18-01-87   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


कर्मातीत स्थिति की निशानियाँ

बन्धनमुक्त बनाने वाले, स्नेह के सागर बापदादा निमित्त गीता-पाठशालाओं के सेवाधारी बच्चों के सम्मुख बोले

आज अव्यक्त बापदादा अपने अव्यक्त स्थिति भव' के वरदानी बच्चों वा अव्यक्ति फरिश्तों से मिलने आये हैं। यह अव्यक्त मिलन इस सारे कल्प में अब एक ही बार संगम पर होता है। सतयुग में भी देव मिलन होगा लेकिन फरिश्तों का मिलन, अव्यक्त मिलन इस समय ही होता है। निराकार बाप भी अव्यक्त ब्रह्मा बाप के द्वारा मिलन मनाते हैं। निराकार को भी यह फरिश्तों की महफिल अति प्रिय लगती है, इसलिए अपना धाम छोड़ आकारी वा साकारी दुनिया में मिलन मनाने आये हैं। फरिश्ते बच्चों के स्नेह की आकर्षण से बाप को भी रूप बदल, वेष बदल बच्चों के संसार में आना ही पड़ता है। यह संगमयुग बाप और बच्चों का अति प्यारा और न्यारा संसार है। स्नेह सबसे बड़ी आकर्षित करने की शक्ति है जो परम-आत्मा, बन्धनमुक्त को भी, शरीर से मुक्त को भी स्नेह के बन्धन में बाँध लेती है, अशरीरी को भी लोन के शरीरधारी बना देती है। यही है बच्चों के स्नेह का प्रत्यक्ष प्रमाण। आज का दिन अनेक चारों ओर के बच्चों के स्नेह की धारायें, स्नेह के सागर में समाने का दिन है। बच्चे कहते हैं - हम बापदादा से मिलने आये हैं'। बच्चे मिलने आये हैं? वा बच्चों से बाप मिलने आये हैं? या दोनों ही मधुबन में मिलने आये हैं? बच्चे स्नेह के सागर में नहाने आये हैं लेकिन बाप हजारों गंगाओं में नहाने आते हैं। इसलिए गंगा-सागर का मेला विचित्र मेला है। स्नेह के सागर में समाए सागर समान बन जाते हैं। आज के दिन को बाप समान बनने का स्मृति अर्थात् समर्थी-दिवस कहते हैं। क्यों?

आज का दिन ब्रह्मा बाप के सम्पन्न और सम्पूर्ण बाप समान बनने का यादगार दिवस है। ब्रह्मा बच्चा सो बाप, क्योंकि ब्रह्मा बच्चा भी है, बाप भी है। आज के दिन ब्रह्मा ने बच्चे के रूप में सपूत बच्चा बनने का सबूत दिया, स्नेह के स्वरूप का, समान बनने का सबूत दिया; अति प्यारे और अति न्यारेपन का सबूत दिया; बाप समान कर्मातीत अर्थात् कर्म के बन्धन से मुक्त, न्यारा बनने का सबूत दिया; सारे कल्प के कर्मों के हिसाब-किताब से मुक्त होने का सबूत दिया। सिवाए सेवा के स्नेह के और कोई बन्धन नहीं। सेवा में भी सेवा के बन्धन में बंधने वाले सेवाधारी नहीं। क्योंकि सेवा में कोई बन्धनयुक्त बन सेवा करते और कोई बन्धनमुक्त बन सेवा करते। सेवाधारी ब्रह्मा बाप भी है। लेकिन सेवा द्वारा हद की रॉयल इच्छायें सेवा में भी हिसाबकिताब के बंधन में बाँधती हैं। लेकिन सच्चे सेवाधारी इस हिसाब-किताब से भी मुक्त हैं। इसी को ही - कर्मातीत स्थिति कहा जाता है। जैसे देह का बन्धन, देह के सम्बन्ध का बन्धन, ऐसे सेवा में स्वार्थ - यह भी बन्धन कर्मातीत बनने में विघ्न डालता है। कर्मातीत बनना अर्थात् इस रॉयल हिसाब-किताब से भी मुक्त।

मैजारिटी निमित्त गीता-पाठशालाओं के सेवाधारी आये हैं ना। तो सेवा अर्थात् औरों को भी मुक्त बनाना। औरों को मुक्त बनाते स्वयं को बन्धन में बांध तो नहीं देते? नष्टोमोहा बनने के बजाए, लौकिक बच्चों आदि सबसे मोह त्याग कर स्टूडेण्ट से मोह तो नहीं करते? यह बहुत अच्छा है, बहुत अच्छा है, अच्छा-अच्छा समझते मेरे-पन की इच्छा के बन्धन में तो नहीं बंध जाते? सोने की जंजीरें तो अच्छी नहीं लगती हैं ना? तो आज का दिन हद के मेरे-मेरे से मुक्त होने का अर्थात् कर्मातीत होने का अव्यक्ति दिवस मनाओ। इसी को ही स्नेह का सबूत कहा जाता है। कर्मातीत बनना यह लक्ष्य तो सबका अच्छा है। अब चेक करो - कहाँ तक कर्मों के बन्धन से न्यारे बने हो? पहली बात - लौकिक और अलौकिक, कर्म और सम्बन्ध दोनों में स्वार्थ भाव से मुक्त। दूसरी बात - पिछले जन्मों के कर्मों के हिसाब-किताब वा वर्तमान पुरूषार्थ के कमज़ोरी के कारण किसी भी व्यर्थ स्वभाव-संस्कार के वश होने से मुक्त बने हैं? कभी भी कोई कमज़ोर स्वभाव-संस्कार वा पिछला संस्कार-स्वभाव वशीभूत बनाता है तो बन्धनयुक्त हैं, बन्धनमुक्त नहीं। ऐसे नहीं सोचना कि चाहते नहीं हैं लेकिन स्वभाव या संस्कार करा देते हैं। यह भी निशानी बन्धनमुक्त की नहीं लेकिन बन्धनयुक्त की है। और बात - कोई भी सेवा की, संगठन की, प्रकृति की परिस्थिति स्व-स्थिति को वा श्रेष्ठ स्थिति को डगमग करती है - यह भी बन्धनमुक्त स्थिति नहीं है। इस बन्धन से भी मुक्त। और तीसरी बात - पुरानी दुनिया में पुराने अन्तिम शरीर में किसी भी प्रकार की व्याधि अपनी श्रेष्ठ स्थिति को हलचल में लाये - इससे भी मुक्त। एक है व्याधि आना, एक है व्याधि हिलाना। तो आना - यह भावी है लेकिन स्थिति हिल जाना - यह बन्धनयुक्त की निशानी है। स्व-चिन्तन, ज्ञान-चिन्तन, शुभ-चिन्तक बनने का चिन्तन बदल शरीर की व्याधि का चिन्तन चलना - इससे मुक्त। क्योंकि ज्यादा प्रकृति का चिंतन, चिंता के रूप में बदल जाता है। तो इससे मुक्त होना - इसी को ही कर्मातीत स्थिति कहा जाता है। इन सभी बन्धनों को छोड़ना - यही कर्मातीत स्थिति की निशानी है। ब्रह्मा बाप ने इन सभी बन्धनों से मुक्त हो कर्मातीत स्थिति को प्राप्त किया। तो आज का दिवस ब्रह्मा बाप समान कर्मातीत बनने का दिवस है। आज के दिवस का महत्त्व समझा? अच्छा।

आज की सभा विशेष सेवाधारी अर्थात् पुण्य आत्मा बनने वालों की सभा है। गीता पाठशाला खोलना अर्थात् पुण्य आत्मा बनना। सबसे बड़े-ते-बड़ा पुण्य हर आत्मा को सदा के लिए अर्थात् अनेक जन्मों के लिए पापों से मुक्त करना - यही पुण्य है। नाम बहुत अच्छा है - गीता पाठशाला'। तो गीता पाठशाला वाले अर्थात् सदा स्वयं गीता का पाठ पढ़ने वाले और पढ़ाने वाले। गीता-ज्ञान का पहला पाठ - अशरीरी आत्मा बनो और अन्तिम पाठ - नष्टोमोहा, स्मृतिस्वरूप बनो। तो पहला पाठ है विधि और अन्तिम पाठ है विधि से सिद्धि। तो गीतापाठ शाला वाले हर समय यह पाठ पढ़ते हैं कि सिर्फ मुरली सुनाते हैं? क्योंकि सच्ची गीता-पाठशाला की विधि यह है - पहले स्वयं पढ़ना अर्थात् बनना फिर औरों को निमित्त बन पढ़ाना। तो सभी गीता-पाठशाला वाले इस विधि से सेवा करते हो? क्योंकि आप सभी इस विश्व के आगे परमात्म-पढ़ाई का सैम्पल हो। तो सैम्पल का महत्त्व होता है। सैम्पल अनेक आत्माओं को ऐसा बनने की प्रेरणा देता है। तो गीता-पाठशाला वालों के ऊपर बड़ी जिम्मेवारी है। अगर जरा भी सैम्पल बनने में कमी दिखाई तो अनेक आत्माओं के भाग्य बनाने के बजाए, भाग्य बनाने से वंचित करने के निमित्त भी बन जायेंगे क्योंकि देखने वाले, सुनने वाले साकार रूप में आप निमित्त आत्माओं को देखते हैं। बाप तो गुप्त हैं ना। इसलिए ऐसा श्रेष्ठ कर्म सदा करके दिखाओ जो आपके श्रेष्ठ कर्मों को देख, अनेक आत्माओं के श्रेष्ठ कर्मों के भाग्य की रेखा श्रेष्ठ बना सको। तो एक तो अपने को सदा सैम्पल समझना और दूसरा, सदा अपना सिम्बल याद रखना। गीता-पाठशाला वालों का सिम्बल कौन-सा है, जानते हो? - ‘कमल पुष्प'। बापदादा ने सुनाया है कि कमल बनो और अमल करो। कमल बनने का साधन ही है अमल करना। अगर अमल नहीं करते तो कमल नहीं बन सकते। इसलिएसैम्पल हैं' और कमलपुष्प' का सिम्बल सदा बुद्धि में रखो। सेवा कितनी भी वृद्धि को प्राप्त हो लेकिन सेवा करते न्यारे बन प्यारे बनना। सिर्फ प्यारे नहीं बनना, न्यारे बन प्यारे बनना। क्योंकि सेवा से प्यार अच्छी बात है लेकिन प्यार लगाव के रूप में बदल नहीं जाये। इसको कहते हैं - न्यारे बन प्यारा बनना। सेवा के निमित्त बने, यह तो बहुत अच्छा किया। पुण्य आत्मा का टाइटल तो मिल ही गया। इसलिए देखो, खास निमन्त्रण दिया है, क्योंकि पुण्य का काम किया है। अब आगे जो सिद्धि का पाठ पढ़ाया, तो सिद्धि की स्थिति से वृद्धि को प्राप्त करते रहना। समझा, आगे क्या करना है? अच्छा।

सभी विशेष एक बात की इन्तजार में हैं, वह कौन-सी? (रिजल्ट सुनायें) रिजल्ट आप सुनायेंगे या बाप सुनायेंगे? बापदादा ने क्या कहा था - रिजल्ट लेंगे या देंगे? ड्रामा प्लैन अनुसार जो चला, जैसे चला उसको अच्छा ही कहेंगे। लक्ष्य सबने अच्छा रखा, लक्षण यथा शक्ति कर्म में दिखाया। बहुतकाल का वरदान नम्बरवार धारण किया भी और अभी भी जो वरदान प्राप्त किया, वह वरदानीमूर्त बन बाप समान वरदान-दाता बनते रहना। अभी बापदादा क्या चाहते हैं? वरदान तो मिला, अब इस वर्ष बहुतकाल बन्धनमुक्त अर्थात् बाप समान कर्मातीत स्थिति का विशेष अभ्यास करते दुनिया को न्यारा और प्यारा-पन का अनुभव कराओ। कभी-कभी अनुभव करना - अभी इस विधि को बदल बहुतकाल के अनुभूतियों का प्रत्यक्ष बहुतकाल अचल, अडोल, निर्विघ्न, निर्बन्धन, निर्विकल्प, निर्विकर्म अर्थात् निराकारी, निर्विकारी, निरंहकारी - इसी स्थिति को दुनिया के आगे प्रत्यक्ष रूप में लाओ। इसको कहते हैं बाप समान बनना। समझा?

रिजल्ट में पहले स्वयं से स्वयं संतुष्ट, वह कितने रहे? क्योंकि एक है स्वयं की सन्तुष्टता, दूसरी है ब्राह्मण परिवार की सन्तुष्टता, तीसरी है बाप की सन्तुष्टता। तीनों की रिजल्ट में अभी और मार्क्स लेनी हैं। तो संतुष्ट बनो, सन्तुष्ट करो। बाप की सन्तुष्टमणि बन सदा चमकते रहो। बापदादा बच्चों का रिगार्ड रखते हैं, इसलिए गुप्त रिकार्ड बताते हैं। होवनहार हैं, इसीलिए बाप सदा सम्पन्नता की स्टेज देखते हैं। अच्छा।

सभी सन्तुष्टमणियाँ हो ना? वृद्धि को देख करके खुश रहो। आप सब तो इन्तजार में हो कि आबू रोड तक क्यू लगे। तो अभी तो सिर्फ हाल भरा है, फिर क्या करेंगे? फिर सोयेंगे या अखण्ड योग करेंगे? यह भी होना है। इसलिए थोड़े में ही राजी रहो। तीन पैर के बजाए एक पैर पृथ्वी भी मिले, तो भी राजी रहो। पहले ऐसे होता था, यह नहीं सोचो। परिवार के वृद्धि की खुशी मनाओ। आकाश और पृथ्वी तो खुटने वाले नहीं हैं ना। पहाड़ तो बहुत है। यह भी होना चाहिए, यह भी मिलना चाहिए - यह बड़ी बात बना देते हो। यह दादियां भी सोच में पड़ जाती हैं - क्या करें, कैसे करें? ऐसे भी दिन आयेंगे जो दिन में धूप में सो जायेंगे, रात में जागेंगे। वो लोग आग जला कर आस-पास बैठ जाते हैं गर्म हो करके, आप योग की अग्नि जलाकर के बैठ जायेंगे। पसन्द है ना या खटिया चाहिए? बैठने के लिए कुर्सा चाहिए? यह पहाड़ की पीठ कुर्सा बना देना। जब तक साधन हैं तो सुख लो, नहीं हैं तो पहाड़ी को कुर्सा बनाना। पीठ को आराम चाहिए ना, और तो कुछ नहीं। पाँच हजार आयेंगे तो कुर्सियाँ तो उठानी पड़ेंगी ना। और जब क्यू लगेगी तो खटिया भी छोड़नी पड़ेगी। एवररेडी रहना। अगर खटिया मिले तो भी हाँ-जी', धरनी मिले तो भी हाँ-जी'। ऐसे शुरू में बहुत अभ्यास कराये हैं। 15-15 दिन तक दवाखाना बन्द रहता। दमा के पेशेन्ट भी ढोढा (बाजरे की रोटी) और लस्सी पीते थे। लेकिन बीमार नहीं हुए, सब तन्दरूस्त हो गये। तो यह शुरू में अभ्यास करके दिखाया है, तो अन्त में भी होगा ना। नहीं तो, सोचो, दमा का पेशेन्ट और उसको लस्सी दो तो पहले ही घबरा जायेगा। लेकिन दुआ की दवा साथ में होती है, इसलिए मनोरंजन हो जाता है। पेपर नहीं लगता है। मुश्किल नहीं लगता। त्याग नहीं, एक्सकर्शन (Excursion-आमोद-प्रमोद, मनोरंजन) हो जाती है। तो सभी तैयार हो ना या प्रबन्ध करने वाले के पास टीचर्स लिस्ट ले जायेंगी? इसीलिए नहीं बुलाते हैं ना। समय आने पर यह सब साधन से भी परे साधना के सिद्धि रूप में अनुभव करेंगे। रूहानी मिलेट्री (सेना) भी हो ना। मिलेट्री का पार्ट भी तो बजाना है। अभी तो स्नेही परिवार है, घर है - यह भी अनुभव कर रहे हो। लेकिन समय पर रूहानी मिलेट्री बन जो समय आया उसको उसी स्नेह से पार करना - यह भी मिलेट्री की विशेषता है। अच्छा।

गुजरात को यह विशेष वरदान है जो एवररेडी रहते हैं। बहाना नहीं देते हैं - क्या करें, कैसे आयें, रिजर्वेशन नहीं मिलती - पहुँच जाते हैं। नजदीक का फायदा है। गुजरात को आज्ञाकारी बनने का विशेष आशीर्वाद है क्योंकि सेवा में भी हाँ-जी' करते हैं ना। मेहनत की सेवा सदा गुजरात को देते हैं ना। रोटी की सेवा कौन करता है? स्थान देने की, भागदौड़ करने की सेवा गुजरात करता है। बापदादा सब देखता है। ऐसे नहीं बापदादा को पता नहीं पड़ता। मेहनत करने वालों को विशेष महबूब की मुहब्बत प्राप्त होती है। नजदीक का भाग्य है और भाग्य को आगे बढ़ाने का तरीका अच्छा रखते हैं। भाग्य को बढ़ाना सबको नहीं आता है। कोई को भाग्य प्राप्त होता है लेकिन उतने तक ही रहता है, बढ़ाना नहीं आता। लेकिन गुजरात को भाग्य है और बढ़ाना भी आता है। इसलिए अपना भाग्य बढ़ा रहे हो - यह देख बापदादा भी खुश है। तो बाप की विशेष आशीर्वाद - यह भी एक भाग्य की निशानी है। समझा?

जो भी चारों ओर के स्नेही बच्चे पहुँचे हैं, बापदादा भी उन सभी देश, विदेश दोनों के स्नेही बच्चों को स्नेह का रिटर्न सदा अविनाशी स्नेही भव' का वरदान दे रहे हैं। स्नेह में जैसे दूर-दूर से दौड़कर पहुँचे हो, ऐसे ही जैसे स्थूल में दौड़ लगाई, समीप पहुँचे, सम्मुख पहुँचे, ऐसे पुरूषार्थ में भी विशेष उड़ती कला द्वारा बाप समान बनना अर्थात् सदा बाप के समीप रहना। जैसे यहाँ सामने पहुँचे हो, वैसे सदा उड़ती कला द्वारा बाप के समान समीप ही रहना। समझा, क्या करना है? यह स्नेह, दिल का स्नेह दिलाराम बाप के पास आपके पहुँचने के पहले ही पहुँच जाता है। चाहे सम्मुख हो, चाहे आज के दिन देश-विदेश में शरीर से दूर हैं लेकिन दूर होते हुए भी सभी बच्चे समीप से समीप दिलतख्तनशीन हैं। तो सबसे समीप का स्थान है दिल। तो विदेश वा देश में नहीं बैठे हैं लेकिन दिलतख्त पर बैठे हैं। तो समीप हो गये ना। सभी बच्चों की यादप्यार, उल्हनें, मीठी-मीठी रूह-रूहानें, सौगातें - सब बाप के पास पहुँच गई। बापदादा भी स्नेही बच्चों को सदा मेहनत से मुक्त हो मुहब्बत में मग्न रहो' - यह वरदान दे रहे हैं। तो सभी को रिटर्न मिल गया ना। अच्छा। मधुबन निवासी तो सदा ही भाग्य की महिमा गाते ही रहते हैं। और भी भाग्य की महिमा गाते और स्वयं भी अपने भाग्य की महिमा के गीत गाते रहते।

मधुबन निवासी अर्थात् सदा मधुरता द्वारा बाप के समीपता का साक्षात्कार कराने वाले। संकल्प में भी मधुरता, बोल में भी मधुरता, कर्म में भी मधुरता - यही बाप की समीपता है। इसलिए बाप भी रोज क्या कहते हैं और बच्चे भी रेसपाण्ड रोज क्या करते हैं, जानते हो? बाप भी कहते हैं - मीठे-मीठे बच्चो' और बच्चे भी रेसपाण्ड करते - मीठे-मीठे बाप'। तो यह रोज का मधुरता का बोल मधुर बना देता है। तो सदा मधुरता को प्रत्यक्ष करने वाले मधुबन निवासी श्रेष्ठ आत्मायें हैं। मधुरता ही महानता है। जिसमें मधुरता नहीं तो महानता नहीं अनुभव होती। फिर कभी सुनायेंगे कि संकल्प की मधुरता क्या है। समझा? अब तो सबसे मिल लिये। अच्छा। इसको ही कहते हैं - अलौकिक मिलन।

सर्व स्नेही आत्माओं को, सदा समीप रहने वाली आत्माओं को, सदा बन्धनमुक्त, कर्मातीत स्थिति में बहुतकाल अनुभव करने वाली विशेष आत्माओं को, सर्व दिलतख्तनशीन सन्तुष्टमणियों को बापदादा का अव्यक्ति स्थिति भव' के वरदान साथ यादप्यार और गुडनाइट और गुडमोर्निंग।

दादियों से - जैसे वृक्ष के पके हुए फल जो होते हैं, उनका बहुत महत्त्व होता है। जो वृक्ष के पके हुए होते, उनको अलग पकाना नहीं पड़ता। तो वह हुए वृक्ष के पके हुए और आप सभी हो वृक्षपति द्वारा पके हुए फल। जैसे वृक्ष के पके हुए फल का महत्त्व है, वैसे वृक्षपति द्वारा पके हुए फलों का भी महत्त्व होता है। उसी नजर से सभी आप सबको देखते हैं। क्योंकि बाप के, ब्रह्मा बाप के साथ-साथ आपका भी जन्म हुआ ना। तो एक ही राशि हो गई ना। राशि का प्रभाव होता है ना। जन्म दिन का राशि पर प्रभाव होता है। तो ब्रह्मा बाप के साथ-साथ जन्म हुआ, ब्रह्मा बाप के साथ सेवा के आरम्भ में निमित्त बने, अभी ब्रह्मा बाप समान कर्मातीत बनने के लिए एवर-रेडी हैं। बाप तो बच्चों को देख खुश होते हैं। मेरे योग्य बच्चे योगी भी हैं और योग्य भी हैं, इसलिए खुशी विशेष है। (बापदादा ने दादी जी को फूल दिया) इसमें आप कौन-सा पत्ता हो? सब पत्ते मिल करके एक हो गये ना। ऐसे ही समीप रहने वाले सभी पत्ते बूर के साथ रहते हैं। बूर यह बीज है। तो बीज के साथ रहने वाले पत्तों का भी महत्त्व है। अच्छा।

आप लोग तो जन्म से ही वरदानी हो। वरदानों से ही पले हो, मेहनत से नहीं। जिसकी पालना ही वरदानों से हुई है, उसके लिए और क्या वरदान रहा! चल रहे हैं। पल रहे हैं वरदानों से, इसलिए मेहनत से बचे हुए हैं। जो मेहनत करते हैं, उनकी चाल ही अलग होती है। आप लोगों ने क्या मेहनत की। कुछ सहन भी किया तो एक्सकर्शन (मनोरंजन) मनाया। पिकेटिंग में ठहरे भी, तो भी एक्सकर्शन ही मनाई, मजा ही देखते रहे। गालियाँ भी खाई तो हँसते-हँसते खाईं। अभी वह सब बातें क्या लगती हैं? चरित्र लगती हैं ना। अच्छा। यह जनक तो विदेही बन गई ना। विदेही जनक। अच्छा। वरदान तो सबको मिले हुए हैं। वरदानी को क्या वरदान देंगे? जैसे कहते हैं - सूर्य के आगे क्या दीपक जलायेंगे, तो वरदानी आत्माओं को क्या वरदान दें। अच्छा।

पर्सनल मुलाकात पाण्डव अर्थात् सदा बाप के साथी। पाण्डवों की विजय किसलिए हुई? वह बाप के साथ थे। तो ऐसे पाण्डव हो? या कभी अलग रहते हो, कभी साथ रहते हो? कभी माया के साथ तो नहीं चले जाते? क्योंकि माया के साथ रहेंगे तो बाप नहीं रह सकता, या माया होगी या बाप। सदा बाप के साथ रहने वाले पाण्डव ही विजयी हैं। शक्तियाँ भी सदा विजयी हैं। शिव और शक्ति कम्बाइण्ड हैं तो सदा विजयी हैं। शक्तियों का झण्डा सदा ऊँचा रहता है। यह झण्डा ही विजय की निशानी है। तो सदा झण्डा ऊँचा रहे। अच्छा।



21-01-87   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


स्व-राज्य अधिकारी ही विश्व-राज्य अधिकारी

राजाओं के राजा बनाने वाले भाग्यविधाता भगवान अपने बहुत काल के स्व-राज्य अधिकारी बनने के अभ्यासी बच्चों प्रति बोले

आज भाग्यविधाता बाप अपने सर्व श्रेष्ठ भाग्यवान बच्चों को देख रहे हैं। बापदादा के आगे अब भी सिर्फ यह संगठन नहीं है लेकिन चारों ओर के भाग्यवान बच्चे सामने हैं। चाहे देश-विदेश के किसी भी कोने में हैं लेकिन बेहद का बाप बेहद बच्चों को देख रहे हैं। यह साकार वतन के अन्दर स्थान की हद आ जाती है, लेकिन बेहद बाप के दृष्टि की सृष्टि बेहद है। बाप की दृष्टि में सर्व ब्राह्मण आत्माओं की सृष्टि समाई हुई है। तो दृष्टि की सृष्टि में सर्व सम्मुख हैं। सर्व भाग्यवान बच्चों को भाग्यविधाता भगवान देख-देख हर्षित होते हैं। जैसे बच्चे बाप को देख हर्षित होते हैं, बाप भी सर्व बच्चों को देख हर्षित होते हैं। बेहद के बाप को बच्चों को देख रूहानी नशा वा फखुर है कि एक-एक बच्चा इस विश्व के आगे विशेष आत्माओं की लिस्ट में है! चाहे 16,000 की माला का लास्ट मणका भी है, फिर भी, बाप के आगे आने से, बाप का बनने से विश्व के आगे विशेष आत्मा है। इसलिए, चाहे और कुछ भी ज्ञान के विस्तार को जान नहीं सकते लेकिन एक शब्द बाबा' दिल से माना और दिल से औरों को सुनाया तो विशेष आत्मा बन गये, दुनिया के आगे महान आत्मा बन गये, दुनिया के आगे महान आत्मा के स्वरूप में गायन-योग्य बन गये। इतना श्रेष्ठ और सहज भाग्य है, समझते हो? क्योंकि बाबा शब्द है चाबी'। किसकी? सर्व खज़ानों की, श्रेष्ठ भाग्य की। चाबी मिल गई तो भाग्य वा खज़ाना अवश्य प्राप्त होता ही है। तो सभी मातायें वा पाण्डव चाबी प्राप्त करने के अधिकारी बने हो? चाबी लगाने भी आती है या कभी लगती नहीं है? चाबी लगाने की विधि है - दिल से जानना और मानना। सिर्फ मुख से कहा तो चाबी होते भी लगेगी नहीं। दिल से कहा तो खज़ाने सदा हाजर हैं। अखुट खज़ाने हैं ना। अखुट खज़ाने होने के कारण जितने भी बच्चे हैं सब अधिकारी हैं। खुले खज़ाने हैं, भरपूर खज़ाने हैं। ऐसे नहीं है कि जो पीछे आये हैं, तो खज़ाने खत्म हो गये हों। जितने भी अब तक आये हो अर्थात् बाप के बने हो और भविष्य में भी जितने बनने वाले हैं, उन सबसे खज़ाने अनेकानेक गुणा ज्यादा हैं। इसलिए बापदादा हर बच्चे को गोल्डन चांस देते हैं कि जितना जिसको खज़ाना लेना है, वह खुली दिल से ले लो। दाता के पास कमी नहीं है, लेने वाले के हिम्मत वा पुरूषार्थ पर आधार है। ऐसा कोई बाप सारे कल्प में नहीं है जो इतने बच्चे हों और हर एक भाग्यवान हो! इसलिए सुनाया कि रूहानी बापदादा को रूहानी नशा है।

सभी की मधुबन में आने की, मिलने की आशा पूरी हुई। भक्ति-मार्ग की यात्रा से फिर भी मधुबन में आराम से बैठने की, रहने की जगह तो मिली है ना। मन्दिरों में तो खड़े-खड़े सिर्फ दर्शन करते हैं। यहाँ आराम से बैठे तो हो ना। वहाँ तो भागो-भागो', ‘चलो-चलो' कहते हैं और यहाँ आराम से बैठो, आराम से, याद की खुशी से मौज मनाओ। संगमयुग में खुशी मनाने के लिए आये हो। तो हर समय चलते-फिरते, खाते-पीते खुशी का खज़ाना जमा किया? कितना जमा किया है? इतना किया जो 21 जन्म आराम से खाते रहो? मधुबन विशेष सर्व खज़ाने जमा करने का स्थान है क्योंकि यहाँ एक बाप दूसरा न कोई' - यह साकार रूप में भी अनुभव करते हो। वहाँ बुद्धि द्वारा अनुभव करते हो लेकिन यहाँ प्रत्यक्ष साकार जीवन में भी सिवाए बाप और ब्राह्मण परिवार के और कोई नजर आता है क्या? एक ही लग्न, एक ही बातें, एक ही परिवार के और एकरस स्थिति। और कोई रस है ही नहीं। पढ़ना और पढ़ाई द्वारा शक्तिशाली बनना, मधुबन में यही काम है ना। कितने क्लास करते हो? तो यहाँ विशेष जमा करने का साधन मिलता है। इसलिए, सब भाग-भागकर पहुँच गये हैं। बापदादा सभी बच्चों को विशेष यही स्मृति दिलाते हैं कि सदा स्वराज्य अधिकारी स्थिति में आगे बढ़ते चलो। स्वराज्य अधिकारी - यही निशानी है विश्व-राज्य अधिकारी बनने की।

कई बच्चे रूह-रूहान करते हुए बाप से पूछते हैं कि हम भविष्य में क्या बनेंगे, राजा बनेंगे या प्रजा बनेंगे?' बापदादा बच्चों को रेसपाण्ड करते हैं कि अपने आपको एक दिन भी चेक करो तो मालूम पड़ जायेगा कि मैं राजा बनूँगा वा साहूकार बनूँगा वा प्रजा बनूँगा। पहले अमृतवेले से अपने मुख्य तीन कारोबार के अधिकारी, अपने सहयोगी, साथियों को चेक करो। वह कौन? 1. मन अर्थात् संकल्प शक्ति। 2. बुद्धि अर्थात् निर्णय शक्ति। 3. पिछले वा वर्तमान श्रेष्ठ संस्कार। यह तीनों विशेष कारोबारी हैं। जैसे आजकल के जमाने में राजा के साथ महामन्त्री वा विशेष मन्त्री होते हैं, उन्हीं के सहयोग से राज्य कारोबार चलती है। सतयुग में मन्त्री नहीं होंगे लेकिन समीप के सम्बन्धी, साथी होंगे। किसी भी रूप में, साथी समझो वा मन्त्री समझो। लेकिन यह चेक करो - यह तीनों स्व के अधिकार से चलते हैं? इन तीनों पर स्व का राज्य है वा इन्हों के अधिकार से आप चलते हो? मन आपको चलाता है या आप मन को चलाते हैं? जो चाहो, जब चाहो वैसा ही संकल्प कर सकते हो? जहाँ बुद्धि लगाने चाहो, वहाँ लगा सकते हो वा बुद्धि आप राजा को भटकाती है? संस्कार आपके वश हैं या आप संस्कारों के वश हो? राज्य अर्थात् अधिकार। राज्य-अधिकारी जिस शक्ति को जिस समय जो आर्डर करे, वह उसी विधिपूर्वक कार्य करते वा आप कहो एक बात, वह करें दूसरी बात? क्योंकि निरन्तर योगी अर्थात् स्वराज्य अधिकारी बनने का विशेष साधन ही मन और बुद्धि है। मन्त्र ही मन्मनाभव' का है। योग को बुद्धियोग कहते हैं। तो अगर यह विशेष आधार स्तम्भ अपने अधिकार में नहीं हैं वा कभी हैं, कभी नहीं है; अभी-अभी हैं, अभी-अभी नहीं हैं; तीनों में से एक भी कम अधिकार में है तो इससे ही चेक करो कि हम राजा बनेंगे या प्रजा बनेंगे? बहुतकाल के राज्य अधिकारी बनने के संस्कार बहुतकाल के भविष्य राज्य- अधिकारी बनायेंगे। अगर कभी अधिकारी, कभी वशीभूत हो जाते हो तो आधा कल्प अर्थात् पूरा राज्य-भाग्य का अधिकार प्राप्त नहीं कर सकेंगे। आधा समय के बाद त्रेतायुगी राजा बन सकते हो, सारा समय राज्य अधिकारी अर्थात् राज्य करने वाले रॉयल फैमिली के समीप सम्बन्ध में नहीं रह सकते। अगर वशीभूत बारबार होते हो तो संस्कार अधिकारी बनने के नहीं लेकिन राज्य अधिकारियों के राज्य में रहने वाले हैं। वह कौन हो गये? वह हुई प्रजा। तो समझा, राजा कौन बनेगा, प्रजा कौन बनेगा? अपने ही दर्पण में अपने तकदीर की सूरत को देखो। यह ज्ञान अर्थात् नॉलेज दर्पण है। तो सबके पास दर्पण है ना। तो अपनी सूरत देख सकते हो ना। अभी बहुत समय के अधिकारी बनने का अभ्यास करो। ऐसे नहीं अन्त में तो बन ही जायेंगे। अगर अन्त में बनेंगे तो अन्त का एक जन्म थोड़ा-सा राज्य कर लेंगे। लेकिन यह भी याद रखना कि अगर बहुत समय का अब से अभ्यास नहीं होगा वा आदि से अभ्यासी नहीं बने हो, आदि से अब तक यह विशेष कार्यकर्त्ता आपको अपने अधिकार में चलाते हैं वा डगमग स्थिति करते रहते हैं अर्थात् धोखा देते रहते हैं, दु:ख की लहर का अनुभव कराते रहते हैं तो अन्त में भी धोखा मिल जायेगा। धोखा अर्थात् दु:ख की लहर जरूर आयेगी। तो अन्त में भी पश्चाताप के दु:ख की लहर आयेगी। इसलिए बापदादा सभी बच्चों को फिर से स्मृति दिलाते हैं कि राजा बनो और अपने विशेष सहयोगी कर्मचारी वा राज्य कारोबारी साथियों को अपने अधिकार से चलाओ। समझा?

बापदादा यही देखते हैं कि कौन-कौन कितने स्वराज्य-अधिकारी बने हैं? अच्छा। तो सब क्या बनने चाहते हो? राजा बनने चाहते हो? तो अभी स्वराज्य- अधिकारी बने हो वा यही कहते हो बन रहे हैं, बन तो जायेंगे? ‘गे-गे' नहीं करना। जायेंगे', तो बाप भी कहेंगे - अच्छा, राज्य-भाग्य देने को भी देख लेंगे। सुनाया ना - बहुत समय का संस्कार अभी से चाहिए। वैसे तो बहुत-काल नहीं है, थोड़ा-काल है। लेकिन फिर भी इतने समय का भी अभ्यास नहीं होगा तो फिर लास्ट समय यह उल्हना नहीं देना - हमने तो समझा था, लास्ट में ही हो जायेंगे। इसलिए कहा गया है - कब नहीं, अब। कब हो जायेगा नहीं, अब होना ही है। बनना ही है। अपने ऊपर राज्य करो, अपने साथियों के ऊपर राज्य करना नहीं शुरू करना। जिसका स्व पर राज्य है, उसके आगे अभी भी स्नेह के कारण सर्व साथी भी चाहे लौकिक, चाहे अलौकिक सभी जी हजूर', ‘हाँ-जी' कहते हुए साथी बनकर के रहते हैं, स्नेही और साथी बन हाँ-जी' का पाठ प्रैक्टिकल में दिखाते हैं। जैसे प्रजा राजा की सहयोगी होती है, स्नेही होती है, ऐसे आपकी यह सर्व कर्म-इन्द्रियाँ, विशेष शक्तियाँ सदा आपके स्नेही, सहयोगी रहेंगी और इसका प्रभाव साकार में आपके सेवा के साथियों वा लौकिक सम्बन्धियों, साथियों में पड़ेगा। दैवी परिवार में अधिकारी बन आर्डर चलाना, यह नहीं चल सकता। स्वयं अपनी कर्म-इन्द्रियों को आर्डर में रखो तो स्वत: आपके आर्डर करने के पहले ही सर्व साथी आपके कार्य में सहयोगी बनेंगे। स्वयं सहयोगी बनेंगे, आर्डर करने की आवश्यकता नहीं। स्वयं अपने सहयोग की आफर करेंगे क्योंकि आप स्वराज्य-अधिकारी हैं। जैसे राजा अर्थात् दाता, तो दाता को कहना नहीं पड़ता अर्थात् मांगना नहीं पड़ता। तो ऐसे स्वराज्य-अधिकारी बनो। अच्छा। यह मेला भी ड्रामा में नूँध था। वाह ड्रामा' कर रहे हैं ना। दूसरे लोग कभी हाय ड्रामा' करेंगे, कभी वाह ड्रामा' और आप सदा क्या कहते हो? वाह ड्रामा! वाह! जब प्राप्ति होती हैं ना, तो प्राप्ति के आगे कोई मुश्किल नहीं लगता है। तो ऐसे ही, जब इतने श्रेष्ठ परिवार से मिलने की प्राप्ति हो रही है तो कोई मुश्किल, मुश्किल नहीं लगेगा। मुश्किल लगता है? खाने पर ठहरना पड़ता है। खाओ तो भी प्रभु के गुण गाओ और क्यू में ठहरो तो भी प्रभु के गुण गाओ। यही काम करना है ना। यह भी रिहर्सल हो रही है। अभी तो कुछ भी नहीं है। अभी तो और वृद्धि होगी ना। ऐसे अपने को मोल्ड करने की आदत डालो, जैसा समय वैसे अपने आपको चला सकें। तो पट (जमीन) में सोने की भी आदत पड़ गई ना। ऐसे तो नहीं - खटिया नहीं मिली तो नींद नहीं आई? टेन्ट में भी रहने की आदत पड़ गई ना। अच्छा लगा? ठण्डी तो नहीं लगती? अभी सारे आबू में टेन्ट लगायें? टेन्ट में सोना अच्छा लगा या कमरा चाहिए? याद है, पहले-पहले जब पाकिस्तान में थे तो महारथियों को ही पट में सुलाते थे? जो नामीग्रामी महारथी होते थे, उन्हों को हाल में पट में टिफुटी (तीन फुट) देकर सुलाते थे। और जब ब्राह्मण परिवार की वृद्धि हुई तो भी कहाँ से शुरू की? टेन्ट से ही शुरू की ना। पहले-पहले जो निकले, वह भी टेन्ट में ही रहे। टेन्ट में रहने वाले सेन्ट (महात्मा) हो गये। साकार पार्ट के होते भी टेन्ट में ही रहे तो आप लोग भी अनुभव करेंगे ना। तो सभी हर रीति से खुश हैं? अच्छा, फिर और 10,000 मंगा के टेन्ट देंगे, प्रबन्ध करेंगे। सब नहाने के प्रबन्ध का सोचते हो, वह भी हो जायेगा। याद है, जब यह हाल बना था तो सबने क्या कहा था? इतने नहाने के स्थान क्या करेंगे? इसी लक्ष्य से यह बनाया गया, अभी कम हो गया ना। जितना बनायेंगे उतना कम तो होना ही है क्योंकि आिखर तो बेहद में ही जाना है। अच्छा।

सब तरफ के बच्चे पहुँच गये हैं। तो यह भी बेहद के हाल का शृंगार हो गया है। नीचे भी बैठे हैं। (भिन्न-भिन्न स्थानों पर मुरली सुन रहे हैं) यह वृद्धि होना भी तो खुशनसीबी की निशानी है। वृद्धि तो हुई लेकिन विधिपूर्वक चलना। ऐसे नहीं, यहाँ मधुबन में तो आ गये, बाबा को भी देखा, मधुबन भी देखा, अभी जैसे चाहें वैसे चलें। ऐसे नहीं करना। क्योंकि कई बच्चे ऐसे करते हैं आजब तक मधुबन में आने को नहीं मिलता है, तब तक पक्के रहते हैं, फिर जब मधुबन देख लिया तो थोड़े अलबेले हो जाते हैं। तो अलबेले नहीं बनना। ब्राह्मण अर्थात् ब्राह्मण जीवन है, तो जीवन तो सदा जब तक है, तब तक है। जीवन बनाई है ना। जीवन बनाई है या थोड़े समय के लिए ब्राह्मण बनें हैं? सदा अपने ब्राह्मण जीवन की विशेषतायें साथ रखना क्योंकि इसी विशेषताओं से वर्तमान भी श्रेष्ठ है और भविष्य भी श्रेष्ठ है। अच्छा। बाकी क्या रहा? टोली। (वरदान) वरदान तो वरदाता के बच्चे ही बन गये। जो हैं ही वरदाता के बच्चे, उन्हों को हर कदम में वरदाता से वरदान स्वत: ही मिलता रहता है। वरदान ही आपकी पालना है। वरदानों की पालना से ही पल रहे हैं। नहीं तो, सोचो, इतनी श्रेष्ठ प्राप्ति और मेहनत क्या की। बिना मेहनत के जो प्राप्ति होती है, उसको ही वरदान' कहा जाता है। तो मेहनत क्या की और प्राप्ति कितनी श्रेष्ठ! जन्म-जन्म प्राप्ति के अधिकारी बन गये। तो वरदान हर कदम में वरदाता का मिल रहा है और सदा ही मिलता रहेगा। दृष्टि से, बोल से, सम्बन्ध से वरदान ही वरदान है। अच्छा।

अभी तो गोल्डन जुबली मनाने की तैयारी कर रहे हो। गोल्डन जुबली अर्थात् सदा गोल्डन स्थिति में स्थिति रहने की जुबली मना रहे हो। सदा रीयल गोल्ड, जरा भी अलाएं (खाद) मिक्स नहीं। इसको कहते हैं गोल्डन जुबली'। तो दुनिया के आगे सोने के स्थिति में स्थित होने वाले सच्चे सोने प्रत्यक्ष हों, इसके लिए यह सब सेवा के साधन बना रहे हैं। क्योंकि आपकी गोल्डन स्थिति गोल्डन एज को लायेगी, स्वर्ण संसार को लायेगी जिसकी इच्छा सबको है कि अभी कुछ दुनिया बदलनी चाहिए। तो स्व-परिवर्तन से विश्व-परिवर्तन करने वाली विशेष आत्मायें हो। आप सबको देख आत्माओं को यह निश्चय हो, शुभ उम्मीदें हों कि सचमुच, स्वर्ण दुनिया आई कि आई! सैम्पल को देख करके निश्चय होता है नाहाँ, अच्छी चीज़ है। स्वर्ण संसार के सैम्पल आप हो। स्वर्ण स्थिति वाले हो। तो आप सैम्पल को देख उन्हों को निश्चय हो कि हाँ, जब सैम्पल तैयार हो तो अवश्य ऐसा ही संसार आया कि आया।' ऐसी सेवा गोल्डन जुबली में करेंगे ना। ना-उम्मीद को उम्मीद देने वाले बनना। अच्छा।

सर्व स्वराज्य-अधिकारी, सर्व बहुतकाल के अधिकार प्राप्त करने के अभ्यासी आत्माओं को, सर्व विश्व के विशेष आत्माओं को, सर्व वरदाता के वरदानों से पलने वाले श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।

पार्टियों के साथ पर्सनल मुलाकात

हम हर कल्प के अधिकारी आत्मायें हैं, सिर्फ अब के नहीं, अनेक बार के अधिकारी हैं - यह खुशी रहती है? आधा कल्प बाप के आगे भिखारी बन मांगते रहे लेकिन बाप ने अब अपना बना लिया, बच्चे बन गये। बच्चा अर्थात् अधिकारी। अधिकारी समझने से बाप का जो भी वर्सा है, वह स्वत: याद रहता है। कितना बड़ा खज़ाना है! इतना खज़ाना है जो खाते खुटता नहीं है और जितना आैंरों को बाँटो उतना बढ़ता जाता है! ऐसा अनुभव है? परमात्म-वर्से के अधिकारी हैं - इससे बड़ा नशा और कोई हो सकता है? तो यह अविनाशी गीत सदा गाते रहो और खुशी में नाचते रहो कि हम परमात्मा के बच्चे परमात्म- वर्से के अधिकारी हैं। यह गीत गाते रहो तो माया सामने आ नहीं सकती, मायाजीत बन जायेंगे। यही विशेष वरदान याद रखना कि परमात्म-वर्से के अधिकारी आत्मायें हैं। इसी अधिकार से भविष्य में विश्व के राज्य का अधिकार स्वत: मिलता है। शक्तियाँ सदा खुश रहने वाली हो ना? कभी कोई दु:ख की लहर तो नहीं आती? दु:ख की दुनिया छोड़ दी, सुख के संसार में पहुँच गये। दु:ख के संसार में सिर्फ सेवा के लिए रहते, बाकी सुख के संसार में। बाप के अधिकार से सब सहज हो जाता है।

सदैव अपने को महावीर अर्थात् महान आत्मा अनुभव करते हो? महान आत्मा सदा जो संकल्प करेंगे, बोल बोलेंगे वो साधारण नहीं होगा, महान होगा। क्योंकि ऊँचे-ते-ऊँचे बाप के बच्चे भी ऊँचे, महान हुए ना। जैसे कोई आजकल की दुनिया में वी.आई.पी. का बच्चा होगा तो वह अपने को भी वी.आई.पी. समझेगा ना। तो आप से ऊँचा तो कोई है ही नहीं। तो ऐसे, ऊँचे-तो-ऊँचे बाप की सन्तान ऊँचे-ते-ऊँची आत्मायें हैं - यह स्मृति सदा शक्तिशाली बनाती है। ऊँचा बाप, ऊँचे हम, ऊँचा कार्य - ऐसी स्मृति में रहने वाले सदा बाप समान बन जाते हैं। तो बाप समान बने हो? बाप हर बच्चे को ऊँचा ही बनाते हैं। कोई ऊँचा, कोई नीचा नहीं, सब ऊँचे-ते-ऊँचे। अगर अपनी कमज़ोरी से कोई नीचे की स्थिति में रहता है तो उसकी कमज़ोरी है। बाकी बाप सबको ऊँचा बनाता है। सारे विश्व के आगे श्रेष्ठ और ऊँची आत्मायें आपके सिवाए कोई नहीं हैं, इसलिए तो आप आत्माओं का ही गायन और पूजन होता है। अभी तक गायन, पूजन हो रहा है। कभी भी कोई मन्दिर में जायेंगे तो क्या समझेंगे? कोई भी मन्दिर में मूर्ति देखकर क्या समझते हो? यह हमारी ही मूर्ति है। सिर्फ बाप नहीं पूजा जाता, बाप के साथ आप भी पूजे जाते हो। ऐसे महान बन गये! एक बार नहीं, अनेक बार बने हैं आजहाँ यह नशा होगा वहाँ माया की आकर्षण अपने तरफ आकर्षित नहीं कर सकेगी, सदा न्यारे होंगे। सभी अपने आप से सन्तुष्ट हो? जैसे बाप सुनाते हैं, वैसे ही अनुभव करते हुए आगे बढ़ना - यह है अपने आप से सन्तुष्ट रहना। ‘‘ऊँचे-ते-ऊँचे'' - यही विशेष वरदान याद रखना। याद करना सहज है या मुश्किल लगता है? सहज स्मृति स्वत: आती रहेगी। माया कहाँ रोक नहीं सकेगी, सदा आगे बढ़ते रहेंगे।

सदा अपने को हर कदम में पद्मों की कमाई जमा करने वाले पद्मापद्म भाग्यवान समझते हो? जो भी कदम याद में उठाते हो, तो एक सेकण्ड की याद इतनी शक्तिशाली है जो एक सेकण्ड की याद पद्मों की कमाई जमा करने वाली है। अगर साधारण कदम उठाते हैं, याद में नहीं उठाते तो कमाई नहीं है। याद में रहकर कदम उठाने से पद्मों की कमाई है। और हर कदम में पद्म तो कितने पद्म हो गये! इसलिए पद्मापद्म भाग्यवान कहा जाता है। पद्म तो आपके आगे कुछ भी नहीं है। लेकिन इस दुनिया के हिसाब से कहने में आता है। तो जब किसी की अच्छी कमाई होती है तो उसके चेहरे की फलक ही और हो जाती है। गरीब का चेहरा भी देखो और राजकुमार का चेहरा भी देखो, कितना फर्क होगा! उसके शक्ल की झलक-फलक और गरीब के चेहरे की झलक- फलक में रात-दिन का फर्क होगा। आप तो राजाओं का भी राजा बनाने वाले बाप के डायरेक्ट बच्चे हो। तो कितनी झलक-फलक है! शक्ल में वह पद्मों की कमाई का नशा दिखाई देता है या गुप्त रहता है? रूहानी नशा, रूहानी खुशी जो कोई भी देखे तो अनुभव करे कि यह न्यारे लोग हैं, साधारण नहीं हैं। तो सदा यही वरदान स्मृति में रखना कि हम अनेक बार पद्मापद्मपति बने हैं। अच्छा।



23-01-87   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


सफलता के सितारे की विशेषताएं

ज्ञानसूर्य, ज्ञान-चन्द्रमा बापदादा अपने नये-सो-कल्प पुराने बच्चों के सम्मुख परमात्मा तारामण्डल का हाल सुनाते हुए बोले

आज ज्ञान-सूर्य, ज्ञान-चद्रमा अपने चमकते हुए तारामण्डल को देख रहे हैं। वह आकाश के सितारे हैं और यह धरती के सितारे हैं। वह प्रकृति की सत्ता है, यह परमात्म-सितारे हैं, रूहानी सितारे हैं। वह सितारे भी रात को ही प्रगट होते हैं, यह रूहानी सितारे, ज्ञान-सितारे, चमकते हुए सितारे भी ब्रह्मा की रात में ही प्रगट होते हैं। वह सितारे रात को दिन नहीं बनाते, सिर्फ सूर्य रात को दिन बनाता है। लेकिन आप सितारे ज्ञान-सूर्य, ज्ञान-चन्द्रमा के साथ साथी बन रात को दिन बनाते हो। जैसे प्रकृति के तारामण्डल में अनेक प्रकार के सितारे चमकते हुए दिखाई देते हैं, वैसे परमात्म-तारामण्डल में भी भिन्न-भिन्न प्रकार के सितारे चमकते हुए दिखाई दे रहे हैं। कोई समीप के सितारे हैं और कोई दूर के सितारे भी हैं। कोई सफलता के सितारे हैं तो कोई उम्मीदवार सितारे हैं। कोई एक स्थिति वाले हैं और कोई स्थिति बदलने वाले हैं। वह स्थान बदलते, यहाँ स्थिति बदलते। जैसे प्रकृति के तारामण्डल में पुच्छल तारे भी हैं। अर्थात् हर बात में, हर कार्य में ‘‘यह क्यों'', ‘‘यह क्या'' - यह पूछने की पूँछ वाले अर्थात् क्वेश्चन र्मा करने वाले पुच्छल तारे हैं। जैसे प्रकृति के पुच्छल तारे का प्रभाव पृथ्वी पर भारी माना जाता है, ऐसे बार-बार पूछने वाले इस ब्राह्मण परिवार में वायुमण्डल भारी कर देते हैं। सभी अनुभवी हो। जब स्वयं के प्रति भी संकल्प में क्या' औरक्यों' का पूँछ लग जाता है तो मन और बुद्धि की स्थिति स्वयं प्रति भारी बन जाती है। साथ-साथ अगर किसी भी संगठन बीच वा सेवा के कार्य प्रति क्यों', ‘क्या', ‘ऐसा', ‘कैसा',.... - यह क्वेश्चन र्मा की क्यू का पूँछ लग जाता है तो संगठन का वातावरण वा सेवा क्षेत्र का वातावरण फौरन भारी बन जाता है। तो स्वयं प्रति, संगठन वा सेवा प्रति प्रभाव पड़ जाता है ना। साथ-साथ कई प्रकृति के सितारे ऊपर से नीचे गिरते भी हैं, तो क्या बन जाते हैं? पत्थर। परमात्म-सितारों में भी जब निश्चय, सम्बन्ध वा स्व-धारणा की ऊँची स्थिति से नीचे आ जाते हैं तो पत्थर बुद्धि बन जाते हैं। कैसे पत्थर बुद्धि बन जाते? जैसे पत्थर को कितना भी पानी डालो लेकिन पत्थर पिघलेगा नहीं, रूप बदल जाता है लेकिन पिघलेगा नहीं। पत्थर को कुछ भी धारण नहीं होता है। ऐसे में जब पत्थर बुद्धि बन जाते तो उस समय कितना भी, कोई भी अच्छी बात महसूस कराओ तो महसूस नहीं करते। कितना भी ज्ञान का पानी डालो लेकिन बदलेंगे नहीं। बातें बदलते रहेंगे लेकिन स्वयं नहीं बदलेंगे। इसको कहते हैं पत्थर बुद्धि बन जाते हैं। तो अपने आप से पूछो - इस परमात्म-तारामण्डल के सितारों बीच, मैं कौन-सा सितारा हूँ?

सबसे श्रेष्ठ सितारा है सफलता का सितारा। सफलता का सितारा अर्थात् जो सदा स्वयं की प्रगति में सफलता को अनुभव करता रहे अर्थात् अपने पुरूषार्थ की विधि में सदैव सहज सफलता अनुभव करता रहे। सफलता के सितारे संकल्प में भी स्वयं के पुरूषार्थ प्रति भी कभी पता नहीं यह होगा या नहीं होगा', ‘कर सकेंगे या नहीं कर सकेंगे' - यह असफलता का अंश-मात्र नहीं होगा। जैसे स्लोगन है - सफलता जन्म-सिद्ध अधिकार है, ऐसे वह स्वयं प्रति सदा सफलता अधिकार के रूप में अनुभव करेंगे। अधिकार की परिभाषा ही है बिना मेहनत, बिना मांगने से प्राप्त हो। सहज और स्वत: प्राप्त हो - इसको कहते हैं अधिकार। ऐसे ही एक - स्वयं प्रति सफलता, दूसरा - अपने सम्बन्ध-सम्पर्क में आते हुए, चाहे ब्राह्मण आत्माओं के, चाहे लौकिक परिवार वा लौकिक कार्य के सम्बन्ध में, सर्व सम्बन्ध-सम्पर्क में, सम्बन्ध में आते, सम्पर्क में आते कितनी भी मुश्किल बात को सफलता के अधिकार के आधार से सहज अनुभव करेंगे अर्थात् सफलता की प्रगति में आगे बढ़ते जायेंगे। हाँ, समय लग सकता है लेकिन सफलता का अधिकार प्राप्त होकर ही रहेगा। ऐसे, स्थूल कार्य वा अलौकिक सेवा का कार्य अर्थात् दोनों क्षेत्र के कर्म में सफलता के निश्चयबुद्धि विजयी रहेंगे। कहाँ-कहाँ परिस्थिति का सामना भी करना पड़ेगा, व्यक्तियों द्वारा सहन भी करना पड़ेगा लेकिन वह सहन करना उन्नति का रास्ता बन जायेगा। परिस्थिति को सामना करते, परिस्थिति, स्वस्थिति के उड़ती कला का साधन बन जायेगी, अर्थात् हर बात में सफलता स्वत:, सहज और अवश्य प्राप्त होगी।

सफलता का सितारा, उसकी विशेष निशानी है - कभी भी स्व की सफलता का अभिमान नहीं होगा, वर्णन नहीं करेगा, अपने गीत नहीं गायेगा लेकिन जितनी सफलता उतना नम्रचित, निर्मान, निर्मल स्वभाव होगा। और (दूसरे) उसके गीत गायेंगे लेकिन वह स्वयं सदा बाप के गुण गायेगा। सफलता का सितारा कभी भी क्वेश्चन र्मा नहीं करेगा। सदा बिन्दी रूप में स्थित रह हर कार्य में औरों को भी ड्रामा की बिन्दी' स्मृति में दिलाये, विघ्नविनाशक बनाये, समर्थ बनाये सफलता की मंजल के समीप लाता रहेगा। सफलता का सितारा कभी भी हद की सफलता के प्राप्ति को देख प्राप्ति की स्थिति में बहुत खुशी और परिस्थिति आई वा प्राप्ति कुछ कम हुई तो खुशी भी कम हो जाये - ऐसी स्थिति परिवर्तन करने वाले नहीं होंगे। सदा बेहद के सफलतामूर्त होंगे। एकरस, एक श्रेष्ठ स्थिति पर स्थित होंगे। चाहे बाहर की परिस्थिति वा कार्य में बाहर के रूप से औरों को असफलता अनुभव हो लेकिन सफलता का सितारा, असफलता की स्थिति के प्रभाव में न आये, सफलता के स्वस्थिति से असफलता को भी परिवर्तन कर लेगा। यह है सफलता के सितारे की विशेषतायें। अभी अपने से पूछो - मैं कौन हूँ? सिर्फ उम्मीदवार हूँ वा सफलता स्वरूप हूँ?' उम्मीदवार बनना भी अच्छा है, लेकिन सिर्फ उम्मीदवार बन चलना, प्रत्यक्ष सफलता का अनुभव न करना, इसमें कभी शक्तिशाली, कभी दिलशिकस्त.....यह नीचे-ऊपर होने का ज्यादा अनुभव करते हैं। जैसे कोई भी बात में अगर ज्यादा नीचे-ऊपर होता रहे तो थकावट हो जाती है ना। तो इसमें भी चलते-चलते थकावट का अनुभव दिलशिकस्त बना देता है। तो नाउम्मीदवार से उम्मीदवार अच्छा है, लेकिन सफलता स्वरूप का अनुभव करने वाला सदा श्रेष्ठ है। अच्छा। सुना तारामण्डल की कहानी? सिर्फ मधुबन का हाल तारामण्डल नहीं है, बेहद ब्राह्मण संसार तारामण्डल है। अच्छा।

सभी आने वाले नये बच्चे, नये भी हैं और पुराने भी बहुत हैं। क्योंकि अनेक कल्प के हो, तो अति पुराने भी हो। तो नये बच्चों का नया उमंग-उत्साह मिलन मनाने का ड्रामा की नूँध प्रमाण पूरा हुआ। बहुत उमंग रहा ना। जायें-जायें...इतना उमंग रहा जो डायरेक्शन भी नहीं सुना। मिलन की मस्ती में मस्त थे ना! कितना कहा - कम आओ, कम आओ, तो कोई ने सुना? बापदादा ड्रामा के हर दृश्य को देख हर्षित होते हैं कि इतने सब बच्चों को आना ही था, इसलिए आ गये हैं। सब सहज मिल रहा है ना? मुश्किल तो नहीं है ना? यह भी ड्रामा अनुसार, समय प्रमाण रिहर्सल हो रही है। सभी खुश हो ना? मुश्किल को सहज बनाने वाले हो ना? हर कार्य में सहयोग देना, जो डायरेक्शन मिलते हैं उसमें सहयोगी बनना अर्थात् सहज बनाना। अगर सहयोगी बनते हैं तो 5000 भी समा जाते हैं और सहयोगी नहीं बनते अर्थात् विधिपूर्वक नहीं चलते तो 500 भी समाना मुश्किल है। इसलिए, दादियों को ऐसा अपना रिकार्ड दिखाकर जाना जो सबके दिल से यही निकले कि 5000, पाँच सौ के बराबर समाए हुए थे। इसको कहते हैं मुश्किल को सहज करना'। तो सबने अपना रिकार्ड बढ़िया भरा है ना? सार्टिफकेट (प्रमाण-पत्र) अच्छा मिल रहा है। ऐसे ही सदा खुश रहना और खुश करना, तो सदा ही तालियाँ बजाते रहेंगे। अच्छा रिकार्ड है, इसलिए देखो, ड्रामा अनुसार दो बार मिलना हुआ है! यह नयों की खातिरी ड्रामा अनुसार हो गई है। अच्छा।

सदा रूहानी सफलता के श्रेष्ठ सितारों को, सदा एकरस स्थिति द्वारा विश्व को रोशन करने वाले, ज्ञान-सूर्य, ज्ञान-चन्द्रमा के सदा साथ रहने वाले, सदा अधिकार के निश्चय से नशे और नम्रचित स्थिति में रहने वाले, ऐसे परमात्म-तारामण्डल के सर्व चमकते हुए सितारों को ज्ञान-सूर्य, ज्ञान-चन्द्रमा बापदादा की रूहानी स्नेह सम्पन्न यादप्यार और नमस्ते।

पार्टियों से मुलाकाल

(1) अपने को सदा निर्विघ्न, विजयी रत्न समझते हो? विघ्न आना, यह तो अच्छी बात है लेकिन विघ्न हार न खिलायें। विघ्नों का आना अर्थात् सदा के लिए मजबूत बनाना। विघ्न को भी एक मनोरंजन का खेल समझ पार करना -इसको कहते हैं निर्विघ्न विजयी'। तो विघ्नों से घबराते तो नहीं? जब बाप का साथ है तो घबराने की कोई बात ही नहीं। अकेला कोई होता है तो घबराता है। लेकिन अगर कोई साथ होता है तो घबराते नहीं, बहादुर बन जाते हैं। तो जहाँ बाप का साथ है, वहाँ विघ्न घबरायेगा या आप घबरायेंगे? सर्वशक्तिवान के आगे विघ्न क्या है? कुछ भी नहीं। इसलिए विघ्न खेल लगता, मुश्किल नहीं लगता। विघ्न अनुभवी और शक्तिशाली बना देता है। जो सदा बाप की याद और सेवा में लगे हुए हैं, बिजी हैं, वह निर्विघ्न रहते हैं। अगर बुद्धि बिजी नहीं रहती तो विघ्न वा माया आती है। अगर बिजी रही तो माया भी किनारा कर लेगी। आयेगी नहीं, चली जायेगी। माया भी जानती है कि यह मेरा साथी नहीं है, अभी परमात्मा का साथी है। तो किनारा कर लेगी। अनगिनत बार विजयी बने हो, इसलिए विजय प्राप्त करना बड़ी बात नहीं है। जो काम अनेक बार किया हुआ होता है, वह सहज लगता है। तो अनेक बार के विजयी। सदा राजी रहने वाले हो ना? मातायें सदा खुश रहती हो? कभी रोती तो नहीं? कभी कोई परिस्थिति ऐसी आ जाये तो रोयेंगी? बहादुर हो। पाण्डव मन में तो नहीं रोते? यह क्यों हुआ', ‘क्या हुआ' - ऐसा रोना तो नहीं रोते? बाप का बनकर भी अगर सदा खुश नहीं रहेंगे तो कब रहेंगे? बाप का बनना माना सदा खुशी में रहना। न दु:ख है, न दु:ख में रोयेंगे। सब दु:ख दूर हो गये। तो अपने इस वरदान को सदा याद रखना। अच्छा।

(2) अपने को इस रूहानी बगीचे के रूहानी रूहे गुलाब समझते हो? जैसे सभी फूलों में गुलाब का पुष्प खुशबू के कारण प्यारा लगता है। तो वह है गुलाब और आप सभी हैं रूहे गुलाब। रूहे गुलाब अर्थात् जिसमें सदा रूहानी खुशबू हो। रूहानी खुशबू वाले जहाँ भी देखेंगे, जिसको भी देखेंगे तो रूह को देखेंगे, शरीर को नहीं देखेंगे। स्वयं भी सदा रूहानी स्थिति में रहेंगे और दूसरों की भी रूह को देखेंगे। इसको कहते हैं - रूहानी गुलाब'। यह बाप का बगीचा है। जैसे बाप उँचे-ते-ऊँचा है, ऐसे बगीचा भी ऊँचे-ते-ऊँचा है जिस बगीचे का विशेष शृंगार रूहे गुलाब आप सभी हो। और यह रूहानी खुशबू अनेक आत्माओं का कल्याण करने वाली है।

आज विश्व में जो भी मुश्किलातें हैं, उसका कारण ही है कि एक-दो को रूह नहीं देखते। देह-अभिमान के कारण सब समस्यायें हैं। देही-अभिमानी बन जायें तो सब समस्यायें समाप्त हो जायें। तो आप रूहानी गुलाब विश्व पर रूहानी खुशबू फैलाने के निमित्त हो, ऐसे सदा नशा रहता है? कभी एक, कभी दूसरा नहीं। सदा एकरस स्थिति में शक्ति होती है। स्थिति बदलने से शक्ति कम हो जाती है। सदा बाप की याद में रह जहाँ भी सेवा का साधन है, चाँस लेकर आगे बढ़ते जाओ। परमात्म-बगीचे के रूहानी गुलाब समझ रूहानी खुशबू फैलाते रहो। कितनी मीठी रूहानी खुशबू है जिस खुशबू को सब चाहते हैं! यह रूहानी खुशबू अनेक आत्माओं के साथ-साथ अपना भी कल्याण कर लेती है। बापदादा देखते हैं कि कितनी रूहानी खुशबू कहाँ-कहाँ तक फैलाते रहते हैं? जरा भी कहाँ देह-अभिमान मिक्स हुआ तो रूहानी खुशबू ओरिजनल नहीं होगी। सदा इस रूहानी खुशबू से औरों को भी खुशबूदार बनाते चलो। सदा अचल हो? कोई भी हलचल हिलाती तो नहीं? कुछ भी होता है, सुनते, देखते थोड़ा भी हलचल में तो नहीं आ जाते? जब नथिंग न्यू' है तो हलचल में क्यों आयें? कोई नई बात हो तो हलचल हो। यह क्या', ‘क्यों' अनेक कल्प हुई है - इसको कहते हैं ड्रामा के ऊपर निश्चयबुद्धि'। सर्वशक्तिवान के साथी हैं, इसलिए बेपरवाह बादशाह हैं। सब फिकर बाप को दे दिये तो स्वयं सदा बेफिकर बादशाह। सदा रूहानी खुशबू फैलाते रहो तो सब विघ्न खत्म हो जायेंगे।

(3) हर कर्म करते कर्मयोगी आत्मा' अनुभव करते हो? कर्म और योग सदा साथ-साथ रहता है? कर्मयोगी हर कर्म में स्वत: ही सफलता को प्राप्त करता है। कर्मयोगी आत्मा कर्म का प्रत्यक्षफल उसी समय भी अनुभव करता और भविष्य भी जमा करता, तो डबल फायदा हो गया ना। ऐसे डबल फल लेने वाली आत्मायें हो। कर्मयोगी आत्मा कभी कर्म के बन्धन में नहीं फँसेंगी। सदा न्यारे और सदा बाप के प्यारे। कर्म के बन्धन से मुक्त - इसको ही कर्मातीत' कहते हैं। कर्मातीत का अर्थ यह नहीं है कि कर्म से अतीत हो जाओ। कर्म से न्यारे नहीं, कर्म के बन्धन में फँसने से न्यारे, इसको कहते हैं - कर्मातीत। कर्मयोगी स्थिति कर्मातीत स्थिति का अनुभव कराती है। तो किसी बंधन में बंधने वाले तो नहीं हो ना? औरों को भी बंधन से छुड़ाने वाले। जैसे बाप ने छुड़ाया, ऐसे बच्चों का भी काम है छुड़ाना, स्वयं कैसे बंधन में बंधेंगे? कर्मयोगी स्थिति अति प्यारी और न्यारी है। इससे कोई कितना भी बड़ा कार्य हो लेकिन ऐसे लगेगा जैसे काम नहीं कर रहे हैं लेकिन खेल कर रहे हैं। चाहे कितना भी मेहनत का, सख्त खेल हो, फिर भी खेल में मजा आयेगा ना। जब मल्लयुद्ध करते हैं तो कितनी मेहनत करते हैं। लेकिन जब खेल समझकर करते हैं तो हँसते-हँसते करते हैं। मेहनत नहीं लगती, मनोरंजन लगता है। तो कर्मयोगी के लिए कैसा भी कार्य हो लेकिन मनोरंजन है, संकल्प में भी मुश्किल का अनुभव नहीं होगा। तो कर्मयोगी ग्रुप अपने कर्म से अनेकों का कर्म श्रेष्ठ बनाने वाले, इसी में बिजी रहो। कर्म और याद कम्बाइण्ड, अलग हो नहीं सकते।

(4) सदा बाप की अति स्नेही, सहयोगी आत्मायें अनुभव करते हो? स्नेही की निशानी क्या होती है? जिससे स्नेह होता है उसके हर कार्य में सहयोगी जरूर होंगे। अति स्नेही आत्मा की निशानी सदा बाप के श्रेष्ठ कार्य में सहयोगी होगी। जितना-जितना सहयोगी, उतना सहज योगी क्योंकि बाप के सहयोगी हैं ना। दिन-रात यही लग्न रहे - बाबा और सेवा, इसके सिवाए कुछ है ही नहीं। अगर लौकिक कार्य भी करते हो तो बाप की श्रीमत प्रमाण करते हो, इसलिए वह भी बाप का कार्य है। लौकिक में भी अलौकिकता ही अनुभव करेंगे, कभी लौकिक कार्य समझ न थकेंगे, न फँसेंगे, न्यारे रहेंगे। तो ऐसे स्नेही और सहयोगी आत्मायें हो। न्यारे होकर कर्म करेंगे तो बहुत अच्छा कर्म होगा। कर्म में फँसकर करने से अच्छा नहीं होता, सफलता भी नहीं होती, मेहनत भी बहुत और प्राप्ति भी नहीं। इसलिए सदा बाप के स्नेह में समाई हुई सहयोगी आत्मायें हैं। सहयोगी आत्मा कभी भी माया की योगी हो नहीं सकती, उसका माया से किनारा हो जायेगा। हर संकल्प में बाबा' और सेवा', तो जो नींद भी करेंगे, उसमें भी बड़ा आराम मिलेगा, शान्ति मिलेगी, शक्ति मिलेगी। नींद, नींद नहीं होगी, जैसे कमाई करके खुशी में लेटे हैं। इतना परिवर्तन हो जाता है! बाबा-बाबा' करते  रहो। बाबा कहा और कार्य सफल हुआ पड़ा है। क्योंकि बाप सर्वशक्तिवान है। सर्वशक्तिवान बाप की याद स्वत: ही हर कार्य को शक्तिशाली बना देती है।

(5) अपने को राजऋषि, श्रेष्ठ आत्मायें अनुभव करते हो? राजऋषि अर्थात् राज्य होते हुए भी ऋषि अर्थात् सदा बेहद के वैरागी। स्थूल देश का राज्य नहीं है लेकिन स्व का राज्य है। स्व-राज्य करते हुए बेहद के वैरागी भी हो, तपस्वी भी हो क्योंकि जानते हो पुरानी दुनिया में है ही क्या। इस दुनिया को कहते ही हो असार संसार, कोई सार नहीं। जितना ही बनाने की कोशिश करते हैं, उतना ही बिगड़ता है। तो असार हुआ ना। तो असार संसार से स्वत: ही वैराग आ जाता है क्योंकि असार संसार से ब्राह्मणों का श्रेष्ठ संसार मिल गया। श्रेष्ठ संसार मिल गया तो असार से वैराग स्वत: हो जायेगा। वैराग अर्थात् लगाव न हो। अगर लगाव होता है तो बुद्धि का झुकाव होता है। जिस तरफ लगाव होगा, बुद्धि उसी तरफ जायेगी। इसलिए राजऋषि हो, राजे भी हो और साथ-साथ बेहद के वैरागी भी हो। ऋषि तपस्वी होते हैं। किसी भी आकर्षण में आकर्षित नहीं होने वाले। स्व-राज्य के आगे यह हद की आकर्षण क्या है? कुछ भी नहीं। तो अपने को क्या समझते हो? राजऋषि। किसी भी प्रकार का लगाव ऋषि बनने नहीं देगा, तपस्वी बन नहीं सकेंगे। तपस्या में लगाव' ही विघ्न-रूप बन कर आता है। तपस्या भंग हो जाती है। इसलिए, माया की आकर्षण से सदा परे रहो। कोई भी सम्बन्ध में लगाव न हो। माताओं को पोत्रे-धोत्रे अच्छे लगते हैं, इसलिए थोड़ा लगाव हो जाता है। पाण्डवों का फिर किससे लगाव होता है? कमाने में, पैसा इकट्ठा करने में। जेब में पैसा तो होना चाहिए ना! लेकिन जो बाप की लग्न में रहते हैं, वह लगाव में नहीं रहते, उसको सब सहज प्राप्त होता है। ब्राह्मण जीवन में 10 रूपया भी 100 बन जाता है। इतना धन में वृद्धि हो जाती है! प्रगति पड़ने से 10, 100 का काम करता है, वहाँ 100, 10 का काम करेगा। क्योंकि अभी एकानामी के अवतार हो गये ना। व्यर्थ बच गया और समर्थ पैसा, ताकत वाला पैसा है। काला पैसा नहीं है, सफेद है, इसलिए शक्ति है। तो राजऋषि आत्मायें हैं - इस वरदान को सदा याद रखना। कहाँ लगाव में नहीं फँस जाना। न फँसो, न निकलने की मेहनत करो।

(6) अपने को सदा हर्षित रहने वाली श्रेष्ठ आत्मा अनुभव करते हो? हर्षितमुख, हर्षितचित्त। इसकी यादगार आपके यादगार चित्रों में भी दिखाते हैं। कोई भी देवी या देवता की मूर्ति बनायेंगे तो उसमें चेहरा जो दिखाते हैं, वह सदा हर्षित दिखाते हैं। अगर कोई सीरियस (गम्भीर) चेहरा होगा तो देवता का चित्र नहीं मानेंगे। तो हर्षितमुख रहने का इस समय का गुण आपके यादगार चित्रों में भी है। हर्षितमुख अर्थात् सदा सर्व प्राप्तियों से भरपूर। जो भरपूर होता है वही हर्षित रह सकता है। अगर कोई भी अप्राप्ति होगी तो हर्षित नहीं रहेंगे। कितनी भी हर्षित रहने की कोशिश करें, बाहर से हँसेंगे लेकिन दिल से नहीं। कोई बाहर से हँसते हैं तो मालूम पड़ जाता है - यह दिखावे का हँसना है, सच्च नहीं। तो आप सब दिल से सदा मुस्काराते रहो। कभी चेहरे पर दु:ख की लहर न आये। किसी भी परिस्थिति में दु:ख की लहर नहीं आनी चाहिए क्योंकि दु:ख की दुनिया छोड़ दी, संगम की दुनिया में आ गये। अच्छा।



20-02-87   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


याद, पवित्रता और सच्चे सेवाधारी की तीन रेखाएं

हर एक बच्चे के वर्तमान रिजल्ट को देखते हुए विश्व-स्नेही बापदादा बोले

आज सर्व स्नेही, विश्व-सेवाधारी बाप अपने सदा सेवाधारी बच्चों से मिलने आये हैं। सेवाधारी बापदादा को समान सेवाधारी बच्चे सदा प्रिय हैं। आज विशेष, सर्व सेवाधारी बच्चों के मस्तक पर चमकती हुई विशेष तीन लकीरें देख रहे हैं। हर एक का मस्तक त्रिमूर्ति तिलक समान चमक रहा है। यह तीन लकीरें किसकी निशानी हैं? इन तीन प्रकार के तिलक द्वारा हर एक बच्चे के वर्तमान रिजल्ट को देख रहे हैं। एक है - सम्पूर्ण योगी जीवन की लकीर।

दूसरी है - पवित्रता की रेखा वा लकीर। तीसरी है - सच्चे सेवाधारी की लकीर। तीनों रेखाओं में हर बच्चे की रिजल्ट को देख रहे हैं। याद की लकीर सभी की चमक रही है लेकिन नम्बरवार है। किसी की लकीर वा रेखा आदि से अब तक अव्यभिचारी अर्थात् सदा एक की लग्न में मग्न रहने वाली है। दूसरी बात - सदा अटूट रही है? सदा सीधी लकीर अर्थात् डायरेक्ट बाप से सर्व सम्बन्ध की लग्न सदा से रही है वा किसी निमित्त आत्माओं के द्वारा बाप से सम्बन्ध जोड़ने के अनुभवी हैं? डायरेक्ट बाप का सहारा है वा किसी आत्मा के सहारे द्वारा बाप का सहारा है? एक हैं सीधी लकीर वाले, दूसरे हैं बीच-बीच में थोड़ी टेढ़ी लकीर वाले। यह हैं याद की लकीर की विशेषतायें। दूसरी है - सम्पूर्ण पवित्रता की लकीर वा रेखा। इसमें भी नम्बरवार हैं। एक हैं ब्राह्मण जीवन लेते ही ब्राह्मण जीवन का, विशेष बाप का वरदान प्राप्त कर सदा और सहज इस वरदान को जीवन में अनुभव करने वाले। उन्हों की लकीर आदि से अब तक सीधी है। दूसरे - ब्राह्मण जीवन के इस वरदान को अधिकार के रूप में अनुभव नहीं करते; कभी सहज, कभी मेहनत से, बहुत पुरूषार्थ से अपनाने वाले हैं। उन्हों की लकीर सदा सीधी और चमकती हुई नहीं रहती है। वास्तव में याद वा सेवा की सफलता का आधार है - पवित्रता। सिर्फ ब्रह्मचारी बनना - यह पवित्रता नहीं लेकिन पवित्रता का सम्पूर्ण रूप है - ब्रह्मचारी के साथ-साथ ब्रह्माचारी बनना। ब्रह्माचारी अर्थात् ब्रह्मा के आचरण पर चलने वाले, जिसको फॉलो फादर कहा जाता है क्योंकि फॉलो ब्रह्मा बाप को करना है। शिव बाप के समान स्थिति में बनना है लेकिन आचरण वा कर्म में ब्रह्मा बाप को फॉलो करना है। हर कदम में ब्रह्मचारी। ब्रह्मचर्य का व्रत सदा संकल्प और स्वप्न तक हो। पवित्रता का अर्थ है - सदा बाप को कम्पैनियन (साथी) बनाना और बाप की कम्पनी में सदा रहना। कम्पैनियन बना दिया, ‘बाबा मेरा' - यह भी आवश्यक है लेकिन हर समय कम्पनी भी बाप की रहे। इसको कहते हैं -सम्पूर्ण पवित्रता।' संगठन की कम्पनी, परिवार के स्नेह की मर्यादा, वह अलग चीज़ है, वह भी आवश्यक है। लेकिन बाप के कारण ही यह संगठन के स्नेह की कम्पनी है - यह नहीं भूलना है। परिवार का प्यार है, लेकिन परिवार किसका? बाप का। बाप नहीं होता तो परिवार कहाँ से आता? परिवार का प्यार, परिवार का संगठन बहुत अच्छा है लेकिन परिवार का बीज नहीं भूल जाए। बाप को भूल परिवार को ही कम्पनी बना देते हैं। बीच-बीच में बाप को छोड़ा तो खाली जगह हो गई। वहाँ माया आ जायेगी। इसलिए स्नेह में रहते, स्नेह देते-लेते समूह को नहीं भूलें। इसको कहते हैं पवित्रता। समझने में तो होशियार हो ना!

कई बच्चों को सम्पूर्ण पवित्रता की स्थिति में आगे बढ़ने में मेहनत लगती है। इसलिए बीच-बीच में कोई को कम्पैनियन बनाने का भी संकल्प आता है और कम्पनी भी आवश्यक है - यह भी संकल्प आता है। संन्यासी तो नहीं बनना है लेकिन आत्माओं की कम्पनी में रहते बाप की कम्पनी को भूल नहीं जाओ। नहीं तो समय पर उस आत्मा की कम्पनी याद आयेगी और बाप भूल जायेगा। तो समय पर धोखा मिलना सम्भव है क्योंकि साकार शरीरधारी के सहारे की आदत होगी तो अव्यक्त बाप और निराकार बाप पीछे याद आयेगा, पहले शरीरधारी आयेगा। अगर किसी भी समय पहले साकार का सहारा याद आया तो नम्बरवन वह हो गया और दूसरा नम्बर बाप हो गया! जो बाप को दूसरे नम्बर में रखते तो उसको पद क्या मिलेगा - नम्बर वन (एक) वा टू (दो)? सिर्फ सहयोग लेना, स्नेही रहना वह अलग चीज़ है, लेकिन सहारा बनाना अलग चीज़ है। यह बहुत गुह्य बात है। इसको यथार्थ रीति से जानना पड़े। कोई-कोई संगठन में स्नेही बनने के बजाए न्यारे भी बन जाते हैं। डरते हैं - ना मालूम फँस जाएँ, इससे तो दूर रहना ठीक है। लेकिन नहीं। 21 जन्म भी प्रवृत्ति में, परिवार में रहना है ना। तो अगर डर के कारण किनारा कर लेते, न्यारे बन जाते तो वह कर्म-संन्यासी के संस्कार हो जाते हैं। कर्मयोगी बनना है, कर्म-संन्यासी नहीं। संगठन में रहना है, स्नेही बनना है लेकिन बुद्धि का सहारा एक बाप हो, दूसरा न कोई। बुद्धि को कोई आत्मा का साथ वा गुण वा कोई विशेषता आकर्षित नहीं करे। इसको कहते हैं - पवित्रता'

पवित्रता में मेहनत लगती - इससे सिद्ध है वरदाता बाप से जन्म का वरदान नहीं लिया है। वरदान में मेहनत नहीं होती। हर ब्राह्मण आत्मा को ब्राह्मण जन्म का पहला वरदान - पवित्र भव, योगी भव' का मिला हुआ है। तो अपने से पूछो - पवित्रता के वरदानी हो या मेहनत से पवित्रता को अपनाने वाले हो? यह याद रखो कि हमारा ब्राह्मण जन्म है। सिर्फ जीवन परिवर्तन नहीं लेकिन ब्राह्मण जन्म के आधार पर जीवन का परिवर्तन है। जन्म के संस्कार बहुत सहज और स्वत: होते हैं। आपस में भी कहते हो ना - मेरे जन्म से ही ऐसे संस्कार हैं। ब्राह्मण जन्म का संस्कार है ही योगी भव, पवित्र भव'। वरदान भी है, निजी संस्कार भी है। जीवन में दो चीज़ें ही आवश्यक हैं। एक - कम्पैनियन, दूसरी - कम्पनी। इसलिए त्रिकालदर्शी बाप सभी की आवश्यकताओं को जान कम्पैनियन भी बढ़िया, कम्पनी भी बढ़िया देते हैं। विशेष डबल विदेशी बच्चों को दोनों चाहिए। इसलिए बापदादा ने ब्राह्मण जन्म होते ही कम्पैनियन का अनुभव करा लिया, सुहागिन बना दिया। जन्मते ही कम्पैनियन मिल गया ना? कम्पैनियन मिल गया है वा ढूँढ़ रहे हो? तो पवित्रता निजी संस्कार के रूप में अनुभव करना, इसको कहते हैं - श्रेष्ठ लकीर अथवा श्रेष्ठ रेखा वाले। फाउण्डेशन पक्का है ना?

तीसरी लकीर है - सच्चे सेवाधारी की। यह सेवाधारी की लकीर भी सभी के मस्तक पर है। सेवा के बिना भी रह नहीं सकते। सेवा ब्राह्मण जीवन को सदा निर्विघ्न बनाने का साधन भी है और फिर सेवा में ही विघ्नों का पेपर भी ज्यादा आता है। निर्विघ्न सेवाधारी को सच्चे सेवाधारी कहा जाता है। विघ्न आना, यह भी ड्रामा की नूँध है। आने ही हैं और आते ही रहेंगे क्योंकि यह विघ्न या पेपर अनुभवी बनाते हैं। इसको विघ्न न समझ, अनुभव की उन्नति हो रही है - इस भाव से देखो तो उन्नति की सीढ़ी अनुभव होगी। इससे और आगे बढ़ना है। क्योंकि सेवा अर्थात् संगठन का, सर्व आत्माओं की दुआ का अनुभव करना। सेवा के कार्य में सर्व की दुआयें मिलने का साधन है। इस विधि से, इस वृत्ति से देखो तो सदा ऐसे अनुभव करेंगे कि अनुभव की अथॉर्टी और आगे बढ़ रही है। विघ्न को विघ्न नहीं समझो और विघ्न अर्थ निमित्त बनी हुई आत्मा को विघ्नकारी आत्मा नहीं समझो, अनुभवी बनाने वाले शिक्षक समझो। जब कहते हो निंदा करने वाले मित्र हैं, तो विघ्नों को पास कराके अनुभवी बनाने वाला शिक्षक हुआ ना! पाठ पढ़ाया ना! जैसे आजकल के जो बीमारियों को हटाने वाले डॉक्टर्स हैं, वह एक्सरसाइज (व्यायाम) कराते हैं, और एक्सरसाइज में पहले दर्द होता है, लेकिन वह दर्द सदा के लिए बेदर्द बनाने के निमित्त होता है। जिसको यह समझ नहीं होती है, वह चिल्लाते हैं - इसने तो और ही दर्द कर लिया। लेकिन इस दर्द के अन्दर छिपी हुई दवा है। इस प्रकार रूप भल विघ्न का है, आपको विघ्नकारी आत्मा दिखाई पड़ती लेकिन सदा के लिए विघ्नों से पार कराने के निमित्त, अचल बनाने के निमित्त वही बनते। इसलिए, सदा निर्विघ्न सेवाधारी को कहते हैं - सच्चे सेवाधारी'। ऐसे श्रेष्ठ लकीर वाले सच्चे सेवाधारी कहे जाते हैं।

सेवा में सदैव स्वच्छ बुद्धि, स्वच्छ वृत्ति और स्वच्छ कर्म सफलता का सहज आधार है। कोई भी सेवा का कार्य जब आरम्भ करते हो तो पहले यह चेक करो कि बुद्धि में किसी आत्मा के प्रति भी स्वच्छता के बजाए अगर बीती हुई बातों की जरा भी स्मृति होगी तो उसी वृत्ति, दृष्टि से उनको देखना, उनसे बोलना होता। तो सेवा में जो स्वच्छता से सम्पूर्ण सफलता होनी चाहिए, वह नहीं होती। बीती हुई बातों को वा वृत्तियों आदि सबको समाप्त करना - यह है स्वच्छता। बीती का संकल्प भी करना कुछ परसेन्टेज में हल्का पाप है। संकल्प भी सृष्टि बना देता है। वर्णन करना तो और बड़ी बात है लेकिन संकल्प करने से भी पुराने संकल्प की स्मृति, सृष्टि अथवा वायुमण्डल भी वैसा बना देती है। फिर कह देते - ‘मैंने जो कहा था ना, ऐसे ही हुआ ना'। लेकिन हुआ क्यों? आपके कमज़ोर, व्यर्थ संकल्प ने यह व्यर्थ वायुमण्डल की सृष्टि बनाई। इसलिए, सदा सच्चे सेवाधारी अर्थात् पुराने वायब्रेशन को समाप्त करने वाले। जैसे साइन्स वाले शस्त्र से शस्त्र को खत्म कर देते हैं, एक विमान से दूसरे विमान को गिरा देते हैं। युद्ध करते हैं तो समाप्त कर देते हैं ना! तो आपका शुद्ध वायब्रेशन, शुद्ध वायब्रेशन को इमर्ज कर सकता है और व्यर्थ वायब्रेशन को समाप्त कर सकता है। संकल्प, संकल्प को समाप्त कर सकता है। अगर आपका पावरफुल (शक्तिशाली) संकल्प है तो समर्थ संकल्प, व्यर्थ को खत्म जरूर करेगा। समझा? सेवा में पहले स्वच्छता अर्थात् पवित्रता की शक्ति चाहिए। यह तीन लकीरें चमकती हुई देख रहे हैं।

सेवा के विशेषता की और अनेक बातें सुनी भी हैं। सब बातों का सार है - नि:स्वार्थ, निर्विकल्प स्थिति से सेवा करना सफलता का आधार है। इसी सेवा में ही स्वयं भी सन्तुष्ट और हर्षित रहते और दूसरे भी सन्तुष्ट रहते। सेवा के बिना संगठन नहीं होता। संगठन में भिन्न-भिन्न बातें, भिन्न-भिन्न विचार, भिन्न-भिन्न तरीके, साधन - यह होना ही है। लेकिन बातें आते भी, भिन्न-भिन्न साधन सुनते हुए भी स्वयं सदा अनेक को एक बाप की याद में मिलाने वाले, एकरस स्थिति वाले रहो। कभी भी अनेकता में मूँझो नहीं - अब क्या करें, बहुत विचार हो गये हैं, किसका मानें, किसका न मानें? अगर नि:स्वार्थ, निर्विकल्प भाव से निर्णय करेंगे तो कभी किसी को कुछ व्यर्थ संकल्प नहीं आयेगा। क्योंकि सेवा के बिना भी रह नहीं सकते, याद के बिना भी रह नहीं सकते। इसलिए, सेवा को भी बढ़ाते चलो। स्वयं को भी स्नेह, सहयोग और नि:स्वार्थ भाव में बढ़ाते चलो। समझा?

बापदादा को खुशी है कि देश-विदेश में छोटे-बड़े सभी ने उमंग-उत्साह से सेवा का सबूत दिया। विदेश की सेवा का भी सफलतापूर्वक कार्य सम्पन्न हुआ और देश में भी सभी के सहयोग से सर्व कार्य सम्पन्न हुए, सफल हुए। बापदादा बच्चों के सेवा की लग्न को देख हर्षित होते हैं। सभी का लक्ष्य बाप को प्रत्यक्ष करने का अच्छा रहा और बाप के स्नेह में मेहनत को मुहब्बत में बदल कार्य का प्रत्यक्षफल दिखाया। सभी बच्चे विशेष सेवा के निमित्त आये हुए हैं। बापदादा भीवाह बच्चे! वाह!' के गीत गाते हैं। सभी ने बहुत अच्छा किया। किसी ने किया, किसी ने नहीं किया, यह है नहीं। चाहे छोटे स्थान हैं वा बड़े स्थान हैं, लेकिन छोटे स्थान वालों ने भी कम नहीं किया। इसलिए, सर्व की श्रेष्ठ भावनाओं और श्रेष्ठ कामनाओं से कार्य अच्छे रहे और सदा अच्छे रहेंगे। समय भी खूब लगाया, संकल्प भी खूब लगाया, प्लेन बनाया तो संकल्प किया ना। शरीर की शक्ति भी लगाई, धन की शक्ति भी लगाई, संगठन की शक्ति भी लगाई। सर्व शक्तियों की आहुतियों से सेवा का यज्ञ दोनों तरफ (देश और विदेश) सफल हुआ। बहुत अच्छा कार्य रहा। ठीक किया वा नहीं किया - यह क्वेश्चन ही नहीं। सदा ठीक रहा है और सदा ठीक रहेगा। चाहे मल्टी मिलियन पीस का कार्य किया, चाहे गोल्डन जुबली का कार्य किया - दोनों ही कार्य सुन्दर रहे। जिस विधि से किया, वह विधि भी ठीक है। कहाँ-कहाँ चीज़ की वैल्यू बढ़ाने के लिए पर्दे के अन्दर वह चीज़ रखी जाती है। पर्दा और ही वैल्यू को बढ़ा देता है और जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि देखें क्या है, पर्दे के अन्दर है तो जरूर कुछ होगा। लेकिन यही पर्दा प्रत्यक्षता का पर्दा बन जाएगा। अभी धरनी बना ली। धरनी में जब बीज डाला जाता है वो अन्दर छिपा हुआ डाला जाता है। बीज को बाहर नहीं रखते, अन्दर छिपाकर रखते हैं। और फल वा वृक्ष गुप्त बीज का ही स्वरूप प्रत्यक्ष होता। तो अब बीज डाला है, वृक्ष बाहर स्टेज पर स्वत: ही आता जाएगा।

खुशी में नाच रहे हो ना? ‘वाह बाबा'! तो कहते हो लेकिन वाह सेवा! भी कहते हो। अच्छा। समाचार तो सब बापदादा ने सुन लिया।

इस सेवा से जो देश-विदेश के संगठन से वर्ग की सेवा हुई, यह चारों ओर एक ही समय एक ही आवाज बुलन्द होने या फैलने का साधन अच्छा है। आगे भी जो भी प्रोग्राम करो, लेकिन एक ही समय देश-विदेश में चारों ओर एक ही प्रकार की सेवा कर फिर सेवा का फलस्वरूप मधुबन में संगठित रूप में हो। चारों ओर एक लहर होने के कारण सब में उमंग-उत्साह भी होता है और चारों ओर रूहानी रेस होती (रीस नहीं) कि हम और ज्यादा-से-ज्यादा सेवा का सबूत दें। तो इस उमंग से चारों ओर नाम बुलन्द हो जाता है। इसलिए, किसी भी वर्ग का बनाओ लेकिन चारों ओर सारा वर्ष एक ही रूप-रेखा की सेवा की तरफ अटेन्शन हो। तो उन आत्माओं को भी चारों ओर का संगठन देख उमंग आता है, आगे बढ़ने का चांस मिलता है। इस विधि से प्लैन बनाते, बढ़ते चलो। पहले अपनी- अपनी एरिया (इलाका) में उन वर्ग की सेवा कर छोटे-छोटे संगठन के रूप में प्रोग्राम करते रहो और उन संगठन से फिर जो विशेष आत्मायें हों, उनको इस बड़े संगठन के लिए तैयार करो। लेकिन हर सेन्टर या आस-पास के मिलकर करो। क्योंकि कई यहाँ तक नहीं पहुँच सकते तो वहाँ पर भी संगठन का जो प्रोग्राम होता, उससे भी उन्हों को लाभ होता है। तो पहले छोटे-छोटे स्नेह मिलन' करो, फिर जोन को मिलाकर संगठन करो, फिर मधुबन का बड़ा संगठन हो। तो पहले से ही अनुभवी बन करके फिर यहाँ तक भी आयेंगे। लेकिन देशविदेश में एक ही टॉपिक हो और एक ही वर्ग के हों। ऐसे भी टॉपिक्स होते हैं जिसमें दो-चार वर्ग भी मिल सकते हैं। टॉपिक विशाल है तो दो-तीन वर्ग के भी उसी टॉपिक बीच आ सकते हैं। तो अभी देश-विदेश में धर्म सत्ता, राज्य सत्ता और साइन्स की सत्ता - तीनों के सैम्पल्स तैयार करो। अच्छा।

सर्व पवित्रता के वरदान के अधिकारी आत्माओं को, सदा एकरस, निरन्तर योगी जीवन के अनुभवी आत्माओं को, सदा हर संकल्प, हर समय सच्चे सेवाधारी बनने वाली श्रेष्ठ आत्माओं को विश्व-स्नेही, विश्व-सेवाधारी बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।

कांफ्रेंस में आये हुए सेवाधारी भाई-बहनों प्रति बापदादा बोले - सभी ने मेहमानों की स्थूल, सूक्ष्म सेवा की और सेवा से अनेक आत्माओं को बाप के स्नेह का अनुभव कराया। इसके लिए बापदादा बच्चों को गोल्डन मुबारक दे रहे हैं। सभी ने अपनी ड्यूटी (कर्त्तव्य) वा कार्य प्रमाण बहुत अच्छा सहयोग दिया और सभी के सहयोग से कार्य सदा के लिए सफल रहा। तो सफलता प्राप्त करने वाले सफलता के सितारे बन गये। ऐसे सफलता के सितारों को देख बापदादा भी खुश होते हैं। आप भी खुश हुए ना। मैंने किया - यह खुशी नहीं लेकिन आत्माओं को परिचय मिला, आत्माओं को सन्देश मिला - यह खुशी है। भटकी हुई आत्माओं को ठिकाने का पता तो पड़ गया ना। तो बहुत अच्छी संगठन रूप में सेवा के निमित्त बने। तो बच्चे भी खुश हैं, बाप भी खुश हैं। बापदादा बच्चों की हिम्मत भी सदा देखते रहते हैं। हिम्मत से आगे बढ़ रहे हैं और सदा आगे बढ़ते रहेंगे।

सेवा का प्रत्यक्षफल - खुशी हुई, शक्ति मिली। सेवा करते आत्माओं को स्थूल, सूक्ष्म बाप के स्थान का अनुभव कराया। यह पुण्य का काम किया ना। तो स्थूल सेवा भी की और पुण्य भी किया। तो जो पुण्य करता है उसको, जिसका पुण्य करते हैं, उसकी आशीर्वाद मिलती है। तो सभी आत्माओं के दिल से जो खुशी के संकल्प पैदा हुए, वह शुभ संकल्प भी आपकी आशीर्वादें बन गये। तो सेवा किया अर्थात् पुण्य किया और पुण्य का फल सभी की शुभ कामनाओं की आशीर्वाद मिली और भविष्य भी जमा हो गया। तो कितने फायदे हुए। साधारण सेवा भी की होगी लेकिन कितनी श्रेष्ठ सेवा और उसकी श्रेष्ठ प्रालब्ध रही! तो सदा अपने को सेवाधारी समझ सेवा का अविनाशी फल - खुशी और शक्ति - सदा लेते रहो। सेवा से बुद्धि बिजी भी रहती है ना! तो बिजी रहने के कारण निर्विघ्न रहते हैं। यह भी मदद मिल जाती है। तो जो हुआ ड्रामा। लेकिन जो हुआ उससे अपना लाभ ले लेना चाहिए। तो जमा भी हुआ और प्रत्यक्ष में भी मिला, डबल हो गया। बापदादा ने मुबारक तो दे ही दी। अच्छा।



18-03-87   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


सच्चे रूहानी आशिक की निशानियाँ

सदा प्राप्तियों से सम्पन्न बनाने वाले बापदादा अपने अविनाशी आशिकों प्रति बोले

आज रूहानी माशूक अपने रूहानी आशिक आत्माओं से मिलने के लिए आये हैं। सारे कल्प में इस समय ही रूहानी माशूक और आशिकों का मिलन होता है। बापदादा अपने हर एक आशिक आत्मा को देख हर्षित होते हैं - कैसे रूहानी आकर्षण से आकर्षित हो अपने सच्चे माशूक को जान लिया, पा लिया है! खोये हुए आशिक को देख माशूक भी खुश होते हैं कि फिर से अपने यथार्थ ठिकाने पर पहुँच गये। ऐसा सर्व प्राप्ति कराने वाला माशूक और कोई मिल नहीं सकता। रूहानी माशूक सदा अपने आशिकों से मिलने के लिए कहाँ आते हैं? जैसा श्रेष्ठ माशूक और आशिक हैं, ऐसे ही श्रेष्ठ स्थान पर मिलने के लिए आते हैं। यह कौन-सा स्थान है जहाँ मिलन मना रहे हो? इसी स्थान को जो भी कहो, सर्व नाम इस स्थान को दे सकते हैं। वैसे मिलने के स्थान जो अतिप्रिय लगते हैं, वह कौन-से होते हैं? या फूलों के बगीचे में मिलन होता है वा सागर के किनारे पर मिलना होता है जिसको आप लोग बीच (समुद्र का किनारा) कहते हो। तो अब कहाँ बैठे हो? ज्ञान सागर के किनारे रूहानी मिलन के स्थान पर बैठे हो। रूहानी वा गॉडली गार्डन (अल्लाह का बगीचा) है। और तो अनेक प्रकार के बगीचे देखे हैं लेकिन ऐसा बगीचा जहाँ हरेक एक दो से ज्यादा खिले हुए फूल हैं, एक-एक श्रेष्ठ सुन्दरता से अपनी खुशबू दे रहे हैं - ऐसा बगीचा है। इसी बीच पर बापदादा वा माशूक मिलने आते हैं। वह अनेक बीच देखीं, लेकिन ऐसी बीच कब देखी जहाँ ज्ञान सागर की स्नेह की लहरें, शक्ति की लहरें, भिन्न-भिन्न लहरें लहराए सदा के लिए रिफ्रेश कर देती हैं? यह स्थान पसन्द है ना? स्वच्छता भी है और रमणीकता भी है। सुन्दरता भी है। इतनी ही प्राप्तियाँ भी हैं। ऐसा मनोरंजन का विशेष स्थान आप आशिकों के लिए माशूक ने बनाया है जहाँ आने से मुहब्बत की लकीर के अन्दर पहुँचते ही अनेक प्रकार की मेहनत से छूट जाते। सबसे बड़ी मेहनत - नैचुरल याद की, वह सहज अनुभव करते हो। और कौन-सी मेहनत से छूटते हो? लौकिक जॉब (नौकरी) से भी छूट जाते हो। भोजन बनाने से भी छूट जाते हो। सब बना बनाया मिलता है ना। याद भी स्वत: अनुभव होती। ज्ञान रत्नों की झोली भी भरती रहती। ऐसे स्थान पर जहाँ मेहनत से छूट जाते हो और मुहब्बत में लीन हो जाते हो।

वैसे भी स्नेह की निशानी विशेष यही गाई जाती कि दो, दो न रहें लेकिन दो मिलकर एक हो जाएँ। इसको ही समा जाना कहते हैं। भक्तों ने इसी स्नेह की स्थिति को समा जाना वा लीन होना कह दिया है। वो लोग लीन होने का अर्थ नहीं समझते। लव में लीन होना - यह स्थिति है लेकिन स्थिति के बदले उन्होंने आत्मा के अस्तित्व को सदा के लिए समाप्त करना समझ लिया है। समा जाना अर्थात् समान बन जाना। जब बाप के वा रूहानी माशूक के मिलन में मग्न हो जाते हो तो बाप समान बनने अथवा समा जाने अर्थात् समान बनने का अनुभव करते हो। इसी स्थिति को भक्तों ने समा जाना कहा है। लीन भी होते हो, समा भी जाते हो। लेकिन यह मिलन के मुहब्बत के स्थिति की अनुभूति है। समझा? इसलिए बापदादा अपने आशिकों को देख रहे हैं। सच्चे आशिक अर्थात् सदा आशिक, नैचुरल (स्वत:) आशिक ।

सच्चे आशिक की विशेषतायें जानते भी हो । फिर भी उसकी मुख्य निशानियां हैं - एक माशूक द्वारा सर्व सम्बन्धों की समय प्रमाण अनुभूति करना। माशूक एक है लेकिन एक के साथ सर्व सम्बन्ध हैं। जो सम्बन्ध चाहें और जिस समय जिस सम्बन्ध की आवश्यकता है, उस समय उस सम्बन्ध के रूप से प्रीति की रीति द्वारा अनुभव कर सकते हो। तो पहली निशानी है - सर्व सम्बन्धों की अनुभूति।सर्व' शब्द को अण्डरलाइन करना। सिर्फ सम्बन्ध नहीं। कई ऐसे नटखट आशिक भी हैं जो समझते हैं सम्बन्ध तो जुट गया है। लेकिन सर्व सम्बन्ध जुटे हैं? और दूसरी बात - समय पर सम्बन्ध की अनुभूति होती है? नॉलेज के आधार पर सम्बन्ध है वा दिल की अनुभूति से सम्बन्ध है? बापदादा सच्ची दिल पर राजी है। सिर्फ तीव्र दिमाग वालों पर राजी नहीं, लेकिन दिलाराम दिल पर राजी है। इसलिए, दिल का अनुभव दिल जाने, दिलाराम जाने। समाने का स्थान दिल कहा जाता है, दिमाग नहीं। नॉलेज को समाने का स्थान दिमाग है, लेकिन माशूक को समाने का स्थान दिल है। माशूक आशिकों की बातें ही सुनायेंगे ना। कोई-कोई आशिक दिमाग ज्यादा चलाते लेकिन दिल से दिमाग की मेहनत आधी हो जाती है। जो दिल से सेवा करते वा याद करते, उन्हों की मेहनत कम और सन्तुष्टता ज्यादा होती और जो दिल के स्नेह से नहीं याद करते, सिर्फ नॉलेज के आधार पर दिमाग से याद करते वा सेवा करते, उन्हों को मेहनत ज्यादा करनी पड़ती, सन्तुष्टता कम होती। चाहे सफलता भी हो जाए, तो भी दिल की सन्तुष्टता कम होगी। यही सोचते रहेंगे - हुआ तो अच्छा, लेकिन फिर, फिर भी... करते रहेंगे और दिल वाले सदा सन्तुष्टता के गीत गाते रहेंगे। दिल की सन्तुष्टता के गीत, मुख की सन्तुष्टता के गीत नहीं। सच्चे आशिक दिल से सर्व सम्बन्धों की समय प्रमाण अनुभूति करते हैं।

दूसरी निशानी - सच्चे आशिक हर परिस्थिति में, हर कर्म में सदा प्राप्ति की खुशी में होंगे। एक है अनुभूति, दूसरी है उससे प्राप्ति। कई अनुभूति भी करते हैं कि हाँ, मेरा बाप भी है, साजन भी है। बच्चा भी है लेकिन प्राप्ति जितनी चाहते उतनी नहीं होती है। बाप है, लेकिन वर्से के प्राप्ति की खुशी नहीं रहती। अनुभूति के साथ सर्व सम्बन्धों द्वारा प्राप्ति का भी अनुभव हो। जैसे - बाप के सम्बन्ध द्वारा सदा वर्से के प्राप्ति की महसूसता हो, भरपूरता हो। सत्गुरू द्वारा सदा वरदानों से सम्पन्न स्थिति का वा सदा सम्पन्न स्वरूप का अनुभव हो। तो प्राप्ति का अनुभव भी आवश्यक है। वह है सम्बन्धों का अनुभव, यह है प्राप्तियों का अनुभव। कइयों को सर्व प्राप्तियों का अनुभव नहीं होता। मास्टर सर्वशक्तिवान है लेकिन समय पर शक्तियों की प्राप्ति नहीं होती। प्राप्ति की अनुभूति नहीं तो प्राप्ति में भी कमी है। तो अनुभूति के साथ प्राप्ति स्वरूप भी बनें - यह है सच्चे आशिक की निशानी।

तीसरी निशानी - जिस आशिक को अनुभूति है, प्राप्ति भी है वह सदा तृप्त रहेंगे, किसी भी बात में अप्राप्त आत्मा नहीं लगेगी। तो, ‘तृप्ति' - यह आशिक की विशेषता है। जहाँ प्राप्ति है, वहाँ तृप्ति जरूर है। अगर तृप्त नहीं तो अवश्य प्राप्ति में कमी है और प्राप्ति नहीं तो सर्व सम्बन्धों की अनुभूति में कमी है। तो तीन निशानियां हैं - अनुभूति, प्राप्ति और तृप्ति। सदा तृप्त आत्मा। जैसा भी समय हो, जैसा भी वायुमण्डल हो, जैसे भी सेवा के साधन हों, जैसे भी सेवा के संगठन के साथी हों लेकिन हर हाल में, हर चाल में तृप्त हों। ऐसे सच्चे आशिक हो ना? तृप्त आत्मा में कोई हद की इच्छा नहीं होगी। वैसे देखो तो तृप्त आत्मा बहुत मैनारिटी (थोड़ी) रहती है। कोई-न-कोई बात में चाहे मान की, चाहे शान की भूख होती है। भूख वाला कभी तृप्त नहीं होता। जिसका सदा पेट भरा हुआ होता, वह तृप्त होता है। तो जैसे शरीर के भोजन की भूख है, वैसे मन की भूख है - शान, मान, सैलवेशन, साधन। यह मन की भूख है। तो जैसे शरीर की तृप्ति वाले सदा सन्तुष्ट होंगे, वैसे मन की तृप्ति वाले सदा सन्तुष्ट होंगे। सन्तुष्टता तृप्ति की निशानी है। अगर तृप्त आत्मा नहीं होंगे, चाहे शरीर की भूख, चाहे मन की भूख होगी तो जितना भी मिलेगा, मिलेगा भी ज्यादा लेकिन तृप्त आत्मा न होने कारण सदा ही अतृप्त रहेंगे। असन्तुष्टता रहती है। जो रॉयल होते हैं, वह थोड़े में तृप्त होते हैं। रॉयल आत्माओं की निशानी - सदा ही भरपूर होंगे, एक रोटी में भी तृप्त तो 36 प्रकार के भोजन में भी तृप्त होंगे। और जो अतृप्त होंगे, वह 36 प्रकार के भोजन मिलते भी तृप्त नहीं होंगे क्योंकि मन की भूख है। सच्चे आशिक की निशानी - सदा तृप्त आत्मा होंगे। तो तीनों ही निशानीयां चेक करो। सदैव यह सोचो - हम किसके आशिक हैं! जो सदा सम्पन्न है, ऐसे माशूक के आशिक हैं!' तो सन्तुष्टता कभी नहीं छोड़ो। सेवा छोड़ दो लेकिन सन्तुष्टता नहीं छोड़ो। जो सेवा असन्तुष्ट बनावे वो सेवा, सेवा नहीं। सेवा का अर्थ ही है - मेवा देने वाली सेवा। तो सच्चे आशिक सर्व हद की चाहना से परे, सदा ही सम्पन्न और समान होंगे।

आज आशिकों की कहानियाँ सुना रहे हैं। नाज़, नखरे भी बहुत करते हैं। माशूक भी देख-देख मुस्कराते रहते। नाज़, नखरे भल करो लेकिन माशूक को माशूक समझ उसके सामने करो, दूसरे के सामने नहीं। भिन्न-भिन्न हद के स्वभाव, संस्कार के नखरे और नाज़ करते हैं। जहाँ मेरा स्वभाव, मेरे संस्कार शब्द आता है, वहाँ भी नाज़, नखरे शुरू हो जाते हैं। बाप का स्वभाव सो मेरा स्वभाव हो। मेरा स्वभाव बाप के स्वभाव से भिन्न हो नहीं सकता। वह माया का स्वभाव है, पराया स्वभाव है। उसको मेरा कैसे कहेंगे? माया पराई है, अपनी नहीं है। बाप अपना है। मेरा स्वभाव अर्थात् बाप का स्वभाव। माया के स्वभाव को मेरा कहना भी रांग है। मेरा' शब्द ही फेरे में लाता है अर्थात् चक्र में लाता है। आशिक, माशूक के आगे ऐसे नाज़-नखरे भी दिखाते हैं। जो बाप का सो मेरा। हर बात में भक्ति में भी यही कहते हैं - जो तेरा सो मेरा, और मेरा कुछ नहीं। लेकिन जो तेरा सो मेरा। जो बाप का संकल्प, वह मेरा संकल्प। सेवा के पार्ट बजाने के बाप के संस्कार-स्वभाव, वह मेरे। तो इससे क्या होगा? हद का मेरा, तेरा हो जायेगा। तेरा सो मेरा, अलग मेरा नहीं है। जो भी बाप से भिन्न हैं, वह मेरा है ही नहीं, वह माया का फेरा है। इसलिए इस हद के नाज़-नखरे से निकल रूहानी नाज़ - मैं तेरी और तू मेरा, भिन्न-भिन्न सम्बन्ध की अनुभूति के रूहानी नखरे भल करो। परन्तु यह नहीं करो। सम्बन्ध निभाने में भी रूहानी नखरे कर सकते हो। मुहब्बत की प्रीत के नखरे अच्छे होते हैं। कब सखा के सम्बन्ध से मुहब्बत के नखरे का अनुभव करो। वह नखरा नहीं लेकिन निराला-पन है। स्नेह के नखरे प्यारे होते हैं। जैसे, छोटे बच्चे बहुत स्नेही और प्युअर (पवित्र) होने के कारण उनके नखरे सबको अच्छे लगते हैं। शुद्धता और पवित्रता होती है बच्चों में। और बड़ा कोई नखरा करे तो वह बुरा माना जाता। तो बाप से भिन्न-भिन्न सम्बन्ध के, स्नेह के, पवित्रता के नाज़-नखरे भल करो, अगर करना ही है तो।

सदा हाथ और साथ' ही सच्चे आशिक माशूक की निशानी है। साथ और हाथ नहीं छूटे। सदा बुद्धि का साथ हो और बाप के हर कार्य में सहयोग का हाथ हो। एक दो के सहयोगी की निशानी - हाथ में हाथ मिलाके दिखाते हैं ना। तो सदा बाप के सहयोगी बनना - यह है सदा हाथ में हाथ। और सदा बुद्धि से साथ रहना। मन की लगन, बुद्धि का साथ। इस स्थिति में रहना अर्थात् सच्चे आशिक और माशूक के पोज में रहना। समझा? वायदा ही यह है कि सदा साथ रहेंगे। कभी-कभी साथ निभायेंगे - यह वायदा नहीं है। मन का लगाव कभी माशूक से हो और कभी न हो तो वह सदा साथ तो नहीं हुआ ना। इसलिए इसी सच्चे आशिक-पन के पोजीशन में रहो। दृष्टि में भी माशूक, वृत्ति में भी माशूक, सृष्टि ही माशूक।

तो यह माशूक और आशिकों की महफिल है। बगीचा भी है तो सागर का किनारा भी है। यह वण्डरफुल ऐसी प्राइवेट बीच (सागर का किनारा) है जो हजारों के बीच (मध्य) भी प्राइवेट है। हर एक अनुभव करते - मेरे साथ माशूक का पर्सनल प्यार है। हरेक को पर्सनल प्यार की फीलिंग प्राप्त होना - यही वण्डरफुल माशूक और आशिक हैं। है एक माशूक लेकिन है सबका। सभी का अधिकार सबसे ज्यादा है। हरेक का अधिकार है। अधिकार में नम्बर नहीं हैं, अधिकार प्राप्त करने में नम्बर हो जाते हैं। सदा यह स्मृति रखो कि - गॉडली गार्डन में हाथ और साथ दे चल रहे हैं या बैठे हैं। रूहानी बीच पर हाथ और साथ दे मौज मना रहे हैं।' तो सदा ही मनोरंजन में रहेंगे, सदा खुश रहेंगे, सदा सम्पन्न रहेंगे। अच्छा।

यह डबल विदेशी भी डबल लक्की हैं। अच्छा है जो अब तक पहुँच गये। आगे चल क्या परिवर्तन होता है, वह तो ड्रामा। लेकिन डबल लक्की हो जो समय प्रमाण पहुँच गये हो। अच्छा।

सदा अविनाशी आशिक बन रूहानी माशूक से प्रीति की रीति निभाने वाले, सदा स्वयं को सर्व प्राप्तियों से सम्पन्न अनुभव करने वाले, सदा हर स्थिति वा परिस्थिति में तृप्त रहने वाले, सदा सन्तुष्टता के खज़ाने से भरपूर बन औरों को भी भरपूर करने वाले, ऐसे सदा के साथ और हाथ मिलाने वाले सच्चे आशिकों को रूहानी माशूक का दिल से यादप्यार और नमस्ते।

पर्सनल मुलाकात

पार्टियों से आस्ट्रेलिया पार्टी से - आस्ट्रेलिया निवासी हो या वतन निवासी हो? कौनसा देश अच्छा लगता है? सदा वतन-वासी बन जैसे बाप सेवा के लिए नीचे आते हैं, इसी रीति से बच्चे भी वतन से सेवा के प्रति नीचे आये हैं - ऐसे अनुभव कर सेवा करते चलो तो सदा ही न्यारे और बाप समान विश्व के प्यारे बन जायेंगे। ऊपर से नीचे आना माना अवतार बन अवतरित होकर सेवा करना। ऐसी सेवा करते हो? क्योंकि वर्तमान समय ऐसे अवतारों की ही आवश्यकता है। सभी चाहते हैं कि अवतार आयें और हमको साथ ले जायें। जो भी प्रार्थना करते हैं, उसमें क्या कहते हैं? क्राइस्ट को भी यही कहते हैं - आओ और साथ ले जाओ' तो सच्चे अवतार आप हो जो साथ ले जायेंगे मुक्तिधाम में। ऐसे अवतार बन सदा सेवा में आगे बढ़ते रहो। चलते-फिरते आप लोगों से ऐसे ही साक्षात्कार हो कि अवतार जा रहे हैं, अवतार बोल रहे हैं। तो उन्हों की इच्छा पूर्ण हो जायेगी और खुश हो जायेंगे। ऐसी सेवा में लगे हुए हो? क्योंकि विश्व इस समय दु:ख और अशान्ति से थका हुआ अनुभव कर रही है। तो ऐसी थकी हुई आत्माओं को सुख और शान्ति की चैन दिलाने वाली आत्मायें आप हो। सदा यही लक्ष्य रखो कि सभी को कुछ ना कुछ बाप के खज़ानों से प्राप्ति जरूर करायें।

अमेरिका, ब्राजील, मैक्सिको आदि पार्टियों से

(1) सभी सदा एकरस स्थिति में स्थित रहने वाली श्रेष्ठ आत्मायें हो ना। अनुभवी आत्मायें बन गई ना। सब दुनिया के रस अनुभव कर लिये। अब इस ईश्वरीय रस का अनुभव किया, तो वह रस क्या लगते हैं? फीके लगते हैं ना। जब है ही एक रस मीठा तो एक ही तरफ अटेन्शन जायेगा ना। एक तरफ मन लग ही जाता है, मेहनत नहीं लगती है। बाप का स्नेह, बाप की मदद, बाप का साथ, बाप द्वारा सर्व प्राप्तियाँ सहज बना देती है। हरेक इसी अनुभव से आगे बढ़ रहे हो, यह देख बाप भी हर्षित होते हैं। जितना भी देश में दूर स्थान पर हो, उतना ही दिल में नजदीक हो। बापदादा सेकण्ड में सभी बच्चों को आह्वान कर इमर्ज कर लेते हैं, भल वह कितना भी दूर हो। आपको भी अनुभव होता है ना - बाप अमृतवेले कैसे मिलन मनाते हैं! अच्छा!

(2) बाप की याद से खुशियों के झूलों में झूलने वाले हो ना। क्योंकि इस संगमयुग में जो खुशियों की खान मिलती है, वह और किसी युग में प्राप्त नहीं हो सकती। इस समय बाप और बच्चों का मिलन है, वर्सा है, वरदान है। बाप के रूप में वर्सा देते, सत्गुरू के रूप में वरदान देते हैं। तो दोनों अनुभव हैं ना? दोनों ही प्राप्तियाँ सहज अनुभव कराने वाली हैं। वर्सा या वरदान - दोनों में मेहनत नहीं। इसलिए टाइटल ही है - सहजयोगी'। क्योंकि ऑलमाइटी अथॉर्टी बाप बन जाए, सत्गुरू बन जाए... तो सहज नहीं होगा? यही अन्तर परम-आत्मा और आत्माओं का है। कोई महान आत्मा भी हो लेकिन प्राप्ति कराने के लिए कुछ-न-कुछ मेहनत जरूर देगी। 63 जन्म के अनुभवी हो ना। इसलिए बापदादा बच्चों की मेहनत देख नहीं सकते। जब बाप से थोड़ा भी, संकल्प में भी किनारा करते हो तब मेहनत करते हो। उसी सेकण्ड बाप को साथी बना दो तो सेकण्ड में मुश्किल सहज अनुभव हो जायेगा। क्योंकि बापदादा आये ही हैं बच्चों की थकावट उतारने। 63 जन्म ढूँढ़ा, भटके। अब बापदादा मन की भी थकावट, तन की भी थकावट और धन के उलझन के कारण भी जो थकावट थी, वह उतार रहे हैं। सभी थक गये थे ना! बच्चे जो अति प्यारे होते हैं, उन्हों के लिए कहावत है - नयनों पर बिठाकर ले जाते हैं। तो इतने हल्के बने हो जो नयनों पर बिठाकर बाप ले जाये? लाइट (हल्के) हो ना? जब बाप बोझ उठाने के लिए तैयार है तो आप बोझ क्यों उठाते हो? बाप से स्नेह की निशानी है - सदा हल्के बन बाप की नजरों में समा जाओ। इतने लाइट जो नजरों में समा जाएँ! इस समय लाइट बनो तो 21 जन्म की गैरन्टी है - कभी-भी किसी भी प्रकार का बोझ आ नहीं सकता। अच्छा।

19 तारीख सत्गुरूवार प्रात: 6.30 बजे बापदादा ने क्लास में यादप्यार दी और विदाई ली।

सभी देश-विदेश के चारों तरफ सेवा में रहने वाले सेवाधारी बच्चों को सत्गुरूवार के वरदानी दिवस पर वरदाता और विधाता बाप की यादप्यार, गुडमोर्निंग, गोल्डनमॉर्निंग। सत्गुरू के इस शुभ दिवस पर सदा यह महामन्त्र याद रहे कि ‘‘महानता प्राप्त करना अर्थात् निर्मानता धारण करना। निर्मान ही सर्व महान् है। पहले आप' करना ही स्वमान सर्व से प्राप्त करने का आधार है।'' सत्गुरूवार के दिवस सत्गुरू से महान बनने का यह मन्त्र वरदान रूप में सदा साथ रखना और वरदानों से पलते, उड़ते मंजल पर पहुँचना। मेहनत तब करते हैं जबकि वरदानों को कार्य में नहीं लगाते। अगर वरदानों से पलते रहें, वरदानों को कार्य में लगाते रहें तो मेहनत समाप्त हो जायेगी। सदा सफलता, सदा सहज सन्तुष्टता का अनुभव करते और कराते रहेंगे। वरदानों से उड़ते चलो, वरदानों की पालना दो और वरदाता, विधाता से जो प्राप्ति की है, उसका प्रत्यक्षफल दिखाओ। यही सत्गुरू की श्रेष्ठ मत है वा श्रेष्ठ वरदान है। अच्छा। सर्व को यादप्यार।



20-03-87   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


स्नेह' और सत्यता' की अथॉर्टी का बैलेंस

नॉलेज की अथॉर्टी, सत्यता की अथॉर्टी बनाने वाले, विश्व-रचयिता शिवबाबा बोले

आज सत् बाप, सत् शिक्षक, सत्गुरू अपने सत्यता के शक्तिशाली सत् बच्चों से मिलने आये हैं। सबसे बड़े-ते-बड़ी शक्ति वा अथॉर्टी सत्यता की ही है। सत् दो अर्थ से कहा जाता है। एक - सत् अर्थात् सत्य। दूसरा - सत् अर्थात् अविनाशी। दोनों अर्थ से सत्यता की शक्ति सबसे बड़ी है। बाप को सत् बाप कहते हैं। बाप तो अनेक हैं लेकिन सत् बाप एक है। सत् शिक्षक, सत्गुरू एक ही है। सत्य को ही परमात्मा कहते हैं अर्थात् परम आत्मा की विशेषता सत्य अर्थात् सत् है। आपका गीत भी है। सत्य ही शिव है...। दुनिया में भी कहते हैं - सत्यम्-शिवम्-सुन्दरम्। साथ-साथ बाप परमात्मा के लिए सत्-चित-आनन्द स्वरूप कहते हैं। आप आत्माओं को सत्-चित-आनन्द कहते हैं। तो सत्' शब्द की महिमा बहुत गाई हुई है। और कभी भी कोई भी कार्य में अथॉर्टी से बोलते तो यही कहेंगे - मैं सच्चा हूँ, इसलिए अथॉर्टी से बोलता हूँ। सत्य के लिए गायन है - सत्य की नाँव डोलेगी लेकिन डूबेगी नहीं। आप लोग भी कहते हो - सच तो बिठो नच। सच्चा अर्थात् सत्यता की शक्ति वाला सदा नाचता रहेगा, कभी मुरझायेगा नहीं, उलझेगा नहीं, घबरायेगा नहीं, कमज़ोर नहीं होगा। सत्यता की शक्ति वाला सदा खुशी में नाचता रहेगा। शक्तिशाली होगा, सामना करने की शक्ति होगी, इसलिए घबरायेगा नहीं। सत्यता को सोने के समान कहते हैं, असत्य को मिट्टी के समान कहते हैं। भक्ति में भी जो परम- आत्मा की तरफ लगन लगाते हैं, उन्हों को सत्संगी कहते हैं, सत् का संग करने वाले हैं। और लास्ट में जब आत्मा शरीर छोड़ती है तो भी क्या कहते हैं - सत् नाम संग है। तो सत् अविनाशी, सत् सत्य है। सत्यता की शक्ति महान शक्ति है। वर्तमान समय मेजारिटी लोग आप सबको देखकर क्या कहते हैं - इन्हों में सत्यता है, तब इतना समय वृद्धि करते हुए चल रहे हैं। सत्यता कब हिलती नहीं है, अचल होती है। सत्यता वृद्धि को प्राप्त करने की विधि है। सत्यता की शक्ति से सतयुग बनाते हो, स्वयं भी सत्य-नारायण, सत्य-लक्ष्मी बनते हो। यह सत्य ज्ञान है, सत् बाप का ज्ञान है। इसलिए दुनिया से न्यारा और प्यारा है।

तो आज बापदादा सभी बच्चों को देख रहे हैं कि सत्य ज्ञान की सत्यता की अथॉर्टी कितनी धारण की है? सत्यता हर आत्मा को आकर्षित करती है। चाहे आज की दुनिया झूठ खण्ड है, सब झूठ है अर्थात् सबमें झूठ मिला हुआ है, फिर भी सत्यता की शक्ति वाले विजयी बनते हैं। सत्यता की प्राप्ति खुशी और निर्भयता है। सत्य बोलने वाला सदा निर्भय होगा। उनको कब भय नहीं होगा। जो सत्य नहीं होगा तो उनको भय जरूर होगा। तो आप सभी सत्यता के शक्तिशाली श्रेष्ठ आत्मायें हो। सत्य ज्ञान, सत्य बाप, सत्य प्राप्ति, सत्य याद, सत्य गुण, सत्य शक्तियाँ सर्व प्राप्ति हैं। तो इतनी अथॉर्टी का नशा रहता है? अथॉर्टी का अर्थ अभिमान नहीं है। जितना बड़े-ते-बड़ी अथॉर्टी, उतना उनकी वृत्ति में रूहानी अथॉर्टी रहती है। वाणी में स्नेह और नम्रता होगी - यही अथॉर्टी की निशानी है। जैसे आप लोग वृक्ष का दृष्टान्त देते हो। वृक्ष में जब सम्पूर्ण फल की अथॉर्टी आ जाती है तो वृक्ष झुकता है अर्थात् निर्मान बनने की सेवा करता है। ऐसे रूहानी अथॉर्टी वाले बच्चे जितनी बड़ी अथॉर्टी, उतने निर्मान और सर्व स्नेही होंगे। लेकिन सत्यता की अथॉर्टी वाले निर-अहंकारी होते हैं। तो अथॉर्टी भी हो, नशा भी हो और निर-अहंकारी भी हो - इसको कहते हैं सत्य ज्ञान का प्रत्यक्ष स्वरूप।

जैसे इस झूठ खण्ड के अन्दर ब्रह्मा बाप सत्यता की अथॉर्टी का प्रत्यक्ष साकार स्वरूप देखा ना। उनके अथॉर्टी के बोल कभी भी अहंकार की भासना नहीं देंगे। मुरली सुनते हो तो कितनी अथॉर्टी के बोल हैं! लेकिन अभिमान के नहीं। अथॉर्टी के बोल में स्नेह समाया हुआ है, निर्मानता है, निर-अहंकार है। इसलिए अथॉर्टी के बोल प्यारे लगते हैं। सिर्फ प्यारे नहीं लेकिन प्रभावशाली होते हैं। फॉलो फादर है ना। सेवा में वा कर्म में फॉलो ब्रह्मा बाप है क्योंकि साकारी दुनिया में साकार एक्जाम्पल' है, सैम्पल है। तो जैसे ब्रह्मा बाप को कर्म में, सेवा में, सूरत से, हर चलन से चलता-फिरता अथॉर्टी स्वरूप देखा, ऐसे फॉलो फादर करने वाले में भी स्नेह और अथॉर्टी, निर्मानता और महानता - दोनों साथ-साथ दिखाई दें। ऐसे नहीं सिर्फ स्नेह दिखाई दे और अथॉर्टी गुम हो जाए या अथॉर्टी दिखाई दे और स्नेह गुम हो जाए। जैसे ब्रह्मा बाप को देखा वा अभी भी मुरली सुनते हो। प्रत्यक्ष प्रमाण है। तो बच्चे-बच्चे भी कहेगा लेकिन अथॉर्टी भी दिखायेगा। स्नेह से बच्चे भी कहेगा और अथॉर्टी से शिक्षा भी देगा। सत्य ज्ञान को प्रत्यक्ष भी करेंगे लेकिन बच्चे-बच्चे कहते नया ज्ञान सारा स्पष्ट कर देंगे। इसको कहते हैं स्नेह और सत्यता की अथॉर्टी का बैलेन्स (सन्तुलन) तो वर्तमान समय सेवा में इस बैलेन्स को अण्डरलाइन करो।

धरनी बनाने के लिए स्थापना से लेकर अब तक 50 वर्ष पूरे हो गये। विदेश की धरनी भी अब काफी बन गई है। भल 50 वर्ष नहीं हुए हैं, लेकिन बने बनाये साधनों पर आये हो, इसलिए शुरू के 50 वर्ष और अब के 5 वर्ष बराबर हैं। डबल विदेशी सब कहते हैं - हम लास्ट सो फास्ट सो फर्स्ट हैं। तो समय में भी फास्ट सो फर्स्ट होंगे ना। निर्भयता की अथॉर्टी जरूर रखो। एक ही बाप का नया ज्ञान सत्य ज्ञान है और नये ज्ञान से नई दुनिया स्थापन होती है - यह अथॉर्टी और नशा स्वरूप में इमर्ज (प्रत्यक्ष) हो। 50 वर्ष तो मर्ज (गुप्त) रखा। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं जो भी आवे उनको पहले से ही नये ज्ञान की नई बातें सुनाकर कनफ्यूज (मुँझा देना) कर दो। यह भाव नहीं है। धरनी, नब्ज, समय यह सब देख करके ज्ञान देना - यही नॉलेजफुल की निशानी है। आत्मा की इच्छा देखो, नब्ज देखो, धरनी बनाओ लेकिन अन्दर सत्यता के निर्भयता की शक्ति जरूर हो। लोग क्या कहेंगे - यह भय न हो। निर्भय बन धरनी भल बनाओ। कई बच्चे समझते हैं - यह ज्ञान तो नया है, कई लोग समझ ही नहीं सकेंगे। लेकिन बेसमझ को ही तो समझाना है। यह जरूर है - जैसा व्यक्ति वैसी रूपरेखा बनानी पड़ती है, लेकिन व्यक्ति के प्रभाव में नहीं आ जाओ। अपने सत्य ज्ञान की अथॉर्टी से व्यक्ति को परिवर्तन करना ही है - यह लक्ष्य नहीं भूलो।

अब तक जो किया, वह ठीक था। करना ही था, आवश्यक था क्योंकि धरनी बनानी थी। लेकिन कब तक धरनी बनायेंगे? और कितना समय चाहिए? दवाई भी दी जाती है तो पहले ही ज्यादा ताकत की नहीं दी जाती, पहले हल्की दी जाती। लेकिन ताकत वाली दवाई दो ही नहीं, हल्की पर ही चलाते चलो - यह नहीं करो। किसी कमज़ोर को हाई पावर वाली दवाई दे दी तो यह भी रांग है। परखने की भी शक्ति चाहिए। लेकिन अपने सत्य नये ज्ञान की अथॉर्टी जरूर चाहिए। आपकी सूक्ष्म अथॉर्टी की वृत्ति ही उन्हों की वृत्तियों को चेन्ज (परिवर्तन) करेगी। यही धरनी बनेगी। और विशेष जब सेवा कर मधुबन तक पहुँचते हो तो कम-से-कम उन्हों को यह जरूर मालूम पड़ना चाहिए। इस धरनी पर उन्हों की भी धरनी बन जाती है। कितनी भी कलराठी धरनी हो, किस भी धर्म वाला हो, किस भी पोजीशन वाला हो लेकिन इस धरनी पर वह भी नर्म हो जाते हैं और नर्म धरनी बनने के कारण उसमें जो भी बीज डालेंगे, उसका फल सहज निकलेगा। सिर्फ डरो नहीं, निर्भय जरूर बनो। युक्ति से दो, ऐसा न हो कि वह आप लोगों को यह उल्हना दें कि ऐसी धरनी पर भी मैं पहुँचा लेकिन यह मालूम नहीं पड़ा कि परमात्म-ज्ञान क्या है? परमात्म-भूमि पर आकर परम-आत्मा की प्रत्यक्षता का सन्देश जरूर ले जाएँ। लक्ष्य अथॉर्टी का होना चाहिए।

आजकल के जमाने के हिसाब से भी नवीनता का महत्त्व है। फिर भल कोई उल्टा भी नया फैशन निकालते हैं, तो भी फॉलो करते हैं। पहले आर्ट (चित्रकला) देखो कितना बढ़िया था! आजकल का आर्ट तो उनके आगे जैसे लकीरें लगेंगी। लेकिन मॉडर्न आर्ट पसन्द करते हैं। मानव की पसन्दी हर बात में नवीनता है और नवीनता स्वत: ही अपने तरफ आकर्षित करती है। इसलिए नवीनता, सत्यता, महानता - इसका नशा जरूर रखो। फिर समय और व्यक्ति देख सेवा करो। यह लक्ष्य जरूर रखो कि नई दुनिया का नया ज्ञान प्रत्यक्ष जरूर करना है। अभी स्नेह और शान्ति प्रत्यक्ष हुई है। बाप का प्यार के सागर का स्वरूप, शान्ति के सागर का स्वरूप प्रत्यक्ष किया है लेकिन ज्ञान स्वरूप आत्मा और ज्ञान सागर बाप है, इस नये ज्ञान को किस ढंग से देवें, उसके प्लैन्स अभी कम बनाये हैं। वह भी समय आयेगा जो सभी के मुख से यह आवाज निकलेगा कि नई दुनिया का नया ज्ञान यह है। अभी सिर्फ अच्छा कहते हैं, नया नहीं कहते। याद की सब्जेक्ट (विषय) को अच्छा प्रत्यक्ष किया है, इसलिए धरनी अच्छी बन गई है और धरनी बनाना - पहला आवश्यक कार्य भी जरूरी है। जो किया है, वह बहुत अच्छा और बहुत किया है, तन-मन-धन लगाकर किया है। इसके लिए आफरीन भी देते हैं।

पहले जब विदेश में गये थे तो यही त्रिमूर्ति के चित्र पर समझाना कितना मुश्किल समझते थे! अभी त्रिमूर्ति के चित्र पर ही आकर्षित होते हैं। यह सीढ़ी का चित्र भारत की कहानी समझते थे। लेकिन विदेश में इस चित्र पर आकर्षित होते। तो जैसे वह प्लैन बनाये कि यह नई बात किस ढंग से सुनावें, तो अब भी इन्वेन्शन (आविष्कार) करो। यह नहीं सोचो कि यह तो करना ही पड़ेगा। नहीं। बापदादा का लक्ष्य सिर्फ यह है कि नवीनता के महानता की शक्ति धारण करो, इसको भूलो नहीं। दुनिया को समझाना है, दुनिया की बातों से घबराओ नहीं। अपना तरीका इन्वेन्ट (Event) करो क्योंकि इन्वेन्टर (आविष्कर्त्ता) आप बच्चे ही हो ना। सेवा के प्लैन (योजना) बच्चे ही जानते हैं। जैसा लक्ष्य रखेंगे, वैसा प्लैन बहुत अच्छे-से-अच्छा बन जायेगा और सफलता तो जन्म-सिद्ध-अधिकार है ही है। इसलिए नवीनता को प्रत्यक्ष करो। जो भी ज्ञान की गुह्य बातें हैं, उसको स्पष्ट करने की विधि आपके पास बहुत अच्छी है और स्पष्टीकरण है। एक-एक प्वाइंट को लॉजिकल (तर्कशास्त्र के अनुसार) स्पष्ट कर सकते हो। अपनी अथॉर्टी (शक्ति, प्रभुत्व) वाले हो। कोई मनोमय वा कल्पना की बातें तो हैं नहीं। यथार्थ हैं। अनुभव है। अनुभव की अथॉर्टी, नॉलेज की अथॉर्टी, सत्यता की अथॉर्टी... कितनी अथॉर्टीज हैं! तो अथॉर्टी और स्नेह - दोनों को साथ-साथ कार्य में लगाओ।

बापदादा खुश हैं कि मेहनत से सेवा करते-करते इतनी वृद्धि को प्राप्त किया है और करते ही रहेंगे। चाहे देश है, चाहे विदेश है। देश में भी व्यक्ति और नब्ज देख सेवा करने में सफलता है। विदेश में भी इसी विधि से सफलता है। पहले सम्पर्क में लाते हो - यह धरनी बनती है। सम्पर्क के बाद फिर सम्बन्ध में लाओ, सिर्फ सम्पर्क तक छोड़ नहीं दो। सम्बन्ध में लाकर फिर उन्हों को बुद्धि से समर्पित कराओ - यह है लास्ट स्टेज। सम्पर्क में लाना भी आवश्यक है, फिर सम्बन्ध में लाना है। सम्बन्ध में आते-आते समर्पण बुद्धि हो जाए कि जो बाप ने कहा, वही सत्य है।' फिर क्वेश्चन (प्रश्न) नहीं उठते। जो बाबा कहता, वही सही है। क्योंकि अनुभव हो जाता तो फिर क्वेश्चन समाप्त हो जाता। इसको कहतेसमर्पण बुद्धि' जिसमें सब स्पष्ट अनुभव होता। लक्ष्य यह रखो कि समर्पण बुद्धि तक लाना अवश्य है। तब कहेंगे माइक तैयार हुए हैं। माइक क्या आवाज करेगा? सिर्फ अच्छा ज्ञान है इन्हों का, नहीं। यह नया ज्ञान है, यही नई दुनिया लायेगा - यह आवाज हो, तब तो कुम्भकरण जगेंगे ना। नहीं तो सिर्फ आँख खोलते हैं - बहुत अच्छा, बहुत अच्छा कह फिर नींद आ जाती है। इसलिए जैसे स्वयं बालक सो मालिक बन गये ना, ऐसे बनाओ। बेचारों को सिर्फ साधारण प्रजा तक नहीं लाओ, लेकिन राज्य-अधिकारी बनाओ। उसके लिए प्लैन बनाओ - किस विधि से करो जो कनफ्यूज भी न हों और समर्पण बुद्धि भी हो जाएँ। नवीनता भी लगे, उलझन भी अनुभव नहीं करें। स्नेह और नवीनता की अथॉर्टी लगे।

अब तक जो रिजल्ट रही, सेवा की विधि, ब्राह्मणों की वृद्धि रही, वह बहुत अच्छा है। क्योंकि पहले बीज को गुप्त रखा, वह भी आवश्यक है। बीज को गुप्त रखना होता है, बाहर रखने से फल नहीं देता। धरनी के अन्दर बीज को रखना होता है लेकिन अन्दर धरनी में ही न रह जाए। बाहर प्रत्यक्ष हो, फल स्वरूप बनें - यह आगे की स्टेज है। समझा? लक्ष्य रखो - नया करना है। ऐसे नहीं कि इस वर्ष ही हो जायेगा। लेकिन लक्ष्य बीज को भी बाहर प्रत्यक्ष करेगा। ऐसे भी नहीं सीधा जाकर भाषण करना शुरू कर दो। पहले सत्यता के शक्ति की भासना दिलाने के भाषण करने पड़ेंगे। आखिर वह दिन आये' - यह सबके मुख से निकले। जैसे ड्रामा में दिखाते हो ना, सब धर्म वाले मिलकर कहते हैं - हम एक हैं, एक के हैं। वह ड्रामा दिखाते हो, यह प्रैक्टिकल में स्टेज पर सब धर्म वाले मिलकर एक ही आवाज में बोलें। एक बाप है, एक ही ज्ञान है, एक ही लक्ष्य है, एक ही घर है, यही है - अब यह आवाज चाहिए। ऐसा दृश्य जब बेहद की स्टेज पर आये, तब प्रत्यक्षता का झण्डा लहरायेगा और इस झण्डे के नीचे सब यही गीत गायेंगे। सबके मुख से एक शब्द निकलेगा - बाबा हमारा' तब कहेंगे प्रत्यक्ष रूप में शिवरात्रि मनाई। अंधकार खत्म हो गोल्डन मॉर्निंग (सुनहरी प्रात:) के नजारे दिखाई देंगे। इसको कहते हैं - आज और कल का खेल। आज अंधकार, कल गोल्डन मॉर्निंग। यह है लास्ट पर्दा। समझा?

बाकी जो प्लैन बनाये हैं, वह अच्छे हैं। हर एक स्थान की धरनी प्रमाण प्लैन बनाना ही पड़ता है। धरनी के प्रमाण विधि में कोई अन्तर भी अगर करना पड़ता है तो ऐसी कोई बात नहीं है। लास्ट में सभी को तैयार कर मधुबन धरनी पर छाप जरूर लगानी है। भिन्न-भिन्न वर्ग को तैयार कर स्टैम्प (छाप) जरूर लगानी है। पासपोर्ट (विदेश-यात्रा का आज्ञापत्र) पर भी स्टैम्प लगाने सिवाए जाने नहीं देते हैं ना। तो स्टैम्प यहाँ मधुबन में ही लगेगी।

यह सब तो हैं ही सरेण्डर (समर्पित) अगर यह सरेण्डर नहीं होते तो सेवा के निमित्त कैसे बनते। सरेण्डर हैं तब ब्रह्माकुमार/ब्रह्माकुमारी बन सेवा के निमित्त बने हो। देश चाहे विदेश में कोई क्रिश्चियन-कुमारी वा बौद्ध-कुमारी बनकर तो सेवा नहीं करते हो? बी.के. बनकर ही सेवा करते हो ना। तो सरेण्डर ब्राह्मणों की लिस्ट में सभी हैं। अब औरों को कराना है। मरजीवा बन गये। ब्राह्मण बन गये। बच्चे कहते - मेरा बाबा', तो बाबा कहते - तेरा हो गया। तो सरेण्डर हुए ना। चाहे प्रवृत्ति में हो, चाहे सेन्टर पर हो लेकिन जिसने दिल से कहा - मेरा बाबा' तो बाप ने अपना बनाया। यह तो दिल का सौदा है। मुख का स्थूल सौदा नहीं है, यह दिल का है। सरेण्डर माना श्रीमत के अण्डर (अधीन) रहने वाले। सारी सभा सरेण्डर है ना। इसलिए फोटो भी निकाला है ना। अब चित्र में आ गये तो बदल नहीं सकते। परमात्म-घर में चित्र हो जाए, यह कम भाग्य नहीं है। यह स्थूल फोटो नहीं लेकिन बाप के दिल में फोटो निकल गया। अच्छा।

सर्व सत्यता की अथॉर्टी वाली श्रेष्ठ आत्माओं को, सर्व नवीनता और महानता को प्रत्यक्ष करने वाले सच्चे सेवाधारी बच्चों को, सर्व स्नेह और अथॉर्टी के बैलेन्स रखने वाले, हर कदम में बाप द्वारा ब्लैसिंग (आशीर्वाद) लेने के अधिकारी श्रेष्ठ आत्माओं को, सर्व सत् अर्थात् अविनाशी रत्नों को, अविनाशी पार्ट बजाने वालों की, अविनाशी खज़ाने के बालक सो मालिकों को विश्व-रचता सत् बाप, सत् शिक्षक, सत्गुरू का यादप्यार और नमस्ते।

पर्सनल मुलाकात (यू.के. ग्रुप से) - स्वयं को सम्पन्न बनाए औरों को भी सम्पन्न बनाने में बिजी (व्यस्त) रहते हो? लौकिक और अलौकिक डबल सेवा करने के निमित्त बने हुए हो। बापदादा बच्चों की विशेषता का वर्णन करते हैं। बाप से भी आगे हैं - जो भी सेवा की है, वह सब अच्छी की है और आगे भी अच्छे से अच्छी करने के निमित्त बनते रहेंगे। बाप अपने से भी बच्चों को सदैव आगे बढ़ाते हैं। बापदादा सभी बच्चों को आगे बढ़ाने की युक्ति बताते हैं, वह युक्ति क्या है? सबसे बड़े-ते-बड़ी युक्ति है - सहनशीलता के गुण को अपनाना'। जितना सहनशील होंगे, सत्यता की शक्ति होगी, उतना सहज अपना राज्य सतयुग ला सकेंगे। आप सब अनुभव की अथॉर्टी वाली आत्मायें हो। अनुभव की अथॉर्टी वाली आत्मा का प्रभाव बहुत जल्दी पड़ता है। अनुभव की अथॉर्टी बिना सेवा करते तो सफलता बहुत मुश्किल होती। यू.के. वा ओ.के. (O.K.) का टाइटल (पदवी, खिताब) बहुत अच्छा मिला हुआ है। जब ओ.के. लिखते हो तो जैसे बाप का चित्र बनाते हो। ओ अर्थात् बाप ओ.के और के' अर्थात् किंगडम (राजाई) तो ओ.के. कहने में बाप की याद भी है और वर्से की भी याद है। तो ओ.के. वालों को न बाप भूलेगा, न वर्सा भूलेगा। तो जब भी ओ.के.' कहो तो बाबा हमारा' यही याद आ जाए। अच्छा।

सेवा के आधारमूर्त आप लोग हो। माताओं ने आदि में स्थापना में विशेष पार्ट बजाया। तो खुशी है ना! अच्छा।

कुमारियाँ तो हैं ही श्रेष्ठ भाग्य के सितारे वाली। सभी के मस्तक पर भाग्य का सितारा चमक गया। कुमारियाँ अर्थात् तकदीर बनाकर के आई। कुमारियों की महिमा बाप गाते हैं क्योंकि यह एक-एक कुमारी सेवाधारी है। दुनिया वाले कहते - एक कुमारी 21 कुल तारने वाली है, बाप कहते - एक-एक कुमारी विश्वकल् याणी है, विश्व का उद्धार करने वाली है। तो विश्व-सेवा के कॉन्ट्रैक्टर (ठेकेदार) बन गई। कितना अच्छा जॉब (काम) है! सारे विश्व की आत्मायें कितनी दुआयें देंगी! बाप की भी दुआयें, परिवार की भी दुआयें और साथ-साथ विश्व की आत्मायें भी दुआयें करेंगी। सर्व के दुआओं की अधिकारी बन गई। अच्छा।

(भारतवासी भाई-बहिनों से) - भारतवासी रहने में समीप हैं, दिल से भी समीप है। भारतवासी जगे, तब दुनिया जगी। तो भारतवासी बच्चे विश्व-कल्याण की नींव हो गये ना। विश्व सेवा की नींव भारत के बच्चे हैं। इसलिए आपका महत्त्व अपना है, विदेश में रहने वालों का महत्त्व अपना है। भारत ही लाइट हाउस (रोशनी का भण्डार) है। लाइट देने वाले तो आप हो। तो आपका भी महत्त्व महान है। बापदादा को हर बच्चा अति स्नेही है, अति लाडला है। अगर औरों को भारतवासी चांस देते हैं तो यह भी त्याग का भाग्य मिलता है; जाता नहीं है, जमा होता है। भारतवासी वैसे तो बेहद के वासी हो लेकिन निशानी कहने में आती है। भारत का महत्त्व, भारत की महानता आप आत्माओं की महानता है। समझा?

यहाँ समय और सीजन देखनी पड़ती है क्योंकि देखने की दुनिया में आते हैं। अगर वहाँ आओ तो फिर टाइम की लिमिट (हद, सीमा) नहीं। वहाँ 10 घण्टे भी एक-एक मिल सकते हैं। यहाँ 10 मिनट भी मुश्किल हैं क्योंकि अपना तन तो है नहीं ना। पराया है। जो लोन लिया जाता है, वह देना होता है ना। अपना हो तो देने की बात ही नहीं। बाकी हरेक बच्चा बाप को अति प्रिय है। हरेक कोटों में कोई, कोई-में-कोई है; तो विशेष है। बापदादा हर बच्चे को विशेष आत्मा के रूप में देखते हैं, ऐसे बच्चे भी ऊँचे-ते-ऊँचे हुए ना! सभी श्रेष्ठ हैं और श्रेष्ठ ही रहेंगे, अनेक जन्म के लिए श्रेष्ठ रहेंगे। बापदादा उसी नजर से देखते हैं। यह ब्राह्मण आत्मायें सो देव आत्मायें हैं। तो कितने महान हुए! क्या महिमा करें! अच्छा।

(मधुबन निवासियों से) - मधुबन निवासियों को किसी-न-किसी प्रकार से सदा ही प्रसाद मिलता रहता है। सेवा भी दिल से करते हो और प्रसाद भी दिल से मिलता है। सेवा करते हो, इसलिए मधुबन में, तपस्या-भूमि में रहने का अधिकार मिला है। यह अधिकार ही एक महान प्रसाद है। यहाँ की पालना भी महान प्रसाद है। इस भूमि पर सहज याद का जो अनुभव होता है - यह भी महान प्रसाद है। तो आप अब प्रसाद ही खाते हो, भोजन नहीं खाते। जो सदा प्रसाद खाये, वह क्या हुआ? इतनी पुण्य आत्मायें हुए ना। महान आत्मायें हुए ना। और जो भी यहाँ आते हैं, सब महान आत्माओं की नजर से देखते हैं। तो महान हो, महान सेवा के निमित्त हो क्योंकि महायज्ञ है ना। महायज्ञ की सेवा, वह भी महान सेवा हो गई। स्वयं भी महान, सेवा भी महान, प्राप्ति्ा भी महान। और बाकी क्या रहा? चलते-फिरते सारे ब्राह्मण परिवार की मीठी दृष्टि किसके ऊपर पड़ती है? यह भाग्य भी कम नहीं है। हर श्रेष्ठ आत्मा मधुबन में आती है। सारा ब्राह्मण परिवार मधुबन में ही आता है। तो इतने ब्राह्मणों की दृष्टि, इतने ब्राह्मणों की शुभ भावना-शुभ कामनायें सब मधुबन निवासियों को ही प्राप्त होती हैं। इसलिए, सेवा का फल मिल रहा है। अच्छा। मेहनत, मेहनत करके नहीं करते हो, खेल करके करते हो, मनोरंजन करके करते हो। यह भी विशेषता अच्छी है। यज्ञ-सेवा पुण्य की सेवा समझकर करते हो, इसलिए थकावट नहीं होती। और ही, कोई नहीं होता तो अकेले हो जाते हो। अच्छा।

(कुमारियों के साथ) - एक-एक कुमारी विश्व-कल्याणकारी है ना। दुनिया में तो कहते हैं - एक-एक कुमारी जाकर अपना घर बसायेगी। यहाँ बाप कहते हैं - एक-एक कुमारी सेवाकेन्द्र खोल अनेकों का कल्याण करेगी, ऐसी कुमारियाँ हो? लौकिक माँ-बाप घर बनाकर देते हैं, उससे तो गिरती कला होती है और अलौकिक बाप, पारलौकिक बाप सेन्टर खोलकर देते हैं जिससे स्व-उन्नति भी और अन्य आत्माओं की भी उन्नति हो। तो ऐसी कुमारियों को कहते हैं पूज्यनीय कुमारियाँ। इसलिए, अभी तक भी लास्ट जन्म में भी कुमारियों की पूजा करते हैं। ऐसी कुमारियाँ विश्व के आगे कितनी महान गाई जाती हैं। तो सदा स्वयं को विश्वकल् याणकारी समझ सेवा में आगे बढ़ती चलो। कुमारियों को देख बापदादा बहुत खुश होते हैं - जितनी कुमारियाँ हैं, उतने सेन्टर खुलेंगे! हिम्मत वाली हो ना? घबराने वाली तो नहीं? पूज्य कुमारियाँ हो। कुमारी शब्द ही पवित्रता का सूचक है। पवित्र का ही पूजन है। सदा स्वयं भी पावन रहेंगी और दूसरों को भी पवित्रता की शक्ति देने का श्रेष्ठ कार्य करती रहेंगी। पवित्रता की शक्ति जमा है ना? तो जो जमा होता है वह दूसरों को दिया जाता है। तो सदैव अपने को पवित्रता की देवियाँ समझो। अच्छा।

(पार्टियों से) - अपने को श्रेष्ठ, भाग्यवान अनुभव करते हो? क्योंकि सारे कल्प में ऐसा श्रेष्ठ भाग्य प्राप्त होना, इस समय ही होता है। इस संगमयुग के महत्त्व को अच्छी तरह से जान गये हो ना? सतयुग में भी इस समय के भाग्य की प्राप्ति का फल प्रालब्ध के रूप में प्राप्त होता है। तो जितना इस समय के महत्व को स्मृति में रखेंगे, तो समय की सर्व महानतायें अपने जीवन में प्राप्त करते रहेंगे। सबसे ज्यादा भाग्यवान कौन है? सभी कहेंगे - मैं भाग्यविधाता बाप का बच्चा भाग्यवान हूँ। क्योंकि यह रूहानी नशा है, यह बॉडी-कॉनसेस (body-concious) नहीं है। इसलिए, हर एक बाप के बच्चे एक दो से भाग्यवान, श्रेष्ठ हो। यह शुद्ध नशा है। इस नशे में भाग्य को देख भाग्यविधाता बाप याद रहता है। इसलिए जहाँ बाप की याद होती है, वहाँ बॉडी-कॉनसेस की उत्पत्ति नहीं हो सकती। इसमें नुकसान नहीं, प्राप्ति ही प्राप्ति है। तो सभी इस निश्चय और नशे में रहने वाले हो, इसलिए दुनिया के वायब्रेशन से भी दूर रहते हो। दुनिया में रहते बाप के पास रहते हो ना? जो बाप के साथ वा पास रहते वह दुनिया के विकारी वायब्रेशन या आकर्षण के प्रभाव से दूर रहते हैं। तो साथ रहते हो या दूर? - ‘मेरा बाबा' और इतना प्राप्ति कराने वाला तो कोई और हो ही नहीं सकता, तो फिर साथ कैसे छोड़ सकते हो? या कभी-कभी इससे भी स्वतन्त्र होना चाहते हो? डबल विदेशी स्वतन्त्रता ज्यादा चाहते हैं ना। यह फ्रीडम नहीं है? सदा बाप के साथ रहना, साथ रहते-रहते बाप समान बन जायेंगे। अच्छा। सभी सच्चे सेवाधारी हो ना? जैसे बाप के बिना नहीं रह सकते, ऐसे सेवा के बिना भी नहीं रह सकते।



01-10-87   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


आध्यात्मिक संत सम्मेलन के पश्चात् बापदादा की पधरामणि

सर्व सेवाधारी बच्चों को सेवा की मुबारक देते हुए स्नेह के सागर बापदादा बोले

आज स्नेह के सागर अपने स्नेही बच्चों से मिलने आये हैं। बाप और बच्चों का स्नेह विश्व को स्नेह सूत्र में बांध रहा है। जब स्नेह के सागर और स्नेह सम्पन्न नदियों का मेल होता है तो स्नेह-भरी नदी भी बाप समान मास्टर स्नेह का सागर बन जाती है। इसलिए विश्व की आत्मायें स्नेह के अनुभव से स्वत: ही समीप आती जा रही हैं। पवित्र प्यार वा ईश्वरीय परिवार के प्यार से - कितनी भी अन्जान आत्मायें हों, बहुत समय से परिवार के प्यार से वंचित पत्थर समान बनने वाली आत्मा हो लेकिन ऐसे पत्थर समान आत्मायें भी ईश्वरीय परिवार के स्नेह से पिघल पानी बन जाती है। यह है ईश्वरीय परिवार के प्यार की कमाल। कितना भी स्वयं को किनारे करे लेकिन ईश्वरीय प्यार चुम्बक के समान स्वत: ही समीप ले आता है। इसको कहते हैं ईश्वरीय स्नेह का प्रत्यक्षफल। कितना भी कोई स्वयं को अलग रास्ते वाले मानें लेकिन ईश्वरीय स्नेह सहयोगी बनाएआपस में एक हो' आगे बढ़ने के सूत्र में बांध देता है। ऐसा अनुभव किया ना।

स्नेह पहले सहयोगी बनाता है, सहयोगी बनाते-बनाते स्वत: ही समय पर सर्व को सहजयोगी भी बना देता है। सहयोगी बनने की निशानी है - आज सहयोगी हैं, कल सहज-योगी बन जायेंगे। ईश्वरीय स्नेह परिवर्तन का फाउन्डेशन (नींव) है अथवा जीवन-परिवर्तन का बीज स्वरूप है। जिन आत्माओं में ईश्वरीय स्नेह की अनुभूति का बीज पड़ जाता है, तो यह बीज सहयोगी बनने का वृक्ष स्वत: ही पैदा करता रहेगा और समय पर सहजयोगी बनने का फल दिखाई देगा क्योंकि परिवर्तन का बीज फल जरूर दिखाता है। सिर्फ कोई फल जल्दी निकलता है, कोई फल समय पर निकलता है। चारों ओर देखो, आप सभी मास्टर स्नेह के सागर, विश्व-सेवाधारी बच्चे क्या कार्य कर रहे हो? विश्व में ईश्वरीय परिवार के स्नेह का बीज बो रहे हो। जहाँ भी जाते हो - चाहे कोई नास्तिक हो वा आस्तिक हो, बाप को न भी जानते हों, न भी मानते हों लेकिन इतना अवश्य अनुभव करते हैं कि ऐसा ईश्वरीय परिवार का प्यार जो आप शिववंशी ब्रह्माकुमार-ब्रह्माकुमारियों से मिलता है, यह कहीं भी नहीं मिलता और यह भी मानते हैं कि यह स्नेह वा प्यार साधारण नहीं है, यह अलौकिक प्यार है वा ईश्वरीय स्नेह है। तो इन्डायरेक्ट नास्तिक से आस्तिक हो गया ना। ईश्वरीय प्यार है, तो वह कहाँ से आया? किरणें सूर्य को स्वत: ही सिद्ध करती हैं। ईश्वरीय प्यार, अलौकिक स्नेह, नि:स्वार्थ स्नेह स्वत: ही दाता बाप को सिद्ध करता ही है। इन्डायरेक्ट ईश्वरीय स्नेह के प्यार द्वारा स्नेह के सागर बाप से सम्बन्ध जुट जाता है लेकिन जानते नहीं हैं। क्योंकि बीज पहले गुप्त रहता है, वृक्ष स्पष्ट दिखाई देता है। तो ईश्वरीय स्नेह का बीज सर्व को सहयोगी सो सहजयोगी, प्रत्यक्षरूप में समय प्रमाण प्रत्यक्ष कर रहा है और करता रहेगा। तो सभी ने ईश्वरीय स्नेह के बीज डालने की सेवा की। सहयोगी बनाने की शुभ भावना और शुभ कामना के विशेष दो पत्ते भी प्रत्यक्ष देखे। अभी यह तना वृद्धि को प्राप्त करते प्रत्यक्षफल दिखायेगा।

बापदादा सर्व बच्चों के वैराइटी (भिन्न-भिन्न) प्रकार की सेवा को देख हर्षित होते हैं। चाहे भाषण करने वाले बच्चे, चाहे स्थूल सेवा करने वाले बच्चे - सर्व के सहयोग की सेवा से सफलता का फल प्राप्त होता है। चाहे पहरा देने वाले हों, चाहे बर्तन सम्भालने वाले हों लेकिन जैसे पांच अंगुलियों के सहयोग से कितना भी श्रेष्ठ कार्य, बड़ा कार्य सहज हो जाता है, ऐसे हर एक ब्राह्मण बच्चों के सहयोग से जितना सोचा था कि ऐसा होगा, उस सोचने से हजार गुणा ज्यादा सहज कार्य हो गया। यह किसकी कमाल है? सभी की। जो भी कार्य में सहयोगी बने - चाहे स्वच्छता भी रखी, चाहे टेबल (मेज) साफ किया लेकिन सर्व के सहयोग की रिजल्ट (परिणाम) सफलता है। यह संगठन की शक्ति महान है। बापदादा देख रहे थे - न सिर्फ मधुबन में आने वाले बच्चे लेकिन जो साकार में भी नहीं थे, चारों ओर के ब्राह्मण बच्चों की, चाहे देश, चाहे विदेश - सबके मन की शुभ-भावना और शुभ-कामना का सहयोग रहा। यह सर्व आत्माओं की शुभ भावना, शुभ कामना का किला आत्माओं को परिवर्तन कर लेता है। चाहे निमित्त शक्तियाँ भी रहीं, पाण्डव भी रहे। निमित्त सेवाधारी विशेष हर कार्य में बनते ही हैं लेकिन वायुमण्डल का किला सर्व के सहयोग से ही बनता है। निमित्त बनने वाले बच्चों को भी बापदादा मुबारक देते हैं, लेकिन सबसे ज्यादा मुबारक सभी बच्चों को। बाप को बच्चे मुबारक क्या देंगे। क्योंकि बाप तो अव्यक्त हो गया। व्यक्त में तो बच्चों को निमित्त बनाया। इसलिए, बापदादा सदा बच्चों के ही गीत गाते हैं। आप बाप के गीत गाओ, बाप आपके गीत गाये।

जो भी किया, बहुत अच्छा किया। भाषण करने वालों ने भाषण अच्छे किये, स्टेज सजाने वालों ने स्टेज अच्छी सजाई और विशेष योगयुक्त भोजन बनाने वाले, खिलाने वाले, सब्जी काटने वाले रहे। पहले फाउन्डेशन तो सब्जी कटती है। सब्जी नहीं कटे तो भोजन क्या बनेगा? सब डिपार्टमेन्ट वाले आलराउण्ड (सर्व प्रकार की) सेवा के निमित्त रहे। सुनाया ना - अगर सफाई वाले सफाई नहीं करते तो भी प्रभाव नहीं पड़ता। हर एक का चेहरा ईश्वरीय स्नेह सम्पन्न नहीं होता तो सेवा की सफलता कैसी होती। सभी ने जो भी कार्य किया, स्नेह भरकर के किया। इसलिए, उन्हों में भी स्नेह का बीज पड़ा। उमंग-उत्साह से किया, इसलिए उन्हों में भी उमंग-उत्साह रहा। अनेकता होते भी स्नेह के सूत्र के कारण एकता की ही बातें करते रहे। यह वायुमण्डल के छत्रछाया की विशेषता रही। वायुमण्डल छत्रछाया बन जाता है। तो छत्रछाया के अन्दर होने के कारण कैसे भी संस्कार वाले स्नेह के प्रभाव में समाये हुए थे। समझा? सभी की बड़े ते बड़ी ड्यूटी (जिम्मेवारी) थी। सभी ने सेवा की। कितना भी वो और कुछ बोलने चाहें, तो भी बोल नहीं सकते वायुमण्डल के कारण। मन में कुछ सोचें भी लेकिन मुख से निकल नहीं सकता क्योंकि प्रत्यक्ष आप सबकी जीवन के परिवर्तन को देख उन्हों में भी परिवर्तन की प्रेरणा स्वत: ही आती रही। प्रत्यक्ष प्रमाण देखा ना। शास्त्र प्रमाण से भी, सबसे बड़ा प्रत्यक्ष प्रमाण है। प्रत्यक्ष प्रमाण के आगे और सब प्रमाण समा जाते हैं। यह रही सेवा की रिजल्ट। अभी भी उसी स्नेह के सहयोग की विशेषता से और समीप लाते रहेंगे तो और भी सहयोग में आगे बढ़ते अव्यक्त वाणी 1987 69 जायेंगे। फिर भी प्रत्यक्षता का आवाज बुलन्द तभी होगा, जब सब सत्ताओं का सहयोग होगा।

विशेष सर्व सत्तायें जब मिलकर एक आवाज बुलन्द करें, तब ही प्रत्यक्षता का पर्दा विश्व के आगे खुलेगा। वर्तमान समय जो सेवा का प्लान बनाया है, वह इसलिए ही बनाया है ना। सभी वर्ग वाले अर्थात् सत्ता वाले सम्पर्क में, सहयोग में आयें, स्नेह में आयें तो फिर सम्बन्ध में आकर सहजयोगी बन जायेंगे। अगर कोई भी सत्ता सहयोग में नहीं आती है तो सर्व के सहयोग का जो कार्य रखा है, वह सफल कैसे होगा?

अभी फाउण्डेशन पड़ा विशेष सत्ता का। धर्म सत्ता सबसे बड़े ते बड़ी सत्ता है ना। उस विशेष सत्ता द्वारा फाउण्डेशन आरम्भ हुआ। स्नेह का प्रभाव देखा ना। वैसे लोग क्या कहते थे कि - यह इतने सब इकट्ठे कैसे बुला रहे हो? यह लोग भी सोचते रहे ना। लेकिन ईश्वरीय स्नेह का सूत्र एक था, इसलिए, अनेकता के विचार होते हुए भी सहयोगी बनने का विचार एक ही रहा। ऐसे अभी सर्व सत्ताओं को सहयोगी बनाओ। बन भी रहे हैं लेकिन और भी समीप, सहयोगी बनाते चलो। क्योंकि अभी गोल्डन जुबली (स्वर्ण जयन्ती) समाप्त हुई, तो अभी से, और प्रत्यक्षता के समय आ गये। डायमन्ड जुबली अर्थात् प्रत्यक्षता का नारा बुलन्द करना। तो इस वर्ष से प्रत्यक्षता का पर्दा अभी खुलने आरम्भ हुआ है। एक तरफ विदेश द्वारा भारत में प्रत्यक्षता हुई, दूसरे तरफ निमित्त महामण्डलेश्वरों द्वारा कार्य की श्रेष्ठता की सफलता। विदेश में यू.एन. (U.N.) वाले निमित्त बने, वे भी विशेष नामीग्रामी और भारत में भी नामीग्रामी धर्म सत्ता है। तो धर्म सत्ता वालों द्वारा धर्म-आत्माओं की प्रत्यक्षता हो - यह है प्रत्यक्षता का पर्दा खुलना आरम्भ होना। अजुन खुलना आरम्भ हुआ है। अभी खुलने वाला है। पूरा नहीं खुला है, आरम्भ हुआ है। विदेश के बच्चे जो कार्य के निमित्त बने, यह भी विशेष कार्य रहा। प्रत्यक्षता के विशेष कार्य में इस कार्य के कारण निमित्त बन गये। तो बापदादा विदेश के बच्चों को इस अन्तिम प्रत्यक्षता के हीरो पार्ट में निमित्त बनने के सेवा की भी विशेष मुबारक दे रहे हैं। भारत में हलचल तो मचा ली ना। सबके कानों तक आवाज गया। यह विदेश का बुलन्द आवाज भारत के कुम्भकरणों को जगाने के निमित्त तो बन गया। लेकिन अभी सिर्फ आवाज गया है, अभी और जगाना है, उठाना है। अभी सिर्फ कान तक आवाज पहुँचा है। सोये हुए को अगर कान में आवाज जाता है तो थोड़ा हिलता है ना, हलचल तो करता है ना। तो हलचल पैदा हुई। हलचल में थोड़े जागे हैं, समझते कि यह भी कुछ हैं। अभी जागेंगे तब जब और जोर से आवाज करेंगे। अभी पहले भी थोड़ा जोर से हुआ। ऐसे ही कमाल तब हो जब सब सत्ता वाले इकट्ठे स्टेज पर स्नेह मिलन करें। सब सत्ता की आत्माओं द्वारा ईश्वरीय कार्य की प्रत्यक्षता आरम्भ हो, तब प्रत्यक्षता का पर्दा पूरा खुलेगा। इसलिए, अभी जो प्रोग्राम बना रहे हो उसमें यह लक्ष्य रखा कि सब सत्ताओं का स्नेह मिलन हो। सब वर्गों का स्नेह मिलन तो हो सकता है। जैसे साधारण साधुओं को बुलाते तो कोई बड़ी बात नहीं, लेकिन यह महामण्डलेश्वरों को बुलाया ना। ऐसे तो शंकराचार्य की भी इस संगठन में और ही शोभा होती। लेकिन अब उसका भी भाग्य खुल जायेगा। अन्दर से तो फिर भी सहयोगी है। बच्चों ने मेहनत भी अच्छी की। लेकिन फिर भी लोकलाज तो रखनी पड़ती है। वह भी दिन आयेगा जब सभी सत्ता वाले मिल करके कहेंगे कि श्रेष्ठ सत्ता, ईश्वरीय सत्ता, आध्यात्मिक सत्ता है तो एक परमात्म-सत्ता ही है। इसलिए लम्बे समय का प्लान बनाया है ना। इतना समय इसलिए मिला है कि सभी को स्नेह के सूत्र में बाँध समीप लाओ। यह स्नेह चुम्बक बनेगा जो सब एक साथ संगठन रूप में बाप की स्टेज पर पहुँच जाए। ऐसा प्लान बनाया है ना? अच्छा।

सेवाधारियों को सेवा का प्रत्यक्षफल भी मिल गया। नहीं तो, अभी नम्बर नये बच्चों का है ना। आप लोग तो मिलन मनाते-मनाते अब वानप्रस्थ अवस्था तक पहुँचे हो। अभी अपने छोटे भाई-बहिनों को टर्न दे रहे हो। स्वयं वानप्रस्थी बने तब औरों को चांस दिया। इच्छा तो सबकी बढ़ती ही जायेगी। सब कहेंगे - अभी भी मिलने का चांस मिलना चाहिए। जितना मिलेंगे, उतना और इच्छा बढ़ती जायेगी। फिर क्या करेंगे? औरों को चांस देना भी स्वयं तृप्ति का अनुभव करना है। क्योंकि पुराने तो अनुभवी हैं, प्राप्ति-स्वरूप हैं। तो प्राप्ति-स्वरूप आत्मायें अव्यक्त वाणी 1987 71 सदा पर की शुभ भावना रखने वाले, औरों को आगे रखने वाले हो। या समझते हो हम तो मिल लेवें? इसमें भी नि:स्वार्थी बनना है। समझदार हो। आदि, मध्य, अन्त को समझने वाले हो। समय को भी समझते हो। प्रकृति के प्रभाव को भी समझते हो। पार्ट को भी समझते हो। बापदादा भी सदा ही बच्चों से मिलने चाहते हैं। अगर बच्चे मिलने चाहते तो पहले बाप चाहता, तब बच्चे भी चाहते। लेकिन बाप को भी समय को, प्रकृति को देखना तो पड़ता है ना। जब इस दुनिया में आते हैं तो दुनिया की सब बातों को देखना पड़ता है। जब इनसे दूर अव्यक्त वतन में हैं तो वहाँ तो पानी की, समय की, रहने आदि की प्रोब्लम (समस्या) ही नहीं। गुजरात वाले समीप रहते हैं। तो इसका भी फल मिला है ना। यह भी गुजरात वालों की विशेषता है, सदैव एवररेडी रहते हैं। हाँ जी' का पाठ पक्का है और जहाँ भी रहने का स्थान मिले, तो रह भी जाते हैं। हर परिस्थिति में खुश रहने की भी विशेषता है। गुजरात में वृद्धि भी अच्छी हो रही है। सेवा का उमंग- उत्साह स्वयं को भी निर्विघ्न बनाता, दूसरों का भी कल्याण करता है। सेवाभाव की भी सफलता है। सेवा-भाव में अगर अहम्-भाव आ गया तो उसको सेवा-भाव नहीं कहेंगे। सेवा-भाव सफलता दिलाता है। अहम्-भाव अगर मिक्स होता है तो मेहनत भी ज्यादा, समय भी ज्यादा, फिर भी स्वयं की सन्तुष्टी नहीं होती। सेवाभाव वाले बच्चे सदा स्वयं भी आगे बढ़ते और दूसरों को भी आगे बढ़ाते हैं। सदा उड़ती कला का अनुभव करते हैं। अच्छी हिम्मत वाले हैं। जहाँ हिम्मत है वहाँ बापदादा भी हर समय कार्य में मददगार हैं।

महारथी तो हैं ही महादानी। जो भी महारथी सेवा के प्रति आये हैं, महादानी वरदानी हो ना? औरों को चांस देना - यह भी महादान, वरदान है। जैसा समय, वैसा पार्ट बजाने में भी सब सिकीलधे बच्चे सदा ही सहयोगी रहे हैं और रहेंगे। इच्छा तो होगी क्योंकि यह शुभ इच्छा है। लेकिन इसको समाने भी जानते हैं। इसलिए सभी सदा सन्तुष्ट हैं।

बापदादा भी चाहते हैं कि एक-एक बच्चे से मिलन मनावें और समय की सीमा भी नहीं होनी चाहिए। लेकिन आप लोगों की दुनिया में यह सभी सीमाएं देखनी पड़ती हैं। नहीं तो, एक-एक विशेष रतन की महिमा अगर गायें तो कितनी बड़ी है। कम से कम एक-एक बच्चे की विशेषता का एक-एक गीत तो बना सकते हैं। लेकिन... इसलिए कहते हैं वतन में आओ जहाँ कोई सीमा नहीं। अच्छा।

सदा ईश्वरीय स्नेह में समाये हुए, सदा हर सेकेण्ड सर्व के सहयोगी बनने वाले, सदा प्रत्यक्षता के पर्दे को हटाए बाप को विश्व के आगे प्रत्यक्ष करने वाले, सदा सर्व आत्माओं को प्रत्यक्ष-प्रमाण-स्वरूप बन आकर्षित करने वाले, सदा बाप और सर्व के हर कार्य में सहयोगी बन एक का नाम बाला करने वाले, ऐसे विश्व के इष्ट बच्चों को, विश्व के विशेष बच्चों को बापदादा का अति स्नेह सम्पन्न यादप्यार। साथ-साथ सर्व देश-विदेश के स्नेह से बाप के सामने पहुँचने वाले सर्व समीप बच्चों को सेवा की मुबारक के साथ-साथ बापदादा का विशेष यादप्यार स्वीकार हो।

मुख्य भाइयों के साथ अव्यक्त बापदादा की मुलाकात

पाण्डवों की विजय सदा गाई हुई है। पाण्डवों के मस्तक पर सदा विजय का तिलक है ही है। पाण्डवों को ही विजयी पाण्डव कहते हैं। स्व पर विजय, सेवा में विजय। तो डबल विजय का तिलक है ना। बापदादा जब महावीर पाण्डवों को देखते हैं तो सदैव मस्तक पर डबल विजय का तिलक देखते हैं। यही पाण्डवों की विशेषता हर कल्प की गाई हुई है। यह अमिट यादगार है। तो यादगार से प्रसिद्ध हुई आत्मायें हो। शक्तियाँ अपनी सेवा की स्टेज पर हैं लेकिन पाण्डवों की विशेषता अपनी है। पाण्डवों की विशेषता - सदा ही सेवा में उन्नति का सूर्य उदय करना। सेवा की विशेषता का शृंगार पाण्डव हैं। शक्तियाँ सहयोगी हैं लेकिन निमित्त उन्नति के आधार पाण्डव हैं। इसलिए, पाण्डवों की विशेषता वर्णन करने बैठें तो पूरी मुरली चल जाए। पाण्डव सदा ही प्रसिद्ध हैं। भक्ति में भी कोई पूजा होती है तो पहले गणेश की पूजा करते हैं ना। साकार में बापदादा ने इसको (जगदीश भाई को) यह टाईटल दिया। तो यह टाईटल कम नहीं है। बिना गणेश के यानी पाण्डवों के पूजा शुरू नहीं होती। शक्तियों के सहयोग के बिना पाण्डव नहीं, पाण्डवों के सेवा की उन्नति के पुरूषार्थ के बिना शक्तियों के सेवा की विजय नहीं। दोनों ही एक दो के साथी हैं। पाण्डवों को सदैव दिल से ब्रह्मा के हमशरीक साथी कहते हैं। तो ब्रह्मा बाप के हम साथी हैं! कितनी कमाल है! शक्तियों को आगे रखना - यह भी पाण्डवों की कमाल है। अगर पाण्डव शक्तियों को आगे न रखें तो शक्तियाँ क्या करेगी? यह पाण्डवों की विशेषता है। समय प्रमाण शक्तियों को आगे रखना ही पड़ता है। पाण्डव सहयोगी बन आगे रखते हैं, तब शक्तियों की महिमा होती है! पाण्डव कोई कम नहीं हैं। सिर्फ कहीं-कहीं शक्तियों का नाम प्रत्यक्ष हो जाता है, पाण्डवों का गुप्त हो जाता है। वैसे बाप भी गुप्त है। नाम तो बच्चों का होता, बाप का कहाँ होता है। तो पाण्डव सदा विजय के तिलकधारी हो। पाण्डवों के आगे टाइटल है - विजयी पाण्डव'। सभी ने बहुत अच्छा किया। जैसे बापदादा चाहते हैं - प्यार-प्यार से फूँक भी लगाओ और अपना कार्य भी कर लो, ऐसे किया। अच्छी सेवा हुई। अच्छा।

आन्ध्र प्रदेश ग्रुप से बापदादा की मुलाकात

सभी अपने को श्रेष्ठ भाग्यवान आत्मा समझते हो? सदा हर कदम में आगे बढ़ते जा रहे हो? क्योंकि जब बाप के बन गये तो पूरा अधिकार प्राप्त करना बच्चों का पहला कर्त्तव्य है। सम्पन्न बनना अर्थात् सम्पूर्ण अधिकार प्राप्त करना। ऐसे स्वयं को सम्पन्न अनुभव करते हो? जब भाग्यविधाता भाग्य बांट रहे हैं, तो पूरा भाग्य लेना चाहिए ना। तो थोड़े में राजी होने वाले हो या पूरा लेने वाले हो? बच्चे अर्थात् पूरा अधिकार लेने वाले। हम कल्प-कल्प के अधिकारी हैं - यह स्मृति सदा समर्थ बनाते हुए आगे बढ़ाती रहेगी। यह नई बात नहीं कर रहे हो, यह प्राप्त हुआ अधिकार फिर से प्राप्त कर रहे हो। नई बात नहीं है। कई बार मिले हैं और अनेक बार आगे भी मिलते रहेंगे। आदि, मध्य, अन्त तीनों कालों को जानने वाले हैं - यह नशा सदा रहता है? जो भी प्राप्ति हो रही है वह सदा है, अविनाशी है - यह निश्चय और नशा हो तो इसी आधार से उड़ती कला में उड़ते रहेंगे। अच्छा।

जैसे बाप ज्ञान का सागर है, ऐसे मास्टर ज्ञान के सागर बन सदा औरों को भी ज्ञान दान देते रहते हो ना। ज्ञान का कितना श्रेष्ठ खज़ाना मिला है। ऐसा श्रेष्ठ खज़ाना इस समय और किसी आत्माओं के पास है नहीं। तो आप भाग्यवान बन गये ना। सदा अपने इस श्रेष्ठ भाग्य को स्मृति में रख आगे बढ़ते चलो। याद के अनुभव से औरों की भी सेवा कर औरों को भी आप समान भाग्यवान बनाते चलो। क्योंकि ब्राह्मण जीवन का लक्ष्य ही है - सेवाधारी बन सेवा करना। जितनी सेवा करेंगे उतनी खुशी बढ़ती जायेगी। कभी कोई दु:ख की लहर तो नहीं आती है? सुखदाता के बच्चे बन गये तो कभी भी दु:ख की लहर आ नहीं सकती। सदैव यह याद रखो कि हम सुख के सागर के बच्चे हैं। सुख के सागर के बच्चों के पास दु:ख आ नहीं सकता। सदा महादानी बन जो भी खज़ाने मिले हैं, उनका दान करते रहो। क्योंकि यह खज़ाने जितना दान करेंगे उतना और भी बढ़ते जायेंगे। वो खज़ाने दान करने से कम होते हैं लेकिन यह बढ़ते हैं। तो महादानी बनना अर्थात् देना नहीं बल्कि और भी भरना। तो सदा अपने को ऐसे पद्मों की कमाई जमा करने वाली विशेष आत्मा समझकर चलो। अच्छा।



05-10-87   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


ब्राह्मण जीवन का सुख -सन्तुष्टता' प्रसन्नता'

संतुष्टता और प्रसन्नता का खज़ाना देने वाले, विधाता, वरदाता बापदादा बोले

आज बापदादा चारों ओर के अपने अति लाडले, सिकीलधे ब्राह्मण बच्चों में से विशेष ब्राह्मण जीवन की विशेषता सम्पन्न बच्चों को देख रहे हैं। आज अमृतवेले बापदादा सर्व ब्राह्मण कुल बच्चों में से उन विशेष आत्माओं को चुन रहे थे जो सदा सन्तुष्टता द्वारा स्वयं भी सदा सन्तुष्ट रहे हैं और औरों को भी सन्तुष्टता की अनुभूति अपनी दृष्टि, वृत्ति और कृति द्वारा सदा कराते आये हैं। तो आज ऐसी सन्तुष्टमणियों की माला पिरो रहे थे जो सदा संकल्प में, बोल में, संगठन के सम्बन्ध-सम्पर्क में, कर्म में सन्तुष्टता के गोल्डन पुष्प बापदादा द्वारा अपने ऊपर बरसाने का अनुभव करते और सर्व प्रति सन्तुष्टता के गोल्डन पुष्पों की वर्षा सदा करते रहते हैं। ऐसी सन्तुष्ट आत्मायें चारों ओर में से कोई-कोई नजर आई। माला बड़ी नहीं बनी, छोटी-सी माला बनी। बापदादा बारबार सन्तुष्टमणियों की माला को देख हर्षित हो रहे थे। क्योंकि ऐसी सन्तुष्टमणियाँ ही बापदादा के गले का हार बनती हैं, राज्य अधिकारी बनती हैं और भक्तों के सिमरण की माला बनती हैं।

बापदादा और बच्चों को भी देख रहे थे जो कभी सन्तुष्ट और कभी असन्तुष्ट के संकल्प-मात्र छाया के अन्दर आ जाते हैं और फिर निकल आते हैं, फँस नहीं जाते। तीसरे बच्चे कभी संकल्प की असन्तुष्टता, कभी स्वयं की स्वयं से असन्तुष्टता, कभी परिस्थितियों द्वारा असन्तुष्टता, कभी स्वयं की हलचल द्वारा असन्तुष्टता और कभी छोटी-बड़ी बातों से असन्तुष्टता - इसी चक्र में चलते और निकलते और फिर फँसते रहते। ऐसी माला भी देखी। तो तीन मालायें तैयार हुई। मणियां तो सभी हैं लेकिन सन्तुष्ट-मणियों की झलक और दूसरे दो प्रकार के मणियों की झलक क्या होगी, यह तो आप भी जान सकते हो। ब्रह्मा बाप बार-बार तीनों मालाओं को देखते हुए हर्षित भी हो रहे थे, साथ-साथ प्रयत्न कर रहे थे कि दूसरे नम्बर की माला की मणियाँ पहली माला में आ जाएँ। रूह-रूहान चल रही थी। क्योंकि दूसरी माला की कोई-कोई मणि बहुत थोड़ी-सी असन्तुष्टता की छाया-मात्र के कारण पहली माला से वंचित रह गयी है, इसको परिवर्तन कर कैसे भी पहली माला में लावें। एक-एक के गुण, विशेषतायें, सेवा - सबको सामने लाते बार-बार यही बोले कि इसको पहली माला में कर लें। ऐसी 25-30 के करीब मणियाँ थी जिनके ऊपर ब्रह्मा बाप की विशेष रूह-रूहान चल रही थी। ब्रह्मा बाप बोले - पहले नम्बर माला में इन मणियों को भी डालना चाहिए। लेकिन फिर स्वयं ही मुस्कराते हुए यही बोले कि बाप इन्हों को अवश्य पहली में लाकर ही दिखायेंगे। तो ऐसी विशेष मणियाँ भी थी।

ऐसे रूह-रूहान चलते हुए एक बात निकली कि असन्तुष्टता का विशेष कारण क्या है? जबकि संगमयुग का विशेष वरदान सन्तुष्टता है, फिर भी वरदाता से वरदान प्राप्त वरदानी आत्मायें दूसरे नम्बर की माला में क्यों आती? सन्तुष्टता का बीज सर्व प्राप्तियाँ हैं। असन्तुष्टता का बीज स्थूल वा सूक्ष्म अप्राप्ति है। जब ब्राह्मणों का गायन है - अप्राप्त नहीं कोई वस्तु ब्राह्मणों के खज़ाने में अथवा ब्राह्मणों के जीवन में', फिर असन्तुष्टता क्यों? क्या वरदाता ने वरदान देने में अंतर रखा वा लेने वालों ने अन्तर कर लिया, क्या हुआ? जब वरदाता, दाता के भण्डार भरपूर हैं, इतने भरपूर हैं जो आपके अर्थात् श्रेष्ठ निमित्त आत्माओं के जो बहुतकाल के ब्रह्माकुमार-ब्रह्माकुमारी बन गये, उन्हों की 21 जन्मों की वंशावली और फिर उनके भक्त, भक्तों की भी वंशावली, वो भी उन प्राप्तियों के आधार पर चलते रहेंगे। इतनी बड़ी प्राप्ति, फिर भी असन्तुष्टता क्यों? अखुट खज़ाना सभी को प्राप्त है - एक ही द्वारा, एक ही जैसा, एक ही समय, एक ही विधि से। लेकिन प्राप्त हुए खज़ाने को हर समय कार्य में नहीं लगाते अर्थात् स्मृति में नहीं रखते। मुख से खुश होते हैं लेकिन दिल से खुश नहीं होते। दिमाग की खुशी है, दिल की खुशी नहीं, कारण? प्राप्तियों के खज़ानों को स्मृतिस्वरूप बन कार्य में नहीं लगाते। स्मृति रहती है लेकिन स्मृतिस्वरूप में नहीं आते। प्राप्ति बेहद की है लेकिन उनको कहाँ-कहाँ हद की प्राप्ति में परिवर्तन कर लेते हो। इस कारण हद अर्थात् अल्पकाल की प्राप्ति की इच्छा, बेहद की प्राप्ति के फलस्वरूप जो सदा सन्तुष्टता की अनुभूति हो, उससे वंचित कर देती है। हद की प्राप्ति दिलों में हद डाल देती है। इसलिए असन्तुष्टता की अनुभूति होती है। सेवा में हद डाल देते हैं। क्योंकि हद की इच्छा का फल मन इच्छित फल नहीं प्राप्त होता। हद की इच्छाओं का फल अल्पकाल की पूर्ति वाला होता है। इसलिए अभी-अभी सन्तुष्टता, अभी-अभी असन्तुष्टता हो जाती है। हद, बेहद का नशा अनुभव कराने नहीं देता। इसलिए, विशेष चेक करो कि मन की अर्थात् स्वयं की सन्तुष्टता, सर्व की सन्तुष्टता अनुभव होती है?

सन्तुष्टता की निशानी - वह मन से, दिल से, सर्व से, बाप से, ड्रामा से सन्तुष्ट होंगे; उनके मन और तन में सदा प्रसन्नता की लहर दिखाई देगी। चाहे कोई भी परिस्थिति आ जाए, चाहे कोई आत्मा हिसाब-किताब चुक्तू करने वाली सामना करने भी आती रहे, चाहे शरीर का कर्म-भोग सामना करने आता रहे लेकिन हद की कामना से मुक्त आत्मा सन्तुष्टता के कारण सदा प्रसन्नता की झलक में चमकता हुआ सितारा दिखाई देगी। प्रसन्नचित्त कभी कोई बात में प्रश्नचित्त नहीं होंगे। प्रश्न हैं तो प्रसन्न नहीं। प्रसन्नचित्त की निशानी - वह सदा नि:स्वार्थी और सदा सभी को निर्दोष अनुभव करेगा; किसी और के ऊपर दोष नहीं रखेगा - न भाग्यविधाता के ऊपर कि मेरा भाग्य ऐसा बनाया, न ड्रामा पर कि मेरा ड्रामा में ही पार्ट ऐसा है, न व्यक्ति पर कि इसका स्वभाव-संस्कार ऐसा है, न प्रकृति के ऊपर कि प्रकृति का वायुमण्डल ऐसा है, न शरीर के हिसाबकिताब पर कि मेरा शरीर ही ऐसा है। प्रसन्नचित्त अर्थात् सदा नि:स्वार्थ, निर्दोष वृत्ति-दृष्टि वाले। तो संगमयुग की विशेषता सन्तुष्टता' है और सन्तुष्टता की निशानी प्रसन्नता' है। यह है ब्राह्मण जीवन की विशेष प्राप्ति। सन्तुष्टता नहीं, प्रसन्नता नहीं तो ब्राह्मण बनने का लाभ नहीं लिया। ब्राह्मण जीवन का सुख है ही सन्तुष्टता, प्रसन्नता। ब्राह्मण जीवन बनी और उसका सुख नहीं लिया तो नामधारी ब्राह्मण हुए वा प्राप्ति स्वरूप ब्राह्मण हुए? तो बापदादा सभी ब्राह्मण बच्चों को यही स्मृति दिला रहे हैं - ब्राह्मण बने, अहो भाग्य! लेकिन ब्राह्मण जीवन का वर्सा, प्रापर्टी सन्तुष्टता' है। और ब्राह्मण जीवन की पर्सनल्टी (Personality)प्रसन्नता' है। इस अनुभव से कभी वंचित नहीं रहना। अधिकारी हो। जब दाता, वरदाता खुली दिल से प्राप्तियों का खज़ाना दे रहे हैं, दे दिया है तो खूब अपनी प्रापर्टी और पर्सनल्टी को अनुभव में लाओ, औरों को भी अनुभवी बनाओ। समझा? हर एक अपने से पूछे कि मैं किस नम्बर की माला में हूँ? माला में तो है ही लेकिन किस नम्बर की माला में हूँ। अच्छा।

आज राजस्थान और यू.पी. ग्रुप है। राजस्थान अर्थात् राजाई संस्कार वाले, हर संकल्प में, स्वरूप में राजाई संस्कार प्रैक्टिकल में लाने वाले अर्थात् प्रत्यक्ष दिखाने वाले। इसको कहते हैं राजस्थान निवासी। ऐसे हो ना? कभी प्रजा तो नहीं बन जाते हो ना? अगर वशीभूत हो गये तो प्रजा कहेंगे, मालिक हैं तो राजा। ऐसे नहीं कि कभी राजा, कभी प्रजा। नहीं। सदा राजाई संस्कार स्वत: ही स्मृति-स्वरूप में हों। ऐसे राजस्थान निवासी बच्चों का महत्त्व भी है। राजा को सदैव सभी ऊँची नजर से देखेंगे और स्थान भी राजा को ऊँचा देंगे। राजा सदैव तख्त पर बैठेगा, प्रजा सदैव नीचे। तो राजस्थान के राजाई संस्कार वाली आत्मायें अर्थात् सदा ऊंची स्थिति के स्थान पर रहने वाले। ऐसे बन गये हो वा बन रहे हो? बने हैं और सम्पन्न बनना ही है। राजस्थान की महिमा कम नहीं है। स्थापना का हेडक्वार्टर ही राजस्थान में है। तो ऊँचे हो गये ना। नाम से भी ऊँचे, काम से भी ऊँचे। ऐसे राजस्थान के बच्चे अपने घर में पहुँचे हैं। समझा?

यू.पी. की भूमि विशेष पावन-भूमि गाई हुई है। पावन करने वाली भक्तिमार्ग की गंगा नदी भी वहाँ है और भक्ति के हिसाब से कृष्ण की भूमि भी यू.पी. में ही है। भूमि की महिमा बहुत है। कृष्ण लीला, जन्मभूमि देखनी होगी तो भी यू.पी. में ही जायेंगे। तो यू.पी. वालों की विशेषता है। सदा पावन बन और पावन बनाने की विशेषता सम्पन्न हैं। जैसे बाप की महिमा है पतित पावन... यू.पी. वालों की भी महिमा बाप समान है। पतित-पावनी आत्मायें हो। भाग्य का सितारा चमक रहा है। ऐसे भाग्यवान स्थान और स्थिति - दोनों की महिमा है। सदा पावन' - यह है स्थिति की महिमा। तो ऐसे भाग्यवान अपने को समझते हो? सदा अपने भाग्य को देख हर्षित होते स्वयं भी सदा हर्षित और दूसरों को भी हर्षित बनाते चलो। क्योंकि हर्षित-मुख स्वत: ही आकर्षितमूर्त होते हैं। जैसे स्थूल नदी अपने तरफ खींचती है ना, खींचकर यात्री जाते हैं। चाहे कितना भी कष्ट उठाना पड़े, फिर भी पावन होने का आकर्षण खींच लेता है। तो यह पावन बनाने के कार्य का यादगार यू.पी. में है। ऐसे ही हर्षित और आकर्षितमूर्त बनना है। समझा?

तीसरा ग्रुप डबल विदेशियों का भी है। डबल विदेशी अर्थात् सदा विदेशी बाप को आकर्षित करने वाले, क्योंकि समान हैं ना। बाप भी विदेशी है, आप भी विदेशी हो। हम शरीक प्यारे होते हैं। माँ-बाप से भी फ्रेंड्स ज्यादा प्यारे लगते हैं। तो डबल विदेशी बाप समान सदा इस देह और देह के आकर्षण से परे विदेशी हैं, अशरीरी हैं, अव्यक्त हैं। तो बाप अपने समान अशरीरी, अव्यक्त स्थिति वाले बच्चों को देख हर्षित होते हैं। रेस भी अच्छी कर रहे हैं। सेवा में भिन्न-भिन्न साधन और भिन्न-भिन्न विधि से आगे बढ़ने की रेस अच्छी कर रहे हैं। विधि भी अपनाते और वृद्धि भी कर रहे हैं। इसलिए, बापदादा चारों ओर के डबल विदेशी बच्चों को सेवा की बधाई भी देते और स्व के वृद्धि की स्मृति भी दिलाते हैं। स्व की उन्नति में सदा उड़ती कला द्वारा उड़ते चलो। स्वउन्नति और सेवा की उन्नति के बैलेन्स द्वारा सदा बाप के ब्लैसिंग के अधिकारी हैं और सदा रहेंगे। अच्छा।

चौथा ग्रुप है बाकी मधुबन निवासी। वह तो सदा हैं ही। जो दिल पर सो चुल पर, जो चुल पर सो दिल पर। सबसे ज्यादा विधिपूर्वक ब्रह्मा भोजन भी मधुबन में होता। सबसे सिकीलधे भी मधुबन निवासी हैं। सब फंक्शन भी मधुबन में होते। सबसे, डायरेक्ट मुरलियाँ भी, ज्यादा मधुबन वाले ही सुनते। तो मधुबन निवासी सदा श्रेष्ठ भाग्य के अधिकारी आत्मायें हैं। सेवा भी दिल से करते हैं। इसलिए मधुबन निवासियों को बापदादा और सर्व ब्राह्मणों की मन से आशीर्वाद प्राप्त होती रहती है। अच्छा।

चारों ओर की सर्व बापदादा की विशेष सन्तुष्टमणियों को बापदादा की विशेष यादप्यार। साथ-साथ सर्व भाग्यशाली ब्राह्मण जीवन प्राप्त करने वाले कोटों में कोई, कोई में भी कोई सिकीलधे आत्माओं को, बापदादा के शुभ संकल्प को सम्पन्न करने वाली आत्माओं को, संगमयुगी ब्राह्मण जीवन की प्रापर्टी के सम्पूर्ण अधिकार प्राप्त करने वाली आत्माओं को विधाता और वरदाता बापदादा की बहुत-बहुत यादप्यार स्वीकार हो।

दादी जानकी जी एवं दादी चन्द्रमणि जी सेवाओं पर जाने की छुट्टी बापदादा से ले रही हैं

जा रही हो या समा रही हो? जाओ या आओ लेकिन सदा समाई हुई हो। बापदादा अनन्य बच्चों को कभी अलग देखते ही नहीं हैं। चाहे आकार में, चाहे साकार में सदा साथ हैं। क्योंकि सिर्फ महावीर बच्चे ही हैं जो यह वायदा निभाते हैं कि हर समय साथ रहेंगे, साथ चलेंगे। बहुत थोड़े यह वायदा निभाते हैं। इसलिए, ऐसे महावीर बच्चे, अनन्य बच्चे जहाँ भी जाते बाप को साथ ले जाते हैं और बाप सदा वतन में भी साथ रखते हैं। हर कदम में साथ देते। इसलिए जा रही हो, आ रही हो - क्या कहेंगे? इसीलिए कहा कि जा रही हो या समा रही हो। ऐसे ही साथ रहते-रहते समान बन समा जायेगी। घर में थोड़े समय के लिए रेस्ट करेंगी, साथ रहेंगी। फिर आप राज्य करना और बाप ऊपर से देखेंगे। लेकिन साथ का थोड़े समय का अनुभव करना। अच्छा।

(आज बाबा आपने कमाल की माला बनाई)

आप लोग भी तो माला बनाते हो ना। माला अभी तो छोटी है। अभी बड़ी बनेगी। अभी जो थोड़ा कभी-कभी बेहोश हो जाते हैं, उन्हें थोड़े समय में प्रकृति का वा समय का आवाज होश में ले आयेगा; फिर माला बड़ी बन जायेगी। अच्छा। जहाँ भी जाओ बाप के वरदानी तो हो ही। आपके हर कदम से बाप का वरदान सबको मिलता रहेगा। देखेंगे तो भी बाप का वरदान दृष्टि से लेंगे, बोलेंगे तो बोल से वरदान लेंगे, कर्म से भी वरदान ही लेंगे। चलते-फिरते वरदानों की वर्षा करने के लिए जा रही हो। अभी जो आत्मायें आ रही हैं, उनको वरदान की व महादान की ही आवश्यकता है। आप लोगों का जाना अर्थात् खुले दिल से उन्हों को बाप के वरदान मिलना। अच्छा।

डबल विदेशी भाई-बहिनों से - डबल विदेशी अर्थात् सदा अपने स्वस्व रूप, स्वदेश, स्वराज्य के स्मृति में रहने वाले। डबल विदेशियों को विशेष कौनसी सेवा करनी है? अभी साइलेन्स की शक्ति का अनुभव विशेष रूप से आत्माओं को कराना। यह भी विशेष सेवा है। जैसे साइंस की पावर नामीग्रामी है ना। बच्चे-बच्चे को मालूम है कि साइंस क्या है। ऐसे साइलेन्स पावर, साइंस से भी ऊँची है। वह दिन भी आना है। साइलेन्स के पावर की प्रत्यक्षता अर्थात् बाप की प्रत्यक्षता। जैसे साइंस प्रत्यक्ष प्रूफ दिखाती है - वैसे साइलेन्स पावर का प्रैक्टिकल प्रूफ है - आप सबका जीवन। जब इतने सब प्रैक्टिकल प्रूफ दिखाई देंगे तो न चाहते हुए सभी की नजर में सहज आ जायेंगें। जैसे यह (पिछले वर्ष) पीस का कार्य किया ना, इसको स्टेज पर प्रैक्टिकल में दिखाया। ऐसे ही चलतेफिरते पीस के मॉडल दिखाई दें तो साइंस वालों की भी नजर साइलेन्स वालों के ऊपर अवश्य जायेगी। समझा? साइंस की इन्वेन्शन विदेश में ज्यादा होती है। तो साइलेन्स के पावर का आवाज भी वहाँ से सहज फैलेगा। सेवा का लक्ष्य तो है ही, सभी को उमंग-उत्साह भी है। सेवा के बिना रह नहीं सकते। जैसे भोजन के बिना रह नहीं सकते, ऐसे सेवा के बिना भी रह नहीं सकते। इसलिए बापदादा खुश है। अच्छा।

यू.पी तथा राजस्थान ग्रुप से बापदादा की अलग-अलग मुलाकात - स्वदर्शन चक्रधारी श्रेष्ठ आत्मायें बन गये, ऐसे अनुभव करते हो? स्व का दर्शन हो गया ना? अपने आपको जानना अर्थात् स्व का दर्शन होना और चक्र का ज्ञान जानना अर्थात् स्वदर्शन चक्रधारी बनना। जब स्वदर्शन चक्रधारी बनते हैं तो और सब चक्र समाप्त हो जाते हैं। देहभान का चक्र, सम्बन्ध का चक्र समस्याओं का चक्र - माया के कितने चक्र हैं! लेकिन स्वदर्शन-चक्रधारी बनने से यह सब चक्र समाप्त हो जाते हैं, सब चक्रों से निकल आते हैं। नहीं तो जाल में फँस जाते हैं। तो पहले फँसे हुए थे, अब निकल गये। 63 जन्म तो अनेक चक्रों में फँसते रहे और इस समय इन चक्रों से निकल आये, तो फिर फँसना नहीं है। अनुभव करके देख लिया ना? अनेक चक्रों में फँसने से सब कुछ गँवा दिया और स्वदर्शन-चक्रधारी बनने से बाप मिला तो सब कुछ मिला। तो सदा स्वदर्शन-चक्रधारी बन, मायाजीत बन आगे बढ़ते चलो। इससे सदा हल्के रहेंगे, किसी भी प्रकार का बोझ अनुभव नहीं होगा। बोझ ही नीचे ले आता है और हल्का होने से ऊँचे उड़ते रहेंगे। तो उड़ने वाले हो ना? कमज़ोर तो नहीं? अगर एक भी पंख कमज़ोर होगा तो नीचे ले आयेगा, उड़ने नहीं देगा। इसलिए, दोनों ही पंख मजबूत हों तो स्वत: उड़ते रहेंगे। स्वदर्शन-चक्रधारी बनना अर्थात् उड़ती कला में जाना। अच्छा।

राजयोगी, श्रेष्ठ योगी आत्मायें हो ना? साधारण जीवन से सहजयोगी, राजयोगी बन गये। ऐसी श्रेष्ठ योगी आत्मायें सदा ही अतीइन्द्रिय सुख के झूले में झूलती हैं। हठयोगी योग द्वारा शरीर को ऊँचा उठाते हैं और उड़ने का अभ्यास करते हैं। वास्तव में आप राजयोगी ऊँची स्थिति का अनुभव करते हो। इसको ही कापी करके वो शरीर को ऊँचा उठाते हैं। लेकिन आप कहाँ भी रहते ऊँची स्थिति में रहते हो, इसलिए कहते हैं - योगी ऊँचा रहते हैं। तो मन की स्थिति का स्थान ऊँचा है। क्योंकि डबल लाइट बन गये हो। वैसे भी फरिश्तों के लिए कहा जाता कि फरिश्तों के पाँव धरनी पर नहीं होते। फरिश्ता अर्थात् जिसका बुद्धि रूपी पाँव धरती पर न हो, देहभान में न हो। देहभान से सदा ऊँचे - ऐसे फरिश्ते अर्थात् राजयोगी बन गये। अभी इस पुरानी दुनिया से कोई लगाव नहीं। सेवा करना अलग चीज़ है लेकिन लगाव न हो। योगी बनना अर्थात् बाप और मैं, तीसरा न कोई। तो सदा इसी स्मृति में रहो कि हम राजयोगी, सदा फरिश्ता हैं। इस स्मृति से सदा आगे बढ़ते रहेंगे। राजयोगी सदा बेहद का मालिक हैं, हद के मालिक नहीं। हद से निकल गये। बेहद का अधिकार मिल गया - इसी खुशी में रहो। जैसे बेहद का बाप है, वैसे बेहद की खुशी में रहो, नशे में रहो। अच्छा।

विदाई के समय

सभी अमृतवेले के वरदानी बच्चों को वरदाता बाप की सुनहरी यादप्यार स्वीकार हो। साथ-साथ सुनहरी दुनिया बनाने की सेवा के सदा प्लान मनन करने वाले और सदा सेवा में दिल व जान, सिक व प्रेम से, तन-मन-धन से सहयोगी आत्मायें, सभी को बापदादा गुडमोर्निंग, डायमण्ड मॉर्निंग कर रहे हैं और सदा डायमण्ड बन इस डायमण्ड युग की विशेषता को वरदान और वर्से में लेकर स्वयं भी सुनहरी स्थिति में स्थित रहेंगे और औरों को भी ऐसे ही अनुभव कराते रहेंगे। तो चारों ओर के डबल हीरों बच्चों को डायमण्ड मॉर्निंग। अच्छा।



09-10-87   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


अलौकिक राज्य दरबार का समाचार

सर्व प्राप्तियों के भण्डार, ऊँचे ते ऊँचे बाप अपनेसर्व प्राप्ति भव' के वरदानी बच्चों प्रति बोले

आज बापदादा अपने स्व-राज्य अधिकारी बच्चों की राज्य दरबार देख रहे हैं। यह संगमयुग की निराली, श्रेष्ठ शान वाली अलौकिक दरबार सारे कल्प में न्यारी और अति प्यारी है। इस राज्य-सभा की रूहानी रौनक, रूहानी कमल-आसन, रूहानी ताज और तिलक, चेहरे की चमक, स्थिति के श्रेष्ठ स्मृति के वायुमण्डल में अलौकिक खुशबू अति रमणीक, अति आकर्षित करने वाली है। ऐसी सभा को देख बापदादा हर एक राज्य-अधिकारी आत्मा को देख हर्षित हो रहे हैं। कितनी बड़ी दरबार है! हर एक ब्राह्मण बच्चा स्वराज्य- अधिकारी है। तो कितने ब्राह्मण बच्चे हैं! सभी ब्राह्मणों की दरबार इकट्ठी करो तो कितनी बड़ी राज्य-दरबार हो जायेगी! इतनी बड़ी राज्य दरबार किसी भी युग में नहीं होती। यही संगमयुग की विशेषता है जो ऊँचे ते ऊँचे बाप के सर्व बच्चे स्वराज्य-अधिकारी बनते हैं। वैसे लौकिक परिवार में हर एक बाप बच्चों को कहते हैं कि यह मेरा बच्चा राजा' बेटा है वा इच्छा रखते हैं कि मेरा हर एक बच्चा राजा' बने। लेकिन सभी बच्चे राजा बन ही नहीं सकते। यह कहावत परमात्म बाप की कापी की है। इस समय बापदादा के सब बच्चे राजयोगी अर्थात् स्व के राजे नम्बरवार जरूर हैं लेकिन हैं सभी राज-योगी, प्रजा योगी कोई नहीं है। तो बापदादा बेहद की राज्यसभा देख रहे थे। सभी अपने को स्वराज्य अधिकारी समझते हो ना? नये-नये आये हुए बच्चे राज्य-अधिकारी हो वा अभी बनना है? नये-नये हैं तो मिलना-जुलना सीख रहे हैं। अव्यक्त बाप की अव्यक्ति बातें समझने की भी आदत पड़ती जायेगी। फिर भी इस भाग्य को अभी से भी समय पर ज्यादा समझेंगे कि हम सभी आत्मायें कितनी भाग्यवान हैं!

तो बापदादा सुना रहे थे - अलौकिक राज्य दरबार का समाचार। सभी बच्चों के विशेष ताज और चेहरे की चमक के ऊपर न चाहते भी अटेन्शन जा रहा था। ताज ब्राह्मण जीवन की विशेषता - पवित्रता' का ही सूचक है। चेहरे की चमक रूहानी स्थिति में स्थित रहने की रूहानियत की चमक है। साधारण रीति से भी किसी भी व्यक्ति को देखेंगे तो सबसे पहले दृष्टि चेहरे तरफ ही जायेगी। यह चेहरा ही वृत्ति और स्थिति का दर्पण है। तो बापदादा देख रहे थे - चमक तो सभी में थी लेकिन एक थे सदा रूहानीयत की स्थिति में स्थित रहने वाले, स्वत: और सहज स्थिति वाले और दूसरे थे सदा रूहानी स्थिति के अभ्यास द्वारा स्थित रहने वाले। एक थे सहज स्थिति वाले, दूसरे थे प्रयत्न कर स्थित रहने वाले। अर्थात् एक थे सहज योगी, दूसरे थे पुरूषार्थी से योगी। दोनों की चमक में अन्तर रहा। उनकी नैचरल ब्यूटी थी और दूसरों की पुरूषार्थ द्वारा ब्यूटी थी। जैसे आजकल भी मेकप कर ब्यूटीफुल बनते हैं ना। नैचरल (स्वाभाविक) ब्यूटी की चमक सदा एकरस रहती है और दूसरी ब्यूटी कभी बहुत अच्छी और कभी परसेन्टेज में रहती है; एक जैसी, एकरस नहीं रहती। तो सदा सहज योगी, स्वत:योगी स्थित नम्बरवन स्वराज्य-अधिकारी बनाती है। जब सभी बच्चों का वायदा है - ब्राह्मण जीवन अर्थात् एक बाप ही संसार है वा एक बाप दूसरा न कोई; जब संसार ही बाप है, दूसरा कोई है ही नहीं तो स्वत: और सहज योगी स्थिति सदा रहेगी ना, वा मेहनत करनी पड़ेगी? अगर दूसरा कोई है तो मेहनत करनी पड़ती है - यहाँ बुद्धि न जाए, वहाँ जाए। लेकिन एक बाप ही सब कुछ है - फिर बुद्धि कहाँ जायेगी? जब जा ही नहीं सकती तो अभ्यास क्या करेंगे? अभ्यास में भी अन्तर होता है। एक है स्वत: अभ्यास है, है ही है, और दूसरा होता है मेहनत वाला अभ्यास। तो स्वराज्य-अधिकारी बच्चों का सहज अभ्यासी बनना - यही निशानी है सहज योगी, स्वत: योगी की। उन्हों के चेहरे की चमक अलौकिक होती है जो चेहरा देखते ही अन्य आत्मायें अनुभव करती कि यह श्रेष्ठ प्राप्तिस्वरूप सहजयोगी हैं। जैसे स्थूल धन वा स्थूल पद की प्राप्ति की चमक चेहरे से मालूम होती है कि यह साहूकार कुल वा ऊँच पद अधिकारी है, ऐसे यह श्रेष्ठ प्राप्ति, श्रेष्ठ राज्य अधिकार अर्थात् श्रेष्ठ पद की प्राप्ति का नशा वा चमक चेहरे से दिखाई देती है। दूर से ही अनुभव करते कि इन्होंने कुछ पाया है। प्राप्तिस्वरूप आत्मायें हैं। ऐसे ही सभी राज्य अधिकारी बच्चों के चमकते हुए चेहरे दिखाई दें। मेहनत के चिन्ह नहीं दिखाई दें, प्राप्ति के चिन्ह दिखाई दें। अभी भी देखो, कोई- कोई बच्चों के चेहरे को देख यही कहते हैं - इन्होंने कुछ पाया है और कोई-कोई बच्चों के चेहरे को देख यह भी कहते हैं कि ऊँची मंज़िल है लेकिन त्याग भी बहुत ऊंचा किया है। त्याग दिखाई देता है, भाग्य नहीं दिखाई देगा चेहरे से। या यह कहेंगे कि मेहनत बहुत अच्छी कर रहे हैं।

बापदादा यही देखने चाहते हैं कि हर एक बच्चे के चेहरे से सहजयोगी की चमक दिखाई दे, श्रेष्ठ प्राप्ति के नशे की चमक दिखाई दे। क्योंकि प्राप्तियों के भण्डार के बच्चे हो। संगमयुग के प्राप्तियों के वरदानी समय के अधिकारी हो। निरन्तर योग कैसे लगावें वा निरन्तर अनुभव कर भण्डार की अनुभूति कैसे करें - अब तक भी इसी मेहनत में ही समय नहीं गँवाओं लेकिन प्राप्तिस्वरूप के भाग्य को सहज अनुभव करो। समाप्ति का समय समीप आ रहा है। अब तक किसी न किसी बात की मेहनत में लगे रहेंगे तो प्राप्ति का समय तो समाप्त हो जायेगा। फिर प्राप्तिस्वरूप का अनुभव कब करेंगे? संगमयुग को, ब्राह्मण आत्माओं को वरदान है ‘‘सर्व प्राप्ति भव''सदा पुरूषार्थी भव' का वरदान नहीं है, ‘प्राप्ति भव' का वरदान है। प्राप्ति भव' की वरदानी आत्मा कभी भी अलबेलेपन में आ नहीं सकती। इसलिए उनको मेहनत नहीं करनी पड़ती। तो समझा, क्या बनना है?

राज्यसभा में राज्य अधिकारी बनने की विशेषता क्या है, यह स्पष्ट हुआ ना? राज्य अधिकारी हो ना, वा अभी सोच रहे हो कि हैं वा नहीं हैं? जब विधाता के बच्चे, वरदाता के बच्चे बन गये; राजा अर्थात् विधाता, देने वाला। अप्राप्ति कुछ नहीं तो लेंगे क्या? तो समझा, नये-नये बच्चों को इस अनुभव में रहना है। युद्ध में ही समय नहीं गँवाना है। अगर युद्ध में ही समय गँवाया तो अन्त-मति भी युद्ध में रहेंगे। फिर क्या बनना पड़ेगा? चन्द्रवंश में जायेंगे वा सूर्यवंशी में? युद्ध वाला तो चन्द्रवंश में जायेगा। चल रहे हैं, कर रहे हैं, हो ही जायेंगे, पहुँच जायेंगे - अभी तक ऐसा लक्ष्य नहीं रखो। अब नहीं तो कब नहीं। बनना है तो अब, पाना है तो अब - ऐसा उमंग-उत्साह वाले ही समय पर अपनी सम्पूर्ण मंज़िल को पा सकेंगे। त्रेता में राम सीता बनने के लिए तो कोई भी तैयार नहीं है। जब सतयुग सूर्यवंश में आना है, तो सूर्यवंश अर्थात् सदा मास्टर विधाता और वरदाता, लेने की इच्छा वाला नहीं। मदद मिल जाए, यह हो जाए तो बहुत अच्छा, पुरूषार्थ में अच्छा नम्बर ले लेंगे - नहीं। मदद मिल रही है, सब हो रहा है - इसको कहते हैं - स्वराज्य अधिकारी बच्चे'। आगे बढ़ना है या पीछे आये हैं तो पीछे ही रहना है? आगे जाने का सहज रास्ता है - सहजयोगी, स्वत:योगी बनो। बहुत सहज है। जब है ही एक बाप, दूसरा कोई नहीं तो जायेंगे कहाँ? प्राप्ति ही प्राप्ति है फिर मेहनत क्यों लगेगी? तो प्राप्ति के समय का लाभ उठाओ। सर्व प्राप्ति स्वरूप बनो। समझा? बापदादा तो यही चाहते हैं कि एक- एक बच्चा - चाहे लास्ट आने वाला, चाहे स्थापना के आदि में आने वाला, हर एक बच्चा नम्बरवन बने। राजा बनना, न कि प्रजा। अच्छा।

महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश का ग्रुप आया है। देखो, महा शब्द कितना अच्छा है। महाराष्ट्र स्थान भी महा शब्द का है और बनना भी महान है। महान तो बन गये ना। क्योंकि बाप के बने माना महान बने। महान आत्मायें हो। ब्राह्मण अर्थात् महान। हर कर्म महान, हर बोल महान, हर संकल्प महान है। अलौकिक हो गये ना। तो महाराष्ट्र वाले सदा ही स्मृतिस्वरूप बनो कि महान हैं। ब्राह्मण अर्थात् महान चोटी हैं ना।

मध्य प्रदेश - सदा मद्याजी भव' के नशे में रहने वाले। मन्मनाभव' के साथमद्याजी भव' का भी वरदान है। तो अपना स्वर्ग का स्वरूप-इसको कहते हैंमद्याजी भव' तो अपने श्रेष्ठ प्राप्ति के नशे में रहने वाले अर्थात् मद्याजी भव' के मन्त्र के स्वरूप में स्थित रहने वाले। वह भी महान हो गये। मद्याजी भव' हैं तो मन्मनाभव' भी जरूर होंगे। तो मध्य प्रदेश अर्थात् महामन्त्र का स्वरूप बनने वाले। तो दोनों ही अपनी-अपनी विशेषता से महान हैं। समझा, कौन हो?

जब से पहला पाठ शुरू किया, वह भी यही किया कि मैं कौन? बाप भी वही बात याद दिलाते हैं। इसी पर मनन करना। शब्द एक ही है कि मैं कौन' लेकिन इसके उत्तर कितने हैं? लिस्ट निकालना - मैं कौन?' अच्छा।

चारों ओर के सर्व प्राप्ति स्वरूप, श्रेष्ठ आत्माओं को, सर्व अलौकिक राज्यसभा अधिकारी महान आत्माओं को, सदा रूहानियत की चमक धारण करने वाली विशेष आत्माओं को, सदा स्वत: योगी, सहजयोगी, ऊँचे ते ऊँची आत्माओं को ऊँचे ते ऊँचे बापदादा का स्नेह सम्पन्न यादप्यार स्वीकार हो।



14-10-87   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


ब्राह्मण जीवन - बाप से सर्व सम्बन्ध अनुभव करने का जीवन

दिलशिकस्त को दिलखुश बनाने वाले, सर्व सम्बन्धों का अनुभव कराने वाले प्यारे बापदादा बोले

आज बापदादा अपने अनेक बार मिलन मनाने वाले, अनेक कल्पों से मिलने वाले बच्चों से फिर मिलन मनाने आये हैं। यह अलौकिक, अव्यक्ति मिलन भविष्य स्वर्ण युग में भी नहीं हो सकता। सिर्फ इस समय इस विशेष युग को वरदान है - बाप और बच्चों के मिलने का। इसलिए इस युग का नाम ही है संगमयुग अर्थात् मिलन मनाने का युग। ऐसे युग में ऐसा श्रेष्ठ मिलन मनाने के विशेष पार्टधारी आप आत्मायें हो। बापदादा भी ऐसे कोटों में कोई श्रेष्ठ भाग्यवान आत्माओं को देख हर्षित होते हैं और स्मृति दिलाते हैं। आदि से अन्त तक कितनी स्मृतियाँ दिलाई हैं? याद करो तो लम्बी लिस्ट निकल आयेगी। इतनी स्मृतियाँ दिलाई हैं जो आप सभी स्मृति-स्वरूप बन गये हो। भक्ति में आप स्मृति-स्वरूप आत्माओं के यादगार रूप में भक्त भी हर समय सिमरण करते रहते हैं। आप स्मृतिस्वरूप आत्माओं के हर कर्म की विशेषता का सिमरण करते रहते हैं। भक्ति की विशेषता ही सिमरण अर्थात् कीर्तन करना है। सिमरण करतेकरते मस्ती में कितना मग्न हो जाते हैं। अल्पकाल के लिए उन्हों को भी, और कोई सुध-बुध नहीं रहती। सिमरण करते-करते उसमें खो जाते हैं अर्थात् लवलीन हो जाते हैं। यह अल्पकाल का अनुभव उन आत्माओं के लिए कितना प्यारा और न्यारा होता है! यह क्यों होता? क्योंकि जिन आत्माओं का सिमरण करते हैं, यह आत्मायें स्वयं भी बाप के स्नेह में सदा लवलीन रही हैं, बाप की सर्व प्राप्तियों में सदा खोई हुई रही हैं। इसलिए, ऐसी आत्माओं का सिमरण करने से भी उन भक्तों को अल्पकाल के लिए आप वरदानी आत्माओं द्वारा अंचली रूप में अनुभूति प्राप्त हो जाती है। तो सोचो, जब सिमरण करने वाली भक्त आत्माओं को भी इतना अलौकिक अनुभव होता है तो आप स्मृति-स्वरूप, वरदाता, विधाता आत्माओं को कितना प्रैक्टिकल जीवन में अनुभव प्राप्त होता है! इसी अनुभूतियों में सदा आगे बढ़ते चलो।

हर कदम में भिन्न-भिन्न स्मृति-स्वरूप का अनुभव करते चलो। जैसा समय, जैसा कर्म वैसे स्वरूप की स्मृति इमर्ज (प्रत्यक्ष) रूप में अनुभव करो। जैसे, अमृतवेले दिल का आरम्भ होते बाप से मिलन मनाते - मास्टर वरदाता बन वरदाता से वरदान लेने वाली श्रेष्ठ आत्मा हूँ, डायरेक्ट भाग्यविधाता द्वारा भाग्य प्राप्त करने वाली पद्मापद्म भाग्यवान आत्मा हूँ - इस श्रेष्ठ स्वरूप को स्मृति में लाओ। वरदानी समय है, वरदाता विधाता साथ में है। मास्टर वरदानी बन स्वयं भी सम्पन्न बन रहे हो और अन्य आत्माओं को भी वरदान दिलाने वाले वरदानी आत्मा हो - इस स्मृति-स्वरूप को इमर्ज करो। ऐसे नहीं कि यह तो हूँ ही। लेकिन भिन्न-भिन्न स्मृति-स्वरूप को समय प्रमाण अनुभव करो तो बहुत विचित्र खुशी, विचित्र प्राप्तियों का भण्डार बन जायेंगे और सदैव दिल से प्राप्ति के गीत स्वत: ही अनहद शब्द के रूप में निकलता रहेगा - ‘‘पाना था सो पा लिया...''। इसी प्रकार भिन्न-भिन्न समय और कर्म प्रमाण स्मृति-स्वरूप का अनुभव करते जाओ। मुरली सुनते हो तो यह स्मृति रहे कि गॉडली स्टूडेन्ट लाइफ (ईश्वरीय विद्यार्थी जीवन) अर्थात् भगवान का विद्यार्थी हूँ, स्वयं भगवान मेरे लिए परमधाम से पढ़ाने लिए आये हैं। यही विशेष प्राप्ति है जो स्वयं भगवान आता है। इसी स्मृति-स्वरूप से जब मुरली सुनते हैं तो कितना नशा होता! अगर साधारण रीति से नियम प्रमाण सुनाने वाला सुना रहा है और सुनने वाला सुन रहा है तो इतना नशा अनुभव नहीं होगा। लेकिन भगवान के हम विद्यार्थी है - इस स्मृति को स्वरूप में लाकर फिर सुनो, तब अलौकिक नशे का अनुभव होगा। समझा?

भिन्न-भिन्न समय के भिन्न-भिन्न स्मृति-स्वरूप के अनुभव में कितना नशा होगा! ऐसे सारे दिन के हर कर्म में बाप के साथ स्मृति-स्वरूप बनते चलो - कभी भगवान का सखा वा साथी रूप का, कभी जीवन-साथी रूप का, कभी भगवान मेरा मुरब्बी बच्चा है अर्थात् पहला-पहला हकदार, पहला वारिस है। कोई ऐसा बहुत सुन्दर और बहुत लायक बच्चा बाप का होता है तो माँ-बाप को कितना नशा रहता है कि मेरा बच्चा कुल दीपक है वा कुल का नाम बाला करने वाला है! जिसका भगवान बच्चा बन जाए, उसका नाम कितना बाला होगा! उसके कितने कुल का कल्याण होगा! तो जब कभी दुनिया के वातावरण से या भिन्नभिन्न समस्याओं से थोड़ा भी अपने को अकेला वा उदास अनुभव करो तो ऐसे सुन्दर बच्चे रूप से खेलो, सखा रूप में खेलो। कभी थक जाते हो तो माँ के रूप में गोदी में सो जाओ, समा जाओ। कभी दिलशिकस्त हो जाते हो तो सर्वशक्तिवान स्वरूप से मास्टर सर्वशक्तिवान के स्मृति-स्वरूप का अनुभव करो - तो दिलशिकस्त से दिलखुश हो जायेंगे। भिन्न-भिन्न समय पर भिन्न-भिन्न सम्बन्ध से, भिन्न-भिन्न अपने स्वरूप के स्मृति को इमर्ज रूप में अनुभव करो तो बाप का सदा साथ स्वत: ही अनुभव करेंगे और यह संगमयुग की ब्राह्मण जीवन सदा ही अमूल्य अनुभव होती रहेगी।

और बात - कि इतने सर्व सम्बन्ध निभाने में इतने बिजी रहेंगे जो माया को आने की भी फुर्सत नहीं मिलेगी। जैसे लौकिक बड़ी प्रवृत्ति वाले सदैव यही कहते कि प्रवृत्ति को सम्भालने में इतने बिजी रहते हैं जो और कोई बात याद ही नहीं रहती है क्योंकि बहुत बड़ी प्रवृत्ति है। तो आप ब्राह्मण आत्माओं की प्रभु से प्रीत निभाने की प्रभु-प्रवृत्ति कितनी बड़ी है! आपकी प्रभु-प्रीत की प्रवृत्ति सोते हुए भी चलती है! अगर योगानिंद्रा में हो तो आपकी निंद्रा नहीं लेकिन योगानिंद्रा' है। नींद में भी प्रभु-मिलन मना सकते हो। योग का अर्थ ही है मिलन। योगानिंद्रा अर्थात् अशरीरी की स्थिति की अनुभूति। तो यह भी प्रभु-प्रीत है ना। तो आप जैसी बड़े ते बड़ी प्रवृत्ति किसकी भी नहीं है! एक सेकण्ड भी आपको फुर्सत नहीं है। क्योंकि भक्ति में भक्त के रूप में भी गीत गाते रहते थे कि बहुत दिनों से प्रभु आप मिले हो, तो गिन-गिन के हिसाब पूरा लेंगे। तो एक-एक सेकण्ड का हिसाब लेने वाले हो। सारे कल्प के मिलने का हिसाब इस छोटे से एक जन्म में पूरा करते हो। पाँच हजार वर्ष के हिसाब से यह छोटा-सा जन्म कुछ दिनों के हिसाब में हुआ ना। तो थोड़े से दिनों में इतना लम्बे समय का हिसाब पूरा करना है, इसलिए कहते हैं श्वांस-श्वांस सिमरो। भक्त सिमरण करते हैं, आप स्मृतिस्व रूप बनते हो। तो आपको सेकण्ड भी फुर्सत है? कितनी बड़ी प्रवृत्ति है! इसी प्रवृत्ति के आगे वह छोटी-सी प्रवृत्ति आकर्षित नहीं करेगी और सहज, स्वत: ही देह सहित देह के सम्बन्ध और देह के पदार्थ वा प्राप्तियों से नष्टोमोहा, स्मृतिस्व रूप हो जायेंगे। यही लास्ट पेपर माला के नम्बरवार मणके बनायेगा।

जब अमृतवेले से योगानिंद्रा तक भिन्न-भिन्न स्मृति-स्वरूप के अनुभवी हो जायेंगे तो बहुतकाल के स्मृति-स्वरूप का अनुभव अन्त में स्मृति-स्वरूप के क्वेश्चन में पास विद् आनर बना देगा। बहुत रमणीक जीवन का अनुभव करेंगे। क्योंकि जीवन में हर एक मनुष्य आत्मा की पसन्दीवैराइटी हो'- यही चाहते हैं। तो यह सारे दिन में भिन्न-भिन्न सम्बन्ध, भिन्नभिन्न स्वरूप की वैराइटी अनुभव करो। जैसे दुनिया में भी कहते हैं ना - बाप तो चाहिए ही लेकिन बाप के साथ अगर जीवन-साथी का अनुभव न हो तो भी जीवन अधूरी समझते हैं, बच्चा न हो तो भी अधूरी जीवन समझते हैं। हर सम्बन्ध को ही सम्पन्न जीवन समझते हैं। तो यह ब्राह्मण जीवन भगवान से सर्व सम्बन्ध अनुभव करने वाली सम्पन्न जीवन है! एक भी सम्बन्ध की कमी नहीं करना। एक सम्बन्ध भी भगवान से कम होगा, कोई न कोई आत्मा उस सम्बन्ध से अपने तरफ खींच लेगी। जैसे, कई बच्चे कभी-कभी कहते हैं बाप के रूप में तो है ही लेकिन सखा व सखी अथवा मित्र का तो छोटा-सा रूप है ना, उसके लिए तो आत्मायें चाहिए क्योंकि बाप तो बड़ा है ना। लेकिन परमात्मा के सम्बन्ध के बीच कोई भी छोटा या हल्का आत्मा का सम्बन्ध मिक्स हो जाता तो सर्व' शब्द समाप्त हो जाता है और यथाशक्ति की लाइन में आ जाते हैं। ब्राह्मणों की भाषा में हर बात में सर्व' शब्द आता है। जहाँ सर्व' है, वहाँ ही सम्पन्नता है। अगर दो कला भी कम हो गई तो दूसरी माला के मणके बन जाते। इसलिए, सर्व सम्बन्धों के सर्व स्मृति-स्वरूप बनो। समझा? जब भगवान खुद सर्व सम्बन्ध का अनुभव कराने की आफर कर रहा है तो आफरीन लेना चाहिए ना। ऐसी गोल्डन आफर सिवाए भगवान के और इस समय के, न कभी और न कोई कर सकता। कोई बाप भी बने और बच्चा भी बने - यह हो सकता है? यह एक की ही महिमा है, एक की ही महानता है। इसलिए सर्व सम्बन्ध से स्मृति-स्वरूप बनना है। इसमें मजा है ना? ब्राह्मण जीवन किसलिए है? मजे में वा मौज में रहने के लिए। तो यह अलौकिक मौज मनाओ। मजे की जीवन अनुभव करो। अच्छा।

(अहमदाबाद वाले हंसमुख भाई ने शरीर छोड़ा है। उनका अन्तिम संस्कार करके दादी जानकी व मुख्य भाई-बहन अहमदाबाद से आए पहुँचे हैं।)

बच्चे सेवा करके आये हैं। जब जानते हैं कि यह सब होना ही है तो मौज से रहेंगे ना, मूँझेंगे थोड़े ही। यह भी जो जिस संस्कार से जाते हैं, उसकी अर्थी भी वही कार्य करती है। सेवा के उमंग वाले की अन्त तक भी सेवा ही होती रहती है। अज्ञानी लोग सारा जीवन रोते रहते तो अन्त में और भी रोते हैं। यहाँ ब्राह्मण जीवन में सेवा में रहते तो अन्त तक सेवा का साधन बन जाता है। फर्क है ना। आप लोग वहाँ कोई अर्थी को देखने नहीं गये, सेवा करने गये ना। चारो तरफ सेवा का वातावरण रहा ना। ब्राह्मण जीवन है ही सेवा के लिए। इसलिए हर बात में सच्चे ब्राह्मण सेवाधारी की सेवा ही होती रहती। ऐसी आत्मा को अगर कोई याद भी करेगा तो उनकी सेवा ही सामने आयेगी। मंजुला (हंसमुख भाई की युगल) तो है ही शिव शक्ति। अच्छा।

आज देहली दरबार वाले हैं। राज्य दरबार वाले हो या दरबार में सिर्फ देखने वाले हो? दरबार में राज्य करने वाले और देखने वाले - दोनों ही बैठते हैं। आप सब कौन हो? देहली की दो विशेषतायें हैं। एक - देहली दिलाराम की दिल है, दूसरी - गद्दी का स्थान है। दिल है तो दिल में कौन रहेगा? दिलाराम। तो देहली निवासी अर्थात् दिल में सदा दिलाराम को रखने वाले। ऐसे अनुभवी आत्मायें और अभी से स्वराज्य अधिकारी सो भविष्य में विश्व-राज्य अधिकारी। दिल में जब दिलाराम है तो राज्य अधिकारी अभी हैं और सदा रहेंगे। तो सदा अपनी जीवन में देखो कि यह दोनों विशेषतायें हैं? दिल में दिलाराम और फिर अधिकारी भी। ऐसे गोल्डन चांस, गोल्डन से भी डायमण्ड चांस लेने वाले कितने भाग्यवान हो! अच्छा।

अभी तो बेहद सेवा का बहुत अच्छा साधन मिला है - चाहे देश में, चाहे विदेश में। जैसे नाम है, वैसे ही सुन्दर कार्य है! नाम सुन करके ही सभी को उमंग आ रहा है - ‘‘सर्व के स्नेह, सहयोग से सुखमय संसार''! यह तो लम्बा कार्य है, एक वर्ष से भी अधिक है। तो जैसे कार्य का नाम सुनते ही सभी को उमंग आता है, ऐसे ही कार्य भी उमंग से करेंगे। जैसे नाम सुनकर खुश हो रहे हैं, वैसे कार्य होते सदा खुश हो जायेंगे। यह भी सुनाया ना प्रत्यक्षता का पर्दा हिलने का अथवा पर्दा खुलने का आधार बना है और बनता रहेगा। सर्व के सहयोगी - जैसे कार्य का नाम है, वैसे ही स्वरूप बन सहज कार्य करते रहेंगे तो मेहनत निमित्त मात्र और सफलता पद्मगुणा अनुभव करते रहेंगे। ऐसे अनुभव करेंगे जैसे कि करावनहार निमित्त बनाए करा रहा है। मैं कर रहा हूँ - नहीं। इससे सहयोगी नहीं बनेंगे। करावनहार करा रहा है। चलाने वाला कार्य को चला रहा है। जैसे आप सभी को जगदम्बा का स्लोगन याद है - हुक्मी हुक्म चलायें रहा'। यही स्लोगन सदा स्मृति-स्वरूप में लाते सफलता को प्राप्त होते रहेंगे। बाकी चारों ओर उमंग-उत्साह अच्छा है। जहाँ उमंग-उत्साह है वहाँ सफलता स्वयं समीप आकर गले की माला बन जाती है। यह विशाल कार्य अनेक आत्माओं को सहयोगी बनाए समीप लायेगा। क्योंकि प्रत्यक्षता का पर्दा खुलने के बाद इस विशाल स्टेज पर हर वर्ग वाला पार्टधारी स्टेज पर प्रत्यक्ष होना चाहिए। हर वर्ग का अर्थ ही है - विश्व की सर्व आत्माओं के वैराइटी वृक्ष का संगठन रूप। कोई भी वर्ग रह न जाए जो उल्हना दे कि हमें तो सन्देश नहीं मिला। इसलिए, नेता से लेकर झुग्गी-झोंपड़ी तक वर्ग है। पढ़े हुए सबसे टॉप साइंसदान और फिर जो अनपढ़ हैं, उन्हों को भी यह ज्ञान की नॉलेज देना, यह भी सेवा है। तो सभी वर्ग अर्थात् विश्व की हर आत्मा को सन्देश पहुँचाना है। कितना बड़ा कार्य है! यह कोई कह नहीं सकता कि हमको तो सेवा का चान्स नहीं मिलता। चाहे कोई बीमार है; तो बीमार, बीमार की सेवा करो; अनपढ़, अनपढ़ों की सेवा करो। जो भी कर सकते, वह चांस है। अच्छा, बोल नहीं सकते तो मन्सा वायुमण्डल से सुख की वृत्ति, सुखमय स्थिति से सुखमय संसार बनाओ। कोई भी बहाना नहीं दे सकता कि मैं नहीं कर सकता, समय नहीं है। उठते-बैठते 10-10 मिनट सेवा करो। अंगुली तो देंगे ना? कहाँ नहीं जा सकते हो, तबियत ठीक नहीं है तो घर बैठे करो लेकिन सहयोगी बनना जरूर है, तब सर्व का सहयोग मिलेगा। अच्छा।

उमंग-उत्साह देख बापदादा भी खुश होते हैं। सभी के मन में लग्न है कि अब प्रत्यक्षता का पर्दा खोल के दिखायें। आरम्भ तो हुआ है ना। तो फिर सहज होता जायेगा। विदेश वाले बच्चों के प्लैन्स भी बापदादा तक पहुँचते रहते हैं। स्वयं भी उमंग में हैं और सर्व का सहयोग भी उमंग-उत्साह से मिलता रहता है। उमंग को उमंग, उत्साह को उत्साह मिलता है। यह भी मिलन हो रहा है। तो खूब धूमधाम से इस कार्य को आगे बढ़ाओ। जो भी उमंग-उत्साह से बनाया है और भी बाप के, सर्व ब्राह्मणों के सहयोग से, शुभ कामनाओं-शुभ भावनाओं से और भी आगे बढ़ता रहेगा। अच्छा।

चारों ओर के सदा याद और सेवा के उमंग-उत्साह वाले श्रेष्ठ बच्चों को, सदा हर कर्म में स्मृति-स्वरूप की अनुभूति करने वाले अनुभवी आत्माओं को, सदा हर कर्म में बाप के सर्व सम्बन्ध का अनुभव करने वाले श्रेष्ठ आत्माओं को, सदा ब्राह्मण जीवन के मजे की जीवन बिताने वाले महान आत्माओं को बापदादा का अति स्नेह-सम्पन्न यादप्यार स्वीकार हो।

विदेशी बच्चे सेवा पर जाने की छूट्टी बापदादा से ले रहे हैं, बापदादा ने देश-विदेश के सभी बच्चों को यादप्यार दी - सेवाधारी बच्चों को विश्व-सेवाधारी बाप विशेष यादप्यार दे रहे हैं। सभी सेवाधारी बच्चे सेवा के उमंग-उत्साह से अच्छे आगे बढ़ रहे हैं और सदा ही आगे बढ़ते रहेंगे। यह सेवा का उमंग अनेक बातों से सहज किनारा कर एक बाप और सेवा में मग्न बनाने के निमित्त बन जाता है। सहज, निर्विघ्न, निरन्तर सेवाधारी बनना अर्थात् सहज मायाजीत बनना। इसलिए, जो सेवा के प्लैन बना रहे हैं, वह खूब धूमधाम से आगे बढ़ाते चलो। बापदादा बच्चों को निमित्त बनाए स्वयं बैकबोन (Backbone) बन सहज सिद्धि प्राप्त करा रहे हैं। बाप के सहयोग के पात्र सहजयोगी आत्मायें स्वत: बनती हैं। जो कुछ समय पहले मुश्किल लगता था, वह अब सहज बन गया है और आगे और भी सहज बनता जायेगा। स्वयं सब वर्ग वाले आफर करेंगे। पहले आप उन्हों को सहयोगी बनाने की मेहनत करते, लेकिन अभी वह स्वयं सहयोगी बनने की आफर कर रहे हैं और आगे भी करते रहेंगे। तो समय प्रति समय सेवा की रूपरेखा बदल रही है और बदलती रहेगी। अभी आप लोगों को ज्यादा कहना नहीं पड़ेगा लेकिन वह स्वयं कहेंगे कि यह कार्य श्रेष्ठ है, इसीलिए हमें भी सहयोगी बनना ही चाहिए। समय समीप की यह निशानी है। तो सभी बच्चों को यादप्यार और रूह-रूहान के रेसपाण्ड में बाप भी रूह-रूहान कर रहे हैं और यादप्यार दे रहे हैं।

विदाई के समय (प्रात: 4 से सतगुरूवार के दिन)

सभी बच्चे सतगुरू की याद में रहने वाले सत् बच्चे हैं। इसीलिए, सत्गुरू सभी वरदानी आत्माओं को सदा सन्तुष्टमणि का विशेष वरदान दे रहे हैं। सन्तुष्टता सेवा को सदा ही सहज सफलता में बदल देती है। कहने में सेवा आती है लेकिन अनुभूति सफलता की है। सेवा सिद्धि-रूप बन जाती है। इस वरदान से सभी यह अलौकिक अनुभव कर रहे हैं और करते रहेंगे। इसलिए सत् बाप, सत् शिक्षक, सत् गुरू का सभी बच्चों को यादप्यार और गुडमोर्निंग। गुड कहो, गोल्डन कहो, डायमण्ड कहो - जो भी कहो लेकिन बापदादा की स्नेह सम्पन्न यादप्यार सदा बच्चों के साथ है। अच्छा।



17-10-87   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


ब्राह्मण जीवन का शृंगार - पवित्रता'

पूजनीय बनाने वाले परम पूज्य शिवबाबा अपने होवनहार पूज्य बच्चों प्रति बोले

आज बापदादा अपने विश्व के चारों ओर के विशेष होवनहार पूज्य बच्चों को देख रहे हैं। सारे विश्व में से कितने थोड़े अमूल्य रतन पूजनीय बने हैं! पूजनीय आत्मायें ही विश्व के लिए विशेष जहान के नूर बन जाते हैं। जैसे इस शरीर में नूर नहीं तो जहान नहीं, ऐसे विश्व के अन्दर पूजनीय जहान के नूर आप श्रेष्ठ आत्मायें नहीं तो विश्व का भी महत्त्व नहीं। स्वर्ण-युग वा आदि-युग वा सतोप्रधान युग, नया संसार आप विशेष आत्माओं से आरम्भ होता है। नये विश्व के आधारमूर्त, पूजनीय आत्मायें आप हो। तो आप आत्माओं का कितना महत्व है! आप पूज्य आत्मायें संसार के लिए नई रोशनी हो। आपकी चढ़ती कला विश्व को श्रेष्ठ कला में लाने के निमित्त बनती है। आप गिरती कला में आते हो तो संसार की भी गिरती कला होती है। आप परिवर्तन होते हो तो विश्व भी परिवर्तन होता है। इतने महान और महत्त्व वाली आत्मायें हो!

आज बापदादा सर्व बच्चों को देख रहे थे। ब्राह्मण बनना अर्थात् पूज्य बनना क्योंकि ब्राह्मण सो देवता बनते हैं और देवतायें अर्थात् पूजनीय। सभी देवतायें पूजनीय तो हैं, फिर भी नम्बरवार जरूर हैं। किन देवताओं की पूजा विधिपूर्वक और नियमित रूप से होती है और किन्हीं की पूजा विधिपूर्वक नियमित रूप से नहीं होती। किन्हों के हर कर्म की पूजा होती है और किन्हों के हर कर्म की पूजा नहीं होती है। कोई का विधिपूर्वक हर रोज श्रृंगार होता है और कोई का श्रृंगार रोज नहीं होता है, ऊपर-ऊपर से थोड़ा-बहुत सजा लेते हैं लेकिन विधिपूर्वक नहीं। कोई के आगे सारा समय कीर्तन होता और कोई के आगे कभी-कभी कीर्तन होता है। इन सभी का कारण क्या है? ब्राह्मण तो सभी कहलाते हैं, ज्ञान-योग की पढ़ाई भी सभी करते हैं, फिर भी इतना अन्तर क्यों? धारणा करने में अन्तर है। फिर भी विशेष कौन-सी धारणाओं के आधार पर नम्बरवन होते हैं, जानते हो?

पूजनीय बनने का विशेष आधार पवित्रता के ऊपर है। जितना सर्व प्रकार की पवित्रता को अपनाते हैं, उतना ही सर्व प्रकार के पूजनीय बनते हैं और जो निरन्तर विधिपूर्वक आदि, अनादि विशेष गुण के रूप से पवित्रता को सहज अपनाते हैं, वही विधिपूर्वक पूज्य बनते हैं। सर्व प्रकार की पवित्रता क्या है? जो आत्मायें सहज, स्वत: हर संकल्प में, बोल में, कर्म में सर्व अर्थात् ज्ञानी और अज्ञानी आत्मायें, सर्व के सम्पर्क में सदा पवित्र वृत्ति, दृष्टि, वायब्रेशन से यथार्थ सम्पर्क-सम्बन्ध निभाते हैं - इसको ही सर्व प्रकार की पवित्रता कहते हैं। स्वप्न में भी स्वयं के प्रति या अन्य कोई आत्मा के प्रति सर्व प्रकार की पवित्रता में से कोई कमी न हो। मानो स्वप्न में भी ब्रह्मचर्य खण्डित होता है वा किसी आत्मा के प्रति किसी भी प्रकार की ईर्ष्या, आवेशता के वश कर्म होता या बोल निकलता है, क्रोध के अंश रूप में भी व्यवहार होता है तो इसको भी पवित्रता का खण्डन माना जायेगा। सोचो, जब स्वप्न का भी प्रभाव पड़ता है तो साकार में किये हुए कर्म का कितना प्रभाव पड़ता होगा! इसलिए खण्डित मूर्ति कभी पूजनीय नहीं होती। खण्डित मूर्तियाँ मन्दिरों में नहीं रहतीं, आजकल के म्यूजयम में रहती हैं। वहाँ भक्त नहीं आते। सिर्फ यही गायन होता है कि बहुत पुरानी मूर्त्तियाँ हैं, बस। उन्होंने स्थूल अंगों के खण्डित को खण्डित कह दिया है लेकिन वास्तव में किसी भी प्रकार की पवित्रता में खण्डन होता है तो वह पूज्य-पद से खण्डित हो जाते हैं। ऐसे, चारों प्रकार की पवित्रता में खण्डन होता है तो पह पूज्य-पद से खण्डित हो जाते हैं। ऐसे, चारों प्रकार की पवित्रता विधिपूर्वक है तो पूजा भी विधिपूर्वक होती है।

मन, वाणी, कर्म (कर्म में सम्बन्ध सम्पर्क आ जाता है) और स्वप्न में भी पवित्रता - इसको कहते हैं - सम्पूर्ण पवित्रता'। कई बच्चे अलबेलेपन में आने के कारण, चाहे बड़ों को, चाहे छोटों को, इस बात में चलाने की कोशिश करते हैं कि मेरा भाव बहुत अच्छा है लेकिन बोल निकल गया, वा मेरी एम (लक्ष्य) ऐसे नहीं थी लेकिन हो गया, या कहते हैं कि हंसी-मजाक में कह दिया अथवा कर लिया। यह भी चलाना है। इसलिए पूजा भी चलाने जैसी होती है। यह अलबेलापन सम्पूर्ण पूज्य स्थिति को नम्बरवार में ले आता है। यह भी अपवित्रता के खाते में जमा होता है। सुनाया ना - पूज्य, पवित्र आत्माओं की निशानी यही है - उन्हों की चारों प्रकार की पवित्रता स्वभाविक, सहज और सदा होगी। उनको सोचना नहीं पड़ेगा लेकिन पवित्रता की धारणा स्वत: ही यथार्थ संकल्प, बोल, कर्म और स्वप्न लाती है। यथार्थ अर्थात् एक तो युक्तियुक्त, दूसरा यथार्थ अर्थात् हर संकल्प में अर्थ होगा, बिना अर्थ नहीं होगा। ऐसे नहीं कि ऐसे में बोल दिया, निकल गया, कर लिया, हो गया। ऐसी पवित्र आत्मा सदा हर कर्म में अर्थात् दिनचर्या के हर कर्म में यथार्थ युक्तियुक्त रहती है। इसलिए पूजा भी उनके हर कर्म की होती है अर्थात् पूरे दिनचर्या की होती है। उठने से लेकर सोने तक भिन्न-भिन्न कर्म के दर्शन होते हैं।

अगर ब्राह्मण जीवन की बनी हुई दिनचर्या प्रमाण कोई भी कर्म यथार्थ वा निरन्तर नहीं करते तो उसके अन्तर के कारण पूजा में भी अन्तर पड़ेगा। मानो कोई अमृतवेले उठने की दिनचर्या में विधिपूर्वक नहीं चलते, तो पूजा में भी उनके पुजारी भी उस विधि में नीचे-ऊपर करते अर्थात् पुजारी भी समय पर उठकर पूजा नहीं करेगा, जब आया तब कर लेगा। अथवा अमृतवेले जागृत स्थिति में अनुभव नहीं करते, मजबूरी से वा कभी सुस्ती, कभी चुस्ती के रूप में बैठते तो पुजारी भी मजबूरी से या सुस्ती से पूजा करेंगे, विधिपूर्वक पूजा नहीं करेंगे। ऐसे हर दिनचर्या के कर्म का प्रभाव पूजनीय बनने में पड़ता है। विधिपूर्वक न चलना, कोई भी दिनचर्या में ऊपर-नीचे होना - यह भी अपवित्रता के अंश में गिनती होता है। क्योंकि आलस्य और अलबेलापन भी विकार है। जो यथार्थ कर्म नहीं है, वह विकार है। तो अपवित्रता का अंश हो गया ना। इस कारण पूज्य पद में नम्बरवार हो जाते हैं। तो फाउण्डेशन क्या रहा? - पवित्रता।

पवित्रता की धारणा बहुत महीन है। पवित्रता के आधार पर ही कर्म की विधि और गति का आधार है। पवित्रता सिर्फ मोटी बात नहीं है। ब्रह्मचारी रहे या निर्मोही हो गये - सिर्फ इसको ही पवित्रता नहीं कहेंगे। पवित्रता ब्राह्मण जीवन का शृंगार है। तो हर समय पवित्रता के शृंगार की अनुभूति चेहरे से, चलन से औरों को हो। दृष्टि में, मुख में, हाथों में, पाँवों में सदा पवित्रता का शृंगार प्रत्यक्ष हो। कोई भी चेहरे तरफ देखे तो फीचर्स से उन्हें पवित्रता अनुभव हो। जैसे और प्रकार के फीचर्स वर्णन करते हैं, वैसे यह वर्णन करें कि इनके फीचर्स से पवित्रता दिखाई देती है, नयनों में पवित्रता की झलक है, मुख पर पवित्रता की मुस्कराट है। और कोई बात उन्हें नजर न आये। इसको कहते हैं - पवित्रता के शृंगार से शृंगारी हुई मूर्त। समझा? पवित्रता की तो और भी बहुत गुह्यता है, वह फिर सुनाते रहेंगे। जैसे कर्मों की गति गहन है, पवित्रता की परिभाषा भी बड़ी गुह्य है और पवित्रता ही फाउण्डेशन है। अच्छा।

आज गुजरात आया है। गुजरात वाले सदा हल्के बन नाचते और गाते हैं। चाहे शरीर में कितने भी भारी हों लेकिन हल्के बन नाचते हैं। गुजरात की विशेषता है- सदा हल्का रहना, सदा खुशी में नाचते रहना और बाप के वा अपने प्राप्तियों के गीत गाते रहना। बचपन से ही नाचते-गाते, अच्छा हैं। ब्राह्मण जीवन में क्या करते हो? ब्राह्मण जीवन अर्थात् मौजों की जीवन। गर्भा रास करते हो तो मौज में आ जाते हो ना। अगर मौज में न आये तो ज्यादा कर नहीं सकेंगे। मौज-मस्ती में थकावट नहीं होती है, अथक बन जाते हैं। तो ब्राह्मण जीवन अर्थात् सदा मौज में रहने की जीवन, यह है स्थूल मौज और ब्राह्मण जीवन की है - मन की मौज। सदा मन मौज में नाचता और गाता रहे। यह लोग हल्के बन नाचने-गाने के अभ्यासी हैं। तो इन्हों को ब्राह्मण जीवन में भी डबल लाइट (हल्का) बनने में मुश्किल नहीं होती। तो गुजरात अर्थात् सदा हल्के रहने के अभ्यासी कहो, वरदानी कहो। तो सारे गुजरात को वरदान मिल गया - डबल लाइट। मुरली द्वारा भी वरदान मिलते हैं ना।

सुनाया ना - आपकी इस दुनिया में यथा शक्ति, यथा समय होता है। यथा और तथा। और वतन में तो यथा-तथा की भाषा ही नहीं है। यहाँ दिन भी तो रात भी देखना पड़ता। वहाँ न दिन, न है रात; न सूर्य उदय होता, न चन्द्रमा। दोनों से परे है। आना तो वहाँ ना। बच्चों ने रूह-रूहान में कहा ना कि कब तक? बापदादा कहते हैं कि आप सभी कहो कि हम तैयार हैं तो अभी' कर लेंगे। फिरकब' का तो सवाल ही नहीं है। कब' तब तक है जब तक सारी माला तैयार नहीं हुई है। अभी नाम निकालने बैठते हो तो 108 में भी सोचते हो कि यह नाम डालें वा नहीं? अभी 108 की माला में भी सभी वही 108 नाम बोलें। नहीं, फर्क हो जायेगा। बापदादा तो अभी घड़ी ताली बजावे और ठकाठक शुरू हो जायेगी - एक तरफ प्रकृति, एक तरफ व्यक्तियों। क्या देरी लगती। लेकिन बाप का सभी बच्चों में स्नेह है। हाथ पकड़ेंगे, तब तो साथ चलेंगे। हाथ में हाथ मिलाना अर्थात् समान बनना। आप कहेंगे - सभी समान अथवा सभी तो नम्बरवन बनेंगे नहीं। लेकिन नम्बरवन के पीछे नम्बर टू होगा। अच्छा, बाप समान नहीं बनें लेकिन नम्बरवन दाना जो होगा वह समान होगा। तीसरा दो के समान बने। चौथा तीन के समान बने। ऐसे तो समान बनें, तो एक दो के समीप होते-होते माला तैयार हो। ऐसी स्टेज तक पहुँचना अर्थात् समान बनना। 108 तैयार हो जायेगी। नम्बरवार तो होना ही है। समझा? बाप तो कहते - अभी कोई है गैरन्टी करने वाला कि हाँ, सब तैयार हैं? बापदादा को तो सेकण्ड लगता। दृश्य दिखाते थे ना - ताली बजाई और परियाँ आ गई। अच्छा।

चारों ओर के परम पूज्य श्रेष्ठ आत्माओं को, सर्व सम्पूर्ण पवित्रता के लक्ष्य तक पहुँचने वाले तीव्र पुरूषार्थी आत्माओं को, सदा हर कर्म में विधिपूर्वक कर्म करने वाले सिद्धि-स्वरूप आत्माओं को, सदा हर समय पवित्रता के शृंगार में सजी हुई विशेष आत्माओं को बापदादा का स्नेह सम्पन्न यादप्यार स्वीकार हो।

पार्टियों से मुलाकात

(1) विश्व में सबसे ज्यादा श्रेष्ठ भाग्यवान अपने को समझते हो? सारा विश्व जिस श्रेष्ठ भाग्य के लिए पुकार रहा है कि हमारा भाग्य खुल जाए... आपका भाग्य तो खुल गया। इससे बड़ी खुशी की बात और क्या होगी! भाग्यविधाता ही हमारा बाप है - ऐसा नशा है ना! जिसका नाम ही भाग्यविधाता है उसका भाग्य क्या होगा! इससे बड़ा भाग्य कोई हो सकता है? तो सदा यह खुशी रहे कि भाग्य तो हमारा जन्म-सिद्ध अधिकार हो गया। बाप के पास जो भी प्रापर्टी होती है, बच्चे उसके अधिकारी होते हैं। तो भाग्यविधाता के पास क्या है? भाग्य का खज़ाना। उस खज़ाने पर आपका अधिकार हो गया। तो सदैव वाह मेरा भाग्य और भाग्य-विधाता बाप'! - यही गीत गाते खुशी में उड़ते रहो। जिसका इतना श्रेष्ठ भाग्य हो गया उसको और क्या चाहिए? भाग्य में सब कुछ आ गया। भाग्यवान के पास तन-मन-धन-जन सब कुछ होता है। श्रेष्ठ भाग्य अर्थात् अप्राप्त कोई वस्तु नहीं। कोई अप्राप्ति है? मकान अच्छा चाहिए, कार अच्छी चाहिए... नहीं। जिसको मन की खुशी मिल गई, उसे सर्व प्राप्तियाँ हो गई! कार तो क्या लेकिन कारून का खज़ाना मिल गया! कोई अप्राप्त वस्तु है ही नहीं। ऐसे भाग्यवान हो! विनाशी इच्छा क्या करेंगे। जो आज है, कल है ही नहीं - उसकी इच्छा क्या रखेंगे। इसलिए, सदा अविनाशी खज़ाने की खुशियों में रहो जो अब भी है और साथ में भी चलेगा। यह मकान, कार वा पैसे साथ नहीं चलेंगे लेकिन यह अविनाशी खज़ाना अनेक जन्म साथ रहेगा। कोई छीन नहीं सकता, कोई लूट नहीं सकता। स्वयं भी अमर बन गये और खज़ाने भी अविनाशी मिल गये! जन्मजन्म यह श्रेष्ठ प्रालब्ध साथ रहेगी। कितना बड़ा भाग्य है! जहाँ कोई इच्छा नहीं, इच्छा मात्रम् अविद्या है - ऐसा श्रेष्ठ भाग्य भाग्यविधाता बाप द्वारा प्राप्त हो गया।

(2) अपने को बाप के समीप रहने वाली श्रेष्ठ आत्मायें अनुभव करते हो? बाप के बन गये - यह खुशी सदा रहती है? दु:ख की दुनिया से निकल सुख के संसार में आ गये। दुनिया दु:ख में चिल्ला रही है और आप सुख के संसार में, सुख के झूले में झूल रहे हो। कितना अंतर है! दुनिया ढूँढ़ रही है और आप मिलन मना रहे हो। तो सदा अपनी सर्व प्राप्तियों को देख हर्षित रहो। क्या-क्या मिला है, उसकी लिस्ट निकालो तो बहुत लम्बी लिस्ट हो जायेगी। क्या-क्या मिला? तन में खुशी मिली, तो तन की खुशी तन्दरूस्ती है; मन में शान्ति मिली, तो शान्ति मन की विशेषता है और धन में इतनी शक्ति आई जो दाल-रोटी 36 प्रकार के समान अनुभव हो।

ईश्वरीय याद में दाल-रोटी भी कितनी श्रेष्ठ लगती है! दुनिया के 36 प्रकार हों और आप की दाल-रोटी हो तो श्रेष्ठ क्या लगेगा? दाल-रोटी अच्छी है ना। क्योंकि प्रसाद है ना। जब भोजन बनाते हो तो याद में बनाते हो, याद में खाते हो तो प्रसाद हो गया। प्रसाद का महत्त्व होता है। आप सभी रोज प्रसाद खाते हो। प्रसाद में कितनी शक्ति होती है! तो तन-मन-धन सभी में शक्ति आ गई। इसलिए कहते हैं - अप्राप्त नहीं कोई वस्तु ब्राह्मणों के खज़ाने में। तो सदा इन प्राप्तियों को सामने रख खुश रहो, हर्षित रहो। अच्छा।

(3) अपने को संगमयुगी श्रेष्ठ आत्मायें अनुभव करते हो? ब्राह्मणों को सदा ऊंचे ते ऊंची चोटी पर दिखाते हैं। चोटी का अर्थ ही है ऊंचा। तो संगमयुगी अर्थात् ऊंचे ते ऊंची आत्मायें। जैसे बाप ऊंचे ते ऊंचा गाया हुआ है, ऐसे बच्चे भी ऊंचे और संगमयुग भी ऊंचा है। सारे कल्प में संगमयुग जैसा ऊंचा कोई युग नहीं है क्योंकि इस युग में ही बाप और बच्चों का मिलना होता है। और कोई युग में आत्मा और परमात्मा का मेला नहीं होता है। तो जहाँ आत्मा और परमात्मा का मेला है, वही श्रेष्ठ युग हुआ ना। ऐसे श्रेष्ठ युग की श्रेष्ठ आत्मायें हो! आप श्रेष्ठ ब्राह्मणों का कार्य क्या है? ब्राह्मणों का काम है - पढ़ना और पढ़ाना। नामधारी ब्राह्मण भी शास्त्र पढ़ेंगे और दूसरों को सुनायेंगे। तो आप ब्राह्मणों का काम है ईश्वरीय पढ़ाई पढ़ना और पढ़ाना जिससे ईश्वर के बन जाएं। तो ऐसे करते हो? पढ़ते भी हो और पढ़ाते अर्थात् सेवा भी करते हो। यह ईश्वरीय ज्ञान देना ही ईश्वरीय सेवा है। सेवा का सदा ही मेवा मिलता है। कहावत है ना - ‘करो सेवा तो मिले मेवा'। तो ईश्वरीय सेवा करने से अतीन्द्रिय सुख का मेवा मिलता है, शक्तियों का मेवा मिलता है, खुशी का मेवा मिलता है। तो ऐसा मेवा मिला है ना? कितनी पात्र आत्मायें हो जो इस ईश्वरीय फल के अधिकारी बन गई! आप ब्राह्मणों के सिवाए और कोई भी इस फल के अधिकारी बन नहीं सकते। अधिकारी भी कौन बने हैं? जिनमें किसी की उम्मीद नहीं, वह उम्मीदवार बन गये! दुनिया वाले माताओं के लिए कहते - इनका कोई अधिकार नहीं है और बाप ने माताओं को विशेष अधिकारी बनाया है, माताओं को इस सेवा की विशेष जिम्मेवारी दी है। दुनिया वालों ने पाँव की जुत्ती बना दिया और बाप ने सिर का ताज बना दिया। तो साधारण मातायें नहीं हो, अभी तो बाप के सिर के ताज बन गई।

(4) सदा अपने को बेफिकर बादशाह अनुभव करते हो? प्रवृत्ति का या कोई भी कार्य का फिकर तो नहीं रहता है? बेफिकर रहते हो? बेफिकर कैसे बने? सब कुछ तेरा करने से। मेरा कुछ नहीं, सब तेरा है। जब तेरा है तो फिकर किस बात का? जिन्होंने सब कुछ तेरा किया, वही बेफिकर बादशाह बनते हैं। ऐसे नहीं जो चीज़ मतलब की है वह मेरी है, जो चीज़ मतलब की नहीं वह तेरी। जीवन में हर एक बेफिकर रहना चाहता है। जहाँ फिकर नहीं, वहाँ सदा खुशी होगी। तो तेरा कहने से, बेफिकर बनने से खुशी के खज़ाने भरपूर हो जाते हैं। बादशाह के पास खज़ाना भरपूर होता है। तो आप बेफिकर बादशाहों के पास अनगिनत, अखुट, अविनाशी खज़ाने हैं जो सतयुग में नहीं होंगे। इस समय के खज़ाने श्रेष्ठ खज़ाने हैं। तो मातायें बेफिकर बादशाह बनीं? जब मेरा-मेरा है तो फिकर है। जबतेरा' कह दिया तो बाप जाने, बाप का काम जाने, आप निश्चिंत हो गये। तेरा' और मेरा' शब्द में थोड़ा-सा अन्तर है। तेरा' कहना - सब प्राप्त होना, ‘मेरा' कहना - सब गँवाना। द्वापर से मेरा-मेरा कहा तो क्या हुआ? सब गँवा दिया ना। तन्दरूस्ती भी चली गई, मन की शान्ति भी चली गई और धन भी चला गया। कहाँ विश्व के राजन और कहाँ छोटे-मोटे दफ्तर के क्लर्क बन गये, बिजनेसमैन हो गये जो विश्व के महाराजा के आगे कुछ नहीं है। तो मेरा-मेरा कहने से गँवाया और तेरा-तेरा कहने से जमा हो जाता। तो जमा करने में होशियार हो? मातायें एक-एक पैसा इकट्ठा करके जमा करती हैं। जमा करने में मातायें होशियार होती हैं। तो यह जमा करना आता है? यहाँ खर्च करना भी खर्च नहीं है, जमा करना है। जितना खर्चा करते हो अर्थात् दूसरों को देते हो, उतना पद्मगुणा होता है। एक देना और पद्म लेना। अच्छा।

(5) सदा याद और सेवा के बैलेन्स से बाप की ब्लैसिंग अनुभव करते हो? जहाँ याद और सेवा का बैलेन्स है अर्थात् समानता है, वहाँ बाप की विशेष मदद अनुभव होती है। तो मदद ही आशीर्वाद है। क्योंकि बापदादा, और अन्य आत्माओं के माफिक आशीर्वाद नहीं देते हैं। बाप तो है ही अशरीरी, तो बापदादा की आशीर्वाद है - सहज, स्वत: मदद मिलना जिससे जो असम्भव बात हो वह सम्भव हो जाए। यही मदद अर्थात् आशीर्वाद है। लौकिक गुरूओं के पास भी आशीर्वाद के लिए जाते हैं। तो जो असम्भव बात होती, वह अगर सम्भव हो जाती तो समझते हैं यह गुरू की आशीर्वाद है। तो बाप भी असम्भव से सम्भव कर दिखाते हैं। दुनिया वाले जिन बातों को असम्भव समझते हैं, उन्हीं बातों को आप सहज समझते हो। तो यही आशीर्वाद है। एक कदम उठाते हो और पद्मों की कमाई जमा हो जाती है। तो यह आशीर्वाद हुई ना। तो ऐसे बाप की व सतगुरू की आशीर्वाद के पात्र आत्मायें हो। दुनिया वाले पुकारते रहते हैं और आप प्राप्तिस्वरूप बन गये। अच्छा।



21-10-87   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


दीपराज और दीपरानियों की कहानी

सबकी ज्योति जगाने वाले, उड़ती कला की बाजी सिखाने वाले अलौकिक जादूगर शिवबाबा बोले

आज सर्व चैतन्य अविनाशी दीपकों के मालिक दीपराज अपनी सभी दीपरानियों से मिलने आये हैं। क्योंकि आप सभी संगमयुग की रानियाँ हो, एक दीपराज से लव लगाने वाली हो। दीपक की विशेषता दीपक के लौ पर होती है। आप सभी दीपरानियाँ दीपकों के राजा से लग्न लगाने वाली श्रेष्ठ आत्मायें हों वा सभी सच्ची सीतायें एक राम बाप के सदा साथ रहने वाली हो। इसलिए दीपकों के मालिक दीपराजा के साथ-साथ आप दीपकों का भी माला के रूप में गायन हो रहा है। लेकिन दीपमाला के पहले, एक दीपराज बड़े दीपक में जगाते हैं। एक दीपक से आप अनेक दीपक जगमगाते हो। तो यह आप सभी का यादगार आज दिन तक भी मनाया जा रहा है।

दीपमाला को देख क्या दिल में आता है? यह उमंग आता है कि मुझ दीपक का यह यादगार है? सिर्फ चमक देख खुश होते हो या अपना यादगार समझ खुशी होती है? अपने को उसमें देखते हो? जानते हो कि मैं भी दीपक इस माला में हूँ? जानते हो, यह दीपमाला, माला के रूप में क्यों दिखाते हैं? दीप दिवस नहीं कहते, दीपमाला दिवस कहते हैं। क्योंकि आप सभी विशेष आत्माओं के संगठन का यह यादगार है। माला तब सजती है जब अनेक दीपक संगठित रूप में हों। अगर एक वा दो दीपक जगा दें तो माला नहीं कहेंगे। तो दीपमाला अविनाशी, अनेक जगे हुए दीपकों का यादगार है। तो अपना दिन मना रहे हो। एक तरफ चैतन्य दीपक के रूप में जगमगाते हुए विश्व को दिव्य रोशनी दे रहे हो, दूसरे तरफ अपना यादगार भी देख रहे हो। देख-देख हर्षित होते हो ना? यह दीपकों के रूप में क्यों दिखाया है? क्योंकि आप चमकती हुई आत्मायें दीपक की लौ मिसल दिखाई देती, इसलिए चमकती हुई आत्मायें, दिव्य ज्योति का यादगार रूप है। एक तरफ निराकारी आत्मा के रूप का यादगार रूप है, दूसरी तरफ आप ही के भविष्य साकार दिव्य स्वरूप लक्ष्मी के रूप में यादगार है। यही दीपमाला देव-पद प्राप्त करती है। इसलिए, निराकार और साकार - दोनों रूपों का साथ-साथ यादगार है।

तो डबल रूप का यादगार दीपमाला है। लक्ष्मी का यादगार डबल रूप में एक तरफ धन-देवी अर्थात् दाता का रूप संगमयुग का यादगार है जो सदैव धन देते रहते हैं। यह संगमयुग पर अविनाशी धन-देवी के रूप में चित्र दिखाया जाता है। सतयुग में तो कोई लेने वाला ही नहीं होगा तो देंगे किसको? यह संगमयुग के श्रेष्ठ कर्त्तव्य की निशानी है। और दूसरे तरफ ताजपोशी दिवस के रूप में मनाया जाता है। ताजपोशी भविष्य की निशानी है और धन-देवी संगमयुग के दाता रूप की निशानी है। दोनों ही युग को मिला दिया है। क्योंकि संगमयुग छोटा-सा युग है। लेकिन जितना छोटा है उतना महान है। सर्व महान कर्त्तव्य, महान स्थिति, महान प्राप्ति, महान अनुभव इस छोटे से युग में होते हैं। बहुत प्राप्तियाँ, बहुत अनुभव होते और संगमयुग के बाद सतयुग जल्दी आता है, इसलिए संगमयुग और सतयुग के चित्र और चरित्र मिला दिये हैं। चित्र सतयुग का, चरित्र संगम का दे देते हैं। इसी प्रकार यह दीपमाला भी आपके डबल रूप, डबल समय का यादगार हो गया है। जो दीपमाला में विधि रखते हैं, वह भिन्नभिन्न विधियाँ भी मिक्स कर दी हैं। एक तरफ अपने पुराने खाते समाप्त कर नया बनाते हैं, दूसरे तरफ दीपमाला में नये वस्त्र भी विधिपूर्वक पहनते हैं। तो पुराना हिसाब-किताब चुक्तु करना और नया खाता आरम्भ करना - यह संगमयुग का यादगार है। पुराना सब भूल जाते हो, नया जन्म, नया सम्बन्ध, नया कर्म - सब परिवर्तन करते हो। नया वस्त्र अर्थात् नया शरीर सतयुग की निशानी है। संगमयुग पर नया शरीर नहीं मिलता है, पुराने वस्त्र में ही रहते हो। तो दोनों ही समय की विधियों को मिक्स कर दिया है। गोल्डन वस्त्र अर्थात् सतोप्रधान शरीर भविष्य में धारण करेंगे। अभी तो चत्ती वाले शरीर हैं। आपरेशन में सिलाई करते हैं ना। बड़े-बड़े आपरेशन में एक तरफ का मांस निकाल दूसरे तरफ लगाते हैं, तो चत्ती लगाई ना। पुराने की निशानी है सिलाई होना। तो यह हैं चत्ती वाले वस्त्र और भविष्य में गोल्डन नया वस्त्र मिलेगा। तो आपके नये वस्त्र धारण करने का यादगार है। देव-आत्मा बन नया वस्त्र अर्थात् नया शरीर, सुनहरी अर्थात् सोने तुल्य। आज की दुनिया में तो लोग बन नहीं सकते। इसलिए यादगार रूप में स्थूल नये वस्त्र पहन खुश हो जाते हैं। वह एक दिन के लिए खुशी मनायेंगे, करके 3 दिन भी मनावें लेकिन आप तो अविनाशी मनाते हो ना। ऐसा मनाते हो जो यह संगमयुग का मनाना अनेक जन्म मनाते ही रहेंगे। सदा ही जगमगाते दीपक जगते ही रहेंगे। पहले फिर भी विधिपूर्वक दीपक जगाते थे जिससे सदा दीपक जगता रहे, बुझे नहीं - यह ध्यान रखते थे। घृत डालते थे, विधिपूर्वक आह्वान के अभ्यास में रहते थे। अभी तो दीपक के बजाए बल्ब जगा देते हैं। दीपमाला नहीं मनाते, अब तो मनोरंजन हो गया है। वह आह्वान की विधि अथवा साधना समाप्त हो गई है। स्नेह समाप्त हो अभी सिर्फ स्वार्थ रह गया है। धन बढ़ जाए - इसी स्वार्थ से करते। भावना से नहीं, कामना से करते हैं। पहले फिर भी भावना थी, अभी तो वह भावना, कामना के रूप में बदल गई है। रहस्य समाप्त हो गया और रीति-रस्म रह गई है। इसलिए, यथार्थ दाता रूपधारी लक्ष्मी किसी के पास आती नहीं। धन भी आता है तो काला धन आता है। दैवी-धन नहीं आता, आसुरी धन आता है। लेकिन आप सभी यथार्थ विधि से अपने दैवी पद का आह्वान करते स्वयं देवता या देवी बन जाते हो। तो दीपावली मनाने आये हो ना।

बाम्बे को चांस मिला है। बापदादा बाम्बे को वैसे ही नरदेसावर कहते हैं। दीपावली भी धन-देवी की यादगार है ना। मनाना किसको कहा जाता, क्या करेंगे? सिर्फ मोमबत्ती जलायेंगे, केक काटेंगे, रास करेंगे, गीत गायेंगे? यह तो ब्राह्मण जीवन का अधिकार है - सदा नाचना-गाना, सदा ज्योत से ज्योत जगाना। लेकिन संगमयुग का मनाना अर्थात् बाप समान बनना। तब तो माला के समीप आयेंगे ना। यह भी संगमयुग के सुहेज (मनोरंजन) हैं। खूब मनाओ लेकिन बाप से मिलन मनाते हुए सुहेज मनाओ। सिर्फ मनोरंजन के रूप में नहीं लेकिन मन्मनाभव हो मनोरंजन मनाओ। क्योंकि आप अलौकिक हो ना? तो अलौकिक विधि से अलौकिकता का मनोरंजन अविनाशी हो जाता है। आप सबने तो संगमयुगी दीपमाला की विधि-पुराना खाता खत्म करना, हर संकल्प, हर घड़ी, हर कर्म, हर बोल नया अर्थात् अलौकिक हो - यह विधि अपना ली है ना? जरा भी पुराना खाता रहा हुआ न हो। कभी-कभी जब कमज़ोरी आ जाती है तो क्या कहते हो? चाहते तो नहीं हैं लेकिन पुराने संस्कार हैं, पुराना स्वभाव अथवा आदत है, धीरे-धीरे खत्म हो जायेंगे - ऐसे कहते हैं ना? तो पुराना खाता फिर कहाँ से आया? अभी तक सम्भाल करके रखा है क्या? गठरी बाँधकर रखी होगी तो चोर लगेगा। पुराना खाता है ही रावण का खाता। नया खाता है ब्रह्मा बाप का वा ब्राह्मणों का खाता। अगर थोड़ा भी पुराना खाता रहा हुआ है तो वह रावण की अपनी चीज़ है। अपनी चीज़ को अधिकार से लेंगे। इसलिए माया रावण चक्र लगाती है। चीज़ ही नहीं होगी तो रावण आयेगा भी नहीं।

जैसे किसी का उधार कर्जा होता है तो क्या करते हैं? बार-बार चक्र लगाते रहेंगे, छोड़ेगा नहीं। कितना भी टालने की कोशिश करो लेकिन कर्ज़दार अपना कर्ज़ जरूर चुकायेगा। अगर कोई भी पुराने खाते में पुराने संस्कार अभी समाप्त नहीं किये हैं तो यह रावण का कर्जा है। इस कर्ज़ को मर्ज कहा जाता है। कहते हैं कर्ज़ जैसा कोई मर्ज नहीं। तो यह रावण का कर्जा - पुराने संकल्प, संस्कार-स्वभाव, पुरानी चाल-चलन - यह कर्जा कमज़ोर बना देता है। कमज़ोरी ही मर्ज अर्थात् बीमारी बन जाती है। इसलिए इस कर्ज़ को एक सेकण्ड में, ‘यह पुराना, पराया है' - इस एक दृढ़ संकल्प से समाप्त करो। इसको जलाओ। आतिशबाजी जलाते हैं ना। आजकल आतिशबाजी में बाम्ब बनाते हैं ना। तो आप दृढ़ संकल्प की तीली से आत्मिक बाम्ब की आतिशबाजी जलाओ जिससे यह सब पुराना समाप्त हो जाए। वह लोग गँवायेंगे और आप कमायेंगे। वह आतिशबाजी में पैसा गँवाते हैं, आप आतिशबाजी पर कमायेंगे। कमाई करने की बाजी आती है ना? वह आतिशबाजी है और आपकी उड़ती कला की बाजी है। इसमें आप विजयी हो रहे हो। तो डबल फायदा लो। जलाओ भी, कमाओ भी - यह विधि अपनाओ। समझा?

विधि से सिद्धि मिलती है ना। एक यह विधि है। दूसरी विधि - दीपमाला में कोने-कोने में सफाई करते हैं। चारों कोनों में सफाई करते हैं, दो वा तीन कोने में नहीं करते। क्योंकि स्वच्छता महानता है। देव-पद का आह्वान करने के लिए चार कोने की स्वच्छता क्या है? वो स्थूल चार कोनों की सफाई करते, आपकी स्वच्छता कौनसी है? - ‘पवित्रता'। चारों प्रकार की स्वच्छता (पवित्रता) हो। उस दिन सुनाया था ना। इसी विधि से दैवी-पद की प्राप्ति करते हो। अगर एक भी प्रकार की स्वच्छता नहीं है तो श्रेष्ठ दैवी-पद की प्राप्ति भी नहीं होती अर्थात् जो ऊँच ते ऊँच बनने की इच्छा रखते हो, वह पूर्ण नहीं हो सकती। तो चारों ही प्रकार की स्वच्छता - यह है दूसरी विधि। इस विधि को अपनाया है? सुनाया ना - मनाना अर्थात् बाप समान बनना। ब्रह्मा बाप को देखा, पुराना खाता खत्म किया ना, चारों प्रकार की स्वच्छता हर कर्म में देखी ना। ब्रह्मा ने सबूत बन करके दिखाया, इसलिए नम्बरवन सपूत बने और नम्बरवन पद की प्राप्ति की। तो फॉलो फादर है ना। ब्रह्मा बाप ने सेकण्ड में संकल्प किया, पुराना खाता खत्म। उसके लिए दीपमाला पर यह विधि अपनाई जाती है। दीपमाला के दिवस पुराना खाता खत्म किया, समर्पित हुए, पुराना सब स्वाहा किया? दृढ़ संकल्प की तीली से आतिशबाजी कौन-सी जलाई? उड़ती कला की बाजी लगाई? इसलिए यह इस दिन का यादगार चला आ रहा है। इन विधियों को अपनाना अर्थात् दिवाली मनाना।

तो दिवाली मनाई या मनाने वालों को देखकर खुश हुए? मनाना अर्थात् बनना। ब्रह्मा बाप समान बनना - यही दिवाली मनाना हुआ। देखो - एक तरफ बारूद जलाना, दूसरे तरफ दीपक जगाना, तीसरे तरफ मनाना, मिठाई खाना, नये वस्त्र पहनना और चौथे तरफ सफाई करना। तो जलाना भी है, मनाना भी है और सफाई भी करना है। चारों प्रकार करना है। करना अर्थात् कर्म में करना। चारों प्रकार की दीपमाला हो गई ना। ऐसे नहीं - करना आता, मनाना आता लेकिन जलाना नहीं आता, सफाई करना नहीं आता। नहीं। चारों ही बातों में बाप समान बनना है। समझा, दीपावली का अर्थ क्या है? दीपरानियाँ और दीपराजा की यह कहानी है। संगमयुग पर भी रानी बन गई हो ना? बेहद के राजाओं के राजा की रानियाँ हो। सतयुग में तो होंगी देव-रानी, लेकिन अभी परमात्म-रानियाँ हो। इसलिए पटरानियाँ दिखाई हैं। सिर्फ कृष्ण छोटे बच्चे को रानियाँ दिखा दी हैं। कृष्ण को बच्चे के रूप में भी दिखाते, फिर रानियाँ भी दिखाते। मिक्स कर दिया है। यह राजाओं का राजा बनाने वाले की सब रानियाँ हैं। रानियाँ भी हो, सीतायें भी हो। यही जादू है। अभी-अभी कहते भाई-भाई हो, तो जरूर अपने को भाई ही कहेंगे। फिर दूसरे तरफ कहते सब सीतायें हो, राम कोई नहीं। यही जादू है। इसमें ही मजा है। अभी-अभी बहन-भाई बन जाओ, अभी-अभी सीता बन जाओ, अभी फरिश्ता बन जाओ। यह रूहानी जादू बहुत रमणीक है। जादू से घबराते तो नहीं हो ना। स्वयं ही जादूगर बन गये।

दीपावली अथवा दीपमाला की अविनाशी मुबारक है। वह तो एक दिन के लिए कहते - हैपी दिवाली और बापदादा कहते - अविनाशी होली हैपी', हेल्दी दीपावली। सब चाहिए ना। हैं ही सदा जगे हुए दीपक। सदा मुख मीठा रहता। सबसे बड़े ते बड़ी मिठाई मिलती जिससे सदा मुख मीठा रहता। वह कौनसी मिठाई है? - ‘बाबा' यही दिलखुश मिठाई है। यह मिठाई तो सदा खाते रहते। सहज मिठाई है, बनाने में मुश्किल नहीं। मिठाई भी खाई, मिलन भी मनाया। देश-विदेश के बच्चे आज आकारी फरिश्ते रूप में मधुबन में पहुँचे हुए हैं। सभी का मन यहाँ है और तन सेवा में है। बापदादा सिर्फ इस सभा को नहीं देख रहे हैं लेकिन चारों ओर के फरिश्ते रूपधारी बच्चों से भी मिलन मना रहे हैं। सभी उमंग-उत्साह में खूब मना रहे हैं। सभी के मन में एक ही याद समाई हुई है। सभी के मुख में यही अविनाशी मिठाई है। दीपकों की माला कितनी बड़ी है! चारों ओर के जगमगाते हुए दीपक माला के रूप में बाप के सामने हैं और हर एक दीपक को देख बापदादा हर्षा रहे हैं और मुबारक भी दे रहे हैं। समझा?

चारों ओर के दीपरानियों को, चारों ओर के जगमगाते हुए विश्व में अविनाशी प्रकाश देने वाले विशेष आत्माओं को, चारों ओर के बापदादा समान बनने वाले अर्थात् सभी दीपमाला मनाने वाले महान आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और बहुत-बहुत मुबारक हो।

मधुबन निवासी भाई-बहिनों से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात

पाण्डवों की विशेषता क्या है? पाण्डव यज्ञ सेवा के सहयोगी हैं। यज्ञ सेवा के सहयोगी सो सदा सहयोग लेने के पात्र। जो जितनी सच्ची दिल से, स्नेह से सहयोग देता है, उतना पद्म गुणा बाप से सहयोग लेने का अधिकारी बनता है। बाप पूरा ही सहयोग का हिसाब चुक्तु करते हैं। बड़े कार्य को भी सहज करने का चित्र पर्वत का दिखाते हैं। (पर्वत को अँगुली दी) तो पाण्डव विशेष सेवा के सहयोगी बन कोई भी कार्य सहज कर लेते हैं। जिस कार्य को लोग मुश्किल समझते हैं, वह सहज ही खेल के समान कर लेते हो ना? सेवा नहीं समझते, ड्यूटी नहीं समझते लेकिन रूहानी खेल अनुभव करते हो। खेल के लिए किसको भी बुलाओ तो ना नहीं करेगा और कभी थकेगा भी नहीं। तो आप सभी भी यज्ञसेवा में थकते नहीं हो ना। रूहानी खेल है, इसलिए थकावट भी नहीं होती है और ना करने चाहो तो भी नहीं कर सकते हो क्योंकि ईश्वरीय बंधन में बंधे हुए हो। यह बंधन ही नजदीक सम्बन्ध में लाने वाला है। जितनी जो सेवा करता है उतना सेवा का फल - समीप सम्बन्ध में आता है। यहाँ के सेवाधारी वहाँ के राज्य फैमिली (परिवार) के अधिकारी बनेंगे। यहाँ जितनी हार्ड (सख्त) सेवा करते, उतना वहाँ आराम से सिंहासन पर बैठेंगे और यहाँ जो आराम करते हैं, वह वहाँ काम करेंगे। हिसाब है ना। एक-एक सेकण्ड का, एक-एक काम का हिसाब-किताब बाप के पास है। इसलिए, एक-एक सेकण्ड का हिसाब कर चुक्तु भी करता है। गिनती करके हिसाब देता है, ऐसे नहीं देता। लेकिन पद्मगुणा देता है। तो आज के सेवाधारी कल के राज-अधिकारी बनते हैं और आज के राज्य करने वाले कल के सेवा करने वाले बनते हैं। सेवा-भाव सदा ऊँचा उठाता है। नाम सेवा है लेकिन सेवा वाला खाता सदैव मेवा है! तो मेवा खाने वाले सेवाधारी हैं, वैसे सेवाधारी नहीं। एक दो, पद्म लो। तो पाण्डवों का गायन है! सेवा करने में बहुत मजबूत रहे हैं, इसलिए वह मजबूत शरीर दिखाते हैं। लेकिन हैं मजबूत दिल वाले, मजबूत मन वाले। वह मन व दिल कैसे दिखायें, इसलिए शरीर दिखा दिया है। खुशी की खुराक बहुत खाते हैं, इसलिए मोटे दिखाते हैं।

बहनों से - मधुबन निवासी हर कर्म बाप के साथ करने वाले हो ना? ऐसा श्रेष्ठ भाग्य और किसी का होगा जो हर कर्म मधुबन में मधुबन के बाप के साथ हो? मधुबन में चारों ओर बाप ही बाप है ना। तो मधुबन निवासियों की विशेषता है - सदा हर कर्म बाप के साथ अनुभव करने वाले। जो हर कर्म बाप के साथ करने वाले हैं, उनका हर कर्म श्रेष्ठ होगा ना। तो श्रेष्ठ कर्म करने वाली श्रेष्ठ आत्मायें हो। सदा इसी अनुभव में चलने वाले को ही मधुबन निवासी कहते हैं। जिस समय यह अनुभव नही होता तो मधुबन निवासी नहीं हुए। उस समय मधुबन में रहते भी मधुबन निवासी नहीं हैं और जो दूर रहते भी हर कर्म बाप के साथ करते, वह दूर रहते भी मधुबन निवासी है। मधुबन वाले हर चरित्र में साथ चलने वाले हैं। भागवत मधुबन का यादगार है, मधुबन में बाप के साथ हर चरित्र चलने वालों की कहानी है। ऐसी श्रेष्ठ आत्माओं को देख सब खुश होते हैं।

दीपावली मुबारक

विदाई के समय बापदादा बच्चों की मौज में मौज मनाते हैं। इसीलिए, मोमबत्ती जलाओ या केक काटो, जो करना हो वह करो। ब्राह्मणों जैसा उत्सव तो देवतायें भी नहीं मना सकेंगे क्योंकि बाप के साथ मनाते हो। वह तो आत्मायें, आत्माओं के साथ मनायेंगी। तो क्यों नहीं मौज मनाओ! मूँझ के सिर्फ मौज नहीं मनाओ, बिना मूँझने के मौज मनाओ। यह सब रचना है ही मौज के लिए। खाओ-पियो मौज करो। मौजों के लिए ही आये हो। पैदा ही मौजों से हुए हो। ज्ञान सुना और पैदा हो गये। तो मौज-मौज से पैदा हुए और मौजों के लिए ही पैदा हुए। जायेंगे भी मौज-मौज से, बाप के साथ जायेंगे। इसीलिए बापदादा खुश होते हैं जब बच्चे मनाते हैं। मनुष्यों ने तो मौज की रचना में भी मूँझ पैदा कर दी है। यह प्रकृति मौज मनाने के लिए है लेकिन मनुष्यात्माओं के वायब्रेशन्स वायुमण्डल को खराब करते हैं। वायुमण्डल का प्रभाव प्रकृति पर पड़ता है। और प्रकृति भी मुँझाने का काम करती है। बारिश ने भी प्रोग्राम को मुँझा दिया ना। लेकिन मूँझे नहीं, मौज में रहे। मिलने की मौज मनाई ना। प्रकृति अपने जिद्द पर है, आप मनाने की जिद्द पर हो। आप मना रहे हो, वह मुँझा रही है। मुँझाने दो लेकिन आप हटने वाले हो क्या? नहीं। अंगद हो। पानी नहीं है, प्रेम का पानी तो है। इसलिए प्रकृति भी देख रही है कि यह प्रभु के बच्चे भी कम नहीं हैं। अच्छा।



25-10-87   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


चार बातों से न्यारे बनो

मायाजीत और प्रकृतिजीत बनाने वाले बापदादा अपने वत्सों प्रति बोले

आज बापदादा अपने सर्व कमल-आसनधारी श्रेष्ठ बच्चों को देख रहे हैं। कमल-आसन ब्राह्मण आत्माओं की श्रेष्ठ स्थिति की निशानी है। आसन स्थित, बैठने का साधन है। ब्राह्मण आत्मायें कमल-स्थिति में स्थित रहतीं, इसलिए कमल-आसनधारी कहलाती हैं। जैसे ब्राह्मण सो देवता बनते हो, ऐसे आसनधारी सो सिंहासनधारी बनते हैं, जितना समय बहुतकाल वा अल्पकाल कमल आसनधारी बनते हैं, उतना ही बहुतकाल वा अल्पकाल राज्य सिंहासनधारी बनते हैं। कमल-आसन विशेष ब्रह्मा बाप समान अति न्यारी और अति प्यारी स्थिति का सिम्बल (चिन्ह) है। आप ब्राह्मण बच्चे फॉलो फादर करने वाले हो, इसलिए बाप समान कमल-आसनधारी हो। अति न्यारे की निशानी है - वह बाप और सर्व परिवार के अति प्यारे बनेंगे। न्यारापन अर्थात् चारों ओर से न्यारा।

(1) अपने देह भान से न्यारा - जैसे साधारण दुनियावी आत्माओं को चलतेफिरते, हर कर्म करते स्वत: और सदा देह का भान रहता ही है, मेहनत नहीं करते कि मैं देह हूँ, न चाहते भी सहज स्मृति रहती ही है। ऐसे कमल-आसनधारी ब्राह्मण आत्मायें भी इस देहभान से स्वत: ही ऐसे न्यारे रहें जैसे अज्ञानी आत्म- अभिमान से न्यारे हैं। हैं ही आत्म-अभिमानी। शरीर का भान अपने तरफ आकर्षित न करे। जैसे ब्रह्मा बाप को देखा, चलते-फिरते फरिश्ता-रूप वा देवता- रूप स्वत: स्मृति में रहा। ऐसे नैचुरल देही-अभिमानी स्थिति सदा रहे - इसको कहते हैं देहभान से न्यारे। देहभान से न्यारा ही परमात्म-प्यारा बन जाता है।

(2) इस देह के जो सर्व सम्बन्ध हैं, दृष्टि से, वृत्ति से, कृति से - उन सबसे न्यारा - देह का सम्बन्ध देखते हुए भी स्वत: ही आत्मिक, देही सम्बन्ध स्मृति में रहे। इसलिए दीपावली के बाद भैया-दूज मनाया ना। जब चमकता हुआ सितारा वा जगमगाता अविनाशी दीपक बन जाते हो, तो भाई-भाई का सम्बन्ध हो जाता है। आत्मा के नाते भाई-भाई का सम्बन्ध और साकार ब्रह्मावंशी ब्राह्मण बनने के नाते से बहन-भाई का श्रेष्ठ शुद्ध सम्बन्ध स्वत: ही स्मृति में रहता है। तो न्यारापन अर्थात् देह और देह के सम्बन्ध से न्यारा।

(3) देह के विनाशी पदार्थों में भी न्यारापन - अगर कोई पदार्थ किसी भी कर्मेन्द्रिय को विचलित करता है अर्थात् आसक्ति-भाव उत्पन्न होता है तो वह न्यारापन नहीं रहता। सम्बन्ध से न्यारा फिर भी सहज हो जाते लेकिन सर्व पदार्थों की आसक्ति से न्यारा - अनासक्त' बनने में रॉयल रूप की आसक्ति रह जाती है। सुनाया था ना कि आसक्ति का स्पष्ट रूप इच्छा है। इसी इच्छा का सूक्ष्म, महीन रूप है - अच्छा लगना। इच्छा नहीं है लेकिन अच्छा लगता है - यह महीन रूप अच्छा' के बदले इच्छा' का रूप भी ले सकता है। तो इसकी अच्छी रीति चेकिंग करो कि यह पदार्थ अर्थात् अल्पकाल सुख के साधन आकर्षित तो नहीं करते हैं? कोई भी साधन समय पर प्राप्त न हो तो सहज साधन अर्थात् सहजयोग की स्थिति डगमग तो नहीं होती है? कोई भी साधन के वश, आदत से मजबूर तो नहीं होते? क्योंकि यह सर्व पदार्थ अर्थात् साधन - प्रकृति के साधन हैं। तो आप प्रकृतिजीत अर्थात् प्रकृति के आधार से न्यारे कमल-आसनधारी ब्राह्मण हो। मायाजीत के साथ-साथ प्रकृतिजीत भी बनते हो। जैसे ही मायाजीत बनते हो, तो माया बार-बार भिन्न-भिन्न रूपों में ट्रायल करती है कि मेरे साथी मायाजीत बन रहे हैं? तो भिन्न-भिन्न पेपर लेती है? प्रकृति का पेपर है - साधनों द्वारा आप सभी को हलचल में लाना। जैसे - पानी। अभी यह कोई बड़ा पेपर नहीं आया है। लेकिन पानी से बने हुए साधन, अग्नि द्वारा बने हुए साधन, ऐसे हर प्रवृति के तत्वों द्वारा बने हुए साधन मनुष्य आत्माओं के जीवन का अल्पकाल के सुख का आधार हैं। तो यह सब तत्व पेपर लेंगे। अभी तो सिर्फ पानी की कमी हुई है लेकिन पानी द्वारा बने हुए पदार्थ जब प्राप्त नहीं होंगे तो असली पेपर उस समय होगा। यह प्रकृति द्वारा पेपर भी समय प्रमाण आने ही हैं।

इसलिए, देह के पदार्थों की आसक्ति वा आधार से भी निराधार अनासक्त' होना है। अभी तो सब साधन अच्छी तरह से प्राप्त हैं, कोई कमी नहीं है। लेकिन साधनों के होते, साधनों को प्रयोग में लाते, योग की स्थिति डगमग न हो। योगी बन प्रयोग करना - इसको कहते हैं न्यारा। है ही कुछ नहीं, तो उसको न्यारा नहीं कहेंगे। होते हुए निमित्त-मात्र, अनासक्त रूप से प्रयोग करना; इच्छा वा अच्छा होने के कारण नहीं यूज करना - यह चेकिंग जरूर करो। जहाँ इच्छा होगी, फिर भला कितनी भी मेहनत करेंगे लेकिन इच्छा, अच्छा बनने नहीं देगी। पेपर के समय मेहनत करने में ही समय बीत जायेगा। आप साधना में रहने का प्रयत्न करेंगे और साधन अपने तरफ आकर्षित करेंगे। आप युद्ध कर, मेहनत कर साधनों की आकर्षण को मिटाने का प्रयत्न करते रहेंगे तो युद्ध की कशमकश में ही पेपर का समय बीत जायेगा। रिजल्ट क्या हुई? प्रयोग करने वाले साधन ने सहजयोगी स्थिति से डगमग कर दिया ना। प्रकृति के पेपर तो अभी और रफ्तार से आने वाले हैं। इसलिए, पहले से ही पदार्थों के विशेष आधार - खाना, पीना, पहनना, चलना, रहना और सम्पर्क में आना - इन सबकी चेकिंग करो कि कोई भी बात महीन रूप में भी विघ्न-रूप तो नहीं बनती? यह अभी से ट्रायल करो। जिस समय पेपर आयेगा उस समय ट्रायल नहीं करना, नहीं तो फेल होने की मार्जिन है।

योग-स्थिति अर्थात् प्रयोग करते हुए न्यारी स्थिति। सहज योग की साधना साधनों के ऊपर अर्थात् प्रकृति के ऊपर विजयी हो। ऐसा न हो उसके बिना तो चल सकता लेकिन इसके बिना रह नहीं सकते, इसलिए डगमग स्थिति हो गई... इसको भी न्यारी जीवन नहीं कहेंगे। ऐसी सिद्धि को प्राप्त करो जो आपके सिद्धि द्वारा अप्राप्ति भी प्राप्ति का अनुभव कराये। जैसे स्थापना के आरम्भ में आसक्ति है वा नहीं, उसकी ट्रायल के लिए बीच-बीच में जानबूझकर प्रोग्राम रखते रहे। जैसे, 15 दिन सिर्फ डोढ़ा और छाछ खिलाई, गेहूँ होते भी यह ट्रायल कराई गई। कैसे भी बीमार 15 दिन इसी भोजन पर चले। कोई भी बीमार नहीं हुआ। दमा की तकलीफ वाले भी ठीक हो गये ना। नशा था कि बापदादा ने प्रोग्राम दिया है! जब भक्ति में कहते हैं विष भी अमृत हो गया', यह तो छाछ थी! निश्चय और नशा हर परिस्थिति में विजयी बना देता है। तो ऐसे पेपर भी आयेंगे - सूखी रोटी भी खानी पड़ेगी। अभी तो साधन हैं। कहेंगे - दांत नहीं चलते, हजम नहीं होता। लेकिन उस समय क्या करेंगे? जब निश्चय, नशा, योग की सिद्धि की शक्ति होती है तो सूखी रोटी भी नर्म रोटी का काम करेगी, परेशान नहीं करेगी। आप सिद्धि-स्वरूप की शान में हो तो कोई भी परेशान नहीं कर सकता है। जब हठयोगियों के आगे शेर भी बिल्ली बन जाता, सांप खिलौना बन जाता, तो आप सहज राजयोगी, सिद्धि-स्वरूप आत्माओं के लिए यह सब कोई बड़ी बात नहीं। है तो आराम से यूज करो लेकिन समय पर धोखा न दे - यह चेक करो। परिस्थिति, स्थिति को नीचे न ले आये। देह के सम्बन्ध से न्यारा होना सहज है लेकिन देह के पदार्थों से न्यारा होना - इसमें बहुत अच्छा अटेन्शन (ध्यान) चाहिए।

(4) पुराने स्वभाव, संस्कार से न्यारा बनना - पुरानी देह के स्वभाव और संस्कार भी बहुत कड़े हैं। मायाजीत बनने में यह भी बड़ा विघ्न-रूप बनते हैं। कई बार बापदादा देखते हैं - पुराने स्वभाव, संस्कार रूपी सांप खत्म भी हो जाता लेकिन लकीर रह जाती जो समय आने पर बार-बार धोखा दे देती। यह कड़े स्वभाव और संस्कार कई बार इतना माया के वशीभूत बना देते हैं जो रांग को रांग समझते ही नहीं। महसूसता-शक्ति' समाप्त हो जाती है। इससे न्यारा होना - इसकी भी चेकिंग अच्छी तरह चाहिए। जब महसूसता-शक्ति समाप्त हो जाती है तो और ही एक झूठ के पीछे हजार झूठ अपनी बात को सिद्ध करने के लिए बोलने पड़ते हैं। इतना परवश हो जाते हैं! अपने को सत्य सिद्ध करना - यह भी पुराने संस्कार के वशीभूत की निशानी है। एक है यथार्थ बात स्पष्ट करना, दूसरा है अपने को जिद्द से सिद्ध करना। तो जिद्द से सिद्ध करने वाले कभी सिद्धिस्व रूप नहीं बन सकते हैं। यह भी चेक करो कि कोई भी पुराना स्वभाव, संस्कार अंश-मात्र भी छिपे हुए रूप में रहा हुआ तो नहीं है? समझा?

इन चार ही बातों से न्यारा जो है उसको कहेंगे बाप का प्यारा, परिवार का प्यारा। ऐसे कमल-आसनधारी बने हो? इसी को ही कहेंगे फॉलो फादर। ब्रह्मा बाप भी कमल-आसनधारी बने तब नम्बरवन बाप के प्यारे बने, ब्राह्मणों के प्यारे बने। चाहे व्यक्त रूप में, चाहे अभी अव्यक्त रूप में। अभी भी हर एक ब्राह्मण के दिल से क्या निकलता है? हमारा ब्रह्मा बाबा। यह नहीं अनुभव करते कि हमने तो साकार में देखा नहीं। लेकिन नयनों से नहीं देखा, दिल से देखा, बुद्धि के दिव्य नेत्रों द्वारा देखा, अनुभव किया। इसलिए, हर ब्राह्मण दिल से कहता - ‘‘मेरा ब्रह्मा बाबा''। यह प्यारेपन की निशानी है। चारों ओर के न्यारेपन ने विश्व का प्यारा बना दिया। तो ऐसे ही चारों ओर के न्यारे और सर्व के प्यारे बनो। समझा?

गुजरात समीप रहता है, तो फॉलो करने में भी समीप है। स्थान और स्थिति दोनों में समीप बनना - यही विशेषता है। बापदादा तो सदा बच्चों को देख हर्षित होते हैं। अच्छा।

चारों ओर के कमल-आसनधारी, न्यारे और बाप के प्यारे बच्चों को, सदा मायाजीत, प्रकृतिजीत विशेष आत्माओं को, सदा फॉलो फादर करने वाले वफादार बच्चों को बापदादा का स्नेह सम्पन्न यादप्यार और नमस्ते।

पार्टियों के साथ मुलाकात

मधुबन में आये हुए सेवाधारी भाई बहिनों से - जितना समय मधुबन में सेवा की, उतना समय निरन्तर योग का अनुभव किया? योग टूटा तो नहीं? मधुबन में सेवाधारी बनना अर्थात् निरन्तर योगी, सहजयोगी के अनुभवी बनना। यह थोड़े समय का अनुभव भी सदा याद रहेगा ना। जब भी कोई परिस्थिति आये तो मन से मधुबन में पहुँच जाना। तो मधुबन निवासी बनने से परिस्थिति वा समस्या खत्म हो जायेगी और आप सहजयोगी बन जायेंगे। सदैव अपने इस अनुभव को साथ रखना। तो अनुभव याद करने से शक्ति आ जायेगी। सेवा का मेवा अविनाशी है। अच्छा। यह चांस मिलना भी कम नहीं है, बहुत बड़ा चांस मिला है।

सेवाधारी अर्थात् सदा बाप समान निमित्त बनने वाले, निर्मान रहने वाले। निर्मानता ही सबसे श्रेष्ठ सफलता का साधन है। कोई भी सेवा में सफलता का साधन नम्रता भाव है, निमित्त भाव है। तो इन्हीं विशेषताओं से सेवा की? ऐसी सेवा में सदा सफलता भी है और सदा मौज है। संगमयुग की मौज मनाई, इसलिए सेवा, सेवा नहीं लगी। जैसे कोई मल्लयुद्ध करते हैं तो अपनी मौज से खेल समझकर करते हैं। उसमें थकावट वा दर्द नहीं होता है क्योंकि मनोरंजन समझ करते हैं, मौज मनाने के लिए करते हैं। ऐसे ही अगर सच्चे सेवाधारी की विशेषता से सेवा करते हो तो कभी थकावट नहीं हो सकती। समझा? सदा ऐसे ही लगेगा जैसे सेवा नहीं लेकिन खेल कर रहे हैं। तो कोई भी सेवा मिले, इन दो विशेषताओं से सफलता को पाते रहना। इससे सदा सफलता-स्वरूप बन जायेंगे। अच्छा।

मंजुला बहन का परिवार हंसमुख भाई के निमित्त भोग लगाने मधुबन में आया है। इस श्रेष्ठ स्थान पर आकर अपने को भाग्यशाली आत्मायें समझते हो? इस श्रेष्ठ स्थान पर पहुँचना भी श्रेष्ठ भाग्य है। जैसे भक्ति-मार्ग में कहते हैं कि अगर कोई श्रेष्ठ यात्रा करते हैं तो वह भाग्यवान, पुण्य आत्मा माने जाते हैं। और आप जिस स्थान पर पहुँचे हो, यह सब यात्राओं से महान तीर्थ-स्थान है। तो महा तीर्थस्थान पर आने से सब तीर्थ हो जाते हैं, सब यात्रायें हो जाती हैं। जिसने यह महान यात्रा की, उसने सब यात्रायें कर लीं। तो कितने भाग्यवान हो गये! आपके सब तीर्थ सिद्ध हो गये। और तीर्थ करने की आवश्यकता नहीं रही अगर एक महान तीर्थ कर लिया। यह भाग्य भी क्यों प्राप्त हुआ? किसके निमित्त प्राप्त हुआ? वह (हंसमुख भाई) भाग्यवान आत्मा बनी, इसीलिए आपको भी यह चांस मिला। जैसे बाप से वर्सा मिलता है ना। तो यह लौकिक सो अलौकिक बाप बन गया। तो इस अलौकिक बाप से भी आपको भाग्य का वर्सा मिला। इससे ही समझो कितनी भाग्यवान आत्मा हो! जैसे लौकिक का हिस्सा मिलता है, वैसे यह भाग्य का हिस्सा प्राप्त करने के अधिकारी बने। वर्सा सदैव सहज मिलता है, मेहनत नहीं करनी पड़ती। तो आप लोगों को भी यह भाग्य का वर्सा एक भाग्यवान आत्मा के निमित्त सहज ही मिल रहा है। अभी इस प्राप्त हुए भाग्य के आगे सौभाग्यवान भी है, हजार भाग्यवान भी है, तो पद्मापद्म भाग्यवान भी है। अभी क्या बनना है, वह आपके ऊपर है। जो चाहे वह बन सकते हो। उस आत्मा का काम था यहाँ पहुँचाना। भाग्यविधाता की धरनी पर पहुँचे, अब जितनी भाग्य की लकीर खींचने चाहो उतनी खींच सकते हो। सम्पर्क में तो रहे हो, अभी समीप सम्बन्ध में आओ। क्योंकि जो समीप सम्बन्धी होता है उसकी प्राप्ति भी इतनी ही होती है। तो बहुत अच्छा किया जो ड्रामा में यह श्रेष्ठ नूँध, नूँध ली। अच्छा।

मंजुला बहन से - विजयी बनने के मेहनती नहीं, अनेक बार की विजयी हैं और विजयी रही, आगे भी विजय का झण्डा सदा ही बुलन्द है। विजय का तिलक सदा मस्तक पर चमक रहा है। तो सदा तिलकधारी हैं, सदा बाप के दिलतख्तनशीन हैं। तो मुश्किल लगा? इसको कहते हैं पास विद् ऑनर। पेपर में पास विद् ऑनर हो गई। संकल्प भी नहीं आया - क्या हो गया! बिंदी लगा देना - यह पास विद् ऑनर की निशानी है। तो पास विद् ऑनर की लाइन में आ गई। वैसे भी न्यारी और बाप की प्यारी रही, इसलिए यह न्यारापन समय पर एक लिफ्ट बन गया। बापदादा बच्ची की विजय पर खुश हैं। विजयी होने के कारण उस आत्मा के संस्कार को भी प्रत्यक्ष रूप में लाने के निमित्त बनी। सेवा के संस्कार उसके रहे लेकिन उस संस्कार को प्रत्यक्ष रूप में लाने के निमित्त आप बनी। इसलिए अनेक आत्माओं की सेवा का पुण्य जमा हो गया। उस आत्मा को भी यह विशेष आशीर्वाद सेवा की प्राप्त है। इसलिए सेवा में थे, सेवा में हैं और सदा सेवा में ही रहेंगे। अच्छा।

अलग-अलग ग्रुप से - सच्ची तपस्या सदा के लिए सच्चा सोना बना देती है जिसमें जरा भी मिक्स (मिलावट) नहीं। तपस्या सदा हर एक को ऐसा योग्य बनाती है जो प्रवृत्ति में भी सफल और प्रालब्ध प्राप्त करने में भी सफल। ऐसे तपस्वी बने हो? तपस्या करने वालों को राजयोगी कहते हैं। तो आप सभी राजयोगी हो। कभी किसी भी परिस्थिति से विचलित होने वाले तो नहीं? तो सदा अपने को इसी रीति से चेक करो और चेक करने के बाद चेंज करो। सिर्फ चेक करने से भी दिलशिकस्त हो जायेंगे, सोचेंगे कि हमारे में यह भी कमी है, यह भी है, पता नहीं ठीक होगा या नहीं। तो चेक भी करो और चेक के साथ चेन्ज भी करो। समझो, कमज़ोर बन गये, समय चला गया। लेकिन समय प्रमाण कर्त्तव्य करने वालों की सदा विजय होती है। तो सभी सदा विजयी, श्रेष्ठ आत्मायें हो? सभी श्रेष्ठ हो या नम्बरवार? अगर नम्बर पूछें कि किस नम्बर वाले हो तो सब नम्बरवन कहेंगे। लेकिन वह नम्बर कितने होंगे? एक या अनेक? फर्स्ट नम्बर तो सब नहीं बनेंगे लेकिन फर्स्ट डिवीजन में तो आ सकते हैं। फर्स्ट नम्बर एक होगा लेकिन फर्स्ट डिवीजन में तो बहुत आयेंगे। इसलिए फर्स्ट नम्बर बन सकते हो। राजगद्दी पर एक बैठेगा लेकिन और भी साथी तो होंगे ना। तो रॉयल फैमिली में आना भी राज्य अधिकारी बनना है। तो फर्स्ट डिवीजन अर्थात् नम्बरवन में आने का पुरूषार्थ करो। अभी तक कोई भी सीट सिवाए दो-तीन के फिक्स नहीं हुई है। अभी जो चाहे, जितना पुरूषार्थ करना चाहे कर सकता है। बापदादा ने सुनाया था कि अभी लेट हुई है लेकिन टूलेट नहीं हुई है। इसलिए सभी को आगे बढ़ने का चांस है। विन कर वन में आने का चांस है। तो सदैव उमंग-उत्साह रहे। ऐसे नहीं - चलो कोई भी नम्बरवन बने, मैं नम्बर दो ही सही। इसको कहते हैं कमज़ोर पुरूषार्थ। आप सभी तो तीव्र पुरूषार्थी हो ना? अच्छा।



29-10-87   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


तन, मन, धन और सम्बन्ध की शक्ति

सदा स्वस्थ भव' का वरदान देने वाले, सर्वशक्तिवान शिवबाबा अपने वत्सों प्रति बोले

आज सर्वशक्तिवान बाप अपने शक्तिशाली बच्चों को देख रहे हैं। हर एक ब्राह्मण आत्मा शक्तिशाली बनी है लेकिन नम्बरवार है। सर्व शक्तियां बाप का वर्सा और वरदाता का वरदान हैं। बाप और वरदाता - इन डबल सम्बन्ध से हरेक बच्चे को यह श्रेष्ठ प्राप्ति जन्म से ही होती है। जन्म से ही बाप सर्व शक्तियों का अर्थात् जन्म-सिद्ध अधिकार का अधिकारी बना देता है, साथ-साथ वरदाता के नाते से जन्म होते ही मास्टर सर्वशक्तिवान बनाए सर्व शक्ति भव' का वरदान दे देते हैं। सभी बच्चों को एक द्वारा एक जैसा ही डबल अधिकार मिलता है लेकिन धारण करने की शक्ति नम्बरवार बना देती है। बाप सभी को सदा और सर्व शक्तिशाली बनाते हैं लेकिन बच्चे यथा-शक्ति बन जाते हैं। वैसे लौकिक जीवन में वा अलौकिक जीवन में सफलता का आधार शक्तियां ही हैं। जितनी शक्तियां, उतनी सफलता। मुख्य शक्तियाँ हैं - तन की, मन की, धन की और सम्बन्ध की। चारों ही आवश्यक हैं। अगर चार में से एक भी शक्ति कम है तो जीवन में सदा व सर्व सफलता नहीं होती। अलौकिक जीवन में भी चारों ही शक्तियाँ आवश्यक है।

इस अलौकिक जीवन में आत्मा और प्रकृति दोनों की तन्दरूस्ती आवश्यक है। जब आत्मा स्वस्थ है तो तन का हिसाब-किताब वा तन का रोग सूली से कांटा बनने के कारण, स्व-स्थिति के कारण स्वस्थ अनुभव करता है। उनके मुख पर, चेहरे पर बीमारी के कष्ट के चिन्ह नहीं रहते। मुख पर कभी बीमारी का वर्णन नहीं होता, कर्मभोग के वर्णन के बदले कर्मयोग की स्थिति का वर्णन करते हैं। क्योंकि बीमारी का वर्णन भी बीमारी की वृद्धि करने का कारण बन जाता है। वह कभी भी बीमारी के कष्ट का अनुभव नहीं करेगा, न दूसरे को कष्ट सुनाकर कष्ट की लहर फैलायेगा। और ही परिवर्तन की शक्ति से कष्ट को सन्तुष्टता में परिवर्तन कर सन्तुष्ट रह औरों में भी सन्तुष्टता की लहर फैलायेगा। अर्थात् मास्टर सर्वशक्तिवान बन शक्तियों के वरदान में से समय प्रमाण सहन शक्ति, समाने की शक्ति प्रयोग करेगा और समय पर शक्तियों का वरदान वा वर्सा कार्य में लाना - यही उसके लिए वरदान अर्थात् दुआ दवाई का काम कर देती है। क्योंकि सर्वशक्तिवान बाप द्वारा जो सर्वशक्तियाँ प्राप्त हैं वह जैसी परिस्थिति, जैसा समय और जिस विधि से आप कार्य में लगाना चाहो, वैसे ही रूप से यह शक्तियाँ आपकी सहयोगी बन सकती हैं। इन शक्तियों को वा प्रभु-वरदान को जिस रूप में चाहे वह रूप धारण कर सकते हैं। अभी-अभी शीतलता के रूप में, अभी-अभी जलाने के रूप में। पानी की शीतलता का भी अनुभव करा सकते तो आग के जलाने का भी अनुभव करा सकते; दवाई का भी काम कर सकता और शक्तिशाली बनाने का माजून का भी काम कर सकता। सिर्फ समय पर कार्य में लगाने की अथॉर्टी बनो। यह सर्वशक्तियाँ आप मास्टर सर्वशक्तिवान की सेवाधारी हैं। जब जिसको आर्डर करो, वह हाजर हजूर' कह सहयोगी बनेगी लेकिन सेवा लेने वाले भी इतने चतुर-सुजान चाहिए। तो तन की शक्ति आत्मिक शिक्त के आधार पर सदा अनुभव कर सकते हो अर्थात् सदा स्वस्थ रहने का अनुभव कर सकते हो।

यह अलौकिक ब्राह्मण जीवन है ही सदा स्वस्थ जीवन। वरदाता से सदा स्वस्थ भव' का वरदान मिला हुआ है। बापदादा देखते हैं कि प्राप्त हुए वरदानों को कई बच्चे समय पर कार्य में लगाकर लाभ नहीं ले सकते हैं वा यह कहें कि शक्तियों अर्थात् सेवाधारियों से अपनी विशालता और विशाल बुद्धि द्वारा सेवा नहीं ले पाते हैं। मास्टर सर्वशक्तिवान' - यह स्थिति कोई कम नहीं है! यह श्रेष्ठ स्थिति भी है, साथ-साथ डायरेक्ट परमात्मा द्वारा परम टाइटल' भी है। टाइटल का नशा कितना रखते हैं! टाइटल कितने कार्य सफल कर देता है! तो यह परमात्म-टाइटल है, इसमें कितनी खुशी और शक्ति भरी हुई है! अगर इसी एक टाइटल की स्थिति रूपी सीट पर सेट रहो तो यह सर्वशक्तियाँ सेवा के लिए सदा हाजर अनुभव होंगी, आपके आर्डर की इन्तजार में होगी। तो वरदान को वा वर्से को कार्य में लगाओ। अगर मास्टर सर्वशक्तिवान के स्वमान में स्थित नहीं होते तो शक्तियों को आर्डर में चलाने के बजाए बार-बार बाप को अर्जा डालते रहते कि यह शक्ति दे दो, यह हमारा कार्य करा दो, यह हो जाए, ऐसा हो जाए। तो अर्जा डालने वाले कभी भी सदा राजी नहीं रह सकते हैं। एक बात पूरी होगी, दूसरी शुरू हो जायेगी। इसलिए मालिक बन, योगयुक्त बन युक्तियुक्त सेवा सेवाधारियों से लो तो सदा स्वस्थ का स्वत: ही अनुभव करेंगे। इसको कहते हैं - तन के शक्ति की प्राप्ति।

ऐसे ही मन की शक्ति अर्थात् श्रेष्ठ संकल्प शक्ति। मास्टर सर्वशक्तिवान के हर संकल्प में इतनी शक्ति है जो जिस समय जो चाहे वह कर सकता है और करा भी सकता है क्योंकि उनके संकल्प सदा शुभ, श्रेष्ठ और कल्याणकारी होंगे। तो यहाँ श्रेष्ठ कल्याण का संकल्प है, वह सिद्ध जरूर होता है और मास्टर सर्वशक्तिवान होने के कारण मन कभी मालिक को धोखा नहीं दे सकता है, दु:ख नहीं अनुभव करा सकता है। मन एकाग्र अर्थात् एक ठिकाने पर स्थित रहता है, भटकता नहीं है। जहाँ चाहो, जब चाहो मन को वहाँ स्थित कर सकते हो। कभी मन उदास नहीं हो सकता है, यह है मन की शक्ति जो अलौकिक जीवन में वर्से वा वरदान में प्राप्त है।

इसी प्रकार तीसरी है धन की शक्ति अर्थात् ज्ञान-धन की शक्ति। ज्ञान-धन स्थूल धन की प्राप्ति स्वत: ही कराता है। जहाँ ज्ञान धन है, वहाँ प्रकृति स्वत: ही दासी बन जाती है। यह स्थूल धन प्रकृति के साधन के लिए है। ज्ञान-धन से प्रकृति के सर्व साधन स्वत: प्राप्त होते हैं। इसलिए ज्ञान-धन सब धन का राजा है। जहाँ राजा है, वहाँ सर्व पदार्थ स्वत: ही प्राप्त होते हैं, मेहनत नहीं करनी पड़ती। अगर कोई भी लौकिक पदार्थ प्राप्त करने में मेहनत करनी पड़ती है तो इसका कारण ज्ञान-धन की कमी है। वास्तव में, ज्ञान-धन पद्मापद्मपति बनाने वाला है। परमार्थ व्यवहार को स्वत: ही सिद्ध करता है। तो परमात्म-धन वाले परमार्थी बन जाते हैं। संकल्प करने की भी आवश्यकता नहीं, स्वत: ही सर्व आवश्यकतायें पूर्ण होती रहतीं। धन की इतनी शक्ति है जो अनेक जन्म यह ज्ञान-धन राजाओं का भी राजा बना देता है। तो धन की भी शक्ति सहज प्राप्त हो जाती है।

इसी प्रकार - सम्बन्ध की शक्ति। सम्बन्ध की शक्ति के प्राप्ति की शुभ इच्छा इसलिए होती है क्योंकि सम्बन्ध में स्नेह और सहयोग की प्राप्ति होती है। इस अलौकिक जीवन में सम्बन्ध की शक्ति डबल रूप में प्राप्त होती है। जानते हो, डबल सम्बन्ध की शक्ति कैसे प्राप्त होती है? एक - बाप द्वारा सर्व सम्बन्ध, दूसरा - दैवी परिवार द्वारा सम्बन्ध। तो डबल सम्बन्ध हो गया ना - बाप से भी और आपस में भी। तो सम्बन्ध द्वारा सदा नि:स्वार्थ स्नेह, अविनाशी स्नेह और अविनाशी सहयोग सदा ही प्राप्त होता रहता है। तो सम्बन्ध की भी शक्ति है ना। वैसे भी बाप, बच्चा क्यों चाहता है अथवा बच्चा, बाप क्यों चाहता है? सहयोग के लिए, समय पर सहयोग मिले। तो इस अलौकिक जीवन में चारों शक्तियों की प्राप्ति वरदान रूप में, वर्से के रूप में है। जहाँ चारों प्रकार की शक्तियां प्राप्त हैं, उसकी हर समय की स्थिति कैसी होगी? सदा मास्टर सर्वशक्तिवान। इसी स्थिति की सीट पर सदा स्थित हो? इसी को ही दूसरे शब्दों में स्व के राजे वा राजयोगी कहा जाता है। राजाओं के भण्डार सदा भरपूर रहते हैं। तो राजयोगी अर्थात् सदा शक्तियों के भण्डार भरपूर रहते,समझा? इसको कहा जाता है - श्रेष्ठ ब्राह्मण अलौकिक जीवन। सदा मालिक बन सर्व शक्तियों को कार्य में लगाओ। यथाशक्ति के बजाए सदा शक्तिशाली बनो। अर्जा करने वाले नहीं, सदा राजी रहने वाले बनो। अच्छा।

मधुबन आने का चांस तो सभी को मिल रहा है ना। इस प्राप्त हुए भाग्य को सदा साथ रखो। भाग्यविधाता को साथ रखना अर्थात् भाग्य को साथ रखना है। तीन जोन के आये हैं। अलग-अलग स्थान की 3 नदियां आकर इकट्ठी हुई - इसको त्रिवेणी का संगम कहते हैं। बापदादा तो वरदाता बन सबको वरदान देते हैं। वरदानों को कार्य में लगाना, वह हर एक के ऊपर है। अच्छा।

चारों ओर के सर्व वर्से और वरदानों के अधिकारी श्रेष्ठ आत्माओं को, सर्व मास्टर सर्वशक्तिवान श्रेष्ठ आत्माओं को, सर्व सदा सन्तुष्टता की लहर फैलाने वाले सन्तुष्ट आत्माओं को, सदा परमार्थ द्वारा व्यव्हार में सिद्धि प्राप्त करने वाली महान आत्माओं को बापदादा का स्नेह और शक्ति सम्पन्न यादप्यार और नमस्ते।



02-11-87   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


स्व-परिवर्तन का आधार -सच्चे दिल की महसूसता'

कल्पवृक्ष के हर चैतन्य पत्ते का पता रखने वाले, रहमदिल बापदादा अपने बच्चों प्रति बोले

आज विश्व-परिवर्तक, विश्व-कल्याणकारी बापदादा अपने स्नेही, सहयोगी, विश्व-परिवर्तक बच्चों को देख रहे हैं। हर स्व एक परिवर्तन द्वारा विश्व-परिवर्तन करने की सेवा में लगे हुए हैं। सभी के मन में एक ही उमंग-उत्साह है कि इस विश्व को परिवर्तन करना ही है और निश्चय भी है कि परिवर्तन होना ही है अथवा यह कहें कि परिवर्तन हुआ ही पड़ा है। सिर्फ निमित्त बापदादा के सहयोगी, सहजयोगी बन वर्तमान और भविष्य श्रेष्ठ बना रहे हैं।

आज बापदादा चारों ओर के निमित्त विश्व-परिवर्तक बच्चों को देखते हुए एक विशेष बात देख रहे थे - हैं सभी एक ही कार्य के निमित्त, लक्ष्य भी सभी का स्व-परिवर्तन और विश्व-परिवर्तन ही है लेकिन स्व-परिवर्तन वा विश्व-परिवर्तन में निमित्त होते हुए भी नम्बरवार क्यों? कोई बच्चे स्व-परिवर्तन बहुत सहज और शीघ्र कर लेते और कोई अभी-अभी परिवर्तन का संकल्प करेंगे लेकिन स्वयं के संस्कार वा माया और प्रकृति द्वारा आने वाली परिस्थितियाँ वा ब्राह्मण परिवार द्वारा चुक्तु होने वाले हिसाब-किताब श्रेष्ठ परिवर्तन के उमंग को कमज़ोर कर देते हैं और कई बच्चे परिवर्तन करने की हिम्मत में कमज़ोर हैं। जहाँ हिम्मत नहीं, वहाँ उमंग-उत्साह नहीं। और स्व-परिवर्तन के बिना विश्व-परिवर्तन के कार्य में दिल-पसन्द सफलता नहीं होती। क्योंकि यह अलौकिक ईश्वरीय सेवा एक ही समय पर तीन प्रकार के सेवा की सिद्धि है, वह तीन प्रकार की सेवा साथ-साथ कौनसी है? एक - वृत्ति, दूसरा - वायब्रेशन, तीसरा - वाणी। तीनों ही शक्तिशाली निमित्त, निर्मान और नि:स्वार्थ इस आधार से हैं, तब दिल-पसन्द सफलता होती है। नहीं तो, सेवा होती है, अपने को वा दूसरों को थोड़े समय के लिए सेवा की सफलता से खुश तो कर लेते हैं लेकिन दिल-पसन्द सफलता जो बापदादा कहते हैं, वह नहीं होती है। बापदादा भी बच्चों की खुशी में खुश हो जाते हैं लेकिन दिलाराम की दिल पर यथा-शक्ति रिजल्ट नोट जरूर होती रहती। शाबास, शाबाश!' जरूर कहेंगे क्योंकि बाप की हर बच्चे के ऊपर सदा वरदान की दृष्टि और वृत्ति रहती है कि यह बच्चे आज नहीं तो कल सिद्धिस्व रूप बनने ही हैं। लेकिन वरदाता के साथ-साथ शिक्षक भी है, इसलिए आगे के लिए अटेन्शन भी दिलाते हैं।

तो आज बापदादा विश्व-परिवर्तन के कार्य की और विश्व-परिवर्तक बच्चों की रिजल्ट को देख रहे थे। वृद्धि हो रही है, आवाज चारों ओर फैल रहा है, प्रत्यक्षता का पर्दा खुलने का भी आरम्भ हो गया है। चारों ओर की आत्माओं में अभी इच्छा उत्पन्न हो रही है कि नजदीक जाकर देखें। सुनी-सुनाई बातें अभी देखने के परिवर्तन में बदल रही हैं। यह सब परिवर्तन हो रहा है। फिर भी ड्रामा अनुसार अभी तक बाप और कुछ निमित्त बनी हुई श्रेष्ठ आत्माओं के शक्तिशाली प्रभाव का परिणाम यह दिखाई दे रहा है। अगर मैजारिटी इस विधि से सिद्धि को प्राप्त करें तो बहुत जल्दी सर्व ब्राह्मण सिद्धि-स्वरूप में प्रत्यक्ष हो जायेंगे। बापदादा देख रहे थे - दिलपसन्द, लोकपसन्द, बाप-पसन्द सफलता का आधारस्व परिवर्तन' की अभी कमी है और स्व-परिवर्तन' की कमी क्यों है? उसका मूल आधार एक विशेष शक्ति की कमी है। वह विशेष शक्ति है - महसूसता की शक्ति।

कोई भी परिवर्तन का सहज आधार महसूसता-शक्ति है। जब तक महसूसता-शक्ति नहीं आती, तब तक अनुभूति नहीं होती और जब तक अनुभूति नहीं तब तक ब्राह्मण जीवन की विशेषता का फाउन्डेशन मजबूत नहीं। आदि से अपने ब्राह्मण जीवन को सामने लाओ।

पहला परिवर्तन - मैं आत्मा हूँ, बाप मेरा है - यह परिवर्तन किस आधार से हुआ? जब महसूस करते हो कि हाँ, मैं आत्मा हूँ, यही मेरा बाप है।' तो महसूसता अनुभव कराती है, तब ही परिवर्तन होता है। जब तक महसूस नहीं करते, तब तक साधारण गति से चलते हैं और जिस घड़ी महसूसता की शक्ति अनुभवी बनाती है तो तीव्र पुरूषार्थी बन जाते हैं। ऐसे जो भी परिवर्तन की विशेष बातें हैं - चाहे रचयिता के बारे में, चाहे रचना के बारे में, जब तक हर बात को महसूस नहीं करते कि हाँ, यह वही समय है, वही योग है, मैं भी वही श्रेष्ठ आत्मा हूँ - तब तक उमंग-उत्साह की चाल नहीं रहती। कोई के वायुमण्डल के प्रभाव से थोड़े समय के लिए परिवर्तन होगा लेकिन सदाकाल का नही होगा। महसूसता की शक्ति सदाकाल का सहज परिवर्तन कर लेगी।

इसी प्रकार स्व-परिवर्तन में भी जब तक महसूसता की शक्ति नहीं, तब तक सदाकाल का श्रेष्ठ परिवर्तन नहीं हो सकता है। इसमें विशेष दो बातों की महसूसता चाहिए। एक - अपनी कमज़ोरी की महसूसता। दूसरी - जो परिस्थिति वा व्यक्ति निमित्त बनते हैं, उनकी इच्छा और उनके मन की भावना वा व्यक्ति की कमज़ोरी या परवश के स्थिति की महसूसता। परिस्थिति के पेपर के कारण को जान स्वयं को पास होने के श्रेष्ठ स्वरूप की महसूसता में हो वि - मैं श्रेष्ठ हूँ, स्वस्थिति श्रेष्ठ है, परिस्थिति पेपर है। यह महसूसता सहज परिवर्तन करा लेगी और पास कर लेंगे। दूसरे की इच्छा वा दूसरे के स्व-उन्नति की भी महसूसता अपने स्व-उन्नति का आधार है। तो स्व-परिवर्तन - महसूसता की शक्ति बिना नहीं हो सकता। इसमें भी एक है - सच्चे दिल की महसूसता, दूसरी - चतुराई की महसूसता भी है। क्योंकि नॉलेजफुल बहुत बन गये हैं। तो समय देख अपने को सिद्ध करने के लिए, अपना नाम अच्छा करने के लिए उस समय महसूस भी कर लेंगे लेकिन उस महसूसता में शक्ति नहीं होती जो परिवर्तन कर लेंवे। तो दिल की महसूसता दिलाराम की आशीर्वाद प्राप्त कराती है और चतुराई वाली महसूसता थोड़े समय के लिए दूसरे को भी खुश कर लेते, अपने को भी खुश कर देते।

तीसरे प्रकार की महसूसता - मन मानता है कि यह ठीक नहीं है, विवेक आवाज देता है कि यह यथार्थ नहीं है लेकिन बाहर के रूप से अपने को महारथी सिद्ध करने के लिए, अपने नाम को किसी भी प्रकार से परिवार के बीच कमज़ोर या कम न करने के कारण विवेक का खून करते रहते हैं। यह विवेक का खून करना भी पाप है। जैसे आपघात महापाप है, वैसे यह भी पाप के खाते में जमा होता है। इसलिए बापदादा मुस्कराते रहते हैं और उनमें मन के डॉयलाग भी सुनते रहते हैं। बहुत सुन्दर डॉयलाग होते हैं। मूल बात - ऐसी महसूसता वाले यह समझते हैं कि किसको क्या पता पड़ता है, ऐसे ही चलता है... लेकिन बाप को पता हर पत्ते का है। सिर्फ मुख से सुनने से पता नहीं पड़ता, लेकिन पता होते भी बाप अन्जान बन भोलेपन में भोलानाथ के रूप से बच्चों को चलाते हैं। जबकि जानते हैं, फिर भोला क्यों बनते? क्योंकि रहमदिल बाप है, समझा? ऐसे बच्चे चतुरसुजान बाप से भी अथवा निमित्त आत्माओं से भी बहुत चतुर बन सामने आते हैं। इसलिए बाप रहमदिल, भोलानाथ बन जाते हैं।

बापदादा के पास हर बच्चे के कर्म का, मन के संकल्पों का खाता हर समय का स्पष्ट रहता है। दिलों को जानने की आवश्यकता नहीं है लेकिन हर बच्चे के दिल की हर धड़कन का चित्र स्पष्ट ही है। इसलिए कहते हैं कि मैं हर एक के दिल को नहीं जानता क्योंकि जानने की आवश्यकता ही नहीं, स्पष्ट है ही। हर घड़ी के दिल की धड़कन वा मन के संकल्प का चार्ट बापदादा के सामने है। बता भी सकते हैं, ऐसे नहीं कि नहीं बता सकते हैं। तिथि, स्थान, समय और क्याक् या किया - सब बता सकते हैं। लेकिन जानते हुए भी अन्जान रहते हैं। तो आज सारा चार्ट देखा।

स्व-परिवर्तन तीव्रगति से न होने के कारण - सच्ची दिल के महसूसता' की कमी है। महसूसता की शक्ति बहुत मीठे अनुभव करा सकती है। यह तो समझते हो ना। कभी अपने को बाप के नूरे रतन आत्मा अर्थात् नयनों में समाई हुई श्रेष्ठ बिन्दु महसूस करो। नयनों में तो बिन्दु ही समा सकता है, शरीर तो नहीं समा सकेगा। कभी अपने को मस्तक पर चमकने वाली मस्तक-मणि,चमकता हुआ सितारा महसूस करो, कभी अपने को ब्रह्मा बाप के सहयोगी, राइट हैण्ड साकार ब्राह्मण रूप में ब्रह्मा की भुजायें अनुभव करो, महसूस करो। कभी अव्यक्त फरिश्ता स्वरूप महसूस करो। ऐसे महसूसता शक्ति से बहुत अनोखे, अलौकिक अनुभव करो। सिर्फ नॉलेज की रीति वर्णन नही करो, महसूस करो। इस महसूसता-शक्ति को बढ़ाओ तो दूसरे तरफ की कमज़ोरी की महसूसता स्वत: ही स्पष्ट होगी। शक्तिशाली दर्पण के बीच छोटा-सा दाग भी स्पष्ट दिखाई देगा और परिवर्तन कर लेंगे। तो समझा, स्व परिवर्तन का आधार महसूसता शक्ति है। शक्ति को कार्य में लगाओ, सिर्फ गिनती करके खुश न हो - हाँ, यह भी शक्ति है, यह भी शक्ति है। लेकिन स्व प्रति, सर्व प्रति, सेवा प्रति सदा हर कार्य में लगाओ। समझा? कई बच्चे कहते कि बाप यही काम करते रहते हैं क्या? लेकिन बाप क्या करे, साथ तो ले ही जाना है। जब साथ ले जाना है तो साथी भी ऐसे ही चाहिए ना। इसलिए देखते रहते हैं और समाचार सुनाते रहते कि साथी समान बन जाएं। पीछे-पीछे आने वालों की तो बात ही नहीं है, वह तो ढेर होंगे। लेकिन साथी तो समान चाहिए ना। आप साथी हो या बाराती हो? बारात तो बहुत बड़ी होगी, इसलिए शिव की बारात मशहूर है। बारात तो वैराइटी होगी लेकिन साथी तो ऐसे चाहिए ना। अच्छा।

यह ईस्टर्न जोन है। ईस्टर्न जोन क्या कर रहा है? प्रत्यक्षता का सूर्य कहाँ से उदय करेंगे? बाप में प्रत्यक्षता हुई, वह बात तो अब पुरानी हो गई। लेकिन अब क्या करेंगे? पुरानी गद्दी है - यह तो नशा अच्छा है लेकिन अब क्या करेंगे? अभी कोई नवीनता का सूर्य उदय करो जो सब के मुख से निकले कि यह ईस्टर्न जोन से नवीनता का सूर्य प्रकट हुआ! जो कार्य अभी तक किसी ने न किया हो, वह अब करके दिखाओ। फंक्शन, सेमीनार किये, आई.पी. (विशिष्ट व्यक्ति) की सेवा की, अखबारों में डाला - यह तो सभी करते लेकिन नवीनता की कुछ झलक दिखाओ। समझा?

बाप का घर सो अपना घर है। आराम से सब पहुँच गये हैं। दिल का आराम स्थूल आराम भी दिला देता है। दिल का आराम नहीं तो आराम के साधन होते भी बेआराम होते। दिल का आराम है अर्थात् दिल में सदा राम साथ में है, इसलिए कोई भी परिस्थिति में आराम अनुभव करते हो। आराम है ना, कि आनाजाना बेआराम लगता है? फिर भी मीठे ड्रामा की भावी समझो। मेला तो मना रहे हो ना। बाप से मिलना, परिवार से मिलना - यह मेला मनाने की भी मीठी भावी है। अच्छा।

सर्वशक्तिशाली श्रेष्ठ आत्माओं को, हर शक्ति को समय पर कार्य में लाने वाले सर्व तीव्र पुरूषार्थी बच्चों को, सदा स्व-परिवर्तन द्वारा सेवा में दिलपसन्द सफलता पाने वाले दिलखुश बच्चों को, सदा दिलाराम बाप के आगे सच्ची दिल से स्पष्ट रहने वाले सफलता-स्वरूप श्रेष्ठ आत्माओं को दिलाराम बापदादा का दिल से यादप्यार और नमस्ते।

विदाई के समय

मुख्य भाई-बहिनों के साथ - बापदादा सभी बच्चों को समान बनाने की शुभ भावना से उड़ाने चाहते हैं। निमित्त बने हुए सेवाधारी बाप-समान बनने ही हैं, कैसे भी बाप को बनाना ही है क्योंकि ऐसे-वैसे को तो साथ ले ही नहीं जायेंगे। बाप की भी तो शान है ना। बाप सम्पन्न हो और साथी लंगड़ा या लूला हो तो सजेगा नहीं। लूले-लंगड़े बाराती होंगे, साथी नहीं। इसलिए शिव की बारात सदा लूली-लंगड़ी दिखाई गई है क्योंकि कुछ कमज़ोर आत्मायें धर्मराजपुरी में पास होने लायक बनेंगी।

सर्व के सहयोग से सुखमय संसार कार्यक्रम के बारे में - यह तो विषय ऐसी है जो स्वयं सभी सहयोग देने की आफर करेंगे। सहयोग से फिर सम्बन्ध में भी आयेंगे। इसलिए आपे ही आफर होगी। सिर्फ शुभ-भावना, शुभ-कामना-सम्पन्न सेवा में सेवाधारी आगे बढ़ें। शुभ भावना का फल प्राप्त नहीं हो - यह हो ही नहीं सकता। सेवाधारियों के शुभ भावना, शुभ कामना की धरनी सहज फल देने के निमित्त बनेगी। फल तैयार है, सिर्फ धरनी तैयार होने की थोड़ी-सी देरी है। फल तो फटाफट निकलेंगे लेकिन उसके लिए योग्य धरनी चाहिए। अभी वह धरनी तैयार हो रही है।

वैसे सेवा तो सभी की करनी आवश्यक है लेकिन फिर भी जो विशेष सत्तायें हैं, उनमें से समीप नहीं आये हैं। चाहे राज्य सत्ता वालों की सेवा हुई है या धर्म सत्ता वालों की हुई है, लेकिन सहयोगी बनकर के सामने आयें, समय पर सहयोगी बनें - उसकी आवश्यकता है। उसके लिए तो शक्तिशाली बाण लगाना पड़ेगा। देखा जाता है कि शक्तिशाली बाण वही होता है जिसमें सर्व आत्माओं के सहयोग की भावना हो, खुशी की भावना हो, सद्भावना हो। इससे हर कार्य सहज सफल होता है। अभी जो सेवा करते हो, वह अलग-अलग करते हो। लेकिन जैसे पहले जमाने में कोई कार्य करने के लिए जाते थे तो सारे परिवार की आशीर्वाद लेकर के जाते थे। वह आशीर्वाद ही सहज बना देती है। तो वर्तमान सेवा में यह एडीशन (अभिवृद्धि) चाहिए। तो कोई भी कार्य शुरू करने के पहले सभी की शुभ भावनायें, शुभ कामनायें लो, सर्व के सन्तुष्टता का बल भरो, तब शक्तिशाली फल निकलेगा।

अभी इतनी मेहनत करने की आवश्यकता नहीं है। सब खोखले हुए पड़े हैं। मेहनत करने की जरूरत नहीं। फूँक दो और उड़कर यहाँ आ जाएँ - ऐसे खोखले हैं। और आजकल तो सब समझ रहे हैं कि और कोई पावर चाहिए जो कन्ट्रोल कर सके - चाहे राज्य को, चाहे धर्म को। अन्दर से ढूँढ़ रहे हैं। सिर्फ ब्राह्मण आत्माओं की सेवा की विधि में अन्तर चाहिए, वही मन्त्र बन जायेगा। अभी तो मन्त्र चलाओ और सिद्धि हो। 50 वर्ष मेहनत की। यह सब भी होना ही था, अनुभवी बन गये। अभी हर कार्य में यही लक्ष्य रखो कि सर्व के सहयोग से सफलता' - ब्राह्मणों के लिए यह टॉपिक है। बाकी दुनिया वालों के लिए टॉपिक है - सर्व के सहयोग से सुखमय संसार'। अच्छा।

अब तो आप सबके सिद्धि का प्रत्यक्ष रूप दिखाई देगा। कोई बिगड़ा हुआ कार्य भी आपकी दृष्टि से, आपके सहयोग से सहज हल होगा जिसके कारण भक्ति में धन्य-धन्य करके पुकारेंगे। यह सब सिद्धियाँ भी आपके सामने प्रत्यक्ष रूप में आयेंगी। कोई सिद्धि के रीति से आप लोग नहीं कहेंगे कि हाँ, यह हो जायेगा', लेकिन आपका डायरेक्शन स्वत: सिद्धि प्राप्त कराता रहेगा। तब तो प्रजा जल्दी-जल्दी बनेगी, सब तरफ से निकल कर आपकी तरफ आयेंगे। यह सिद्धि का पार्ट अभी चलेगा। लेकिन पहले इतने शक्तिशाली बनो जो सिद्धि को स्वीकार न करो, तब यह प्रत्यक्षता होगी। नहीं तो, सिद्धि देने वाले ही सिद्धि में फँस जाएँ तो फिर क्या करेंगे? तो यह सब बातें यहाँ से ही शुरू होनी हैं। बाप का जो गायन है कि वह सर्जन भी है, इंजीनियर भी है, वकील भी है, जज भी है - इसका प्रैक्टिकल सब अनुभव करेंगे, तब सब तरफ से बुद्धि हटकर एक तरफ जायेगी। अभी तो आपके पीछे भीड़ लगने वाली है। बापदादा तो यह दृश्य देखते हैं और कभी-कभी अब के दृश्य देखते हैं - बहुत फर्क लगता है। आप हो कौन, वह बाप जानता है! बहुत-बहुत वण्डरफुल पार्ट होने हैं, जो ख्याल- ख्वाब में भी नहीं हैं। सिर्फ थोड़ा रूका हुआ है, बस। जैसे पर्दा कभी-कभी थोड़ा अटक जाता है ना। झण्डा भी लहराते हो तो कभी अटक जाता है। ऐसे अभी थोड़ा-थोड़ा अटक रहा है। आप जो है, जैसे हो - बहुत महान हो। जब आपकी विशेषता प्रत्यक्ष होगी तब तो इष्ट बनेंगे। आखिर तो भक्त माला भी प्रत्यक्ष होगी ना। लेकिन पहले ठाकुर सजकर तैयार हों तब तो भक्त आयें ना। अच्छा।

पार्टियों से मुलाकात

आप सभी श्रेष्ठ आत्मायें सबकी प्यास बुझाने वाले हो ना? वह है स्थूल जल और आपके पास है - ज्ञान अमृत'। जल अल्पकाल की प्यास बुझाए तृप्त आत्मा बना देता है। तो सर्व आत्माओं को अमृत द्वारा तृप्त करने के निमित्त बने हुए हो ना। यह उमंग सदा रहता है? क्योंकि, प्यास बुझाना - यह महान पुण्य है। प्यासे की प्यास बुझाने वाले को पुण्य आत्मा कहते हैं। आप भी महान पुण्य आत्मा बन सभी की प्यास बुझाने वाले हो। जैसे प्यास से मनुष्य तड़फते हैं, अगर पानी न मिले तो प्यास से तड़फेंगे ना। ऐसे, ज्ञान-अमृत न मिलने से आत्मायें दु:ख-अशान्ति में तड़फ रही हैं। तो उनको ज्ञान अमृत देकर प्यास बुझाने वाली पुण्य आत्मायें हो। तो पुण्य का खाता अनेक जन्मों के लिए जमा कर रहे हो ना? एक जन्म में ही अनेक जन्मों का खाता, अनेक जन्मों के लिए जमा कर रहे हो ना? एक जन्म में ही अनेक जन्मों का खाता जमा होता है। तो आपने इतना जमा कर लिया है ना? इतने मालामाल बन गये जो औरों को भी बाँट सकते हो! अपने लिए भी जमा किया और दूसरों को भी देने वाले दाता बने। तो सदा यह चेक करो कि सारे दिन में पुण्यात्मा बने, पुण्य का कार्य किया या सिर्फ अपने लिए ही खाया-पिया मौज किया? जमा करने वाले को समझदार कहा जाता है, जो कमाये और खाये उसको समझदार नहीं कहेंगे। जैसे भोजन खाने के लिए फुर्सत निकालते हो क्योंकि आवश्यक है, ऐसे यह पुण्य का कार्य करना भी आवश्यक है। तो सदा की पुण्य आत्मा हो, कभी-कभी की नहीं। चांस मिले तो करें, नहीं। चांस लेना है। समय मिलेगा नहीं, समय निकालना है। तब जमा कर सकेंगे। इस समय जितना भी भाग्य की लकीर खींचने चाहो, उतना खींच सकते हो क्योंकि बाप भाग्य-विधाता और वरदाता है। श्रेष्ठ नॉलेज की कलम बाप ने अपने बच्चों को दे दी है। इस कलम से जितनी लम्बी लकीर खींचनी चाहो, खींच सकते हो। अच्छा।



06-11-87   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


निरंतर सेवाधारी बनने का साधन -चार प्रकार की सेवाएं'

आशीर्वादों की झोलियाँ भरने वाले, विधाता, वरदाता बापदादा अपने सेवाधारी बच्चों का सेवा का चार्ट देखकर बोले

आज विश्व-कल्याणकारी, विश्व-सेवाधारी बाप अपने विश्व-सेवाधारी, सहयोगी सर्व बच्चों को देख रहे थे कि हर एक बच्चा निरन्तर सहजयोगी के साथ-साथ निरन्तर सेवाधारी कहाँ तक बने हैं? क्योंकि याद और सेवा - दोनों का बैलेन्स सदा ब्राह्मण जीवन में बापदादा और सर्व श्रेष्ठ ब्राह्मण आत्माओं द्वारा ब्लैसिंग (आशीर्वाद) का पात्र बनाता है। इस संगमयुग पर ही ब्राह्मण जीवन में परमात्म-आशीर्वादें और ब्राह्मण परिवार की आशीर्वादें प्राप्त होती हैं। इसलिए इस छोटी-सी जीवन में सर्व प्राप्तियाँ और सदाकाल की प्राप्तियाँ सहज प्राप्त होती हैं। इस संगमयुग को विशेष ब्लैसिंग युग' कह सकते हैं, इसलिए ही इस युग को महान युग कहते हैं। स्वयं बाप हर श्रेष्ठ कर्म, हर श्रेष्ठ संकल्प के आधार पर हर ब्राह्मण बच्चे को हर समय दिल से आशीर्वाद देते रहते हैं। यह ब्राह्मण जीवन परमात्म-आशीर्वाद के पालना से वृद्धि को प्राप्त होने वाली जीवन है। भोलानाथ बाप सर्व आशीर्वाद की झोलियाँ खुले दिल से बच्चों को दे रहे हैं। लेकिन यह सर्व आशीर्वाद लेने का आधार - याद और सेवा का बैलेन्स है।' अगर निरन्तर योगी हैं तो साथ-साथ निरन्तर सेवाधारी भी हैं। सेवा का महत्त्व सदा बुद्धि में रहता है?

कई बच्चे समझते हैं - सेवा का जब चान्स मिलता है वा कोई साधन वा समय जब मिलता है तब ही सेवा करते हैं। लेकिन बापदादा जैसे याद निरन्तर, सहज अनुभव कराते हैं, वैसे सेवा भी निरन्तर और सहज हो सकती है। तो आज बापदादा सेवाधारी बच्चों की सेवा का चार्ट देख रहा था। जब तक निरन्तर सेवाधारी नहीं बने तब तक सदा की आशीर्वाद के अनुभवी नहीं बन सकते। जैसे-समय प्रमाण, सेवा के चांस प्रमाण, प्रोग्राम प्रमाण सेवा करते हो, उस समय सेवा के फलस्वरूप बाप की, परिवार की आशीर्वाद वा सफलता प्राप्त करते हो लेकिन सदाकाल के लिए नहीं। इसलिए कभी आशीर्वाद के कारण सहज स्व वा सेवा में उन्नति अनुभव करते हो और कभी मेहनत के बाद सफलता अनुभव करते हो क्योंकि निरन्तर याद और सेवा का बैलेन्स नहीं है। निरन्तर सेवाधारी कैसे बन सकते, आज उस सेवा का महत्व सुना रहे हैं।

सारे दिन में भिन्न-भिन्न प्रकार से सेवा कर सकते हो। इसमें एक है - स्व की सेवा अर्थात् स्व के ऊपर सम्पन्न और सम्पूर्ण बनने का सदा अटेन्शन रखना। आपके इस पढ़ाई के जो मुख्य सब्जेक्ट हैं, उन सबमें अपने को पास विद्-आनर बनाना है। इसमें ज्ञानस्वरूप, यादस्वरूप, धारणास्वरूप - सबमें सम्पन्न बनना है। यह स्व-सेवा सदा बुद्धि में रहे। यह स्व-सेवा स्वत: ही आपके सम्पन्न स्वरूप द्वारा सेवा कराती रहती है लेकिन इसकी विधि है - अटेन्शन और चेंकिग। स्व की चेकिंग करनी है, दूसरों की नहीं करनी। दूसरी है - विश्व सेवा जो भिन्न-भिन्न साधनों द्वारा, भिन्न-भिन्न विधि से, वाणी द्वारा वा सम्बन्ध-सम्पर्क द्वारा करते हो। यह तो सब अच्छी तरह से जानते हैं। तीसरी है - यज्ञ सेवा जो तन और धन द्वारा कर रहे हो।

चौथी है - मन्सा सेवा। अपनी शुभ भावना, श्रेष्ठ कामना, श्रेष्ठ वृत्ति, श्रेष्ठ वायब्रेशन द्वारा किसी भी स्थान पर रहते हुए अनेक आत्माओं की सेवा कर सकते हो। इसकी विधि है - लाइट हाउस, माइट हाउस बनना। लाइट हाउस एक ही स्थान पर स्थित होते दूर-दूर की सेवा करते हैं। ऐसे आप सभी एक स्थान पर होते अनेकों की सेवा अर्थ निमित्त बन सकते हो। इतना शक्तियों का खज़ाना जमा है तो सहज कर सकते हो। इसमें स्थूल साधन वा चान्स वा समय की प्राब्लम (समस्या) नहीं है। सिर्फ लाइट-माइट से सम्पन्न बनने की आवश्यकता है। सदा मन-बुद्धि व्यर्थ सोचने से मुक्त होना चाहिए, ‘मन्मनाभव' के मन्त्र का सहज स्वरूप होना चाहिए। यह चारों प्रकार की सेवा क्या निरन्तर सेवाधारी नहीं बना सकती? चारों ही सेवाओं में से हर समय कोई न कोई सेवा करते रहो तो सहज निरन्तर सेवाधारी बन जायेंगे और निरन्तर सेवाओं पर उपस्थित होने के कारण, सदा बिजी रहने के कारण सहज मायाजीत बन जायेंगे। चारों ही सेवाओं में से जिस समय जो सेवा कर सकते हो वह करो लेकिन सेवा से एक सेकेण्ड भी वंचित नहीं रहो। 24 घण्टा सेवाधारी बनना है। 8 घण्टे के योगी वा सेवाधारी नहीं लेकिन निरन्तर सेवाधारी। सहज है ना? और नहीं तो स्व की सेवा तो अच्छी है। जिस समय जो चांस मिले, वह सेवा कर सकते हो।

कई बच्चे शरीर के कारण वा समय न मिलने के कारण समझते हैं कि हम तो सेवा कर नहीं सकते हैं। लेकिन अगर चार ही सेवाओं में से कोई भी सेवा में विधिपूर्वक बिजी रहते हो तो सेवा की सब्जेक्टस में मार्क्स जमा होती जाती हैं और यह मिले हुए नम्बर (अंक) फाइनल रिजल्ट में जमा हो जायेंगे। जैसे वाणी द्वारा सेवा करने वालों के मार्क्स जमा होते हैं, वैसे यज्ञ-सेवा वा स्व की सेवा वा मन्सा सेवा - इनका भी इतना ही महत्त्व है, इसके भी इतने नम्बर जमा होंगे। हर प्रकार की सेवा के नम्बर इतने ही हैं। लेकिन जो चारों ही प्रकार की सेवा करते उसके उतने नम्बर जमा होते; जो एक वा दो प्रकार की सेवा करते, उसके नम्बर उस अनुसार जमा होते। फिर भी, अगर चार प्रकार की नहीं कर सकते, दो प्रकार की कर सकते हैं तो भी निरन्तर सेवाधारी हैं। तो निरन्तर के कारण नम्बर बढ़ जाते हैं। इसलिए ब्राह्मण जीवन अर्थात् निरन्तर सेवाधारी सहजयोगी।

जैसे याद का अटेन्शन रखते हो कि निरन्तर रहे, सदा याद का लिंक जुटा रहे; वैसे सेवा में भी सदा लिंक जुटा रहे। जैसे याद में भी भिन्न-भिन्न स्थिति का अनुभव करते हो - कभी बीजरूप का, कभी फरिश्तारूप का, कभी मनन का, कभी रूह-रूहान का लेकिन स्थिति भिन्न-भिन्न होते भी याद की सब्जेक्ट में निरन्तर याद में गिनते हो। ऐसे यह भिन्न-भिन्न सेवा का रूप हो। लेकिन सेवा के बिना जीवन नहीं। श्वांसों श्वांस याद और श्वांसों श्वांस सेवा हो - इसको कहते हैं बैलेन्स। तब ही हर समय ब्लैसिंग प्राप्त होने का अनुभव सदा करते रहेंगे और दिल से सदा स्वत: ही यह आवाज निकलेगा कि आशीर्वादों से पल रहे हैं, आशीर्वाद से, उड़ती कला के अनुभव से उड़ रहे हैं। मेहनत से, युद्ध से छुट जायेंगे। क्या', ‘क्यों', ‘कैसे' - इन प्रश्नों से मुक्त हो सदा प्रसन्न रहेंगे। सफलता सदा जन्म-सिद्ध अधिकार के रूप में अनुभव करते रहेंगे। पता नहीं क्या होगा। सफलता होगी वा नहीं होगी, पता नहीं हम आगे चल सकेंगे वा नहीं चल सकेंगे - यह पता नहीं का संकल्प परिवर्तन हो मास्टर त्रिकालदर्शी स्थिति' का अनुभव करेंगे। विजय हुई पड़ी है' - यह निश्चय और नशा सदा अनुभव होगा। यही ब्लैसिंग की निशानियाँ हैं। समझा?

ब्राह्मण जीवन में, महान युग में बापदादा के अधिकारी बन फिर भी मेहनत करनी पड़े, सदा युद्ध की स्थिति में ही जीवन बितायें - यह बच्चों के मेहनत की जीवन बापदादा से देखी नहीं जाती। इसलिए निरन्तर योगी, निरन्तर सेवाधारी बनो। समझा? अच्छा।

पुराने बच्चों की आशा पूरी हो गई ना। पानी की सेवा करने वाले सेवाधारी बच्चों को आफरीन (शाबाश) है जो अनेक बच्चों की आशाओं को पूर्ण करने में रात-दिन सहयोगी हैं। निद्राजीत भी बन गये तो प्रकृतिजीत भी बन गये। तो मधुबन के सेवाधारियों को, चाहे प्लैन बनाने वाले, चाहे पानी लाने वाले, चाहे आराम से रिसीव करने वाले, भोजन समय पर तैयार करने वाले - जो भी भिन्नभिन्न सेवा के निमित्त हैं, उन सबको थैंक्स देना। बापदादा तो दे ही रहे हैं। दुनिया पानी-पानी करके चिल्ला रही है और बाप के बच्चे कितना सहज कार्य चला रहे हैं! बापदादा सभी सेवाधारी बच्चों की सेवा देखते रहते हैं। कितना आराम से आप लोगों को मधुबन निवासी निमित्त बन चान्स दिला रहे हैं! आप भी सहयोगी बने हो ना? जैसे वह सहयोगी बने हैं तो आपको उसका फल मिल रहा है, वैसे आप सभी भी हर कार्य में जैसा समय उसी प्रमाण चलते रहेंगे तो आपके सहयोग का फल और ब्राह्मणों को भी मिलता रहेगा।

बापदादा मुस्करा रहे थे - सतयुग में दूध की नदियाँ बहेंगी लेकिन संगम पर पानी, घी तो बन गया ना। घी की नदी नलके में आ रही है। पानी घी बन गया तो अमूल्य हो गया ना। इसी विधि से अनेकों को चांस देते रहेंगे। फिर भी देखो, दुनिया में और आप ब्राह्मणों में अन्तर है ना। कई स्थानों से फिर भी आप लोगों को बहुत आराम है और अभ्यास भी हो रहा है। इसलिए राजयुक्त बन हर परिस्थिति में राजी रहने का अभ्यास बढ़ाते चलो। अच्छा।

सर्व निरन्तर योगी, निरन्तर सेवाधारी श्रेष्ठ आत्माओं को, सदा त्रिकालदर्शी बन सफलता के अधिकार को अनुभव करने वाले, सदा प्रसन्नचित्त, सन्तुष्ट, श्रेष्ठ आत्माओं को, हर सेकण्ड ब्लैसिंग के अनुभव करने वाले बच्चों को विधाता, वरदाता बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।

दादी जी से - संकल्प किया और सर्व को श्रेष्ठ संकल्प का फल मिल गया। कितने आशीर्वादों की मालायें पड़ती हैं! जो निमित्त बनते हैं उन्हों के भी, बाप के साथ-साथ गुण तो गाते हैं ना। इसलिए तो बाप के साथ बच्चों की भी पूजा होती है, अकेले बाप की नहीं होती। सभी को कितनी खुशी प्राप्त हो रही है! यह आशीर्वादों की मालायें भक्ति में मालाओं के अधिकारी बनाती हैं!



10-11-87   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


शुभचिन्तक-मणि बन विश्व को चिन्ताओं से मुक्त करो

अपने रूहानी पर्सनैलिटी सम्पन्न शुभचिन्तक-मणियों को सेवाओं के प्रोग्राम की सफलता का फाउण्डेशन बताते हुए रत्नागर बापदादा बोले

आज रत्नागर बाप अपने चारों ओर के विशेष शुभ-चिन्तक मणियों को देख रहे हैं। रत्नागर बाप की मणियाँ विश्व में अपनी शुभ-चिंतक किरणों से प्रकाश कर रही हैं। क्योंकि आज की इस आर्टीफिशियल चमक वाले विश्व में सर्व आत्माएं चिन्तामणी हैं। ऐसे अल्पकाल की चमकने वाली चिन्तामणियों को आप शुभ-चिंतक मणियाँ अपने शुभ-चिंतन की शक्ति द्वारा परिवर्तन कर रही हो। जैसे सूर्य की किरणें दूर-दूर तक अंधकार को मिटाती हैं, ऐसे आप शुभां चतक मणियों की शुभ संकल्प रूपी चमक कहो, किरणें कहो - विश्व के चारों ओर फैल रही हैं। आजकल कई आत्माएं समझती हैं कि कोई स्प्रिचुअल लाइट गुप्त रूप में अपना कार्य कर रही है। लेकिन ये लाइट कहाँ से ये कार्य कर रही है, वो जान नहीं सकते। कोई है - यहाँ तक टचिंग होनी शुरू हो गई है। आखिर ढूँढ़ते-ढूँढ़ते स्थान पर पहुँच ही जायेंगे। तो यह टचिंग आप शुभ-चिंतक मणियों के श्रेष्ठ संकल्प की चमक है। बापदादा हरेक बच्चे के मस्तक द्वारा मणि की चमक को देखते हैं। क्योंकि नम्बरवार चमकने वाले हैं। हैं सभी शुभ-चिंतक मणियाँ लेकिन चमक नम्बरवार है।

शुभ-चिंतक बनना - यही सहज रूप की मंसा सेवा है जो चलते-फिरते हर ब्राह्मण आत्मा वा अन्जान आत्माओं के प्रति कर सकते हो। आप सबके शुभां चतक बनने के वायब्रेशन वायुमण्डल को वा चिन्तामणि आत्मा की वृत्ति को बहुत सहज परिवर्तन कर देंगे। आज के मनुष्य आत्माओं के जीवन में चारों ओर से चाहे व्यक्तियों द्वारा, चाहे वैभव द्वारा - व्यक्तियों में स्वार्थ भाव होने के कारण, वैभवों में अल्पकाल की प्राप्ति होने के कारण - थोड़े समय के लिये श्रेष्ठ प्राप्ति की अनुभूति होती है लेकिन अल्पकाल की खुशी थोड़े समय के बाद चिन्ता में बदल जाती है। अर्थात् वैभव वा व्यक्ति चिन्ता मिटाने वाले नहीं - चिन्ता उत्पन्न कराने के निमित्त बन जाते हैं। ऐसे कोई न कोई चिन्ता में परेशान आत्माओं को शुभ-चिन्तक आत्माएं बहुत थोड़ी दिखाई देती हैं। शुभ-चिन्तक आत्माओं के थोड़े समय का सम्पर्क भी अनेक चिन्ताओं को मिटाने का आधार बन जाता है। तो आज विश्व को शुभ-चिन्तक आत्माओं की आवश्यकता है, इसलिए आप शुभ-चिन्तक मणियाँ वा आत्माएं विश्व को अति प्रिय हैं। जब सम्पर्क में आ जाते हैं तो अनुभव करते हैं कि ऐसे शुभ-चिन्तक दुनिया में कोई दिखाई नहीं देते।

शुभ-चिन्तक सदा रहें - इसका विशेष आधार है - शुभ-चिन्तन' जिसका सदा शुभ-चिन्तन रहता, अवश्य वह शुभ-चिन्तक है। अगर कभी-कभी व्यर्थ चिन्तन व पर-चिन्तन होता है तो सदा शुभ-चिन्तक भी नहीं रह सकते। शुभि चन्तक आत्माएं औरो के भी व्यर्थ चिन्तन, पर-चिन्तन को समाप्त करने वाले हैं। तो हर एक श्रेष्ठ सेवाधारी अर्थात् सदा शुभ-चिन्तक मणि का शुभ-चिन्तन का शक्तिशाली खज़ाना सदा भरपूर होगा। भरपूरता के कारण ही औरों के प्रति शुभ-चिन्तक बन सकते हैं। शुभ-चिन्तक अर्थात् सर्व ज्ञान-रत्नों से भरपूर। और ऐसा ज्ञान-सम्पन्न दाता बन औरों के प्रति सदा शुभ-चिन्तक बन सकता है। तो चेक करो कि सारे दिन में ज्यादा समय सम्पन्नता के नशे में रहता है, इसलिये शुभ-चिन्तक स्वरूप द्वारा दूसरों प्रति देता जाता और भरता जाता। पर-चिन्तन और व्यर्थ चिन्तन वाला सदा खाली होने के कारण अपने को कमज़ोर अनुभव करेगा, इसलिए शुभ-चिन्तक बन औरों को देने के पात्र नहीं बन सकता। वर्तमान समय सर्व की चिन्ता मिटाने के निमित्त बनने वाली शुभ-चिन्तक मणियों की आवश्यकता है जो चिन्ता के बजाए शुभ-चिन्तन की विधि के अनुभवी बना सकें। जहाँ शुभ-चिन्तन होगा वहाँ चिन्ता स्वत: समाप्त हो जाएगी। तो सदा शुभ-चिन्तक बन गुप्त सेवा कर रहे हो ना?

ये जो बेहद की विश्व-सेवा प्लान बनाया है, इस प्लान को सहज सफल बनाने का आधार भी शुभ-चिन्तक स्थिति' है। वैराइटी प्रकार की आत्माएं सम्बन्ध-सम्पर्क में आयेंगी। ऐसी आत्माओं के प्रति शुभ-चिन्तक बनना अर्थात् उन आत्माओं को हिम्मत के पंख देना है। क्योंकि सर्व आत्माएं चिन्ता की चिता पर रहने के कारण अपने हिम्मत, उमंग, उत्साह के पंख कमज़ोर कर चुकी हैं। आप शुभ-चिन्तक आत्माओं की शुभ-भावना उन्हों के पंखों में शक्ति भरेगी और आप की शुभ-चिन्तक भावनाओं के आधार से उड़ने लगेंगे अर्थात् सहयोगी बनेंगे। नहीं तो, दिलशिकस्त हो गये हैं कि बैटर वर्ल्ड (सुखमय संसार) बनाना हम आत्माओं की क्या शक्ति है? जो स्वयं को ही नहीं बना सकते तो विश्व को क्या बनायेंगे? विश्व को बदलना बहुत मुश्किल समझते हैं। क्योंकि वर्तमान सर्व सत्ताओं की रिजल्ट देख चुके हैं, इसलिये मुश्किल समझते हैं। ऐसी दिलशिकस्त आत्माओं को, चिन्ता की चिता पर बैठी हुई आत्माओं को आपकी शुभ-चिन्तक- शक्ति दिलशिकस्त से दिलखुश कर देगी। जैसे, डूबे हुए मनुष्य को तिनके का सहारा भी दिल खुश कर देता है, हिम्मत में ले आता है। तो आपकी शुभि चन्तक स्थिति उन्हों को सहारा अनुभव होगी, जलती हुई आत्माओं को शीतल जल की अनुभूति होगी।

सर्व का सहयोग प्राप्त करने का आधार भी शुभ-चिन्तक स्थिति है। जो सर्व के प्रति शुभ-चिन्तक हैं, उनको सर्व से सहयोग स्वत: ही प्राप्त होता ही है। शुभि चन्तक भावना औरों के मन में सहयोग की भावना सहज और स्वत: उत्पन्न करेगी। शुभ चिन्तक आत्माओं के प्रति हरेक को दिल का स्नेह उत्पन्न होता है और स्नेह ही सहयोगी बना देता है। जहाँ स्नेह होता है, वहाँ समय, सम्पत्ति, सहयोग सदा न्यौछावर करने के लिये तैयार हो जाते हैं। तो शुभ चिंतक स्नेही बनायेगा और स्नेह सब प्रकार के सहयोग में न्यौछावर बनायेगा। इसलिये, सदा शुभ-चिन्तन से सम्पन्न रहो, शुभ-चिन्तक बन सर्व को स्नेही, सहयोगी बनाओ। शुभ-चिन्तक आत्मा सर्व की सहज सर्टिफकेट ले सकती है। शुभ-चिन्तक ही सदा प्रसन्नता की पर्सनैलिटी में रह सकता है, विश्व के आगे विशेष पर्सनैलिटी वाले बन सकते हैं। आजकल पर्सनैलिटी वाली आत्मायें सिर्फ नामीग्रामी बनती हैं अर्थात् नाम बुलन्द होता है लेकिन आप रूहानी पर्सनैलिटी वाले सिर्फ नामीग्रामी अर्थात् गायन-योग्य नहीं लेकिन गायन-योग्य के साथ पूज्नीय योग्य भी बनते हो। कितने भी बड़े धर्म-क्षेत्र में, राज्य-क्षेत्र में, साइंस के क्षेत्र में पर्सनैलिटी वाले प्रसिद्ध हुए हैं लेकिन आप रूहानी पर्सनैलिटी समान 63 जन्म पूजनीय नहीं बने हैं। इसलिये यह शुभ-चिन्तक बनने की विशेषता है। सर्व को जो प्राप्ति होती है - खुशी की, सहारे की, हिम्मत के पंखों की, उमंग-उत्साह की - यह प्राप्ति की दुआयें, आशीर्वादें किसको अधिकारी बच्चे बना देती हैं और कोई भक्त आत्मा बन जाते हैं। इसलिये अनेक जन्म के पूज्य बन जाते हैं। शुभ-चिन्तक अर्थात् बहुतकाल की पूज्य आत्माएं।

इसलिये, यह विशाल कार्य आरम्भ करने के साथ-साथ जैसे और प्रोग्राम बनाते हो, उसके साथ-साथ स्व के प्रति प्रोग्राम बनाओ कि:-

*सदा के लिये हर आत्मा के प्रति, और अनेक प्रकार की भावनाएं परिवर्तन कर एक शुभ-चिन्तक भावना सदा रखेंगे।

*सर्व को स्वयं से आगे बढ़ाने, आगे रखने का श्रेष्ठ सहयोग सदा देते रहेंगे।

*बैटर वर्ल्ड अर्थात् श्रेष्ठ विश्व बनाने के लिये सर्व प्रति श्रेष्ठ कामना द्वारा सहयोगी बनेंगे।

*सदा व्यर्थ-चिन्तन, पर-चिन्तन को समाप्त कर अर्थात् बीती बातों को बिन्दी लगाये, बिन्दी अर्थात् मणि बन सदा विश्व को, सर्व को अपनी श्रेष्ठ भावना, श्रेष्ठ कामना, स्नेह की भावना, समर्थ बनाने की भावना की किरणों से रोशनी देते रहेंगें।

यह स्व का प्रोग्राम सारे प्रोग्राम के सफलता का फाउण्डेशन है। इस फाउन्डेशन को सदा मजबूत रखना। तो प्रत्यक्षता का आवाज स्वत: ही बुलन्द होगा। समझा? सभी, कार्य के निमित्त हो ना। जब विश्व को सहयोगी बनाते हैं, तो पहले तो आप निमित्त हो। छोटे, बड़े, बीमार हो या स्वस्थ हो, महारथी, घोड़ेसवार - सभी सहयोगी हैं। प्यादे तो हैं ही नहीं। तो सभी की अँगुली चाहिए। हरेक ईंट का महत्त्व है। कोई फाउण्डेशन की ईंट है, कोई ऊपर दीवार की है लेकिन एक-एक ईंट महत्त्व वाली है। आप सभी समझते हो कि हम प्रोग्राम कर रहे हैं या समझते हो प्रोग्राम वाले बनाते हैं, प्रोग्राम बनाने वालों का प्रोग्राम है? हमारा प्रोग्राम कहते हो ना। तो बापदादा बच्चों के विशाल कार्य को, प्रोग्राम को देख हर्षित हैं। देश-विदेश में विशाल कार्य का उमंग-उत्साह अच्छा है। हरेक ब्राह्मण आत्मा के अन्दर विश्व की आत्माओं के लिये रहम है, तरस है कि हमारे सर्व भाई-बहनें बाप की प्रत्यक्षता का आवाज सुनें कि बाप अपना कार्य कर रहा है। समीप आवें, सम्बन्ध में आवें, अधिकारी बनें, पूज्य देवता बनें या 33 करोड़ नाम गायन करने वाले ही बनें लेकिन आवाज जरूर सुनें। ऐसा उमंग है ना? अभी तो 9 लाख ही नहीं बनाएं हैं। तो समझा, अपना प्रोग्राम है। अपनापन ही अपने प्रोग्राम में अपना विश्व बनायेगा। अच्छा।

आज पाँच तरफ की पार्टियाँ आई हैं। त्रिवेणी कहते हैं लेकिन ये पाँच वेणी हो गई। पाँच तरफ की नदियाँ सागर में पहुँच गई हैं। तो नदी और सागर का मेला श्रेष्ठ मेला है। सभी नये-पुराने खुशी में नाच रहे हैं। जब ना-उम्मीद से उम्मीद हो जाती तो और खुशी होती है। पुरानों को भी अचानक चान्स मिला है तो और ज्यादा खुशी होती है। सोच कर बैठे थे - पता नहीं कब मिलेंगे? अभी मिलेंगे - यह तो सोचा भी नहीं था। कब' से अब' हो जाता है तो खुशी का अनुभव और न्यारा होता है। अच्छा। आज विदेश वालों को भी विशेष यादप्यार दे रहे हैं। विशेष सेवाधारी (जयन्ति बहन) आई है ना। विदेश-सेवा अर्थ पहले निमित्त बनी ना। वृक्ष को देख बीज याद आता है। बीजरूप परिवार यह निमित्त बना विदेश सेवा के लिए। तो पहले निमित्त परिवार को याद दे रहे हैं।

विदेश के सर्व निमित्त बने सेवाधारी बच्चे सदा बाप को प्रत्यक्ष करने के प्रयत्न में उमंग-उत्साह से दिन-रात लगे हुए हैं। उन्हों को बार-बार यही आवाज कानों में गूँजता है कि विदेश के बुलन्द आवाज से भारत में बाप को प्रत्यक्ष करना है। यह आवाज सदा सेवा के लिये कदम आगे बढ़ाता रहता है। विशेष सेवा के उमंग-उत्साह का कारण है - बाप से दिल से प्यार, स्नेह है। हर कदम में, हर घड़ी मुख में बाबा-बाबा' शब्द रहता है। जब भी कोई कार्ड अथवा गिफ्ट भेजेंगे तो उसमें दिल (हार्ट) का चित्र जरूर बनाते हैं। इसका कारण है कि दिल में सदा दिलाराम है। दिल दी है और दिल ली है। देने और लेने में होशियार हैं। इसलिये दिल का सौदा करने वाले, दिल से याद करने वाले अपनी निशानी दिल' ही भेजते हैं और यही दिल की याद वा दिल का स्नेह दूर होते भी मैजारिटी को समीप का अनुभव कराता है। सबसे विशेष विशेषता बापदादा यही देखते कि ब्रह्मा बाप से अति स्नेह है। बाप और दादा के गुह्य राज़ को बहुत सहज अनुभव में लाते हैं। ब्रह्मा बाबा की साकार पालना का पार्ट न होते भी अव्यक्त पालना का अनुभव अच्छा कर रहे हैं। बाप और दादा दोनों का सम्बन्ध अनुभव करना - इस विशेषता के कारण अपनी सफलता में बहुत सहज बढ़ते जा रहे हैं। तो हरेक देश वाले अपना-अपना नाम पहले समझें। हरेक बच्चा अपना नाम समझते हुए बापदादा का यादप्यार स्वीकार करना। समझा?

प्लैन तो बना ही रहे हैं। देश, विदेश की रीति में थोड़ा-बहुत अन्तर तो होता है लेकिन प्रीत के कारण रीति का अन्तर भी एक ही लगता है। विदेश का प्लैन वा भारत का प्लैन, लेकिन प्लैन तो एक ही है। सिर्फ तरीका थोड़ा-बहुत कहाँ परिवर्तन करना भी पड़ता है। देश और विदेश का सहयोग इस विशाल कार्य को सदा ही सफलता को प्राप्त कराता ही रहेगा। सफलता तो सदा बच्चों के साथ है ही। देश का उमंग-उत्साह और विदेश का उमंग-उत्साह - दोनों का मिलकर कार्य को आगे बढ़ा रहा है और सदा ही आगे बढ़ता रहेगा। अच्छा।

भारत के चारों ओर के सदा स्नेही, सहयोगी बच्चों के स्नेह, सहयोग का शुभ संकल्प, शुभ आवाज बापदादा के पास सदा पहुँचता रहता है। देश, विदेश एक दो से आगे है। हरेक स्थान की विशेषता अपनी-अपनी है। भारत बाप की अवतरण भूमि है और भारत प्रत्यक्षता का आवाज बुलन्द करने के निमित्त भूमि है। आदि और अन्त भारत में ही पार्ट हैं। विदेश का सहयोग भारत में प्रत्यक्षता करायेगा और भारत की प्रत्यक्षता का आवाज विदेश तक पहुँचेगा। इसलिए, भारत के बच्चों की विशेषता सदा श्रेष्ठ है। भारत वाले स्थापना के आधार बने। स्थापना के आधारमूर्त भारत के बच्चे हैं, इसलिए भारतवासी बच्चों के भाग्य का सभी गायन करते हैं। याद और सेवा में सदा उमंग-उत्साह से आगे बढ़ रहे हैं और बढ़ते ही रहेंगे। इसलिये भारत के हर एक बच्चे अपने-अपने नाम से बापदादा का यादप्यार स्वीकार करना। तो देश-विदेश के बेहद बाप के बेहद सेवाधारी बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।

पार्टियों से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात

(1) सभी राज-ऋषि हो ना? राज अर्थात् अधिकारी और ऋषि अर्थात् तपस्वी। तपस्या का बल सहज परिवर्तन कराने का आधार है। परमात्म-लगन से स्वयं को और विश्व को सदा के लिये निर्विघ्न बना सकते हैं। निर्विघ्न बनना और निर्विघ्न बनाना - यही सेवा करते हो ना। अनेक प्रकार के विघ्नों से सर्व आत्माओं को मुक्त करने वाले हो। तो जीवनमुक्ति का वरदान बाप से लेकर औरों को दिलाने वाले हो ना। निर्बन्धन अर्थात् जीवनमुक्त।

(2) हिम्मते बच्चे मददे बाप। बच्चों की हिम्मत पर सदा बाप की मदद पद्मगुणा प्राप्त होती है। बोझ तो बाप के ऊपर है। लेकिन ट्रस्टी बन सदा बाप की याद से आगे बढ़ते रहो। बाप की याद ही छत्रछाया है। पिछला हिसाब सूली है लेकिन बाप की मदद से काँटा बन जाता है। परिस्थितियाँ आनी जरूर हैं क्योंकि सब कुछ यहाँ ही चुक्तु करना है। लेकिन बाप की मदद काँटा बना देती है, बड़ी बात को छोटा बना देती है क्योंकि बड़ा बाप साथ है। सदा निश्चय से आगे बढ़ते रहो। हर कदम में ट्रस्टी। ट्रस्टी अर्थात् सब कुछ तेरा, मेरा-पन समाप्त। गृहस्थी अर्थात् मेरा। तेरा होगा तो बड़ी बात, छोटी हो जायेगी और मेरा होगा तो छोटी बात, बड़ी हो जायेगी। तेरा-पन हल्का बनाता है और मेरा-पन भारी बनाता है। तो जब भी भारी अनुभव करो तो चेक करो कि कहाँ मेरा-पन तो नहीं? मेरे को तेरे में बदली कर दो तो उसी घड़ी हल्के हो जायेंगे, सारा बोझ एक सेकण्ड में समाप्त हो जायेगा।

(3) सदा अपने को बाप की छत्रछाया में रहने वाली विशेष आत्माएं अनुभव करते हो? जहाँ बाप की छत्रछाया है, वहाँ सदा माया से सेफ रहेंगे। छत्रछाया के अन्दर माया आ नहीं सकती। मेहनत से स्वत: ही दूर हो जायेंगे। सदा मौज में रहेंगे। क्योंकि जब मेहनत होती है, तो मेहनत मौज अनुभव नहीं कराती। जैसे, बच्चों की पढ़ाई जब होती है तो पढ़ाई में मेहनत होती है ना। जब इम्तिहान के दिन होते हैं तो बहुत मेहनत करते हैं, मौज से खेलते नहीं हैं। और जब मेहनत खत्म हो जाती है, इम्तिहान खत्म हो जाते हैं तो मौज करते हैं। तो जहाँ मेहनत है, वहाँ मौज नहीं। जहाँ मौज है, वहाँ मेहनत नहीं। छत्रछाया में रहने वाले अर्थात् सदा मौज में रहने वाले। क्योंकि यहाँ पढ़ाई ऊंची पढ़ते हो लेकिन ऊंची पढ़ाई होते हुए भी निश्चय है कि हम विजयी हैं ही, पास हुए पड़े हैं। इसलिये मौज में रहते हैं। कल्प-कल्प की पढ़ाई है, नयी बात नहीं है। तो सदा मौज में रहो और दूसरों को भी मौज में रहने का सन्देश देते रहो, सेवा करते रहो। क्योंकि सेवा का ही फल इस समय भी और भविष्य में भी खाते रहेंगे। सेवा करेंगे तब तो फल मिलेगा।

(4) अपने को सदा डबल लाइट अनुभव करते हो? डबल अर्थात् फरिश्ता और फरिश्ते की निशानी है - उनका कोई भी देह और देहधारियों से रिश्ता नहीं अर्थात् मन का लगाव नहीं। तो सदा फरिश्ते होकर हर कार्य करते हो? क्योंकि फरिश्तों का पाँव सदा ही ऊँचा रहता है, धरनी पर नहीं रहता। धरनी से ऊँचा अर्थात् देह-भान की स्मृति से ऊँचा। ऐसे फरिश्ते बने हो? देह और देह की दुनिया दोनों का अनुभव अच्छी तरह से कर लिया है ना? तो जब अनुभव कर लिया तो अनुभव करने के बाद अभी फिर से देह व देह की दुनिया में बुद्धि जा सकती है? देह और देह की दुनिया की स्मृति से ऊँचा रहने वाले फरिश्ते बनो। फरिश्ते अर्थात् सर्व बन्धनों से मुक्त। तो सब बन्धन समाप्त हुए या अभी समाप्त करेंगे? दुनिया वालों को तो कहते हो कि अब नहीं तो कब नहीं।' यह पहले अपने को कहते या दूसरों को ही? दूसरों को कहना अर्थात् पहले अपने को कहना। जब किसी से बात करते हो तो पहले कौन सुनता है? पहले अपने कान सुनते हैं ना। तो किसी को भी कहना अर्थात् पहले अपने आप को कहना। तो सदा हर कार्य में अब' करने वाले आगे बढ़ेंगे। अगर कब' पर छोड़ेंगे तो नम्बर आगे नहीं ले सकेंगे, पीछे नम्बर में आयेंगे।

(5) सभी अपने को सदा स्वदर्शन-चक्रधारी समझते हो? स्व का दर्शन हो गया है ना? आत्मा का इस सृष्टि-चक्र में क्या-क्या पार्ट है, उनको जानना अर्थात् स्वदर्शन-चक्रधारी बनना। स्वदर्शन-चक्रधारी आत्मा सदा माया से मुक्त है। स्वदर्शन-चक्रधारी ही बाप के प्रिय हैं क्योंकि ज्ञानी तू आत्मा बन गये ना। स्व के चक्र को जानना अर्थात् ज्ञानी तू आत्मा बनना। जो स्वदर्शन चक्रधारी हैं, उनके आगे माया ठहर नहीं सकती। वह सहज ही माया को समाप्त कर देते हैं। तो सभी स्वदर्शन-चक्रधारी हो या कभी-कभी चक्र गिर जाता है? ज्ञान को बुद्धि में धारण करना अर्थात् स्वदर्शन-चक्र चलाना। स्वदर्शन चक्र ही भविष्य में चक्रवर्ती राजा बनायेगा'। तो यह वरदान सदा याद रखना।



14-11-87   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


पूज्य देव आत्मा बनने का साधन -पवित्रता की शक्ति'

पवित्र भव' का वरदान देने वाले बापदादा अपने लाइट के ताजधारी बच्चों प्रति बोले

आज रूहानी शमा अपने रूहानी परवानों को देख रहे हैं। हर एक रूहानी परवाना अपने उमंग-उत्साह के पंखों से उड़ते-उड़ते इस रूहानी महफिल में पहुँच गये हैं। यह रूहानी महफिल विचित्र अलौकिक महफिल है जिसको रूहानी बाप जाने और रूहानी बच्चे जानें। यह रूहानी आकर्षण के आगे माया की अनेक प्रकार की आकर्षण तुच्छ लगती है, असार अनुभव होती है। यह रूहानी आकर्षण सदा के लिए वर्तमान और भविष्य अनेक जन्मों के लिए हर्षित बनाने वाली है, अनेक प्रकार के दु:ख-अशान्ति की लहरों से किनारा कराने वाली है। इसलिए सभी रूहानी परवाने इस महफिल में पहुँच गये हैं।

बापदादा सभी परवानों को देख हर्षित होते हैं। सभी के मस्तक पर पवित्र स्नेह, पवित्र स्नेह के सम्बन्ध, पवित्र जीवन की पवित्र दृष्टि-वृत्ति की निशानियाँ झलक रही हैं। सभी के ऊपर इन सब पवित्र निशानियों के सिम्बल वा सूचक लाइट का ताज' चमक रहा है। सगंमयुगी ब्राह्मण जीवन की विशेषता है - पवित्रता की निशानी। यह लाइट का ताज जो हर ब्राह्मण आत्मा को बाप द्वारा प्राप्त होता है। महान आत्मा, परमात्म-भाग्यवान आत्मा, ऊँचे ते ऊँची आत्मा की यह ताज निशानी है। तो आप सभी ऐसे ताजधारी बने हो? बापदादा वा मातपिता हर एक बच्चे को जन्म से पवित्र-भव' का वरदान देते हैं। पवित्रता नहीं तो ब्राह्मण जीवन नहीं। आदि स्थापना से लेकर अब तक पवित्रता पर ही विघ्न पड़ते आये हैं क्योंकि पवित्रता का फाउण्डेशन 21 जन्मों का फाउण्डेशन है। पवित्रता की प्राप्ति आप ब्राह्मण आत्माओं को उड़ती कला की तरफ सहज ले जाने का आधार है।

जैसे कर्मों की गति गहन गाई है, तो पवित्रता की परिभाषा भी अति गुह्य है। पवित्रता माया के अनेक विघ्नों से बचने की छत्रछाया है। पवित्रता को ही सुख-शान्ति की जननी कहा जाता है।' किसी भी प्रकार की अपवित्रता दु:ख वा अशान्ति का अनुभव कराती है। तो सारे दिन में चेक करो - किसी भी समय दु:ख वा अशान्ति की लहर अनुभव होती है? उसका बीज अपवित्रता है। चाहे मुख्य विकारों के कारण हो वा विकारों के सूक्ष्म रूप के कारण हो। पवित्र जीवन अर्थात् दु:ख-अशान्ति का नाम निशान नहीं। किसी भी कारण से दु:ख का जरा भी अनुभव होता है तो सम्पूर्ण पवित्रता की कमी है। पवित्र जीवन अर्थात् बापदादा द्वारा प्राप्त हुई वरदानी जीवन है। ब्राह्मणों के संकल्प में वा मुख में यह शब्द कभी नहीं होना चाहिए कि इस बात के कारण वा इस व्यक्ति के व्यवहार के कारण मुझे दु:ख होता है। कभी साधारण रीति में ऐसे बोल, बोल भी देते या अनुभव भी करते हैं। यह पवित्र ब्राह्मण जीवन के बोल नहीं हैं। ब्राह्मण जीवन अर्थात् हर सेकेण्ड सुखमय जीवन। चाहे दु:ख का नजारा भी हो लेकिन जहाँ पवित्रता की शक्ति है, वह कभी दु:ख के नजारे में दु:ख का अनुभव नहीं करेंगे लेकिन दु:ख-हर्त्ता सुख-कर्त्ता बाप समान दु:ख के वायुमण्डल में दु:खमय व्यक्तियों को सुख-शान्ति के वरदानी बन सुख-शान्ति की अंचली देंगे, मास्टर सुख-कर्त्ता बन दु:ख को रूहानी सुख के वायुमण्डल में परिवर्तन करेंगे। इसी को ही कहा जाता है - दु:ख-हर्त्ता सुख-कर्त्ता।'

जब साइन्स की शक्ति अल्पकाल के लिए किसी का दु:ख-दर्द समाप्त कर लेती है, तो पवित्रता की शक्ति अर्थात् साइलेन्स की शक्ति दु:ख-दर्द समाप्त नहीं कर सकती? साइन्स की दवाई में अल्पकाल की शक्ति है तो पवित्रता की शक्ति में, पवित्रता की दुआ में कितनी बड़ी शक्ति है? समय प्रमाण जब आज के व्यक्ति दवाइयों से कारणे-अकारणे तंग होंगे, बीमारियाँ अति में जायेंगी तो समय पर आप पवित्र देव वा देवियों के पास दुआ लेने लिए आयेंगे कि हमें दु:ख, अशान्ति से सदा के लिए दूर करो। पवित्रता की दृष्टि-वृत्ति साधारण शक्ति नहीं है। यह थोड़े समय की शक्तिशाली दृष्टि वा वृत्ति सदाकाल की प्राप्ति कराने वाली है। जैसे अभी जिस्मानी डॉक्टर्स और जिस्मानी हॉस्पिटल्स समय प्रति समय बढ़ते भी जाते हैं, फिर भी डॉक्टर्स को फुर्सत नहीं, हॉस्पिटल्स में स्थान नहीं। रोगियों की सदा ही क्यू लगी हुई होती है। ऐसे आगे चल हॉस्पिटल्स वा डॉक्टर्स के पास जाने का, दवाई करने का, चाहते हुए भी जा नहीं सकेंगे। मैजारिटी निराश हो जायेंगे तो क्या करेंगे? जब दवा से निराश होंगे तो कहाँ जायेंगे? आप लोगों के पास भी क्यू लगेगी। जैसे अभी आपके वा बाप के जड़ चित्रों के सामने ओ दयालू, दया करो' कहकर दया वा दुआ मांगते रहते हैं, ऐसे आप चैतन्य, पवित्र, पूज्य आत्माओं के पास ओ पवित्र देवियों वा पवित्र देव! हमारे ऊपर दया करो' - यह मांगने के लिए आयेंगे। आज अल्पकाल की सिद्धि वालों के पास शफा लेने वा सुख-शान्ति की दया लेने के लिए कितने भटकते रहते हैं! समझते हैं - दूर से भी दृष्टि पड़ जाए। तो आप परमात्म-विधि द्वारा सिद्धि-स्वरूप बने हो। जब अल्पकाल के सहारे समाप्त हो जायेंगे तो कहाँ जायेंगे?

यह जो भी अल्पकाल की सिद्धि वाले हैं, अल्पकाल की कुछ न कुछ पवित्रता की विधियों से अल्पकाल की सिद्धि प्राप्त करते हैं। यह सदा नहीं चल सकती है। यह भी गोल्डन एजड आत्माओं को अर्थात् लास्ट में ऊपर से आई हुई आत्माओं को पवित्र मुक्तिधाम से आने के कारण और ड्रामा के नियम प्रमाण, सतोप्रधान स्टेज के प्रमाण पवित्रता के फलस्वरूप अल्पकाल की सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं लेकिन थोड़े समय में ही सतो, रजो, तमो - तीनों स्टेजस पास करने वाली आत्मायें हैं। इसलिए सदाकाल की सिद्धि नहीं रहती। परमात्म-विधि से सिद्धि नहीं है, इसलिए कहाँ न कहाँ स्वार्थ व अभिमान सिद्धि को समाप्त कर लेता है। लेकिन आप पवित्र आत्मायें सदा सिद्धि स्वरूप हैं, सदा की प्राप्ति कराने वाली हैं। सिर्फ चमत्कार दिखाने वाली नहीं हो लेकिन चमकती हुई ज्योतिस्वरूप बनाने वाले हो, अविनाशी भाग्य का चमकता हुआ सितारा बनाने वाले हो। इसलिए यह सब सहारे अब थोड़ा समय के लिए हैं और आखिर में आप पवित्र आत्माओं के पास ही अंचली लेने आयेंगे। तो इतनी सुख-शान्ति की जननी पवित्र आत्मायें बने हो? इतनी दुआ का स्टॉक जमा किया है वा अपने लिए भी अभी तक दुआ मांगते रहते हो?

कई बच्चे अभी भी समय प्रति समय बाप से मांगते रहते कि इस बात पर थोड़ी-सी दुआ कर लो, आशीर्वाद दे दो। तो मांगने वाले दाता कैसे बनेंगे? इसलिए पवित्रता की शक्ति की महानता को जान पवित्र अर्थात् पूज्य देव आत्मायें अभी से बनो। ऐसे नहीं कि अन्त में बन जायेंगे। यह बहुत समय की जमा की हुई शक्ति अन्त में काम में आयेगी। तो समझा, पवित्रता की गुह्य गति क्या है? सदा सुख-शान्ति की जननी आत्मा - यह है पवित्रता की गुह्यता! साधरण बात नहीं है! ब्रह्मचारी रहते हैं, पवित्र बन गये हैं। लेकिन पवित्रता जननी है, चाहे संकल्प से, चाहे वृति से, वायुमण्डल से, वाणी से, सम्पर्क से सुख- शान्ति की जननी बनना - इसको कहते हैं - पवित्र आत्मा'। तो कहाँ तक बने हो - यह अपने आपको चेक करो। अच्छा।

आज बहुत आ गये हैं। जैसे पानी का बाँध टूट जाता है तो यह कायदा का बांध तोड़ कर आ गये हैं। फिर भी कायदे में फायदा तो है ही। जो कायदे से आते, उन्हों को ज्यादा मिलता है और जो लहर में लहराकार आते हैं, तो समय प्रमाण फिर इतना ही मिलेगा ना। फिर भी देखो, बन्धनमुक्त बापदादा भी बन्धन में आता है! स्नेह का बन्धन है। स्नेह के साथ समय का भी बन्धन है। शरीर का भी बन्धन है ना। लेकिन प्यारा बन्धन है, इसलिए बन्धन में होते भी आजाद हैं। बापदादा तो कहेंगे - भले पधारे, अपने घर पहुँच गये। अच्छा।

चारों ओर के सर्व परम पवित्र आत्माओं को, सदा सुख-शान्ति की जननी पावन आत्माओं को, सदा पवित्रता की शक्ति द्वारा अनेक आत्माओं को दु:ख-दर्द से दूर करने वाली देव आत्माओं को, सदा परमात्म-विधि द्वारा सिद्धि-स्वरूप आत्माओं को बापदादा का स्नेह सम्पन्न यादप्यार और नमस्ते।

हॉस्टल की कुमारियों से - (इन्दौर ग्रुप)

सभी पवित्र महान आत्मायें हो ना? आजकल के महात्मा कहलाने वालों से भी अनेक बार श्रेष्ठ हो। पवित्र कुमारियों का सदा पूजन होता है। तो आप सभी पावन, पूज्य सदा शुद्ध आत्मायें हो ना? कोई अशुद्धि तो नहीं है? सदा आपस में एकमत, स्नेही, सहयोगी रहने वाली आत्मायें हो ना? संस्कार मिलाने आता है ना। क्योंकि संस्कार मिलन करना - यही महानता है। संस्कारों का टक्कर न हो लेकिन सदा संस्कार मिलन की रास करते रहो। बहुत अच्छा भाग्य मिला है - छोटेपन में महान बन गई! सदा खुश रहती हो ना? कभी कोई मन से रोते तो नहीं? निर्मोही हो? कभी लौकिक परिवार याद आता है? दोनों पढ़ाई में होशियार हो? दोनों पढ़ाई में सदा नम्बरवन रहना है। जैसे बाप वन है, ऐसे बच्चे भी नम्बर वन में। सबसे नम्बर वन - ऐसे बच्चे सदा बाप के प्रिय हैं। समझा? अच्छा।



18-11-87   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


साइलेंस पावर जमा करने का साधन -अंतर्मुखी और एकान्तवासी स्थिति'

चैतन्य शान्ति देव आत्माओं को शान्ति का स्टॉक जमा करने की प्रेरणा देते हुए सर्वशक्तिवान बापदादा बोले

आज सर्वशक्तिवान बापदादा अपने शक्ति सेना को देख रहे हैं। यह रूहानी शक्ति सेना विचित्र सेना है। नाम रूहानी सेना है लेकिन विशेष साइलेन्स की शक्ति है, शान्ति देने वाली अहिंसक सेना है। तो आज बापदादा हर एक शान्ति देवा बच्चे को देख रहे हैं कि हर एक ने शान्ति की शक्ति कहाँ तक जमा की है? यह शान्ति की शक्ति इस रूहानी सेना के विशेष शस्त्र हैं। हैं सभी शस्त्रधारी लेकिन नम्बरवार हैं। शान्ति की शक्ति सारे विश्व को अशान्त से शान्त बनाने वाली है, न सिर्फ मनुष्य आत्माओं को लेकिन प्रकृति को भी परिवर्तन करने वाली है। शान्ति की शक्ति को अभी और भी गुह्य रूप से जानने और अनुभव करने का है। जितना इस शक्ति में शक्तिशाली बनेंगे, उतना ही शान्ति की शक्ति का महत्त्व, महानता का अनुभव ज्यादा करते जायेंगे। अभी वाणी की शक्ति से सेवा के साधनों की शक्ति अनुभव कर रहे हो और इस अनुभव द्वारा सफलता भी प्राप्त कर रहे हो। लेकिन वाणी की शक्ति वा स्थूल सेवा के साधनों से ज्यादा साइलेन्स की शक्ति अति श्रेष्ठ है। साइलेन्स की शक्ति के साधन भी श्रेष्ठ हैं।

जैसे वाणी की सेवा के साधन चित्र, प्रोजेक्टर वा वीडियो आदि बनाते हो, ऐसे शान्ति की शक्ति के साधन - शुभ संकल्प, शुभ-भावना और नयनों की भाषा है'। जैसे मुख की भाषा द्वारा बाप का वा रचना का परिचय देते हो, ऐसे साइलेन्स की शक्ति के आधार पर नयनों की भाषा से नयनों द्वारा बाप का अनुभव करा सकते हो। जैसे प्रोजेक्टर द्वारा चित्र दिखाते हो, वैसे आपके मस्तक के बीच चमकता हुआ आपका वा बाप का चित्र स्पष्ट दिखा सकते हो। जैसे वर्तमान समय वाणी द्वारा याद की यात्रा का अनुभव कराते हो, ऐसे साइलेन्स की शक्ति द्वारा आपका चेहरा (जिसको मुख कहते हो) आप द्वारा भिन्न-भिन्न याद की स्टेजस का स्वत: ही अनुभव करायेगा। अनुभव करने वालों को यह सहज महसूस होगा कि इस समय बीजरूप स्टेज का अनुभव हो रहा है वा फरिश्ते-रूप का अनुभव हो रहा है वा भिन्न-भिन्न गुणों का अनुभव आपके इस शक्तिशाली फेश से स्वत: ही होता रहेगा। जैसे वाणी द्वारा आत्माओं को स्नेह के सहयोग की भावना उत्पन्न कराते हो, ऐसे आपकी शुभ भावना और स्नेह के भावना की स्थिति में स्वयं भी स्थित होंगे। तो जैसी आपकी भावना होगी वैसी भावना उन्हों में भी उत्पन्न होगी। आपकी शुभ भावना उन्हों की भावना को प्रज्वलित करेगी। जैसे दीपक, दीपक को जगा देता है, ऐसे आपकी शक्तिशाली शुभ भावना औरों में भी सर्वश्रेष्ठ भावना सहज ही उत्पन्न करायेगी। जैसे वाणी द्वारा अभी सारा स्थूल कार्य करते रहते हो, ऐसे साइलेन्स के शक्ति के श्रेष्ठ साधन - शुभ संकल्प की शक्ति से स्थूल कार्य भी ऐसे ही सहज कर सकते हो वा करा सकते हो। जैसे साइन्स की शक्ति के साधन टेलीफोन, वायरलेस हैं, ऐसे यह शुभ संकल्प सम्मुख बात करने वा टेलीफोन, वायरलेस द्वारा कार्य कराने का अनुभव करायेगा। ऐसे साइलेन्स की शक्ति में विशेषतायें हैं। साइलेन्स की शक्ति कम नहीं है। लेकिन अभी वाणी की शक्ति को, स्थूल साधनों को ज्यादा कार्य में लगाते हो, इसलिए यह सहज लगते हैं। साइलेन्स की शक्ति के साधनों को प्रयोग में नहीं लाया है, इसलिए इनका अनुभव नहीं है। वह सहज लगता है, यह मेहनत का लगता है। लेकिन समय परिवर्तन प्रमाण यह शान्ति की शक्ति के साधन प्रयोग में लाने ही होंगे।

इसलिए, हे शान्ति देवा श्रेष्ठ आत्मायें! इस शान्ति की शक्ति को अनुभव में लाओ। जैसे वाणी की प्रैक्टिस करते-करते वाणी के शक्तिशाली हो गये हो, ऐसे शान्ति की शक्ति के भी अभ्यासी बनते जाओ। आगे चल वाणी वा स्थूल साधनों के द्वारा सेवा का समय नहीं मिलेगा। ऐसे समय पर शान्ति की शक्ति के साधन आवश्यक होंगे। क्योंकि जितना जो महान शक्तिशाली शस्त्र होता है वह कम समय में कार्य ज्यादा करता है। और जितना जो महान शक्तिशाली होता है वह अति सूक्ष्म होता है। तो वाणी से शुद्ध-संकल्प सूक्ष्म हैं, इसलिए सूक्ष्म का प्रभाव शक्तिशाली होगा। अभी भी अनुभवी हो, जहाँ वाणी द्वारा कोई कार्य सिद्ध नहीं होता है तो कहते हो - यह वाणी से नहीं समझेंगे, शुभ भावना से परिवर्तन होंगे। जहाँ वाणी कार्य को सफल नहीं कर सकती, वहाँ साइलेन्स की शक्ति का साधन शुभ-संकल्प, शुभ-भावना, नयनों की भाषा द्वारा रहम और स्नेह की अनुभूति कार्य सिद्ध कर सकती है। जैसे अभी भी कोई वाद-विवाद वाला आता है तो वाणी से और ज्यादा वाद-विवाद में आ जाता है। उसको याद में बिठाए साइलेन्स की शक्ति का अनुभव कराते हो ना। एक सेकण्ड भी अगर याद द्वारा शान्ति का अनुभव कर लेते हैं तो स्वयं ही अपनी वाद-विवाद की बुद्धि को साइलेन्स की अनुभूति के आगे सरेन्डर कर देते हैं। तो इस साइलेन्स की शक्ति का अनुभव बढ़ाते जाओ। अभी यह साइलेन्स की शक्ति की अनुभूति बहुत कम है। साइलेन्स की शक्ति का रस अब तक मैजारिटी ने सिर्फ अंचली मात्र अनुभव किया है। हे शान्ति-देवा। आपके भक्त आपके जड़ चित्रों से शान्ति का अल्पकाल का अनुभव करते हैं, ज्यादा करके मांगते भी शान्ति है क्योंकि शान्ति में सुख समाया हुआ है। तो बापदादा देख रहे थे शान्ति की शक्ति के अनुभवी आत्मायें कितनी हैं, वर्णन करने वाली कितनी हैं और प्रयोग करने वाली कितनी हैं। इसके लिए - अन्तर्मुखता और एकान्तवासी' बनने की आवश्यकता है। बाहरमुखता में आना सहज है लेकिन अन्तर्मुखी का अभ्यास अभी समय प्रमाण बहुत चाहिए। कई बच्चे कहते हैं - एकान्तवासी बनने का समय नहीं मिलता, अन्तर्मुखी-स्थिति का अनुभव करने का समय नहीं मिलता क्योंकि सेवा की प्रवृत्ति, वाणी के शक्ति की प्रवृत्ति बहुत बढ़ गई है। लेकिन इसके लिए कोई इकट्ठा आधा वा एक घण्टा निकालने की आवश्यकता नहीं है। सेवा की प्रवृत्ति में रहते भी बीच-बीच में इतना समय मिल सकता है जो एकान्तवासी बनने का अनुभव करो।

एकान्तवासी अर्थात् कोई भी एक शक्तिशाली स्थिति में स्थित होना। चाहे बीजरूप स्थिति में स्थित हो जाओ, चाहे लाइट-हाउस, माइट-हाउस स्थिति में स्थित हो जाओ अर्थात् विश्व को लाइट-माइट देने वाले - इस अनुभूति में स्थित हो जाओ। चाहे फरिश्तेपन की स्थिति द्वारा औरों को भी अव्यक्त-स्थिति का अनुभव कराओ। एक सेकण्ड वा एक मिनट अगर इस स्थिति में एकाग्र हो स्थित हो जाओ तो यह एक मिनट की स्थिति स्वयं आपको और औरों को भी बहुत लाभ दे सकती है। सिर्फ इसकी प्रैक्टिस चाहिए। अब ऐसा कौन है जिसको एक मिनट भी फुर्सत नहीं मिल सकती? जैसे पहले ट्रैफिक कन्ट्रोल का प्रोग्राम बना तो कई सोचते थे - यह कैसे हो सकता? सेवा की प्रवृत्ति बहुत बड़ी है, बिजी रहते हैं। लेकिन लक्ष्य रखा तो हो रहा है ना। प्रोग्राम चल रहा है ना। सेन्टर्स पर यह ट्रैफिक कन्ट्रोल का प्रोग्राम चलाते हो वा कभी मिस करते, कभी चलाते? यह एक ब्राह्मण कुल की रीति है, नियम है। जैसे और नियम आवश्यक समझते हो, ऐसे यह भी स्व-उन्नति के लिए वा सेवा की सफलता के लिए, सेवाकेन्द्र के वातावरण के लिए आवश्यक है। ऐसे अन्तर्मुखी, एकान्तवासी बनने के अभ्यास के लक्ष्य को लेकर अपने दिल की लगन से बीच-बीच में समय निकालो। महत्व जानने वाले को समय स्वत: ही मिल जाता है। महत्व नहीं है तो समय भी नहीं मिलता। एक पावरफुल स्थिति में अपने मन को, बुद्धि को स्थित करना ही एकान्तवासी बनना है। जैसे साकार ब्रह्मा बाप को देखा, सम्पूर्णता की समीपता की निशानी - सेवा में रहते, समाचार भी सुनते-सुनते एकान्तवासी बन जाते थे। यह अनुभव किया ना। एक घण्टे के समाचार को भी 5 मिनट में सार समझ बच्चों को भी खुश किया और अपनी अन्तर्मुखी, एकान्तवासी स्थिति का भी अनुभव कराया। सम्पूर्णता की निशानी - अन्तर्मुखी, एकान्तवासी स्थिति चलते-फिरते, सुनते, करते अनुभव किया। तो फॉलो फादर नहीं कर सकते हो? ब्रह्मा बाप से ज्यादा जिम्मेवारी और किसकी है क्या? ब्रह्मा बाप ने कभी नहीं कहा कि मैं बहुत बिजी हूँ। लेकिन बच्चों के आगे एग्जाम्पल बने। ऐसे अभी समय प्रमाण इस अभ्यास की आवश्यकता है। सब सेवा के साधन होते हुए भी साइलेन्स की शक्ति के सेवा की आवश्यकता होगी क्योंकि साइलेन्स की शक्ति अनुभूति कराने की शक्ति है। वाणी की शक्ति का तीर बहुत करके दिमाग तक पहुँचता है और अनुभूति का तीर दिल तक पहुँचता है। तो समय प्रमाण एक सेकण्ड में अनुभूति करा लो - यही पुकार होगी। सुनने-सुनाने के थके हुए आयेंगे। साइलेन्स की शक्ति के साधनों द्वारा नजर से निहाल कर देंगे। शुभ संकल्प से आत्माओं के व्यर्थ संकल्पों को समाप्त कर देंगे। शुभभावना से बाप की तरफ स्नेह की भावना उत्पन्न करा लेंगे। ऐसे उन आत्माओं को शान्ति की शक्ति से सन्तुष्ट करेंगे, तब आप चैतन्य शान्ति देव आत्माओं के आगे शान्ति देवा, शान्ति देवा' कह करके महिमा करेंगे और यही अंतिम संस्कार ले जाने के कारण द्वापर में भक्त आत्मा बन आपके जड़ चित्रों की यह महिमा करेंगे। यह ट्रैफिक कन्ट्रोल का भी महत्व कितना बड़ा है और कितना आवश्यक है - यह फिर सुनायेंगे। लेकिन शान्ति की शक्ति के महत्व को स्वयं जानो और सेवा में लगाओ। समझा?

आज पंजाब आया है ना। पंजाब में सेवा का महत्व भी साइलेन्स की शक्ति का है। साइलेन्स की शक्ति से हिंसक वृत्ति वाले को अहिंसक बना सकते हो। जैसे स्थापना के आदि के समय में देखा - हिंसक वृत्ति वाले रूहानी शान्ति की शक्ति के आगे परिवर्तन हो गये ना। तो हिंसक वृत्ति को शान्त बनाने वाली शान्ति की शक्ति है। वाणी सुनने के लिए तैयार ही नहीं होते। जब प्रकृति की शक्ति से गर्मी वा सर्दी की लहर चारों ओर फैल सकती है तो प्रकृतिपति की शान्ति की लहर चारों ओर नहीं फैल सकती? साइन्स के साधन भी गर्मी को सर्दी के वातावरण में बदल सकते हैं तो रूहानी शक्ति रूहों को नहीं बदल सकती? तो पंजाब वालों ने क्या सुना? सभी को वायब्रेशन आवे कि कोई शान्ति का पुंज, शान्ति की किरणें दे रहे हैं। ऐसी सेवा करने का समय पंजाब को मिला है। फंक्शन, प्रदर्शनी आदि, वह तो करते ही हो लेकिन इस शक्ति का अनुभव करो और कराओ। सिर्फ अपने मन की एकाग्र वृत्ति, शक्तिशाली वृत्ति चाहिए। लाइट हाउस जितना शक्तिशाली होता है, उतना दूर तक लाइट दे सकता है। तो पंजाब वालों के लिए यह समय है इस शक्ति को प्रयोग में लाने का। समझा? अच्छा।

आन्ध्र प्रदेश का भी ग्रुप है। वह क्या करेंगे? तूफान को शान्त करेंगे। आन्ध्रा में तूफान बहुत आते हैं ना। तूफानों को शान्त करने के लिए भी शान्ति की शक्ति चाहिए। तूफानों में मनुष्य आत्मायें भटक जाती हैं। तो भटकी हुई आत्माओं को शान्ति का ठिकाना देना - यह आन्ध्रा वालों की विशेष सेवा है। अगर शरीर से भी भटकते हैं तो पहले मन भटकता है, फिर शरीर भटकता है। मन के ठिकाने से शरीर के ठिकाने के लिए भी बुद्धि काम करेगी। अगर मन का ठिकाना नहीं होता तो शरीर के साधनों के लिए भी बुद्धि काम नहीं करती। इसलिए, सबके मन को ठिकाने पर लगाने के लिए इस शक्ति को कार्य में लगाओ। दोनों को तूफानों से बचाना है। वहाँ हिंसा का तूफान है, वहाँ समुद्र का तूफान है। वहाँ व्यक्तियों का है, वहाँ प्रकृति का है। लेकिन है दोनों तरफ तूफान। तूफान वालों को शान्ति का तोहफा दो। तोहफा तूफान को बदल लेगा। अच्छा।

चारों ओर के शान्ति देवा श्रेष्ठ आत्माओं को, चारों ओर के अन्तर्मुखी महान आत्माओं को, सदा एकान्तवासी बन कर्म में आने वाले कर्मयोगी श्रेष्ठ आत्माओं को, सदा शान्ति की शक्ति को प्रयोग करने वाले श्रेष्ठ योगी आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।

पार्टियों से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात

सदा अपने को श्रेष्ठ भाग्यवान समझते हो? घर बैठे भाग्यविधाता द्वारा श्रेष्ठ भाग्य मिल गया। घर बैठे भाग्य मिलना - यह कितनी खुशी की बात है! अविनाशी बाप, अविनाशी प्राप्ति कराते हैं। तो अविनाशी अर्थात् सदा, कभीकभी नहीं। तो भाग्य को देखकर सदा खुश रहते हो? हर समय भाग्य और भाग्यविधाता - दोनों ही स्वत: याद रहें। सदा वाह, मेरा श्रेष्ठ भाग्य!' - यही गीत गाते रहो। यह मन का गीत है। जितना यह गीत गाते उतना सदा ही उड़ती कला का अनुभव करते रहेंगे। सारे कल्प में ऐसा भाग्य प्राप्त करने का यह एक ही समय है। इसलिये स्लोगन भी है अब नहीं तो कब नहीं'। जो भी श्रेष्ठ कार्य करना है, वह अब करना है। हर कार्य में हर समय यह याद रखो कि अब नहीं तो कब नहीं।' जिसको यह स्मृति में रहता है वह कभी भी समय, संकल्प वा कर्म वेस्ट होने नहीं देंगे, सदा जमा करते रहेंगे। विकर्म की तो बात ही नहीं है लेकिन व्यर्थ कर्म भी धोखा दे देते हैं। तो हर सेकण्ड के हर संकल्प का महत्त्व जानते हो ना। जमा का खाता सदा भरता रहे। अगर हर सेकण्ड वा हर संकल्प श्रेष्ठ जमा करते हो, व्यर्थ नहीं गँवाते हो तो 21 जन्म के लिए अपना खाता श्रेष्ठ बना लेते हो। तो जितना जमा करना चाहिए उतना कर रहे हो? इस बात पर और अण्डरलाइन करना - एक सेकण्ड भी, संकल्प भी व्यर्थ न जाए। व्यर्थ खत्म हो जायेगा तो सदा समर्थ बन जायेगा। अच्छा। आन्ध्रप्रदेश में गरीबी बहुत है ना। और आप फिर इतने ही साहूकार हो! चारों ओर गरीबी बढ़ती जाती है और आपके यहाँ साहूकारी बढ़ती जाती है क्योंकि ज्ञान का धन आने से यह स्थूल भी स्वत: ही दाल-रोटी मिलने जितना आ ही जाता है। कोई ब्राह्मण भूखा रहता है? तो स्थूल धन की गरीबी भी समाप्त हो जाती है क्योंकि समझदार बन जाते हैं। काम वरके स्वयं को खिलाने के लिए वा परिवार को खिलाने के लिए भी समझ आ जाती है। इसलिए डबल साहूकारी आ जाती है। शरीर को भी अच्छा और मन को भी अच्छा। दाल-रोटी आराम से मिल रही है ना। ब्रह्माकुमार-ब्रह्माकुमारी बनने से रॉयल भी हो गये, साहूकार भी हो गये और अनेक जन्म मालामाल रहेंगे। जैसे पहले चलते थे, रहते थे, पहनते थे... उससे अभी कितने रॉयल हो गये हो! अभी सदा ही स्वच्छ रहते हो। पहले कपड़े भी मैले पहनेंगे, अभी अन्दर बाहर दोनों से स्वच्छ हो गये। तो ब्रह्माकुमार बनने में फायदा हो गया ना। सब बदल जाता है, परिवर्तन हो जाता है। पहले की शक्ल, अक्ल देखो और अभी भी देखो तो फर्क का पता चलेगा। अभी रूहानियत की झलक आ गई है, इसलिए सूरत ही बदल गई है। तो सदा ऐसे खुशी में नाचते रहो। अच्छा।

डबल विदेशी भाई बहिनों से - डबल विदेशी हो? वैसे तो सभी ब्राह्मण आत्मायें इसी भारत देश की हैं। अनेक जन्म भारतवासी रहे हो। यह तो सेवा के लिए अनेक स्थानों पर पहुँचें हो। इसलिए यह निशानी है कि जब भारत में आते हो अर्थात् मधुबन धरनी में या ब्राह्मण परिवार में आते हो तो अपनापन अनुभव करते हो। वैसे विदेश की विदेशी आत्मायें कितने भी नजदीक सम्पर्क वाली हों, सम्बन्ध वाली हों लेकिन जैसे यहाँ आत्मा को अपनापन लगता है, ऐसे नहीं लगेगा! जितनी नजदीक वाली आत्मा होगी उतनी अपनेपन की ज्यादा महसूसता होगी। सोचना नहीं पड़ेगा कि मैं था या मैं हो सकता हूँ। हर एक स्थूल वस्तु भी अति प्यारी लगेगी। जैसे कोई अपनी चीज़ होती है ना। अपनी चीज़ सदा प्यारी लगती है। तो यह निशानियाँ हैं। बापदादा देख रहे हैं कि दूर रहते भी दिल से सदा नजदीक रहने वाले हैं। सारा परिवार आपको इस श्रेष्ठ भाग्यवान की नजर से देखते हैं। अच्छा।

विदाई के समय - सत्गुरूवार की यादप्यार (प्रात: 6 बजे)

वृक्षपति दिवस पर वृक्ष के पहले आदि अमूल्य पत्तों को वृक्षपति बाप का यादप्यार और नमस्ते। बृहस्पति की दशा तो सभी श्रेष्ठ आत्माओं पर है ही। राहू की दशा और अनेक दशायें समाप्त हुई। अभी एक ही वृक्षपति की, बृहस्पति की दशा हर ब्राह्मण आत्मा की सदा रहती है। तो बृहस्पति की दशा भी है और दिन भी बृहस्पति का है और वृक्षपति अपने वृक्ष के आदि पत्तों से मिलन मना रहे हैं। तो सदा याद है और सदा याद रहेगी। सदा प्यार में समाये हुए हो और सदा ही प्यारे रहेंगे। समझा?

दादी जी एक दिन के राजपीपल (गुजरात) मेले में जाने की छुट्टी ले रही हैं

विशेष आत्माओं के हर कदम में पद्मों की कमाई है। बड़ों का सहयोग भी छत्रछाया बन चार चांद लगा देता है। जहाँ भी जाओ वहाँ सभी को एक-एक के नाम से यादप्यार स्वीकार कराना। नाम की माला तो भक्ति में बच्चों ने बहुत जपी। अभी बाप यह माला शुरू करेंगे तो बड़ी माला हो जायेगी। इसलिए जो भी जहाँ भी बच्चे (विशेष आत्मायें) जाते हैं - वहाँ विशेष उमंग-उत्साह बढ़ जाता है। विशेष आत्माओं का जाना अर्थात् सेवा में और विशेषता आना। यहाँ से शुरू होता है - सिर्फ धरनी में चरण घुमाकर जाना। तो चरण घुमाना माना चक्र लगाना। यहाँ सेवा में चक्र लगाते हो, वहाँ भक्ति में उन्होंने चरण रखने का महत्व बनाया है। लेकिन शुरू तो सब यहाँ से ही होता है। चाहे आधा घण्टा, एक घण्टा भी कहाँ जाते हो तो सब खुश हो जाते हैं। लेकिन यहाँ सेवा होती है। भक्ति में सिर्फ चरण रखने से खुशी अनुभव करते हैं। सब स्थापना यहाँ से ही हो रही है। पूरा ही भक्ति मार्ग का फाउण्डेशन यहाँ से ही पड़ता है, सिर्फ रूप बदली जो जायेगा। तो जो भी मेला सेवा के निमित्त बने हैं अर्थात् मिलन मनाने की सेवा के निमित्त बने हैं, उन सभी को बापदादा, मेले के पहले मिलन-मेला मना रहे हैं। यह बाप और बच्चों का मेला है, वह सेवा का मेला है। तो सभी को दिल से यादप्यार। अच्छा। दुनिया में नाइट क्लब होते हैं और यह अमृतवेला क्लब है। (दादियों से) आप सब अमृतवेले के क्लब की मेम्बर्स हो। सभी देख करके खुश होते हैं। विशेष आत्माओं को देख करके भी खुशी होती है। अच्छा।



22-11-87   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


मदद के सागर से पदमगुणा मदद लेने की विधि

निर्बल को बलवान बनाने वाले, मदद के सागर बापदादा अपने हिम्मतवान बच्चों प्रति बोले

आज बापदादा अपने चारों ओर के हिम्मतवान बच्चों को देख रहे हैं। आदि से अब तक हर एक ब्राह्मण आत्मा हिम्मत के आधार से बापदादा की मदद के पात्र बनी है और हिम्मते बच्चे मदद दे बाप' के वरदान प्रमाण पुरूषार्थ में नम्बरवार आगे बढ़ते रहे हैं। बच्चों की एक कदम की हिम्मत और बाप की पद्म कदमों की मदद हर एक बच्चे को प्राप्त होती है। क्योंकि यह बापदादा का वायदा कहो, वर्सा कहो सब बच्चों के प्रति है और इसी श्रेष्ठ सहज प्राप्ति के कारण ही 63 जन्मों की निर्बल आत्मायें बलवान बन आगे बढ़ती जा रही है। ब्राह्मण जन्म लेते ही पहली हिम्मत कौनसी धारण की? पहली हिम्मत - जो असम्भव को सम्भव करके दिखाया, पवित्रता के विशेषता की धारणा की। हिम्मत से दृढ़ संकल्प किया कि हमें पवित्र बनना ही है और बाप ने पद्मगुणा मदद दी कि आप आत्मायें अनादि-आदि पवित्र थी, अनेक बार पवित्र बनी हैं और बनती रहेंगी। नई बात नहीं है। अनेक बार की श्रेष्ठ स्थिति को फिर से सिर्फ रिपीट कर रहे हो। अब भी आप पवित्र आत्माओं के भक्त आपके जड़ चित्रों के आगे पवित्रता की शक्ति मांगते रहते हैं, आपके पवित्रता के गीत गाते रहते हैं। साथ-साथ आपके पवित्रता की निशानी हर एक पूज्य आत्मा के ऊपर लाइट का ताज है। ऐसे स्मृति द्वारा समर्थ बनाया अर्थात् बाप की मदद से आप निर्बल से बलवान बन गये। इतने बलवान बने जो विश्व को चैलेन्ज करने के निमित्त बने हो कि हम विश्व को पावन बना कर ही दिखायेंगे! निर्बल से इतने बलवान बनो जो द्वापर के नामीग्रामी ऋषि-मुनि महान आत्मायें जिस बात को खण्डित करते रहे हैं कि प्रवृत्ति में रहते पवित्र रहना असम्भव है और स्वयं आजकल के समय प्रमाण अपने लिए भी कठिन समझते हैं, और आप उन्हों के आगे नैचरल रूप में वर्णन करते हो कि यह तो आत्मा का अनादि, आदि निजी स्वरूप है, इसमें मुश्किल क्या है? इसको कहते हैं - हिम्मते बच्चे मदद दे बाप। असम्भव, सहज अनुभव हुआ और हो रहा है। जितना ही वह असम्भव कहते हैं, उतना ही आप अति सहज कहते हो। तो बाप ने नॉलेज के शक्ति की मदद और याद द्वारा आत्मा के पावन स्थिति के अनुभूति की शक्ति की मदद से परिवर्तन कर लिया। यह है पहले कदम की हिम्मत पर बाप की पद्मगुणा मदद।

ऐसे ही मायाजीत बनने के लिए चाहे कितने भी भिन्न-भिन्न रूप से माया वार करने के लिए आदि से अब तक आती रहती है, कभी रॉयल रूप से आती, कभी प्रख्यात रूप में आती, कभी गुप्त रूप में आती और कभी आर्टिफिशल ईश्वरीय रूप में आती। 63 जन्म माया के साथी बन करके रहे हो। ऐसे पक्के साथियों को छोड़ना भी मुश्किल होता है। इसलिए भिन्न-भिन्न रूप से वह भी वार करने से मजबूर है और आप यहाँ मजबूत हैं। इतना वार होते भी जो हिम्मत वाले बच्चे हैं और बाप की पद्मगुणा मदद के पात्र बच्चे हैं, मदद के कारण माया के वार को चैलेन्ज करते कि आपका काम है आना और हमारा काम है विजय प्राप्त करना। वार को खेल समझते हो, माया के शेर रूप को चींटी समझते हो क्योंकि जानते हो कि यह माया का राज्य अब समाप्त है और हम अनेक बार के विजयी आत्माओं की विजय 100% निश्चित है। इसलिए यही निश्चित' का नशा, बाप की पद्मगुणा मदद का अधिकार प्राप्त कराता है। तो जहाँ हिम्मते बच्चे मदद दे सर्वशक्तिवान बाप है, वहाँ असम्भव को सम्भव करना वा माया को, विश्व को चैलेन्ज करना कोई बड़ी बात नहीं है। ऐसे समझते हो ना?

बापदादा यह रिजल्ट देख रहे थे कि आदि से अब तक हरेक बच्चा हिम्मत के आधार पर मदद के पात्र बन कहाँ तक सहज पुरूषार्थी बन आगे बढ़े हैं, कहाँ तक पहुँचे हैं। तो क्या देखा? बाप की मदद अर्थात् दाता की देन, वरदाता के वरदान तो सागर के समान हैं। लेकिन सागर से लेने वाले कोई बच्चे सागर समान भरपूर बन औरों को भी बना रहे हैं और कोई बच्चे मदद के विधि को न जान मदद लेने के बजाये अपनी ही मेहनत में कभी तीव्रगति, कभी दिलशिकस्त के खेल में नीचे-ऊपर होते रहते हैं। और कोई बच्चे कभी मदद, कभी मेहनत। बहुत समय मदद भी है लेकिन कहाँ-कहाँ अलबेलेपन के कारण मदद के विधि को अपने समय पर भूल जाते हैं और हिम्मत रखने के बजाए अलबेलाई के कारण अभिमान में आ जाते हैं कि हम तो सदा पात्र हैं ही, बाप हमें मदद न करेंगे तो किसको करेंगे, बाप बांधा हुआ है। इस अभिमान के कारण हिम्मत द्वारा मदद की विधि को भूल जाते हैं। अलबेलेपन का अभिमान और स्वयं पर अटेन्शन देने का अभिमान मदद से वंचित कर देता है। समझते हैं अब तो बहुत योग लगा लिया, ज्ञानी तू आत्मा भी बन गये, योगी तू आत्मा भी बन गये, सेवाधारी भी बहुत नामीग्रामी बन गये, सेन्टर्स इन्चार्ज भी बन गये, सेवा की राजधानी भी बन गई, प्रकृति भी सेवा योग्य बन गई, आराम से जीवन बिता रहे हैं। यह है अटेन्शन रखने में अलबेलापन। इसलिए जहाँ जीना है वहाँ तक पढ़ाई और सम्पूर्ण बनने का अटेन्शन, बेहद के वैराग वृत्ति का अटेन्शन देना है - इसे भूल जाते हैं। ब्रह्मा बाप को देखा, अन्तिम सम्पूर्ण कर्मातीत स्थिति तक स्वयं पर, सेवा पर, बेहद की वैराग वृत्ति पर, स्टूडेन्ट लाइफ की रीति से अटेन्शन देकर निमित्त बन कर दिखाया। इसलिए आदि से अन्त तक हिम्मत में रहे, हिम्मत दिलाने के निमित्त बने। तो बाप के नम्बरवन मदद के पात्र बन नम्बरवन प्राप्ति को प्राप्त हुए। भविष्य निश्चित होते भी अलबेले नहीं रहे। सदा अपने तीव्र पुरूषार्थ के अनुभव बच्चों के आगे अन्त तक सुनाते रहे। मदद के सागर में ऐसे समा गये जो अब भी बाप समान हर बच्चे को अव्यक्त रूप से भी मददगार हैं। इसको कहते हैं - एक कदम की हिम्मत और पद्मगुणा मदद के पात्र बनना।

तो बापदादा देख रह थे कि कई बच्चे मदद के पात्र होते भी मदद से वंचित क्यों रह जाते? इसका कारण सुनाया कि हिम्मत के विधि को भूलने कारण, अभिमान अर्थात् अलबेलापन और स्व के ऊपर अटेन्शन की कमी के कारण। विधि नहीं तो वरदान से वंचित रह जाते। सागर के बच्चे होते हुए भी छोटे-छोटे तालाब बन जाते। जैसे तालाब का पानी खड़ा हुआ होता है, ऐसे पुरूषार्थ वे बीच में खड़े हो जाते हैं। इसलिए कभी मेहनत, कभी मौज में रहते। आज देखो तो बड़ी मौज में हैं और कल छोटे से रोड़े (पत्थर) के कारण उसको हटाने की मेहनत में लगा हुआ है। पहाड़ भी नहीं, छोटा-सा पत्थर है। है महावीर पाण्डव सेना लेकिन छोटा-सा कंकड़-पत्थर भी पहाड़ बन जाता। उसी मेहनत में लग जाते हैं। फिर बहुत हंसाते हैं। अगर कोई उन्हों को कहते हैं कि यह तो बहुत छोटा कंकड़ है, तो हंसी की बात क्या कहते? आपको क्या पता, आपके आगे आये तो पता पड़े। बाप को भी कहते - आप तो हो ही निराकार, आपको भी क्या पता। ब्रह्मा बाबा को भी कहते - आपको तो बाप की लिफ्ट है, आपको क्या पता। बहुत अच्छी-अच्छी बातें करते हैं। लेकिन इसका कारण है छोटी-सी भूल। हिम्मते बच्चे मददे खुदा - इस राज़ को भूल जाते हैं। यह एक ड्रामा की गुह्य कर्मों की गति है। हिम्मते बच्चे मदद दे खुदा, अगर यह विधि विधान में नहीं होती तो सभी विश्व के पहले राजा बन जाते। एक ही समय पर सभी तख्त पर बैठेंगे क्या? नम्बरवार बनने का विधान इस विधि के कारण ही बनता है। नहीं तो, सभी बाप को उल्हना देवें कि ब्रह्मा को ही क्यों पहला नम्बर बनाया, हमें भी तो बना सकते? इसलिए यह ईश्वरीय विधान ड्रामा अनुसार बना हुआ है। निमित्त मात्र यह विधान नूँधा हुआ है कि एक कदम हिम्मत का और पद्म कदम मदद का। मदद का सागर होते हुए भी यह विधान की विधि ड्रामा अनुसार नूँधी हुई है। तो जितना चाहे हिम्मत रखो और मदद लो। इसमें कभी नहीं रखते। चाहे एक वर्ष का बच्चा हो, चाहे 50 वर्ष का बच्चा हो, चाहे सरेण्डर हो, चाहे प्रवृत्ति वाले हो - अधिकार समान है। लेकिन विधि से प्राप्ति है। तो ईश्वरीय विधान को समझा ना?

हिम्मत तो बहुत अच्छी रखी है। यहाँ तक पहुँचने की भी हिम्मत रखते हो तब तो पहुँचते हो ना। बाप के बने हो तो भी हिम्मत रखी हैं, तब बने हो। सदा हिम्मत की विधि से मदद के पात्र बन चलना और कभी-कभी विधि से सिद्धि प्राप्त करना - इसमें अन्तर हो जाता है। सदा हर कदम में हिम्मत से मदद के पात्र बन नम्बरवन बनने के लक्ष्य को प्राप्त करो। नम्बरवन एक ब्रह्मा बनेगा लेकिन फर्स्ट डिवीजन में संख्या है। इसलिए नम्बरवन कहते हैं। समझा? फर्स्ट डिवीजन में तो आ सकते हो ना? इसको कहते हैं नम्बरवन में आना। कभी अलबेलेपन की लीला बच्चों की सुनायेंगे। बहुत अच्छी लीला करते हैं। बापदादा तो सदा बच्चों की लीला देखते रहते हैं। कभी तीव्र पुरूषार्थ की लीला भी देखते, कभी अलबेलेपन की लीला भी देखते हैं। अच्छा।

कर्नाटक वालों की विशेषता क्या है? हर एक जोन की अपनी-अपनी विशेषता है। कर्नाटक वालों की अपनी बहुत अच्छी भाषा है - भावना की भाषा में होशियार हैं। ऐसे तो हिन्दी कम समझते हैं लेकिन कर्नाटक की विशेषता है भावना की भाषा में नम्बरवन। इसलिए भावना का फल सदा मिलता। और कुछ नहीं बोलेंगे लेकिन सदा बाबा-बाबा' बोलते रहेंगे। यह भावना की श्रेष्ठ भाषा जानते हैं। भावना की धरती है ना। अच्छा।

चारों ओर के हिम्मत वाले बच्चों को, सदा बाप की मदद प्राप्त करने वाले पात्र आत्माओं को, सदा विधान को जान विधि से सिद्धि प्राप्त करने वाली श्रेष्ठ आत्माओं को, सदा ब्रह्मा बाप समान अन्त तक पढ़ाई और पुरूषार्थ की विधि में चलने वाले श्रेष्ठ, महान बाप समान बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।

पार्टियों से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात

(1) अपने को डबल लाइट फरिश्ता अनुभव करते हो? डबल लाइट स्थिति फरिश्तेपन की स्थिति है। फरिश्ता अर्थात् लाइट। जब बाप के बन गये तो सारा बोझ बाप को दे दिया ना? जब बोझ हल्का हो गया तो फरिश्ते हो गये। बाप आये ही हैं बोझ समाप्त करने के लिए। तो जब बाप बोझ समाप्त करने वाले हैं तो आप सबने बोझ समाप्त किया है ना? कोई छोटी-सी गठरी छिपाकर तो नहीं रखी है? सब कुछ दे दिया या थोड़ा-थोड़ा समय के लिए रखा है? थोड़े-थोड़े पुराने संस्कार हैं या वह भी खत्म हो गये? पुराना स्वभाव या पुराना संस्कार, यह भी तो खज़ाना है ना। यह भी दे दिया है? अगर थोड़ा भी रहा हुआ होगा तो ऊपर से नीचे ले आयेगा, फरिश्ता बन उड़ती कला का अनुभव करने नहीं देगा। कभी ऊँचे तो कभी नीचे आ जायेंगे। इसलिए बापदादा कहते हैं सब दे दो। यह रावण की प्रापर्टी है ना। रावण की प्रापर्टी अपने पास रखेंगे तो दु:ख ही पायेंगे। फरिश्ता अर्थात् जरा भी रावण की प्रापर्टी न हो, पुराना स्वभाव या संस्कार आता हैं ना? कहते हो ना - चाहते तो नहीं थे लेकिन हो गया, कर लिया या हो जाता है। तो इससे सिद्ध है कि छोटी-सी पुरानी गठरी अपने पास रख ली है। किचड़- पट्टी की गठरी है। तो सदा के लिए फरिश्ता बनना - यही ब्राह्मण जीवन है। पास्ट खत्म हो गया। पुराने खाते भस्म कर दिये। अभी नई बातें, नये खाते हैं। अगर थोड़ा भी पुराना कर्जा रहा होगा तो सदा ही माया का मर्ज लगता रहेगा क्योंकि कर्ज़ को मर्ज कहा जाता है। इसलिए सारा ही खाता समाप्त करो। नया जीवन मिल गया तो पुराना सब समाप्त।

(2) सदा वाह-वाह' के गीत गाने वाले हो ना? ‘हाय-हाय' के गीत समाप्त हो गये और वाह-वाह' के गीत सदा मन से गाते रहते। जो भी श्रेष्ठ कर्म करते तो मन से क्या निकलता? वाह मेरा श्रेष्ठ कर्म! या वाह श्रेष्ठ कर्म सिखलाने वाले! या वाह श्रेष्ठ समय, श्रेष्ठ कर्म कराने वाले! तो सदा वाह-वाह!' के गीत गाने वाली आत्मायें हो ना? कभी गलती से भी हाय' तो नहीं निकलता? हाय, यह क्या हो गया - नहीं। कोई दु:ख का नजारा देख करके भी हाय' शब्द नहीं निकलना चाहिए। कल हाय-हाय' के गीत गाते थे और आज वाह-वाह' के गीत गाते हो। इतना अन्तर हो गया! यह किसकी शक्ति है? बाप की या ड्रामा की? (बाप की) बाप भी तो ड्रामा के कारण आया ना। तो ड्रामा भी शक्तिशाली हुआ। अगर ड्रामा में पार्ट नहीं होता तो बाप भी क्या करता। बाप भी शक्तिशाली है और ड्रामा भी शक्तिशाली है। तो दोनों के गीत गाते रहो - वाह ड्रामा वाह! जो स्वप्न में भी न था, वह साकार हो गया। घर बैठे सब मिल गया। घर बैठे इतना भाग्य मिल जाए - इसको कहते हैं डायमण्ड लाटरी।

(3) संगमयुगी स्वराज्य अधिकारी आत्मायें बने हो? हर कर्मेन्द्रिय के ऊपर अपना राज्य है? कोई कर्मेन्द्रिय धोखा तो नहीं देती है? कभी संकल्प में भी हार तो नहीं होती है? कभी व्यर्थ संकल्प चलते हैं? ‘‘स्वराज्य अधिकारी आत्मायें हैं'' - इस नशे और निश्चय से सदा शक्तिशाली बन मायाजीत सो जगतजीत बन जाते हैं। स्वराज्य अधिकारी आत्मायें सहजयोगी, निरन्तर योगी बन सकते हैं। स्वराज्य अधिकारी के नशे और निश्चय से आगे बढ़ते चलो। मातायें नष्टोमोहा हो या मोह है? पाण्डवों को कभी क्रोध का अंश मात्र जोश आता है? कभी कोई थोड़ा नीचे-ऊपर करे तो क्रोध आयेगा? थोड़ा सेवा का चांस कम मिले, दूसरे को ज्यादा मिले तो बहन पर थोड़ा-सा जोश आयेगा कि यह क्या करती है? देखना, पेपर आयेगा। क्योंकि थोड़ा भी देह अभिमान आया तो उसमें जोश या क्रोध सहज आ जाता है। इसलिए सदा स्वराज्य अधिकारी अर्थात् सदा ही निरअहंकारी, सदा ही निर्मीन बन सेवाधारी बनने वाले। मोह का बन्धन भी खत्म। अच्छा।



27-11-87   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


बेहद के वैरागी ही सच्चे राजऋषि

ऋषिकुमार/कुमारियों को ब्रह्मा बाप समान राजऋषि स्थिति की निशानियाँ बताते हुए सर्व सहयोगी बापदादा बोले

आज बापदादा सर्व राजऋषियों की दरबार को देख रहे हैं। सारे कल्प में राजाओं की दरबार अनेक बार लगती है लेकिन यह राजऋषियों की दरबार इस संगमयुग पर ही लगती है। राजा भी हो और ऋषि भी हो। यह विशेषता इस समय की इस दरबार की गाई हुई है। एक तरफ राजाई अर्थात् सर्व प्राप्तियों के अधिकारी और दूसरे तरफ ऋषि अर्थात् बेहद के वैराग वृत्ति वाले। एक तरफ सर्व प्राप्ति के अधिकार का नशा और दूसरे तरफ बेहद के वैराग का अलौकिक नशा। जितना ही श्रेष्ठ भाग्य उतना ही श्रेष्ठ त्याग। दोनों का बैलेन्स। इसको कहते हैं राजऋषि। ऐसे राजऋषि बच्चों का बैलेन्स देख रहे थे। अभी-अभी अधिकारीपन का नशा और अभी-अभी वैराग वृत्ति का नशा - इस प्रैक्टिस में कहाँ तक स्थित हो सकते हैं अर्थात् दोनो स्थितियों का समान अभ्यास कहाँ तक कर रहे हैं - यह चेक कर रहे थे। नम्बरवार अभ्यासी तो सब बच्चे हैं ही। लेकिन समय प्रमाण इन दोनों अभ्यास को और भी ज्यादा से ज्यादा बढ़ाते चलो। बेहद के वैराग वृत्ति का अर्थ ही है - वैराग अर्थात् किनारा करना नहीं, लेकिन सर्व प्राप्ति होते हुए भी हद की आकर्षण मन को वा बुद्धि को आकर्षण में नहीं लावे। बेहद अर्थात् मैं सम्पूर्ण सम्पन्न आत्मा बाप समान सदा सर्व कर्मेन्द्रियों की राज्य अधिकारी। इन सूक्ष्म शक्तियों, मन-बुद्धि-संस्कार के भी अधिकारी। संकल्प मात्र भी अधीनता न हो। इसको कहते हैं राजऋषि अर्थात् बेहद की वैराग वृत्ति। यह पुरानी देह वा देह की पुरानी दुनिया वा व्यक्त भाव, वैभवों का भाव - इस सब आकर्षण से सदा और सहज दूर रहने वाले।

जैसे साइन्स की शक्ति धरनी की आकर्षण से परे कर लेती है, ऐसे साइलेन्स की शक्ति इन सब हद की आकर्षणों से दूर ले जाती है। इसको कहते हैं - सम्पूर्ण सम्पन्न बाप समान स्थिति। तो ऐसी स्थिति के अभ्यासी बने हो? स्थूल कर्मेन्द्रियाँ - यह तो बहुत मोटी बात है। कर्मेन्द्रिय-जीत बनना, यह फिर भी सहज है। लेकिन मन-बुद्धि-संस्कार, इन सूक्ष्म शक्तियों पर विजयी बनना - यह सूक्ष्म अभ्यास है। जिस समय जो संकल्प, जो संस्कार इमर्ज करने चाहें वही संकल्प, वही संस्कार सहज अपना सकें - इसको कहते हैं सूक्ष्म शक्तियों पर विजय अर्थात् राजऋषि स्थिति। जैसे स्थूल कर्मेन्द्रियों को आर्डर करते हो कि यह करो, यह न करो। हाथ नीचे करो, ऊपर हो, तो ऊपर हो जाता है ना। ऐसे संकल्प और संस्कार और निर्णयशक्ति बुद्धि'ऐसे ही आर्डर पर चले। आत्मा अर्थात् राजा, मन को अर्थात् संकल्प शक्ति को आर्डर करे कि अभी-अभी एकाग्रचित्त हो जाओ, एक संकल्प में स्थित हो जाओ। तो राजा का आर्डर उसी घड़ी उसी प्रकार से मानना - यह है राज-अधिकारी की निशानी। ऐसे नहीं कि तीन चार मिनट के अभ्यास बाद मन माने या एकाग्रता के बजाए हलचल के बाद एकाग्र बने, इसको क्या कहेंगे? अधिकारी कहेंगे? तो ऐसी चेकिंग करो। क्योंकि पहले से ही सुनाया है कि अन्तिम समय की अन्तिम रिजल्ट का समय एक सेकण्ड का क्वेश्चन एक ही होगा। इन सूक्ष्म शक्तियों के अधिकारी बनने का अभ्यास अगर नहीं होगा अर्थीत आपका मन राजा का आर्डर एक घड़ी के बजाए तीन घड़ियों में मानता है तो राज्य अधिकारी कहलायेंगें वा एक सेकेण्ड के अन्तिम पेपर में पास होंगे? कितने मार्क्स मिलेंगे?

ऐसे ही बुद्धि अर्थात् निर्णय शक्ति पर भी अधिकार हो । अर्थीत जिस समय जो परिस्थिति है उसी प्रमाण, उसी घड़ी निर्णय करना - इसको कहेंगे बुद्धि पर अधिकार। ऐसे नहीं कि परिस्थिति वा समय बीत जाए, फिर निर्णय हो कि यह नहीं होना चाहिए था, अगर यह निर्णय करते तो बहुत अच्छा होता। तो समय पर और यथार्थ निर्णय होना - यह निशानी है राज्य अधिकारी आत्मा की। तो चेक करो कि सारे दिन में राज्य अधिकारी अर्थात् इन सूक्ष्म शक्तियों को भी आर्डर में चलाने वाले कहाँ तक रहे? रोज अपने कर्मचारियों की दरबार लगाओ। चेक करो कि स्थूल कर्मेन्द्रियाँ वा सूक्ष्म शक्तियाँ - ये कर्मचारी कण्ट्रोल में रहे वा नहीं रहे? अभी से राज्य-अधिकारी बनने के संस्कार अनेक जन्म राज्य- अधिकारी बनायेंगे। समझा? इसी प्रकार संस्कार कहाँ धोखा तो नहीं देते हैं? आदि, अनादि, संस्कार; अनादि शुद्ध श्रेष्ठ पावन संस्कार हैं, सर्वगुण स्वरूप संस्कार हैं और आदि देव आत्मा के राज्य अधिकारीपन के संस्कार सर्व प्राप्तिस्व रूप के संस्कार हैं, सम्पन्न, सम्पूर्ण के नेचरल संस्कार हैं। तो संस्कार शक्ति के ऊपर राज्य अधिकारी अर्थात् सदा अनादि आदि संस्कार इमर्ज हों। नेचरल संस्कार हों। मध्य अर्थात् द्वापर से प्रवेश होने वाले संस्कार अपने तरफ आकर्षित नहीं करें। संस्कारों के वश मजबूर न बनें। जैसे कहते हो ना कि मेरे पुराने संस्कार हैं। वास्तव में अनादि और आदि संस्कार ही पुराने हैं। यह तो मध्य, द्वापर से आये हुए संस्कार हैं। तो पुराने संस्कार आदि के हुए वा मध्य के हुए? कोई भी हद की आकर्षण के संस्कार अगर आकर्षित करते हैं तो संस्कारों पर राज्य अधिकारी कहेंगे? राज्य के अन्दर एक शक्ति वा एक कर्मचारी कर्मेन्द्रिय' भी अगर आर्डर पर नहीं है तो उसको सम्पूर्ण राज्य अधिकारी कहेंगे? आप सब बच्चे चैलेन्ज करते हो कि हम एक राज्य, एक धर्म, एक मत स्थापन करने वाले हैं। यह चैलेन्ज सभी ब्रह्माकुमार और ब्रह्माकुमारियाँ करते हो ना; तो वह कब स्थापन होगा? भविष्य में स्थापन होगा? स्थापना के निमित्त कौन है? ब्रह्मा है वा विष्णु है? ब्रह्मा द्वारा स्थापना होती है ना। जहाँ ब्रह्मा है तो ब्राह्मण भी साथ हैं ही। ब्रह्मा द्वारा अर्थात् ब्राह्मणों द्वारा स्थापना, वह कब होगी? संगम पर वा सतयुग में? वहाँ तो पालना होगी ना। ब्रह्मा वा ब्राह्मणों द्वारा स्थापना, यह अभी होनी है। तो पहले स्व के राज्य में देखों कि एक राज्य, एक धर्म (धारणा), एक मत है? अगर एक कर्मेन्द्रिय भी माया की दूसरी मत पर है तो एक राज्य, एक मत नहीं कहेंगे। तो पहले यह चेक करो कि एक राज्य, एक धर्म स्व के राज्य में स्थापन किया है वा कभी माया तख्त पर बैठ जाती, कभी आप बैठ जाते हो? चैलेन्ज को प्रैक्टिकल में लाया है वा नहीं - यह चेक करो। चाहे अनादि संस्कार और इमर्ज हो जाएं मध्य के संस्कार, तो यह अधिकारीपन नहीं हुआ ना।

तो राजऋषि अर्थात् सर्व के राज्य अधिकारी। राज्य अधिकारी सदा और सहज तब होगा जब ऋषि अर्थात् बेहद के वैराग वृत्ति के अभ्यासी होंगे। वैराग अर्थात् लगाव नहीं। सदा बाप के प्यारे। यह प्यारापन ही न्यारा बनाता है। बाप का प्यारा बन, न्यारा बन कार्य में आना - इसको कहते हैं बेहद का वैरागी। बाप का प्यारा नहीं तो न्यारा भी नहीं बन सकते, लगाव में आ जायेंगे। बाप का प्यारा और किसी व्यक्ति वा वैभव का प्यारा हो नहीं सकता। वह सदा आकर्षण से परे अर्थात् न्यारे होंगे। इसको कहते हैं निर्लेप स्थिति। कोई भी हद की आकर्षण की लेप में आने वाले नहीं। रचना वा साधनों को निर्लेप होकर कार्य में लावें। ऐसे बेहद के वैरागी, सच्चे राजऋषि बने हो? ऐसे नहीं सोचना कि सिर्फ एक वा दो कमज़ोरी रह गई है, सिर्फ एक सूक्ष्म शक्ति वा कर्मेन्द्रिय कण्ट्रोल में कम है, बाकी सब ठीक है। लेकिन जहाँ एक भी कमज़ोरी है तो वह माया का गेट है। चाहे छोटा, चाहे बड़ा गेट हो लेकिन गेट तो है ना। अगर गेट खुला रह गया तो मायाजीत जगतजीत कैसे बन सकेंगे?

एक तरफ एक राज्य, एक धर्म की सुनहरी दुनिया का आह्वान कर रहे हो और साथ-साथ फिर कमज़ोरी अर्थात् माया का भी आह्वान कर रहे हो तो रिजल्ट क्या होगी? दुविधा में रह जायेंगे। इसलिए यह छोटी बात नहीं समझो। समय पड़ा है, कर लेंगे। औरों में भी तो बहुत कुछ है, मेरे में तो सिर्फ एक ही बात है। दूसरे को देखते-देखते स्वयं न रह जाओ। सी ब्रह्मा फादर' कहा हुआ है, फॉलो फादर कहा हुआ है। सर्व के सहयोगी, स्नेही जरूर बनो, गुण ग्राहक जरूर बनो लेकिन फॉलो फादर। ब्रह्मा बाप की लास्ट स्टेज राजऋषि की देखी। इतना बच्चों का प्यारा होते भी, सामने देखते हुए भी न्यारापन ही देखा ना। बेहद का वैराग - यही स्थिति प्रैक्टिकल में देखी। कर्मभोग होते भी कर्मेन्द्रियों पर अधिकारी बन अर्थात् राजऋषि बन सम्पूर्ण स्थिति का अनुभव कराया। इसलिए कहते हैं - फॉलो फादर'। तो अपने राज्य अधिकारियों, राज्य कारोबारियों को सदा देखना है। कोई भी राज्य कारोबारी कहाँ धोखा न दें। समझा? अच्छा।

आज भिन्न-भिन्न स्थानों से एक स्थान पर पहुँच गये हैं। इसी को ही नदी सागर का मेला कहा जाता है। मेले में मिलना भी होता और माल भी मिलता है। इसलिए सभी मेले में पहुँच गये हैं। नये बच्चों की सीजन का यह लास्ट ग्रुप है। पुरानों को भी नयों के साथ चांस मिल गया है। प्रकृति भी अभी तक प्यार से सहयोग दे रही है। लेकिन इसका एडवान्टेज (लाभ) नहीं लेना। नहीं तो प्रकृति भी होशियार है। अच्छा।

चारों ओर के सदा राजऋषि बच्चों को, सदा स्व पर राज्य करने वाले सदा विजयी बन निर्विघ्न राज्य कारोबार चलाने वाले राज्य अधिकारी बच्चों को, सदा बेहद के वैराग वृत्ति में रहने वाले सभी ऋषिकुमार-कुमारियों को, सदा बाप के प्यारे बन न्यारे हो कार्य करने वाले न्यारे और प्यारे बच्चों को, सदा ब्रह्मा बाप को फॉलो करने वाले वफादार बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।''

पार्टियों से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात

(1) अनेक बार की विजयी आत्मायें हैं, ऐसा अनुभव करते हो? विजयी बनना मुश्किल लगता है या सहज? क्योंकि जो सहज बात होती है वह सदा हो सकती है, मुश्किल बात सदा नहीं होती। जो अनेक बार कार्य किया हुआ होता है, वह स्वत: ही सहज हो जाता है। कभी कोई नया काम किया जाता है तो पहले मुश्किल लगता है लेकिन जब कर लिया जाता है तो वही मुश्किल काम सहज लगता है। तो आप सभी इस एक बार के विजयी नहीं हो, अनेक बार के विजयी हो। अनेक बार के विजयी अर्थात् सदा सहज विजय का अनुभव करने वाले। जो सहज विजयी हैं उनको हर कदम में ऐसे ही अनुभव होता कि यह सब कार्य हुए ही पड़े हैं, हर कदम में विजय हुई पड़ी है। होगी या नहीं - यह संकल्प भी नहीं उठ सकता। जब निश्चय है कि अनेक बार के विजयी हैं तो होगी या नहीं होगी - यह क्वेश्चन नहीं। निश्चय की निशानी है नशा और नशे की निशानी है खुशी। जिसको नशा होगा वह सदा खुशी में रहेगा। हद के विजयी में भी कितनी खुशी होती है। जब भी कहाँ विजय प्राप्त करते हैं, तो बाजे-गाजे बजाते हैं ना। तो जिसको निश्चय और नशा है तो खुशी जरूर होगी। वह सदा खुशी में नाचता रहेगा। शरीर से तो कोई नाच सकते हैं, कोई नहीं भी नाच सकते हैं लेकिन मन में खुशी का नाचना - यह तो बेड पर बीमार भी नाच सकता है। कोई भी हो, यह नाचना सबके लिए सहज है। क्योंकि विजयी होना अर्थात् स्वत: खुशी के बाजे बजना। जब बाजे बजते हैं तो पाँव आपेही चलते रहते हैं। जो नहीं भी जानते होंगे, वह भी बैठे-बैठे नाचते रहेंगे। पांव हिलेगा, कांध हिलेगा। तो आप सभी अनेक बार के विजयी हो - इसी खुशी में सदा आगे बढ़ते चलो। दुनिया में सबको आवश्यकता ही है खुशी की। चाहे सब प्राप्तियाँ हों लेकिन खुशी की प्राप्ति नहीं है। तो जो अविनाशी खुशी की आवश्यकता दुनिया को है, वह खुशी सदा बाँटते रहो।

(2) अपने को भाग्यवान समझ हर कदम में श्रेष्ठ भाग्य का अनुभव करते हो? क्योंकि इस समय बाप भाग्यविधाता बन भाग्य देने के लिए आये हैं। भाग्यविधाता भाग्य बांट रहा है। बाँटने के समय जो जितना लेने चाहे उतना ले सकता है। सभी को अधिकार है। जो ले, जितना ले। तो ऐसे समय पर कितना भाग्य बनाया है, यह चेक करो। क्योंकि अब नहीं तो फिर कब नहीं। इसलिए हर कदम में भाग्य की लकीर खींचने का कलम बाप ने सभी बच्चों को दिया है। कलम हाथ में है और छुट्टी है - जितनी लकीर खींचना चाहो उतना खींच सकते हो। कितना बढ़िया चांस है! तो सदा इस भाग्यवान समय के महत्व को जान इतना ही जमा करते हो ना? ऐसे न हो कि चाहते तो बहुत थे लेकिन कर न सके, करना तो बहुत था लेकिन किया इतना। यह अपने प्रति उल्हना रह न जाए। समझा? तो सदा भाग्य की लकीर श्रेष्ठ बनाते चलो और औरों को भी इस श्रेष्ठ भाग्य की पहचान देते चलो। वाह मेरा श्रेष्ठ भाग्य!' यही खुशी के गीत सदा गाते रहो।

(3) सदा अपने को स्वदर्शन-चक्रधारी श्रेष्ठ आत्मायें अनुभव करते हो? स्वदर्शन-चक्र अर्थात् सदा माया के अनेक चक्रों से छुड़ाने वाला। स्वदर्शन-चक्र सदा के लिए चक्रवर्ती राज्य भाग्य के अधिकारी बना देता है। यह स्वदर्शन-चक्र का ज्ञान इस संगमयुग पर ही प्राप्त होता है। ब्राह्मण आत्मायें हो, इसलिए स्वदर्शन-चक्रधारी हो। ब्राह्मणों को सदा चोटी पर दिखाते हैं। चोटी अर्थात् ऊँचा। ब्राह्मण अर्थात् सदा श्रेष्ठ कर्म करने वाले, ब्राह्मण अर्थात् सदा श्रेष्ठ धर्म (धारणाओं) में रहने वाले - ऐसे ब्राह्मण हो ना? नामधारी ब्राह्मण नहीं, काम करने वाले ब्राह्मण। क्योंकि ब्राह्मणों का अभी अन्त में भी कितना नाम है! आप सच्चे ब्राह्मणों का ही यह यादगार अब तक चल रहा है। कोई भी श्रेष्ठ काम होगा तो ब्राह्मणों को ही बुलायेंगे। क्योंकि ब्राह्मण ही इतने श्रेष्ठ हैं। तो किस समय इतने श्रेष्ठ बने हो? अभी बने हो, इसलिए अभी तक भी श्रेष्ठ कार्य का यादगार चला आ रहा है। हर संकल्प, हर बोल, हर कर्म श्रेष्ठ करने वाले, ऐसे स्वदर्शन- चक्रधारी श्रेष्ठ ब्राह्मण हैं - सदा इसी स्मृति में रहो। अच्छा।



06-12-87   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


सिद्धि का आधार - श्रेष्ठ वृत्ति'

स्व परिवर्तन में पहले मैं' और सेवा में पहले आप' करने वाले - ऐसे होलीहंस ब्राह्मण आत्माओं प्रति अव्यक्त बापदादा बोले

आज बापदादा अपने चारों ओर के होलीहंसों की सभा को देख रहे हैं। हर एक होलीहंस अपनी श्रेष्ठ स्थिति के आसन पर विराजमान है। सभी आसनधारी होलीहंसों की सभा सारे कल्प में अलौकिक और न्यारी है। हर एक होलीहंस अपनी विशेषताओं से अति सुन्दर सजा हुआ है। विशेषतायें श्रेष्ठ शृंगार हैं। सजे सजाये होलीहंस कितने प्यारे लगते हैं? बापदादा हर एक की विशेषताओं का शृंगार देख हर्षित होते हैं। शृंगारे हुए सभी हैं। क्योंकि बापदादा ने ब्राह्मण जन्म देते ही बचपन से ही विशेष आत्मा भव' का वरदान दिया। नम्बरवार होते भी लास्ट नम्बर भी विशेष आत्मा है। ब्राह्मण जीवन में आना अर्थात् विशेष आत्मा में आ ही गये। ब्राह्मण परिवार में चाहे लास्ट नम्बर हो लेकिन विश्व की अनेक आत्माओं के अन्तर में वह भी विशेष गाये जाते। इसलिएकोटों में कोई, कोई में भी कोई' गाया हुआ है। तो ब्राह्मणों की सभा अर्थात् विशेष आत्माओं की सभा।

आज बापदादा देख रहे थे कि विशेषताओं का श्रृंगार बाप ने तो सभी को समान एक जैसा ही कराया है लेकिन कोई उस श्रृंगार को धारण कर समय प्रमाण कार्य में लगाते हैं और कोई वा तो धारण नहीं कर सकते वा कोई समय प्रमाण कार्य में नहीं लगा सकते। जैसे आजकल की रॉयल फैमिली वाले समय प्रमाण श्रृंगार करते हैं तो कितना अच्छा लगता है! जैसा समय वैसा श्रृंगार, इसको कहा जाता है - नॉलेजफुल'। आजकल शृंगार के अलग-अलग सेट रखते हैं ना। तो बापदादा ने अनेक विशेषताओं के, अनेक श्रेष्ठ गुणों के कितने वैराइटी सेट दिये हैं! चाहे कितना भी अमूल्य शृंगार हो लेकिन समय प्रमाण अगर नहीं हो तो क्या लगेगा? ऐसे विशेषताओं के, गुणों के, शक्तियों के, ज्ञान के रत्नों के अनेक शृंगार बाप ने सभी को दिये हैं लेकिन नम्बर बन जाते हैं - समय पर कार्य में लगाने के। भल यह सब शृंगार हैं भी लेकिन हर एक विशेषता वा गुण का महत्त्व समय पर होता है। होते हुए भी समय पर कार्य में नहीं लगाते तो अमूल्य होते हुए भी उसका मूल्य नहीं होता। जिस समय जो विशेषता धारण करने का कार्य है उसी विशेषता का ही मूल्य है। जैसे हंस कंकड़ और रत्न - दोनों को परख अलग-अलग कर रत्न धारण करता है। कंकड़ को छोड़ देता है, बाकी रत्न-मोती धारण करता है। ऐसे होलीहंस अर्थात् समय प्रमाण विशेषता वा गुण को परख कर वही समय पर यूज करे। इसको कहते हैं - परखने की शक्ति, निर्णय करने की शक्ति वाला होलीहंस। तो परखना और निर्णय करना - यही दोनों शक्तियां नम्बर आगे ले जाती हैं। जब यह दोनों शक्तियाँ धारण हो जाती तब समय प्रमाण उसी विशेषता से कार्य ले सकते। तो हर एक होलीहंस अपनी इन दोनों शक्तियों को चेक करो। दोनों शक्तियां समय पर धोखा तो नहीं देती? समय बीत जाने के बाद अगर परख भी लिया, निर्णय कर भी लिया लेकिन समय तो वह बीत गया ना। जो नम्बरवन होलीहंस हैं, उन्हों की यह दोनों शक्तियाँ सदा समय प्रमाण कार्य करती हैं। अगर समय के बाद यह शक्तियाँ कार्य करती तो सेकण्ड नम्बर में आ जाते! थर्ड नम्बर की तो बात ही छोड़ो। और समय पर वही हंस कार्य कर सकता जिसकी सदा बुद्धि होली (Holy) है।

होली का अर्थ सुनाया था ना। एक होली अर्थात् पवित्र और हिन्दी में होली अर्थात् बीती सो बीती। तो जिनकी बुद्धि होली अर्थात् स्वच्छ है और सदा ही जो सेकण्ड, जो परिस्थिति बीत गई वह हो ली - यह अभ्यास है, ऐसी बुद्धि वाले सदा होली अर्थात् रूहानी रंग में रंगे हुए रहते हैं, सदा ही बाप के संग के रंग में रंगे हुए हैं। तो एक ही होली शब्द तीन रूप से यूज होता है। जिसमें यह तीनों ही अर्थ की विशेषतायें हैं अर्थात् जिन हंसों को यह विधि आती है, वह हर समय सिद्धि को प्राप्त होते हैं। तो आज बापदादा होलीहंसों की सभा में सभी होलीहंसों की यह विशेषता देख रहे हैं। चाहे स्थूल कार्य अथवा रूहानी कार्य हो लेकिन दोनों में सफलता का आधार परखने और निर्णय करने की शक्ति है। किसी के भी सम्पर्क में आते हो, जब तक उसके भाव और भावना को परख नहीं सकते और परखने के बाद यथार्थ निर्णय नहीं कर पाते, तो दोनों कार्य में सफलता नहीं प्राप्त होती - चाहे व्यक्ति हो वा परिस्थिति हो। क्योंकि व्यक्तियों के सम्बन्ध में भी आना पड़ता है और परिस्थितियों को भी पार करना पड़ता है। जीवन में यह दोनों ही बातें आती हैं। तो नम्बरवन होलीहंस अर्थात् दोनों विशेषताओं में सम्पन्न। यह हुआ आज की इस सभा का समाचार। यह सभा अर्थात् सिर्फ सामने बैठे हुए नहीं। बापदादा के सामने तो आपके साथ-साथ चारों ओर के बच्चे भी इमर्ज होते हैं। बेहद के परिवार के बीच बापदादा मिलन मनाते वा रूहरिहान करते हैं। सभी ब्राह्मण आत्मायें अपने याद की शक्ति से स्वयं भी मधुबन में हाजर होती हैं। और बापदादा यह भी विशेष बात देख रहे हैं कि हर एक बच्चे के विधि की लाइन और सिद्धि की लाइन, यह दोनों रेखायें कितना स्पष्ट हैं, आदि से अब तक विधि कैसी रही है और विधि के फलस्वरूप सिद्धि कितनी प्राप्त की है, दोनों रेखायें कितनी स्पष्ट हैं और कितनी लम्बी अर्थात् विधि और सिद्धि का खाता कितना यथार्थ रूप से जमा है? विधि का आधार है -श्रेष्ठ वृत्ति'। अगर श्रेष्ठ वृत्ति है तो यथार्थ विधि भी है और यथार्थ विधि है तो सिद्धि श्रेष्ठ है ही है। तो विधि और सिद्धि का बीज वृत्ति' है। श्रेष्ठ वृत्ति सदा भाई-भाई की आत्मिक वृत्ति हो। यह तो मुख्य बात है ही लेकिन साथ-साथ सम्पर्क में आते हर आत्मा के प्रति कल्याण की, स्नेह की, सहयोग की, नि:स्वार्थपन की निर्विकल्प वृत्ति हो, निरव्यर्थ-संकल्प वृत्ति हो। कई बार किसी भी आत्मा के प्रति व्यर्थ संकल्प वा विकल्प की वृत्ति होती है तो जैसी वृत्ति, वैसी दृष्टि और वैसे ही उस आत्मा के कर्त्तव्य, कर्म की सृष्टि दिखाई देगी। कभी-कभी बच्चों का सुनते भी हैं और देखते भी हैं। वृत्ति के कारण वर्णन भी करते हैं, चाहे वह कितना भी अच्छा कार्य करे लेकिन वृत्ति व्यर्थ होने के कारण सदा ही उस आत्मा के प्रति वाणी भी ऐसी ही निकलती कि यह तो है ही ऐसा, होता ही ऐसा है। तो यह वृत्ति, उनके कर्म रूपी सृष्टि वैसी ही अनुभव कराती है। जैसे आप लोग इस दुनिया में आंखों की नजर के चश्मे का दृष्टान्त देते हैं; जिस रंग का चश्मा पहनेंगे वही दिखाई देगा। ऐसे यह जैसी वृत्ति होती है, तो वृत्ति दृष्टि को बदलती है, दृष्टि - सृष्टि को बदलती है। अगर वृत्ति का बीज सदा ही श्रेष्ठ है तो विधि और सिद्धि सफलतापूर्वक है ही। तो पहले वृत्ति के फाउन्डेशन को चेक करो। उसको श्रेष्ठ वृत्ति कहा जाता है। अगर किसी सम्बन्ध-सम्पर्क में श्रेष्ठ वृत्ति के बजाए मिक्स है तो भल कितनी भी विधि अपनाओ लेकिन सिद्धि नहीं होगी। क्योंकि बीज है वृत्ति और वृक्ष है विधि और फल है सिद्धि। अगर बीज कमज़ोर है तो फल चाहे कितना भी विस्तार वाला हो लेकिन सिद्धि रूपी फल नहीं होगा। इसी वृत्ति और विधि के ऊपर बापदादा बच्चों के प्रति एक विशेष रूह-रूहान कर रहे थे।

स्व-उन्नति के प्रति वा सेवा की सफलता के प्रति एक रमणीक स्लोगन रूह-रूहान में बता रहे थे। आप सी यह स्लोगन एक दो में कहते भी होद्य हर कार्य में पहले आप' - यह स्लोगन याद है ना? एक है पहले आप', दूसरा हैपहले मैं'। दोनों स्लोगन पहले आप' और पहले मैं' - दोनों आवश्यक हैं। लेकिन बापदादा रूह-रूहान करते मुस्करा रहे थे। जहाँ पहले मैं' होना चाहिए वहाँ पहले आप' कर देते, जहाँ पहले आप' करना चाहिए वहाँ पहले मैं' कर देते। बदली कर देते हैं। जब कोई स्व-परिवर्तन की बात आती है तो कहते होपहले आप', यह बदले तो मैं बदलूँ। तो पहले आप हुआ ना। और जब कोई सेवा का या कोई ऐसी परिस्थिति को सामना करने का चांस बनता है तो कोशिश करते हैं - पहले मैं, मैं भी तो कुछ हूँ, मुझे भी कुछ मिलना चाहिए। तो जहाँपहले आप' कहना चाहिए, वहाँ मैं' कह देते। सदा स्वमान में स्थित हो दूसरे को स्वमान देना अर्थात् पहले आप' करना। सिर्फ मुख से कहो पहले आप' और कर्म में अन्तर हो - यह नहीं। स्वमान में स्थित हो स्वमान देना है। स्वमान देना वा स्वमान में स्थित होना, उसकी निशानी क्या होगी? उसमें दो बातें सदा चेक करो –

एक होती है अभिमान की वृत्ति, दूसरी है अपमान की वृत्ति। जो स्वमान में स्थित होता है और दूसरे को स्वमान देने वाला दाता होता, उसमें यह दोनों वृत्ति नहीं होगी - न अभिमान की, न अपमान की। यह तो करता ही ऐसा है, यह होता ही ऐसा है, तो यह भी रॉयल रूप का उस आत्मा का अपमान है। स्वमान में स्थित होकर स्वमान देना इसको कहते हैं पहले आप' करना। समझा? और जो भी स्व-उन्नति की बात हो उसमें सदा पहले मैं' का स्लोगन याद हो तो क्या रिजल्ट होगी? पहले मैं अर्थात् जो ओटे सो अर्जुन'। अर्जुन अर्थात् विशेष आत्मा, न्यारी आत्मा, अलौकिक आत्मा, अलौकिक विशेष आत्मा। जैसे ब्रह्मा बाप सदा पहले मैं' के स्लोगन से जो ओटे सो अर्जुन बना ना, अर्थात् नम्बरवन आत्मा। नम्बरवन का सुनाया - नम्बरवन डिवीजन। वैसे नम्बरवन तो एक ही होगा ना। तो स्लोगन हैं दोनों जरूरी। लेकिन सुनाया ना - नम्बर किस आधार पर बनते। जो समय प्रमाण कोई भी विशेषता को कार्य में नहीं लगाते तो नम्बर आगे पिछे हो जाता। समय पर जो कार्य में लगाता है, वह विन करता है अर्थात् वन हो जाता। तो यह चेक करो। क्योंकि इस वर्ष स्व की चेकिंग की बातें सुना रहे हैं। भिन्न-भिन्न बातें सुनाई हैं ना? तो आज इन बातों को चेक करना - आप' के बजाए मैं', ‘मैं' के बजाए आप' तो नहीं कर देते हो? इसको कहते हैं यथार्थ विधि। जहाँ यथार्थ विधि है वहाँ सिद्धि है ही। और इस वृत्ति की विधि सुनाई। दो बातों की चेकिंग करना - न अभिमान की वृत्ति हो, न अपमान की। जहाँ यह दोनों की अप्राप्ति है वहाँ ही स्वमान' की प्राप्ति है। आप कहो न कहो, सोचो न सोचो लेकिन व्यक्ति, प्रकृति - दोनों ही सदा स्वत: ही स्वमान देते रहेंगे। संकल्प-मात्र भी स्वमान के प्राप्ति की इच्छा से स्वमान नहीं मिलेगा। निर्मीण बनना अर्थात् पहले आप' कहना। निर्मीन स्थिति स्वत: ही स्वमान दिलायेगी। स्वमान की परिस्थितियों में पहले आप' कहना अर्थात् बाप समान बनना। जैसे ब्रह्मा बाप ने सदा ही स्वमान देने में पहले जगत् अम्बा पहले सरस्वती माँ, पीछे ब्रह्मा बाप रखा। ब्रह्मा माता होते हुए भी स्वमान देन्ो के अर्थ जगत् अम्बा माँ को आगे रखा। हर कार्य में बच्चों को आगे रखा और पुरूषार्थ की स्थिति में सदा स्वयं को पहले मैं' इंजन के रूप में देखा। इंजन आगे होता है ना। सदा यह साकार जीवन में देखा कि जो मैं करूँगा मुझे देख सभी करेंगे। तो विधि, में, स्व-उन्नति में वा तीव्र पुरूषार्थ की लाइन में सदा पहले मैं' रखा। तो आज विधि और सिद्धि की रेखायें चेक कर रहे थे। समझा? तो बदली नहीं कर देना। यह बदली करना माना भाग्य को बदली करना। सदा होलीहंस बन निर्णय शक्ति, परखने की शक्ति को समय पर कार्य में लगाने वाले विशाल बुद्धि बनो और सदा वृत्ति रूपी बीज को श्रेष्ठ बनाए विधि और सिद्धि सदा श्रेष्ठ अनुभव करते चलो।

पहले भी सुनाया था कि बापदादा का बच्चों से स्नेह है। स्नेह की निशानी क्या होती है? स्नेह वाला स्नेही की कमी को देख नहीं सकता, सदा स्वयं को और स्नेही आत्मा को सम्पन्न समान देखना चाहता है। समझा? तो बार-बार अटेन्शन खिंचवाते, चेकिंग कराते - यही सम्पन्न बनाने का सच्चा स्नेह है। अच्छा –

अभी सब तरफ से पुराने बच्चे मैजारिटी में हैं। पुराना किसको कहते हैं, अर्थ जानते हो ना? बापदादा पुरानों को कहते हैं - सब बातों में पक्के। पुराने अर्थात् पक्के। अनुभव भी पक्का बनाता है। ऐसा कच्चा नहीं जो जरा-सी माया बिल्ली आवे और घबरा जावें। सभी पुराने - पक्के आये हो ना? मिलने का चांस लेने के लिए सभी पहले मैं' किया तो कोई हर्जा नहीं। लेकिन हर कार्य में कायदा और फायदा तो है ही। ऐसे भी नहीं पहले मैं' तो इसका मतलब एक हजार आ जाएं। साकार सृष्टि में कायदा भी है, फायदा भी है। अव्यक्त वतन में कायदे की बात नहीं, कायदा बनाना नहीं पड़ता। अव्यक्त मिलन के लिए मेहनत लगती है, साकार मिलन सहज लगता है। इसलिए भाग आते हो। लेकिन समय प्रमाण जितना कायदा उतना फायदा होता है। बापदादा थोड़ा भी ईशारा देते हैं तो समझते हैं - अब पता नहीं क्या होने वाला है? अगर कुछ होना भी होगा तो बताकर नहीं होगा। साकार बाप अव्यक्त हुए तो बताकर गये क्या? जो अचानक होता है वह अलौकिक प्यारा होता है। इसलिए बापदादा कहते हैं सदा एवररेडी रहो। जो होगा वह अच्छे ते अच्छा होगा। समझा? अच्छा –

सर्व होलीहंसों को, सर्व विशाल बुद्धि, श्रेष्ठ स्वच्छ बुद्धि धारण करने वाले बुद्धिवान बच्चों को, सर्व शक्तियों को, सर्व विशेषताओं को समय प्रमाण कार्य में लाने वाले ज्ञानी तू आत्मायें, योगी तू आत्मायें बच्चों को, सदा बाप समान बनने के उमंग-उत्साह में रहने वाले सम्पन्न बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।

अव्यक्त बापदादा की पार्टियों से मुलाकात

(1) सदा अपने को समर्थ बाप के समर्थ बच्चे अनुभव करते हो? कभी समर्थ, कभी कमज़ोर - ऐसे तो नहीं? समर्थ अर्थात् सदा विजयी। समर्थ की कभी हार नहीं हो सकती। स्वप्न में भी हार नहीं हो सकती। स्वप्न, संकल्प और कर्म सबमें सदा विजयी - इसको कहते हैं समर्थ'। ऐसे समर्थ हो? क्योंकि जो अब के विजयी हैं, बहुतकाल से वही विजय माला में गायन-पूजन योग्य बनते हैं। अगर बहुतकाल के विजयी नहीं, समर्थ नहीं तो बहुतकाल के गायन-पूजन योग्य नहीं बनते हैं। जो सदा और बहुत काल विजयी हैं, वही बहुत समय विजय माला में गायन-पूजन में आते हैं और जो कभी-कभी के विजयी हैं, वह कभी-कभी की अर्थात् 16 हजार की माला में आयेंगे। तो बहुतकाल का हिसाब है और सदा का हिसाब है। 16 हजार की माला सभी मन्दिरों में नहीं होती, कहाँ-कहाँ होती है।

(2) सभी अपने को इस विशाल ड्रामा के अन्दर हीरो पार्टधारी आत्मायें अनुभव करते हो? आप सबका हीरो पार्ट है। हीरो पार्टधारी क्यों बने? क्योंकि जो ऊंचे ते ऊंचा बाप जीरो है - उसके साथ पार्ट बजाने वाले हो। आप भी जीरो अर्थात् बिन्दी हो। लेकिन आप शरीरधारी बनते हो और बाप सदा जीरो है। तो जीरो के साथ पार्ट बजाने वाले हीरो एक्टर हैं - यह स्मृति रहे तो सदा ही यथार्थ पार्ट बजायेंगे, स्वत: ही अटेन्शन जायेगा। जैसे हद के ड्रामा के अन्दर हीरो पार्टधारी को कितना अटेन्शन रहता है! सबसे बड़े ते बड़ा हीरो पार्ट आप सबका है। सदा इस नशे और खुशी में रहो - वाह, मेरा हीरो पार्ट जो सारे विश्व की आत्मायें बार-बार हेयर-हेयर करती हैं! यह द्वापर से जो कीर्तन करते हैं यह आपके इस समय के हीरो पार्ट का ही यादगार है। कितना अच्छा यादगार बना हुआ है! आप स्वयं हीरो बने हो तब आपके पीछे अब तक भी आपका गायन चलता रहता है। अन्तिम जन्म में भी अपना गायन सुन रहे हैं। गोपीवल्लभ का भी गायन है तो ग्वाल बाप का भी गायन है, गोपिकाओं का भी गायन है। बाप का शिव के रूप में गायन है तो बच्चों का शक्तियों के रूप में गायन है। तो सदा हीरो पार्ट बजाने वाली श्रेष्ठ आत्मायें हैं - इसी स्मृति में खुशी में आगे बढ़ते चलो।

कुमारों से

(1) सहजयोगी कुमार हो ना? निरन्तर योगी कुमार, कर्मयोगी कुमार। क्योंकि कुमार जितना अपने को आगे बढ़ाने चाहें उतना बढ़ा सकते हैं। क्यों? निर्बन्धन है, बोझ नहीं हैं और जिम्मेवारी नहीं है इसलिए हल्के हैं। हल्के होने के कारण जितना ऊँचा जाना चाहे जा सकते हैं। निरन्तर योगी, सहज योगी - यह है ऊँची स्थिति, यह है ऊंचा जाना। ऐसे ऊँच स्थिति वाले को कहते हैं -विजयी कुमार'। विजयी हो या कभी हार, कभी जीत - यह खेल तो नहीं खेलते हो? अगर कभी हार कभी जीत के संस्कार होंगे तो एकरस स्थिति का अनुभव नहीं होगा। एक की लग्न में मग्न रहने का अनुभव नहीं करेंगे।

(2) सदा हर कर्म में कमाल करने वाले कुमार हो ना? कोई भी कर्म साधारण नहीं हो, कमाल का हो। जैसे बाप की महिमा करते हो, बाप की कमाल गाते हो। ऐसे कुमार अर्थात् हर कर्म में कमाल दिखाने वाले। कभी कैसे, कभी कैसे वाले नहीं। ऐसे नहीं आजहाँ कोई खींचे वहाँ खिंच जाओ। लुढ़कने वाले लोटे नहीं। कभी कहाँ लुढ़क जाओ, कभी कहाँ। ऐसे नहीं। कमाल करने वाले बनो। अविनाशी हैं, अविनाशी बनाने वाले हैं - ऐसे चैलेन्ज करने वाले बनो। ऐसी कमाल करके दिखाओ जो हरेक कुमार चलता-फिरता फरिश्ता हो, दूर से ही फरिश्तेपन की झलक अनुभव हो। वाणी से सेवा के प्रोग्राम तो बहुत बना लिये, वह तो करेंगे ही लेकिन आजकल प्रत्यक्ष प्रूफ चाहते हैं। प्रत्यक्ष प्रमाण, सबसे श्रेष्ठ प्रमाण है। प्रत्यक्ष प्रमाण इतने हो जाएं तो सहज सेवा हो जायेगी। फरिश्तेपन की सेवा करो तो मेहनत कम सफलता ज्यादा होगी। सिर्फ वाणी से सेवा नहीं करो लेकिन मन वाणी और कर्म तीनों से साथ-साथ सेवा हो - इसको कहते हैं कमाल'। अच्छा –

विदाई के समय

चारों ओर के तीव्र पुरूषार्थी, सदा सेवाधारी, सदा डबल लाइट बन औरों को भी डबल लाइट बनाने वाले, सफलता को अधिकार से प्राप्त करने वाले, सदा बाप समान आगे बढ़ने वाले और औरों को भी आगे बढ़ाने वाले, ऐसे सदा उमंग-उत्साह में रहने वाले श्रेष्ठ आत्माओं को, स्नेही बच्चों को बापदादा का बहुत-बहुत सिक व प्रेम से यादप्यार और गुडमोर्निंग।



10-12-87   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


तन, मन, धन और सम्बन्ध का श्रेष्ठ सौदा

सर्व खज़ानों के अखुट भण्डार, सर्व शक्तियों के दाता, रत्नागर बाप अपने परमात्म-सौदागर बच्चों प्रति बोले

आज सर्व खज़ानों के सागर रत्नागर बाप अपने बच्चों को देख मुस्करा रहे हैं कि सर्व खज़ानों के रत्नागर बाप के सौदागर बच्चे अर्थात् सौदा करने वाले कौन हैं और किससे सौदा किया है? परमात्म-सौदा देने वाले और परमात्मा से सौदा करने वाली सूरतियाँ कितनी भोली हैं और सौदा कितना बड़ा किया है! यह इतना बड़ा सौदा करने वाले सौदागर आत्मायें हैं - यह दुनिया वालों की समझ में नहीं आ सकता। दुनिया वाले जिन आत्माओं को नाउम्मीद, अति गरीब समझ, असम्भव समझ किनारे कर दिया कि यह कन्यायें, मातायें परमात्म-प्राप्ति के क्या अधिकारी बनेंगे? लेकिन बाप ने पहले माताओं, कन्याओं को ही इतना बड़े ते बड़ा सौदा करने वाली श्रेष्ठ आसामी बना दिया। ज्ञान का कलश पहले माताओं, कन्याओं के ऊपर रखा। यज्ञ-माता जगदम्बा निमित्त गरीब कन्या को बनाया। माताओं के पास फिर भी अपनी कुछ न कुछ छिपी हुई प्रापर्टी रहती है लेकिन कन्या माताओं से भी गरीब होती। तो बाप ने गरीब से गरीब को पहले सौदागर बनाया और सौदा कितना बड़ा किया! जो गरीब कुमारी से जगत- अम्बा सो धन देवी लक्ष्मी बना दिया! जो आज दिन तक भी भल कितने भी मल्टी-मिलिनीयर (करोड़पति) हों लेकिन लक्ष्मी से धन जरूर मांगेंगे, पूजा जरूर करेंगे। रत्नागर बाप अपने सौदागर बच्चों को देख हर्षित हो रहे हैं। एक जन्म का सौदा करने से अनेक जन्म सदा मालामाल भरपूर हो जाते हैं। और निमित्त सौदा करने वाला भल कितना भी बड़ा बिजनिसमैन हो लेकिन वह सिर्फ धन का सौदा, वस्तु का सौदा करेंगे। एक ही बेहद का बाप है जो धन का भी सौदा करते, मन का भी सौदा करते, तन का भी और सदा श्रेष्ठ सम्बन्ध का भी सौदा करते। ऐसा दाता कोई देखा? चारों ही प्रकार के सौदे किये हैं ना? तन सदा तन्दुरूस्त रहेगा, मन सदा खुश, धन के भण्डार भरपूर और सम्बन्ध में नि:स्वार्थ स्नेह। और गैरन्टी है। आजकल भी जो मूल्यवान वस्तु होती है उसकी गैरन्टी देते हैं। 5 वर्ष, 10 वर्ष की गैरन्टी देंगे, और क्या करेंगे? लेकिन रत्नागर बाप कितने समय की गैरन्टी देते हैं? अनेक जन्मों की गैरन्टी देते हैं। चारों में एक की भी कमी नहीं हो सकती। चाहे प्रजा की प्रजा भी बनें लेकिन उनको भी लास्ट जन्म तक अर्थात् त्रेता के अन्त तक भी यह चारों ही बातें प्राप्त होंगी। ऐसा सौदा कब किया? अब तो किया है ना सौदा? पक्का सौदा किया है या कच्चा? परमात्मा से कितना सस्ता सौदा किया है! क्या दिया, कोई काम की चीज़ दी?

फारेनर्स बापदादा के पास सदैव दिल बनाकर भेज देते हैं। पत्र भी दिल के चित्र के अन्दर लिखेंगे, गिफ्ट भी दिल की भेजेंगे। तो दिल दिया ना। लेकिन कौनसी दिल दी? एक दिल के कितने टुकड़े हुए पड़े थे? माँ, बाप, चाचा, मामा, कितनी लम्बी लिस्ट है? अगर सम्बन्ध की लिस्ट निकालो कलियुग में तो कितनी लम्बी लिस्ट होगी! एक सम्बन्ध में दिल दे दिया, दूसरा वस्तुओं में भी दिल दे दी... तो दिल लगाने वाली वस्तुएं कितनी हैं, व्यक्ति कितने हैं? सबमें दिल लगाके दिल ही टुकड़ा-टुकड़ा कर दी। बाप ने अनेक टुकड़े वाली दिल को एक तरफ जोड़ लिया। तो दिया क्या और लिया क्या! और सौदा करने की विधि कितनी सहज है! सेकण्ड का सौदा है ना। ‘‘बाबा'' शब्द ही विधि है। एक शब्द की विधि है, इसमें कितना समय लगता? सिर्फ दिल से कहा - ‘‘बाबा'' तो सेकण्ड में सौदा हो गया। कितनी सहज विधि है। इतना सस्ता सौदा सिवाए इस संगमयुग के और किसी भी युग में नहीं कर सकते। तो सौदागरों की सूरत-मूरत देख रहे थे। दुनिया के अन्तर में कितने भोले-भाले हैं! लेकिन कमाल तो इन भोले-भालों ने किया है। सौदा करने में तो होशियार निकले ना। आज के बड़ेबड़ े नामीग्रामी धनवान, धन कमाने के बजाए धन को सम्भालने की उलझन में पड़े हुए हैं। उसी उलझन में बाप को पहचानने की भी फुर्सत नहीं है। अपने को बचाने में, धन को बचाने में ही समय चला जाता है। बादशाह भी हों लेकिन फिकर वाले बादशाह हैं। क्योंकि फिर भी काला धन है ना। इसलिए फिकर वाले बादशाह हैं। और आप बाहर से बिन कौड़ी हो लेकिन बेफिकर बादशाह' हो, बेगर होते भी बादशाह। शुरू-शुरू में साइन क्या करते थे? बेगर टू प्रिन्स। अभी बादशाह और भविष्य में भी बादशाह हैं। आजकल के नम्बरवन धनवान आसामी हो लेकिन उनके सामने आपके त्रेता अन्त वाली प्रजा भी ज्यादा धनवान होगी। आजकल की संख्या के हिसाब से सोचो - धन तो वही होगा, और ही दबा हुआ धन भी निकलेगा। तो जितनी बड़ी संख्या है, उसी प्रमाण धन बांटा हुआ है। और वहाँ संख्या कितनी होगी? उसी हिसाब से देखो तो कितना धन होगा! प्रजा को भी अप्राप्त कोई वस्तु नहीं। तो बादशाह हुए ना। बादशाह का अर्थ यह नहीं कि तख्त पर बैठें। बादशाह अर्थात् भरपूर, कोई अप्राप्ति नहीं, कमी नहीं। तो ऐसा सौदा कर लिया है या कर रहे हो? वा अभी सोच रहे हो? कभी कोई बड़ी चीज़ सस्ती और सहज मिल जाती है तो भी उलझन में पड़ जाते कि पता नहीं ठीक है वा नहीं? ऐसी उलझन में तो नहीं हो ना? क्योंकि भक्ति मार्ग वालों ने सहज को इतना मुश्किल कर और चक्र में डाल दिया है, जो आज भी बाप को उसी रूप से ढूँढ़ते रहते हैं। छोटी बात को बड़ी बात बना दी है, इसलिए उलझन में पड़ जाते हैं। ऊँचे ते ऊँचा भगवान उनसे मिलने की विधियाँ भी लम्बी-चौड़ी बता दी। उसी चक्र में भक्त आत्मायें सोच में ही पड़ी हुई हैं। भगवान भक्ति का फल देने भी आ गये हैं लेकिन भक्त आत्मायें उलझन के कारण पत्ते-पत्ते को पानी देने में ही बिजी हैं। कितना भी आप सन्देश देते हो तो क्या कहते हैं? इतना ऊँचा भगवान, ऐसे सहज आये - हो ही नहीं सकता। इसलिए बाप मुस्करा रहे थे कि आजकल के चाहे भक्ति के नामीग्रामी, चाहे धन के नामीग्रामी, चाहे किसी भी आक्यूपेशन के नामीग्रामी - अपने ही कार्य में बिजी हैं। लेकिन आप साधारण आत्माओं ने बाप से सोदा कर लिया। पाण्डवों ने पक्का सौदा कर लिया ना? डबल फारेनर्स सौदा करने में होशियार हैं। सौदा तो सबने किया लेकिन सब बात में नम्बरवार होते हैं। बाप ने तो सभी को एक जैसे सर्व खज़ाने दिये क्योंकि अखुट सागर है। बाप को देने में नम्बरवार देने की आवश्यकता ही नहीं है।

जैसे आजकल की विनाशकारी आत्मायें कहती हैं कि विनाश की इतनी सामग्री तैयार की है जो ऐसी कई दुनिया विनाश हो सकती है। बाप भी कहते बाप के पास भी इतना खज़ाना है जो सारे विश्व की आत्मायें आप जैसे समझदार बन सौदा कर लें तो भी अखुट है। जितनी आप ब्राह्मणों की संख्या है, उससे और पद्मगुणा भी आ जाए तो भी ले सकते हैं। इतना अथाह खज़ाना है! लेकिन लेने वालों में नम्बर हो जाते हैं। खुले दिल से सौदा करने वाले हिम्मतवान थोड़े ही निकलते हैं। इसलिए दो प्रकार की माला पूजी जाती है। कहाँ अष्ट रत्न और कहाँ 16 हजार का लास्ट! कितना अन्तर हो गया! सौदा करने में तो एक जैसा ही है। लास्ट नम्बर भी कहता - बाबा' और फर्स्ट नम्बर भी कहता - बाबा'। शब्द में अन्तर नहीं है। सौदा करने की विधि एक जैसी है और देने वाला दाता भी एक जैसा देता है। ज्ञान का खज़ाना वा शक्तियों का खज़ाना, जो भी संगमयुगी खज़ाने जानते हो, सबके पास एक जैसा ही है। किसको सर्वशक्तियाँ दी, किसको एक शक्ति दी वा किसको एक गुण वा किसको सर्वगुण दिये - यह अन्तर नहीं। सभी की टाइटिल एक ही है - आदि-मध्य-अन्त के ज्ञान को जानने वाले त्रिकालदर्शी, मास्टर सर्वशक्तिवान हैं। ऐसे नहीं कि कोई सर्वशक्तिवान है, कोई सिर्फ शक्तिवान है। नहीं। सभी को सर्वगुण सम्पन्न बनने वाली देव आत्मा कहते हैं, गुण मूर्ति कहते हैं। खज़ाना सभी के पास है। एक मास से स्टडी करने वाला भी ज्ञान का खज़ाना ऐसे ही वर्णन करता जैसे 50 वर्ष वाले वर्णन करते हैं। अगर एक-एक गुण पर, शक्तियों पर भाषण करने के लिए कहें तो बहुत अच्छा भाषण कर सकते हैं। बुद्धि में है तब तो कर सकते हैं ना। तो खज़ाना सबके पास है, बाकी अन्तर क्या हो गया? नम्बरवन सौदागर खज़ाने को स्व के प्रति मनन करने से कार्य में लगाते हैं। उसी अनुभव की अथार्टी से अनुभवी बन दूसरों को बांटते। कार्य में लगाना अर्थात् खज़ाने को बढ़ाना। एक हैं सिर्फ वर्णन करने वाले, दूसरे हैं मनन करने वाले। तो मनन करने वाले जिसको भी देते हैं वह स्वयं अनुभवी होने के कारण दूसरे को भी अनुभवी बना सकते हैं। वर्णन करने वाले दूसरे को भी वर्णन करने वाला बना देते। महिमा करते रहेंगे, लेकिन अनुभवी नहीं बनेंगे। स्वयं महान नहीं बनेंगे लेकिन महिमा करने वाले बनेंगे।

तो नम्बरवन अर्थात् मनन शक्ति से खज़ाने के अनुभवी बन अनुभवी बनाने वाले अर्थात् दूसरे को भी धनवान बनाने वाले। इसलिए उन्हों का खज़ाना सदा बढ़ता जाता है और समय प्रमाण स्वयं प्रति और दूसरों के प्रति कार्य में लगाने से सफलता स्वरूप सदा रहते हैं। सिर्फ वर्णन करने वाले दूसरे को भी धनवान नहीं बना सकेंगे और अपने प्रति भी समय प्रमाण जो शक्ति, जो गुण, जो ज्ञान की बातें यूज करनी चाहिए वह समय पर नहीं कर सकेंगे। इसलिए खज़ाने के भरपूर स्वरूप का सुख और दाता बन देने का अनुभव नहीं कर सकते। धन होते भी धन से सुख नहीं ले सकते। शक्ति होते भी समय पर शक्ति द्वारा सफलता पा नहीं सकते। गुण होते भी समय प्रमाण उस गुण को यूज नहीं कर सकते। सिर्फ वर्णन कर सकते हैं। धन सबके पास है लेकिन धन का सुख समय पर यूज करने से अनुभव होता। जैसे आजकल के समय में भी कोई-कोई विनाशी धनवान के पास भी धन बैंक में होगा, अलमारी में होगा या तकिये के नीचे होगा, न खुद कार्य में लायेगा, न औरों को लगाने देगा। न स्वयं लाभ लेगा, न दूसरों को लाभ देगा। तो धन होते भी सुख तो नहीं लिया ना। तकिये के नीचे ही रह जायेगा, खुद चला जायेगा। तो यह वर्णन करना अर्थात् यूज न करना, सदा गरीब दिखाई देंगे। यह धन भी अगर स्वयं प्रति वा दूसरों प्रति समय प्रमाण यूज नहीं करते, सिर्फ बुद्धि में रखा है तो न स्वयं अविनाशी धन के नशे में, खुशी में रहते, न दूसरों को दे सकते। सदा ही क्या करें, कैसे करें... इस विधि चलते रहेंगे। इसलिए दो मालायें हो जाती हैं। वह मनन करने वाली, वह सिर्फ वर्णन करने वाली। तो कौन से सौदागर हो, नम्बरवन वाले या दूसरे नम्बर वाले? इस खज़ाने का कन्डीशन (शर्त) यह है - जितना औरों को देंगे, जितना कार्य में लगायेंगे उतना बढ़ेगा। वृद्धि होने की विधि यह है। इसमें विधि को न अपनाने के कारण स्वयं में भी वृद्धि नहीं और दूसरों की सेवा करने में भी वृद्धि नहीं। संख्या की वृद्धि नहीं कह रहे हैं, सम्पन्न बनाने की वृद्धि। कई स्टूडेन्टस संख्या में तो गिनती में आते हैं लेकिन अब तक भी कहते रहते - समझ में नहीं आता योग क्या है, बाप को याद कैसे करें? अभी शक्ति नहीं है। तो स्टूडेन्टस की लाइन में तो हैं, रजिस्टर में नाम है लेकिन धनवान तो नहीं बना ना। मांगता ही रहेगा। कभी कोई टीचर के पास जायेगा - मदद दे दो, कभी बाप से रूह-रूहान करेगा - मदद दे दो। तो भरपूर तो नहीं हुआ ना। जो स्वयं अपने प्रति मनन शक्ति से धन को बढ़ाता है वह दूसरे को भी धन में आगे बढ़ा सकता हैं। मनन शक्ति अर्थात् धन को बढ़ाना। तो धनवान की खुशी, धनवान का सुख अनुभव करना। समझा? मनन शक्ति का महत्त्व बहुत है। पहले भी थोड़ा इशारा सुनाया है। और भी मनन शक्ति के महत्त्व का आगे सुनायेंगे। चेक करने का काम देते रहते हैं। रिजल्ट आऊट हो और फिर आप कहो कि हमें तो पता नहीं, यह बात तो बापदादा ने कही नहीं थी। इसलिए रोज सुनाते रहते हैं। चेक करना अर्थात् चेन्ज करना। अच्छा –

सर्व श्रेष्ठ सौदागर आत्माओं को, सदा सर्व खज़ानों को समय प्रमाण कार्य में लगाने वाले महान विशाल बुद्धिवान बच्चों को, सदा स्वयं को और सर्व को सम्पन्न अनुभव कर अनुभवी बनाने वाले अनुभव की अथार्टी वाले बच्चों को आलमाइटी अथार्टी बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।

पार्टियों से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात (ईस्टर्न जोन)

(1) ईस्ट से सूर्य उदय होता है ना। तो ईस्टर्न जोन अर्थात् सदा ज्ञान सूर्य उदय है ही। ईस्टर्न वाले अर्थात् सदा ज्ञान सूर्य के प्रकाश द्वारा हर आत्मा को रोशनी में लाने वाले, अंधकार समाप्त करने वाले। सूर्य का काम है अंधकार को खत्म करना। तो आप सब मास्टर ज्ञान सूर्य अर्थात् चारों ओर का अज्ञान समाप्त करने वाले हो ना। सभी इसी सेवा में बिजी रहते हो या अपनी वा प्रवृत्ति की परिस्थितियों के झंझट में फंसे रहते हो? सूर्य का काम है रोशनी देने के कार्य में बिजी रहना। चाहे प्रवृत्ति में, चाहे कोई भी व्यवहार में हो, चाहे कोई भी परिस्थिति सामने आये लेकिन सूर्य रोशनी देने के कार्य के बिना रह नहीं सकता। तो ऐसे मास्टर ज्ञान सूर्य हो या कभी उलझन में आ जाते हो? पहला कर्त्तव्य है - ज्ञान की रोशनी देना। जब यह स्मृति में रहता है कि परमार्थ द्वारा व्यवहार और परिवार दोनों को श्रेष्ठ बनाना है तब यह सेवा स्वत: होती है। जहाँ परमार्थ है वहाँ व्यवहार सिद्ध व सहज हो जाता है। और परमार्थ की भावना से परिवार में भी सच्चा प्यार, एकता स्वत: ही आ जाती है। तो परिवार भी श्रेष्ठ और व्यवहार भी श्रेष्ठ। परमार्थ व्यवहार से किनारा नहीं कराता, और ही परमार्थ-कार्य में बिजी रहने से परिवार और व्यवहार में सहारा मिल जाता है। तो परमार्थ में सदा आगे बढ़ते चलो। नेपाल वालों की निशानी में भी सूर्य दिखाते हैं ना। वैसे राजाओं में सूर्यवंशी राजायें प्रसिद्ध हैं, श्रेष्ठ माने जाते हैं। तो आप भी मास्टर ज्ञान सूर्य सबको रोशनी देने वाले हो। अच्छा –



14-12-87   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


संगमयुगी ब्राह्मण जीवन की तीन विशेषताएं

अपने सेवा के साथी बच्चों को वर्तमान वरदानी समय की विशेषताएं बताते हुए बुद्धिवानों की बुद्धि बापदादा बोले

आज बापदादा अपने सर्व सदा साथ रहने वाले, सदा सहयोगी बन, सेवा के साथी बन सेवा करने वाले और साथ चलने वाले श्रेष्ठ बच्चों को देख हर्षित हो रहे हैं। साथ रहने वाले अर्थात् सहज स्वत: योगी आत्मायें। सदा सेवा में सहयोगी साथी बन चलने वाले अर्थात् ज्ञानी तू आत्मायें, सच्चे सेवाधारी। साथ चलने वाले अर्थात् समान और सम्पन्न कर्मातीत आत्मायें। बापदादा सभी बच्चों में यह तीनों विशेषतायें देख रहे हैं कि तीनों बातों में कहाँ तक सम्पूर्ण बने हैं? संगमयुग के श्रेष्ठ ब्राह्मण जीवन की विशेषतायें यह तीनों ही आवश्यक हैं। योगी तू आत्मा, ज्ञानी तू आत्मा और बाप समान कर्मातीत आत्मा - इन तीनों में से अगर एक भी विशेषता में कमी है तो ब्राह्मण जीवन की विशेषताओं के अनुभवी न बनना अर्थात् सम्पूर्ण ब्राह्मण जीवन का सुख वा प्राप्तियों से वंचित रहना है। क्योंकि बापदादा सभी बच्चों को सम्पूर्ण वरदान देते हैं। ऐसे नहीं कि यथा शक्ति योगी भव वा यथा शक्ति ज्ञानी तू आत्मा भव - ऐसा वरदान नहीं देते हैं। साथ-साथ संगमयुग जो सारे कल्प में विशेष युग है, इस युग अर्थात् समय को भी वरदानी समय कहा जाता है क्योंकि वरदाता बाप वरदान बांटने इस समय ही आते हैं। वरदाता के आने के कारण समय भी वरदानी हो गया। इस समय को यह वरदान है। सर्व प्राप्तियों में भी सम्पूर्ण प्राप्तियों का यही समय है। सम्पूर्ण स्थिति को प्राप्त करने का भी यही वरदानी समय है। और सारे कल्प में कर्म अनुसार प्रालब्ध प्राप्त करते वा जैसा कर्म वैसा फल स्वत: प्राप्त होता रहता है लेकिन इस वरदानी समय पर एक कदम आपका कर्म और पद्मगुणा बाप द्वारा मदद के रूप में सहज प्राप्त होता है। सतयुग में एक का पद्मगुणा प्राप्त नहीं होता लेकिन अभी प्राप्त हुए प्रालब्ध के रूप में भोगने के अधिकारी बनते हो। सिर्फ जमा किया हुआ खाते हुए नीचे आते जाते हैं। कला कम होती जाती हैं। एक युग पूरा होने से कला भी 16 कला से 14 हो जाती है ना। लेकिन सम्पूर्ण प्राप्ति किस समय की जो 16 कला सम्पूर्ण बनें? वह प्राप्ति का समय यह संगमयुग का है। इस समय में बाप खुले दिल से सर्व प्राप्तियों के भण्डार वरदान के रूप में, वर्से के रूप में और पढ़ाई के फलस्वरूप प्राप्ति के रूप में, तीनों ही सम्बन्ध से तीन रूप में विशेष खुले भण्डार, भरपूर भण्डार बच्चों के आगे रखते हैं। जितना उतना का हिसाब नहीं रखते, एक का पद्मगुणा का हिसाब रखते हैं। सिर्फ अपना पुरूषार्थ किया और प्रालब्ध पाई, ऐसे नहीं कहते। लेकिन रहमदिल बन, दाता बन, विधाता बन, सर्व सम्बन्धी बन स्वयं हर सेकण्ड मददगार बनते हैं। एक सेकण्ड की हिम्मत और अनेक वर्षों के समान मेहनत की मदद के रूप में सदा सहयोगी बनते हैं। क्योंकि जानते हैं कि अनेक जन्मों की भटकी हुई निर्बल आत्मायें हैं, थकी हुई हैं। इसलिए इतने तक सहयोग देते हैं, मददगार बनते हैं।

स्वयं आफर करते हैं कि सर्व प्रकार का बोझ बाप को दे दो। बोझ उठाने की आफर करते हैं। भाग्यविधाता बन नॉलेजफुल बनाए, श्रेष्ठ कर्मों का ज्ञान स्पष्ट समझाए भाग्य की लकीर खींचने चाहो उतना खींच लो। सर्व खुले खज़ानों की चाबी आपके हाथ में दी है। और चाबी भी कितनी सहज है। अगर माया के तूफान आते भी हैं तो छत्रछाया बन सदा सेफ भी रखते हैं। जहाँ छत्रछाया हैं वहाँ तूफान क्या करेगा। सेवाधारी भी बनाते लेकिन साथ-साथ बुद्धिवानों की बुद्धि बन आत्माओं को टच भी करते जिससे नाम बच्चों का, काम बाप का सहज हो जाता है। इतना लाड और प्यार से लाडले बनाए पालना करते जो सदा अनेक झूलों में झूलाते रहते हैं! पाँव नीचे नहीं रखने देते। कभी खुशी के झूले में, कभी सुख के झूले में, कभी बाप की गोदी के झूले में; आनंद, प्रेम, शान्ति के झूले में झूलते रहो। झूलना अर्थात् मौज मनाना। यह सर्व प्राप्तियां इस वरदानी समय की विशेषता हैं। इस समय वरदाता विधाता होने के कारण, बाप और सर्व सम्बन्ध निभाने के कारण बाप रहमदिल है। एक का पद्म देने की विधि इस समय की है। अन्त में हिसाब-किताब चुक्तू करने वाले अपने साथी से काम लेंगे। साथी कौन है, जानते हो ना? फिर यह एक का पद्मगुणा का हिसाब समाप्त हो जायेगा। अभी रहमदिल है, फिर हिसाब-किताब शुरू होगा। इस समय तो माफ भी कर देते हैं। कड़ी भूल को भी माफ कर और ही मददगार बन आगे उड़ाते हैं। सिर्फ दिल से महसूस करना अर्थात् माफ होना। जैसे दुनिया वाले माफी लेते हैं, यहाँ उस रीति से माफी नहीं लेनी होती। महसूसता की विधि ही माफी है। तो दिल से महसूस करना, किसके कहने से या समय पर चलाने के लक्ष्य से, यह माफी मंजूर नहीं होती है। कई बच्चे चतुर भी होते हैं। वातावरण देखते हैं तो कहते - अभी तो महसूस कर लो, माफी ले लो, आगे देखेंगे। लेकिन बाप भी नॉलेजफुल है, जानते हैं, फिर मुस्कराते छोड़ देते हैं लेकिन माफी मंजूर नहीं करते। बिना विधि के सिद्धि तो नहीं मिलेगी ना। विधि एक कदम की हो और सिद्धि पद्म कदम जितनी होगी। लेकिन एक कदम की विधि तो यथार्थ हो ना। तो इस समय की विशेषता कितनी है वा वरदानी समय कैसे है - यह सुनाया।

वरदानी समय पर भी वरदान नहीं लेंगे तो और किस समय लेंगे? समय समाप्त हुआ और समय प्रमाण यह समय की विशेषतायें भी सब समाप्त हो जायेंगी। इसलिए जो करना है, जो लेना है, जो बोलना है वह अब वरदान के रूप में बाप की मदद के समय में कर लो, बना लो। फिर यह डायमन्ड चांस मिल नहीं सकता। समय की विशेषतायें तो सुनी। समय की विशेषताओं के आधार पर ब्राह्मण जीवन की जो 3 विशेषतायें बताई - इन तीनों में सम्पूर्ण बनो। आप लोगों का विशेष स्लोगन भी यही है - योगी बनो, पवित्र बनो। ज्ञानी बनो, कर्मातीत बनो' जब साथ चलना ही है तो सदा साथ रहने वाले ही साथ चलेंगे। जो साथ नहीं रहते वह साथ चलेंगे कैसे? समय पर तैयार ही नहीं होंगे साथ चलने के लिए। क्योंकि बाप समान बनना अर्थात् तैयार होना है। समानता ही हाथ और साथ है। नहीं तो क्या होगा? आगे वालों को देखते पीछे-पीछे आते रहे तो यह साथी नहीं हुए। साथी तो साथ चलेंगे। बहुतकाल का साथ रहना, साथी बन सहयोगी बनना - यह बहुतकाल का संस्कार ही साथी बनाए साथ ले जायेगा। अभी भी साथ नहीं रहते, इससे सिद्ध है कि दूर रहते हैं। तो दूर रहने का संस्कार साथ चलने के समय भी दूरी का अनुभव करायेगा। इसलिए अभी से तीनों ही विशेषतायें चेक करो। सदा साथ रहो। सदा बाप के साथी बन सेवा करो। करावनहार बाप, निमित्त करनहार मैं हूँ। तो कभी भी सेवा हलचल में नहीं लायेगी। जहाँ अकेले हो तो मैं-पन में आते हो, फिर माया बिल्ली म्याऊं-म्याऊं करती है। आप मैं-मैं' करते, वह कहती - मैं आऊं, मैं आऊं। माया को बिल्ली कहते हो ना। तो साथी बन सेवा करो। कर्मातीत बनने की भी परिभाषा बड़ी गुह्य है, वह फिर सुनायेंगे।

आज सिर्फ यह 3 बातें चेक करना। और समय की विशेषताओं का लाभ कहाँ तक प्राप्त किया है? क्योंकि समय का महत्त्व जानना अर्थात् महान बनना। स्वयं को जानना, बाप को जानना - जितना यह महत्त्व का है वैसे समय को जानना भी आवश्यक है। तो समझा, क्या करना है? बापदादा बैठ रिजल्ट सुनावे - इससे पहले अपनी रिजल्ट अपने आप निकालो। क्योंकि बापदादा ने रिजल्ट एनाउन्स कर ली, तो रिजल्ट को सुन सोचेंगे कि अब तो एनाउन्स हो गया, अब क्या करेंगे, अब जो हूँ जैसी हूँ ठीक हूँ। इसलिए फिर भी बापदादा कहते - यह चेक करो, यह चेक करो। यह इन्डायरेक्ट रिजल्ट सुना रहे हैं। क्योंकि पहले से कहा हुआ है कि रिजल्ट सुनायेंगे और समय भी दिया हुआ है। कभी 6 मास, कभी एक वर्ष दिया है। फिर कई यह भी सोचते हैं कि 6 मास तो पूरे हो गये, कुछ सुनाया नहीं। लेकिन बताया ना कि अभी फिर भी कुछ समय रहमदिल का है, वरदान का है। अभी चित्रगुप्त, गुप्त है। फिर प्रत्यक्ष होगा। इसलिए फिर भी बाप को रहम आता है - चलो एक साल और दे दो, फिर भी बच्चे हैं। बाप चाहे तो क्या नहीं कर सकते। सबकी एक-एक बात एनाउन्स कर सकते हैं। कई भोलानाथ समझते हैं ना। तो कई बच्चे अभी भी बाप को भोला बनाते रहते हैं। भोलानाथ तो है लेकिन महाकाल भी है। अभी वह रूप बच्चों के आगे नहीं दिखाते हैं। नहीं तो सामने खड़े नहीं हो सकेंगे। इसलिए जानते हुए भी भोलानाथ बनते हैं, अन्जान भी बन जाते हैं। लेकिन किसलिए? बच्चों को सम्पूर्ण बनाने के लिए। समझा? बापदादा यह सब नजारे देख मुस्कराते रहते हैं। क्या-क्या खेल करते हैं - सब देखते रहते हैं। इसलिए ब्राह्मण जीवन की विशेषताओं को स्वयं में चेक करो और स्वयं को सम्पन्न बनाओ। अच्छा!

चारों ओर के सर्व योगी तू आत्मा, ज्ञानी तू आत्मा, बाप समान कर्मातीत श्रेष्ठ आत्माओं को, सदा स्वयं के, समय के महत्व को जान महान बनने वाली महान आत्माओं को, सदा बाप के सर्व सम्बन्धों का, प्राप्ति का लाभ लेने वाले समझदार विशाल बुद्धि, स्वच्छ बुद्धि, सदा पावन बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।

पार्टियों से मुलाकात

(1) सदा अपने को सर्व शक्तियों से सम्पन्न मास्टर सर्वशक्तिवान आत्मायें अनुभव करते हो? बाप ने सर्वशक्तियों का खज़ाना वर्से में दे दिया। तो सर्वशक्तियाँ अपना वर्सा अर्थात् खज़ाना हैं। अपना खज़ाना साथ रहता है ना। बाप ने दिया बच्चों का हो गया। तो जो चीज़ अपनी होती है वह स्वत: याद रहती है। वह जो भी चीज़ें होती हैं, वह विनाशी होती हैं और यह वर्सा वा शक्तियाँ अविनाशी हैं। आज वर्सा मिला, कल समाप्त हो जाए, ऐसा नहीं। आज खज़ाने हैं, कल कोई जला दे, कोई लूट ले - ऐसा खज़ाना नहीं है। जितना खर्चो उतना बढ़ने वाला है। जितना ज्ञान का खज़ाना बाँटो उतना ही बढ़ता रहेगा। सर्व साधन भी स्वत: ही प्राप्त होते रहेंगे। तो सदा के लिए वर्से के अधिकारी बन गये - यह खुशी रहती है ना। वर्सा भी कितना श्रेष्ठ है! कोई अप्राप्ति नहीं, सर्व प्राप्तियाँ हैं। अच्छा!

अमृतवेले विदाई के समय दादियों से तथा दादी निर्मलशांता जी से बापदादा की मुलाकात

महारथियों के हर कदम में सेवा है। चाहे बोलें, चाहे नहीं बोलें लेकिन हर कर्म, हर चलन में सेवा है। सेवा बिना एक सेकण्ड भी रह नहीं सकते। चाहे मन्सा सेवा में हों, चाहे वाचा सेवा में, चाहे सम्बन्ध-सम्पर्क से - लेकिन निरन्तर योगी भी हैं तो निरन्तर सेवाधारी भी हैं। अच्छा है - जो मधुबन में खज़ाना जमा किया वह सभी को बांटके खिलाने लिए जा रही हो। महारथियों का स्थान पर रहना भी अनेक आत्माओं का स्थूल सहारा हो जाता है। जैसे बाप छत्रछाया है, ऐसे बाप समान बच्चे भी छत्रछाया बन जाते हैं। सभी देख करके कितने खुश होते हैं! तो यह वरदान है सभी महारथियों को। आंखों का वरदान, मस्तक का वरदान कितने वरदान हैं! हर कर्म करने वाली निमित्त कर्मेंन्द्रियों को वरदान है। नयनों से देखते हो तो क्या समझते हैं? सभी समझते हैं ना कि बाप की नजर का इन आत्माओं की नजर से अनुभव होता है। तो नयनों को वरदान हो गया ना। मुख को वरदान है, इस चेहरे को वरदान है, कदम-कदम को वरदान है। कितने वरदान हैं, क्या गिनती करेंगे! औरों को तो वरदान देते हैं लेकिन आपको पहले से ही वरदान मिले हुए हैं। जो भी कदम उठाओ, वरदानों से झोली भरी हुई है। जैसे लक्ष्मी को दिखाते हैं ना - उसके हाथ से धन सभी को मिलता ही रहता है। थोड़े समय के लिए नहीं, सदा सम्पत्ति की देवी बन सम्पत्ति देती ही रहती है। तो यह किसका चित्र है?

तो कितने वरदान हैं! बाप तो कहते हैं - कोई वरदान रहा ही नहीं। तो फिर क्या दें? वरदानों से ही सजे हुए चल रहे हो। जैसे कहते हैं ना - हाथ घुमाया तो वरदान मिल गया। तो बाप ने तो समान भव' का वरदान दिया, इससे सब वरदान मिल गये। जब बाप अव्यक्त हुए तो सभी को समान भव' का वरदान दिया ना। सिर्फ सामने वालों को नहीं, सभी को दिया। सूक्ष्म रूप में सब महावीर बाप के सामने रहे और वरदान मिला। अच्छा!

आप लोगों के साथ सभी की दुआयें और दवाई है ही। इसलिए बड़ी बीमारी भी छोटी हो जाती है। सिर्फ रूपरेखा दिखाती है लेकिन अपना दांव नहीं लगा सकती है। यह सूली से कांटे का रूप दिखाती है। बाकी तो बाप का हाथ और साथ सदा है ही। हर कदम में, हर बोल में बाप की दुआ-दवा मिलती रहती है। इसलिये बेफिकर रहो। (इससे फ्री कब होंगे?) ऐसे फ्री हो जाओ तो फिर सूक्ष्मवतन में पहुँच जाओ। इससे औरों को भी बल मिलता है। यह बीमारी भी आप लोगों की, सेवा करती है। तो बीमारी, बीमारी नहीं है, सेवा का साधन है। नहीं तो और सब समझेंगे कि इन्हों को तो मदद है, इन्हों को अनुभव थोड़े ही है। लेकिन अनुभवी बनाए औरों को हिम्मत दिलाने की सेवा के लिए थोड़ा-सा रूपरेखा दिखाती है। नहीं तो सभी दिलशिकस्त हो जाएँ। आप सभी एग्जाम्पल रूप से थोड़ी रूपरेखा देखते, बाकी चुक्तू हो गया है, सिर्फ रूपरेखा मात्र रहा हुआ है। अच्छा!

विदेशियों से

दिल से हर आत्मा के प्रति शुभ भावना रखना - यही दिल की थैंक्स हैं। बाप की हर कदम में हर बच्चे को दिल से थैंक्स मिलती रहती है। संगमयुग को सर्व आत्माओं के प्रति सदा के लिए थैंक्स देने का समय कहेंगे। संगमयुग पूरा हीथैंक्स डे' है। सदा एक दो को शुभ कामना, शुभ भावना देते रहो और बाप भी देते हैं। अच्छा!



18-12-87   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


कर्मातीत स्थिति की गुह्य परिभाषा

कर्मबंधन की सूक्ष्म रस्सियों से मुक्त हो कर्मातीत स्थिति' के समीप पहुँचने की युक्तियाँ बताते हुए विदेही बापदादा बोले

आज विदेही बापदादा अपने विदेही स्थिति में स्थित रहने वाले श्रेष्ठ बच्चों को देख रहे हैं। हर एक ब्राह्मण आत्मा विदेही बनने के वा कर्मातीत बनने के श्रेष्ठ लक्ष्य को ले सम्पूर्ण स्टेज के समीप आ रही है। तो आज बापदादा बच्चों की कर्मातीत विदेही स्थिति की समीपता को देख रहे थे कि कौन-कौन कितने समीप पहुँचे हैं, ‘फॉलो ब्रह्मा बाप' कहाँ तक किया है वा कर रहे हैं? लक्ष्य सभी का बाप के समीप और समान बनने का ही है। लेकिन प्रैक्टिकल में नम्बरवार बन जाते हैं। इस देह में रहते विदेही अर्थात् कर्मातीत बनने का एग्जाम्पल (मिसाल) साकार में ब्रह्मा बाप को देखा। तो कर्मातीत बनने की विशेषता क्या है? जब तक यह देह है, कर्मेन्द्रियों के साथ इस कर्मक्षेत्र पर पार्ट बजा रहे हो, तब तक कर्म के बिना सेकण्ड भी रह नहीं सकते हो। कर्मातीत अर्थात् कर्म करते हुए कर्म के बन्धन से परे। एक है बन्धन और दूसरा है सम्बन्ध। कर्मेन्द्रियों द्वारा कर्म के सम्बन्ध में आना अलग चीज़ है, कर्म के बन्धन में बँधना वह अलग चीज़ है। कर्मबन्धन, कर्म के हद के फल के वशीभूत बना देता है। वशीभूत शब्द ही सिद्ध करता है जो किसी के भी वश में आ जाता। वश में आने वाले भूत के समान भटकने वाले बन जाते हैं। जैसे अशुद्ध आत्मा भूत बन जब प्रवेश होती है तो मनुष्य आत्मा की क्या हालत होती है? परवश हो भटकते रहते हैं। ऐसे कर्म के वशीभूत अर्थात् कर्म के विनाशी फल की इच्छा के वशीभूत हैं तो कर्म भी बन्धन में बाँध बुद्धि द्वारा भटकाता रहता है। इसको कहा जाता है कर्मबन्धन, जो स्वयं को भी परेशान करता है और दूसरों को भी परेशान करता है। कर्मातीत अर्थात् कर्म के वश होने वाला नहीं लेकिन मालिक बन, अथार्टी बन वर्मेन्द्रियों के सम्बन्ध में आये, विनाशी कामना से न्यारा हो कर्मेन्द्रियों द्वारा कर्म कराये। आत्मा मालिक को कर्म अपने अधीन न करे लेकिन अधिकारी बन कर्म कराता रहे। कर्मेन्द्रियाँ अपने आकर्षण में आकर्षित करती हैं अर्थात् कर्म के वशीभूत बनते हैं, अधीन होते हैं, बन्धन में बंधते हैं। कर्मातीत अर्थात् इससे अतीत अर्थात् न्यारा। आँख का काम है देखना लेकिन देखने का कर्म कराने वाला कौन है? आँख कर्म करने वाली है और आत्मा कर्म कराने वाली है। तो कराने वाली आत्मा, करने वाली कर्मेन्द्रिय के वश हो जाए - इसको कहते हैं कर्मबन्धन। कराने वाले बन कर्म कराओ - इसको कहेंगे कर्म के सम्बन्ध में आना। कर्मातीत आत्मा सम्बन्ध में आती है लेकिन बन्धन में नहीं रहती। कभी-कभी कहते हो ना कि बोलने नहीं चाहते थे लेकिन बोल लिया, करने नहीं चाहते थे लेकिन कर लिया। इसको कहा जाता है कर्म के बन्धन में वशीभूत आत्मा। ऐसी आत्मा कर्मातीत स्थिति के नजदीक कहेंगे या दूर कहेंगे?

कर्मातीत अर्थात् देह, देह के सम्बन्ध, पदार्थ, लौकिक चाहे अलौकिक दोनों सम्बन्ध से, बन्धन से अतीत अर्थात् न्यारे। भल सम्बन्ध शब्द कहने में आता है - देह का सम्बन्ध, देह के सम्बन्धियों का सम्बन्ध, लेकिन देह में वा सम्बन्ध में अगर अधीन हैं तो सम्बन्ध भी बन्धन बन जाता है। सम्बन्ध शब्द न्यारा और प्यारा अनुभव कराने वाला है। आज की सर्व आत्माओं का सम्बन्ध, बन्धन में सदा स्वयं को किसी-न-किसी प्रकार से परेशान करता रहेगा, दु:ख की लहर अनुभव करायेगा, उदासी का अनुभव करायेगा। विनाशी प्राप्तियाँ होते भी अल्पकाल के लिए वह प्राप्तियों का सुख अनुभव करेगा। सुख के साथ-साथ अभी-अभी प्राप्तिस्वरूप का अनुभव होगा, अभी-अभी प्राप्तियाँ होते भी अप्राप्ति स्थिति का अनुभव होगा। भरपूर होते भी अपने को खाली-खाली अनुभव करेगा। सब कुछ होते हुए भी कुछ और चाहिए' - ऐसे अनुभव करता रहेगा और जहाँचाहिए-चाहिए' है वहाँ कभी भी सन्तुष्टता नहीं रहेगी। मन भी राजी, तन भी राजी रहे, दूसरे भी राजी रहें - यह सदा हो नहीं सकता। कोई न कोई बात पर स्वयं से नाराज़ या दूसरों से नाराज़ न चाहते भी होता रहेगा। क्योंकि नाराज़ अर्थात् न राज़ अर्थात् राज़ को नहीं समझा। अधिकारी बन कर्मेंन्द्रियों से कर्म कराने का राज़ नहीं समझा। तो नाराज़ ही होगा ना। कर्मातीत कभी नाराज़ नहीं होगा क्योंकि वह कर्मसम्बन्ध और कर्मबन्धन के राज़ को जानता है। कर्म करो लेकिन वशीभूत होकर नहीं, अधिकारी मालिक होकर करो। कर्मातीत अर्थात् अपने पिछले कर्मों के हिसाब-किताब के बन्धन से भी मुक्त। चाहे पिछले कर्मों के हिसाब-किताब के फलस्वरूप तन का रोग हो, मन के संस्कार अन्य आत्माओं के संस्कारों से टक्कर भी खाते हों लेकिन कर्मातीत, कर्मभोग के वश न होकर मालिक बन चुक्तु करायेंगे। कर्मयोगी बन कर्मभोग चुक्तु करना - यह है कर्मातीत बनने की निशानी। योग से कर्मभोग को मुस्कराते हुए सूली से काँटा कर भस्म करना अर्थात् कर्मभोग को समाप्त करना है। व्याधि का रूप न बने। जो व्याधि का रूप बन जाता है वह स्वयं सदा व्याधि का ही वर्णन करता रहेगा। मन में भी वर्णन करेगा तो मुख से भी वर्णन करेगा। दूसरी बात - व्याधि का रूप होने कारण स्वयं भी परेशान होगा और दूसरों को भी परेशान करेगा। वह चिल्लायेगा और कर्मातीत चला लेगा। कोई को थोड़ा-सा दर्द होता है तो भी चिल्लाते बहुत हैं और कोई को ज्यादा दर्द होते भी चलाते हैं। कर्मातीत स्थिति वाला देह के मालिक होने के कारण कर्मभोग होते हुए भी न्यारा बनने का अभ्यासी है। बीचबी च में अशरीरी-स्थिति का अनुभव बीमारी से परे कर देता है। जैसे साइन्स के साधन द्वारा बेहोश कर देते हैं तो दर्द होते भी भूल जाते हैं, दर्द फील नहीं करते हैं क्योंकि दवाई का नशा होता है। तो कर्मातीत अवस्था वाले अशरीरी बनने के अभ्यासी होने कारण बीच-बीच में यह रूहानी इन्जेक्शन लग जाता है। इस कारण सूली से काँटा अनुभव होता है। और बात - फॉलो फादर होने के कारण विशेष आज्ञाकारी बनने का प्रत्यक्ष फल बाप से विशेष दिल की दुआयें प्राप्त होती हैं। एक अपना अशरीरी बनने का अभ्यास, दूसरा आज्ञाकारी बनने का प्रत्यक्षफल बाप की दुआयें, वह बीमारी अर्थात् कर्मभोग को सूली से कांटा बना देती हैं। कर्मातीत श्रेष्ठ आत्मा कर्मभोग को, कर्मयोग की स्थिति में परिवर्तन कर देगी। तो ऐसा अनुभव है वा बहुत बड़ी बात समझते हो? सहज है वा मुश्किल है? छोटी को बड़ी बात बनाना या बड़ी को छोटी बात बनाना - यह अपनी स्थिति के ऊपर है। परेशान होना वा अपने अधिकारीपन की शान में रहना - अपने ऊपर है। क्या हो गया वा जो हुआ वह अच्छा हुआ - यह अपने ऊपर है। यह निश्चय बुरे को भी अच्छे में बदल सकता है क्योंकि हिसाब-किताब चुक्तु होने के कारण वा समय प्रति समय प्रैक्टिकल पेपर ड्रामा अनुसार होने के कारण कोई बातें अच्छे रूप में सामने आयेंगी और कई बार अच्छा रूप होते हुए भी बाहर का रूप नुकसान वाला होगा वा जिसको आप कहते हो यह इस रूप से अच्छा नहीं हुआ। बातें आयेंगी अभी तक भी ऐसे रूप की बातें आती रही हैं और आती भी रहेंगी। लेकिन नुकसान के पर्दे के अन्दर फायदा छिपा हुआ होता है। बाहर का पर्दा नुकसान का दिखाई देता है, अगर थोड़ा-सा समय धैर्यवत् अवस्था, सहनशील स्थिति से अन्तर्मुखी हो देखो तो बाहर के पर्दे के अन्दर जो छिपा हुआ है आपको वही दिखाई देगा, ऊपर का देखते भी नहीं देखेंगे। होलीहंस हो ना? जब वह हंस कंकड़ और रत्न को अलग कर सकता है तो होलीहंस अपने छिपे हुए फायदे को ले लेगा, नुकसान के बीच फायदे को ढूढ़ लेगा। समझा? जल्दी घबरा जाते हैं ना। इससे क्या होता? जो अच्छा सोचा जाता वह भी घबराने के कारण बदल जाता है। तो घबराओ नहीं। कर्म को देख कर्म के बन्धन में नहीं फँसो। क्या हो गया, कैसे हो गया, ऐसा तो होना नहीं चाहिए, मेरे से ही क्यों होता, मेरा ही भाग्य शायद ऐसा है - यह रस्सियाँ बाँधते जाते हो। यह संकल्प ही रस्सियाँ हैं। इसलिए कर्म के बन्धन में आ जाते हो। व्यर्थ संकल्प ही कर्मबन्धन की सूक्ष्म रस्सियाँ हैं। कर्मातीत आत्मा कहेगी - जो होता है वह अच्छा है, मैं भी अच्छा, बाप भी अच्छा, ड्रामा भी अच्छा। यह बन्धन को काटने की कैंची का काम करती है। बन्धन कट गये तो कर्मातीत' हो गये ना। कल्याणकारी बाप के बच्चे होने के कारण संगमयुग का हर सेकण्ड कल्याणकारी है। हर सेकण्ड का आपका धन्धा ही कल्याण करना है, सेवा ही कल्याण करना है। ब्राह्मणों का आक्यूपेशन (धंधा) ही है विश्व-परिवर्तक, विश्व-कल्याणी। ऐसे निश्चयबुद्धि आत्मा के लिए हर घड़ी निश्चित कल्याणकारी है। समझा?

अभी तो कर्मातीत की परिभाषा बहुत है। जैसे कर्मों की गति गहन है, कर्मातीत स्थिति की परिभाषा भी बड़ी महान है। और कर्मातीत बनना जरूरी है। बिना कर्मातीत बनने के साथ नहीं चलेंगे। साथ कौन जायेंगे? जो समान होंगे। ब्रह्मा बाप को देखा - कर्मातीत स्थिति को कैसे प्राप्त किया? कर्मातीत बनने का फॉलो करना अर्थात् साथ चलने योग्य बनना। आज इतना ही सुनाते हैं, इतनी चेकिंग करना, फिर और सुनायेंगे। अच्छा!

सर्व अधिकारी स्थिति में स्थित रहने वाले, कर्मबन्धन को कर्म के सम्बन्ध में बदलने वाले, कर्मभोग को कर्मयोग की स्थिति में सूली से काँटा बनाने वाले, हर सेकण्ड कल्याण करने वाले, सदा ब्रह्मा बाप समान कर्मातीत स्थिति के समीप अनुभव करने वाले - ऐसे विशेष आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।



23-12-87   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


मनन शक्ति और मग्न स्थिति

किशमिश जैसा मीठा बनाने वाले, डबल राज्य अधिकारी बनाने वाले, हर रोज खुशी की खुराक खिलाने वाले बापदादा बोले

आज डबल ताजधारी, डबल राज्य अधिकारी बनाने वाले बाप विशेष अपने डबल विदेशी बच्चों से मिलन मनाने आये हैं। बापदादा देख रहे हैं कि चारों ओर के डबल विदेशी स्नेही, सहयोगी, सदा सेवा के उमंग- उत्साह से स्नेह और सेवा, दोनों में आगे बढ़ते जा रहे हैं। हर एक के मन में यह उत्साह है कि हमें बापदादा की प्रत्यक्षता का झंडा लहराना है। हर दिन उत्साह के कारण संगमयुग का उत्सव के प्रमाण अनुभव कर उड़ते जाता रहे हैं। क्योंकि जहाँ हर समय उत्साह है, चाहे बापदादा से याद द्वारा मिलन मनाने का, चाहे सेवा द्वारा प्रत्यक्षफल प्राप्त होने के अनुभव के उत्साह में - दोनों उत्साह हर घड़ी, हर दिन उत्सव का अनुभव कराते हैं। दुनिया के लोग विशेष उत्साह के दिन उत्साह अनुभव करते हैं लेकिन ब्राह्मण आत्माओं के लिए संगमयुग ही उत्साह का युग है। हर दिन नया उत्साह, उमंग-उल्लास, उत्साह स्वत: ही अनुभव होता रहता है। इसलिए संगमयुग के हर दिन खुशी की खुराक खाते, बाप द्वारा अनेक प्राप्तियों के गुण गाते डबल लाइट बन सदा उत्साह में नाचते रहते हैं। उत्सव में क्या करते हैं? खाते हैं, गाते हैं और नाचते हैं। अभी विदेश में विशेष क्रिसमस मनाने की तैयारिंयाँ कर रहे हैं। खाना, गाना, बजाना और नाचना यही करेंगे ना। और मिलन मनायेंगे। आप हर दिन क्या करते हो? अमृतवेले से लेकर रात तक यही काम करते हो ना। सेवा भी करते हो, सेवा अर्थात् ज्ञान डांस करते हो। बापदादा के गुणों के गीत आत्माओं को सुनाते हो। तो रोज उत्सव मनाते हो ना। कोई दिन ऐसा नहीं जो सच्चे ब्राह्मण यह कार्य न करते हों। संगमयुग का हर दिन उत्साह भरे उत्सव का दिन है। वह तो एक-दो दिन मनाते हैं। लेकिन बापदादा सभी ब्राह्मण बच्चों को ऐसे श्रेष्ठ बनाते हैं, ऐसी गोल्डन गिफ्ट देते हैं जो सदा के लिए सम्पन्न, सदा भरपूर बन जाते हो। वो लोग क्रिसमस के दिन का इन्तजार करते हैं कि क्रिसमस फादर आकर आज गिफ्ट देंगे। वह क्रिसमस फादर को याद करते और आप किशमस जैसा मीठा बनाने वाले बाप को याद करते हो। इतनी गिफ्ट मिलती है जो 21 जन्म यह गिफ्ट चलती रहती है! वह विनाशी गिफ्ट थोड़ा समय चल समाप्त हो जायेगी, यह अविनाशी गिफ्ट अनेक जन्म आपके साथ रहेगी। जैसे वो लोग क्रिसमस ट्री को सजाते हैं। बापदादा इस बेहद के वर्ल्ड ट्री में आप चमकते हुए सितारों को, संगमयुगी श्रेष्ठ धरती के सितारों को अविनाशी लाइट-माइट स्टार सजाते हैं। आप स्टार्स का यादगार स्थूल चमकती हुई लाइट्स के रूप में दिखाते हैं। या लाइट से सजाते या फूलों से सजाते हैं, यह किसका यादगार है? रूहानी खुशबूदार फूलों - ब्राह्मण आत्माओं का। यह सब उत्सव आप संगमयुगी ब्राह्मणों के उत्साह भरे उत्सवों के यादगार हैं। संगमयुग पर कल्प वृक्ष के चमकते हुए सितारे, रूहानी गुलाब आप ब्राह्मण आत्मायें हो। अपना ही यादगार स्वयं देख रहे हो। अविनाशी बाप द्वारा अविनाशी रत्न बनते हो, इसलिए अन्तिम जन्म तक अपना यादगार देख रहे हो। डबल रूप का यादगार देख रहे हो। संगमयुग के रूप का यादगार भिन्न-भिन्न रूप से, रीति से दिखाते हैं और दूसरा भविष्य देव-पद का यादगार देख रहे हैं। न सिर्फ अपने रूप का यादगार देखते हो लेकिन आप श्रेष्ठ आत्माओं के श्रेष्ठ कर्मों का भी यादगार है। बाप और बच्चों के चरित्र का भी यादगार है। तो अपना यादगार देख सहज याद आ जाता है ना कि हर कल्प हम ऐसी विशेष आत्मायें बनती हैं। बने थे, बने हैं और आगे भी बनते रहेंगे।

बापदादा ऐसे सदा याद में रहने वाले, जिन्हों का यादगार अभी है, ऐसे बच्चों को देख हर्षित हो रहे हैं। याद में रहने वालों का यह यादगार है। याद का महत्व यादगार देख रहे हो। तो डबल विदेशी बच्चों को अपना यादगार देख खुशी होती है ना। बापदादा को डबल विदेशी बच्चों को देख डबल खुशी होती है, क्यों? एक तो कोने-कोने में कल्प पहले वाले बिछुड़े हुए, खोये हुए बच्चे फिर से मिल गये। खोई हुई चीज़ अगर मिल जाती है तो खुशी होती है ना। बाप तो सभी बच्चों को देख खुश होते, चाहे भारतवासी हों, चाहे विदेशी। दूसरी बात डबल विदेशी बच्चों की है जो भिन्न धर्म, भिन्न रीति-रस्म के पर्दे के अन्दर छिपे हुए होते भी इस पर्दे को सहज समाप्त कर बाप के बन गये। यह पर्दा हटाने की विशेषता है। पर्दे के अन्दर से भी बाप को जानने की विशेषता डबल विदेशियों की है। तो डबल खुशी हो गई ना। डबल विदेशी बच्चों का निश्चय और नशा अपना अलौकिक है। बापदादा आज चारों ओर के डबल विदेशी बच्चों को विशेष सदा उत्साह में रहने वाले, हर दिन उत्सव मनाने वाले, हर दिन वरदाता बाप द्वारा विशेष वरदान वा विशेष आशीर्वाद लेने की डायमण्ड गिफ्ट बड़े दिल से बड़े दिन के लिए दे रहे हैं - सदा उत्सव भरी जीवन भव, सदा सहज उड़ती कला के अनुभवी श्रेष्ठ जीवन भव। अच्छा!

आज बापदादा वतन में तीन प्रकार के बच्चों को देख रहे थे। तीन प्रकार कौन-से देखे? 1. वर्णन करने वाले, 2. मनन करने वाले, 3. अनुभव में मग्न रहने वाले। यह तीन प्रकार के बच्चे देश-विदेश के सभी बच्चों में देखे। वर्णन करने वाले ब्राह्मण अनेक देखे, मनन करने वाले बीच की संख्या में देखे, अनुभव में मग्न रहने वाले उससे भी कम संख्या में देखे। वर्णन करना अति सहज है, क्योंकि 63 जन्मों के संस्कार हैं। एक सुनना, दूसरा जो सुना वह वर्णन करना - यह करते आये हो। भक्ति मार्ग है ही सुनना या किर्तन द्वारा, प्रार्थना द्वारा वर्णन करना। साथ-साथ देह अभिमान में आने के कारण व्यर्थ बोलना - यह पक्के संस्कार रहे हैं। जहाँ व्यर्थ बोल होता है वहाँ विस्तार स्वत: ही होता है। स्वचिन्तन अन्तर्मुखी बनाता है, परचिन्तन वर्णन करने के विस्तार में लाता है। तो वर्णन करने के संस्कार अनेक जन्मों के होने के कारण ब्राह्मण जीवन में भी अज्ञान से बदल ज्ञान में तो आ जाते हैं। ज्ञान को वर्णन करने में जल्दी होशियार हो जाते। वर्णन करने वाले वर्णन करने के समय तक खुशी वा शक्ति अनुभव करते हैं लेकिन सदाकाल के लिए नहीं। मुख से ज्ञान-दाता का वर्णन करने के कारण शक्ति और खुशी - यह ज्ञान का प्रत्यक्षफल प्राप्त हो जाता है लेकिन शक्तिशालीस्व रूप, सदा खुशी-स्वरूप नहीं बन सकते। फिर भी ज्ञान-रत्न हैं और डायरेक्ट भगवानुवाच है, इसलिए यथाशक्ति प्राप्ति स्वरूप बन जाते हैं।

मनन करने वाले सदा जो भी सुनते हैं उनको मनन कर स्वयं भी हर ज्ञान की पाइंट का स्वरूप बनते हैं। मनन शक्ति वाले गुण-स्वरूप, शक्ति-स्वरूप, ज्ञानस्व रूप और याद-स्वरूप स्वत: ही बन जाते हैं। क्योंकि मनन करना अर्थात् बुद्धि द्वारा ज्ञान के भोजन को हजम करना है। जैसे स्थूल भोजन अगर हजम नहीं होता है तो शक्ति नहीं बनती है, सिर्फ मुख से स्वाद तक रह जाता है। ऐसे वर्णन करने वालों को भी सिर्फ मुख के वर्णन तक रह जाता। लेकिन वह बुद्धि द्वारा मनन शक्ति द्वारा धारण कर शक्तिशाली बन जाते हैं। मनन शक्ति वाले सर्व बातों के शक्तिशाली आत्मायें बनते हैं। मनन करने वाले सदा स्वचिन्तन में बिजी रहने के कारण माया के अनेक विघ्नों से सहज मुक्त हो जाते हैं। क्योंकि बुद्धि बिजी है। तो माया भी बिजी देख किनारा कर लेती है। दूसरी बात - मनन करने से शक्तिशाली बनने के कारण स्वस्थिति कोई भी परिस्थिति में हार नहीं खिला सकती। तो मनन शक्ति वाला अन्तर्मुखी सदा सुखी रहता है। समय प्रमाण शक्तियों को कार्य में लगाने की शक्ति होने के कारण जहाँ शक्ति है वहाँ माया से मुक्ति है। तो ऐसे बच्चे विजयी आत्माओं की लिस्ट में आते हैं।

तीसरे बच्चे - सदा सर्व अनुभवों में मग्न रहने वाले। मनन करना - यह सेकण्ड स्टेज है लेकिन मनन करते हुए मग्न रहना - यह फर्स्ट स्टेज है। मग्न रहने वाले स्वत: ही निर्विघ्न तो रहते ही हैं लेकिन उससे भी ऊँची विघ्न-विनाशक स्थिति रहती है अर्थात् स्वयं निर्विघ्न बन औरों के भी विघ्नविनाशक बन सहयोगी बनते हैं। अनुभव सबसे बड़ी ते बड़ी अथार्टी है। अनुभव की अथार्टी से बाप समान मास्टर आलमाइटी अथार्टी की स्थिति का अनुभव करते हैं। मग्न अवस्था वाले अपने अनुभव के आधार से औरों को निर्विघ्न बनाने के एग्जाम्पल बनते हैं क्योंकि कमज़ोर आत्मायें उन्हों के अनुभव को देख स्वयं भी हिम्मत रखती हैं, उत्साह में आती हैं - हम भी ऐसे बन सकते हैं। मग्न रहने वाली आत्मायें बाप समान होने के कारण स्वत: ही बेहद के वैराग वृत्ति वाली, बेहद के सेवाधारी और बेहद के प्राप्ति के नशे में रहने वाले सहज बन जाते हैं। मग्न रहने वाली आत्मायें सदा कर्मातीत अर्थात् कर्मबन्धन से न्यारी और सदा बाप की प्यारी हैं।

मग्न आत्मा सदा तृप्त आत्मा, सन्तुष्ट आत्मा, सम्पन्न आत्मा, सम्पूर्णता के अति समीप आत्मा है। सदा अनुभव की अथार्टी के कारण सहज योगी, स्वत: योगी, ऐसी श्रेष्ठ जीवन, न्यारी और प्यारी जीवन का अनुभव करते हैं। उनके मुख से अनुभवी बोल होने के कारण दिल में समा जाते हैं और वर्णन करने वाले के बोल दिमाग तक बैठते हैं। तो समझा, फर्स्ट स्टेज क्या है? मनन करने वाले भी विजयी हैं लेकिन सहज और सदा में अन्तर है। मग्न रहने वाले सदा बाप की याद में समायें हुए होते हैं। तो अनुभव को बढ़ाओ लेकिन पहले वर्णन से मनन में आओ। मनन-शक्ति, मग्न-स्थिति को सहज प्राप्त करा लेती है। मनन करतेकरते अनुभव स्वत: ही बढ़ता जायेगा। मनन करने का अभ्यास अति आवश्यक है। इसलिए मनन-शक्ति को बढ़ाओ। सुनना और सुनाना तो अति सहज है। मनन-शक्ति वाले, मग्न रहने वाले सदा पूज्य; वर्णन करने वाले सिर्फ गायन योग्य होते हैं। तो सदा अपने को गायन-पूजन योग्य बनाओ। समझा?

सेवाधारी तो तीनों हैं लेकिन सेवा का प्रभाव नम्बरवार है। नम्बरवार में नहीं आना, नम्बरवन बनना। अच्छा!

सदा अपने को डबल राज्य अधिकारी, डबल ताजधारी श्रेष्ठ आत्मा अनुभव करने वाले, सदा मनन-शक्ति द्वारा मग्न-स्थिति का अनुभव करने वाले, सदा बाप समान अनुभवी, मास्टर आलमाइटी अथार्टी स्थिति के अनुभवी-मूर्त बनने वाले, सदा अपने शक्तिशाली पूज्य स्थिति को प्राप्त करने वाले - ऐसे नम्बरवन, सदा विजयी बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।

विदेशी भाई बहिनों के ग्रुप से

विदेश में रहते स्वदेश, स्व-स्वरूप की सदा स्मृति में रहने वाले हो? जैसे बाप परमधाम से इस पुराने पराये देश में प्रवेश हो आते हैं, ऐसे आप सभी भी परमधाम निवासी श्रेष्ठ आत्मायें, सहजयोगी आत्मायें ऐसे अनुभव करती हो कि हम भी परमधाम निवासी आत्मायें इस साकार शरीर में प्रवेश कर विश्व के कार्य अर्थ निमित्त हैं? आप भी अवतरित हुई ब्राह्मण आत्मायें हो। शूद्र जीवन समाप्त हुई, अब शुद्ध ब्राह्मण आत्मायें हो। ब्राह्मण कभी अपवित्र नहीं होते। ब्राह्मण अर्थात् पवित्र। तो ब्राह्मण हो या मिक्स हो? दोनों नाव में पाँव रखने वाले नहीं। एक ही नाव में दोनों पाँव रखने वाले। तो ब्राह्मण आत्मायें अवतरित आत्मायें हैं। वैसे भी जो भी आत्मायें अवतार बन कर आई हैं, अवतार रूप से प्रसिद्ध हैं, वह किसलिए आती हैं? श्रेष्ठ परिवर्तन करने के लिए। तो आप अवतारों का काम क्या है? विश्व-परिवर्तन करना, रात को दिन बनाना, नर्क को स्वर्ग बनाना। इतना बड़ा कार्य करने के लिए अवतरित हुए हो अर्थात् ब्राह्मण बने हो! यह काम याद रहता है ना? लौकिक सर्विस भी किसलिए करते हो? इन्कम भी कहाँ लगाने के लिए? सेन्टर खोलने के लिए करते हो वा लौकिक परिवार के लिए करते हो? अगर यह लक्ष्य रहता है कि कमाई भी ईश्वरीय कार्य में लगाने के लिये करते हैं, लौकिक कार्य करते भी सेवा ही याद रहती है ना? और किसके डायरेक्शन से करते हो? जब बाप की श्रीमत प्रमाण करते हो तो जिसकी श्रीमत है वही याद आयेगा ना? इसलिए बापदादा कहते हैं लौकिक कार्य करते भी सदा अपने को ट्रस्टी समझो। ट्रस्टी भी हो और वारिस भी हो। चाहे कहाँ भी रहते हो लेकिन मन से समर्पित हो तो वारिस हो। वारिस का अर्थ यह नहीं कि मधुबन में आकर रहो, लेकिन सेवा क्षेत्र पर रहते भी अगर मन से मेरापन नहीं है अर्थात् समर्पित हैं तो वारिस हैं। तो सरेण्डर हो या अभी कर्मबन्धन के अण्डर हो? जब मन से समर्पित हो गये तो समर्पित आत्मा को बन्धन नहीं लगेगा। क्योंकि सरेण्डर हो गये माना सभी बन्धनों को भी सरेन्डर कर दिया। अगर मन को कोई भी बन्धन खींचता है तो समझो बंधन है। बाकी आता है और चला जाता है तो बंधन नहीं। तो हम अवतार हैं, ऊपर से आये हैं - यह सदा स्मृति में रखो। अवतार आत्मायें कभी शरीर के हिसाब-किताब के बन्धन में नहीं आयेंगी, विदेही बन करके कार्य करेंगी। शरीर का आधार लेते हैं लेकिन शरीर के बंधन में नहीं बंधते। तो ऐसे बने हो? तो सदा अपने को शरीर के बंधन से न्यारा बनाने के लिए अवतार समझो। इस विधि से चलते रहो तो सदा बंधन-मुक्त न्यारे और सदा बाप के प्यारे बन जायेंगे।

सदा अपने को हर कदम में उड़ती कला वाली श्रेष्ठ आत्मायें अनुभव करते हो? क्योंकि उड़ती कला में जाने का समय अब थोड़ा-सा है और गिरती कला का समय बहुत है। सारा कल्प गिरते ही आये हो। उड़ती कला का समय सिर्फ अब है। तो थोड़े से समय में सदा के लिए उड़ती कला द्वारा स्वयं का और सर्व का कल्याण करना है। थोड़े समय में बहुत बड़ा काम करना है। तो इतनी रफ्तार से उड़ते रहेंगे तब यह सारा कार्य सम्पन्न कर सकेंगे। सिर्फ स्वयं का कल्याण नहीं करना है लेकिन प्रकृति सहित सर्व आत्माओं का कल्याण करना है। कितनी आत्मायें हैं! बहुत है ना। तो जब इतना स्वयं शक्तिशाली होंगे तब तो दूसरों को भी बना सकेंगे। अगर स्वयं ही गिरते-चढ़ते रहेंगे तो दूसरों का कल्याण क्या करेंगे? इसलिए हर कदम में उड़ती कला। चल तो रहे हैं, कर तो रहे हैं - ऐसे नहीं। जिस रफ्तार से चलना चाहिए, उस रफ्तार से चल रहे हैं? कर तो रहे हैं लेकिन जिस विधि से करना चाहिए, उस विधि से कर रहे हैं? कर तो सभी रहे हैं, किसी से पूछो - सेवा करते हो? तो सब कहेंगे - हाँ, कर रहे हैं। लेकिन विधि वा गति कौन-सी है - यह जानना और देखना है। समय तेज जा रहा है या स्वयं तीव्रगति से जा रहे हैं? सेवा की भी तीव्र विधि है या यथाशक्ति कर रहे हैं? इसलिए सदा उड़ते चलो। उड़ने वाले औरों को उड़ा सकते हैं।

(आबू तथा आबू के 3 गाँवों में मेडिकल विंग की ओर से स्वास्थ्य चेतना जागृति शिविर का आयोजन किया गया, जिसमें 12 डॉक्टर भाई बहिनों ने अनेक रोगियों का परीक्षण किया तथा दवाइयाँ दी। डॉक्टर्स ग्रुप के साथ बापदादा की मुलाकात)

सेवा का फल - अनेक आत्माओं की आशीर्वाद मिलती रहती है। सेवा द्वारा जो दूसरे खुश होते हैं तो उन्हों की खुशी आशीर्वाद बन जाती है। यह सेवा आशीर्वाद प्राप्त करने की सेवा है। तो कितनी आशीर्वादें जमा की? डबल सेवा की - तन भी खुश किया और मन के खुशी की विधि भी बताई। तन-मन खुश तो सदा के लिए जीवन खुश हो जाती। तो दोनों खुशी देने वाले आप डबल डॉक्टर हो। तो डबल डॉक्टरी की ना? क्योंकि चारों ओर सेवा करने से किसी का भी उल्हना नहीं रह जायेगा कि हमें तो पता ही नहीं था। तो कोने-कोने में सन्देश दिया? पहले चैरिटी बिगिन्स ऐट होम किया, हेडक्वार्टर से शुरू किया ना। क्योंकि आबू तथा आबू के गांव वाले उल्हना नहीं दे सकेंगे। यहाँ का प्रभाव चारों ओर स्वत: जाता है। सेवाधारियों की सेवा देख बाप भी खुश होते हैं। बहुत अच्छा किया। जैसा सोचा था वैसा सफल हुआ, आगे भी सफलता मिलती रहेगी। यात्रा का प्रोग्राम भी अच्छा बनाया है। इसलिए सफलता तो है ही। हिम्मत वाले भी हो और साथ-साथ उमंग-उत्साह भी है। तो जहाँ हिम्मत, उमंग-उत्साह है वहाँ सफलता है ही। और संगठन भी अच्छा। अगर एक अकेला करे तो नहीं कर सकता। लेकिन संगठन की शक्ति से एक दो को सहयोग मिलता है और जहाँ सर्व का सहयोग है वहाँ कार्य सहज है ही। अच्छा!



27-12-87   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


निश्चय बुद्धि विजयी रत्नों की निशानियाँ

बेफिकर बादशाह बनाने वाले, माया के तूफानों से पार ले जाने वाले बापदादा अपने निश्चय बुद्धि विजयी रत्नों प्रति बोले

आज बापदादा अपने चारों ओर के निश्चयबुद्धि विजयी बच्चों को देख रहे हैं। हर एक बच्चे के निश्चय की निशानियाँ देख रहे हैं। निश्चय की विशेष निशानियाँ - (1) जैसा निश्चय वैसा कर्म, वाणी में हर समय चेहरे पर रूहानी नशा दिखाई देगा। (2) हर कर्म, संकल्प में विजय सहज प्रत्यक्षफल के रूप में अनुभव होगी। मेहनत के रूप में नहीं, लेकिन प्रत्यक्षफल वा अधिकार के रूप में विजय अनुभव होगी। (3) अपने श्रेष्ठ भाग्य, श्रेष्ठ जीवन वा बाप और परिवार के सम्बन्ध-सम्पर्क द्वारा एक परसेन्ट भी संशय संकल्पमात्र भी नहीं होगा। (4) क्वेश्चन र्मा समाप्त, हर बात में बिन्दु बन बिन्दु लगाने वाले होंगे। (5) निश्चयबुद्धि हर समय अपने को बेफिकर बादशाह सहज स्वत: अनुभव करेंगे अर्थात् बार-बार स्मृति लाने की मेहनत नहीं करनी पड़ेगी। मैं बादशाह हूँ, यह कहने की मेहनत नहीं करनी पड़ेगी लेकिन सदा स्थिति के श्रेष्ठ आसन वा सिंहासन पर स्थित हैं ही। जैसे लौकिक जीवन में कोई भी परिस्थिति प्रमाण स्थिति बनती है। चाहे दु:ख की, चाहे सुख की, उस स्थिति की अनुभूति में स्वत: ही रहते हैं, बार-बार मेहनत नहीं करते - मैं सुखी हूँ वा मैं दु:खी हूँ। बेफिकर बादशाह की स्थिति का अनुभव स्वत: सहज होता है। अज्ञानी जीवन में परिस्थितियों प्रमाण स्थिति बनती है लेकिन शक्तिशाली अलौकिक ब्राह्मण जीवन में परिस्थिति प्रमाण स्थिति नहीं बनती लेकिन बेफिकर बादशाह की स्थिति वा श्रेष्ठ स्थिति बापदादा द्वारा प्राप्त हुई नॉलेज की लाइट-माइट द्वारा, याद की शक्ति द्वारा जिसको कहेंगे ज्ञान और योग की शक्तियों का वर्सा' बाप द्वारा मिलता है। तो ब्राह्मण जीवन में बाप के वर्से द्वारा वा सतगुरू के वरदान द्वारा वा भाग्यविधाता द्वारा प्राप्त हुए श्रेष्ठ भाग्य द्वारा स्थिति प्राप्त होती है। अगर परिस्थिति के आधार पर स्थिति है तो शक्तिशाली कौन हुआ? परिस्थिति पॉवरफुल हो जायेगी ना। और परिस्थिति के आधार पर स्थिति बनाने वाला कभी भी अचल, अडोल नहीं रह सकता। जैसे अज्ञानी जीवन में अभी-अभी देखो बहुत खुशी में नाच रहे हैं और अभी-अभी उल्टे सोये हुए हैं। तो अलौकिक जीवन में ऐसी हलचल वाली स्थिति नहीं होती। परिस्थिति के आधार पर नहीं लेकिन अपने वर्से और वरदान के आधार पर वा अपनी श्रेष्ठ स्थिति के आधार पर परिस्थिति को परिवर्तन करने वाला होगा। तो निश्चय बुद्धि इस कारण सदा बेफिकर बादशाह है। क्योंकि फिकर होता है कोई अप्राप्ति वा कमी होने के कारण। अगर सर्व प्राप्तिस्वरूप है, मास्टर सर्वशक्तिवान है तो फिकर किस बात का रहा?

(6) निश्चयबुद्धि अर्थात् सदा बाप पर बलिहार जाने वाले। बलिहार अर्थात् सर्वन्श समर्पित। सर्व वंश सहित समर्पित। चाहे देह भान में लाने वाले विकारों का वंश, चाहे देह के सम्बन्ध का वंश, चाहे देह के विनाशी पदार्थों की इच्छाओं का वंश। सर्व-वंश में यह सब आ जाता है। सर्वन्श समर्पित वा सर्वन्श त्यागी एक ही बात है। समर्पित होना इसको नहीं कहा जाता कि मधुबन में बैठ गये वा सेवाकेन्द्रों पर बैठ गये। यह भी एक सीढ़ी है जो सेवा अर्थ अपने को अर्पण करते हैं लेकिन सर्वन्श अर्पित' - यह सीढ़ी की मंजल है। एक सीढ़ी चढ़ गये लेकिन मंज़िल पर पहुँचने वाले निश्चय बुद्धि की निशानी है - तीनों ही वंश सहित अर्पित। तीनों ही बातें स्पष्ट जान गये ना। वंश तब समाप्त होता है जब स्वप्न वा संकल्प में भी अंश मात्र नहीं। अगर अंश है तो वंश पैदा हो ही जायेगा। इसलिए सर्वन्श त्यागी की परिभाषा अति गुह्य है। यह भी कभी सुनायेंगे।

(7) निश्चयबुद्धि सदा बेफिकर, निश्चिन्त होगा। हर बात में विजय प्राप्त होने के नशे में निश्चित अनुभव करेगा। तो निश्चय, निश्चिन्त और निश्चित - यह हर समय अनुभव करेगा।

(8) वह सदा स्वयं भी नशे में रहेंगे और उनके नशे को देख दूसरों को भी यह रूहानी नशा अनुभव होगा। औरों को भी रूहानी नशे में बाप की मदद से स्वयं की स्थिति से अनुभव करायेगा।

निश्चयबुद्धि की वा रूहानी नशे में रहने वाले के जीवन की विशेषतायें क्या होंगी? पहली बात - जितना ही श्रेष्ठ नशा उतना ही निमित्त भाव हर जीवन के चरित्र में होगा। निमित्त भाव की विशेषता के कारण निर्मान बुद्धि। बुद्धि पर ध्यान देना - जितनी निर्मान बुद्धि होगी उतनी निर्मान, नव निर्माण कहते हो ना। तो नव निर्माण करने वाली बुद्धि होगी। तो निर्मान भी होंगे, निर्माण भी होंगे। जहाँ यह विशेषतायें हैं उसको ही कहा जाता है - निश्चयबुद्धि विजयी। निमित्त, निर्मान और निर्माण। निश्चयबुद्धि की भाषा क्या होगी? निश्चयबुद्धि की भाषा में सदा मधुरता तो कॉमन बात है लेकिन उदारता होगी। उदारता का अर्थ है सर्व आत्माओं के प्रति आगे बढ़ाने की उदारता होगी। पहले आप', ‘मैं-मैं' नहीं। उदारता अर्थात् दूसरे को आगे रखना। जैसे ब्रह्मा बाप ने सदैव पहले जगदम्बा वा बच्चों को रखा - मेरे से भी तीखी जगदम्बा है, मेरे से भी तीखे यह बच्चे हैं। यह उदारता की भाषा है। और जहाँ उदारता है, स्वयं के प्रति आगे रहने की इच्छा नहीं है, वहाँ ड्रामा अनुसार स्वत: ही मनइच्छित फल प्राप्त हो ही जाता है। जितना स्वयं इच्छा मात्रम् अविद्या की स्थिति में रहते, उतना बाप और परिवार अच्छा, योग्य समझ उसको ही पहले रखते हैं। तो पहले आप' मन से कहने वाले पीछे रह नहीं सकते। वह मन से पहले आप' कहता तो सर्व द्वारा पहले आप' हो ही जाता है। लेकिन इच्छा वाला नहीं। तो निश्चयबुद्धि की भाषा सदा उदारता वाली भाषा, सन्तुष्टता की भाषा, सर्व के कल्याण की भाषा। ऐसी भाषा वाले को कहेंगे-निश्चयबुद्धि विजयी।' निश्चयबुद्धि तो सभी हो ना? क्योंकि निश्चय ही फाउण्डेशन है।

लेकिन जब परिस्थितियों का, माया का, संस्कारों का, भिन्न-भिन्न स्वभावों का तूफान आता है तब मालूम पड़ता है कि निश्चय का फाउण्डेशन कितना मजबूत है। जैसे इस पुरानी दुनिया में भिन्न-भिन्न प्रकार के तूफान आते हैं ना। कभी वायु का, कभी समुद्र का... ऐसे यहाँ भी भिन्न-भिन्न प्रकार के तूफान आते हैं। तूफान क्या करता है? पहले उड़ाता है फिर फैंकता है। तो यह तूफान भी पहले तो अपनी तरफ मौज में उड़ाते हैं। अल्पकाल के नशे में ऊँचे ले जाते हैं। क्योंकि माया भी जान गई है कि बिना प्राप्ति यह मेरी तरफ होने वाले नहीं है। तो पहले आर्टिफीशल प्राप्ति में ऊपर उड़ाती है। फिर नीचे गिरती कला में ले आती है। चतुर है। तो निश्चयबुद्धि की नजर त्रिनेत्री होती है, तीसरे नेत्र से तीनों कालों को देख लेते हैं, इसलिए कभी धोखा नहीं खा सकते। तो निश्चय की परख तूफान के समय होती है। जैसे तूफान बड़े-बड़े पुराने वृक्ष के फाउण्डेशन को उखाड़ लेते हैं। तो यह माया के तूफान भी निश्चय के फाउण्डेशन को उखाड़ने की कोशिश करते हैं। लेकिन रिजल्ट में उखड़ते कम हैं, हिलते ज्यादा हैं। हिलने से भी फाउण्डेशन कच्चा हो जाता है। तो ऐसे समय पर अपने निश्चय के फाउण्डेशन को चेक करो। वैसे कोई से भी पूछेंगे - निश्चय पक्का है? तो क्या कहेंगे? बहुत अच्छा भाषण करेंगे। अच्छा भी है निश्चय में रहना। लेकिन समय पर अगर निश्चय हिलता भी है तो निश्चय का हिलना अर्थात् जन्म-जन्म की प्रालब्ध से हिलना। इसलिए तूफानों के समय चेक करो - कोई हद का मान-शान न दे वा व्यर्थ संकल्पों के रूप में माया का तूफान आये, जो चाहना रखते हो वह चाहना अर्थात् इच्छा पूर्ण न हो, ऐसे टाइम पर जो निश्चय है कि - मैं समर्थ बाप की समर्थ आत्मा हूँ' - वह याद रहता है वा व्यर्थ समर्थ के ऊपर विजयी हो जाता है? अगर व्यर्थ विजय प्राप्त कर लेता है तो निश्चय का फाउण्डेशन हिलेगा ना। समर्थ के बजाए अपने को कमज़ोर आत्मा अनुभव करेगा। दिलशिकस्त हो जायेंगे। इसलिए कहते हैं कि तूफान के समय चेक करो। हद का मान-शान, ‘मैं-पन' - रूहानी शान से नीचे ले आता है। हद की कोई भी इच्छा - इच्छा मात्रम् अविद्या के निश्चय से नीचे ले आते हैं। तो निश्चय का अर्थ यह नहीं है कि मैं शरीर नहीं, मैं आत्मा हूँ। लेकिन कौनसी आत्मा हूँ! वह नशा, वह स्वमान समय पर अनुभव हो, इसको कहते हैं - निश्चयबुद्धि विजयी।' कोई पेपर है ही नहीं और कहे - मैं तो पास विद् ऑनर हो गया, तो कोई उसको मानेगा? सर्टीफिकेट चाहिए ना। कितना भी कोई पास हो जाए, डिग्री ले लेवे लेकिन जब तक सर्टिफकेट नहीं मिलता है तो वैल्यू नहीं होती। पेपर के समय पेपर दे पास हो सर्टिफकेट ले - बाप से, परिवार से, तब उसको कहेंगे निश्चयबुद्धि विजयी'। समझा? तो फाउण्डेशन को भी चेक करते रहो। निश्चयबुद्धि की विशेषता सुनी ना। जैसा समय वैसे रूहानी नशा जीवन में दिखाई दे। सिर्फ अपना मन खुश न हो लेकिन लोग भी खुश हों। सभी अनुभव करें कि हाँ, यह नशे में रहने वाली आत्मा है। सिर्फ मनपसन्द नहीं लेकिन लोकपसन्द, बाप पसन्द। इसको कहते हैंविजयी।' अच्छा!

सर्व निश्चयबुद्धि विजयी रत्नों को, सर्व निश्चिन्त, बेफिकर बच्चों को, सर्व निश्चित विजय के नशे में रहने वाले रूहानी आत्माओं को, सर्व तूफानों को पार कर तोफा अनुभव करने वाले विशेष आत्माओं को, सदा अचल, अडोल, एकरस स्थिति में स्थित रहने वाले निश्चयबुद्धि बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।

विदेशी भाई बहिनों से बापदादा की मुलाकात

अपने को समीप रत्न अनुभव करते हो? समीप रत्न की निशानी क्या है? वह सदा, सहज और स्वत: ज्ञानी तू आत्मा, योगी तू आत्मा, गुणमूर्त सेवाधारी अनुभव करेंगे। समीप रत्न के हर कदम में यह चार ही विशेषतायें सहज अनुभव होंगी, एक भी कम नहीं होगी। ज्ञान में कम हो, योग में तेज हो या दिव्यगुणों की धारणा में कमज़ोर हो, वह सबमें सदा ही सहज अनुभव करेगा। समीप रत्न किसी भी बात में मेहनत नहीं अनुभव करेंगे लेकिन सहज सफलता अनुभव करेंगे। क्योंकि बापदादा बच्चों को संगमयुग पर मेहनत से ही छुड़ाते हैं। 63 जन्म मेहनत की है ना। चाहे शरीर की मेहनत की, चाहे मन की मेहनत की। बाप को प्राप्त करने के लिए भिन्न-भिन्न साधन अपनाते रहे। तो यह मन की मेहनत की। और धन की भी देखो, जो सर्विस करते हो, जिसको बापदादा नौकरी कहते, उसमें भी देखो कितनी मेहनत करते हो! उसमें भी तो मेहनत लगती है ना। और अभी आधाकल्प के लिए यह नौकरी नहीं करेंगे, इससे भी छूट जाये। न लौकिक नौकरी करेंगे, न भक्ति करेंगे - दोनों से मुक्ति मिल जायेगी। अभी भी देखो, चाहे लौकिक कार्य करते भी हो लेकिन ब्राह्मण जीवन में आने से लौकिक कार्य करते हुए भी अन्तर लगता है ना। अभी यह लौकिक कार्य करते भी डबल लाइट रहते हो, क्यों? क्योंकि लौकिक कार्य करते भी यह खुशी रहती है कि यह कार्य अलौकिक सेवा के निमित्त कर रहे हैं। अपने मन की तो इच्छायें नहीं है ना। तो जहाँ इच्छा होती है वहाँ मेहनत लगती है। अभी निमित्त मात्र करते हो क्योंकि मालूम है कि तन, मन, धन - तीनों लगाने से एक का पद्मगुणा अविनाशी बैंक में जमा हो रहा है। फिर जमा किया हुआ खाते रहना। पुरूषार्थ से - योग लगाने का, ज्ञान सुनने-सुनाने का, इस मेहनत से भी छूट जायेंगे। कभी-कभी क्लासेज सुनकर थक जाते हैं ना। वहाँ तो लौकिक राजनीतिक पढ़ाई भी जो होगी ना, वह भी खेल-खेल में होगी, इतने किताब नहीं याद करने पड़ेंगे। सब मेहनत से छूट जायेंगे। कइयों को पढ़ाई का भी बोझ होता है। संगमयुग पर मेहनत से छूटने के संस्कार भरते हो। चाहे माया के तूफान आते भी हैं, लेकिन यह माया से विजय प्राप्त करना भी एक खेल समझते हो, मेहनत नहीं। खेल में भी क्या होता है? जीत प्राप्त करना होता है ना। तो माया से भी विजय प्राप्त करने का खेल करते हो। खेल लगता है या बड़ी बात लगती है? जब मास्टर सर्वशक्तिवान स्टेज पर स्थित होते हो तो खेल लगेगा। और ही चैलेन्ज करते हो कि आधाकल्प के लिए विदाई लेकर जाओ। तो विदाई समारोह मनाने आती है, लड़ने नहीं आती है। विजयी रत्न - हर समय, हर कार्य में विजयी हैं। विजयी हो ना? (हाँ,जी) तो वहाँ जाकर भी हाँ जी करना'। फिर भी अच्छे बहादुर हो गये हैं। पहले थोड़े जल्दी घबरा जाते थे, अभी बहादुर हो गये हैं। अभी अनुभवी हो गये हैं। तो अनुभव की अथॉर्टी वाले हो गये, परखने की भी शक्ति आ गई है, इसलिए घबराते नहीं हैं। अनेक बार के विजयी थे, हैं और रहेंगे - यही स्मृति सदा रखना। अच्छा!

विदाई के समय दादियों से

(दादी जानकी बम्बई से 3-4 दिन का चक्र लगाकर आई है) अभी से ही चक्रवर्ती बन गई। अच्छा है, यहाँ भी सेवा है, वहाँ भी सेवा की। यहाँ रहते भी सेवा करते और जहाँ जाते वहाँ ही सेवा हो जाती। सेवा का ठेका बहुत बड़ा लिया है। बड़े ठेकेदार हो ना। छोटे-छोटे ठेकेदार तो बहुत हैं लेकिन बड़े ठेकेदार को बड़ा काम करना पड़ता है। (बाबा आज मुरली सुनते बहुत मजा आया) है ही मजा। अच्छा है, आप लोग कैच करके औरों को क्लीयर कर सकते हो। सभी तो एक जैसे कैच कर नहीं सकते। जैसे जगदम्बा मुरली सुनकर क्लीयर करके, सहज करके सभी को धारण कराती रही, ऐसे अभी आप निमित्त हो। कई नयेन ये तो समझ भी नहीं सकते हैं। लेकिन बापदादा सिर्फ सामने वालों को नहीं देखते। जो बैठे हैं सभा में, उन्हें ही नहीं देखते, सभी को सामने रखते हैं। फिर भी सामने अनन्य होते हैं तो उन्हों के प्रति निकलता है। आप लोग तो पढ़कर भी कैच कर सकते हो। अच्छा!

पार्टियों के साथ अव्यक्त बापदादा की मुलाकात

(1) स्वयं को स्वराज्य अधिकारी, राजयोगी श्रेष्ठ आत्मायें अनुभव करते हो? स्वराज्य मिला है वा मिलना है? स्वराज्य अधिकारी अर्थात् राजयोगी आत्मा सदा ही स्वराज्य की अधिकारी होने के कारण शक्तिशाली है। राजा अर्थात् शक्तिशाली। अगर राजा हो और निर्बल हो, तो शक्तिहीन को राजा कौन मानेगा? प्रजा उनके ऊपर और ही राज्य करेगी। तो स्वराज्य अधिकारी अर्थात् सदा शक्तिशाली आत्मा ही कर्मेन्द्रियों पर अर्थात् अपने कर्मचारियों के ऊपर राज्य कर सकती है, जैसे चाहे चला सकती है। नहीं तो प्रजा, राजा को चलायेगी। प्रजा, राजा को चलाये तो प्रजा ही राजा हो गई ना। नियम प्रमाण राजा, प्रजा को चलाता है। अगर प्रजा का राज्य है तो राजा नहीं कहेंगे, प्रजा का प्रजा पर राज्य कहेंगे। किन्तु बाप आकर राजयोगी बनाता है, प्रजा का प्रजा पर राज्य नहीं सिखाता है। तो सभी राज्य अधिकारी हो ना? कभी अधीन, कभी अधिकारी - ऐसे तो नहीं? सदा अधिकारी, एक भी कर्मेन्द्रिय धोखा न दे। इसको कहते हैं -राजयोगी वा राज्य अधिकारी।' तो सदा इस स्वमान में स्थित रहो कि हम अधिकारी हैं, अधीन होने वाले नहीं! यह है ईश्वरीय नशा। यह नशा सदा रहता है या कभी-कभी? कभी है, कभी नहीं - ऐसा न हो। क्योंकि अभी के संस्कार अनेक जन्म चलेंगे। अगर अभी के संस्कार सदा के नहीं हैं, कभी-कभी के हैं, तो अनेक जन्म में भी कभी-कभी राज्य अधिकारी बनेंगे। सदा राज्य अधिकारी अर्थात् रॉयल फैमिली के नजदीक रहने वाले। तो संस्कार भरने का समय अभी है, जैसा भरेंगे वैसा चलता रहेगा। तो अटेन्शन किस समय देना होता? जब रिकार्ड भरते वा टेप भरते हैं। तो अटेन्शन भरने के समय देते हैं। चलने के समय तो चलता ही रहेगा लेकिन भरने के समय जैसा भरेंगे वैसे चलता रहेगा। तो भरने का समय अभी है। अभी नहीं तो कभी नहीं। फिर अटेन्शन देना चाहो तो भी नहीं दे सकेंगे क्योंकि भरने का समय समाप्त हो जायेगा। फिर जो भरा वह चलता रहेगा। अच्छा!

(2) सदा अपने को स्वदर्शन चक्रधारी आत्मायें अनुभव करते हो? स्वदर्शन चक्रधारी अर्थात् जहाँ स्वदर्शन चक्र है वहाँ अनेक माया के चक्कर समाप्त हो जाते हैं। तो माया के अनेक चक्करों से बचने वाले अर्थात् स्वदर्शन चक्रधारी। जहाँ माया के चक्कर हैं वहाँ स्वदर्शन चक्र नहीं। क्योंकि स्वदर्शन चक्र शक्तिशाली है, इस शक्तिशाली चक्र के आगे माया स्वत: ही भाग जाती है। तो ऐसे बने हो? स्वप्न में भी माया का चक्कर वार न करे। पहले भी सुनाया है कि जो बाप के गले का हार हैं, वह कभी माया से हार खा नहीं सकते। अगर माया से हार खाते हैं तो बाप के गले का हार नहीं बन सकते। तो गले का हार हो या हार खाने वाले हो? बाप ने सभी बच्चों को महावीर विजयी बनाया, एक भी कमज़ोर नहीं। तो महावीर की निशानी है यह - स्वदर्शन चक्र'। सदा स्वदर्शन चक्र चलता रहे तो स्वत: सहज विजयी रहेंगे। यह बाप की विशेषता है जो सभी को चक्रधारी बनाते हैं, सभी को श्रेष्ठ भाग्यवान बनाते हैं। बाप किसी को भी कम नहीं बनाते। बाप एक जैसा सभी को मालामाल बनाते हैं। बाप एक ही समय सभी को सब खज़ाने देता है, अलग नहीं देता। लेकिन नम्बर क्यों बनते हैं? लेने वाले नम्बरवार बन जाते हैं। देने वाला नम्बरवार नहीं बनाता। सब बाप के स्नेही सहयोगी तो हो ही। लेकिन शक्तिशाली बनने में अन्तर पड़ जाता है। बापदादा तो सबको महावीर रूप में देखता है। अच्छा! सदा बाप की दिल में रहने वाले और सदा बाप को दिल पर बिठाने वाले। सदा बाप की दिल में रहने वाले ही निरन्तर योगी हैं।

(3) सदा अपने को राजऋषि' समझते हो? एक तरफ है राज्य, दूसरे तरफ है वैराग - दोनों का बैलेन्स हो। बेहद का वैराग, वैराग नहीं लेकिन प्राप्तिस्वरूप बना देता है क्योंकि पुरानी दुनिया से वैराग लाते हो और नई दुनिया के मालिक बन जाते हो। तो नाम वैराग है लेकिन मिलती प्राप्ति है। छोड़ने में ही लेना है। एक देते हो और पद्म लेते हो! तो बेहद का वैराग राज्य भाग्य दिलाने वाला है। एक जन्म के लिए वैराग अनेक जन्मों के लिए सदा श्रेष्ठ भाग्य। ऐसे राजऋषि हो? राजऋषि कुमार और कुमारियों का ही गायन है। ऐसी राजऋषि आत्माओं को विश्व की आत्मायें दिल से प्यार करती है। चैतन्य से भी ज्यादा आपके जड़ चित्रों को प्यार से याद करते हैं। क्योंकि त्याग का भाग्य प्राप्त हुआ है। तो ऐसे राजऋषि आत्मायें हैं - इस नशे में सदा रहो। अच्छा!



31-12-87   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


नया वर्ष - बाप समान बनने का वर्ष

सदा दिलखुश मिठाई खिलाने वाले बापदादा अपने फरिश्ता बनने के पुरूषार्थी बच्चों प्रति बोले

आज त्रिमूर्ति बाप तीन संगम देख रहे हैं। एक है - बाप और बच्चों का संगम, दूसरा है - यह युग संगम, तीसरा है - आज वर्ष का संगम। तीनों ही संगम अपनी-अपनी विशेषता का है। हर एक संगम, परिवर्तन होने की प्रेरणा देने वाला है। संगमयुग विश्व-परिवर्तन की प्रेरणा देता है। बाप और बच्चों का संगम सर्व श्रेष्ठ भाग्य, एवं श्रेष्ठ प्राप्तियों की अनुभूति कराने वाला है। वर्ष का संगम नवीनता की प्रेरणा देने वाला है। तीनों ही संगम अपने-अपने अर्थ से महत्त्व रखते हैं। आज सभी देश-विदेश के बच्चे विशेष पुरानी दुनिया का नया वर्ष मनाने के लिए आये हैं। बापदादा सभी साकार रूपधारी वा आकार रूपधारी बुद्धि के विमान से पहुँचे हुए बच्चों को देख रहे हैं और नये वर्ष मनाने की डायमण्ड तुल्य मुबारक दे रहे हैं। क्योंकि सब बच्चे हीरे तुल्य जीवन बना रहे हैं। डबल हीरो बने हो? एक तो बाप के अमूल्य रत्न हो, हीरो डायमण्ड हो। दूसरा हीरो पार्ट बजाने वाले हीरो हो। इसलिए बापदादा हर सेकण्ड हर संकल्प, हर जन्म की अविनाशी मुबारक दे रहे हैं। आप श्रेष्ठ आत्माओं का सिर्फ आज का दिन मुबारक वाला नहीं। लेकिन हर समय श्रेष्ठ भाग्य, श्रेष्ठ प्राप्ति के कारण बाप को भी हर समय आप मुबारक देते हो और बाप बच्चों को मुबारक देते सदा उड़ती कला में ले जा रहे हैं। इस नये वर्ष में यही विशेष नवीनता जीवन में अनुभव करते रहो - जो हर सेकेण्ड और संकल्प में बाप को तो सदा मुबारक देते हो लेकिन आप सभी हर ब्राह्मण आत्मा वा कोई भी अन्जान, अज्ञानी आत्मा भी सम्बन्ध वा सम्पर्क में आये तो बाप समान हर समय हर आत्मा के प्रति दिल के खुशी की मुबारक वा बधाई निकलती रहे। कोई कैसा भी हो लेकिन आपके खुशी की बधाई उनको भी खुशी की प्राप्ति का अनुभव कराये। बधाई देना - यह खुशी की लेन-देन करना है। कभी भी किसी को बधाई देते तो वह खुशी की बधाई है। दुःख के समय बधाई नहीं कहेंगे। तो हर एक आत्मा को देख खुश होना वा खुशी देना - यही दिल की मुबारक वा बधाई है। दूसरी आत्मा भले आप से कैसा भी व्यवहार करे लेकिन आप बापदादा की हर समय बधाई लेने वाली श्रेष्ठ आत्मायें सदा हरेक को खुशी दो। वह काँटा दे, आप बदले में रूहानी गुलाब दो। वह दु:ख दे, आप सुखदाता के बच्चे सुख दो। जैसे से -- वैसे नहीं बन जाओ, अज्ञानी से अज्ञानी नहीं बन सकते। संस्कारों के वा स्वभाव के वशीभूत आत्मा से आप भी वशीभूत' नहीं बन सकते।

आप श्रेष्ठ आत्माओं के हर संकल्प में सर्व के कल्याण की, श्रेष्ठ परिवर्तन की, ‘वशीभूत' से स्वतन्त्र बनाने की दिल की दुआयें वा खुशी की मुबारक सदा नैचुरल रूप में दिखाई दें। क्योंकि आप सभी दाता अर्थात् देवता हो, देने वाले हो। तो इस नये वर्ष में विशेष खुशियों की मुबारकें देते रहो। ऐसे नहीं कि सिर्फ आज के दिन वा कल के दिन चलते-फिरते मुबारक हो, मुबारक हो - यह कहके नया वर्ष आरम्भ नहीं करना। कहना भले, दिल से कहना। लेकिन सारा वर्ष कहना, सिर्फ दो दिन नहीं कहना। किसी को भी अगर दिल से मुबारक देते हो तो वह आत्मा दिल की मुबारक ले दिलखुश हो जाए। तो हर समय दिलखुश मिठाई बाँटते रहना। सिर्फ एक दिन नहीं मिठाई खाना वा खिलाना। कल के दिन मुख की मिठाइयाँ जितनी चाहिए उतनी खाना, सभी को बहुत-बहुत मिठाई खिलाना। लेकिन ऐसे ही सदा हर एक को दिल से दिलखुश मिठाई खिलाते रहो तो कितनी खुशी होगी! आजकल की दुनिया में तो फिर भी मुख की मिठाई खाने में डर भी है लेकिन यह दिलखुश मिठाई जितनी चाहिए खा सकते हो, खिला सकते हो। इसमें बीमारी नहीं होगी। क्योंकि बापदादा बच्चों को समान बनाते हैं। तो विशेष इस वर्ष में बाप समान बनने की - यही विशेषता विश्व के आगे, ब्राह्मण परिवार के आगे दिखाओ। जैसे हर एक आत्मा ‘‘बाबा'' कहते मधुरता वा खुशी का अनुभव करती है। वाह बाबा' कहने से मुख मीठा होता है क्योंकि प्राप्ति होती है। ऐसे हर ब्राह्मण आत्मा, कोई भी ब्राह्मण का नाम लेते ही खुश हो जाए। क्योंकि बाप समान आप सभी भी एक दो को बाप द्वारा प्राप्त हुई विशेषता द्वारा आपस में लेन-देन करते हो, आपस में एक दो के सहयोगी साथी बन उन्नति को प्राप्त कराते हो। जीवन साथी नहीं बनना, लेकिन कार्य के साथी भले बनो। हर एक आत्मा अपनी प्राप्त विशेषताओं से आपस में खुशी की लेन-देन करते भी हो और आगे भी सदा करते रहना। जैसे बाप को याद करते ही खुशी में नाचते हैं, वैसे हर एक ब्राह्मण आत्मा को, हर ब्राह्मण याद करते रूहानी खुशी का अनुभव करे, हद की खुशी का नहीं। हर समय बाप की सर्व प्राप्तियों का साकार निमित्त रूप अनुभव करे। इसको कहते हैं - हर संकल्प वा हर समय एक दो को मुबारक देना। सबका लक्ष्य तो एक ही है कि बाप समान बनना ही है। क्योंकि समान के बिना तो न बाप के साथ स्वीट होम में जायेंगे और न ब्रह्मा बाप के साथ राज्य में आयेंगे। जो बापदादा के साथ अपने घर में जायेंगे वही ब्रह्मा बाप के साथ राज्य में उतरेंगे। ऊपर से नीचे आयेंगे ना। सिर्फ साथ जायेंगे नहीं लेकिन साथ आयेंगे भी। पूज्य भी ब्रह्मा के साथ बनेंगे और पुजारी भी ब्रह्मा बाप के साथ बनेंगे। तो अनेक जन्मों का साथ है। लेकिन उसका आधार इस समय समान बन साथ चलने का है।

इस वर्ष की विशेषता देखो - नम्बर भी 8, 8 हैं। आठ का कितना महत्त्व है! अगर अपना पूज्य रूप देखो तो अष्ट भुजाधारी, अष्ट शक्तियाँ उसी की ही यादगार है - अष्ट रत्न, अष्ट राजधानियाँ - अष्ट का भिन्न-भिन्न रूप से गायन है। इसलिए यह वर्ष विशेष बाप समान बनने का दृढ़ संकल्प का वर्ष मनाओ। जो भी कर्म करो बाप समान करो। संकल्प करो, बोल बोलो, सम्बन्ध-सम्पर्क में आओ, ‘बाप समान।' ब्रह्मा बाप समान बनना तो सहज है ना। क्योंकि साकार है। 84 जन्म लेने वाली आत्मा है। पूज्य अथवा पुजारी सभी की अनुभवी आत्मा है। पुरानी दुनिया के, पुराने संस्कारों के, पुराने हिसाब-किताब के, संगठन में चलने और चलाने - सब बातों के अनुभवी है। तो अनुभवी को फॉलो करना मुश्किल नहीं होता है। और बाप तो कहते हैं कि ब्रह्मा बाप के हर कदम के ऊपर कदम रखो। कोई नया मार्ग नहीं निकालना है, सिर्फ हर कदम पर कदम रखना है। ब्रह्मा को कापी करो। इतनी अक्ल तो है ना।! सिर्फ मिलाते जाओ। क्योंकि, बापदादा - दोनों ही आपके साथ चलने के लिए रूके हुए हैं। निराकार बाप परमधाम निवासी हैं लेकिन संगमयुग पर साकार द्वारा पार्ट तो बजाना पड़ता है ना। इसलिए आपके इस कल्प का पार्ट समाप्त होने के साथ बाप, दादा - दोनों का भी पार्ट इस कल्प का समाप्त होगा। फिर कल्प रिपीट होगा। इसलिए निराकार बाप भी आप बच्चों के पार्ट साथ बँधा हुआ है। शुद्ध बन्धन है। लेकिन पार्ट का बन्धन तो है ना। स्नेह का बन्धन, सेवा का बन्धन... लेकिन मीठा बन्धन है। कर्मभोग वाला बन्धन नहीं है।

तो नया वर्ष सदा मुबारक का वर्ष है। नया वर्ष सदा बाप समान बनने का वर्ष है। नया वर्ष ब्रह्मा बाप को फॉलो करने का वर्ष है। नया वर्ष बाप के साथ स्वीटहोम और स्वीट राजधानी में साथ रहने के वरदान प्राप्त करने का वर्ष है। क्योंकि अभी से सदा साथ रहेंगे। अभी का साथ रहना सदा साथ रहने का वरदान है। नहीं तो बाराती बनेंगे और नजदीक वाले सम्बन्धी के बजाए दूर के सम्बन्धी बनेंगे। कभी-कभी मिलेंगे। कभी-कभी वाले तो नहीं हो ना? पहले जन्म में पहले राज्य का सुख और पहले नम्बर के राज्य अधिकारी विश्व महाराजा-विश्व महारानी के रायल सम्बन्ध, उसकी झलक और फलक न्यारी होगी! अगर दूसरे नम्बर विश्व महाराजा-महारानी की रायल फैमली में भी आ जाओ तो उसमें भी अन्तर है। एक जन्म का फर्क भी पड़ जायेगा। इसको भी साथ नहीं कहेंगे। कोई भी नई चीज़ एक बार भी यूज कर लो तो उसको यूज किया हुआ कहेंगे ना। नया तो नहीं कहेंगे। साथ चलना है, साथ आना है, साथ में पहले जन्म का राज्य भाग्य रायल फैमली बन करना है। इसको कहते हैं - समान बनना'। तो क्या करना है, समान बनना है वा बाराती बनना है?

बापदादा अज्ञानी और ज्ञानियों का एक अन्तर देख रहा था। एक दृश्य के रूप में देख रहा था। बाप के बच्चे क्या हैं और अज्ञानी क्या हैं? आज की दुनिया में विकारी आत्मायें क्या बन गई हैं? जैसे आजकल कोई भी बड़ी फैक्ट्रीज वा जहाँ भी आग जलती है तो आग का धुआँ निकालने के लिये चिमनी बनाते हैं ना। उससे सदैव धुआँ निकलता है और सदैव काली दिखाई देगी। तो आज का मानव विकारी होने के कारण, किसी-न-किसी विकार वश होने के कारण संकल्प में, बोल में, इर्ष्या, घृणा या कोई-न-कोई विकार का धुआँ निकालता रहता है। आँखों से भी विकारों का धुआँ निकलता रहता और ज्ञानी बच्चों के हर बोल वा संकल्प से, फरिश्तापन से दुआयें निकलती हैं। उसका है विकारों की आग का धुआँ और ज्ञानी तू आत्माओं के फरिश्ते रूप से सदा दुआयें निकलती। कभी भी संकल्प में भी किसी विकार के वश, विकार की अग्नि का धुआं नहीं निकलना चाहिए, सदा दुआयें निकलें। तो चेक करो - कभी दुआओं के बदले धुआं तो नहीं निकलता? फरिश्ता है ही दुआओं का स्वरूप। जब कोई भी ऐसा संकल्प आये या बोल निकले तो यह दृश्य सामने लाना - मैं क्या बन गया, फरिश्ते से बदल तो नहीं गया? व्यर्थ संकल्पों का भी धुआँ है। वह जलती हुई आग का धुआँ है, वह आधी आग का धुआँ है। पूरी आग नहीं जलती है तो भी धुआं निकलता है ना। तो ऐसे फरिश्ता रूप हो जो सदा दुआयें निकलती रहें। इसको कहते हैं - मास्टर दयालु, कृपालु, मर्सीफुल'। तो अभी यह पार्ट बजाओ। अपने ऊपर भी कृपा करो तो दूसरे पर भी कृपा करो। जो देखा, जो सुना - वर्णन नहीं करो, सोचो नहीं। व्यर्थ को न सोचना, न देखना - यह है अपने ऊपर कृपा करना। और जिसने किया वा कहा, उसके प्रति भी सदा रहम करो, कृपा करो अर्थात् जो व्यर्थ सुना, देखा उस आत्मा के प्रति भी शुभ भावना, शुभ कामना की कृपा करो। और कोई कृपा नहीं वा कोई हाथ से वरदान नहीं देंगे लेकिन मन पर नहीं रखना - यह है उस आत्मा के प्रति कृपा करना। अगर कोई भी व्यर्थ बात देखी हुई वा सुनी हुई वर्णन करते हो अर्थात् व्यर्थ बीज का वृक्ष बढ़ाते हो, वायुमण्डल में फैलाते हो - यह वृक्ष बन जाता है। क्योंकि एक जो भी बुरा देखता वा सुनता है तो अपने एक मन में नहीं रख सकता, दूसरे को जरूर सुनायेगा, वर्णन जरूर करेगा। और एक का एक होता है तो क्या हो जायेगा? एक से अनेकता में आ जाते हैं। और जब एक से एक, एक से एक माला बन जाती है तो जो करने वाला होता है वह और ही व्यर्थ को स्पष्ट करने के लिए जिद्द में आ जाता है। तो वायुमण्डल में क्या फैला? व्यर्थ। यह धुआँ फैला ना। यह दुआ हुई या धुआँ? इसलिए व्यर्थ देखते हुए, सुनते हुए स्नेह से, शुभ भावना से समा लो। विस्तार नहीं करो। इसको कहते हैं - दूसरे के ऊपर कृपा करना अर्थात् दुआ करना। तो तैयारी करो समान बन साथ चलने और साथ रहने की। ऐसे तो नहीं समझते हो कि अभी यहाँ ही रहना ठीक है, साथ चलने की तैयारी अभी नहीं करें, थोड़ा और रूकें? रूकने चाहते हो? रूकना भी हो तो बाप समान बन करके रूको। ऐसे ही नहीं रूको, लेकिन समान बन के रूको। फिर भले रूको, छुट्टी है। आप तो एवररेडी हो ना? सेवा रूकाती है वा ड्रामा रूकाता है, वह और बात है लेकिन अपने कारण से रूकने वाले नहीं बनो। कर्मबन्धन वश रूकने वाले नहीं। कर्मों के हिसाब-किताब का चौपड़ा साफ और स्पष्ट होना चाहिए। समझा। अच्छा!

चारों ओर के सर्व बच्चों को नये वर्ष की महानता से महान बनने की मुबारक सदा साथ रहे। सर्व हिम्मत वाले, फॉलो फादर करने वाले, सदा एक दो में दिलखुश मिठाई खिलाने वाले, सदा फरिश्ता बन दुआयें देने वाले, ऐसे बाप समान दयालु, कृपालु बच्चों को समान बनने की मुबारक, साथ-साथ बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।

डबल विदेशी भाई-बहिनों से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात

सदा अपने को संगमयुगी श्रेष्ठ आत्मायें अनुभव करते हो? श्रेष्ठ आत्माओं का हर संकल्प वा बोल वा हर कर्म स्वत: ही श्रेष्ठ होता है। तो हर कर्म श्रेष्ठ बन गया है ना? जो जैसा होता है वैसा ही उसका कार्य होता है। तो श्रेष्ठ आत्माओं का कर्म भी श्रेष्ठ ही होगा ना। जैसी स्मृति होती है वैसी स्थिति स्वत: होती है। तो श्रेष्ठ स्थिति नैचुरल स्थिति है क्योंकि हो ही विशेष आत्मायें। ऊंचे ते ऊंचे बाप के बन गये तो जैसा बाप वैसे बच्चे हुए ना। बच्चों के लिए सदा कहा जाता है - सन शोज फादर'। तो ऐसे बच्चे हो? आप सबके दिल में कौन समाया है? जो दिल में होगा वही बुद्धि में होगा, बोल में होगा, संकल्प में भी वही होगा। आप लोग कार्ड भी हार्ट' का ले आते हो ना। गिफ्ट भी हार्ट की भेजते हो। तो यह अपनी स्थिति का चित्र भेजते हो ना। तो जो बाप की दिल पर सदा रहता है वह सदा ही जो बोलेगा, जो करेगा वह स्वत: ही बाप समान होगा। बाप समान बनना मुश्किल नहीं है ना? सिर्फ डाट (बिन्दी) याद रखो तो मुश्किल नाट (Not) हो जायेगी। डाट को भूलते हो तो नाट नहीं होता। कितना सहज है डाट बनाना वा डाट लगाना। सारा ज्ञान इसी एक डाट' शब्द में समाया हुआ है। आप भी बिन्दी, बाप भी बिन्दी और जो बीत गया उसे भी बिन्दी लगा दो, बस। छोटा बच्चा भी लिखने जब शुरू करता है तो पहले जब पेन्सिल कागज पर रखता है तो क्या बन जाता? डाट बनेगा ना? तो यह भी बच्चों का खेल है। यह पूरा ही ज्ञान की पढ़ाई खेल-खेल में है। मुश्किल काम नहीं है। इसलिये काम भी सहज है और हो भी सहज-योगी'। बोर्ड में भी लिखते हो - ‘‘सहज राजयोग''। तो ऐसा सहज अनुभव करना, इसे ही ज्ञान कहा जाता है। जो नॉलेजफुल हैं वह स्वत: ही पावरफुल भी होंगे। क्योंकि नॉलेज को लाइट और माइट कहा जाता है। तो नॉलेजफुल आत्मायें सहज ही पावरफुल होने के कारण हर बात में सहज आगे बढ़ती हैं। तो यह सारा ग्रुप सहज-योगियों का ग्रुप है ना। ऐसे ही सहज-योगी रहना। अच्छा!

नये वर्ष के शुभारम्भ में बापदादा ने 12 बजे सभी बच्चों को बधाई दी

(दादियों ने बापदादा को गले लगाया) सदा स्नेह की भाकी में रहने वाली, सदा बाप की श्रीमत की पालना में पलने वाली हो। सदा ही बाप के सहयोग की छत्रछाया में रहने वाली छत्रधारी आत्मायें हो। तो सभी बच्चों को नये वर्ष की पहली घड़ी की मुबारक।

विश्व आध्यात्मिक सहयोग बैंक का उद्घाटन बापदादा ने मोमबत्ती जला कर किया

सभी सेवाधारी सेवा के उमंग-उत्साह से सेवा की इस विधि को आरम्भ कर रहे हैं। जहाँ सदा संगठन की, स्नेह की अंगुली है वहाँ कार्य सफल हुआ ही पड़ा है। यह संगठन रूप में सेवा को आगे बढ़ाने की निमित्त विधि है। तो सभी को सेवा का उमंग है ना? सभी का सहयोग लेने के पहले सर्व ब्राह्मणों का सहयोग है ही है। इसलिए जहाँ सर्व ब्राह्मणों का सहयोग है, वहाँ विश्व की आत्माओं का कल्याण हुआ ही पड़ा है। तो यह भी अच्छी एक विधि निकाली है। कितना बड़ा कार्य रचा है! बहुत बड़ा कार्य है। बड़ी दिल से इस रचे हुए कार्य को स्नेह, सहयोग से आगे बढ़ाते चलो। सफलता तो अधिकार है ही। अच्छा!

विदाई के समय दादियों से मुलाकात

संगमयुग छोटा-सा युग है, बहुत समय - 1250 वर्ष भी चलता तो भी थक जाते ना? इसलिए छोटा-सा युग है। अच्छा! आप दोनों (दादी, दादी जानकी) किससे भरपूर हो? (आपके वरदानों से) बाप के वरदान तो हैं ही लेकिन आज सुनाया कि जैसे बाप का नाम लेते ही मुँह मीठा हो जाता है, ऐसे आप निमित्त आत्माओं का भी बाप-समान पार्ट चल रहा है। बाप ने सब समानता का वरदान दे दिया। ‘‘समान भव'' का वरदान मिला हुआ है, इसलिए न चाहते भी आप लोगों से बाप की अनुभूति होती है। इसको ही कहते हैं - बाप-समान बनने वाले एम्जाम्पल। समझा? इस समय शोकेश के पहले नम्बर के शोपीस हो। आपको देख कर के और सभी स्वत: ही बाप को याद करते हैं। आप लोगों को देख करके और कोई बात याद आयेगी? बाप याद आयेगा, बाप के चरित्र याद आयेंगे। इसको कहते हैं - आप में बाप है, बाप में आप हैं'। इसी को ही लोगों ने कह दिया है कि बाप मेरे में है, अन्दर बैठा है। लेकिन समानता के कारण समान बन जाते हैं ना, इसलिए कहते हैं कि बाप बैठा है। तो आप लोगों का स्लोगन है - आप बाप में, बाप आप में'। आप और बाप अलग हो ही नहीं सकते। जैसे बाप और दादा जुड़वें हो गये हैं ना। तो आप लोग क्या हो? जुड़वें हो या अलग हो? सेकण्ड भी अलग नहीं हो सकते। इसको कहते हैं - बाप समान। अच्छा!

अब तो घर जाना है? (कब जाना है?) समय कभी भी बता के नहीं आयेगा, अचानक ही आयेगा। जब समझेंगे समीप है तो नहीं आयेगा। जब समझने से थोड़े अलबेले होंगे तो अचानक आयेगा। आने की निशानी अलबेलेपन वाले अलबेलेपन में आयेंगे, नहीं तो नम्बर कैसे बनेंगे? फिर तो सब कहें - हम भी अष्ट हैं, हम भी पास हैं। लेकिन थोड़ा बहुत अचानक होने से ही नम्बर होंगे। बाकी जो महारथी हैं उन्हों को टचिंग आयेगी। लेकिन बाप नहीं बतायेगा। टचिंग ऐसे ही आयेगी जैसे बाप ने सुनाया। लेकिन बाप कभी एनाउन्स नहीं करेंगे। एक सेकण्ड पहले भी नहीं कहेंगे कि एक सेकण्ड बाद होना है। यह भी नहीं कहेंगे। नम्बरवार बनने हैं, इसलिए यह हिसाब रखा हुआ है।

अच्छा! ओम शान्ति