27-10-75 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
क्वेश्चन, करेक्शन और कोटेशन से पुरूषार्थ में ढीलापन
रूहानी बगीचे के बागवान शिव बाबा फुलवारी के फूलों को देख बोले:-
आज बापदादा बेहद की फुलवारी को विशेष रूप से देख रहे थे कि हर एक फूल के अन्दर रूप, रंग और कितनी खुशबू है। रूप अर्थात् साकारी स्वरूप में नैन और चैन में अर्थात् चेहरे में ब्राह्मण-पन का व फरिश्ते-पन का, श्रेष्ठ पार्टधारी आत्मा की स्मृति का नशा और खुशी प्रत्यक्ष रूप में कितनी दिखाई देती है? रंग अर्थात् निरन्तर बाप के संग का रंग अर्थात् सदा साथी बनने का रंग कितना चढ़ा हुआ है? खुशबू अर्थात् सदा रूहानी वृत्ति और दृष्टि कहाँ तक अपनायी है? हर-एक में यह तीन विशेषतायें देखीं।
यह विशेषता देखते हुए एक और विचित्र विशेषता देखी। वह क्या देखी कि जिन विशेष फूलों में बापदादा की नजर है, उमंग और उल्लास की झलक भी है, उम्मीदवार भी हैं, सर्व ब्राह्मण परिवार का स्नेह भी है, लक्ष्य भी बहुत श्रेष्ठ है और कदम भी तीव्र गति के हैं - लेकिन अभी-अभी इसी रूप में दिखाई दे रहे हैं (जो वर्णन किया है); कुछ समय के बाद बाप की नजर में रहने वालों के ऊपर माया के रॉयल रूप की नजर लगने के कारण रूप-रंग बदल जाता है। कदमों की तीव्र गति यथार्थ मार्ग के बजाय व्यर्थ मार्ग पर तीव्र गति से चल पड़ते हैं। फरिश्तेपन के नशे के बजाय और ईश्वरीय खुशी के बजाय अनेक प्रकार के नशे जो कि विनाशी नशे हैं, साथ-साथ साधनों के आधार पर जो प्राप्त हुई खुशी और नशे हैं - उनमें मस्त हो जाते हैं। सदा बाप के संग के रंग के बजाय अर्थात् एक बाप का सहारा लेने के बजाय समय-प्रति-समय जिन आत्माओं से अल्पकाल का सहारा मिलता है उन आत्माओं को ही साकारी सहारा बना देते हैं। अर्थात् संग के रंग में रंग जाते हैं। इसमें भी मैजॉरिटी बच्चों में एक बात दिखाई दी।
मैजारिटी इस ब्राह्मण जीवन के आदि में अर्थात् पहले-पहले जब बाप द्वारा बाप का परिचय, ज्ञान का खज़ाना प्राप्त होता है, अपने जन्म-सिद्ध अधिकार का मालूम पड़ता है, याद द्वारा अनुभव प्राप्त होता है, दु:ख, ‘सुख’ में बदल जाता है, अशान्ति, ‘शान्ति’ में बदल जाती है और भटकना बन्द हो, ठिकाना मिल जाता - उस शुरू की स्थिति में बहुत अच्छे, तीव्र उमंग-उल्लास वाले, खुशी में झूमने वाले, सेवा में रात-दिन एक करने वाले, सम्बन्ध और शरीर की सुधबुध भूले हुए, ऐसे फर्स्ट क्लास सर्विस-एबल, नॉलेजफुल और पॉवरफुल स्वयं को भी अनुभव करते हैं और अन्य ब्राह्मण भी उनको ऐसे ही अनुभव करते हैं। लेकिन आदि के बाद फिर जब मध्य में आते हैं तो पुरूषार्थ से, अपनी सेवा से, खुशी और उमंग से संतुष्ट नहीं रहते। अपने आप से क्वेश्चन करते रहते हैं कि-’’पहले ऐसा था अभी ऐसा क्यों, पहले जैसा उमंग कहाँ चला गया? पहले वाली खुशी गायब क्यों हो गई? चढ़ती कला के बजाय रूकावट क्यों हो गई? जबकि ज्ञान गुह्य हो रहा है, समय समीप आ रहा है, सेवा के साधन भी बहुत प्राप्त हो रहे हैं और फिर भी पहले जैसा अनुभव क्यों नहीं होता?’’ मैजॉरिटी का यह अनुभव देखा। अब इसका कारण क्या?
कारण यह है - जब सेवा में और ब्राह्मण परिवार के सम्पर्क में व सेवा द्वारा जो प्रत्यक्ष फल प्राप्त होता है उसमें चलते-चलते कोई हद की पोज़ीशन में आ जाते हैं, कोई हमशरीक सर्विस-साथियों व सम्पर्क में आने वाले अपने साथियों का ऑपोज़ीशन करने में लग जाते हैं, कोई स्थूल सेलवेशन लेने में लग जाते हैं अर्थात् सेलवेशन के आधार पर सेवा और पुरूषार्थ करते हैं, कोई क्वेश्चन और करेक्शन करने लग जाते हैं और फिर कोई दूसरे की कोटेशन (उदाहरण) देने लग पड़ते हैं अर्थात् दूसरे के दृष्टान्त से अपना सिद्धान्त बनाने लग जाते हैं। इन पाँच में से कोई-न-कोई उल्टा मार्ग अपना लेते हैं। बाप ने कहा कि सदा तपस्वी बनकर के अपने ईश्वरीय ब्राह्मणपन के, सर्वस्व त्यागी के पोज़ीशन में स्थित रहो। लेकिन हद की पोज़ीशन कि - ‘‘मैं सबसे ज्यादा सर्विसएबल हूँ, प्लैनिंग-बुद्धि हूँ, इनवेन्टर हूँ, धन का सहयोगी हूँ, दिन-रात तन लगाने वाला हूँ अर्थात् हार्ड-वर्कर हूँ या इन्चार्ज हूँ।’’ - इस प्रकार के हद के नाम, मान और शान के उन उल्टे पोज़ीशन को पकड़ लेते हैं। अर्थात् यथार्थ मंज़िल से व्यर्थ मार्ग पर तीव्र गति से चल पड़ते हैं।
बाप ने कहा - सैलवेशन आर्मी हो अर्थात् अन्य आत्माओं को सैलवेशन देने प्रति हो लेकिन हद की सैलवेशन कि यह साधन होगा तो सर्विस करेंगे, पहले साधन दो फिर सर्विस करेंगे। साधन भी सेवा-अर्थ नहीं, लेकिन अपने सुख के अर्थ मांगते हैं। अगर यह किया जाए तो बहुत सर्विस कर सकता हूँ, एक्स्ट्रा स्नेह, रिगार्ड दिया जाय, एक्स्ट्रा खातिरी की जाय और विशेष नाम लिया जाय - ऐसे प्रकार के सैलवेशन के आधार पर अपना पुरूषार्थ करने लग पड़ते हैं। इसलिये आधार गलत होने के कारण उन्हें अपनी उन्नति का अनुभव नहीं होता।
इसी प्रकार बाप ने कहा - माया से ऑपोजीशन करना है। लेकिन माया के तो मित्र बन जाते हैं अर्थात् आसुरी संस्कारों रूपी आसुरी सम्प्रदाय के बजाय ईश्वरीय सम्प्रदाय अर्थात् एक-दो में ऑपोज़ीशन करते रहते हैं - ‘‘यह ऐसा करता है तो मैं इससे भी ज्यादा करके दिखाउं, यह सर्विसएबल है तो मैं भी सर्विसएबुल हूँ।’’ यह आगे है तो मैं पीछे क्यों? मैं गुप्त पुरुषार्थी हूँ, मुझे पहचानते नहीं और निमित्त टीचर से तो मैं ज्यादा सर्विसएबुल हूँ। टीचर से भी ऑपोज़ीशन करते हैं। तुम अनुभवी नहीं, मैं तो अनुभवी हूँ, तुम अनपढ़ हो, मैं पढ़ी हुई हूँ। ऐसे एक-दो में ऑपोज़ीशन करने से अपना सदाकाल का श्रेष्ठ पोज़ीशन गँवा देते हैं। आपस में ऑपोज़ीशन के कारण माया से ऑपोज़ीशन करने में कमज़ोर बन जाते हैं अर्थात् विजयी नहीं बन सकते हैं।
इसी प्रकार क्वेश्चन, करेक्शन और कोटेशन देने में तो बड़े होशियार, वकील और जज बन जाते हैं। बाप को करेक्शन देते रहते। अपने आपको छुड़ाने के लिये अर्थात् अपनी गलती को छिपाने के लिये कोटेशन देंगे - ‘‘मेरे से बड़ा महारथी भी ऐसे करता है। इस समस्या पर फलाने को बापदादा ने ऐसा कहा था, इसलिये मैंने भी वह श्रीमत मानी। फलाने डेट की मुरली में यह बात कही गई है, उसी प्रमाण मैं यह कर रहा हूँ।’’ समय और सरकमस्टान्सेज को नहीं देखते लेकिन शब्द पकड़ लेते हैं। इन्हीं भूलों के कारण एक भूल से अनेक भूलें बढ़ती जाती हैं। अलबेलापन के संस्कार बढ़ते जाते हैं। पुरूषार्थ की गति तीव्र से मध्यम हो जाती है।
बाप ने कहा है कि मास्टर त्रिकालदर्शी अर्थात् तीनों कालों को जानने वाले हो। इस धारणा को अपनाने के कारण अपनी करेक्शन के बजाय दूसरों की करेक्शन करते रहेगे। दूसरों की करेक्शन में बाप से कनेक्शन तोड़ देते हैं। इसलिये शक्तिहीन होने के कारण उलझते रहते हैं। सुख-शान्ति व अतीन्द्रिय सुख की अनुभूति का ठिकाना नज़र नहीं आता। परचिन्तन पतन की तरफ ले जाता है। समझा? इन बातों में आने के कारण जो आदि का नशा और खुशी का अनुभव होता है यह खत्म हो जाता है। इसलिये अपने आप को चेक करो कि इन पाँच में से कोई भी उल्टे व व्यर्थ मार्ग पर चल कर समय बर्बाद तो नहीं कर रहे हैं? चेक करो और फिर अपने को चेन्ज करो तो फिर चढ़ती कला की ओर चल पड़ेंगे। ऐसा मैजॉरिटी आत्माओं का अनुभव बापदादा ने देखा।
अभी मेले का अन्त है। तो अन्त में अन्तिम आहुति डालो अर्थात् सदाकाल के लिये अपने को समर्थ बनाओ। रिजल्ट तो सुनायेंगे ना। तो वर्तमान समय के पुरूषार्थियों का चलते-चलते रूक जाने का समाचार सुनाया। आगे से परिवर्तन- भूमि का परिवर्तन सदा साथ रखना। इसको कहेंगे मेला मनाना अर्थात् स्वयं को सम्पन्न बनाना। अच्छा!
ऐसे सेकेण्ड में स्वयं को दृढ़ संकल्प से परिवर्तन करने वाले, अपनी वृत्ति द्वारा वायुमण्डल को सतोप्रधान बनाने वाले और नज़र से निहाल करने वाले ऐसे बाप के सदा साथी, सहयोगी और शक्तिशाली आत्माओं को बापदादा का याद- प्यार और नमस्ते।
इस मुरली की विशेष बातें
1. अपने रूप, रंग और खुशबू को देखना है। रूप अर्थात् चेहरे में ब्राह्मणपन व फरिश्तेपन की झलक, रंग अर्थात् निरन्तर बाप के संग का रंग और खुशबू अर्थात् रूहानियत कहाँ तक आयी है?