15-03-72
ओम शान्ति अव्यक्त
बापदादा मधुबन
त्याग
और भाग्य
अपने को
त्याग-तपस्वीमूर्त
समझते हो? सबसे
बड़े ते बड़ा मेहनत
का त्याग कौन-सा
है? (देह-अभिमान)
ज्ञान का अभिमान
वा बुद्धि का अभिमान
भी क्यों आता है?
पुराने संस्कारों
का त्याग भी क्यों
नहीं
होता है? उसका
मुख्य
कारण
देह-अभिमान है।
देह-अभिमान को
छोड़ना बड़े ते बड़ा
त्याग है, जो हर
सेकेण्ड अपने आपको
चेक करना पड़ता
है। और जो स्थूल
त्याग है वह कोई
एक बार त्याग करने
के बाद किनारा
कर लेते हैं। लेकिन
यह जो देह-अभिमान
का त्याग है वह
हर सेकेण्ड देह
का आधार लेते रहना
है लेकिन यहॉं
सिर्फ रहते हुए
न्यारा बनना है।
इसी कारण हर सेकेण्ड
देह के साथ आत्मा
का गहरा सम्बन्ध
होने कारण देह
का अभिमान भी बहुत
गहरा हो गया है।
अब इसको मिटाने
के लिए मेहनत लगती
है। अपने आप से
पूछो कि सब प्रकार
का त्याग किया
है? क्योंकि जितना
त्याग करेंगे उतना
ही भाग्य प्राप्त
करेंगे - वर्तमान
समय में वा भविष्य
में भी। ऐसे नहीं
समझना कि संगमयुग
में सिर्फ त्याग
करना है और भविष्य
में भाग्य लेना
है। ऐसे नहीं है।
जो जितना त्याग
करता है और जिस
घड़ी त्याग करता
है, उसी घड़ी जितना
त्याग उनके रिटर्न
में उनको भाग्य
ज़रूर प्राप्त
होता है। संगमयुग
में त्याग वा प्रत्यक्षरूप
में भाग्य क्या
मिलता है, यह जानते
हो? अभी-अभी भाग्य
क्या मिलता है?
सतयुग में तो मिलेगा
जीवन-मुक्ति पद,
अब क्या मिलता
है? आपको अपने त्याग
का भाग्य मिलता
है? संगमयुग में
त्याग का भाग्य
बड़े ते बड़ा यही
मिलता है कि स्वयं
भाग्य बनाने वाला
अपना बन जाता है।
यह सबसे बड़ा भाग्य
हुआ ना! यह सिर्फ
संगमयुग पर ही
प्राप्त होता है
जो स्वयं भगवान
अपना बन जाता है।
अगर त्याग नहीं
तो बाप भी अपना
नहीं। देह का भान
है तो क्या बाप
याद है? बाप के समीप
सम्बन्ध का अनुभव
होता है जब देहभान
का त्याग करते
हो तो। देहभान
का त्याग करने
से ही देही-अभिमानी
बनने से पहली प्राप्ति
क्या होती है? यही
ना कि निरन्तर
बाप की स्मृति
में रहते हो अर्थात्
हर सेकेण्ड के
त्याग से हर सेकेण्ड
के लिए
बाप के सर्व
सम्बन्ध का, सर्व
शक्तियों का अपने
साथ अनुभव करते
हो। तो
यह सबसे बड़ा
भाग्य नहीं? यह
भविष्य में नहीं
मिलेगा। इसलिए
कहा जाता है - यह
सहज ज्ञान और सहज
राजयोग भविष्य
फल नहीं लेकिन
प्रत्यक्षफल देने
वाला है। भविष्य
तो वर्तमान के
साथ-साथ बांधा
हुआ ही है लेकिन
सर्वश्रेष्ठ भाग्य
सारे कल्प के अन्दर
और कहां नहीं प्राप्त
करते हो। इस समय
ही त्याग और तपस्या
से बाप का हर सेकेण्ड
का अनुभव करते
हो अर्थात् बाप
को सर्व सम्बन्धों
से अपना बना लेते
हो। पुकार यह नहीं
करते थे। पुकारते
तो कुछ और थे लेकिन
प्राप्ति क्या
हो गई? जो न संकल्प,
न स्वप्न में था
वह प्राप्ति हो
रही है ना। तो जो
न संकल्प, न स्वप्न
में बात हो वह प्राप्त
हो जाए - इसको कहा
जाता है भाग्य।
जो
चीज़
मेहनत से
प्राप्त होती है
उसको भाग्य नहीं
कहा जाता है। स्वत:
ही मिलने का असम्भव
से सम्भव हो जाता
है, न उम्मीदवार
से उम्मीदवार हो
जाते हैं, इसलिए
इसको कहा जाता
है भाग्य। यह भाग्य
नहीं मिला? पुकारते
तो कुछ और थे -- कि
हमको सिर्फ अपना
कुछ- न-कुछ बना लो।
इतना ऊंच बनना
नहीं चाहते थे
लेकिन मिला क्या?
स्वयं तो बन गये
लेकिन बाप को भी
सब-कुछ बना लिया।
तो यह भाग्य नहीं?
संगमयुग का श्रेष्ठ
भाग्य इसी त्याग
से मिलता है। सदैव
यह सोचो कि अगर
देहभान का त्याग
नहीं करेंगे अर्थात्
देही अभिमानी नहीं
बनेंगे तो भाग्य
भी अपना नहीं बना
सकेंगे अर्थात्
संगमयुग का जो
श्रेष्ठ भाग्य
है उनसे वंचित
रहेंगे। अगर मानो
सारे दिन में कुछ
समय देह-अभिमान
का त्याग रहता
है और कुछ समय नीचे
रहते हैं अर्थात्
देह के भान का त्याग
नहीं, तो उतना ही
संगमयुग में श्रेष्ठ
भाग्य से वंचित
होते हैं। भाग्य
बनाने वाला बाप
जब हर सेकेण्ड
भाग्य बनाने की
विधि सुना रहे
हैं तो क्या करना
चाहिए? उसी विधि
से सर्व सिद्धियों
को प्राप्त करना
चाहिए। विधि को
न अपनाने कारण
क्या रिजल्ट होती
है? न अवस्था की
वृद्धि होती है
और न सर्व प्राप्तियों
की सिद्धि होती
है। तो क्या करना
चाहिए? विधाता
द्वारा मिली हुई
विधियों को सदा
अपनाना चाहिए जिससे
वृद्धि भी होगी
और सिद्धि भी होगी।
तो चेक करो-संकल्प
के रूप में व्यर्थ
संकल्प का कहां
तक त्याग किया
है? वृत्ति सदा
भाई-भाई की रहनी
चाहिए; उस वृति
को कहां तक अपनाया
है और देह में
देहधारीपन
की वृति का कहां
तक त्याग किया
है? समझते हो मैसूर
वाले? आज तो खास
इन्हों से मिलने
आये हैं ना क्योंकि
इतने दूर से, मेहनत
से, स्नेह से आये
हैं, तो बाप को भी
दूरदेश से आना
ही पड़ा है। तो खुशी
होती है ना। आज
खास दूरदेश से
आने वालों के लिए
दूरदेश से बाप
भी आये हैं। तो
जिससे स्नेह होता
है, तो स्नेही के
स्नेह में त्याग
कोई बड़ी बात नहीं
होती है। विकारों
के स्नेह में आकर
अपनी सुध-बुद्ध
का भी त्याग तो
अपने शरीर का भी
त्याग किया। बच्चों
के स्नेह में माँ
तन का भी त्याग
करती है ना। जब
देहधारी के सम्बन्ध
के स्नेह में अपना
ताज, तख्त और अपना
असली स्वरूप सब
छोड़ दिया ना, तो
जब अभी बाप के स्नेही
बने हो तो क्या
यह देह-अभिमान
का त्याग नहीं
कर सकते हो? मुश्किल
है? सोचना चाहिए
कि अल्पकाल के
सम्बन्ध में इतनी
शक्ति थी जो ऊपर
से नीचे ला दिया।
ऊपर से नीचे इसीलिए
आये हो ना। और अब
बाप जब कहते हैं
और बाप से सर्व
सम्बन्ध जोड़े हैं,
तो क्या बाप के
स्नेह में यह उलटा
देह-अभिमान का
त्याग कोई बड़ी
बात है? छोटी बात
है ना! फिर भी क्यों
नहीं कर पाते हो?
यह तो एक सेकेण्ड
में कर देना चाहिए।
बच्चा अगर एक मास
बीमार होता है
तो मां का जो अल्पकाल
का सम्बन्ध है,
देह का सम्बन्ध
है, फिर भी मां एक
मास के लिए सब-कुछ
त्याग कर देती
है। देह की स्मृति,
सुख त्याग करने
में देरी नहीं
करती। मुश्किल
भी नहीं समझती
है। तो यहां क्या
करना चाहिए? यहां
तो सदाकाल का सम्बन्ध
और सर्व सम्बन्ध
है, सर्व प्राप्ति
का सम्बन्ध हैं,
तो
यहॉं एक सेकेण्ड
भी त्याग करने
में देरी नहीं
करनी चाहिए। लेकिन
कितने वर्ष लगाया
है? देह का भान त्याग
करने में कितना
वर्ष लगाया है?
कितने वर्ष हो
गये? (36) लगना चाहिए
एक सेकेण्ड और
लगाया है 36 वर्ष
(आधा कल्प का अभ्यास
पड़ा हुआ है) और वह
जो आधाकल्प देहभान
से और विकारों
से न्यारे थे वह
आधा कल्प का अभ्यास
एक सेकेण्ड में
भूल गया? इसमें
टाइम लगा क्या?
(त्रेता में भी
दो कला कम हो जाती
हैं) फिर भी विकारों
से परे तो रहते
हो ना। सतयुग, त्रेता
में निर्विकारी
तो थे ना। दो कला
कम होने के बाद
भी त्रेता में
निर्विकारी तो
कहेंगे ना। विकारों
के आकर्षण से परे
थे ना।
यह भी आधा
कल्प के संस्कार
हो गये, तो वह क्यों
नहीं स्मृति में
जल्दी आते
हैं? आत्मा
का असली रूप भी
क्या है? आप आत्मा
के निजी असली संस्कार
वा गुण कौनसे हैं?
वही हैं ना जो बाप
में हैं। जो बाप
के गुण हैं -
ज्ञान
का सागर, सुख का
सागर, शान्ति का
सागर; वह सागर है
पर आप स्वरूप तो
हो। तो जो आत्मा
के निजी गुण हैं,
शान्ति-स्वरूप
तो हो ना। यह तो
संग के रंग में
परिवर्तन में आये
हो, लेकिन वास्तविक
जो आत्मा के स्वरूप
का गुण है वह तो
बाप के समान हैं
ना। वह भी क्यों
नहीं जल्दी स्मृति
में आना
चाहिए?
ऐसे-ऐसे अपने से
बातें करो। समझा?
ऐसे-ऐसे अपने से
बातें करते- करते
अर्थात् रूह-रूहान
करते-करते रूहानियत
में स्थित हो जायेंगे।
यह अभी नहीं सोचो
कि द्वापर के यह
पुराने संस्कार
हैं, इसलिए यह हो
गया। यह नहीं सोचो।
इसके बजाय यह सोचो
कि मुझ आत्मा के
आदि संस्कार और
अनादि संस्कार
कौनसे हैं! सृष्टि
के आदि में जब आत्माएं
आईं तो क्या संस्कार
थे? दैवी संस्कार
थे ना। तो यह सोचो
- आदि में आत्मा
के संस्कार और
गुण कौन-से थे! मध्य
को नहीं सोचो।
अनादि और आदि संस्कारों
को सोचो तो क्या
होगा कि मध्य के
संस्कार बीच-बीच
में जो प्रज्वलित
होते हैं वह मध्यम
हो जायेंगे। मध्यम
ढीले को कहा जाता
है। कहते हैं ना
- इसकी चाल मध्यम
है। तो मध्य के
संस्कार मध्यम
हो जायेंगे और
जो अनादि और आदि
संस्कार हैं वह
प्रत्यक्ष रूप
में दिखाई देंगे।
समझा? सदैव अनादि
और आदि को ही सोचो।
जैसे संकल्प करेंगे
वैसे ही स्मृति
रहेगी और जैसी
स्मृति रहेगी वैसी
समर्थी
हर कर्म
में आयेगी। इसलिए
स्मृति को सदैव
श्रेष्ठ रखो। तो
अब क्या करेंगे?
हर सेकेण्ड के
त्याग से हर सेकेण्ड
की प्राप्ति करते
चलो। क्योंकि यही
संगमयुग है जो
भाग्य प्राप्त
करने का है। अभी
जो भाग्य बनाया
वह सारे कल्प में
भोगना पड़ता है
- चाहे श्रेष्ठ,
चाहे नीच। लेकिन
यह संगमयुग ही
है जिसमें भाग्य
बना सकते हो। जितना
चाहो उतना बना
सकते हो क्योंकि
भाग्य बनाने वाला
बाप साथ है। फिर
यह बाप साथ नहीं
रहेगा, न यह प्राप्ति
रहेगी। प्राप्ति
कराने वाला भी
अब है और प्राप्ति
भी अब होनी है।
अब नहीं तो कब नहीं
- यह
स्लोगन
स्मृति
में रखो।
स्लोगन
लिखे
हुए तो रहते हैं
ना। यह समझते हो
कि यह
स्लोगन
हमारे
लिए हैं? अगर सदैव
यह स्मृति में
रहे -- कि अब नहीं
तो कब नहीं तो फिर
क्या करेंगे? सदैव
सोचेंगे - जो करना
है तो अब
कर लें।
तो सदा यह
स्लोगन
स्मृति
में रखो। अपनी
स्थिति को सदा
त्याग और सदा भाग्यशाली
बनाने के लिए चेकिंग
तो करनी है लेकिन
चेकिंग में भी
मुख्य
चेकिंग
कौनसी करनी है
जिस चेकिंग करने
से आटोमेटिकली
चेंज आ जाए? क्या
चेकिंग करनी है
उसके लिए एक
स्लोगन
है, वह
स्लोगन
कौनसा
है? जो बहुत बार
सुनाया है - ‘‘कम खर्च
बाला नशीन’’। अब
कम खर्च बाला नशीन
कैसे बनना है?
वो लोग
तो स्थूल धन में
‘‘कम खर्च बाला नशीन’’
बनने का प्रयत्न
करते हैं। लेकिन
आप लोगों के लिए
संगमयुग में कितने
प्रकार के
खज़ाने हैं,
मालूम है? समय, संकल्प,
श्वास तो है ही
खज़ाना
लेकिन
उसके साथ अविनाशी
ज्ञान-रत्न का
खज़ाना
भी है
और पांचवा स्थूल
खज़ाने से
भी इसका सम्बन्ध
है। तो यह चेक करो-संकल्प
के
खज़ाने में भी
‘‘कम खर्च बाला नशीन’’
बने हैं? ज्यादा
खर्च नहीं करो।
अपने संकल्प के
खज़ाने को
व्यर्थ न गंवाओ
तो समर्थ और श्रेष्ठ
संकल्प होगा। श्रेष्ठ
संकल्प से प्राप्ति
भी श्रेष्ठ होगी
ना। ऐसे ही जो समय
का
खज़ाना
है संगमयुग
का, इस संगमयुग
के समय को अगर व्यर्थ
न खर्च करो तो क्या
होगा? एक-एक सेकेण्ड
में अनेक जन्मों
की कमाई का साधन
कर सकेंगे। इसलिए
यह समय व्यर्थ
नहीं गंवाना है।
ऐसे ही जो श्वॉस
अर्थात् हर श्वॉस
में बाप की स्मृति
रहे, अगर एक भी श्वॉस
में बाप की याद
नहीं तो समझो व्यर्थ
गया। तो श्वॉस
को भी व्यर्थ नहीं
गंवाना। ऐसे ही
ज्ञान का
खज़ाना
जो है
उसमें भी अगर
खज़ाने को
सम्भालने नहीं
आता, मिला और खत्म
कर दिया तो व्यर्थ
चला गया। मनन नहीं
किया ना। मनन के
बाद उस
खज़ाने से
जो खुशी प्राप्त
होती है, उस खुशी
में स्थित रहने
का अभ्यास नहीं
किया तो व्यर्थ
चला गया ना। जैसे
भोजन किया, हजम
करने की शक्ति
नहीं तो व्यर्थ
जाता है ना। इसी
प्रकार यह ज्ञान
के
खज़ाने आपके प्रति
वा दूसरी आत्माओं
को दान देने के
प्रति न लगाया
तो व्यर्थ गया
ना। ऐसे ही यह स्थूल
धन भी अगर ईश्वरीय
कार्य में, हर आत्मा
के कल्याण के कार्य
में वा अपनी उन्नति
के कार्य में न
लगाकर अन्य कोई
स्थूल कार्य में
लगाया तो व्यर्थ
लगाया ना। क्योंकि
अगर ईश्वरीय कार्य
में लगाते हो तो
यह स्थूल धन एक
का लाख गुणा बनकर
प्राप्त होता है
और अगर एक व्यर्थ
गंवा
दिया तो एक
व्यर्थ नहीं गंवाया
लेकिन लाख व्यर्थ
गंवाया। इसी प्रकार
जो संगमयुग का
सर्व
खज़ाना
है उस
सर्व
खज़ाने को
चेक करो कि कोई
भी
खज़ाना
व्यर्थ
तो नहीं जाता है?
तो ऐसे ‘‘कम खर्च
बाला नशीन’’ बने
हो
या अब तक अलबेले
होने के कारण व्यर्थ
गंवा देते हो? जो
अलबेले होते हैं
वह व्यर्थ गंवाते
हैं और जो समझदार
होते हैं,
नॉलेजफुल होते
हैं, सेन्सीभले
होते हैं वह एक
छोटी
चीज़
भी व्यर्थ
नहीं गंवाते। ऐसे
के लिए ही कहा जाता
है ‘‘कम खर्च बाला
नशीन’’। ऐसे हो? जैसे
साकार बाप ने ‘‘कम
खर्च बाला नशीन’’
बनकर के दिखाया
ना। तो क्या फालो
फादर नहीं करना
है? कोई भी स्थूल
धन, अगर स्थूल धन
नहीं है तो जो यज्ञ-निवासी
हैं उनके लिए यह
यज्ञ की हर वस्तु
ही स्थूल धन के
समान है। अगर यज्ञ
की कोई भी वस्तु
व्यर्थ गंवाते
हैं तो भी ‘‘कम खर्च
बाला-नशीन’’ नहीं
कहेंगे। जो प्रवृत्ति
में रहने वाले
हैं, स्थूल धन से
अपना पद ऊंच बना
सकते हैं, वैसे
ही यज्ञ-निवासी
भी अगर
यज्ञ की स्थूल
वस्तु ‘‘कम खर्च
बाला-नशीन’’ बनकर
यूज करते हैं, अपने
प्रति वा दूसरों
के प्रति, उनका
भी इस हिसाब से
भविष्य बहुत ऊंच
बनता है। ऐसे नहीं
कि स्थूल धन तो
प्रवृत्ति वालों
के लिए साधन है
लेकिन यज्ञ- निवासियों
के यज्ञ की सेवा
भी, यज्ञ की वस्तु
की एकानामी रूपी
धन स्थूल धन से
भी ज्यादा कमाई
का साधन है।
इसलिए
जब यज्ञ
की एक भी
चीज़
यथार्थ
रूप से लगाते हो
वा सम्भाल करते
हो, व्यर्थ से बचाव
करते हो तो
समर्थी
आती है
भविष्य प्राप्ति
के लिए। व्यर्थ
से बचाव किया, अपना
भविष्य बनाने की
तो प्राप्ति हुई
ना। इसलिए हरेक
को अपने आपको चेक
करना है। तो अपने
को ‘‘कम खर्च बाला
नशीन’’ कितना बनाया
है? व्यर्थ से बचो,
समर्थ बनो। जहां
व्यर्थ है वहां
समर्थ ज़रा भी नहीं
और जहां
समर्थी
है वहां
व्यर्थ जावे - यह
हो नहीं सकता।
अगर
खज़ाना
व्यर्थ
जाता है तो
समर्थी
नहीं
आ सकती है। जैसे
देखो, कोई लीकेज
होती है, कितना
भी कोशिश करो लेकिन
लीकेज कारण शक्ति
भर नहीं सकती है।
तो व्यर्थ भी लीकेज
होने के कारण कितना
भी पुरूषार्थ करेंगे,
कितना भी मेहनत
करेंगे लेकिन शक्तिशाली
नहीं बन सकेंगे।
इसलिए लीकेज को
चेक करो। लीकेज
को चेक करने के
लिए बहुत होशियारी
चाहिए। कई बार
लीकेज
तो मिलती
नहीं है। बहुत
होशियार होते हैं
नॉलेजफुल होते
हैं वह लीकेज को
कैच कर सकते हैं।
नॉलेजफुल नहीं
तो लीकेज को ढूँढ़ते
रहते हैं। तो अब
नॉलेजफुल बन
चेक करो तो व्यर्थ
से समर्थ हो जायेंगे।
समझा? अच्छा, मैसूर
वाले क्या याद
रखेंगे? माताएं
सिर्फ याद की यात्रा
में रहती हैं ना।
क्योंकि भाषा तो
समझ नहीं सकतीं।
यह तो याद रखेंगी
ना -- कम खर्च बाला
नशीन। फिर भी भाग्यशाली
हो। यह तो समझती
हो सारे सृष्टि
में हम विशेष आत्माएं
हैं? अच्छा। यह
समझती हो कि यहां
कई बार आये हैं
या समझती हो कि
पहली बार ही आये
हैं? कोई बन्धन
नहीं है तो अपने
को भाग्यशाली समझती
हो या दुर्भाग्यशाली
समझती हो? निर्बन्धन
हो तो अपना भविष्य
ऊंच बना सकती हैं।
आप तो डभले भाग्यशाली
हो -- एक तो बाप मिला,
दूसरा भविष्य बनाने
के लिए निर्बन्धन
बनी हो। और ही खुशी
होती है ना। ऐसे
तो नहीं - पता नहीं
क्या है? दु:ख तो
महसूस नहीं होता?
सुख अनुभव करती
हो ना। अच्छा हुआ
जो निर्बन्धन हो
गई। ऐसे अपने को
भाग्यशाली समझती
हो या कभी दु:ख भी
आता है? और कोई साथ
होगा तो टक्कर
होगा। शिव बाबा
अगर साथ है तो टक्कर
नहीं होगा ना।
संगमयुग में लौकिक
सुहाग का त्याग
श्रेष्ठ भाग्य
की निशानी है।
आत्मा की प्रवृति
में यह सम्बन्ध
नहीं है। प्रवृति
में सम्बन्ध में
तो नहीं आती हो?
अगर प्रवृति में
रह आत्मा के सम्बन्ध
में रहती हो तो
अपना डभले भाग्य
बना सकती हो। प्रवृति
में रहते देह के
सम्बन्ध से न्यारी
रहती हो? तो प्रवृति
में रहने वाले
ऐसा भाग्य बना
रहे हो। अच्छा।