12-06-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
कमल पुष्प समान स्थिति ही ब्राह्मण जीवन का श्रेष्ठ आसन है
सर्व प्राप्तियों के आधार बाप ने समर्थ, बन्धनमुक्त, योगयुक्त आत्माओं के प्रति बाप-दादा ने ये महावाक्य उच्चारे:-
सदा ब्राह्मण जीवन का श्रेष्ठ आसन, कमल पुष्प समान स्थिति में स्थित रहते हो? ब्राह्मणों का आसन सदा साथ रहता है तो आप सब ब्राह्मण भी सदा आसन पर विराजमान रहते हो? कमल पुष्प समान स्थिति अर्थात् सदा हर कर्मेंन्द्रियों द्वारा कर्म करते हुए भी इन्द्रियों के आकर्षण से न्यारे और प्यारे। सिर्फ स्मृति में न्यारा और प्यारा नहीं, लेकिन हर सैकेंड का सर्व कर्म न्यारे और प्यारे स्थिति में हो। इसी का यादगार आप सबके गायन में अब तक भी भक्त हर कर्म इन्द्रिय के प्रति महिमा में नयन-कमल, मुख-कमल, हस्त-कमल कह कर गायन करते हैं। तो यह किस समय की स्थिति का आसन है? इस ब्राह्मण जीवन का। अपने आपसे पूछो, हर कर्म इन्द्रिय कमल समान बनी है? नयन कमल बने हैं? हस्त कमल बने हैं? कमल अर्थात् कर्म करते हुए भी विकारी बन्धनों से मुक्त। देह को देख भी रहे हैं लेकिन देखते हुए भी नयन कमल वाले, देह के आकर्षण के बन्धन में नहीं आयेंगे। जैसे कमल जल में रहते हुए जल से न्यारा अर्थात् जल के आकर्षण के बन्धन से न्यारा, अनेक भिन्न-भिन्न सम्बन्ध से न्यारा रहता है। कमल के सम्बन्ध भी बहुत होते हैं। अकेला नहीं होता है, प्रवृत्ति मार्ग की निशानी का सूचक है। ऐसे ब्राह्मण अर्थात् कमल पुष्प समान बनने वाली आत्माएं प्रवृत्ति में रहते, चाहे लौकिक, चाहे अलौकिक साथ-साथ किचड़े अर्थात् तमोगुणी पतित वातावरण रहते हुए भी न्यारे। जो गुण रचना में है तो मास्टर रचता में वही गुण है। सदा इस आसन पर स्थित रहते हो वा कभी-कभी स्थित होते हो? सदा अपने इस आसन को धारण करने वाले ही सर्व बन्धनमुक्त और सदा योगयुक्त बन सकते हैं। अपने आपको देखो - पांच विकार पांच प्रकृति के तत्त्वों के बन्धन से कितने परसेन्ट में मुक्त हुए हैं। लिप्त आत्मा हो व मुक्त आत्मा हो?
आप सबने बाप-दादा से वायदा किया है कि सबको छोड़ कर आपके ही बनेंगे, जो कहेंगे, जैसे करायेंगे, जैसे चलायेंगे वैसे चलेंगे। वायदा निभा रहे हो? सारे दिन में कितना समय वायदा निभाते हो और कितना समय वायदा भुलाते हो? गीत रोज गाते हो - ‘मेरा तो एक शिवबाबा दूसरा न कोई।’ ऐसी स्थिति है? दूसरा कोई सम्बन्ध, स्नेह, सहयोग वा प्राप्ति, व्यक्ति वा वैभव द्वारा बाप से किनारा करने वाला रहा है? है कोई व्यक्ति व वस्तु जो बन्धनमुक्त आत्मा को अपने आकर्षण के बन्धन में बांधने वाली? जब दूसरा कोई नहीं तो निरन्तर बन्धनमुक्त और योगयुक्त आत्मा का अनुभव करते हो? व कहते हो, दूसरा कोई नहीं परन्तु है। कोई है व सब समाप्त हो गये? अगर है तो गीत क्यों गाते हो? बाप-दादा को खुश करने लिए गाते हो? वा कह कर अपनी स्थिति बानाने के लिए गाते हो? ब्राह्मण जीवन की विशेषता जानते हो? ‘ब्राह्मण अर्थात् सोचना, बोलना, करना सब एक हो। अन्तर न हो।’ तो ब्राह्मण जीवन की विशेषता कब धारण करेंगे? अभी वा अन्त में? कई ऐसे भी बच्चे हैं जो स्वयं के पुरूषार्थ के बजाए समय पर छोड़ देते हैं। समय आने पर आत्माएं स्वयं कमज़ोर होने कारण समय पर रखते हैं आप लोगों के पास भी जब म्युजियम व प्रदर्शनी देखने आते हैं तो क्या कहते हैं? समय मिलेगा तो आयेंगे। अभी हम को समय नहीं है। यह अज्ञानियों के बोल हैं। क्योंकि समय के ज्ञान से अज्ञानी हैं लेकिन आपको तो ज्ञान है कि कौन सा समय चल रहा है; इस वर्तमान समय को कौन सा समय कहते हैं। कल्याणकारी युग अथवा समय कहते हो न! सारे कल्प की कमाई का समय कहते हो, श्रेष्ठ कर्म रूपी बीज बोने का समय कहते हो। पांच हजार वर्ष के संस्कारों का रिकार्ड भरने का समय कहते हो। विश्वकल्याण, विश्व परिवर्तन का समय कहते हो। समय के ज्ञान वाले भी वर्तमान समय को गंवाते हुए आने वाले समय पर छोड़ दें तो उसको क्या कहा जायेगा? समय भी आपकी क्रियेशन (Creation;रचना) है। क्रियेशन के आधार पर क्रियेटर (Creator;रचियता) का पुरूषार्थ हो अर्थात् समय के आधार पर स्वयं का पुरूषार्थ हो तो उसे क्रियेटर कहा जायेगा।
बाप-दादा ने पहले भी सुनाया है आप श्रेष्ठ आत्माएं सृष्टि के आधार मूर्त्त हो, ऐसे आधार मूर्त्त, समय के व किसी भी प्रकार के आधार पर रहें तो अधीन कहेंगे वा आधार मूर्त्त कहेंगे? तो अपने आप को चेक करो कि सृष्टि के आधार मूर्त्त आत्मा किसी भी प्रकार के आधार पर तो नहीं चल रहे है? सिवाए एक बाप के आधार मूर्त्त किसी भी हद के सहारे के आधार पर चलने वाली आत्मा तो नहीं है? वायदा तो यही किया है मेरा तो एक ही सहारा है लेकिन प्रेक्टिकल क्या है? एक सहारे का प्रैक्टीकल प्रमाण क्या अनुभव होगा? सदा एक अविनाशी सहारा लेते, इस कलयुगी पतित दुनिया से किनारा किया हुआ अनुभव करेगा। ऐसी आत्मा की जीवन नैया कलयुगी दुनिया का किनारा छोड़ चली। सदा स्वयं को कलयुगी पतित विकारी आकर्षण से किनारा किया हुआ अर्थात् परे महसूस करेंगे। कोई भी कलयुगी आकर्षण उसको खैंच नहीं सकते। जैसे साइंस के द्वारा धरती के आकर्षण से परे हो जाते, ‘स्पेस’ (Space) में चले जाते अर्थात् दूर चले जाते। अगर किसी भी प्रकार की आकर्षण चाहे देह के सम्बन्ध की व देह के पदार्थ की आकर्षित करती है, इससे सिद्ध है कोई न कोई के सहारे का प्रत्यक्ष प्रमाण विनाशी अल्प काल का सहारा होने के कारण प्राप्ति भी अल्प काल की होती है, अर्थात् विनाशी, थोड़े समय के लिए होती है। जैसे कई कहते हैं थोड़ा अनुभव होता है, याद रहती है, शक्ति मिलती है। शक्ति स्वरूप का अनुभव होता है लेकिन सदा नहीं रहता, उसका कारण? अवश्य एक सहारे के बजाए कोई न कोई हद के सहारे का आधार लिया हुआ है। आधार भी हिलता है और स्वयं भी हिलता है अर्थात् हलचल में आते हैं। तो अपने आधार को चैक करो। चैक करना आता है? चैक करने के लिए दिव्य अर्थात् समर्थ बुद्धि चाहिए। अगर नहीं तो बुद्धिवान आत्माओं के सहयोग से अपनी चेकिंग करो।
बाप-दादा ने हर ब्राह्मण आत्मा को जन्म होते ही दिव्य-समर्थ बुद्धि और दिव्य नेत्र ब्राह्मण जन्म का वरदान रूप में दिया है। वा यूं कहो कि ब्राह्मण के बर्थ डे (Birth Day;जन्म दिन) की गिफ्ट (Gift;सौगात) बाप द्वारा हरेक को प्राप्त है। क्या अपने जन्म की गिफ्ट को सम्भालना आता है? अगर सदैव इस गिफ्ट को यथार्थ रीति से यूज़ करो तो सदा कमल पुष्प समान रहो अर्थात् सदा कमल पुष्प समान स्थिति के आसन पर स्थित रहो। समझा क्या चैकिंग करनी है? सर्व कर्म इन्द्रियां कहाँ तक ‘कमल’ बनी हैं? ऐसे कमल समान बनने वाले सदा आकर्षण से परे अर्थात् सदा हर्षित रहेंगे। सदा हर्षित न रहना अर्थात् कहाँ-न-कहाँ आकर्षित होते हैं तब हर्षित नहीं रह सकते। अब इन सब बातों से बुद्धि द्वारा किनारा करो। ‘कहना और करना’ एक करो। वायदा करने वाला नहीं लेकिन निभाने वाले बनो। अच्छा।
सदा सर्व सम्बन्धों से, एक बाप दूसरा न कोई ऐसे सदा स्वयं को आधार मूर्त्त समझने वाले, समय के आधार से परे स्वयं को समर्थ समझ चलने वाले ऐसी समर्थ आत्माओं को बन्धनमुक्त आत्माओं को, सदा योगयुक्त आत्माओं को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
पार्टियों से
पांडव और शक्तियां दोनों ही युद्धस्थल पर उपस्थित हैं? युद्ध करते हुए विजय प्राप्त करते हुए, आगे बढ़ते चल रहे हो? तो विजयी आत्माओं को सदा विजय की खुशी होगी। विजय वालों को दु:ख की लहर नहीं होगी। दु:ख होता है हार में। विजयी रत्न सदा खुश अर्थात् हर्षित रहते हैं। स्वप्न में भी दु:ख का दृश्य न आए अर्थात् दु:ख के अनुभव की महसूसता न आए। स्वप्न में भी तो दु:ख होता है। कोई ऐसा दृश्य देख करके स्वप्न में भी दु:ख की लहर आती है? सदा विजयी के स्वप्न भी सुखदायी होते है, दुःख के नहीं। जब स्वप्न भी सुखदाई होंगे तो जरूर साकार में सुख स्वरूप होंगे। जब आप अपने गुणों की महिमा करते हो तो कहते हो, सुख स्वरूप..... या दु:ख भी कहते हो? आत्मा का अनादि स्वरूप सुख है तो दु:ख कहाँ से आया? जब अनादि स्वरूप से नीचे आते हो तो दु:ख होता। तो ऐसे अनुभव करते ही दु:ख से किनारा हो गया है? दूसरों के दु:ख की बातें सुनते दु:ख की लहर न आए। क्योंकि मालूम है, दु:खों की दुनिया है, आपके लिए दु:ख की दुनिया समाप्त हो गयी। आपके लिए तो कल्याणकारी चढ़ती कला का युग है। तो संकल्प में भी दु:ख की दुनिया को छोड़। चले लंगर उठ गया है ना? अगर दु:ख देने वाले सम्बन्धी या दु:ख की परिस्थिति अपनी तरफ खेंचती हैं तो समझो कुछ रस्सियां सूक्ष्म में रह गयी हैं। सूक्ष्म रस्सियाँ सब समाप्त हैं या कुछ रही हैं? उसकी परख अथवा निशानी है - ‘खिंचावट।’ अगर बन्धी हुई रस्सियाँ हैं तो आगे बढ़ नहीं सकेंगे। अगर अभी तक दु:ख का, दु:ख की दुनिया का किनारा छोड़ा नहीं तो संगमयुगी हुए नहीं ना? फिर तो कलियुग, संगम के बीच के हो गए। न यहाँ के न वहाँ के ऐसे की अवस्था अब क्या होगी? कब कहां, कब कहां। बुद्धि का एक ठिकाना अनुभव नहीं करेंगे। भटकना अच्छा लगता है क्या? जब अच्छा नहीं लगता तो खत्म करो। सदा अपने सुख स्वरूप में स्थित रहो। बोलो तो भी सुख के बोल, सोचो तो भी सुख की बातें, देखो तो भी सुख स्वरूप आत्मा को देखो। शरीर को देखेंगे तो शरीर तो है ही अन्तिम विकारी तत्त्वों का बना हुआ। इसीलिए सुख स्वरूप आत्मा को देखो। ऐसा अभ्यास चाहिए जैसे सतयुगी देवताओं को ‘दु:ख’ शब्द का पता भी नहीं होगा। अगर उनसे पूछो तो कहेंगे दु:ख कुछ होता भी है क्या। तो वह संस्कार यहाँ ही भरने हैं। ऐसे संस्कार बनाओ जो दु:ख शब्द का ज्ञान भी न हो। प्राप्ति के आधार पर मेहनत कुछ भी नहीं है। सजा के संस्कार बन जाए, उसके लिए अगर एक जन्म के कुछ वर्ष मेहनत भी करनी पड़े तो क्या बड़ी बात है? पाँच हजार वर्ष के संस्कार बनाने के लिए थोड़े समय की मेहनत है।
विघ्न आता है, उसमें कोई नुकसान नहीं, क्योंकि आता है विदाई लेने के लिए। लेकिन अगर रूक जाता है तो नुकसान है। आए और चला जाए। विघ्न को मेहमान बना कर बिठाओ नहीं। अभी ऐसा पुरूषार्थ चाहिए - आया और गया। विघ्न को अगर घड़ी- घड़ी का भी मेहमान बनाया तो आदत पड़ जाएगी, फिर ठिकाना बना देंगे। इसलिए आया और गया। आधा कल्प माया मेहमान है इसलिए तरस तो नहीं पड़ता? अब तरस मत करो।
अभी भी याद की यात्रा के अनुभव और डीप (Deep;गहराई) रूप में हो सकते हैं। वर्णन सब करते हैं, याद में रहते भी हैं; लेकिन याद से जो प्राप्तियाँ होनी हैं उस प्राप्ति की अनुभूति को और आगे बढ़ाते जाएं। उसमें अभी समय और अटेंशन देने की आवश्यकता है; जिससे मालूम पड़ेगा कि सचमुच अनुभव के सागर में डूबे हुए हैं। जैसे पवित्रता-शान्ति के वातावरण की भासना आती है, वैसे श्रेष्ठ योगी लगन में मगन रहने वाले हैं यह अनुभव हो। नॉलेज का प्रभाव है - योग की सिद्धि स्वरूप का प्रभाव हो। वह तब होगा जब आपको अनुभव होगा। जैसे उस सागर के तले में जाते हैं वैसे अनुभव के सागर के तले में जाओ। रोज नया अनुभव हो, तो याद की यात्रा पर अटेंशन हो। अन्तर्मुख होकर आगे बढ़ना, वह अभी कम है। सेवा करते हुए भी याद में डूबा हुआ है - यह प्रभाव अभी नहीं पड़ता। सेवा करते हैं - यह प्रभाव है। लेकिन निरन्तर योगी हैं - वो स्टेज पर आओ। इसकी इन्वेन्शन (Invention;आविष्कार) निकालने की धुन में लगो। जो किसी ने न किया है, वह मैं करूँ - यह रेस करो। याद की यात्रा के अनुभवों की रेस करो। इसके लिए जो योग शिविर कराते हैं, उनको चान्स अच्छा है। और कोई ड्यूटी नहीं, एक ही ड्यूटी है।
इससे निर्विघ्न सहज होते, वातावरण चेन्ज होता है। सब अपने में बिजी, दूसरे को देखने, सुनने की, विघ्नों में कमज़ोर होने की मार्जिन नहीं रहती। ऐसा प्लान बनाओ जो हरेक अपने में डूबा हुआ हो, चाहे साकार चीजों का नशा हो, चाहे प्राप्ति का। उसमें ही लवलीन रहो, वातावरण में मत आओ जो लहर फैले। अच्छा।