29-06-70 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“समर्पण का विशाल रूप”
आप
सभी अपने चारों मूर्त को जानते हो? आज बापदादा हरेक के अभी
संगम समय की (न कि भविष्य की) ही चार मूर्त एक-एक में देख रहे
हैं । वह चार मूर्त कौन सी है? अपनी मूर्त को जानते हो? (कोई-कोई
ने बताया) यह सब जो वर्णन किया – ऐसी मूर्त अब बनी नहीं हो व
बन गयी हो? कब बनेंगे? लास्ट सो फ़ास्ट जायेंगे, ऐसा सोचा है ।
लेकिन लास्ट समय फ़ास्ट जा सकेंगे? जितना बहुत समय से अपने को
सफलता मूर्त बनायेंगे उतना ही बहुत समय वहाँ सम्पूर्ण राज्य के
अधिकारी बनेंगे । समझो अगर कोई बहुत समय से सफलतामूर्त नहीं
बनते हैं तो उसी अनुसार राज्य का अधिकार भी थोड़ा समय ही मिलता
है । सम्पूर्ण समय नहीं मिलता । जो बहुत समय से सम्पूर्ण बनने
के पुरुषार्थ में मगन रहते हैं वही सम्पूर्ण समय राज्य के
अधिकारी बनते हैं । चार मूर्त कौन सी देख रहे हैं । यह भी
सम्पूर्ण बनने का लक्ष्य है । एक तो देख रहे हैं ज्ञान मूर्त,
2 गुण मूर्त, 3 दान मूर्त और 4 सम्पूर्ण सफलता मूर्त । सुनाया
था ना कि सर्विस करना अर्थात् महादानी बनना । तो हरेक की यह
चार मूर्त देख रहे हैं । चार मुख का भी गायन है ना । एक मूर्त
में चार मूर्त का साक्षात्कार कराना है – सभी को । अगर एक
मूर्त भी कम है तो वहाँ भी इतनी कमी पड़ जाती है । जैसे यहाँ
साथ में ले जाने वाला सामान बुक कराते हैं तो वहाँ मिल जाता है
। ऐसे ही यह भी बुकिंग ऑफिस है । जितना यहाँ बुक करेंगे उतना
वहाँ प्राप्ति होगी । यही सोचो कि चार ही मूर्त बने हैं?
चारमुखी बने हैं? जितना यहाँ अपनी मूर्त में सर्व बातें धारण
करेंगे उतना ही भविष्य राज्य तो मिलेगा ही लेकिन द्वापर में जो
आपकी जड़ मूर्तियाँ बनेंगी वह भी इस संगम की मूर्ति प्रमाण ही
बनेंगी । समझा । अब सम्पूर्ण मूर्त बनने के लिए क्या लक्ष्य
सामने रखेंगे? जैसे भक्ति वालों को समझाते हो ना कि चित्र को
देखकर वह ऐसे किस पुरुषार्थ से बने सो समझो । तो आप सम्पूर्ण
मूर्त बनने के लिए क्या लक्ष्य सामने रखेंगे? उन्होंने क्या
लक्ष्य रख । साकार में सम्पूर्ण लक्ष्य तो एक ही है ना । उसने
कर्मातीत बनने के लिए क्या लक्ष्य रखा? किन बातों में सम्पूर्ण
बने? सम्पूर्ण शब्द कितना विशालता से धारण किया – यह मालूम है?
शब्द तो एक ही है सम्पूर्ण । लेकिन कितना विशाल रूप से धारण कर
ऐसे बने । सर्व समर्पण के लक्ष्य से ही सम्पूर्ण बने ।
जितना समर्पण उतना सम्पूर्ण । लेकिन समर्पण का भी विशाल रूप
क्या है? जितना विशाल रूप से इसको धारण करेंगे उतना ही विशाल
बुद्धि भी बनते और विश्व के अधिकारी भी बनते । वह विशालता क्या
थी? इसमें भी चार बातें हैं । एक तो अपना हर संकल्प समर्पण,
दूसरा हर सेकंड समर्पण अर्थात् समय समर्पण, तीसरा कर्म भी
समर्पण और चौथा सम्बन्ध और संपत्ति जो है वह भी समर्पण । सर्व
सम्बन्ध का भी समर्पण चाहिए । उस सम्बन्ध में लौकिक सम्बन्ध तो
आ ही जाता है । लेकिन यह जो आत्मा और शरीर का सम्बन्ध है उसका
भी समर्पण । इतने तक सम्बन्ध को समर्पण किया है? विनाशी सम्पति
तो कोई बड़ी बात नहीं है । लेकिन जो अविनाशी संपत्ति सुख, शांति,
पवित्रता, प्रेम, आनंद की प्राप्ति होती है जन्मसिद्ध अधिकार
के नाते, उसको भी और आत्माओं की सेवा में समर्पण कर दिया ।
बच्चों की शांति में स्वयं की शांति समझी । तो आत्माओं को शांति
देने में ही अपनी शांति समझें । यह है लौकिक संपत्ति और
साथ-साथ ईश्वरीय संपत्ति को भी समर्पण करके अपनी साक्षी स्थिति
में रहना । तो समर्पण शब्द का इतना बड़ा विशाल रहस्य है । समझा
। ऐसे विशाल रूप से धारण करने वाले ही सम्पूर्ण मूर्त और सफलता
मूर्त बनेंगे । तो समर्पण शब्द कोई साधारण अर्थ से न समझना ।
लौकिक का समर्पण करना सहज है लेकिन जो ईश्वरीय प्राप्ति होती
है वह भी समर्पण करना अर्थात् महादानी बनना और औरों का शुभ
चिन्तक बनना, यह नंबरवार यथायोग्य यथाशक्ति होता है । इतने तक
समर्पण बनने वाले को सम्पूर्ण समर्पण कहा जाता है । ऐसे
सम्पूर्ण-मूर्त समर्पण-मूर्त बने हो? अपनापन बिल्कुल समा जाए ।
जब कोई चीज़ किसमें समा जाती है तो फिर समान हो जाती है । समाना
अर्थात् समान हो जाना । तो अपना-पन जितना ही समायेंगे उतना ही
समानतामूर्त बनेंगे । आप लोग जब अन्य आत्माओं की सेवा करते हो
तो क्या लक्ष्य रख करते हो? (आप समान बनाने का) आप समान भी नहीं
लेकिन बाप समान बनाना है । आप समान बनायेंगे तो जो आप में कमी
होगी वह उनमें भी आ जाएगी । इसलिए अगर सम्पूर्ण बनना है तो आप
समान भी नहीं लेकिन बाप समान बनाना है । जैसे बाप अपने से भी
उंच बनाते हैं ना । बाप समान बनायेंगे तो फॉलो फ़ादर हो जायेगा
।
जैसे बाप ने अपने से ऊँचा बनाया वैसे अपने से भी ऊँचा बाप समान
बनायेंगे तो गोया फॉलो फ़ादर किया । तो अब आप समान भी नहीं
लेकिन बाप समान बनाना है । अगर आपने लक्ष्य ही आप समान बनाने
का रखा तो उन्हों में तो बहुत कमी रह जायेगी । क्योंकि लक्ष्य
ही आपने इतना रखा । इसलिए लक्ष्य सदैव सम्पूर्णता का रखना है ।
जो सम्पूर्ण-मूर्त प्रत्यक्ष प्रख्यात हो चुके हैं उसका लक्ष्य
नहीं नहीं रखना है । जो अब गुप्त हैं, प्रत्यक्षता में नहीं आये
हैं उनका भी लक्ष्य नहीं रख सकते । क्योंकि जैसी एम वैसा
ऑब्जेक्ट होता है । तो एम को श्रेष्ठ रखेंगे ताकि प्राप्ति भी
श्रेष्ठ होगी । अब तीसरी आँख सिव ऊपर निशाने पर एक टिक लटकी
हुई होनी चाहिए । जैसे कोई मग्न अवस्था में होता है तो उनके
नयन एक टिक हो जाते हैं ना । वैसे यह तीसरा नेत्र, दिव्यबुद्धि
का यह नेत्र भी सदैव एक टिक, एक रस रहे । एक टिक अर्थात् एक
में ही टिका हुआ, मग्न-रूप देखने में आये । तीसरे नेत्र का
साक्षात्कार कैसे होगा? मस्तक से । मस्तक में खलक, नयनों में
फलक देखने में आएगी । इससे भी पता पड़ेगा कि इनका तीसरा नेत्र
मग्न है या युद्धस्थल में है । जब आँख थोड़ी ठीक नहीं होती है
तो पलक घड़ी-घड़ी नीचे ऊपर होती रहती है । यह भी तीसरा नेत्र अगर
यथार्थ रीति से ठीक होगा अर्थात् दिव्य बुद्धि यथार्थ रीति से
स्वच्छ होगी तो एक टिक होगा । आँख में कोई किचड़ा आदि पड़ जाता
है तो क्या होता है? पलकें हिलने लगती हैं । कीचड़े की निशानी
है हिलना । यथार्थ तंदुरुस्ती की निशानी है स्थिर हो जाना ।
वैसे यह तीसरा नेत्र सदैव एक टिक हो । यह साक्षात्कार आप के
मस्तक से होगा । नयनों से होगा तो चेक करो हमारा तीसरा नेत्र
जल्दी-जल्दी बन्द होता है और खुलता है व सदैव खुला ही रहता है
।
कोई भी याद में मस्त हो जाते हैं तो भी आंखें एक टिक हो जाती
है, तो यहाँ भी सम्पूर्ण स्थिति में वही टिक सकेगा जो एक ही
याद में मग्न होगा । नहीं तो नयनों के माफिक बंद होते खुलते
रहेंगे । एकटिक नहीं हो सकेंगे । अगर कोई किचड़ा हो तो जल्दी
निकालो । नहीं तो हंसी की बात सुनाएं । समझो आपका कोई
साक्षात्कार करता है और आपकी मूर्त नीचे ऊपर होती रहेगी तो क्या
साक्षात्कार करेंगे? जैसे फोटो निकालने के समय हिलना बंद कराते
हैं न । अगर हिला तो फ़ोटो ख़राब । वैसे ही आपकी अवस्था हिलती
रहेगी तो क्या साक्षात्कार होगा? जैसे फोटो निकालते समय अपने
को कितना स्थिर करते हो वैसे ही सदैव समझो कि हमारे भक्त हर
समय हमारा साक्षात्कार कर रहे हैं । तो साक्षात्कार मूर्त
अर्थात् स्थिरमूर्त होंगे । नहीं तो भक्तों को साक्षात्कार
स्पष्ट नहीं होगा । स्पष्ट साक्षात्कार कराने के लिए
स्थिरबुद्धि, एकटिक स्थिति आवश्यक है । समझा । अभी से ही भक्त
लोग एक-एक का साक्षात्कार करेंगे । वह बीज अर्थात् संस्कार उन
भक्तों की आत्मा में भरेगा । फिर उस संस्कार से मर्ज होंगे और
फिर द्वापर में वही संस्कार इमर्ज होगा । जैसे आप समझाते हो ना
कि धर्म-स्थापक यहाँ से सन्देश लेकर, भरकर जायेंगे वही फिर
इमर्ज होगा । वैसे आप सभी के अपने-अपने भक्त और प्रजा संस्कार
ले जाएगी । फिर उसी प्रमाण इमर्ज होते हैं । अगर भक्तों के
सामने स्पष्ट मूर्त ही नहीं दिखायेंगे तो उनमें वह संस्कार कैसे
भरेंगे? यह भी कर्तव्य करना है । सिर्फ प्रजा नहीं बनानी है,
साथ-साथ भक्तों में भी वह संस्कार भरना है । कितनी प्रजा बनी
है, कितने भक्त बने हैं यह भी मालूम पड़ेगा । भक्तों की माला और
प्रजा की माला दोनों प्रत्यक्ष होंगे । हरेक को अपनी दोनों
मालाओं का साक्षात्कार होगा । अपना भी साक्षात्कार होगा कि मैं
कहाँ माला में पिरोया हुआ हूँ । यह भी एक गुप्त रहस्य है कि
किन्हों के भक्त ज्यादा होते, किन्हों की प्रजा जास्ती बनती ।
जैसे कोई की राजधानी बड़ी होते भी संपत्ति कम होती, कोई की
राजधानी कम होती परन्तु संपत्ति ज्यादा होती है । यह भी गुप्त
रहस्य है । जो कभी खोलेंगे । अभी तो लक्ष्य रखो – प्रजा बनाने
का । भक्त तो लास्ट में मिनट मोटर के समान बनेंगे । यहाँ भी
भक्त वंदना करेंगे । पूजा नहीं । गायन करेंगे, पूजा वही वहाँ
करेंगे । यह सब बाद में मालूम पड़ेगा ।
अच्छा !!!