05-05-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
वरदानी, महादानी और दानी आत्माओं के लक्षण
वरदानी, महादानी बच्चों को देख बाबा बोले:-
वरदाता बाप अपने वरदानी, महादानी और दानी बच्चों को देख रहे हैं। जिन्होंने स्वयं को सर्व खज़ानों से सम्पन्न किया है, वह हैं ‘वरदानी’ बच्चे। जिन्होंने सर्व खज़ानों से स्वयं को सम्पन्न नहीं किया है, लेकिन थोड़ा बहुत यथा शक्ति जमा किया है, वह है ‘महादानी।’ जिन्होंने जमा नहीं किया, लेकिन अभी-अभी मिला, अभी-अभी लिया और उसी समय ही जो कुछ लिया, वह दिया, वह हैं दानी आत्माएं, जो जमा नहीं करते, लेकिन कमाया, कुछ खाया, कुछ दिया। ऐसे तीन प्रकार के बच्चे बाप देख रहे हैं।
‘वरदानी’ बच्चे, स्वयं के जमा किए हुए खज़ानों को अर्थात् स्वयं की शक्ति, स्वयं के गुण द्वारा, स्वयं के ज्ञान खज़ाने द्वारा, निर्बल आत्माओं को वरदान द्वारा, हिम्मत, हुल्लास की शक्ति और खुशी का खज़ाना, अपने सहयोग की शक्ति से देकर, उन कमज़ोर को शक्तिशाली बना देते हैं।
‘महादानी’ पुरूषार्थ कराने की युक्तियां या हुल्लास, उमंग में लाने की युक्तियां बताते हुए, कमज़ोर आत्माओं द्वारा पुरूषार्थ कराने के निमित्त बनते हैं। स्मृति दिलाते हुए, समर्थी में लाने के निमित्त बनते हैं - अपने शक्तियों का सहयोग नहीं दे पाते, लेकिन रास्ता स्पष्ट दिखाने के निमित्त बनते हैं। ऐसे करो, ऐसे चलो, इस तरह मार्ग दर्शन कराने के निमित्त बनते हैं।
‘दानी’ बच्चे, जो सुना, जो अच्छा लगा, जो अनुभव किया, वह वर्णन द्वारा आत्माओं को बाप तरफ आकर्षण करने के निमित्त बनते हैं, लेकिन मार्ग दर्शन कराने वाले, वा अपने शक्तियों के सहयोग द्वारा किसी को श्रेष्ठ बनाने वाले, महादानी नहीं बन सकते। तो ‘पहला नम्बर है, सहयोग देने वाले। दूसरा, मार्गदर्शन कराने वाले। तीसरा, मार्ग बताने वाले।’ अब, तीनों में अपने से आपको देखो कि मैं कौन? क्योंकि रियलाइजेशन (REALIZATION;अनुभव) करना है। किसको? सेल्फ (Self;स्वयं) को। सेल्फ रियलाइजेशन, यही कोर्स चल रहा है - जिससे अब तक जो कमी रह गई है, उससे स्वयं को लिबरेट कर सकेंगे।
जैसे बाप लिबरेटर (Liberator) वैसे बच्चे भी ‘मास्टर लिबरेटर’ हैं। लेकिन पहले ‘सेल्फ लिबरेटर’ बनेंगे, तब औरों को भी लिबरेट कर अपने स्व-स्वरूप और स्वदेश को स्वमान में स्थित कर सकेंगे। आजकल के वातावरण में हर आत्मा किसी न किसी बात के बन्धन वश हैं। चारों ओर की आत्माएं, कोई तन के दु:ख के वशीभूत, कोई सम्बन्ध के वशीभूत, कोई इच्छाओं के वशीभूत, कोई अपने संस्कार जो कि दु:खदाई संस्कार हैं, दु:खदाई स्वभाव हैं, उनके दु:ख के वशीभूत, कोई प्रभु-प्राप्ति न मिलने के अशान्ति में भटकने के दु:ख वशीभूत, कोई जीवन का लक्ष्य स्पष्ट न होने के कारण परेशान, कोई पशुओं की तरह खाया-पिया, जीवन बिताया, लेकिन फिर भी संतुष्टता नहीं। काई साधना करते, त्याग करते, अध्ययन करते, फिर भी मंजिल को प्राप्त नहीं होते, पुकारने, चिल्लाने के ही दु:ख के वशीभूत, ऐसे अनेक प्रकार के बन्धनों वश, दु:ख- अशान्ति के वश आत्माएं अपने को लिबरेट करना चाहते हैं। ऐसे अपने आत्मा के नाते, भाइयों को दु:खी देख रहम आता? दिखाई देता है? आत्माओं के दु:खमय जीवन को कोई सहारा नहीं मिल रहा है। देखने आता है वा अपने में बिजी हो?
लौकिक रीति से जीवन में बचपन का समय, स्टडी (Study;पढ़ाई) का समय अपने प्रति होता है। उसके बाद रचना के प्रति समय होता है अर्थात् दूसरों के प्रति जिम्मेवारी का समय होता है। अलौकिक जीवन में भी पहले स्वयं को परिपक्व करने का पुरूषार्थ किया, अब विश्व-कल्याणकारी बन विश्व की आत्माओं के प्रति वा अपने निजी परिवार के प्रति। विश्व की सर्व आत्माएं आपका परिवार हैं, क्योंकि बेहद के बाप के बच्चे हो; तो बेहद के परिवार के हो। तो अपने परिवार प्रति रहम नहीं आता? तो अभी रहम दिल बनो। मास्टर रचता बनो। स्वयं कल्याणकारी नहीं, लेकिन साथ-साथ ‘विश्वकल्याणकारी’ बनो। अपने जमा की हुई शक्तियों वा ज्ञान के खज़ाने को मास्टर ज्ञान-सूर्य बन, वृत्ति, दृष्टि और स्मृति के अर्थात् शुभ भावना के श्रेष्ठ संकल्प द्वारा, अपने जीवन में गुणों की धारणाओं द्वारा, इन सब साधनों की किरणों द्वारा अशान्ति को मिटाओ। जैसे सूर्य एक स्थान पर होते हुए भी अपने किरणों द्वारा चारों ओर का अन्धकार दूर करता है, ऐसे मास्टर ज्ञान-सूर्य बन दु:खी आत्माओं पर रहम करो।
स्वयं और सेवा - दोनों का बैलेन्स (Balance;सन्तुलन) रखो। स्वयं को भी नहीं भूलो और विश्व-सेवा को भी नहीं भूलो। विश्व की परिक्रमा देना कितने समय का काम है? विश्व के मालिक के बालक हो तो मालिक बन विश्व-परिक्रमा लगाओ। जब तीनों लोकों का चक्र लगा सकते हो, तो विश्व का चक्कर लगाना क्या बड़ी बात है! जैसे पहले के योग्य राजाएं सदा अपने राज्य का चक्र लगाते थे। प्रजा को सदा सुखी और संतुष्ट रखते थे। यह सब किससे सीखे? ‘सब रीतिरस्म का फाउन्डेशन (Foundation;आधार) संगम समय है, और संगम निवासी ब्राह्मण हैं।’ इसलिए ही अब तक भी कोई रस्म करने के लिए ब्राह्मणों को ही बुलाया जाता है। तो आप लोगों से राजाएं रस्म सीखे हैं, आप सिखलाने वाले स्वयं तो अवश्य कर सकते हो इसलिए मास्टर रचता बन विश्व की रेखदेख करो। समझा, क्या करना है? अभी बचपन के अलबेलेपन को छोड़ो, समय और शक्तियों को सेवा में सफल करो। अच्छा।
सदा सर्व खज़ानों को सफल करने वाले, स्वयं और विश्व प्रति का बैलेंस रखने वाले, मास्टर ज्ञान-सूर्य, सदा रहम दिल, सदा सर्व प्रति सहयोग की भावना और कामना रखने वाले, ऐसे श्रेष्ठ आत्माओं को बाप-दादा का याद-प्यार, और नमस्ते।
विश्व परिक्रमा लगाते हो? कितने समय में? क्योंकि जितनी जिसकी दिव्य बुद्धि होती है, तो दिव्यता के आधार पर स्पीड है। जैसे ऐरोप्लेन भी उड़ते हैं, तो जितनी पावर वाला होगा उतनी स्पीड तेज़ होगी। तो यहाँ भी जिसकी जितनी दिव्यता है, ‘दिव्यता ही स्वच्छता’ है। अर्थात् डबल रिफाइननेस (Refineness) है। जिसकी बुद्धि दिव्य है, उतनी उसकी स्पीड तेज होगी। एक सैकन्ड में और स्पष्ट रूप में चक्कर लगा सकेंगे। क्योंकि यहाँ से ही सर्व को सन्तुष्ट अर्थात् सर्व प्राप्ति कराने का संस्कार भरना है। तब ही, जब विश्व-महाराजन बनेंगे तो राज्य में कोई अप्राप्त वस्तु नहीं, सदा सन्तुष्ट, सर्व प्राप्ति स्वरूप होंगे। तो वह संस्कार कहां से भरेंगे? यहाँ से, इसी विश्व-चक्र की यादगार का समय भी बहुत महत्वपूर्ण गाया जा रहा है। नुमाशाम के समय को ‘चक्र को समय’ गाया जाता है तो यह यादगार कैसे बना? जब प्रैक्टिकल किया तब ही, अभी तक भी चक्र लगाने का यादगार कायम है। नुमाशाम अर्थात् परिवर्तन का समय, परिवर्तन का यह युग है न। तो परिवर्तन का युग का यादगार परिवर्तन के समय पर बनाया है। जितनाजितना चक्रवर्ती बनकर चक्र चलायेंगे, उतना चारों ओर का अवाज़ निकलेगा कि हम लोगों ने ज्योति देखी, चलते हुए फरिश्ते देखे, यह आवाज़ फैलता जायेगा और ज्योति को फरिश्तों को ढूंढ़ने निकलेंगे कि कहां से यह ज्योति आई है, कहाँ से यह फरिश्ते चक्र लगाने आते हैं। जैसे आदि में बाप साक्षात्कार अर्थ निमित्त बने, अब अन्त में बाप सहित बच्चों को भी निमित्त बनना है। जागते हुए जैसे देखेंगे। स्वप्न में जैसे अचानक कई दृश्य आ जाते हैं ना। तो ऐसे अनुभव करेंगे तब ही साईन्स वाले भी इस विचित्र लीला को जानने और देखने के लिए समीप आयेंगे। ऐसे विचित्र नज़ारे भी थोड़े समय में ही देखेंगे और सुनेंगे। लेकिन परिक्रमा लगाओ तब तो देखेंगे ना! ऐसे कैसे देखेंगे? बैठे-बैठे ऐसे अनुभव करेंगे, जैसे कि बहुत दूर से कोई रेज़ (Rays) आयीं, किरणें आयीं और कुछ जगाकर चली गयीं, ऐसे भी बहुत अनुभव करेंगे। इसके लिए कहा कि, अभी सम्पूर्ण मूर्त्त बन सेवा में समय और शक्तियां लगाओ। घर बैठे सब भागते हुए ढूंढ़ते हुए आयेंगे। अच्छा।
कमज़ोरियों को दूर करने का सहज साधन कौन सा है? जो कुछ संकल्प में आता है, वह बाप को अर्पण कर दो। जो भी आवे वह बाप को सामने रखते हुए जिम्मेवारी बाप को दो, तो स्वयं स्वतंत्र हो जाएंगे। सिर्फ एक दृढ़ संकल्प रखो कि ‘मैं बाप का और बाप मेरा।’ जब मेरा बाप है, तो मेरे के ऊपर अधिकार होता है न? अधिकारी स्वरूप में स्थित होंगे तो अधीनता ऑटोमेटिकली निकल जाएगी। हर सेकेण्ड यह चैक करो कि अधिकारी स्टेज पर हूँ? विश्व के मालिक का मैं बालक हूँ, यह पक्का है? तो ‘बालक सो मालिक।’
‘बाप समान सर्व शक्तियों का अधिकारी मास्टर सर्व-शक्तिवान हूँ’, इस स्मृति को बार-बार रिवाइज़ (REVISE) और रियलाइज (Realize) करो, फिर ‘सदा मास्टर सर्व-शक्तिवान अनुभव करेंगे।’ तीव्र पुरुषार्थी कभी भी किसी कारण से थकेंगे नहीं। कारण को निवारण का रूप देते हुए आगे चलते जायेंगे। बहुत लक्की (Lucky) हो, जो ब्राह्मण परिवार में ब्राह्मण बनने की लाटरी मिली है। कोटों में कोऊ को यह लॉटरी मिलती है। कुछ भी हो, क्या भी सामने आये, लेकिन रूकना नहीं है, हटना नहीं है, मंजिल को पाना ही है, इस ‘एक बल एक भरोसे’ के आधार पर अवश्य पहूँचेंगे। गैरन्टी है। ‘दृढ़ संकल्प बच्चों का और पहुँचाना बाप का काम।’
सदा स्वयं को बाप के साथ रहने वाले हैं, ऐसे साथीपन का अनुभव करते हो? जब स्वयं ‘सर्वशक्तिवान’ साथी बन गया तो उसका परिणाम क्या दिखाई देगा? ‘सदा विजयी।’ भक्ति में भी कोई विघ्न आता है तो क्या कहते हैं? एक सेकेण्ड का साथ दे, तो विघ्न मुक्त हो जाए। लेकिन अभी ज्ञान से बाप का सदा साथ, तो जो बाप के सदा साथी हैं वह सदा निर्विघ्न होगा और जो निर्विघ्न होगा वह सदा खुश रहेगा। विघ्न खुशी को गायब करते हैं। अगर मास्टर सर्वशक्तिवान भी विघ्नों से परेशान हों, तो दूसरे बिचारे क्या होंगे! तो मास्टर सर्वशक्तिवान कभी भी परेशान नहीं हो सकते।
किसी के संस्कार-स्वभाव को न देखो, अपने अनादि संस्कार-स्वभाव को देखो, बाप के स्वभाव-संस्कार को देखो। सुनते हुए भी न सुनने की आदत होगी तो हिलेंगे नहीं, पास हो जायेंगे।
सबसे सहज बात कौन सी है जिसको समझने से सदा के लिए सहज मार्ग अनुभव होगा? वह सहज बात है, सदा अपनी जिम्मेदारी बाप को दे दो। जिम्मेवारी देना सहज है ना। स्वयं को हल्का करो तो कभी भी मार्ग मुश्किल नहीं लगेगा। म्श्किल तब लगता है जब थकना होता या उलझते हैं। जब सब जिम्मेवारी बाप को दे दी तो फरिश्ते हो गये। फरिश्ते कब थकते हैं क्या? लेकिन यह सहज बात नहीं कर पाते तब मुश्किल हो जाता। गलती से छोटी-छोटी जिम्मेवारियों का बोझ अपने ऊपर ले लेते इसलिए मुश्किल हो जाता। भक्ति में कहते थे - ‘सब कर दो राम हवाले’ - अब जब करने का समय आया तब अपने हवाले क्यों करते? मेरा स्वभाव, मेरा संस्कार - यह मेरा कहां से आया? अगर मेरा खत्म, तो नष्टो मोहा हो गये। जब मोह नष्ट हो गया तो सदा स्मृति स्वरूप हो जायेंगे। सब कुछ बाप के हवाले करने से सदा खुश और हल्के रहेंगे। देने में फिराकदिल बनो, अगर पुरानी कीचड़पट्टी रख लेंगे तो बीमारी हो जाएगी।
‘निश्चय बुद्धि की निशानी है सदा निश्चिन्त।’ जो निश्चिन्त होगा वही एक रस रहेगा, डगमग नहीं होगा। अचल रहेगा। कुछ भी हुआ, सोचो नहीं। क्यों, क्या में कभी नहीं जाओ, त्रिकालदर्शी बन निश्चिन्त रहो। हर कदम में कल्याण है। जिस बात में अकल्याण भी दिखाई देता उसमें भी कल्याण समाया हुआ है, सिर्फ अन्तर्मुखी हो देखो। ब्राह्मणों का कभी भी अकल्याण हो नहीं सकता। क्योंकि कल्याणकारी बाप का हाथ पकड़ा है ना! अकल्याण को भी वह कल्याण में परिवर्तन कर देगा। इसलिए ‘सदा निश्चिन्त रहो।’
सभी सदा सन्तुष्ट हो? सदा सन्तुष्ट रहने वाला ही बाप के समीप रह सकता है। सन्तुष्टता सदा बाप के समीप ले जाने का साधन है। सन्तुष्टता नहीं तो सदा बाप से दूर हैं। जो कुछ होता उसको बीती सो बीती करते हुए, परखने की शक्ति से परखते हुए चलते चलो तो सदा सन्तुष्ट रहेंगे।
अपने प्राप्त किए हुए खज़ानों को सदैव चैक करते रहो कि कितना खज़ाना और कौन-कौन सा खज़ाना जमा है; और कौन-सा नहीं है? समय भी बड़े से बड़ा खज़ाना है, ज्ञान भी खज़ाना है, शक्तियाँ और दिव्यगुण भी खज़ाना है, तो सभी खज़ाने जमा हो तब सम्पन्न कहेंगे। सब हैं इसमें भी सन्तुष्ट नहीं रहना, लेकिन इतना है जो स्वयं भी खा सकें और दूसरों को भी सम्पन्न बना सकें। जिस रूप में उसके पास कमी होगी उसी रूप में माया आएगी। क्योंकि माया बड़ी चतुर है। इसलिए सर्व खज़ानों को जमा करते जाओ, खाली नहीं होने दो। अच्छा। ओम् शान्ति।