11-04-82       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


व्यर्थ का त्याग कर समर्थ बनो

सर्व समर्थ शिव बाबा बोले:-

‘‘आज बापदादा अपने सर्व विकर्माजीत अर्थात् विकर्म- संन्यासी आत्माओं को देख रहे हैं। ब्राह्मण आत्मा बनना अर्थात् श्रेष्ठ कर्म करना और विकर्म का संन्यास करना। हरेक ब्राह्मण बच्चे ने ब्राह्मण ब्राह्मण बनते ही यह श्रेष्ठ संकल्प किया कि हम सभी अब विकर्मा से सुकर्मा बन गये। सुकर्मा आत्मा श्रेष्ठ ब्राह्मण आत्मा कहलाई जाती है। तो संकल्प ही है विकर्माजीत बनने का। यही लक्ष्य पहले-पहले सभी ने धारण किया ना! इसी लक्ष्य को रखते हुए श्रेष्ठ लक्षण धारण कर रहे हो। तो अपने आप से पूछो - विकर्मों का संन्यास कर विकर्माजीत बने हो? जैसे लौकिक दुनिया में भी उच्च रॉयल कुल की आत्मायें कोई साधारण चलन नहीं कर सकतीं वैसे आप सुकर्मा आत्मायें विकर्म कर नहीं सकतीं। जैसे हद के वैष्णव लोग कोई भी तामसी चीज स्वीकार कर नहीं सकते, ऐसे विकर्माजीत विष्णुवंशी - विकर्म वा विकल्प का तमोगुणी कर्म वा संकल्प नहीं कर सकते। यह ब्राह्मण धर्म के हिसाब से निषेध है। आने वाली जिज्ञासु आत्माओं के लिए भी डायरेक्शन लिखते हो ना कि सहज योगी के लिए यह-यह बातें निषेध हैं तो ऐसे ब्राह्मणों के लिए वा अपने लिए क्या-क्या निषेध हैं वह अच्छी तरह से जानते हो? जानते तो सभी हैं और मानते भी सभी हैं लेकिन चलते नम्बरवार हैं। ऐसे बच्चों को देख बापदादा को इस बात पर एक हँसी की कहानी याद आई जो आप लोग सुनाते रहते हो। मानते भी हैं, कहते भी हैं लेकिन कहते हुए भी करते हैं। इस पर दूसरों को तोते की कहानी सुनाते हो ना। कह भी रहा है और कर भी रहा है। तो इसको क्या कहेंगे? ऐसा ब्राह्मण आत्माओं के लिए श्रेष्ठ लगता है? क्योंकि ब्राह्मण अर्थात् श्रेष्ठ। तो श्रेष्ठ क्या है? सुकर्म या साधारण कर्म? जब ब्राह्मण साधारण कर्म भी नहीं कर सकते तो विकर्म की तो बात ही नहीं। विकर्माजीत अर्थात् विकर्म, विकल्प के त्यागी। कर्मेंन्द्रियों के आधार से कर्म के बिना रह नहीं सकते। तो देह का सम्बन्ध कर्मेंन्द्रियों से है और कर्मेंन्द्रियों का सम्बन्ध कर्म से है। यह देह और देह के सम्बन्ध के त्याग की बात चल रही है। कर्मेंन्द्रियों का जो कर्म के साथ सम्बन्ध है - उस कर्म के हिसाब से विकर्म का त्याग। विकर्म के त्याग बिना सुकर्मा वा विकर्माजीत बन नही सकते। विकर्म की परिभाषा अच्छी तरह से जानते हो। किसी भी विकार के अंशमात्र के वशीभूत हो कर्म करना अर्थात् विकर्म करना है। विकारों के सूक्ष्म स्वरूप, रॉयल स्वरूप दोनों को अच्छी तरह से जानते हो और इसके ऊपर पहले भी सुना दिया है कि ब्राह्मणों के रॉयल रूप के विकार का स्वरूप क्या है? अगर रॉयल रूप में विकार है वा सूक्ष्म अंशमात्र है तो ऐसी आत्मा सदा सुकर्मा बन नहीं सकती।

अमृतवेले से लेकर हर कर्म में चेक करो कि सुकर्म किया वा व्यर्थ कर्म किया वा कोई विकर्म भी किया? सुकर्म अर्थात् श्रीमत के आधार पर कर्म करना। श्रीमत के आधार पर किया हुआ कर्म स्वत:ही सुकर्म के खाते में जमा होता है। तो सुकर्म और विकर्म को चेक करने की विधि यह सहज है। इस विधि के प्रमाण सदा चेक करते चलो। अमृतवेले के उठने के कर्म से लेकर रात के सोने तक हर कर्म के लिए श्रीमत' मिली हुई है। उठना कैसे है, बैठना कैसे है, सब बताया हुआ है ना! अगर वैसे नहीं उठते तो अमृतवेले से श्रेष्ठ कर्म की श्रेष्ठ प्रालब्ध बना नहीं सकते। अर्थात् व्यर्थ और विकर्म के त्यागी नहीं बन सकते। तो इस सम्बन्ध का भी त्याग। व्यर्थ का भी त्याग करना पड़े। कई समझते हैं कि कोई विकर्म तो किया नहीं। कोई भूल तो की नहीं। कोई ऐसा बोल तो बोला नहीं। लेकिन व्यर्थ बोल, समर्थ बनने नहीं देंगे। अर्थात् श्रेष्ठ भाग्यवान बनने नहीं देंगे। अगर विकर्म नहीं किया लेकिन व्यर्थ कर्म भी किया तो वर्तमान और भविष्य जमा तो नहीं हुआ। श्रेष्ठ कर्म करने से वर्तमान में भी श्रेष्ठ कर्म का प्रत्यक्षफल खुशी और शक्ति की अनुभूति होगी। स्वयं के प्रति भी प्रत्यक्षफल मिल जाता है और दूसरे भी ऐसी श्रेष्ठ कर्मा आत्माओं को देख पुरूषार्थ के उमंग उत्साह में आते हैं कि हम भी ऐसे बन सकते हैं। तो अपने प्रति प्रत्यक्षफल और दूसरों की सेवा। डबल जमा हो गया। और वर्तमान के हिसाब से भविष्य तो जमा हो ही जाता है। इस हिसाब से देखो कि अगर व्यर्थ अर्थात् साधारण कर्म भी किया तो कितना नुकसान हुआ? तो ऐसे कभी नहीं सोचो कि साधारण कर्म किया - यह तो होता ही है। श्रेष्ठ आत्मा का हर कदम श्रेष्ठ, हर कर्म श्रेष्ठ, हर बोल श्रेष्ठ होगा। तो समझा, त्याग की परिभाषा क्या हुई! व्यर्थ अर्थात् साधारण कर्म, बोल, समय, इसका भी त्याग कर सदा समर्थ, सदा अलौकिक अर्थात् पद्मापद्म भाग्यवान बनो। तो व्यर्थ और साधारण बातों को भी अण्डरलाइन करो। इसके अलबेलेपन का त्याग। क्योंकि आप सभी ब्राह्मण आत्माओं का विश्व के मंच पर हीरो और हीरोइन का पार्ट है। ऐसी हीरो पार्टधारी आत्माओं का एक-एक सेकण्ड, एक-एक संकल्प, एक-एक बोल, एक-एक कर्म, हीरे से भी ज्यादा मूल्यवान है। अगर एक संकल्प भी व्यर्थ हुआ तो जैसे हीरे को गँवाया। अगर कीमती से कीमती हीरा किसका गिर जाए, खो जाए तो वह सोचेगा ना - कुछ गँवाया है। ऐसे एक हीरे की बात नहीं। अनेक हीरों की कीमत का एक सेकण्ड है। इस हिसाब से सोचो। ऐसे नहीं कि साधारण रूप में बैठे-बैठे साधारण बातें करते-करते समय बिता दो। फिर क्या कहते - कोई बुरी बात तो नहीं की, ऐसे ही बातें कर रहे थे, ऐसे ही बैठे थे, बातें कर रहे थे। ऐसे ही चल रहे थे। यह ऐसे-ऐसे करते भी कितना समय चला जाता है। ऐसे ही नहीं लेकिन हीरे जैसे हैं। तो अपने मूल्य को जानो। आपके जड़ चित्रों का कितना मूल्य है। एक सेकण्ड के दर्शन का भी मूल्य है। आपके एक संकल्प का भी इतना मूल्य है जो आज तक उसको वरदान के रूप में माना जाता है। भक्त लोग यही कहते हैं कि एक सेकण्ड का सिर्फ दर्शन दे दो। तो दर्शन समय' की वैल्यु है, वरदान संकल्प' की वैल्यु, आपके बोल की वैल्यु - आज भी दो वचन सुनने के लिए तड़पते हैं। आपके दृष्टि की वैल्यु आज भी नज़र से निहाल कर लो, ऐसे पुकारते रहते हैं। आपके हर कर्म की वैल्यु है। बाप के साथ श्रेष्ठ कर्म का वर्णन करते गद्गद् होते हैं। तो इतना अमूल्य है आपका हर सेकण्ड, हर संकल्प। तो अपने मूल्य को जान व्यर्थ और विकर्म वा विकल्प का त्याग। तो आज त्याग का पाठ क्या पक्का किया? ‘‘ऐसे ही ऐसे'' शब्द के अलबेलेपन का त्याग। जैसे कहते हैं आजकल की चालू भाषा। तो ब्राह्मणों की भी आजकल चालू भाषा यह हो गई है। यह चालू भाषा छोड़ दो। हर सेकण्ड अलौकिक हो। हर संकल्प अलौकिक अर्थात् अमूल्य हो। वर्तमान और भविष्य डबल फल वाला हो। जैसे देखा है ना - कभी-कभी एक में दो इकट्ठे फल होते हैं। दो फल इकट्ठे निकल जाते हैं। तो आप श्रेष्ठ आत्माओं का सदा डबल फल है अर्थात् डबल प्राप्ति है। भविष्य के पहले वर्तमान प्राप्ति है। और वर्तमान के आधार पर भविष्य प्राप्ति है। तो समझा - डबल फल खाओ। सिंगल नहीं। अच्छा-

सदा विकर्माजीत, हर सेकण्ड को अमूल्य बन और बनाने की सेवा में लगाने वाले ऐसे डबल हीरो, डबल फल खाने वाले, व्यर्थ और साधारण के महात्यागी, सदा बाप समान श्रेष्ठ संकल्प और कर्म करने वाले महा-महा भाग्यवान आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।''

पार्टियों के साथ

प्रश्नः- एक बल और एक भरोसे पर चलने वाले किस बात पर निश्चय रखकर चलते रहते हैं?

उत्तर:- एक बल एक भरोसा अर्थात् सदा निश्चय हो कि जो साकार की मुरली है, वही मुरली है, जो मधुबन से श्रीमत मिलती है वही श्रीमत है, बाप सिवाय मधुबन के और कहीं मिल नहीं सकता। सदा एक बाप की पढ़ाई में निश्चय हो। मधुबन से जो पढ़ाई का पाठ पढ़ाया जाता, वही पढ़ाई है, दूसरी कोई पढ़ाई नहीं। अगर कहाँ भोग आदि के समय सन्देशी द्वारा बाबा का पार्ट चलता है तो यह बिल्कुल रांग है, यह भी माया है, इसको एक बल एक भरोसा नहीं कहेंगे'। मधुबन से जो मुरली आती है उस पर ध्यान दो, नहीं तो और रास्ते पर चले जायेंगे। मधुबन में ही बाबा की मुरली चलती है, मधुबन में ही बाबा आते हैं इसलिए हरेक बच्चा यह सावधानी रखे, नहीं तो माया धोखा दे देगी।

प्रश्नः- संगम पर ही तुम बच्चे बेगर टु प्रिन्स बन गये हो! कैसे?

उत्तर:- पुरानी दुनिया और पुराने संस्कारों से बेगर और ज्ञान के खजाने, शक्तियों के खजाने, सबके राज्य अधिकारी अर्थात् प्रिन्स। पहले अधीन आत्मा थे - कभी तन के, कभी मन के, कभी धन के। लेकिन अब अधीनता अर्थात् बेगरपन समाप्त हुआ, अब अधिकारी बन गए। अभी स्वराज्य - फिर विश्व का राज्य।