20-06-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
सदा सहजयोगी बनने का साधन है - महादानी बनना
सदा हर संकल्प से सेवा करने वाले, उदारचित्त आत्माएं, सदा सर्व खजानों की महादानी आत्माओं के प्रति बाप-दादा बोले:-
सभी ब्राह्मण आत्माएं स्वयं को सहजयोगी वा निरन्तर योगी की श्रेष्ठ स्टेज पर सदा स्थित रहने के पुरूषार्थ में, सभी का लक्ष सहजयोगी बनने का है। लेकिन अपने कमज़ोरियों के कारण कभी सहज अनुभव करते, कब मुश्किल। कमज़ोरी कहकर मुश्किल बना देते हैं। वास्तव में हरेक श्रेष्ठ आत्मा वा ब्राह्मण आत्मा, मास्टर सर्वशक्तिवान आत्मा, त्रिकालदर्शी, मास्टर ज्ञान सागर आत्मा कोई भी कर्म में वा संकल्प में मुश्किल अनुभव नहीं कर सकती। सहजयोगी के साथ-साथ ऐसी श्रेष्ठ आत्मा, स्वत: होती है। क्योंकि ऐसी श्रेष्ठ आत्मा के लिए बाप और सेवा - यही संसार है। बाप की याद और सेवा के ब्राह्मण जन्म के संस्कार हैं। बाप और सेवा के सिवाए, न कुछ संसार में दिखाई देता है, संस्कार में और कोई संकल्प उत्पन्न हो सकता। किसी भी मनुष्यात्मा की बुद्धि संसार में सम्बन्ध और प्राप्ति की तरफ ही जाती है। ब्राह्मण आत्माओं के लिए सर्व सम्बन्ध का आधार और सर्व प्राप्ति का आधार एक बाप के सिवाए और कोई नहीं। तो स्वत: योगी बनना मुश्किल है वा सहज है? न चाहते भी बुद्धि वहाँ आयेगी जहाँ सर्व सम्बन्ध और सर्व प्राप्ति है। तो स्वत: योगी हुए न? अगर सहजयोगी और स्वत: योगी नहीं हैं; तो अवश्य बाप से सर्व सम्बन्ध और सर्व प्राप्ति नहीं है । तो स्वत: योगी हुए न? अगर सहजयोगी और स्वत: योगी नहीं है; तो अवश्य बाप से सर्व सम्बन्धों का अनुभव नहीं है। सर्व सम्बन्धों से बाप को अपना नहीं बनाते हैं। सर्व प्राप्ति का आधार एक बाप हैं। इस अनुभव को अपनाया नहीं है।
अब सहजयोगी बनने के लिए कौन-सा प्रयत्न करेंगे? सहजयोगी बनने चाहते हो न? तो सदा सहजयोगी अर्थात् सदा सहयोगी। सदा सहजयोगी बनने का साधन - सदा अपने को संकल्प द्वारा, वाणी द्वारा और हर कार्य द्वारा विश्व के सर्व आत्माओं के प्रति सेवाधारी समझ, सेवा में ही सब कुछ लगाओ। जो भी ब्राह्मण जीवन के खज़ाने, बाप द्वारा प्राप्त हुये है उन सर्व खज़ानों को आत्माओं की सेवा प्रति लगाओ। जो बाप द्वारा शक्तियों का खज़ाना, गुणों का खजाना, ज्ञान का खजाना वा श्रेष्ठ कमाई के समय का खजाना प्राप्त हुआ है, वह सेवा में लगाओ अर्थात् सहयोगी बनो। अपनी वृत्ति द्वारा वायुमंडल को श्रेष्ठ बनाने का सहयोग दो। स्मृति द्वारा सर्व को मास्टर समर्थ शक्तिवान स्वरूप की स्मृति दिलाओ। वाणी द्वारा आत्माओं को स्वदर्शन चक्रधारी मास्टर त्रिकालदर्शी बनने का सहयोगी, कर्म द्वारा सदा कमल पुष्प समान रहने का वा कर्मयोगी बनने का सन्देश हर कर्म द्वारा दो। अपने श्रेष्ठ बाप से सर्व सम्बन्धों की अनुभूति द्वारा सर्व आत्माओं को सर्व सम्बन्धों का अनुभव कराने का सहयोग दो। अपने रूहानी सम्पर्क के महत्व को जानते हुए, श्रेष्ठ समय की सूचना देने का वा समय प्रमाण वर्तमान संगम का एक सेकेण्ड अनेक जन्मों की प्राप्ति के निमित्त बना हुआ है। एक कदम में पद्मों की कमाई भरी हुई है। ऐसे समय के खज़ाने को जानते हुए औरों को भी समय पर प्राप्ति होने का परिचय दो। हर बात द्वारा सहयोगी बनो, तो सहजयोगी बन ही जायेंगे।
सहयोगी बनना आता है ना? सहयोगी वही बन सकेंगे जो स्वयं खजानों से सम्पन्न होगा। सम्पन्न आत्मा को अनेक आत्माओं के प्रति महादानी बनने का संकल्प स्वत: आयेगा। महादानी बनना अर्थात् सहयोगी बनना और सहयोगी बनना अर्थात् सहजयोगी बनना। महादानी सर्व खज़ाने स्वयं प्रति कम यूज़ करेंगे, सेवा प्रति ज्यादा यूज़ करेंगे। क्योंकि अनेक आत्माओं के प्रति महादानी बन देना ही लेना है। सर्व प्रति कल्याणकारी बनना ही स्वयं कल्याणकारी बनना है। धन देना अर्थात् एक से सौगुणा जमा होता है। तो वर्तमान समय स्वयं के प्रति छोटीछोटी बातों में, वा चींटी समान आने वाले विघ्नों में अपने सर्व खज़ाने स्वयं प्रति लगाने का समय नहीं है। बेहद के सेवाधारी बनो। तो स्वयं की सेवा सहज हो जाएगी। फिराकदिल से उदारचित्त होकर प्राप्ति के खजानों को बाँटते जाओ। उदारचित्त बनने से स्वयं का उद्धार सहज हो जाएगा। विघ्न मिटाने में समय लगाने के बजाय सेवा की लगन में समय लगाओ। ऐसे महादानी बनो, जो हर संकल्प, श्वांस में सेवा ही हो। तो सेवा की लगन का फल, विघ्न सहज ही विनाश हो जाएगा। क्योंकि वर्तमान प्रत्यक्षफल प्राप्त होने का समय है। अभी-अभी सेवा का फल स्वयं में खुशी और शक्ति का अनुभव करेंगे। लेकिन सच्ची दिल की सेवा हो। सच्ची दिल पर साहब राजी होता है।
कई बच्चे कहते हैं, सेवा तो हम करते हैं, लेकिन मेवा नहीं मिलता, अर्थात् सफलता नहीं मिलती। यह क्यों होता है? क्योंकि सेवा दो प्रकार से करते हैं। एक दिल से और दूसरी दिखावे से। अर्थात् नाम प्राप्त करने के अल्पकाल की इच्छा से। जब बीज ही अल्पकाल का है - ऐसे बीज का अल्पकाल का फल नामीग्रामी बनने का तो लेते हैं, तो सफलता का फल कैसे मिलेगा। नाम की भावना का फल, नाम और शान के रूप में तो प्राप्त हो ही जाता है। दिखावा करने का, संकल्प करने का बीज होने के कारण सर्व के सामने दिखावें में आ ही जाते हैं। सर्व के मुख से अल्पकाल के लिए महिमा का फल प्राप्त हो जाता है, कि सर्विस बहुत अच्छी करते हैं। जब अल्पकाल की महिमा का फल मिल गया अर्थात् कच्चा फल ही स्वीकार कर लिया, तो सम्पूर्ण फल की प्राप्ति अर्थात् पके हुए फल की प्राप्ति कैसे हो सकती? रिजल्ट क्या होगी? कच्चे फल को स्वीकार करने कारण वा अल्पकाल की कामना की पूर्ति होने के कारण सदा शक्तिशाली नहीं बन सकते। अधिकारी नहीं बन सकते। और सेवा करते हुए भी कमज़ोर होने के कारण, न स्वयं से सदा सन्तुष्ट रहेगा, न सर्व को सन्तुष्ट कर सकेगा। सदैव क्वेश्चन मार्क में रहेगा कि इतना करते हुए भी क्यों नहीं होता? ये ऐसे करता, यह ऐसे क्यों करते? ऐसा नहीं होना चाहिए, यह होना चाहिए। इसी क्वेश्चन में रहेगा। इसलिए सेवाधारी भी दिल से बनो। सच्ची दिल से सेवाधारी बनने का विशेष लक्ष्य क्या होगा? दिलसिकस्त आत्मा को शक्तिशाली बनाने वाले, कैसे भी अवगुण वाली आत्मा हो, गरीब आत्मा हो, लेकिन सदा बाप द्वारा मिले हुए, गुणों से दान द्वारा गुणों के खज़ाने से गरीब को साहुकार बनाने का श्रेष्ठ संकल्प वा शुभ भावना रखेंगे। ऐसे सच्ची दिल वाले सेवाधारी सदा प्रत्यक्षफल से प्राप्त हुई आत्मा में, सफलता मूर्त्त को अनुभव करेगी। तो ऐसे सदा सहयोगी बनो तो सहयोगी का फल सहजयोग प्राप्त होगा। सदा सहयोगी बनने से सदा बिजी रहेंगे। संकल्प में भी बिजी रहेंगे तो व्यर्थ की शिकायतें, जो स्वयं से वा बाप से करते हो, वह सब सहज ही समाप्त हो जाएगी।
सदा हर संकल्प से सेवा करने वाले, अल्पकाल के फल का त्याग करने वाले, सदा सफलता मूर्त्त बनने वाले, हर आत्मा के उद्धार अर्थ निमित्त बनने वाले, उदारचित्त आत्माएं, सदा बाप और सेवा में तत्पर रहने वाली समीप आत्माएं, सदा सर्व खजानों की महादानी आत्माएं, ऐसी श्रेष्ठ आत्माओं को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
पार्टियों से
आत्मा के सर्व गुणों का अनुभव किया है? जो स्वयं के गुण हैं ज्ञान-स्वरूप, प्रेम-स्वरूप वा सुख, शक्ति, आनन्द स्वरूप - इन सभी गुणों का अनुभव है? आनन्द-स्वरूप वा ज्ञान-स्वरूप की स्टेज क्या है, उस स्टेज पर स्थित होने का अनुभव है? यह अनुभव करना अर्थात् सर्व गुणों का अनुभव करना है। सिर्फ शान्ति को प्राप्त करना स्वयं पर है। अगर हर गुण का अनुभव होगा, तो परिस्थिति के समय भी अनुभव के आधार से परिस्थिति को बदल देगा, इसलिए वर्तमान समय का पुरूषार्थ है हर गुण के अनुभवी बनना। ऐसा अभ्यास चाहिए जैसे स्थूल लिफ्ट होती है, तो जिस नम्बर का स्वीच दबाओ उसमें ही पहुँच जाएगी। तो यह बुद्धि की लिफ्ट है, स्मृति का स्वीच ऑन किया और पहुँच जाएंगे। कई बार ऐसे भी होता लिफ्ट होते भी काम नहीं करती, स्वीच दबाते ऊपर का और आ नीचे जाते, या स्वीच दबाएंगे 2 नम्बर का पहँच जाएंगे 3- 4 में। तो ऐसे तो नहीं है? लिफ्ट अपने कन्ट्रोल में होनी चाहिए। अगर न चाहते भी नीचे आ जाते तो जरूर कुछ लूज (Loose;ढ़ीला) है। कन्ट्रोलिंग पॉवर नहीं। जो स्वयं का स्वयं कन्ट्रोल नहीं कर सकते वह राज्य का कन्ट्रोल नहीं कर सकते, वह राज्य का कन्ट्रोल कैसे करेंगे? वहाँ राज्य भी लॉफुल है, प्रकृति भी ऑर्डर पर चलती। यहाँ तो प्रकृति धोखा दे देती है। तो प्रकृति के आधिकारी कौन बनेंगे? जो स्वयं के अधिकारी हैं। किसी भी संकल्प, स्वभाव, व्यक्ति व वैभव के अधीन न हो - इसको कहा जाता है ‘अधिकारी।’ अपने स्वभाव के भी अधीन नहीं, मेरा स्वभाव ऐसा है इसलिए कर लिया, तो अधीन हुए ना? अधिकारी सदा शक्तिशाली रहता।
वाह बाबा और वाह ड्रामा के गीत गाते रहो, तो सदा लगन में मगन रहेंगे, क्योंकि लगन में मगन वही रह सकता है जो साक्षी होकर हर पार्ट बजाता है। जब गीत कोई गाता है तो उसी में मगन हो जाता है। ऐसे यह गीत गाने वाले सदा एक ही लगन में मगन रहते। एक बाप दूसरा न कोई यही गीत गाते रहो। बहुत लश्कर है। जितना बड़ा लश्कर होता है, उतना अपना राज्य सहज ही प्राप्त कर लेते हैं। इतना बड़ा लश्कर है तो दिल्ली पर विजय हुई पड़ी है। इतने सब अपने दृढ़ संकल्प से जो चाहें सो कर सकते हैं। वह आत्मज्ञानी भी जिस्मानी तपस्या से, अल्पकाल की तपस्या से अल्पकाल की सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं। आप रूहानी तपस्वी परमात्मज्ञानी हो, उन्होंका संकल्प क्या करेगा। सदैव विजयी रत्न की स्मृति रहने से माया के अनेक प्रकार के विघ्न ऐसे समाप्त हो जाएंगे जैसे कुछ था नहीं। जैसे कहा जाता है न - ऐसे विजयी बनो जो उनका नामनिशान गुम कर दो। सदा विजयी का नशा व स्मृति रहेगी, तो माया के विघ्नों का नाम, निशान नहीं रहेगा। माया के विघ्न मरी हुई चींटी के समान हैं तो उनसे धबराने वाले तो नहीं हो ना? शूर, वीर, महावीर विघ्नों से घबराएंगे नहीं। विघ्नों का समझ गए होना? क्यों आते, कैसे समाप्त हो इन सबका ज्ञान है ना। विघ्न आते हैं आगे बढ़ाने के लिए। विघ्न आने से अनुभवी और मजबूत हो जाएंगे। जानने वाले ज्ञानी-समझदार, विघ्नों से लाभ उठाएंगे, न कि घबराएंगे। विघ्न आया है - आगे बढ़ाने के लिए, यह याद आने से महावीर हो जाएंगे। व्यर्थ संकल्पों से घबराते तो नहीं? संकल्प के ऊपर विजय प्राप्त करने वाले घबराते नहीं; घबराएंगे तो माया कमज़ोर देख और वार करेगी। देखेगी बहादुर हैं तो विदाई ले लेगी।