21-09-75 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
फरिश्ता अर्थात् जिसका एक बाप के सिवा अन्य आत्माओं से कोई रिश्ता नहीं
एक के द्वारा सर्व-सम्बन्धों के सुख की अनुभूति कराने वाले, मुश्किल को सहज करने वाले, देह रूपी धरनी से सदा न्यारे, करन-करावनहार शिव बाबा बोले –
‘‘वाह रे - मैं!’’ का नशा याद है? वह दिन, वह झलक और फलक स्मृति में आती है? वह नशे के दिन अलौकिक थे। ऐसे नशे के दिन स्मृति में आते ही नशा चढ़ जाता है - इतना नशा इतनी खुशी जो स्थूल पाँव भी चलते-फिरते नैचुरल डान्स करते हैं - प्रोग्राम से डान्स नहीं। मन में भी नाच और तन भी नैचुरल नाचता रहे। यह नैचुरल डान्स तो निरन्तर हो सकता है? ऑखों का देखना, हाथों का हिलना और पाँव का चलना सब खुशी में नैचुरल डान्स करते हैं। उनको फरिश्तों का डान्स कहते हैं - ऐसे नैचुरल डान्स चलता रहता है? जैसे कहते हैं कि फरिश्तों के पाँव धरती पर नहीं टिकते। ऐसे फरिश्ते बनने वाली आत्मायें भी इस देह अर्थात् धरती - जैसे वह धरती मिट्टी है वैसे यह देह भी मिट्टी है ना? तो फरिश्तों के पाँव धरती पर नहीं रहते अर्थात् फरिश्ते बनने वाली आत्माओं के पाँव अर्थात् बुद्धि इस देह रूपी धरती पर नहीं रह सकती। यही निशानी है फरिश्तेपन की। जितना फरिश्तेपन की स्थिति के समीप जाते रहते, उतना देह रूपी धरती से पाँव स्वत: ही ऊपर होंगे। अगर ऊपर नहीं हैं, धरती पर रहते हैं तो समझो बोझ है। बोझ वाली वस्तु ऊपर नहीं रह सकती। हल्कापन न है, बोझ है तो इस देह-रूपी धरती पर बार-बार पाँव आ जायेंगे। फरिश्ता अर्थात् हल्का नहीं बनेंगे। फरिश्तों के पाँव धरती से ऊंचे स्वत: ही रहते हैं, करते नहीं हैं। जो हल्का होता है उनके लिये कहते हैं कि यह तो जैसे हवा में उड़ता रहता है - चलता नहीं है, उड़ता है। ऐसे ही फरिश्ते भी ऊंची स्थिति में उड़ते हैं। ऐसे नैचुरल फरिश्तों का डान्स देखने और करने में भी मजा आता है। महारथी टीचर्स यह नेचुरल फरिश्तों की डान्स करती रहती हैं ना?
करन-करावनहार शिव बाबा ने अपने सम्मुख बैठी टीचर्स से पूछा - (कोई ने कहा, बाबा माया के हाथ काट दो) अगर बाप माया के हाथ काट दे तो जो काटेगा, वह पायेगा। बाप तो सब कुछ कर सकते हैं। सेकेण्ड का आर्डर है - लेकिन भविष्य बनाने वालों का भविष्य कैसे बने? बाप सबके लिये कर दे या सिर्फ आपके लिए कर दे। फिर तो जैसे आज की दुनिया में रिश्वतखोर हैं तो यह भी वही लिस्ट हो जायेगी। इसलिए जैसे नेपाल में भी छोटे बच्चों को खुखडी (छुरी) हाथ में पकड़ाते हैं। करते खुद हैं लेकिन हाथ बच्चों का रखाते हैं। इतना हो सकता है लेकिन हिम्मत का हाथ खुद ज़रूर रखना है। इतना तो करना है ना? यह टीचर्स की टॉपिक (चर्चा का विषय) है - सारे दिन में कितना समय फरिश्ते रहते और कितना समय फरिश्तों के बजाय मृत्युलोक के मानव होते हो? दैवी परिवार के रिश्तों में भी फरिश्ते नहीं आते। वह तो सदैव न्यारे रहते हैं। रिश्ते सब किससे हैं? अगर कोई को सखी बनाया तो बाप से वह सखीपन का रिश्ता कम हो जायेगा। कोई भी सम्बन्ध चाहे बहन का या भाई का या अन्य कोई भी रिश्ता जोड़ा तो एक से ज़रूर वह रिश्ता हल्का होगा। क्योंकि बँट जाता है ना? दिल का टुकड़ा-टुकड़ा हो गया तो टूटा हुआ दिल हो गया। टूटे हुए दिल को बाप भी स्वीकार नहीं करते। यह भी गुह्य रिश्तों की फिलॉसॉफी है।सिवाय एक के और कोई से रिश्ता नहीं - न सखा न सखी। न बहन न भाई- नहीं तो उस सम्बन्ध में भी आत्मा ही याद आयेगी।
फरिश्ता अर्थात् जिसका आत्माओं से कोई रिश्ता नहीं। प्रीति जुटाना सहज है, लेकिन निभाना मुश्किल है। निभाने में ही नम्बर होते हैं। जुटाने में नहीं होते। निभाना किसी-किसी को आता है, सब को नहीं आता। निभाने की लाइन बदली हो जाती है। लक्ष्य एक होता है लक्षण दूसरे हो जाते हैं। इसलिये निभाते कोई- कोई हैं, जुटाते सब हैं। भक्त भी जुटाते हैं लेकिन निभाते नहीं हैं। बच्चे निभाते हैं, लेकिन उसमें भी नम्बरवार। कोटो में कोई और कोई-कोई में भी कोई। कोई एक सम्बन्ध में भी अगर निभाने में कमी हो गई या सम्बन्ध में जरा-सी भी कमी हुई, मानों 75% सम्बन्ध बाप से है और 25% सम्बन्ध कोई एक आत्मा से है, तो भी निभाने वाले की लिस्ट में नहीं रखेंगे। बाप का साथ 75% रखते हैं और कभी-कभी 25% कोई का साथ लिया तो भी निभाने वाले की लिस्ट में नहीं आयेंगे। निभाना-तो निभाना। यह भी गुह्य गति हैं। संकल्प में भी कोई आत्मा न आये। इसको कहते हैं सम्पूर्ण निभाना। कैसी भी परिस्थिति हो, चाहे मन की, तन की, या सम्पर्क की-कोई भी आत्मा संकल्प में न आये। संकल्प में भी कोई आत्मा की स्मृति आई तो उसी सेकेण्ड का भी हिसाब बनता है। तभी तो आठ पास होते हैं। विशेष आठ का ही गायन है। ज़रूर इतनी गुह्य गति होगी? बड़ा कड़ा पेपर है। तो फरिश्ता उनको कहा जाता है, जिसके संकल्प में भी कोई न रहे। कोई परिस्थिति में, मजबूरी में भी नहीं। सेकेण्ड के लिये संकल्प में भी न हो। मजबूरी में भी मजबूत रहे-तब है फरिश्ता। ऊंची मंज़िल है, लेकिन इसमें कोई नुकसान नहीं है। सहज इसलिये है क्योंकि प्राप्ति पदम गुना होती है।
जो बाप के रिश्ते से प्राप्ति होती है, वह उसी सेकेण्ड में स्मृति में नहीं आती है, भूल जाते हैं इसलिये कोई का आधार ले लेते हैं। प्राप्ति कोई कम है क्या? मुश्किल से सहज करने वाले बाप का ही गायन है, न कि कोई आत्मा का। तो मुश्किल के समय बाप का सहारा लेना चाहिए, न कि किसी आत्मा का सहारा लेना चाहिए। लेकिन उस समय वह प्राप्ति भूल जाती है। कमज़ोर होते हैं। जैसे डूबते हुए को तिनका मिल जाता है तो उसका सहारा ले लेते हैं। उस समय परेशानी के कारण जो तिनका सामने आता है, उनका सहारा ले लेते हैं, लेकिन उससे बे-सहारे हो जायेंगे, यह स्मृति में नहीं रहता? अच्छा।
इस मुरली के विशेष ज्ञान-बिन्दु
1. फरिश्ता बनने वाली आत्माओं के बुद्धि रूपी पाँव इस देह रूपी धरनी पर नहीं टिकते।
2. फरिश्ता अर्थात् जिसका अन्य आत्माओं से कोई रिश्ता नहीं। सर्व रिश्ते एक रूहानी बाप से हों। कैसी भी परिस्थिति हो - चाहे मन की, तन की या सम्पर्क की कोई भी आत्मा संकल्प में न आये। जो मजबूरी में भी मजबूत रहेतब वह है फरिश्ता।