09-02-75 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
आध्यात्मिक शक्तियों द्वारा विश्व-परिवर्तन कैसे?
निर्बल आत्माओं को शक्तिवान् बनाने वाले, सर्वशक्तिवान् शिव बाबा बोले -
स्वयं को अशरीरी आत्मा अनुभव करते हो? इस शरीर द्वारा जो चाहे वही कर्म कराने वाली तुम शक्तिशाली आत्मा हो-ऐसा अनुभव करते हो? इस शरीर के मालिक कर्मेन्द्रियों द्वारा कर्म कराने वाले, इन कर्मेन्द्रियों से जब चाहो तब न्यारे स्वरूप की स्थिति में स्थित हो सकते हो? अर्थात् राजयोग की सिद्धि - कर्मेन्द्रियों के राजा बनने की शक्ति प्राप्त की है? राजा व मालिक कभी भी कोई कर्मेन्द्रिय के वशीभूत नहीं हो सकता। वशीभूत होने वाले को मालिक नहीं कहा जाता। विश्व के मालिक की सन्तान होने के नाते, जब बाप विश्व का मालिक हो और बच्चे अपनी कर्मेन्द्रियों के मालिक न हों, तो क्या कहेंगे? मालिक के बालक कहेंगे? नाम हो मास्टर सर्वशक्तिवान् और स्वयं को मालिक समझ कर चल नहीं सके तो क्या मास्टर सर्वशक्तिवान् हुए? हम मास्टर सर्व- शक्तिवान् हैं - यह तो पक्का निश्चय है ना, कि यह निश्चय भी अभी हो रहा है? निश्चय में कभी परसेन्टेज होती है क्या? बाप के बच्चे तो हैं ही ना? ऐसे थोड़े ही 90% हैं और 10% नहीं है। ऐसा बच्चा कभी देखा है? निश्चय अर्थात् 100% निश्चय।
ऐसे 100% निश्चय-बुद्धि बच्चों की पहली निशानी क्या होगी? निश्चय-बुद्धि की पहली निशानी है - विजयी। कहावत भी है - निश्चय बुद्धि विजयन्ति। विजय मिलेगी कैसे? निश्चय से। तो निरन्तर इस निश्चय की स्मृति कि - मैं मास्टर सर्वशक्तिवान हूँ यह स्मृति रहती है? स्मृति के बिना समर्थी थोड़े ही आयेगी? विजयी होने का आधार है - स्मृति। अगर स्मृति कमज़ोर होगी, निरन्तर नहीं होगी और स्मृति पॉवरफुल नहीं होगी तो विजयी कैसे होंगे? तो पहले इस निश्चय को सदा स्मृति-स्वरूप बनाना पड़ता है।
जैसे चलते-फिरते लौकिक आक्युपेशन (धन्धा) और लौकिक सम्बन्ध सदा स्मृति में रहता ही है ना? उसी स्मृति से समर्थी आती है कि मैं ऐसे परिवार का, ऐसे ऑक्युपेशन वाला हूँ, वैसे ही जो मरजीवा ब्राह्मण जन्म का सम्बन्ध व ऑक्युपेशन है वा स्वयं का स्वरूप है, वह सदा स्मृति में रहना चाहिए। स्मृति कमज़ोर होने के कारण विजय दिखाई नहीं देती है। विजय हो उसको सिर्फ देखते हुए समय नहीं गँवाओ, बल्कि विजय होने का जो फाउण्डेशन है उसको मजबूत रखो। कोई सोचे कि मार्ग तय करने से पहले मंज़िल पर पहुँच जायें - यह हो सकता है? मार्ग तो ज़रूर तय करना ही पड़ेगा। तो विजय है मंज़िल और मार्ग है निरन्तर स्मृति। अत: इस मार्ग को तय कर रहे हो या इंतज़ार में हो कि मंज़िल दिखाई दे?
सदैव यह सोचना चाहिए कि मिली हुई गॉडली लॉटरी अगर पूरी काम में नहीं लगायेंगे तो खुशी व शक्ति का अनुभव कैसे करेंगे? कितना भी किसी के पास धन हो लेकिन सुख की प्राप्ति तब होगी जब उसको यूज़ (प्रयोग) करेंगे। यूज़ न करें तो देखते हुए सिर्फ खुशी ही होगी, लेकिन उससे जो सुख की प्राप्ति होनी चाहिए वह अनुभव नहीं कर सकेंगे। लॉटरी तो मिली लेकिन उसको यूज़ करना अर्थात् जीवन में लाना - उसके बिना सुख का, आनन्द का व विजयी बनने की खुशी का अनुभव नहीं कर सकेंगे।
अनुभवी बनना चाहिए ना? अनुभव जीवन का मुख्य खज़ाना है। लौकिक पहलू में भी अनुभवी आत्मा मुख्य गायी जाती है। इस ईश्वरीय मार्ग में भी अनुभवी आत्मा बनना चाहिए। जो बोला, वह अनुभव किया? यह समझते तो हो कि मैं मास्टर सर्व शक्तिवान् हूँ, परन्तु क्या इसका अनुभव भी किया है? ऐसे नहीं कि अनुभव तो हो ही जायेगा, चल तो रहे हैं। जब तक कोई भी कार्य करने की डेट फिक्स नहीं हो जाती तब तक पुरूषार्थ तीव्र नहीं हो सकता।
किसी भी लौकिक अथवा अलौकिक कार्य की डेट फिक्स होने के बाद फिर ऑटोमेटिकली कर्म में भी बल आ जाता है। मालूम है फलानी डेट तक यह कार्य सम्पन्न करना है। डेट को स्मृति में रखने से कर्म की स्पीड भी ऐसे चलती है। कल पूरा करना है तो स्पीड ऐसे रहेगी? इस ज्ञान का मुख्य स्लोगन ही है कि अभी नहीं तो कभी नहीं। इसकी डेट कल या परसों नहीं होती - इसकी डेट होती है अभी। घण्टे के बाद भी नहीं। इसलिये जितना निश्चय रखेंगे कि ये करना ही है - करेंगे नहीं - करना ही है यह है दृढ़ संकल्प। दृढ़ संकल्प के बिना दृढ़ता नहीं आती। और पुरूषार्थ का समय बाकी कितना कम है? जास्ती समय दिखाई देता है क्या? समय का ख्याल तो रखना चाहिए ना। यह भी सोचो कि प्रालब्ध कितने समय की है? दो युग की प्रालब्ध है ना। इस पुरूषार्थ की प्रालब्ध का समय कितना कम रहा? यह सदा स्मृति में होना चाहिए।
बहुत काल की प्रालब्ध पानी है, तो पुरूषार्थ भी बहुत काल का चाहिए ना। अगर लास्ट टाइम पुरूषार्थ करेंगे तो प्रालब्ध भी लास्ट की ही मिलेगी। पुरूषार्थ फर्स्ट नहीं और प्रालब्ध फर्स्ट वाली चाहिए? लास्ट में बचा-खुचा मिलने से क्या होगा? जैसे प्राप्ति का लक्ष्य फर्स्ट का है, वैसे पुरूषार्थ भी ऐसा करो! कोई भी बात सामने आये उसको एक साईट और सीन समझो जैसे रास्ते चलते अनेक प्रकार की साईट्स और सीन्स आती है, लेकिन जो मंज़िल को पाने वाला होता है, वह उसको देखता नहीं है, उसकी बुद्धि में मंज़िल की प्राप्ति ही रहती है। तो यहाँ भी बुद्धि में मंज़िल रखनी है, न कि वह बातें। अगर छोटी-सी बात को देखने में ही समय गंवा देंगे तो मंज़िल पर समय पर पहुँच नहीं सकेंगे। तो अब दृढ़ता लाने का समय है। नहीं तो कुछ समय के बाद इस समय को भी याद करना पड़ेगा कि समय पर जो करना था, वह नहीं किया।
पीछे सोचने से पहले क्यों नहीं समय को परिवर्तित कर दो? विश्व के परिवर्तन के निमित्त हो तो जो बाप का कार्य है, बाप के साथ अपने को भी निमित्त समझो! विश्व में स्वयं भी हो ना! विश्व को परिवर्तित करने वाले को पहले स्वयं को परिवर्तित करना पड़े। सदैव यह सोचो कि जब मैं हूँ ही विश्व को परिवर्तन करने के निमित्त, तो स्वयं को परिवर्तन करना, क्या बड़ी बात है? तो फौरन ही परिवर्तन करने की शक्ति आयेगी। कैसे होगा, क्या होगा, होगा व नहीं होगा? यह क्वेश्चन नहीं उठेगा।
दूसरी बात यह स्मृति में रखो कि यह विश्व-परिवर्तन का कार्य कितनी बार किया है? अनगिनत बार किया है, यह तो पक्का है ना? बाप के साथ मैं भी अनेक बार निमित्त बना हूँ। जब अनेक बार की हुई बात होती है तो वह मुश्किल लगती है क्या? अति पुरानी बात को सिर्फ निमित्त बन रिपीट कर रहे हो। रिपीट करना सहज होता है या मुश्किल? तो यह भी स्मृति में रहना चाहिए। कोई जरा भी मुश्किल का संकल्प आये तो यह हिम्मत की बात याद रखो। फिर से अनेक बार की हुई बात की स्मृति आने से समर्थी आ जायेगी।
तो यह वरदान सदा स्मृति में रखना कि मैं बाप-समान शक्तियों का स्वरूप दिखाने वाला हूँ - अर्थात् शक्ति स्वरूप हूँ। सम्बन्ध रहने से यहाँ तक पहुँच सकते हो। लेकिन अब बाप का स्नेह, बाप के कार्य से स्नेह और बाप द्वारा मिली हुई नॉलेज से स्नेह - इन तीनों का बैलेन्स रखो। अभी बैलेन्स में बाप का स्नेह ज्यादा है, बाकी दो तरफ हल्का है। नॉलेज से शक्ति आयेगी। एक-एक वर्शन पदमपति बनाने वाला है। इतना महत्व रखते हुए उन वर्शन्स को धारण करो, तो महत्व से स्नेह होता है। जब तक महत्व को नहीं जानते तब तक स्नेह नहीं होता। महत्व को जानेंगे तो ही स्नेह ऑटोमेटिकली रहेगा।
निश्चय-बुद्धि विजयन्ति हो। अलौकिक जन्म हुआ, निश्चयबुद्धि हुए कि मैं बाप का बच्चा हूँ, तो बाप का वर्सा ही विजय है। मास्टर सर्व-शक्तिवान् का वर्सा क्या होगा? शक्तियाँ। तो बच्चा बनना अर्थात् विजयी बनना। विजय का तिलक स्वत: ही लग जाता है, लगाना नहीं पड़ता और वह अविनाशी है। अधिकारी हो गये हो ना? स्नेही और सहयोगी बनने की तकदीर अच्छी है। परिवार का परिवार एक मत हो जाये तो यह भी तकदीर की निशानी है। परिवार के सब साथी पुरूषार्थ की रेस में एक-दूसरे से आगे निकलने की लगन में लगे हुए हैं। हिम्मत से मदद स्वत: ही प्राप्त होती है। (वीरचन्द को) यह मोह-जीत परिवार है। ऐसे मोह-जीत परिवार कितने बनाये हैं? लक्ष्य श्रेष्ठ रखा हुआ है। अब ऐसे परिवारों का गुलदस्ता बनाओ। अगर दस-ग्यारह ऐसे परिवार हो जाएं तो अहमदाबाद का नम्बर आगे हो जायेगा। गुजरात को, परिवारों को चलाने का वरदान ड्रामानुसार मिला हुआ भी है। लेकिन मोह-जीत परिवार और सब एक लगन में श्रेष्ठ पुरूषार्थ की लाइन में हो। ऐसा गुलदस्ता बनाओ। अच्छा।