुबन में एक एक आत्मा को देखते हैं वह बाप जानते हैं। मधुबन निवासी आत्माओं की विशेषताओं का कम महत्व नहीं है। अगर कोई एक छोटा-सा विशेष कार्य भी करते हैं तो एक स्थान पर वह कार्य होता है और सभी को प्रेरणा मिलती है, तो वह सारा विशेषता के फायदे का हिस्सा उस आत्मा को मिल जाता है। तो मधुबन वाले कोई भी श्रेष्ठ संकल्प करते हैं, प्लैन बनाते हैं, कर्म करते हैं वह सभी को सीखने का उत्साह होता है। तो सभी के उत्साह बढ़ाने वाली आत्मा को कितना फायदा होगा! इतना महत्व है आप सबका। एक कोने में करते हो और फैलता सभी जगह है। अच्छा –
इस वर्ष के लिए नया प्लैन - इस वर्ष ऐसा कोई ग्रुप बनाओ जिस ग्रुप की विशेषताओं को प्रैक्टिकल में देखकर दूसरों को प्रेरणा मिले और वायब्रेशन फैले। जैसे गवर्मेन्ट भी कहती है कि आप कोई ऐसा स्थान लेकर एक गाँव को उठा करके ऐसा सैम्पुल दिखाओ जिससे समझ में आये कि आप प्रैक्टिकल कर रहे हैं तो उसका प्रभाव फैलेगा। ऐसे ही कोई ग्रुप बने जिससे दूसरों को प्रेरणा मिले। कोई भी अगर देखना चाहे गुण क्या होता है, शक्ति क्या होती है, ज्ञान क्या होता है, याद क्या होती है तो उसका प्रैक्टिकल स्वरूप दिखाई दे। ऐसे अगर छोटे-छोटे ग्रुप प्रैक्टिकल प्रमाण बन जाएँ तो वह श्रेष्ठ वायब्रेशन वायुमण्डल में स्वत: ही फैलेगा। आजकल सभी लोग प्रैक्टिकल देखने चाहते हैं, सुनने नही चाहते हैं। प्रैक्टिकल का प्रभाव बहुत जल्दी पहुँचता है। तो ऐसा कोई तीव्र उमंग उत्साह का प्रैक्टिकल रूप हो, ग्रुप हो जिसको सहज सभी देख करके प्रेरणा लें और चारों तरफ यह प्रेरणा पहुँच जाए। तो एक से दो, दो से तीन ऐसे फैलता जायेगा। इसलिए ऐसी कोई विशेषता करके दिखाओ। जैसे विशेष निमित्त बनी हुई आत्माओं के प्रतिसभी समझते हैं कि यह प्रूफ है और प्रेरणा मिकलती है। ऐसा और भी पू्रफ बनाओ। जिसको देखकर सब कहें कि हाँ, प्रैक्टिकल ज्ञान का स्वरूप अनुभव हो रहा है। इस शुभ श्रेष्ठ कर्म, श्रेष्ठ संकल्प की वृत्ति से वायुमण्डल बनाओ। ऐसा कुछ करके दिखाओ। आजकल मंसा का प्रभाव जितना पड़ता है उतना वाणी का नहीं पड़ता। वाणी एक शब्द बोलो और वायब्रेशन 100 शब्दों का फैलाओ तभी असर होता है। शब्द तो कामन हो गये हैं ना लेकिन शब्द के साथ जो वायब्रेशन शक्तिशाली हैं वह और कहाँ नहीं होता है, यह यहाँ ही होता है। यह विशेषता करके दिखाओ। बाकी तो कांफ्रेंस करेंगे, यूथ का प्रोग्राम करेंगे यह तो होते रहेंगे और होने भी हैं। इससे भी उमंग-उत्साह बढ़ता है लेकिन अभी आत्मिक-शक्ति की आवश्यकता है। यह है वृत्ति से वायब्रेशन फैलाना। वह शक्तिशाली है। अच्छा –
विदेशी बच्चों से - बापदादा रोज स्नेही बच्चों को स्नेह का रिर्टन देते हैं। बाप का बच्चों से इतना स्नेह है,जो बच्चे संकल्प ही करते, मुख तक भी नहीं आता और बाप उसका रिर्टन पहले से ही कर देता। संगमयुग पर सारे कल्प का यादप्यार दे देते हैं। इतना याद और प्यार देते हैं जो जन्म-जन्म यादप्यार से झोली भरी हुइ रहती है। बापदादा स्नेही आत्माओं को सदा सहयोग दे आगे बढ़ाते रहते हैं। बाप ने जो स्नेह दिया है उस स्नेह का स्वरूप बनकर किसी को भी स्नेही बनायेंगे तो वह बाप का बन जायेंगे। स्नेह ही सब को आकर्षित करने वाला है। सभी बच्चों का स्नेह बाप के पास पहुँचता रहता है। अच्छा –
14-01-85 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
सदा सर्व के शुभ चिन्तक अव्यक्त बापदादा बोले
आज बापदादा चारों ओर के विशेष बच्चों को देख रहे हैं। कौन से विशेष बच्चे हैं जो सदा स्वचिन्तन, शुभ चिन्तन में रहने के कारण सर्व के शुभ चिन्तक हैं। जो सदा शुभ चिन्तन में रहता है वह स्वत: ही शुभचिन्तक बन जाता है। शुभ चिन्तन का आधार है शुभ चिन्तक बनने का। पहला कदम है स्वचिन्तन। स्वचिन्तन अर्थात् जो बापदादा ने ‘‘मैं कौन’’ की पहली बताई है उसको सदा स्मृति स्वरूप में रखना। जैसे बाप और दादा जो है, जैसा है - वैसा उसको जानना ही यथार्थ जानना है और दोनों को जानना ही जानना है। ऐसे स्व को भी - जो हूँ जैसा हूँ अर्थात् जो आदि-अनादि श्रेष्ठ स्वरूप हूँ, उस रूप से अपने आपको जानना और उसी स्वचिन्तन में रहना इसको कहा जाता है - ‘स्वचिन्तन’। मैं कमज़ोर हूँ, पुरुषार्थी हूँ लेकिन सफलता स्वरूप नहीं हूँ, मायाजीत नहीं हूँ, यह सोचना स्वचिन्तन नहीं। क्योंकि संगमयुगी पुरूषोत्तम ब्राह्मण आत्मा अर्थात् शक्तिशाली आत्मा। यह कमज़ोरी वा पुरूषार्थहीन वा ढीला पुरूषार्थ देह-अभिमान की रचना है। स्व अर्थात् आत्म-अभिमानी। इस स्थिति में यह कमज़ोरी की बातें आ नहीं सकतीं। तो यह देह-अभिमान की रचना का चिन्तन करना यह भी स्वचिन्तन नहीं। स्व-चिन्तन अर्थात् जैसा बाप वैसे मैं श्रेष्ठ आत्मा हूँ। ऐसा स्वचिन्तन वाला शुभ चिन्तन कर सकता है। शुभ चिन्तन अर्थात् ज्ञान रत्नों का मनन करना। रचता और रचना के गुह्य रमणीक राजों में रमण करना। एक है सिर्फ रिपीट करना, दूसरा है ज्ञान सागर की लहरों में लहराना अर्थात् ज्ञान खजाने के मालिकपन के नशे में रह सदा ज्ञान रत्नों से खेलते रहना। ज्ञान के एक-एक अमूल्य बोल को अनुभव में लाना अर्थात् स्वयं को अमूल्य रत्नों से सदा महान बनाना। ऐसा ज्ञान में रमण करने वाला ही शुभ चिन्तन करने वाला है। ऐसा शुभ चिन्तन वाला स्वत: ही व्यर्थ चिन्तन परचिन्तन से दूर रहता है। स्वचिन्तन, शुभ चिन्तन करने वाली आत्मा हर सेकण्ड अपने शुभ चिन्तन में इतना बिजी रहती है जो और चिन्तन करने के लिए सेकण्ड वा श्वांस भी फुर्सत का नहीं। इसलिए सदा परचिन्तन और व्यर्थ चिन्तन से सहज ही सेफ रहता है। न बुद्धि में स्थान है, न समय है। समय भी शुभ चिन्तन में लगा हुआ है, बुद्धि सदा ज्ञान रत्नों से अर्थात् शुभ संकल्पों से सम्पन्न अर्थात् भरपूर है। दूसरा कोई संकल्प आने की मार्जिन ही नहीं। इसको कहा जाता है - शुभ चिन्तन करने वाला। हर ज्ञान के बोल के राज़ में जाने वाला। सिर्फ साज़ के मजे में रहने वाला नहीं। साज़ अर्थात् बोल के राज़ में जाने वाला। जैसे स्थूल साज़ भी सुनने में बहुत अच्छे लगते हैं ना। ऐसे ज्ञान मुरली का साज़ अच्छा बहुत लगता है लेकिन साज़ के साथ राज़ समझने वाले ज्ञान खजाने के रत्नों के मालिक बन मनन करने में मगन रहते हैं। मगन स्थिति वाले के आगे कोई विघ्न आ नहीं सकता। ऐसा शुभ चिन्तन करने वाले स्वत: ही सर्व के सम्पर्क में शुभ चिन्तक बन जाता है। स्वचिन्तन फिर शुभ चिन्तन, ऐसी आत्मायें शुभचिन्तक बन जाती हैं। क्योंकि जो स्वयं दिन रात शुभ चिन्तन में रहते वह औरों के प्रति कभी भी न अशुभ सोचते, न अशुभ देखते। उनका निजी संस्कार वा स्वभाव शुभ होने के कारण वृत्ति, दृष्टि सर्व में शुभ देखने और सोचने की स्वत: ही आदत बन जाती है। इसलिए हरेक के प्रति शुभ चिन्तक रहता है। किसी भी आत्मा का कमज़ोर संस्कार देखते हुए भी उस आत्मा के प्रति अशुभ वा व्यर्थ नहीं सोचेंगे कि यह तो ऐसा ही है। लेकिन ऐसी कमज़ोर आत्मा को सदा उमंग हुल्लास के पंख दे शाक्तिशाली बनाए ऊँचा उड़ायेंगे। सदा उस आत्मा के प्रति शुभ भावना, शुभ कामना द्वारा सहयोगी बनेंगे। शुभ चिन्तक अर्थात् नाउम्मीदवार को उम्मीदवार बनाने वाले। शुभ चिन्तन के खजाने से कमज़ोर को भी भरपूर कर आगे बढ़ायेगा। यह नहीं सोचेगा इसमें तो ज्ञान है ही नहीं। यह ज्ञान के पात्र नहीं। यह ज्ञान में चल नहीं सकते। शुभचिन्तक बापदादा द्वारा ली हुई शक्तियों के सहारे की टांग दे लंगड़े को भी चलाने के निमित्त बन जायेंगे। शुभ चिन्तक आत्मा अपनी शुभचिन्तक स्थिति द्वारा दिलशिकस्त आत्मा को दिल खुश मिठाई द्वारा उनको भी तन्दुरूस्त बनायेगी। दिलखुश मिठाई खाते हो ना। तो दूसरे को खिलाने भी आती है ना। शुभचिन्तक आत्मा किसी की कमज़ोरी जानते हुए भी उस आत्मा की कमज़ोरी भुलाकर अपनी विशेषता के शक्ति की समर्थी दिलाते हुए उसको भी समर्थ बना देंगे। किसी के प्रति घृणा दृष्टि नहीं। सदा गिरी हुई आत्मा को ऊँचा उड़ाने की दृष्टि होगी। सिर्फ स्वयं शुभ चिन्तन में रहना वा शक्तिशाली आत्मा बनना यह भी फर्स्ट स्टेज नहीं। इसको भी शुभचिन्तक नहीं कहेंगे। शुभचिन्तक अर्थात् अपने खजानों को मंसा द्वारा, वाचा द्वारा, अपने रूहानी सम्बन्ध सम्पर्क द्वारा अन्य आत्माओं प्रति सेवा में लगाना। शुभ चिन्तक बने हो? सदा वृत्ति शुभ, दृष्टि शुभ। तो सृष्टि भी श्रेष्ठ ब्राहमणों की शुभ दिखाई देगी। वैसे भी साधारण रूप में कहा जाता है - शुभ बोलो। ब्राह्मण आत्मायें तो हैं ही शुभ जन्म वाली। शुभ समय पर जन्मे हो। ब्राहमणों के जन्म की घड़ी अर्थात् वेला शुभ है ना। भाग्य की दशा भी शुभ है। सम्बन्ध भी शुभ है। संकल्प, कर्म भी शुभ है। इसलिए ब्राह्मण आत्माओं के साकार में तो क्या लेकिन स्वप्न में भी अशुभ का नाम निशान नहीं - ऐसी शुभचिन्तक आत्मायें हो ना। स्मृति दिवस पर विशेष आये हो - स्मृति दिवस अर्थात् समर्थ दिवस। तो विशेष समर्थ आत्मायें हो ना। बापदादा भी कहते हैं - सदा समर्थ आत्मायें समर्थ दिन मनाने भले पधारे। समर्थ बापदादा समर्थ बच्चों का सदा स्वागत करते हैं, समझा!
अच्छा - सदा स्वचिन्तन के रूहानी नशे में रहने वाले, शुभ चिन्तन के खजाने से सम्पन्न रहने वाले, शुभचिन्तक बन सर्व आत्माओं को उड़कर उड़ाने वाले, सदा बाप समान दाता वरदाता बन सभी को शक्तिशाली बनाने वाले, ऐसे समर्थ समान बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।’’
पार्टियों के साथ - माताओं के ग्रुप से - 1. मातायें सदा अपना श्रेष्ठ भाग्य देख हर्षित रहती हो ना। चरणों की दासी से सिर के ताज बन गई यह खुशी सदा रहती है? कभी खुशी का खजाना चोरी तो नहीं हो जाता? माया चोरी करने में होशियार है। अगर सदा बहादुर हैं, होशियार हैं तो माया कुछ नहीं कर सकती और ही दासी बन जायेगी, दुश्मन सेवाधारी बन जायेगी। तो ऐसे मायाजीत हो? बाप की याद है अर्थात् सदा संग में रहने वाले हैं। रूहानी रंग लगा हुआ है। बाप का संग नहीं तो रूहानी रंग नहीं। तो सभी बाप के संग के रंग में रंगे हुए नष्टोमोहा हो? या थोड़ा-थोड़ा मोह है? बच्चों में नहीं होगा लेकिन पोत्रों-धोत्रों में होगा। बच्चों की सेवा पूरी हुई दूसरों की सेवा शुरू हुई। कम नहीं होती। एक के पीछे एक लाइन लग जाती है। तो इससे बन्धन मुक्त हो! माताओं की कितनी श्रेष्ठ प्राप्ति हो गई। जो बिल्कुल हाथ खाली बन गई थीं वह अभी मालामाल हो गई। सब कुछ गँवाया अभी फिर से बाप द्वारा सर्व खजाने प्राप्त कर लिए तो मातायें क्या से क्या बन गई? चार दीवारों में रहने वाली विश्व का मालिक बन गई। यह नशा रहता है ना कि बाप ने हमको अपना बनाया तो कितना भाग्य है। भगवान आकर अपना बनाये ऐसा श्रेष्ठ भाग्य तो कभी नहीं हो सकता। तो अपने भाग्य को देख सदा खुश रहती हो ना। कभी यह खजाना माया चोरी न करे।
2. सभी पुण्य आत्मायें बने हो? सबसे बड़ा पुण्य है - दूसरों को शक्ति देना। तो सदा सर्व आत्माओं के प्रति पुण्य आत्मा अर्थात् अपने मिले हुए खजाने के महादानी बनो। ऐसे दान करने वाले जितना दूसरों को देते हैं उतना पद्मगुणा बढ़ता है। तो यह देना अर्थात् लेना हो जाता है। ऐसे उमंग रहता है? इस उमंग का प्रैक्टिकल स्वरूप है सेवा में सदा आगे बढ़ते रहो। जितना भी तन-मन-धन सेवा में लगाते उतना वर्तमान भी महादानी पुण्य आत्मा बनते और भविष्य भी सदाकाल का जमा करते। यह भी ड्रामा में भाग्य है जो चांस मिलता है अपना सब कुछ जमा करने का। तो यह गोल्डन चांस लेने वाले हो ना। सोचकर किया तो सिल्वर चांस, फराखदिल होकर किया तो गोल्डन चांस तो सब नम्बरवन चांसलर बनो।
16-01-85 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
भाग्यवान युग में भगवान द्वारा वर्से और वरदानों की प्राप्ति
वरदाता, भाग्यविधाता बाप अपने भाग्यवान बच्चों प्रति बोले
आज सृष्टि वृक्ष के बीजरूप बाप अपने वृक्ष के फाउन्डेशन बच्चों को देख रहे हैं। जिस फाउण्डेशन द्वारा सारे वृक्ष काविस्तार होता है। विस्तार करने वाले सार स्वरूप विशेष आत्माओं को देख रहे हैं अर्थात् वृक्ष के आधार मूर्त आत्माओं को देख रहे हैं। डायरेक्ट बीजरूप द्वारा प्राप्त की हुई सर्व शक्तियों को धारण करने वाली विशेष आत्माओं को देख रहे हैं। सारे विश्व की सर्व आत्माओं में से सिर्फ थोड़ी-सी आत्माओं को यह विशेष पार्ट मिला हुआ है। कितनी थोड़ी आत्मायें हैं जिन्हों को बीज के साथ सम्बन्ध द्वारा श्रेष्ठ प्राप्ति का पार्ट मिला हुआ है।
आज बापदादा ऐसे श्रेष्ठ भाग्यवान बच्चों के भाग्य को देख रहे हैं। सिर्फ बच्चों को यह दो शब्द याद रहें ‘‘भगवान और भाग्य’’। भाग्य अपने कर्मों के हिसाब से सभी को मिलता है। द्वापर से अब तक आप आत्माओं को भी कर्म और भाग्य इस हिसाब किताब में आना पड़ता है लेकिन वर्तमान भाग्यवान युग में भगवान भाग्य देता है। भाग्य के श्रेष्ठ लकीर खींचने की विधि ‘‘श्रेष्ठ कर्म रूपी कलम’’ आप बच्चों को दे देते हैं, जिससे जितनी श्रेष्ठ स्पष्ट, जन्म जन्मान्तर के भाग्य की लकीर खींचने चाहो उतनी खींच सकते हो। और कोई समय को यह वरदान नहीं है। इसी समय को यह वरदान है जो चाहो जितना चाहो उतना पा सकते हो। क्यों? भगवान भाग्य का भण्डारा बच्चों के लिए फराखदिली से, बिना मेहनत के दे रहा है। खुला भण्डार है, ताला चाबी नहीं है। और इतना भरपूर, अखुट है जो जितने चाहें, जितना चाहें ले सकते हैं। बेहद का भरपूर भण्डारा है। बापदादा सभी बच्चों को रोज यही स्मृति दिलाते रहते हैं कि जितना लेने चाहो उतना ले लो। यथाशक्ति नहीं, लो बड़ी दिल से लो। लेकिन खुले भण्डार से, भरपूर भण्डार से लो। अगर कोई यथाशक्ति लेते हैं तो बाप क्या कहेंगे? बाप भी साक्षी हो देख-देख हर्षाते रहते कि कैसे भोले-भाले बच्चे थोड़े में ही खुश हो जाते हैं। क्यों? 63 जन्म भक्तपन के संस्कार होने के कारण अभी भी सम्पन्न प्राप्ति के बजाए थोड़े को ही बहुत समझ उसी में राजी हो जाते हैं।
इस समय अविनाशी बाप द्वारा सर्व प्राप्ति का समय है, यह भूल जाते हैं। बापदादा फिर भी बच्चों को स्मृति दिलाते, समर्थ बनो। अब भी टूलेट नहीं हुआ है। लेट आये हो लेकिन टूलेट का समय अभी नहीं है। इसलिए अभी भी दोनों रूप से बाप रूप से वर्सा, सतगुरू के रूप से वरदान मिलने का समय है। तो वरदान और वर्से के रूप में सहज श्रेष्ठ भाग्य बना लो। फिर यह नहीं सोचना पड़े कि भाग्य विधाता ने भाग्य बाँटा लेकिन मैंने इतना ही लिया। सर्वशक्तिवान बाप के बच्चे यथाशक्ति नहीं हो सकते।। अभी वरदान है जो चाहो वह बाप के खजाने से अधिकार के रूप से ले सकते हो! कमज़ोर हो तो भी बाप की मदद से, हिम्मते बच्चे मददे बाप, वर्तमान और भविष्य श्रेष्ठ बना सकते हो। बाकी थोड़ा समय है - बाप के सहयोग और बाप के भाग्य के खुले भण्डार मिलने का। अभी स्नेह के कारण बाप के रूप में हर समय हर परिस्थिति में साथी है लेकिन इस थोड़े समय के बाद साथी के बजाए साक्षी हो देखने का पार्ट चलेगा। चाहे सर्वशक्ति सम्पन्न बनो, चाहे यथाशक्ति बनो - दोनों को साक्षी हो देखेंगे। इसलिए इस श्रेष्ठ समय में बापदादा द्वारा वर्सा, वरदान, सहयोग, साथ इस भाग्य की जो प्राप्ति हो रही है उसको प्राप्त कर लो। प्राप्ति में कभी भी अलबेले नहीं बनना। अभी इतने वर्ष पड़े हैं, सृष्टि परिवर्तन के समय और प्राप्ति के समय दोनों को मिलाओ मत। इस अलबेले पन के संकल्प से सोचते नहीं रह जाना। सदा ब्राह्मण जीवन में सर्व प्राप्ति का, बहुतकाल की प्राप्ति का यही बोल याद रखो ‘‘अब नहीं तो कब नहीं।’’
इसलिए कहा कि सिर्फ दो शब्द भी याद रखो - ‘भगवान और भाग्य’। तो सदा पदमापदम भाग्यववान रहेंगे। बापदादा आपस में भी रूहरूहान करते हैं कि ऐसे पुरानी आदत से मजबूर क्यों हो जाते हैं? बाप मजबूत बनाते, फिर भी बच्चे मजबूर हो जाते हैं। हिम्मत की टाँगे भी देते हैं, पंख भी देते हैं, साथ-साथ भी उड़ाते फिर भी नीचे ऊपर नीचे ऊपर क्यों होते हैं। मौजों के युग में भी मूंझते रहते हैं। इसको कहते हैं - पुरानी आदत से मजबूर! मजबूत हो या मजबूर हो? बाप डबल लाइट बनाते, सब बोझ स्वयं उठाने के लिए साथ देते फिर भी बोझ उठाने की आदत, बोझ उठा लेते हैं। फिर कौन-सा गीत गाते हैं, जानते हो? क्या, क्यों, कैसे यह ‘‘के के’’ का गीत गाते हैं। दूसरा भी गीत गाते हैं ‘‘गे गे’’ का। यह तो भक्ति के गीत हैं। अधिकारीपन का गीत है ‘‘पा लिया’’। तो कौनसा गीत गाते हो? सारे दिन में चेक करो कि आज का गीत कौन-सा था? बापदादा का बच्चों से स्नेह है इसलिए स्नेह के कारण सदा यही सोचते कि हर बच्चा सदा सम्पन्न हो। समर्थ हो। सदा पद्मापद्म भाग्यवान हो। समझा। अच्छा –
सदा समय प्रमाण वर्से और वरदान के अधिकारी, सदा भाग्य के खुले भण्डार से सम्पूर्ण भाग्य बनाने वाले, यथाशक्ति को सर्व शक्ति सम्पन्न से परिवर्तन करने वाले, श्रेष्ठ कर्मों की कलम द्वारा सम्पन्न तकदीर की लकीर खींचने वाले, समय के महत्व को जान सर्व प्राप्ति स्वरूप श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का सम्पन्न बनाने का यादप्यार और नमस्ते।
पार्टियों से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात - 1. सदा अपना अलौकिक जन्म, अलौकिक जीवन, अलौकिक बाप, अलौकिक वर्सा याद रहता है? जैसे बाप अलौकिक है तो वर्सा भी अलौकिक है। लौकिक बाप हद का वर्सा देता, अलौकिक बाप बेहद का वर्सा देता। तो सदा अलौकिक बाप और वर्से की स्मृति रहे। कभी लौकिक जीवन के स्मृति में तो नहीं चले जाते? मरजीवा बन गये ना। जैसे शरीर से मरने वाले कभी भी पिछले जन्म को याद नहीं करते, ऐसे अलौकिक जीवन वाले, जन्म वाले, लौकक जन्म को याद नहीं कर सकते। अभी तो युग ही बदल गया। दुनिया कलियुगी है, आप संगमयुगी हो, सब बदल गया। कभी कलियुग में तो नहीं चले जाते। यह भी बार्डर है। बार्डर क्रास किया और दुश्मन के हवाले हो गये। तो बार्डर क्रास तो नहीं करते? सदा संगमयुगी अलौकिक जीवन वाली श्रेष्ठ आत्मा है, इसी स्मृति में रहो। अभी क्या करेंगे? बड़े से बड़ा बिजनेस मैन बनो। ऐसा बिजनेस मैन जो एक कदम से पदमों की कमाई जमा करनेवाले। सदा बेहद के बाप के हैं, तो बेहद की सेवा में, बेहद के उमंग-उत्साह से आगे बढ़ते रहो।
2. सदा डबल लाइट स्थिति का अनुभव करते हो? डबल लाइट स्थिति की निशानी है - सदा उड़ती कला। उड़ती कला वाले सदा विजयी? उड़ती कला वाले सदा निश्चय बुद्धि, निश्चिन्त। उड़ती कला क्या है? उड़ती कला अर्थात् ऊँचे से ऊँची स्थिति। उड़ते हैं तो ऊँचा जाते हैं ना? ऊँचे ते ऊँची स्थिति में रहने वाली ऊँची आत्माये समझ आगे बढ़ते चलो। उड़ती कला वाले अर्थात् बुद्धि रूपी पाँव धरनी पर नहीं। धरनी अर्थात् देह-भान से ऊपर। जो देह-भान की धरनी से ऊपर रहते वह सदा फरिश्ते हैं। जिसका धरनी से कोई रिश्ता नहीं। देह-भान को भी जान लिया, देही-अभिमानी स्थिति को भी जान लिया। जब दोनों के अन्तर को जान गये तो देह-अभिमान में आ नहीं सकते। जो अच्छा लगता है वही किया जाता है ना। तो सदा यही स्मृति से सदा उड़ते रहेंगे। उड़ती कला में चले गये तो नीचे की धरनी आकर्षित नहीं करती, ऐसे फरिश्ता बन गये तो देह रूपी धरनी आकर्षित नहीं कर सकती।
3. सदा सहयोगी, कर्मयोगी, स्वत: योगी, निरन्तर योगी - ऐसी स्थिति का अनुभव करते हो? जहाँ सहज है वहाँ निरंतर है। सहज नहीं तो निरंतर नहीं। तो निरंतर योगी हो या अन्तर पड़ जाता है? योगी अर्थात् सदा याद में मगन रहने वाले। जब सर्व सम्बन्ध बाप से हो गये तो जहाँ सर्व सम्बन्ध हैं वहाँ याद स्वत: होगी और सर्व सम्बन्ध हैं तो एक की ही याद होगी। है ही एक तो सदा याद रहेगी ना। तो सदा सर्व सम्बन्ध से एक बाप दूसरा न कोई। सर्व सम्बन्ध से एक बाप... यही सहज विधि है, निरंतर योगी बनने की। जब दूसरा सम्बन्ध ही नहीं तो याद कहाँ जायेगी। सर्व सम्बन्धों से सहजयोगी आत्मायें यह सदा स्मृति रखो। सदा बाप समान हर कदम में स्नेह और शक्ति दोनों का बैलेंस रखने से सफलता स्वत: ही सामने आती है। सफलता जन्म-सिद्ध अधिकार है। बिजी रहने के लिए काम तो करना ही है लेकिन एक है मेहनत का काम, दूसरा है खेल के समान। जब बाप द्वारा शक्तियों का वरदान मिला है तो जहाँ शक्ति है वहाँ सब सहज है। सिर्फ परिवार और बाप का बैलेंस हो तो स्वत: ही ब्लैसिंग प्राप्त हो जाती है। जहाँ ब्लैसिंग है वहाँ उड़ती कला है। न चाहते हुए भी सहज सफलता है।
4. सदा बाप और वर्सा दोनों की स्मृति रहती है? बाप कौन और वर्सा क्या मिला है यह स्मृति स्वत: समर्थ बना देती है। ऐसा अविनाशी वर्सा जो एक जन्म में अनेक जन्मों की प्रालब्ध बनाने वाला है, ऐसा वर्सा कभी मिला है? अभी मिला है, सारे कल्प में नहीं। तो सदा बाप और वर्सा इसी स्मृति से आगे बढ़ते चलो। वर्से को याद करने से सदा खुशी रहेगी और बाप को याद करने से सदा शक्तिशाली रहेंगे। शक्तिशाली आत्मा सदा मायाजीत रहेगी और खुशी है तो जीवन है। अगर खुशी नहीं तो जीवन क्या? जीवन होते भी ना के बराबर है। जीते हुए भी मृत्यु के समान है। जितना वर्सा याद रहेगा उतनी खुशी। सदा खुशी रहती है? ऐसा वर्सा कोटो में कोई को मिलता है और हमें मिला है। यह स्मृति कभी भी भूलना नहीं। जितनी याद उतनी प्राप्ति। सदा याद और सदा प्राप्ति की खुशी।
कुमारों से - कुमार जीवन शक्तिशाली जीवन है। तो ब्रह्माकुमार अर्थात् रूहानी शक्तिशाली। जिस्मानी शक्तिशाली नहीं, रूहानी शक्तिशाली। कुमार जीवन में जो चाहे वह कर सकते हो। तो आप सब कुमारों ने अपने इस कुमार जीवन में अपना वर्तमान और भविष्य बना लिया, क्या बनाया? रूहानी बनाया। ईश्वरीय जीवन वाले ब्रह्माकुमार बने तो कितने श्रेष्ठ जीवन वाले हो गये। ऐसी श्रेष्ठ जीवन बन गई जो सदा के लिए दुख से और धोखे से, भटकने से किनारा हो गया। नहीं तो जिस्मानी शक्ति वाले कुमार भटकते रहते हैं। लड़ना, झगड़ना दुख देना, धोखा देना....यही करते हैं ना। तो कितनी बातों से बच गये। जैसे स्वयं बचे हो वैसे औरों को भी बचाने का उमंग आता है। सदा हमजिन्स को बचाने वाले। जो शक्तियाँ मिली हैं वह औरों को भी दो। अखुट शक्तियाँ मिली है ना। तो सबको शक्तिशाली बनाओ। निमित्त समझकर सेवा करो। मैं सेवाधारी हूँ, नहीं। बाबा कराता है, मैं निमित्त समझकर सेवा करो। मैं सेवाधारी हूँ नहीं। बाबा कराता है, मैं निमित्त हूँ। मैं पन वाले नहीं। जिसमें मैंपन नहीं है वह सच्चे सेवाधारी हैं।
युगलों से - सदा स्वराज्य अधिकारी आत्मायें हो? स्व का राज्य अर्थात् सदा अधिकारी। अधिकारी कभी अधीन नहीं हो सकते। अधीन हैं तो अधिकार नहीं। जैसे रात है तो दिन नहीं। दिन है तो रात नहीं। ऐसे अधिकारी आत्मायें किसी भी कर्मइन्द्रियों के, व्यक्ति के, वैभव के अधीन नहीं हो सकते। ऐसे अधिकारी हो? जब मास्टर सर्वशविÌतवान बन गये तो क्या हुए? अधिकारी! तो सदा स्वराज्य अधिकारी आत्मायें हैं इस समर्थ स्मृति से सदा सहज विजयी बनते रहेंगे। स्वप्न में भी हार का संकल्प मात्र न हो। इसको कहा जाता है - सदा के विजयी। माया भाग गई कि भगा रहे हो? इतना भगाया है जो वापस न आये। किसको वापस नहीं लाना होता है तो उसको बहुत-बहुत दूर छोड़कर आते हैं। तो इतना दूर भगाया है। अच्छा –
मौरीशियस पार्टी से - सभी लकी सितारे हो ना? कितना भाग्य प्राप्त कर लिया! इस जैसा बड़ा भाग्य कोई का हो नहीं सकता। क्योंकि भाग्य विधाता बाप ही आपका बन गया। उसके बच्चे बन गये। जब भाग्य विधाता अपना बन गया तो इससे श्रेष्ठ भाग्य क्या होगा! तो ऐसे श्रेष्ठ भाग्यवान चमकते हुए सितारे हो। और सबको भाग्यवान बनाने वाले हो। क्योंकि जिसको कोई अच्छी चीज़ मिलती है वह दूसरों को देने के सिवाए रह नहीं सकते। जैसे याद के बिना नहीं रह सकते वैसे सेवा के बिना भी नहीं रह सकते। एक-एक बच्चा अनेकों का दीप जलाए दीपमाला करने वाला है। दीपमाला राजतिलक की निशानी है। तो दीपमाला करने वालों को राज्य तिलक मिल जाता है। सेवा करना अर्थात् राज्य तिलकधारी बनना। सेवा के उमंग उत्साह में रहने वाले दूसरों को भी उमंग-उत्साह के पंख दे सकते हैं। अच्छा – ओम शान्ति।
18-01-85 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
स्मृति दिवस पर अव्यक्त बापदादा के अनमोल महावाक्य
सर्व समर्थ बापदादा अपने बच्चों प्रति बोले
आज समर्थ दिवस पर समर्थ बाप अपने समर्थ बच्चों को देख रहे हैं। आज का दिन विशेष ब्रह्मा बाप द्वारा विशेष बच्चों को समर्थी का वरदान आर्पित करने का दिन है। आज के दिन बापदादा अपनी शक्ति सेना को विश्व की स्टेज पर लाते - तो साकार स्वरूप में शिव-शक्तियों को प्रत्यक्ष रूप में पार्ट बजाने का दिन है। शक्तियों द्वारा शिव बाप प्रत्यक्ष हो स्वयं गुप्त रूप में पार्ट बजाते रहते हैं। शक्तियों को प्रत्यक्ष रूप में विश्व के आगे विजयी प्रत्यक्ष करते हैं। आज का दिन बच्चों को बापदादा द्वारा समान भव के वरदान का दिन है। आज का दिन विशेष स्नेही बच्चों को नयनों में स्नेह स्वरूप से समाने का दिन है। आज का दिन बापदादा विशेष समर्थ और स्नेही बच्चों को मधुर मिलन द्वारा अविनाशी मिलन का वरदान देता है। आज के दिन अमृतवेले से चारों ओर के सर्व बच्चों के दिल का पहला संकल्प मधुर मिलन मनाने का, मीठे-मीठे महिमा के दिल के गीत गाने का, विशेष स्नेह की लहर का दिन है। आज के दिन अमृतवेले अनेक बच्चों के स्नेह के मोतियों की मालायें, हर एक मोती के बीच बाबा, मीठे बाबा का बोल चमकता हुआ देख रहे थे। कितनी मालायें होंगी। इस पुरानी दुनिया में 9 रत्नों की माला कहते हैं लेकिन बापदादा के पास अनेक अलौकिक अनोखी अमूल्य रत्नों की मालायें थीं। ऐसी मालायें सतयुग में भी नहीं पहनेंगे। यह मालायें सिर्फ बापदादा ही इस समय बच्चों द्वारा धारण करते हैं। आज का दिन अनेक बंधन वाली गोपिकाओं के दिल के वियोग और स्नेह से सम्पन्न मीठे गीत सुनने का दिन है। बापदादा ऐसी लगन में मगन रहने वाली स्नेही सिकीलधे आत्माओं को रिटर्न में यही खुशखबरी सुनाते कि अब प्रत्यक्षता का नगाड़ा बजने वाला ही है। इसलिए हे सहज योगी और मिलन के वियोगी बच्चे यह थोड़े से दिन समाप्त हुए कि हुए। साकार स्वीट होम में मधुर मिलन हो ही जायेगा। वह शुभ दिन समीप आ रहा है।
आज का दिन हर बच्चे के दिल से दृढ़ संकल्प करने से सहज सफलता का प्रत्यक्ष फल पाने का दिन है। सुना आज का दिन कितना महान है! ऐसे महान दिवस पर सभी बच्चे जहाँ भी हैं, दूर होते भी दिल के समीप हैं। बापदादा भी हर एक बच्चे को स्नेह और बापदादा को प्रत्यक्ष करने की सेवा के उमंग-उत्साह के रिटर्न में स्नेह भरी बधाई देते हैं। क्योंकि मैजारिटी बच्चों की रूह-रूहान में स्नेह और सेवा के उमंग की लहरें विशेष थीं। प्रतिज्ञा और प्रत्यक्षता दोनों बातें विशेष थीं। सुनते-सुनते बापदादा क्या करते! सुनाने वाले कितने होते हैं। लेकिन दिल का आवाज़ दिलाराम बाप एक ही समय में अनेकों का सुन सकते हैं। प्रतिज्ञा करने वालों को बापदादा बधाई देते। लेकिन सदा इस प्रतिज्ञा को अमृतवेले रिवाइज करते रहना। प्रतिज्ञा कर छोड़ नहीं देना। करना ही है, बनना ही है। इस उमंग-उत्साह को सदा साथ रखना। साथ-साथ कर्म करते हुए जैसे ट्रैफिक कन्ट्रोल की विधि द्वारा याद की स्थिति को लगातार बनाने में सफलता को पा रहे हो। ऐसे कर्म करते अपने प्रति अपने आपको चेक करने के लिए समय निश्चित करो। तो निश्चित समय प्रतिज्ञा को सफलता स्वरूप बनाता रहेगा।
प्रत्यक्षता के उमंग-उत्साह वाले बच्चों को बापदादा अपने राइट हैण्ड रूप से स्नेह की हैंडशेक कर रहे हैं। सदा मुरब्बी बच्चे सो बाप समान बन उमंग की हिम्मत से पदमगुणा बाप दादा की मदद के पात्र हैं ही हैं। सुपात्र अर्थात् पात्र हैं।
तीसरे प्रकार के बच्चे - दिन-रात स्नेह में समाये हुए हैं। स्नेह को ही सेवा समझते हैं। मैदान पर नहीं आते लेकिन ‘‘मेरा बाबा, मेरा बाबा’’ - यह गीत जरूर गाते हैं। बाप को भी मीठे रूप से रिझाते रहते हैं। जो हूँ जैसी हूँ आपकी हूँ। ऐसी भी विशेष स्नेही आत्मायें हैं। ऐसे स्नेही बच्चों को बापदादा स्नेह का रिटर्न स्नेह तो जरूर देते हैं लेकिन यह भी हिम्मत दिलाते हैं कि राज्य अधिकारी बनना है। राज्य में आने वाला बनना है - फिर तो स्नेही हो तो भी ठीक है। राज्य अधिकारी बनना है तो स्नेह के साथ पढ़ाई की शक्ति अर्थात् ज्ञान की शक्ति, सेवा की शक्ति, यह भी आवश्यक है। इसलिए हिम्मत करो। बाप मददगार है ही। स्नेह की रिटर्न में सहयोग मिलना ही है। थोड़ी सी हिम्मत से, अटेन्शन से राज्य अधिकारी बन सकते हो। सुना आज की रूह-रूहान का रेसपान्ड? देश विदेश चारों ओर के बच्चों की वतन में रौनक देखी। विदेशी बच्चे भी लास्ट सो फास्ट जाकर फर्स्ट आने के उमंग-उत्साह में अच्छे बढ़ते जा रहे हैं। वह समझते हैं जितना विदेश के हिसाब से दूर हैं उतना ही दिल में समीप रहते हैं। तो आज भी अच्छे-अच्छे उमंग-उत्साह की रूह-रूहान कर रहे थे। कई बच्चे बड़े स्वीट हैं। बाप को भी मीठी-मीठी बातों से मनाते रहते हैं। कहते बड़ा भोले रूप से हैं लेकिन हैं चतुर। कहते हैं - आप प्रामिस करो। ऐसे मनाते हैं। बाप क्या कहेंगे? खुश रहो, आबाद रहो, बढ़ते रहो। बातें तो बहुत लम्बी चौड़ी हैं, कितनी सुनाए कितनी सुनावें। लेकिन बातें सभी मजे से बड़ी अच्छी करते हैं। अच्छा –
सदा स्नेह और सेवा के उमंग-उत्साह में रहने वाले, सदा सुपात्र बन सर्व प्राप्तियों के पात्र बनने वाले, सदा स्वयं के कर्मों द्वारा बापदादा के श्रेष्ठ दिव्यकर्म प्रत्यक्ष करने वाले, अपने दिव्य-जीवन द्वारा ब्रह्मा बाप की जीवन कहानी स्पष्ट करने वाले - ऐसे सर्व बापदादा के सदा साथी बच्चों को समर्थ बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।’’
दादी जी तथा दादी जानकी जी बापदादा के सामने बैठी हैं - आज तुम्हारी सखी (दीदी) ने भी खास यादप्यार दी है। आज वह भी वतन में इमर्ज थी। इसलिए उनकी भी सभी को याद। वह भी (एडवांस पार्टी) में अपना संगठन मजबूत बना रहे हैं। उन्हों का कार्य भी आप लोगों के साथ-साथ प्रत्यक्ष होता जायेगा। अभी तो सम्बन्ध और देश के समीप हैं इसलिए छोटे-छोटे ग्रुप उन्हों में भी कारण अकारण आपस में न जानते हुए भी मिलते रहते हैं। यह पूर्ण स्मृति नहीं है लेकिन यह बुद्धि में टचिंग है कि हमें मिलकर कोई नया कार्य करना है। जो दुनिया की हालतें हैं, उसी प्रमाण जो कोई नहीं कर सकता है वह हमें मिलके करना है। इस टचिंग से आपस में मिलते जरूर हैं। लेकिन अभी कोई छोटे, कोई बड़े, ऐसा ग्रुप है। लेकिन गये सभी प्रकार के हैं। कर्मणा वाले भी गये हैं, राज्य स्थापना करने की प्लैनिंग बुद्धि वाले भी गये हैं। साथ-साथ हिम्मत हुल्लास बढ़ाने वाले भी गये हैं। आज पूरे ग्रुप में इन तीन प्रकार के बच्चे देखे और तीनों ही आवश्यक हैं। कोई प्लैनिंग वाले हैं, कोई कर्म में लाने वाले हैं और कोई हिम्मत बढ़ाने वाले हैं। ग्रुप तो अच्छा बना रहा है। लेकिन दोनों ग्रुप साथ-साथ प्रत्यक्ष होंगे। अभी प्रत्यक्षता की विशेषता बादलों के अन्दर है। बादल बिखर रहे हैं लेकिन हटे नहीं हैं। जितना-जितना शक्तिशाली मास्टर ज्ञान सूर्य की स्टेज पर पहुँच जाते हैं वैसे यह बादल बिखरते जा रहे हैं। मिट जायेंगे तो सेकण्ड में नगाड़ा बज जायेगा। अभी बिखर रहे हैं। वह भी पार्टी अपनी तैयारी खूब कर रही है। जैसे आप लोग यूथ रैली का प्लैन बना रहे हो ना, तो वह भी यूथ हैं अभी। वह भी आपस में बना रहे हैं। जैसे अभी भारत में अनेक पार्टियों की जो विशेषता थी वह कम हो फिर भी एक पार्टी आगे बढ़ रही है ना। तो बाहर की एकता का भी रहस्य है। अनेकता कमज़ोर हो रही है और एक शक्तिशाली हो रहे हैं। यह स्थापना के राज में सहयोग का पार्ट है। मन से मिले हुए नहीं है, मजबूरी से मिले हैं, लेकिन मजबूरी का मिलन भी रहस्य है। अभी स्थापना की गुह्य रीति-रसम स्पष्ट होने का समय समीप आ रहा है। फिर आप लोगों को पता पड़ेगा कि एडवांस पार्टी क्या कर रही है और हम क्या कर रहे हैं। अभी आप भी क्वेश्चन करते हो कि वह क्या कर रहे हैं और वह भी क्वेश्चन करते हैं कि यह क्या कर रहे हैं? लेकिन दोनों ही ड्रामा अनुसार बढ़ रहे हैं।
जगदम्बा तो है ही चन्द्रमा। तो चन्द्रमा जगत अम्बा के साथ दीदी का शुरू से विशेष पार्ट रहा है। कार्य में साथ का पार्ट रहा है। वह चन्द्रमा (शीतल) है और वह तीव्र है। दोनों का मेल है। अभी थोड़ा बड़ा होने दो उसको। जगदम्बा तो अभी भी शीतलता की सकाश दे रही है लेकिन प्लैनिंग में आगे आने में साथी भी चाहिए ना। पुष्पशान्ता और दीदी इन्हों का भी शुरू में आपस में हिसाब है। यहाँ भी दोनों का हिसाब आपस में समीप का है। भाऊ (विश्वकिशोर) तो बैकबोन है। इसमें भी पाण्डव बैकबोन हैं शक्तियाँ आगे हैं। तो वह भी उमंग- उत्साह में लाने वाले ग्रुप हैं। अभी प्लैनिंग करने वाले थोड़ा मैदान पर जायेंगे फिर प्रत्यक्षता होगी। अच्छा –
विदेशी भाई-बहिनों से - सभी लास्ट सो फास्ट जाने वाले और फर्स्ट आने के उमंग-उत्साह वाले हो ना। सेकण्ड नम्बर वाला तो कोई नहीं है। लक्ष्य शक्तिशाली है तो लक्षण भी स्वत: शक्तिशाली होंगे। सभी आगे बढ़ने में उमंग-उत्साह वाले हैं। बापदादा भी हर बच्चे को यही कहते कि सदा डबल लाइट बन उड़ती कला से नम्बरवन आना ही है। जैसे बाप ऊँचे ते ऊँचा है वैसे हर बच्चा भी ऊँचे ते ऊँचा है।
सदा उमंग-उत्साह के पंखों से उड़ने वाले ही उड़ती कला का अनुभव करते हैं। इस स्थिति में स्थित रहने का सहज साधन है - जो भी सेवा करते हो, वह बाप करन-करावहार करा रहा है, मैं निमित्त हूँ, कराने वाला करा रहा है, चला रहा है, इस स्मृति से सदा हल्के हो उड़ते रहेंगें। इसी स्थिति को सदा आगे बढ़ाते रहो।
विदाई के समय - यह समर्थ दिन सदा समर्थ बनाता रहेगा। इस समर्थ दिन पर जो भी आये हो वह विशेष समर्थ भव का वरदान सदा साथ रखना। कोई भी ऐसी बात आये तो यह दिन और यह वरदान याद करना तो स्मृति समर्थी लायेगी। सेकण्ड में बुद्धि के विमान द्वारा मधुबन में पहुँच जाना। क्या था, कैसा था और क्या वरदान मिला था। सेकण्ड में मधुबन निवासी बनने से समर्थी आ जायेगी। मधुबन में पहुँचना तो आयेगा ना। यह तो सहज है, साकार में देखा है। परमधाम में जाना मुश्किल भी लगता हो, मधुबन में पहुँचना तो मुश्किल नहीं। तो सेकण्ड में बिना टिकट के, बिना खर्चे के मधुबन निवासी बन जाना। तो मधुबन सदा ही हिम्मत हुल्लास देता रहेगा। जैसे यहाँ सभी हिम्मत हुल्लास में हो, किसी के पास कमज़ोरी नहीं है ना। तो यही स्मृति फिर समर्थ बना देगी।
21-01-85 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
ईश्वरीय जन्म दिन की गोल्डन गिफ्ट - ‘‘दिव्य बुद्धि’’
ज्ञानसागर, दिव्य बुद्धि विधाता बापदादा अपने नूरे जहान बच्चों प्रति बोले
आज विश्व रचता बाप अपने जहान के नूर, नूरे जहान बच्चों को देख रहे हैं। आप श्रेष्ठ आत्मायें जहान के नूर हो। अर्थात् जहान की रोशनी हो। जैसे स्थूल नूर नहीं तो जहान नहीं। क्योंकि नूर अर्थात् रोशनी। रोशनी नहीं तो अंधकार के कारण जहान नहीं। तो आप नूर नहीं तो दुनिया में रोशनी नहीं। आप हैं तो रोशनी के कारण जहान है। तो बापदादा ऐसे जहान के नूर बच्चों को देख रहे हैं। ऐसे बच्चों की महिमा सदा गाई और पूजी जाती है। ऐसे बच्चे ही विश्व के राज्य भाग्य के अधिकारी बनते हैं। बापदादा हर ब्राह्मण बच्चे को जन्म लेते ही विशेष दिव्य जन्म-दिन की दिव्य दो सौगात देते हैं। दुनिया में मनुष्य आत्मायें, मनुष्य आत्मा को गिफ्ट देती है लेकिन ब्राह्मण बच्चों को स्वयं बाप दिव्य सौगात इस संगमयुग पर देते हैं। क्या देते हैं? एक दिव्य बुद्धि और दूसरा दिव्य नेत्र अर्थात् रूहानी नूर। यह दो गिफ्ट हर एक ब्राह्मण बच्चे को जन्म-दिन की गिफ्ट है। इसी दोनों गिफ्ट को सदा साथ रखते इन द्वारा सदा सफलता स्वरूप रहते हो? दिव्य बुद्धि ही हर बच्चे को दिव्य ज्ञान, दिव्य याद, दिव्य धारणा स्वरूप बनाती है। दिव्य बुद्धि ही धारणा करने की विशेष गिफ्ट है। तो दिव्य बुद्धि सदा है अर्थात् धारणा स्वरूप हैं। दिव्य बुद्धि में अर्थात् सतोप्रधान गोल्डन बुद्धि में जरा भी रजो तमो का प्रभाव पड़ता है तो धारणा स्वरूप के बजाए माया के प्रभाव में आ जाते हैं। इसलिए हर सहज बात भी मुश्किल अनुभव करते हैं। सहज गिफ्ट के रूप में प्राप्त हुई दिव्य बुद्धि कमज़ोर होने के कारण मेहनत अनुभव करते हैं। जब भी मुश्किल वा मेहनत का अनुभव करते हो तो अवश्य दिव्य बुद्धि किसी माया के रूप से प्रभावित है तब ऐसा अनुभव होता है। दिव्य बुद्धि सेकण्ड में बापदादा की श्रीमत धारण कर सदा समर्थ, सदा अचल, सदा मास्टर सर्वशक्तिवान स्थिति का अनुभव करते हैं। श्रीमत अर्थात् श्रेष्ठ बनाने वाली मत। वह कभी मुश्किल अनुभव नहीं कर सकते। श्रीमत सदा सहज उड़ाने वाली मत है। लेकिन धारण करने की दिव्य बुद्धि जरूर चाहिए। तो चेक करो - अपने जन्म की सौगात सदा साथ है? कभी माया अपना बनाकर दिव्य बुद्धि की गिफ्ट छीन तो नहीं लेती? कभी माया के प्रभाव से भोले तो नहीं बन जाते जो परमात्म गिफ्ट भी गंवा दो। माया को भी ईश्वरीय गिफ्ट अपना बनाने की चतुराई आती है। तो स्वयं चतुर बन जाती और आपको भोला बना देती है। इसलिए भोलेनाथ बाप के भोले बच्चे भले बनो लेकिन माया के भोले नहीं बनो। माया के भोले बनना अर्थात् भूलने वाला बनना। ईश्वरीय दिव्य बुद्धि की गिफ्ट सदा छत्रछाया है। और माया अपनी छाया डाल देती है। छत्र उड़ जाता है, छाया रह जाती है। इसलिए सदा चेक करो - बाप की गिफ्ट कायम है। दिव्य बुद्धि की निशानी गिफ्ट, लिफ्ट का कार्य करती है। जो श्रेष्ठ संकल्प रूपी स्विच आन किया उस स्थिति में सेकण्ड में स्थित हुए। अगर दिव्य बुद्धि के बीच माया की छाया है तो यह गिफ्ट की लिफ्ट कार्य नहीं करेगी। जैसे स्थूल लिफ्ट भी खराब हो जाती है तो क्या हालत होती है? न ऊपर न नीचे। बीच में लटक जाते। शान के बजाए परेशान हो जाते। कितना भी स्विच आन करेंगे लेकिन मंजल पर पहुँचने की प्राप्ति नहीं कर सकेंगे। तो यह गिफ्ट की लिफ्ट खराब कर देते हो इसलिए मेहनत रूपी सीढ़ी चढ़नी पड़ती है। फिर क्या कहते हो? हिम्मत रूपी टांगे चल नहीं सकतीं। तो सहज को मुश्किल किसने बनाया और कैसे बनाया? अपने आपको अलबेला बनाया। माया की छाया में आ गये इसलिए सेकण्ड की सहज बात को बहुत समय की मेहनत अनुभव करते हो। दिव्य बुद्धि की गिफ्ट अलौकिक विमान है। जिस दिव्य विमान द्वारा सेकण्ड के स्विच आन करने से जहाँ चाहो वहाँ पहुँच सकते हो। स्विच है संकल्प। साइन्स वाले तो एक लोक का सैर कर सकते। आप तीनों लोकों का सैर कर सकते हो। सेकण्ड में विश्व-कल्याणकारी स्वरूप बन सारे विश्व को लाइट और माइट दे सकते हो। सिर्फ दिव्य बुद्धि के विमान द्वारा ऊँची स्थिति में स्थित हो जाओ। जैसे उन्होंने विमान द्वारा हिमालय के ऊपर राख डाली, नदी में राख डाली, किसलिए? चारों ओर फैलाने के लिए ना! उन्होंने तो राख डाली, आप दिव्य बुद्धि रूपी विमान द्वारा सबसे ऊँची चोटी की स्थिति में स्थित हो विश्व की सर्व आत्माओं के प्रति लाइट और माइट की शुभ भावना और श्रेष्ठ कामना के सहयोग की लहर फैलाओ। विमान तो शक्तिशाली है ना? सिर्फ यूज़ करना आना चाहिए।
बापदादा की रिफाइन श्रेष्ठ मत का साधन चाहिए। जैसे आजकल रिफाइन से भी डबल रिफाइन चलता है ना। तो बापदादा का यह डबल रिफाइन साधन है। जरा भी मन-मत, परमत का किचड़ा है तो क्या होगा? ऊँचे जायेंगे या नीचे? तो यह चेक करो - दिव्य बुद्धि रूपी विमान में सदा डबल रिफाइन साधन है? बीच में कोई किचड़ा तो नहीं आ जाता? नहीं तो यह विमान सदा सुखदाई है। जैसे सतयुग में कभी भी कोई एक्सीडेंट हो नहीं सकते। क्योंकि आपके श्रेष्ठ कर्मों की श्रेष्ठ प्रालब्ध है। ऐसे कोई कर्म होते नहीं जो कर्म के भोग के हिसाब से यह दुःख भोगना पड़े। ऐसे संगमयुगी गाडली गिफ्ट दिव्य बुद्धि सदा सर्व प्रकार के दुःख और धोखे से मुक्त हैं। दिव्य बुद्धि वाले कभी धोखे में आ नहीं सकते। दुःख की अनुभूति कर नहीं सकते। सदा सेफ हैं। आपदाओं से मुक्त हैं। इसलिए इस गाडली गिफ्ट के महत्व को जान इस गिफ्ट को सदा साथ रखो। समझा? इस गिफ्ट का महत्व। गिफ्ट सभी को मिली है या किसी की रह गई है? मिली तो सबको हैं ना। सिर्फ सम्भालने आती या नहीं वह आपके ऊपर है। सदा अमृतवेले चेक करो - जरा भी कमी हो तो अमृतवेले ठीक कर देने से सारा दिन शक्तिशाली रहेगा। अगर स्वयं ठीक नहीं कर सकते हो तो ठीक कराओ। लेकिन अमृतेवेले ही ठीक कर दो। अच्छा - दिव्य दृष्टि की बात फिर सुनायेंगे। दिव्य दृष्टि कहो, दिव्य नेत्र कहो, रूहानी नूर कहो बात एक ही है। इस समय तो दिव्य बुद्धि की यह गिफ्ट सभी के पास है ना। सोने का पात्र हो ना। यही दिव्य बुद्धि है। मधुबन में सभी दिव्य बुद्धि रूपी सम्पूर्ण सोने का पात्र लेकर आये हो ना। सच्चे सोने में सिल्वर वा कापर मिक्स तो नहीं है ना! सतोप्रधान अर्थात् सम्पूर्ण सोना। इसको ही दिव्य बुद्धि कहा जाता है। अच्छा - जिस भी तरफ से आये हो, सब तरफ से ज्ञान नदियाँ आए सागर में समाई। नदी और सागर का मेला है। महान मेला मनाने आये हो ना। मिलन मेला मनाने आये हो। बापदादा भी सर्व ज्ञान नदियों को देख हर्षित होते हैं कि कैसे उमंग-उत्साह से कहाँ-कहाँ से इस मिलन मेले में पहुँच गये हैं। अच्छा –
सदा दिव्य बुद्धि के गोल्डन गिफ्ट को कार्य में लाने वाले, सदा बाप समान चतुर सुजान बन माया की चतुराई को जानने वाले, सदा बाप की छत्रछाया में रह माया की छाया से दूर रहने वाले, सदा ज्ञान सागर से मधुर मिलन मेला मनाने वाले, हर मुश्किल को सहज बनाने वाले, विश्व-कल्याणकारी, श्रेष्ठ स्थिति में स्थित रहने वाले, श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।’’
पर्सनल मुलाकात - 1. दृष्टि बदलने से सृष्टि बदल गई है ना! दृष्टि श्रेष्ठ हो गई तो सृष्टि भी श्रेष्ठ हो गई! अभी सृष्टि ही बाप है। बाप में सृष्टि समाई हुई है। ऐसे ही अनुभव होता है ना! जहाँ भी देखो, सुनो तो बाप भी साथ में अनुभव होता है ना! ऐसा स्नेही सारे विश्व में कोई हो नहीं सकता जो हर सेकण्ड, हर संकल्प में साथ निभाये। लौकिक में कोई कितना भी स्नेही हो लेकिन फिर भी सदा साथ नहीं दे सकता। यह तो स्वप्न मे भी साथ देता है। ऐसा साथ निभाने वाला साथी मिला है, इसलिए सृष्टि बदल गई। अभी लौकिक में भी अलौकिक अनुभव करते हो ना! लौकिक में जो भी सम्बन्ध देखते तो सच्चा सम्बन्ध स्वत: स्मृति में आता, इससे उन आत्माओं को भी शक्ति मिल जाती। जब बाप सदा साथ है तो बेफकर बादशाह हो। ठीक होगा या नहीं यह भी सोचने की जरूरत नहीं रहती। जब बाप साथ है तो सब ठीक ही ठीक है। तो साथ का अनुभव करते हुए उड़ते चलो। सोचना भी बाप का काम है, हमारा काम है साथ में मगन रहना। इसलिए कमज़ोर सोच भी समाप्त। सदा बेफिकर बादशाह रहो, अभी भी बादशाह और सदा के लिए बादशाह।
2. सदा अपने को सफलता के सितारे समझो और दूसरी आत्माओं को भी सफलता की चाबी देते रहो। इस सेवा से सभी आत्मायें खुश होकर आपको दिल से आशीर्वाद देंगी। बाप और सर्व की आशीर्वादें ही आगे बढ़ाती हैं।
23-01-85 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
दिव्य जन्म की गिफ्ट - ‘‘दिव्य नेत्र’’
दिव्य बुद्धि दिव्य दृष्टि विधाता त्रिकालदर्शी बापदादा बोले
आज त्रिकालदर्शी बाप अपने त्रिकालदर्शी, त्रिनेत्री बच्चों को देख रहे हैं। बापदादा, दिव्य बुद्धि और दिव्य नेत्र जिसको तीसरा नेत्र भी कहते हैं, वह नेत्र कहाँ तक स्पष्ट और शक्तिशाली है, हर एक बच्चे के दिव्य नेत्र के शक्ति की परसेन्टेज देख रहे हैं। बापदादा ने सभी को 100 प्रतिशत शक्तिशाली दिव्य नेत्र जन्म की गिफ्ट दी है। बापदादा ने नम्बरवार शक्तिशाली नेत्र नहीं दिया लेकिन इस दिव्य नेत्र को हर एक बच्चे ने अपने-अपने कायदे प्रमाण, परहेज प्रमाण, अटेन्शन देने प्रमाण प्रैक्टिकल कार्य में लगाया है। इसलिए दिव्य नेत्र की शक्ति किसी की सम्पूर्ण शक्तिशाली है, किसी की शक्ति परसेन्टेज में रह गई है। बापदादा द्वारा यह तीसरा नेत्र दिव्य नेत्र मिला है, जैसे आजकल साइन्स का साधन दूरबीन है जो दूर की वस्तु को समीप और स्पष्ट अनुभव कराती है, ऐसे यह दिव्य नेत्र भी दिव्य दूरबीन का काम करते हैं। सेकण्ड में परमधाम, कितना दूर है। जिसके माइल गिनती नहीं कर सकते, साइंस का साधन इस साकार सृष्टि के सूर्य चांद सितारो तक देख सकते हैं। लेकिन यह दिव्य नेत्र तीनों लोकों को, तीनों कालों को देख सकते हैं। इस दिव्य नेत्र को अनुभव का नेत्र भी कहते हैं। अनुभव की आँख, जिस आँख द्वारा 5000 वर्ष की बात इतनी स्पष्ट देखते जैसे कि कल की बात है। हाँ, 5 हजार वर्ष और कहाँ कल! तो दूर की बात समीप और स्पष्ट देखते हो ना। अनुभव करते हो - कल मैं पूज्य देव आत्मा थी और कल फिर बनेंगी। आज ब्राह्मण कल देवता। तो आज और कल की बात सहज हो गई ना। शक्तिशाली नेत्र वाले बच्चे अपने डबल ताजधारी सहज सजाये स्वरूप को सदा सामने स्पष्ट देखते रहते हैं। जैसे स्थूल चोला सजा सजाया सामने दिखाई देता और समझते हो अभी का अभी धारण किया कि किया। ऐसे यह देवताई शरीर रूपी चोला सामने देख रहे हो ना। बस कल धारण करना ही है। दिखाई देता है ना। अभी तैयार हो रहा है वा सामने तैयार हुआ दिखाई दे रहा है? जैसे ब्रह्मा बाप को देखा, अपना भविष्य चोला श्रीकृष्ण स्वरूप सदा सामने स्पष्ट रहा। ऐसे आप सभी को भी शक्तिशाली नेत्र से स्पष्ट और सामने दिखाई देता है? अभी-अभी फरिश्ता सो देवता। नशा भी है और साक्षात् देवता बनने का दिव्य नेत्र द्वारा साक्षात्कार भी है। तो ऐसा शक्तिशाली नेत्र है? वा कुछ देखने की शक्ति कम हो गई है? जैसे स्थूल नेत्र की शक्ति कम हो जाती है तो स्पष्ट चीज़ भी जैसे पर्दे के अन्दर वा बादलों के बीच दिखाई देती है। ऐसे आपको भी देवता बनना तो है, बना तो था लेकिन क्या था, कैसा था इस ‘था’ के पर्दे के अन्दर तो नहीं दिखाई देता? स्पष्ट है? निश्चय का पर्दा और स्मृति का मणका दोनों शक्तिशाली हैं ना। वा मणका ठीक है और पर्दा कमज़ोर है! एक भी कमज़ोर रहा तो स्पष्ट नहीं होगा। तो चेक करो वा चेक कराओ कि कहाँ नेत्र की शक्ति कम तो नहीं हुई है? अगर जन्म से श्रीमत रूपी परहेज करते आये हो तो नेत्र सदा शक्तिशाली है। श्रीमत की परहेज में कमी है तब शक्ति भी कम है। फिर से श्रीमत की दुआ कहो, दवा कहो, परहेज कहो, वह करो तो फिर शक्तिशाली हो जायेंगे। तो यह नेत्र है दिव्य दूरबीन।
यह नेत्र शक्तिशाली यंत्र भी है। जिस द्वारा जो जैसा है, आत्मिक रूप को आत्मा की विशेषता को सहज और स्पष्ट देख सकते हो। शरीर के अन्दर विराजमान गुप्त आत्मा को ऐसे देख सकते जैसे स्थूल नेत्रों द्वारा स्थूल शरीर को देखते हो। ऐसे स्पष्ट आत्मा दिखाई देती है ना वा शरीर दिखाई देता है? दिव्य नेत्र द्वारा दिव्य सूक्ष्म आत्मा ही दिखाई देगी। जैसे नेत्र दिव्य है तो विशेषता अर्थात् गुण भी दिव्य है। अवगुण कमज़ोरी है। कमज़ोर नेत्र कमज़ोरी को देखते हैं। जैसे स्थूल नेत्र कमज़ोर होता है तो काले-काले दाग दिखाई देते हैं। ऐसे कमज़ोर नेत्र अवगुण के कालेपन को देखते हैं। बापदादा ने कमज़ोर नेत्र नहीं दिया है। स्वयं ने ही कमज़ोर बनाया है। वास्तव में यह शक्तिशाली यंत्र रूपी नेत्र चलते-फिरते नैचुरल रूप में सदा आत्मिक रूप को ही देखते। मेहनत नहीं करनी पड़ती कि यह शरीर है या आत्मा है। यह है या वह है। यह कमज़ोर नेत्र की निशानी है जैसे साइन्स वाले शक्तिशाली ग्लासेज द्वारा सभी जर्मस को स्पष्ट देख सकते हैं। ऐसे यह शक्तिशाली दिव्य नेत्र माया की बीमारी को पहले से ही जान समाप्त कर सदा निरोगी रहते हैं।
ऐसा शक्तिशाली दिव्य नेत्र है। यह दिव्य नेत्र दिव्य टी.वी. भी है। आजकल टी.वी. सभी को अच्छी लगती है ना। इसको टी.वी. कहो वा दूरदर्शन कहो इसमें अपने स्वर्ग के सर्व जन्मों को अर्थात् अपने 21 जन्मों के दिव्य फिल्म को देख सकते हो। अपने राज्य के सुन्दर नजारे देख सकते हो। हर जन्म की आत्म-कहानी को देख सकते हो। अपने ताज तख्त राज्य-भाग्य को देख सकते हो। दिव्य दर्शन कहो वा दूरदर्शन कहो। दिव्य दर्शन का नेत्र शक्तिशाली है ना। जब फ्री हो तो यह फिल्म देखो, आजकल की डांस नहीं देखना वह डेन्जर डांस है। फरिश्तों की डांस, देवताओं की डांस देखो। स्मृति का स्विच तो ठीक है ना। अगर स्विच ठीक नहीं होगा तो चलाने से भी कुछ दिखाई नहीं देगा। समझा - यह नेत्र कितना श्रेष्ठ है। आजकल मैजारिटी कोई भी चीज़ की इन्वेंशन करते हैं तो लक्ष्य रखते हैं कि एक वस्तु भिन्न-भिन्न कार्य में आवे। ऐसे यह दिव्य नेत्र अनेक कार्य सिद्ध करने वाला है। बापदादा बच्चों के कमज़ोरी की कभी-कभी कम्पलेन सुन यही कहते, दिव्य बुद्धि मिली, दिव्य नेत्र मिला, इसको विधिपूर्वक सदा यूज़ करते रहो तो न सोचने की फुर्सत, न देखने की फुर्सत रहेगी। न और सोचेंगे न देखेंगे। तो कोई भी कम्पलेन रह नहीं सकती। सोचना और देखना यह दोनों विशेष आधार हैं कम्पलीट होने के वा कम्पलेन करने के। देखते हुए, सुनते हुए सदा सोचो जैसा सोचना वैसा करना हाेता है। इसलिए इन दोनों दिव्य प्राप्तियों को सदा साथ रखो। सहज है ना। हो समर्थ लेकिन बन क्या जाते हो? जब स्थापना हुई तो छोटे-छोटे बच्चे डायलाग करते थे, भोला भाई का। तो हैं समर्थ लेकिन भोला भाई बन जाते हैं। तो भोला भाई नहीं बनो। सदा समर्थ बनो। और औरों को भी समर्थ बनाओ। समझा - अच्छा।
सदा दिव्य बुद्धि और दिव्य नेत्र को कार्य में लगाने वाले, सदा दिव्य बुद्धि द्वारा श्रेष्ठ मनन, दिव्य नेत्र द्वारा दिव्य दृश्य देखने में मगन रहने वाले, सदा अपने भविष्य देव स्वरूप को स्पष्ट अनुभव करने वाले, सदा आज और कल इतना समीप अनुभव करने वाले, ऐसे शक्तिशाली दिव्य नेत्र वाले त्रिनेत्री, त्रिकालदर्शी बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते!”
पर्सनल मुलाकात - 1- सहजयोगी बनने की विधि - सभी सहजयोगी आत्मायें हो ना। सदा बाप के सर्व सम्बन्धों के स्नेह में समाये हुए। सर्व सम्बन्धों का स्नेह ही सहज कर देता है। जहाँ स्नेह का सम्बन्ध है वहाँ सहज है। और जो सहज है वह निरंतर है। तो ऐसे सहजयोगी आत्मा बाप के सर्व स्नेही सम्बन्ध की अनुभूति करते हो? ऊधव के समान हो या गोपियों के समान? ऊधव सिर्फ ज्ञान का वर्णन करता रहा। गोपगोपि याँ प्रभु प्यार का अनुभव करने वाली। तो सर्व सम्बन्धों का अनुभव यह है विशेषता। इस संगमयुग में यह विशेष अनुभव करना ही वरदान प्राप्त करना है। ज्ञान सुनना सुनाना अलग बात है। सम्बन्ध निभाना, सम्बन्ध की शक्ति से निरंतर लगन में मगन रहना वह अलग बात है। तो सदा सर्व सम्बन्धों के आधार पर सहयोगी भव। इसी अनुभव को बढ़ाते चलो। यह मगन अवस्था गोप-गोपियों की विशेष हैं। लगन लगाना और चीज़ है लेकिन लगन में मगन रहना यही श्रेष्ठ अनुभव हैं।
2. ऊँची स्थिति विघ्नों के प्रभाव से परे है - कभी किसी भी विघ्न के प्रभाव में तो नहीं आते हो? जितनी ऊँची स्थिति होगी तो ऊँची स्थिति विघ्नों के प्रभाव से परे हो जाती है। जैसे स्पेस में जाते हैं तो ऊँचा जाते हैं, धरनी के प्रभाव से परे हो जाते। ऐसे किसी भी विघ्नों के प्रभाव से सदा सेफ रहते। किसी भी प्रकार की मेहनत का अनुभव उन्हें करना पड़ता - जो मुहब्बत में नहीं रहते। तो सर्व सम्बन्धों से स्नेह की अनुभूति में रहो। स्नेह है लेकिन उसे इमर्ज करो। सिर्फ अमृतेवेले याद किया फिर कार्य में बिजी हो गये तो मर्ज हो जाता। इमर्ज रूप में रखो तो सदा शक्तिशाली रहेंगे।
28-01-85 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
विश्व सेवाधारी का सहज साधन मंसा सेवा
विश्व-कल्न्याणकारी, सदा पर-उपकारी बापदादा बोले
आज सर्वशक्तिवान बाप अपने शक्ति सेना, पाण्डव सेना, रूहानी सेना को देख रहे हैं। सेना के महावीर अपनी रूहानी शक्ति से कहाँ तक विजयी बने हैं। विशेष तीन शक्तियों को देख रहे हैं। हर एक महावीर आत्मा की मंसा शक्ति कहाँ तक स्व परिवर्तन प्रति और सेवा के प्रति धारण हुई है? ऐसे ही वाचा शक्ति, कर्मणा शक्ति अर्थात् श्रेष्ठ कर्म की शक्ति कहाँ तक जमा की है? विजयी रत्न बनने के लिए यह तीनों ही शक्तियाँ आवश्यक हैं। तीनों में से एक शक्ति भी कम है तो वर्तमान प्राप्ति और प्रालब्ध कम हो जाती है। विजयी रत्न अर्थात् तीनों शक्तियों से सम्पन्न। विश्व-सेवाधारी सो विश्व-राज्य अधिकारी बनने का आधार यह तीनों शक्तियों से सम्पन्नता है। सेवाधारी बनना और विश्वसेवाधारी बनना, विश्व-राजन बनना वा सतयुगी राजन बनना इसमें भी अन्तर है। सेवाधारी अनेक हैं विश्व-सेवाधारी कोई-कोई हैं। सेवाधारी अर्थात् तीनों शक्तियों की नम्बरवार यथाशक्ति धारणा। विश्व-सेवाधारी अर्थात् तीनों शक्तियों की सम्पन्नता। आज हरेक के तीनों शक्तियों की परसेन्टेज देख रहे थे।
सर्वश्रेष्ठ मंसा शक्ति द्वारा चाहे कोई आत्मा सम्मुख हो, समीप हो वा कितना भी दूर हो - सेकण्ड में उस आत्मा को प्राप्ति की शक्ति की अनुभूति करा सकते हैं। मंसा शक्ति किसी आत्मा की मानसिक हलचल वाली स्थिति को भी अचल बना सकती है। मानसिक शक्ति अर्थात् शुभ भावना, श्रेष्ठ कामना, इस श्रेष्ठ भावना द्वारा किसी भी आत्मा के संशय बुद्धि को भावनात्मक बुद्धि बना सकते हैं। इस श्रेष्ठ भावना से किसी भी आत्मा का व्यर्थ भाव परिवर्तन कर समर्थ भाव बना सकते हैं। श्रेष्ठ भाव द्वारा किसी भी आत्मा के स्वभाव को भी बदल सकते हैं। श्रेष्ठ भावना की शक्ति द्वारा आत्मा को भावना के फल की अनुभूति करा सकते हैं। श्रेष्ठ भावना द्वारा भगवान के समीप ला सकते हैं। श्रेष्ठ भावना किसी आत्मा के भाग्य की रेखा बदल सकती है। श्रेष्ठ भावना हिम्मतहीन आत्मा को हिम्मतवान बना देती है। इसी श्रेष्ठ भावना की विधि प्रमाण मंसा सेवा किसी भी आत्मा की कर सकते हो। मंसा सेवा वर्तमान समय के प्रमाण अति आवश्यक है। लेकिन मंसा सेवा वही कर सकता जिसकी स्वयं की मंसा अर्थात् संकल्प सदा सर्व के प्रति श्रेष्ठ हो, निःस्वार्थ हो। पर-उपकार की सदा भावना हो। अपकारी पर भी उपकार की श्रेष्ठ शक्ति हो। सदा दातापन की भावना हो। सदा स्व परिवर्तन, स्व के श्रेष्ठ कर्म द्वारा औरों को श्रेष्ठ कर्म की प्रेरणा देने वाले हो। यह भी करें, तब मैं करूँगी, कुछ यह करें कुछ मैं करूँ वा थोड़ा तो यह भी करें, इस भावना से परे। मैं करूँगी या करूँगा और आवश्यक करेंगे। कमज़ोर है, नहीं कर सकता है, फिर भी रहम की भावना, सदा सहयोग की भावना, हिम्मत बढ़ाने की भावना हो। इसको कहा जाता है - मंसा सेवाधारी। मंसा सेवा एक स्थान पर स्थित रहकर भी चारों ओर की सेवा कर सकते हो। वाचा और कर्म के लिए तो जाना पड़े। मंसा सेवा कहाँ भी बैठे हुए कर सकते हो।
‘मंसा सेवा’ - रूहानी वायरलेस सेट है। जिस द्वारा दूर का संबंध समीप बना सकते हो। दूर बैठे किसी भी आत्मा को बाप के बनने का, उमंग उत्साह पैदा करने का सन्देश दे सकते हो। जो वह आत्मा अनुभव करेगी कि मुझे कोई महान शक्ति बुला रही है। कुछ अनमोल प्रेरणायें मुझे प्रेर रही हैं। जैसे कोई को सम्मुख सन्देश दे उमंग उत्साह में लाते हो, ऐसे मंसा शक्ति द्वारा भी वह आत्मा ऐसे ही अनुभव करेगी जैसे कोई सम्मुख बोल रहा है। दूर होते भी सम्मुख का अनुभव करेगी। विश्व-सेवाधारी बनने का सहज साधन ही ‘मंसा सेवा’ है। जैसे साइंस वाले इस साकार सृष्टि से, पृथ्वी से ऊपर अन्तरिक्ष यान द्वारा अपना कार्य शक्तिशाली बनाने का प्रयत्न कर रहे हैं। स्थूल से सूक्ष्म में जा रहे हैं। क्यों? सूक्ष्म शक्तिशाली होता है। मंसा शक्ति भी ‘अन्तर्मुखी यान’ है। जिस द्वारा जहाँ भी चाहो, जितना जल्दी चाहो पहुँच सकते हो। जैसे साइंस द्वारा पृथ्वी की आकर्षण से परे जाने वाले स्वत: ही लाइट (हल्के) बन जाते हैं। ऐसे मंसा शक्तिशाली आत्मा स्वत: ही डबल लाइट स्वरूप सदा अनुभव करती है। जैसे अन्तरिक्ष यान वाले ऊँचे होने के कारण सारे पृथ्वी के जहाँ के भी चित्र खींचने चाहें खींच सकते हैं ऐसे साइलेन्स की शक्ति से अन्तर्मुखी यान द्वारा मंसा शक्ति द्वारा किसी भी आत्मा को चरित्रवान बनने की, श्रेष्ठ आत्मा बनने की प्रेरणा दे सकते हो! साइंस वाले तो हर चीज़ पर समय और सम्पत्ति खूब लगाते हैं, लेकिन आप बिना खर्चे थोड़े समय में बहुत सेवा कर सकते हो। जैसे आजकल कहाँ-कहाँ फ्लाइंग सासर (उड़न तश्तरी) देखते हैं। सुनते हो ना - समाचार। वह भी सिर्फ लाइट ही देखने में आती है। ऐसे आप मंसा सेवाधारी आत्माओं का आगे चल अनुभव करेंगे कि कोई लाइट की बिन्दी आई, विचित्र अनुभव कराके गई। यह कौन थे? कहाँ से आये? क्या देकर गये! यह चर्चा बढ़ती जायेगी। जैसे आकाश के सितारों की तरफ सबकी नजर जाती है, ऐसे धरती के सितारे दिव्य ज्योति चारो ओर अनुभव करेंगे। ऐसी शक्ति मंसा सेवाधारियों की है। समझा? महानता तो और भी बहुत है लेकिन आज इतना ही सुनाते हैं। मंसा सेवा को अब तीव्र करो तब 9 लाख तैयार होंगे। अभी गोल्डन जुबली तक कितनी संख्या बनी है? सतयुग की डायमण्ड जुबली तक 9 लाख तो चाहिए ना। नहीं तो विश्व राजन किस पर राज्य करेगा, 9 लाख तारे गाये हुए हैं ना। सितारा रूपी आत्मा का अनुभव करेंगे तब 9 लाख सितारे गाये जायेंगे। इसलिए अब सितारों का अनुभव कराओ। अच्छा - चारों ओर के आये हुए बच्चों को मधुबन निवासी बनने की मुबारक हो वा मिलन मेले की मुबारक हो। इसी अविनाशी अनुभव की मुबारक सदा साथ रखना। समझा!
सदा महावीर बन मंसा शक्ति की महानता से श्रेष्ठ सेवा करने वाले, सदा श्रेष्ठ भावना और श्रेष्ठ कामना की विधि से बेहद के सेवा की सिद्धि पाने वाले, अपनी ऊँची स्थिति द्वारा चारों ओर की आत्माओं को श्रेष्ठ प्रेरणा देने के विश्वसेवाधारी, सदा अपनी शुभ भावना द्वारा अन्य आत्माओं को भी भावना का फल देने वाले, ऐसे विश्व-कल्याणकारी पर-उपकारी, विश्व-सेवाधारी बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।
विदाई के समय अमृतवेले सभी बच्चों को यादप्यार दी - हर कार्य मंगल हो। हर कार्य सदा सफल हो। उसकी सभी बच्चों को बधाई। वैसे तो हर दिन संगमयुग के शुभ हैं, श्रेष्ठ हैं, उमंग उत्साह दिलाने वाले हैं। इसलिए हर दिन का महत्व अपना-अपना है। आज के दिन हर संकल्प भी मंगलमय हो अर्थात् शुभचिन्तक रूप वाला हो। किसी के प्रति मंगल कामना अर्थात् शुभ कामना करने वाला संकल्प हो। हर संकल्प मंगलम् अर्थात् खुशी दिलाने वाला हो। तो आज के दिन का यह महत्व संकल्प बोल और कर्म तीनों में विशेष स्मृति में रखना। और यह स्मृति रखना ही हर सेकण्ड बापदादा की यादप्यार स्वीकार करना है तो सिर्फ अभी यादप्यार नहीं दे रहे हैं लेकिन प्रैक्टिकल करना अर्थात् यादप्यार लेना। सारा दिन आज यादप्यार लेते रहना। अर्थात् याद में रह हर संकल्प बोल द्वारा प्यार की लहर में लहराते रहना। अच्छा - सभी को विशेष याद - गुडमॉर्निंग!
30-01-85 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
माया जीत और प्रकृति जीत ही स्वराज्य-अधिकारी
माया और प्रकृति जीत बनाने वाले अपने स्नेही सिकीलधे बच्चों प्रति बोले
आज चारों ओर के राज्य अधिकारी बच्चों की राज्य दरबार देख रहे हैं। चारों ओर सिकीलधे स्नेही बेहद के सेवाधारी अनन्य बच्चे हैं। ऐसे बच्चे अभी भी स्वराज्य अधिकारी राज्य दरबार में उपस्थित हैं। बापदादा ऐसे योग्य बच्चों को सदा के योगी बच्चों को अति निर्मान, ऊँचे स्वमान, ऐसे बच्चों को देख हर्षित होते हैं। स्वराज्य दरबार सारे कल्प में अलौकिक, सर्व दरबार से न्यारी और अति प्यारी है। हर एक स्वराज्य अधिकारी विश्व के राज्य के फाउण्डेशन, नये विश्व के निर्माता हैं। हर एक स्वराज्य अधिकारी चमकते हुए दिव्य तिलकधारी सर्व विशेषताओं के चमकते हुए अमूल्य मणियों से सजे हुए ताजधारी हैं। सर्व दिव्य गुणों की माला धारण किये हुए, सम्पूर्ण पवित्रता का लाइट का ताज धारण किया हुआ श्रेष्ठ स्थिति के स्व सिंहासन पर उपस्थित हैं। ऐसे सजे सजाये हुए राज्य अधिकारी दरबार में उपस्थित हैं। ऐसी राज्य दरबार बापदादा के सामने उपस्थित हैं। हर एक स्वराज्य अधिकारी के आगे कितने दास दासियाँ हैं? प्रकृति जीत और विकारों जीत। विकार भी 5 हैं प्रकृति के तत्व भी 5 हैं। तो प्रकृति ही दासी बन गई है ना! दुश्मन सेवाधारी बन गये हैं। ऐसे रूहानी फखर में रहने वाले, विकारों को भी परिवर्तित कर काम विकार को शुभ कामना, श्रेष्ठ कामना के स्वरूप में बदल, सेवा में लगाने वाले, ऐसे दुश्मन को सेवाधारी बनाने वाले, प्रकृति के किसी भी तत्व की तरफ वशीभूत नहीं होते हैं। लेकिन हर तत्व को तमोगुणी रूप से सतोप्रधान स्वरूप बना लेते हैं। कलियुग में यह तत्व धोखा और दुख देते हैं। संगमयुग में परिवर्तन होते हैं। रूप बदलते हैं। सतयुग में यह 5 तत्व देवताओं के सुख के साधन बन जाते हैं। यह सूर्य आपका भोजन तैयार करेगा तो भण्डारी बन जायेगा ना! यह वायु आपका नैचरल पंखा बन जायेगी। आपके मनोरंजन का साधान बन जायेगी। वायु लगेगी वृक्ष हिलेंगे और वह टाल टालियाँ ऐसे झूलेंगी जो उन्हों के हिलने से भिन्न-भिन्न साज़ स्वत: ही बजते रहेंगे। तो मनोरंजन का साधन बन गया ना! यह आकाश आप सबके लिए राज्य पथ बन जायेगा। विमान कहाँ चलायेंगे? यह आकाश ही आपका पथ बन जायेगा। इतना बड़ा हाईवे और कहाँ पर है? विदेश में है? कितने भी माइल बनावें लेकिन आकाश के पथ से तो छोटे ही है ना। इतना बड़ा रास्ता कोई है? अमेरिका में है? और बिना एक्सीडेंट के रास्ता होगा। चाहे 8 वर्ष का बच्चा भी चलावे तो भी गिरेंगे नहीं। तो समझा! यह जल इत्र-फुलेल का कार्य करेगा। जैसे जड़ी-बूटियों के कारण गंगा जल अभी भी और जल से पवित्र है। ऐसे खुशबूदार जड़ी-बूटियाँ होने के कारण जल में नैचरल खुशबू होगी। जैसे यहाँ दूध शक्ति देता है ऐसे वहाँ का जल ही शक्तिशाली होगा, स्वच्छ होगा। इसलिए कहते हैं - दूध की नदियाँ बहती हैं। सब अभी से खुश हो गये हैं ना! ऐसे ही यह पृथ्वी ऐसे श्रेष्ठ फल देगी जो जिस भी भिन्न-भिन्न टेस्ट के चाहते हैं उस टेस्ट का फल आपके आगे हाजर होगा। यह नमक नहीं होगा। चीनी भी नहीं होगी। जैसे अभी खटाई के लिए टमाटर है, तो बना बनाया है ना। खटाई आ जाती है ना। ऐसे जो आपको टेस्ट चाहिए उसके फल होंगे। रस डालो और वह टेस्ट हो जायेगी। तो यह पृथ्वी एक तो श्रेष्ठ फल, श्रेष्ठ अन्न देने की सेवा करेगी। दूसरा नैचरल सीन-सीनरियाँ जिसको कुदरत कहते हैं - तो नैचरल नजारे, पहाड़ भी होंगे। ऐसे सीधे पहाड़ नहीं होंगे। नैचरल ब्युटी भिन्न-भिन्न रूप के पहाड़ होंगे। कोई पंछी के रूप में कोई पुष्पों के रूप में। ऐसे नैचरल बनावट होगी। सिर्फ निमित्त मात्र थोड़ा-सा हाथ लगाना पड़ेगा। ऐसे यह 5 तत्व सेवाधारी बन जायेंगे। लेकिन किसके बनेंगे? स्वराज्य अधिकारी आत्माओं के सेवाधारी बनेंगे। तो अभी अपने को देखो 5 ही विकार दुश्मन से बदल सेवाधारी बने हैं? तब ही स्वराज्य अधिकारी कहलायेंगे। क्रोध अग्नि, योग अग्नि में बदल जाए। ऐसे लोभ विकार, लोभ अर्थात् चाहना। हद की चाहना बदल शुभ चाहना हो जाए कि मैं सदा हर संकल्प से, बोल से, कर्म से निःरस्वार्थ बेहद सेवाधारी बन जाऊँ। मैं बाप समान बन जाऊँ - ऐसे शुभ चाहना अर्थात् लोभ का परिवर्तन स्वरूप। दुश्मन के बजाए सेवा के कार्य में लगाओ। मोह तो सभी को बहुत है ना। बापदादा में तो मोह है ना। एक सेकेण्ड भी दूर न हों - यह मोह हुआ ना! लेकिन यह मोह सेवा कराता है। जो भी आपके नयनों में देखे तो नयनों में समाये हुए बाप को देखे। जो भी बोलेंगे मुख द्वारा बाप के अमूल्य बोल सुनायेंगे। तो मोह विकार भी सेवा में लग गया ना। बदल गया ना। ऐसे ही अहंकार। देह-अभिमान से देही-अभिमानी बन जाते। शुभ अहंकार अर्थात् ईश्वरीय नशा सेवा के निमित्त बन जाता है। तो ऐसे पाँचों ही विकार बदल सेवा का साधन बन जाए तो दुश्मन से सेवाधारी हो गये ना! तो ऐसे चेक करो मायाजीत, प्रकृति जीत कहाँ तक बने हैं? राजा तब बनेंगे जब पहले दास-दासियाँ तैयार हों। जो स्वयं दास के अधीन होगा वह राज्य अधिकारी कैसे बनेगा!
आज भारत के बच्चों के मेले का प्रोग्राम प्रमाण लास्ट दिन है। तो मेले की अन्तिम टुब्बी है। इसका महत्व होता है। इस महत्व के दिन जैसे उस मेले में जाते हैं तो समझते हैं - जो भी पाप हैं वह भस्म करके खत्म करके जाते हैं। तो सबको 5 विकारों को सदा के लिए समाप्त करने का संकल्प करना, यही अन्तिम टुब्बी का महत्व है। तो सभी ने परिवर्तन करने का दृढ़ संकल्प किया? छोड़ना नहीं है लेकिन बदलना है। अगर दुश्मन आपका सेवाधारी बन जाए तो दुश्मन पसन्द है या सेवाधारी पसन्द है? तो आज के दिन चेक करो और चेन्ज करो तब है मिलन मेले का महत्व। समझा क्या करना है? ऐसे नहीं सोचना - चार तो ठीक हैं बाकी एक चल जायेगा। लेकिन एक चार को भी वापस ले आयेगा। इन्हों का भी आपस में साथ है इसलिए रावण के शीश साथ-साथ दिखाते हैं। तो दशहरा मना के जाना है। प्रकृति जीत, विकार जीत 10 हो गये ना। तो विजय दशमी मना के जाना। खत्म कर जलाकर राख साथ नहीं ले जाना। राख भी ले जायेंगे तो फिर से आ जायेंगे। भूत बनकर आ जायेंगे। इसलिए वह भी ज्ञान सागर में समाप्त करके जाना। अच्छा –
‘‘ऐसे सदा स्वराज्य अधिकारी, अलौकिक तिलकधारी, ताजधारी, प्रकृति को दासी बनाने वाले, 5 दुश्मनों को सेवाधारी बनाने वाले, सदा बेफकर बादशाह, रूहानी फखर में रहने वाले बादशाह ऐसे बाप समान सदा के विजयी बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।’’
कुमारियों से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात (1) सभी अपने को श्रेष्ठ कुमारियाँ अनुभव करती हो? साधारण कुमारियाँ या तो नौकरी की टोकरी उठाती या तो दासी बन जाती हैं। लेकिन श्रेष्ठ कुमारियाँ विश्व-कल्याणकारी बन जाती हैं। ऐसी श्रेष्ठ कुमारियाँ हो ना! जीवन का श्रेष्ठ लक्ष्य क्या है? संगदोष के या संबंध के बंधन से मुक्त होना यही लक्ष्य है ना? बन्धन में बंधने वाली नहीं। क्या करें बंधन है, क्या करें नौकरी करनी है, इसको कहा जाता है बंधन वाली। तो न संबंध का बंधन, न नौकरी टोकरी का बंधन। दोनों बंधन से न्यारे वही बाप के प्यारे बनते हैं। ऐसी निर्बन्धन हो? दोनों ही जीवन सामने हैं। साधारण कुमारियों का भविष्य और विशेष कुमारियों का भविष्य, दोनों सामने हैं। तो दोनों को देख स्वयं ही जज कर सकती हो। जैसे कहेंगे वैसे करेंगे यह नहीं। अपना फैसला स्वयं जज होकर करो। श्रीमत तो है विश्व-कल्याणकारी बनो। वह तो ठीक लेकिन श्रीमत के साथ-साथ अपने मन के उमंग से जो आगे बढ़ते हैं वह सदा सहज आगे बढ़ते हैं। अगर कोई के कहने से या थोड़ा-सा शर्म के कारण दूसरे क्या कहेंगे, नहीं बनूँगी तो सब मुझे ऐसे देखेंगे कि यह कमज़ोर है। ऐसे अगर कोई के फोर्स से बनते भी हैं तो परीक्षाओं को पास करने में मेहनत लगती है। और स्व के उमंग वालों को कितनी भी बड़ी परिस्थिति हो वह सहज अनुभव होती है क्योंकि मन का उमंग है ना। अपना उमंग उत्साह पंख बन जाते हैं। कितना भी पहाड़ हो लेकिन उड़ने वाला पंछी सहज पार कर लेगा और चलने वाला या चढ़ने वाला कितनी मुश्किल से कितने समय में पार करेंगे? तो यह मन का उमंग पंख हैं इन पंखों से उड़ने वाले को सदा सहज होता है। समझा। तो श्रेष्ठ मत है - ‘विश्व-कल्याणकारी बनो’ लेकिन फिर भी स्वयं अपना जज बनकर अपनी जीवन का फैसला करो। बाप ने तो फैसला दे ही दिया है, वह नई बात नहीं हैं। अभी अपना फैसला करो तो सदा सफल रहेंगी। समझदार वह जो सोच-समझकर हर कदम उठाये। सोचते ही न रहें लेकिन सोचा-समझा और किया। इसको कहते हैं समझदार। संगमयुग पर कुमारी बनना यह पहला भाग्य है। यह भाग्य तो ड्रामा अनुसार मिला हुआ है। अभी भाग्य में भाग्य बनाते जाओ। इसी भाग्य को कार्य में लगाया तो भाग्य बढ़ता जायेगा। और इसी पहले भाग्य को गंवाया तो सदा के सर्व भाग्य को गंवाया। इसलिए भाग्यवान हो। भाग्यवान बन अभी और सेवाधारी का भाग्य बनाओ। समझा!
सेवाधारी (टीचर्स) बहिनों से:- सेवाधारी अर्थात् सदा सेवा की मौज में रहने वाले। सदा स्वयं को मौजों की जीवन में अनुभव करने वाले। सेवाधारी जीवन माना मौजों की जीवन। तो ऐसे सदा याद और सेवा की मौज में रहने वाले हो ना! याद की भी मौज है और सेवा की भी मौज है। जीवन भी मौज की और युग भी मौजों का। जो सदा मौज में रहने वाले हैं उसको देख और भी अपने जीवन में मौज का अनुभव करते हैं। कितने भी कोई मूँझे हुए आवें लेकिन जो स्वयं मौज में रहते वह दूसरों को भी मूंझ से छुड़ाए मौज में ले आयेंगे। ऐसे सेवाधारी जो मौज में रहते वह सदा तन-मन से तन्दरूस्त रहते हैं। मौज में रहने वाले सदा उड़ते रहते क्योंकि खुशी रहती है। वैसे भी कहा जाता यह तो खुशी में नाचता रहता है। चल रहा है, नहीं, नाच रहा है। नाचना माना ऊँचा उठना। ऊँचे पाँव होंगे तब नाचेंगे ना! तो मौजों में रहने वाले अर्थात् खुशी में रहने वाले। सेवाधारी बनना अर्थात् वरदाता से विशेष वरदान लेना। सेवाधारी को विशेष वरदान है, एक अपना अटेन्शन दूसरा वरदान, डबल लिफ्ट है। सेवाधारी बनना अर्थात् सदा मुक्त आत्मा बनना, जीवनमुक्त अनुभव करना।
(2) सभी सेवाधारी सदा सफलता स्वरूप हो? सफलता जन्म सिद्ध अधिकार है। अधिकार सदा सहज मिलता है। मेहनत नहीं लगती। तो अधिकार के रूप में सफलता अनुभव करने वाले हो। सफलता हुई पड़ी है यह निश्चय और नशा रहे। सफलता होगी या नहीं ऐसा संकल्प तो नहीं चलता है? जब अधिकार है तो अधिकारी को अधिकार न मिले यह हो नहीं सकता। निश्चय है तो विजय हुई पड़ी है। सेवाधारी की यही परिभाषा है। जो परिभाषा है वही प्रैक्टिकल है। सेवाधारी अर्थात् सहज सफलता का अनुभव करने वाले।
विदाई के समय बच्चों ने स्नेह के गीत गाये:- बापदादा जितना प्यार का सागर है उतना न्यारा भी है। स्नेह के बोल बोले यह तो संगमयुग की मौजें हैं। मौज तो भले मनाओ, खाओ, पियो, नाचो, लेकिन निरन्तर। जैसे अभी स्नेह में समाये हुए हो ऐसे सदा समाये रहो। बापदादा तो हर बच्चे के दिल के गीत तो सुनते ही रहते हैं। आज मुख के भी गीत सुन लिए। बापदादा शब्द नहीं देखते, ट्यून नहीं देखते, दिल का आवाज़ सुनते हैं। अभी तो सदा साथ हो चाहे साकार में चाहे अव्यक्त रूप में, सदा साथ हो। अभी वियोग के दिन तो समाप्त हो गये। अभी संगमयुग पूरा ही मिलन मेला है। सिर्फ मेले में भिन्न-भिन्न नजारे बदलते हैं। कभी व्यक्त, कभी अव्यक्त। अच्छा - गुडमोर्निंग !
सम्मेलन के प्रति अव्यक्त बापदादा का विशेष सन्देश
बापदादा बोले, बच्चे सम्मेलन कर रहे हैं। सम्मेलन का अर्थ है सम-मिलन। तो जो इस सम्मेलन में आने वाले हैं उन्हें बाप समान नहीं तो अपने समान निश्चय बुद्धि तो अवश्य बनाना। जो भी आये कुछ बनकर जाए सिर्फ बोलकर न जाए। यह दाता का घर है। तो आने वाले यह नहीं समझें कि हम इन्हें मदद करने आये हैं या इन्हें सहयोग देने आये हैं। लेकिन वह समझें कि यह स्थान लेने का स्थान है, देने का नहीं। यहाँ हरेक छोटा बड़ा जिससे भी मिले जो उस समय यहाँ पर हो उनको यह संकल्प करना है कि दृष्टि से, वायुमण्डल से, सम्पर्क-सम्बन्ध से ‘मास्टर दाता’ बनकर रहना है। सबको कुछ न कुछ देकर ही भेजना है। यह हरेक का लक्ष्य हो, आने वाले को रिगार्ड तो देना ही है लेकिन सबका रिगार्ड एक बाप में बिठाना है। बाबा कह रहे थे - मेरे इतने सब लाइट हाउस बच्चे चारों ओर से मंसा सेवा द्वारा लाइट देंगे तो सफलता हुई ही पड़ी है। वह एक लाइट हाउस कितनों को रास्ता दिखाता - आप लाइट हाउस, माइट हाउस बच्चे तो बहुत कमाल कर सकते हो। अच्छा –
कुमारों के प्रति विशेष अव्यक्त बापदादा के मधुर महावाक्य
कुमार, ब्रह्माकुमार तो बन ही गये। लेकिन ब्रह्माकुमार बनने के बाद फिर क्या बनना है? शक्तिशाली कुमार। जब तक शक्तिशाली नहीं बने तो विजयी नहीं बन सकते। शक्तिशाली कुमार सदा नॉलेजफुल और पावरफुल आत्मा होंगे। नॉलेजफुल अर्थात् रचता को भी जानने वाले, रचना को भी जानने वाले और माया के भिन्न-भिन्न रूपों को भी जानने वाले। ऐसे नॉलेजफुल पावरफुल सदा विजयी हैं। नॉलेज जीवन में धारण करना अर्थात् नॉलेज को शस्त्र बना देना। तो शस्त्रधारी शक्तिशाली होंगे ना। आज मिलिट्री वाले शक्तिशाली किस आधार से होते हैं? शस्त्र हैं, बन्दूक हैं तो निर्भय हो जाते हैं। तो नॉलेजफुल जो होगा वह पावरफुल जरूर होगा। तो माया की भी पूरी नॉलेज है। क्या होगा कैसे होगा पता नहीं पड़ा, माया कैसे आ गई, यह नॉलेजफुल नहीं हुए। नॉलेजफुल आत्मा पहले से ही जानती है। जैसे समझदार जो होते हैं वह बीमारी को पहले से ही जान लेते हैं। बुखार आने वाला होता तो पहले से ही समझेंगे कि कुछ हो रहा है, पहले से ही दवा लेकर अपने को ठीक कर देंगे और स्वस्थ हो जायेंगे। बेसमझ को बुखार आ भी जायेगा तो चलता-फिरता रहेगा और बुखार बढ़ता जायेगा। ऐसे ही माया आती है लेकिन आने के पहले ही समझ लेना और उसे दूर से ही भगा देना। तो ऐसे समझदार शक्तिशाली कुमार हो ना! सदा विजयी हो ना! या आपको भी माया आती और भगाने में टाइम लगाते हो। शक्ति को देखकर दूर से ही दुश्मन भाग जाता है। अगर आ जावे फिर उसे भगाओ तो टाइम भी वेस्ट और कमज़ोरी की आदत पड़ जाती है। कोई बार-बार बीमार हो तो कमज़ोर हो जाता है ना! या बार-बार पढ़ाई में फेल हो तो कहेंगे यह पढ़ने में कमज़ोर है। ऐसे माया बार-बार आये और वार करती रहे तो हार खाने की आदती हो जायेंगे। और बार-बार हार खाने से कमज़ोर हो जायेंगे। इसलिए शक्तिशाली बनो। ऐसी शक्तिशाली आत्मा सदा प्राप्ति का अनुभव करती है, युद्ध में अपना समय नहीं गँवाती। विजय की खुशी मनाती है। तो कभी किसी बात में कमज़ोरी न हो। कुमार बुद्धि सालिम है। अधरकुमार बनने से बुद्धि बंट जाती है। कुमारों को एक ही काम है, अपनी ही जीवन है। उन्हों को तो कितनी जिम्मेवारियाँ हो जाती हैं। आप जिम्मेवारियों से स्वतन्त्र हो। जो स्वतन्त्र होगा वह आगे बढ़ेगा। बोझ वाला धीरे-धीरे चलेगा। स्वतन्त्र हल्का होगा वह तेज चलेगा। तो तेज रफ्तार वाले हो। एकरस हो? सदा तीव्र अर्थात् एकरस। ऐसे भी नहीं 6 मास बीत जाएँ। जैसे हैं वैसे ही चल रहे हैं इसको भी तीव्रगति नहीं कहेंगे। तीव्रगति वाले आज जो हैं कल उससे आगे, परसों उससे आगे। इसको कहा जाता है - ‘तीव्रगति वाले’। तो सदा अपने को शक्तिशाली कुमार समझो। ब्रह्माकुमार बन गये सिर्फ इस खुशी में रहे, शक्तिशाली नहीं बने तो विजयी नहीं बन सकते। ब्रह्माकुमार बनना बहुत अच्छा लेकिन शक्तिशाली ब्रह्माकुमार सदा समीप होते हैं। अब के समीप वाले राज्य में भी समीप होंगे। अभी की स्थिति में समीपता नहीं तो राज्य में भी समीपता नहीं। अभी की प्राप्ति सदा की प्रालब्ध बना देती है। इसलिए सदा शक्तिशाली। ऐसे शक्तिशाली ही विश्व-कल्याणकारी बन सकते हैं। कुमारों में शक्ति तो है ही। चाहे शारीरिक शक्ति चाहे आत्मा की। लेकिन विश्व-कल्याण के प्रति शक्ति है या श्रेष्ठ विश्व को विनाशकारी बनाने के कार्य में लगने की शक्ति है? तो कल्याणकारी कुमार हो ना! अकल्याण करने वाले नहीं। संकल्प में भी सदा सर्व के प्रति कल्याण की भावना हो। स्वप्न में भी कल्याण की भावना हो, इसको कहा जाता है - श्रेष्ठ शक्तिशाली। कुमार शक्ति द्वारा जो सोचें वह कर सकते हैं। जो वही संकल्प और कर्म, दोनों साथ-साथ हों। ऐसे नहीं संकल्प आज किया कर्म पीछे। संकल्प और कर्म एक हो और साथ-साथ हो। ऐसी शक्ति हो। ऐसी शक्ति वाले ही अनेक आत्माओं का कल्याण कर सकते हैं। तो सदा सेवा में सफल बनने वाले हो या कभी खिट-खिट करने वाले हो? मन में, कर्म में, आपस में सबमें ठीक। किसी में भी खिट-खिट न हो। सदा अपने को विश्वकल् याणकारी कुमार समझो तो जो भी कर्म करेंगे उसमें कल्याण की भावना समाई होगी। अच्छा –
16-02-85 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
शिव बाप की अवतरण जयन्ति सो अवतरित हुए ‘अवतार’ बच्चों की जयन्ति की मुबारक
भोलालाथ, अमरनाथ शिव बाबा अपने भाग्यवान बच्चों प्रति बोले
आज भोलेनाथ बाप भोले भण्डारी अपने अति स्नेही, सदा सहयोगी, सहजयोगी सर्व खजानों के मालिक बच्चों से मिलन मनाने आये हैं। अब भी मालिक, भविष्य में भी मालिक। अभी विश्व रचयिता के बालक सो मालिक हो, भविष्य में विश्व के मालिक हो। बापदादा अपने ऐसे मालिक बच्चों को देख हर्षित होते हैं। यह बालक सो मालिकपन का अलौकिक नशा, अलौकिक खुशी है। ऐसे सदा खुशनसीब सदा सम्पन्न श्रेष्ठ आत्मायें हो ना। आज सभी बच्चे बाप के अवतरण की जयन्ती मनाने के लिए उमंग उत्साह में हर्षित हो रहे हैं। बापदादा कहते हैं बाप की जयन्ती सो बच्चों की भी जयन्ती है। इसलिए यह वन्डरफुल जयन्ती है। वैसे बाप और बच्चे की एक ही जयन्ती नहीं होती है। होती है? वही दिन बाप के जन्म का हो और बच्चे का भी हो, ऐसा कब सुना है? यही अलौकिक जयन्ती है। जिस घड़ी बाप ब्रह्मा बच्चे में अवतरित हुए उसी दिन उस घड़ी ब्रह्मा का भी साथ-साथ अलौकिक जन्म हुआ। इकठ्ठा जन्म हो गया ना। और ब्रह्मा के साथ अनन्य ब्राह्मणों का भी हुआ इसलिए दिव्य जन्म की तिथि, वेला, रेखा ब्रह्मा की और शिवबाबा के अवतरण की एक ही होने कारण शिव बाप और ब्रह्मा बच्चा, परम आत्मा और महान आत्मा होते हुए भी ब्रह्मा बाप समान बना। समानता के कारण कम्बाइन्ड रूप बन गये। बापदादा, बापदादा सदा इकट्ठे बोलते हो। अलग नहीं। ऐसे ही अनन्य ब्राह्मण बापदादा के साथ-साथ ब्रह्माकुमार, ब्रह्माकुमारी के रूप में अवतरित हुए।
तो ब्रह्माकुमार और ब्रह्माकुमारी यह भी कम्बाइण्ड बाप और बच्चे की स्मृति का नाम है। तो बापदादा बच्चों के ब्राह्मण जीवन की अवतरण जयन्ती मनाने आये हैं। आप सभी भी अवतार हो ना! अवतार अर्थात् श्रेष्ठ स्मृति -’’मैं दिव्य जीवन वाली ब्राह्मण आत्मा हूँ।’’ तो नया जन्म हुआ ना! ऊँची स्मृति से इस साकार शरीर में अवतरित हो विश्व-कल्याण के कार्य में निमित्त बने हो। तो अवतार हुए ना। जैसे बाप अवतरित हुए हैं वैसे आप सब अवतरित हुए हो विश्वपरिवर्त न के लिए। परिवर्तन होना ही अवतरित होना है। तो यह अवतारों की सभा है। बाप के साथ-साथ आप ब्राह्मण बच्चों का भी अलौकिक बर्थ डे है। तो बच्चे बाप की जयन्ती मनायेंगे या बाप बच्चों की मनायेंगे। या सभी मिल करके एक दो की मनायेंगे! यह तो भक्त लोग सिर्फ यादगार मनाते रहते और आप सम्मुख बाप के साथ मनाते हो। ऐसा श्रेष्ठ भाग्य, कल्प-कल्प के भाग्य की लकीर अविनाशी खिंच गई। सदा यह समृति में रहे कि हमारा भगवान के साथ भाग्य है। डायरेक्ट भाग्य विधाता के साथ भाग्य प्राप्त करने का पार्ट है। ऐसे डबल हीरो, हीरो पार्टधारी भी हो और हीरे तुल्य जीवन वाले भी हो। तो डबल हीरो हो गये ना! सारे विश्व की नजर आप हीरो पार्टधारी आत्माओं की तरफ है। आप भाग्यवान आत्माओं की आज अन्तिम जन्म में भी वा कल्प के अन्तिम काल में भी कितनी याद, यादगार के रूप में बनी हुई है। बाप के वा ब्राह्मणों के बोल यादगार रूप में शास्त्र बन गये हैं जो अभी भी दो वचन सुनने के लिए प्यासे रहते हैं। दो वचन सुनने से शान्ति का, सुख का अनुभव करने लगते हैं।
आप भाग्यवान आत्माओं के श्रेष्ठ कर्म चरित्र के रूप में अब तक भी गाये जा रहे हैं। आप भाग्यवान आत्माओं की श्रेष्ठ भावना, श्रेष्ठ कामना का श्रेष्ठ संकल्प ‘दुआ’ के रूप में गाये जा रहे हैं। किसी भी देवता के आगे दुआ मांगने जाते हैं। आप भाग्यवान आत्माओं की श्रेष्ठ स्मृति-सिमरण के रूप में अब भी यादगार चल रहा है। सिमरण की कितनी महिमा करते हैं। चाहे नाम सिमरण करते, चाहे माला के रूप में सिमरण करते। यह स्मृति का यादगार सिमरण रूप में चल रहा है। तो ऐसे भाग्यवान कैसे बने! क्योंकि भाग्य विधाता के साथ भाग्यवान बने हो। तो समझते हो कितना भाग्यवान दिव्य जन्म है? ऐसे दिव्य जन्म की, बापदादा भगवान, भाग्यवान बच्चों को बधाई दे रहे हैं। सदा बधाईयाँ ही बधाईयाँ हैं। यह सिर्फ एक दिन की बधाई नहीं। यह भाग्यवान जन्म हर सेकेण्ड, हर समय बधाईयों से भरपूर है। अपने इस श्रेष्ठ जन्म को जानते हो ना? हर श्वाँस में खुशी का साज़ बज रहा है। श्वाँस नहीं चलता लेकिन खुशी का साज़ चल रहा है। साज़ सुनने में आता है ना! नैचरल साज़ कितना श्रेष्ठ है! इस दिव्य जन्म का यह खुशी का साज़ अर्थात् श्वाँस, दिव्य जन्म की श्रेष्ठ सौगात है। ब्राह्मण जन्म होते ही यह खुशी का साज़ गिफ्ट में मिला है ना। साज़ में भी अंगुलियाँ नीचे ऊपर करते हो ना। तो श्वाँस भी नीचे ऊपर चलता है। तो श्वाँस चलना अर्थात् साज़ चलना। श्वाँस बन्द नहीं हो सकता। तो साज़ भी बन्द नहीं हो सकता। सभी का खुशी का साज़ ठीक चल रहा है ना! डबल विदेशी क्या समझते हैं? भोले भण्डारी से सभी खजाने ले अपना भण्डारा भरपूर कर लिया है ना। जो इक्कीस जन्म भण्डारे भरपूर रहेंगे। भरने की मेहनत नहीं करनी पड़ेगी। आराम से प्रालब्ध प्राप्त होगी। अभी का पुरूषार्थ इक्कीस जन्म की प्रालब्ध। इक्कीस जन्म सदा सम्पन्न स्वरूप में होंगे। तो पुरूषार्थ क्या किया? मेहनत लगती है? पुरूषार्थ अर्थात् सिर्फ अपने को इस रथ में विराजमान पुरूष अर्थात् आत्मा समझो। इसको कहते हैं पुरूषार्थ। यह पुरूषार्थ किया ना। इस पुरूषार्थ के फलस्वरूप इक्कीस जन्म सदा खुश और मौज में रहेंगे। अब भी संगमयुग मौजों का युग है। मूँझने का नहीं। मौजों का युग है। अगर किसी भी बात में मूँझते हैं तो संगमयुग से पांव थोड़ा कलियुग तरफ ले जाते, इसलिए मूँझते हैं। संकल्प अथवा बुद्धि रूपी पांव संमगयुग पर है तो सदा मौजों में हैं। संगमयुग अर्थात् दो का मिलन मनाने का युग है। तो बाप और बच्चे का मिलन मनाने का संगमयुग है। जहाँ मिलन है वहाँ मौज है। तो मौज मनाने का जन्म है ना। मूँझने का नाम निशान नहीं। मौजों के समय पर खूब रूहानी मौज मनाओ। डबल विदेशी तो डबल मौज में रहने वाले हैं ना। ऐसे मौजों के जन्म की मुबारक हो। मूँझने के लिए विश्व में अनेक आत्मायें हैं, आप नहीं हो। वह पहले ही बहुत हैं। और मौज मनाने वाले आप थोड़े से हो। समझा-अपनी इस श्रेष्ठ जयन्ती को! वैसे भी आजकल ज्योतिष विद्या वाले दिन, तिथि और वेला के आधार पर भाग्य बताते हैं। आप सबकी वेला कौन-सी है! तिथि कौन-सी है? बाप के साथ-साथ ब्राह्मणों का भी जन्म है ना। तो भगवान की जो तिथि वह आपकी।
भगवान के अवतरण अर्थात् दिव्य जन्म की जो वेला वह आपकी वेला हो गई। कितनी ऊँची वेला है। कितनी ऊँची रेखा है, जिसको दशा कहते हैं। तो दिल में सदा यह उमंग उत्साह रहे कि बाप के साथ-साथ हमारा जन्म है। ब्रह्मा, ब्राह्मणों के बिना कुछ कर नहीं सकते। शिव बाप ब्रह्मा के बिना कुछ कर नहीं सकते। तो साथ-साथ हुआ ना। तो जन्म तिथि, जन्म वेला का महत्व सदा याद रखो। जिस तिथि पर भगवान उतरे उस तिथि पर हम आत्मा अवतरित हुई। नाम राशि भी देखो -ब्रह्मा-ब्राह्मण। ब्रह्माकुमार-ब्रह्माकुमारी। नाम राशि भी वही श्रेष्ठ है, ऐसे श्रेष्ठ जन्म वा जीवन वाले बच्चों को देख बाप सदा हर्षित होते हैं। बच्चे कहते - वाह बाबा वाह! और बाप कहते वाह बच्चे! ऐसे बच्चे भी किसको नहीं मिलेंगे।
आज के इस दिव्य दिवस की विशेष सौगात बापदादा सभी स्नेही बच्चों को दो गोल्डन बोल दे रहे हैं। एक सदा अपने को समझो -’’मैं बाप का नूरे रत्न हूँ।’’ नूरे रत्न अर्थात् सदा नयनों में समाया हुआ। नयनों में समाने का स्वरूप बिन्दी होता है। नयनों में बिन्दी की कमाल है। तो नूरे रत्न अर्थात् बिन्दु बाप में समाया हुआ हूँ। स्नेह में समाया हुआ हूँ। तो एक यह गोल्डन बोल याद रखना कि नूरे रत्न हूँ। दूसरा -’’सदा बाप का साथ और हाथ मेरे ऊपर है।’’ साथ भी है और हाथ भी है। सदा आशीर्वाद का हाथ है और सदा सहयोग का साथ है। तो सदा बाप का साथ और हाथ है ही है। साथ देना हाथ रखना नहीं है, लेकिन है ही। यह दूसरा गोल्डन बोल ‘सदा साथ और सदा हाथ’। यह आज के इस दिव्य जन्म की सौगात हैं। अच्छा –
ऐसे चारों ओर के सदा श्रेष्ठ भाग्यवान बच्चों को, सदा हर श्वाँस को खुशी का साज़ अनुभव करने वाले बच्चों को, डबल हीरो बच्चों को, सदा भगवान और भाग्य ऐसे स्मृति स्वरूप बच्चों को, सदा सर्व खजानों से भरपूर भण्डार वाले बच्चों को भोलेनाथ, अमरनाथ वरदाता बाप का बहुत-बहुत दिव्य जन्म की बधाइयों के साथ-साथ यादप्यार और नमस्ते।’’
दादियों से- बेहद बाप की स्नेह की बाहें बहुत बड़ी हैं, उसी स्नेह की बाहों में वा भाकी में सभी समाये हुए हैं। सदा ही सभी बच्चे बाप की भुजाओं के अन्दर भुजाओं की माला के अन्दर हो तभी मायाजीत हो। ब्रह्मा के साथ-साथ जन्म लेने वाली श्रेष्ठ आत्मायें हो ना। तिथि में जरा भी अन्तर नहीं है इसीलिए ब्रह्मा के बहुत मुख दिखाये हैं। ब्रह्मा को ही पाँच मुखी वा तीन मुखी दिखाते हैं क्योंकि ब्रह्मा के साथ-साथ ब्राह्मण हैं। तो तीन मुख वाले में आप हो या पाँच मुख वाले में हो। मुख भी सहयोगी होता है ना। बाप को भी नशा है -कौन-सा? सारे विश्व में कोई भी बाप ऐसे बच्चे ढूँढकर लाये तो मिलेंगे? (नहीं) बाप कहेंगे ऐसे बच्चे नहीं मिलेंगे, बच्चे कहते ऐसा बाप नहीं मिलेगा। अच्छा है - बच्चे ही घर की रौनक होते हैं। अकेले बाप से घर की रौनक नहीं होती। इसलिए बच्चे इस विश्व रूपी घर की रौनक हैं। इतने सारे ब्राह्मणों की रौनक लगाने के निमित्त कौन बने? बच्चे बने ना! बाप भी बच्चों की रौनक देख खुश होते हैं। बाप को आप लोगों से भी ज्यादा मालायें सिमरण करनी पड़ती हैं। आपको तो एक ही बाप को याद करना पड़ता और बाप को कितनी मालायें सिमरण करनी पड़ती। जितनी भक्तिमार्ग में मालायें डाली हैं उतनी बाप को अभी सिमरण करनी पड़ती। एक बच्चे की भी माला बाप एक दिन भी सिमरण न करे, यह हो नहीं सकता। तो बाप भी नौधा भक्त हो गया ना। एक-एक बच्चे के विशेषताओं की, गुणों की माला बाप सिमरण करते और जितने बार सिमरण करते उतने वह गुण विशेषता यें और फ्रेश होती जाती। माला बाप सिमरण करते लेकिन माला का फल बच्चों को देता, खुद नहीं लेता। अच्छा - बापदादा तो सदा बच्चों के साथ ही रहते हैं। एक पल भी बच्चों से अलग नहीं रह सकते हैं। रहने चाहें तो भी नहीं रह सकते। क्यों? जितना बच्चे याद करते उसका रिसपान्ड तो देंगे ना! याद करने का रिटर्न तो देना पड़ेगा ना। तो सेकेण्ड भी बच्चों के सिवाय रह नहीं सकते। ऐसा भी कभी वण्डर नहीं देखा होगा जो साथ ही रहें। बाप बच्चों से अलग ही न हों। ऐसी बाप बेटे की जोड़ी कभी नहीं देखी होगी। बहुत अच्छा बगीचा तैयार हुआ है। आप सबको भी बगीचा अच्छा लगता है ना। एक-एक की खुशबू न्यारी और प्यारी है। इसलिए अल्लाह का बगीचा गाया हुआ है।
सभी आदि रत्न हो, एक-एक रत्न की कितनी वैल्यु है और हरेक रत्न की हर समय हर कार्य में आवश्यकता है। तो सभी श्रेष्ठ रत्न हो। जिन्हों की अभी भी रत्नों के रूप में पूजा होती है। अभी अनेक आत्माओं के विघ्न विनाशक बनने की सेवा करते हो तब यादगार रूप में एक-एक रत्न की वैल्यु होती है। एक-एक रत्न की विशेषता होती है। कोई विघ्न को नाश करने वाला रत्न होता, कोई कौन-सा! तो अभी लास्ट तक भी स्थूल यादगार रूप सेवा कर रहा है। ऐसे सेवाधारी बने हो। समझा।
सम्मेलन में आये हुए विदेशी प्रतिनिधियों से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात - सभी कहाँ पहुँचे हो? बाप के घर में आये हैं, ऐसा अनुभव करते हो? तो बाप के घर में मेहमान आते हैं या बच्चे आते हैं? बच्चे हो, अधिकारी हो या मेहमान हो? बाप के घर में आये हो, बाप के घर में सदा अधिकारी बच्चे आते हैं। अभी से अपने को मेहमान नहीं लेकिन बाप के बच्चे महान आत्मायें समझते हुए आगे बढ़ना। भाग्यवान थे तब इस स्थान पर पहुँचे हो। अभी क्या करना है? यहाँ पहुँचना यह भाग्य तो हुआ लेकिन आगे क्या करना है। अभी सदा साथ रहना। याद में रहना ही साथ है। अकेले नहीं जाना। कम्बाइण्ड होकर जहाँ भी जायेंगे जो भी कर्म करेंगे वह कम्बाइण्ड रूप से करने से सदा सहज और सफल अनुभव करेंगे। सदा साथ रहेंगे यह संकल्प जरूर करके जाना। पुरूषार्थ करेंगे, देखेंगे, यह नहीं। करना ही है। क्योंकि दृढ़ता सफलता की चाबी है। तो यह चाबी सदा अपने साथ रखना। यह ऐसी चाबी है जो खजाना चाहिए वह संकल्प किया और खजाना मिला। यह चाबी साथ रखना अर्थात् सदा सफलता पाना। अभी मेहमान नहीं अधिकारी आत्मा। बापदादा भी ऐसे अधिकारी बच्चों को देख हर्षित होते हैं। जो अनुभव किया है वह अनुभव का खजाना सदा बांटते रहना, जितना बांटेंगे उतना बढ़ता रहेगा। तो महादानी बनना सिर्फ अपने पास नहीं रखना। अच्छा।
बापदादा ने अपने हस्तों से झण्डा लहराया तथा यादप्यार दी
चारों ओर के सभी सदा स्नेही बच्चों को बापदादा इस दिव्य जन्म की शुभ दिवस की मुबारक दे रहे हैं। सदा मुबारक हो, मुबारक हो, मुबारक हो। सदा अविनाशी भव, सदा सम्पन्न भव, सदा समान भव के वरदानों से झोली भरी रहे। अच्छा!
विदाई के समय 3-30 बजे
सभी बच्चों को मुबारक के साथ-साथ गुडमोर्निंग। जैसे आज की रात शुभ मिलन की मौज में बिताया वैसे सदा दिन रात बाप के मिलन मौज में मनाते रहना। पूरा ही संगमयुग सदा बाप से बधाईयाँ लेते हुए वृद्धि को पाते हुए, आगे बढ़ते हुए, सभी को आगे बढ़ाते रहना। सदा महादानी वरदानी बनकर अनेक आत्माओं को दान भी देना, वरदान भी देना।
अच्छा - ऐसे सदा विश्व-कल्याणकारी, सदा रहमदिल, सदा सर्व के प्रति शुभ भावना रखने वाले बच्चों को यादप्यार और गुडमोर्निंग।
18-02-85 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
संगमयुग तन-मन-धन और समय सफल करने का युग
विश्व कल्याणकारी बापदादा सफलतामूर्त बच्चों प्रति बोले
आज विश्व-कल्याणकारी बाप अपने सहयोगी बच्चों को देख रहे हैं। हर एक बच्चे की दिल में बाप को प्रत्यक्ष करने की लगन लगी हुई है। सभी का एक ही श्रेष्ठ संकल्प है और सभी इसी कार्य में उमंग-उत्साह से लगे हुए हैं। एक बाप से लगन होने कारण सेवा से भी लगन लगी हुई है। दिन-रात साकार कर्म में वा स्वप्न में भी बाप और सेवा यही दिखाई देता है। बाप का सेवा से प्यार है इसलिए स्नेही सहयोगी बच्चों का भी प्यार सेवा से अच्छा है। यह स्नेह का सबूत है अर्थात् प्रमाण है। ऐसे सहयोगी बच्चों को देख बापदादा भी हर्षित होते हैं। अपना तन-मन-धन, समय कितना प्यार से सफल कर रहे हैं। पाप के खाते से बदल पुण्य के खाते में वर्तमान भी श्रेष्ठ और भविष्य में भी जमा कर रहे हैं। संगमयुग है ही एक का पद्मगुणा जमा करने का युग। तन सेवा में लगाओ और 21 जन्मों के लिए सम्पूर्ण निरोगी तन प्राप्त करो। कैसा भी कमज़ोर तन हो, रोगी हो लेकिन वाचा-कर्मणा नहीं तो मंसा सेवा अन्तिम घड़ी तक भी कर सकते हो। अपने अतीन्द्रिय सुख-शान्ति की शक्ति चेहरे से, नयनों से दिखा सकते हो। जो सम्पर्क वाले देखकर यही कहें कि यह तो वण्डरफुल पेशेन्ट है। डाक्टर्स भी पेशेन्ट को देख हर्षित हो जाएँ। वैसे तो डाक्टर्स पेशेन्ट को खुशी देते हैं, दिलाते हैं लेकिन यह देने के बजाए लेने का अनुभव करें। कैसे भी बीमार हो अगर दिव्य-बुद्धि सालिम है तो अन्त घड़ी तक भी सेवा कर सकते हैं। क्योंकि यह जानते हो कि इस तन की सेवा का फल 21 जन्म खाते रहेंगे। ऐसे तन से, मन से-स्वयं सदा मन के शान्ति स्वरूप बन, सदा हर संकल्प में शक्तिशाली बन, शुभ भावना शुभ कामना द्वारा, दाता बन सुख-शान्ति के शक्ति की किरणें वायुमण्डल में फैलाते रहो। जब आपकी रचना सूर्य चारों ओर प्रकाश की किरणें फैलाते रहते हैं तो आप मास्टर रचता, मास्टर सर्वशक्तिवान, विधाता, वरदाता, भाग्यवान, प्राप्ति की किरणें नहीं फैला सकते हो? संकल्प शक्ति अर्थात् मन द्वारा एक स्थान पर होते हुए भी चारों ओर वायब्रेशन द्वारा वायुमण्डल बना सकते हो। थोड़े से समय की इस जन्म में मन द्वारा सेवा करने से 21 जन्म मन सदा सुख-शान्ति की मौज में होगा। लेकिन आधाकल्प भक्ति द्वारा, चित्रों द्वारा मन की शान्ति देने के निमित्त बनेंगे। चित्र भी इतना शान्ति का, शक्ति का देने वाला बनेगा। तो एक जन्म के मन की सेवा सारा कल्प चैतन्य स्वरूप से वा चित्र से शान्ति का स्वरूप बनेगा।
ऐसे धन द्वारा सेवा के निमित्त बनने वाले 21 जन्म अनगिनत धन के मालिक बन जाते हैं। साथ-साथ द्वापर से अब तक भी ऐसे आत्मा कभी धन की भिखारी नहीं बनेंगी। 21 जन्म राज्य भाग्य पायेंगे। जो धन मिट्टी के समान होगा। अर्थात् इतना सहज और अकीचार होगा। आपकी प्रजा की भी प्रजा अर्थात् प्रजा के सेवाधारी भी अनगिनत धन के मालिक होंगे। लेकिन 63 जन्मों में किसी जन्म में भी धन के भिखारी नहीं बनेंगे। मजे से दाल-रोटी खाने वाले होंगे। कभी रोटी के भिखारी नहीं होंगे। तो एक जन्म दाता के प्रति धन लगाने से, दाता भी क्या करेगा? सेवा में लगायेगा। आप तो बाप के भण्डारी में डालते हो ना और बाप फिर सेवा में लगाते हैं। तो सेवा अर्थ वा दाता के अर्थ धन लगाना अर्थात् पूरा कल्प भिखारी पन से बचना। जितना लगाओ उतना द्वापर से कलियुग तक भी आराम से खाते रहेंगे। तो तन-मन-धन और समय सफल करना है।
समय लगाने वाले, एक तो सृष्टि चक्र के सबसे श्रेष्ठ समय - सतयुग में आते हैं। सतोप्रधान युग में आते हैं। जिस समय का भक्त लोग अब भी गायन करते रहते हैं। स्वर्ग का गायन करते हैं ना। तो सतोप्रधान में भी वन-वन-वन ऐसे समय पर अर्थात् सतयुग के पहले जन्म में, ऐसे श्रेष्ठ समय का अधिकार पाने वाले, पहले नम्बर वाली आत्मा के साथ-साथ जीवन का समय बिताने वाले होंगे। उनके साथ पढ़ने वाले, खेलने वाले, घूमने वाले होंगे। तो जो संगम पर अपना समय सफल करते हैं उसका श्रेष्ठ फल सम्पूर्ण सुनहरे, श्रेष्ठ समय का अधिकार प्राप्त होता है। अगर समय लगाने में अलबेले रहे तो पहले नम्बर वाली आत्मा अर्थात् श्रीकृष्ण स्वरूप में स्वर्ग के पहले वर्ष में न आकर पीछे-पीछे नम्बरवार आयेंगे। यह है समय देने का महत्व। देते क्या हो और लेते क्या हो? इसलिए चारों ही बातों को सदा चेक करो तन-मन-धन, समय चारों ही जितना लगा सकते हैं उतना लगाते हैं? ऐसे तो नहीं जितना लगा सकते उतना नहीं लगाते? यथाशक्ति लगाने से प्राप्ति भी यथाशक्ति होगी। सम्पूर्ण नहीं होगी। आप ब्राह्मण आत्मायें सभी को सन्देश में क्या कहती हो? सम्पूर्ण सुख-शान्ति आपका जन्म सिद्ध अधिकार है। यह तो नहीं कहते हो यथा शक्ति आपका अधिकार है। सम्पूर्ण कहते हो ना। जब सम्पूर्ण अधिकार है तो सम्पूर्ण प्राप्ति करना ही ब्राह्मण जीवन है। अधूरा है तो क्षत्रिय है। चन्द्रवंशी आधे में आते हैं ना। तो यथा शक्ति अर्थात् अधूरापन और ब्राह्मण जीवन अर्थात् हर बात में सम्पूर्ण। तो समझा, बापदादा बच्चों के सहयोग देने का चार्ट देख रहे थे। हैं सब सहयोगी। जब सहयोगी बने हैं तब सहज योगी बने हैं। सभी सहयोगी, सहजयोगी, श्रेष्ठ आत्मायें हों। बापदादा हर एक बच्चे को सम्पूर्ण अधिकारी आत्मा बनाते हैं। फिर यथाशक्ति क्यों बनते हो? वा यह सोचते हो - कोई तो बनेगा! ऐसे बनने वाले बहुत हैं। आप नहीं हो। अभी भी सम्पूर्ण अधिकार पाने का समय है। सुनाया था ना - अभी टूलेट का बोर्ड नहीं लगा। लेट अर्थात् पीछे आने वाले आगे बढ़ सकते हैं। इसलिए अभी भी गोल्डन चांस है। जब टूलेट का बोर्ड लग जायेगा फिर गोल्डन चांस के बजाए सिल्वर चांस हो जायेगा। तो क्या करना चाहिए? गोल्डन चांस लेने वाले हो ना। गोल्डन एज में न आये तो ब्राह्मण बन करके क्या किया? इसलिए बापदादा स्नेही बच्चों को फिर भी स्मृति दिला रहे हैं, अभी बाप के स्नेह कारण एक का पद्मगुणा मिलने का चांस है। अभी जितना और उतना नहीं है। एक का पद्मगुणा है। फिर हिसाब-किताब जितना और उतने का रहेगा। लेकिन अभी भोलेनाथ के भरपूर भण्डार खुले हुए हैं। जितने चाहो, जितना चाहो ले सकते हो। फिर कहेंगे अभी सतयुग के नम्बरवन की सीट खाली नहीं। इसलिए बाप समान सम्पूर्ण बनो। महत्व को जान महान बनो। डबल विदेशी गोल्डन चांस वाले हो ना! जब इतनी लगन से बढ़ रहे हो, स्नेही हो, सहयोगी हो तो हर बात में सम्पूर्ण लक्ष्य द्वारा सम्पूर्णता के लक्षण धारण करो। लगन न होती तो यहाँ कैसे पहुँचते! जैसे उड़ते-उड़ते पहुँच गये हो ऐसे ही सदा उड़ती कला में उड़ते रहो। शरीर से भी उड़ने के अभ्यासी हों। आत्मा भी सदा उड़ती रहे। यही बापदादा का स्नेह है। अच्छा –
सदा सफलता स्वरूप बन संकल्प, समय को सफल करने वाले, हर कर्म में सेवा का उमंग-उत्साह रखने वाले, सदा स्वयं को सम्पन्न बनाए सम्पूर्ण अधिकार पाने वाले, मिले हुए गोल्डन चांस को सदा लेने वाले, ऐसे फॉलो फादर करने वाले सपूत बच्चों को, नम्बरवन बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।’’
काठमाण्डू तथा विदेशी भाई-बहिनों के ग्रुप से बापदादा की पर्सनल मुलाकात - (1) सभी सदा अपने को विशेष आत्मायें अनुभव करते हो? सारे विश्व में ऐसी विशेष आत्मायें कितनी होंगी? जो कोटों में कोई गायन है, वह कौन हैं? आप हो ना! तो सदा अपने को कोटों में कोई, कोई में भी कोई ऐसी श्रेष्ठ आत्मायें समझते हो? कभी स्वप्न में भी ऐसा नहीं सोचा होगा कि इतनी श्रेष्ठ आत्मा बनेंगे लेकिन साकार रूप में अनुभव कर रहे हो। तो सदा अपना यह श्रेष्ठ भाग्य स्मृति में रहता है? वाह मेरा श्रेष्ठ भाग्य। जो भगवान ने खुद आपका भाग्य बनाया है। डायरेक्ट भगवान ने भाग्य की लकीर खींची, ऐसा श्रेष्ठ भाग्य है। जब यह श्रेष्ठ भाग्य स्मृति में रहता है तो खुशी में बुद्धि रूपी पाँव इस पृथ्वी पर नहीं रहते। ऐसे समझते हो ना। वैसे भी फरिश्तों के पाँव धरनी पर नहीं होते। सदा ऊपर। तो आपके बुद्धि रूपी पाँव कहाँ रहते हैं? नीचे धरनी पर नहीं। देह- अभिमान भी धरनी है। देह-अभिमान की धरनी से ऊपर रहने वाले। इसको ही कहा जाता है - ‘फरिश्ता’। तो कितने टाइटिल हैं - भाग्यवान हैं, फरिश्ते हैं, सिकीलधे हैं - जो भी श्रेष्ठ टाइटिल हैं वह सब आपके हैं। तो इसी खुशी में नाचते रहो। सिकीलधे धरती पर पाँव नहीं रखते, सदा झूले में रहते। क्योंकि नीचे धरनी पर रहने के अभ्यासी तो 63 जन्म रहे। उसका अनुभव करके देख लिया। धरनी में मिट्टी में रहने से मैले हो गये। और अभी सिकीलधे बने तो सदा धरनी से ऊपर रहना। मैले नहीं, सदा स्वच्छ। सच्ची दिल, साफ दिल वाले बच्चे सदा बाप के साथ रहते हैं। क्योंकि बाप भी सदा स्वच्छ है ना। तो बाप के साथ रहने वाले भी सदा स्वच्छ हैं। बहुत अच्छा, मिलन मेले में पहुँच गये। लगन ने मिलन मनाने के लिए पहुँचा ही दिया। बापदादा बच्चों को देख खुश होते हैं क्योंकि बच्चे नहीं तो बाप भी अकेला क्या करेगा? भले पधारे अपने घर में। भक्त लोग यात्रा पर निकलते तो कितना कठिन रास्ते क्रास करते हैं। आप तो काठमाण्डू से बस में आये हो। मौज मनाते हुए पहुँच गये। अच्छा –
लण्डन ग्रुप - सभी स्नेह के सूत्र में बंधे हुए बाप के माला के मणके हो ना! माला का इतना महत्व क्यों बना है? क्योंकि स्नेह का सूत्र सबसे श्रेष्ठ सूत्र है। तो स्नेह के सूत्र में सब एक बाप के बने हैं, इसका यादगार माला है। जिसका ‘एक बाप दूसरा न कोई है’ वही एक ही स्नेह के सूत्र में माला के मणके बन पिरोये जाते हैं। सूत्र एक है और दाने अनेक हैं। तो यह एक बाप के स्नेह की निशानी है। तो ऐसे अपने को माला के मणके समझते हो ना। यह समझते हो 108 में तो बहुत थोड़े आयेंगे। क्या समझते हो? यह तो 108 का नम्बर निमित्त मात्र है। जो भी बाप के स्नेह में समाये हुए हैं वह गले की माला के मोती हैं ही। जो ऐसे एक ही लगन में मगन रहने वाले हैं तो मगन अवस्था निर्विघ्न बनाती है और निर्विघ्न आत्माओं का ही गायन और पूजन होता है। सबसे ज्यादा गायन कौन करता है? बाप करता है ना! आप सभी एक बाप का गायन करते और बाप कितनों का करता? तो सबसे ज्यादा कौन करता? अगर एक बच्चे का भी गायन न करे तो बच्चा रूठ जायेगा। इसलिए बाबा हरेक बच्चे का गायन करते हैं। क्योंकि हरेक बच्चा अपना अधिकार समझता है। अधिकार के कारण हरेक अपना हक समझता है। बाप की गति इतनी फास्ट है जो और कोई इतनी फास्ट स्पीड वाला है ही नहीं। एक ही सेकण्ड में अनेकों को राजी कर सकता है। तो बाप बच्चों से बिजी रहते और बच्चे बाप में बिजी रहते। बाप को बिजनेस ही बच्चों का है।
अविनाशी रत्न बने हो - इसकी मुबारक हो। 10 साल या 15 साल से माया से जीते रहे हो - इसकी मुबारक हो। आगे संगमयुग पूरा ही जीते रहो। सभी पक्के हो। इसलिए बापदादा ऐसे पक्के अचल बच्चों को देख खुश हैं। हरेक बच्चे की विशेषता ने बाप का बनाया है, ऐसा कोई बच्चा नहीं जिसमें ‘विशेषता’ न हो। इसलिए बापदादा हरेक बच्चे की विशेषता देख सदा खुश होते हैं। नहीं तो कोटों में कोई, कोई में कोई, आप ही क्यों बनें! जरूर कोई विशेषता है। कोई कौन सा रत्न है, कोई कौन सा? भिन्न-भिन्न विशेषताओं के 9 रत्न गाये हुए हैं। हरेक रत्न विशेष विघ्न-विनाशक होता है। तो आप सभी भी विघ्न-विनाशक हो।
विदेशी भाई-बहिनों के याद प्यार तथा पत्रों का रेसपाण्ड देते हुए
सभी स्नेही बच्चों का स्नेह पाया। सभी के दिल के उमंग और उत्साह बाप के पास पहुँचते हैं और जैसे उमंग उत्साह से आगे बढ़ रहे हैं - सदा आगे बढ़ने वाले बच्चों के ऊपर बापदादा और परिवार की विशेष ब्लेसिंग है। इसी ब्लेसिंग द्वारा आगे बढ़ते रहेंगे और दूसरों को भी आगे बढ़ाते रहेंगे। अच्छी सेवा में रेस कर रहे हो। जैसे उमंग-उत्साह में रेस कर रहे हो ऐसे अविनाशी उन्नति को पाते रहना। तो अच्छा नम्बर आगे ले लेंगे। सभी अपने नाम, विशेषता से याद स्वीकार करना। अभी भी सभी बच्चे अपनी-अपनी विशेषता से बापदादा के सम्मुख हैं। इसलिए पद्मगुणा यादप्यार।
दादी चन्द्रमणि जी ने पंजाब जाने की छुट्टी ली - सभी बच्चों को यादप्यार भी देना और विशेष सन्देश देना कि उड़ती कला में जाएं। औरों को उड़ाने के लिए समर्थ स्वरूप धारण करो। कैसे भी वातावरण में उड़ती कला द्वारा अनेक आत्माओं को उड़ाने का अनुभव करा सकते हो। इसलिए सभी को, याद और सेवा सदा साथ-साथ चलती रहे, यह विशेष स्मृति दिलाना। बाकी तो सभी सिकिलधे हैं। अच्छी विशेषता वाली आत्मायें हैं। सभी को अपनी-अपनी विशेषता से याद प्यार स्वीकार हो। अच्छा है डबल पार्ट बजा रही हो। बेहद के आत्माओं की यही निशानी है - जिस समय जहाँ आवश्यकता है, वहाँ पहुँचना। अच्छा-
युगलों के साथ - अव्यक्त बापदादा की मुलाकात (1) प्रवृत्ति में रहते सर्व बंधनों से न्यारे और बाप के प्यारे हो ना? फंसे हुए तो नहीं हो? पिंजड़े के पंछी तो नहीं, उड़ते पंछी हो ना! जरा भी बंधन फँसा लेता है। बंधनमुक्त हैं तो सदा उड़ते रहेंगे। तो किसी भी प्रकार का बंधन नहीं। न देह का, न संबंध का, न प्रवृत्ति का, न पदार्थ का। कोई भी बंधन न हो इसको कहा जाता है - ‘न्यारा और प्यारा’। स्वतन्त्र सदा उड़ती कला में होंगे और परतन्त्र थोड़ा उड़ेंगे भी फिर बंधन उसको खींच कर नीचे ले आयेगा। तो कभी नीचे, कभी ऊपर, टाइम चला जायेगा। सदा एकरस उड़ती कला की अवस्था और कभी नीचे, कभी ऊपर यह अवस्था, दोनों में रात-दिन का अन्तर है। आप कौन-सी अवस्था वाले हो? सदा निर्बन्धन, सदा स्वतन्त्र पंछी? सदा बाप के साथ रहने वाले? किसी भी आकर्षण में आकर्षित होने वाले नहीं। वही जीवन प्यारी है। जो बाप के प्यारे बनते उनकी जीवन सदा प्यारी बनती। खिट-खिट वाली जीवन नहीं। आज यह हुआ, कल यह हुआ, नहीं। लेकिन सदा बाप के साथ रहने वाले, एकरस स्थिति में रहने वाले। वह है मौज की जीवन। मौज में नहीं होंगे तो मूँझेंगे जरूर। आज यह प्राब्लम आ गई, कल दूसरी आ गई, यह दुःखधाम की बातें दुःखधाम में तो आयेंगी ही लेकिन हम संगमयुगी ब्राह्मण हैं तो दुःख नीचे रह जायेगा। दुःखधाम से किनारा कर लिया तो दुःख दिखाई देते भी आपको स्पर्श नहीं करेगा। कलियुग को छोड़ दिया, किनारा छोड़ चुके, अब संगमयुग पर पहुँचे तो संगम सदा ऊँचा दिखाते हैं। संगमयुगी आत्मायें भी सदा ऊँची, नीचे वाली नहीं। जब बाप उड़ाने के लिए आये हैं तो उड़ती कला से नीचे आयें ही क्यों! नीचे आना माना फँसना। अब पंख मिले हैं तो उड़ते रहो, नीचे आओ ही नहीं। अच्छा!
अधरकुमारों से - सभी एक ही लगन में मगन रहने वाले हो ना? एक बाप दूसरे हम, तीसरा न कोई। इसको कहा जाता है लगन में मगन रहने वाले। मैं और मेरा बाबा। इसके सिवाए और भी कोई मेरा है? मेरा बच्चा, मेरा पोत्रा....ऐसे तो नहीं। ‘‘मेरे’’ में ममता रहती है। मेरा-पन समाप्त होना अर्थात् ममता समाप्त होना। तो सारी ममता यानी मोह बाप में हो गया। तो बदल गया, शुद्ध मोह हो गया। बाप सदा शुद्ध है तो मोह बदलकर प्यार हो गया। एक मेरा बाबा, इस एक मेरे से सब समाप्त हो जाता और एक की याद सहज हो जाती। इसलिए सदा सहजयोगी। मैं श्रेष्ठ आत्मा और मेरा बाबा बस! श्रेष्ठ आत्मा समझने से श्रेष्ठ कर्म स्वत: होंगे, श्रेष्ठ आत्मा के आगे माया आ नहीं सकती।
माताओं से - मातायें सदा बाप के साथ खुशी के झूले में झूलने वाली हैं ना! गोप गोपियाँ सदा खुशी में नाचते या झूले में झूलते। तो सदा बाप के साथ रहने वाले खुशी में नाचते हैं। बाप साथ है तो सर्वशक्तियाँ भी साथ हैं। बाप का साथ शक्तिशाली बना देता। बाप के साथ वाले सदा निर्मोही होते, उन्हें किसी का मोह सतायेगा नहीं। तो नष्टोमोहा हो? कैसी भी परिस्थिति आवे लेकिन हर परिस्थिति में ‘नष्टोमोहा’। जितना नष्टमोहा होंगी उतना याद और सेवा में आगे बढ़ती रहेंगी।
मधुबन में आये हुए सेवाधारियों से - सेवा का खाता जमा हो गया ना। अभी भी मधुबन के वातावरण में शक्तिशाली स्थिति बनाने का चांस मिला और आगे के लिए भी जमा किया। तो डबल प्राप्ति हो गई। यज्ञ सेवा अर्थात् श्रेष्ठ सेवा, श्रेष्ठ स्थिति में रहकर करने से पद्मगुणा फल बन जाता है। कोई भी सेवा करो, पहले यह देखो कि शक्तिशाली स्थिति में स्थित हो सेवाधारी बन सेवा कर रहे हैं? साधारण सेवाधारी नहीं, रूहानी सेवाधारी। रूहानी सेवाधारी की रूहानी झलक, रूहानी फलक सदा इमर्ज रूप में होनी चाहिए। रोटी बेलते भी ‘स्वदर्शन चक्र’ चलता रहे। लौकिक निमित्त स्थूल कार्य लेकिन स्थूल सूक्ष्म दोनों साथ-साथ, हाथ से स्थूल काम करो और बुद्धि से मंसा सेवा करो तो डबल हो जायेगा। हाथ द्वारा कर्म करते हुए भी याद की शक्ति से एक स्थान पर रहते भी, बहुत सेवा कर सकते हो। मधुबन तो वैसे भी लाइट हाउस है, लाइट हाउस एक स्थान पर स्थित हो, चारों ओर सेवा करता है। ऐसे सेवाधारी अपनी और दूसरों की बहुत श्रेष्ठ प्रालब्ध बना सकते हैं। अच्छा – ओम शान्ति।
21-02-85 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
शीतलता की शक्ति
ज्ञानसूर्य शिव बाबा अपने लक्की सितारों प्रति बोले
आज ज्ञान सूर्य, ज्ञान चन्द्रमा अपने लकी और लवली सितारों को देख रहे हैं। यह रूहानी तारामण्डल सारे कल्प में कोई देख नहीं सकता। आप रूहानी सितारे और ज्ञान सूर्य, ज्ञान चन्द्रमा इस अति न्यारे और प्यारे तारामंडल को देखते हो। इस रूहानी तारामण्डल को साइंस की शक्ति नहीं देख सकती। साइंस की शक्ति वाले इस तारामण्डल को देख सकते, जान सकते हैं। तो आज तारामण्डल का सैर करते भिन्न-भिन्न सितारों को देख बापदादा हर्षित हो रहे हैं। कैसे हर एक सितारा - ज्ञान सूर्य द्वारा सत्यता की लाइट माइट ले बाप समान सत्यता की शक्ति सम्पन्न सत्य स्वरूप बने हैं। और ज्ञान चन्द्रमा द्वारा शीतलता की शक्ति धारण कर चन्द्रमा समान ‘शीतला’ स्वरूप बने हैं। यह दोनों शक्तियाँ - ‘सत्यता और शीतलता’ सदा सहज सफलता को प्राप्त कराती हैं। एक तरफ सत्यता की शक्ति का ऊँचा नशा दूसरे तरफ जितना ऊँचा नशा उतना ही शीतलता के आधार से कैसे भी उल्टे नशे वा क्रोधित आत्मा को भी शीतल बनाने वाले। कैसा भी अहंकार के नशे में ‘मैं, मैं’ करने वाला हो लेकिन शीतलता की शक्ति से मैं, मैं के बजाए ‘बाबा-बाबा’ कहने लग पड़े। सत्यता को भी शीतलता की शक्ति से सिद्ध करने से सिद्धि प्राप्त होती है। नहीं तो सिवाए शीतलता की शक्ति के सत्यता को सिद्ध करने के लक्ष्य से, करते सिद्ध हैं लेकिन अज्ञानी, सिद्ध को जिद्द समझ लेते हैं। इसलिए सत्यता और शीतलता दोनों शक्तियाँ समान और साथ चाहिए। क्योंकि आज के विश्व का हर एक मानव किसी न किसी अग्नि में जल रहा है। ऐसी अग्नि में जलती हुई आत्मा को पहले शीतलता की शक्ति से अग्नि को शीतल करो तब शीतलता के आधार से सत्यता को जान सकेंगे।
शीतलता की शक्ति अर्थात् आत्मिक स्नेह की शक्ति। चन्द्रमा ‘माँ’ स्नेह की शीतलता से कैसे भी बिगड़े हुए बच्चे को बदल लेती है। तो स्नेह अर्थात् शीतलता की शक्ति किसी भी अग्नि में जली हुई आत्मा को शीतल बनाए सत्यता को धारण कराने के योग्य बना देती है। पहले चन्द्रमा की शीतलता से योग्य बनते फिर ज्ञान सूर्य के सत्यता की शक्ति से ‘योगी’ बन जाते! तो ज्ञान चन्द्रमा के शीतलता की शक्ति बाप के आगे जाने के योग्य बना देती है। योग्य नहीं तो योगी भी नहीं बन सकते हैं। तो सत्यता जानने के पहले शीतल हो? सत्यता को धारण करने की शक्ति चाहिए। तो शीतलता की शक्ति वाली आत्मा स्वयं भी, संकल्पों की गति में, बोल में, सम्पर्क में हर परिस्थिति में शीतल होगी। संकल्प की स्पीड फास्ट होने के कारण वेस्ट भी बहुत होता और कन्ट्रोल करने में भी समय जाता है। जब चाहें तब कन्ट्रोल करें वा परिवर्तन करें। इसमें समय और शक्ति ज्यादा लगानी पड़ती। यथार्थ गति से चलने वाले अर्थात् शीतलता की शक्ति स्वरूप रहने वाले व्यर्थ से बच जाते हैं। एक्सीडेंट से बच जाते। यह क्यों, क्या, ऐसा नहीं वैसा इस व्यर्थ फास्ट गति से छूट जाते हैं। जैसे वृक्ष की छाया किसी भी राही को आराम देने वाली है, सहयोगी है। ऐसे शीतलता की शक्ति वाला अन्य आत्माओं को भी अपने शीतलता की छाया से सदा सहयोग का आराम देता है। हर एक को आकर्षण होगा कि इस आत्मा के पास जाए दो घड़ी में भी शीतलता की छाया में शीतलता का सुख, आनन्द लेवें। जैसे चारों ओर बहुत तेज धूप हो तो छाया का स्थान ढूँढेंगे ना। ऐसे आत्माओं की नजर वा आकर्षण ऐसी आत्माओं तरफ जाती है। अभी विश्व में और भी विकारों की आग तेज होनी है - जैसे आग लगने पर मनुष्य चिल्लाता है ना। शीतलता का सहारा ढूँढता है। ऐसे यह मनुष्य आत्मायें, आप शीतल आत्माओं के पास तड़पती हुई आयेंगी। जरा-सा शीतलता के छींटे भी लगाओ। ऐसे चिल्लायेंगी। एक तरफ विनाश की आग, दूसरे तरफ विकारों की आग, तीसरे तरफ देह और देह के संबंध, पदार्थ के लगाव की आग, चौथे तरफ पश्चाताप की आग। चारों ओर आग ही आग दिखाई देगी। तो ऐसे समय पर आप शीतलता की शक्ति वाली शीतलाओं के पास भागते हुए आयेंगे। सेकण्ड के लिए भी शीतल करो। ऐसे समय पर इतनी शीतलता की शक्ति स्वयं में जमा हो जो चारों ओर की आग का स्वयं में सेक न लग जाए। चारों तरफ की आग मिटाने वाले शीतलता का वरदान देने वाले शीतला बन जाओ। अगर जरा भी चारों प्रकार की आग में से किसी का भी अंश मात्र रहा हुआ होगा तो चारों ओर की आग अंश मात्र रही हुई आग को पकड़ लेगी। जैसे आग, आग को पकड़ लेती है ना। तो यह चेक करो।
विनाश ज्वाला की आग्नि से बचने का साधन - निर्भयता की शक्ति है। निर्भयता, विनाश ज्वाला के प्रभाव से डगमग नहीं करेगी। हलचल में नहीं लाएगी। निर्भयता के आधार से विनाश ज्वाला में भयभीत आत्माओं को शीतलता की शक्ति देंगे। आत्मा भय की अग्नि से बच शीतलता के कारण खुशी में नाचेगी। विनाश देखते भी स्थापना के नजारे देखेंगे। उनके नयनों में एक आँख में मुक्ति-स्वीट होम दूसरी आँख में जीवन मुक्ति अर्थात् स्वर्ग समाया हुआ होगा। उसको अपना घर, अपना राज्य ही दिखाई देगा। लोग चिल्लायेंगे हाय गया, हाय मरा और आप कहेंगे अपने मीठे घर में, अपने मीठे राज्य में गया। नथिंग न्यू। यह घुँघरू पहनेंगे। हमारा घर, हमारा राज्य - इस खुशी में नाचते-गाते साथ चलेंगे। वह चिल्लायेंगे और आप साथ चलेंगे। सुनने में ही सबको खुशी हो रही है तो उस समय कितनी खुशी में होंगे! तो चारों ही आग से शीतल हो गये हो ना? सुनाया ना - विनाश ज्वाला से बचने का साधन है - ‘निर्भयता’। ऐसे ही विकारों की आग के अंश मात्र से बचने का साधन है - अपने आदि-अनादि वंश को याद करो। अनादि बाप के वंश सम्पूर्ण सतोप्रधान आत्मा हूँ। आदि वंश-देव आत्मा हूँ। देव आत्मा 16 कला सम्पन्न, सम्पूर्ण निर्विकारी है। तो अनादि-आदि वंश को याद करो तो विकारों का अंश भी समाप्त हो जायेगा।
ऐसे ही तीसरी देह, देह के सम्बन्ध और पदार्थ के ममता की आग - इस अग्नि से बचने का साधन है - बाप को संसार बनाओ। बाप ही संसार है तो बाकी सब असार हो जायेगा। लेकिन करते क्या हैं वह फिर दूसरे दिन सुनायेंगे। बाप ही संसार है यह याद है तो न देह, न सम्बन्ध, न पदार्थ रहेगा। सब समाप्त।
चौथी बात-पश्चाताप की आग- इसका सहज साधन है सर्व प्राप्ति स्वरूप बनना। अप्राप्ति पश्चाताप कराती है। प्राप्ति पश्चाताप को मिटाती है। अब हर प्राप्ति को सामने रख चेक करो। किसी भी प्राप्ति का अनुभव करने में रह तो नहीं गये हैं। प्राप्तियों की लिस्ट तो आती हैं ना। अप्राप्ति समाप्त अर्थात् पश्चाताप समाप्त। अब इन चारों बातों को चेक करो तब ही शीतलता स्वरूप बन जायेंगे। औरों की तपत को बुझाने वाले ‘शीतल योगी व शीतला देवी’ बन जायेंगे। तो समझा, शीतलता की शक्ति क्या है। सत्यता की शक्ति का सुनाया भी है। आगे भी सुनायेंगे। तो सुना तारामण्डल में क्या देखा। विस्तार फिर सुनायेंगे। अच्छा –
ऐसे सदा चन्द्रमा समान शीतलता के शक्ति स्वरूप बच्चों को, सत्यता की शक्ति से सतयुग लाने वाले बच्चों को, सदा शीतलता की छाया से सर्व को दिल का आराम देने वाले बच्चों को, सदा चारों ओर की अग्नि से सेफ रहने वाले शीतल योगी शीतला देवी बच्चों को ज्ञान सूर्य, ज्ञान चन्द्रमा का यादप्यार और नमस्ते।’’
विदेशी टीचर्स भाई-बहिनों से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात - यह कौन-सा ग्रुप है? (सेवाधारियों का, राइट हैंण्डस का) आज बापदादा अपने फ्रेंड्स से मिलने आये हैं। फ्रेंड्स का नाता रमणीक है। जैसे बाप सदा बच्चों के स्नेह में समाये हुए हैं वैसे बच्चे भी बाप के स्नेह में समाये हुए हैं। तो यह लवलीन ग्रुप है। खाते-पीते, चलते कहाँ लीन रहते हो? लव में ही रहते हो ना! यह लवलीन रहने की स्थिति सदा हर बात में सहज ही बाप समान बना देती है। क्योंकि बाप के लव में लीन हैं तो संग का रंग लगेगा ना। मेहनत वा मुश्किल से छूटने का सहज साधन है - लवलीन रहना। यह लवलीन अवस्था लकी है, इसके अन्दर माया नहीं आ सकती है। तो बापदादा के अति स्नेही, समीप, समान ग्रुप है। आपके संकल्प और बाप के संकल्प में अन्तर नहीं है। ऐसे समीप हो ना? तब तो बाप समान विश्व-कल्याणकारी बन सकते हो। जो बाप का संकल्प वह बच्चों का। जो बाप के बोल वह बच्चों के। तो हर कर्म आपके क्या बन जाएँ? (आइना) तो हर कर्म ऐसा आइना हो जिसमें बाप दिखाई दे। ऐसा ग्रुप है ना! जैसे कई आइने होते हैं, दुनिया में भी ऐसे आइने बनाते हैं जिसमें बड़े से छोटा, छोटे से बड़ा दिखाई पड़ता है। तो आपका हर कर्म रूपी दर्पण क्या दिखायेगा? डबल दिखाई दे - आप और बाप। आपमें बाप दिखाई दे। आप, बाप के साथ दिखाई दो। जैसे ब्रह्मा बाप में सदा डबल दिखाई देता था ना। ऐसे आप हरेक में सदा बाप दिखाई दे तो डबल दिखाई दिया ना। ऐसे आइने हो? सेवाधारी विशेष किस सेवा के निमित हो! बाप को प्रत्यक्ष करने की ही विशेष सेवा है। तो अपने हर कर्म, बोल, संकल्प द्वारा बाप को दिखाना। इसी कार्य में सदा रहते हो ना! कभी भी कोई आत्मा अगर आत्मा को देखती है कि यह बहुत अच्छा बोलती, यह बहुत अच्छी सेवा करती, यह बहुत अच्छी दृष्टि देती। तो यह भी बाप को नहीं देखा आत्मा को देखा। यह भी रांग हो जाता है। आपको देखकर मुख से यह निकले - ‘‘बाबा’’! तभी कहेंगे पावरफुल दर्पण हो। अकेली आत्मा नहीं दिखाई दे, बाप दिखाई दे। इसी को कहा जाता है यथार्थ सेवाधारी। समझा! जितना आपके हर संकल्प में, बोल में ‘बाबा-बाबा’ होगा उतना औरों को आप से ‘बाबा’ दिखाई देगा। जैसे आजकल के साइंस के साधनों से आगे जो पहली चीज़ दिखाते वह गुम हो जाती और दूसरी दिखाई देती। ऐसे आपके साइलेन्स की शक्ति आपको देखते हुए आपको गुम कर दे। बाप को प्रत्यक्ष कर दे। ऐसी शक्तिशाली सेवा हो। बाप से संबंध जोड़ने से आत्मायें सदा शक्तिशाली बन जाती हैं। अगर आत्मा से संबंध जुट जाता तो सदा के लिए शक्तिशाली नहीं बन सकते। समझा। सेवाधारियों की विशेष सेवा क्या है? अपने द्वारा बाप को दिखाना। आपको देखें और ‘बाबा-बाबा’ के गीत गाने शुरू कर दें। ऐसी सेवा करते हो ना! अच्छा –
सभी अमृतवेले दिल खुश मिठाई खाते हो? सेवाधारी आत्मायें रोज दिलखुश मिठाई खायेंगी तो दूसरों को भी खिलायेंगी। फिर आपके पास दिलशिकस्त की बातें नहीं आयेंगी, जिज्ञासु यह बातें नहीं लेकर आयेंगे। नहीं तो इसमें भी समय देना पड़ता है ना। फिर यह टाइम बच जायेगा। और इसी टाइम में अनेक औरों को दिलखुश मिठाई खिलाते रहेंगे। अच्छा –
आप सभी दिलखुश रहते हो? कभी कोई सेवाधारी रोते तो नहीं। मन में भी रोना होता है सिर्फ आँखों का नहीं। तो रोने वाले तो नहीं हो ना! अच्छा, शिकायत करने वाले हो? बाप के आगे शिकायत करते हो? ऐसा मेरे से क्यों होता! मेरा ही ऐसा पार्ट क्यों है! मेरे ही संस्कार ऐसे क्यों हैं! मेरे को ही ऐसे जिज्ञासु क्यों मिले हैं या मेरे को ही ऐसा देश क्यों मिला है! ऐसी शिकायत करने वाले तो नहीं? शिकायत माना भक्ति का अंश। कैसा भी हो लेकिन परिवर्तन करना, यह सेवाधारियों का विशेष कर्त्तव्य है। चाहे देश है, चाहे जिज्ञासु हैं, चाहे अपने संस्कार हैं, चाहे साथी हैं, शिकायत के बजाए परिवर्तन करने को कार्य में लगाओ। सेवाधारी, कभी भी दूसरों की कमज़ोरी को नहीं देखो। अगर दूसरे की कमज़ोरी को देखा तो स्वयं भी कमज़ोर हो जायेंगे। इसलिए सदा हर एक की विशेषता को देखो। विशेषता को धारण करो। विशेषता का ही वर्णन करो। यही सेवाधारी के विशेष उड़ती कला का साधन है। समझा! और क्या करते हैं सेवाधारी? प्लैन बहुत अच्छे-अच्छे बनाते हैं। उमंग-उत्साह भी अच्छा है। बाप और सेवा से स्नेह भी अच्छा है। अभी आगे क्या करना है?
अभी विश्व में विशेष दो सत्तायें हैं (1) राज्य सत्ता (2) धर्म सत्ता। धर्म नेतायें और राज्य नेतायें। और आक्यूपेशन वाले भी अलग-अलग हैं लेकिन सता इन दो के साथ में है। तो अभी इन दोनों सत्ताओं को ऐसा स्पष्ट अनुभव हो कि धर्म सत्ता भी अभी सत्ताहीन हो गई है और राज्य सत्ता वाले भी अनुभव करें कि हमारे में नाम राज्य सत्ता है लेकिन सत्ता नहीं है। कैसे अनुभव करओ - उसका साधन क्या है? जो भी राज नेतायें वा धर्म नेतायें हैं उन्हों को ‘‘पवित्रता और एकता’’ इसका अनुभव कराओ। इसी की कमी के कारण दोनों सत्तायें कमज़ोर हैं। तो प्युरिटी क्या है, युनिटी क्या है, इसी पर उन्हों को स्पष्ट समाझानी मिलने से वह स्वयं ही समझेंगे कि हम कमज़ोर हैं और यह शक्तिशाली हैं। इसी के लिए विशेष मनन करो। धर्मसत्ता को धर्मसत्ता हीन बनाने का विशेष तरीका है - पवित्रता को सिद्ध करना। और राज्य सत्ता वालों के आगे एकता को सिद्ध करना। इस टॉपिक पर मनन करो। प्लैन बनाओ और उन्हों तक पहुँचाओ। इन दोनों ही शक्तियों को सिद्ध किया तो ईश्वरीय सत्ता का झण्डा बहुत सहज लहरायेगा। अभी इन दोनों की तरफ विशेष अटेन्शन चाहिए। अन्दर तो समझते हैं लेकिन अभी बाहर का अभिमान है। जैसे-जैसे प्युरिटी और युनिटी की शक्ति से इन्हों के समीप सम्पर्क में आते रहेंगे वैसे-वैसे वह स्वयं ही अपना वर्णन करने लगेंगे। समझा! जब दोनों ही सत्ताओं को कमज़ोर सिद्ध करो तब प्रत्यक्षता हो। अच्छा!
बाकी तो सेवाधारी ग्रुप है ही सदा सन्तुष्ट। अपने से, साथियों से, सेवा से सर्व प्रकार से सन्तुष्ट योगी। यह सन्तुष्टता का सर्टिफिकेट लिया है ना। बापदादा, निमित्त दादी-दीदियाँ सब आपको सर्टिफिकेट दें कि हाँ, यह सन्तुष्ट योगी है। चलते-फिरते भी सर्टिफिकेट मिलता है। अच्छा, कभी मूड आफ तो नहीं करते? कभी सेवा से थक कर मूड आफ तो नहीं होती है? क्या करना है, इतनी क्या पड़ी है? ऐसे तो नहीं!
तो अभी यह सब बातें अपने में चेक करना। अगर कोई हो तो चेन्ज कर लेना। क्योंकि सेवाधारी अर्थात् स्टेज पर हर कर्म करने वाले। स्टेज पर सदा श्रेष्ठ और युक्तियुक्त हर कदम उठाना होता है। ऐसे कभी भी नहीं समझना कि मैं फलाने देश में सेन्टर पर बैठी हूँ। लेकिन विश्व की स्टेज पर बैठी हो। इस स्मृति में रहने से हर कर्म स्वत: ही श्रेष्ठ होगा। आपको फॉलो करने वाले भी बहुत हैं। इसलिए सदा आप बाप को फॉलो करेंगे तो आपको फॉलो करने वाले भी बाप को फॉलो करेंगे। तो इन्डायरेक्ट फॉलोफादर हो जायेगा। क्योंकि आपका हर कर्म फॉलो फादर है। इसलिए यह स्मृति सदा रखना। अच्छा - मुहब्बत के कारण मेहनत से परे हो।
पार्टियों से - सभी अपने को संगमयुगी श्रेष्ठ जीवन वाली विशेष आत्मायें अनुभव करते हो? सारे कल्प में ऐसी श्रेष्ठ जीवन कभी भी नहीं मिलनी है। सतयुग में भी ऐसी जीवन नहीं होगी क्योंकि अभी बाप के डायरेक्ट बच्चे बने हो फिर तो बाप की याद समा जायेगी, ऐसे इमर्ज रूप में नहीं होगी। अभी याद की विशेष खुशी होती है ना। इसीलिए यह जीवन अति श्रेष्ठ है। ऐसे जीवन की सदा खुशी रहे। बाप के बने हो तो बाप बच्चों को सदा सम्पन्न बनने के लिए ही आगे बढ़ाते हैं। जैसे बाप वैसे बच्चे बनें। बाप सब बातों में सम्पन्न है, यथाशक्ति नहीं हैं तो बच्चे भी सम्पन्न हों। यही लक्ष्य स्मृति में रहे। बाप बच्चों को देख-देख खुश होते हैं कि कहाँ-कहाँ से बाप के बन गये। बाप ने कहाँ से भी ढूँढकर अपना बना लिया। बाप ने अपने बच्चों को छोड़ा नहीं, ढूँढ लिया, भले कितना भी दूर चले गये। क्योंकि बाप जानते हैं कि बच्चे बाप से अलग होने से किस स्थिति में जाकर पहुँचते हैं। बच्चों का इतना ऊँचा जो प्राप्ति स्वरूप था वह बाप को सदा याद रहता है। आपको क्या याद रहता? अपना सम्पूर्ण स्वरूप याद रहता है? सदा अपने सम्पन्न फरिश्ता स्वरूप वी याद में रहो।
आप सभी लाइट हाउस हो। स्वयं तो लाइट स्वरूप हो ही लेकिन औरों को भी लाइट देने वाले हो। लाइट के आगे अंधियारा स्वत: भाग जाता है। भगाने की मेहनत नहीं करनी पड़ती। तो सदा लाइट हाउस रहने वाले सहज मायाजीत हो जाते हैं। अभी तो बहुत समय के अनुभवी हो गये। चाहे एक वर्ष हुआ चाहे 6 मास हुए। संगमयुग के 6 मास भी कितने बड़े हैं। 6 मास का अनुभवी भी बहुत काल का अनुभवी हो गया। तो सभी अनुभव की अथॉरिटी वाली आत्मायें हो। औरों को भी अथॉरिटी सम्पन्न बनाओ। बापदादा की पालना का पानी फूलों को देते हुए अच्छे-अच्छे रूहानी गुलाब बाप के सामने लाओ। सदा बाप समान निमित्त बन अनेक आत्माओं के कल्याण करने की शुभ भावना से आगे बढ़ते रहो। बाप समान निमित्त बनने वाली आत्माओं की सदा सफलता है ही। अच्छा –ओम शान्ति।
24-02-85 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
संगमयुग - सर्व श्रेष्ठ प्राप्तियों का युग
सदा महादानी,वरदानी बापदादा अपने-अपने बच्चों प्रति बोले
आज बापदादा चारों ओर के प्राप्ति स्वरूप विशेष आत्माओं को देख रहे थे। एक तरफ अनेक आत्मायें अल्पकाल के प्राप्ति वाली हैं जिसमें प्राप्ति के साथ-साथ अप्राप्ति भी है। आज प्राप्ति है, कल अप्राप्ति है। तो एक तरफ अनेक प्राप्ति सो अप्राप्ति स्वरूप। दूसरे तरफ बहुत थोड़े सदाकाल की प्राप्ति स्वरूप विशेष आत्मायें। दोनों के महान अन्तर को देख रहे थे। बापदादा प्राप्ति स्वरूप बच्चों को देख हर्षित हो रहे थे। प्राप्ति स्वरूप बच्चे कितने पद्मापद्म भाग्यवान हो। इतनी प्राप्ति कर ली जो आप विशेष आत्माओं के हर कदम में पद्म है। लौकिक में प्राप्ति स्वरूप जीवन में विशेष चार बातों की प्राप्ति आवश्यक है। (1) सुखमय सम्बन्ध। (2) स्वभाव और संस्कार सदा शीतल और स्नेही हो। (3) सच्ची कमाई की श्रेष्ठ सम्पत्ति हो। (4) श्रेष्ठ कर्म, श्रेष्ठ सम्पर्क हो। अगर यह चारों ही बातें प्राप्त हैं तो लौकिक जीवन में भी सफलता और खुशी है। लेकिन लौकिक जीवन की प्राप्तियाँ अल्पकाल की प्राप्तियाँ हैं। आज सुखमय सम्बन्ध है कल वही सम्बन्ध दुःखमय बन जाता है। आज सफलता है कल नहीं है। इसके अन्तर में आप प्राप्ति स्वरूप श्रेष्ठ आत्माओं को इस अलौकिक श्रेष्ठ जीवन में चारों ही बातें सदा प्राप्त हैं। क्योंकि डायरेक्ट सुखदाता सर्व प्राप्तियों के दाता के साथ अविनाशी सम्बन्ध है। जो अविनाशी सम्बन्ध कभी भी दुख वा धोखा देने वाला नहीं है। विनाशी सम्बन्धों में वर्तमान समय दुख है वा धोखा है। अविनाशी सम्बन्ध में सच्चा स्नेह है। सुख है। तो सदा स्नेह और सुख के सर्व सम्बन्ध बाप से प्राप्त हैं। एक भी सम्बन्ध की कमी नहीं हैं। जो सम्बन्ध चाहो उसी सम्बन्ध से प्राप्ति का अनुभव कर लो। जिस आत्मा को जो सम्बन्ध प्यारा है उसी सम्बन्ध से भगवान प्रीत की रीति निभा रहे हैं। भगवान को सर्व सम्बन्धी बना लिया। ऐसा श्रेष्ठ सम्बन्ध सारे कल्प में प्राप्त नहीं हो सकता। तो सम्बन्ध भी प्राप्त है। साथसाथ इस अलौकिक दिव्य-जन्म में सदा श्रेष्ठ स्वभाव, ईश्वरीय संस्कार होने कारण स्वभाव संस्कार कभी दुःख नहीं देते। जो बापदादा के संस्कार वह बच्चों के संस्कार। जो बापदादा का स्वभाव वह बच्चों का स्वभाव। स्व-भाव अर्थात् सदा हर एक के प्रति स्व अर्थात् आत्म-भाव। ‘स्व’ श्रेष्ठ को भी कहा जाता है। स्व का भाव वा श्रेष्ठ भाव यही स्वभाव हो। सदा महादानी रहमदिल विश्व-कल्याणकारी। यह बाप के संस्कार सो आपके संस्कार हों। इसलिए स्वभाव और संस्कार सदा खुशी की प्राप्ति कराते हैं। ऐसे ही सच्ची कमाई की सुखमय सम्पत्ति है। तो अविनाशी खजाने कितने मिले हैं? हर एक खजाने की खानियों के मालिक हो। सिर्फ खजाना नहीं, अखुट अनगिनत खजाने मिले हैं। जो खर्चो, खाओ और बढ़ाते रहो। जितना खर्च करो उतना बढ़ता है। अनुभवी हो ना। स्थूल सम्पत्ति किसलिए कमाते हैं? दाल रोटी सुख से खावें। परिवार सुखी हो। दुनिया में नाम अच्छा हो! आप अपने को देखो कितने सुख और खुशी की, दाल रोटी मिल रही है। जो गायन भी है - ‘दाल रोटी खाओ भगवान के गीत गाओ’। ऐसे गायन की हुई दाल रोटी खा रहे हो। और ब्राह्मण बच्चों को बापदादा की गैरन्टी है - ब्राह्मण बच्चा दाल रोटी से वंचित हो नहीं सकता। आसक्ति वाला खाना नहीं मिलेगा लेकिन दाल रोटी जरूर मिलेगी। दाल रोटी भी है, परिवार भी ठीक है और नाम कितना बाला है! इतना आपका नाम बाला है जो आज लास्ट जन्म तक आप पहुँच गये हो। लेकिन आपके जड़ चित्रों के नाम से अनेक आत्मायें अपना काम सिद्ध कर रही हैं। नाम आप देवी-देवताओं का लेते हैं। काम अपना सिद्ध करते हैं। इतना नाम बाला है। एक जन्म नाम बाला नहीं होता, सारा कल्प आपका नाम बाला है। तो सुखमय, सच्चे सम्पत्तिवान हो। बाप के सम्पर्क में आने से आपका भी श्रेष्ठ सम्पर्क बन गया है। आपका ऐसा श्रेष्ठ सम्पर्क है जो आपके जड़ चित्रों की सेकण्ड के सम्पर्क की भी प्यासी हैं। सिर्फ दर्शन के सम्पर्क के भी कितने प्यासे हैं! सारी-सारी रातें जागरण करते रहते हैं। सिर्फ सेकण्ड के दर्शन के सम्पर्क के लिए पुकारते रहते हैं। चिल्लाते रहते वा सिर्फ सामने जावें उसके लिए कितना सहन करते हैं! हैं चित्र और ऐसे चित्र घर में भी होते हैं फिर भी एक सेकण्ड के सम्मुख सम्पर्क के लिए कितने प्यासे हैं! एक बेहद के बाप के बनने के कारण सारे विश्व की आत्माओं से सम्पर्क हो गया। बेहद के परिवार के हो गये। विश्व की सर्व आत्माओं से सम्पर्क बन गया। तो चारों ही बातें अविनाशी प्राप्त हैं। इसलिए सदा सुखी जीवन है। प्राप्ति स्वरूप जीवन है। अप्राप्त नहीं कोई वस्तु ब्राह्मणों के जीवन में। यही आपके गीत हैं। ऐसे प्राप्ति स्वरूप हो ना वा बनना है? तो सुनाया ना आज प्राप्ति स्वरूप बच्चों को देख रहे थे। जिस श्रेष्ठ जीवन के लिए दुनिया वाले कितनी मेहनत करते हैं। और आपने क्या किया? मेहनत की वा मुहब्बत की? प्यार-प्यार में ही बाप को अपना बना लिया। तो दुनिया वाले मेहनत करते हैं और आपने मुहब्बत से पा लिया। बाबा कहा और खजानों की चाबी मिली। दुनिया वालों से पूछो तो क्या कहेंगे? कमाना बड़ा मुश्किल है। इस दुनिया में चलना बड़ा मुश्किल है और आप क्या कहते हो? कदम में पद्म कमाना है। और चलना कितना सहज है! उड़ती कला है तो चलने से भी बच गये। आप कहेंगे - चलना क्या, उड़ना है। कितना अन्तर हो गया! बापदादा आज विश्व के सभी बच्चों को देख रहे थे। सभी अपनी-अपनी प्राप्ति की लगन में लगे हुए हैं लेकिन रिजल्ट क्या है! सब खोज करने में लगे हुए हैं। साइन्स वाले देखो अपनी खोज में इतने व्यस्त हैं जो और कुछ नहीं सूझता। महान आत्मायें देखो प्रभु को पाने की खोज में लगी हुई हैं। वा छोटी सी भ्रान्ति के कारण प्राप्ति से वंचित हैं। आत्मा ही परमात्मा है वा सर्वव्यापी परमात्मा है इस भ्रान्ति के कारण खोज में ही रह गये। प्राप्ति से वंचित रह गये हैं। साइन्स वाले भी - अभी और आगे है और आगे है, ऐसा करते-करते चन्द्रमा में, सितारों में दुनिया बनायेंगे, खोजते-खोजते खो गये हैं। शास्त्रवादी देखो शास्त्रर्थ के चक्कर में विस्तार में खो गये हैं। शास्त्रर्थ का लक्ष्य रख अर्थ से वंचित हो गये हैं। राजनेताऐं देखो कुर्सा की भाग दौड़ में खोये हुए हैं। और दुनिया के अन्जान आत्मायें देखो विनाशी प्राप्ति के तिनके के सहारे को असली सहारा समझ बैठ गई हैं। और आपने क्या किया? वह खोये हुए हैं और आपने पा लिया। भ्रान्ति को मिटा लिया। तो प्राप्ति स्वरूप हो गये। इसलिए सदा प्राप्ति स्वरूप श्रेष्ठ आत्मायें हो।
बापदादा विशेष डबल विदेशी बच्चों को मुबारक देते हैं कि विश्व में अनेक आत्माओं के बीच आप श्रेष्ठ आत्माओं की पहचान का नेत्र शक्तिशाली रहा। जो पहचाना और पाया। तो बापदादा डबल विदेशी बच्चों की पहचान के नेत्र को देख बच्चों के गुण गा रहे हैं कि वाह बच्चे, वाह! जो दूरदेशी होते, भिन्न धर्म के होते, भिन्न रीति रसम के होते अपने असली बाप को दूर होते भी समीप से पहचान लिया। समीप के सम्बन्ध में आ गये। ब्राह्मण जीवन की रीति रसम को अपनी आदि रीति रसम समझ, सहज अपने जीवन में अपना लिया है। इसको कहा जाता है - विशेष लवली और लकी बच्चे। जैसे बच्चों को विशेष खुशी है, बापदादा को भी विशेष खुशी है। ब्राह्मण परिवार की आत्मायें विश्व के कोनेकोने में पहुँच गई थी लेकिन कोने-कोने से बिछुड़ी हुई श्रेष्ठ आत्मायें फिर से अपने परिवार में पहुँच गई हैं। बाप ने ढूँढा, आपने पहचाना। इसलिए प्राप्ति के अधिकारी बन गये। अच्छा –
ऐसे अविनाशी प्राप्ति स्वरूप बच्चों को, सदा सर्व सम्बन्धों के अनुभव करने वाले बच्चों को, सदा अविनाशी सम्पत्तिवान बच्चों को, सदा बाप समान श्रेष्ठ संस्कार और सदा स्व के भाव में रहने वाले सर्व प्राप्तियों के भण्डार सर्व प्राप्तियों के महान दानी बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।’’
आज बापदादा ने पूरी रात सभी बच्चों से मिलन मनाया और सुबह 7 बजे यादप्यार दे विदाई ली, सुबह का क्लास बापदादा ने ही कराया! रोज बापदादा द्वारा महावाक्य सुनते-सुनते महान आत्मायें बन गयी। तो आज के दिन का यही सार, सारा दिन मन के साज़ के साथ सुनना कि महावाक्य सुनने से महान बने हैं। महान ते महान कर्त्तव्य करने के लिए सदा निमित्त हैं। हर आत्मा के प्रति मंसा से, वाचा से, सम्पर्क से महादानी आत्मा हैं और सदा महान युग के आह्वान करने वाले अधिकारी आत्मा हैं। यही याद रखना। सदा ऐसे महान स्मृति में रहने वाली श्रेष्ठ आत्माओं को, सिकीलधे बच्चों को बापदादा का यादप्यार और गुडमोर्निंग। होवनहार और वर्तमान बादशाहों को बाप की नमस्ते। अच्छा!
27-02-85 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
शिव शक्ति तथा पाण्डव सेना की विशेषताएँ
अव्यक्त बापदादा बोले
आज बापदादा अमृतवेले से विशेष सम्मुख आये वा दूरदेश में रहने वाले दिल से समीप रहने वाले डबल विदेशी बच्चों को देख रहे थे। बाप और दादा की आपस में आज मीठी रूह-रूहान चल रही थी। किस बात पर? ब्रह्मा बाप विशेष डबल विदेशी बच्चों को देख हर्षित हो बोले - कि कमाल है बच्चों की जो इतना दूर देशवासी होते हुए भी सदा स्नेह से एक ही लगन में रहते कि सभी को किस भी रीति से बापदादा का सन्देश जरूर पहुँचायें। उसके लिए कई बच्चे डबल कार्य करते हुए लौकिक और अलौकिक में डबल बिजी होते भी अपने आराम को भी न देखते हुए रात दिन उसी लगन में लगे हुए हैं। अपने खानेपीने की भी परवाह न करके सेवा की धुन में लगे रहते हैं। जिस प्युरिटी की बात को अननैचुरल जीवन समझते रहे, उसी प्युरटी को अपनाने के लिए इम्प्युरिटी को त्याग करने के लिए हिम्मत से, दृढ़ संकल्प से, बाप के स्नेह से, याद की यात्रा द्वारा शान्ति की प्राप्ति के आधार से, पढ़ाई और परिवार के संग के आधार से अपने जीवन में धारण कर ली है। जिसको मुश्किल समझते थे वह सहज कर ली है। ब्रह्मा बाप विशेष पाण्डव सेना को देख बच्चों की महिमा गा रहे थे। किस बात की? हर एक की दिल में है कि ‘पवित्रता ही योगी बनने का पहला साधन है।’ पवित्रता ही बाप के स्नेह को अनुभव करने का साधन है, पवित्रता ही सेवा में सफलता का आधार है। यह शुभ संकल्प हरेक की दिल में पक्का है। और पाण्डवों की कमाल यह है जो शक्तियों को आगे रखते हुए भी स्वयं को आगे बढ़ाने के उमंग-उत्साह में चल रहे हैं। पाण्डवों के तीव्र पुरूषार्थ करने की रफ्तार, अच्छी उन्नति को पाने वाली दिखाई दे रही है। मैजारिटी इसी रफ्तार से आगे बढ़ते जा रहे हैं।
शिव बाप बोले- पाण्डवों ने अपना विशेष रिगार्ड देने का रिकार्ड अच्छा दिखाया है। साथ-साथ हँसी की बात भी बोली। बीच-बीच में संस्कारों का खेल भी खेल लेते हैं। लेकिन फिर भी उन्नति के उमंग कारण बाप से अति स्नेह होने के कारण समझते हैं स्नेह के पीछे यह परिवर्तन ही बाप को प्यारा है। इसलिए बलिहार हो जाते हैं। बाप जो कहते, जो चाहते वही करेंगे। इस संकल्प से अपने आपको परिवर्तन कर लेते हैं। मुहब्बत के पीछे मेहनत, मेहनत नहीं लगती। स्नेह के पीछे सहन करना, सहन करना नहीं लगता। इसलिए फिर भी बाबा-बाबा कह करके आगे बढ़ते जा रहे हैं। इस जन्म के चोले के संस्कार पुरूषत्व अर्थात् हद के रचता पन के होते हुए फिर भी अपने को परिवर्तन अच्छा किया है। रचता बाप को सामने रखने कारण निरअहंकारी और नम्रता भाव इस धारणा का लक्ष्य और लक्षण अच्छे धारण किये हैं और कर रहे हैं। दुनिया के वातावरण के बीच सम्पर्क में आते हुए फिर भी याद की लगन की छत्रछाया होने के कारण सेफ रहने का सबूत अच्छा दे रहे हैं। सुना - पाण्डवों की बातें। बापदादा आज माशूक के बजाए आशिक हो गये हैं। इसलिए देख-देख हर्षित हो रहे हैं। दोनों का बच्चों से विशेष स्नेह तो है ना। तो आज अमृतवेले से बच्चों के विशेषताओं की वा गुणों की माला सिमरण की। आप लोगों ने 63 जन्मों में मालायें सिमरण की और बाप रिटर्न में अभी माला सिमरण कर रेसपाण्ड दे देते हैं।
अच्छा शक्तियों की क्या माला सिमरण की? शक्ति सेना की सबसे ज्यादा विशेषता यह है - स्नेह के पीछे हर समय एक बाप में लवलीन रहने की, सर्व सम्बन्धों के अनुभवों में अच्छी लगन से आगे बढ़ रही हैं। एक आँख में बाप दूसरी आँख में सेवा, दोनों नयनों में सदा यही समाया हुआ है। विशेष परिवर्तन यह है जो अपने अलबेलेपन, नाजुकपन का त्याग किया है। हिम्मत वाली शक्ति स्वरूप बनी हैं। बापदादा आज विशेष छोटी-छोटी आयु वाली शक्तियों को देख रहे थे। इस युवा अवस्था में अनेक प्रकार के अल्पकाल के आकर्षण को छोड़ एक ही बाप की आकर्षण में अच्छे उमंग उत्साह से चल रहे हैं। संसार को असार संसार अनुभव कर बाप को संसार बना दिया है। अपने तन-मन-धन को बाप और सेवा में लगाने से प्राप्ति का अनुभव कर आगे उड़ती कला में जा रही हैं। सेवा की जिम्मेवारी का ताज धारण अच्छा किया है। थकावट को कभी-कभी महसूस करते हुए, बुद्धि पर कभी-कभी बोझ अनुभव करते हुए भी बाप को फॉलो करना ही है। बाप को प्रत्यक्ष करना ही है, इस दृढ़ता से इन सब बातों को समाप्त कर फिर भी सफलता को पा रही हैं। इसलिए बापदादा जब बच्चों की मुहब्बत को देखते हैं तो बार-बार यही वरदान देते हैं -’’हिम्मते बच्चे मददे बाप’’। सफलता आपका जन्म सिद्ध अधिकार है ही है। बाप का साथ होने से हर परिस्थिति से ऐसे पार कर लेते जैसे माखन से बाल। सफलता बच्चों के गले की माला है। सफलता की माला आप बच्चों का स्वागत करने वाली है। तो बच्चों के त्याग, तपस्या और सेवा पर बापदादा भी कुर्बान जाते हैं। स्नेह के कारण कोई भी मुश्किल अनुभव नहीं करते। ऐसे है ना! जहाँ स्नेह है, स्नेह की दुनिया में वा बाप के संसार में बाप की भाषा में ‘मुश्किल शब्द’ है ही नहीं। शक्ति सेना की विशेषता है - मुश्किल को सहज करना। हर एक की दिल में यही उमंग है कि सबसे ज्यादा और जल्दी से जल्दी सन्देश देने के निमित्त बन बाप के आगे रूहानी गुलाब का गुलदस्ता लावें। जैसे बाप ने हमको बनाया है वैसे हम औरों को बनाकर बाप के आगे लावें। शक्ति सेना एक दो के सहयोग से संगठित रूप में भारत से भी कोई विशेष नवीनता विदेश में करने के शुभ उमंग में है। जहाँ संकल्प है वहाँ सफलता अवश्य है। शक्ति सेना हर एक अपने भिन्न-भिन्न स्थानों पर वृद्धि और सिद्धि को प्राप्त करने में सफल हो रही है और होती रहेगी। तो दोनों के स्नेह को देख, सेवा के उमंग को देख बापदादा हर्षित हो रहे हैं। एक-एक के गुण कितने गायन करें लेकिन वतन में एक-एक बच्चे के गुण बापदादा वर्णन कर रहे थे। देश वाले सोचते-सोचते कई रह जायेंगे लेकिन विदेश वाले पहचान कर अधिकारी बन गये हैं। वह देखते रह जायेंगे, आप बाप के साथ घर पहुँच जायेंगे। वह चिल्लायेंगे और आप वरदानों की दृष्टि से फिर भी कुछ न कुछ अंचली देते रहेंगे।
तो सुना आज विशेष बापदादा ने क्या किया? सारा संगठन देख बापदादा भाग्यवान बच्चों के भाग्य बनाने की महिमा गा रहे थे। दूर वाले नजदीक के हो गये और नजदीक आबू में रहने वाले कितने दूर हो गये हैं! पास रहते भी दूर हैं। और आप दूर रहते भी पास हैं। वह देखने वाले और आप दिलतख्त पर सदा रहने वाले। कितने स्नेह से मधुबन आने का साधन बनाते हैं। हर मास यही गीत गाते हैं - बाप से मिलना है, जाना है। जमा करना है। तो यह लगन भी मायाजीत बनने का साधन बन जाती है। अगर सहज टिकट मिल जाए तो इतनी लगन में विघ्न ज्यादा पड़ें। लेकिन फुरी-फुरी तालाब करते हैं। इसलिए बूँद-बूँद जमा करने में बाप की याद समाई हुई होती है। इसलिए यह भी ड्रामा में जो होता है कल्याणकारी है। अगर ज्यादा पैसे मिल जाएँ तो फिर माया आ जाए फिर सेवा भूल जायेगी। इसलिए धनवान, बाप के अधिकारी बच्चे नहीं बनते हैं।
कमाया और जमा किया। अपनी सच्ची कमाई का जमा करना इसी में बल है। सच्ची कमाई का धन, बाप के कार्य में सफल हो रहा है। अगर ऐसे ही धन आ जाए तो तन नहीं लगेगा। और तन नहीं लगेगा तो मन भी नीचे ऊपर होगा। इसलिए तन-मन-धन तीनों ही लग रहे हैं। इसलिए संगमयुग पर कमाया और ईश्वरीय बैंक में जमा किया, यह जीवन ही नम्बरवन जीवन है। कमाया और लौकिक विनाशी बैंकों में जमा किया तो वह सफल नहीं होता। कमाया और अविनाशी बैंक में जमा किया तो एक पद्मगुणा बनता। 21 जन्मों के लिए जमा हो जाता। दिल से किया हुआ दिलाराम के पास पहुँचता है। अगर कोई दिखावे की रीति से करते तो दिखावे में ही खत्म हो जाता है। दिलाराम तक नहीं पहुँचता। इसलिए आप दिल से करने वाले अच्छे हो। दिल से दो करने वाले भी पद्मापद्म पति बन जाते हैं और दिखावा से हजार करने वाले भी पद्मापद्म पति नहीं बनते। दिल की कमाई, स्नेह की कमाई सच्ची कमाई है। कमाते किसलिए हो? सेवा के लिए ना - कि अपने आराम के लिए? तो यह है सच्ची दिल की कमाई। जो एक भी पद्मगुणा बन जाता है। अगर अपने आराम के लिए कमाते वा जमा करते हैं तो यहाँ भले आराम करेंगे लेकिन वहाँ औरों को आराम देने लिए निमित्त बनेंगे! दास-दासियाँ क्या करेंगे! रायल फैमली को आराम देने के लिए होंगे ना! यहाँ के आराम से वहाँ आराम देने के लिए निमित्त बनना पड़े। इसलिए जो मुहब्बत से सच्ची दिल से कमाते हो, सेवा में लगाते हो, वही सफल कर रहे हो। अनेक आत्माओं की दुआयें ले रहे हो। जिन्हों के निमित्त बनते हो वही फिर आपके भक्त बन आपकी पूजा करेंगे। क्योंकि आपने उन आत्माओं के प्रति सेवा की तो सेवा का रिटर्न वह आपके जड़ चित्रों की सेवा करेंगे! पूजा करेंगे! 63 जन्म सेवा का रिटर्न आपको देते रहेंगे। बाप से तो मिलेगा ही लेकिन उन आत्माओं से भी मिलेगा। जिनको सन्देश देते हो और अधिकारी नहीं बनते हैं तो फिर वह इस रूप से रिटर्न देंगे। जो अधिकारी बनते वह तो आपके सम्बन्ध में आ जाते हैं। कोई सम्बन्ध में आ जाते। कोई भक्त बन जाते। कोई प्रजा बन जाते। वैराइटी प्रकार की रिजल्ट निकलती है। समझा! लोग भी पूछते हैं ना कि आप सेवा के पीछे क्यों पड़ गये हो। खाओ-पियो मौज करो। क्या मिलता है जो इतना दिन-रात सेवा के पीछे पड़ते हो? फिर आप क्या कहते हो? जो हमको मिला है वह अनुभव करके देखो। ‘अनुभवी ही जाने इस सुख को’। यह गीत गाते हो ना! अच्छा –
सदा स्नेह में समाये हुए, सदा त्याग को भाग्य अनुभव करने वाले, सदा एक को पद्मगुणा बनाने वाले, सदा बापदादा को फॉलो करने वाले, बाप को संसार अनुभव करने वाले ऐसे दिलतख्तनशीन बच्चों को दिलाराम बाप का यादप्यार और नमस्ते।’’
विदेशी भाई बहिनों से पर्सनल मुलाकात - (1) अपने को भाग्यवान आत्मायें समझते हो? इतना भाग्य तो बनाया जो भाग्यविधाता के स्थान पर पहुँच गये। समझते हो यह कौन-सा स्थान है? शान्ति के स्थान पर पहुँचना भी भाग्य है। तो यह भी भाग्य प्राप्त करने का रास्ता खुला। ड्रामा अनुसार भाग्य प्राप्त करने के स्थान पर पहुँच गये। भाग्य की रेखा यहाँ ही खींची जाती है। तो अपना श्रेष्ठ भाग्य बना लिया।
अभी सिर्फ थोड़ा समय देना। समय भी है और संग भी कर सकते हो। और कोई मुश्किल बात तो है नहीं। जो मुश्किल होता उसके लिए थोड़ा सोचा जाता है। सहज है तो करो। इससे जो भी जीवन में अल्पकाल की आशायें वा इच्छायें हैं वह सब अविनाशी प्राप्ति में पूरी हो जायेंगी। इन अल्पकाल की इच्छाओं के पीछे जाना ऐसे ही है जैसे अपनी परछाई के पीछे जाना। जितना परछाई के पीछे जायेंगे उतना वह आगे बढ़ती है, पा नहीं सकते। लेकिन आप आगे बढ़ते जाओ तो वह आप ही पीछे-पीछे आयेगी। तो ऐसे अविनाशी प्राप्ति के तरफ जाने वाले के पीछे विनाशी बातें सब पूरी हो जाती हैं। समझा! सर्व प्राप्तियों का साधन यही है। थोड़े समय का त्याग सदाकाल का भाग्य बनाता है। तो सदा इसी लक्ष्य को समझते हुए आगे बढ़ते चलो। इससे बहुत खुशी का खजाना मिलेगा। जीवन में सबसे बड़े ते बड़ा खजाना खुशी है। अगर खुशी नहीं तो जीवन नहीं। तो अविनाशी खुशी का खजाना प्राप्त कर सकते हो।
सर्विस ही स्टेज बनाने का साधन है
(2) बापदादा बच्चों का सदा आगे बढ़ने का उमंग उत्साह देखते हैं। बच्चों का उमंग बापदादा के पास पहुँचता है। बच्चों के अन्दर है कि विश्व के वी.वी.आई.पी. बाप के सामने ले जाऊँ - यह उमंग भी साकार में आता जायेगा। क्योंकि नि:स्वार्थ सेवा का फल जरूर मिलता है। सेवा ही स्व की स्टेज बना देती है। इसलिए यह कभी नहीं सोचना कि सर्विस इतनी बड़ी है मेरी स्टेज तो ऐसी है नहीं। लेकिन सर्विस आपकी स्टेज बना देगी। दूसरों की सर्विस ही स्व उन्नति का साधन है। सर्विस आपेही शक्तिशाली अवस्था बनाती रहेगी। बाप की मदद मिलती है ना। बाप की मदद मिलते-मिलते वह शक्ति बढ़ते-बढ़ते वह स्टेज भी हो जायेगी। समझा! इसलिए यह कभी नहीं सोचो कि इतनी सर्विस मैं कैसे करूँगा-करूँगी, मेरी स्टेज ऐसी है। नहीं। करते चलो। बापदादा का वरदान है - आगे बढ़ना ही है। सेवा का मीठा बंधन भी आगे बढ़ने का साधन है। जो दिल से और अनुभव की अथॉरिटी से बोलते हैं उनका आवाज़ दिल तक पहुँचता है। अनुभव की अथॉरिटी के बोल औरों को अनुभव करने की प्रेरणा देते हैं। सेवा में आगे बढ़ते-बढते जो पेपर आते हैं वह भी आगे बढ़ाने का ही साधन हैं। क्योंकि बुद्धि चलती है, याद में रहने का विशेष अटेन्शन रहता है। तो यह भी विशेष लिफ्ट बन जाती है। बुद्धि में सदा रहता कि हम वातावरण को कैसे शक्तिशाली बनायें। कैसा भी बड़ा रूप लेकर विघ्न आए लेकिन आप श्रेष्ठ आत्माओं का उसमें फायदा ही है। वह बड़ा रूप भी याद की शक्ति से छोटा हो जाता है। वह जैसे कागज का शेर।
ब्राजील, अर्जनटाइना, मैक्सिको तथा अन्य दूरदेश वालों से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात - (1) सदा अपने को बाप के समीप रहने वाली श्रेष्ठ आत्मायें समझते हो? दूर रहते भी सदा समीप का, साथ का अनुभव करते हो? सदा अपने को बाप के वरदानों से आगे बढ़ने वाली श्रेष्ठ आत्मायें समझ सहज आगे बढ़ते रहते हो ना? कभी भी कोई मुश्किल अनुभव हो तो सदा बाप के साथ का अनुभव करने से सेकण्ड में मुश्किल सहज हो जायेगी। जहाँ बाप है वहाँ मुश्किल हो नहीं सकती। सदा सफलता का अनुभव करते रहेंगे। जो निमित्त समझकर कार्य करते हैं उन्हें ‘सफलता’ स्वत: प्राप्त होती है। ‘निमित्त भाव’ ही सफलता का साधन है। इस स्मृति रूपी चाबी को सदा साथ रखना। दूर होते भी सभी हिम्मतवान बच्चे हैं। सभी को बापदादा - ‘‘हिम्मते बच्चे मददे बाप’’ के टाइटिल से याद प्यार देते हैं। जितना स्नेह से याद करते हैं उतना ही बापदादा के पास सबका स्नेह पहुँचता है। बापदादा स्नेह की रिटर्न में पद्मगुणा याद प्यार देते हैं।
अर्जनटाइना की सभी आत्मायें ‘अर्जुन’ समान प्यासी आत्मायें हैं। दिन रात वह घड़ी देखते रहते हैं कि कौन-सी घड़ी आयेगी जब मधुबन निवासी बनेंगे। बापदादा बच्चों की इस लगन को देखते हैं, जानते हैं कि सभी अर्जुन समान आत्मायें हैं। उन्हों को कहना कि अर्जुन के लिए ही विशेष बाप आये थे और आये हैं। इसलिए दूर बैठे भी सिकीलधे हो। दूर रहने वाले बच्चों का दिलतख्त पर सदा नम्बर है। सभी बच्चों के पत्र बापदादा के पास पहले ही पहुँच गये हैं। सभी की पुकार और उल्हनें बाप के पास पहुँचे। बापदादा कहते हैं - ड्रामा में कभी भी किसी बच्चों का ऐसा भाग्य नहीं हो सकता जो दूर होने के कारण वंचित रह जाएं। ड्रामा में सभी को अधिकार मिलना ही है। बापदादा देख रहे हैं-कि बच्चे कैसे लवलीन आत्मा बन, मायाजीत बन, आगे बढ़ने के उमंग उत्साह में सफलता को पा रहे हैं और आगे भी सफलता का अनुभव करते रहेंगे। बापदादा के पास सभी के खुशी की रूह-रूहान पहुँचती है। बापदादा भी सभी बच्चों को रूह-रूहान का रेसपाण्ड देते रहते हैं - और आज भी दे रहे हैं कि सदा विजयी रत्न हो और विजय आपका जन्म सिद्ध अधिकार है। जहाँ स्व उन्नति का अटेन्शन है वहाँ न स्वयं के प्रति प्राबलम है, न सेवा में प्राब्लम है! क्योंकि अटेन्शन सर्व प्रकार के टेन्शन को उड़ा देता है। अभी जो विशेष सम्पर्क में हैं उन्हों को और समीप लाने का अटेन्शन रखना। सम्पर्क वाले और सम्बन्ध में आ जाएं क्योंकि उन्हों की धरनी अच्छी है तब तो सम्पर्क में हैं। दूरदेश में भी अनेक प्यासी आत्मायें छिपी हुई हैं, उन छिपी हुई आत्माओं को बाप के अधिकारी बनाना ही है।
02-03-85 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
वर्तमान ईश्वरीय जन्म - अमूल्य जन्म
रत्नागर बापदादा अपने बच्चों प्रति बोले
आज रत्नागर बाप अपने अमूल्य रत्नों को देख रहे हैं। यह अलौकिक अमूल्य रत्नों की दरबार है। एक एक रत्न अमूल्य है। इस वर्तमान समय के विश्व की सारी प्रॉपर्टी वा विश्व के सारे खजाने इकट्ठे करो उसके अन्तर में एक एक ईश्वरीय रत्न कई गुणा अमूल्य हैं। आप एक रत्न के आगे विश्व के सारे खजाने कुछ भी नहीं है। इतने अमूल्य रत्न हो। यह अमूल्य रत्न सिवाए इस संगमयुग के सारे कल्प में नहीं मिल सकते। सतयुगी-देव-आत्मा का पार्ट इस संगमयुगी ईश्वरीय अमूल्य रत्न बनने के पार्ट के आगे सेकण्ड नम्बर हो जाता है। अभी तुम ईश्वरीय सन्तान हो, सतयुग में दैवी सन्तान होंगे। जैसे ईश्वर का सबसे श्रेष्ठ नाम है, महिमा है, जन्म है, वर्म है, वैसे ईश्वरीय रत्नों का वा ईश्वरीय सन्तान आत्माओं का मूल्य सर्वश्रेष्ठ है। इस श्रेष्ठ महिमा का वा श्रेष्ठ मूल्य का यादगार अभी भी 9 रत्नों के रूप में गाये और पूजे जाते हैं। 9 रत्नों को भिन्न-भिन्न विघ्न विनाशक रत्न गाया जाता है जैसा विघ्न वैसी विशेषता वाला रत्न रिंग बनाकर पहनते हैं वा लाकेट में डालते हैं। वा किसी भी रूप से उस रत्न को घर में रखते हैं। अभी लास्ट जन्म तक भी विघ्न-विनाशक रूप में अपना यादगार देख रहे हो। नम्बरवार जरूर हैं लेकिन नम्बरवार होते हुए भी अमूल्य और विघ्न विनाशक सभी हैं। आज भी श्रेष्ठ स्वरूप से आप रत्नों का आत्मायें स्वमान रखती हैं। बड़े प्यार से स्वच्छता से सम्भाल के रखती हैं। क्योंकि आप सभी जो भी हो चाहे अपने को इतना योग्य नहीं भी समझते हो लेकिन बाप ने आप आत्माओं को योग्य समझ अपना बनाया है। स्वीकार किया - ‘तू मेरा मैं तेरा’। जिस आत्मा के ऊपर बाप की नजर पड़ी वह प्रभू नजर के कारण अमूल्य बन ही जाते हैं। परमात्म दृष्टि के कारण ईश्वरीय सृष्टि के, ईश्वरीय संसार के श्रेष्ठ आत्मा बन ही जाते हैं। पारसनाथ से सम्बन्ध में आये तो पारस का रंग लग ही जाता है। इसलिए परमात्म-प्यार की दृष्टि मिलने से सारा कल्प चाहे चैतन्य देवताओं के रूप में, चाहे आधा कल्प जड़ चित्रों के रूप में वा भिन्न-भिन्न यादगार के रूप में, जैसे रत्नों के रूप में भी आपका यादगार है, सितारों के रूप में भी आपका यादगार है। जिस भी रूप में यादगार है, सारा कल्प सर्व के प्यारे रहे हो। क्योंकि अविनाशी प्यार के सागर के प्यार की नजर सारे कल्प के लिए प्यार के अधिकारी बना देती है। इसलिए भक्त लोग आधी घड़ी एक घड़ी की दृष्टि के लिए तड़पते हैं कि नजर से निहाल हो जावें। इसलिए इस समय के प्यार की नजर, अविनाशी प्यार के योग्य बना देती है। अविनाशी प्राप्ति स्वत: ही हो जाती है। प्यार से याद करते, प्यार से रखते। प्यार से देखते।
दूसरी बात- स्वच्छता अर्थात् पवित्रता। तुम इस समय बाप द्वारा पवित्रता का जन्म-सिद्ध अधिकार प्राप्त करते हो। पवित्रता वा स्वच्छता अपना स्वधर्म जानते हो - इसलिए पवित्रता को अपनाने के कारण जहाँ आपका यादगार होगा वहाँ पवित्रता वा स्वच्छता अभी भी यादगार रूप में चल रही है। और आधाकल्प तो है ही पवित्र पालना। पवित्र दुनिया। तो आधाकल्प पवित्रता से पैदा होते, पवित्रता से पलते और आधाकल्प पवित्रता से पूजे जाते हैं।
तीसरी बात- बहुत दिल से, श्रेष्ठ समझ, अमूल्य समझ सम्भालते हैं। क्योंकि इस समय स्वयं भगवान मात-पिता के रूप से आप बच्चों को सम्भालते हैं अर्थात् पालना करते हैं। तो अविनाशी पालना होने के कारण, अविनाशी स्नेह के साथ सम्भालने के कारण सारा कल्प बड़ी रायल्टी से, स्नेह से, रिगार्ड से सम्भाले जाते हो। ऐसे प्यार, स्वच्छता, पवित्रता और स्नेह से सम्भालने के अविनाशी पात्र बन जाते हो। तो समझा, कितने अमूल्य हो? हर एक रत्न का कितना मूल्य है! तो आज रत्नागर बाप हर एक रतन के मूल्य को देख रहे थे। सारे दुनिया की अक्षोणी आत्मायें एक तरफ हैं लेकिन आप 5 पाण्डव अक्षोणी से शक्तिशाली हो। अक्षोणी आपके आगे एक के बराबर भी नहीं हैं। इतने शक्तिशाली हो। तो कितने मूल्यवान हो गये! इतने मूल्य को जानते हो? कि कभी-कभी अपने आपको भूल जाते हो। जब अपने आपको भूलते हो तो हैरान होते हो। अपने आपको नहीं भूलो। सदा अपने को अमूल्य समझ करके चलो। लेकिन छोटी सी गलती नहीं करना। अमूल्य हो लेकिन बाप के साथ के कारण अमूल्य हो। बाप को भूलकर सिर्फ अपने को समझेंगे तो भी रांग हो जायेगा। बनाने वाले को नहीं भूलो। बन गये लेकिन बनाने वाले के साथ बने हैं, यह है समझने की विधि। अगर विधि को भूल जाते तो समझ, बेसमझ के रूप में बदल जाती। फिर मैं-पन आ जाता है। विधि को भूलने से सिद्धि का अनुभव नहीं होता। इसलिए विधि पूर्वक अपने को मूल्यवान जान विश्व के पूर्वज बन जाओ। हैरान भी नहीं हो कि - मैं तो कुछ नहीं। न यह सोचो कि मैं कुछ नहीं, न यह समझो कि मैं ही सब कुछ हूँ। दोनों ही रांग हैं। मैं हूँ लेकिन बनाने वाले ने बनाया है। बाप को निकाल देते हो तो पाप हो जाता है। बाप है तो पाप नहीं है। जहाँ बाप का नाम है वहाँ पाप का नाम निशान नहीं। और जहाँ पाप है वहाँ बाप का नामनिशान नहीं है। तो समझा अपने मूल्य को।
भगवान की दृष्टि के पात्र बने हो, साधारण बात नहीं। पालना के पात्र बने हो। अविनाशी पवित्रता के जन्म-सिद्ध अधिकार के अधिकारी बने हो। इसलिए जन्म सिद्ध अधिकार कभी मुश्किल नहीं होता है। सहज प्राप्त होता है। ऐसे ही स्वयं अनुभवी हो कि जो अधिकारी बच्चे हैं उन्हों को पवित्रता मुश्किल नहीं लगती। जिन्हों को पवित्रता मुश्किल लगती वह डगमग ज्यादा होते हैं। पवित्रता स्वधर्म है, जन्म सिद्ध अधिकार है तो सदा सहज लगेगा। दुनिया वाले भी दूर भागते हैं वह किसलिए? पवित्रता मुश्किल लगती है। जो अधिकारी आत्मायें नहीं उन्हों को मुश्किल ही लगेगा। अधिकारी आत्मा आते ही दृढ़ संकल्प करती कि पवित्रता बाप का अधिकार है, इसलिए पवित्र बनना ही है। दिल को पवित्रता सदा आकर्षित करती रहेगी। अगर चलते-चलते कहाँ माया परीक्षा लेने आती भी है, संकल्प के रूप में, स्वप्न के रूप में तो अधिकारी आत्मा नॉलेजफुल होने के कारण घबरायेगी नहीं। लेकिन नॉलेज की शक्ति से संकल्प को परिवर्तित कर देगी। एक संकल्प के पीछे अनेक संकल्प पैदा नहीं करेगी। अंश को वंश के रूप में नहीं लायेगी। क्या हुआ, यह हुआ...यह है वंश। सुनाया था ना क्यों से क्यू लगा देते हैं। यह वंश पैदा कर देते हैं। आया और सदा के लिए गया। पेपर लेने के लिए आया, पास हो गये, समाप्त। माया क्यों आई, कहाँ से आई। यहाँ से आई वहाँ से आई। आनी नहीं चाहिए थी। क्यों आ गई। यह वंश नहीं होना चाहिए। अच्छा आ भी गई तो आप बिठाओ नहीं। भगाओ! आई क्यों...ऐसा सोचेंगे तो बैठ जायेगी। आई आगे बढ़ाने के लिए, पेपर लेने के लिए। क्लास को आगे बढ़ाने के लिए, अनुभवी बनाने के लिए आई! क्यों आई, ऐसे आई, वैसे आई यह नहीं सोचो। फिर सोचते हैं क्या माया का ऐसा रूप होता है? लाल है, हरा है, पीला है। इस विस्तार में चले जाते हैं। इसमें नहीं जाओ। घबराते क्यों हो। पार कर लो। पास विद् ऑनर बन जाओ। नॉलेज की शक्ति है, शस्त्र हैं। मास्टर सर्वशक्तिवान हो, त्रिकालदर्शी हो, त्रिवेणी हो। क्या कमी है! जल्दी में घबराओ नहीं। चींटी भी आ जाती तो घबरा जाते हैं। ज्यादा सोचते हो। सोचना अर्थात् माया को मेहमानी देना। फिर वह घर बना देगी। जैसे रास्ते चलते कोई गन्दी चीज़ दिखाई भी दे तो क्या करेंगे! खड़े होकर सोचेंगे कि यह किसने फेंकी, क्यों-क्या हुआ! होनी नहीं चाहिए, यह सोचेंगे वा किनारा कर चले जायेंगे। ज्यादा व्यर्थ संकल्पों के वंश को पैदा होने न दो। अंश के रूप में ही समाप्त कर दो। पहले सेकण्ड की बात होती है फिर उसको घण्टों में, दिनों में, मास में बढ़ा देते हो। और अगर एक मास के बाद पूछेंगे कि क्या हुआ था तो बात सेकण्ड की होगी। इसलिए घबराओ नहीं। गहराई में जाओ - ज्ञान की गहराई में जाओ, बात की गहराई में नहीं जाओ। बापदादा इतने श्रेष्ठ मूल्यवान रत्नों को छोटे-छोटे मिट्टी के कणों से खेलते हुए देखते तो सोचते हैं यह रत्न, रत्नों से खेलने वाले, मिट्टी के कणों से खेल रहे हैं! रत्न हो रत्नों से खेलो!
बापदादा ने कितने लाडप्यार से पाला है फिर मिट्टी के कण कैसे देख सकेंगे। फिर मैले होकर कहते - अभी साफ करो, साफ करो। घबरा भी जाते हैं। अभी क्या करूँ, कैसे करूँ। मिट्टी से खेलते ही क्यों हो। वह भी कण जो धरनी में पड़े रहने वाले। तो सदा अपने मूल्य को जानो।
अच्छा - ऐसे सारे कल्प के मूल्यवान आत्माओं को, प्रभू प्यार की पात्र आत्माओं को, प्रभू पालना की पात्र आत्माओं को, पवित्रता के जन्म-सिद्ध अधिकार के अधिकारी आत्माओं को, सदा बाप और मैं इस विधि से सिद्धि को पाने वाली आत्माओं को, सदा अमूल्य रत्न बन रत्नों से खेलने वाले रायल बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते!
पार्टियों से - सदा बाप के नयनों में समाई हुई आत्मा स्वयं को अनुभव करते हो? नयनों में कौन समाता है? जो बहुत हल्का बिन्दु है। तो सदा हैं ही बिन्दु और बिन्दु बन बाप के नयनों में समाने वाले। बापदादा आपके नयनों में समाये हुए हैं और आप सब बापदादा के नयनों में समाये हुए हो। जब नयनों में है ही बापदादा तो और कुछ दिखाई नहीं देगा। तो सदा इस स्मृति से डबल लाइट रहो कि मैं हूँ ही बिन्दु। बिन्दु में कोई बोझ नहीं। यह स्मृति स्वरूप सदा आगे बढ़ाता रहेगा। आँखों में बीच में देखो तो बिन्दू ही है। बिन्दु ही देखता है। बिन्दू न हो तो आँख होते भी देख नहीं सकते। तो सदा इसी स्वरूप को स्मृति में रख उड़ती कला का अनुभव करो। बापदादा बच्चों के वर्तमान और भविष्य के भाग्य को देख हर्षित हैं, वर्तमान कलम है भविष्य के तकदीर बनाने की। वर्तमान को श्रेष्ठ बनाने का साधन है - बड़ों के ईशारों को सदा स्वीकार करते हुए स्वयं को परिवर्तन कर लेना। इसी विशेष गुण से वर्तमान और भविष्य तकदीर श्रेष्ठ बन जाती है। अच्छा – ओम शान्ति।
06-03-85 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
‘होली’ का रूहानी रहस्य
पतित पावन शिव बाबा अपने बच्चों प्रति बोले
आज होलीएस्ट, हाइएस्ट बाप अपने होली और हैपी हंसों से होली मनाने आये हैं। त्रिमूर्ति बाप तीन प्रकार की होली का दिव्य राज़ सुनाने आये हैं। वैसे संमगयुग होली युग है। संमगयुग उत्सव का युग है। आप श्रेष्ठ आत्माओं का हर दिन, हर समय उत्साह भरा उत्सव है। अज्ञानी आत्मायें स्वयं को उत्साह में लाने के लिए उत्सव मनाते हैं। लेकिन आप श्रेष्ठ आत्माओं के लिए यह ब्राह्मण जीवन उत्साह की जीवन है। उमंग, खुशी से भरी हुई जीवन है। इसलिए संगमयुग ही उत्सव का युग है। ईश्वरीय जीवन सदा उमंग उत्साह वाली जीवन है। सदा ही खुशियों में नाचते, ज्ञान का शक्तिशाली अमृत पीते, सुख के गीत गाते, दिल के स्नेह के गीत गाते, अपनी श्रेष्ठ जीवन बिता रहे हैं। अज्ञानी आत्मायें एक दिन मनाती, अल्पकाल के उत्साह में आती फिर वैसे की वैसी हो जाती। आप उत्सव मनाते हुए होली बन जाते हो और दूसरों को भी होली बनाते हो। वह सिर्फ मनाते हैं, आप मनाते बन जाते हो। लोग तीन प्रकार की होली मनाते हैं - एक जलाने की होली। दूसरी रंग लगाने की होली। तीसरी मंगल मिलन मनाने की होली। ये तीनों होली हैं रूहानी रहस्य से। लेकिन वह स्थूल रूप में मनाते रहते हैं। इस संमगयुग पर आप महान आत्मायें जब बाप की बनती हो अर्थात् होली बनती हो तो पहले क्या करती हो? पहले सब पुराने स्वभाव संस्कार योग अग्नि से भस्म करते हो अर्थात् जलाते हो। उसके बाद ही याद द्वारा बाप के संग का रंग लगता है। आप भी पहले जलाने वाली होली मनाते हो फिर प्रभु संग के रंग में रंग जाते हो अर्थात् बाप समान बन जाते हो। बाप ज्ञान सागर तो बच्चे भी संग के रंग में ज्ञान स्वरूप बन जाते हैं। जो बाप के गुण वह आपके गुण हो जाते। जो बाप की शक्तियाँ वह आपका खजाना बन जाता। आपकी प्रॉपर्टी हो जाती। तो संग का रंग ऐसा अविनाशी लग जाता जो जन्म-जन्मान्तर के लिये यह रंग अविनाशी बन जाता है। और जब संग का रंग लग जाता, यह रूहानी रंग की होली मना लेते तो आत्मा और परमात्मा का, बाप और बच्चों का श्रेष्ठ मिलन का मेला सदा ही होता रहता। अज्ञानी आत्माओं ने आपके इस रूहानी होली को यादगार के रूप में मनाना शुरू किया है। आपकी प्रैक्टिकल उत्साह भरी जीवन का भिन्न भिन्न रूप में यादगार मनाकर अल्पकाल के लिए खुश हो जाते। हर कदम में, आपके श्रेष्ठ जीवन में जो विशेषतायें प्राप्त हुई उनको याद कर थोड़े समय के लिए वह भी मौज मनाते रहते हैं। यह यादगार देख वा सुन हर्षित होते हो ना कि हमारी विशेषताओं का यादगार है! आपने माया को जलाया और वह होलिका बनाके जला देते हैं। इतनी रमणीक कहानियाँ बनाई हैं जो सुनकर आपको हँसी आयेगी कि हमारी बात को कैसे बना दिया है! होली का उत्सव आपके भिन्न-भिन्न प्राप्ति के याद रूप में मनाते हैं। अभी आप सदा खुश रहते हो। खुशी की प्राप्ति का यादगार बहुत खुश होकर होली मनाते हैं। उस समय सब दुख भूल जाते हैं। और आप सदा के लिए दुख भूल गये हो। आपकी खुशी की प्राप्ति का यादगार मनाते हैं।
और बात मनाने के समय छोटे बड़े बहुत ही हल्के बन, हल्के रूप में मनाते हैं। उस दिन के लिए सभी का मूड भी हल्का रहता है। तो यह आपके डबल लाइट बनने का यादगार है। जब प्रभु-संग के रंग में रंग जाते हो तो डबल लाइट बन जाते हो ना। तो इस विशेषता का यादगार है। और बात - इस दिन छोटे बड़े किसी भी सम्बन्ध वाले समान स्वभाव में रहते हैं। चाहे छोटा-सा पोत्रा भी हो वह भी दादा को रंग लगायेगा। सभी सम्बन्ध का, आयु का भान भूल जाते हैं। समान भाव में आ जाते हैं। यह भी आपके विशेष समान भाव अर्थात् भाई- भाई की स्थिति और कोई भी देह के सम्बन्ध की दृष्टि नहीं। यह भाई-भाई की समान स्थिति का यादगार है। और बात - इस दिन भिन्न-भिन्न रंगों से खूब पिचकारियाँ भर एक दो को रंगते हैं। यह भी इस समय की आपकी सेवा का यादगार है। कोई भी आत्मा को आप दृष्टि की पिचकारी द्वारा प्रेम स्वरूप बनाने का रंग, आनन्द स्वरूप बनाने का रंग, सुख का, शान्ति का, शक्तियों का कितने रंग लगाते हो? ऐसा रंग लगाते हो जो सदा लगा रहे। मिटाना नहीं पड़ता। मेहनत नहीं करनी पड़ती। और ही हर आत्मा यही चाहती कि सदा इन रंगों में रंगी रहूँ। तो सभी के पास रूहानी रंगों की रूहानी दृष्टि की पिचकारी है ना! होली खेलते हो ना! यह रूहानी होली आप सबके जीवन का यादगार है। ऐसा बापदादा से मंगल मिलन मनाया है जो मिलन मनाते बाप समान बन गये। ऐसा मंगल मिलन मनाया है जो कम्बाइण्ड बन गये हो। कोई अलग कर नहीं सकता।
और बात - यह दिन सभी बीती हुई बातों को भुलाने का दिन है। 63 जन्म की बीती को भुला देते हो ना! बीती को बिन्दी लगा देते हो। इसलिए होली को बीती सो बीती के अर्थ में भी कहते हैं। कैसी भी कड़ी दुश्मनी को भूल मिलन मनाने का दिन माना जाता है। आपने भी आत्मा के दुश्मन आसुरी संस्कार, आसुरी स्वभाव भूल कर प्रभु मिलन मनाया ना! संकल्प मात्र भी पुराना संस्कार स्मृति में न आये। यह भी आपके इस भूलने की विशेषता का यादगार मना रहे हैं। तो सुना आपकी विशेषतायें कितनी हैं? आपके हर गुण का, हर विशेषता का, कर्म का अलग-अलग यादगार बना दिया है। जिसके हर कर्म का यादगार बन जाए, जो याद कर खुशी में आ जाएँ वह स्वयं कितने महान हैं? समझा -अपने आपको कि आप कौन हो? होली तो हो लेकिन कितने विशेष हो!
डबल विदेशी भल यह अपनी श्रेष्ठता का यादगार न भी जानते हो लेकिन आपके याद का महत्व दुनिया वाले याद कर यादगार बना रहे हैं। समझा होली क्या होती है? आप सब तो रंग में रंगे हुए हो। ऐसे प्रेम के रंग में रंग गये हो जो सिवाए बाप के और कुछ दिखाई नहीं देता। स्नेह में ही खाते-पीते, चलते, गाते, नाचते रहते हो। पक्का रंग लग गया है ना कि कच्चा है? कौन सा रंग लगा है? कच्चा वा पक्का? बीती सो बीती कर ली? गलती से भी पुरानी बात याद न आवे। कहते हो ना, क्या करें आ गई। यह गलती से आ जाती है। नया जन्म, नई बातें, नये संस्कार, नई दुनिया, यह ब्राह्मणों का संसार भी नया संसार है। ब्राह्मणों की भाषा भी नई है! आत्मा की भाषा नई है ना! वह क्या कहते और आप क्या कहते! परमात्मा के प्रति भी नई बातें हैं। तो भाषा भी नई, रीत रसम भी नई। सम्बन्ध-सम्पर्क भी नया, सब नया हो गया। पुराना समाप्त हुआ। नया शुरू हुआ, नये गीत गाते हो। पुराने नहीं। क्या, क्यों के हैं पुराने गीत। अहा, वाह, ओहो! यह हैं नये गीत। तो कौन से गीत गाते हो? हाय-हाय के गीत तो नहीं गाते हो ना! हाय-हाय करने वाले दुनिया में बहुत हैं, आप नहीं हो। तो अविनाशी होली मना ली अर्थात् बीती सो बीती कर सम्पूर्ण पवित्र बन गये। बाप के संग के रंग में रंग गये हो। तो होली मना ली ना!
सदा बाप और मैं, साथ-साथ हैं। और संगमयुग सदा साथ रहेंगे। अलग हो ही नहीं सकते। ऐसा उमंग उत्साह दिल में है ना कि - मैं और मेरा बाबा! कि पर्दे के पीछे तीसरा भी कोई है? कभी चूहा कभी बिल्ली निकल आती, ऐसे तो नहीं! सब समाप्त हो गये ना! जब बाप मिला तो सब कुछ मिला। और कुछ रहता नहीं। न सम्बन्धी रह जाता, न खजाना रह जाता, न शक्ति, न गुण रह जाता, न ज्ञान रह जाता, न कोई प्राप्ति रह जाती। तो बाकी और क्या चाहिए। इसको कहा जाता है - होली मनाना। समझा!
आप लोग कितना मौज में रहते हो। बेफकर बादशाह! बिन कौड़ी बादशाह! बेगमपुर के बादशाह! ऐसी मौज में कोई रह न सके। दुनिया के साहूकार से साहूकार हो वा दुनिया में नामीग्रामी कोई व्यक्ति हो, बहुत ही शास्त्रवादी हो, वेदों के पाठ पढ़ने वाले हो, नौधा भक्त हो, नम्बरवन साइन्सदान हो, कोई भी आक्यूपेशन वाले हो लेकिन ऐसी मौज की जीवन नहीं हो सकती। जिसमें मेहनत नहीं। मुहब्बत ही मुहब्बत है। चिंता नहीं। लेकिन शुभचिन्तक है, शुभचिन्तन है। ऐसी मौज की जीवन सारे विश्व में चक्कर लगाओ, अगर कोई मिले तो ले आओ। इसलिए गीत गाते हो ना। मधुबन में, बाप के संसार में मौजें ही मौजें हैं। खाओ तो भी मौज, सोओ तो भी मौज। गोली लेकर सोने की जरूरत नहीं। बाप के साथ सो जाओ तो गोली नहीं लेनी पड़ेगी। अकेले सोते हो तो कहते हाय ब्लडप्रेशर है, दर्द है। तब गोली लेनी पड़ती। बाप साथ हो, बस बाबा आपके साथ सो रहे हैं, यह है गोली। ऐसा भी फिर समय आयेगा जैसे आदि में दवाईयाँ नहीं चलती थी। याद है ना। शुरू में कितनी समय दवाईयाँ नहीं थी। हाँ, थोड़ा मलाई मक्खन खा लिया। दवाई नहीं खाते थे। तो जैसे आदि में प्रैक्टिस कराई है ना। थे तो पुराने शरीर। अन्त में फिर वह आदि वाले दिन रिपीट होंगे। साक्षात्कार भी सब बहुत विचित्र करते रहेंगे। बहुतों की इच्छा है ना - एक बार साक्षात्कार हो जाए। लास्ट तक जो पक्के होंगे उन्हों को साक्षात्कार होंगे फिर वही संगठन की भट्टी होगी। सेवा पूरी हो जायेगी। अभी सेवा के कारण जहाँ तहाँ बिखर गये हो! फिर नदियाँ सब सागर में समा जायेंगी। लेकिन समय नाजुक होगा। साधन होते हुए भी काम नहीं करेंगे। इसलिए बुद्धि की लाइन बहुत क्लीयर चाहिए। जो टच हो जाए कि अभी क्या करना है। एक सेकण्ड भी देरी की तो गये। जैसे वह भी अगर बटन दबाने में एक सेकण्ड भी देरी की तो क्या रिजल्ट होगी? यह भी अगर एक सेकण्ड टचिंग होने में देरी हुई तो फिर पहुँचना मुश्किल होगा। वह लोग भी कितना अटेन्शन से बैठे रहते हैं। तो यह बुद्धि की टचिंग। जैसे शुरू में घर बैठे आवाज़ आया, बुलावा हुआ कि आओ, पहुँचो। अभी निकलो। और फौरन निकल पड़े। ऐसे ही अन्त में भी बाप का आवाज़ पहुँचेगा। जैसे साकार में सभी बच्चों को बुलाया। ऐसे आकार रूप में सभी बच्चों को - ‘आओ-आओ’ का आह्वान करेंगे। सब आना और साथ जाना। ऐसे सदा अपनी बुद्धि क्लीयर हो और कहाँ अटेन्शन गया तो बाप का आवाज़, बाप का आह्वान मिस हो जायेगा। यह सब होना ही है।
टीचर्स सोच रहीं हैं - हम तो पहुँच जायेंगे। यह भी हो सकता है कि आपको वहाँ ही बाप डायरेक्शन दें। वहाँ कोई विशेष कार्य हो। वहाँ कोई औरों को शक्ति देनी हो। साथ ले जाना हो। यह भी होगा लेकिन बाप के डायरेक्शन प्रमाण रहें। मनमत से नहीं। लगाव से नहीं। हाय मेरा सेन्टर; यह याद न आये। फलाना जिज्ञासु भी साथ ले जाउँ, यह अनन्य है, मददगार है। ऐसा भी नहीं। किसी के लिए भी अगर रूके तो रह जायेंगे। ऐसे तैयार हो ना! इसको कहते हैं एवररेडी। सदा ही सब कुछ समेटा हुआ हो। उस समय समेटने का संकल्प नहीं आवे। यह कर लूँ, यह कर लूँ। साकार में याद है ना - जो सर्विसएबुल बच्चे थे उन्हों की स्थूल बैग बैगेज सदा तैयार होती थी। ट्रेन पहुँचने में 5 मिनट हैं और डायरेक्शन मिलता था कि जाओ। तो बैग बैगेज तैयार रहते थे। एक स्टेशन पहले ट्रेन पहुँच गई है - और वह जा रहे हैं। ऐसे भी अनुभव किया ना। यह भी मन की स्थिति में बैग बैगेज तैयार हो। बाप ने बुलाया और बच्चे जी हाजर हो जाएँ। इसको कहते हैं एवररेडी। अच्छा –
ऐसे सदा संग के रंग में रंगे हुए, सदा बीती सो बीती कर वर्तमान और भविष्य श्रेष्ठ बनाने वाले, सदा परमात्म-मिलन मनाने वाले, सदा हर कर्म याद में रह करने वाले अर्थात् हर कर्म का यादगार बनाने वाले, सदा खुशी में नाचते - गाते संगमयुग की मौज मनाने वाले, ऐसे बाप समान बाप के हर संकल्प को कैच करने वाले, सदा बुद्धि श्रेष्ठ और स्पष्ट रखने वाले, ऐसे होली हैपी हंसों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते!’’
बापदादा ने सभी बच्चों के पत्रों का उत्तर देते हुए होली की मुबारक दी -
चारों ओर के देश विदेश के सभी बच्चों के स्नेह भरे, उमंग-उत्साह भरे और कहाँ-कहाँ अपने पुरूषार्थ के प्रतिज्ञा भरे सभी के पत्र और सन्देश बापदादा को प्राप्त हुए। बापदादा सभी होली हंसों को सदा ‘‘जैसा बाप वैसे मैं’’ यह स्मृति का विशेष स्लोगन वरदान के रूप में याद दिला रहे हैं। कोई भी कर्म करते संकल्प करते पहले चेक करो जो बाप का संकल्प वह यह संकल्प है। जो बाप का कर्म वही मेरा कर्म है? सेकण्ड में चेक करो और फिर साकार में लाओ। तो सदा ही बाप समान शक्तिशाली आत्मा बन सफलता का अनुभव करेंगे। सफलता जन्म-सिद्ध अधिकार है, ऐसा सहज प्राप्ति का अनुभव करेंगे। सफलता का सितारा मैं स्वयं हूँ तो सफलता मेरे से अलग हो नहीं सकती। सफलता की माला सदा गले में पिरोई हुई है अर्थात् हर कर्म में अनुभव करते रहेंगे। बापदादा आज के इस होली के संगठन में आप सभी होली हंसों को सम्मुख देख रहे हैं, मना रहे हैं। स्नेह से सभी को देख रहे हैं - सभी के विशेषता की वैराइटी खुशबू ले रहे हैं। कितनी मीठी खुशबू है हरेक के विशेषता की! बाप हर विशेष आत्मा को विशेषताओं से देखते हुए यही गीत गाते - ‘वाह मेरा सहज योगी बच्चा, वाह मेरा पद्मापद्म भाग्यशाली बच्चा’। तो सभी अपनी-अपनी विशेषता और नाम सहित सम्मुख अपने को अनुभव करते हुए यादप्यार स्वीकार करना और सदा बाप की छत्रछाया में रह माया से घबराना नहीं। छोटी बात है, बड़ी बात नहीं है। छोटी को बड़ा नहीं करना। बड़ी को छोटा करना। ऊँचे रहेंगे तो बड़ा छोटा हो जायेगा। नीचे रहेंगे तो छोटा भी बड़ा हो जायेगा। इसलिए बापदादा का साथ है, हाथ है तो घबराओ नहीं, खूब उड़ो, उड़ती कला से सेकण्ड में सबको पार करो। बाप का साथ सदा ही सेफ रखता है। और रखेगा। अच्छा - सभी को सिकीलधा, लाड़ला कह बापदादा होली की मुबारक दे रहे हैं। अच्छा - (फिर तो बापदादा से सभी बच्चों ने होली मनाई तथा पिकनिक की)
बांधेलियों को यादप्यार देते हुए - बांधेलियों की याद तो सदा बाप के पास पहुँचती है और बापदादा सभी बांधेलियों को यही कहते कि योग अर्थात् याद की लगन को अग्नि रूप बनाओ। जब लगन अग्नि रूप बन जाती तो अग्नि में सब भस्म हो जाता। जो यह बन्धन भी लगन की अग्नि में समाप्त हो जायेंगे और स्वतन्त्र आत्मा बन जो संकल्प करते उसकी सिद्धि को प्राप्त करेंगी। स्नेही हो, स्नेह की याद पहुँचती है। स्नेह के रेसपाण्ड में स्नेह मिलता है लेकिन अभी याद को शक्तिशाली अग्नि रूप बनाओ। फिर वह दिन आ जायेगा जो सम्मुख पहुँच जायेंगी।
पार्टियों से - सभी के मस्तक पर सदा भाग्य का सितारा चमक रहा है ना! सदा चमकता है? कभी टिमटिमाता तो नहीं है? अखण्ड ज्योति बाप के साथ आप भी अखण्ड ज्योति अर्थात् सदा जगने वाले सितारे बन गये। ऐसे अनुभव करते हो। कभी वायु हिलाती तो नहीं है दीपक वा सितारे को? जहाँ बाप की याद है वह अविनाशी जगमगाता हुआ सितारा है। टिमटिमाता हुआ नहीं। लाइट भी जब टिमटिम करती है तो बन्द कर देते हैं, किसी को अच्छी नहीं लगती। तो यह भी सदा जगमगाता हुआ सितारा। सदा ज्ञान सूर्य बाप से रोशनी ले औरों को भी रोशनी देने वाले। सेवा का उमंग उत्साह सदा कायम रहता है। सभी श्रेष्ठ आत्मायें हो, श्रेष्ठ बाप की श्रेष्ठ आत्मायें हो।
याद की शक्ति से सफलता सहज प्राप्त होती है। जितना याद और सेवा साथ-साथ रहती है तो याद और सेवा का बैलेन्स सदा की सफलता की आशीर्वाद स्वत: प्राप्त कराता है। इसलिए सदा शक्तिशाली याद स्वरूप का वातावरण बनने से शक्तिशाली आत्माओं का आह्वान होता है और सफलता मिलती है। निमित्त लौकिक कार्य है लेकिन लगन बाप और सेवा में है। लौकिक भी सेवा प्रति है, अपने लगाव से नहीं करते, डायरेक्शन प्रमाण करते हैं, इसलिए बाप के स्नेह का हाथ ऐसे बच्चों के साथ है। सदा खुशी में गाओ, नाचो यही सेवा का साधन है। आपकी खुशी को देख दूसरे खुश हो जायेंगे तो यही सेवा हो जायेगी। बापदादा बच्चों को सदा कहते हैं - जितना महादानी बनेंगे उतना खजाना बढ़ता जायेगा। महादानी बनो और खजानों को बढ़ाओ। महादानी बन खूब दान करो। यह देना ही लेना है। जो अच्छी चीज़ मिलती है वह देने के बिना रह नहीं सकते।
सदा अपने भाग्य को देख हर्षित रहो। कितना बड़ा भाग्य मिला है, घर बैठे भगवान मिल जाए इससे बड़ा भाग्य और क्या होगा! इसी भाग्य को स्मृति में रख हर्षित रहो। तो दुःख और अशान्ति सदा के लिए समाप्त हो जायेंगे। सुख स्वरूप, शान्त स्वरूप बन जायेंगे। जिसका भाग्य स्वयं भगवान बनाये वह कितने श्रेष्ठ हुए। तो सदा अपने में नया उमंग, नया उत्साह अनुभव करते आगे बढ़ते चलो। क्योंकि संगमयुग पर हर दिन का नया उमंग, नया उत्साह है।
जैसे चल रहे हैं, नहीं। सदा नया उमंग, नया उत्साह सदा आगे बढ़ाता है। हर दिन ही नया है। सदा स्वयं में वा सेवा में कोई न कोई नवीनता जरूर चाहिए। जितना अपने को उमंग उत्साह में रखेंगे उतना नई-नई टचिंग होती रहेगी। स्वयं किसी दूसरी बातों में बिजी रहते तो नई टचिंग भी नहीं होती। मनन करो तो नया उमंग रहेगा। अच्छा - ओमशान्ति।
09-03-85 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
गोल्डन जुबली द्वारा गोल्डन एज के आगमन की सूचना
गोल्डन दुनिया के स्थापक शिव बाबा अपने विजयी रत्नों प्रति बोले
आज बापदादा सभी बच्चों के पुरूषार्थ की लगन को देख रहे थे। हर एक बच्चा अपने-अपने हिम्मत-उल्लास से आगे बढ़ते जा रहे हैं। हिम्मत भी सबमें हैं, उमंग-उल्लास भी सबमें हैं। हर एक के अन्दर एक ही श्रेष्ठ संकल्प भी है कि हमें बापदादा के समीप रत्न, नूरे रतन, दिल तख्तनशीन दिलाराम के प्यारे बनना ही है। लक्ष्य भी सभी का सम्पन्न बनने का है। सभी बच्चों के दिल का आवाज़ एक ही है कि स्नेह की रिटर्न में हमें ‘समान और सम्पन्न’ बनना है। और इसी लक्ष्य प्रमाण आगे बढ़ने में सफल भी हो रहे हैं। किसी से भी पूछो - क्या चाहते हो? तो सभी का एक ही उमंग का आवाज़ है कि सम्पूर्ण और सम्पन्न बनना ही है। बापदादा सभी का यह उमंग-उत्साह देख, श्रेष्ठ लक्ष्य देख हर्षित होते हैं। और सभी बच्चों को ऐसे एक उमंग-उत्साह की, एक मत की आफरीन देते हैं कि कैसे एक बाप, एक मत, एक ही लक्ष्य और एक ही घर में, एक ही राज्य में चल रहे हैं वा उड़ रहे हैं। एक बाप और इतने योग्य वा योगी बच्चे, हर एक, एक दो से विशेषता में विशेष आगे बढ़ रहे हैं। सारे कल्प में ऐसा न बाप होगा, न बच्चे होंगे जो कोई भी बच्चा उमंग-उत्साह में कम न हो। विशेषता सम्पन्न हो। एक ही लगन में मगन हो। ऐसा कभी हो नहीं सकता। इसलिए बापदादा को भी ऐसे बच्चों पर नाज़ है। और बच्चों को बाप का नाज़ है। जहाँ भी देखो एक ही विशेष आवाज़ सभी की दिल अन्दर है। ‘बाबा और सेवा’! जितना बाप से स्नेह है उतना सेवा से भी स्नेह है। दोनों स्नेह हरेक के ब्राह्मण जीवन का जीयदान हैं। इसी में ही सदा बिजी रहने का आधार मायाजीत बना रहा है।
बापदादा के पास सभी बच्चों के सेवा के उमंग-उत्साह के प्लैन्स पहुँचते रहते हैं। प्लैन सभी अच्छे ते अच्छे हैं। ड्रामा अनुसार जिस विधि से वृद्धि को प्राप्त करते आये हो वह आदि से अब तक अच्छे ते अच्छा ही कहेंगे। अभी सेवा की वा ब्राह्मणों के विजयी रत्न बनने की वा सफलता के बहुत वर्ष बीत चुके हैं। अभी गोल्डन जुबली तक पहुँच गये हो। गोल्डन जुबली क्यों मना रहे हो? क्या दुनिया के हिसाब से मना रहे हो। वा समय के प्रमाण विश्व को तीव्रगति से सन्देश देने के उमंग से मना रहे हो! चारों ओर बुलन्द आवाज़ द्वारा सोई हुई आत्माओं को जगाने का साधन बना रहे हो! जहाँ भी सुनें, जहाँ भी देखें वहाँ चारों ओर यही आवाज़ गूँजता हुआ सुनाई दे कि समय प्रमाण अब गोल्डन एज सुनहरी समय, सुनहरी युग आने का सुनहरी सन्देश द्वारा खुशखबरी मिल रही है। इस गोल्डन जुबली द्वारा गोल्डन एज के आने की विशेष सूचना वा सन्देश देने के लिए तैयारी कर रहे हो। चारों ओर ऐसी लहर फैल जाए कि अब सुनहरी युग आया कि आया! चारों ओर ऐसा दृश्य दिखाई दे जैसे सवेरे के समय अंधकार के बाद सूर्य उदय होता है तो सूर्य का उदय होना और रोशनी की खुशखबरी चारों ओर फैलना। अंधकार भूल और रोशनी में आ जाते। ऐसी विश्व की आत्मायें जो दुख अशान्ति के समाचार सुन सुन, विनाश के भय में भयभीत हो, दिलशिकस्त हो गई हैं, नाउम्मींद हो गई हैं ऐसे विश्व की आत्माओं को इस गोल्डन जुबली द्वारा शुभ उम्मीदों का सूर्य उदय होने का अनुभव कराओ। जैसे विनाश की लहर है वैसे सतयुगी सृष्टि के स्थापना की खुशखबरी की लहर चारों ओर फैलाओ। सभी के दिल में यह उम्मीद का सितारा चमकाओ। क्या होगा, क्या होगा के बजाए समझें कि ‘अब यह होगा’। ऐसी लहर फैलाओ। गोल्डन जुबली गोल्डन एज के आने की खुशखबरी का साधन है। जैसे आप बच्चों को दुखधाम देखते हुए भी सुखधाम सदा स्वत: ही स्मृति में रहता है और सुखधाम की स्मृति दुखधाम भुला देती है। और सुखधाम वा शन्तिधाम जाने की तैयारियों में खोये हुए रहते हो। जाना है और सुखधाम में आना है। जाना है और आना है - यह स्मृति समर्थ भी बना रही है और खुशी-खुशी से सेवा के निमित्त भी बना रही है। अभी लोग ऐसे दुःख की खबरें बहुत सुन चुके हैं। अब इस खुशखबरी द्वारा दुःखधाम से सुखधाम जाने के लिए खुशी-खुशी से तैयार करो उन्हों में भी यह लहर फैल जाए कि हमें भी जाना है। नाउम्मीद वालों को उम्मीद दिलाओ। दिलशिकस्त आत्माओं को खुशखबरी सुनाओ। ऐसे प्लैन बनाओ जो विशेष समाचार पत्रों में वा जो भी आवाज़ फैलाने के साधन हैं - एक ही समय एक ही खुशखबरी वा सन्देश चारों ओर सभी को पहुँचे। जहाँ से भी कोई आवे तो यह एक ही बात सभी को मालूम पड़े। ऐसे तरीके से चारों ओर एक ही आवाज़ हो। नवीनता भी करनी है। अपने नॉलेजफुल स्वरूप को प्रत्यक्ष करना है। अभी समझते हैं कि शान्त स्वरूप आत्मायें हैं। शान्ति का सहज रास्ता बताने वाले हैं। यह स्वरूप प्रत्यक्ष हुआ भी है और हो रहा है। लेकिन नॉलेजफुल बाप की नॉलेज है तो ‘यही’ है। अब यह आवाज़ हो। जैसे अब कहते हैं शान्ति का स्थान है तो यही है। ऐसे सबके मुख से यह आवाज़ निकले कि सत्य ज्ञान है तो यही है। जैसे शान्ति और स्नेह की शक्ति अनुभव करते हैं वैसे सत्यता सिद्ध हो, तो और सब क्या हैं, वह सिद्ध हो ही जायेगा। कहने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। अब वह सत्यता की शक्ति कैसे प्रत्यक्ष करो, वह विधि क्या अपनाओ जो आपको कहना न पड़े। लेकिन वह स्वयं ही कहें कि इससे यह सिद्ध होता है कि सत्य ज्ञान परमात्म ज्ञान शक्तिशाली ज्ञान है तो यही है। इसके लिए विधि फिर सुनायेंगे। आप लोग भी इस पर सोचना। फिर दूसरे बारी सुनायेंगे। स्नेह और शान्ति की धरनी तो बन गई है ना। अभी ज्ञान का बीज पड़ना है तब तो ज्ञान के बीज का फल ‘स्वर्ग’ के वर्से के अधिकारी बनेंगे।
बापदादा सभी देखते-सुनते रहते हैं। क्या-क्या रूह-रूहान करते हैं। अच्छा प्यार से बैठते हैं, सोचते हैं। मथनी अच्छी चला रहे हैं। माखन खाने लिए मंथन तो कर रहे हैं। अभी गोल्डन जुबली का मंथन कर रहे हैं। शक्तिशाली माखन ही निकलेगा। सबके दिल में लहर अच्छी है। और यही दिल के उमंगों की लहर वायुमण्डल बनाती हैं। वायुमण्डल बनते-बनते आत्माओं में समीप आने की आकर्षण बढ़ती जाती है। अभी जाना चाहिए, देखना चाहिए यह लहर फैलती जा रही है। पहले था कि पता नहीं क्या है? अभी है कि अच्छा है, जाना चाहिए। देखना चाहिए। फिर आखरीन कहेंगे कि - यही हैं। अभी आपके दिल का उमंग- उत्साह उन्हों में भी उमंग पैदा कर रहा है। अभी आपकी दिल नाचती है। उन्हों के पांव चलने शुरू होते हैं। जैसे यहाँ कोई बहुत अच्छा डांस करता है तो दूर बैठने वालों का भी पांव चलना शुरू हो जाता है। ऐसा उमंग-उत्साह का वातावरण अनेकों के पांव को चलाने शुरू कर रहा है। अच्छा –
सदा अपने को गोल्डन दुनिया के अधिकारी अनुभव करने वाले, सदा अपनी गोल्डन एजड स्थिति बनाने के उमंग-उत्साह में रहने वाले, सदा रहमदिल बन सर्व आत्माओं को गोल्डन एज का रास्ता बताने की लगन में रहने वाले, सदा बाप के हर एक गोल्डन वरशन को जीवन में धारण करने वाले, ऐसे सदा बापदादा के दिल तख्तनशीन, सदा स्नेह में समाये हुए विजयी रत्नों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।’’
आस्ट्रेलिया के भाई-बहिनों से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात - सारा ग्रुप समीप आत्माओं का है ना? बापदादा सदा बच्चों को समीप रत्न के रूप में देखते हैं। समीप रहना अर्थात् जैसा बाप वैसे बच्चे। ऐसे अनुभव करते हो? हर कदम में फॉलो फादर करने वाले हो! बापदादा आस्ट्रेलिया निवासियों को सदा आगे रखते हैं क्योंकि जितना स्वयं प्राप्त करते हैं उतना औरों को देने का उमंग-उत्साह अच्छा रहा है। सेवा का उमंग अच्छा है। जिसका सेवा से प्यार है - यह सिद्ध करता है कि बाप से भी प्यार है। शक्तियाँ भी सेवा के उमंग में हैं तो पाण्डव भी। पाण्डव भी आज्ञाकारी हैं तो शक्तियाँ भी कमाल करने वाली हैं। शक्तियों को आगे बढ़ने का समय है। क्योंकि आधाकल्प दुनिया वालों ने शक्तियों को नीचे किया इसलिए बाप संगमयुग पर चांस दे रहा है। तो अभी शक्तियाँ क्या करेंगी? बापदादा को सेवा के आदि का समय याद आ रहा है, शक्तियों का झुण्ड बहुत अच्छा लवली रूप रहा है। अभी भी सदा ही आगे चांस लेने वाली बनो। पाण्डव तो स्वत: उनके साथ हैं। क्योंकि दोनों के बिना कोई कार्य चलता नहीं। अच्छा – ओम शान्ति।
12-03-85 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
सत्यता की शक्ति
सत बाप, सत शिक्षक, सतगुरू शिवबाबा अपने सत्यता के शक्तिस्वरूप बच्चों प्रति बोले
आज सत बाप, सत शिक्षक, सतगुरू अपने सत्यता के शक्ति स्वरूप बच्चों को देख रहे हैं। सत्य ज्ञान वा सत्यता की शक्ति कितनी महान है उसके अनुभवी आत्मायें हो। सब दूरदेश वासी बच्चे भिन्न धर्म, भिन्न मान्यतायें, भिन्न रीति रसम में रहते हुए भी इस ईश्वरीय विश्व विद्यालय की तरफ वा राजयोग की तरफ क्यों आकर्षित हुए? सत्य बाप का सत्य परिचय मिला अर्थात् सत्य ज्ञान मिला। सच्चा परिवार मिला। सच्चा स्नेह मिला। सच्ची प्राप्ति का अनुभव हुआ। तब सत्यता की शक्ति के पीछे आकर्षित हुए। जीवन थी, प्राप्ति भी थी यथा शक्ति ज्ञान भी था लेकिन सत्य ज्ञान नहीं था। इसलिए सत्यता की शक्ति ने सत्य बाप का बना लिया।
सत शब्द के दो अर्थ हैं - सत सत्यता भी है और सत अविनाशी भी है। तो सत्यता की शक्ति अविनाशी भी है। इसलिए अविनाशी प्राप्ति, अविनाशी सम्बन्ध, अविनाशी स्नेह, अविनाशी परिवार है। यही परिवार 21 जन्म भिन्नभिन्न नाम रूप से मिलते रहेंगे। जानेंगे नहीं। अभी जानते हो कि हम ही भिन्न सम्बन्ध से परिवार में आते रहेंगे। इस अविनाशी प्राप्ति ने, पहचान ने दूर देश में होते हुए भी अपने सत्य परिवार, सत्य बाप, सत्य ज्ञान की तरफ खींच लिया। जहाँ सत्यता भी हो और अविनाशी भी हो, यही परमात्म पहचान है। तो जैसे आप सभी इसी विशेषता के आधार पर आकर्षित हुए, ऐसे ही सत्यता की शक्ति को, सत्य ज्ञान को विश्व में प्रत्यक्ष करना है। 50 वर्ष धरनी बनाई, स्नेह में लाया, सम्पर्क में लाया। राजयोग की आकर्षण में लाया, शान्ति के अनुभव से आकर्षण में लाया। अब बाकी क्या रहा? जैसे परमात्मा एक है यह सभी भिन्न-भिन्न धर्म वालों की मान्यता है। ऐसे यथार्थ सत्य ज्ञान एक ही बाप का है अथवा एक ही रास्ता है, यह आवाज़ जब तक बुलन्द नहीं होगा तब तक आत्माओं का अनेक तिनकों के सहारे तरफ भटकना बन्द नहीं होगा। अभी यही समझते हैं कि यह भी एक रास्ता है। अच्छा रास्ता है। लेकिन आखिर भी एक बाप का एक ही परिचय, एक ही रास्ता है। अनेकता की यह भ्रान्ति समाप्त होना ही विश्व-शान्ति का आधार है। यह सत्यता के परिचय की वा सत्य ज्ञान के शक्ति की लहर जब तक चारों ओर नहीं फैलेगी तब तक प्रत्यक्षता के झण्डे के नीचे सर्व आत्मायें सहारा नहीं ले सकतीं। तो गोल्डन जुबली में जबकि बाप के घर में विशेष निमन्त्रण देकर बुलाते हो, अपनी स्टेज है। श्रेष्ठ वातावरण है, स्वच्छ बुद्धि का प्रभाव है। स्नेह की धरनी है, पवित्र पालना है। ऐसे वायुमण्डल के बीच अपने सत्य ज्ञान को प्रसिद्ध करना ही प्रत्यक्षता का आरम्भ होगा। याद है, जब प्रदर्शनियों द्वारा सेवा का विहंग मार्ग का आरम्भ हुआ तो क्या करते थे? मुख्य ज्ञान के प्रश्नों का फार्म भराते थे ना। परमात्मा सर्वव्यापी है वा नहीं है? गीता का भगवान कौन है? यह फार्म भराते थे ना। ओपीनियन लिखाते थे। पहेली पूछते थे। तो पहले यह आरम्भ किया लेकिन चलते-चलते इन बातों को गुप्त रूप में देते हुए सम्पर्क स्नेह को आगे रखते हुए समीप लाया। इस बारी जबकि इस धरनी पर आते हैं तो सत्य परिचय, स्पष्ट परिचय दो। यह भी अच्छा है, यह तो राजी करने की बात है। लेकिन एक ही बाप का एक यथार्थ परिचय स्पष्ट बुद्धि में आ जाए, यह भी समय अब लाना है। सिर्फ सीधा कहते रहते हो कि बाप यह ज्ञान दे रहा है, बाप आया है लेकिन वह मानकर जाते हैं कि यही परमात्म-ज्ञान है? परमात्मा का कर्त्तव्य चल रहा है? ज्ञान की नवीनता है यह अनुभव करते हैं? ऐसी वर्कशाप कभी रखी है? जिसमें परमात्मा सर्वव्यापी है या नहीं है, एक ही समय आता है या बार-बार आता है। ऐसे स्पष्ट परिचय उन्हें मिल जाएँ जो समझें कि दुनिया में जो नहीं सुना वह यहाँ सुना। ऐसे जो विशेष स्पीकर बन करके आते - उन्हों से यह ज्ञान के राजों की रूह-रूहान करने से उन्हों की बुद्धि में आयेगा। साथसाथ जो भाषण भी करते हो उसमें भी अपने परिवर्तन के अनुभव सुनाते हुए एक-एक स्पीकर, एक-एक नये ज्ञान की बात को स्पष्ट कर सकते हो। ऐसे सीधा टापिक नहीं रखें कि परमात्मा सर्वव्यापी नहीं है, लेकिन एक बाप को एक रूप से जानने से क्या-क्या विशेष प्राप्तियाँ हुई, उन प्राप्तियों को सुनाते हुए सर्वव्यापी की बातों को स्पष्ट कर सकते हो। एक परमधाम निवासी समझ याद करने से बुद्धि कैसे एकाग्र हो जाती है वा बाप के सम्बन्ध से क्या प्राप्तियों की अनुभूति होती है? इस ढंग से सत्यता और निर्मानता, दोनों रूप से सिद्ध कर सकते हो। जिससे अभिमान भी न लगे कि यह लोग अपनी महिमा करते हैं। नम्रता और रहम की भावना अभिमान की महसूसता नहीं कराती। जैसे मुरलियों को सुनते हुए कोई भी अभिमान नहीं कहेगा। अथॉरिटी से बोलते हैं, यह कहेंगे। भल शब्द कितने ही सख्त हों लेकिन अभिमान नहीं कहेंगे! अथॉरिटी की अनुभूति करते हैं। ऐसे क्यों होता है? जितनी ही अथॉरिटी है उतनी ही नम्रता और रहम भाव है। ऐसे बाप तो बच्चों के आगे बोलते हैं लेकिन आप सभी इस विशेषता से स्टेज पर इस विधि से स्पष्ट कर सकते हो। जैसे सुनाया ना। ऐसे ही एक सर्वव्यापी की बात रखें, दूसरा नाम रूप से न्यारे की रखें, तीसरा ड्रामा की पाइंट बुद्धि में रखें। आत्मा की नई विशेषताओं को बुद्धि में रखें। जो भी विशेष टापिक्स हैं, उसको लक्ष्य में रख अनुभव और प्राप्ति के आधार से स्पष्ट करते जावें जिससे समझें कि इस सत्य ज्ञान से ही सतयुग की स्थापना हो रही है। भगवानुवाच क्या विशेष है जो सिवाए भगवान के कोई सुना नहीं सकते। विशेष स्लोगन्स जिसको आप लोग सीधे शब्द कहते हो - जैसे मनुष्य, मनुष्य का कभी सतगुरू, सत बाप नहीं बन सकता। मनुष्य परमात्मा हो नहीं सकता। ऐसी विशेष पाइंट तो समय प्रति समय सुनते आये हो, उसकी रूपरेखा बनाओ। जिससे सत्य ज्ञान की स्पष्टता हो। नई दुनिया के लिए यह नया ज्ञान है। नवीनता और सत्यता दोनों अनुभव हो। जैसे कांफ्रेंस करते हो, सेवा बहुत अच्छी चलती है। कांफ्रेंस के पीछे जो भी कुछ साधन बनाते हो, कभी चार्टर, कभी क्या बनाते हो। उससे भी साधन अपनाते हो, सम्पर्क को आगे बढ़ाने का। यह भी साधन अच्छा है क्योंकि चांस मिलता है पीछे भी मिलते रहने का। लेकिन जैसे अभी जो भी आते हैं, कहते हैं - हाँ, यह बहुत अच्छी बात है। प्लैन अच्छा है, चार्टर अच्छा है, सेवा का साधन भी अच्छा है। ऐसे यह कह कर जाएँ कि ‘नया ज्ञान आज स्पष्ट हुआ’। ऐसे विशेष 5-6 भी तैयार किये तो...क्योंकि सभी के बीच तो यह रूह-रूहान चल नहीं सकती। लेकिन विशेष जा आते हैं। टिकट देकर ले आते हो। विशेष पालना भी मिलती है। उन्हों में से जो नामीग्रामी हैं उन्हों के साथ यह रूह-रूहान कर स्पष्ट उन्हों की बुद्धि में डालना जरूर चाहिए। ऐसा कोई प्लैन बनाओ। जिससे उन्हों को यह नहीं लगे कि बहुत अपना नशा है, लेकिन सत्यता लगे। इसको कहा जाता है - तीर भी लगे लेकिन दर्द नहीं हो। चिल्लावे नहीं। लेकिन खुशी में नाचे। भाषणों की रूपरेखा भी नई करो। विश्व-शान्ति के भाषण तो बहुत कर लिए। आध्यात्मिकता की आवश्यकता है, आध्यात्मिक शक्ति क्या है! आध्यात्मिक ज्ञान क्या है! इसका सोर्स कौन है? अभी वहाँ तक नहीं पहुँचे हैं! समझें कि भगवान का कार्य चल रहा है। अभी कहते हैं - मातायें बहुत अच्छा कार्य कर रही हैं। समय प्रमाण यह भी धरनी बनानी पड़ती है। जैसे सन शोव्ज़ फादर है वैसे फादर शोव्ज़ सन है। अभी फादर शोव्ज़ सन हो रहा है। तो यह बुलन्द आवाज़ प्रत्यक्षता का झण्डा लहरायेगा। समझा!
गोल्डन जुबली में क्या करना है, यह समझा ना! दूसरे स्थानों पर फिर भी वातावरण को देखना पड़ता है लेकिन बाप के घर में, अपना घर अपनी स्टेज है तो ऐसे स्थान पर यह प्रत्यक्षता का आवाज़ बुलन्द कर सकते हो। ऐसे थोड़े भी इस बात में निश्चयबुद्धि हो जाएँ - तो वही आवाज़ बुलन्द करेंगे। अभी रिजल्ट क्या है? सम्पर्क और स्नेह में स्वयं आये, वही सेवा कर रहे हैं। औरों को भी स्नेह और सम्पर्क में ला रहे हैं। जितने स्वयं बने उतनी सेवा कर रहे हैं। यह भी सफलता ही कहेंगे ना। लेकिन अभी और आगे बढ़ें। नाम बदनाम से बुलन्द हुआ। पहले डरते थे, अभी आना चाहते हैं। यह तो फर्क हुआ ना। पहले नाम सुनने नहीं चाहते थे, अभी नाम लेने की इच्छा रखते हैं। यह भी 50 वर्ष में सफलता को प्राप्त किया। धरनी बनाने में ही समय लगता है। ऐसे नहीं समझो 50 वर्ष इसमें लग गये तो फिर और क्या होगा! पहले धरनी को हल चलाने योग्य बनाने में टाइम लगता है। बीज डालने में टाइम नहीं लगता। शक्तिशाली बीज का फल शक्तिशाली निकलता है। अभी तक जो हुआ यही होना था, वही यथार्थ हुआ। समझा!
(विदेशी बच्चों को देख) यह चात्रक अच्छे हैं। ब्रह्मा बाप ने बहुत समय के आह्वान के बाद आपको जन्म दिया है। विशेष आह्वान से पैदा हुए हो। देरी जरूर लगाई लेकिन तन्दरूस्त और अच्छे पैदा हुए हो। बाप का आवाज़ पहुँच रहा था लेकिन समय आने पर समीप पहुँच गये। विशेष ब्रह्मा बाप खुश होते हैं। बाप खुश होंगे तो बच्चे भी खुश होंगे ही लेकिन विशेष ब्रह्मा बाप का स्नेह है। इसलिए मैजारिटी ब्रह्मा बाप को न देखते हुए भी ऐसे ही अनुभव करते हो जैसे देखा ही है। चित्र में भी चैतन्यता का अनुभव करते हो। यह विशेषता है। ब्रह्मा बाप के स्नेह का विशेष सहयोग आप आत्माओं को है। भारत वाले क्वेश्चन करेंगे ब्रह्मा क्यों, यही क्यों?....लेकिन विदेशी बच्चे आते ही ब्रह्मा बाप के आकर्षण से स्नेह में बंध जाते हैं। तो यह विशेष सहयोग का वरदान है। इसलिए न देखते हुए भी पालना ज्यादा अनुभव करते रहते हो। जिगर से कहते हो - ‘ब्रह्मा बाबा’! तो यह विशेष सूक्ष्म स्नेह का कनेक्शन है। ऐसे नहीं कि बाप सोचते हैं यह हमारे पीछे कैसे आये! न आप सोचते, न ब्रह्मा सोचते। सामने ही हैं। आकारी रूप से भी साकार समान ही पालना दे रहे हैं। ऐसे अनुभव करते हो ना! थोड़े समय में कितने अच्छे टीचर्स तैयार हो गये हैं! विदेश की सेवा में कितना समय हुआ? कितने टीचर्स तैयार हुए हैं? अच्छा है, फिर भी अपनी बार अपनी चार वाले तो हैं, आपको ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती। बापदादा सेवा की लगन को देखते रहते हैं। क्योंकि विशेष सूक्ष्म पालना मिलती है ना। जैसे ब्रह्मा बाप के विशेष संस्कार क्या देखे! सेवा के सिवाए रह सकते थे? तो विदेश में दूर रहने वालों को यह विशेष पालना का सहयोग होने कारण सेवा का उमंग ज्यादा रहता है।
गोल्डन जुबली में और क्या किया है? खुद भी गोल्डन और जुबली भी गोल्डन। अच्छा है, बैलेन्स का अटेन्शन जरूर रखना। स्वयं और सेवा। स्व उन्नति और सेवा की उन्नति। बैलेन्स रखने से अनेक आत्माओं को स्व सहित ब्लैसिंग दिलाने के निमित्त बन जायेंगे। समझा! सेवा का प्लैन बनाते हुए पहले स्व स्थिति का अटेन्शन। तब प्लैन में पावर भरेगी। प्लैन है बीज। तो बीज में अगर शक्ति नहीं होगी, शक्तिशाली बीज नहीं तो कितनी भी मेहनत करो, श्रेष्ठ फल नहीं देगा। इसलिए प्लैन के साथ स्व स्थिति की पावर जरूर भरते रहना। समझा! अच्छा –
ऐसे सत्यता को प्रत्यक्ष करने वाले, सदा सत्यता और निर्मानता का बैलेन्स रखने वाले, हर बोल द्वारा एक बाप के एक परिचय को सिद्ध करने वाले, सदा स्व उन्नति द्वारा सफलता को पाने वाले, सेवा में बाप की प्रत्यक्षता का झण्डा लहराने वाले, ऐसे सतगुरू के, सत बाप के सत बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।’’
विदाई के समय दादी जी भोपाल जाने की छुट्टी ले रही हैं - जाने में भी सेवा है, रहने में भी सेवा है। सेवा के निमित्त बने हुए बच्चों के हर संकल्प में, हर सेकण्ड में सेवा है। आपको देखकर जितना उमंग-उत्साह बढ़ेगा उतना ही बाप को याद करेंगे। सेवा में आगे बढ़ेंगे। इसलिए सफलता सदा साथ है ही है। बाप को भी साथ ले जा रही हो, सफलता को भी साथ ले जा रही हो। जिस स्थान पर जायेंगी वहाँ सफलता होगी। (मोहिनी बहन से) चक्कर लगाने जा रही हो। चक्कर लगाना माना अनेक आत्माओं को स्व-उन्नति का सहयोग देना। साथ-साथ जब स्टेज का चांस मिलता है तो ऐसा नया भाषण करके आना। पहले आप शुरू कर देना तो नम्बरवन हो जायेंगी। जहाँ भी जायेंगी तो सब क्या कहेंगे? बापदादा की यादप्यार लाई हो? तो जैसे बापदादा स्नेह की, सहयोग की शक्ति देते हैं, वैसे आप भी बाप से ली हुई स्नेह, सहयोग की शक्ति देते जाना। सभी को उमंग-उत्साह में उड़ाने के लिए कोई न कोई ऐसे टोटके बोलती रहना। सब खुशी में नाचते रहेंगे। रूहानियत की खुशी में सबको नचाना और रमणीकता से सभी को खुशी-खुशी से पुरूषार्थ में आगे बढ़ना सिखाना। अच्छा –
सेवा का प्लैन बनाते हुए पहले स्व स्थिति का अटेन्शन। तब प्लैन में पावर भरेगी। प्लैन है बीज। तो बीज में अगर शक्ति नहीं होगी, शक्तिशाली बीज नहीं तो कितनी भी मेहनत करो, श्रेष्ठ फल नहीं देगा। इसलिए प्लैन के साथ स्व स्थिति की पावर जरूर भरते रहना।
15-03-85 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
मेहनत से छूटने का सहज साधन - निराकारी स्वरूप की स्थिति
अव्यक्त बापदादा बोले
बापदादा बच्चों के स्नेह से, वाणी से परे निर्वाण अवस्था से वाणी में आते हैं। किसलिए? बच्चों को आप समान निर्वाण स्थिति का अनुभव कराने के लिए। निर्वाण स्वीट होम में ले जाने के लिए। निर्वाण स्थिति निर्विकल्प स्थिति है। निर्वाण स्थिति निर्विकारी स्थिति है। निर्वाण स्थिति सदा निराकारी सो साकार स्वरूपधारी बन वाणी में आते हैं। साकार में आते भी निराकारी स्वरूप की स्मृति, स्मृति में रहती है। मैं निराकार, साकार आधार से बोल रहा हूँ। साकार में भी निराकार स्थिति स्मृति में रहे - इसको कहते हैं निराकार सो साकार द्वारा वाणी में, कर्म में आना। असली स्वरूप निराकार है, साकार आधार है। यह डबल स्मृति - ‘निराकार सो साकार’ शक्तिशाली स्थिति है। साकार आधार ले निराकार स्वरूप को भूलो नहीं। भूलते हो इसलिए याद करने की मेहनत करनी पड़ती है। जैसे लौकिक जीवन में अपना शारीरिक स्वरूप स्वत: ही सदा याद रहता है कि मैं फलाना वा फलानी इस समय यह कार्य कर रही हूँ या कर रहा हूँ। कार्य बदलता है लेकिन मैं फलाना हूँ यह नहीं बदलता, न भूलता है। ऐसे, मैं निराकार आत्मा हूँ, यह असली स्वरूप कोई भी कार्य करते स्वत: और सदा याद रहना चाहिए। जब एक बार स्मृति आ गई, परिचय भी मिल गया - मैं निराकार आत्मा हूँ। परिचय अर्थात् नॉलेज। तो नॉलेज की शक्ति द्वारा स्वरूप को जान लिया। जानने के बाद फिर भूल कैसे सकते? जैसे नॉलेज की शक्ति से शरीर का भान भुलाते भी भूल नहीं सकते। तो यह आत्मिक स्वरूप भूल कैसे सकेंगे? तो यह अपने आपसे पूछो और अभ्यास करो। चलते-फिरते कार्य करते चेक करो - निराकार सो साकार आधार से यह कार्य कर रहा हूँ! तो स्वत: ही निर्विकल्प स्थिति, निराकारी स्थिति, निर्विघ्न स्थिति सहज रहेगी। मेहनत से छूट जायेंगे। यह मेहनत तब लगती है जब बार-बार भूलते हो। फिर याद करने की मेहनत करते हो। भूलो ही क्यों, भूलना चाहिए? बापदादा पूछते हैं - आप हो कौन? साकार हो वा निराकार? निराकार हो ना! निराकार होते हुए भूल क्यों जाते हो! असली स्वरूप भूल जाते और आधार याद रहता! स्वयं पर ही हंसी नहीं आती कि यह क्या करते हैं! अब हंसी आती है ना? असली भूल जाते और नकली चीज़ याद आ जाती? बापदादा को कभी-कभी बच्चों पर आश्चर्य भी लगता है। अपने आपको भूल जाते और भूलकर फिर क्या करते? अपने आपको भूल हैरान होते हैं। जैसे बाप को स्नेह से निराकार से साकार में आह्वान कर ला सकते हो तो जिससे स्नेह है उस जैसे निराकार स्थिति में स्थित नहीं हो सकते हो! बापदादा बच्चों की मेहनत देख नहीं सकते हैं! मास्टर सर्वशक्तिवान और मेहनत? मास्टर सर्वशक्तिवान सर्व शक्तियों के मालिक हो। जिस शक्ति को जिस भी समय शुभ संकल्प से आह्वान करो वह शक्ति आप मालिक के आगे हाजर है। ऐसे मालिक, जिसकी सर्व शक्तियाँ सेवाधारी हैं, वह मेहनत करेगा वा शुभ संकल्प का आर्डर करेगा? क्या करेगा, राजे हो ना कि प्रजा हो? वैसे भी जो योग्य बच्चा होता है उसको क्या कहते हैं? राजा बच्चे कहते हैं ना। तो आप कौन हो? राजा बच्चे हो कि अधीन बच्चे हो? अधिकारी आत्मायें हो ना। तो यह शक्तियाँ, यह गुण यह सब आपके सेवाधारी हैं, आह्वान करो और हाजर। जो कमज़ोर होता है वह शक्तिशाली शस्त्र होते हुए भी कमज़ोरी के कारण हार जाते हैं। आप कमज़ोर हो क्या? बहादुर बच्चे हो ना! सर्वशक्तिवान के बच्चे कमज़ोर हों तो सब लोग क्या कहेंगे? अच्छा लगेगा? तो आह्वान करना, आर्डर करना सीखो। लेकिन सेवाधारी आर्डर किसका मानेगा? जो मालिक होगा। मालिक स्वयं सेवाधारी बन गये, मेहनत करने वाले तो सेवाधारी हो गये ना। मन की मेहनत से अब छूट गये! शरीर के मेहनत की यज्ञ सेवा अलग बात है। वह भी यज्ञ सेवा के महत्व को जानने से मेहनत नहीं लगती है। जब मधुबन में सम्पर्क वाली आत्मायें आती हैं और देखती हैं इतनी संख्या की आत्माओं का भोजन बनता है और सब कार्य होता है तो देख-देख कर समझती हैं यह इतना हार्डवर्क कैसे करते हैं! उन्हों को बड़ा आश्चर्य लगता है। इतना बड़ा कार्य कैसे हो रहा है! लेकिन करने वाले ऐसे बड़े कार्य को भी क्या समझते हैं? सेवा के महत्व के कारण यह तो खेल लगता है। मेहनत नहीं लगती। ऐसे महत्व के कारण बाप से मुहब्बत होने के कारण मेहनत का रूप बदल जाता है। ऐसे मन की मेहनत से अब छूटने का समय आ गया है। द्वापर से ढूँढ़ने की, तड़पने की, पुकारने की, मन की मेहनत करते आये हो। मन की मेहनत के कारण धन कमाने की भी मेहनत बढ़ती गई। आज किसे भी पूछो तो क्या कहते हैं? धन कमाना मासी का घर नहीं है। मन की मेहनत से धन की कमाई की भी मेहनत बढ़ा दी। और तन तो बन ही गया रोगी। इसलिए तन के कार्य में भी मेहनत, मन की भी मेहनत, धन की भी मेहनत। सिर्फ इतना ही नहीं लेकिन आज परिवार में प्यार निभाने में भी मेहनत है। कभी एक रूसता है, कभी दूसरा....फिर उसको मनाने की मेहनत में लगे रहते। आज तेरा है, कल तेरा नहीं फेरा आ जाता है। तो सब प्रकार की मेहनत करके थक गये थे ना। तन से, मन से, धन से, सम्बन्ध से, सबसे थक गये।
बापदादा पहले मन की मेहनत समाप्त कर देते। क्योंकि बीज है - ‘मन’। मन की मेहनत तन की, धन की मेहनत अनुभव कराती है। जब मन ठीक नहीं होगा तो कोई कार्य होगा तो कहेंगे आज यह होता नहीं। बीमार होगा नहीं लेकिन समझेगा मुझे 1030 बुखार है। तो मन की मेहनत तन की मेहनत अनुभव कराती है। धन में भी ऐसे ही है। मन थोड़ा भी खराब होगा, कहेंगे बहुत काम करना पड़ता है। कमाना बड़ा मुश्किल है। वायुमण्डल खराब है। और जब मन खुश होगा तो कहेंगे कोई बड़ी बात नहीं। काम वही होगा लेकिन मन की मेहनत धन की मेहनत भी अनुभव कराती है। मन की कमज़ोरी वायुमण्डल की कमज़ोरी में लाती है। बापदादा बच्चों के मन की मेहनत नहीं देख सकते। 63 जन्म मेहनत की। अब एक जन्म मौजों का जन्म है, मुहब्बत का जन्म है, प्राप्तियों का जन्म है, वरदानों का जन्म है। मदद लेने का, मदद मिलने का जन्म है। फिर भी इस जन्म में भी मेहनत क्यों? तो अब मेहनत को मुहब्बत में परिवर्तन करो। महत्व से खत्म करो।
आज बापदादा आपस में बहुत चिटचैट कर रहे थे, बच्चों की मेहनत पर। क्या करते हैं, बापदादा मुस्करा रहे थे कि मन की मेहनत का कारण क्या बनता है, क्या करते हैं? टेढ़े बाँके, बच्चे पैदा करते, जिसका कभी मुँह नहीं होता, कभी टांग नहीं, कभी बांह नहीं होती। ऐसे व्यर्थ की वंशावली बहुत पैदा करते हैं और फिर जो रचना की तो क्या करेंगे? उसको पालने के कारण मेहनत करनी पड़ती। ऐसी रचना रचने के कारण ज्यादा मेहनत कर थक जाते हैं और दिलशिकस्त भी हो जाते हैं। बहुत मुश्किल लगता है। है अच्छा लेकिन है बड़ा मुश्किल। छोड़ना भी नहीं चाहते और उड़ना भी नहीं चाहते। तो क्या करना पड़ेगा? चलना पड़ेगा। चलने में तो जरूर मेहनत लगेगी ना। इसलिए अब कमज़ोर रचना बन्द करो तो मन की मेहनत से छूट जायेंगें। फिर हँसी की बात क्या कहते हैं? बाप कहते यह रचना क्यों करते, तो जैसे आजकल के लोग कहते हैं ना - क्या करें ईश्वर दे देता है। दोष सारा ईश्वर पर लगाते हैं, ऐसे यह व्यर्थ रचना पर क्या कहते? हम चाहते नहीं हैं लेकिन माया आ जाती है। हमारी चाहना नहीं है लेकिन हो जाता है। इसलिए सर्वशक्तिवान बाप के बच्चे मालिक बनो। राजा बनो। कमज़ोर अर्थात् अधीन प्रजा। मालिक अर्थात् शक्तिशाली राजा। तो आह्वान करो मालिक बन करके। स्वस्थिति के श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठो। सिंहासन पर बैठ के शक्ति रूपी सेवाधारियों का आह्वान करो। आर्डर दो। हो नहीं सकता कि आपके सेवाधारी आपके आर्डर पर न चलें। फिर ऐसे नहीं कहेंगे क्या करें सहन शक्ति न होने के कारण मेहनत करनी पड़ती है। समाने की शक्ति कम थी इसलिए ऐसा हुआ। आपके सेवाधारी समय पर कार्य में न आवें तो सेवाधारी क्या हुए? कार्य पूरा हो जाए फिर सेवाधारी आवें तो क्या होगा! जिसको स्वयं समय का महत्व है उसके सेवाधारी भी समय पर महत्व जान हाजर होंगे। अगर कोई भी शक्ति वा गुण समय पर इमर्ज नहीं होता है तो इससे सिद्ध है कि मालिक को समय का महत्व नहीं है। क्या करना चाहिए? सिंहासन पर बैठना अच्छा या मेहनत करना अच्छा? अभी इसमें समय देने की आवश्यकता नहीं है। मेहनत करना ठीक लगता या मालिक बनना ठीक लगता? क्या अच्छा लगता है? सुनाया ना - इसके लिए सिर्फ यह एक अभ्यास सदा करते रहो -’’निराकार सो साकार के आधार से यह कार्य कर रहा हूँ।’’ करावनहार बन कर्मेन्द्रियों से कराओ। अपने निराकारी वास्तविक स्वरूप को स्मृति में रखेंगे तो वास्तविक स्वरूप के गुण शक्तियाँ स्वत: ही इमर्ज होंगे। जैसा स्वरूप होता है वैसे गुण और शक्तियाँ स्वत: ही कर्म में आते हैं। जैसे कन्या जब माँ बन जाती है तो माँ के स्वरूप में सेवा भाव, त्याग, स्नेह, अथक सेवा आदि गुण और शक्तियाँ स्वत: ही इमर्ज होती हैं ना। तो अनादि अविनाशी स्वरूप याद रहने से स्वत: ही यह गुण और शक्तियाँ इमर्ज होंगे। स्वरूप स्मृति स्थिति को स्वत: ही बनाता है। समझा क्या करना है! मेहनत शब्द को जीवन से समाप्त कर दो। मुश्किल मेहनत के कारण लगता है। मेहनत समाप्त तो मुश्किल शब्द भी स्वत: ही समाप्त हो जायेगा। अच्छा –
सदा मुश्किल को सहज करने वाले, मेहनत को मुहब्बत में बदलने वाले, सदा स्व-स्वरूप की स्मृति द्वारा श्रेष्ठ शक्तियों और गुणों को अनुभव करने वाले, सदा बाप को स्नेह का रेसपाण्ड देने वाले, बाप समान बनने वाले, सदा श्रेष्ठ स्मृति के श्रेष्ठ आसन पर स्थित हो मालिक बन सेवाधारियों द्वारा कार्य कराने वाले, ऐसे राजे बच्चों को, मालिक बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।’’
पर्सनल मुलाकात - (विदेशी भाई-बहनों से) (1) सेवा, बाप के साथ का अनुभव कराती है। सेवा पर जाना माना सदा बाप के साथ रहना। चाहे साकार रूप में रहें, चाहे आकार रूप में। लेकिन सेवाधारी बच्चों के साथ, बाप सदा साथ है ही है। करावनहार करा रहा है, चलाने वाला चला रहा है और स्वयं क्या करते हैं? निमित्त बन खेल खेलते रहते हैं। ऐसे ही अनुभव होता है ना? ऐसे सेवाधारी सफलता के अधिकारी बन जाते हैं। सफलता जन्म-सिद्ध अधिकार है, सफलता सदा ही महान पुण्यात्मा बनने का अनुभव कराती है। महान पुण्य आत्मा बनने वालों को अनेक आत्माओं की आशीर्वाद की लिफ्ट मिलती है। अच्छा –
अभी तो वह भी दिन आना ही है जब सबके मुख से - ‘‘एक हैं, एक ही हैं’’ यह गीत निकलेंगे। बस ड्रामा का यही पार्ट रहा हुआ है। यह हुआ और समाप्ति हुई। अब इस पार्ट को समीप लाना है। इसके लिए अनुभव कराना ही विशेष आकर्षण का साधन है। ज्ञान सुनाते जाओ और अनुभव कराते जाओ। ज्ञान सिर्फ सुनने से सन्तुष्ट नहीं होते लेकिन ज्ञान सुनाते हुए अनुभव भी कराते जाओ तो ज्ञान का भी महत्व है और प्राप्ति के कारण आगे उत्साह में भी आ जाते हैं। उन सबके भाषण तो सिर्फ नॉलेजफुल होते हैं। आप लोगों के भाषण सि्ार्फ नॉलेजफुल नहीं हों लेकिन अनुभव की अथॉरिटी वाले हों। और अनुभवों की अथॉरिटी से बोलते हुए अनुभव कराते जाओ। जैसे कोई-कोई जो अच्छे स्पीकर होते हैं, वह बोलते हुए रूला भी देते हैं, हँसा भी देते हैं। शान्ति में, साइलेन्स में भी ले जायेंगे। जैसी बात करेंगे वैसा वायुमण्डल हाल का बना देते हैं। वह तो हुए टैम्प्रेरी। जब वह कर सकते हैं तो आप मास्टर सर्वशक्तिवान क्या नहीं कर सकते। कोई ‘‘शान्ति’’ बोले तो शान्ति का वातावरण हो, ‘‘आनन्द’’ बोले तो आनन्द का वातवरण हो। ऐसे अनुभूति कराने वाले भाषण, प्रत्यक्षता का झण्डा लहरायेंगे। कोई तो विशेषता देखेंगे ना। अच्छा - समय स्वत: ही शक्तियाँ भर रहा है। हुआ ही पड़ा है, सिर्फ रिपीट करना है।
यू.के.ग्रुप से - सदा अपने को सिकीलधे समझते हो ना। सदा बाप के सिक व प्रेम का विशेष अनुभव होता है ना! जिस सिक व प्रेम से बाप ने अपना बनाया ऐसे सिक व प्रेम से आपने भी बाप को अपना बनाया है ना! दोनों का स्नेह का अविनाशी पक्का सौदा हो गया। ऐसे सौदा करने वाले सौदागर वा व्यापारी हो ना! ऐसा सौदा सारी दुनिया में कोई कर नहीं सकता। कितना सहज सौदा है। दो शब्दों का सौदा है लेकिन है अमर। दो शब्द कौन से हैं? आपने कहा ‘तेरा’ और बाप ने कहा ‘मेरा’। बस सौदा हो गया। तेरा और मेरा इन दो शब्दों में अविनाशी सौदा हो गया। और कुछ देना नहीं पड़ता। देना भी न पड़े और सौदा भी बढ़िया हो जाएँ तो और क्या चाहिए! सब कुछ मिल गया है ना। ऐसे समझा था कि घर बैठे इतना सहज सौदा भगवान से करेंगे। सोचा था! तो जो संकल्प में भी नहीं था वह प्रैक्टिकल कर्म में हो गया। यह खुशी है ना? सबसे ज्यादा खुशी किसको है? विशेषता यही है जो हरेक कहता - हमें ज्यादा खुशी है। पहले मैं। ऐसे नहीं इन्हें है हमें नहीं। यह भी रेस है, ईर्ष्या नहीं। इसमें हरेक एक दो से आगे बढ़ो। चांस है आगे बढ़ने का। जितना आगे बढ़ने चाहो उतना बढ़ सकते हो। तो सब पक्के सौदागर बनो। कच्चा सौदा करेंगे तो नुकसान अपने को ही करेंगे।
सदा स्वयं को समाया हुआ अनुभव करते हो? बाप के नयनों में, दिल में समाया हुआ। जो समाये रहते हैं वह दुनिया से पार रहते हैं। उन्हें अनुभव होता कि बाप ही सारी दुनिया है। स्वप्न में भी पुरानी दुनिया की आकर्षण आकर्षित नहीं कर सकती है। ऐसे समाये हुए को किसी भी बात में मुश्किल का अनुभव नहीं हो सकता। वह दुनिया से खोया हुआ है। अविनाशी सर्व प्राप्ति प्राप्त किया हुआ है। सदा दिल में एक ही दिलाराम रहता, ऐसी समाई हुई आत्मा सदा सफल है ही।
फ्रांस के भाई-बहिनों से - सदा अपने को शक्तिशाली आत्मा समझकर आगे बढ़ना और औरों को आगे बढ़ाना - यही लक्ष्य है ना। बापदादा हर बच्चे को विशेष आत्मा के रूप में देखते हैं। ऐसे ही आप सभी अपनी विशेषताओं को जान, विशेषता को कार्य में लगाए आगे बढ़ रहे हो ना? सारे विश्व में से कितनी आत्मायें बाप की बनी हैं! विशेष हो तब कोटों में कोई, कोई में कोई आत्मा बाप की बनी हो। बापदादा ऐसी विशेषता सम्पन्न आत्माओं में श्रेष्ठ आशायें रखते हैं - बापदादा सदा बच्चों को स्वउन्नति और सेवा की उन्नति में आगे देखते हैं। सदा बाप मेरे द्वारा क्या चाहते हैं-यह याद रखो तो बाप और सेवा सदा सामने रहेगी। और बाप तथा सेवा सामने रहने से सफलता है ही। बापदादा बच्चों के दिल की बातें रोज सुनाते हैं, और दिल का रेसपाण्ड दिल वालों को मिलता भी है और मिलता भी रहेगा।
ब्राजील - जितना देश के हिसाब से दूर है उतना दिल से समीप है। सबसे समीप ते समीप रहने वाले अर्थात् सदा दिलतख्तनशीन। जो अभी दिलख्तनशीन हैं वह जन्म-जन्म तख्तनशीन आत्मा बन जाते हैं। ऐसे अधिकारी हो ना! जब जान लिया कि ऐसा बाप, ऐसी प्राप्ति सारे कल्प में कभी नहीं हो सकती, अभी होती है तो अपने को सदाकाल के लिए अधिकारी आत्मा समझ आगे बढ़ते रहेंगे। सदा दिलतख्तनशीन हैं अर्थात् याद में समाये हुए हैं। दिल में समाये हुए माना कभी बाप से अलग नहीं हो सकते। जितना बच्चे याद करते हैं उससे पद्मगुणा बाप रिटर्न में याद करते हैं। बच्चों को याद के रिटर्न में स्नेह, सहयोग देते रहते हैं। जो सदा बाप की याद के साजों में बिजी रहते हैं वह माया के साजों से फ्री हो जाते हैं। जो नॉलेजफुल हैं वह कभी फेल नहीं हो सकते हैं।
विदाई के समय दादी जानकी जी से बापदादा की मुलाकात - देख-देख हर्षित होती रहती हो! सबसे ज्यादा खुशी अनन्य बच्चों को है ना! जो सदा ही खुशियों के सागर में लहराते रहते हैं। सुख के सागर में, सर्व प्राप्तियों के सागर में लहराते ही रहते हैं, वह दूसरों को भी उसी सागर में लहराते हैं। सारा दिन क्या काम करती हो? जैसे कोई को सागर में नहाना नहीं आता है तो क्या करते? हाथ पकड़कर नहलाते हैं ना! यही काम करती हो, सुख में लहराओ, खुशी में लहराओ...ऐसे करती रहती हो ना! बिजी रहने का कार्य अच्छा मिल गया है। कितना बिजी रहती हो? फुर्सत है? इसी में सदा बिजी हैं, तो दूसरे भी देख फॉलो करते हैं। बस, याद और सेवा के सिवाए और कुछ दिखाई नहीं देता। आटोमेटिकली बुद्धि याद और सेवा में ही जाती है और कहाँ जा नहीं सकती। चलाना नहीं पड़ता, चलती ही रहती है। इसको कहते हैं - सीखे हुए सिखा रहे हैं। अच्छा काम दे दिया है ना। बाप होशियार बनाकर गये हैं ना। ढीलाढाला तो नहीं छोड़कर गये। होशियार बनाकर, जगह देकर गये हैं। साथ तो हैं ही लेकिन निमि्ींत्त तो बनाया ना। होशियार बनाकर सीट दिया है। यहाँ से ही सीट देने की रस्म शुरू हुई है। बाप सेवा का तख्त वा सेवा की सीट देकर आगे बढ़े, अभी साक्षी होकर देख रहे हैं, कैसे बच्चे आगे से आगे बढ़ रहे हैं। साथ का साथ भी है, साक्षी का साक्षी भी। दोनों ही पार्ट बजा रहे हैं। साकार रूप में साक्षी कहेंगे, अव्यक्त रूप में साथी कहेंगे। दोनों ही पार्ट बजा रहे हैं। अच्छा-
18-03-85 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
सन्तुष्टता
दिलवाला बापदादा अपने दिलतख्तनशीन बच्चों प्रति बोले
आज दिलवाला बाप अपने स्नेही दिलतख्तनशीन बच्चों से दिल की रूह- रूहान करने आये हैं। दिलवाला अपने सच्ची दिल वालों से दिल की लेन-देन करने, दिल का हाल-चाल सुनने के लिए आये हैं। रूहानी बाप रूहों से रूह- रूहान करते हैं। यह रूहों की रूह-रूहान सिर्फ इस समय ही अनुभव कर सकते हो। आप रूहों में इतनी स्नेह की शक्ति है जो रूहों के रचयिता बाप को रूह- रूहान के लिए निर्वाण से वाणी में ले आते हो। ऐसी श्रेष्ठ रूह हो जो बन्धनमुक्त बाप को भी स्नेह के बन्धन में बांध देते हो। दुनिया वाले बन्धन से छुड़ाने वाले कह कर पुकार रहे हैं और ऐसे बन्धनमुक्त बाप बच्चों के स्नेह के बन्धन में सदा बंधे हुए हैं। बाँधने में होशियार हो। जब भी याद करते हो तो बाप हाजर है ना! हजूर हाजर है। तो आप विशेष डबल विदेशी बच्चों से रूह-रूहान करने आये हैं। अभी सीजन में विशेष टर्न भी डबल विदेशियों का है। मैजारिटी डबल विदेशी ही आये हुए हैं। मधुबन निवासी तो हैं ही मधुबन के श्रेष्ठ स्थान निवासी। एक ही स्थान पर बैठे हुए विश्व की वैराइटी आत्माओं का मिलन मेला देखने वाले हैं। जो आते हैं वह जाते हैं लेकिन मधुबन निवासी तो सदा रहते हैं।
आज विशेष डबल विदेशी बच्चों से पूछ रहे हैं कि सभी सन्तुष्ट मणियाँ बन बापदादा के ताज में चमक रहे हो? सभी सन्तुष्ट मणियाँ हो? सदा सन्तुष्ट हो? कभी स्वयं से असन्तुष्ट वा कभी ब्राह्मण आत्माओं से असन्तुष्ट वा कभी अपने संस्कारों से असंतुष्ट वा कभी वायुमण्डल के प्रभाव से असन्तुष्ट तो नहीं होते हो ना! सदा सब बातों से संतुष्ट हैं? कभी सन्तुष्ट, कभी असन्तुष्ट को सन्तुष्टमणि कहेंगे? आप सबने कहा ना कि हम सन्तुष्टमणि हैं। फिर ऐसे तो नहीं कहेंगे कि हम तो सन्तुष्ट हैं लेकिन दूसरे असन्तुष्ट करते हैं। कुछ भी हो जाए लेकिन जो सन्तुष्ट आत्मायें हैं वह कब भी अपनी सन्तुष्टता की विशेषता को छोड़ नहीं सकते हैं। ‘सन्तुष्टता’ - ब्राह्मण जीवन का विशेष गुण कहो या खजाना कहो या विशेष जीवन का शृंगार है। जैसे कोई प्रिय वस्तु होती है तो प्रिय वस्तु को कभी छोड़ते नहीं हैं। सन्तुष्टता विशेषता है। सन्तुष्टता ब्राह्मण जीवन का विशेष परिवर्तन का दर्पण है। साधारण जीवन और ब्राह्मण जीवन। साधारण जीवन अर्थात् कभी सन्तुष्ट कभी असन्तुष्ट। ब्राह्मण जीवन में सन्तुष्टता की विशेषता को देख अज्ञानी भी प्रभावित होते हैं। यह परिवर्तन अनेक आत्माओं का परिवर्तन करने के निमित्त बन जाता है। सभी के मुख से यही निकलता कि यह ‘सदा सन्तुष्ट अर्थात् खुश रहते हैं।’ जहाँ सन्तुष्टता है वहाँ खुशी जरूर है। असन्तुष्टता खुशी को गायब करती है। यही ब्राह्मण जीवन की महिमा है। सदा सन्तुष्टता नहीं तो साधारण जीवन है। सन्तुष्टता सफलता का सहज आधार है। सन्तुष्टता सर्व ब्राह्मण परिवार के स्नेही बनाने में श्रेष्ठ साधन है। जो सन्तुष्ट रहेगा उसके प्रति स्वत: ही सभी का स्नेह रहेगा। सन्तुष्ट आत्मा को सदा सभी स्वयं ही समीप लाने वा हर श्रेष्ठ कार्य में सहयोगी बनाने का प्रयत्न करेंगे। उन्हों को मेहनत नहीं करनी पड़ेगी कि मुझे समीप लाओ। मुझे सहयोगी बनाओ। या मुझे विशेष आत्माओं की लिस्ट में लाओ। सोचना भी नहीं पड़ेगा। कहना भी नहीं पड़ेगा। सन्तुष्टता की विशेषता स्वयं ही हर कार्य में गोल्डन चांसलर बना देती है। स्वत: ही कार्य अर्थ निमित्त बनी हुई आत्माओं को संतुष्ट आत्मा के प्रति संकल्प आवेगा ही। आैर चांस मिलता ही रहेगा। संतुष्टता सदा सर्व के स्वभाव संस्कार को मिलाने वाली होती है। सन्तुष्ट आत्मा कभी किसी के भी स्वभाव संस्कार से घबराने वाली नहीं होती है। ऐसी सन्तुष्ट आत्मायें बनी हो ना! जैसे भगवान आपके पास आया आप नहीं गये। भाग्य स्वयं आपके पास आया। घर बैठे भगवान मिला। भाग्य मिला। घर बैठे सर्व खजानों की चाबी मिली। जब चाहो जो चाहो खजाने आपके हैं। क्योंकि अधिकारी बन गये हो ना। तो ऐसे सर्व के समीप आने का, सेवा में समीप आने का चांस भी स्वत: ही मिलता है। विशेषता स्वयं ही आगे बढ़ाती है। जो सदा सन्तुष्ट रहता है उससे सभी का स्वत: ही दिल का प्यार होता है। बाहर का प्यार नहीं। एक होता है - किसी को राजी करने के लिए बाहर का प्यार करना। एक होता है - दिल का प्यार। नाराज़ न हो उसके लिए भी प्यार करना पड़ता है। लेकिन वह प्यार को सदा लेने का पात्र नहीं बनता। सन्तुष्ट आत्मा को सदा सभी का दिल का प्यार मिलता है। चाहे कोई नया हो वा पुराना हो, कोई किसको परिचय के रूप से जानता हो या नहीं जानता हो लेकिन सन्तुष्टता उस आत्मा की पहचान दिलाती है। हर एक की दिल होगी इससे बातें करें, इससे बैठें। तो ऐसे सन्तुष्ट हो? पक्के हो ना! ऐसे तो नहीं कहते - बन रहे हैं। नहीं! बन गये हैं।
सन्तुष्ट आत्मायें सदा मायाजीत हैं ही। यह मायाजीत वालों की सभा है ना। माया से घबराने वाले तो नहीं हैं ना। माया आती किसके पास है? सभी के पास आती तो है ना! ऐसा कोई है जो कहे माया आती ही नहीं? आती सबके पास है लेकिन कोई घबराता है कोई पहचान लेता है इसलिए संभल जाता है। मर्यादा की लकीर के अन्दर रहने वाले बाप के आज्ञाकारी बच्चे माया को दूर से ही पहचान लेते हैं। पहचानने में देरी करते हैं, वा गलती करते हैं तब माया से घबरा जाते हैं। जैसे यादगार में कहानी सुनी है - सीता ने धोखा क्यों खाया? क्योंकि पहचाना नहीं। माया के स्वरूप को न पहचानने कारण धोखा खाया। अगर पहचान लें कि यह ब्राह्मण नहीं, भिखारी नहीं, रावण है तो शोक वाटिका का इतना अनुभव नहीं करना पड़ता। लेकिन पहचान देरी से आई तब धोखा खाया और धोखे के कारण दुःख उठाना पड़ा। योगी से वियोगी बन गई। सदा साथ रहने से दूर हो गई। प्राप्ति स्वरूप आत्मा से पुकारने वाली आत्मा बन गई। कारण? पहचान कम। माया के रूप को पहचानने की शक्ति कम होने कारण माया को भगाने के बजाए स्वयं घबरा जाते हैं। पहचान कम क्यों होती है, समय पर पहचान नहीं आती, पीछे क्यों आती। इसका कारण? क्योंकि सदा बाप की श्रेष्ठ मत पर नहीं चलते। कोई समय याद करते हैं, कोई समय नहीं। कोई समय उमंग-उत्साह में रहते, कोई समय नहीं रहते। जो सदा की आज्ञा को उल्लंघन करते अर्थात् आज्ञा की लकीर के अन्दर नहीं रहने के कारण माया समय पर धोखा दे देती हैं। माया में परखने की शक्ति बहुत है। माया देखती है कि इस समय यह कमज़ोर है। तो इस प्रकार की कमज़ोरी द्वारा इसको अपना बना सकते हैं। माया के आने का रास्ता है ही - कमज़ोरी। जरा-सा भी रास्ता मिला तो झट पहुँच जाती है। जैसे आजकल डाकू क्या करते हैं! दरवाजा भले बन्द हो लेकिन वेन्टीलेटर से भी आ जाते हैं। जरा-सा संकल्प मात्र भी कमज़ोर होना अर्थात् माया को रास्ता देना है। इसलिए मायाजीत बनने का बहुत सहज साधन है - ‘सदा बाप के साथ रहो।’ साथ रहना अर्थात् स्वत: ही मर्यादाओं की लकीर के अन्दर रहना। एक-एक विकार के पीछे विजयी बनने की मेहनत करने से छूट जायेंगे। साथ रहो तो स्वत: ही जैसे बाप वैसे आप। संग का रंग स्वत: ही लग जायेगा। बीज को छोड़ सिर्फ शाखाओं को काटने की मेहनत नहीं करो। आज काम जीत बन गये, कल क्रोध जीत बन गये, नहीं। हैं ही सदा विजयी! जब बीजरूप द्वारा बीज को खत्म कर देंगे तो बार-बार मेहनत करने से स्वत: ही छूट जायेंगे। सिर्फ बीजरूप को साथ रखो। फिर यह माया का बीज ऐसा भस्म हो जायेगा जो फिर कभी भी उस बीज से अंश भी नहीं निकल सकता। वैसे भी आग में जले हुए बीज से कभी फल नहीं निकल सकता।
तो साथ रहो, सन्तुष्ट रहो तो माया क्या करेगी! सरेण्डर हो जायेगी। माया को सरेण्डर करना नहीं आता है? अगर स्वयं सरेण्डर हैं तो माया उसके आगे सरेण्डर है ही। तो माया को सरेण्डर किया है या अभी तैयारी कर रहे हो? क्या हाल-चाल है? जैसे अपने सरेण्डर होने की सेरीमनी मनाते हो वैसे माया को सरेण्डर करने की सेरीमनी मना ली है या मनानी है? होली हो गये माना सेरीमनी हो गई, जल गई। फिर वहाँ जा करके ऐसे तो पत्र नहीं लिखेंगे कि क्या करें, माया आ गई। खुशखबरी के पत्र लिखेंगे ना। कितनी सरेण्डर सेरीमनी मनाई है, हमारी तो हो गई लेकिन और आत्माओं द्वारा भी माया को सरेण्डर कराया। ऐसे समाचार लिखेंगे ना! अच्छा –
जितने उमंग-उत्साह से आये हो उतना ही बापदादा भी सदा बच्चों को ऐसे उमंग-उत्साह से संतुष्ट आत्मा के रूप में देखने चाहते हैं। लगन तो है ही। लगन की निशानी है - जो इतना दूर से समीप पहुँच गये हो। दिन रात लगन से दिन गिनते-गिनते यहाँ पहुँच गये। लगन न होती तो पहुँचना भी मुश्किल होता। लगन है इसमें तो पास हो। पास सर्टिफिकेट मिल गया ना। हर सबजेक्ट में पास। फिर भी बापदादा बच्चों को आफरीन देते हैं। क्योंकि पहचानने की नजर तेज है। दूर रहते भी बाप को पहचान लिया। साथ अर्थात् देश में रहने वाले नहीं पहचान सकते। लेकिन आप लोग दूर बैठे भी पहचान गये। पहचान कर बाप को अपना बनाया वा बाप के बने। इसके लिए बापदादा विशेष आफरीन देते हैं। तो जैसे पहचानने में आगे गये वैसे मायाजीत बनने में भी नम्बरवन बन सदा बाप की आफरीन लेने के योग्य अवश्य बनेंगे। जो बापदादा कोई भी माया से घबराने वाली आत्मा को आपके पास भेजें कि इन बच्चों से जा करके मायाजीत बनने का अनुभव पूछो। ऐसा एक्जाम्पल बनकर दिखाओ। जैसे मोहजीत परिवार प्रसिद्ध है वैसे मायाजीत सेन्टर प्रसिद्ध हो! यह ऐसा सेन्टर है जहाँ माया का कब वार नहीं होता। आना और बात है वार करना और बात है। तो इसमें भी नम्बर लेने वाले हो ना। इसमें नम्बरवन कौन बनेगा? लंदन, आस्ट्रेलिया बनेगा वा अमेरिका बनेगा? पैरिस बनेगा, जर्मन बनेगा, ब्राजील बनेगा, कौन बनेगा? जो भी बनें। बापदादा ऐसे चैतन्य म्युजयम एनाउन्स करेंगे। जैसे आबू का म्युजयम नम्बरवन कहते हैं। सेवा में भी तो सजावट में भी। ऐसे मायाजीत बच्चों का चैतन्य म्युजयम हो। हिम्मत है ना? उसके लिए अभी कितना समय चाहिए? गोल्डन जुबली में भी उनको इनाम देंगे जो पहले ही कुछ करके दिखायेंगे ना। लास्ट सो फास्ट हो दिखाओ। भारत वाले भी रेस करें। लेकिन आप उनसे भी आगे जाओ। बापदादा सभी को आगे जाने का चांस दे रहे हैं। 8 नम्बर में आ जाओ। आठ को ही इनाम मिलेगा। ऐसे नहीं सिर्फ एक को मिलेगा। यह तो नहीं सोचते हो - लंदन और आस्ट्रेलिया तो पुराने हैं, हम तो अभी नये-नये हैं। सबसे छोटा नया कौन सा सेन्टर है? सबसे छोटा जो होता है वह सभी को प्यारा होता है। वैसे भी छोटों को कहा जाता है - बड़े तो बड़े हैं लेकिन छोटे बाप समान हैं। सभी कर सकते हैं। कोई बड़ी बात नहीं। ग्रीस, टैम्पा, रोम यह छोटे हैं। यह तो बड़े उमंग में रहने वाले हैं। टैम्पा क्या करेगा? टेम्पल बनायेगा? वह रमणीक बच्ची आई थी ना-उनको कहा था कि टैम्पा को टेम्पल बनाओ। जो भी टैम्पा में आवे तो हर एक चैतन्य मूर्ति को देख हर्षित हो। आप शक्तिशाली तैयार हो जाओ। सिर्फ आप राजे तैयार हो जाओ फिर प्रजा झट बनेगी। रॉयल फैमली बनने में टाइम लगता है। यह रॉयल फैमली, राजधानी बन रही है फिर प्रजा तो ढेर आ जायेगी। इतनी आ जायेगी जो आप देख-देख तंग हो जायेंगे। कहेंगे बाबा अब बस करो लेकिन पहले राज्य अधिकारी तख्तनशीन तो बन जाएँ ना। ताजधारी तिलकधारी बन जाएँ तब तो प्रजा भी जी हजूर कहेगी। ताजधारी होगा नहीं तो प्रजा कैसे मानेगी कि यह राजा है। रॉयल फेमली बनने में टाइम लगता है। आप अच्छे समय पर पहुँचे हो जो रायल फैमली में आने के अधिकारी हो। अभी प्रजा का समय आने वाला है। राजा बनने की निशानी जानते हो ना? अभी से स्वराज्य अधिकारी विश्व राज्य अधिकारी बन जाओ। अभी से राज्य अधिकारी बनने वालों के समीप और सहयोगी बनने वाले वहाँ भी समीप और राज्य चलाने में सहयोगी बनेंगे। अभी सेवा में सहयोगी फिर राज्य चलाने में सहयोगी। तो अभी से चेक करो। राजे हैं या कभी राजा कभी प्रजा बन जाते! कभी अधीन कभी अधिकारी। सदा के राजे हो? तो कितने आप लकी हो? यह नहीं सोचना - हम तो पीछे आये हैं। वह पीछे आने वालों को सोचना पड़ेगा। आप अच्छे समय पर पहुँच गये हो। इसलिए लकी हो। यह नहीं सोचना हम पीछे आये हैं, राजा बन सकेंगे वा नहीं। रॉयल फेमली में आ सकेंगे वा नहीं। सदा यह सोचो हम नहीं आयेगे तो कौन आयेंगे? आना ही है, पता नहीं यह कर सकेंगे वा नहीं। पता नहीं यह होगा वा क्या....नहीं। पता है कि हमने हर कल्प किया है। कर रहे हैं और सदा करेंगे। समझा!
कभी यह भी नहीं सोचना हम विदेशी हैं, यह देशी हैं। यह इण्डियन हैं, हम फॉरेनर हैं। हमारा तरीका अपना, इन्हों का अपना। यह तो सिर्फ परिचय के लिए डबल विदेशी कहते हैं। जैसे यहाँ भी कहते यह कर्नाटक वाले हैं, यह यू.पी. वाले हैं। हो तो ब्राह्मण ना! चाहे इण्डियन हों, चाहे विदेशी हों, सभी ब्राह्मण हैं। हम विदेशी हैं यह सोचना ही रांग है। नया जन्म तो ब्रह्मा की गोदी में हुआ ना। यह सिर्फ परिचय के लिए कहा जाता। लेकिन संस्कार में वा समझने में कभी भी अन्तर नहीं समझना। ब्राह्मण वंश के हो ना! अमेरिका, अफ्रीका वंश के तो नहीं हो ना। सभी का परिचय क्या देंगे। शिव वंशी ब्रह्माकुमार-कुमारियाँ। एक ही वंश हो गया ना। कभी भी बोलने में फर्क नहीं रखो। इण्डियन ऐसे करते, विदेशी ऐसे करते, नहीं। हम एक हैं। बाप एक है। रास्ता एक है। रीति-रस्म एक है। स्वभाव संस्कार एक हैं। फिर देशी और विदेशी अन्तर कहाँ से आया? अपने को विदेशी कहने से दूर हो जायेंगे। हम ब्रह्मा वंशी सब ब्राह्मण हैं। हम विदेशी हैं, हम गुजराती हैं...इसलिए यह होता है। नहीं, सब एक बाप के हैं। यही तो विशेषता है जो भिन्न-भिन्न संस्कार मिलकर एक हो गये हैं। भिन्न-भिन्न धर्म, भिन्न-भिन्न जाति-पांति सब समाप्त हो गया। एक के हो गये अर्थात् एक हो गये। समझा!
रूह-रूहान हुई ना। बापदादा को यह रौनक अच्छी लगती है। मधुबन की रौनक है ना! घर की रौनक सदा बच्चे होते। कितनी अच्छी रौनक हो! मधुबन आप लोगों से सज गया है। एक विशेषता बहुत अच्छी है! सेवा में बहुत अच्छी लगन है। पढ़ाई में भी हैं लेकिन इसमें कोई कोई थोड़े अलबेले हैं। सेवा की लगन में मैजारिटी अच्छे हैं। और सेवा की लगन ही निर्विघ्न बना रही है। बिजी रहने के कारण अनेक प्रकार की माया से छूट गये हो। जो भी आये हैं, लगन वाले हैं। अगले वर्षों से इस वर्ष की रिजल्ट अच्छी है। सेवा की वृद्धि का रिकार्ड भी अच्छा है। अनुभवी आत्मायें लगती हो। अनुभवी जल्दी हलचल में नहीं आते। अनुभवी न होने के कारण ऊँचे भी जल्दी जायेंगे, नीचे भी जल्दी आयेंगे। लेकिन इस वर्ष मैजारटी की रिजल्ट निर्विघ्न अच्छी है। अब बाकी मायाजीत बनने में नम्बर लेना है। अच्छा –
सदा सन्तुष्टता की विशेषता वाली विशेष आत्माओं को, सदा सन्तुष्टता द्वारा सेवा में सफलता पाने वाले बच्चों को, सदा राज्य अधिकारी सो विश्व-राज्य अधिकारी श्रेष्ठ आत्माओं को, सदा निश्चय द्वारा हर कार्य में नम्बरवन बनने वाले बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।’’
विदेशी भाई-बहिनों से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात - (1) सदा अपने को बाप समान मास्टर सर्वशक्तिवान अनुभव करते हो? जैसा बाप वैसे बच्चे हैं ना! सर्वशक्तियों का वर्सा बच्चों का अधिकार है। तो जब भी जिस शक्ति को जिस रूप से कार्य में लगाने चाहो वैसे लगा सकते हो! मास्टर सर्वशक्तिवान की स्मृति शक्तियों को इमर्ज करती है। जिस समय जिस शक्ति की आवश्यकता होगी उस समय इस स्मृति से कार्य में लगा सकते हो। ऐसे अनुभव करेंगे जैसे यह शरीर की शक्तियाँ बाहें हैं, पाँव हैं, आँखें हैं... जिस समय जो शक्ति यूज़ करने चाहें वैसे कर सकते हैं, वैसे यह सूक्ष्म शक्तियाँ कार्य में लगा सकते हैं। क्योंकि यह भी अपना अधिकार है। लेकिन इसका अधिकार है मास्टर सर्वशक्तिवान की स्मृति।
(2) सेवा में निमित्त बनना यह भी श्रेष्ठ भाग्य है - इस भाग्य को सदा आगे बढ़ाने के लिए विशेष स्वयं को डबल लाइट समझो। किसी भी प्रकार का बोझ खुशी की अनुभूति सदा नहीं करायेगा। जितना अपने को डबल लाइट अनुभव करेंगे उतना भाग्य पद्मगुणा बढ़ता जायेगा। बापदादा डबल लाइट रहने वाले बच्चों के हर कार्य में मददगार हैं। जितना सेवा में निमित्त बनने का भाग्य मिलता है उतना डबल लाइट स्थिति से उड़ती कला में उड़ने के विशेष अनुभवी बन सकते हो। डबल लाइट स्थिति में रहने से सदा खुशी में नाचते रहेंगे और खुशी के महादानी बन खुशी की खान बढ़ाते रहेंगे।
पत्रों के उत्तर देते हुए:- सभी बच्चों के दिल के यादप्यार के साज़ बापदादा ने सुने। जिस स्नेह से, दिल के उमंग से सभी बच्चों ने यादप्यार भेजी है उसी स्नेह से बापदादा यादप्यार दे रहे हैं। ऐसे स्नेही दिलतख्तनशीन बच्चों को दिलाराम बाप की दिल से यादप्यार स्वीकार हो। सदा ही ऐसे उमंग में रहने से सेफ भी रहेंगे और आगे भी बढ़ते रहेंगे। अच्छा –
21-03-85 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
स्वदर्शन चक्र से विजय चक्र की प्राप्ति
सर्वशक्तिवान, ज्ञानसागर शिवबाबा अपने स्वदर्शन चक्रधारी बच्चों प्रति बोले
आज बापदादा रूहानी सेनापति के रूप में अपनी रूहानी सेना को देख रहे हैं। इस रूहानी सेना में कौन से, कौन से महावीर हैं, कौन से शक्तिशाली शस्त्र धारण किये हुए हैं। जैसे जिस्मानी शस्त्रधारी दिन प्रतिदिन अति सूक्ष्म और तीव्रगति के शक्ति सम्पन्न साधन बनाते जाते हैं, ऐसे रूहानी सेना अति सूक्ष्म शक्तिशाली शस्त्रधारी बनी है? जैसे विनाशकारी आत्माओं ने एक स्थान पर बैठे हुए कितने माइल दूर विनाशकारी रेजज द्वारा विनाश कराने के लिए साधन बना लिए हैं। वहाँ जाने की भी आवश्यकता नहीं। दूर बैठे निशाना लगा सकते हैं। ऐसे रूहानी सेना ‘स्थापनाकारी’ सेना है। वह विनाशकारी, आप स्थापनाकारी हो। वह विनाश के प्लैन सोचते आप नई रचना के, विश्व-परिवर्तन के प्लैन सोचते। स्थापनाकारी सेना, ऐसे तीव्रगति के रूहानी साधन धारण कर लिए है? एक स्थान पर बैठे जहाँ चाहो वहाँ रूहानी याद की रेज (किरणों) द्वारा किसी भी आत्मा को टच कर सकते हो। परिवर्तन शक्ति इतनी तीव्रगति की सेवा करने लिए तैयार है? नॉलेज अर्थात् शक्ति सभी को प्राप्त हो रही है ना। नॉलेज की शक्ति द्वारा ऐसे शक्तिशाली शस्त्रधारी बने हो? महावीर बने हो वा वीर बने हो? विजय का चक्र प्राप्त कर लिया है? जिस्मानी सेना को अनेक प्रकार के चक्र इनाम में मिलते हैं। आप सभी को सफलता का इनाम ‘विजय-चक्र’ मिला है? विजय प्राप्त हुई पड़ी है! ऐसे निश्चय बुद्धि महावीर आत्मायें विजय चक्र के अधिकारी हैं।
बापदादा देख रहे थे कि किसको विजय-चक्र प्राप्त है! स्वदर्शन-चक्र से विजय चक्र प्राप्त करते हो। तो सभी शस्त्रधारी बने हो ना! इन रूहानी शस्त्रों का यादगार स्थूल रूप में आपके यादगार चित्रों में दिखाया है। देवियों के चित्रों में शस्त्रधारी दिखाते हैं ना। पाण्डवों को भी शस्त्रधारी दिखाते हैं ना। यह रूहानी शस्त्र अर्थात् रूहानी शक्तियाँ स्थूल शस्त्र रूप में दिखा दी हैं। वास्तव में सभी बच्चों को बापदादा द्वारा एक ही समय एक जैसी नॉलेज की शक्ति प्राप्त होती है। अलग-अलग नॉलेज नहीं देते फिर भी नम्बरवार क्यों बनते हैं? बापदादा ने कभी किसी को अलग पढ़ाया है क्या? इकठ्ठा ही पढ़ाई पढ़ाते हैं ना। सभी को एक ही पढ़ाई पढ़ाते हैं ना, कि किसी ग्रुप को कोई पढ़ाई पढ़ाते, किसको कोई!
यहाँ 6 मास का गाडली स्टूडेन्ट हो या 50 वर्ष का हो, एक ही क्लास में बैठते हैं। अलग-अलग बैठते हैं क्या? बापदादा एक ही समय एक पढ़ाई और सभी को इकठ्ठा ही पढ़ाता है। अगर कोई पीछे भी आये हैं तो जो पहले पढ़ाई चल चुकी है वही पढ़ाई आप सब अभी भी पढ़ाते रहते हो। जो रिवाइज कोर्स चल रहा है वही आप भी पढ़ रहे हो कि पुरानों का कोर्स अलग है, आपका अलग है? एक ही कोर्स है ना। 40 वर्ष वालों के लिए अलग मुरली और 6 मास वालों के लिए अलग मुरली तो नहीं है ना। एक ही मुरली है ना! पढ़ाई एक, पढ़ाने वाला एक, फिर नम्बरवार क्यों होते? वा सभी नम्बरवन हैं? नम्बर क्यों बनते? क्योंकि पढ़ाई भले सब पढ़ते हैं लेकिन पढ़ाई की अर्थात् ज्ञान की एक-एक बात को शस्त्र वा शक्ति के रूप में धारण करना, और ज्ञान की बात को पाइंट के रूप में धारण करना - इसमें अन्तर हो जाता है। कोई सुनकर सिर्फ पाइंट्स के रूप में बुद्धि में धारण करते हैं। और उन धारण की हुई पाइंट्स का वर्णन भी बहुत अच्छा करते हैं। भाषण करने में कोर्स देने में मैजारिटी होशियार हैं। बापदादा भी बच्चों के भाषण वा कोर्स कराना देख खुश होते हैं। कई बच्चे तो बापदादा से भी अच्छा भाषण करते हैं। पाइंट्स भी बहुत अच्छी वर्णन करते हैं लेकिन अन्तर यह है-ज्ञान को पाइंट्स के रूप में धारण करना और ज्ञान की एक-एक बात को शक्ति के रूप में धारण करना-इसमें अन्तर पड़ जाता है। जैसे ड्रामा की पाइंट्स उठाओ। यह बहुत बड़ा विजय प्राप्त करने का शक्तिशाली शस्त्र है। जिसको ड्रामा के ज्ञान की शक्ति प्रैक्टिकल जीवन में धारण है वह कभी भी हलचल में नहीं आ सकता। सदा एकरस अचल अडोल बनने और बनाने की विशेष शक्ति यह ड्रामा की पाइंट है। शक्ति के रूप में धारण करने वाला कभी हार नहीं खा सकता। लेकिन जो सिर्फ पाइंट के रूप में धारण करते हैं वह क्या करते हैं? ड्रामा की पाइंट वर्णन भी करेंगे। हलचल में भी आ रहे हैं और ड्रामा की पाइंट भी बोल रहे हैं। कभी-कभी आँखों से आँसू भी बहाते जाते हैं! पता नहीं क्या हो गया, पता नहीं क्या है। और ड्रामा की पाइंट भी बोलते जाते हैं। हाँ, विजयी तो बनना ही है। हूँ तो विजयी रत्न। ड्रामा याद है लेकिन पता नहीं क्या हो गया। तो इसको क्या कहेंगे? शक्ति के रूप से, शस्त्र के रूप से धारण किया वा सिर्फ पाइंट के रीति से धारण किया? ऐसे ही आत्मा के प्रति भी कहेंगे - हूँ तो शक्तिशाली आत्मा, सर्व शक्तिवान की बच्ची हूँ लेकिन यह बात बहुत बड़ी है। ऐसी बात कब हमने सोची नहीं थी। कहाँ मास्टर सर्वशक्तिवान आत्मा और कहाँ यह बोल? अच्छे लगते हैं?
तो इसको क्या कहेंगे? तो एक आत्मा का पाठ, परम आत्मा का पाठ, ड्रामा का पाठ, 84 जन्मों का पाठ, कितने पाठ हैं? सभी को शक्ति अर्थात् शस्त्र के रूप में धारण करना अर्थात् विजयी बनना है। सिर्फ पाइंट की रीति से धारण करना तो कभी पाइंट काम करती भी है कभी नहीं करती। फिर भी पाइंट के रूप में भी धारण करने वाले सेवा में बिजी होने कारण, और पाइंट्स का बार-बार वर्णन करने के कारण माया से सेफ रहते हैं। लेकिन जब कोई परिस्थिति वा माया का रॉयल रूप सामने आता है तो सदा विजयी नहीं बन सकते हैं। वही पाइंट्स वर्णन करते रहेंगे लेकिन शक्ति न होने कारण सदा मायाजीत नहीं बन सकते हैं।
तो समझा नम्बरवार क्यों बनते हैं? अब यह चेक करो कि हर ज्ञान की पाइंट शक्ति के रूप से, शस्त्र के रूप से धारण की? सिर्फ ज्ञानवान बने हो वा शक्तिशाली भी बने हो? नॉलेजफुल के साथ पावरफुल भी बने हो वा सिर्फ नॉलेजफुल बने हो! यथार्थ नॉलेज लाइट और माइट का स्वरूप है। उसी रूप से धारण किया है? अगर समय पर नॉलेज विजयी नहीं बनाती है तो नॉलेज को शक्ति रूप से धारण नहीं किया है। अगर कोई योद्धा समय पर शस्त्र कार्य में नहीं ला सके तो उसको क्या कहेंगे? महावीर कहेंगे? यह नॉलेज की शक्ति किसलिए मिली है? मायाजीत बनने के लिए मिली है ना! कि समय बीत जाने के बाद पाइंट याद करेंगे, करना तो यह था, सोचा तो यह था। तो यह चेक करो। अभी फोर्स का कोर्स कहाँ तक किया है! कोर्स कराने के लिए सब तैयार हो ना! ऐसा कोई है जो कोर्स नहीं करा सकता! सभी करा सकते हैं और बहुत प्यार से अच्छे रूप से कोर्स कराते हो। बापदादा देखते हैं कि बहुत प्यार से, अथक बन करके, लगन से करते और कराते हो। बहुत अच्छे प्रोग्राम्स करते हो। तन-मन- धन लगाते हो। तब तो इतनी वृद्धि हुई है। यह तो बहुत अच्छा करते हो। लेकिन अभी समय प्रमाण यह तो पास कर लिया। बचपन पूरा हुआ ना। अब युवा अवस्था में हो वा वानप्रस्थ में हो। कहाँ तक पहुँचे हो? इस ग्रुप में मैजारिटी नये नये हैं। लेकिन विदेश सेवा के भी 11-12 वर्ष पूरे हुए ना। तो अभी बचपन नहीं। अभी युवा तक पहुँच गये हो। अब फोर्स का कोर्स करो और कराओ।
ऐसे भी यूथ में शक्ति बहुत होती है। यूथ आयु बहुत शक्तिशाली होती है। जो चाहे वह कर सकते हैं। इसलिए देखो आजकल की गवर्मेन्ट भी यूथ से घबराती है। क्योंकि यूथ ग्रुप में लौकिक रूप से बुद्धि की भी शक्ति है तो शरीर की भी शक्ति है। और यहाँ तोड़-फोड़ करने वाले नहीं हैं। बनाने वाले हैं। वह जोश वाले हैं। और यहाँ शान्त स्वरूप आत्मायें हैं। बिगड़ी को बनाने वाली हैं। सबके दुःख दूर करने वाले हैं। वह दुःख देने वाले हैं और आप दुःख दूर करने वाले हो। दुःखहर्त्ता-सुखकर्त्ता। जैसे बाप वैसे बच्चे। सदा हर संकल्प हर आत्मा के प्रति वा स्व के प्रति सुखदाई संकल्प है। क्योंकि दुःख की दुनिया से निकल गये। अभी दुःख की दुनिया में नहीं हो। दुःखधाम से संगमयुग में पहुँच गये हो। पुरूषोत्तम युग में बैठे हो। वह कलियुगी यूथ हैं। आप संगमयुगी यूथ हो। इसलिए अभी यह सदा अपने में नॉलेज को शक्ति के रूप में धारण करो भी और कराओ भी। जितना स्वयं फोर्स का कोर्स किया हुआ होगा उतना दूसरों को यह फोर्स का कोर्स करायेंगे। नहीं तो सिर्फ पाइंट का कोर्स कराते हैं। अब कोर्स को फिर से रिवाइज करना, एक-एक पाइंट में क्या-क्या शक्ति है, कितनी शक्ति है, किस समय कौन-सी शक्ति को किस रूप से यूज़ कर सकते हैं? यह ट्रेनिंग स्वयं को स्वयं भी दे सकते हो। तो यह चेक करो - आत्मा के पाइंट रूपी शक्तिशाली शस्त्र सारे दिन में प्रैक्टिकल कार्य में लाया? अपनी ट्रेनिंग आपे ही कर सकते हो। क्योंकि नॉलेजफुल तो हैं ही। आत्मा के प्रति पाइंट्स निकालने के लिए कहें तो कितनी पाइंट्स निकालेंगे! बहुत हैं ना! भाषण करने में तो होशियार हो। लेकिन एक-एक पाइंट को देखो परिस्थिति के समय कहाँ तक कार्य में लाते हैं। यह नहीं सोचो वैसे तो ठीक रहते, लेकिन ऐसी बात हो गई, परिस्थिति आई तब ऐसे हुआ। शस्त्र किसलिए होता है? जब दुश्मन आता है उसके लिए होता है या दुश्मन आ गया इसलिए मैं हार गया! माया आ गई इसलिए डगमग हो गये! लेकिन माया (दुश्मन) के लिए ही तो शस्त्र हैं ना! शक्तियाँ किसलिए धारण की हैं? समय पर विजय पाने के लिए शक्तिशाली बने हो ना! तो समझा क्या करना है? आपस में अच्छी रूह-रूहान करते रहते हैं। बापदादा को सब समाचार मिलता है। बापदादा तो बच्चों का यह उमंग देख खुश होते हैं, पढ़ाई से प्यार है। बाप से प्यार है। सेवा से प्यार है लेकिन कभी-कभी जो नाजुक बन जाते हैं, शस्त्र छूट जाते हैं, उस समय इन्हों की फिल्म निकाल फिर इन्हों को ही दिखानी चाहिए। होता थोड़े टाइम के लिए ही है, ज्यादा नहीं होता लेकिन फिर भी लगातार अर्थात् सदा निर्विघ्न रहना और विघ्न निर्विघ्न चलता रहे, फर्क तो है ना! धागे में जितना गाँठ पड़ती है उतना धागा कमज़ोर होता है। जुड़ तो जाता है लेकिन जुड़ी हुई चीज़ और साबुत चीज़ में फर्क तो होता है ना। जोड़ वाली चीज़ अच्छी लगेगी? तो यह विघ्न आया फिर निर्विघ्न बने फिर विघ्न आवे, टूटा जोड़ा तो जोड़ तो हुआ ना। इसलिए भी इसका प्रभाव अवस्था पर पड़ता है।
कोई बहुत अच्छे तीव्र पुरुषार्थी भी हैं। नॉलेजफुल, सर्विसएबुल भी हैं। बापदादा, परिवार की नजरों में भी हैं लेकिन जोड़ तोड़ होने वाली आत्मा सदा शक्तिशाली नहीं रहेगी। छोटी-छोटी बात पर उसको मेहनत करनी पड़ेगी। कभी सदा हल्के, हर्षित खुशी में नाचने वाले होंगे। लेकिन ऐसे सदा नजर नहीं आयेंगे। होंगे महारथी की लिस्ट में लेकिन ऐसे संस्कार वाले कमज़ोर जरूर रहते हैं। इसका कारण क्या होता है? यह तोड़ने-जोड़ने के संस्कार उनको अन्दर से कमज़ोर कर देते हैं। बाहर से कोई बात नहीं होगी। बहुत अच्छे दिखाई देंगे। इसलिए यह संस्कार कभी नहीं बनाना। यह नहीं सोचना माया आ गई। चल तो रहे हैं। लेकिन ऐसे चलना, कभी तोड़ना कभी जुड़ना यह क्या हुआ? सदा जुटा रहे, सदा निर्विघ्न रहे, सदा हर्षित, सदा छत्रछाया में रहें वह, और यह जीवन में अन्तर है ना। इसलिए बापदादा कहते हैं कोई-कोई का जीवनपत्री का कागज बिल्कुल ही साफ है। कोई-कोई का बीच-बीच में दाग है। भले दाग मिटाते हैं लेकिन वह भी दिखाई तो देते हैं ना। दाग हो ही नहीं। साफ कागज और दाग मिटाया हुआ कागज...अच्छा क्या लगेगा? साफ कागज रखने का आधार बहुत सहज है। घबरा नहीं जाना कि यह तो बड़ा मुश्किल है। नहीं। बहुत सहज है। क्योंकि समय समीप आ रहा है। समय को भी विशेष वरदान मिले हुए हैं। जितना जो पीछे आता है उसको समय प्रमाण एकस्ट्रा लिफ्ट की गिफ्ट भी मिलती है। और अब तो अव्यक्त रूप का पार्ट है ही - वरदानी पार्ट। तो समय की भी आपको मदद है। अव्यक्ति पार्ट की, अव्यक्त सहयोग की भी मदद है। फास्ट गति का समय है, इसकी भी मदद है। पहले इन्वेन्शन निकलने में समय लगा। अभी बना बनाया है। आप बने बनाये पर पहुँचे हो। यह भी वरदान कम नहीं है। जो पहले आये उन्हों ने माखन निकाला, आप लोग माखन खाने पर पहुँच गये। तो वरदानी हो ना! सिर्फ थोड़ा-सा अटेन्शन रखो। बाकी कोई बड़ी बात नहीं है। सभी प्रकार की मदद आपके साथ है। अभी आप लोगों को महारथी निमित्त आत्माओं की जितनी पालना मिलती है उतनी पहले वालों को नहीं मिली। एक-एक से कितनी मेहनत करते टाइम देते हैं। पहले जनरल पालना मिली। लेकिन आप तो सिकीलधे बन पल रहे हो। पालना का रिटर्न भी देने वाले हो ना। मुश्किल नहीं है। सिर्फ एक-एक बात को शक्ति के रूप से यूज़ करने का अटेन्शन रखो। समझा! अच्छा –
सदा महावीर बन विजय चत्रधारी आत्मायें, सदा ज्ञान की शक्ति को समय प्रमाण कार्य में लाने वाली, सदा अटल, अचल अखण्ड स्थिति धारण करने वाली, सदा स्वयं को मास्टर सर्वशक्तिवान अनुभव करने वाली, ऐसी श्रेष्ठ सदा मायाजीत विजयी बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।’’
दादियों से - अनन्य रत्नों के हर कदम में स्वयं को तो पद्मों की कमाई है लेकिन औरों को भी पदमों की कमाई है। अनन्य रत्न सदा ही हर कदम में आगे बढ़ते ही रहते हैं। अनादि चाबी मिली हुई है। आटोमेटिक चाबी है। निमित्त बनना अर्थात् आटोमेटिक चाबी लगाना। अनन्य रत्नों को अनादि चाबी से आगे बढ़ना ही है। आप सबके हर संकल्प में सेवा भरी हुई है। एक निमित्त बनता है अनेक आत्माओं को उमंग-उत्साह में लाने के। मेहनत नहीं करनी पड़ती लेकिन निमित्त को देखने से ही वह लहर फैल जाती है। जैसे एक दो को देखकर रंग लग जाता है ना। तो यह आटोमेटिक उमंग उत्साह की लहर औरों के भी उमंग-उत्साह को बढ़ाती है। वैसे भी कोई अच्छी डांस करता है तो देखने वालों के पांव नाचने लग जाते हैं, लहर फैल जाती है। तो न चाहते भी हाथ पांव चलने लगते हैं। अच्छा
मधुबन की सब कारोबार ठीक है। मधुबन निवासियों से मधुबन सजा हुआ है। बापदादा तो निमित्त बच्चों को देख सदा निश्चिन्त हैं। क्योंकि बच्चे कितने होशियार हैं। बच्चे भी कम नहीं हैं। बाप का बच्चों में पूरा फेथ है तो बच्चे बाप से भी आगे हैं। निमित्त बने हुए सदा ही बाप को भी निश्चिन्त करने वाले हैं। ऐसे चिन्ता तो है भी नहीं फिर भी बाप को खुशखबरी सुनाने वाले हैं। ऐसे बच्चे कहाँ भी नहीं होंगे जो एक-एक बच्चा एक दो से आगे हो। हरेक बच्चा विशेष हो। कोई के इतने बच्चे ऐसे नहीं हो सकते। कोई लड़ने वाला होगा, कोई पढ़ने वाला होगा। यहाँ तो हरेक विशेष मणियाँ हो। हरेक की विशेषता है!
पार्टियों से - कुमारियों के साथ - कुमारियाँ सदा ही पवित्र मानी जाती हैं। कुमारियों के पवित्रता की महिमा 100 ब्राह्मणों से भी ज्यादा है। ऐसी श्रेष्ठ कुमारियाँ हो ना! देखो आज लास्ट जन्म में भी कुमारियों की पूजा होती रहती है। कुमारियों की पूजा देखी है? भारत में बहुत पूजा करते हैं कुमारी की। जब तक कुमारी है तब तक उसके पाँव पड़ते हैं और जब कुमारी शादी करती है तो उसी दिन उनके पाँव पड़ने लगती हैं। कितनों के पाँव पड़ना पड़ता है! नहीं तो कुमारी को कभी पाँव पड़ने नहीं देते। तो ऐसी पवित्र कुमारी हो ना! एक बार जो राखी बांधता है वह बदल नहीं सकता। अगर कोई बदल जाए तो बापदादा उसको क्या कहेंगे? उसको कहते हैं - कायर, कमज़ोर। तो आप सब ऐसे तो नहीं हो ना! बापदादा का बच्चों में पूरा निश्चय है। सच्ची फ्रेंड हो ना! बाप ऐसा फ्रेंड मिला है जो कोई भी बात करो लेकिन दिलाराम तक ही रहेगी। सदा स्नेह में समाई हुई हो ना! सारे विश्व में आकर्षण करने वाला बाप ही अनुभव होता है ना! और कोई तो नहीं दिखाई पड़ता है? कोई ऐसी चीज़ अट्रैक्ट तो नहीं करती है? कोई टी.वी. तो नहीं देखती हो? फिल्म तो नहीं देखती? अगर वह फिल्म देखी तो यह फिल्म खत्म। अच्छा - कुमारी जीवन में श्रेष्ठ जीवन बनाना यह बहुत बड़ा भाग्य है, यह गृहस्थी जीवन के झंझट बाहर से दिखाई नहीं देते हैं लेकिन अन्दर बहुत बंधन हैं। बाहर से ऐसे दिखाई देते हैं जैसे यह बहुत खुश रहते हैं लेकिन अन्दर बहुत बंधन हैं। इसलिए कुमारियाँ ऐसे बंधनों से बच गई। इसलिए खुशी में खूब नाचो। बापदादा को बहुत खुशी होती है कि यह कुमारियाँ इस कुमारी जीवन में बच गई। अच्छा –
माताओं से - अपनी महिमा को जानती हैं? अगर मातायें नहीं होती तो बाप ‘गऊपाल’ नहीं कहलाता। माताओं के कारण ही गऊपाल नाम पड़ा है। तो गऊपाल की प्यारी हो। सदा मुरली पर नाचने वाली हो। मुरली से बहुत प्यार है ना। मुरली के बिना रह नहीं सकती। जिसका मुरली से प्यार है। उसका मुरलीधर से भी प्यार है जिसका मुरलीधर से प्यार है उसका सेवा से भी प्यार है। जो मुरली में मस्त रहते उन्हें पुरानी दुनिया सहज ही भूल जाती हैं। जब सारी दुनिया सो रही है तब आप बच्चे मस्ती में मना रहे हो। अच्छा - माताओं में पढ़ाई का शौक अच्छा है। पढ़ाई के प्यार का सर्टिफिकेट है। अच्छा –
24-03-85 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
अब नहीं तो कब नहीं
श्रेष्ठ राज्य भाग्य का अधिकार देने वाले बापदादा बोले
आज लवफुल और लाफुल बापदादा सभी बच्चों के खाते को देख रहे थे। हर एक का जमा का खाता कितना है? ब्राह्मण बनना अर्थात् खाता जमा करना। क्योंकि इस एक जन्म के जमा किये हुए खाते के प्रमाण 21 जन्म प्रालब्ध पाते रहेंगे। न सिर्फ 21 जन्म प्रालब्ध प्राप्त करेंगे लेकिन जितना पूज्य बनते हो अर्थात् राज्य पद के अधिकारी बनते हो, उसी हिसाब अनुसार आधाकल्प भक्तिमार्ग में पूजा भी राज्य भाग्य के अधिकार के हिसाब से होती है। राज्य पद श्रेष्ठ है तो पूज्य स्वरूप भी इतना ही श्रेष्ठ होता है। इतनी संख्या में प्रजा भी बनती है। प्रजा अपने राज्य अधिकारी विश्व-महाराजन वा राजन को मात पिता के रूप से प्यार करती है। इतना ही भक्त आत्मायें भी ऐसे ही उस श्रेष्ठ आत्मा को वा राज्य अधिकारी महान आत्मा को अपना प्यारा ईष्ट समझ पूजा करते हैं। जो अष्ट बनते हैं वह ईष्ट भी इतने ही महान बनते हैं। इस हिसाब प्रमाण इसी ब्राह्मण जीवन में राज्य-पद और पूज्य-पद पाते हो। आधा कल्प राज्य-पद वाले बनते हो और आधा कल्प पूज्य-पद को प्राप्त करते हो। तो यह जन्म वा जीवन वा युग सारे कल्प के खाते को जमा करने का युग वा जीवन है। इसलिए आप सभी का एक स्लोगन बना हुआ है, याद है? - ‘अब नहीं तो कब नहीं’। यह इस समय के इसी जीवन के लिए ही गाया हुआ है। ब्राह्मणों के लिए भी यह स्लोगन है तो अज्ञानी आत्माओं के लिए भी सुजाग करने का यह स्लोगन है। अगर ब्राह्मण आत्मायें हर श्रेष्ठ कर्म करने के पहले श्रेष्ठ संकल्प करते हुए यह स्लोगन सदा याद रखें कि - अब नहीं तो कब नहीं, तो क्या होगा? सदा हर श्रेष्ठ कार्य में तीव्र बन आगे बढ़ेंगे। साथ-साथ यह स्लोगन सदा उमंग-उत्साह दिलाने वाला है। रूहानी जागृति स्वत: ही आ जाती है। अच्छा फिर कर लेंगे, देख लेंगे। करना तो है ही। चलना तो है ही। बनना भी है ही। यह साधारण पुरूषार्थ के संकल्प स्वत: ही समाप्त हो जाते हैं। क्योंकि स्मृति आ गई कि - अब नहीं तो कब नहीं। जो करना है वह अब कर लो। इसको कहा जाता है - तीव्र पुरूषार्थ।
समय बदलने से कभी शुभ संकल्प भी बदल जाता है। शुभ कार्य जिस उमंग से करने का सोचा वह भी बदल जाता है। इसलिए ब्रह्मा बाप के नम्बरवन जाने की विशेषता क्या देखी? कब नहीं, लेकिन ‘अब करना है’। ‘तुरंत दान महापुण्य’ कहा जाता है। अगर तुरंत दान नहीं किया, सोचा, समय लगाया, प्लैन बनाया फिर प्रैक्टिकल में लाया तो इसको तुरंत दान नहीं कहा जायेगा। दान कहा जायेगा। तुरंत दान और दान में अन्तर है। तुरंत दान महादान है। महादान का फल महान होता है। क्योंकि जब तक संकल्प को प्रैक्टिकल करने में सोचता है - अच्छा करूँ, करूँगा, अभी नहीं, थोड़े समय के बाद करूँगा। अब इतना कर लेता हूँ यह सोचना और करना इस बीच में जो समय पड़ जाता है उसमें माया को चांस मिल जाता है। बापदादा बच्चों के खाते में कई बार देखते हैं कि सोचने और करने के बीच में जो समय पड़ता है उस समय में माया आ जाती है तो बात भी बदल जाती है। मानो कभी तन से, मन से सोचते हैं यह करेंगे लेकिन समय पड़ने से जो 100 प्रतिशत सोचते हैं करने के लिए वह बदल जाता है। समय पड़ने से माया का प्रभाव होने के कारण मानो 8 घण्टा लगाने वाला 6 घण्टा लगायेगा। 2 घण्टा कट हो जायेगा। सरकमस्टांस ही ऐसे बन जायेंगे। इस प्रकार धन में सोचेगा 100 करना है और करेगा 50 इतना भी फर्क पड़ जाता है। क्योंकि बीच में माया को मार्जिन मिल जाती है। फिर कई संकल्प आते हैं। अच्छा 50 अभी कर लेते हैं - 50 फिर बाद में कर लेंगे। है तो बाप का ही। लेकिन तन-मन-धन सभी का जो ‘तुरंत दान वह महापुण्य होता है’। देखा है ना -बलि भी चढ़ाते हैं तो महाप्रसाद वही होता जो तुरंत होता। एक धक से झाटकू बनते हैं उसको ‘महाप्रसाद’ कहा जाता है। जो बलि में चिल्लाते-चिल्लाते सोचते-सोचते रह जाते हैं वह महाप्रसाद नहीं। जैसे वह बकरे को बलि चढ़ाते हैं, वह बहुत चिल्लाता है। यहाँ क्या करते? सोचते हैं, ऐसा करें वा न करें। यह हुआ सोचना। चिल्लाने वाले को कभी भी महाप्रसाद के रूप में स्वीकार नहीं करते हैं। ऐसे ही यहाँ भी तुरंत दान महापुण्य यह जो गायन है वह इस समय का है। अर्थात् सोचना और करना तुरंत हो। सोचते-सोचते रह नहीं जावें। कई बार ऐसे अनुभव भी सुनाते हैं। सोचा तो मैंने भी यही था लेकिन इसने कर लिया, मैंने नहीं किया। तो जो कर लेता है वह पा लेता है। जो सोचते-सोचते रह जाता, वह सोचते-सोचते त्रेतायुग तक पहुँच जाता है। सोचते-सोचते रह जाता है। यही व्यर्थ संकल्प है कि तुरंत नहीं करो। शुभ कार्य शुभ संकल्प के लिए गायन है - ‘तुरंत दान महापुण्य’। कभी-कभी कोई बच्चे बड़ा खेल दिखाते हैं। व्यर्थ संकल्प इतना फोर्स से आते जो कण्ट्रोल नहीं कर पाते। फिर उस समय कहते क्या करें, हो गया ना। रोक नहीं सकते। जो आया वह कर लिया लेकिन व्यर्थ के लिए कण्ट्रोलिंग पावर चाहिए। एक समर्थ संकल्प का फल पद्मगुणा मिलता है। ऐसे ही एक व्यर्थ संकल्प का हिसाब-किताब - उदास होना, दिलशिकस्त होना वा खुशी गायब होना वा समझ नहीं आना कि मैं क्या हूँ, अपने को भी नहीं समझ सकते - यह भी एक का बहुत गुणा के हिसाब से अनुभव होता है। फिर सोचते हैं कि था तो कुछ नहीं। पता नहीं क्यों खुशी गुम हो गई। बात तो बड़ी नहीं थी लेकिन बहुत दिन हो गये हैं - खुशी कम हो गई है। पता नहीं क्यों अकेलापन अच्छा लगता है! कहाँ चले जावें, लेकिन जायेंगे कहाँ? अकेला अर्थात् बिना बाप के साथ अकेला तो नहीं जाना है ना। ऐसे भले अकेले हो जाओ लेकिन बाप के साथ से अकेले कभी नहीं होना। अगर बाप के साथ से अकेले हुए, वैरागी, उदासी यह तो दूसरा मठ है। ब्राह्मण जीवन नहीं। कम्बाइण्ड हो ना। संगमयुग कम्बाइण्ड रहने का युग है। ऐसी वण्डरपुल जोड़ी तो सारे कल्प में नहीं मिलेगी। चाहे लक्ष्मी नारायण भी बन जाएँ लेकिन ऐसी जोड़ी तो नहीं बनेगी ना! इसलिए संगमयुग का कम्बाइण्ड रूप है। यह सेकण्ड भी अलग नहीं हो सकता। अलग हुआ और गया। अनुभव है ना ऐसा! फिर क्या करते? कभी सागर के किनारे चले जाते, कब छत पर, कब पहाड़ों पर चले जाते। मनन करने के लिए जाओ, वह अलग बात है। लेकिन बाप के बिना अकेले नहीं जाना है। जहाँ भी जाओ साथ जाओ। यह ब्राह्मण जीवन का वायदा है। जन्मते ही यह वायदा किया है ना! साथ रहेंगे साथ चलेंगे। ऐसे नहीं जंगल में वा सागर में चले जाना है। नहीं। साथ रहना है, साथ चलना है। यह वायदा पक्का है ना सभी का? दृढ़ संकल्प वाले सदा सफलता को पाते हैं। दृढ़ता सफलता की चाबी है। तो यह वायदा भी दृढ़ पक्का किया है ना। जहाँ दृढ़ता सदा है वहाँ सफलता सदा है। दृढ़ता कम तो सफलता भी कम।
ब्रह्मा बाप की विशेषता क्या देखी! यही देखी ना - तुरंत दान...कभी सोचा कि क्या होगा! पहले सोचूँ पीछे करूँ, नहीं। तुरंत दान महापुण्य के कारण नम्बरवन महान आत्मा बनें। इसलिए देखो नम्बरवन महान आत्मा बनने के कारण कृष्ण के रूप में नम्बरवन पूजा हो रही है। एक ही यह महान आत्मा है जिसकी बाल रूप में भी पूजा है। बाल रूप भी देखा है ना। और युवा रूप में राधे कृष्ण के रूप में भी पूजा है। और तीसरा गोप गोपियों के रूप में भी गायन पूजन है। चौथा लक्ष्मी नारायण के रूप में। एक यह ही महान आत्मा है जिसके भिन्न-भिन्न आयु के रूप में भिन्न-भिन्न चरित्र के रूप में गायन और पूजन है। राधे का गायन है लेकिन राधे को बाल रूप में कभी झूला नहीं झुलायेंगे। कृष्ण को झुलाते हैं। प्यार कृष्ण को करते हैं। राधे का साथ के कारण नाम जरूर है। फिर भी नम्बर दो और एक में फर्क तो होगा ना। तो नम्बरवन बनने का कारण क्या बना? - ‘‘महा पुण्य’’। महान पुण्य आत्मा सो महान पूज्य आत्मा बन गई। पहले भी सुनाया था ना कि आप लोगों की पूजा में भी अन्तर होगा। कोई देवी देवताओं की पूजा विधिपूर्वक होती है और कोई की ऐसे काम चलाऊ भी होती है। इसका तो फिर बहुत विस्तार है। पूजा का भी बहुत विस्तार है। लेकिन आज तो सभी के जमा के खाते देख रहे थे। ज्ञान का खजाना, शक्तियों का खजाना, श्रेष्ठ संकल्पों का खजाना कहाँ तक जमा किया है और समय का खजाना कहाँ तक जमा किया है। यह चारों ही खजाने कहाँ तक जमा किये हैं? यह खाता देख रहे थे। तो अभी इन चारों ही बातों का खाता अपना चेक करना। फिर बापदादा भी सुनायेंगे कि रिजल्ट क्या देखी और हर एक खजाने के जमा करने का प्राप्ति का क्या सम्बन्ध है। और कैसे जमा करना है इस सब बातों पर फिर सुनायेंगे। समझा
समय तो हद का है ना। आते भी हद में हैं, अपना शरीर भी नहीं। लोन लिया हुआ शरीर, और है भी टैम्प्रेरी पार्ट का शरीर। इसलिए समय को भी देखना पड़ता है। बापदादा को भी हर बच्चे से मिलने में, हर बच्चे की मीठीमीठी रूहानी खुशबू लेने में मजा आता है। बापदादा तो हर बच्चे के तीनों काल जानते हैं ना। और बच्चे सिर्फ अपने वर्तमान को ज्यादा जानते हैं इसलिए कभी कैसे, कभी कैसे हो जाते हैं। लेकिन बापदादा तीनों कालों को जानने कारण उसी दृष्टि से देखते हैं कि यह कल्प पहले वाला हकदार है। अधिकारी है। अभी सिर्फ थोड़ा सा कोई हलचल में है लेकिन अभी-अभी हलचल अभी-अभी अचल हो ही जाना है। भविष्य श्रेष्ठ देखते हैं। इसलिए वर्तमान को देखते भी, नहीं देखते। तो हर एक बच्चे की विशेषता को देखते हैं। ऐसा कोई है जिसमें कोई भी विशेषता न हो! पहली विशेषता तो यही है जो यहाँ पहुँचे हो। और कुछ भी न हो फिर भी सम्मुख मिलने का यह भाग्य कम नहीं है। यह तो विशेषता है ना। यह विशेष आत्माओं की सभा है। इसलिए विशेष आत्माओं की विशेषता को बापदादा देख हर्षित होते हैं। अच्छा –
सदा ‘तुरंत दान महापुण्य’ के श्रेष्ठ संकल्प वाले, सदा कब को अब में परिवर्तन करने वाले, सदा समय के वरदान को जान वरदानों से झोली भरने वाले, सदा ब्रह्मा बाप को फॉलो कर ब्रह्मा बाप के साथ श्रेष्ठ राज्य-अधिकारी और श्रेष्ठ पद अधिकारी बनने वाले, सदा बाप के साथ कम्बाइण्ड रहने वाले, ऐसे सदा के साथी बच्चों को, सदा साथ निभाने वाले बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।’’
बृजइन्द्रा दादी से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात - चलाने वाला चला रहा है ना। हर सेकण्ड करावनहार निमित्त बनाए करा रहा है। करावनहार के हाथ में चाबी है। उसी चाबी से चल रही है। आटोमेटिक चाबी मिल जाती है और चलते फिरते कितना न्यारे और प्यारेपन का अनुभव होता है। चाहे कर्म का हिसाब चुक्तू भी कर रहे हैं लेकिन कर्म के हिसाब को भी साक्षी हो देखते हुए, साथी के साथ मौज में रहते हैं। ऐसे है ना! आप तो साथी के साथ मौज में हैं बाकी यह हिसाब किताब साक्षी हो चुक्तू कैसे हो रहा है वह देखते हुए भी मौज में रहने कारण लगता कुछ नहीं है। क्योंकि जो आदि से स्थापना के निमित्त बने हैं तो जब तक है तब तक बैठे हैं या चल रहे हैं, स्टेज पर हैं या घर में हैं लेकिन महावीर बच्चे सदा ही अपने श्रेष्ठ स्टेज पर होने के कारण सेवा की स्टेज पर हैं। डबल स्टेज पर हैं। एक स्वयं की श्रेष्ठ स्टेज पर हैं और दूसरी सेवा की स्टेज पर हैं। तो सारा दिन कहाँ रहती हो? मकान में या स्टेज पर? बेड पर बैठती, कोच पर बैठती हो या स्टेज पर रहती हो? कहाँ भी हो लेकिन सेवा की स्टेज पर हो। डबल स्टेज है। ऐसे ही अनुभव होता है ना! अपने हिसाब को भी आप साक्षी होकर देखो। इस शरीर से जो भी पिछला किया हुआ है वह चुक्तू कैसे कर रहा है, वह साक्षी होकर देखते। इसे कर्मभोग नहीं कहेंगे। भोगने में दुख होता है। तो भोगना शब्द नहीं कहेंगे क्योंकि दुखदर्द की महसूसता नहीं है। आप लोगों के लिए कर्मभोग नहीं है, यह भी कर्मयोग की शक्ति से सेवा का साधन बना हुआ है। यह कर्म भोगना नहीं, सेवा की योजना है। भोगना भी सेवा की योजना में बदल गई। ऐसे है ना! इसलिए सदा साथ की मौज में रहने वाली। जन्म से यही आशा रही - साथ रहने की। यह आशा भक्ति रूप में पूरी हुई, ज्ञान में भी पूरी हुई, साकार रूप में भी पूरी हुई और अभी अव्यक्त रूप में भी पूरी हो रही है। तो यह जन्म की आशा वरदान के रूप में बन गई। अच्छा - जितना साकार बाप के साथ रहने का अनुभव इनका है उतना और किसका नहीं। साथ रहने का विशेष पार्ट मिला यह कम थोड़े ही है। हरेक का भाग्य अपना-अपना है। आप भी कहो - ‘वाह रे मैं’! अच्छा –
आदि रत्न सदा सन शोव्ज़ फादर करने के निमित्त हैं। हर कर्म से बाप के चरित्र को प्रत्यक्ष करने वाले ‘दिव्य दर्पण’ हैं। दर्पण कितना आवश्यक होता है? अपना दर्शन या दूसरे का दर्शन कराने के लिए। तो आप सभी दर्पण हो बाप का साक्षात्कार कराने के लिए। जो विशेष आत्मायें निमित्त हैं उनको देख सभी को क्या याद आता है? बापदादा याद आ जाता है। बाप क्या करते थे, कैसे चलते थे...यह याद आता है ना। तो बाप को प्रत्यक्ष करने के दर्पण हो। बापदादा ऐसे विशेष बच्चों को सदा अपने से भी आगे बढ़ाते हैं। सिर का ताज बना देते हैं। सिर के ताज की चमकती हुई मणि हो। अच्छा –
सभी बच्चों को विदाई के समय यादप्यार देते हुए - बापदादा चारों तरफ के सभी बच्चों को यादप्यार भेज रहे हैं। हर एक स्थान के स्नेही बच्चे, स्नेह से सेवा में आगे बढ़ रहे हैं और स्नेह सदा आगे बढ़ाता रहेगा। स्नेह से सेवा करते हो इसलिए जिन्हों की सेवा करते हो वह भी बाप के स्नेही बन जाते हैं। सभी बच्चों को सेवा की मुबारक भी हो और मेहनत नहीं लेकिन मुहब्बत की मुबारक हो। क्योंकि नाम मेहनत है लेकिन है मुहब्बत। इसलिए जो याद में रहकर सेवा करते हैं वह अपना वर्तमान और भविष्य जमा करते हैं। इसलिए अभी भी सेवा की खुशी मिलती है और भविष्य में भी जमा होता है। सेवा नहीं की लेकिन अविनाशी बैंक में अपना खाता जमा किया। थोड़ी सी सेवा और सदाकाल के लिए खाता जमा हो जाता। तो वह सेवा क्या हुई? जमा हुआ ना! इसलिए सभी बच्चों को बापदादा यादप्यार भेज रहे हैं। हरेक अपने को समर्थ आत्मा समझ आगे बढ़ो तो समर्थ आत्माओं की सफलता सदा है ही। हरेक अपने-अपने नाम से विशेष यादप्यार स्वीकार करना (देहली पाण्डव भवन में टैलेक्स लगा है) देहली निवासी पाण्डव भवन के सभी बच्चों को विशेष सेवा की मुबारक। क्योंकि यह साधन भी सेवा के लिए ही बने हैं। साधन की मुबारक नहीं, सेवा की मुबारक हो। सदा इन साधनों द्वारा बेहद की सेवा, अविनाशी करते रहेंगे। खुशी-खशी से विश्व में इस साधन द्वारा बाप का सन्देश पहुँचाते रहेंगे। इसलिए बापदादा देख रहे हैं कि बच्चों की सेवा का उमंग उत्साह खुशी कितनी है। इसी खुशी से सदा आगे बढ़ते रहना। पाण्डव भवन के लिए सभी विदेशी खुशी का सर्टिफिकेट देते हैं इसको कहा जाता है बाप समान मेहमान निवाजी में सदा आगे रहना। जैसे ब्रह्मा बाप ने कितनी मेहमान निवाजी करके दिखाई। तो मेहमान निवाजी में फॉलो करने वाले बाप का शो करते हैं। बाप का नाम प्रत्यक्ष करते हैं। इसलिए बापदादा सभी की तरफ से यादप्यार दे रहे हैं।
अमृतबेले 6 बजे बापदादा ने फिर से मुरली चलाई तथा यादप्यार दी
25-03-85
आज के दिन सदा अपने को डबल लाइट समझ उड़ती कला का अनुभव करते रहना। कर्मयोगी का पार्ट बजाते भी कर्म और योग का बैलेन्स चेक करना कि कर्म और याद अर्थात् योग दोनों ही शक्तिशाली रहे? अगर कर्म शक्ति- शाली रहा और याद कम रही तो बैलेन्स नहीं। और याद शक्तिशाली रही और कर्म शक्तिशाली नहीं तो भी बैलेन्स नहीं। तो कर्म और याद का बैलेन्स रखते रहना। सारा दिन इसी श्रेष्ठ स्थिति में रहने से अपनी कर्मातीत अवस्था के नजदीक आने का अनुभव करेंगे। सारा दिन कर्मातीत स्थिति वा अव्यक्त फरिश्ते स्वरूप स्थिति में चलते फिरते रहना। और नीचे की स्थिति में नहीं आना। आज नीचे नहीं आना, ऊपर ही रहना। अगर कोई कमज़ोरी से नीचे आ भी जाए तो एक दो को स्मृति दिलाए समर्थ बनाए सभी ऊँची स्थिति का अनुभव करना। यह आज की पढ़ाई का होम वर्क है। होम वर्क ज्यादा है, पढ़ाई कम है। ऐसे सदा बाप को फॉलो करने वाले, सदा बाप समान बनने के लक्ष्य को धारण कर आगे बढ़ने वाले, उड़ती कला के अनुभवी बच्चों को बापदादा का दिल व जान, सिक व प्रेम से यादप्यार और गुडमोर्निंग।
प्रश्न- सदा डबल लाइट स्थिति का अनुभव कैसे करें?
उत्तर- बाप का बनना अर्थात् डबल लाइट बनना। क्योंकि बाप के बनते ही सब बोझ बाप को दे दिया। सदा बाप के हो ना! सब कुछ बाप को दे दिया। तनमन- धन-सम्बन्ध सब कुछ सरेन्डर कर दिया। फिर बोझ काहे का! अभी यही याद रखना - जब सब कुछ बाप का हो गया तो सदा डबल लाइट बन गये। अच्छा
27-03-85 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
कर्मातीत अवस्था
सदा कर्मातीत शिव बाबा अपने न्यारे और प्यारे बच्चों प्रति बोले
आज बापदादा चारों ओर के बच्चों को विशेष देखने लिए चक्कर लगाने गये। जैसे भक्ति मार्ग में आप सभी ने बहुत बार परिक्रमा लगाई। तो बापदादा ने भी आज चारों ओर के सच्चे ब्राह्मणों के स्थानों की परिक्रमा लगाई। सभी बच्चों के स्थान भी देखे और स्थिति भी देखी। स्थान भिन्न-भिन्न विधि पूर्वक सजे हुए थे। कोई स्थूल साधनों से आकर्षण करने वाले थे, कोई तपस्या के वायब्रेशन से आकर्षण करने वाले थे। कोई त्याग और श्रेष्ठ भाग्य अर्थात् सादगी और श्रेष्ठता इस वायुमण्डल से आकर्षण करने वाले थे। कोई-कोई साधारण स्वरूप में भी दिखाई दिये। सभी ईश्वरीय याद के स्थान भिन्न-भिन्न रूप के देखे। स्थिति क्या देखी? इसमें भी भिन्न-भिन्न प्रकार के ब्राह्मण बच्चों की स्थिति देखी। समय प्रमाण बच्चों की तैयारी कहाँ तक है, यह देखने के लिए ब्रह्मा बाप गये थे। ब्रह्मा बाप बोले - बच्चे सर्व बंधनों से बंधनमुक्त, योगयुक्त, जीवनमुक्त एवररेडी हैं! सिर्फ समय का इन्तजार है। ऐसे तैयार हैं? इन्तजाम हो गया है सिर्फ समय का इन्तजार है? बापदादा की रूह-रूहान चली। शिव बाप बोले चक्कर लगाके देखा तो बंधनमुक्त कहाँ तक बने हैं! योगयुक्त कहाँ तक बने हैं! क्योंकि बंधनमुक्त आत्मा ही जीवनमुक्त का अनुभव कर सकती है। कोई भी हद का सहारा नहीं। अर्थात् बंधनों से किनारा है। अगर किसी भी प्रकार का छोटा बड़ा, स्थूल वा सूक्ष्म मंसा से वा कर्म से हद का कोई भी सहारा है तो बंधनों से किनारा नहीं हो सकता। तो यह दिखाने के लिए ब्रह्मा बाप को आज विशेष सैर कराया। क्या देखा?
मैजारटी बड़े-बड़े बंधनों से मुक्त हैं। जो स्पष्ट दिखाई देने वाले बंधन हैं वा रस्सियाँ हैं उससे तो किनारा कर लिया है। लेकिन अभी कोई-कोई ऐसे अति सूक्ष्म बंधन वा रस्सियाँ रही हुई हैं जिसको महीन बुद्धि के सिवाए देख वा जान भी नहीं सकते हैं। जैसे आजकल के साइंस वाले सूक्ष्म वस्तुओं को पावरफुल ग्लास द्वारा देख सकते हैं। साधारण रीति से नहीं देख सकते। ऐसे सूक्ष्म परखने की शक्ति द्वारा उन सूक्ष्म बंधनों को देख सकते वा महीन बुद्धि द्वारा जान सकते हैं। अगर ऊपर-ऊपर के रूप से देखे तो न देखने वा जानने के कारण वह अपने को बंधनमुक्त ही समझते रहते हैं। ब्रह्मा बाप ने ऐसे सूक्ष्म सहारे चेक किये। सबसे ज्यादा सहारा दो प्रकार का देखा –
एक अति सूक्ष्म स्वरूप, किसी न किसी सेवा के साथी का सूक्ष्म सहारा देखा। इसमें भी अनेक प्रकार देखे। सेवा के सहयोगी होने के कारण, सेवा में वृद्धि करने के निमित्त बने हुए होने के कारण या विशेष कोई विशेषता, विशेष गुण होने के कारण, विशेष कोई संस्कार मिलने के कारण वा समय प्रति समय कोई एक्स्ट्रा मदद देने के कारण, ऐसे कारणों से रूप सेवा का साथी है, सहयोगी है लेकिन विशेष झुकाव होने के कारण सूक्ष्म लगाव का रूप बनता जाता है। इसका परिणाम क्या होता है, यह भूल जाते हैं कि यह बाप की देन है। समझते हैं यह बहुत अच्छा सहयोगी है। अच्छा विशेषता स्वरूप है। गुणवान है। लेकिन समय प्रति समय बाप ने ऐसा अच्छा बनाया है, यह भूल जाता है। संकल्प मात्र भी किसी आत्मा के तरफ बुद्धि का झुकाव है तो वह झुकाव सहारा बन जाता है। तो साकार रूप में सहयोगी होने के कारण समय पर बाप के बदले पहले वह याद आयेगा। दो चार मिनट भी अगर स्थूल सहारा स्मृति में आया तो बाप का सहारा उस समय याद होगा? दूसरी बात अगर दो चार मिनट के लिए भी याद की यात्रा का लिंक टूट गया तो टूटने के बाद जोड़ने की फिर मेहनत करनी पड़ेगी। क्योंकि निरन्तर में अन्तर पड़ गया ना! दिल में दिलाराम के बदले और किसी की तरफ किसी भी कारण से दिल का झुकाव होता है। इससे बात करना अच्छा लगता है। इससे बैठना अच्छा लगता है, ‘‘इसी से ही’’, यह शब्द माना दाल में काला है। ‘‘इसी से ही’’ का ख्याल आना माना हीनता आई। ऐसे तो सब अच्छे लगते हैं लेकिन इससे ज्यादा अच्छा लगता है! सबसे रूहानी स्नेह रखना, बोलना या सेवा में सहयोग लेना वा देना वह दूसरी बात है। विशेषता देखो, गुण देखो लेकिन इसी का ही यह गुण बहुत अच्छा है, यह बीच में न लाओ। यह ‘‘ही’’ शब्द गड़बड़ करता है। इसको ही लगाव कहा जाता है। फिर चाहे बाहर का रूप सेवा हो, ज्ञान हो, योग हो, लेकिन जब इसी से ‘‘ही’’ योग करना है, इसका ही योग अच्छा है! यह ‘‘ही’’ शब्द नहीं आना चाहिए। ये ही सेवा में सहयोगी हो सकता है। ये ही साथी चाहिए...तो समझा, लगाव की निशानी क्या है? इसलिए यह ‘‘ही’’ निकाल दो। सभी अच्छे हैं। विशेषता देखो। सहयोगी बनो भी, बनाओ भी लेकिन पहले थोड़ा होता है फिर बढ़ते-बढ़ते विकराल रूप हो जाता है। फिर खुद ही उससे निकलना चाहते तो निकल नहीं सकते। क्योंकि पक्का धागा हो जाता है। पहले बहुत सूक्ष्म होता फिर पक्का हो जाता है तो टूटना मुश्किल हो जाता। सहारा एक बाप है। कोई मनुष्य आत्मा सहारा नहीं है। बाप किसको भी सहयोगी निमित्त बनाता है लेकिन बनाने वाले को नहीं भूलो। बाप ने बनाया है। बाप बीच में आने से ‘जहाँ बाप होगा वहाँ पाप नहीं’! बाप बीच से निकल जाता तो पाप होता है। तो एक बात है यह सहारे की।
दूसरी बात - कोई न कोई साकार साधनों को सहारा बनाया है। साधन हैं तो सेवा है। साधन में थोड़ा नीचे ऊपर हुआ तो सेवा भी नीचे ऊपर हुई। साधनों को कार्य में लगाना वह अलग बात है। लेकिन साधनों के वश हो सेवा करना यह है - साधनों को सहारा बनाना। साधन सेवा की वृद्धि के लिए है। इसलिए उन साधनों को उसी प्रमाण कार्य में लाओ। साधनों को आधार नहीं बनाओ। आधार एक बाप है। साधन तो विनाशी हैं। विनाशी साधनों को आधार बनाना अर्थात् जैसे साधन विनाशी हैं वैसे स्थिति भी कभी बहुत ऊँची कभी बीच की, कभी नीचे की बदलती रहेगी। अविनाशी एकरस स्थिति नहीं रहेगी। तो दूसरी बात - विनाशी साधनों को सहारा, आधार नहीं समझो। यह निमित्त मात्र है। सेवा के प्रति है। सेवा अर्थ कार्य में लगाया और न्यारे। साधनों के आकर्षण में मन आकर्षित नहीं होना चाहिए। तो यह दो प्रकार के सहारे, सूक्ष्म रूप में आधार बना हुआ देखा। जब कर्मातीत अवस्था होनी है तो हर व्यक्ति, वस्तु, कर्म के बन्धन से अतीत होना, न्यारा होना - इसको ही कर्मातीत अवस्था कहते हैं। कर्मातीत माना कर्म से न्यारा हो जाना नहीं। कर्म के बन्धनों से न्यारा। न्यारा बनकर कर्म करना अर्थात् कर्म से न्यारे। कर्मातीत अवस्था अर्थात् बंधनमुक्त, योगयुक्त, जीवनमुक्त अवस्था!
और विशेष बात यह देखी कि समय प्रति समय परखने की शक्ति में कई बच्चे कमज़ोर हो जाते हैं। परख नहीं सकते हैं। इसलिए धोखा खा लेते हैं। परखने की शक्ति कमज़ोर होने का कारण है - बुद्धि की लगन एकाग्र नहीं है। जहाँ एकाग्रता है वहाँ परखने की शक्ति स्वत: ही बढ़ती है। एकाग्रता अर्थात् एक बाप के साथ सदा लगन में मगन रहना। एकाग्रता की निशानी सदा उड़ती कला के अनुभूति की एकरस स्थिति होगी। एकरस का अर्थ यह नहीं कि वही रफ्तार हो तो एकरस है। एकरस अर्थात् सदा उड़ती कला की महसूसता रहे। इसमें एकरस। जो कल था उससे आज परसेन्टेज में वृद्धि का अनुभव करें। इसको कहा जाता है - उड़ती कला। तो स्व उन्नति के लिए, सेवा की उन्नति के लिए परखने की शक्ति बहुत आवश्यक है। परखने की शक्ति कमज़ोर होने के कारण अपनी कमज़ोरी को कमज़ोरी नहीं समझते हैं। और ही अपनी कमज़ोरी को छिपाने के लिए या सिद्ध करेंगे या जिद्द करेंगे। यह तो बातें छिपाने का विशेष साधन हैं। अन्दर में कमी महसूस भी होगी लेकिन फिर भी पूरी परखने की शक्ति न होने के कारण अपने को सदा राइट और होशियार सिद्ध करेंगे। समझा! कर्मातीत तो बनना है ना। नम्बर तो लेना है ना। इसलिए चेक करो। अच्छी तरह से - योगयुक्त बन परखने की शक्ति धारण करो। एकाग्र बुद्धि बन करके फिर चेक करो। तो जो भी सूक्ष्म कमी होगी वह स्पष्ट रूप में दिखाई देगी। ऐसा न हो जो आप समझो मैं बहुत राइट, बहुत अच्छी चल रही हूँ। कर्मातीत मैं ही बनूँगी और जब समय आवे तो यह सूक्ष्म बंधन उड़ने न देवें। अपनी तरफ खींच लेवें। फिर समय पर क्या करेंगे? बंधा हुआ व्यक्ति अगर उड़ना चाहे तो उड़ेगा वा नीचे आ जायेगा! तो यह सूक्ष्म बंधन समय पर नम्बर लेने में वा साथ चलने में वा एवररेडी बनने में बंधन न बन जाएँ। इसलिए ब्रह्मा बाप चेक कर रहे थे। जिसको यह सहारे समझते हैं वह सहारा नहीं हैं लेकिन यह रॉयल धागा है। जैसे सोनी हिरण का मिसाल है ना। सीता को कहाँ ले गया! तो सोना हिरण यह बंधन है। इसको सोना समझना माना अपने श्रेष्ठ भाग्य को खोना। सोना नहीं है, खोना है। राम को खोया, अशोक वाटिका को खोया।
ब्रह्मा बाप का बच्चों से विशेष प्यार है इसलिए ब्रह्मा बाप सदा बच्चों को अपने समान एवररेडी बंधनमुक्त देखने चाहते हैं। बंधनमुक्त का ही नजारा देखा ना! कितने में एवररेडी हुआ! किसी के बंधन में बंधा! कोई याद आया कि फलानी कहाँ है! फलानी सेवा की साथी है। याद आया? तो एवररेडी का पार्ट कर्मातीत स्टेज का पार्ट देखा ना! जितना ही बच्चों से अति प्यार रहा उतना ही प्यारा और न्यारा देखा ना! बुलावा आया और गया। नहीं तो सबसे ज्यादा बच्चों से प्यार ब्रह्मा का रहा ना! जितना प्यारा उतना न्यारा। किनारा करना देख लिया ना। कोई भी चीज़ अथवा भोजन जब तैयार हो जाता है तो किनारा छोड़ देता है ना! तो सम्पूर्ण होना अर्थात् किनारा छोड़ना। किनारा छोड़ना माना किनारे हो गये। सहारा एक ही अविनाशी सहारा है। न व्यक्ति को, न वैभव वा वस्तु को सहारा बनाओ। इसको ही कहते हैं - ‘‘कर्मातीत’’। छिपाओ कभी नहीं। छिपाने से और वृद्धि को पाता जाता है। बात बड़ी नहीं होती। लेकिन जितना छिपाते हैं उतना बात को बड़ा करते हैं। जितना अपने को राइट सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं उतना बात को बढ़ाते हैं। जितना जिद्द करते हैं उतना बात बढ़ाते हैं। इसलिए बात को बड़ा न कर छोटे रूप से ही समाप्त करो। तो सहज होगा और खुशी होगी। यह बात हुई, यह भी पार किया, इसमें भी विजयी बने तो यह खुशी होगी। समझा! विदेशी कर्मातीत अवस्था को पाने वाले उमंग-उत्साह वाले हैं ना! तो डबल विदशी बच्चों को ब्रह्मा बाप विशेष सूक्ष्म पालना दे रहे हैं। यह प्यार की पालना है, शिक्षा सावधानी नहीं। समझा! प्यार की पालना है। क्योंकि ब्रह्मा बाप ने आप बच्चों को विशेष आह्वान से पैदा किया। ब्रह्मा के संकल्प से आप पैदा हुए हो। कहते हैं ना - ब्रह्मा ने संकल्प से सृष्टि रची। ब्रह्मा के संकल्प से यह ब्राह्मणों की इतनी सृष्टि रच गई ना। तो ब्रह्मा के संकल्प से, आह्वान से रची हुई विशेष आत्मायें हो। लाडले हो गये ना। ब्रह्मा बाप समझते हैं कि यह फास्ट पुरूषार्थ कर फर्स्ट आने के उमंग-उत्साह वाले हैं। विदेशी बच्चों की विशेषताओं से विशेष श्रृंगार करने की बातें चल रही हैं। प्रश्न भी करेंगे, फिर भी समझेंगे भी जल्दी, विशेष समझदार हो। इसलिए बाप अपने समान सब बंधनों से न्यारे और प्यारे बनने के लिए इशारा दे रहे हैं। सभी बच्चों को बता रहे हैं। बाप के आगे सदा सभी ब्राह्मण बच्चे चाहे देश के चाहे विदेश के सब हैं। अच्छा - आज रूह-रूहान कर रहे हैं। सुनाया ना - अगले वर्ष से इस वर्ष की रिजल्ट बहुत अच्छी है। इससे सिद्ध है वृद्धि को पाने वाले हैं। उड़ती कला में जाने वाली आत्मायें हो। जिसको योग्य देखा जाता है उनको सम्पूर्ण योगी बनाने का इशारा दिया जाता है। अच्छा –
सदा कर्मबंधन मुक्त, योगयुक्त आत्माओं को, सदा एक बाप को सहारा बनाने वाले बच्चों को, सदा सूक्ष्म कमज़ोरियों से भी किनारा करने वाले बच्चों, को सदा एकाग्रता द्वारा परखने के शक्तिशाली बच्चों को, सदा व्यक्ति वा वस्तु के विनाशी सहारे से किनारे करने वाले बच्चों को, ऐसे बाप समान जीवनमुक्त कर्मातीत स्थिति में स्थित रहने वाले विशेष बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते!’’
निर्मलशान्ता दादी से - सदा बाप के साथ रहने वाले तो हैं ही। जो आदि से बाप के संग-संग चल रहे हैं, उन्हों का सदा साथ का कभी भी अनुभव कम हो नहीं सकता। बचपन का वायदा है। तो सदा साथ हैं और सदा साथ चलेंगे। तो सदा साथ का वायदा कहो या वरदान कहो, मिला हुआ है। फिर भी जैसे बाप प्रीति की रीति निभाने अव्यक्त से व्यक्त रूप में आते हैं वैसे बच्चे भी प्रीत की रीति निभाने के लिए पहुँच जाते हैं। ऐसे है ना! संकल्प में तो क्या लेकिन स्वप्न में भी, जिसको सबकानशियस कहते हैं...उस स्थिति में भी बाप का साथ कभी छूट नहीं सकता। इतना पक्का सम्बन्ध जुटा हुआ है। कितने जन्मों का सम्बन्ध है। पूरे कल्प का है। सम्बन्ध इस जन्म के हिसाब से पूरा कल्प ही रहेगा। यह तो अन्तिम जन्म में कोई-कोई बच्चे सेवा के लिए कहाँ-कहाँ बिखर गये हैं। जैसे यह लोग विदेश में पहुँच गये, आप लोग सिन्ध में पहुँच गये। कोई कहाँ पहुँचे, कोई कहाँ पहुँचे। अगर यह विदेश में नहीं पहुँचते तो इतने सेन्टर कैसे खुलते। अच्छासदा साथ रहने वाली, साथ का वायदा निभाने वाली परदादी हो! बापदादा बच्चों के सेवा का उमंग उत्साह देख खुश होते हैं। वरदानी आत्मायें बनी हो। अभी से देखो भीड़ लगने शुरू हो गई है। जब और वृद्धि होगी तो कितनी भीड़ होगी। यह वरदानी रूप की विशेषता की नींव पड़ रही है। जब भीड़ हो जायेगी फिर क्या करेंगे। वरदान देंगे, दृष्टि देंगे। यहाँ से ही चैतन्य मूर्तियाँ प्रसिद्ध होंगी। जैसे शूरू में आप लोगों को सब देवियाँ-देवियाँ कहते थे...अन्त में भी पहचान कर देवियाँ-देवियाँ करेंगे। ‘जय देवी, जय देवी’ यहाँ से ही शुरू हो जायेगा। अच्छा
जगदीश भाई से - जो बाप से वरदान में विशेषतायें मिली हैं, उन्हीं विशेषताओं को कार्य में लाते हुए सदा वृद्धि को प्राप्त करते रहते हो। अच्छा है! संजय ने क्या किया था? सभी को दृष्टि दी थी ना! तो यह नॉलेज की दृष्टि दे रहे हो। यही दिव्य दृष्टि है, नॉलेज ही दिव्य है ना। नॉलेज की दृष्टि सबसे शक्तिशाली है, यह भी वरदान है। नहीं तो इतनी बड़ी विश्व विद्यालय का क्या नॉलेज है उसका पता कैसे चलता? सुनते तो बहुत कम है ना! लिटरेचर द्वारा स्पष्ट हो जाता है। यह भी एक वरदान मिला हुआ है। यह भी एक विशेष आत्मा की विशेषता है। हर संस्था की सब साधनों से विशेषता प्रसिद्ध होती है। जैसे भाषणों से, सम्मेलनों से, ऐसे ही यह लिटरेचर, चित्र जो भी साधन हैं, यह भी संस्था या विश्व विद्यालय की एक विशेषता को प्रसिद्ध करने का साधन हैं। यह भी तीर है जैसे तीर पंछी को ले आता है ना - ऐसे यह भी एक तीर है जो आत्माओं को समीप ले आता है। यह भी ड्रामा में पार्ट मिला है। लोगों के क्वेश्चन तो बहुत उठते हैं, जो क्वेश्चन उठते हैं - उसके स्पष्टीकरण का साधन जरूरी है। जैसे सम्मुख भी सुनाते हैं लेकिन यह लिटरेचर भी अच्छा साधन है। यह भी जरूरी है। शुरू से देखो ब्रह्मा बाप ने कितनी रूचि से यह साधन बनाये। दिन रात स्वयं बैठकर लिखते थे ना। कार्ड बना बनाकर आप लोगों को देते रहे ना - आप लोग उसे रत्न जड़ित करते रहे। तो यह भी करके दिखाया ना। तो यह भी साधन अच्छे हैं। कांफ्रेंस के पीछे पीठ करने के लिए यह जो (चार्टर आदि) निकालते हो यह भी जरूरी है। पीठ करने का कोई साधन जरूर चाहिए। पहले का यह है, दूसरे का यह है, तीसरे का यह है। इससे वह लोग भी समझते हैं कि बहुत कायदे प्रमाण यह विश्व विद्यालय वा यूनिवर्सिटी है। तो यह अच्छे साधन हैं। मेहनत करते हो तो उसमें बल भर ही जाता है। अभी गोल्डन जुबली के प्लैन बनायेंगे फिर मनायेंगे। जितने प्लैन करेंगे उतना बल भरता जायेगा। सभी के सहयोग से सभी के उमंग-उत्साह के संकल्प से सफलता तो हुई पड़ी है। सिर्फ रिपीट करना है। अभी तो गोल्डन जुबली का बहुत सोच रहे हैं ना। पहले बड़ा लगता है फिर बहुत सहज हो जाता है। तो सहज सफलता है ही। सफलता हरेक के मस्तक पर लिखी हुई है।
पार्टियों से - सदा डबल लाइट हो? किसी भी बात में स्वयं को कभी भी भारी न बनाओ। सदा डबल लाइट रहने से संगमयुग के सुख के दिन रूहानी मौजों के दिन सफल होंगे। अगर जरा भी बोझ धारण किया तो क्या होगा? मूँझ होगी या मौज? भारीपन है तो मूँझ है। हल्कापन है तो मौज है! संगमयुग का एक-एक दिन कितना वैल्युएबल है, कितना महान है, कितना कमाई करने का समय है, ऐसे कमाई के समय को सफल करते चलो। राज़युक्त और योगयुक्त आत्मायें सदा उड़ती कला का अनुभव करती हैं। तो खूब याद में रहो, पढ़ाई में, सेवा में आगे जाओ। रूकने वाले नहीं। पढ़ाई और पढ़ाने वाला सदा साथ रहे। राज़युक्त और योगयुक्त आत्मायें सदा ही आगे हैं। बाप के जो भी इशारे मिलते हैं उसमें संगठित रूप से आगे बढ़ते रहो। जो भी निमित्त बनी हुई विशेष आत्मायें हैं उन्हों की विशेषाताओं को, धारणाओं को कैच कर, उन्हें फॉलो करते आगे बढ़ते चलो। जितना बाप के समीप उतना परिवार के समीप। अगर परिवार के समीप नहीं होंगे तो माला में नहीं आयेंगे। अच्छा –
30-03-85 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
तीन-तीन बातों का पाठ
बापदादा के विदाई के दिन अनमोल महावाक्य
आज बापदादा अपने सदा के साथी बच्चों से मिलने आये हैं। बच्चे ही बाप के सदा साथी हैं, सहयोगी हैं, क्योंकि अति स्नेही हैं। जहाँ स्नेह होता है उसके ही सदा सहयोगी साथी बनते हैं। तो स्नेही बच्चे होने कारण बाप बच्चों के बिना कोई कार्य कर नहीं सकते। और बच्चे बाप के सिवाए कोई कार्य कर नहीं सकते। इसलिए स्थापना के आदि से बाप ने ब्रह्मा के साथ ब्राह्मण बच्चे रचे। अकेला ब्रह्मा नहीं। ब्रह्मा के साथ ब्राह्मण बच्चे भी पैदा हुए। क्यों? बच्चे सहयोगी साथी क्यों हैं। इसलिए जब बाप की जयन्ती मनाते हो तो साथ में क्या कहते हो? शिव जयन्ती सो ब्रह्मा की जयन्ती, ब्राह्मणों की जयन्ती। तो साथ-साथ बापदादा और बच्चे सभी की आदि रचना हुई और आदि से ही बाप के सहयोगी साथी बने। तो बाप अपने सहयोगी साथियों से मिल रहे हैं। साथी अर्थात् हर कदम में, हर संकल्प में, बोल में साथ निभाने वाले। फॉलो करना अर्थात् साथ निभाना। ऐसे हर कदम में साथ निभाने वाले अर्थात् फॉलो फादर करने वाले सच्चे साथी हैं। अविनाशी साथी हैं। जो सच्चे साथी हैं उन्हों का हर एक कदम स्वत: ही बाप समान चलता रहता है। यहाँ वहाँ हो नहीं सकता। सच्चे साथी को मेहनत नहीं करनी पड़ती। यह कदम ऐसे उठाऊँ वा वैसे उठाऊँ। स्वत: ही बाप के कदम ऊपर कदम रखने के सिवाए जरा भी यहाँ वहाँ हो नहीं सकता। ऐसे सच्चे साथी बच्चों के मन में, बुद्धि में, दिल में क्या समाया हुआ है? ‘मैं बाप का, बाप मेरा’। बुद्धि में है जो बाप का बेहद के खजानों का वर्सा है वह मेरा। दिल में दिलाराम और दिलाराम की याद। और कुछ हो नहीं सकता तो जब बाप ही याद रूप में समाया हुआ है तो जैसी स्मृति वैसी स्थिति और वैसे ही कर्म स्वत: ही होते हैं। जैसे भक्ति मार्ग में भी भक्त निश्चय दिखाने के लिए यही कहते हैं कि देखो हमारे दिल में कौन है! आप कहते नहीं हो लेकिन स्वत: ही आपके दिल से दिलाराम ही सभी को अनुभव होता अर्थात् दिखाई देता है। तो सच्चे साथी हर कदम में बाप समान मास्टर सर्वशक्तिवान हैं।
आज बापदादा बच्चों को बधाई देने आये हैं। सभी सहयोगी साथी बच्चे अपने-अपने उमंग-उत्साह से याद में, सेवा में आगे बढ़ते जा रहे हैं। हरेक के मन में एक ही दृढ़ संकल्प है कि विजय का झण्डा लहराना ही है। सारे विश्व में एक रूहनी बाप की प्रत्यक्षता का झण्डा लहरने वाला ही है। जिस ऊँचे झण्डे के नीचे सारे विश्व की आत्मायें यह गीत गायेंगी कि एक बाप आ गया। जैसे अभी आप लोग झण्डा लहराते हो तो सभी झण्डे के नीचे गीत गाते हो और फिर क्या होता है! झण्डा लहराने से सभी के ऊपर फूलों की वर्षा होती है। ऐसे सभी की दिल से यह गीत स्वत: ही निकलेगा। सर्व का एक बाप। गति सद्गति दाता एक बाप। ऐसे गीत गाते ही अविनाशी सुख शान्ति का वर्सा, पुष्पों की वर्षा समान अनुभव करेंगे। बाप कहा और वर्से का अनुभव किया। तो सबके मन में यह एक ही उमंग-उत्साह है। इसलिए बापदादा बच्चों के उमंग-उत्साह पर बच्चों को बधाई देते हैं। विदाई तो नहीं देंगे ना। बधाई। संगमयुग का हर समय बधाई का समय है। तो मन की लगन पर, सेवा की लगन पर बापदादा सभी बच्चों को बधाई दे रहे हैं। सेवा में सदा आगे बढ़ने का सभी का उमंग है। ऐसा कोई नहीं होगा जिसको सेवा में आगे बढ़ने का उमंग न हो। अगर उमंग नहीं होता तो यहाँ कैसे आते! यह भी उमंग की निशानी है ना! उमंग-उत्साह है और सदा रहेगा। साथसाथ उमंग-उत्साह से आगे बढ़ते हुए सेवा में सदा निर्विघ्न हैं? उमंग-उत्साह तो बहुत अच्छा है, लेकिन निर्विघ्न सेवा और विघ्न पार करते-करते सेवा करना, इसमें अन्तर है। निर्विघ्न अर्थात् न किसी के लिए विघ्न रूप बनते और न किसी विघ्न स्वरूप से घबराते। यह विशेषता उमंग-उत्साह के साथ-साथ अनुभव करते हो? या विघ्न आते हैं? एक विघ्न पाठ पढ़ाने आते दूसरा विघ्न हिलाने आते हैं। अगर पाठ पढ़ाके पक्के हो गये तो वह विघ्न लगन में परिवर्तन हो जाते। अगर विघ्न में घबरा जाते हैं तो रजिस्टर में दाग पड़ जाता है। फर्क हुआ ना।!
ब्राह्मण बनना माना माया को चैलेन्ज करना है कि विघ्न भले आओ। हम विजयी हैं। तुम कुछ कर नहीं सकते। पहले माया के फ्रेंडस थे। अब चैलेन्ज करते हो तो मायाजीत बनेंगे। चैलेन्ज करते हो ना? नहीं तो विजयी किस पर बनते हो? अपने ऊपर? विजयी रत्न बनते हो तो विजय माया पर ही प्राप्त करते हो ना! विजय माला में पिराये जाते हैं, पूजे जाते हो। तो मायाजीत बनना अर्थात् विजयी बनना है। ब्राह्मण बनना अर्थात् माया को चैलेन्ज करना। चैलेन्ज करने वाले खेल करते हैं। आया और गया। दूर से ही जान लेते हैं, दूर से ही भगा देते हैं। टाइम वेस्ट नहीं करते हैं। सेवा में तो सभी बहुत अच्छे हो। सेवा के साथसाथ निर्विघ्न सेवा का रिकार्ड हो। जैसे पवित्रता का आदि से रिकार्ड रखते हो ना। ऐसा कौन है जो संकल्प में भी आदि से अब तक अपवित्र नहीं बने हैं! तो यह विशेषता देखते हो ना। सिर्फ इस एक पवित्रता की बात से पास विद ऑनर तो नहीं होंगे। लेकिन सेवा में, स्व स्थिति में, सम्पर्क, सम्बन्ध में, याद में, सभी में जो आदि से अब तक अचल हैं, हलचल में नहीं आये हैं, विघ्नों के वशीभूत नहीं हुए हैं। सुनाया ना कि न विघ्नों के वश होना है, न स्वयं किसके आगे विघ्न रूप बनना है। इसकी भी मार्क्स जमा होती हैं। एक प्युरिटी दूसरा अव्यभिचारी याद। याद के बीच में जरा भी कोई विघ्न न हो। इसी रीति से सेवा में सदा निर्विघ्न हो और गुणों में सदा सन्तुष्ट हो और सन्तुष्ट करने वाले हो। सन्तुष्टता का गुण सभी गुणों की धारणा का दर्पण है। तो गुणों में सन्तुष्टता का स्व प्रति और दूसरों से सर्टिफिकेट लेना होता। यह है पास विद ऑनर की निशानी। अष्ट रत्नों की निशानी। सब में नम्बर लेने वाले हो ना कि बस एक में ही ठीक हैं। सेवा में अच्छा हूँ। बधाई तो बापदादा दे ही रहे हैं। अष्ट बनना है, इष्ट बनना है। अष्ट बनेंगे तो इष्ट भी इतना ही महान बनेंगे। उसके लिए तीन बातें सारा वर्ष याद रखना और चेक करना। और यह तीनों ही बातें अगर जरा भी संकल्प मात्र में रही हुई हों तो विदाई दे देना। आज बधाई का दिन है ना। जब छुट्टी देते हो तो विदाई में क्या करते हो? (मिश्री, बादामी, इलायची देते हैं) उसमें तीन चीज़ें होती हैं। तो बापदादा को भी तीन चीज़ें देंगे ना। विदाई नहीं बधाई है तब तो मुख मीठा कराते हो। तो जैसे यहाँ तीन चीज़ें किसलिए देते हो? फिर जल्दी आने की याद रहेगी। बापदादा भी आज तीन बातें बता रहे हैं। जो सेवा में कभी-कभी विघ्न रूप भी बन जाती हैं। तो तीन बातों के ऊपर विशेष फिर से बापदादा अटेन्शन दिला रहे हैं। जिस अटेन्शन से स्वत: ही पास विद ऑनर बन ही जायेंगे।
एक बात - किसी भी प्रकार का हद का लगाव न हो। बाप का लगाव और चीज़ है लेकिन हद का लगाव न हो।
दूसरा - किसी भी प्रकार का स्वयं का स्वयं से वा किसी दूसरे से तनाव अर्थात् खींचातान नहीं हो। लगाव नहीं हो, माया से युद्ध के बजाए आपस में खींचातान न हो।
तीसरा - किसी भी प्रकार का कमज़ोर स्वभाव न हो। लगाव, तनाव और कमज़ोर स्वभाव। वास्तव में स्वभाव शब्द बहुत अच्छा है। स्वभाव अर्थात् स्व का भाव। स्व श्रेष्ठ को कहा जाता है। श्रेष्ठ भाव है, स्व का भाव है, आत्म-अभिमान है। लेकिन भाव-स्वभाव, भाव-स्वभाव बहुत शब्द बोलते हो ना। तो यह कमज़ोर स्वभाव है। जो समय प्रति समय उड़ती कला में विघ्न रूप बन जाता है। जिसको आप लोग रॉयल रूप में कहते हो मेरी नेचर ऐसी है। नेचर श्रेष्ठ है तो बाप समान हैं। विघ्न रूप बनती है तो कमज़ोर स्वभाव है। तो तीनों शब्दों का अर्थ जानते हो ना। कई प्रकार के तनाव हैं, तनाव का आधार है - ‘मैं-पन’। मैंने यह किया। मैं यह कर सकती हूँ! मैं ही करूँगा! यह जो मैं-पन है यह तनाव पैदा करता है। ‘‘मैं’’ यह देह अभिमान का है। एक है - मैं श्रेष्ठ आत्मा हूँ। एक है मैं फलानी हूँ, मैं समझदार हूँ, मैं योगी हूँ, मैं ज्ञानी हूँ। मैं सेवा में नम्बर आगे हूँ। यह मैं-पन तनाव पैदा करता है। इसी कारण सेवा में कहाँ-कहाँ जो तीव्रगति होनी चाहिए वह तीव्र के बजाए धीमी गति हो जाती है। चलते रहते हैं लेकिन स्पीड नहीं हो सकती। स्पीड तीव्र करने का आधार है - दूसरे को आगे बढ़ता हुआ देख सदा दूसरे को बढ़ाना ही अपना बढ़ना है। समझते हो ना सेवा में क्या मैं-पन आता है। यह मैं-पन ही तीव्रगति को समाप्त कर देता है। समझा!
यह तीन बातें तो देंगे ना कि फिर साथ में ले जायेंगे। इसको कहा जाता है - ‘त्याग से मिला हुआ भाग्य’। सदा बांटके खाओ और बढ़ाओ। यह त्याग का भाग्य मिला है। सेवा का साधन यह त्याग का भाग्य है। लेकिन इस भाग्य को मैंपन में सीमित रखेंगे तो बढ़ेगा नहीं। सदा त्याग के भाग्य के फल को औरों को भी सहयोगी बनाए बांटके आगे बढ़ो। सिर्फ मैं, मैं नहीं करो, आप भी खाओ। बांटकर एक दो में हाथ मिलाते हुए आगे बढ़ो। अभी सेवा के बीच में यह वायब्रेशन दिखाई देते हैं। तो इसमें फराखदिल हो जाओ। इसको कहते हैं - जो ओटे सो अर्जुन। एक दो को नहीं देखो। यह भी तो ऐसे करते हैं ना! यह तो होता ही है, लेकिन मैं विशेषता दिखाने के लिए निमित्त बन जाऊँ। ब्रह्मा बाप की विशेषता क्या रही! सदा बच्चों को आगे रखा। मेरे से बच्चे होशियार हैं। बच्चे करेंगे! इतने तक त्याग के भाग्य का त्याग किया। अगर कोई प्यार के कारण, प्राप्ति के कारण ब्रह्मा की महिमा करते थे तो उसको भी बाप की याद दिलाते थे। ब्रह्मा से वर्सा नहीं मिलेगा। ब्रह्मा का फोटो नहीं रखना है। ब्रह्मा को सब कुछ नहीं समझना। तो इसको कहा है - त्याग के भाग्य का भी त्याग कर सेवा में लग जाना। इसमें डबल महादानी हो जाते। दूसरा आफर करे, स्वयं अपनी तरफ न खींचे। अगर स्वयं अपनी महिमा करते, अपनी तरफ खींचते हैं तो उसको क्या शब्द कहते हैं! मुरलियों में सुना है ना। ऐसा नहीं बनना। कोई भी बात को स्वयं अपनी तरफ खींचने की खींचातान कभी नहीं करो। सहज मिले वह श्रेष्ठ भाग्य है। खींच के लेने वाला इसको श्रेष्ठ भाग्य नहीं कहेंगे। उसमें सिद्धि नहीं होती। मेहनत ज्यादा सफलता कम। क्योंकि सभी की आशीर्वाद नहीं मिलती है। जो सहज मिलता है उसमें सभी की आशीर्वाद भरी हुई है। समझा –
तनाव क्या है! लगाव को तो उस दिन स्पष्ट किया था। कोई भी कमज़ोर स्वभाव न हो। ऐसे भी नहीं समझो मैं तो इस देश का रहने वाला हूँ। इसलिए मेरा स्वभाव, मेरा चलना मेरा रहना ऐसा है, नहीं। देश के कारण, धर्म के कारण, संग के कारण ऐसा मेरा स्वभाव है। यह नहीं। आप कौन से देश वाले हो! यह तो सेवा के लिए निमित्त स्थान मिले हैं। न कोई विदेशी है, न यह नशा हो कि मैं भारतवासी हूँ। सभी एक बाप के हैं। भारतवासी भी ब्राह्मण आत्मायें हैं। विदेश में रहने वाले भी ब्राह्मण आत्मायें हैं। अन्तर नहीं है। ऐसे नहीं भारतवासी ऐसे हैं। विदेशी ऐसे हैं। यह शब्द भी कभी नहीं बोलो। सब ब्राह्मण आत्मायें हैं। यह तो सेवा के लिए स्थान है। सुनाया था ना कि आप विदेश में क्यों पहुँचे हो? वहाँ क्यों जन्म लिया? भारत में क्यों नहीं लिया? वहाँ गये हो सेवा स्थान खोलने के लिए। नहीं तो भारतवासियों को वीसा का कितना प्रॉबलम है। आप सब तो सहज रहे पड़े हो। कितने देशों में सेवा हो रही है! तो सेवा के लिए विदेश में गये हो। बाकी हो सभी ब्राह्मण आत्मायें। इसलिए कोई भी किसी आधार में स्वभाव नहीं बनाना। जो बाप का स्वभाव वह बच्चों का स्वभाव। बाप का स्वभाव क्या है? सदा हर आत्मा के प्रति कल्याण वा रहम की भावना का स्वभाव। हर एक को ऊँचा उठाने का स्वभाव, मधुरता का स्वभाव। निर्मानता का स्वभाव। मेरा स्वभाव ऐसा है यह कभी नहीं बोलना। मेरा कहाँ से आया। मेरा तेज बोलने का स्वभाव है, मेरा आवेश में आने का स्वभाव है। स्वभाव के कारण हो जाता है। यह माया है। कईयों का अभिमान का स्वभाव, ईर्ष्या का, आवेश में आने का स्वभाव होता है, दिलशिकस्त होने का स्वभाव होता है। अच्छा होते भी अपने को अच्छा नहीं समझते। सदैव अपने को कमज़ोर ही समझेंगे। मैं आगे जा नहीं सकती। कर नहीं सकती। यह दिलशिकस्त स्वभाव यह भी रांग है। अभिमान में नहीं आओ। लेकिन स्वमान में रहो तो इसी प्रकार के स्वभाव को कहा जाता है कमज़ोर स्वभाव। तो तीनों बातों का अटेन्शन सारा वर्ष रखना। इन तीनों बातों से सेफ रहना है। मुश्किल तो नहीं है ना। साथी आदि से अन्त तक सहयोगी साथी है। साथी तो समान चाहिए ना। अगर साथियों में समानता नहीं होगी तो साथी प्रीत की रीति निभा नहीं सकते। अच्छा यह तो 3 बातें अटेन्शन में रखेंगे। लेकिन इन तीन बातों से सदा किनारा करने के लिए और 3 बातें याद रखनी हैं। आज तीन का पाठ पढ़ा रहे हैं। सदा अपने जीवन में - एक बैलेन्स रखना है। सब बात में बैलेन्स हो। याद में, सेवा में बैलेन्स। स्वमान, अभिमान को समाप्त करता। स्वमान में स्थित रहना। यह सब बातें स्मृति में रहे। ज्यादा रमणीक भी नहीं, ज्यादा गम्भीर भी नहीं। बैलेन्स हो। समय पर रमणीक, समय पर गम्भीर। तो एक है ‘बैलेन्स’। दूसरा सदा अमृतवेले बाप से विशेष ब्लैसिंग लेनी है! रोज अमृतवेले बापदादा बच्चों प्रति ब्लैसिंग की झोली खोलते हैं। उससे जितना लेने चाहो उतना ले सकते हो। ‘तो बैलेन्स, ब्लैसिंग तीसरा ब्लिसफुल लाइफ’। तीनों बातें स्मृति में रहने से वह तीनों बातें जो अटेन्शन देने की हैं, वह स्वत: ही समाप्त हो जायेंगी। समझा! अच्छा और तीन बातें सुनो –
लक्ष्य रूप में वा धारण के रूप में विशेष तीन बातें ध्यान में रखनी हैं। वह छोड़नी हैं और वह धारण करनी है। छोड़ने वाली तो छोड़ दी ना सदा के लिए। उसको याद करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। लेकिन यह तीन बातें जो सुनाई यह स्मृति में रखना और धारणा स्वरूप में विशेष याद रखना। एक - सब बातों में रीयल्टी हो। मिक्स नहीं। इसको कहते हैं - रीयल्टी। संकल्प में, बोल में, सब बात में रीयल। ‘सच्ची दिल पर साहेब राजी’। सच की निशानी क्या होगी? सच तो बिठो नच। जो सच्चा होगा वह सदा खुशी में नाचता रहेगा। तो एक रीयल्टी दूसरा रॉयल्टी। छोटी-छोटी बात में कभी भी बुद्धि झुकाव में न आवे। जैसे रॉयल बच्चे होते हैं तो उन्हों की कब छोटी-सी चीज़ पर नजर नहीं जायेगी। अगर नजर गई तो उसको रॉयल नहीं कहा जाता। किसी भी छोटी-छोटी बातों में बुद्धि का झुकाव हो जाए तो उसको रॉयल्टी नहीं कहा जाता। जो रॉयल होता है वह सदा प्राप्ति स्वरूप होता है। कहाँ अरँख वा बुद्धि नहीं जाती। तो यह है रूहानी रॉयल्टी, कपड़ों की रॉयल्टी नहीं। ‘तो रीयल्टी, रॉयल्टी और तीसरा युनिटी’। हर बात में, संकल्प में, बोल में, कर्म में भी सदा एक दो में युनिटी दिखाई दे। ब्राह्मण माना ही एक। लाख नहीं, एक। इसको कहा जाता है युनिटी। वहाँ अनेक स्थिति के कारण एक भी अनेक हो जाते। और यहाँ अनेक होते भी एक हैं। इसको कहा जाता है - ‘युनिटी’। दूसरे को नहीं देखना है। हम चाहते हैं युनिटी करें लेकिन यह नहीं करते हैं। अगर आप करते रहेंगे तो उसको डिसयुनिटी का चांस ही नहीं मिलेगा। कोई हाथ ऐसे करता, दूसरा न करे तो आवाज़ नहीं होगा। अगर कोई डिसयुनिटी का कोई भी कार्य करता है, आप युनिटी में रहो तो डिसयुनिटी वाले कब डिसयुनिटी का काम कर नहीं सकेंगे। युनिटी में आना ही पड़ेगा। इसलिए तीन बातें - रीयल्टी, रॉयल्टी और युनिटी। यह तीनों ही बातें सदा बाप समान बनने में सहयोगी बनेंगी। समझा! आज तीन का पाठ पढ़ लिया ना। बाप को तो बच्चों पर नाज़ है। इतने योग्य बच्चे और योगी बच्चे किसी बाप के हो ही नहीं सकते। योग्य भी हो, योगी भी हो और एक-एक पदमापदम भाग्यवान हो। सारे कल्प में इतने और ऐसे बच्चे हो ही नहीं सकते। इसलिए विशेष अमृतवेले का टाइम बापदादा ने क्यों रखा है - ब्राह्मण बच्चों के लिए। क्योंकि विशेष बापदादा हर बच्चे की विशेषता को, सेवा को, गुण को सदा सामने लाते हैं। और क्या करते हैं? जो हर बच्चे की विशेषता है, गुण है, सेवा है, उसको विशेष वरदान से अविनाशी बनाते हैं। इसलिए खास यह समय बच्चों का रखा है। अमृतवेले की विशेष पालना है। हर एक को बापदादा स्नेह के सहयोग की, वरदान की पालना देते हैं। समझा बाप क्या करते हैं और आप लोग क्या करते हो। शिवबाबा सुखदाता है, शान्ति दाता है...ऐसे कहते हो ना। और बाप पालना देते हैं। जैसे माँ बाप बच्चों को सवेरे तैयार करते साफ सुथरा करके फिर कहते अब सारा दिन खाओ पियो पढ़ो। बापदादा भी अमृतवेले यह पालना देते अर्थात् सारे दिन के लिए शक्ति भर देते हैं। विशेष पालना का यह समय है। यह एक्स्ट्रा वरदान की पालना का समय है। अमृतवेले वरदानों की झोली खुलती है। जितना जो वरदान लेने चाहे सच्ची दिल से, मतलब से नहीं। जब मतलब होगा तब कहेंगे हमको यह दो, जो मतलब से मांगता है तो बापदादा क्या करते हैं! उनका मतलब सिद्ध करने के लिए उतनी शक्ति देता है, मतलब पूरा हुआ और खत्म। फिर भी बच्चे हैं, ना तो नहीं करेंगे। लेकिन सदा ही वरदानों से पलते रहो, चलते रहो, उड़ते रहो उसके लिए जितना अमृतवेला शक्तिशाली बनायेंगे उतना सारा दिन सहज होगा। समझा।
अभी इस वर्ष गोल्डन जुबली की तैयारी तो कर रहे हो- लेकिन इस वर्ष में हर एक सेवाकेन्द्र पर और क्या विशेषता करो वह बता रहे हैं। गोल्डन जुबली तो करनी है वह नहीं भूल जाना लेकिन साथ-साथ बापदादा सभी स्थानों का चक्र लगाते, क्लासेज देखते हैं। रेग्युलर स्टूडेन्ट देखते हैं, कभी-कभी आने वाले देखते, सम्पर्क वाले देखते। यह सब देखते हुए इस वर्ष यह लक्ष्य रखो कि हर सेन्टर पर, हर प्रकार की वैराइटी होनी चाहिए। वकील भी हो, जज भी हो, डाक्टर भी हो, साइन्स वाला आदि...सब होने चाहिए। सभी धर्म वाले भी होने चाहिए। सब प्रकार की वैराइटी ज्यादा में ज्यादा जितनी भी हो लेकिन कम से कम एक भी आक्यूपेशन वाले सब वैराइटी हर स्थान पर होनी चाहिए। स्टूडेन्ट भी हो तो बूढ़ा भी हो, युवा भी हो, बच्चा भी हो। सब प्रकार की वैराइटी होनी चाहिए। प्रवृत्ति वाले युगल भी होने चाहिए। जैसे आप लोग रिजल्ट निकालते हो - एक तो आयु के हिसाब से वैराइटी निकालते हो। दूसरा सेवा के हिसाब से वर्ग निकालते हो। एक भी आक्यूपेशन वाला कम न हो। इसको कहा जाता है - वैराइटी प्रकार का गुलदस्ता। एक भी रंग रूप का पुष्प कम न हो। हर एक सेवाकेन्द्र - ऐसी संख्या सब प्रकार की बढ़ाओ। जितना बढ़ाओ उतना नम्बर आगे हो। इस वर्ष में ऐसे वैराइटी प्रकार के स्टूडैण्ट तैयार करो। कोई जिस भी क्लास में जावे तो उनको सब प्रकार के आक्यूपेशन वाले दिखाई दें। और वह एक फिर अपने हमजिन्स की सेवा जरूर करे तो संख्या भी बढ़ जायेगी और वैराइटी भी होगी। बाकी वी.आई.पी. की सर्विस तो करते ही हो। उसमें भी एडीशन। बापदादा ने सुनाया था - सिर्फ सुनने लिए नहीं आवें लेकिन लेने लिए आवें। बन करके जावें। सिर्फ सुना बहुत अच्छा लगा। नहीं। कुछ लेके जा रहा हूँ। बनकर के जा रहा हूँ। वी.आई.पी. की सेवा तो जितना बढ़ाते रहेंगे उतना आवाज़ बुलन्द होता जायेगा। धीरे-धीरे आवाज़ बुलन्द हो रहा है लेकिन एक तरफ का एक आवाज़ बड़ा आता है। सब तरफ नहीं होता है। तो एक तरफ का आवाज़ छिप जाता है। चारों तरफ से बुलन्द आवाज़ होगा तो विजय का नगाड़ा। बज जायेगा। जब विजय का नगाड़ा बजाते हैं तो चारों तरफ चक्कर लगाते हैं। चारों तरफ आवाज़ फैलता है। तो समझा सेवा में क्या करना है! स्वस्थिति और सेवा के उन्नति। स्व स्थिति ही सेवा की उन्नति के लिए सहज सिद्धि वा सहज साधन है। स्व की उन्नति के बिना सेवा की उन्नति अविनाशी, निर्विघ्न नहीं बनेगी। इसलिए दोनों का बैलेन्स हो। स्व उन्नति को छोड़ सिर्फ सेवा की उन्नति नहीं करो। साथ-साथ करो। नहीं तो जिनके निमित्त बनते हैं वह भी कमज़ोर होते। उन्हों को भी बहुत मेहनत करनी पड़ती। इसलिए स्व उन्नति, सेवा की उन्नति सदा ही साथ रखते हुए उड़ते चलो। अच्छा –
सदा स्वयं को पास विद ऑनर बनने के लक्ष्य और लक्षण में चलाने वाले, सदा स्वयं को ब्रह्मा बाप समान त्याग का भाग्य बांटने वाले, नम्बरवन त्यागी, श्रेष्ठ भाग्य बनाने वाले, सदा सहज प्राप्ति के अधिकारी बन स्व उन्नति और सेवा की उन्नति करने वाले, सदा हर कदम में सहयोगी, साथी बन आगे बढ़ने वाले, स्मृति, स्थिति शक्तिशाली बनाने से सदा बाप को फॉलो करने वाले, ऐसे सदा सहयोगी-साथी, फरमानवरदार, आज्ञाकारी, सन्तुष्ट रहने वाले, सर्व को राजी करने के राज़ को जानने वाले, ऐसी श्रेष्ठ आत्माओं को, महान पुण्य आत्माओं को, डबल महादानी बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।’’
बड़ी दादियों से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात - आदि से अब तक जो हर कार्य में साथ चलते आ रहे हैं, उन्हों की यह विशेषता है - जैसे ब्रह्मा बाप हर कदम में अनुभवी बन अनुभव की अथॉरिटी से विश्व के राज्य की अथॉरिटी लेते हैं ऐसे ही आप सभी भी बहुतकाल के हर प्रकार के अनुभव की अथॉरिटी के कारण बहुतकाल के राज्य की अथॉरिटी में भी साथी बनने वाले हो। जिन्होंने आदि से संकल्प किया - जहाँ बिठायेंगे, जैसे चलायेंगे वैसे चलते हुए साथ चलेंगे। तो साथ चलने का पहला वायदा बापदादा को निभाना ही पड़ेगा। ब्रह्मा बाप के भी साथ रहने वाले हो। राज्य में भी साथ रहेंगे, भक्ति में भी साथ रहेंगे। जितना अभी बुद्धि से सदा का साथ रहता है उसी हिसाब से राज्य में भी सदा साथ हैं। अगर अभी थोड़ा-सा दूर तो कोई जन्म में दूर के हो जायेंगे। कोई जन्म में नजदीक के। लेकिन जो सदा ही बुद्धि से साथ में रहते हैं, वह वहाँ भी साथ-साथ रहेंगे। साकार में तो आप सब 14 वर्ष साथ रहे, संगमयुग के 14 वर्ष कितने वर्षों के समान हो गये। संगमयुग का इतना समय साकार रूप में साथ रहे हो, यह भी बहुत बड़ा भाग्य है। फिर बुद्धि से भी साथ हो, घर में भी साथ होंगे, राज्य में भी साथ होंगे। भले तख्त पर थोड़े बैठते हैं लेकिन रॉयल फैमली के नजदीक सम्बन्ध में, सारे दिन की दिनचर्या में साथ रहने में पार्ट जरूर बजाते हैं। तो यह आदि से साथ रहने का वायदा सारा कल्प ही चलता रहेगा। भक्ति में भी काफी समय साथ रहेंगे। यह पीछे के जन्म में थोड़ा-सा कोई दूर, कोई नजदीक लेकिन फिर भी साथ सारा कल्प किसी न किसी रूप से रहते हैं। ऐसा वायदा है ना! इसलिए आप लोगों को सभी किस नजर से देखते हैं! बाप के रूप हो। इसी को ही भक्ति में उन्होंने कहा है - यह सब भगवान के रूप हैं! क्योंकि बाप समान बनते हो ना! आपके रूप से बाप दिखाई देता है इसलिए बाप के रूप कह देते हैं। जो बाप के सदा साथ रहने वाले हैं उनकी यही विशेषता होगी, उनको देखकर बाप याद आयेगा, उनको नहीं याद करेंगे लेकिन बाप को याद करेंगे। उन्हों से बाप के चरित्र, बाप की दृष्टि, बाप के कर्म, सब अनुभव होंगे। वह स्वयं नहीं दिखाई देंगे लेकिन उन द्वारा बाप के कर्म वा दृष्टि अनुभव होगी। यही विशेषता है अनन्य, समान बच्चे की। सभी ऐसे हो ना! आप में तो नहीं फँसते हैं ना! यह तो नहीं कहते फलानी बहुत अच्छी है, नहीं। बाप ने इन्हें अच्छा बनाया है। बाप की दृष्टि, बाप की पालना इन्हों से मिलती है। बाप के महावाक्य इन्हों से सुनते हैं। यह विशेषता है। इसको कहा जाता है - प्यारा भी लेकिन न्यारा भी। प्यारा भले सबका हो लेकिन फँसानेवाला नहीं हो। बाप के बदले आपको याद न करें। बाप की शक्ति लेने के लिए बाप के महावाक्य सुनने के लिए आपको याद करें। इसको कहते हैं - ‘प्यारा भी और न्यारा भी’। ऐसा ग्रुप है ना! कोई तो विशेषता होगी ना जो साकार की पालना ली है - विशेषता तो होगी ना। आप लोगों के पास आयेंगे तो क्या पूछेंगे - बाप क्या करता था, कैसे चलता था...यही याद आयेगा ना! ऐसी विशेष आत्मायें हो। इसको कहते हैं - डिवाइन युनिटी। डिवाइन की स्मृति दिलाए डिवाइन बनाते, इसलिए डिवाइन युनिटी। 50 वर्ष अविनाशी रहे हो तो अविनाशी भव की मुबारक हो। कई आये कई चक्र लगाने गये। आप लोग तो अनादि अविनाशी हो गये। अनादि में भी साथ, आदि में भी साथ। वतन में साथ रहेंगे तो सेवा कैसे करेंगे! आप तो थोड़ा-सा आराम भी करते हो, बाप को आराम की भी आवश्यकता नहीं। बापदादा इससे भी छूट गये। अव्यक्त को आराम की आवश्यकता नहीं। व्यक्त को आवश्यकता है। इसमें आपसमान बनायें तो काम खत्म हो जाए। फिर भी देखो जब कोई सेवा का चांस बनता है तो बाप समान अथक बन जाते हो। फिर थकते नहीं हो। अच्छा –
दादीजी से - बचपन से बाप ने ताजधारी बनाया है। आते ही सेवा की जिम्मेवारी का ताज पहनाया और समय प्रति समय जो भी पार्ट चला - चाहे बेगरी पार्ट चला, चाहे मौजों का पार्ट चला, सभी पार्ट में जिम्मेवारी का ताज ड्रामा अनुसार धारण करती आई हो। इसलिए अव्यक्त पार्ट में भी ताजधारी निमित्त बन गई। तो यह विशेष आदि से पार्ट है। सदा जिम्मेवारी निभाने वाली। जैसे बाप जिम्मेवार है तो जिम्मेवारी के ताजधारी बनने का विशेष पार्ट है। इसलिए अन्त में भी दृष्टि द्वारा ताज, तिलक सब देकर गये। इसलिए आपका जो यादगार है ना उसमें ताज जरूर होगा। जैसे कृष्ण को बचपन से ताज दिखाते हैं तो यादगार में भी बचपन से ताजधारी रूप से पूजते हैं। और सब साथी हैं लेकिन आप ताजधारी हो। साथ तो सभी निभाते लेकिन समान रूप में साथ निभाना। इसमें अन्तर है।
विदाई के समय सभी बच्चों को यादप्यार - सभी तरफ के स्नेही सहयोगी बच्चों को बापदादा का विशेष स्नेह सम्पन्न यादप्यार स्वीकार हो। आज बापदादा सभी बच्चों को सदा निर्विघ्न बन, विघ्न विनाशक बन विश्व को निर्विघ्न बनाने के कार्य की बधाई दे रहे हैं। हर बच्चा यही श्रेष्ठ संकल्प करता है कि सेवा में सदा आगे बढ़ें, यह श्रेष्ठ संकल्प सेवा में सदा आगे बढ़ा रहा है और बढ़ाता रहेगा। सेवा के साथ-साथ स्व-उन्नति और सेवा की उन्नति का बैलेन्स रख आगे बढ़ते चलो तो बापदादा और सर्व आत्माओं द्वारा जिन्हों के निमित्त बनते हो, उन्हों के दिल की दुआयें प्राप्त होती रहेंगी। तो सदा बैलेन्स द्वारा ब्लैसिंग लेते हुए आगे बढ़ते चलो। स्व-उन्नति और सेवा की उन्नति दोनों साथ-साथ रहने से सदा और सहज सफलता स्वरूप बन जायेंगे। सभी अपने-अपने नाम से विशेष यादप्यार स्वीकार करना। अच्छा – ओम शान्ति।
11-04-85 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
मुख्य भाई-बहनों की मीटिंग में अव्यक्त बापदादा के मधुर महावाक्य
आज विशेष विश्व-परिवर्तन, आधार स्वरूप, विश्व के बेहद सेवा के आधार स्वरूप, श्रेष्ठ स्मृति, बेहद की वृत्ति, मधुर अमूल्य बोल बोलने के आधार द्वारा औरों को भी ऐसे उमंग-उत्साह दिलाने के आधार स्वरूप निमित्त और निर्मान स्वरूप ऐसी विशेष आत्माओं से मिलने के लिए आये हैं। हर एक अपने को ऐसा आधार स्वरूप अनुभव करते हो? आधार रूप आत्माओं के इस संगठन पर इतनी बेहद की जिम्मेवारी है। आधार रूप अर्थात् सदा स्वयं को हर समय, हर संकल्प, कर्म में जिम्मेवार समझ चलने वाले। इस संगठन में आना अर्थात् बेहद के जिम्मेवारी के ताजधारी बनना। यह संगठन जिसको मीटिंग कहते हो, मीटिंग में आना अर्थात् सदा बाप से, सेवा से, परिवार से, स्नेह के श्रेष्ठ संकल्प के धागे में बंधना और बांधना, इसके आधार रूप हो। इस निमित्त संगठन में आना अर्थात् स्वयं को सर्व के प्रति एग्जैम्पुल बनाना। यह मीटिंग नहीं लेकिन सदा मर्यादा पुरूषोत्तम बनने के शुभ संकल्प के बंधन में बंधना है। इन सब बातों के आधार स्वरूप बनना इसको कहा जाता है - आधार स्वरूप संगठन। चारों ओर के विशेष चुने हुए रतन इकट्ठे हुए हो। चुने हुए अर्थात् बाप समान बने हुए। सेवा का आधार स्वरूप अर्थात् स्व उद्धार और सर्व के उद्धार स्वरूप। जितना स्व के उद्धार स्वरूप होंगे उतना ही सर्व के उद्धार स्वरूप निमित्त बनेंगे। बापदादा इस संगठन के आधार रूप और उद्धार रूप बच्चों को देख रहे थे और विशेष विशेषता देख रहे थे आधार रूप भी बन गये, उद्धार रूप भी बने। इन दोनों बातों में सफलता पाने के लिए तीसरी क्या बात चाहिए? आधार रूप हैं तभी तो निमन्त्रण पर आये हैं ना। और उद्धार रूप हैं तब तो प्लैन्स बनाये हैं। उद्धार करना अर्थात् सेवा करना। तीसरी बात क्या देखी? जितने विशेष संगठन के हैं उतने उदारचित्त। उदारदिल वा उदारचित्त के बोल, उदारचित्त की भावना कहाँ तक है? क्योंकि उदारचित्त अर्थात् सदा हर कार्य में फ़रागदिल, बड़ी दिल वाले। किस बात में फ़रागदिल वा बड़ी दिल हो? सर्व प्रति शुभ भावना द्वारा आगे बढ़ाने में फ़रागदिल। तेरा सो मेरा, मेरा सो तेरा। क्योंकि एक ही बाप का है। इस बेहद की वृत्ति में फ़रागदिल। बड़ी दिल हो। उदार दिल हो अर्थात् दातापन की भावना की दिल। अपने प्राप्त किये हुए गुण, शक्तियाँ, विशेषतायें सबमें महादानी बनने में फ़रागदिल। वाणी द्वारा ज्ञान धन दान करना यह कोई बड़ी बात नहीं है। लेकिन गुण दान वा गुण देने के सहयोगी बनना। यह दान शब्द ब्राह्मणों के लिए योग्य नहीं है। अपने गुण से दूसरे को गुणवान, विशेषता भरने में सहयोगी बनना इसको कहा जाता है महादानी, फ़रागदिल। ऐसा उदारचित्त बनना, उदार दिल बनना यह है ब्रह्मा बाप को फॉलो फादर करना। ऐसे उदारचित्त की निशानी क्या होगी?
तीन निशानियाँ विशेष होंगी। ऐसी आत्मा ईर्ष्या, घृणा और क्रिटिसाइज करना (जिसको टोन्ट मारना कहते हो) इन तीनों बातों से सदा मुक्त होगी। इसको कहा जाता उदारचित्त। ईर्ष्या स्वयं को भी परेशान करती, दूसरे को भी परेशान करती है। जैसे क्रोध को अग्नि कहते हैं ऐसे ईर्ष्या भी अग्नि जैसा ही काम करती है। क्रोध महा अग्नि है, ईष्या छोटी अग्नि है। घृणा कभी भी शुभ चिन्तक, शुभ चिन्तन स्थिति का अनुभव नहीं करायेगी। घृणा अर्थात् खुद भी गिरना और दूसरे को भी गिराना। ऐसे क्रिटिसाइज करना चाहे हँसी में करो, चाहे सीरियस होकर करो लेकिन यह ऐसा दु:ख देता है जैसे कोई चल रहा हो, उसको धक्का देकर गिराना। ठोकर देना। जैसे कोई गिरा देते तो छोटी चोट वा बड़ी चोट लगने से वह हिम्मतहीन हो जाता है। उसी चोट को ही सोचते रहते हैं, जब तक वो चोट होगी तब तक चोट देने वाले को किसी भी रूप में याद जरूर करता रहेगा यह साधारण बात नहीं है। किसके लिए कह देना बहुत सहज है। लेकिन हँसी की चोट भी दु:ख रूप बन जाती है। यह दु:ख देने की लिस्ट में आता है। तो समझा! जितने आधार स्वरूप हो उतने उद्धार स्वरूप, उदारदिल, उदारचित्त बनने के निमित्त स्वरूप। निशानियाँ समझ ली ना। उदारचित्त फ़रागदिल होगा।
संगठन तो बहुत अच्छा है। सभी नामीग्रामी आये हुए हैं। प्लैन्स भी अच्छे- अच्छे बनाये हैं। प्लैन को प्रैक्टिकल में लाने के निमित्त हो। जितने अच्छे प्लैन बनाये हैं उतने स्वयं भी अच्छे हो। बाप को अच्छे लगते हो। सेवा की लगन बहुत अच्छी है। सेवा का सदाकाल की सफलता का आधार उदारता है। सभी का लक्ष्य, शुभ संकल्प बहुत अच्छा है और एक ही है। सिर्फ एक शब्द एड करना है। एक बाप को प्रत्यक्ष करना है - एक बनकर एक को प्रत्यक्ष करना है। सिर्फ यह एडीशन करनी है। एक बाप का परिचय देने के लिए अज्ञानी लोग भी अंगुली का इशारा करेंगे। दो अंगुली नहीं दिखायेंगे। सहयोगी बनने की निशानी भी एक अंगुली दिखायेंगे। आप विशेष आत्माओं की यही विशेषता की निशानी चली आ रही है।
तो इस गोल्डन जुबली को मनाने के लिए वा प्लैन बनाने के लिए सदा दो बातें याद रहें - ‘‘एकता और एकाग्रता’’। यह दोनों श्रेष्ठ भुजायें हैं, कार्य करने की, सफलता की। एकाग्रता अर्थात् सदा निर्व्यर्थ संकल्प, निर्विकल्प। जहाँ एकता और एकाग्रता है वहाँ सफलता गले का हार है। गोल्डन जुबली का कार्य इन विशेष दो भुजाओं से करना। दो भुजायें तो सभी को हैं। दो यह लगाना तो चतुर्भुज हो जायेंगे। सत्यनारायण और महालक्ष्मी को चार भुजायें दिखाई हैं। तो अभी सत्यनारायण, महालक्ष्मियाँ हो। चतुर्भुजधारी बन हर कार्य करना अर्थात् साक्षात्कार स्वरूप बनना। सिर्फ 2 भुजाओं से काम नहीं करना। 4 भुजाओं से करना। अभी गोल्डन जुबली का श्रीगणेश किया है ना। गणेश को भी 4 भुजा दिखाते हैं। बापदादा रोज मीटिंग में आते हैं। एक चक्र में ही सारा समाचार मालूम हो जाता है। बापदादा सभी का चित्र खींच जाते हैं। कैसे-कैसे बैठे हैं। शरीर रूप में नहीं। मन की स्थिति के आसन का फोटो निकालते हैं। मुख से कोई क्या भी बोल रहा हो लेकिन मन से क्या बोल रहे हैं, वह मन के बोल टेप करते हैं। बापदादा के पास भी सबके टेप किये हुए कैसेट्स हैं। चित्र भी हैं, दोनों हैं। वीडियो, टी.वी.आदि जो चाहो वह है। आप लोगों के पास अपना कैसेट तो है ना। लेकिन कोई-कोई को अपने मन की आवाज़, संकल्प का पता नहीं चलता है। अच्छा!
यूथ प्लैन सभी को अच्छा लगता है। यह भी उमंग-उत्साह की बात है। हठ की बात नहीं है। जो दिल का उमंग होता है वह स्वत: ही औरों में भी उमंग का वातावरण बनाते हैं। तो यह पद यात्रा नहीं लेकिन उमंग की यात्रा है। यह तो निमित्त मात्र है। जो भी निमित्त मात्र कार्य करते हो उसमें उमंग-उत्साह की विशेषता हो। सभी को प्लैन पसन्द है। आगे भी जैसे चार भुजाधारी बन करके प्लैन प्रैक्टिकल में लाते रहेंगे तो और भी एडीशन होती रहेगी। बापदादा को सबसे अच्छे ते अच्छी बात यह लगी कि सभी को गोल्डन जुबली धूमधाम से मनाने का उमंग-उत्साह वाला संकल्प एक है। यह फाउण्डेशन सभी के उमंग उत्साह के संकल्प का एक ही है। इसी एक शब्द को सदा अण्डरलाइन लगाते आगे बढ़ना। एक हैं, एक का कार्य है। चाहे किस भी कोने में हो रहा है, चाहे देश में हो वा विदेश में हो। चाहे किसी भी जोन में हो, इस्ट में हो, वेस्ट में हो लेकिन एक हैं, एक का कार्य है। ऐसे ही सभी का संकल्प है ना! पहले यह प्रतिज्ञा की है ना। मुख की प्रतिज्ञा नहीं, मन में यह प्रतिज्ञा अर्थात् अटल संकल्प। कुछ भी हो जाये लेकिन टल नहीं सकते। अटल। ऐसे प्रतिज्ञा सभी ने की? जैसे कोई भी शुभ कार्य करते हैं तो प्रतिज्ञा करने के लिए सभी पहले मन में संकल्प करने की निशानी कंगन बांधते हैं। कार्यकर्त्ताओं को चाहे धागे का, चाहे किसका भी कंगन बांधते हैं। तो यह श्रेष्ठ संकल्प का कंगन है ना। और जैसे आज सभी ने भण्डारी में बहुत उमंग-उत्साह से श्रीगणेश किया। ऐसे ही अभी यह भी भण्डारी रखो। जिस में सभी यह अटल प्रतिज्ञा समझ यह भी चिटकी डालें। दोनों भण्डारी साथ-साथ होंगी तब सफलता होगी। और मन से हो, दिखावे से नहीं। यही फाउण्डेशन है। गोल्डन बन गोल्डन जुबली मनाने का यह आधार है। इसमें सिर्फ एक स्लोगान याद रखना - ‘‘न समस्या बनेंगे न समस्या को देख डगमग होंगे।’’ स्वयं भी समाधान स्वरूप होंगे और दूसरों को भी समाधान देने वाले। यह स्मृति स्वत: ही गोल्डन जुबली को सफलता स्वरूप बनाती रहेगी। जब फाइनल गोल्डन जुबली होगी तो सभी को आपके गोल्डन स्वरूप अनुभव होंगे। आप में गोल्डन वर्ल्ड देखेंगे। सिर्फ कहेंगे नहीं गोल्डन दुनिया आ रही है लेकिन प्रैक्टिल दिखायेंगे। जैसे जादूगर लोग दिखाते जाते, बोलते जाते - यह देखो... तो आपका यह गोल्डन चेहरा, चमकता हुआ मस्तक, चमकती हुई आँखें, चमकते हुए ओंठ यह सब गोल्डन एज का साक्षात्कार करावें। जैसे चित्र बनाते हैं ना - एक ही चित्र में अभी-अभी ब्रह्मा देखे अभी-अभी कृष्ण देखो, विष्णु देखो। ऐसे आपका साक्षात्कार हो। अभी-अभी फरिश्ता, अभी-अभी विश्व-महाराजन विश्वमहारानी रूप। अभी-अभी साधारण सफेद वस्त्रधारी। यह भिन्न-भिन्न स्वरूप आपके इस गोल्डन मूर्त्त से दिखाई दें। समझा!
जब इतने चुने हुए रूहानी गुलाब का गुलदस्ता इकठ्ठा हुआ है। एक रूहानी गुलाब की खुशबू कितनी होती है। और यह इतना बड़ा गुलदस्ता कितनी कमाल करेगा! और एक-एक सितारे में संसार भी है। अकेले नहीं हो। उन सितारों में दुनिया नहीं है। आप सितारों में तो दुनिया है ना! कमाल तो होनी ही है। हुई पड़ी है। सिर्फ जो ओटे सो अर्जुन बने। बाकी अर्जुन अर्थात् नम्बरवन। अभी इस पर इनाम देना। पूरी गोल्डन जुबली में - न समस्या बना न समस्या को देखा। निर्विघ्न, निर्विकल्प, निर्विकारी तीनों ही विशेषता हों। एसी गोल्डन स्थिति में रहने वालों को वह इनाम देना। बापदादा को भी खुशी है। विशाल बुद्धि वाले बच्चों को देख खुशी तो होगी ना। जैसे विशाल बुद्धि वैसे विशाल दिल। सभी विशाल बुद्धि वाले हो तब तो प्लेन बनाने आये हो। अच्छा-
सदा स्वयं को आधार स्वरूप, उद्धार करने वाले स्वरूप, सदा उदारता वाले उदार दिल, उदारचित्त, सदा एक हैं एक का ही कार्य है, ऐसे एकरस स्थिति में स्थित रहने वाले, सदा एकता और एकाग्रता में स्थित रहने वाले ऐसे विशाल बुद्धि, विशाल चित्त बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।’’
मुख्य भाई-बहनों से - सभी ने मीटिंग की। श्रेष्ठ संकल्पों की सिद्धि होती ही है। सदा उमंग उत्साह से आगे बढ़ना यही विशेषता है। मंसा सेवा की विशेष ट्रायल करो। मंसा सेवा जैसे एक चुम्बक है। जैसे चुम्बक कितनी भी दूर की सुई को खींच सकता है ऐसे मंसा सेवा द्वारा घर बैठे समीप पहुँच जायेगा। अभी आप लोग बाहर ज्यादा बिजी रहते हो, मंसा सेवा को यूज़ करो। स्थापना में जो भी बड़े कार्य हुए हैं तो सफलता मंसा सेवा की हुई है। जैसे वह लोग रामलीला या कुछ भी कार्य करते हैं तो कार्य के पहले अपनी स्थिति को उसी कार्य के अनुसार व्रत में रखते हैं। तो आप सभी भी मंसा सेवा का वृत लो। व्रत न धारण करने से हलचल में ज्यादा रहते हो। इसलिए रिजल्ट में कभी कैसा कभी कैसा। मंसा सेवा का अभ्यास ज्यादा चाहिए। मंसा सेवा करने के लिए लाइट हाउस और माइट हाउस स्थिति चाहिए। माइट और माइक दोनों इकठ्ठा हो। माइक के आगे माइट होकर बोलना है। माइक भी हो माइट भी हो। मुख भी माइक है।
तो माइट होकर माइक से बोलो। जैसे पावरफुल स्टेज में ऊपर से उतरा हूँ, अवतार होकर सबके प्रति वह सन्देश दे रहा हूँ। अवतार बोल रहा हूँ। अवतरित हुआ हूँ। अवतार की स्टेज पावरफुल होगी ना। ऊपर से जो उतरता है, उसकी गोल्डन एज स्थिति होती है ना! तो जिस समय आप अपने को अवतार समझेंगे तो वही पावरफुल स्टेज है। अच्छा-
यूथ रैली के बारे में तथा यूथ विंग के बारे में - यूथ विंग भले बनाओ। जो भी करो - सन्तुष्टता हो, सफलता हो। बाकी तो सेवा के लिए ही जीवन है। अपने उमंग से अगर कोई कार्य करते हैं तो उसमें कोई हर्जा नहीं। प्रोग्राम है, करना है तो वह दूसरा रूप हो जाता है। लेकिन अपने उमंग उत्साह से करने चाहते हैं तो कोई हर्जा नहीं। जहाँ भी जायेंगे वहाँ जो भी मिलेंगे, जो भी देखेंगे तो सेवा है ही। सिर्फ बोलना ही सर्विस नहीं होती लेकिन अपना चेहरा सदा हर्षित हो। रूहानी चेहरा भी सेवा करता है। लक्ष्य रखें उमंग- उत्साह से खुशी-खुशी से रूहानी खुशी की झलक दिखाते हुए आगे बढ़ें। सिर्फ जबरदस्ती कोई को नहीं करना है। प्रोग्राम बना है तो करना ही है, ऐसी कोई बात नहीं है, अपना उमंग-उत्साह है तो करे, अच्छा है।
अगर कोई में उमंग नहीं है तो बंधे हुए नहीं हैं। हर्जा नहीं है। वैसे जो लक्ष्य था इस गोल्डन जुबली तक सब एरिया को कवर करने का तो जैसे वह पैदल चलने वाले अपने ग्रुप में आयेंगे वैसे बस द्वारा आने वाले भी हों। हर जोन वा हर एरिया में बस द्वारा सर्विस करते हुए दिल्ली पहुँच सकते हैं। दो प्रकार के ग्रुप बना दो। एक बस द्वारा आते रहें और सेवा करते आवें और एक पैदल द्वारा। डबल हो जायेगा। कर सकते हैं, यूथ हैं ना। उनको कहाँ न कहाँ शक्ति तो लगानी ही है। सेवा में शक्ति लगेगी तो अच्छा है। इसमें दोनों ही भाव सिद्ध हो जाएं - सेवा भी सिद्ध हो और नाम रखा है पदयात्रा तो वह भी सिद्ध हो जाए। हर स्टेट वाले अगर उनका (पदयात्रियों का) इन्टरव्यू लेने का पहले से ही प्रबन्ध रखेंगे तो आटोमेटिकली आवाज़ फैलेगा। लेकिन सिर्फ यह जरूर होना चाहिए कि रूहानी यात्रा दिखाई दे, पदयात्रा सिर्फ नहीं दिखाई दे। रूहानियत और खुशी की झलक हो। तो नवीतना दिखाई देगी। साधारण जैसे औरों की यात्रा निकलती है, वैसे नहीं लगे लेकिन ऐसे लगे यह डबल यात्री हैं, एक यात्रा नहीं करते हैं। याद की यात्रा वाले भी हैं, पद यात्रा वाले भी हैं। डबल यात्रा का प्रभाव चेहरे से दिखाई दे तो अच्छा है।
अलग-अलग ग्रुप से
1. सेवा करो और सन्तुष्टता लो। सिर्फ सेवा नहीं करना लेकिन ऐसी सेवा करो जिसमें सन्तुष्टता हो। सभी की दुआयें मिले। दुआओं वाली सेवा सहज सफलता दिलाती है। सेवा तो प्लैन प्रमाण करनी ही है और खूब करो। खुशी उमंग से करो लेकिन यह ध्यान जरूर रखो - जो सेवा की उसमें दुआयें प्राप्त हुई? या सिर्फ मेहनत की? जहाँ दुआयें होगी वहॉ मेहनत नहीं होगी। तो अभी यही लक्ष्य रखो कि जिससे भी सम्पर्क में आयें उसकी दुआएं लेते जाएँ। जब सबकी दुआयें लेंगे तब आधाकल्प आपके चित्र दुआयें देते रहेंगे। आपके चित्र से दुआये लेने आते हैं ना। देवी या देवता के पास दुआयें लेने जाते हैं ना। तो अभी सर्व की दुआयें जमा करते हो तब चित्रों द्वारा भी देते रहते हो। फंक्शन करो, रैली करो.. बी.आई.पीज, आई पीज सर्विस करो, सब कुछ करो लेकिन दुआओं वाली सेवा करो। (दुआयें लेने का साधन क्या है?) ‘हाँ जी’ का पाठ पक्का हो। कभी भी किसी को ना ना करके हिम्मतहीन नहीं बनाओ। मानो अगर कोई रांग भी हो तो उसको सीधा रांग नहीं कहो। पहले उसे दिलासा दो, हिम्मत दिलाओ। उसको हाँ करके पीछे समझाओ तो वह समझ जायेगा। पहले से ही ना ना कहेंगे तो उसकी जो थोड़ी भी हिम्मत होगी वह खत्म हो जायेगी। रांग तो हो भी सकता है लेकिन रांग को रांग कहेंगे तो वह अपने को रांग कभी नहीं समझेगा। इसलिए पहले उसे हाँ कहो, हिम्मत बढ़ाओ फिर वह स्वयं जजमेन्ट कर लेगा। रिगार्ड दो। यह विधि सिर्फ अपना लो। रांग भी हो तो पहले अच्छा कहो, पहले उसको हिम्मत आये। कोई गिरा हुआ हो तो क्या उसको और धक्का देंगे या उठायेंगे... उसे सहारा देकर पहले खड़ा करो। इसको कहते हैं - ‘उदारता’। सहयोगी बनने वालों को सहयोगी बनाते चलो। तुम भी आगे, मैं भी आगे। साथ-साथ चलते चलो। हाथ मिलाकर चलो। तो सफलता होगी। और सन्तुष्टता की दुआयें मिलेगी। ऐसी दुआयें लेने में महान बनो तो सेवा में स्वत: महान हो जायेंगे।
सेवाधारियों से - सेवा करते हुए सदा अपने को कर्मयोगी स्थिति में स्थित रहने का अनुभव करते हो कि कर्म करते हुए याद कम हो जाती है और कर्म में बुद्धि ज्यादा रहती है! क्योंकि याद में रहकर कर्म करने से कर्म में कभी थकावट नहीं होती। याद में रहकर कर्म करने वाले कर्म करते सदा खुशी का अनुभव करेंगे। कर्मयोगी बन कर्म अर्थात् सेवा करते हो ना! कर्मयोग के अभ्यासी सदा ही हर कदम में वर्तमान और भविष्य श्रेष्ठ बनाते हैं। भविष्य खाता सदा भरपूर और वर्तमान भी सदा श्रेष्ठ। ऐसे कर्मयोगी बन सेवा का पार्ट बजाते हो। भूल तो नहीं जाता। मधुबन में सेवाधारी हैं तो मधुबन स्वत: ही बाप की याद दिलाता है। सर्व शक्तियों का खजाना जमा किया है ना! इतना जमा किया है जो सदा भरपूर रहेंगे। संगमयुग पर बैटरी सदा चार्ज है। द्वापर से बैटरी ढीली होती। संगम पर सदा भरपूर, सदा चार्ज है। तो मधुबन में बैटरी भरने नहीं आते हो, स्वेज मनाने आते हो। बाप और बच्चों का स्नेह है इसलिए मिलना, सुनना, यही संगमयुग के स्वेज हैं। अच्छा –
02-09-85 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
दादी जी को विदेश यात्रा पर जाने की छुट्टी देते समय अव्यक्त बापदादा के महावाक्य
आज मुरबी बच्चों के स्नेह का रिटर्न देने आये हैं। मधुबन वालों को अथक सेवा का विशेष फल देने के लिए सिर्फ मिलन मनाने आये हैं। ये है स्नेह का प्रत्यक्ष प्रमाण स्वरूप। ब्राह्मण परिवार का विशेष फाउण्डेशन है ही यह विशेष स्नेह। वर्तमान समय स्नेह हर सेवा के कार्य में सफलता का सहज साधन है। योगी जीवन का फाउण्डेशन तो ‘निश्चय’ है लेकिन परिवार का फाउण्डेशन स्नेह है। जो स्नेह ही किसी के भी दिल को समीप ले आता है। वर्तमान समय याद और सेवा के बैलेन्स के साथ ‘स्नेह और सेवा’ का बैलेन्स सफलता का साधन है। चाहे देश की सेवा हो, चाहे विदेश की सेवा हो, दोनों की सफलता का साधन रूहानी स्नेह है। ज्ञान और योग शब्द तो बहुतों से सुना है। लेकिन दृष्टि से व श्रेष्ठ संकल्प से आत्माओं को स्नेह की अनुभूति होना यह विशेषता और नवीनता है। और आज के विश्व को स्नेह की आवश्यकता है। कितनी भी अभिमानी आत्मा को स्नेह समीप ला सकता है। स्नेह के भिखारी शान्ति के भिखारी हैं लेकिन शान्ति का अनुभव भी स्नेह की दृष्टि द्वारा ही कर सकते हैं। तो स्नेह, शान्ति का स्वत: ही अनुभव कराता है। क्योंकि स्नेह में खो जाते हैं। इसलिए थोड़े समय के लिए अशरीरी स्वत: ही बन जाते हैं। तो अशरीरी बनने के कारण शान्ति का अनुभव सहज होता है। बाप भी स्नेह का ही रेस्पाण्ड देता है। चाहे रथ चले न चले फिर भी बाप को स्नेह का सबूत देना ही है। बच्चों में भी यही स्नेह का प्रत्यक्ष रूप बापदादा देखना चाहते हैं। कोई (गुल्जार बहन, जगदीश भाई, निर्वैर भाई) विदेश सेवा कर लौटे हैं और कोई (दादी जी और मोहिनी बहन) जा रहे हैं। ये भी उन आत्मा के स्नेह का फल उन्हों को मिल रहा है। ड्रामा अनुसार सोचते और हैं लेकिन होता और है। फिर भी फल मिल ही जाता है। इसलिए प्रोग्राम बन ही जाता है। सभी अपना-अपना अच्छा ही पार्ट बजा कर आये हैं। बना बनाया ड्रामा नूँधा हुआ है तो सहज ही रिटर्न मिल जाता है। विदेश भी अच्छी लगन से सेवा में आगे बढ़ रहा है। हिम्मत और उमंग उन्हीं में चारों ओर अच्छा है। सभी के दिल के शुक्रिया के संकल्प बापदादा के पास पहुँचते रहते हैं। क्योंकि वह भी समझते हैं। भारत में भी कितनी आवश्यकता है फिर भी भारत का स्नेह ही हमें सहयोग दे रहा है। इसी भारत में सेवा करने वाले सहयोगी परिवार को दिल से शुक्रिया करते हैं। जितना ही देश दूर उतना ही दिल से पालना के पात्र बनने में समीप हैं इसलिए बापदादा चारों ओर के बच्चों को शुक्रिया के रिटर्न में यादप्यार और शुक्रिया दे रहे हैं। बाप भी तो गीत गाते हैं ना।
भारत में भी अच्छे उमंग उत्साह यात्रा का बहुत ही अच्छा पार्ट बजा रहे हैं। चारों ओर सेवा की धूमधाम की रौनक बहुत अच्छी है। उमंग-उत्साह थकावट को भुलाय सफलता प्राप्त करा रहा है। चारों ओर की सेवा की सफलता अच्छी है। बापदादा भी सभी बच्चों के सेवा के उमंग-उत्साह का स्वरूप देख हर्षित होते हैं।
(नेरोबी में जगदीश भाई पोप से मिलकर आये हैं) पोप को भी दृष्टि दी ना। यह भी आप के लिए विशेष वी.आई.पी. की सेवा में सफलता सहज होने का साधन है। जैसे भारत में विशेष राष्ट्रपति आये। तो अभी कह सकते हैं कि भारत में भी आये हैं। ऐसे ही विशेष विदेश में विदेश के मुख्य धर्म के प्रभाव के नाते से समीप सम्पर्क में आये तो किसी को भी सहज हिम्मत आ सकती है कि हम भी सम्पर्क में आयें। तो देश का भी अच्छा सेवा का साधन बना और विदेश सेवा का भी विशेष साधन बना। तो समय प्रमाण जो भी सेवा में समीप आने में कोई भी रूकावट आती है, वह भी सहज समाप्त हो जायेगी। प्राइम मिनिस्टर का मिलना तो हुआ ना। तो दुनिया वालों के लिए, ये एग्जाम्पिल भी मदद देते हैं। सभी के क्वेश्चन खत्म हो जाते हैं। तो ये भी ड्रामा अनुसार इसी वर्ष सेवा में सहज प्रत्यक्षता के साधन बने। अभी समीप आ रहे हैं। इन्हों का तो सिर्फ नाम ही काम करेगा। तो नाम से जो काम होना है उसकी धरनी तैयार हो गई। आवाज़ ये नहीं फैलायेंगे। आवाज़ फैलाने वाले माइक और हैं। ये माइक को लाइट देने वाले हैं। लेकिन फिर भी धरनी की तैयारी अच्छी हो गई है। जो विदेश में पहले वी.आई.पी. के लिए मुश्किल अनुभव करते थे, अभी वह चारों ओर सहज अनुभव करते हैं, ये रिजल्ट अभी अच्छी है। इन्हों के नाम से काम करने वाले तैयार हो जायेंगे। अभी देखो वह कब निमित्त बनता है। धरनी तैयार करने के लिए चारों ओर सब गये। भिन्न-भिन्न तरफ धरनी को पांव देकर तैयार तो किया है। अभी फल प्रत्यक्ष रूप में किस द्वारा होता है, उसकी तैयारी अब हो रही है। सभी की रिजल्ट अच्छी है।
पदयात्री भी एक बल एक भरोसा रखकर के आगे बढ़ रहे हैं। पहले मुश्किल लगता है। लेकिन जब प्रैक्टिकल में आते हैं तो सहज हो जाता है। तो सभी देशविदेश और जो भी सेवा के निमित्त बन सेवा द्वारा अनेकों को बापदादा के स्नेही सहयोगी बनाकर आये हैं, उन सभी को विशेष यादप्यार दे रहे हैं। हर बच्चे का वरदान अपना-अपना है। विशेष भारत के सब पदयात्रा पर चलने वाले बच्चों को और विदेश सेवा अर्थ चारों ओर निमित्त बने हुए बच्चों को और मधुबन निवासी श्रेष्ठ सेवा के निमित्त बने हुए बच्चों को, साथ-साथ जो सभी भारतवासी बच्चे यात्रा वालों को उमंग-उत्साह दिलाने के निमित्त बने हैं, उन सभी चारों ओर के बच्चों को विशेष यादप्यार और सेवा की सफलता की मुबारक दे रहे हैं। हरेक स्थान पर मेहनत तो की है, लेकिन ये विशेष कार्य अर्थ निमित्त बने। इसलिए विशेष जमा हो गया। हरेक देश मॉरीसियश, नैरोबी, अमरीका ये सब एग्जाम्पल तैयार हो रहे हैं। और ये एग्जाम्पल आगे प्रत्यक्षता में सहयोगी बनेंगे। अमरीका वालों ने भी कम नहीं किया है। एक-एक छोटे स्थान ने भी जितना उमंग-उल्लास से अपनी हैसियत (ताकत) के हिसाब से बहुत ज्यादा किया। फारेन में मैजारिटी क्रिश्चयन का फिर भी राज्य तो है ना। अभी चाहे वह ताकत खत्म हो गई है, लेकिन धर्म तो नहीं छोड़ा है। चर्च छोड़ दी है लेकिन धर्म नहीं छोड़ा है। इसलिए पोप भी वहाँ राजा के समान है। राजा तक पहुँचे तो प्रजा में स्वत: ही रिगार्ड बैठत है। जो कट्टर क्रिश्चियन हैं उन्हों के लिए भी ये एग्जाम्पल अच्छा है। एग्जाम्पल क्रिश्चियन के लिए निमित्त बनेगा। कृष्ण और क्रिश्चियन का कनेक्शन है ना। भारत का वातावरण फिर भी और होता है। सिक्यूरिटी आदि का बहुत होता है। लेकिन ये प्यार से मिला ये अच्छा है। रॉयल्टी से टाइम देना, विधिपूर्वक मिलना उसका प्रभाव पड़ता है। ये दिखाता है कि अभी समय समीप आ रहा है।
लंदन में भी विदेश के हिसाब से बहुत अच्छी संख्या है और विशेष मुरली से प्यार है, पढ़ाई से प्यार है, ये फाउण्डेशन हैं। इसमें लंदन का नम्बर वन है। कुछ भी हो जाए, कब क्लास मिस नहीं करते हैं। चार बजे का योग और क्लास का महत्व सबसे ज्यादा लंदन में हैं। इसका भी कारण स्नेह है। स्नेह के कारण खिंचे हुए आते हैं। वातावरण शक्तिशाली बनाने पर अटेन्शन अच्छा है। वैसे भी दूर देश जो हैं वहाँ वायुमण्डल ही सहारा समझते हैं। चाहे सेवाकेन्द्र का व अपना। जरा भी अगर कोई बात आती है तो फौरन अपने को चेक कर वातावरण शक्तिशाली बनाने का प्रयत्न अच्छा करते हैं। वहाँ वातावरण पावरफुल बनाने का लक्ष्य अच्छा है। छोटी-छोटी बात में वातावरण को खराब नहीं करते हैं। समझते हैं कि वातावरण शक्तिशाली नहीं होगा तो सेवा में सफलता नहीं होगी। इसलिए यह अटेन्शन अच्छा रखते हैं। अपने पुरूषार्थ का भी और सेन्टर के वातावरण का भी। हिम्मत और उमंग में कोई कम नहीं हैं।
जहाँ भी कदम रखते हैं वहाँ अवश्य विशेष प्राप्ति ब्राह्मणों को भी होती है और देश को भी होती है। संदेश भी मिलता है और ब्राह्मणों में भी विशेष शक्ति बढ़ती और पालना भी मिलती। साकार रूप से विशेष पालना पाकर सभी खुश होते हैं। और उसी खुशी में सेवा में आगे बढ़ते और सफलता को पाते हैं। दूर देश में रहने वालों के लिए पालना तो जरूरी है। पालना पाकर उड़ते हैं। जो मधुबन में आ नहीं सकते वह वहाँ बैठे मधुबन का अनुभव करते हैं। जैसे यहाँ स्वर्ग का और संगमयुग का आनन्द, दोनों अनुभव करते हैं। इसलिए ड्रामा अनुसार विदेश में जाने का पार्ट भी जो बना है वह आवश्यक है और सफलता भी है। हरेक विदेश के बच्चे अपने-अपने नाम से विशेष सेवा की मुबारक और विशेष सेवा की सफलता का रिटर्न यादप्यार स्वीकार करें। बाप के सामने एक- एक बच्चा है। हरेक देश का हरेक बच्चा नैनों के सामने आ रहा है। एक-एक को बापदादा यादप्यार दे रहे हैं। जो तड़पते हुए बच्चे हैं उन्हों की भी कमाल देख बापदादा सदा बच्चों के ऊपर स्नेह के पुष्पों की वर्षा करता है। बुद्धिबल उन्हों का कितना तेज है। दूसरा विमान नहीं है तो बुद्धि का विमान तेज है। उन्हों की बुद्धिबल पर बापदादा भी हर्षित होते हैं। हरेक स्थान की अपनी-अपनी विशेषता है। सिन्धी लोग भी अब समीप आ रहे हैं। जो आदि सो अन्त तो होना ही है।
ये भी जो भ्रान्ति बैठी हुई है कि ये सोशल वर्क नहीं करते हैं वह भी इस पदयात्रा को देख, ये भ्रान्ति भी मिट गई। अब क्रान्ति की तैयारी जोर शोर से हो रही है।
दिल्ली वाले भी अब पदयात्रियों का आह्वान कर रहे हैं। इतने ब्राह्मण घर में आयेंगे। ऐसे ब्राह्मण मेहमान तो भाग्यवान के पास ही आते हैं। देहली में सबको अधिकार है। अधिकारी को सत्कार तो देना है। देहली से ही विश्व में नाम जायेगा। अपनी-अपनी एरिया में तो कर ही रहे हैं। लेकिन देश-विदेश में तो देहली के ही टी.वी., रेडियो निमित्त बनेंगे।
(आज निर्मलशान्ता दादी भी आ पहुँची हैं) ये आदि रत्नों की निशानी है। ‘हाँ जी’ पाठ सदा याद होते हुए शरीर को भी शक्ति देकर पहुँच गयी। आदि रत्नों में ये नेचुरल संस्कार है। कब ना नहीं करते। सदैव हाँ जी करते हैं। और हाँ जी ने ही बड़ा हजूर बनाया है। इसलिए बापदादा भी खुश हैं। हिम्मते बच्ची को मदद दे बाप ने स्नेह मिलन का फल दिया।
(दादी को) सभी को सेवा के उमंग-उत्साह की मुबारक देना। और सदा खुशी के झूले में झूलते रहते, खुशी से सेवा में प्रत्यक्षता की लगन से आगे बढ़ते रहते हैं। इसलिए शुद्ध श्रेष्ठ संकल्प की सबको मुबारक हो। चार्ले, केन आदि जो ये पहला फल निकला, ये ग्रुप अच्छा रिटर्न दे रहे हैं। निर्मानता निर्माण का कार्य सहज करती है। जब तक निर्मान नहीं बने तब तक निर्माण नहीं कर सकते। ये परिवर्तन बहुत अच्छा है। सबका सुनना और समाना और सभी को स्नेह देना ये सफलता का आधार है। अच्छी प्रोगेस की है। नये-नये पाण्डवों ने भी अच्छी-में अच्छा परिवर्तन लाया है। सब तरफ वृद्धि अच्छी हो रही है। अभी और नवीनता करने का प्लान बनाना। इतने तक तो सभी की मेहनत करने का फल निकला है जो पहले सुनते ही नहीं थे, वह समीप आये - ब्राह्मण आत्मायें बन रही हैं। अभी और प्रत्यक्षता करने का कोई नया सेवा का साधन बनेगा। ब्राह्मणों का संगठन भी अच्छा है। अभी सेवा वृद्धि की ओर बढ़ रही है। एक बार वृद्धि शुरू हो जाती है तो फिर लहर चलती है। अच्छा।
11-11-85 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
‘दीपमाला’ - समीपता, सम्पन्नता और सम्पूर्णता का यादगार
सदा जागती जोत शिवबाबा बोले
आज विश्व की ज्योति जगाने वाले, जगे हुए दीपकों के मालिक अपनी दीपमाला को देख रहे हैं। वास्तविक ‘दीपमाला’ आप सबका यादगार है। तो दीपकों का मालिक सच्ची दीपमाला देख रहे हैं। यह दीपमाला विचित्र माला है। विचित्र मालिक और विचित्र माला है। वे लोग तो न मालिक को जानते हैं न माला को जानते हैं। मालिक को जाने तो माला को भी जाने। दीपमाला आप सबकी तीन विशेषताओं का यादगार है|
एक है समीपता- समीपता में स्नेह समाया हुआ है। अगर माला में स्नेह का, समीपता का आधार न हो तो माला नहीं बन सकती। मणका मणके से वा दीपकदीपक से जब स्नेह से समीप आता है तब ही माला कहलाई जाती है। स्नेह अर्थात् ‘समीपता’। स्नेह की निशानी समीपता ही होती है। एक समीपता। दूसरी - सम्पन्नता। दीपमाला सम्पन्नता की निशानी है। सिर्फ एक लक्ष्मी धन की देवी नहीं है लेकिन आप सभी धन से सम्पन्न देवियाँ हो। धन देवी होने के कारण धन्य देवी भी गाये जाते हैं। तो धन देवी-धन्य देवी यह सम्पन्न्ता की निशानी है। तीसरी बात सम्पूर्णता। सम्पूर्णता अर्थात् सदा जगे हुए दीपक। बुझे हुए दीपकों की दीपमाला नहीं कही जाती। जगे हुए दीपक की दीपमाला कही जाती। तो सदा एक रस जगे हुए दीपकों की निशानी - सम्पूर्णता है। तो दीपमाला समीपता, सम्पन्न्ता और सम्पूर्णता की विशेषताओं का यादगार है। इसलिए दीपमाला को बडा दिन कहा जाता है।
जो भी उत्सव मनाते हैं उनको बड़ा दिन कहा जाता है। क्योंकि विश्व के बड़ों का दिन है। विश्व में सबसे बड़े ते बड़े कौन हैं? आप सभी अपने को समझते हो? तो यह तीनों ही विशेषतायें स्वयं में अनुभव करते हो? आप सभी का यादगार मना रहे हैं। याद स्वरूप बनने वालों का यादगार बनता है। ऐसे याद स्वरूप बने हो? वा अभी भी कहेंगे बन रहे हैं, क्या कहेंगे? जग गये तो अंधकार समाप्त हो गया ना। जग गये अर्थात् अंधकार समाप्त। जग गये वा टिमटिमाने वाले हो? टिमटिमाते हुए दीपक कोई पसन्द नहीं करता। अभी बुझा, अभी जगा। लाइट भी अगर एकरस नहीं जलती तो पसन्द नहीं करेंगे। उसको बन्द कर देंगे ना। जगमगाते हुए दीपक और टिमटिमाते हुए दीपक। क्या पसन्द करेंगे?
बड़े दिन की छुट्टी क्यों मनाते हैं? जो भी बड़े दिन आते हैं उसमें छुट्टी मनाते हैं। और छुट्टी की खुशी होती है। हर मास के कैलेन्डर में पहले सब क्या देखते हैं? बड़े दिन कितने हैं, छुट्टियाँ कितनी हैं? तो बड़ा दिन अर्थात् छुट्टी का दिन। मेहनत से छुट्टी का दिन। मेहनत से छुट्टी का दिन और मुहब्बत के मजे में रहने का दिन। जब कमज़ोरियों को वा माया को छुट्टी दे देते हो तो मेहनत खत्म और मजे के दिन शुरू हो जाते हैं। बड़ा दिन अर्थात् छुट्टी का दिन। इसलिए यादगार रूप में भी छुट्टी मनाई जाती है। छुट्टी के दिन क्या करते हैं? मौज मनाते हैं ना। छुट्टी का दिन आराम का दिन होता है। आपका आराम क्या है? आप आराम करते हो? या आ-राम करते हो? आराम नहीं ‘आ राम-आ राम’ करते हो ना। इसी को ही वास्तविक ‘आराम’ कहते हैं। दीपमाला में और क्या करते हो? मुबारक, बधाईयाँ देते हो ना! कोई भी उत्सव आता है, जब एक दो से मिलते हैं तो बधाई देते हो ना! यह रिवाज भी क्यों चला है? जब भी कोई को मुबारक देते हो तो कैसे देते हो? गले मिलते, हाथ भी मिलते, मिठाई खिलाते, खुशी मनाते हैं। अपनी याद और प्यार देना और लेना इसमें भी मुबारक मानते हैं। तो संगम पर अर्थात् बड़े दिनों पर आप सभी सदाकाल के लिए माया के विदाई की बधाई मनाते हो। विजयी बनते हो। इसलिए विजयी बच्चों को बापदादा सदा मुबारक देते हैं। यादप्यार देते अर्थात् मुबारक देते। बापदादा रोज मुबारक देते हुए बापदादा हर रोज बच्चों को कौन-सा शब्द कहते हैं? ‘मीठेमीठे’ कह मुख मीठा कर देते हैं। बापदादा रोज मीठे-मीठे शब्द ही कहते हैं। मीठा का यादगार है। मुख मीठा करते रहते हो। ऐसी दीपमाला मनाने वाले हो वा आपकी दीपमाला मनाई जा रही है। आपने बाप के साथ मनाई है, इसलिए विश्व आपकी यादगार मनाता, समझा दीपमाला का अर्थ क्या है - बनना ही मनाना है।
दीपमाला के लिए आये हो! बापदादा भी दीपको की माला को देख हर्षित होते हैं। मिलना ही मनाना है। सभी मौजों के घर में पहुँच गये हो ना। मधुबन अर्थात् मौजों का घर। मन में मौज है तो हर कार्य में मौज है। किसी भी प्रकार की मूँझ नहीं। क्यों-क्या यह है - मूँझ। ओहो, आहा यह है मौज। क्यों, क्या तो अब नहीं है ना। दशहरा तो मना के आये हो ना। अभी दिवाली मनाने आये हो। दशहरे के बिना दीवाली नहीं होती। दशहरा समाप्त करके दीवाली मनाने आये हो। विजयी हो गये हो ना! अच्छा।
बच्चों की वृद्धि होती जा रही है और होती रहेगी। वृद्धि प्रमाण विधि भी बनानी पड़ती है। अव्यक्त होते अभी 17 वर्ष का 17वाँ पाठ पूरा हुआ। बाकी क्या रहा है? फिर भी बापदादा बच्चों के स्नेह के कारण अव्यक्त होते भी व्यक्त में टेम्प्रेरी रथ में 17 साल सवारी की। 17 साल कम तो नहीं। समय और शरीर की सीमा भी होती है। नाम तो अव्यक्त कहते और मिलने चाहते व्यक्त में। यह क्यों? सहज लगता है इसलिए? फिर भी बापदादा नये-नये बच्चों का उल्हना निभाने के लिए आते रहते हैं। अभी 18 तारीख को फिर 18 साल शुरू होगा। 18 अध्याय क्या है? सभी तैयार हो ना। सेवा समाप्त कर ली? अभी बाप समान अव्यक्त रूप बन जाओ। अव्यक्त रूप की सेवा की? अभी तो अव्यक्त रूप को भी व्यक्त में आना पड़ता है। अव्यक्त रूपधारी बन नष्टोमोहा स्मृतिर्लब्धा अर्थात् स्मृति स्वरूप। अभी यह सेवा रही हुई है। पदयात्रा की सेवा तो कर ली, अब रूहानी यात्रा का अनुभव कराना है। अभी इसी यात्रा की आवश्यकता है। इसलिए अभी बापदादा भी अव्यक्त विधि प्रमाण बच्चों से मिलन मनायेंगे। वृद्धि प्रमाण विधि को परिवर्तन करना ही होता है। बच्चों का अधिकार है - ‘मुरली’। मुरली द्वारा मिलना और अव्यक्त दृष्टि द्वारा, यह दोनों मिलन वरदान की अनुभूति करा सकते हैं। इसलिए अव्यक्त स्थिति में स्थित हो अब दृष्टि द्वारा वरदानों का अनुभव करो। नहीं तो सुनने की जिज्ञासा से दृष्टि का महत्व कम अनुभव कर सकते हो।
दो गायन हैं- नजर से निहाल और मुरली का जादू! इसलिए अब दृष्टि द्वारा वरदान पाने के अधिकारी बनो। जितना स्वयं अव्यक्त स्थिति में स्थित होंगे उतना अव्यक्त दृष्टि की भाषा को कैच कर सकेंगे। यह दृष्टि का वरदान सदाकाल का परिवर्तन का ‘वरदान’ है। वाणी का वरदान कभी याद रहता कभी भूल जाता है। लेकिन अव्यक्त रूप बन अव्यक्त दृष्टि से प्राप्त हुआ वरदान सदा स्मृति स्वरूप समर्थ स्वरूप बनाता है। अभी दृष्टि से दृष्टि की भाषा को जानो। स्थापना में क्या हुआ? दृष्टि की भाषा से दृष्टि के जादू से स्थापना का कार्य आरम्भ हुआ। समझा अच्छा फिर सुनायेंगे 18 अध्याय की सेवा क्या है।
बच्चे घर का शृंगार हैं। मधुबन का शृंगार मधुबन में पहुँच गये हो। भल मनाओ, गाओ-नाचो, लेकिन अव्यक्त रूप में। न्यारे और प्यारे रूप में। जो दुनिया करती है वह न्यारापन नहीं। खेलो, खाओ, हंसो, नाचो लेकिन ‘न्यारे और प्यारे’ रहो। बापदादा सभी सेवाकेन्द्रों के देश-विदेश के सभी बच्चों को, अपने गले के विजयी माला, दीपमाला को देखते हुए हर्षित हो रहे हैं और हरेक विजयी जगे हुए दीपक को संगमयुग और नई दुनिया के सर्व जन्मों की मुबारक दे रहे हैं। सदा समीप रहने वाले, सदा सम्पन्न रहने वाले, सदा सम्पूर्ण रहने वाले, तीनों विशेषताओं से भरपूर बच्चों को त्रिमूर्ति सम्बन्ध से सदाकाल की मुबारक कहो, बधाई कहो, ग्रीटिंग्स कहो, सदा है और सदा रहेगी।
बापदादा भी धनवान बच्चों को ‘‘धन्य हो धन्य हो’’ की मुबारक दे रहे हैं। सदा मीठे हैं, मीठे बनाने वाले हैं। मीठे बोल, मीठी भावना से सबको मन और मुख मीठा कराने वाले, ऐसे सदा मीठा भव! बापदादा सभी बच्चों की जगमगाती हुई ज्योति देख रहे हैं। दूर होते भी अनेक बच्चों के जगमगाते हुए ज्योति समूह के रूप में बापदादा के सामने अभी भी हैं। सभी बच्चों के मुबारक के संकल्प, बोल, पत्र और कार्ड बापदादा के सामने हैं। सभी देश-विदेश के बच्चों की दीपमाला की मुबारक के रिटर्न में अक्षौणी बार बापदादा मुबारक दे रहे हैं। नाम नहीं लेते लेकिन नाम बापदादा के सामने हैं। हर एक के नामों की माला भी बापदादा के गले में पिरोई हुई है। भिन्न-भिन्न कार्ड्स वतन की दीवार में लगे हुए हैं। लेकिन दिल का आवाज़ दिलाराम तक पहुँच गया। दूर सो समीप बच्चों और सम्मुख आने वाले बच्चों, दोनों को स्नेह सम्पन्नता और सम्पूर्णता भरी यादप्यार और नमस्ते।’’
दादियों से - माला के विजयी रत्न सदा ही विशेष गाये और पूजे जाते हैं। ऐसी विशेष पूज्य आत्मायें हो। जब कोई ऐसा दिन आता है तो जितना अव्यक्त स्थिति में स्थित होते हो उतना भक्त आत्माओं के आह्वान का अनुभव होता है! भक्तों की शुभ भावनायें वा कामनायें बाप द्वारा पूर्ण कराने के लिए विशेष वायब्रेशन आने चाहिए। आखिर सभी भक्त आत्मायें बाप के साथ अपनी पूज्य आत्माओं को प्रत्यक्ष रूप में देखेंगी। वर्णन करेंगी कि वही हमारे इष्ट देव हैं। इष्ट देव किसको बनाते हैं? इष्ट क्यों कहते हैं? क्योंकि उसी एक में - एक बल एक भरोसा होता है। उसी में परिपक्व रहते हैं। उन्हों के लिए वही एक सब कुछ होता है, ऐसे जो एक बाप में इष्ट भावना वाले रहे हैं, इष्ट स्थिति वाले रहे हैं वही ‘इष्ट देव’ बनते हैं। इसको कहते हैं -एक बल एक भरोसा! इष्ट देव की निशानी यह है जो एक बल एक भरोसे की स्थिति में, निश्चय में, सेवा में, परिपक्व रहे हैं। इसलिए इष्ट देव को मानने वाले भक्त भी एकाग्र रहते हैं। यहाँ वहाँ नहीं भटकते हैं। एक में अटल रहते हैं। बाप प्रत्यक्ष होंगे लेकिन बाप के साथ-साथ सब इष्ट देव, इष्ट देवियाँ भी प्रत्यक्ष होंगे। यह भी नशा चाहिए कि हम श्रेष्ठ आत्माओं का आह्वान हो रहा है। और हम ही बाप द्वारा उन्हों को रिटर्न दिलाने वाले हैं। दिलायेंगे तो बाप द्वारा ही लेकिन निमित्त बनते हैं - इसलिए वह इष्ट देव के रूप में पूजे जाते हैं। विशेष दिनों पर जैसे विशेष भक्त लोग व्रत रखते हैं, साधना करते हैं। एकाग्रता का विशेष अटेन्शन रखते हैं। ऐसे सेवाधारी बच्चों को भी वह वायब्रेशन आने चाहिए। हम ही हैं! यह अनुभव होना चाहिए। बापदादा तो है ही लेकिन साथ में अनन्य बच्चे भी हैं। यह प्रैक्टिकल में महसूसता आनी चाहिए। जो आशीर्वाद, आशीर्वाद का रिवाज चला है, वह ऐसे अनुभव होगा जैसे सम्पन्न होने के कारण ब्रह्मा बाप द्वारा चलते-फिरते सबको स्वत: आशीर्वाद का अनुभव होता था। तो आप भी चलते-फिरते ऐसे अनुभव करो जैसे बाप द्वारा कुछ न कुछ प्राप्ति करा रहे हैं। प्राप्ति ही आशीर्वाद है। और कुछ मुख से नहीं कहेंगे लेकिन प्राप्ति का अनुभव कराने के कारण सबके मुख से - ‘‘यही हैं, यहीं हैं’’ के गीत निकलेंगे। वह भी दिन आने वाले हैं। साक्षात्कार मूर्त्त अभी होने चाहिए। अभी सेवा साक्षात्कार मूर्त्त द्वारा हो। जैसे शुरू में चलते-फिरते साक्षात्कार मूर्त्त देखते थे। ब्रह्मा को नहीं देखते थे, कृष्ण को देखते थे। कृष्ण पर मोहित हुए ना! ब्रह्मा पर तो नहीं हुए। ब्रह्मा गुम होकर कृष्ण दिखाई देता था तब तो भागे ना! कृष्ण ने भगाया यह तो राइट है। क्योंकि ब्रह्मा को ब्रह्मा नहीं देखते कृष्ण देखते थे। तो यह साक्षात्कार स्वरूप हुआ ना! उसी ने इतना मस्त बनाया, भगाया। साक्षात्कार ने ही सब कुछ छुड़ाया। भक्ति का साक्षात्कार सिर्फ देखने का हेता है। लेकिन ज्ञान का होता है देखने के साथ पाना - यही अन्तर है। सिर्फ देखा नहीं, पाया। कृष्ण हमारा है, हम गोपियाँ हैं, इसी नशे ने स्थापना कराई। हम वही हैं, हमारे ही चित्र हैं। तो ऐसे ही साक्षात्कार द्वारा अभी भी सेवा हो। सुनने द्वारा प्रभाव तो पड़ता ही है लेकिन परिवर्तन नहीं होता है। अच्छा-अच्छा कहते हैं लेकिन अच्छा बनते नहीं। जब उन्हें साक्षात्कार में प्राप्ति होगी तो बनने के बिना रह नहीं सकेंगे। जैसे आप सब बन गये हो ना! तो अभी चलते-फिरते फरिश्ते स्वरूप का साक्षात्कार कराओ। सिर्फ भाषण वाले नहीं लेकिन साक्षात्कार स्वरूप दिखाई दे। भाषण करने वाले तो बहुत हैं लेकिन आप हो भासना देने वाले। ऐसे जो बनते हैं वही नम्बर आगे लेते हैं। सिर्फ क्लास कराने से भासना नहीं आती, क्लास सुनते भी हरेक की चाहना होती कि भासना मिले, तो अब भाषण बदलकर भासना दो। तब समझेंगे कि यह अल्लाह लोग हैं। अल्लाह लोग अर्थात् न्यारे। अभी तो कह देते हैं - यह भी अच्छा वह भी अच्छा। मिलाते रहते हैं लेकिन अभी भासना स्वरूप बन जाओ। प्राप्ति का अनुभव कराओ।
13-11-85 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
संकल्प, संस्कार, सम्बन्ध, बोल और कर्म में नवीनता लाओ
अव्यक्त बापदादा बोले
आज नई दुनिया के, नई रचना के रचयिता बाप अपने नई दुनिया के अधिकारी बच्चों को अर्थात् नई रचना को देख रहे हैं। नई रचना सदा ही प्यारी लगती है। दुनिया के हिसाब से पुराने युग में नया वर्ष मनाते हैं। लेकिन आप नई रचना के नये युग की नई जीवन की अनुभूति कर रहे हो। सब नया हो गया। पुराना समाप्त हो नया जन्म, नई जीवन प्रारम्भ हो गई। जन्म नया हुआ तो जन्म से जीवन स्वत: ही बदलती है। जीवन बदलना अर्थात् संकल्प, संस्कार, सम्बन्ध सब बदल गया अर्थात् नया हो गया। धर्म नया, कर्म नया। वह सिर्फ वर्ष नया कहते हैं। लेकिन आप सबके लिए सब नया हो गया। आज के दिन अमृतवेले से नये वर्ष की मुबारक तो दी लेकिन सिर्फ मुख से मुबारक दी वा मन से? नवीनता का संकल्प लिया? इन विशेष तीन बातों की नवीनता का संकल्प किया? संकल्प, संस्कार और सम्बन्ध। संस्कार और संकल्प नया अर्थात् श्रेष्ठ बन गया। नया जन्म, नई जीवन होते हुए भी अब तक पुराने जन्म वा जीवन के संकल्प, संस्कार वा सम्बन्ध रह तो नहीं गये हैं? अगर इन तीनों बातों में से कोई भी बात में अंश मात्र पुरानापन रहा हुआ है तो यह अंश नई जीवन का नये युग का, नये सम्बन्ध का, नये संस्कार का सुख वा सर्व प्राप्ति से वंचित कर देगा। कई बच्चे ऐसे बापदादा के आगे अपने मन की बातें रूह-रूहान में कहते रहते हैं। बाहर से नहीं कहते। बाहर से तो कोई भी पूछता है - कैसे हो? तो सब यही कहते हैं कि बहुत अच्छा। क्योंकि जानते हैं बाहरयामी आत्मायें अन्दर को क्या जानें। लेकिन बाप से रूह-रूहान में छिपा नहीं सकते। अपने मन की बातों में यह जरूर कहते - ब्राह्मण तो बन गये, शूद्र पन से किनारा कर लिया लेकिन जो ब्राह्मण जीवन की महानता, विशेषता सर्वश्रेष्ठ प्राप्तियों की वा अतीन्द्रिय सुख फरिश्तेपन की, डबल लाइट जीवन, ऐसा विशेष अनुभव जितना होना चाहिए उतना नहीं होता। जो वर्णन इस श्रेष्ठ युग के श्रेष्ठ जीवन का, ऐसा अनुभव ऐसी स्थिति बहुत थोड़ा समय होती। इसका कारण क्या? जब ब्राह्मण बने, ब्राह्मण जीवन का अधिकार अनुभव नहीं होता, क्यों? है राजा का बच्चा लेकिन संस्कार भिखारीपन के हों तो उनको क्या कहेंगे? राजकुमार कहेंगे? यहाँ भी नया जन्म, नई ब्राह्मण जीवन और फिर भी पुराने संकल्प वा संस्कार इमर्ज हों वा कर्म में हों तो क्या उसे ब्रह्माकुमार कहेंगे वा आधा शूद्र कुमार और आधा ब्रह्माकुमार। ड्रामा में एक खेल दिखाते हो ना आधा सफेद आधा काला। संगमयुग इसको तो नहीं समझा है। संगमयुग अर्थात् नया युग। नया युग तो सब नया।
बापदादा आज सबकी आवाज़ सुन रहे थे - नये वर्ष की मुबारक हो। कार्ड्स भी भेजते, पत्र भी लिखते लेकिन कहना और करना दोनों एक है? मुबारक तो दी, बहुत अच्छा किया। बापदादा भी मुबारक देते हैं। बापदादा भी कहते सबके मुख के बोल में अविनाशी भव का वरदान। आप लोग कहते हो ना - मुख में गुलाब! बापदादा कहते मुख के बोल में अविनाशी वरदान हो। आज से सिर्फ एक शब्द याद रखना - ‘‘नया’’। जो भी संकल्प करो, बोल बोलो, कर्म करो यही चेक करो याद रखो कि नया है? यही पोतामेल चौपड़ा, रजिस्टर आज से शुरू करो। दीपमाला में चौपड़े पर क्या करते हैं? स्वास्तिका निकालते हैं ना। गणेश। और चारों ही युग में बिन्दी जरूर लगाते हैं। क्यों लगाते हैं? किसी भी कार्य को प्रारम्भ करते समय स्वास्तिका वा गणेश नम: जरूर कहते हैं। यह किसकी यादगार है। स्वास्तिका को भी गणेश क्यों कहते? स्वास्तिका - स्वस्थिति में स्थित होने का और पूरी रचना की नॉलेज का सूचक है। गणेश अर्थात् नॉलेजफुल। स्वास्तिका के एक चित्र में पूरी नॉलेज समाई हुई है। नॉलेजफुल की स्मृति का यादगार गणेश वा स्वास्तिका दिखाते हैं। इसका अर्थ क्या हुआ? कोई भी कार्य की सफलता का आधार है -नॉलेजफुल अर्थात् समझदार, ज्ञान स्वरूप बनना। ज्ञान स्वरूप समझदार बन गये तो हर कर्म श्रेष्ठ और सफल होगा ना! वो तो सिर्फ कागज पर निशानी यादगार को लगा देते हैं लेकिन आप ब्राह्मण आत्मायें स्वयं नॉलेजफुल बन हर संकल्प करेंगी तो संकल्प और सफलता दोनों साथ-साथ अनुभव करेंगे। तो आज से यह दृढ़ संकल्प के रंग द्वारा अपने जीवन के चौपड़े पर हर संकल्प, संस्कार नया ही होना है। होगा, यह भी नहीं। होना ही है। स्वस्थिति में स्थित हो यह श्रीगणेश अर्थात् आरम्भ करो। स्वयं श्रीगणेश बन करके आरम्भ करो। ऐसे नहीं सोचो यह तो होता ही रहता है। संकल्प बहुत बार करते, लेकिन संकल्प दृढ़ हो। जैसे फाउण्डेशन में पक्का सीमेन्ट आदि डालकर मजबूत किया जाता है - ना। अगर रेत का फाउण्डेशन बना दें तो, कितना समय चलेगा? तो जिस समय संकल्प करते हो उस समय कहते करके देखेंगे, जितना हो सकेगा करेंगे। दूसरे भी तो ऐसे ही करते हैं। यह यह रेत मिला देते हो। इसीलिए फाउण्डेशन पक्का नहीं होता। दूसरों को देखना सहज लगता है। अपने को देखने में मेहनत लगती है। अगर दूसरों को देखने चाहते हो, आदत से मजबूर हो तो ब्रह्मा बाप को देखो। वह भी तो दूसरा हुआ ना। इसलिए बापदादा ने दीपावली का पोतामेल देखा। पोतामेल में विशेष कारण, ब्राह्मण बनते भी ब्राह्मण जीवन की अनुभूति न होना। जितना होना चाहिए उतना नहीं होता। इसका विशेष कारण है - परदृष्टि, पराचिंतन, परपंच में जाना। परिस्थितियों के वर्णन और मनन में ज्यादा रहते हैं। इसलिए स्वदर्शन चक्रधारी बनो। स्व से पर खत्म हो जायेगा। जैसे आज नये वर्ष की सबने मिलकर मुबारक दी ऐसे हर दिन नया दिन, नई जीवन, नया संकल्प, नये संस्कार, स्वत: ही अनुभव करेंगे। और मन से हर घड़ी बाप के प्रति, ब्राह्मण परिवार के प्रति बधाई के शुभ उमंग स्वत: ही उत्पन्न होते रहेंगे। सबकी दृष्टि में मुबारक, बधाई, ग्रीटिंग्स की लहर होगी। तो ऐसे आज के ‘मुबारक’ शब्द को अविनाशी बनाओ। समझा। लोग पोतामेल रखते हैं। बाप ने पोतामेल देखा। बापदादा को बच्चों पर रहम आता है कि सारा मिलते भी अधूरा क्यों लेते? नाम नया ब्रह्माकुमार वा कुमारी और काम मिक्स क्यों? दाता के बच्चे हो, विधाता के बच्चे हो, वरदाता के बच्चे हो! तो नये वर्ष में क्या याद रखेंगे? सब नया करना है। अर्थात् ब्राह्मण जीवन की मर्यादा का सब नया। नया का अर्थ कोई मिक्सचर नहीं करना। चतुर भी बहुत बन गये हैं ना। बाप को भी पढ़ाते हैं। कई बच्चे कहते हैं ना, बाबा ने कहा था ना नया करना है तो यह नया हम कर रहे हैं। लेकिन ब्राह्मण जीवन की मर्यादा प्रमाण नया हो। मर्यादा की लकीर तो ब्राह्मण जीवन, ब्राह्मण जन्म से बापदादा ने दे दी है। समझा, नया वर्ष कैसे मनाना है। सुनाया ना - 18 अघ्याय शुरू हो रहा है।
गोल्डन जुबली के पहले विश्व विद्यालय की गोल्डन जुबली है। ऐसे नहीं समझना कि सिर्फ 50 वर्ष वालों की गोल्डन जुबली है। लेकिन यह ईश्वरीय कार्य की गोल्डन जुबली है। स्थापना के कार्य में जो भी सहयोगी हो चाहे, दो वर्ष के हों चाहे 50 वर्ष के हों लेकिन दो वर्ष वाले भी अपने को ब्रह्माकुमार कहते हैं ना या और कोई नाम कहते। तो यह ब्रह्मा द्वारा ब्राह्मणों के रचना की गोल्डन जुबली है। इसमें सब ब्रह्माकुमार-कुमारियाँ हैं। गोल्डन जुबली तक अपने में गोल्डन एजड अर्थात् सतोप्रधान संकल्प, संस्कार इमर्ज करने हैं। ऐसी गोल्डन जुबली मनानी है। यह तो निमित्त मात्र रसम-रिवाज की रीति से मनाते हो लेकिन वास्तविक गोल्डन जुबली गोल्डन एजड बनने की जुबली है। कार्य सफल हुआ अर्थात् कार्य अर्थ निमित्त् आत्मायें सफलता स्वरूप बने। अभी भी समय पड़ा है। इन 3 मास के अन्दर दुनिया की स्टेज के आगे निराली गोल्डन जुबली मनाके दिखाओ। दुनिया वाले सम्मान देते हैं और यहाँ ‘समान’ की स्टेज की प्रत्यक्षता करनी है। सम्मान देने के लिए कुछ भी करते हो यह तो निमित्त मात्र है। वास्तविकता दुनिया के आगे दिखानी है। हम सब एक हैं, एक के हैं, एकरस स्थिति वाले हैं। एक की लगन में मगन रह एक का नाम प्रत्यक्ष करने वाले हैं। यह न्यारा और प्यारा गोल्डन स्थिति का झण्डा लहराओ। गोल्डन दुनिया के नजारे आपके नयनों द्वारा, बोल और कर्म द्वारा स्पष्ट दिखाई दे। ऐसी गोल्डन जुबली मनाना। अच्छा-
ऐसे सदा अविनाशी मुबारक के पात्र श्रेष्ठ बच्चों को, अपने हर संकल्प और कर्म द्वारा नये संसार का साक्षात्कार कराने वाले बच्चों को, अपनी गोल्डन एजड स्थिति द्वारा गोल्डन दुनिया आई कि आई ऐसा शुभ आशा का दीपक विश्व की आत्माओं के अन्दर जगाने वाले, सदा जगमगाते सितारों को, सफलता के दीपकों को, दृढ़ संकल्प द्वारा नये जीवन का दर्शन कराने वाले, दर्शनीय मूर्त्त बच्चों को बापदादा का यादप्यार, अविनाशी बधाई, अविनाशी वरदान के साथ नमस्ते।’’
पदयात्रियों तथा साइकिल यात्रियों से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात - यात्रा द्वारा सेवा तो सभी ने की। जो भी सेवा की उस सेवा का प्रत्यक्ष फल भी अनुभव किया। सेवा की विशेष खुशी अनुभव की है ना! पदयात्रा तो की, सभी ने आपको पदयात्री के रूप में देखा। अभी रूहानी यात्री के रूप में देखें। सेवा के रूप में तो देखा लेकिन अभी इतनी न्यारी यात्रा कराने वाले अलौकिक यात्री हैं, यह अनुभव हो। जैसे इस सेवा में लगन से सफलता को पाया ना। ऐसे अभी रूहानी यात्रा में सफल होना है। मेहनत करते हैं, बहुत अच्छी सेवा करते हैं, सुनाते बहुत अच्छा हैं, इन्हों की जीवन बहुत अच्छी है, यह तो हुआ। लेकिन अभी जीवन बनाने लग जाएँ, ऐसा अनुभव करें कि इसी जीवन के बिना और कोई जीवन ही नहीं है। तो रूहानी यात्रा का लक्ष्य रख रूहानी यात्रा का अनुभव कराओ। समझा क्या करना है! चलते-फिरते ऐसे ही देखें कि यह साधारण नहीं है। यह रूहानी यात्री हैं तो क्या करना है! स्वयं भी यात्रा में रहो और दूसरों को भी यात्रा का अनुभव कराओ। पदयात्रा का अनुभव कराया, अभी फरिश्ते पन का अनुभव कराओ। अनुभव करें कि यह इस धरनी के रहने वाले नहीं हैं। यह फरिश्ते हैं। इन्हों के पांव इस धरती पर नहीं रहते। दिन प्रतिदिन उड़ती कला द्वारा औरों को उड़ाना। अभी उड़ाने का समय है। चलाने का समय नहीं है। चलने में समय लगता और उड़ने में समय नहीं लगता। अपनी उड़ती कला द्वारा औरों को भी उड़ाओ। समझा। ऐसे दृष्टि से, स्मृति से सभी को सम्पन्न बनाते जाओ। वह समझें कि हमको कुछ मिला है। भरपूर हुए हैं। खाली थे लेकिन भरपूर हो गये। जहाँ प्राप्ति होती है वहाँ सेकण्ड में न्योछावर होते हैं। आप लोगों को प्राप्ति हुई तब तो छोड़ा ना। अच्छा लगा, अनुभव किया तब छोड़ा ना। ऐसे तो नहीं छोड़ा। ऐसे ओरों को प्राप्ति का अनुभव कराओ। समझा! बाकी अच्छा है! जो भी सेवा में दिन बिताये वह अपने लिए भी औरों के लिए भी श्रेष्ठ बनायें। उमंग-उत्साह अच्छा रहा! रिजल्ट ठीक रही ना। रूहानी यात्रा सदा रहेगी तो सफलता भी सदा रहेगी। ऐसे नहीं, पदयात्रा पूरी की तो सेवा पूरी हुई। फिर जैसे थे वैसे। नहीं। सदा सेवा के क्षेत्र में सेवा के बिना ब्राह्मण नहीं रह सकते। सिर्फ सेवा का पार्ट चेन्ज हुआ। सेवा तो अन्त तक करनी है। ऐसे सेवाधारी हो ना या तीन मास दो मास के सेवाधारी हो! सदा के सेवाधारी सदा ही उमंग-उत्साह रहे। अच्छा। ड्रामा में जो भी सेवा का पार्ट मिलता है उसमें विशेषता भरी हुई है। हिम्मत से मदद का अनुभव किया! अच्छा। स्वयं द्वारा बाप को प्रत्यक्ष करने का श्रेष्ठ संकल्प रहा। क्योंकि जब बाप को प्रत्यक्ष करेंगे तब इस पुरानी दुनिया की समाप्ति हो, अपना राज्य आयेगा। बाप को प्रत्यक्ष करना अर्थात् अपना राज्य लाना। अपना राज्य लाना है यह उमंग-उत्साह सदा रहता है ना! जैसे विशेष प्रोग्राम में उमंग-उत्साह रहा ऐसे सदा इस संकल्प का उमंग-उत्साह। समझा।
पार्टियों से - सुना तो बहुत है! अभी उसी सुनी हुई बातों को समाना है। क्योंकि जितना समायेंगे उतना बाप के समान शक्तिशाली बनेंगे। मास्टर हो ना। तो जैसे बाप सर्वशक्तिवान है ऐसे आप सभी भी मास्टर सर्वशक्तिवान अर्थात् सर्व शक्तियों को समाने वाले। बाप समान बनने वाले हो ना। बाप और बच्चों में जीवन के आधार से अन्तर नहीं दिखाई दे। जैसे ब्रह्मा बाप की जीवन देखी तो ब्रह्मा बाप और बच्चे समान दिखाई दें। साकार में तो ब्रह्मा बाप कर्म करके दिखाने के निमित्त बने ना। ऐसे समान बनना अर्थात् मास्टर सर्वशक्तिवान बनना। तो सर्वशक्तियाँ हैं? धारण तो की है लेकिन परसेन्टेज है। जितना होना चाहिए उतना नहीं है। सम्पन्न नहीं है। बनना तो सम्पन्न है ना! तो परसेन्टेज को बढ़ाओ। शक्तियों को समय पर कार्य में लगाना, इसी पर ही नम्बर मिलते हैं। अगर समय पर कार्य में नहीं आती तो क्या कहेंगे? होते भी न होना ही कहेंगे क्योंकि समय पर काम में नही आई। तो चेक करो कि समय प्रमाण जिस शक्ति की आवश्यकता है वह कार्य में लगा सकते हैं? तो बाप समान मास्टर सर्वशक्तिवान प्रत्यक्ष रूप में विश्व को दिखाना है। तब तो विश्व मानेगा कि हाँ! सर्वशक्तिवान प्रत्यक्ष हो चुके। यही लक्ष्य है ना! अभी देखेंगे कि गोल्डन जुबली तक कौन लेते हैं। अच्छा-
18-11-85 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
भगवान के भाग्यवान बच्चों के लक्षण भाग्य
विधाता बापदादा बोले
बापदादा सभी बच्चों के मस्तक पर भाग्य की रेखायें देख रहे हैं। हर एक बच्चे के मस्तक पर भाग्य की रेखायें लगी हुई हैं लेकिन किस-किस बच्चों की स्पष्ट रेखायें हैं और कोई-कोई बच्चों की स्पष्ट रेखायें नहीं हैं। जब से भगवान बाप के बने, भगवान अर्थात् भाग्य विधाता। भगवान अर्थात् दाता विधाता। इसलिए बच्चे बनने से भाग्य का अधिकार अर्थात् वर्सा सभी बच्चों को अवश्य प्राप्त होता है। परन्तु उस मिले हए वर्से को जीवन में धारण करना, सेवा में लगाकर श्रेष्ठ बनाना स्पष्ट बनाना इसमें नम्बरवार हैं। क्योंकि यह भाग्य जितना स्वयं प्रति वा सेवा प्रति कार्य में लगाते हो उतना बढ़ता है। अर्थात् रेखा स्पष्ट होती है। बाप एक है और देता भी सभी को एक जैसा है। बाप नम्बरवार भाग्य नहीं बांटता लेकिन भाग्य बनाने वाले अर्थात् भाग्यवान बनने वाले इतने बड़े भाग्य को प्राप्त करने में यथाशक्ति होने के कारण नम्बरवार हो जाते हैं। इसलिए कोई की रेखा स्पष्ट हैं, कोई की स्पष्ट नहीं है। स्पष्ट रेखा वाले बच्चे स्वयं भी हर कर्म में अपने को भाग्यवान अनुभव करते। साथ-साथ उन्हों के चेहरे और चलन से भाग्य औरों को भी अनुभव होता है। और भी ऐसे भाग्यवान बच्चों को देख सोचते और कहते कि यह आत्मायें बड़ी भाग्यवान हैं। इनका भाग्य सदा श्रेष्ठ है। अपने आप से पूछो हर कर्म में अपने को भगवान के बच्चे भाग्यवान अनुभव करते हो? भाग्य आपका वर्सा है। वर्सा कभी न प्राप्त हो यह हो नहीं सकता। भाग्य को वर्से के रूप में अनुभव करते हो? वा मेहनत करनी पड़ती है। वर्सा सहज प्राप्त होता है। मेहनत नहीं। लौकिक में भी बाप के खजाने पर, वर्से पर बच्चे का स्वत: अधिकार होता है। और नशा रहता है कि बाप का वर्सा मिला हुआ है। ऐसे भाग्य का नशा है वा चढ़ता और उतरता रहता है? अविनाशी वर्सा है तो कितना नशा होना चाहिए! एक जन्म तो क्या अनेक जन्मों का भाग्य जन्मसिद्ध अधिकार है। ऐसी फलक से वर्णन करते हो? सदा भाग्य की झलक प्रत्यक्ष रूप में औरों को दिखाई दे। फलक और झलक दोनों हैं? मर्ज रूप में है वा इमर्ज रूप में है? भाग्यवान आत्माओं की निशानी - भाग्यवान आत्मा सदा चाहे गोदी में पलती, चाहे गलीचों पर चलती, झूलों में झूलती, मिट्टी में पांव नहीं रखती, कभी पांव मैले नहीं होते। वो लोग गलीचों पर चलते और आप बुद्धि रूपी पांव से सदा फर्श के बजाए फरिश्तों की दुनिया में रहते। इस पुरानी मिट्टी की दुनिया में बुद्धि रूपी पांव नहीं रखते अर्थात् बुद्धि मैली नहीं करते। भाग्यवान मिट्टी के खिलौने से नहीं खेलते। सदा रत्नों से खेलते हैं। भाग्यवान सदा सम्पन्न रहते। इसलिए ‘इच्छा मात्रम् अविद्या’ इसी स्थिति में रहते हैं। भाग्यवान आत्मा सदा महादानी पुण्य आत्मा बन औरों का भी भाग्य बनाते रहते हैं। भाग्यवान आत्मा सदा ताज, तख्त और तिलकधारी रहती है। भाग्यवान आत्मा जितना ही भाग्य अधिकारी उतना ही त्यागधारी आत्मा होती है। भाग्य की निशानी त्याग है। त्याग भाग्य को स्पष्ट करता है। भाग्यवान आत्मा, सदा भगवान समान निराकारी, निरअहंकारी और निर्विकारी, इन तीनों विशेषताओं से भरपूर होती है। यह सब निशानियाँ अपने में अनुभव करते हो? भाग्यवान की लिस्ट में तो हो ही ना! लेकिन यथाशक्ति हो वा सर्वशक्तिवान हो? मास्टर तो हो ना? बाप की महिमा में कभी यथा शक्ति वा नम्बरवार नहीं कहा जाता, सदा सर्वशक्तिवान कहते हैं। मास्टर सर्वशक्तिवान फिर यथाशक्ति क्यों? सदा शक्तिवान। यथा शब्द को बदल सदा शक्तिवान बनो और बनाओ। समझा।
कौन से जोन आये हैं? सभी वरदान भूमि में पहुँच वरदानों से झोली भर रहे हो ना! वरदान भूमि के एक-एक चरित्र में, कर्म में विशेष वरदान भरे हुए हैं। यज्ञ भूमि में आकर चाहे सब्जी काटते हो, अनाज़ साफ करते हो, इसमें भी यज्ञ सेवा का वरदान भरा हुआ है। जैसे यात्रा पर जाते हैं, मन्दिर की सफाई करना भी एक बड़ा पुण्य समझते हैं। इस महातीर्थ वा वरदान भूमि के हर कर्म में हर कदम में वरदान ही वरदान भरे हुए हैं। कितनी झोली भरी है? पूरी झोली भर करके जायेंगे या यथाशक्ति? जो भी जहाँ से भी आये हो, मेला मनाने आये हो। मधुबन में एक संकल्प भी वा एक सेकण्ड भी व्यर्थ न जाए। समर्थ बनने का यह अभ्यास अपने स्थान पर भी सहयोग देगा। पढ़ाई और परिवार - पढ़ाई का भी लाभ लेना और परिवार का भी अनुभव विशेष करना। समझा!
बापदादा सभी जोन वालों को सदा वरदानी महादानी बनने की मुबारक दे रहे हैं। लोगों का उत्सव समाप्त हुआ लेकिन आपका उत्साह भरा उत्सव सदा है। सदा बड़ा दिन है। इसलिए हर दिन मुबारक ही मुबारक है। महाराष्ट्र सदा महान बन, महान बनाने के वरदानों से झोली भरने वाले हैं। कर्नाटक वाले सदा अपने हर्षित मुख द्वारा स्वयं भी सदा हर्षित और दूसरों को भी सदा हर्षित बनाते, झोली भरते रहना। यू.पी. वाले क्या करेंगे? सदा शीतल नदियों के समान शीतलता का वरदान दे शीतला देवियाँ बन शीतला देवी बनाओ। शीतला से सदा सर्व के सभी प्रकार के दु:ख दूर करो। ऐसे वरदानों से झोली भरो। अच्छा-
सदा श्रेष्ठ भाग्य के स्पष्ट रेखाधारी, सदा बाप समान सर्व शक्तियाँ सम्पन्न, सम्पूर्ण स्थिति में स्थित रहने वाले, सदा ईश्वरीय झलक और भाग्य की फलक में रहने वाले, हर कर्म द्वारा भाग्यवान बन भाग्य का वर्सा दिलाने वाले ऐसे मास्टर भगवान, श्रेष्ठ भाग्यवान बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।’’
पार्टियों से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात - कुमारों से - कुमार अर्थात् निर्बन्धन। सबसे बड़ा बन्धन मन के व्यर्थ संकल्पों का है। इसमें भी निर्बन्धन। कभी-कभी यह बन्धन बांध तो नहीं लेता है? क्योंकि संकल्प शक्ति हर कदम में कमाई का आधार है। याद की यात्रा किस आधार से करते हो? संकल्प शक्ति के आधार से बाबा के पास पहुँचते हो ना! अशरीरी बन जाते हो। तो मन की शक्ति विशेष है। व्यर्थ संकल्प मन की शक्ति को कमज़ोर कर देते हैं। इसलिए इस बन्धन से मुक्त। कुमार अर्थात् सदा तीव्र पुरुषार्थी। क्योंकि जो निर्बन्धन होगा उसकी गति स्वत: तीव्र होगी। बोझ वाला धीमी गति से चलेगा। हल्का सदा तीव्रगति से चलेगा। अभी समय के प्रमाण पुरूषार्थ का समय गया। अब तीव्र पुरुषार्थी बन मंजल पर पहुँचना है।
2. कुमारों ने पुराने व्यर्थ के खाते को समाप्त कर लिया है? नया खाता समर्थ खाता है। पुराना खाता व्यर्थ है। तो पुराना खाता खत्म हुआ। वैसे भी देखो व्यवहार में कभी पुराना खाता रखा नहीं जाता है। पुराने को समाप्त कर आगे खाते को बढ़ाते रहते हैं। तो यहाँ भी पुराने खाते को समाप्त कर सदा नये ते नया हर कदम में समर्थ हो। हर संकल्प समर्थ हो। जैसा बाप वैसे बच्चे। बाप समर्थ है तो बच्चे भी फॉलो फादर कर समर्थ बन जाते हैं।
माताओं से - मातायें किस एक गुण में विशेष अनुभवी हैं? वह विशेष गुण कौन-सा? (त्याग है, सहनशीलता है) और भी कोई गुण है? माताओं का स्वरूप विशेष रहमदिल का होता है। मातायें रहमदिल होती हैं। आप बेहद की माताओं को बेहद की आत्माओं के प्रति रहम आता है? जब रहम आता है तो क्या करती हो? जो रहमदिल होते हैं वह सेवा के सिवाए रह नहीं सकते हैं। जब रहमदिल बनते हो तो अनेक आत्माओं का कल्याण हो ही जाता है। इसलिए माताओं को ‘कल्याणी’ भी कहते हैं। कल्याणी अर्थात् कल्याण करने वाली। जैसे बाप को विश्व-कल्याणकारी कहते हैं वैसे माताओं को विशेष बाप समान कल्याणी का टाइटिल मिला हुआ है। ऐसे उमंग आता है! क्या से क्या बन गये! स्व के परिवर्तन से औरों के लिए भी उमंग उत्साह आता है। हद की और बेहद की सेवा का बैलेन्स है? उस सेवा से तो हिसाब चुक्तू होता है, वह हद की सेवा है। आप तो बेहद की सेवाधारी हो। जितना सेवा का उमंग-उत्साह स्वयं में होगा उतनी सफलता होगी।
2. मातायें अपने त्याग और तपस्या द्वारा विश्व का कल्याण करने के निमित्त बनी हुई हैं। माताओं में त्याग और तपस्या की विशेषता है। इन दो विशेषताओं से सेवा के निमित्त् बन औरों को भी बाप का बनाना, इसी में बिजी रहती हो? संगमयुगी ब्राह्मणों का काम ही है ‘सेवा’ करना। ब्राह्मण सेवा के बिना रह नहीं सकते। जैसे नामधारी ब्राह्मण कथा जरूर करेंगे। तो यहाँ भी कथा करना अर्थात् सेवा करना। तो जगतमाता बन जगत के लिए सोचो। बेहद के बच्चों के लिए सोचो। सिर्फ घर में नहीं बैठ जाओ। बेहद के सेवाधारी बन सदा आगे बढ़ते चलो। हद में 63 जन्म हो गये, अभी बेहद सेवा में आगे बढ़ो। अच्छा - ओम् शान्ति।
20-11-85 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
ब्राह्मणों का संगमयुगी न्यारा, प्यारा श्रेष्ठ संसार
सदा न्यारे और प्यारे शिव बाबा बोले
आज ब्राह्मणों के रचयिता बाप अपने छोटे से अलौकिक सुन्दर संसार को देख रहे हैं। यह ब्राह्मण संसार सतयुगी संसार से भी अति न्यारा और अति प्यारा है। इस अलौकिक संसार की ब्राह्मण आत्मायें कितनी श्रेष्ठ हैं विशेष हैं! देवता रूप से भी यह ब्राह्मण स्वरूप विशेष है। इस संसार की महिमा है, न्यारापन है। इस संसार की हर आत्मा विशेष है। हर आत्मा ही स्वराज्यधारी राजा है। हर आत्मा स्मृति की तिलकधारी, अविनाशी तिलकधारी, स्वराज्य तिलकधारी, परमात्म दिल-तख्तनशीन है। तो सभी आत्मायें इस सुन्दर संसार की ताज, तख्त और तिलकधारी हैं! ऐसा संसार सारे कल्प में कभी सुना वा देखा! जिस संसार की हर ब्राह्मण आत्मा का एक बाप, एक ही परिवार, एक ही भाषा, एक ही नॉलेज अर्थात् ज्ञान, एक ही जीवन का श्रेष्ठ लक्ष्य, एक ही वृत्ति, एक ही दृष्टि, एक ही धर्म और एक ही ईश्वरीय कर्म है। ऐसा संसार जितना छोटा उतना प्यारा है। ऐसे सभी ब्राह्मण आत्मायें मन में गीत गाती हो कि हमारा छोटा-सा यह संसार अति न्यारा, अति प्यारा है। यह गीत गाती हो? यह संगमयुगी संसार देख-देख हर्षित होते हो? कितना न्यारा संसार है। इस संसार की दिनचर्या ही न्यारी है। अपना राज्य, अपने नियम, अपनी रीति-रसम, लेकिन रीति भी न्यारी है तो प्रीति भी प्यारी है। ऐसे संसार में रहने वाली ब्राह्मण आत्मायें हो ना! इसी संसार में रहते हो ना? कभी अपने संसार को छोड़ पुराने संसार में तो नहीं चले जाते हो! इसलिए पुराने संसार के लोग समझ नहीं सकते कि आखिर भी यह ब्राह्मण हैं क्या! कहते हैं ना! ब्रह्माकुमारियों की चलन ही अपनी है! ज्ञान ही अपना है। जब संसार ही न्यारा है तो सब नया और न्यारा ही होगा ना। सभी अपने आप को देखो कि नये संसार के नये संकल्प, नई भाषा, नये कर्म, ऐसे न्यारे बने हो! कोई भी पुरानापन रह तो नहीं गया है। जरा भी पुरानापन होगा तो वह पुरानी दुनिया के तरफ आकर्षित कर देगा। और ऊँचे संसार से नीचे के संसार में चले जायेंगे। ऊँचा अर्थात् श्रेष्ठ होने के कारण स्वर्ग को ऊँचा दिखाते हैं और नर्क को नीचे दिखाते हैं। संगमयुगी स्वर्ग सतयुगी स्वर्ग से भी ऊँचा है। क्योंकि अभी दोनों संसार के नॉलेजफुल बने हो। यहाँ अभी देखते हुए जानते हुए न्यारे और प्यारे हो। इसलिए मधुबन को स्वर्ग अनुभव करते हो। कहते हो ना - स्वर्ग देखना हो तो अभी देखो। वहाँ स्वर्ग का वर्णन नहीं करेंगे। अभी फलक से कहते हो कि हमने स्वर्ग देखा है। चैलेन्ज करते हो कि स्वर्ग देखना हो तो यहाँ आकर देखो। ऐसे वर्णन करते हैं ना। पहले सोचते थे, सुनते थे कि स्वर्ग की परियाँ बहुत सुन्दर होती हैं। लेकिन किसने देखा नहीं। स्वर्ग में यह यह होता, सुना बहुत लेकिन अब स्वयं स्वर्ग के संसार में पहुँच गये। खुद ही स्वर्ग की परियाँ बन गये। श्याम से सुन्दर बन गये ना! पंख मिल गये ना! इतने न्यारे पंख - ज्ञान और योग के मिले हैं जिससे तीनों ही लोकों का चक्कर लगा सकते हो। साइंस वालों के पास भी ऐसा तीव्रगति का साधन नहीं है। सभी को पंख मिले हैं? कोई रह तो नहीं गया है। इस संसार का ही गायन है - अप्राप्त नहीं कोई वस्तु ब्राह्मणों के संसार में। इसलिए गायन है - एक बाप मिला तो सब कुछ मिला। एक दुनिया नहीं लेकिन तीनों लोकों का मालिक बन जाते। इस संसार का गायन है - ‘सदा सभी झूलों में झूलते रहते’। झूलों में झूलना भाग्य की निशानी कहा जाता है। इस संसार की विशेषता क्या है? कभी अतीन्द्रिय सुख के झूलों के झूलते, कभी खुशी के झूले में झूलते, कभी शान्ति के झूले में, कभी ज्ञान के झूले में झूलते। परमात्म गोदी के झूले में झूलते। परमात्म गोदी है - याद की लवलीन अवस्था में झूलना। जैसे गोदी में समा जाते हैं। ऐसे परमात्म-याद में समा जाते, लवलीन हो जाते। यह अलौकिक गोद सेकण्ड में अनेक जन्मों के दु:ख दर्द भूला देती है। ऐसे सभी झूलों में झूलते रहते हो!
कभी स्वप्न में भी सोचा था कि ऐसे संसार के अधिकारी बन जायेंगे! बापदादा आज अपने प्यारे संसार को देख रहे हैं। यह संसार पसन्द है? प्यारा लगता है? कभी एक पाँव उस संसार में, एक पाँव इस संसार में तो नहीं रखते? 63 जन्म उस संसार को देख लिया, अनुभव कर लिया। क्या मिला? कुछ मिला वा गँवाया? तन भी गँवाया, मन की सुख-शान्ति गँवायी और धन भी गँवाया! सम्बन्ध भी गँवाया। जो बाप ने सुन्दर तन दिया, वह कहाँ गँवाया! अगर धन भी इकठ्ठा करते हैं तो काला धन। स्वच्छ धन कहाँ गया? अगर है भी तो काम का नहीं है। कहने में करोड़पति है लेकिन दिखा सकते हैं? तो सब कुछ गँवाया फिर भी अगर बुद्धि जाए तो क्या कहेंगे! समझदार? इसलिए अपने इस श्रेष्ठ संसार को सदा स्मृति में रखो। इस संसार के इस जीवन की विशेषताओं को सदा स्मृति में रख समर्थ बनो। स्मृति स्वरूप बनो तो ‘नष्टोमोहा’ स्वत: ही बन जायेंगे। पुरानी दुनिया की कोई भी चीज़ बुद्धि से स्वीकार नहीं करो। स्वीकार किया अर्थात् धोखा खाया। धोखा खाना अर्थात् दु:ख उठाना। तो कहाँ रहना है? श्रेष्ठ संसार में या पुराने संसार में? सदा अन्तर स्पष्ट इमर्ज रूप में रखो कि वह क्या और यह क्या! अच्छा-
ऐसे छोटे से प्यारे संसार में रहने वाली विशेष ब्राह्मण आत्माओं को, सदा तख्तनशीन आत्माओं को, सदा झूलों में झूलने वाली आत्माओं को, सदा न्यारे और परमात्म प्यारे बच्चों को परमात्म-याद, परमात्म-प्यार और नमस्ते।’’
सेवाधारी (टीचर्स) बहिनों से - सेवाधारी अर्थात् त्यागी तपस्वी आत्मायें। सेवा का फल तो सदा मिलता ही है लेकिन त्याग और तपस्या से सदा ही आगे बढ़ती रहेंगी। सदा अपने को विशेष आत्मायें समझ कर विशेष सेवा का सबूत देना है। यही लक्ष्य रखो। जितना लक्ष्य मजबूत होगा उतनी बिल्डिंग भी अच्छी बनेगी। तो सदा सेवाधारी समझ आगे बढ़ो। जैसे बाप ने आपको चुना वैसे आप फिर प्रजा को चुनो। स्वयं सदा निर्विघ्न बन सेवा को भी निर्विघ्न बनाते चलो। सेवा तो सभी करते हैं लेकिन निर्विघ्न सेवा हो, इसी में नम्बर मिलते हैं। जहाँ भी रहते हो वहाँ हर स्टूडेन्ट निर्विघ्न हो, विघ्नों की लहर न हो। शक्तिशाली वातावरण हो। इसको कहते हैं - निर्विघ्न आत्मा। यही लक्ष्य रखो - ऐसा याद का वातावरण हो जो विघ्न आ न सके। किला होता है तो दुश्मन आ नहीं सकता। तो निर्विघ्न बन निर्विघ्न सेवाधारी बनो। अच्छा!
विश्व के राजनेताओं के प्रति अव्यक्त बापदादा का मधुर सन्देश - विश्व के हर एक राज्य नेता अपने देश को वा देशवासियों को प्रगति की ओर ले जाने की शुभ भावना, शुभ कामना से अपने-अपने कार्य में लगे हुए हैं। लेकिन भावना बहुत श्रेष्ठ हैं, प्रत्यक्ष प्रमाण जितना चाहते हैं उतना नहीं होता - यह क्यों? क्योंकि आज की जनता वा बहुत से नेताओं के मन की भावनायें सेवा भाव, प्रेम भाव के बजाए स्वार्थ भाव, ईर्ष्या भाव में बदल गई हैं। इसलिए इस फाउण्डेशन को समाप्त करने के लिए प्राकृतिक शक्ति, वैज्ञानिक शक्ति, वर्ल्डली नॉलेज की शक्ति, राज्य के अथॉरिटी की शक्ति द्वारा तो अपने प्रयत्न किये हैं लेकिन वास्तविक साधन स्प्रिच्युअल पावर है, जिससे ही मन की भावना सहज बदल सकती है, उस तरफ अटेन्शन कम है। इसलिए बदली हुई भावनाओं का बीज नहीं समाप्त होता। थोड़े समय के लिए दब जाता है। लेकिन समय प्रमाण और ही उग्र रूप में प्रत्यक्ष हो जाता है। इसलिए स्प्रिच्युअल बाप का स्प्रिच्युअल बच्चों, आत्माओं प्रति सन्देश है कि सदा अपने को स्प्रिट (सोल) समझ स्प्रिच्युअल बाप से सम्बन्ध जोड़ स्प्रिच्युअल शक्ति ले अपने मन के नेता बनो तब राज्य नेता बन औरों के भी मन की भावनाओं को बदल सकेंगे। आपके मन का संकल्प और जनता का प्रैक्टिकल कर्म एक हो जायेगा। दोनों के सहयोग से सफलता का प्रत्यक्ष प्रमाण अनुभव होगा। याद रहे कि सेल्फ रूल अधिकारी ही सदा योग्य राजनेता के रूल अधिकारी बन सकते हैं। और स्वराज्य आपका स्प्रिच्युअल फादरली बर्थ राइट है। इस बर्थ राइट की शक्ति से सदा राइटियस की शक्ति भी अनुभव करेंगे और सफल रहेंगे।
25-11-85 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
निश्चय बुद्धि विजयी रत्न की निशानियाँ
सर्व के सहारे रहमदिल बापदादा बोले
आज बापदादा अपने निश्चय बुद्धि विजयी रत्नों की माला को देख रहे थे। सभी बच्चे अपने को समझते हैं कि मैं निश्चय में पक्का हूँ? ऐसा कोई विरला होगा जो अपने को निश्चयबुद्धि नहीं मानता हो। किसी से भी पूछेंगे, निश्चय है? तो यही कहेंगे कि निश्चय न होता तो ब्रह्माकुमार-ब्रह्माकुमारी कैसे बनते। निश्चय के प्रश्न पर सब ‘हाँ’ कहते हैं। सभी निश्चयबुद्धि बैठे हैं, ऐसे कहेंगे ना? नहीं तो जो समझते हैं कि निश्चय हो रहा है वह हाथ उठावें। सब निश्चयबुद्धि हैं। अच्छा जब सभी को पक्का निश्चय है फिर विजय माला में नम्बर क्यों हैं? निश्चय में सभी का एक ही उत्तर है ना! फिर नम्बर क्यों? कहाँ अष्ट रत्न, कहाँ 100 रत्न और कहाँ 16 हजार! इसका कारण क्या? अष्ट देव का पूजन गायन और 16 हजार की माला का गायन और पूजन में कितना अन्तर है? बाप एक है और एक के ही हैं यह निश्चय है फिर अन्तर क्यों? निश्चयबुद्धि में परसेन्टेज होती है क्या? निश्चय में अगर परसेन्टेज हो तो उसको निश्चय कहेंगे? 8 रत्न भी निश्चय बुद्धि, 16 हजार वाले भी निश्चयबुद्धि कहेंगे ना!
निश्चयबुद्धि की निशानी ‘विजय’ है। इसलिए गायन है - ‘निश्चयबुद्धि विजयन्ति’। तो निश्चय अर्थात् विजयी हैं ही हैं। कभी विजय हो, कभी न हो। यह हो नहीं सकता। सरकमस्टांस भले कैसे भी हों लेकिन निश्चयबुद्धि बच्चे सरकमस्टांस में अपनी स्वस्थिति की शक्ति द्वारा सदा विजय अनुभव करेंगे। जो विजयी रत्न अर्थात् विजय माला का मणका बन गया, गले का हार बन गया उसकी माया से हार कभी हो नहीं सकती। चाहे दुनिया वाले लोग वा ब्राह्मण परिवार के सम्बन्धसम्पर्व में दूसरा समझे वा कहें कि यह हार गया - लेकिन वह हार नहीं है, जीत है। क्योंकि कहाँ-कहाँ देखने वा करने वालों कि मिस-अण्डरस्टैन्डिंग भी हो जाती है। नम्रचित्त, निर्मान वा ‘हाँ जी’ का पाठ पढ़ने वाली आत्माओं के प्रति कभी मिस-अण्डरस्टैन्डिंग से उसकी हार समझते हैं, दूसरों को रूप हार का दिखाई देता है लेकिन वास्तविक विजय है। सिर्फ उस समय दूसरों के कहने वा वायुमण्डल में स्वयं निश्चयबुद्धि से बदल ‘शक’ का रूप न बने। पता नहीं हार है या जीत है। यह ‘शक’ न रख अपने निश्चय में पक्का रहे। तो जिसको आज दूसरे लोग हार कहते हैं, कल ‘वाह-वाह’ के पुष्प चढ़ायेंगे।
विजयी आत्मा को अपने मन में, अपने कर्म प्रति कभी दुविधा नहीं होगी। राइट हूँ वा रांग हूँ? दूसरे का कहना अलग चीज़ है। दूसरे कोई राइट कहेंगे कोई रांग कहेंगे लेकिन अपना मन निश्चयबुद्धि हो कि - मैं विजयी हूँ। बाप में निश्चय के साथ-साथ स्वयं का भी निश्चय चाहिए। निश्चयबुद्धि अर्थात् विजयी का मन अर्थात् संकल्प शक्ति सदा स्वच्छ होने के कारण हाँ और ना का स्वयं प्रति वा दूसरों के प्रति निर्णय सहज और सत्य, स्पष्ट होगा। इसलिए ‘पता नहीं’, की दुविधा नहीं होगी। निश्चयबुद्धि विजयी रत्न की निशानी - सत्य निर्णय होने के कारण मन में जरा भी मूँझ नहीं होगी। सदैव मौज होगी। खुशी की लहर होगी। चाहे सरकमस्टांस आग के समान हो लेकिन उसके लिए वह अग्नि-परीक्षा विजय की खुशी अनुभव करायेगी। क्योंकि परीक्षा में विजयी हो जायेंगें ना। अब भी लौकिक रीति किसी भी बात में विजय होती है तो खुशी मनाने के लिए हँसते नाचते ताली बजाते हैं। यह खुशी की निशानी है। निश्चयबुद्धि कभी भी किसी भी कार्य में अपने को अकेला अनुभव नहीं करेंगे। सभी एक तरफ हैं मैं अकेला दूसरी तरफ हूँ, चाहे मैजारिटी दूसरे तरफ हों और विजयी रत्न सिर्फ एक हो फिर भी वह अपने को एक नहीं लेकिन बाप मेरे साथ है इसलिए बाप के आगे अक्षोणी भी कुछ नहीं है। जहाँ बाप है वहाँ सारा संसार बाप में है। बीज है तो झाड़ उसमें है ही। विजयी निश्चयबुद्धि आत्मा सदा अपने को सहारे के नीचे समझेंगे। सहारा देने वाला दाता मेरे साथ है - यह नैचरल अनुभव करता है। ऐसे नहीं कि जब समस्या आवे उस समय बाप के आगे भी कहेंगे - बाबा आप तो मेरे साथ हो ना। आप ही मददगार हो ना। बस अब आप ही हो। मतलब का सहारा नहीं लेंगे। आप हो ना, यह हो ना का अर्थ क्या हुआ? निश्चय हुआ? बाप को भी याद दिलाते हैं कि आप सहारा हो। निश्चयबुद्धि कभी भी ऐसा संकल्प नहीं कर सकते। उनके मन में जरा भी बेसहारे वा अकेलेपन का संकल्प मात्र भी अनुभव नहीं होगा। निश्चयबुद्धि विजयी होने के कारण सदा खुशी में नाचता रहेगा। कभी उदासी वा अल्पकाल का हद का वैराग, इसी लहर में भी नहीं आयेंगे। कई बार जब माया का तेज वार होता है, अल्पकाल का वैराग भी आता है लेकिन वह हद का अल्पकाल का वैराग होता है। बेहद का सदा का नहीं होता। मजबूरी से वैराग वृत्ति उत्पन्न होता है। इसलिए उस समय कह देते हैं कि इससे तो इसको छोड़ दें। मुझे वैराग आ गया है। सेवा भी छोड़ दें यह भी छोड़ दें, वैराग आता है लेकिन वह बेहद का नहीं होता। विजयी रत्न सदा हार में भी जीत, जीत में भी जीत अनुभव करेंगे। हद के वैराग को कहते हैं - किनारा करना। नाम वैराग कहते लेकिन होता किनारा है। तो विजयी रता किसी कार्य से, समस्या से, व्यक्ति से किनारा नहीं करेंगे। लेकिन सब कर्म करते हए, सामना करते हुए, सहयोगी बनते हुए बेहद के वैरागवृत्ति में होंगे। जो सदाकाल का है। निश्चयबुद्धि विजयी कभी अपने विजय का वर्णन नहीं करेंगे। दूसरे को उल्हना नहीं देंगे। देखा मैं राइट था ना। यह उल्हना देना या वर्णन करना यह खालीपन की निशानी है। खाली चीज़ ज्यादा उछलती है ना। जितना भरपूर होंगे उतना उछलेंगे नहीं। वियजी सदा दूसरे की भी हिम्मत बढ़ायेगा। नीचा दिखाने की कोशिश नहीं करेगा। क्योंकि विजयी रत्न बाप समान ‘मास्टर सहारे दाता’ है। नीचे से ऊँचा उठाने वाला है। निश्चयबुद्धि व्यर्थ से सदा दूर रहता है। चाहे व्यर्थ संकल्प हो, बोल हो वा कर्म हो। व्यर्थ से किनारा अर्थात् विजयी है। व्यर्थ के कारण ही कभी हार कभी जीत होती है। व्यर्थ समाप्त हो तो हार समाप्त। व्यर्थ समाप्त होना यह विजयी रत्न की निशानी है। अब यह चैक करो कि निश्चयबुद्धि विजयी रत्न की निशानियाँ अनुभव होती हैं? सुनाया ना - निश्चयबुद्धि तो हैं, सच बोलते हैं। लेकिन निश्चयबुद्धि एक हैं जानने तक, मानने तक और एक हैं चलने तक। मानते तो सभी हो कि हाँ, भगवान मिल गया। भगवान के बन गये। मानना वा जानना एक ही बात है। लेकिन चलने में नम्बरवार हो जाते। तो जानते भी हैं, मानते भी इसमें ठीक हैं लेकिन तीसरी स्टेज है - मान कर, जानकर चलना। हर कदम में निश्चय की वा विजय की प्रत्यक्ष निशानियाँ दिखाई दें। इसमें अन्तर है। इसलिए नम्बरवार बन गये। समझा। नम्बर क्यों बनें हैं।
इसी को ही कहा जाता है - ‘नष्टोमोहा’। नष्टोमोहा की परिभाषा बड़ी गुह्य है। वह फिर कब सुनायेंगे। निश्चयबुद्धि नष्टोमोहा की सीढ़ी है। अच्छा- आज दूसरा ग्रुप आया है। घर के बालक ही मालिक हैं तो घर के मालिक अपने घर में आये हैं ऐसे कहेंगे ना। घर में आये हो या घर से आये हो? अगर उसको घर समझेंगे तो ममत्व जायेगा। लेकिन वह टैम्प्रेरी सेवा स्थान है। घर तो सभी का ‘मधुबन’ है ना। आत्मा के नाते परमधाम है। ब्राह्मण के नाते मधुबन है। जब कहते ही हो कि हेड आिफस माउण्ट आबू है तो जहाँ रहते हो वह क्या हुई? आिफस हुई ना! तब तो हेड आिफस कहते। तो घर से आये नहीं हो लेकिन घर में आये हो। आिफस से कभी भी किसको चेन्ज कर सकते हैं। घर से निकाल नहीं सकते। आिफस तो बदली कर सकते। घर समझेंगे तो मेरा-पन रहेगा। सेन्टर को भी घर बना देते। तब मेरा-पन आता है। सेन्टर समझें तो मेरा-पन नहीं रहे। घर बन जाता, आराम का स्थान बन जाता तब मेरा-पन रहता है। तो अपने घर से आये हो। यह जो कहावत है - ‘अपना घर दाता का दर’। यह कौन से स्थान के लिए है? वास्तविक दाता का दर अपना घर तो ‘मधुबन’ है ना। अपने घर में अर्थात् दाता के घर में आये हो। घर अथवा दर कहो बात एक ही है। आने घर में अपने से आराम मिलता है ना। मन का आराम। तन का भी आराम, धन का भी आराम। कमाने के लिए जाना थोड़े ही पड़ता। खाना बनाओ तब खाओ इससे भी आराम मिल जाता, थाली में बना बनाया भोजन मिलता है। यहाँ तो ठाकुर बन जाते हो। जैसे ठाकुरों के मंदिर में घण्टी बजाते है ना। ठाकुर को उठाना होगा, सुलाना होगा तो घण्टी बजाते। भोग लगायेंगे तो भी घण्टी बजायेंगे। आपकी भी घण्टी बजती है ना। आजकल फैशनेबल हैं तो रिकार्ड बजता है। रिकार्ड से सोते हो, फिर रिकार्ड से उठते हो तो ठाकुर हो गये ना। यहाँ का ही फिर भक्तिमार्ग में कापी करते हैं। यहाँ भी 3, 4 बार भोग लगता है। चैतन्य ठाकुरों को 4 बजे से भोग लगाना शुरू हो जाता है। अमृतवेले से भोग शुरू होता। चैतन्य स्वरूप में भगवान सेवा कर रहा है बच्चों की। भगवान की सेवा तो सब करते हैं, यहाँ भगवान सेवा करता। किसकी? चैतन्य ठाकुरों की। यह निश्च सदा ही खुशी में झुलाता रहेगा। समझा। सभी जोन लाड़ले हैं। जब जो जोन आता है वह लाड़ला है। लाड़ले तो हो लेकिन सिर्फ बाप के लाड़ले बनो। माया के लाड़ले नहीं बन जाओ। माया के लाड़ले बनते हो तो फिर बहुत लाड़ कोड करते हो। जो भी आये हैं भाग्यवान आये हो - भगवान के पास। अच्छा-
सदा हर संकल्प में निश्चयबुद्धि विजयी रत्न, सदा भगवान और भाग्य के स्मृति स्वरूप आत्माओं को, सदा हार और जीत दोनों में विजय अनुभव करने वालों को, सदा सहारा अर्थात् सहयोग देने वाले मास्टर सहारे दाता आत्माओं को, सदा स्वयं को बाप के साथ अनुभव करने वाली श्रेष्ट आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।’’
पार्टियों से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात –
1. सभी एक लगन में मगन रहने वाली श्रेष्ठ आत्मायें हो? साधारण तो नहीं। सदा श्रेष्ठ आत्मायें जो भी कर्म करेंगी वह श्रेष्ठ होगा। जब जन्म ही श्रेष्ठ है तो कर्म साधारण कैसे होगा! जब जन्म बदलता है तो कर्म भी बदलता है। नाम रूप, देश, कर्म सब बदल जाता है। तो सदा नया जन्म, नये जन्म की नवीनता के उमंग-उत्साह में रहते हो! जो कभी-कभी रहने वाले हैं उन्हें राज्य भी कभीकभी मिलेगा।
जो निमित्त बनी हुई आत्मायें हैं उन्हें निमित्त बनने का फल मिलता रहता है। और फल खाने वाली आत्मायें शक्तिशाली होती हैं। यह प्रत्यक्षफल है, श्रेष्ठ युग का फल है। इसका फल खाने वाले सदा शक्तिशाली होंगे। ऐसे शक्तिशाली आत्मायें परिस्थितियों के ऊपर सहज ही विजय पा लेती हैं। परिस्थिति नीचे और वह ऊपर। जैसे श्रीकृष्ण के लिए दिखाते हैं कि उसने साँप को भी जीता। उसके सिर पर पाँव रखकर नाचा। तो यह आपका चित्र है। कितने भी जहरीले साँप हों लेकिन आप उन पर भी विजय प्राप्त कर नाच करने वाले हो। यही श्रेष्ठ शक्तिशाली स्मृति सबको समर्थ बना देगी। और जहाँ समर्थता है वहाँ व्यर्थ समाप्त हो जाता है। समर्थ बाप के साथ हैं, इसी स्मृति के वरदान से सदा आगे बढ़ते चलो।
2. सभी अमर बाप की अमर आत्मायें हो ना। अमर हो गई ना? शरीर छोड़ते हो तो भी अमर हो, क्यों? क्योंकि भाग्य बना करके जाते हो। हाथ खाली नहीं जाते। इसलिए मरना नहीं है। भरपूर होकर जाना है। मरना अर्थात् हाथ खाली जाना। भरपूर होकर जाना माना चोला बदली करना। तो अमर हो गये ना। ‘अमर भव’ का वरदान मिल गया। इसमें मृत्यु के वशीभूत नहीं होते। जानते हो जाना भी है फिर आना भी है। इसलिए अमर हैं। अमरकथा सुनते-सुनते अमर बन गये। रोज-रोज प्यार से कथा सुनते हो ना। बाप अमरकथा सुनाकर अमरभव का वरदान दे देता है। बस सदा इसी खुशी में रहो कि अमर बन गये। मालामाल बन गये। खाली थे, भरपूर हो गये। ऐसे भरपूर हो गये जो अनेक जन्म खाली नहीं हो सकते। 3. सभी याद की यात्रा में आगे बढ़ते जा रहे हो ना। यह रूहानी यात्रा सदा ही सुखदाई अनुभव करायेगी। इस यात्रा से सदा के लिए सर्व यात्रायें पूर्ण हो जाती हैं। रूहानी यात्रा की तो सभी यात्रायें हो गई और कोई यात्रा करने की आवश्यकता ही नहीं रहती। क्योंकि महान यात्रा है ना। महान यात्रा में सब यात्रायें समाई हुई है। पहले यात्राओं में भटकते थे अभी इस रूहानी यात्रा से ठिकाने पर पहुँच गये। अभी मन को भी ठिकाना मिला तो तन को भी ठिकाना मिला। एक ही यात्रा से अनेक प्रकार का भटकना बन्द हो गया। तो सदा रूहानी यात्री हैं इस स्मृति में रहो, इससे सदा उपराम रहेंगे, न्यारे रहेंगे, निर्मोही रहेंगे। किसी में भी मोह नहीं जायेगा। यात्री का किसी में भी मोह नहीं जाता। ऐसी स्थिति सदा रहे।
विदाई के समय - बापदादा सभी देश-विदेश के बच्चों को देख खुश होते हैं क्योंकि सभी सहयोगी बच्चे हैं। सहयोगी बच्चों को बापदादा सदा दिलतख्तनशीन समझ याद कर रहे हैं। सभी निश्चयबुद्धि आत्मायें बाप की प्यारी हैं। क्योंकि सभी गले का हार बन गई। अच्छा - सभी बच्चे सर्विस अच्छी वृद्धि को प्राप्त करा रहे हैं। अच्छा, सभी को याद – ओम शान्ति।
27-11-85 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
पुराना संसार और पुराना संस्कार भुलाने का उपाय सर्वशक्तिवान शिवबाबा बोले
बापदादा सभी निश्चयबुद्धि बच्चों के निश्चय का प्रत्यक्ष जीवन का स्वरूप देख रहे हैं। निश्चयबुद्धि की विशेषतायें सभी ने सुनी। ऐसा विशेषताओं सम्पन्न निश्चयबुद्धि विजयी रत्न इस ब्राह्मण जीवन वा पुरूषोत्तम संगमयुगी जीवन में सदा निश्चय का प्रमाण, रूहानी नशे में होगा। रूहानी नशा निश्चय का दर्पण स्वरूप है। निश्चय सिर्फ बुद्धि में स्मृति तक नहीं लेकिन हर कदम में रूहानी नशे के रूप में, कर्म द्वारा प्रत्यक्ष स्वरूप में स्वयं को भी अनुभव होता, औरों को भी अनुभव होता क्योंकि यह ज्ञान और योगी जीवन है। सिर्फ सुनने सुनाने तक नहीं है, जीवन बनाने का है। जीवन में स्मृति अर्थात् संकल्प, बोल, कर्म सम्बन्ध सब आ जाता है। निश्चयबुद्धि अर्थात् नशे का जीवन। ऐसे रूहानी नशे वाली आत्मा का हर संकल्प सदा नशे से सम्पन्न होगा। संकल्प, बोल, कर्म तीनों से निश्चय का नशा अनुभव होगा। जैसा नशा वैसे खुशी की झलक चेहरे से, चलन से प्रत्यक्ष होगी। निश्चय का प्रमाण नशा और नशे का प्रमाण है ‘खुशी’। नशे कितने प्रकार के हैं इसका विस्तार बहुत बड़ा है। लेकिन सार रूप में एक नशा है - अशरीरी आत्मिक स्वरूप का। इसका विस्तार जानते हो? आत्मा तो सभी हैं लेकिन रूहानी नशा तब अनुभव होता जब यह स्मृति में रखते कि - ‘मैं कौन-सी आत्मा हूँ?’ इसका और विस्तार आपस में निकालना वा स्वयं मनन करना।
दूसरा नशे का विशेष रूप संगमयुग का अलौकिक जीवन है। इस जीवन में भी कौन-सी जीवन है इसका भी विस्तार सोचो। तो एक है - आत्मिक स्वरूप का नशा। दूसरा है - अलौकिक जीवन का नशा। तीसरा है - फरिश्तेपन का नशा। फरिश्ता किसको कहा जाता है इसका भी विस्तार करो। चौथा है भविष्य का नशा। इन चार ही प्रकार के अलौकिक नशे में से कोई भी नशा जीवन में होगा तो स्वत: ही खुशी में नाचते रहेंगे। निश्चय भी है लेकिन खुशी नहीं है इसका कारण? नशा नहीं है। नशा सहज ही पुराना संसार और पुराना संस्कार भुला देता है। इस पुरुषार्थी जीवन में विशेष विघ्न रूप यह दो बातें हैं। चाहे पुराना संसार वा पुराना संस्कार। संसार में देह के सम्बन्ध और देह के पदार्थ दोनों आ जाता है। साथ-साथ संसार से भी पुराने संस्कार ज्यादा विघ्न रूप बनते हैं। संसार भूल जाते हैं लेकिन संस्कार नहीं भूलते। तो संस्कार परिवर्तन करने का साधन है - इन चार के नशे में से कोई भी नशा साकार स्वरूप में हो। सिर्फ संकल्प स्वरूप में नहीं। साकार स्वरूप में होने से कभी भी विघ्न रूप नहीं बनेंगे। अभी तक संस्कार परिवर्तन न होने का कारण यह है। इन नशों को संकल्प रूप में अर्थात् नॉलेज के रूप में बुद्धि तक धारण किया है। इसलिए कभी भी किसी का पुराना संस्कार इमर्ज होता है तब यह भाषा बोलते हैं, मैं सब समझती हूँ, बदलना है यह भी समझते हैं लेकिन समझ तक नहीं, कर्म अर्थात् जीवन तक चाहिए। जीवन द्वारा परिवर्तन अनुभव में आवे। इसको कहा जाता है - साकार स्वरूप में आना। अभी बुद्धि तक पाइंट्स के रूप में सोचने और वर्णन करने तक है। लेकिन हर कर्म में, सम्पर्क में परिवर्तन दिखाई दे इसको कहा जाता है - साकार रूप में अलौकिक नशा। अभी हर एक नशे को जीवन में लाओ। कोई भी आपके मस्तक तरफ देखे तो मस्तक द्वारा रूहानी नशे की वृत्ति अनुभव हो। चाहे कोई वर्णन करे न करे लेकिन वृत्ति, वायुमण्डल और वायब्रेशन फैलाती है। आपकी वृत्ति दूसरे को भी खुशी के वायुमण्डल में खुशी के वायब्रेशन अनुभव करावे। इसको कहा जाता है नशे में स्थित होना। ऐसे ही दृष्टि से, मुख की मुस्कान से, मुख के बोल से, रूहानी नशे का साकार रूप अनुभव हो। तब कहेंगे नशे में रहने वाले निश्चयबुद्धि विजयी रत्न। इसमें गुप्त नहीं रहना है। कई ऐसी भी चतुराई करते हैं कि हम गुप्त हैं। जैसे कहावत है - ‘सूर्य को कभी कोई छिपा नहीं सकता’। कितने भी गहरे बादल हों फिर भी सूर्य अपना प्रकाश छोड़ नहीं सकता। सूर्य हटता है वा बादल हटते हैं? बादल आते भी हैं और हट भी जाते हैं लेकिन सूर्य अपने प्रकाश स्वरूप में स्थित रहता है। तो रूहानी नशे वाला भी रूहानी झलक से छिप नहीं सकता। उसके रूहानी नशे की झलक प्रत्यक्ष रूप में अनुभव अवश्य होती है। उनके वायब्रेशन स्वत: ही औरों को आकर्षित करते हैं। रूहानी नशे में रहने वाले के वायब्रेशन स्वयं के प्रति वा औरों के प्रति छत्रछाया का कार्य करते हैं। तो अभी क्या करना है? साकार में आओ। नॉलेज के हिसाब से नॉलेजफुल हो गये हो। लेकिन नॉलेज को साकार जीवन में लाने से नॉलेजफुल के साथ-साथ सक्सेसफुल, ब्लिसफुल अनुभव करेंगे। अच्छा, फिर सुनायेंगे सक्सेसफुल और ब्लिसफुल का स्वरूप क्या होता है?
आज तो रूहानी नशे की बात सुना रहे हैं। सभी को नशा अनुभव हो। इन चार ही नशों में से एक नशे को भिन्न-भिन्न रूप से यूज़ करो। जितना इस नशे को जीवन में अनुभव करेंगे तो सदा सभी िफकर से फारिग बेफकर बादशाह बन जायेंगे। सभी आपको बेफकर बादशाह के रूप में देखेंगे। अब विस्तार निकालना वा प्रैक्टिस में लाना। जहाँ खुशी है वहाँ माया की कोई भी चाल चल नहीं सकती। बेफकर बादशाह की बादशाही के अन्दर माया आ नहीं सकती। आती है और भगाते हो, फिर आती है फिर भगाते हो। कभी देह के रूप में आती, कभी देह के सम्बन्ध के रूप में आती है। इसी को ही कहते हैं कभी महारथी हाथी बनके आती कभी बिल्ली बनके आती, कभी चूहा बनकर आती। कभी चूहे को निकालते, कभी बिल्ली को निकालते। इसी भगाने के कार्य में समय निकल जाता है। इसलिए सदा रूहानी नशे में रहो। पहले स्वयं को प्रत्यक्ष करो तब बाप की प्रत्यक्षता करेंगे। क्योंकि आप द्वारा बाप प्रत्यक्ष होना है। अच्छा-
सदा स्वयं द्वारा सर्वशक्तिवान को प्रत्यक्ष करने वाले, सदा अपने साकार जीवन के दर्पण से रूहानी नशे की विशेषता प्रत्यक्ष करने वाले, सदा बेफकर बादशाह बन माया को विदाई देने वाले, सदा नॉलेज को स्वरूप में लाने वाले, ऐसे निश्चय बुद्धि नशे में रहने वाले, सदा खुशी में झूलने वाले, ऐसी श्रेष्ठ आत्माओं को, विशेष आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।’’
सेवाधारी (टीचर्स) बहिनों से - सेवाधारी अर्थात् अपनी शक्तियों द्वारा औरों को भी शक्तिशाली बनाने वाले। सेवाधारी की विशेषता यही है। निर्बल में बल भरने के निमित्त बनना, यही सच्ची सेवा है। ऐसी सेवा का पार्ट मिलना भी हीरो पार्ट है। तो हीरो पार्टधारी कितने नशे में रहती हो? सेवा के पार्ट से जितना अपने को नम्बर आगे बढ़ाने चाहो बढ़ा सकती हो। क्योंकि सेवा आगे बढ़ने का साधन है। सेवा में बिजी रहने से स्वत: ही सब बातों से किनारा हो जाता है। हर एक सेवा स्थान स्टेज है, जिस स्टेज पर हर आत्मा अपना पार्ट बजा रही है। साधन तो बहुत हैं लेकिन सदा साधनों में शक्ति होनी चाहिए। अगर बिना शक्ति के साधन यूज़ करते हैं तो जो सेवा की रिजल्ट निकलनी चाहिए वह नहीं निकलती है। पुराने समय में जो वीर लोग होते थे वह सदैव अपने शस्त्रों को देवताओं के आगे अर्पण कर उसमें शक्ति भरकर फिर यूज़ करते थे। तो आप सभी भी कोई भी साधन जब यूज़ करते हो तो उसे यूज़ करने के पहले उसी विधिपूर्वक कार्य में लगाते हो? अभी जो भी साधन कार्य में लगाते हो उससे थोड़े समय के लिए लोग आकर्षित होते हैं। सदाकाल के लिए प्रभावित नहीं होते। क्योंकि इतनी शक्तिशाली आत्मायें जो शक्ति द्वारा परिवर्तन कर दिखायें, वह नम्बरवार हैं। सेवा तो सभी करते हो, सभी का नाम है टीचर्स। सेवाधारी हो या टीचर हो लेकिन सेवा में अन्तर क्या है? प्रोग्राम भी एक ही बनाते हो, प्लैन भी एक जैसा करते हो। रीति रसम भी एक जैसी बनती है फिर भी सफलता में अन्तर पड़ जाता है, उसका कारण क्या? शक्ति की कमी। तो साधन में शक्ति भरी। जैसे तलवार में अगर जौहर नहीं हो तो तलवार, तलवार का काम नहीं देती। ऐसे साधन हैं तलवार लेकिन उसमें शक्ति का जौहर चाहिए। वह जितना अपने में भरते जायेंगे उतना सेवा में स्वत: ही सफलता मिलेगी। तो शक्तिशाली सेवाधारी बनो। सदा विधि द्वारा वृद्धि को प्राप्त होना यह भी कोई बड़ी बात नहीं है। लेकिन शक्तिशाली आत्मायें वृद्धि को प्राप्त हों - इसका विशेष अटेन्शन। क्वालिटी निकालो। क्वान्टिटी तो और भी ज्यादा आयेगी। क्वालिटी के ऊपर अटेन्शन। नम्बर क्वालिटी पर मिलेगा। क्वान्टिटी पर नहीं। एक क्वालिटी वाला 100 क्वान्टिटी के बराबर है। क्वालिटी वाली सेवा - इसको कहा जाता है - शक्तिशाली सेवा।
कुमारों से - कुमार क्या कमाल करते हो? धमाल करने वाले तो नहीं हो ना! कमाल करने के लिए शक्तिशाली बनो और बनाओ। शक्तिशाली बनने के लिए सदा अपना ‘मास्टर सर्वशक्तिवान’ का टाइटिल स्मृति में रखो। जहाँ शक्ति होगी वहाँ माया से मुक्ति होगी। जितना स्व के ऊपर अटेन्शन होगा उतना ही सेवा में भी अटेन्शन जायेगा। अगर स्व के प्रति अटेन्शन नहीं तो सेवा में शक्ति नहीं भरती। इसलिए सदा अपने को सफलता स्वरूप बनाने के लिए शक्तिशाली अभ्यास के साधन बनाने चाहिए। कोई ऐसे विशेष प्रोग्राम बनाओ। जिससे सदा प्रोग्रेस होती रहे। पहले स्व उन्नति के प्रोग्राम बनाओ तब सेवा सहज और सफल होगी। कुमार जीवन भाग्यवान जीवन है क्योंकि कई बन्धनों से बच गये। नहीं तो गृहस्थी जीवन में कितने बन्धन हैं। तो ऐसे भाग्यवान बनने वाली आत्मायें कभी अपने भाग्य को भूल तो नहीं जातीं। सदा अपने को श्रेष्ठ भाग्यवान आत्मा समझ औरों के भी भाग्य की रेखा खींचने वाले हो। जो निर्बन्धन होते हैं वह सब ही उड़ती कला द्वारा आगे बढ़ते जाते। इसलिए कुमार और कुमारी जीवन बापदादा को सदा प्यारी लगती है। गृहस्थी जीवन है बन्धन वाली और कुमार जीवन है बन्धन मुक्त। तो निर्बन्धन आत्मा बन औरों को भी निर्बन्धन बनाओ। कुमार अर्थात् सदा सेवा और याद का बैलेन्स रखने वाले। बैलेन्स है तो सदा उड़ती कला है। जो बैलेन्स रखना जानते हैं वह कभी भी किसी परिस्थिति में नीचे-ऊपर नहीं हो सकते।
अधर कुमारों से - सभी अपने जीवन के प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा सेवा करने वाले हो ना! सबसे बड़े ते बड़ा प्रत्यक्ष प्रमाण है - आप सबकी जीवन का परिवर्तन। सुनने वाले सुनाने वाले तो, बहुत देखे। अभी सब देखने चाहते हैं, सुनने नहीं चाहते। तो सदा जब भी कोई कर्म करते हो तो यह लक्ष्य रखो कि जो कर्म हम कर रहे हैं उसमें ऐसा परिवर्तन हो जो दूसरे देख करके परिवर्तित हो जाएं। इससे स्वयं भी सन्तुष्ट और खुश रहेंगे और दूसरों का भी कल्याण करेंगे। तो हर कर्म सेवार्थ करो। अगर यह स्मृति रहेगी कि मेरा हर कर्म सेवा अर्थ है तो स्वत: ही श्रेष्ठ कर्म करेंगे। याद रखो - ‘स्व परिवर्तन से औरों का परिवर्तन करना है’। यह सेवा सहज भी है और श्रेष्ठ भी है। मुख का भी भाषण और जीवन का भी भाषण। इसको कहते हैं सेवाधारी। सदा अपनी दृष्टि द्वारा औरों की दृष्टि बदलने के सेवाधारी। जितनी दृष्टि शक्तिशाली होगी उतना अनेकों का परिवर्तन कर सकेंगे। सदा दृष्टि और श्रेष्ठ कर्म द्वारा औरों की सेवा करने के निमित्त बनो।
2. क्या थे और क्या बन गये! यह सदा स्मृति में रखते हो! इस स्मृति में रहने से कभी भी पुराने संस्कार इमर्ज नहीं हो सकते। साथ-साथ भविष्य में भी क्या बनने वाले हैं यह भी याद रखो तो वर्तमान और भविष्य श्रेष्ठ होने के कारण खुशी रहेगी और खुशी में रहने से सदा आगे बढ़ते रहेंगे। वर्तमान और भविष्य की दुनिया श्रेष्ठ है तो श्रेष्ठ के आगे जो दुखदाई दुनिया है वह याद नहीं आयेगी। सदा अपने इस बेहद के परिवार को देख खुश होते रहो। कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा होगा कि ऐसे भाग्यवान परिवार मिलेगा। लेकिन अभी साकार में देख रहे हो। अनुभव कर रहे हो। ऐसे परिवार जो एकमत परिवार हो, इतना बड़ा परिवार हो यह सारे कल्प में अभी ही है। सतयुग में भी छोटा परिवार होगा। तो बापदादा और परिवार को देख खुशी होती है ना। यह परिवार प्यारा लगता है? क्योंकि यहाँ स्वार्थ भाव नहीं है। जो ऐसे परिवार के बनते हैं वह भविष्य में भी एक दो के समीप आते हैं। सदा इस ईश्वरीय परिवार की विशेषताओं को देखते हुए आगे बढ़ते चलो।
कुमारियों से - सभी कुमारियाँ अपने को विश्व-कल्याणकारी समझ आगे बढ़ती रहती हो? यह स्मृति सदा समर्थ बनाती है। कुमारी जीवन समर्थ जीवन है। कुमारियाँ स्वयं समर्थ बन औरों को समर्थ बनाने वाली हैं। व्यर्थ को सदा के लिए विदाई देने वाली। कुमारी जीवन के भाग्य को स्मृति में रख आगे बढ़ते चलो। यह भी संगम में बड़ा भाग्य है जो कुमारी बनी, कुमारी अपने जीवन द्वारा औरों की जीवन बनाने वाली, बाप के साथ रहने वाली। सदा स्वयं को शक्तिशाली अनुभव कर औरों को भी शक्तिशाली बनाने वाली। सदा श्रेष्ठ संकल्प द्वारा वायुमण्डल को बदल नाम बाला करने वाली। सदा एक बाप दूसरा न कोई - ऐसे नशे में हर कदम आगे बढ़ाने वाली! तो ऐसी कुमारियाँ हो ना! अच्छा- ओमशान्ति
प्रश्न:- किस विशेषता वा गुण से सर्वप्रिय बन सकते हो?
उत्तर:- न्यारे और प्यारे रहने का गुण वा निस्संकल्प रहने की जो विशेषता है - इसी विशेषता से सर्व के प्रिय बन सकते, प्यारे-पन से सबके दिल का प्यार स्वत: ही प्राप्त हो जाता है। इसी विशेषता से सफलता प्राप्त कर सकते हैं। अच्छा-
02-12-85 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
बन्धनों से मुक्त की युक्ति - रूहानी शक्ति
मुक्ति-जीवनमुक्ति दाता शिवबाबा बोले
आज बापदादा अपने रूहानी बच्चों की रूहानियत की शक्ति देख रहे थे। हर एक रूहानी बच्चे ने रूहानी बाप से रूहानी शक्ति का सम्पूर्ण अधिकार बच्चे होने के नाते प्राप्त तो किया ही है। लेकिन प्राप्ति स्वरूप कहाँ तक बने हैं, यह देख रहे थे। सभी बच्चे हर रोज स्वयं को रूहानी बच्चा कह रूहानी बाप को यादप्यार का रिटर्न मुख से या मन से यादप्यार वा नमस्ते के रूप में देते हैं। रिटर्न देते हो ना। रिपोर्ट भी करते हो। इसका रहस्य यह हुआ कि रोज रूहानी बाप रूहानी बच्चे कह रूहानी शक्ति का वास्तविक स्वरूप याद दिलाते हैं। क्योंकि इस ब्राह्मण जीवन की विशेषता ही है - ‘रूहानियत’। इस रूहानियत की शक्ति से स्वयं को वा सर्व को परिवर्तन करते हो। मुख्य फाउण्डेशन ही यह ‘रूहानी शक्ति’ है। इस शक्ति से ही अनेक प्रकार के जिस्मानी बन्धनों से मुक्ति मिलती है। बापदादा देख रहे थे कि अब तक भी कई सूक्ष्म बन्धन जो स्वयं भी अनुभव करते हैं कि इस बन्धन से मुक्ति होनी चाहिए। लेकिन मुक्ति पाने की युक्ति प्रैक्टिकल में ला नहीं सकते। कारण? रूहानी शक्ति हर कर्म में यूज़ करना नहीं आता है। एक ही समय, संकल्प, बोल और कर्म तीनों को साथ-साथ शक्तिशाली बनाना पड़े। लेकिन लूज़ किसमें हो जाते हैं? एक तरफ संकल्प को शक्तिशाली बनाते हैं तो वाणी में कुछ लूज़ हो जाते हैं। कब वाणी को शक्तिशाली बनाते हैं तो कर्म में लूज़ हो जाते हैं। लेकिन यह तीनों ही रूहानी शक्तिशाली एक ही समय पर बनावें तो यही युक्ति है मुक्ति की। जैसे सृष्टि की रचना में तीन कार्य स्थापना, पालना और विनाश, तीनों ही आवश्यक हैं। ऐसे सर्व बन्धनों से मुक्त होने की युक्ति - मन्सा, वाचा, कर्मणा तीनों रूहानी शक्तियाँ साथ-साथ आवश्यक हैं। कभी मन्सा को सम्भालते तो वाचा में कमी पड़ जाती। फिर कहते सोचा तो ऐसे नहीं था, पता नहीं यह क्यों हो गया। तीनों तरफ पूरा अटेन्शन चाहिए। क्योंकि यह तीनों ही साधन सम्पन्न स्थिति को और बाप को प्रत्यक्ष करने वाले हैं। मुक्ति पाने के लिए तीनों में रूहानियत अनुभव होनी चाहिए। जो तीनों में युक्तियुक्त हैं वो ही जीवनमुक्त हैं। तो बापदादा सूक्ष्म बन्धनों को देख रहे थे। सूक्ष्म बन्धन में भी विशेष इन तीनों का कनेक्शन है।
बन्धन की निशानी- बन्धन वाला सदा ही परवश होता है। बन्धन वाला अपने को आन्तरिक खुशी वा सुख में सदा अनुभव नहीं करेगा। जैसे लौकिक दुनिया में अल्पकाल के साधन अल्पकाल की खुशी वा सुख की अनुभूति कराते हैं लेकिन आन्तरिक वा अविनाशी अनुभूति नहीं होती। ऐसे सूक्ष्म बन्धन में बंधी हुई आत्मा इस ब्राह्मण जीवन में भी थोड़े समय के लिए सेवा का साधन, संगठन की शक्ति का साधन, कोई न कोई प्राप्ति के साधन, श्रेष्ठ संग का साधन इन साधनों के आधार से चलते हैं। जब तक साधन हैं तब तक खुशी और सुख की अनुभूति करते हैं। लेकिन साधन समाप्त हुआ तो खुशी भी समाप्त। सदा एकरस नहीं रहते। कभी खुशी में ऐसा नाचता रहेगा उस समय जैसे कि उन जैसा कोई है नहीं। लेकिन रूकेगा फिर ऐसा जो छोटा-सा पत्थर भी पहाड़ समान अनुभव करेगा। क्योंकि ओरीजनल शक्ति न होने के कारण साधन के आधार पर खुशी में नाचते। साधन निकल गया तो कहाँ नाचेगा? इसलिए आन्तरिक रूहानी शक्ति तीनों रूपों में सदा साथ-साथ आवश्यक है। मुख्य बन्धन है - मन्सा संकल्प की कण्ट्रोलिंग पावर नहीं। अपने ही संकल्पों के वश होने के कारण परवश का अनुभव करते हैं। जो स्वयं के संकल्पों के बन्धनों में है वह बहुत समय इसी में बिजी रहता है। जैसे आप लोग भी कहते हो ना कि हवाई किले बनाते हैं। किले बनाते और बिगाड़ते हैं। बहुत लम्बी दीवार खड़ी करते हैं। इसीलिए हवाई किला कहा जाता है। जैसे भक्ति में पूजा कर, सजा-धजा करके फिर डुबो देते हैं ना, ऐसे संकल्प के बन्धन में बंधी हुई आत्मा बहुत कुछ बनाती और बहुत कुछ बिगाड़ती है। स्वयं ही इस व्यर्थ कार्य से थक भी जाती है। दिलशिकस्त भी हो जाते हैं। और कभी अभिमान में आकर अपनी गलती दूसरे पर भी लगाते रहते। फिर भी समय बीतने पर अन्दर समझते हैं, सोचते हैं कि यह ठीक नहीं किया। लेकिन अभिमान के परवश होने के कारण, अपने बचाव के कारण, दूसरे का ही दोष सोचते रहते हैं। सबसे बड़ा बन्धन यह मन्सा का बन्धन है। जो बुद्धि को ताला लग जाता है। इसलिए कितनी भी समझाने की कोशिश करो लेकिन उनको समझ में नहीं आयेगा। मन्सा बन्धन की विशेष निशानी है - महसूसता शक्ति समाप्त हो जाती है। इसलिए इस सूक्ष्म बन्धन को समाप्त करने के बिना कभी भी आन्तरिक खुशी, सदा के लिए अतीन्द्रिय सुख अनुभव नहीं कर सकेंगे।
संगमयुग की विशेषता ही है ‘अतीन्द्रिय सुख’ में झूलना। सदा खुशी में नाचना। तो संगमयुगी बनकर और इस विशेषता का अनुभव नहीं किया तो क्या कहेंगे? इसलिए स्वयं को चेक करो कि किसी भी प्रकार के संकल्पों के बन्धन में तो नहीं हैं। चाहे व्यर्थ संकल्पों के बन्धन, चाहे ईर्ष्या द्वेष के संकल्प, चाहे अलबेलेपन के संकल्प, चाहे आलस्य के संकल्प, किसी भी प्रकार के संकल्प मन्सा बन्धन की निशानी हैं। तो आज बापदादा बन्धनों को देख रहे थे। मुक्त आत्मायें कितनी हैं?
मोटी-मोटी रस्सियाँ तो खत्म हो गई हैं। अभी यह महीन धागे हैं। हैं पतली लेकिन बन्धन में बांधने में होशियार हैं। पता ही नहीं पड़ता कि हम बन्धन में बंध रहे हैं। क्योंकि यह बन्धन अल्पकाल का नशा भी चढ़ाता है। जैसे विनाशी नशे वाले कभी अपने को नीचा नहीं समझते। होगा नाली में समझेगा महल में। होता खाली हाथ अपने को समझेगा राजा है। ऐसे इस नशे वाला भी कभी अपने को रांग नहीं समझेगा। सदा अपने को या तो राइट सिद्ध करेगा वा अलबेलापन दिखायेगा। यह तो होता ही है। ऐसे तो चलना ही है। इसलिए आज सिर्फ मन्सा बन्धन् बताया। फिर वाचा और कर्म का भी सुनायेंगे। समझा-
रूहानी शक्ति द्वारा मुक्ति प्राप्त करते चलो। संगमयुग पर जीवनमुक्ति का अनुभव करना ही भविष्य जीवनमुक्त प्रालब्ध पाना है। गोल्डन जुबली में तो जीवनमुक्त बनना है ना कि सिर्फ गोल्डन जुबली मनानी है। बनना ही मनाना है। दुनिया वाले सिर्फ मनाते हैं, यहाँ बनाते हैं। अभी जल्दी-जल्दी तैयार हो तब सभी आपकी मुक्ति से मुक्त बन जायेंगे। साइन्स वाले भी अपने बनाये हुए साधनों के बन्धन में बंध गये हैं। नेतायें भी देखो बचने चाहते हैं लेकिन कितने बन्धे हुए हैं। सोचते हुए भी कर नहीं पाते तो बन्धन हुआ ना। सभी आत्माओं को भिन्न-भिन्न बन्धनों से मुक्त कराने वाले स्वयं मुक्त बन सभी को मुक्त बनाओ। सभी मुक्ति, मुक्ति कह चिल्ला रहे हैं। कोई गरीबी से मुक्ति चाहते हैं। कोई गृहस्थी से मुक्ति चाहते हैं। लेकिन सभी का आवाज़ एक ही मुक्ति का है। तो अभी मुक्ति दाता बन मुक्ति का रास्ता बताओ वा मुक्ति का वर्सा दो। आवाज़ तो पहुँचता है ना कि समझते हो यह तो बाप का काम है। हमारा क्या है? प्रालब्ध आपको पानी है, बाप को नहीं पानी है। प्रजा वा भक्त भी आपको चाहिए। बाप को नहीं चाहिए। जो आपके भक्त होंगे वह बाप के स्वत: ही बन जायेंगे। क्योंकि द्वापर में आप लोग ही पहले भक्त बनेंगे। पहले बाप की पूजा शुरू करेंगे। तो आप लोगों को सभी फॉलो अभी करेंगे। इसलिए अभी क्या करना है? पुकार सुनो। मुक्ति दाता बनो। अच्छा-
सदा रूहानी शक्ति की युक्ति से मुक्ति प्राप्त करने वाले, सदा स्वयं को सूक्ष्म बन्धनों से मुक्त कर मुक्ति दाता बनने वाले, सदा स्वयं को आन्तरिक खुशी, अतीन्द्रिय सुख की अनुभूति में आगे से आगे बढ़ाने वाले, सदा सर्व प्रति मुक्त आत्मा बनाने की शुभ भावना वाले, ऐसे रूहानी शक्तिवाले बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।’’
पार्टियों से - सुनने के साथ-साथ स्वरूप बनने में भी शक्तिशाली आत्मायें हो ना। सदैव अपने संकल्पों में हर रोज कोई न कोई स्व के प्रति और, औरों के प्रति उमंग- उत्साह का संकल्प रखो। जैसे आजकल के समय में अखबार में या कई स्थानों पर ‘‘आज का विचार’’ विशेष लिखते हैं ना। ऐसे रोज मन का संकल्प कोई न कोई उमंग-उत्साह का इमर्ज रूप में लाओ। और उसी संकल्प से स्वयं में भी स्वरूप बनाओ और दूसरों की सेवा में भी लगाओ तो क्या होगा? सदा ही नया उमंग-उत्साह रहेगा। आज यह करेंगे आज यह करेंगे। जैसे कोई विशेष प्रोग्राम होता है तो उमंग-उत्साह क्यों आता है? प्लैन बनाते हैं ना - यह करेंगे फिर यह करेंगे। इससे विशेष उमंग-उत्साह आता है। ऐसे रोज अमृतवेले विशेष उमंग- उत्साह का संकल्प करो और फिर चेक भी करो तो अपनी भी सदा के लिए उत्साह वाली जीवन होगी और उत्साह दिलाने वाले भी बन जायेंगे। समझा- जैसे मनोरंजन प्रोग्राम होते हैं ऐसे यह रोज का मन का मनोरंजन प्रोग्राम हो। अच्छा-
2. सदा शक्तिशाली याद में आगे बढ़ने वाली आत्मायें हो ना? शक्ति- शाली याद के बिना कोई भी अनुभव हो नहीं सकता। तो सदा शक्तिशाली बन आगे बढ़ते चलो। किसी भी देहधारी के पीछे जाना, सेवा देना यह सब रांग है। सदा अपनी शक्ति अनुसार ईश्वरीय सेवा में लग जाओ और सेवा का फल पाओ। जितनी शक्ति है उतना सेवा में लगाते चलो। चाहे तन से, चाहे मन से, चाहे धन से। एक का पदमगुणा मिलना ही है। अपने लिए जमा करते हो। अनेक जन्मों के लिए जमा करना है। एक जन्म में जमा करने से 21 जन्म के लिए मेहनत से छूट जाते हो। इस राज़ को जानते हो ना? तो सदा अपने भविष्य को श्रेष्ठ बनाते चलो। खुशी-खुशी से अपने को सेवा में आगे बढ़ाते चलो। सदा याद द्वारा एकरस स्थिति से आगे बढ़ो।
3. याद की खुशी से अनेक आत्माओं को खुशी देने वाले सेवाधारी हो ना। सच्चे सेवाधारी अर्थात् सदा स्वयं भी लगन में मगन रहें और दूसरों को भी लगन में मगन करने वाले। हर स्थान की सेवा अपनी-अपनी है। फिर भी अगर स्वयं लक्ष्य रख आगे बढ़ते हैं तो यह आगे बढ़ना सबसे खुशी की बात है। वास्तव में यह लौकिक स्टडी आदि सब विनाशी हैं लेकिन अविनाशी प्राप्ति का साधन सिर्फ यह नॉलेज है। ऐसे अनुभव करते हो ना। देखो आप सेवाधारियों को ड्रामा में कितना गोल्डन चान्स मिला हुआ है। इसी गोल्डन चांस को जितना आगे बढ़ाओ उतना आपके हाथ में है। ऐसा गोल्डन चांस सभी को नहीं मिलता है। कोटों में कोई को ही मिलता है। आपको तो मिल गया। इतनी खुशी रहती है? दुनिया में जो किसी के पास नहीं वह हमारे पास है। ऐसे खुशी में सदा स्वयं भी रहो और दूसरों को भी लाओ। जितना स्वयं आगे बढ़ेंगे उतना औरों को बढ़ायेंगे। सदा आगे बढ़ने वाली, यहाँ वहाँ देखकर रूकने वाली नहीं। सदा बाप और सेवा सामने हो, बस। फिर सदा उन्नति को पाती रहेंगी। सदा अपने को बाप के सिकीलधे हैं ऐसा समझकर चलो।
नौकरी करने वाली कुमारियों से - 1. सभी का लक्ष्य तो श्रेष्ठ है ना। ऐसे तो नहीं समझती हो कि दोनों तरफ चलती रहेंगी। क्योंकि जब कोई बन्धन होता तो दोनों तरफ चलना दूसरी बात है। लेकिन निर्बन्धन आत्माओं का दोनों तरफ रहना अर्थात् लटकना है। कोई-कोई के सरकमस्टांस होते हैं तो बापदादा भी छुट्टी देते हैं लेकिन मन का बन्धन है तो फिर यह लटकना हुआ। एक पाँव यहाँ हुआ, एक पाँव वहाँ हुआ तो क्या होगा? अगर एक पाँव एक नाँव में रखो, दूसरा पाँव दूसरी नाँव में रखो तो क्या हालत होगी। परेशान होंगे ना। इसलिए दोनों पाँव एक नाँव में। सदा अपनी हिम्मत रखो। हिम्मत रखने से सहज ही पार हो जायेंगी। सदा यह याद रखो कि मेरे साथ बाबा है। अकेले नहीं हैं तो जो भी कार्य करने चाहो कर सकती हो।
2. कुमारियों का संगमयुग पर विशेष पार्ट है, ऐसी विशेष पार्टधारी अपने को बनाया है? या अभी तक साधारण हो? आपकी विशेषता क्या है? विशेषता है ‘सेवाधारी’ बनना। जो सेवाधारी है वह विशेष है। सेवाधारी नहीं हो तो साधारण हो गई। क्या लक्ष्य रखा है? संगमयुग पर ही यह चांस मिलता है। अगर अभी यह चांस नहीं लिया तो सारे कल्प में नहीं मिलेगा। संगमयुग को ही विशेष वरदान है। लौकिक पढ़ाई पढ़ते भी लगन इस पढ़ाई में हो। तो वह पढ़ाई विघ्न रूप नहीं बनेगी। तो सभी अपना भाग्य बनाते आगे बढ़ो। जितना अपने भाग्य का नशा होगा उतना सहज मायाजीत बन जायेंगी। यह रूहानी नशा है। सदा अपने भाग्य के गीत गाती रहो तो गीत गाते-गाते अपने राज्य में पहुँच जायेंगी।
04-12-85 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
संकल्प की भाषा - सर्वश्रेष्ठ भाषा
सर्व समर्थ सर्वशक्तिवान शिवबाबा बोले
आज बापदादा के सामने डबल रूप में डबल सभा लगी हुई है। दोनों ही स्नेही बच्चों की सभा है। एक है साकार रूपधारी बच्चों की सभा। दूसरी है आकारी स्नेही स्वरूप बच्चों की सभा। स्नेह के सागर बाप से मिलन मनाने के लिए चारों ओर के आकार रूपधारी बच्चे अपने स्नेह को बापदादा के आगे प्रत्यक्ष कर रहे हैं। बापदादा सभी बच्चों के स्नेह के संकल्प, दिल के भिन्न-भिन्न उमंग-उत्साह के संकल्प, दिल की भिन्न-भिन्न भावनाओं के साथ-साथ स्नेह के सम्बन्ध के अधिकार से अपने दिल के हाल-चाल, अपनी भिन्न-भिन्न प्रवृत्ति के परिस्थितियों के हाल-चाल, सेवा के समाचारों का हाल-चाल, नयनों की भाषा से, श्रेष्ठ स्नेह के संकल्पों की भाषा से बाप के आगे स्पष्ट कर रहे हैं। बापदादा सभी बच्चों की रूह-रूहान तीन रूपों से सुन रहे हैं। एक नयनों की भाषा में बोल रहे हैं। 2. भावना की भाषा में, 3. संकल्प की भाषा में बोल रहे हैं। मुख की भाषा तो कामन भाषा है। लेकिन यह तीन प्रकार की भाषा रूहानी योगी जीवन की भाषा है। जिसको रूहानी बच्चे और रूहानी बाप जानते हैं। और अनुभव करते हैं। जितना-जितना अन्तर्मुखी स्वीट साइलेन्स स्वरूप में स्थित होते जायेंगे - उतना इन तीन भाषाओं द्वारा सर्व आत्माओं को अनुभव करायेंगे। यह अलौकिक भाषायें कितनी शक्तिशाली हैं। मुख की भाषा सुनकर और सुनाकर मैजारिटी थक गये हैं। मुख की भाषा में किसी भी बात को स्पष्ट करने में समय भी लगता है। लेकिन नयनों की भाषा इशारा देने की भाषा है। मन के भावना की भाषा चेहरे के द्वारा भाव रूप में प्रसिद्ध होती हैं। चेहरे का भाव मन की भावना को सिद्ध करता है। जैसे कोई भी किसी के सामने जाता है, स्नेह से जाता है वा दुश्मनी से जाता है, वा कोई स्वार्थ से जाता है तो उसके मन का भाव चेहरे से दिखाई देता है। किस भावना से कोई आया है वह नैन-चैन बोलते हैं। तो भावना की भाषा चेहरे के भाव से जान भी सकते हो, बोल भी सकते हो। ऐसे ही संकल्प की भाषा यह भी बहुत श्रेष्ठ भाषा है। क्योंकि संकल्प शक्ति सबसे श्रेष्ठ शक्ति है, मूल शक्ति है। और सबसे तीव्रगति की भाषा यह संकल्प की भाषा है। कितना भी कोई दूर हो, कोई साधन नहीं हो लेकिन संकल्प की भाषा द्वारा किसी को भी मैसेज दे सकते हो। अन्त में यही संकल्प की भाषा काम में आयेगी। साइन्स के साधन जब फेल हो जाते हैं तो यह साइलेन्स का साधन काम में आयेगा। लेकिन कोई भी कनेक्शन जोड़ने के लिए सदा लाइन क्लीयर चाहिए। जितना-जितना एक बाप और उन्हीं द्वारा सुनाई हुई नॉलेज में वा उसी नॉलेज द्वारा सेवा में सदा बिजी रहने के अभ्यासी होंगे उतना श्रेष्ठ संकल्प होने के कारण लाइन क्लीयर होगी। व्यर्थ संकल्प ही डिस्टर्बेन्स हैं। जितना व्यर्थ समाप्त हो समर्थ संकल्प चलेंगे उतना संकल्प श्रेष्ठ, भाषा इतनी ही स्पष्ट अनुभव करेंगे। जैसे मुख की भाषा से अनुभव करते हो। संकल्प की भाषा सेकण्ड में मुख की भाषा से बहुत ज्यादा किसी को भी अनुभव करा सकते हैं। तीन मिनट के भाषण का सार सेकण्ड में संकल्प की भाषा से अनुभव करा सकते हो। सेकण्ड में जीवन-मुक्त का जो गायन है वह अनुभव करा सकते हो।
अन्तर्मुखी आत्माओं की भाषा, यही अलौकिक भाषा है। अभी समय प्रमाण इन तीनों भाषाओं द्वारा सहज सफलता को प्राप्त करेंगे। मेहनत भी कम, समय भी कम। लेकिन सफलता सहज है। इसलिए अब इस रूहानी भाषा के अभ्यासी बनो। तो आज बापदादा भी बच्चों के इन तीनों रीति की भाषा सुन रहे हैं। और सभी बच्चों को रेसपाण्ड दे रहे हैं। सभी के अति स्नेह का स्वरूप बापदादा देख स्नेह को, स्नेह के सागर में समा रहे हैं। सभी की यादों को सदा के लिए यादगार रूप बनने का श्रेष्ठ वरदान दे रहे हैं। सभी के मन के भिन्न-भिन्न भाव को जान सभी बच्चों के प्रति सर्व भावों का रेसपाण्ड - सदा निर्विघ्न भव, समर्थ भव, सर्व शक्ति सम्पन्न भव की शुभ भावना, इस रूप में दे रहे हैं। बाप की शुभ भावना जो भी सब बच्चों की शुभ कामनायें हैं, परिस्थिति प्रमाण सहयोग की भावना है वा शुभ कामना है, वह सभी शुभ कामनायें बापदादा की श्रेष्ठ भावना से सम्पन्न होती ही जायेंगी। चलते-चलते कभी-कभी कई बच्चों के आगे पुराने हिसाब-किताब इसी में ही रूचि रखते हैं। ज्यादा कमाई का साधन भी यही बना हुआ है। अच्छा- तो सब नाचते-गाते, आगे बढ़ते रहते हैं। (आजकल सम्पर्क वाली आत्मायें अच्छी मददगार हैं, खुद ही सब प्लैन बनाते जा रहे हैं) अच्छा है, ऐसे ही होना है तब तो आप लोग वानप्रस्थ में जायेंगे। वाणी से परे स्थिति में जाना है। जब दूसरे जिम्मेवारी उठायेंगे तब तो आप लोग वानप्रस्थी बन सभी को वानप्रस्थ में ले जायेंगे। अभी तो अपनी स्टेज बनानी पड़ती है फिर स्टेज बनी बनाई मिलेगी। यही सेवा की सफलता है जो बनाने वाले दूसरे हो और आप सिर्फ आशीर्वाद देकर आओ।
सभी को सेवा करना सिखा दिया है ना? तो जो सीख गये, किसलिए सीखे? करने के लिए सीखे हैं ना। अभी ज्यादा माथा लगाने की जरूरत ही नहीं है। जैसे स्वर्ग में सब बना बनाया होगा। सिर्फ यह कहेंगे - चलिए हजूर, बैठिये हजूर! ऐसे अभी भी सब बना बनाया मिलेगा। यहाँ ही सेवा की स्टेज में फाउण्डेशन पड़ता है। सतयुग में कोई मेहनत करनी पड़ेगी? तो मेहनत की सफलता का फल अभी से ही प्रत्यक्ष रूप में अनुभव करेंगे तब वह संस्कार प्रैक्टिकल में आयेंगे। अभी ज्यादा माथा लगाने वाली सेवा का स्वरूप ही बदलना है। जहाँ ज्यादा माथा लगाते हैं वहाँ ज्यादा स्वभाव का भी माथा टकराता है। अभी सहज स्वाभाविक रूप में सफलता अनुभव करेंगे। अच्छा - दादी की साथी बन गई, यह भी बहुत अच्छा किया। यह भी ड्रामा में पार्ट है। ऐसे ही एकदो के संकल्प उड़ाते रहेंगे। संकल्प पहुँचा और प्रैक्टिकल हुआ। एक ने कहा दूसरे ने माना यह भी श्रेष्ठ कर्म करके दिखाने के निमित्त बनो। क्यों, क्या नहीं किया ना। हाँ जी कर लिया ना। ऐसे ही हल्के सभी बन जाएँ तो फिर क्या होगा? सभी उड़ते पंछी हो जायेंगे। आज यहाँ कल वहाँ। जैसे पंछी कभी किसी डाली पर बैठते, कभी किसी डाली पर बैठते, उड़ते रहते। ऐसे उड़ते पंछी बन जायेंगे। जिस डाली पर बैठे वही घर है। तो ऐसा संस्कार भरना ही है। ऐसा सभी सीख गये हो ना! कभी भी आर्डर आयेगा तो ‘क्या-क्यों’ तो नहीं करेंगी ना! जब सेवा स्थान कहते हो तो सेवा स्थान का अर्थ क्या हुआ? कभी भी कोई सेन्टर को घर तो नहीं कहते हैं ना। सेवा स्थान कहते हैं, प्रवृत्ति वालों का घर है लेकिन जो ब्राह्मण बन गये उनके सेवा स्थान हैं। सेवा स्थान अर्थात् सेवा के लिए हैं। तो जहाँ सेवा हैं वहाँ हाजर। घर होगा तो छोड़ने में मुश्किल होगा। सेवा स्थान है तो जहाँ भी सेवा है वह सेवा स्थान है। अच्छा - ऐसे सभी एवररेडी बनो।
पार्टियों से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात - 1. सुना तो बहुत है। आखिर हिसाब निकालो, सुनने का अन्दाज क्या है? सुनना और करना दोनों ही साथ-साथ हैं? या सुनने और करने में अन्तर पड़ जाता हैं? सुनते किसलिए हो? करने के लिए ना! सुनना और करना जब समान हो जायेगा तो क्या होगा? सम्पन्न हो जायेंगे ना। तो पहले-पहले सम्पूर्ण स्थिति का सैम्पल कौन बनेगा? हरेक यह क्यों नहीं कहते हो कि - ‘मैं बनूँगा’। इसमें जो ओटे सो अर्जुन। जैसे बाप ने स्वयं को निमित्त बनाया ऐसे जो निमित्त बनता वह ‘अर्जुन’ बन जाता। अर्थात् अव्वल नम्बर में आ जाता है। अच्छा - देखेंगे कौन बनता है! बापदादा तो बच्चों को देखना चाहते हैं। वर्ष बीतते जाते हैं। जैसे वर्ष बीतते ऐसे जो भी पुरानी चाल है वह बीत जाए। और नया उमंग, नया संकल्प सदा रहे। तो यही सम्पूर्णता की निशानी है। पुराने को तो दीपमाला में सभी ने खत्म किया है ना! दिवाली मनाई थी ना! तो दिवाली में पुराना खत्म हुआ। अभी सब नया हो। अच्छा।
प्रश्न - बाप के समीप आने का आधार क्या है?
उत्तर - विशेषतायें। विशेषताओं ने ही विशेष बाप के समीप लाया है। अभी जो विशेषतायें स्वयं में हैं वह औरों के आगे विशेष सैम्पल बन प्रत्यक्ष होना है। जो विशेषतायें हैं वह सेवा के द्वारा वृद्धि को प्राप्त होती हैं। जो विशेषतायें बाप ने भरी हैं उन सबको सेवा में लगाओ। विशेषता को साकार में लाने से सेवा की सबजेक्ट में भी मार्क्स मिल जाती हैं। अनुभव सुनाओ, अपने पास सिर्फ नहीं रखो। अनुभव को सेवा में लाओ तो औरों का भी उमंग-उत्साह बढ़ेगा। बापदादा सदा विशेष आत्माओं की विशेषता को देखते हैं। और उसी से कार्य कराते हैं। अच्छा-
09-12-85 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
बालक सो मालिक
अव्यक्त बापदादा बोले
आज बापदादा अपनी शक्ति सेना को देख रहे हैं कि यह रूहानी शक्ति सेना मनजीत जगतजीत हैं? मनजीत अर्थात् मन के व्यर्थ संकल्प, विकल्प जीत है। ऐसे जीते हुए बच्चे विश्व के राज्य अधिकारी बनते हैं। इसलिए ‘मन जीते जगतजीत’ गाया हुआ है। जितना इस समय संकल्प-शक्ति अर्थात् मन को स्व के अधिकार में रखते हो उतना ही विश्व के राज्य के अधिकारी बनते हो। अभी इस समय ईश्वरीय बालक हो और अभी के बालक ही विश्व के मालिक बनेंगे। बिना बालक बनने के मालिक नहीं बन सकते। जो भी हद के मालिकपन का हद का नशा है उसे समाप्त कर हद के मालिकपन से बालकपन में आना है तब ही ‘बालक सो मालिक’ बनेंगे। इसलिए भक्ति मार्ग में भी कितना कोई भी देश का बड़ा मालिक हो, धन का मालिक हो, परिवार का मालिक हो लेकिन बाप के आगे सब ‘‘बालक तेरे’’ कह कर ही प्रार्थना करते हैं। मैं फलाना मालिक हूँ ऐसे कभी नहीं कहेंगे। तुम ब्राह्मण बच्चे भी बालक बनते हो तब ही अभी भी बेफकर बादशाह बनते हो और भविष्य में विश्व के मालिक या बादशाह बनते हो। ‘‘बालक सो मालिक हूँ’’ यह स्मृति सदा निर-अंहकारी, निराकारी स्थिति का अनुभव कराती है। बालक बनना अर्थात् हद के जीवन का परिवर्तन होना। जब ब्राह्मण बने तो ब्राह्मण-पन की जीवन का पहला सहज ते सहज पाठ कौन-सा पढ़ा? बच्चों ने कहा - ‘बाबा’ और बाप ने कहा - ‘बच्चा’ अर्थात् बालक। इस एक शब्द का पाठ नॉलेजफुल बना देता है। बालक या बच्चा यह एक शब्द पढ़ लिया तो सारे इस विश्व की तो क्या लेकिन तीनों लोकों का नॉलेज पढ़ लिया। आज की दुनिया में कितने भी बड़े नॉलेजफुल हों लेकिन तीनों लोकों की नॉलेज नहीं जान सकते। इस बात में आप ‘एक शब्द पढ़े’ हुए के आगे कितना बड़ा नॉलेजफुल भी - अन्जान है। ऐसे मास्टर नॉलेजफुल कितना सहज बने हो। ‘बाबा और बच्चे’ इस एक शब्द में सब कुछ समाया हुआ है। जैसे बीज में सारा झाड़ समाया हुआ है तो बालक अथवा बच्चा बनना अर्थात् सदा के लिए माया से बचना। माया से बचे रहो अर्थात् ‘हम बच्चे हैं’ - सदा इस स्मृति में रहो। सदा यही स्मृति रखो, ‘‘बच्चा बना अर्थात् बच गया’’। यह पाठ मुश्किल है क्या? सहज है ना। फिर भूलते क्यों हो? कई बच्चे ऐसे सोचते हैं कि भूलने चाहते नहीं है लेकिन भूल जाता है। क्यों भूल जाता? तो कहते बहुत समय के संस्कार हैं वा पुराने संस्कार हैं। लेकिन जब मरजीवा बने तो मरने के समय क्या करते हैं? अग्नि संस्कार करते हो ना। तो पुराने का संस्कार किया तब नया जन्म लिया। जब संस्कार कर लिया फिर पुराने संस्कार कहाँ से आये। जैसे शरीर का संस्कार करते हो तो नाम-रूप समाप्त हो जाता है। अगर नाम भी लेंगे तो कहेंगे फलाना था। है, नहीं कहेंगे। तो शरीर के संस्कार होने के बाद शरीर समाप्त हो गया। ब्राह्मण जीवन में किसका संस्कार करते हो? शरीर तो वही है। लेकिन पुराने संस्कारों, पुरानी स्मृतियों का, स्वभाव का संस्कार करते हो तब मरजीवा कहलाते हो। जब संस्कार कर लिया तो पुराने संस्कार कहाँ से आये। अगर संस्कार किया हुआ मनुष्य फिर से आपके सामने आ जावे तो उसको क्या कहेंगे? भूत कहेंगे ना। तो यह भी पुराने संस्कार, किये हुए संस्कार अगर जागृत हो जाते तो क्या कहेंगे? यह भी माया के भूत कहेंगे ना। भूतों को भगाया जाता है ना। वर्णन भी नहीं किया जाता है। यह पुराने संस्कार कह करके अपने को धोखा देते हैं। अगर आपको पुरानी बातें अच्छी लगती हैं तो वास्तविक पुराने ते पुराने आदिकाल के संस्कारों को याद करो। यह तो मध्यकाल के संस्कार थे। यह पुराने ते पुराने नहीं हैं। मध्य को बीच कहते हैं तो मध्यकाल अर्थात् बीच को याद करना अर्थात् बीच भंवर में परेशान होना है। इसलिए कभी भी ऐसी कमज़ोरी की बातें नहीं सोचो। सदा यही दो शब्द याद रखो - बालक सो मालिक। बालक पन ही मालिकपन स्वत: ही स्मृति में लाता है। बालक बनना नहीं आता?
बालक बनो अर्थात् सभी बोझ से हल्के बनो। कभी तेरा कभी मेरा, यही मुश्किल बना देता है। जब कोई मुश्किल अनुभव करते हो तब तो कहते हो - तेरा काम तुम जानो। और जब सहज होता है तो ‘मेरा’ कहते हो। मेरा-पन समाप्त होना अर्थात् बालक सो मालिक बनना। बाप तो कहते हैं बेगर बनो। यह शरीर रूपी घर भी तेरा नहीं। यह लोन मिला हुआ है। सिर्फ ईश्वरीय सेवा के लिए बाबा ने लोन दे करके ‘ट्रस्टी’ बनाया है। यह ईश्वरीय अमानत है। आपने तो सब कुछ तेरा कह करके बाप को दे दिया। यह वायदा किया ना वा भूल गये हो? वायदा किया है या आधा तेरा आधा मेरा। अगर तेरा कहा हुआ मेरा समझ कार्य में लगाते हो तो क्या होगा। उससे सुख मिलेगा? सफलता मिलेगी? इसलिए अमानत समझ तेरा समझ चलते तो बालक सो मालिक बन के खुशी में, नशे में स्वत: ही रहेंगे समझा! एक यह पाठ सदा पक्का रखो। पाठ पक्का किया ना या अपने-अपने स्थानों पर जाकर फिर भूल जायेंगे, अभूल बनो। अच्छा-
सदा रूहानी नशे में रहने वाले बालक सो मालिक बच्चों को सदा बालकपन अर्थात् बेफकर बादशाहपन की स्मृति में रहने वाले, सदा मिली हुई अमानत को ट्रस्टी बन सेवा में लगाने वाले बच्चों को, सदा नये उमंग नये उत्साह में रहने वाले बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।
पार्टियों से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात - कुमारियों से - यह लश्कर क्या करेगा? लश्कर वा सेना सदा विजय प्राप्त करती है। सेना विजय के लिए होती है। दुश्मन से लड़ने के लिए सेना रखते हैं। तो माया दुश्मन पर विजय पाना यही आप सबका कर्त्तव्य है। सदा अपने इस कर्त्तव्य को जान जल्दी से जल्दी आगे बढ़ते जाओ। क्योंकि समय तेज रफ्तार से आगे जा रहा है। समय की रफ्तार तेज हो और अपनी कमज़ोर हो तो समय पर पहुँच नहीं सकेंगे। इसलिए रफ्तार को तेज करो। जो ढीले होते हैं वह स्वयं ही शिकार हो जाते हैं। शक्तिशाली सदा विजयी होते हैं। तो आज सब विजयी हो?
सदा यही लक्ष्य रखो कि सर्विसएबुल बन सेवा में सदा आगे बढ़ते रहना। क्योंकि कुमारियों को कोई भी बन्धन नहीं हैं। जितना सेवा करने चाहें कर सकती हैं। सदा अपने को बाप की हूँ और बाप के लिए हूँ ऐसा समझकर आगे बढ़ते चलो। जो सेवा में निमित्त बनते हैं उन्हें खुशी और शक्ति की प्राप्ति स्वत: होती है। सेवा का भाग्य कोटों में कोई को ही मिलता है। कुमारियाँ सदा पूज्य आत्मायें हैं। अपने पूज्य स्वरूप को स्मृति में रखते हुए हर कर्म करो। और हर कर्म के पहले चेक करो कि यह कार्य पूज्य आत्मा के प्रमाण है? अगर नहीं है तो परिवर्तन कर लो। पूज्य आत्मायें कभी साधारण नहीं होती, महान होती हैं। 100 ब्राह्मणों से उत्तम कुमारियाँ हो। 100, एक-एक कुमारी को तैयार करने हैं। उनकी सेवा करनी है। कुमारियों ने क्या कमाल का प्लैन सोचा है? किसी भी आत्मा का कल्याण हो इससे बड़ी बात और क्या है? अपनी मौज में रहने वाली हो ना। कभी ज्ञान के मौज में, कभी याद की मौज में। कभी प्रेम की मौज में। मौजें ही मौजें हैं। संगमयुग है ही मौजों का युग। अच्छा- कुमारियों के ऊपर बापदादा की सदा ही नजर रहती है। कुमारियाँ स्वयं को क्या बनाती हैं यह उनके ऊपर है लेकिन बापदादा तो सभी को विश्व का मालिक बनाने आये हैं। सदा विश्व के मालिकपन की खुशी और नशा रहे। सदा अथक सेवा में आगे बढ़ते रहो। अच्छा-
11-12-85 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
सच्चे सेवाधारी की निशानी
सदा दाता बापदादा बोले
आज स्नेह के सागर बापदादा सभी स्नेही बच्चों को देख रहे हैं। हर एक बच्चे में तीन विशेषतायें देख रहे हैं कि हर एक बच्चा तीनों विशेषताओं में कहाँ तक सम्पन्न बना है। वह तीन विशेषतायें हैं - स्नेह-सहयोग अर्थात् सहज योग और शक्ति स्वरूप अर्थात् चलते-फिरते चैतन्य लाइट-हाउस और माईट-हाउस। हर संकल्प, बोल वा कर्म द्वारा तीनों ही स्वरूप प्रत्यक्ष स्वरूप में किसी को भी अनुभव हो, सिर्फ स्वयं के प्रति न हो। लेकिन औरों को भी यह तीनों विशेषतायें अनुभव हों। जैसे बाप स्नेह का सागर है ऐसे मास्टर सागर के आगे जो भी ज्ञानी वा अज्ञानी आत्मा आवे तो अनुभव करे। स्नेह के मास्टर सागर की लहरें स्नेह की अनुभूति करा रही हैं। जैसे लौकिक वा प्राकृतिक सागर के किनारे पर कोई भी जायेगा तो शीतलता की, शान्ति की स्वत: ही अनुभूति करेगा। ऐसे मास्टर स्नेह के सागर द्वारा रूहानी स्नेह की अनुभूति हो कि सच्चे स्नेह की प्राप्ति के स्थान पर पहुँच गया हूँ। रूहानी स्नेह की अनुभूति रूहानी खुशबू वायुमण्डल में अनुभव हो। बाप के स्नेही हैं, यह तो सब कहते हो। और बाप भी जानते हैं कि बाप से सबको स्नेह है। लेकिन अभी स्नेह की खुशबू विश्व में फैलानी है। हर आत्मा को इस खुशबू का अनुभव कराना है। हर एक आत्मा यह वर्णन करे कि यह श्रेष्ठ आत्मा है। सिर्फ बाप की स्नेही नहीं लेकिन सर्व की सदा स्नेही है। यह दोनों अनुभूतियाँ सर्व को सदा और जब हो तब कहेंगे - मास्टर स्नेह का सागर। आज की दुनिया सच्चे आत्मिक स्नेह की भूखी है। स्वार्थी स्नेह देख-देख उस स्नेह से दिल उपराम हो गई है। इसलिए आत्मिक स्नेह की थोड़ी-सी घड़ियों की अनुभूति को भी जीवन का सहारा समझते हैं।
बापदादा देख रहे थे - स्नेह की विशेषता में अन्य आत्माओं के प्रति कर्म में वा सेवा में लाने में कहाँ तक सफलता को प्राप्त किया है। सिर्फ अपने मन में अपने आप से ही खुश तो नहीं होते रहते हो? मैं तो बहुत स्नेही हूँ। अगर स्नेह नहीं होता तो बाप की कैसे बनती वा ब्राह्मण जीवन में कैसे आगे बढ़ती; अपने मन में सन्तुष्टता है इसको बापदादा भी जानते हैं और अपने तक ही, यह भी ठीक है लेकिन आप सब बच्चे बाप के साथ सेवाधारी हो। सेवा के लिए ही यह तन-मन-धन, आप सबको बाप ने ट्रस्टी बनाकर दिया है। सेवाधारी का कर्त्तव्य क्या है? हर विशेषता को सेवा में लगाना। अगर आपकी विशेषता सेवा में नहीं लगती तो कभी भी वह विशेषता वृद्धि को प्राप्त नहीं होगी। उसी सीमा में ही रहेगी। इसलिए कई बच्चे ऐसा अनुभव भी करते हैं कि बाप के बन गये। रोज आ भी रहे हैं, पुरूषार्थ में भी चल रहे हैं, नियम भी निभा रहे हैं, लेकिन पुरूषार्थ में जो वृद्धि होनी चाहिए वह अनुभव नहीं होती। चल रहे हैं लेकिन बढ़ नहीं रहे हैं। इसका कारण क्या है? विशेषताओं को सेवा में नहीं लगाते। सिर्फ ज्ञान देना वा सप्ताह कोर्स कराना यहाँ तक सेवा नहीं है। सुनाना, यह तो द्वापर से परम्परा चल रहा है। लेकिन इस ब्राह्मण जीवन की विशेषता है - सुनाना अर्थात् कुछ देना। भक्ति मार्ग में सुनाना अर्थात् लेना होता है और अभी सुनाना, कुछ देना है। दाता के बच्चे हो। सागर के बच्चे हो। जो भी सम्पर्क में आवे वह अनुभव करे कि कुछ लेकर जा रहे हैं। सिर्फ सुन के जा रहे हैं, नहीं। चाहे ज्ञान से, चाहे स्नेह के धन से, व याद बल के धन से, शक्तियों के धन से, सहयोग के धन से हाथ अर्थात् बुद्धि भरकर जा रहे हैं। इसको कहा जाता है - सच्ची सेवा। सेकण्ड की दृष्टि वा दो बोल द्वारा अपने शक्तिशाली वृत्ति के वायब्रेशन द्वारा, सम्पर्क द्वारा दाता बन देना है। ऐसे सेवाधारी सच्चे सेवाधारी हैं। ऐसे देने वाले सदा यह अनुभव करेंगे कि हर समय बुद्धि को वा उन्नति को प्राप्त कर रहे हैं। नहीं तो समझते हैं पीछे नहीं हट रहे हैं लेकिन आगे जो भी बढ़ना चाहिए वह नहीं बढ़ रहे हैं। इसलिए दाता बनो। अनुभव कराओ। ऐसे ही सहयोगी वा सहजयोगी सिर्फ स्वयं के प्रति हैं वा दूसरों को भी आपके सहयोग के उमंग- उत्साह की लहर सहयोगी बना देती है। आपके सहयोग की विशेषता सर्व आत्माओं को यह महसूस हो कि यह हमारे सहयोगी हैं। किसी भी कमज़ोर स्थिति वा परिस्थिति के समय यह सहयोग द्वारा आगे बढ़ने का साधन देने वाले हैं। सहयोग की विशेषता का सर्व को आप आत्मा के प्रति अनुभव हो। इसको कहा जाता है - विशेषता को सेवा में लगाया। बाप के सहयोगी तो हैं ही लेकिन बाप विश्व सहयोगी है। बच्चों के प्रति भी हर आत्मा के अन्दर से यह अनुभव के बोल निकले कि यह भी बाप समान सर्व के सहयोगी हैं। पर्सनल एक दो के सहयोगी नहीं बनना। वह स्वार्थ के सहयोगी होंगे। हद के सहयोगी होंगे। सच्चे सहयोगी बेहद के सहयोगी हैं। आप सबका टाइटिल क्या है? विश्व-कल्याण्कारी हो या सिर्फ सेन्टर के कल्याण्कारी? देश के कल्याण्कारी हो या सिर्फ क्लास के स्टूडेन्ट के कल्याणकारी हो? ऐसा टाइटिल तो नहीं हैं ना। विश्व-कल्याण्कारी विश्व के मालिक बनने वाले हो कि सिर्फ अपने महल के मालिक बनने वाले हो! जो सिर्फ सेन्टर की हद में रहेंगे तो सिर्फ अपने महल के मालिक बनेंगे। लेकिन बेहद के बाप द्वारा बेहद का वर्सा लेते हो। हद का नहीं। तो सर्व प्रति सहयोग की विशेषता को कार्य में लगाना इसको कहेंगे - ‘सहयोगी आत्मा’। इसी विधि प्रमाण शक्तिशाली आत्मा सर्व शक्तियों को सिर्फ स्व के प्रति नहीं लेकिन सर्व के प्रति सेवा में लगायेंगी। कोई में सहज शक्ति नहीं है, आपके पास है। दूसरे को यह शक्ति देना - यह है शक्ति को सेवा में लगाना। सिर्फ यह नहीं सोचो, मैं तो सहनशील रहता हूँ। लेकिन आपके सहनशीलता के गुण की लाइट-माइट दूसरे तक पहुँचनी चाहिए। लाइट-हाउस की लाइट सिर्फ अपने प्रति नहीं होती है। दूसरों को रोशनी देने वा रास्ता बताने के लिए होती है। ऐसे शक्ति रूप अर्थात् लाइट-हाउस, माइट-हाउस बन दूसरों को उसके लाभ का अनुभव कराओ। वह अनुभव करें कि निर्बलता के अंधकार से शक्ति की रोशनी में आ गये हैं वा समझें कि यह आत्मा शक्ति द्वारा मुझे भी शक्तिशाली बनाने में मददगार है। कनेक्शन बाप से करायेगी लेकिन निमित्त बन। ऐसे नहीं कि सहयोग देकर अपने में ही अटका देगी। बाप की देन दे रहे हैं, इस स्मृति और समर्थी से विशेषताओं को सेवा में लगायेंगे। सच्चे सेवाधारी की निशानी यही है। हर कर्म में उस द्वारा बाप दिखाई देवे। उनका हर बोल बाप की स्मृति दिलावे। हर विशेषता दाता के तरफ इशारा दिलावे। सदा बाप ही दिखाई देगा। वह आपको न देख सदा बाप को देखेंगे। मेरा सहयोगी है, यह सच्चे सेवाधारी की निशानी नहीं। यह कभी भी संकल्प मात्र भी नहीं सोचना कि मेरी विशेषता के कारण यह मेरे बहुत सहयोगी हैं। सहयोगी को सहयोग देना मेरा काम है। अगर आपको देखा, बाप को नहीं देखा तो यह सेवा नहीं हुई। यह द्वापरयुगी गुरूओं के माफिक बेमुख किया। बाप को भुलाया, न कि सेवा की। यह गिराना है, न कि चढ़ाना है। यह पुण्य नहीं, यह पाप है। क्योंकि बाप नहीं है तो जरूर पाप है। तो सच्चे सेवाधारी सत्य के तरफ ही सम्बन्ध जोड़ेंगे।
बापदादा को कभी-कभी बच्चों पर हँसी भी आती है कि लक्ष्य क्या और लक्षण क्या! पहुँचना है बाप तरफ और पहुँचाते हैं अपने तरफ। जैसे दूसरे डिवाइन फादर्स के लिए कहते हो ना, वह ऊपर से नीचे ले आते हैं। ऊपर नहीं ले जाते हैं। ऐसे डिवाइन फादर नहीं बनो। बापदादा यह देख रहे थे कि कहाँकहाँ बच्चे सीधे रास्ते के बजाए गलियों में फँस जाते हैं रास्ता बदल जाता है। इसलिए चलते रहते हैं लेकिन मंजल के समीप नहीं पहुँचते। तो समझा! सच्चा सेवाधारी किसको कहते हैं! इन तीनों शक्तियों वा विशेषताओं को बेहद की दृष्टि से, बेहद की वृत्ति से सेवा में लगाओ अच्छा –
सदा दाता के बच्चे दाता बन हर आत्मा को भरपूर करने वाले, हर खजाने को सेवा में लगाए हर समय वृद्धि को पाने वाले, सदा बाप द्वारा प्रभु देन समझ औरों को भी प्रभु प्रसाद देने वाले, सदा एक के तरफ इशारा दे एकरस बनाने वाले, ऐसे सदा और सर्व के सच्चे सेवाधारी बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।’’
पार्टियों से - सदा अपनी गुणमूर्त्त द्वारा गुणों का दान देते रहो। निर्बल को शक्तियों का, गुणों का, ज्ञान का दान दो तो सदा महादानी आत्मा बन जायेंगे। दाता के बच्चे देने वाले हो, लेने वाले नहीं। अगर सोचते हो यह ऐसा करे तो मैं करूँ, यह लेने वाले हो गये। मैं करूँ, यह देने वाले हो गये। तो लेवता नहीं, देवता बनो। जो भी मिला है वह देते जाओ। जितना देते जाओ उतना बढ़ता जायेगा। सदा देवी अर्थात् देने वाली। अच्छा-
14-12-85 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
मधुबन निवासियों के साथ अव्यक्त बापदादा की मुलाकात
आज विश्व-रचयिता बाप अपने मास्टर रचयिता बच्चों को देख रहे हैं। मास्टर रचयिता अपने रचतापन की स्मृति में कहाँ तक स्थित रहते हैं! आप सभी रचयिता की विशेष पहली रचना यह देह है। इस देह रूपी रचना के रचयिता कहाँ तक बने हैं? देह रूपी रचना कभी अपने तरफ रचयिता को आकर्षित कर रचनापन विस्मृत तो नहीं कर देती है? मालिक बन इस रचना को सेवा में लगाते रहते? जब चाहें जो चाहें मालिक बन करा सकते हैं? पहले-पहले इस देह के मालिकपन का अभ्यास ही प्रकृति का मालिक वा विश्व का मालिक बना सकता है! अगर देह के मालिकपन में सम्पूर्ण सफलता नहीं तो विश्व के मालिकपन में भी सम्पन्न नहीं बन सकते हैं। वर्तमान समय की यह जीवन - भविष्य का दर्पण है। इसी दर्पण द्वारा स्वयं का भविष्य स्पष्ट देख सकते हो। पहले इस देह के सम्बन्ध और संस्कार के अधिकारी बनने के आधार पर ही मालिकपन के संस्कार हैं। सम्बन्ध में न्यारा और प्यारापन आना - यह निशानी है मालिकपन की। संस्कारों में निर्मान और निर्माण, दोनों विशेषतायें मालिकनपन की निशानी हैं। साथ-साथ सर्व आत्माओं के सम्पर्क में आना, स्नेही बनना, दिलों के स्नेह की आशीर्वाद अर्थात् शुभ भावना सर्व के अन्दर से उस आत्मा के प्रति निकले। चाहे जाने, चाहे न जाने। दूर का सम्बन्ध वा सम्पर्क हो लेकिन जो भी देखे वह स्नेह के कारण ऐसे ही अनुभव करे कि यह हमारा है स्नेह की पहचान से अपनापन अनुभव करेगा। सम्बन्ध दूर का हो लेकिन स्नेह सम्पन्न का अनुभव करायेगा। विश्व के मालिक वा देह के मालिकपन की अभ्यासी आत्माओं की यह भी विशेषता अनुभव में आयेगी कि वह जिसके भी सम्पर्क में आयेंगे उसको उस विशेष आत्मा से दातापन की अनुभूति होगी। यह किसी के संकल्प में भी नहीं आ सकता कि यह लेने वाले हैं। उस आत्मा से सुख की, दातापन की वा शान्ति, प्रेम, आनन्द, खुशी, सहयोग, हिम्मत, उत्साह, उमंग - किसी न किसी विशेषता के दातापन की अनुभूति होगी। सदा विशाल बुद्धि और विशाल दिल, जिसको आप बड़ी दिल वाले कहते हो - ऐसी अनुभूति होगी। अब इन निशानियों से अपने आपको चेक करो कि क्या बनने वाले हो? दर्पण तो सभी के पास है। जितना स्वयं को स्वयं जान सकते उतना और कोई नहीं जान सकते। तो स्वयं को जानो। अच्छा-
आज तो मिलने आये हैं। फिर भी सभी आये हैं तो बापदादा को भी सभी बच्चों का स्नेह के साथ रिगार्ड भी रखना होता है। इसलिए रूह-रूहान की। मधुबन वाले अपना अधिकार नहीं छोड़ते फिर भी समीप बैठे हो। बहुत बातों से निश्चिन्त बैठे हो। जो बाहर रहते उन्हों को फिर भी मेहनत करनी पड़ती है। कमाना और खाना यह कम मेहनत नहीं है। मधुबन में कमाने की चिन्ता तो नहीं है ना! बापदादा जानते हैं, प्रवृत्ति में रहने वालों को सहन भी करना पड़ता। सामना भी करना पड़ता। हंस बगुलों के बीच में रह अपनी उन्नति करते आगे बढ़ रहे हैं। लेकिन आप लोग कई बातों से स्वत: ही न्यारे हो। आराम से रहते हो। आराम से खाते हो और आराम करते हो। बाहर दफ्तर में जाने वाले दिन में आराम करते हैं क्या? यहाँ तो शरीर का भी आराम तो बुद्धि का भी आराम। तो मधुबन निवासियों की स्थिति सभी से नम्बरवन हो गई ना। क्योंकि एक ही काम है। स्टडी करो तो भी बाप करा रहा है। सेवा करते हो तो भी ‘यज्ञ सेवा’ है। बेहद बाप का बेहद का घर है। एक ही बात एक ही लात है। दूसरा कुछ है नहीं। मेरा सेन्टर यह भी नहीं है। सिर्फ मेरी चार्ज, यह नहीं होना चाहिए। मधुबन निवासियों को कई बातों में सहज पुरूषार्थ और सहज प्राप्ति है। अच्छा- सभी मधुबन वालों ने गोल्डन जुबली का भी प्रोग्राम बनाया है ना। फंक्शन का नहीं। उसके तो फोल्डर्स आदि छपे हैं। वह हुआ विश्व-सेवा के प्रति। स्वयं के प्रति क्या प्लैन बनाया है? स्वयं की स्टेज पर क्या पार्ट बजायेंगे? उस स्टेज के तो स्पीकर्स, प्रोग्राम भी बना लेते हो। स्व की स्टेज का क्या प्रोग्राम बनाया है? चैरिटी बिगन्स एट होम तो मधुबन निवासी हैं ना! कोई भी फंक्शन होता है तो क्या करते हो? (दीप जलाते हैं) तो गोल्डन जुबली का दीप कौन जगायेगा? हर बात आरम्भ कौन करेगा? मधुबन निवासियों में हिम्मत है, उमंग भी है, वायुमण्डल भी है, सब मदद है। जहाँ सर्व सहयोग है वहाँ सब सहज है। सिर्फ एक बात करनी पड़ेगी - वह कौन-सी?
बापदादा सभी बच्चों से यही श्रेष्ठ आशा रखते हैं कि हर एक बाप समान बने। सन्तुष्ट रहना और सन्तुष्ट करना यही विशेषता है। पहली मुख्य बात है स्वयं से अर्थात् अपने पुरूषार्थ से, अपने स्वभाव संस्कार से, बाप को सामने रखते हुए सन्तुष्ट हैं - यह चेक करना है। हाँ, मैं सन्तुष्ट हूँ। यथाशक्ति वाला - वह अलग बात है। लेकिन वास्तविक स्वरूप के हिसाब से स्वयं से सन्तुष्ट होना और फिर दूसरों को सन्तुष्ट करना - यह सन्तुष्टता की महानता है। दूसरे भी महसूस करें कि यह यथार्थ रूप में सन्तुष्ट आत्मा है। सन्तुष्टता में सब कुछ आ जाता है। न डिस्टर्ब हो ना डिस्टर्ब करें। इसको कहते हैं - ‘सन्तुष्टता’। डिस्टर्ब करने वाले बहुत होंगे लेकिन स्वयं डिस्टर्ब न हों। आग की सेक से स्वयं को स्वयं किनारा कर सेफ रहें। दूसरे को नहीं देखें। अपने को देखें - मुझे क्या करना है। मुझे निमित्त बन ओरों को शुभ भावना और शुभ कामना का सहयोग देना है। यह है विशेष धारणा। इसमें सब कुछ आ जायेगा। इसकी तो गोल्डन जुबली मना सकते हो ना! निमित्त मधुबन वालों के लिए कहते हैं लेकिन है सभी के प्रति। मोह जीत की कहानी सुनी है ना! एसी सन्तुष्टता की कहानी बनाओ। जिसके पास भी कोई जावे, कितना भी क्रास एग्जामिन करे लेकिन सबके मुख से, सबके मन से सन्तुष्टता की विशेषता अनुभव हो। यह तो ऐसा है। नहीं। मैं कैसे बनके और बनाऊँ। बस, यह छोटी-सी बात स्टेज पर दिखाओ। अच्छा!
दादियाँ बापदादा के समीप आकर बैठी हैं - बापदादा के पास आप सबके दिल के संकल्प पहुँचते ही हैं। इतनी सब श्रेष्ठ आत्माओं के श्रेष्ठ संकल्प हैं तो साकार रूप में होना ही है। प्लैन्स तो बहुत अच्छे बनाये हैं। और यही प्लैन ही सबको प्लेन बना देंगे। सारे विश्व के अन्दर विशेष आत्माओं की शक्ति तो एक ही है। और कहॉ भी ऐसी विशेष आत्माओं का संगठन नहीं है। यहाँ संगठन की शक्ति विशेष है। इसलिए इस संगठन पर सबकी विशेष नजर है। और सभी डगमगा रहे हैं। गद्दियाँ हिल रही हैं। और यह राज्य गद्दी बन रही है। यहाँ गुरू की गद्दी नहीं है। इसलिए हिलती नहीं। स्व राज्य की या विश्व के राज्य की गद्दी है। सभी हिलाने की कोशिश भी करेंगे लेकिन संगठन की शक्ति इसका विशेष बचाव है। वहाँ एक-एक को अलग करके यूनिटी को डिसयूनिटी करते, फिर हिलाते हैं। यहाँ संगठन की शक्ति के कारण हिला नहीं सकते। तो इस संगठन की शक्ति की विशेषता को सदा और आगे बढ़ाते चलो। यह संगठन ही किला है। इसलिए वार नहीं कर सकते। विजय तो हुई पड़ी है। सिर्फ रिपीट करना है। जो रिपीट करने में होशियार बनते वही विजयी बन स्टेज पर प्रसिद्ध हो जाते। संगठन की शक्ति ही विजय का विशेष आधार स्वरूप है। इस संगठन ने ही सेवा की वृद्धि में सफलता को प्राप्त कराया है। पालना का रिटर्न दादियों ने अच्छा दिया है। संगठन की शक्ति का आधार क्या है? सिर्फ यह पाठ पक्का हो जाए कि ‘रिगार्ड देना ही रिगार्ड लेना है’। देना लेना है। लेना, लेना नहीं है। लेना अर्थात् गँवाना। देना अर्थात् लेना। कोई दे तो देवें यह कोई बिजनेस नहीं। यह तो दाता बनने की बात है। दाता लेकर फिर नहीं देता। वह तो देता ही जाता। इसलिए इस संगठन की सफलता है। लेकिन अभी कंगन तैयार हुआ है। माला नहीं तैयार हुई है।
आने वाले समय के लिए बापदादा का इशारा वृद्धि न हो तो राज्य किस पर करेंगे। अभी तो वृद्धि की लिस्ट में कमी है। 9 लाख ही तैयार नहीं हुए हैं। किसी भी विधि से मिलेंगे तो सही ना। विधि चेन्ज होती रहती है। जो साकार में मिले और अव्यक्त में मिल रहे हैं। विधि चेन्ज हुई ना। आगे भी विधि चेन्ज होती रहेगी। वृद्धि प्रमाण मिलने की विधि भी चेन्ज होती रहेगी।’’ अच्छा-
प्रश्न - रूहानियत में कमी आने का कारण क्या है?
उत्तर - स्वयं को वा जिनकी सेवा करते हो उन्हें ‘अमानत’ नहीं समझते। अमानत समझने से अनासक्त रहेंगे। और अनासक्त बनने से ही रूहानियत आयेगी। अच्छा-
16-12-85 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
राइट हैण्ड कैसे बनें?
सदा मुक्त, सर्व समर्थ शिवबाबा बोले
आज बापदादा अपनी अनेक भुजाओं को देख रहे हैं। 1- भुजायें सदा प्रत्यक्ष कर्म करने का आधार हैं। हर आत्मा अपनी भुजाओं द्वारा ही कर्म करती हैं। 2- भुजायें सहयोग की निशानी भी कही जातीं। सहयोगी आत्मा को राइटहैण्ड कहा जाता है। तो हाथ भुजा का साधन है। 3- भुजाओं को शक्ति रूप में भी दिखाया जाता है। इसलिए बाहुबल कहा जाता है। भुजाओं की और विशेषता है 4- भुजा अर्थात् हाथ - स्नेह की निशानी है। इसलिए जब भी स्नेह से मिलते हैं तो आपस में हाथ मिलाते हैं। भुजाओं का विशेष स्वरूप पहला सुनाया - संकल्प को कर्म में प्रत्यक्ष करना। आप सभी बाप की भुजायें हो। तो यह चार ही विशेषतायें अपने में दिखाई देती हैं? इन चारों ही विशेषताओं द्वारा अपने आपको जान सकते हो कि मैं कौन-सी भुजा हूँ! भुजा तो सभी हो लेकिन राइट हैं वा लेफ्ट हैं यह इन विशेषताओं से चेक करो।
पहली बात बाप के हर एक श्रेष्ठ संकल्प को, बोल को कर्म में अर्थात् प्रत्यक्ष जीवन में कहाँ तक लाया हैं? कर्म सभी के प्रत्यक्ष देखने की सहज वस्तु है। कर्म को सभी देख सकते हैं और सहज जान सकते वा कर्म द्वारा अनुभव कर सकते हैं। इसलिए सब लोग भी यही कहते हैं कि - कहते तो सब हैं लेकिन करके दिखाओ। प्रत्यक्ष कर्म में देखें तब मानें कि, यह जो कहते हैं वह सत्य है। तो कर्म, संकल्प के साथ बोल को भी प्रत्यक्ष प्रमाण के रूप में स्पष्ट करने वाला है। ऐसे राइट हैण्ड वा राइट भुजा हर कर्म द्वारा बाप को प्रत्यक्ष कर रही है? राइट हैण्ड की विशेषता है - उससे सदा शुभ और श्रेष्ठ कर्म होता है। राइट हैण्ड के कर्म की गति लेफ्ट से तीव्र होती है। तो ऐसे चेक करो। सदा शुभ और श्रेष्ठ कर्म तीव्रगति से हो रहे हैं? श्रेष्ठ कर्मधारी राइट हैण्ड हैं! अगर यह विशेषतायें नहीं तो स्वत: ही लेफ्ट हैण्ड हो गये क्योंकि ऊँचे ते ऊँचे बाप को प्रत्यक्ष करने के निमित्त ऊँचे ते ऊँचे कर्म हैं। चाहे रूहानी दृष्टि द्वारा, चाहे अपने खुशी के रूहानियत के चेहरे द्वारा बाप को प्रत्यक्ष करते हो। यह भी कर्म ही है। तो ऐसे श्रेष्ठ कर्मधारी बने हो?
इसी प्रकार भुजा अर्थात् सहयोग की निशानी। तो चेक करो हर समय बाप के कर्त्तव्य में सहयोगी हैं? तन-मन-धन तीनों से सदा सहयोगी हैं? वा कभी-कभी के सहयोगी हैं? जैसे लौकिक कार्य में कोई फुल टाइम कार्य करने वाले होते हैं, कोई थोड़ा समय काम करने वाले हैं। उसमें अन्तर होता है ना। तो कभी-कभी के सहयोगी जो हैं उन्हों की प्राप्ति और सदा के सहयोगी की प्राप्ति में अन्तर हो जाता है। जब समय मिला, जब उमंग आया वा जब मूड बनी तब सहयोगी बने। नहीं तो सहयोगी के बदले वियोगी बन जाते हैं। तो चेक करो तीनों रूपों से अर्थात् तन मन धन सभी रूप से पूर्ण सहयोगी बने हैं वा अधूरे बने हैं? देह और देह के सम्बन्ध उसमें ज्यादा तन-मन-धन लगाते हो वा बाप के श्रेष्ठ कार्य में लगाते हो? देह के सम्बन्धों की जितनी प्रवृत्ति है उतना ही अपने देह की भी प्रवृत्ति लम्बी चौड़ी है। कई बच्चे सम्बन्ध की प्रवृत्ति से परे हो गये हैं लेकिन देह की प्रवृत्ति में समय, संकल्प, धन ईश्वरीय कार्य से ज्यादा लगाते हैं। अपने देह की प्रवृत्ति की गृहस्थी भी बड़ी जाल है। इस जाल से परे भी रहना। इसको कहेंगे - ‘राइट हैण्ड’। सिर्फ ब्राह्मण बन गये, ब्रह्माकुमार ब्रह्माकुमारी कहने के अधिकारी बन गये, इसको सदा के सहयोगी नहीं कहेंगे। लेकिन दोनों ही प्रवृत्तियों से न्यारे और बाप के कार्य के प्यारे। देह की प्रवृत्ति की परिभाषा बहुत विस्तार की है। इस पर भी फिर कभी स्पष्ट करेंगे। लेकिन सहयोगी कहाँ तक बने हैं - यह अपने को चेक करो!
तीसरी बात- भुजा स्नेह की निशानी है। स्नेह अर्थात् मिलन। जैसे देहधारी आत्माओं का देह का मिलन हाथ में हाथ मिलाना होता है। ऐसे जो राइट हैण्ड वा राइट भुजा है उसकी निशानी है - संकल्प में मिलन, बोल में मिलन और संस्कार में मिलन। जो बाप का संकल्प वह राइट हैण्ड का संकल्प होगा। बाप के व्यर्थ संकल्प नहीं होते। सदा समर्थ संकल्प यह निशानी है। जो बाप के बोल, सदा सुखदाई बोल, सदा मधुर बोल, सदा महावाक्य है, साधारण बोल नहीं। सदा अव्यक्त भाव हो, आत्मिक भाव हो। व्यक्त भाव के बोल नहीं। इसको कहते हैं - स्नेह अर्थात् मिलन। ऐसे ही संस्कार मिलन। जो बाप के संस्कार, सदा उदारचित्त, कल्याणकारी, नि:स्वार्थ ऐसे विस्तार तो बहुत हैं। सार रूप में जो बाप के संस्कार वह राइटहैण्ड के संस्कार होंगे। तो चेक करो ऐसे समान बनना - अर्थात् स्नेही बनना। यह कहाँ तक है?
चौथी बात - भुजा अर्थात् शक्ति। तो यह भी चेक करो कहाँ तक शक्तिशाली बने हैं? संकल्प शक्तिशाली, दृष्टि, वृत्ति शक्तिशाली कहाँ तक बनी है? शक्तिशाली संकल्प, दृष्टि वा वृत्ति की निशानी है। वह शक्तिशाली होने के कारण किसी को भी परिवर्तन कर लेगा। संकल्प से श्रेष्ठ सृष्टि की रचना करेगा। वृत्ति से वायुमण्डल परिवर्तन करेगा। दृष्टि से अशरीरी आत्म-स्वरूप का अनुभव करायेगा। तो ऐसी शक्तिशाली भुजा हो! वा कमज़ोर हो? अगर कमज़ोरी है तो लेफ्ट हैं। अभी समझा राइटहैण्ड किसको कहा जाता है! भुजायें तो सभी हो। लेकिन कौन-सी भुजा हो? वह इन विशेषताओं से स्वयं को जानो। अगर दूसरा कोई कहेगा कि तुम राइट हैण्ड नहीं हो तो सिद्ध भी करेंगे और जिद्द भी करेंगे। लेकिन अपने आपको जो हूँ जैसा हूँ वैसे जानो। क्योंकि अभी फिर भी स्वयं को परिवर्तन करने का थोड़ा समय है। अलबेलेपन में आ करके चला नहीं दो कि मैं भी ठीक हूँ। मन खाता भी है लेकिन अभिमान वा अलबेलापन परिवर्तन कराए आगे नहीं बढ़ाता है। इसलिए इससे मुक्त हो जाओ। यथार्थ रीति से अपने को चेक करो। इसी में ही स्व-कल्याण भरा हुआ है। समझा। अच्छा-
सदा स्व परिवर्तन में, स्व-चिन्तन में रहने वाले, सदा स्वयं में सर्व विशेषताओं को चेक कर सम्पन्न बनाने वाले, सदा दोनों प्रवृत्तियों से न्यारे, बाप और बाप के कार्य में प्यारे रहने वाले, अभिमान और अलबेलेपन से सदा मुक्त रहने वाले, ऐसे तीव्र पुरुषार्थी, श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।
पार्टियों से - सदा अपने को स्वदर्शन चक्रधारी अनुभव करते हो? स्वदर्शन चक्र अनेक प्रकार के माया के चक्करों को समाप्त करने वाला है। माया के अनेक चक्र हैं और बाप उन चक्रो से छुड़ाकर विजयी बना देता। स्वदर्शन चक्र के आगे माया ठहर नहीं सकती - ऐसे अनुभवी हो? बापदादा रोज इसी टाइटिल से यादप्यार भी देते हैं। इसी स्मृति से सदा समर्थ रहो। सदा स्व के दर्शन में रहो तो शक्तिशाली बन जायेंगे। कल्प-कल्प की श्रेष्ठ आत्मायें थे और हैं यह याद रहे तो मायाजीत बने पड़े हैं। सदा ज्ञान को स्मृति में रख, उसकी खुशी में रहो। खुशी अनेक प्रकार के दु:ख भुलाने वाली है। दुनिया दु:खधाम में है और आप सभी संगमयुगी बन गये। यह भी भाग्य है।
2. सदा पवित्रता की शक्ति से स्वयं को पावन बनाए औरों को भी पावन बनने की प्रेरणा देने वाले हो ना? घर-गृहस्थ में रह पवित्र आत्मा बनना, इस विशेषता को दुनिया के आगे प्रत्यक्ष करना है। ऐसे बहादुर बने हो! पावन आत्मायें हैं, इसी स्मृति से स्वयं भी परिपक्व और दुनिया को भी यह प्रत्यक्ष प्रमाण दिखाते चलो। कौन-सी आत्मा हो? असम्भव को सम्भव कर दिखाने के निमित्त, पवित्रता की शक्ति फैलाने वाली आत्मा हूँ। यह सदा स्मृति में रखो।
3. कुमार सदा अपने को मायाजीत कुमार समझते हो? माया से हार खाने वाले नहीं लेकिन सदा माया को हार खिलाने वाले। ऐसे शक्तिशाली बहादुर हो ना! जो बहादुर होता है उससे माया भी स्वयं घबराती है। बहादुर के आगे माया कभी हिम्मत नहीं रख सकती। जब किसी भी प्रकार की कमज़ोरी देखती है तब माया आती है। बहादुर अर्थात् सदा मायाजीत। माया आ नहीं सकती, ऐसे चैलेन्ज करने वाले हो ना! सभी स्वयं को सेवा के निमित्त अर्थात् सदा विश्वकल् याण्कारी समझ आगे बढ़ने वाले हो! विश्व-कल्याणकारी बेहद में रहते हैं, हद में नहीं आते। हद में आना अर्थात् सच्चे सेवाधारी नहीं। बेहद में रहना अर्थात् जैसा बाप वैसे बच्चे। बाप को फॉलो करने वाले श्रेष्ठ कुमार हैं, सदा इसी स्मृति में रहो। जैसे बाप सम्पन्न है, बेहद का है ऐसे बाप समान सम्पन्न सर्व खजानों से भरपूर आत्मा हूँ - इस स्मृति से व्यर्थ समाप्त हो जायेगा। समर्थ बन जायेंगे। अच्छा-
19-12-85 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
फॉलो फादर
विदेही और अव्यक्त बापदादा बोले
आज सर्व स्नेही बच्चों के स्नेह का रेसपाण्ड करने के लिए बापदादा मिलन मनाने के लिए आये हैं। विदेही बापदादा को देह का आधार लेना पड़ता है। किसलिए? बच्चों को भी विदेही बनाने के लिए। जैसे बाप विदेही, देह में आते हुए भी विदेही स्वरूप में, विदेहीपन का अनुभव कराते हैं। ऐसे आप सभी जीवन में रहते, देह में रहते विदेही आत्म-स्थिति में स्थित हो इस देह द्वारा करावनहार बन करके कर्म कराओ। यह देह करनहार है। आप देही करावनहार हो। इसी स्थिति को ‘‘विदेही स्थिति’’ कहते हैं। इसी को ही फॉलो फादर कहा जाता है। सदा फॉलो फादर करने के लिए अपनी बुद्धि को दो स्थितियों में स्थित रखो। बाप को फॉलो करने की स्थिति है - सदा अशरीरी भव। विदेही भव निराकारी भव। दाता अर्थात् ब्रह्मा बाप को फॉलो करने के लिए सदा अव्यक्त स्थिति भव, फरिश्ता स्वरूप भव, आकारी स्थिति भव। इन दोनों स्थिति में स्थित रहना फॉलो फादर करना है। इससे नीचे व्यक्त भाव, देह-भान, व्यक्ति भाव, इसमें नीचे नहीं आओ। व्यक्ति भाव वा व्यक्त भाव - नीचे ले आने का आधार है। इसलिए सबसे परे इन दो स्थितियों में सदा रहो। तीसरी के लिए ब्राह्मण जन्म होते ही बापदादा की शिक्षा मिली हुई है कि इस गिरावट की स्थिति में संकल्प से वा स्वप्न में भी नही जाना। यह पराई स्थिति है। जैसे अगर कोई बिना आज्ञा के परदेश चला जाए तो क्या होगा? बापदादा ने भी यह आज्ञा की लकीर खींच दी है। इससे बाहर नहीं जाना है। अगर अवज्ञा करते हैं तो परेशान भी होते हैं। पश्चाताप भी करते हैं। इसलिए सदा शान में रहने का, सदा प्राप्ति स्वरूप स्थिति में स्थित होने का सहज साधन है ‘‘फॉलो फादर’’। फॉलो करना तो सहज होता है ना! जीवन में बचपन से फॉलो करने के अनुभवी हो। बचपन में भी बाप बच्चे को अंगुली पकड़ चलने में, उठने-बैठने में फॉलो कराते हैं। फिर जब गृहस्थी बनते हैं तो भी पति-पत्नी को एक-दो के पीछे फॉलो कर चलना सिखलाते हैं। फिर आगे बढ़ गुरू करते हैं तो गुरू के फॉलोअर्स भी बनते हैं अर्थात् फॉलो करने वाले। लौकिक जीवन में भी आदि और अन्त में फॉलो करना होता है। अलौकिक पारलौकिक बाप भी एक ही सहज बात का साधन बताते हैं, क्या करूँ, कैसे करूँ, ऐसे करूँ या वैसे करूँ इस विस्तार से छुड़ा देते हैं। सभी प्रश्नों का उत्तर एक ही बात है - ‘‘फॉलो ‘फादर’’।
साकार रूप में भी निमित्त बन कर्म सिखलाने के लिए पूरे 84 जन्म लेने वाली ब्रह्मा की आत्मा निमित्त बनी। कर्म में कर्म बन्धनों से मुक्त होने में, कर्म सम्बन्ध को निभाने में, देह में रहते विदेही स्थिति में स्थित रहने में, तन के बन्धनों को मुक्त करने में, मन की लगन में मगन रहने की स्थिति में, धन का एक-एक नया पैसा सफल करने में, साकार ब्रह्मा, साकार जीवन में निमित्त बने। कर्मबन्धनी आत्मा, कर्मातीत बनने का एक्जाम्पल बने। तो साकार जीवन को फॉलो करना सहज है ना! यही पाठ हुआ फॉलो फादर। प्रश्न भी चाहे तन के पूछते, सम्बन्ध के पूछते वा धन के पूछते हैं। सब प्रश्नों का जवाब - ब्रह्मा बाप की जीवन है। जैसे आजकल के साइंस वाले हर एक प्रश्न का उत्तर कम्प्यूटर से पूछते हैं। क्योंकि समझते हैं मनुष्य की बुद्धि से यह कम्प्यूटर एक्यूरेट है। बनाने वाले से भी बनी हुई चीज़ को एक्यूरेट समझ रहे हैं। लेकिन आप साइलेन्स वालों के लिए ब्रह्मा की जीवन ही एक्यूरेट कम्प्यूटर है। इसलिए क्या, कैसे के बजाए जीवन के कम्प्यूटर से देखो। कैसा और क्या का क्वेश्चन ऐसे ही बदल जायेगा। प्रश्नचित्त के बजाए प्रसन्नचित्त हो जायेंगे। प्रश्नचित्त हलचल बुद्धि है। इसलिए प्रश्न का चिन्ह भी टेढ़ा है। क्वेश्चन लिखो तो टेढ़ा बांका हैं ना? और प्रसन्नचित्त है बिन्दी। तो बिन्दी में कोई टेढ़ापन है? चारों तरफ से एक ही है। बिन्दी को किसी भी तरफ से देखो तो सीधा ही देखेंगे। और एक जैसा ही देखेंगे। चाहे उल्टा चाहे सुल्टा देखो। प्रसन्नचित्त अर्थात् एक रस स्थिति में एक बाप को फॉलो करने वाले। फिर भी सार क्या निकला? फॉलो ब्रह्मा, साकार रूप फादर वा फॉलो आकार रूप ब्रह्मा फादर। चाहे ब्रह्मा बाप को फॉलो करो चाहे शिव बाप को फॉलो करो। लेकिन शब्द वही है - ‘फॉलो फादर’। इसलिए ब्रह्मा की महिमा ‘‘ब्रह्मा वन्दे जगतगुरू’’ कहते हैं। क्योंकि फॉलो करने के लिए साकार रूप में ब्रह्मा ही साकार जगत के लिए निमित्त बने। आप सभी भी अपने को शिवकुमार शिवकुमारी नहीं कहलाते हो। ब्रह्माकुमार-ब्रह्माकुमारी कहलाते हो। साकार रचना के निमित्त साकार श्रेष्ठ जीवन का सेम्पल ‘ब्रह्मा’ ही बनता है। इसलिए सतगुरू शिव बाप को कहते, गुरू सिखलाने वाले को भी कहते हैं। जगत के आगे सिखलाने वाले ‘ब्रह्मा’ ही निमित्त बनते हैं। तो हर कर्म में फॉलो करना है। ब्रह्मा को इस हिसाब से जगतगुरू कहते हैं। इसलिए जगत ब्रह्मा की वन्दना करता हैं। जगतपिता का टाइटिल भी ब्रह्मा का है। विष्णु को वा शंकर को प्रजापति नहीं कहते। वह मालिक के हिसाब से पति कह देते हैं। लेकिन है पिता। जितना ही जगत का प्यारा उतना ही जगत से न्यारा बन अभी अव्यक्त रूप में फॉलो अव्यक्त स्थिति भव का पाठ पढ़ा रहे हैं। समझा, किसी भी आत्मा का ऐसा इतना न्यारापन नहीं होता। यह न्यारेपन की ब्रह्मा की कहानी फिर सुनायेंगे।
आज तो शरीर को भी संभालना है। जब लोन लेते हैं तो अच्छा मालिक वो ही होता है जो शरीर को, स्थान को शक्ति प्रमाण कार्य में लगावे। फिर भी बापदादा दोनों के शक्तिशाली पार्ट को रथ चलाने के निमित्त बना है। यह भी ड्रामा में विशेष वरदान का आधार है। कई बच्चों को क्वेश्चन भी उठता है कि यही रथ निमित्त क्यों बना? दूसरे तो क्या इनको (गुल्जार बहिन को) भी उठता है। लेकिन जैसे ब्रह्मा भी अपने जन्मों को नहीं जानते थे ना, यह भी अपने वरदान को भूल गई है। यह विशेष साकार ब्रह्मा का आदि साक्षात्कार के पार्ट समय का बच्ची को वरदान मिला हुआ है। ब्रह्मा बाप के साथ आदि समय एकान्त के तपस्वी स्थान पर इस आत्मा के विशेष साक्षात्कार के पार्ट को देख ब्रह्मा बाप ने बच्ची के सरल स्वभाव, इनोसेन्ट जीवन की विशेषता को देख यह वरदान दिया था कि जैसे अभी इस पार्ट में आदि में ब्रह्मा बाप की साथी भी बनी और साथ भी रही ऐसे आगे चल बाप के साथी बनने की, समान बनने की ड्यूटी भी सम्भालेगी। ब्रह्मा बाप के समान सेवा में पार्ट बजायेगी। तो वो ही वरदान तकदीर की लकीर बन गये और ब्रह्मा बाप समान रथ बनने का पार्ट बजाना यह नूँध नूँधी गई। फिर भी बापदादा इस पार्ट बजाने के लिए बच्ची को भी मुबारक देते हैं। इतना समय इतनी शक्ति को एडजस्ट करना, यह एडजस्ट करने की विशेषता की लिफ्ट के कारण एक्स्ट्रा गिफ्ट है। फिर भी बापदादा को शरीर का सब देखना पड़ता है। बाजा पुराना है और चलाने वाले शक्तिशाली हैं। फिर भी हाँ जी, हाँ जी के पाठ के कारण अच्छा चल रहा है। लेकिन बापदादा भी विधि और युक्ति पूर्वक ही काम चला रहे हैं। मिलने का वायदा तो है लेकिन विधि, समय प्रमाण परिवर्तन होती रहेगी। अभी तो अठारहवें वर्ष में सब सुनायेंगे। 17 तो पूरा करना ही है। अच्छा- सब फॉलो फादर करने वाले सहज पुरुषार्थी बच्चों को सदा प्रसन्नचित्त विशेष आत्माओं को, सदा करावनहार बन देह से कर्म कराने वाले मास्टर रचयिता बच्चों को, ऐसे बापदादा के स्नेह का, जीवन द्वारा रेसपाण्ड देने वाले बच्चों को स्नेह सम्पन्न यादप्यार और नमस्ते।’’
23-12-85 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
कामजीत - सर्व हद की कामनाओं से परे
दु:खहर्त्ता, सुखकर्त्ता शिवबाबा बोले
बापदादा अपने छोटे से श्रेष्ठ सुखी संसार को देख रहे हैं। एक तरफ है बहुत बड़ा असार संसार। दूसरे तरफ है छोटा-सा सुखी संसार। इस सुखी संसार में सदा सुख-शान्ति सम्पन्न ब्राह्मण आत्मायें हैं। क्योंकि पवित्रता, स्वच्छता के आधार पर यह सुख-शान्तिमय जीवन है। जहाँ पवित्रता वा स्वच्छता है वहाँ कोई भी दु:ख अशान्ति का नाम निशान नहीं। पवित्रता के किले के अन्दर यह छोटासा सुखी संसार है। अगर पवित्रता के किले के, संकल्प द्वारा भी बाहर जाते हो तब दु:ख और अशान्ति का प्रभाव अनुभव करते हो। यह बुद्धि रूपी पाँव किले के अन्दर रहें तो संकल्प तो क्या स्वप्न में भी दु:ख अशान्ति की लहर नहीं आ सकती है। दु:ख और अशान्ति का जरा भी अनुभव होता है तो अवश्य कोई न कोई अपवित्रता का प्रभाव है। पवित्रता, सिर्फ कामजीत जगतजीत बनना यह नहीं है। लेकिन काम विकार का वंश, सर्व हद की कामनायें हैं। कामजीत अर्थात् सर्व कामनायें जीत। क्योंकि कामनायें अनेक विस्तार पूर्वक हैं। कामना एक है - वस्तुओं की, दूसरी - व्यक्ति द्वारा हद के प्राप्ति की कामना है, तीसरी - सम्बन्ध निभाने में भी हद की कामनायें अनेक प्रकार की उत्पन्न होती हैं, चौथी - सेवा भावना में भी हद की कामना का भाव उत्पन्न हो जाता है। इन चार ही प्रकार की कामनाओं को समाप्त करना अर्थात् सदा के लिए दु:ख अशान्ति को जीतना। अब अपने आप से पूछो इन चार ही प्रकार की कामनाओं को समाप्त किया है? कोई भी विनाशी वस्तु अगर बुद्धि को अपनी तरफ आकर्षित करती है तो जरूर कामना का रूप ‘लगाव’ हुआ। रॉयल रूप में शब्द को परिवर्तन करके कहते हो - इच्छा नहीं है लेकिन अच्छा लगता है। चाहे वस्तु हो वा व्यक्ति हो लेकिन किसी के प्रति भी विशेष आकर्षण है, वो ही वस्तु वा व्यक्ति ही अच्छा लगता है अर्थात् कामना है। इच्छा है। सब अच्छा लगता है - यह है ‘यथार्थ’। लेकिन यही अच्छा लगता है - यह है ‘अयथार्थ’।
यह इच्छा का रॉयल रूप है। चाहे किसकी सेवा अच्छी लगती, किसकी पालना अच्छी लगती, किसके गुण अच्छे लगते, किसकी मेहनत अच्छी लगती, किसका त्याग अच्छा लगता, किसका स्वभाव अच्छा लगता लेकिन अच्छाई की खुशबू लेना वा अच्छाई को स्वयं भी धारण करना अलग बात है। लेकिन इस अच्छाई के कारण यही अच्छी है - यह अच्छा कहना इच्छा में बदल जाता है। यह कामना है। जो दु:ख और अशान्ति का सामाना नहीं कर सकते। एक है - अच्छाई के पीछे अपने को अच्छा बनने से वंचित करना। दूसरी - दुश्मनी की कामना भी नीचे ले आती है। एक है प्रभावित की कामना। दूसरी है किसी से वैर व ईर्ष्या की भावना की कामना। वह भी सुख और शान्ति को समाप्त कर देती है। सदा ही मन हलचल में आ जाता है। प्रभावित होने के लक्षण - लगाव और झुकाव है। ऐसे ईर्ष्या वा दुश्मनी का भाव उसकी निशानी है - जिद्द करना और सिद्ध करना। दोनों ही भाव में कितनी एनर्जी, कितना समय खत्म कर देते हैं। यह मालूम नहीं पड़ता है। दोनों ही बहुत नुकसान देने वाले हैं। स्वयं भी परेशान और दूसरों को भी परेशान करने वाले हैं। ऐसी स्थिति के समय ऐसी आत्माओं का यही नारा होता है - दु:ख लेना और दु:ख देना ही है। कुछ भी हो जाए - लेकिन करना ही है। यह कामना उस समय बोलती है। ब्राह्मण आत्मा नहीं बोलती। इसलिए क्या होता है - सुख और शान्ति के संसार से बुद्धि रूपी पाँव बाहर निकल जाता है। इसलिए इन रॉयल कामनाओं के ऊपर भी विजयी बनो। इन इच्छाओं से भी ‘इच्छा-मात्रम्-अविद्या’ की स्थिति में आओ।
यह जो संकल्प करते हो, दोनों ही भाव में कि मैं यह बात करके दिखाऊँगा, किसको दिखायेंगे? बाप को वा ब्राह्मण परिवार को? किसको दिखायेंगे? ऐसे समझो यह करके दिखायेंगे नहीं, लेकिन गिर के दिखायेंगे। यह कमाल है क्या, जो दिखायेंगे। गिरना देखने की बात है क्या! यह हद के प्राप्ति का नशा - मैं सेवा करके दिखाऊँगा, मैं नाम बाला करके दिखाऊँगा, यह शब्द चेक करो, रॉयल है? कहते हो शेर की भाषा लेकिन बनते हो बकरी। जैसे आजकल कोई शेर का, कोई हाथी का, कोई रावण का, कोई राम का फेस डाल देते हैं ना। तो यह माया शेर का फेस लगा देती है। मैं यह करके दिखाऊँगा, यह करूँगा, लेकिन माया अपने वश कर बकरी बना देती हैं। मैं-पन आना अर्थात् कोई न कोई हद की कामना के वशीभूत होना। यह भाषा युक्तियुक्त बोलो और भावना भी युक्तियुक्त रखो। यह होशियारी नहीं है लेकिन हर कल्प में - सूर्यवंशी से चन्द्रवंशी बनने की हार खाना है। कल्प-कल्प चन्द्रवंशी बनना ही पड़ेगा। तो यह हार हुई या होशियारी हुई? तो ऐसी होशियारी नहीं दिखाओ। न अभिमान में आओ न अपमान करने में आओ। दोनों ही भावनायें - शुभ भावना - शुभ कामना दूर कर लेती हैं। तो चेक करो - जरा भी संकल्प मात्र भी अभिमान वा अपमान की भावना रह तो नहीं गई है? जहाँ अभिमान और अपमान की भावना है, यह कभी भी स्वमान की स्थिति में स्थित हो नहीं सकता। स्वमान सर्व कामनाओं से किनारा कर देगा। और सदा सुख के संसार में सुख के शान्ति के झूले में झूलते रहेंगे। इसको ही कहा जाता है - सर्व कामना जीत जगतजीत। तो बापदादा देख रहे थे छोटे से सुखी संसार को। सुख के संसार से, अपने स्वदेश से पराये देश में बुद्धि रूपी पाँव द्वारा क्यों चले जाते हो? पर-धर्म, परदेश दु:ख देने वाला है। स्वधर्म, स्वदेश सुख देने वाला है। तो सुख के सागर बाप के बच्चे हो, सुख के संसार के अनुभवी आत्मायें हो। अधिकारी आत्मायें हो तो सदा सुखी रहो, शान्त रहो। समझा-
देश-विदेश के दोनों स्नेही बच्चे अपने घर वा बाप के घर में अपना अधिकार लेने के लिए पहुँच गये हो। तो अधिकारी बच्चों को देख बापदादा भी हर्षित होते हैं। जैसे खुशी में आये हो ऐसे ही सदा खुश रहने की विधि, इन दोनों बातों का संकल्प से भी त्याग कर, सदा के लिए भाग्यवान बन करके जाना। लेने आये हो लेकिन साथ लेने के साथ, मन से कोई भी कमज़ोरी जो उड़ती कला में विघ्न रूप बनती हैं वह छोड़ के जाना। यह छोड़ना ही लेना है। अच्छा-
सदा सुख के संसार में रहने वाले सर्व कामना जीत, सदा सर्व आत्माओं के प्रति शुभ भावना और शुभ कामना करने वाले श्रेष्ठ आत्माओं को, सदा स्वमान की सीट पर स्थित रहने वाली विशेष आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।’’
टीचर्स के साथ - सभी स्वयं को कौन-सी मणि समझते हो? (सन्तुष्टमणि) आज के समय में विशेष सन्तुष्टता की ही आवश्यकता है। पूजा भी ज्यादा किस देवी की होती है? सन्तोषी की। और सन्तोषी को राजी करना ही सहज होता है। संतोषी सन्तुष्ट जल्दी हो जाती है। संतोषी की पूजा क्यों होती है? क्योंकि आज के समय में टेन्शन बहुत है, परेशानियाँ बहुत हैं, इस कारण असन्तुष्टता बढ़ती जा रही है। इसलिए सन्तुष्ट रहने का साधन सभी सोचते हैं। लेकिन कर नहीं सकते। तो ऐसे समय पर आप सभी सन्तुष्टमणियाँ बन सन्तुष्टता की रोशनी दो। अपने सन्तुष्टता की रोशनी से औरों को भी सन्तुष्ट बनाओ। पहले स्वं से स्वयं सन्तुष्ट रहो फिर सेवा में सन्तुष्ट रहो, फिर सम्बन्ध में सन्तुष्ट रहो तब ही सन्तुष्टमणि कहलायेंगे। सन्तुष्टता के भी तीन सर्टिफकेट चाहिए। अपने आप से, सेवा से, फिर साथियों से। यह तीनों सर्टिफकेट लिए हैं ना! अच्छा है, फिर भी दुनिया की हलचल से निकल अचल घर में पहुँच गई। यह बाप के स्थान ‘अचल घर’ हैं। तो अचल घर में पहुँचना यह भी बड़े भाग्य की निशानी है। त्याग किया तो अचलघर पहुँची। भाग्यवान बन गई लेकिन भाग्य की लकीर और भी जितनी लम्बी खींचने चाहो उतनी खींच सकते हो। लिस्ट में तो आ गई - ‘भाग्यवान की’। क्योंकि भगवान की बन गई तो भाग्यवान हो गई। और सबसे किनारा कर एक को अपना बनाया - तो भाग्यवान हो गई। बापदादा बच्चों की इस हिम्मत को देख खुश हैं। कुछ भी हो फिर भी त्याग और सेवा की हिम्मत में श्रेष्ठ हो। छोटे हो या नये हो लेकिन बापदादा त्याग और हिम्मत की मुबारक देते हैं। उसी रिगार्ड से बापदादा देखते हैं। निमित्त बनने का भी महत्व है। इसी महत्व से सदा आगे बढ़ाते हुए विश्व में महान आत्मायें बन प्रसिद्ध हो जायेंगी। तो अपनी महानता को तो जानती हो ना! जितने महान उतने निर्मान। जैसे फलदायक वृक्ष की निशानी है - झुकना। ऐसे जो निर्मान हैं वही प्रत्यक्ष फल खाने वाले हैं। संगमयुग की विशेषता ही यह है। अच्छा-
25-12-85 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
बड़े दिन पर अव्यक्त बापदादा के महावाक्य
सदा ज्ञान रत्नों से बुद्धी रूपी झोली भरने वाले रत्नागर शिव बाप बोले
आज बड़े ते बड़े बाप, ग्रैन्ड फादर अपने ग्रैन्ड चिल्ड्रेन लवली बच्चों से मिलने आये हैं। ग्रेट-ग्रेट ग्रैन्ड फादर ब्रह्मा गाया हुआ है। निराकार बाप ने साकार सृष्टि की रचना के निमित्त ब्रह्मा को बनाया। मनुष्य सृष्टि का रचयिता होने के कारण, मनुष्य सृष्टि का यादगार वृक्ष के रूप में दिखाया है। बीज गुप्त होता है, पहले दो पत्ते, जिससे तना निकलता है - वो ही वृक्ष के आदि देव आदि देवी माता पिता के स्वरूप में वृक्ष का फाउण्डेशन ब्रह्मा निमित्त बनता है। उस द्वारा ब्राह्मण तना प्रकट होता है। और ब्राह्मण तना से अनेक शाखायें उत्पन्न होती हैं। इसलिए ग्रेट-ग्रेट ग्रैन्ड फादर ब्रह्मा गाया हुआ है। ब्रह्मा का अवतरण होना अर्थात् बुरे दिन खत्म हो बड़े दिन शुरू होना। रात खत्म हो ब्रह्मा मुहूर्त शुरू हो जाता वास्तव में है ब्रह्मा मुहूर्त, कहने में ब्रह्म मुहूर्त आता है। इसलिए ब्रह्मा का बुजुर्ग रूप दिखाया है। ग्रैन्ड फादर निराकारी बाप ग्रैन्ड चिल्ड्रेन को इतनी सौगात देते जो 21 जन्म लिए खाते रहते। दाता भी है तो विधाता भी है। ज्ञान रत्नों की थालियाँ भर भरकर दे देते हैं। शक्तियों की गोल्डन गिफ्ट अनगिनत स्वरूप में दे देते हैं। गुणों के गहने बाक्स भर-भर कर देते हैं। कितने शृंगार बाक्स हैं आपके पास! रोज नया शृंगार करो तो भी अनगिनत हैं। यह गिफ्ट सदा साथ चलने वाली है। वह स्थूल गिफ्ट तो यहाँ ही रह जाती। लेकिन यह साथ चलेगी। इतना गॉडली गिफ्ट से सम्पन्न हो जाते हो जो कमाने की दरकार ही नहीं पड़ेगी। गिफ्ट से ही खाते रहेंगे। मेहनत से छूट जायेंगे।
सभी विशेष क्रिसमस डे मनाने आये हैं ना। बापदादा ‘किसमिस डे’ कहते हैं। किसमिस डे अर्थात् मधुरता का दिन। सदा मीठा बनने का दिन। मीठा ही ज्यादा खाते और खिलाते हैं ना। मुख मीठा तो थोड़े समय के लिए होता है लेकिन स्वयं ही मीठा बन जाए तो सदा ही मुख में मधुर बोल रहें। जैसे मीठा खाने और खिलाने से खुश होते हो ना ऐसे मधुर बोल स्वयं को भी खुश करता दूसरे को भी खुश करता। तो इससे सदा सर्व का मुख मीठा करते रहो, सदा मीठी दृष्टि, मीठा बोल, मीठे कर्म। यही किसमिस डे मनाना हुआ। मनाना अर्थात् बनाना। किसी को भी दो घड़ी मीठी दृष्टि दे दो। मीठे बोल बोल लो तो उस आत्मा को सदा के लिए भरपूर कर देंगे। इन दो घड़ी की मधुर दृष्टि, बोल उस आत्मा की सृष्टि बदल लेंगे। यह दो मधुर बोल सदा के लिए बदलने के निमित्त बन जायेंगे। मधुरता ऐसी विशेष धारणा है जो कड़वी धरनी को भी मधुर बना देती है। आप सभी को बदलने का आधार बाप के दो मधुर बोल थे ना! मीठे बच्चे, तुम मीठी शुद्ध आत्मा हो। इन दो मधुर बोल ने बदल लिया ना। मीठी दृष्टि ने बदल लिया। ऐसे ही मधुरता द्वारा ओरों को भी मधुर बनाआ। यह मुख मीठा करो। समझा - क्रिसमस डे मनाया ना। सदा इन सौगातों से अपनी झोली भरपूर कर ली? सदा मधुरता की सौगात को साथ रखना। इसी से सदा मीठा रहना और मीठा बनाना। अच्छा-
सदा ज्ञान रत्नों से बुद्धि रूपी झोली भरने वाले, सदा सर्व शक्तियों से शक्तिशाली आत्मा बन शक्तियों से सदा सम्पन्न बनने वाले, सर्व गुणों के गहनों से सदा शृंगार हुए, श्रेष्ठ आत्माओं को, सदा मधुरता से मुख मीठा करने वाले मीठे बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।
विदाई के समय यादप्यार - सभी देश-विदेश दोनों तरफ के बच्चों के इस विशेष दिन के प्रति कार्ड भी पाये, पत्र भी पाये और याद भी पाई। बापदादा सभी मीठे ते मीठे बच्चों को इस बड़े दिन पर सदा मधुरता से श्रेष्ठ बनो और श्रेष्ठ बनाओ, इसी वरदान के साथ स्वयं भी वृद्धि को प्राप्त होते रहो और सेवा को भी वृद्धि में लाते रहो। सभी बच्चों को बड़े-बड़े बाप की बड़ी-बड़ी यादप्यार और साथ-साथ स्नेह भरी मुबारक हो। गुडमोर्निंग हो। सदा मीठे बनने की बधाई हो।
पार्टियों से बापदादा की मुलाकात - कुमारों से - कुमार अर्थात् तीव्रगति से आगे बढ़ने वाले। रूकना-चलना, रूकना-चलना ऐसे नहीं। कैसी भी परिस्थितियाँ हों लेकिन स्वयं सदा शक्तिशाली आत्मा समझ आगे बढ़ते चलो। परिस्थिति वा वायुमण्डल के प्रभाव में आने वाले नहीं, लेकिन अपना श्रेष्ठ प्रभाव दूसरों पर डालने वाले। श्रेष्ठ प्रभाव अर्थात् रूहानी प्रभाव। दूसरा नहीं। ऐसे कुमार हो? पेपर आवे तो हिलने वाले तो नहीं! पेपर में पास होने वाले हो ना! सदा हिम्मतवान हो ना! जहाँ हिम्मत है वहाँ बाप की मदद है ही। हिम्मते बच्चे मददे बाप। हर कार्य में स्वयं को आगे रख औरों को भी शक्तिशाली बनाते चलो।
2. कुमार हैं ही उड़ती कला वाले। जो सदा निर्बन्धन हैं वही उड़ती कला वाले हैं। तो निर्बन्धन कुमार हो। मन का भी बन्धन नहीं। तो सदा बन्धनों को समाप्त कर निर्बन्धन बन उड़ती कला वाले कुमार हो? कुमार अपनी शरीर की शक्ति और बुद्धि की शक्ति दोनों को सफल कर रहे हो? लौकिक जीवन में अपने शरीर की शक्ति को और बुद्धि की शक्ति विनाशकारी कार्यों में लगाते रहे। और अब श्रेष्ठ कार्य में लगाने वाले। हलचल मचाने वाले नहीं। लेकिन शान्ति स्थापन करने वाले। ऐसे श्रेष्ठ कुमार हो? कभी लौकिक जीवन के संस्कार इमर्ज तो नहीं होते हैं? अलौकिक जीवन वाले, नये जन्म वाले। तो नये जन्म में पुरानी बातें नहीं रहतीं। आप सभी नये जन्म वाली श्रेष्ठ आत्मायें हो। कभी भी अपने को साधारण न समझ शक्तिशाली समझो। संकल्प में भी हलचल में न आना। ऐसे तो क्वेश्चन नहीं करते हो कि व्यर्थ संकल्प आते हैं क्या करें? भाग्यवान कुमार हो। 21 जन्म भाग्य का खाते रहेंगे। स्थूल-सूक्ष्म दोनों कमाई से छूट जायेंगे।
3. कुमार अर्थात् कमज़ोरी को सदा के लिए तलाक देने वाले। आधाकल्प के लिए कमज़ोरी को तलाक दे दिया ना। या अभी नहीं दिया है? जो सदा समर्थ आत्मायें हैं उनके आगे कमज़ोरी आ नहीं सकती। सदा समर्थ रहना अर्थात् कमज़ोरी को समाप्त करना। ऐसी समर्थ आत्मायें बाप को भी प्रिय हैं। परिवार को भी प्रिय हैं। कुमार अर्थात् अपने हर कर्म द्वारा अनेकों की श्रेष्ठ कर्मों की रेखा खींचने वाले। स्वयं के कर्म औरों के कर्म की रेखा बनाने के निमित्त बन जायें। ऐसे सेवाधारी हो। तो हर कर्म में यह चैक करो कि हर कर्म ऐसा स्पष्ट है जो औरों को भी कर्म की रेखा स्पष्ट दिखाई दे। ऐसे श्रेष्ठ कर्मों के श्रेष्ठ खाते को सदा जमा करने वाली विशेष आत्मायें - इसको कहा जाता है - सच्चे सेवाधारी। याद और सेवा यही सदा आगे बढ़ाने का साधन है। याद शक्तिशाली बनाती है और सेवा खजानों से सम्पन्न बनाती है। याद और सेवा से आगे बढ़ते रहो और बढ़ाते चलो।
टीचर्स बहिनों से - टीचर्स सदा स्वस्थिति से स्वयं भी आगे बढ़ने वाली और दूसरों को भी आगे बढ़ाने वाली, बढ़ना है और बढ़ाना है - यही टीचर्स का विशेष लक्ष्य है। और लक्षण भी हैं। सदा बाप समान मास्टर सर्वशक्तिवान आत्मा बन आगे बढ़ते और बढ़ाते चलो। त्याग से भाग्य प्राप्त करने वाली श्रेष्ठ आत्मा हो सदा त्याग ही भाग्य है। श्रेष्ठ भाग्य, श्रेष्ठ कर्म और श्रेष्ठ फल.. सदा इस प्रत्यक्ष फल से स्वयं और दूसरों को उड़ाते चलो। अपने को हर कर्म में निमित्त समझना यही श्रेष्ठ बनने का सहज साधन है। सेवाधारी बनना यह भी संगमयुग पर विशेष भाग्य की निशानी है। सेवा करना अर्थात् जन्म-जन्म के लिए सम्पन्न बनना। क्योंकि सेवा से जमा होता है और जमा हुआ अनेक जन्म खाते रहेंगे। अगर सेवा में जमा हो रहा है, यह स्मृति रहे तो सदा खुशी में रहेंगे। और खुशी के कारण कभी थकेंगे नहीं। सेवा अथक बनाने वाली है। खुशी का अनुभव कराने वाली है।
सेवाधारी अर्थात् बाप समान। तो समानता को चेक करते बाप समान बन औरों को भी बाप समान बनाते चलो। सेन्टर के वायुमण्डल को शक्तिशाली बनाने के लिए एक दो चक्र लगाते हुए शक्तिशाली याद की अनुभूतियों का प्रोग्राम बनाओ। शक्तिशाली वातावरण कई बातों से स्वत: दूर कर देता है। अभी स्वयं क्वालिटी वाले बन, क्वालिटी वाले बनाते चलो। अच्छा।
30-12-85 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
विशाल बुद्धि की निशानी
दाता और विधाता बापादादा अपने स्नेही, सहयोगी व सहजयोगी बच्चों प्रति बोले-
आज सर्व स्नेही, सहयोगी, सहजयोगी बच्चों से स्नेह के सागर, सर्व खजानों के विधाता, वरदाता बाप रूहानी मिलन मनाने आये हैं। यह रूहानी स्नेह का मिलन अर्थात् रूहों का मिलन विचित्र मिलन है। सारे कल्प में ऐसे रूहानी मेला हो नहीं सकता। इस संगमयुग को इस रूहानी मिलन का वरदान मिला हुआ है। इस वरदानी समय पर वरदाता बाप द्वारा वरदानी बच्चे इस अविनाशी वरदान को प्राप्त कर रहे हैं। बाप का भी विधाता और वरदाता का अविनाशी पार्ट इसी समय चलता है। ऐसे समय पर वरदानों के अधिकारी आत्मायें अपना सदाकाल का अधिकार प्राप्त कर रही हो। ऐसे रूहानी मेले को देख बापदादा भी हर्षित होते हैं। बापदादा देख रहे हैं कि ऐसी श्रेष्ठ प्राप्ति करने वाले कैसे भोले साधारण आत्मायें विश्व के आगे निमित्त बनी हैं। क्योंकि सभी लोग राज्य विद्या, साइंस की विद्या, अल्पकाल के राज्य अधिकार वा धर्म नेता का अधिकार, इसी को ही आज की दुनिया में विशेष आत्मायें मानते हैं। लेकिन बापदादा कौन-सी विशेषता देखते हैं? सबसे पहले अपने आपको और बाप को जानने की विशेषता जो आप ब्राह्मण बच्चों में है वह किसी भी नामीग्रामी आत्मा में नहीं है। इसलिए भोले, साधारण होते हुए, वरदाता से वरदान ले जन्म-जन्म के लिए विशेष पूज्य आत्मायें बन जाते हैं। जो आज की नागीग्रामी आत्मायें हैं वह भी पूज्य आत्माओं के आगे नमन-वन्दन करती हैं। ऐसी विशेष आत्मायें बन गये। ऐसा रूहानी नशा अनुभव करते हो? नाउम्मीद आत्माओं को उम्मीदवार बनाना यही बाप की विशेषता है। बापदादा वतन में भी बच्चों को देख मुस्करा रहे थे। अगर किसी भी अन्जान आत्मा को कहो कि यह सारी सभा विश्व के राज्य अधिकारी आत्माओं की है तो मानेंगे? आश्चर्यवत हो जायेंगे। लेकिन बापदादा जानते हैं कि बाप को दिल के स्नेह, दिल की श्रेष्ठ भावना वाली आत्मायें प्रिय हैं। दिल का स्नेह ही श्रेष्ठ प्राप्ति कराने का मूल आधार है। दिल का स्नेह दूर-दूर से मधुबन निवासी बनाता है। दिलाराम बाप को पसन्द ही दिल का स्नेह है। इसलिए जो भी हो, जैसे भी हो लेकिन परमात्मा को पसन्द हो। इसलिए अपना बना लिया। दुनिया वाले अभी इन्तजार ही कर रहे हैं। बाप आयेगा उस समय ऐसा होगा, वैसा होगा। लेकिन आप सबके मुख से, दिल से क्या निकलता है? ‘‘पा लिया’’। आप सम्पन्न बन गये और वह बुद्धिवान अब तक परखने में ही समय समाप्त कर रहे हैं। इसलिए ही कहा गया है - भोलानाथ बाप है। पहचानने की विशेषता ने विशेष आत्मा बना लिया। पहचान लिया, प्राप्त कर लिया। अब आगे क्या करना हैं - सर्व आत्माओं पर रहम आता है? हैं तो सभी आत्मायें, एक ही बेहद का परिवार है। अपने परिवार की कोई भी आत्मा वरदान से वंचित न रह जाए। ऐसा उमंग उत्साह दिल में रहता है? वा अपनी प्रवृत्तियों में ही बिजी हो गये हो? बेहद की स्टेज पर स्थित हो, बेहद की आत्माओं की सेवा का श्रेष्ठ संकल्प ही सफलता का सहज साधन है।
अभी सेवा की गोल्डन जुबली मना रहे हो ना! उसके लिए विशाल प्रोग्राम बनाये हैं ना! जितना विशाल प्रोग्राम बनाया है उतना ही विशाल दिल, विशाल उमंग और विशाल रूप की तैयारियाँ की हैं? या यही सोचते हो - भाषण करने को मिलेगा तो कर लेंगे। निमन्त्रण बाँटने को मिलेगा तो बाँट लेंगे। यही तैयारियाँ की है? इसको ही विशाल तैयारियाँ कहा जाता है? जो ड्यूटी मिली वह पूरी कर लेना इसको ही विशाल उमंग नहीं कहा जाता। ड्यूटी बजाना यह आज्ञाकारी बनने की निशानी तो है लेकिन बेहद की विशाल बुद्धि, विशाल उमंग-उत्साह सिर्फ इसको नहीं कहा जाता। विशालता की निशानी यह है - हर समय अपनी मिली हुई ड्यूटी में, सेवा में नवीनता लाना। चाहे भोजन खिलाने की, चाहे भाषण करने की ड्यूटी हो लेकिन हर सेवा में हर समय नवीनता भरना - इसको कहा जाता है विशालता। जो एक वर्ष पहले किया उसमें कोई न कोई रूहानियत की एडीशन जरूर हो। ऐसा उमंग उत्साह दिल में आता है? वा सोचते हो जैसे चलता है वैसे ही होगा। हर समय विधि और वृद्धि बदलती रहती है। जैसे समय समीप आ रहा है - वैसे हर आत्मा को बाप की, परिवार की समीपता का विशेष अनुभव कराओ। मनन करो कि क्या नवीनता लानी है। अभी कांफ्रेंस का विशाल कार्य कर रहे हो ना। सभी कर रहे हो या जो बड़े हैं वही कर रहे हैं। सभी का कार्य है ना? हर एक को सोचना है - मुझे नवीनता के लिए सेवा में आगे बढ़ना है। चाहे आगे निमित्त थोड़े को ही बनाना होता है - जैसे भाषण करेंगे तो थोड़े, इतनी सारी सभा करेगी क्या! हर एक की अपनी-अपनी ड्यूटी बाँट करके ही कार्य सम्पन्न होता है। लेकिन सभी को निमित्त बनना है। किस बात में? चारों ओर जहाँ भी हो, जिस भी ड्यूटी के निमित्त हो, लेकिन जिस समय कोई विशाल कार्य जहाँ भी होता है उस समय दूर बैठे भी उतने समय तक सदा हर एक के मन में विश्व-कल्याण की श्रेष्ठ भावना और श्रेष्ठ कामना जरूर होनी चाहिए। जैसे आजकल के वी.आई.पी.अगर स्वयं नहीं पहुँच सकते हैं तो शुभकामनायें भेजते हैं ना। तो आप उन्हों से कम हो क्या! आप सभी विशेष आत्माओं की शुभ भावना, शुभ कामना उस कार्य को अवश्य सफल बनायेगी।
यह विशेष दिन विशेष कंगन बाँधना चाहिए और किसी भी हद की बातों में संकल्प शक्ति, समय की शक्ति, व्यर्थ न गँवाएं, हर संकल्प से, हर समय विशाल सेवा के निमित्त बन मंसा शक्ति से भी सहयोगी बनना है। ऐसे नहीं कि आबू में कांफ्रेंस हो रही है, हम तो फलाने देश में बैठे हैं, नहीं। आप सभी विशाल कार्य में सहयोगी हो। वातावरण वायुमण्डल बनाओ। जब साइन्स की शक्ति से एक देश से दूसरे देश तक राकेट भेज सकते हैं तो क्या साइलेन्स की शक्ति से आप शुभ भावना, कल्याण की भावना द्वारा यहाँ आबू में मन्सा द्वारा सहयोगी नहीं बन सकते? कोई साकार में वाणी से, कर्म से निमित्त बनेंगे। कोई मन्सा सेवा में निमित्त बनेंगे। लेकिन जितना दिन प्रोग्राम चलता है चाहे 5 दिन चाहे 6 दिन चलता, इतना ही समय हर ब्राह्मण आत्मा को सेवा का कंगन बंधा हुआ हो कि मुझ आत्मा को निमित्त बन सफलता को लाना है। हर एक अपने को जिम्मेवार समझे। इसका भाव यह नहीं समझना कि सभी जिम्मेवार हैं तो भाषण का चांस मिलना चाहिए। या विशेष कोई ड्यूटी मिले तब जिम्मेवार हैं। इनको जिम्मेवारी नहीं कहते। जहाँ भी हो, जो भी ड्यूटी मिली है, चाहे दूर बैठने की, चाहे स्टेज पर आने की - मुझे सहयोगी बनना ही है। इसको कहा जाता है सारे विश्व में सेवा की रूहानियत की लहर फैलाना। खुशी की, उमंग-उत्साह की लहर फैल जाएँ। ऐसे सहयोगी हो? इस कांफ्रेंस में नवीनता दिखायेंगे ना? गोल्डन जुबली है तो चारों ओर गोल्डन एज आने वाली है, इसके खुशी की लहर फैल जाए। जो भयभीत आत्मायें हैं, ना उम्मीद आत्मायें हैं उन्हों में श्रेष्ठ भविष्य की उम्मीद पैदा करो। भयभीत आत्माओं में खुशी की लहर उत्पन्न हो। यह है गोल्डन जुबली की गोल्डन सेवा। यह लक्ष्य रखो। स्वयं भी हर कार्य में मोल्ड होने वाले रीयल गोल्ड बन गोल्डन जुबली मनानी है। समझा। जो अब तक नहीं किया है वह करके दिखाना है। ऐसी आत्माओं को निमित्त बनाओ जो एक, अनेक आत्माओं की सेवा के निमित्त बन जाये। सोचते ही रहेंगे, लेकिन करेंगेकरेंगे कहते समय बीत जाता है और अन्त में जो भी मिला उसको ही ले आते हो। संख्या तो बढ़ जाती है लेकिन विशाल सेवा का प्रोग्राम रखते ही इसलिए हैं कि ऐसी आत्मायें आवें जो एक अनेकों के निमित्त बन जाए। चारों ओर सेवा चलती रहती है ना। अपने-अपने स्थान पर भी ऐसी आत्माओं का कार्य तो चलाते रहते हो। इसलिए अभी से गोल्डन जुबली की स्व के सेवा की और स्व के साथ अन्य विशेष आत्माओं की सेवा की लहर फैलाओ। समझा। क्या करना है।
मुहब्बत से मेहनत करो। स्नेह ऐसी वस्तु है जो स्नेह के वश ना वाला भी हाँ कर देता है। समय न होते भी समय निकाल देते हैं। यह तो रूहानी स्नेह है। तो धरनी बनाओ। ऐसे नहीं सोचो कि यह धरनी ही ऐसी है। यह लोग ही ऐसे हैं। आप कैसे थे? बदल गये ना। शुभ भावना का सदैव श्रेष्ठ फल होता है। अच्छा-
अपने घर में आये हो यह तो बाप को भी खुशी है लेकिन समय तो हद का है ना। जितनी संख्या उतना ही बंटता है ना। चीज़ 4 हों, लेने वाले 8 हों तो क्या करेंगे? उसी विधि से करेंगे ना! बापदादा को भी विधि प्रमाण चलना ही पड़ता है। बापदादा ऐसे तो कह नहीं सकते कि इतने क्यों आये हो? भले आये! स्वागत है लेकिन समय प्रमाण विधि बनानी पड़ती है। हाँ, अव्यक्त वतन में समय की सीमा नहीं है।
महाराष्ट्र भी कमाल करके दिखायेगा। कोई ऐसी महान आत्मा को निमित्त बना के दिखावे तब कहेंगे महाराष्ट्र! देहली तो निमित्त है ही। ऐसे नहीं कि अभी कांफ्रेंस तो बहुत कर ली। अब जितना होगा, नहीं! हर वर्ष और आगे बढ़ना है। अभी तो अनेक आत्मायें हैं जिन्हों को निमित्त बना सकते हैं। देहली वालों को भी विशेष निमित्त बनना है। राजस्थान क्या करेगा? राजस्थान सदा ही हर कार्य में नम्बरवन होना है। क्योंकि राजस्थान में नम्बरवन हेडक्वार्टर है। चाहे क्वालिटी में, चाहे क्वान्टिटी में, दोनों में नम्बरवन होना है। डबल विदेशी भी नवीनता दिखायेंगे ना। हर एक देश में इस खुशखबरी की लहर फैल जाए तो सब आपको बहुत दिल से आशीर्वाद देंगे। लोग बहुत भयभीत हैं ना! ऐसी आत्माओं को रूहानी खुशी की लहर में लाओ। अल्पकाल की खुशी नहीं। रूहानी खुशी की लहर हो। जो वह समझें कि यह फरिश्ता बन शुभ सन्देश देने के निमित्त बनी हुई आत्मायें हैं। समझा! अब देखेंगे कौन-सा जोन नवीनता करता है। संख्या लाते हैं या क्वालिटी लाते हैं! फिर बापदादा रिजल्ट सुनायेंगे। नवीनता भी लाना। नवीनता के भी नम्बर मिलेंगे। अच्छा-
सर्व स्वराज्य विश्व राज्य के अधिकारी आत्माओं को, सदा बेहद की सेवा में बेहद की वृत्ति में रहने वाले श्रेष्ठ आत्माओं को, दिल विशाल, सदा विशाल बुद्धि, विशाल उमंग-उत्साह में रहने वाली विशेष आत्माओं को, सदा स्वयं को हर सेवा के निमित्त जान निर्माण करने वाले, सदा श्रेष्ठ और बाप समान सेवा में सफलता को पाने वाले, ऐसे रूहानी आत्माओं को रूहानी बाप की यादप्यार और नमस्ते।’’
कुमारियों से - सदा कुमारी जीवन निर्दोष जीवन गाई हुई है। कुमारी जीवन सदा श्रेष्ठ गाई और पूजी जाती है। ऐसी श्रेष्ठ और पूज्य आत्मा अपने को समझती हो? सभी कुमारियाँ विशेष कोई कमाल करके दिखाने वाली हो ना! या सिर्फ पढ़ाई पढ़ने वाली हो। विश्व-सेवाधारी बनेंगी या हद की गुजरात की सेवा करनी है या मध्यप्रदेश की या फलाने स्थान की सेवा करनी है, ऐसे तो नहीं। एवररेडी आत्मायें औरों को भी एवररेडी बना देती हैं। तो आप कुमारियाँ जो चाहें वह कर सकती हैं। आज की गवर्मेन्ट जो कहती है वह कर नहीं पाती? ऐसे राज्य में रह करके सेवा करनी है तो इतनी शक्तिशाली सेवा होगी तब सफलता होगी। इस ज्ञान की पढ़ाई में नम्बर लिया है? लक्ष्य यही रखना है कि नम्बरवन लेना ही है। सदा विशेषता यह दिखाओ कि बोलो कम लेकिन जिसके भी सामने जाओ वह आपकी जीवन से पाठ पढ़े। मुख का पाठ तो कई सुनाने वाले हैं, सुनने वाले भी हैं लेकिन ‘जीवन से पाठ पढ़े’ यह है विशेषता। आपकी जीवन ही टीचर बन जाए। मुख के टीचर नहीं। मुख से बताना पड़ता है लेकिन मुख से बताने के बाद भी अगर जीवन में नहीं होता तो वह मानते नहीं हैं। कहते हैं - सुनाने वाले तो बहुत हैं। इसलिए लक्ष्य रखो कि जीवन द्वारा किसको बाप का बनाना है। आजकल सुनने की रूचि भी नहीं रखते हैं, देखने चाहते हैं। देखो रेडियो सुनने की चीज़ है, टी.वी. देखने की चीज़ है, तो क्या पसन्द करेंगे? (टी.वी.) सुनने से देखना पसन्द करते हैं। तो आपकी जीवन में भी देखने चाहते हैं। कैसे चलते हैं, कैसे उठते हैं। कैसे रूहानी दृष्टि रखते हैं। ऐसा लक्ष्य रखो। समझा।
2. संगमयुग पर कुमारियों का महत्व क्या है - उसको तो जानती हो ना? संगम पर सबसे महान कुमारियाँ हैं। तो अपने को महान समझ सेवा में सहयोगी बनी हो या बनना है? क्या लक्ष्य है। डबल पार्ट बजाने का लक्ष्य है? क्या टोकरी उठायेंगी?
ओम शान्ति