03-04-81 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
"ज्ञान मार्ग की यादगार - भक्ति मार्ग"
आज मधुबन के तट पर कौन-सा मेला है? आज अनेक नदियों और सागर का मेला है। हरेक छोटी-बड़ी ज्ञान-नदियाँ पतित-पावन बाप समान पतित-पावनी हैं। बाप अपने सेवा के साथियों को देख रहे हैं। देश से विदेश तक भी पतित पावनी नदियाँ पहुँच गई हैं। देश-विदेश की आत्मायें पावन बन कितने महिमा के गीत गाती हैं। यह मन के गीत फिर द्वापर में मुख के गीत बन जाते हैं। अभी बाप श्रेष्ठ आत्माओं के श्रेष्ठ कार्य, श्रेष्ठ जीवन की कीर्ति गाते हैं। फिर भक्ति मार्ग में कीर्त्तन हो जायेगा। अभी अतीन्द्रिय सुख की प्राप्ति के कारण खुशी में आत्माओं का मन नाचता है और भक्ति में फिर पाँव से नाचेंगे। अभी श्रेष्ठ आत्माओं के गुणों की माला सिमरण करते हैं वा वर्णन करते हैं फिर भक्ति मार्ग में मणकों की माला सिमरण करेंगे। अभी आप सब स्वयं बाप को भोग लगाते हो, भक्ति में इसका रिटर्न आप सबको भोग लगायेंगे। जैसे अभी आप सब सिवाए बाप को स्वीकार कराने कोई भी वस्तु स्वीकार नहीं करते, ‘‘पहले बाप'' यह स्नेह सदा दिल में रहता है, ऐसे ही भक्ति में सिवाए आप देव आत्माओं को स्वीकार कराने के खुद स्वीकार नहीं करते हैं। पहले देवता, पीछे हम। जैसे अभी आप कहते हो पहले बाप फिर हम। तो सब कापी की है। आप याद स्वरूप बनते, वह यादगार के स्मृति स्वरूप रहते। जैसे आप सब अटूट अव्यभिचारी अर्थात् एक की याद में रहते हो, कोई भी हिला नहीं सकता, बदल नहीं सकता, ऐसे ही नौधा भक्त, सच्चे भक्त, पहले भक्त, अपने इष्ट के निश्चय में अटूट और अटल निश्चय बुद्धि होते हैं। चाहे हनुमान के भक्त को राम भी मिल जाए तो भी वह हुनमान के भक्त रहेंगे। ऐसे अटल विश्वासी होते हैं। आपका एक बल, एक भरोसा - इसको कापी की है।
आप सभी अभी रूहानी यात्रु बनते। आपकी याद की यात्रा और उन्हों की यादगार की यात्रा। आप लोग वर्त्तमान समय ज्ञान स्तम्भ, शान्ति स्तम्भ के चारों ओर शिक्षा के स्मृति स्वरूप महावाक्य के कारण चक्कर लगाते हो और सभी को लगवाते हो। आप शिक्षा के कारण चक्कर लगाते हो, एक तरफ भी छोड़ते नहीं हो। जब चारों तरफ चक्कर सम्पन्न होता तब समझते हो सब देखा, अनुभव किया। भक्तों ने आपके याद स्वरूपों का चक्कर लगाना शुरू किया। जक तक परिक्रमा नहीं लगाते तो भक्ति सम्पन्न नहीं सम- झते। सबका सब कर्म और गुण सूक्ष्म स्वरूप से स्थूल रूप का भक्ति में कापी किया हुआ है। इसलिए बापदादा सर्व देव आत्माओं को सदा यही शिक्षा देते कि सदा एक में अटल निश्चय बुद्धि रहो। अगर आप अभी एक की याद में एकरस नहीं रहते, एकाग्र नहीं रहते, अटल नहीं बनते तो आपके भक्त अटल निश्चय बुद्धि नहीं होंगे। यहाँ आपकी बुद्धि भटकती है और भक्त पाँव से भटकेंगे। कब किसको देवता बनायेंगे, कब किसको। आज राम के भक्त होंगे, कल कृष्ण के बन जायेंगे। ‘‘सर्व प्राप्ति एक द्वारा'' - ऐसी स्थिति आपकी नहीं होगी तो भक्त आत्मायें भी हर प्राप्ति के लिए अलग-अलग देवता के पास भटकेंगे। आप अपनी श्रेष्ठ शान से परे हो जाते हो तो आपके भक्त भी परेशान होंगे। जैसे यहाँ आप याद द्वारा अलौकिक अनुभूतियाँ करने के बजाए अपनी कमजोरि यों के कारण प्राप्ति के बजाए उल्हनें देते हो। चाहे दिलशिकस्त हो उल्हनें देते, चाहे स्नेह से उल्हनें देते, तो आपके भक्त भी उल्हनें देते रहेंगे। उल्हनें तो सब अच्छी तहर जानते हो इसलिए सुनाते नहीं हैं।
बाप कहते हैं - रहमदिल बनो, सदा रहम की भावना रखो। लेकिन रहम के बदले अहम् भाव वा वहम् भाव हो जाता है। तो भक्तों में भी ऐसा होता है। वहम् भाव अर्थात् यह करें, ऐसा होगा, नहीं होगा, ऐसे तो नहीं होगा। इसी में रहम भूल जाता है। स्वयं के प्रति भी रहम दिल और सर्व के प्रति भी रहमदिल। स्वयं के प्रति भी वहम् होता है और औरों के प्रति भी वहम् होता है। अगर वहम् की बीमारी बढ़ जाए तो कैन्सर के समान रोग हो जाता। फर्स्ट स्टेज वाला फिर भी बच सकता है लेकिन लास्ट स्टेज वाले का बचना मुश्किल है। न जिंदा रह सकता है, न मर सकता। तो यहाँ भी न पूरा अज्ञानी बन सकता न ज्ञान बन सकता। उन्हों की निशानी होगी - एक ही सलोगन रटते रहेंगे वा कहेंगे - मैं हूँ ही ऐसा, वा दूसरे के प्रति कहेंगे - यह है ही ऐसा। कितना भी बदलने की कोशिश करेंगे, कहेंगे यह है ही ऐसा। कितना भी बदलने की कोशिश करेंगे लेकिन यही रट होगी। कैन्सर वाला पेशेन्ट खाता पीता बहुत अच्छा है। बाहर का रूप अच्छा दिखाई देगा लेकिन अन्दर शक्तिहीन होगा। वहम् की बीमारी वाले बाहर से अपने को बहुत अच्छा चलायेंगे, बाहर कोई कमी नहीं रखेंगे, न कोई और रखेगा तो स्वीकार करेंगे। लेकिन अन्दर ही अन्दर आत्मा असन्तुष्ट होने के कारण खुशी और सुख की प्राप्ति कमजोर होते जाते। ऐसे ही दूसरा है - अहम् भाव। रहम भाव की निशानी है - हर बोल में, हर सकंल्प में ‘एक बाप दूसरा न कोई'। रहम भाव वाले को जहाँ देखो बाप ही बाप दिखाई देगा। और अहम् वाले को जहाँ जाओ, जहाँ देखो मैं ही मैं। वह मैं-मैं की माला सिमरण वाला और वह बाप की माला सिमरण वाला। मैं-पन बाप में समा गया इसको कहा जाता है - लव में लीन हो गया। वह लवलीन आत्मा और वह है मैं-मैं लीन आत्मा। अब समझा। आपको कापी करने वाले सारे कल्प में हैं। भक्ति के मास्टर भगवान हो, सतयुग त्रेता में प्रजा के लिए प्रजापिता हो। संगम पर बापदादा के नाम और कर्त्तव्य को प्रतयक्ष करने के आधारमूर्त्त हो। चाहे अपने श्रेष्ठ कर्म द्वारा, परिवर्त्तन द्वारा बाप का नाम बाला करो, चाहे व्यर्थ कर्म द्वारा, साधारण चलन द्वारा नाम बदनाम करो। है तो बच्चों के ही हाथ में।
विनाशकाल में विश्व के लिए महान कल्याणकारी, महावरदानी, महादानी, महान पुण्य आत्माओं के स्वरूप में होंगे। तो सर्व काल में कितने महान हो! हर काल में आधारमूर्त्त हो। ऐसे अपने को समझते हो? आदि में भी, मध्य में भी और अन्त में भी, तीनों ही काल का परिचय स्मृति में आया। आप एक नहीं हो, आपके पीछे अनेक कापी करनेवाले हैं। इसलिए सदा हर संकल्प में भी अटेन्शन। ऐसे तीनों कालों में महान, सदा एक बाप की स्मृति के समर्थ स्वरूप, सदा रहमदिल, हर सेकेण्ड प्राप्ति स्वरूप और प्राप्ति दाता, ऐसे बाप समान सदा सम्पन्न स्वरूप आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।
टीचर्स प्रति अव्यकत बापदादा के महावाक्य- टीचर्स का वास्तविक स्वरूप है ही निरंतर सेवाधारी। यह तो अच्छी तरह से जानते हो। और सेवाधारी की विशेषता क्या होती है? सेवाधारी सफल किस बात से बनते हैं? सेवा में सदा खोया हुआ रहे, ऐसे सेवाधारी की विशेषता यह है जो मैं सेवा कर रही हूँ, मैंने सेवा की - इस सेवा-भाव का भी त्याग हो। जिसको आप लोग कहते हो त्याग का भी त्याग। मैंने सेवा की, तो सेवा सफल नहीं होती। मैंने नहीं की लेकिन मैं करनहार हूँ, करावनहार बाप है। तो बाप की महिमा आयेगी। जहाँ मैं सेवाधारी हूँ, मैंने किया मैं करूँगी, तो यह ‘मैं-पन' सेवाधारी के हिसाब से भी ‘‘मैं पन'' जो आता है वह सेवा की सफलता नहीं होने देता। क्योंकि सेवा में मैं-पन जब मिक्स हो जाता है तो स्वार्थ भरी सेवा हो जाती है, त्याग वाली नहीं। दुनिया में भी दो प्रकार के सेवाधारी होते हैं - एक स्वार्थ के हिसाब से सेवाधारी, दूसरे स्नेह के हिसाब से त्यागमूर्त्त सेवाधारी। तो कौन से सेवाधारी हो? जैसे सुनाया ना - मैं पन बाबा के लव में लीन हो गया हो, इसको कहा जाता है - ‘सच्चे सेवाधारी'। मैं और तू की भाषा ही खत्म। कराने वाला बाबा,हम निमित्त हैं। कोई भी निमित्त बन जाए। मैं पन जब आता है तो मैं-पन क्या होता है? मैं मैं कौन करता है? (बकरी)। मैं मैं कहने से मोहताजी आ जाती है। जैसे बकरी की गर्दन सदा झुकी हुई रहती है और शेर की गर्दन सदा ऊपर रहती है, तो जहाँ मैं पन आ जाता है वहाँ किसी न किसी कामना के कारण झुक जाते हैं। सदा नशे में सिर ऊंचा नहीं रहता। काई न कोई विघ्न के कारण सिर बकरी के समान नीचे रहता। गृहस्थी जीवन भी बकरी समान जीवन है, क्योंकि झुकते हैं ना। निमार्कनता से झुकना वह अलग चीज़ है, वह माया नहीं झुकाती है, यह तो माया बकरी बना देती है। जबरदस्ती सिर नीचे करा देती, ऑखें नीचे करा देती। सेवा में मैं-पन का मिक्स होना अर्थात् मोहताज बनना। फिर चाहे किसी व्यक्ति के मोहताज हों, पार्ट के मोहताज हों, वस्तु के हों या वायुमण्डल के हों, किसी न किसी के मोहताज बन जाते हैं। अपने संस्कारों के भी मोहताज बन जाते हैं। मोहताज अर्थात् परवश। जो मोहताज होता है वह परवश ही होता है। सेवाधारी में यह संस्कार हो ही नहीं सकते।
सेवाधारी चैलेन्ज करने वाला होता है। चैलेन्ज हमेशा सिर ऊंचा करके करेंगे, गलती होगी तो ऐसे नीचे झुककर बोलेंगे। सेवाधारी अर्थात् चैलेन्ज करने वाला, माया को भी और विश्व की आत्माओं को भी बाप का चैलेन्ज देने वाला। चैलेन्ज भी वह दे सकते है जिन्होंने स्वयं अपने पुराने संस्कारों को चैलेन्ज दी है। पहले अपने संस्कारों को चैलेन्ज देना है फिर जनरल विघ्न जो आते हैं उनको चैलेन्ज देना है। विघ्न कभी भी ऐसे सेवाधारी को रोक नहीं सकते। चैलेन्ज करने वाला माया के पहाड़ के रूप को सेकेण्ड में राई बना देगा। आप लोग भी ड्रामा करते हो ना - माया वाला, उसमें क्या कहते हो? पहाड़ को राई बना देंगे।
तो सच्चे सेवाधारी अर्थात् बाप समान। क्योंकि बाप पहले पहले अपने को क्या कहते? मैं वर्ल्ड सर्वेन्ट हूँ। सेवाधारी बनना अर्थात् बाप समान बनना। एक जन्म की सेवा अनेक जन्मों के ताज और तख्तधारी बना देती है। संगमयुग सेवा का युग है ना। वह भी कितना समय? संगमयुग की आयु वैसे भी छोटी है और उसमें भी हरेक को सेवा का चांस कितना थोड़ा टाइम मिलता! अच्छा, समझो किसी ने 50-60 वर्ष की सेवा की, तो 5000 वर्ष में से 60 भी कम कर दो, बाकी तो सब प्रालब्ध है। 60 वर्ष की सेवा बाकी सब मेवा। क्योंकि संगमयुग के पुरूषार्थ के अनुसार पूज्य बनेंगे। पूज्य के हिसाब से नम्बरवार पुजारी बनेंगे। पुजारी भी नम्बरवन बनते हो। फिर लास्ट जन्म भी देखो कितना अच्छा रहा। जो अच्छे पुरूषार्थी है उनका लास्ट जन्म भी इतना अच्छा रहा तो आगे क्या होगा। यह तो सुख के हिसाब से दु:ख कहा जाता है। जैसे कोई साहुकार हो और थोड़ा गरीब बन जाए तो कहने में तो आता है ना। कोई बड़े आदमी को थोड़ा आधा डिग्री भी बुखार हो तो कहेंगे फलाने को बुखार आ गया लेकिन अगर गरीब को 5 डिग्री भी ज्यादा बुखार हो जाए तो कोई पूछता भी नहीं। तो आप भी इतने दु:खी होते नहीं हो लेकिन अति सुखी के हिसाब से दु:खी कहा जाता है। लास्ट जन्म में भी भिखारी तो नहीं बने ना! दर-दर दो रोटी माँगने वाले तो नहीं बने। इसलिए कहा - पुरूषार्थ का समय बहुत थोड़ा है और प्रारब्ध का समय बहुत बड़ा है। प्रालब्ध कितनी श्रेष्ठ है और कितने समय के लिए यह स्मृति में रहे तो क्या स्टेज हो जायेगी? श्रेष्ठ हो जायेगी ना! तो सेवाधारी बनना अर्थात् पूरे कल्प मेवे खाने के अधिकारी बनना। यह कभी नहीं सोचो कि क्या संगमयुग सारा सेवा ही करते रहेंगे? जब मेवा खायेंगे तब कहेंगे क्या कि सारा कल्प मेवा ही खाते रहेंगे। अभी तो याद है ना कि मिलेगा। एक का लख गुणा जो बनता है तो हिसाब भी होगा ना! सेवाधारी बनना अर्थात् सारे कल्प के लिए सदा सुखी बनना। कम भाग्य नहीं है। टीचर्स कहो या सेवाधारी कहो क्योंकि मेहनत का हजार गुणा फल मिलता है। और वह भी मेहनत क्या है? यहाँ भी स्टूडेन्ट के लिए तो दीदी-दादी बन जाती हो। टाइटल तो मिल जाता है ना। 10 वर्ष का स्टूडेन्ट भी दो वर्ष की आने वाली जो टीचर बनती उसको दीदी-दादी कहने लगते। यहाँ भी ऊंची स्टेज पर तो देखते हैं ना। रिगार्ड तो देते हैं ना। अगर सच्चे सेवाधारी हैं तो यहाँ भी रिगार्ड मिलने के योग्य बन जाते। अगर मिक्स है तो आज दीदी-दादी कहेंगे, कल सुना भी देंगे। सेवा मिक्स है तो रिगार्ड भी मिक्स ही मिक्स है, इसलिए सेवाधारी अर्थात् बाप समान। सेवाधारी अर्थात् बाप के कदम के ऊपर कदम रखने वाले, जरा भी आगे पीछे नहीं। चाहे मंसा, चाहे वाचा, चाहे कर्मणा, चाहे सम्पर्क सबमें फुट स्टैप लेने वाले। एकदम पाँव के ऊपर पाँव रखने वाले, इसको कहा जाता है ‘फुट स्टैप लेने वाले'। क्या समझते हो, ऐसा ही ग्रुप है ना? टीचर्स तो सदा सहजयोगी है ना। टीचर्स मेहनत का अनुभव करेंगे तो स्टूडेन्ट का क्या हाल होगा?