29-11-78 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
सन्तुष्टता से प्रसन्नता और प्रशंसा की प्राप्ति
सर्व खज़ानों से भरपूर करने वाले सदा सुखदाता बाप-दादा बोले:-
आज बाप-दादा अपने विश्व में चमकने वाली मणियों को देख रहे हैं। हरेक मणी की अपनी-अपनी चमक है। हरेक मणी अपने द्वारा बाप के गुणों और कर्त्तव्य को नम्बरवार प्रत्यक्ष कर रही है। हरेक मणी द्वारा बाप-दादा दिखाई देता है। इस विचित्र रंगत को भक्तों ने ‘‘जहाँ देखे वहाँ तू ही तू’’ कह दिया है। महारथी में भी बाप-दादा दिखार्द देगा और लास्ट सो फास्ट में भी बापदादा ही दिखाई देता। हरेक के मुख से एक ही बाबा बाबा शब्द का गीत सुनाई देता। सर्व ब्राह्मण आत्माओं के नयनों में एक बाप नूर के समान समाया हुआ है - इसीलिए ब्राह्मण संसार में जहाँ देखे वहाँ तू ही तू का प्रैक्टीकल अनुभव होता है। इसी अनुभव को भक्तों ने सर्वव्यापी शब्दों में कहा है - बच्चों के वर्तमान समय का अनुभव परमधाम निवासी बाप है वा हर संकल्प और कर्म में सदा साथ है परमधाम निवासी साथी बाप अनुभव होता है वा सदा साथी बाप अनुभव होता है ? क्या अनुभव होता है साथ वा साथी ? सर्व के साथी सर्वव्यापी नहीं हुआ! भक्तों ने शब्द कापी किया है - लेकिन कब और कैसे का भावार्थ भूल जाने के कारण गायन बदल ग्लानि हो गई।
बाप-दादा सर्व बच्चों के वर्तमान स्वरूप से धारणा स्वरूप को देखते विशेष एक बात देख रहे हैं। कौन सी? सर्व बच्चों में से सदा सन्तुष्ट मणियाँ कितनी हैं। सबसे विशेष गुण, जो चेहरे से चमके वह सन्तुष्टता है। सन्तुष्टता तीनों ही प्रकार की चाहिए। एक-बाप से सन्तुष्ट। दूसरा-सदा अपने आप से सन्तुष्ट। तीसरा -- सर्व सम्बन्ध और सम्पर्क से सन्तुष्ट। इसमें चैतन्य आत्मायें और प्रकृति दोनों आ जाते हैं। सन्तुष्टता की निशानी प्रत्यक्ष रूप में प्रसन्नता दिखाई देगी। सदा प्रसन्नचित। इस प्रसन्नता के आधार पर प्रत्यक्ष फल ऐसी आत्मा की सदा स्वत: ही सर्व से प्रशंसा होगी। विशेषता है सन्तुष्टता, उसकी निशानी प्रसन्नता, उसका प्रत्यक्षफल प्रशंसा। अब अपने आपको देखो। प्रशंसा को प्रसन्नता से ही प्राप्त कर सकते हो। जो सदा स्वयं सन्तुष्ट वा प्रसन्न रहते उसकी प्रशंसा हरेक अवश्य करते हैं। चलते-चलते पुरुषार्थी जीवन में समस्यायें या परिस्थितियाँ तो ड्रामा अनुसार आनी ही हैं। जन्म लेते ही आगे बढ़ने का लक्ष्य रखना अर्थात् परीक्षाओं और समस्याओं का आह्वान करना। अपने किए हुए आह्वान को भूल जाते हो! जब रास्ता तय करना है तो रास्ते के नज़ारे न हो यह हो सकता है? नज़ारों को देखते रूक जाते हो इसलिए मंज़िल दूर अनुभव करते हो। नज़ारे देखते हुए पार करते चलना है। लेकिन नज़ारों को देख यह क्यों, यह क्या, यह ऐसे नहीं - यह वैसे नहीं इन बातों में रूक जाते हैं। हर नज़ारे को करेक्शन करने लग जाते हो। पार करने के बजाए करेक्शन करने में बिज़ी हो जाते हो। इसलिए बाप की याद का कनेक्शन लूज़ कर देते हो - मनोरंजन के बजाए मन को मुरझा देते हो। वाह नज़ारा वाह। वाह-वाह के बजाये अई बहुत कहते हो। अई अर्थात् आश्चर्यजनक। इसलिए चलते-चलते रूक जाते हो। थकने के कारण कभी बाप से मीठे-मीठे उल्हनें देते हुए रायल रूप में बाप से भी असन्तुष्ट हो जाते हो - कई बच्चे कहते हैं इतना पहले क्यों नहीं बताया - सहज मार्ग कहा - सहन मार्ग तो कहा नहीं। सहज मार्ग के बजाए सहन करने का मार्ग अनुभव करते हैं। लेकिन सहन करना ही आगे बढ़ना है। वास्तव में सहन करना नहीं होता लेकिन अपनी कमज़ोरी के कारण सहन अनुभव होता है। जैसे आग का गुण है जलाना - लेकिन उसके गुण का ज्ञान न होने कारण उससे लाभ लेने के बजाए नुकसान कर देते तो सुख के बजाए सहन करना पड़ता है - क्योंकि वस्तु के बजाए स्वयं को जला देते। गुण का ज्ञान न होने के कारण सुख के बजाए सहन करना पड़ता। वैसे समस्यायें वा परिस्थिति आने के कारण, उनका ज्ञान न होने के कारण आगे बढ़ने के सुख के अनुभव के बजाए सहन करने का अनुभव करते हैं।
इसलिए सहज मार्ग के बजाए सहन करने का मार्ग अनुभव करते हैं। ऐसे बच्चे बाप से अर्थात् बाप के ज्ञान से वा ज्ञान के धारणा मार्ग से असन्तुष्ट रहते हैं। साथ-साथ स्वयं से भी असन्तुष्ट रहते हैं - स्वयं से असन्तुष्ट तो सर्व के सम्बन्ध और सम्पर्क से भी असन्तुष्ट। इस कारण प्रसन्न अर्थात् सदा खुशी नहीं रहती। अभी-अभी सन्तुष्ट अर्थात् प्रसन्नचित्त। अभी-अभी असन्तुष्ट। इसलिए संगमयुग का विशेष खज़ाना अतीन्द्रिय सुख का अनुभव नहीं कर पाते हो। तो आज से सदा सन्तुष्ट और प्रसन्नता का विशेष वरदान स्वयं भी लो और औरों को भी दो। ऐसे ही बाप की वा अपने आपकी प्रशंसा कर सकेंगे। प्रशंसा का श्रेष्ठ साधन भी हर ब्राह्मण की प्रसन्नता है। कोई भी कार्य की प्रशंसा सर्व की प्रसन्नता पर आधार रखती है। इस यज्ञ की अन्तिम आहूति सर्व ब्राह्मणों की सदा प्रसन्नता। प्रत्यक्षता अर्थात् प्रशंसा का आवाज़ गूँजेगा अर्थात् विजय का झण्डा लहरायेगा। समझा अब क्या करना है। सदा प्रसन्न रहो और सदा सर्व को प्रसन्न करो। अच्छा –
ऐसे सदा बाप के आज्ञाकारी सदा संतुष्ट और प्रसन्न रहने वाले सर्व को सदा प्रसन्न्ता का वरदान देने वाले महादानी - वरदानी बच्चों को बाप-दादा का याद प्यार और नमस्ते!
बाम्बे निवासियों को विशेष रूप से बाप-दादा याद प्यार दे रहे हैं –
बाम्बे निवासियों में हिम्मत और उमंग बहुत अच्छा है। बाम्बे निवासियों को देख बाप के साथ प्रकृति ने भी स्वागत किया है ( क्योंकि ठण्ड़ी बहुत हो गई है ) प्रकृति ने अभ्यास कराया है - अन्त में आने वाले पेपर का पहले से ही अनुभव कराके पक्का मज़बूत बनाया है इसलिए घबराना नहीं। बाम्बे निवासियों का बाप से प्यार है ना। बाप-दादा का भी बच्चों से विशेष प्यार है। बाम्बे निवासी अब सदा संतुष्टता और प्रसन्नता का पेपर नम्बरवन में पास करेंगे - बहुत अच्छा है - आप साथ छोड़ो तो भी बाप-दादा नहीं छोड़ेंगे। विशेष बाम्बे और देहली में आदि रतन ज्यादा है - विश्व सेवा की स्थापना के कार्य में बाम्बे और देहली का विशेष सहयोग है। समय पर सहयोगी बनने वालों का महत्त्व होता है - इसलिए सहयोगी बच्चों से बाप का भी स्नेह है। अच्छा –
पार्टियों से –
1. सदा ‘‘विजयी भव’’ के वरदानी मूर्त्त हो? वरदाता ने जो वरदान दिया उसी वरदान को सदा जीवन में लाना यह हरेक का अपना काम है। इस वरदान को जीवन में समाना अर्थात् वरदानी स्वरूप बनना। ऐसे बने हो ? महावीर को भी वरदानी कहते हैं - और शक्तियों को भी वरदानी कहते हैं। अब आपके जड़ चित्रों द्वारा अनेक भक्त वरदान प्राप्त कर लेते हैं तो चैतन्य में तो वरदानों से झोली भरने वाले हो ना? महावीर हो ना ? महावीर अर्थात् सदा विजयी। जब अविनाशी बाप है तो वरदान भी अविनाशी है। अल्पकाल के लिए नहीं। सिर्फ सम्भालना आपका काम है, देना बाप का काम है। सम्भालने आता है ना, कि चोरी हो जाती है। सिर्फ एक बात याद रखो कि लेता नहीं हूँ लेकिन दाता हूँ, अभी लेने के दिन समाप्त हो गए - अभी दाता बन देने का समय है। माँगना तो बचपन में होता - वानप्रस्थी कहें छोटा-सा खिलौना दे दो - यह अच्छा लगेगा? थोड़ी शक्ति दे दो - थोड़ी मदद करो - यह खिलौना माँगते हो। अब स्वयं तृप्त आत्मा बनो - दाता के बच्चे और माँगता हो तो देखने वाले क्या कहेंगे। सफलता का साधन है स्वयं सदा सफलता मूर्त्त बनो। स्वयं की वृत्ति वायब्रेशन फैलाती है और वायब्रेशन के आधार पर सर्व को अनुभूति होगी। इसलिए कार्य करने के पहले विशेष स्वयं की वृत्ति के अटेन्शन की भट्ठी चाहिए। इससे ही वायब्रेशन द्वारा अनेकों की वृत्ति को परिवर्तन कर सकेंगे। पहले यह अटेन्शन रखना - सदा खुशी के झूले में झूलते रहो - हर्षित मुख अनेकों को अपने तरफ आकर्षित करता है।
कुमारियों को देखते हुए :
कुमारियों पर बहुत बड़ी ज़िम्मेवारी है। एक अनेकों के कल्याण प्रति निमित्त बन सकती है। ब्रह्माकुमारी वह जो विश्व के कल्याण के निमित्त बने। बेहद विश्व के कल्याणकारी न कि हद के। लगन में कमी है तो विघ्न अपना काम करेगा। अगर आग तेज़ है तो किचड़ा भस्म हो जाएगा। लगन है तो विघ्न नहीं रह सकता, कर्मयोग से कर्म भोग भी परिवर्तन हो जाता, परिवर्तन करना अपनी हिम्मत का काम है। कुमारियों में तो सदैव बाप-दादा की उम्मीद है। अच्छा -
इस मुरली का सार
1. सर्व ब्राह्मण आत्माओं के नयनों में एक बाप नूर के समान समाया हुआ है। इसी अनुभव को भक्तों ने ‘‘सर्वव्यापी’’ शब्दों में कहा है।
2. विशेषता है सन्तुष्टता, उसकी निशानी है प्रसन्नता और उसका प्रत्यक्ष फल है प्रशंसा। अपनी कमज़ोरी के कारण सहज मार्ग सहनमार्ग अनुभव होता है। समस्याएं व परिस्थिति आने पर ज्ञान न होने के कारण सुख का अनुभव की बजाए सहन करने का अनुभव होता है।
3. इस यज्ञ की अन्तिम आहुति सर्व ब्राह्मणों की प्रसन्नता है।