09-11-72
ओम शान्ति अव्यक्त
बापदादा मधुबन
ज्ञान-सितारों
का सम्बन्ध ज्ञान-सूर्य
और ज्ञान-चन्द्रमा
के साथ
स्मृतिस्वरूप
स्पष्ट सितारे
सदैव अपने को दिव्य
सितारा समझते हो?
वर्तमान समय का
श्रेष्ठ भाग्य
बापदादा के नैनों
के सितारे और भविष्य
जो प्राप्त होने
वाली तकदीर बना
रहे हो, उन श्रेष्ठ
तकदीर के सितारे
अपने
को देखते हुए चलते
हो? जब अपने को दिव्य
सितारा नहीं समझते
हो तो यह दोनों
सितारे भी स्मृति
में नहीं रहते।
तो अपने त्रिमूर्ति
सितारा रूप को
सदैव स्मृति में
रखो। जैसे सितारों
का सम्बन्ध चन्द्रमा
और सूर्य के साथ
है। गुप्त रूप
में सूर्य के साथ
रहता है और प्रत्यक्ष
रूप में चन्द्रमा
के साथ रहता है।
आप चैतन्य सितारों
का सम्बन्ध भी
प्रैक्टिकल रूप
में किसके साथ
रहा?
चन्द्रमा के
साथ रहा ना। ज्ञानसूर्य
तो गुप्त ही है।
लेकिन साकार रूप
में प्रसिद्ध
रूप में
तो बड़ी मां ही के
साथ संबंध रहा
ना। तो अपने को
सितारा समझते रहना
है। जैसे सितारों
का सम्बन्ध चन्द्रमा
और सूर्य के साथ
रहता है, ऐसे सदा
बापदादा के साथ
ही सम्बन्ध रहे।
जैसे सितारे चमकते
हैं वैसे ही अपने
चमकते हुए ज्योति-स्वरूप
में सदैव स्थित
रहना है। सितारे
आपस में संगठन
में रहते सदा एक
दो के स्नेही और
सहयोगी रहेंगे।
आप चैतन्य सितारों
की यादगार
यह सितारे
हैं। तो ऐसे श्रेष्ठ
सितारे बने हो?
चैतन्य और चित्र
समान हुए हैं? अपने
भिन्न-भिन्न रूप
के भिन्न-भिन्न
कर्त्तव्य के यादगार
चित्र देखते, समझते
हो कि यह मुझ चैतन्य
का ही चित्र है?
चैतन्य और चित्र
में अंतर समाप्त
हो गया है वा अजुन
समीप आ रहे हो? सितारे
कब आपस में संगठन
में रहते एक दो
के स्नेह और सहयोग
से दूर रहते हैं
क्या? आप लोगों
ने कब सम्मेलन
नहीं किया है? संदेश
देने के सम्मेलन
तो बहुत किये हैं।
बाकी कौनसा सम्मेलन
रहा हुआ है? जो अंतिम
सम्मेलन है उसका
उद्देश्य क्या
है? सम्मेलन के
पहले उद्देश्य
सभी को सुनाते
हो ना। तो अंतिम
सम्मेलन का उद्देश्य
सभी को सुनाते
हो ना। तो अंतिम
सम्मेलन का उद्देश्य
क्या है? उसकी डेट
फिक्स की है? जैसे
और सम्मेलन की
डेट फिक्स करते
हो ना,
यह फिक्स
की है? वह सम्मेलन
तो सभी को मिल कर
करना है। आपके
उस अंतिम सम्मेलन
का चित्र है। जो
चित्र है उसको
ही प्रैक्टिकल
में लाना है। सभी
का सहयोग, सभी का
स्नेह और सभी का
एकरस स्थिति में
स्थित रहने का
चित्र भी है ना।
जैसे गोवर्धन पर्वत
पर अंगुली दिखाते
हैं, तो अंगुली
को बिल्कुल सीधा
दिखायेंगे। अगर
टेढ़ी-बांकी होगी
तो हिलती रहेगी।
सीधा और स्थित,
उसकी निशानी इस
रूप में दिखाई
है। ऐसे ही अपने
पुरूषार्थ को भी
बिल्कुल ही सीधा
रखना है। बीच-बीच
में जो टेढ़ा-बांका
रास्ता हो जाता
है अर्थात् बुद्धि
यहां-वहां भटक
जाती है, वह समाप्त
हो एकरस स्थिति
में स्थित हो जाना
है। ऐसा पुरूषार्थ
कर रहे हो? लेकिन
अपने पुरूषार्थ
से स्वयं संतुष्ट
हो? वा जैसे भक्तों
को कहते हो कि चाहना
श्रेष्ठ है लेकिन
शक्तिहीन होने
कारण जो चाहते
हैं वह कर नहीं
पाते हैं, ऐसे ही
आप भी जो चाहते
हो कि ऐसे श्रेष्ठ
बनें, चाहना श्रेष्ठ
और पुरूषार्थ कम,
लक्ष्य अपने सन्तुष्टता
के आधार से दूर
दिखाई दे तो उसको
क्या कहा जावेगा?
महान ज्ञानी? अपने
को सर्व- शक्तिवान्
की सन्तान कहते
हो लेकिन सन्तान
होने के बाद भी
अपने में शक्ति
नहीं है? मनुष्य
जो चाहे सो कर सकता
है, ऐसे समझते हो
ना? तो आप भी मास्टर
सर्व-शक्तिवान्
के नाते जो आप 3 वर्ष
की बात सोचते हो
वह अभी नहीं कर
सकते हो? अपनी वह
अंतिम स्टेज अभी
प्रैक्टिकल में
नहीं ला सकते हो?
कि अंतिम है इसलिये
अंत में हो जावेगी?
यह कब भी नहीं समझना
कि अंतिम स्टेज
का अर्थ यह है कि
वह स्टेज अंत में
ही आवेगी। लेकिन
अभी से उस सम्पूर्ण
स्टेज को जब प्रैक्टिकल
में लाते जावेंगे
तब अंतिम स्टेज
को अंत में पा सकेंगे।
अगर अभी से उस स्टेज
को समीप नहीं लाते
रहेंगे तो दूर
ही रह जावेंगे,
पा न सकेंगे। इसलिये
अब पुरूषार्थ में
जम्प लगाओ। चलते-
चलते
पुरूषार्थ की परसेन्टेज
में कमी पड़ जाती
है। इसलिये आप
पुरूषार्थ की स्टेज
पर हो लेकिन स्टेज
पर होते भी परसेन्टेज
को भरो। परसेन्टेज
में बहुत कमी है।
जैसे
मुख्य
सब्जेक्ट
‘याद की यात्रा’
जो है वह
नंबरवार बना
भी चुके हो लेकिन
स्टेज के साथ जो
परसेन्टेज होनी
चाहिए वह अब कम
है। इसलिये जो
प्रभाव दिखाई देना
चाहिए, वह कम दिखता
है।
जब तक परसेन्टेज
नहीं बढ़ाई है तब
तक प्रभाव फैल
नहीं सकता है।
फैलाव
के लिये परसेन्टेज
चाहिए। जैसे बल्ब
होते हैं, लाइट
तो सभी में होती
है लेकिन जितनी
लाइट की परसेन्टेज
होगी इतनी जास्ती
फैलेगी। तो बल्ब
बने हो लेकिन लाइट
की जो परसेन्टेज
होनी चाहिए, वह
अभी नहीं है, उसको
बढ़ाओ। सुनाया था
ना - एक है लाइट, दूसरी
है सर्चलाइट, तीसरा
है लाइट-हाऊस।
भिन्न स्टेजेस
हैं ना। लाइट तो
बने हो लेकिन लाइट-हाऊस
हो
चारों ओर अंधकार
को दूर कर लाइट
फैलाओ। सभी को
इतनी रोशनी प्राप्त
कराओ जो वह अपने
आपको देख सकें।
अभी तो अपने आपको
भी देख नहीं सकते।
जैसे बहुत अंधकार
होता है तो न अपने
को, न दूसरे को देख
सकते हैं। तो ऐसे
लाइट-हाऊस बनो
जो सभी अपने आपको
तो देख सकें। जैसे
दर्पण के आगे जो
भी होता है उसको
स्वयं का साक्षात्कार
होता है। ऐसे दर्पण
बने हो? अगर इतने
सभी दर्पण बन अपना
कर्त्तव्य करने
शुरू कर दें तो
क्या
चारों ओर
सर्वात्माओं को
स्वयं का साक्षात्कार
नहीं हो जावेगा?
जब किसको साक्षात्कार
हो जाता है तो उनके
मुख से जय-जय का
नारा
ज़रूर निकलता
है। ऐसे दर्पण
तो बने हो ना? सारे
दिन में कितनों
को स्वयं का साक्षात्कार
कराते हो? जो सामने
आता है वह साक्षात्कार
करता है? अगर दर्पण
पावरफुल न हो तो
रीयल रूप के बजाय
और रूप दिखाई देता
है। होगा पतला,
दिखाई पड़ेगा मोटा।
तो ऐसे पावरफुल
दर्पण बनो जो सभी
को स्वयं का साक्षात्कार
करा सको अर्थात्
आप लोगों के सामने
आते ही देह को भूल
अपने देही रूप
में स्थित हो जायें।
वास्तविक
सर्विस
अथवा
सर्विस
की सफलता
का रूप यह है। अच्छा!
सदा सफलतामूर्त,
संस्कारों के मिलन
का सम्मेलन करने
वाले, अपने सम्पूर्ण
स्थिति को समीप
लाने वाले दिव्य
सितारों को, बापदादा
के नैनों के सितारों
को, तकदीर के सितारे
को जगाने वालों
को याद-प्यार और
नमस्ते।