06-04-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“दास व अधिकारी आत्माओं के लक्षण”
अव्यक्त बापदादा सर्व अधिकारी, महात्यागी, राजऋषि बच्चों प्रति बोले-
‘‘बापदादा राजऋषियों की दरबार देख रहे हैं। राज अर्थात् अधिकारी और ऋषि अर्थात् सर्व त्यागी। त्यागी और तपस्वी। तो बापदादा सर्व ब्राह्मण बच्चों को देख रहें हैं कि कहाँ तक अधिकारी आत्मा और साथ-साथ महात्यागी आत्मादोनों का जीवन में प्रत्यक्ष स्वरूप कहाँ तक लाया है! अधिकारी और त्यागी दोनों का बैलेन्स हो। अधिकारी भी पूरा हो और त्यागी भी पूरा हो। दोनों ही इकट्ठे हो सकता है? इसको जाना है वा अनुभवी भी हो? बिना त्याग के राज्य पा सकते हो? स्व का अधिकार अर्थात् स्वराज्य पा सकते हो? त्याग किया तब स्वराज्य अधिकारी बने। यह तो अनुभव है ना! त्याग की परिभाषा पहले भी सुनाई है।
त्याग का पहला कदम है - देहभान का त्याग। जब देह के भान का त्याग हो जाता है तो दूसरा कदम है - देह के सर्व सम्बन्ध का त्याग। जब देह का भान छूट जाता तो क्या बन जाते? आत्मा, देही वा मालिक। देह के बन्धन से मुक्त अर्थात् जीवनमुक्त राज्य अधिकारी। जब राज्य अधिकारी बन गये तो सर्व प्रकार की अधीनता समाप्त हो जाती। क्योंकि देह के दास से देह के मालिक बन गये। ऐसा अन्तर अनुभव किया ना! दासपन छूट गया। दास और अधिकारी दोनों साथ-साथ नहीं हो सकते। दासपन की निशानी है - मन से, चेहरे से उदास होना। उदास होना निशानी है दासपन की। और अधिकारी अर्थात् स्वराज्यधारी की निशानी है - मन और तन से सदा हर्षित। दास सदा अपसेट होगा। राज्यअधिकारी सदा सिंहासन पर सेट होगा, दास छोटी सी बात में और सेकेण्ड में कनफ्यूज हो जायेगा और अधिकारी सदा अपने को कम्फर्ट (आराम में) अनुभव करेगा। इन निशानियों से अपने आप को देखो - मैं कौन? दास वा अधिकारी? कोई भी परिस्थिति, कोई भी व्यक्ति, कोई भी वैभव, वायुमण्डल, शान से परे अर्थात् तख्त से नीचे उतार दास तो नहीं बना देते अर्थात् शान से परे परेशान तो नहीं कर देते हैं? तो दास अर्थात् परेशान, और अधिकारी अर्थात् सदा मास्टर सर्वशक्तिवान, विघ्न विनाशक स्थिति की शान में स्थित होगा। परिस्थति वा व्यक्ति, वैभव, शान में रह मौज से देखता रहेगा। दास आत्मा सदा अपने को परीक्षाओं के मजधार में अनुभव करेगी। अधिकारी आत्मा मांझी बन नैया को मजे से परीक्षाओं की लहरों से खेलते-खेलते पार करेगी।
बापदादा दास आत्माओं की कर्मलीला देख रहम के साथ-साथ मुस्कराते हैं। साकार में भी एक हँसी की कहानी सुनाते थे। दास आत्मायें क्या करत भई! कहानी याद है? सुनाया था कि चूहा आता, चूहे को निकालते तो बिल्ली आ जाती, बिल्ली को निकालते तो कुत्ता आ जाता। एक निकालते दूसरा आता, दूसरे को निकालते तो तीसरा आ जाता। इसी कर्म-लीला में बिजी रहते हैं। क्योंकि दास आत्मा है ना। तो कभी आँख रूपी चूहा धोखा दे देता, कभी कान रूपी बिल्ली धोखा दे देती। कभी बुरे संस्कार रूपी शेर वार कर लेता, और बिचारी दास आत्मा उन्हों को निकालते-निकालते उदास रह जाती है। इसलिए बापदादा को रहम भी आता और मुस्कराहट भी आती। तख्त छोड़ते ही क्यों हो, आटोमेटिक खिसक जाते हो क्या? याद के चुम्बक से अपने को सेट कर दो तो खिसकेंगे नहीं। फिर क्या करते हैं? बापदादा के आगे आर्जियों के लम्बे-चौड़े फाइल रख देते हैं। कोई अर्जा डालते कि एक मास से परेशान हूँ, कोई कहते 3 मास से नीचे ऊपर हो रहा हूँ। कोई कहते 6 मास से सोच रहा था लेकिन ऐसे ही था। इतनी आर्जियाँ मिलकर फाईल हो जाती - लेकिन यह भी सोच लो जितनी बड़ी फाइल है उतना फाइन देना पड़ेगा। इसलिए अर्जा को खत्म करने का सहज साधन है - सदा बाप की मर्ज़ी पर चलो। ‘‘मेरी मर्ज़ी यह है'' तो वह मनमर्ज़ी अर्जा की फाइल बना देती है। जो बाप की मर्ज़ी वह मेरी मर्ज़ी। बाप की मर्ज़ी क्या है? हरेक आत्मा सदा शुभचिंतन करने वाली, सर्व के प्रति सदा शुभचिंतक रहने वाली, स्व कल्याणी और विश्व-कल्याणी बनें। इसी मर्ज़ी को सदा स्मृति में रखते हुए बिना मेहनत के चलते चलो। जैसे कहा जाता है - आँख बन्द करके चलते चलो। ऐसा तो नहीं, वैसा तो नहीं होगा? यह आँख नहीं खोलो। यह व्यर्थ चिंतन की आँख बन्द कर बाप की मर्ज़ी अर्थात् बाप के कदम पीछे कदम रखते चलो। पाँव के ऊपर पाँव रखकर चलना मुश्किल होता है वा सहज होता है? तो ऐसे सदा फालो फादर करो। फालो सिस्टर, फालो ब्रदर यह नया स्टेप नहीं उठाओ। इससे मंजल से वंचित हो जायेंगे। रिगार्ड दो, लेकिन फालो नहीं करो। विशेषता और गुण को स्वीकार करो लेकिन फुटस्टेप बाप के फुटस्टेप पर हो। समय पर मतलब की बातें नहीं उठाओ। मतलब की बातें भी बड़ी मनोरंजन की करते हैं। वह डायलॉग फिर सुनायेंगे, क्योंकि बापदादा के पास तो सब सेवा स्टेशन्स की न्यूज आती है। आल वर्ल्ड की न्यूज आती है। तो दास आत्मा मत बनो।
यह हैं बहुत छोटी सी कर्मेन्द्रियाँ, आँख, कान कितने छोटे हैं लेकिन यह जाल बहुत बड़ी फैला देते हैं। जैसे छोटी सी मकड़ी देखी है ना! खुद कितनी छोटी होती। जाल कितनी बड़ी होती। यह भी हर कर्मेन्द्रिय का जाल इतना बड़ा है, ऐसे फँसा देगा जो मालूम ही नही पड़ेगा कि मैं फँसा हुआ हूँ। यह ऐसा जादू का जाल है जो ईश्वरीय होश से, ईश्वरीय मर्यादाओं से बेहोश कर देता है। जाल से निकली हुई आत्मायें कितना भी उन दास आत्माओं को महसूस करायें लेकिन बेहोश को महसूसता क्या होगी? स्थूल रूप में भी बेहोश को कितना भी हिलाओ, कितना भी समझाओ, बड़े-बड़े माइक कान में लगाओ लेकिन वह सुनेगा? तो यह जाल भी ऐसा बेहोश कर देता है और फिर क्या मजा होता है? बेहोशी में कई बोलते भी बहुत हैं। लेकिन वह बोल बेअर्थ होता है। ऐसे रूहानी बेहोशी की स्थिति में अपना स्पष्टीकरण भी बहुत देते हैं। लेकिन वह होता बेअर्थ है। दो मास की, 6 मास की पुरानी बात, यहाँ की बात, वहाँ की बात बोलते रहेंगे। ऐसी है यह रूहानी बेहोशी। तो है छोटी सी आँख लेकिन बेहोशी की जाल बहुत बड़ी है। इससे निकलने में भी टाइम बहुत लग जाता है क्योंकि जाल की एक-एक तार को काटने का प्रयत्न करते हैं। जाल कभी देखी है? आप लोगों के प्रदर्शनी के चित्रों में भी है। जाल खत्म करने का साधन है - सारी जाल को अपने में खा लो। खत्म कर लो। मकड़ी भी अपनी जाल को पूरा स्वयं ही खा लेती है। ऐसे विस्तार में न जाकर विस्तार को बिन्दी लगाए बिन्दी में समा दो। बिन्दी बन जाओ। बिन्दी लगा दो। बिन्दी में समा जाओ। तो सारा विस्तार, सारी जाल सेकण्ड में समा जायेगी। और समय बच जायेगा। मेहनत से छूट जायेंगे। बिन्दी बन बिन्दी में लवलीन हो जायेंगे। तो सोचों जाल में बेहोश होने की स्थिति अच्छी वा बिन्दी बन बिन्दी में लवलीन होना अच्छा! तो बाप की मर्ज़ी क्या हुई? लवलीन हो जाओ।
जबकि झाड़ को अभी परिवर्तन होना ही है। तो झाड़ के अन्त में क्या रह जाता है? आदि भी बीज, अन्त भी बीज ही रह जाता है। अभी इस पुराने वृक्ष के परिवर्तन के समय पर वृक्ष के ऊपर मास्टर बीजरूप स्थिति में स्थित हो जाओ। बीज है ही - ‘बिन्दु'। सारा ज्ञान, गुण, शक्तियाँ सबका सिन्धु व बिन्दु में समा जाता है। इसको ही कहा जाता है - बाप समान स्थिति। बाप सिन्धु होते भी बिन्दु है। ऐसे मास्टर बीज रूप स्थिति कितनी प्रिय है! इसी स्थिति में सदा स्थित रहो। समझा क्या करना है?
देखो, दोनों जोन की विशेषता भी यही है। कर्नाटक अर्थात् नाटक पूरा किया अभी चलो, लवलीन हो जाओ। और यू.पी. में भी नदियाँ बहुत होती हैं। तो नदी सदा सागर में समा जाती हैं। तो आप सागर में समा जाओ अर्थात् लवलीन हो जाओ। दोनों कि विशेषता है ना! इसलिए शान से लवलीन स्थिति में सदा बैठे रहो। नीचे ऊपर नहीं आओ। आवागमन का चक्कर तो अब पूरा किया ना! अभी तो आराम से शान से बैठ जाओ। अच्छा –
ऐसे सदा सर्व अधिकारी और सर्व त्यागी, सदा बेहोशी की जाल से मुक्त, आवागमन से मुक्त, मास्टर बीजरूप स्थिति में लवलीन रहने वाले, ऐसे राजऋषि आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते''
टीचर्स के साथ- सभी निमित्त आत्मायें हो ना? सदा अपने को सेवार्थ निमित्त आत्मा हूँ - ऐसा समझकर चलते हो? निमित्त आत्मा समझने से सदा दो विशेषतायें साकार रूप मे दिखाई देंगी।
1. सदा नम्रता द्वारा निर्माण करते रहेंगे।
2. सदा सन्तुष्टता का फल खाते और खिलाते रहेंगे। तो मैं निमित्त हूँ- इससे न्यारा और बाप का प्यारा अनुभव करेंगे। मैंने किया यह भी कभी वर्णन नहीं करेंगे। मैं शब्द समाप्त हो जायेगा। ‘‘मैं'' के बजाए ‘‘बाबा बाबा''। तो बाबाबाबा कहने से सबकी बुद्धि बाप की तरफ जायेगी। जिसने निमित्त बनाया उसके तरफ बुद्धि लगने से आने वाली आत्माओं को विशेष शक्ति का अनुभव होगा क्योंकि सर्वशक्तिवान से योग लग जायेगा। शक्ति स्वरूप का अनुभव करेंगे। नहीं तो कमजोर ही रह जाते हैं। तो ‘निमित्त' समझकर चलना यही सेवाधारी की विशेषता है। देखो - सबसे बड़े ते बड़ा सेवाधारी बाप है लेकिन उनकी विशेषता ही यह है - जो अपने को निमित्त समझा। मालिक होते हुए भी निमित्त समझा। निमित्त समझने के कारण सबका प्रिय हो गया। तो निमित्त हूँ, न्यारी हूँ, प्यारी हूँ, यही सदा स्मृति में रखकर चलो। सेवा तो सब कर रहे हो, यह लाटरी मिल गई लेकिन इस मिली हुई लाटरी को सदा आगे बढ़ाना या कहाँ तक रखना यह आपके हाथ में है। बाप ने तो दे दी, बढ़ाना आपका काम है। भाग्य सबको एक जैसा बांटा लेकिन कोई सम्भालता और बढ़ाता है, कोई नहीं। इसी से नम्बर बन गये। तो सदा स्वयं को आगे बढ़ाते, औरों को भी आगे बढ़ाते चलो। औरों को आगे बढ़ाना ही बढ़ना है। जैसे बाप को देखो, बाप ने माँ को आगे बढ़ाया फिर भी नम्बरवन नारायण बना। वह सेकण्ड नम्बर लक्ष्मी बनी। लेकिन बढ़ाने से बढ़ा। बढ़ाना माना पीछे होना नहीं, बढ़ाना माना बढ़ना।
सभी सेवाधारी मेहनत बहुत अच्छी करते हो। मेहनत को देखकर बापदादा खुश होते हैं लेकिन निमित्त समझकर सेवा करो तो सेवा एक गुणा से चार गुणा हो जायेगी। बाप समान सीट मिली है अभी इसी सीट पर सेट होकर सेवा को बढ़ाओ। अच्छा-''
पार्टियों के साथ
1. विशेष आत्मा बनने के लिए सर्व की विशेषताओं को देखो- बापदादा सदा बच्चों की विशेषताओं के गुण गाते हैं। जैसे बाप सभी बच्चों की विशेषताओं को देखते वैसे आप विशेष आत्मायें भी सर्व की विशेषताओं को देखते स्वयं को विशेष आत्मा बनाते चलो। विशेष आत्माओं का कार्य है विशेषता देखना और विशेष बनना। कभी भी किसी आत्मा के सम्पर्क में आते हो तो उसकी विशेषता पर ही नज़र जानी चाहिए। जैसे मधुमक्खी की नज़र फूलों पर रहती ऐसे आपकी नज़र सर्व की विशेषताओं पर हो। हर ब्राह्मण आत्मा को देख सदा यही गुण गाते रहो - ‘‘वाह श्रेष्ठ आत्मा वाह''! अगर दूसरे की कमज़ोरी देखेंगे तो स्वयं भी कमजोर बन जायेंगे। तो आपकी नज़र किसी की कमज़ोरी रूपी कंकर पर नहीं जानी चाहिए। आप होली हंस सदा गुण रूपी मोती चुगते रहो। अच्छा-
2- समय और स्वयं के महत्व को स्मृति में रखो तो महान बन जायेंगे संगम युग का एक-एक सेकण्ड सारे कल्प की प्रालब्ध बनाने का आधार है। ऐसे समय के महत्त्व को जानते हुए हर कदम उठाते हो? जैसे समय महान है वैसे आप भी महान आत्मा हो - क्योंकि बापदादा द्वारा हर बच्चे को महान आत्मा बनने का वर्सा मिला है। तो स्वयं के महत्व को भी जानकर हर संकल्प, हर बोल और हर कर्म महान करो। सदा इसी स्मृति में रहो कि हम ‘महान बाप के बच्चे महान हैं।' इससे ही जितना श्रेष्ठ भाग्य बनाने चाहो बना सकते हो। संगमयुग को यही वरदान है। सदा बाप द्वारा मिले हुए खजानों से खेलते रहो। कितने अखुट खजाने मिले है, गिनती कर सकते हो! तो सदा ज्ञान रत्नों से, खुशी के खजाने से शक्तियों के खजाने से खेलते रहो। सदा मुख से रतन निकलें, मन में ज्ञान का मनन चलता रहे। ऐसे धारणा स्वरूप रहो। महान समय है, महान आत्मा हूँ - यही सदा याद रखो।