08-05-73 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
सर्वोच्च स्वमान
सर्व खजानों से भरपूर करने वाले, महादानी, वरदानी, महात्यागी व पद्मापद्म भाग्यशाली बनाने वाले, वरदानीमूर्त्त शिवबाबा बोले:-
वर्तमान समय अपने-आप को किस स्वमान में समझते हो? अपने स्वमान को जानते हो? सभी से बड़े-से-बड़ा स्वमान अभी ही है यह तो जानते ही हो। लेकिन वह कौन-सा स्वमान है? बड़े-से बड़ा स्वमान अभी कौन-सा है। जिसको वर्णन करने में ही दिखाई पड़े कि इससे बड़ा स्वमान कोई हो नहीं सकता? वह कौन-सा है? इस समय का बड़े-से-बड़ा स्वमान यही हुआ कि ‘बाप के भी अभी तुम मालिक बनते हो।’ विश्व के मालिक बनने से पहले विश्व के रचयिता के भी मालिक बनते हो। शिव बाबा के भी मालिक हो। इसलिए ‘वालेकम सलाम’ कहते हैं। सुपात्र बच्चा बाप का भी मालिक है। इस समय बाप को भी अपना बना लिया है। सारे कल्प में बाप को ऐसे अपना नहीं बना सकते हो। अभी तो जब चाहो, जिस रूप में चाहो, उस रूप से बाप को अपना बना सकते हो। बाप भी इस समय किस बन्धन में है? (बच्चों के बन्धन में)। तो रचयिता को भी बन्धन में बाँधने वाले, ऐसा स्वमान फिर कब अनुभव करेंगे? रचयिता को सेवाधारी बनाने वाले-बाप को गुलाम बना दिया ना, अपनी सेवा के लिये। यह है शुद्ध स्वमान। इसमें अभिमान नहीं होता है। जहाँ स्वमान होता है, वहाँ अभिमान नहीं होता है। बाप को सेवाधारी बनाया लेकिन अभिमान नहीं आयेगा। तो अपने ऐसे शुद्ध स्वमान में-जहाँ अभिमान का नाम निशान नहीं है इस स्थिति में स्थित रहते हो?
जैसे बाप सदैव हाँ बच्चे, मीठे बच्चे, विश्व के मालिक बच्चे समझ कर अपना सिरताज बनाते हैं, ऐसे सिरताज स्थिति में स्थित रहते हो? ब्राह्मणों की चोटी का स्थान कहाँ होता है? सिर के ऊपर है न। तो ब्राह्मण चोटी अर्थात् बाप के सिरताज। तो जैसे बाप सदैव बच्चों को स्वमान देते हुए आप समान बनाते हैं, ऐसे आप सभी भी हर -- एक आत्मा को सदा स्वमान देते बाप समान बनाते रहते हो? यह सदा स्मृति में रहता है कि इस समय सिवाय एक बाप से लेने के और सभी को देना है? तुम आत्माओं को आत्माओं से लेना नहीं है परन्तु उन्हें देना है। सिर्फ एक बाप से ही लेना है। जो लिया है, वह देना है। दाता है ना? यह सदा स्मृति में रहता है? अथवा जहाँ देना है, वहाँ भी लेने की इच्छा रखते हो? अगर आत्मा, आत्मा द्वारा कुछ-भी लेने की इच्छा रखती है तो वह प्राप्ति क्या होगी? अल्प काल की होगी न? अल्पज्ञ आत्माओं से अल्पकाल की ही प्राप्ति होगी। सर्वज्ञ बाप से सदाकाल की प्राप्ति होगी। तो जहाँ से लेना है वहाँ ले रहे हैं और जहाँ देना है वहाँ दे रहे हो? अथवा कभी बदली कर देते हो? अगर आत्मा, आत्मा को कुछ देती भी है तो बाप से लिया हुआ ही तो देगी ना? जरा भी किसी प्रकार की लेने की इच्छा, अपने स्वमान से गिरा देती है।
जब आप लोग भी किसी आत्मा को बाप द्वारा मिला हुआ ख़ज़ाना देने के निमित्त भी बनती हो तो भी स्मृति क्या रहती है? आत्मा के पास अपना कुछ है क्या? बाप के दिये हुए को ही अपना बनाया है। जब औरों को भी देने के निमित्त बनते हो, उस समय अगर यह स्मृति में नहीं रहता कि बाप का ख़ज़ाना दे रहे हैं तो उन आत्माओं को श्रेष्ठ सम्बन्ध में जोड़ नहीं सकते हो। क्या ऐसी स्मृति में रहते हुए हर कर्म करते हो? नशा भी रहे अपने श्रेष्ठ स्वमान का। उनके साथ-साथ और क्या रहता है? (खुशी)। जितना बुद्धि में नशा होगा, उतनी ही कर्म में नम्रता-इस नशे की निशानी यह है। नशा भी ऊँचा होगा लेकिन कर्म में नम्रता रहेगी। नयनों में सदैव नम्रता होगी। इसलिए इस नशे में कभी नुकसान नहीं होता है। समझा?
सिर्फ नशा नहीं रखना। एक तरफ अति नशा, दूसरी तरफ अति नम्रता। जैसे सुनाया कि ऊँच-ते ऊँच बाप भी बच्चों के आगे गुलाम बन कर आते हैं तो नम्रता हुई ना? जितना ऊँच उतनी ही नम्रता-ऐसा बैलेन्स रहता है? अथवा जिस समय नशे में रहते हो, तो कुछ सुझता ही नहीं? क्योंकि जब अपने इस स्वमान के नशे में रहते हैं कि हम विश्व के रचयिता के भी मालिक हैं तो ऐसे नशे में रहने वाले का कर्त्तव्य क्या होगा? विश्व का कल्याण नम्रता के बिना हो नहीं सकता। बाप को भी अपना तब बनाया जब बाप भी नम्रता से बच्चों का सेवाधारी बना। ऐसे ही फॉलो फादर।
हर समय यह चेक करो कि बाप से कितने खजाने मिले हैं? मालूम है कितने खजानों के मालिक हो?-(अनगिनत) फिर भी मुख्य तो वर्णन करने में आते हैं ना? इस संगमयुग में मुख्य कितने खजाने हैं? आप लोगों को कितने मिले हैं? सभी से बड़े-से-बड़ा ख़ज़ाना तो बाप मिला। पहले नम्बर का ख़ज़ाना तो ये है ना? जैसे किसी को चाबी मिल जाय तो गोया सब मिल गया। बाप मिल गया अर्थात् सभी कुछ मिल गया। और क्या मिला? वह भी साथ-साथ वर्णन करो। ज्ञान भी है और अष्ट-शक्तियाँ भी हैं। एक-एक शक्ति को अलग- अलग वर्णन करो तो अलग-अलग शक्ति भी खजाने के रूप में है। इस प्रकार जो बाप के गुण वर्णन करते हो, वह गुण भी खजाने के रूप में वर्णन कर सकते हो। इस रीति से इस अमूल्य संगमयुग के समय का एक सेकेण्ड भी ख़ज़ाना है। जैसे खजाने से प्राप्ति होती है वैसे इस संगमयुग के एक-एक सेकेण्ड से श्रेष्ठ प्राप्ति कर सकते हो। तो यह संगम का समय अर्थात् एक-एक सेकेण्ड अनेक पद्मों से ज्यादा बड़ा ख़ज़ाना है। अगर अनेक पद्म इकठ्ठा करो और संगमयुग का एक सेकेण्ड दूसरी तरफ रखो तो भी श्रेष्ठ संगम का ही एक सेकेण्ड गिना जायेगा। क्योंकि इस एक सेकेण्ड में ही सदा काल के प्रारब्ध की प्राप्ति होती है। सभी को सुनाते हो न - एक सेकेण्ड में मुक्ति और जीवनमुक्ति का वर्सा ले सकते हो। तो एक सेकेण्ड की भी वैल्यु हो गई ना? तो संगम का समय भी बहुत बड़ा खज़ाना है।
अब इतने सभी खजाने चेक करो कि हम इन खजानों को अपने अन्दर कितना धारण कर सके हैं? अथवा ऐसा तो नहीं कि कोई खज़ाना धारण हुआ है और कोई नहीं हुआ है? किसी भी खज़ाने से अधूरे तो नहीं रह गये हो? वंचित तो होंगे नहीं लेकिन यदि अधूरी प्राप्ति की, तो भी चन्द्रवंशी हो गये, सूर्यवंशी नहीं हुए। सूर्यवंशी अर्थात् सम्पन्न। किसी भी बात में यदि सम्पन्न नहीं तो सूर्यवंशी नहीं कहेंगे। तो सभी खज़ानों को सामने रखते हुए अपने-आप को चेक करो कि यह कहाँ तक है, कितनी अन्दाज़ में हैं? ऐसा तो नहीं कि थोड़े में ही खुश हो गये हैं।
तो इन सभी खज़ानों को चेक करना और साथ-साथ यह भी चेक करो कि जो भी खज़ाने मिले हैं उनके महादानी बने हो या अपने प्रति ही रख लिया है? महादानी जो होते हैं वह अपना भी दूसरों को दे देते हैं, लेकिन फिर भी वे भिखारी नहीं बनते। क्योंकि जो देते हैं वो उनके पास ऑटोमेटिकली बढ़ता है। तो यह भी देखो कि पवित्रता का खज़ाना कहाँ तक अनेक आत्माओं को दान दिया है? अतीन्द्रिय सुख का खज़ाना भी देखना है कि ज्यादा अपने प्रति लगाते हो या विश्व की सेवा अर्थ लगाते हो? अपनी प्राप्ति तो कर ली ना? लेकिन अभी की स्टेज विश्व की सेवा के प्रति लगाने की है। तो यह चेक करो कि हर खज़ाना अपने प्रति कहाँ तक लगाया है? और दूसरों के प्रति कहाँ तक लगाते हैं? सम्पूर्ण स्टेज इसको कहा जाता है। क्या सर्व खज़ाने औरों के प्रति लगाये? अगर अपने पुरूषार्थ के प्रति ही ज्ञान का ख़ज़ाना व शक्तियों का खज़ाना लगाते रहते हो तो वह भी सम्पूर्ण स्टेज नहीं हुई। अब दूसरों के प्रति लगाने का समय है। अगर अभी तक भी सर्वशक्तियों को अपने प्रति ही प्रयोग करते रहेंगे तो दूसरों के लिए महादानी व वरदानी कब बनेंगे? अब ऐसा अभ्यास करो जो अपने प्रति लगाना न पड़े। अगर सभी खज़ाने दूसरों के प्रति लगाते रहेंगे तो आप खाली हो जायेंगे क्या?
जैसे बाप अपने रेस्ट का समय जो कि शरीर के लिए आवश्यक है वह भी अपने प्रति न लगाकर विश्व-कल्याण अर्थ लगाते रहते थे ऐसे सर्वशक्तियाँ भी विश्व-कल्याण-प्रति लगें न कि अपने प्रति। जब सभी को बाप-समान बनना है तो बाप-समान स्टेज भी तो धारण करेंगे न? दूसरों को देने लग जायेंगे तो ही अपने-आपको सर्व बातों में सम्पन्न होने का अनुभव करेंगे। दूसरों को पढ़ाने में अपने को पढ़ाना ऑटोमेटिकली हो जायेगा। अभी डबल अर्थात् दूसरों में अलग, अपने में अलग टाइम लगाते हो। अभी एक ही समय में डबल काम करो। क्योंकि समय कम है। समय कम होता है तो डबल कोर्स की स्टडी करते हैं, यह भी ऐसे है। समय समीप आ रहा है। तो दूसरों को देने के साथ-साथ अपना जमा करो। अपने प्रति न लगाओ। अगर अभी तक भी अपने प्रति लगाते और समय गंवाते रहेंगे तो विश्व के महाराजन् नहीं बन सकेंगे। लक्ष्य तो विश्व महाराजन् बनने का है ना?
शुरू में जब ज्ञान गंगायें निकलीं तो उस समय की सेवा की विशेषता क्या थी? उस समय के निकले हुए वारिस और इस समय की निकली हुई आत्माओं में अन्तर क्यों? सर्विस तो अब ज्यादा हो रही है लेकिन वारिस दिखाई नहीं देते-क्यों? कारण, विस्तार में तो बहुत है, लेकिन मूल कारण क्या है? उस समय अपना-पन नहीं था, विश्व के कल्याण-अर्थ अपना सभी कुछ देना है, वह भावना थी। एकनामी और एकॉनॉमी (Economy) वाले थे। सभी खज़ानों की एकॉनॉमी थी। व्यर्थ नहीं गंवाते थे। समय, शक्ति जो ली है, वह औरों को देनी है। अर्थात् महादानी-पन की स्टेज थी। क्योंकि विशेष निमित्त बनी हुई थीं। तो उस समय की स्टेज और अभी की स्टेज देखो कितना फर्क है। अभी पहले अपने साधन सोचेंगे, पीछे सर्विस के साधन अर्थात् पहले सालवेशन (Salvation) पीछे सर्विस (Service)। परन्तु शुरू में था पहले सर्विस, फिर सालवेशन मिले, न मिले। सालवेशन से सर्विस करनी है यह संकल्प-मात्र में भी नहीं था। साधन हो तो सर्विस हो, साथी हो तो सर्विस हो, धरनी हो तो सर्विस हो-यह संकल्प नहीं थे। जहाँ जाओ, जैसी परिस्थिति हो और जैसा प्रबन्ध हो, सहनशक्ति से सेवा को बढ़ाना है। यह महादानी की स्टेज है।
स्वयं के त्याग से औरों का भाग्य बनता है। जहाँ स्वयं का त्याग नहीं वहाँ औरों का भाग्य नहीं बनता। बाप ने स्वयं का त्याग किया, तभी तो आप अनेक आत्माओं का भाग्य बना। तो शुरू की स्थिति में स्वयं के सभी सुखों का त्याग था इससे यह भाग्य बने। अब जितना त्याग, उतना भाग्य बना रहे हो औरों का। इसलिए वारिस छिप गये हैं। तो अब फिर से वही महादानी बनने का संस्कार व सदा सर्व प्राप्ति होते हुए भी और सर्व साधन होते हुए भी साधन में न आओ, साधना में रहो। अभी साधना कम है, साधन ज्यादा हैं। पहले साधन कम थे, साधना ज्यादा थी। इसलिए अभी निरन्तर उस साधना में रहो अर्थात् साधन होते हुए भी त्याग वृत्ति में रहो। जिससे थोड़े समय में ऊंची आत्माओं का भाग्य बना सको। बापदादा ने सभी के हाथ में अब आत्माओं के भाग्य की रेखा लगाने की अथॉरिटी दी है। तो ऐसा न हो कि अपने त्याग की कमी के कारण अनेक आत्माओं के भाग्य की रेखा सम्पन्न न कर सको। बहुत जिम्मेवारी है। जैसे-जैसे समय समीप आता जा रहा है, वैसे-वैसे संकल्प भी व्यर्थ न गंवाने की जिम्मेवारी हरेक आत्मा के ऊपर बढ़ती जा रही है। अभी अपना बचपन नहीं समझना। बचपन में जो किया वह अच्छा लगता था। बच्चे का अलबेलापन अच्छा लगता है, बड़प्पन नहीं और बड़ों का फिर अलबेलेपन अच्छा नहीं लगता है इसलिये समय के प्रमाण अपने स्वमान को कायम रखते हुए जिम्मेवारी को सम्भालते जाओ। समझा?
अच्छा ऐसे बाप को सर्व-सम्बन्धों से अपना बनाने वाले, सदा सर्व-खजाने सर्व-आत्माओं के प्रति दान देने वाले महादानी, वरदानी, महात्यागी और पद्मापद्म भाग्यवान बच्चों को याद-प्यार और नमस्ते।