20-09-75 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
शक्ति होते हुए भी जीवन में सफलता और सन्तुष्टता क्यों नहीं?
सर्वशक्तियों, सिद्धियों और निधियों के दाता, शिव बाबा बोले -
जैसे बाप सर्व गुणों के सागर हैं, क्या आप भी वैसे ही अपने को मास्टर सागर समझते हो? सागर अखण्ड, अचल और अटल होता है। सागर की विशेष दो शक्तियाँ सदैव देखने में आयेंगी - एक समाने की शक्ति, जितनी समाने की शक्ति है उतनी सामना करने की भी शक्ति है। लहरों द्वारा सामना भी करते हैं और हर वस्तु व व्यक्ति को स्वयं में समा भी लेते हैं। तो मास्टर सागर होने के कारण अपने में भी देखो कि यह दोनों शक्तियाँ मुझ में कहाँ तक आई हैं? अर्थात् कितने परसेन्टेज में हैं? क्या दोनों शक्तियों को समय-प्रमाण यूज़ कर सकते हो? क्या शक्तियों द्वारा सफलता का अनुभव होता है?
कई बच्चे सर्व शक्तियों का स्वयं में अनुभव भी करते हैं और समझते हैं कि मुझ में यह शक्तियाँ हैं। लेकिन शक्तियाँ होते हुए भी कही-कही वे सफलता का अनुभव नहीं करते। ज्ञानस्वरूप, आनन्द, प्रेम, सुख और शान्ति स्वरूप स्वयं को समझते हुए भी स्वयं से सदा सन्तुष्ट नहीं अथवा पुरुषार्थी होते हुए भी प्रारब्ध अर्थात् प्राप्ति का प्रत्यक्ष फल के रूप में जो अनुभव होना चाहिए, वह कभी-कभी ही कर सकते हैं। सर्व नियमों का पालन भी करते हैं, फिर भी स्वयं को सदा हर्षित अनुभव नहीं करते। मेहनत बहुत करते हैं लेकिन फल का अनुभव कम करते हैं। माया को दासी भी बनाते हैं, लेकिन फिर भी कभी-कभी उदासी महसूस करते हैं। इसका कारण क्या है? शक्तियाँ भी है, साथ-साथ ज्ञान भी हैं, नियमों का पालन भी करते हैं, तब कमी किस बात में है कि स्वयं, स्वयं से ही कन्फ्यूज रहते हैं?
इसमें कमी यह है कि प्राप्त की हुई शक्ति को व ज्ञान की प्वॉइन्ट्स को जिस समय, जिस रीति से कार्य में लगाना चाहिए उस समय, उस रीति से यूज़ करना नहीं आता है। बाप से प्रीति है, ज्ञान से भी प्रीति है, दिव्य गुण-सम्पन्न जीवन से भी प्रीति है - लेकिन प्रीति के साथ-साथ रीति नहीं आती है व रीति के साथ ‘प्रीति’ नहीं आती। इसलिए अमूल्य वस्तु भी साधारण प्राप्ति का आधार बन जाती हैं। जैसे स्थूल में भी कितना ही बड़ा यन्त्र व मूल्यवान वस्तु पास होते हुए भी यूज़ करने की रीति नहीं आती है तो उस द्वारा जो प्राप्ति होनी चाहिये वह नहीं कर पाते हैं, ऐसे ही ज्ञानवान बच्चे भी ज्ञान और शक्तियों द्वारा जो प्राप्ति होनी चाहिये, नहीं कर पाते हैं। ऐसी आत्माओं के ऊपर बापदादा को भी रहम आता है।
अब वह रीति, जो न आने के कारण प्राप्ति का अनुभव नहीं कर पाते, वह रीति कैसे आये? इसमें चाहिये - निर्णय शक्ति। निर्णय शक्ति न होने के कारण जहाँ समाने की शक्ति यूज़ करनी चाहिये वहाँ सामना करने की शक्ति यूज़ कर लेते हैं। जहाँ समेटने की शक्ति यूज़ करनी चाहिये, वहाँ विस्तार करने की शक्ति यूज़ कर लेते हैं। इसलिये संकल्प सफलता का होता है, लेकिन स्वरूप में व प्राप्ति में संकल्प-प्रमाण सफलता नहीं होती है। विशेष शक्ति की प्राप्ति का मुख्य आधार क्या है? निर्णय शक्ति को तेज करने के लिए किस बात की आवश्यकता है? कोई भी यन्त्र स्पष्ट निर्णय नहीं कर पाता तो उसका कारण क्या होता है? निर्णय शक्ति को बढ़ाने के लिए अपनी श्रेष्ठ स्थिति - निराकारी, निरहंकारी, निर्विकारी और निर्विकल्पता की चाहिए। अगर इन चारों में से किसी भी बात की कमी रह जाती है, तो यह श्रेष्ठ धारणा न होने के कारण स्पष्टता नहीं होती है। श्रेष्ठ ही स्पष्ट होते हैं। यही उलझन बुद्धि को स्वच्छ नहीं बनने देती। ‘स्वच्छता ही श्रेष्ठता’ है। इसलिए अपनी निर्णय शक्ति को बढ़ाओ। तब ही बाप के समान सर्व-गुणों में मास्टर सागर अनुभव कर सकेंगे।
जैसे सागर अनेक वस्तुओं से सम्पन्न होता है वैसे स्वयं को भी सर्वशक्तियों से सम्पन्न स्वरूप का अनुभव करो, क्योंकि सम्पन्नता का वरदान संगमयुग पर ही मिलता है। सम्पन्न-स्वरूप का अनुभव सिवाय संगमयुग के और कहीं भी नहीं कर सकेंगे। आपके ही दैवी जीवन के सर्वगुण सम्पन्न होने का गायन है। 16 कलाओं का भी गायन है। लेकिन सम्पन्न का स्वरूप क्या होता है? गुण और कला की नॉलेज इस ईश्वरीय जीवन में ही है। इसलिये सम्पन्न बनने का आनन्द इस ईश्वरीय जीवन में ही प्राप्त कर सकते हो।
रीति सीखने के लिये, बाप द्वारा जो भी प्राप्त होता जा रहा है, चाहे ज्ञान, चाहे शक्तियाँ, इन्हों को समय प्रमाण कार्य में लगाते जाओ। बहुत अच्छी बातें हैं और बहुत अच्छी चीज है, सिर्फ यह समझ कर अन्दर समा न लो। अर्थात् बुद्धि की तिजोरी में रख न लो। सिर्फ बैंक बैलेन्स न बनाते जाओ या कई बुजुर्गो के मुआफिक गठरियाँ बाँध कर अन्दर रख न दो। सिर्फ सुनने और रखने का आनन्द नहीं लो, लेकिन बार-बार स्वयं के प्रति और सर्व आत्माओं के प्रति काम में लगाते जाओ क्योंकि इस समय की जो प्राप्ति हो रही है, इन प्राप्तियों को यूज़ करने से ईश्वरीय नियम-प्रमाण जितना यूज़ करेंगे उतनी वृद्धि होगी, जैसे दान के लिये कहावत है - ‘धन दिये धन न खुटे’, अर्थात् देना ही बढ़ना है, ऐसे ही इन ईश्वरीय प्राप्तियों को अनुभव में लाने से प्राप्ति कम नहीं होगी, बल्कि और ही प्राप्ति स्वरूप का अनुभव करोगे। बार-बार युज़ करने से, जैसा समय वैसा स्वरूप अपना बना सकेंगे व जिस समय जो शक्ति यूज़ करनी चाहिये वह शक्ति उस रीति यूज़ कर सकेंगे। समय पर धोखा खाने से बच जायेंगे। धोखा खाने से बचना अर्थात् दु:ख से बचना। तो क्या बन जायेंगे? - सदा हर्षित अर्थात् सदा सुखी, खुशनसीब बन जायेंगे। तो अब अपने ऊपर रहम करके, प्राप्तियों को यूज़ करके और प्रीति के साथ रीति को जान करके, सदा मास्टर ज्ञान सागर बनो, शक्ति का सागर बनो और सर्व प्राप्तियों का सागर बनो। अच्छा।
ऐसे सर्व अनुभवों से सम्पन्न मायाजीत, जगतजीत, अपने अनुभवों द्वारा सर्व को अनुभवी बनाने वाले बापदादा के भी बालक सो मालिक, ऐसे बाप के मालिक और विश्व के मालिक आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते!
इस मुरली की विशेष बातें अथवा तथ्य
1. ज्ञानसागर बाप द्वारा प्राप्ति की हुई शक्तियों व ज्ञान के तथ्यों को जिस समय जिस रीति से कार्य में लगाना चाहिये उस समय उस रीति से उपयोग न कर सवने के कारण स्वयं में उलझे हुए रहते हैं और सफलता व सिद्धि की अनुभूति अपने जीवन में नहीं कर पाते हैं।
2. उपयोग की उचित रीति को जानने के लिये अपनी निर्णय शक्ति को बढ़ाना आवश्यक है।