15-05-72
ओम शान्ति अव्यक्त
बापदादा मधुबन
श्रेष्ठ
स्थिति बनाने का
साधन तीन शब्द-
निराकारी,
अलंकारी और कल्याणकारी
अपने को
पद्मापद्म भाग्यशाली
समझकर हर कदम उठाते
हो? पद्म कमल पुष्प
को भी कहते हैं।
कदम-कदम पर पद्म
के समान न्यारे
और प्यारे बन चलने
से ही हर कदम में
पद्मों की कमाई
होती है। ऐसी श्रेष्ठ
आत्मायें
बनी हो? दोनों ही
प्रकार की स्थिति
बनाई है? एक कदम
में पद्म तो कितने
खज़ाने के
मालिक हो गये! ऐसे
अपने को अविनाशी
धनवान वा सम्पतिवान
और अति न्यारे
और प्यारे अनुभव
करते हो? यह चेक
करना है कि एक भी
कदम पद्म समान
स्थिति में रहते
हुए पद्मों की
कमाई के बगैर न
उठे। इस समय ऐसे
पद्मापति अर्थात्
अविनाशी सम्पत्तिवान
बनते हो जो सारा
कल्प सम्पत्तिवान
गाये जाते हो।
आधा कल्प स्वयं
विश्व
के राज्य
के, अखण्ड राज्य
के निर्विघ्न राज्य
के, अधिकारी बनते
हो और फिर आधा कल्प
भक्त लोग आपके
इस स्थिति के गुणगान
करते रहते हैं।
कोई भी भक्त को
जीवन में किसी
भी प्रकार की कमी
का अनुभव होता
है तो किसके पास
आते हैं? आप लोगों
के यादगार चित्रों
के पास। चित्रों
से भी अल्पकाल
की प्राप्ति करते
हुए अपनी कमी वा
कमजोरियों को मिटाते
रहते। तो सारा
कल्प प्रैक्टिकल
में वा यादगार
रूप में सदा सम्पत्तिवान,
शक्तिवान, गुणवान,
वरदानी-मूर्त बन
जाते हो। तो जब
एक कदम भी उठाते
हो वा एक संकल्प
भी करते हो तो ऐसी
स्मृति में रहते
हुए, ऐसे अपने श्रेष्ठ
स्वरूप में स्थित
होते हुए चलते
हो? जैसे कोई हद
का राजा जब अपनी
राजधानी के तरफ
देखेंगे तो किस
स्थिति और दृष्टि
से देखेंगे? किस
नशे से देखेंगे?
यह सभी मेरी प्रजा
है वा बच्चों के
समान हैं! ऐसे ही
आप लोग भी जब अभी
सृष्टि के तरफ
देखते हो वा किसी
भी आत्मा के प्रति
नजर जाती है तो
क्या समझ करके
देखते हो? ऐसे समझकर
देखते हो कि यह
हमारी
विश्व, जिसके
हम मालिक थे, वह
आज क्या बन गई है
और अभी हम
विश्व
के मालिक
के बालक फिर से
विश्व
को मालामाल
बना रहे हैं, सम्पत्तिवान
बना रहे हैं, सदा
सुखदाई बना
रहे हैं।
इस नशे में स्थित
होकर के उसी रूप
से, उसी वृति से,
उसी दृष्टि से
हर आत्मा को देखते
हो? कोई भी आत्मा
को किस स्थिति
में रहकर देखते
हो? उस समय की स्थिति
वा स्टेज कौन-सी
होती है? (हरेक ने
सुनाया) जो भी सुनाया,
है तो सभी यथार्थ
क्योंकि अभी जबकि
अयथार्थ को छोड़
चुके तो जो भी अब
बोलेंगे वह यथार्थ
ही बोलेंगे। अब
अयथार्थ शब्द भी
मुख से नहीं निकल
सकता। जब भी कोई
आत्मा को देखो
तो वृति यही रखनी
चाहिए कि इन सभी
आत्माओं के प्रति
बाप ने हमें वरदानी
और महादानी निमित्त
बनाया है। वरदानी
वा महादानी की
वृति से देखने
से कोई भी आत्मा
को वरदान वा महादान
से वंचित नहीं
छोड़ेंगे। जो महादानी
वा वरदानी होते
हैं उनके सामने
कोई भी आयेगा तो
उस आत्मा के प्रति
कुछ-न-कुछ दाता
बनकर के देंगे
ज़रूर।
कोई को भी खाली
नहीं भेजेंगे।
तो ऐसी वृति रखने
से कोई भी आत्मा
आप लोगों के सामने
आने से खाली हाथ
नहीं जायेगी, कुछ-न-कुछ
लेकर ही जायेगी।
तो ऐसे अपने को
समझकर हर आत्मा
को देखते हो? दाता
के बच्चे दाता
ही तो होते हैं।
जैसे बाप के पास
कोई भी आयेंगे
तो खाली हाथ नहीं
भेजेंगे ना। तो
ऐसे ही फालो फादर।
जैसे स्थूल रीति
में भी कोई को भी
बिना कोई यादगार-सौगात
के नहीं भेजते
हो ना। कुछ-न-कुछ
निशानी देते हो।
यह स्थूल
रस्म भी क्यों
चली? सूक्ष्म कर्त्तव्य
के साथ सहज स्मृति
दिलाने के लिए
एक सहज साधन बनाया
हुआ है। तो जैसे
यह सोचते हो कि
कोई भी स्थूल सौगात
के सिवाए न जावे,
वैसे ही सदा यह
भी लक्ष्य रखो
कि कम से कम थोड़ा-बहुत
भी लेकर जावे।
तब तो आपके
विश्व
के राज्य
में आयेंगे। ऐसे
सदाचारी और सदा
महादानी दृष्टि,
वृति और कर्म से
भी बनने वाले ही
विश्व
के मालिक
बनते हैं। तो सदा
ऐसी स्थिति रहे
अर्थात् सदा सम्पत्तिवान
समझ कर चलें, इसके
लिये तीन शब्द
याद रखने हैं।
जिन तीन शब्दों
को याद करने से
सदा और स्वत: ही
यह वृति रहती, वह
तीन शब्द कौन से?
सदा निराकारी,
अलंकारी और कल्याणकारी।
अगर यह तीन शब्द
याद रहें तो सदा
अपनी श्रेष्ठ स्थिति
बना सकते हो। चाहे
मन्सा, चाहे कर्मणा
में, चाहे सेवा
में - तीनों ही स्थिति
में अपनी ऊंची
स्थिति बना सकते
हो। जिस समय कर्म
में आते हो तो अपने
आपको चेक करो कि
सदा अलंकारीमूर्त
होकर चलते हैं?
अलंकारीमूर्त
देह-अहंकारी नहीं
होते हैं। अलंकार
में अहंकार खत्म
हो जाता है। इसलिए
सदैव अपने अलंकारों
को देखो कि स्वदर्शन-चक्र
चल रहा है? अगर सदा
स्वदर्शन-चक्र
चलता रहेगा तो
जो अनेक प्रकार
के माया के विघ्नों
के चक्र में आ जाते
हो वह नहीं आयेंगे।
सभी चक्रों से
स्वदर्शन चक्र
द्वारा बच सकते
हो। तो सदैव यह
देखो कि स्वदर्शन-चक्र
चल रहा है? कोई भी
प्रकार का अलंकार
नहीं है अर्थात्
सर्व शक्तियों
से शक्ति की कमी
है। जब सर्व शक्तियां
नहीं तो सर्व विघ्नों
से वा सर्व कमजोरियों
से भी मुक्ति नहीं।
कोई भी बात में
-- चाहे विघ्नों
से, चाहे अपने पुराने
संस्कारों से,
चाहे सेवा में
कोई असफलता का
कारण बनता है और
उस कारण के वश कोई-न-कोई
विघ्न के अन्दर
आ जाते हैं; तो समझना
चाहिए मुक्ति न
मिलने का कारण
शक्ति की कमी है।
विघ्नों से मुक्ति
चाहते हो तो शक्ति
धारण करो अर्थात्
अलंकारी रूप होकर
रहना है। अलंकारी
समझकर नहीं चलते;
अलंकारों को छोड़
देते हैं। बिना
शक्तियों के मुक्ति
की इच्छा रखते
हो तो कैसे पूर्ण
हो सकती? इसलिए
यह तीनों
ही शब्द सदा स्मृति
में रखते हुए फिर
हर कार्य करो।
इन अलंकारों को
धारण करने से सदा
अपने को वैष्णव
समझेंगे। भविष्य
में तो विष्णुवंशी
बनेंगे लेकिन अभी
वैष्णव बनेंगे
तब फिर विष्णु
के राज्य में विष्णुवंशी
बनेंगे। तो वैष्णव
अर्थात् कोई भी
मलेच्छ
चीज़
को टच
नहीं करने वाला।
आजकल के वैष्णव
तो स्थूल तामसी
चीजों से वैष्णव
हैं। लेकिन आप
जो श्रेष्ठ आत्मायें
हो वह सदैव वैष्णव
अर्थात् तमोगुणी
संकल्प वा तमोगुणी
संस्कारों को भी
टच नहीं कर सकते
हो। अगर कोई संकल्प
वा संस्कारों को
टच किया अर्थात्
धारण किया तो सच्चे
वैष्णव हुए? और
जो सच्चे वैष्णव
नहीं बनते हैं,
वह विष्णु के राज्य
में
विश्व
के मालिक
नहीं बन सकते हैं।
तो अपने आपको देखो
- कहां तक सदाकाल
के वैष्णव बने
हैं? वैष्णव कुल
के जो होते हैं
वह कोई भी मलेच्छ
को कब अपने से टच
करने भी नहीं देते,
मलेच्छ से किनारा
कर लेते हैं। वह
हुई स्थूल की बात।
लेकिन जो सच्चे
वैष्णव बनते हैं
वह कोई भी पुरानी
बातें, पुरानी
दुनिया वा पुरानी
दुनिया के कोई
भी व्यक्ति वा
वैभव को अपनी बुद्धि
से टच करने नहीं
देंगे, किनारे
रहेंगे। तो ऐसे
वैष्णव बनो। जैसे
उन्हों को अगर
कारणे-अकारणे कोई
टच भी कर देते हैं
तो नहाते हैं ना।
अपने को शुद्ध
बनाने
का प्रयत्न करते
हैं। इसी प्रकार
अगर अपनी कमजोरी
के कारण कोई भी
पुराना तमोगुणी
संस्कार वा संकल्प
भी टच कर देते हैं
तो विशेष रूप से
ज्ञान- स्नान करना
चाहिए अर्थात्
बुद्धि में विशेष
रूप से बाप की याद
अथवा बाप से रूह-रिहान
करनी चाहिए। तो
इससे क्या होगा?
वह तमोगुणी संस्कार
कब भी टच नहीं करेंगे,
शुद्ध बन जायेंगे।
अपने को शुद्ध
बनाने से सदा शुद्ध-
स्वरूप के संस्कार
बन जायेंगे। तो
ऐसे करते हो। कहते
हैं ना? पता नहीं,
यह कैसे हो गया?
कमजोरी तो स्वयं
की है ना। इतनी
पावर होनी चाहिए
जो कोई भी टच कर
न सके। अगर कोई
पावरफुल होते हैं
तो उनके सामने
कमजोर एक शब्द
भी बोल नहीं सकता,
सामने आ नहीं सकता।
अज्ञान में रोब
के आगे कोई नहीं
आ सकते। यहां फिर
है रूहाब। रोब
को रूहानियत में
चेन्ज करो तो फिर
कोई की ताकत नहीं
जो टच कर सके। जैसे
भविष्य में आप
सभी के आगे प्रकृति
दासी बन जायेगी।
यही सम्पूर्ण स्टेज
है ना। जब प्रकृति
दासी बन सकती है
तो क्या पुराने
संस्कारों को दासी
नहीं बना सकते
हो? जैसे दासी वा
दास सदा ‘जी-हजूर’
करते रहते हैं,
वैसे यह कमजोरियां
भी ‘जी-हजूर’ कर खड़ी
होंगी, टच नहीं
करेंगी। ऐसी स्थिति
सदाकाल के लिए
बना रहे हो? अभी
कहां तक पहुंचे
हो? आज-कल की बात
आकर रही है वा अभी-अभी
की बात है वा वर्षों
की बात है? अभी है
आज और कल की। आज-कल
और अभी समय में
तो बहुत फर्क हुआ।
टीचर
की कमाल यह है जो
सभी को टीचर बनावे।
आप टीचर नहीं हो?
अपने आपके आप टीचर
बने हो, तो रिजल्ट
को नहीं जानते
हो? यही बाप समान
बनाने का कर्त्तव्य
करना है। टीचर
अगर टीचर न बनावे
तो टीचर ही कैसा?
अगर अपने आप के
टीचर बन करके नहीं
चलेंगे तो सम्पूर्ण
स्टेज को पा नहीं
सकेंगे। जो अपने
टीचर नहीं बनते
हैं वही कमजोर
होते हैं। सदैव
यह देखो कि जो हम
लोगों की महिमा
गाई जाती है, ऐसी
महिमा योग्य बने
हैं? एक-एक बात को
अपने में देखो।
मर्यादा पुरूषोत्तम
हैं? ‘‘सम्पूर्ण
निर्विकारी, सम्पन्न,
सम्पूर्ण आहिंसक.....।’’
यह पूरी महिमा
प्रैक्टिकल में
है? अगर कोई की भी
कमी हो तो उसको
भरने से महिमा
योग्य बन जायेंगे।
तो ऐसे सदा और
सच्चे
वैष्णव बनने वाले
लक्कीएस्ट
और हाइएस्ट
बच्चों
को नमस्ते।