13-04-82       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


त्यागी - महात्यागी की व्याख्या

अव्यक्त बापदादा, महादानी वफादार बच्चों के प्रति बोले:-

‘‘बापदादा सर्व ब्राह्मण आत्माओं में सर्वस्व त्यागी' बच्चों को देख रहे हैं। तीन प्रकार के बच्चे हैं - एक हैं त्यागी, दूसरे हैं महात्यागी, तीसरे हैं सर्व त्यागी, तीनों हैं ही त्यागी लेकिन नम्बरवार हैं।

त्यागी- जिन्होंने ज्ञान और योग के द्वारा अपने पुराने सम्बन्ध, पुरानी दुनिया, पुराने सम्पर्क द्वारा प्राप्त हुई अल्पकाल की प्राप्तियों को त्याग कर ब्राह्मण जीवन अर्थात् योगी जीवन संकल्प द्वारा अपनाया है अर्थात् यह सब धारणा की कि पुरानी जीवन से यह योगी जीवन श्रेष्ठ है'। अल्पकाल की प्राप्ति से यह सदाकाल की प्राप्ति प्राप्त करना आवश्यक है। और उसे आवश्यक समझने के आधार पर ज्ञान योग के अभ्यासी बन गये। ब्रह्माकुमार वा ब्रह्माकुमारी कहलाने के अधिकारी बन गये। लेकिन ब्रह्माकुमार-कुमारी बनने के बाद भी पुराने सम्बन्ध, संकल्प और संस्कार सम्पूर्ण परिवर्तन नहीं हुए लेकिन परिवर्तन करने के युद्ध में सदा तप्पर रहते। अभी-अभी ब्राह्मण संस्कार, अभी-अभी पुराने संस्कारों को परिवर्तन करने के युद्ध स्वरूप में। इसको कहा जाता है - त्यागी बने लेकिन सम्पूर्ण परिवर्तन नहीं किया। सिर्फ सोचने और समझने वाले हैं कि त्याग करना ही महा भाग्यवान बनना है। करने की हिम्मत कम। अलबेलेपन के संस्कार बारबार इमर्ज होने से त्याग के साथ-साथ आराम पसन्द भी बन जाते हैं। समझ भी रहे हैं, चल भी रहे हैं, पुरूषार्थ कर भी रहे हैं, ब्राह्मण जीवन को छोड़ भी नहीं सकते, यह संकल्प भी दृढ़ है कि ब्राह्मण ही बनना है। चाहे माया वा मायावी सम्बन्धी पुरानी जीवन के लिए अपनी तरफ आकर्षित भी कर सकते हैं तो भी इस संकल्प में अटल हैं कि ब्राह्मण जीवन ही श्रेष्ठ है। इसमें निश्चय-बुद्धि पक्के हैं। लेकिन सम्पूर्ण त्यागी बनने के लिए दो प्रकार के विघ्न आगे बढ़ने नहीं देते। वह कौन से? एक - तो सदा हिम्मत नहीं रख सकते अर्थात् विघ्नों का सामना करने की शक्ति कम है। दूसरा - अलबेलेपन का स्वरूप आराम पसन्द बन चलना। पढ़ाई, याद, धारणा और सेवा सब सबजेक्ट में कर रहे हैं, चल रहे हैं, पढ़ रहे हैं लेकिन आराम से! सम्पूर्ण परिवर्तन करने के लिए शस्त्रधारी शक्ति-स्वरूप की कमी हो जाती है। स्नेही हैं लेकिन शक्ति स्वरूप नहीं। मास्टर सर्वशक्तिवान स्वरूप में स्थित नहीं हो सकते हैं। इसलिए महात्यागी नहीं बन सकते हैं। यह है त्यागी आत्मायें।

महात्यागी- सदा सम्बन्ध, संकल्प और संस्कार सभी के परिवर्तन करने के सदा हिम्मत और उल्लास में रहते। पुरानी दुनिया, पुराने सम्बन्ध से सदा न्यारे हैं। महात्यागी आत्मायें सदा यह अनुभव करती कि यह पुरानी दुनिया वा सम्बन्धी मरे ही पड़े हैं। इसके लिए युद्ध नहीं करनी पड़ती है। सदा स्नेही, सहयोगी, सेवाधारी शक्ति स्वरूप की स्थिति में स्थित रहते हैं, बाकी क्या रह जाता है! महात्यागी के फलस्वरूप जो त्याग का भाग्य है - महाज्ञानी, महायोगी, श्रेष्ठ सेवाधारी बन जाते हैं! इस भाग्य के अधिकार को कहाँ-कहाँ उल्टे नशे के रूप में यूज़ कर लेते हैं। पास्ट जीवन का सम्पूर्ण त्याग है लेकिन त्याग का भी त्याग नहीं है'। लोहे की जंजीरे तो तोड़ दीं, आइरन एजड से गोल्डन एजड तो बन गये, लेकिन कहाँ-कहाँ परिवर्तन सुनहरी जीवन के सोने की जंजीर में बंध जाता है। वह सोने की जंजीरें क्या है? ‘‘मैं'' और ‘‘मेरा''। मैं अच्छा ज्ञानी हूँ, मैं ज्ञानी तू आत्मा, योगी तू आत्मा हूँ। यह सुनहरी जंजीर कहाँ-कहाँ सदा बन्धनमुक्त बनने नहीं देती। तीन प्रकार की प्रवृत्ति है - (1) लौकिक सम्बन्ध वा कार्य की प्रवृत्ति (2) अपने शरीर की प्रवृत्ति और (3) सेवा की प्रवृत्ति।

तो त्यागी जो हैं वह लौकिक प्रवृत्ति से पार हो गये लेकिन देह की प्रवृत्ति अर्थात् अपने आपको ही चलाने और बनाने में व्यस्त रहना वा देह भान की नेचर के वशीभूत रहना और उसी नेचर के कारण ही बार-बार हिम्मतहीन बन जाते हैं। जो स्वयं भी वर्णन करते कि समझते भी हैं, चाहते भी हैं लेकिन मेरी नेचर है। यह भी देह भान की, देह की प्रवृत्ति है। जिसमें शक्ति स्वरूप हो इस प्रवृत्ति से भी निवृत्त हो जाएँ - वह नहीं कर पाते। यह त्यागी की बात सुनाई लेकिन महात्यागी लौकिक प्रवृत्ति, देह की प्रवृत्ति दोनों से निवृत्त हो जाते - लेकिन सेवा की प्रवृत्ति में कहाँ-कहाँ निवृत्त होने के बजाए फँस जाते हैं। ऐसी आत्माओं को अपनी देह का भान भी नहीं सताता क्योंकि दिन-रात सेवा में मगन हैं। देह की प्रवृत्ति से तो पार हो गये। इस दोनों ही त्याग का भाग्य - ज्ञानी और योगी बन गये, शक्तियों की प्राप्ति, गुणों की प्राप्ति हो गई। ब्राह्मण परिवार में प्रसिद्ध आत्मायें बन गये। सेवाधारियों में वी.आई.पी. बन गये। महिमा के पुष्पों की वर्षा शुरू हो गई। माननीय और गायन योग्य आत्मायें बन गये लेकिन यह जो सेवा की प्रवृत्ति का विस्तार हुआ, उस विस्तार में अटक जाते हैं। यह सर्व प्राप्ति भी महादानी बन औरों को दान करने के बजाए स्वयं स्वीकार कर लेते हैं। तो मैं और मेरा' शुद्ध भाव की सोने की जंजीर बन जाती है। भाव और शब्द बहुत शुद्ध होते हैं कि हम अपने प्रति नहीं कहते, सेवा के प्रति कहते हैं। मैं अपने को नहीं कहती कि मैं योग्य टीचर हूँ लेकिन लोग मेरी मांगनी करते हैं। जिज्ञासु कहते हैं कि आप ही सेवा करो। मैं तो न्यारी हूँ लेकिन दूसरे मुझे प्यारा बनाते हैं। इसको क्या कहा जायेगा? बाप को देखा वा आपको देखा? आपका ज्ञान अच्छा लगता है, आपके सेवा का तरीका अच्छा लगता है, तो बाप कहाँ गया? बाप को परमधाम निवासी बना दिया! इस भाग्य का भी त्याग। जो आप दिखाई न दें, बाप ही दिखाई दे। महान आत्मा प्रेमी नहीं बनाओ परमात्म प्रेमी बनाओ'। इसको कहा जाता है और प्रवृत्ति पार कर इस लास्ट प्रवृत्ति में सर्वांश त्यागी नहीं बनते। यह शुद्ध प्रवृत्ति का अंश रह गया। तो महात्यागी तो बने लेकिन सर्वस्व त्यागी नहीं बने। तो सुना दूसरे नम्बर का महात्यागी। बाकी रह गया सर्वस्व त्यागी।

यह है त्याग के कोर्स का लास्ट सो सम्पन्न पाठ। लास्ट पाठ रह गया। वह फिर सुनायेंगे। क्योंकि 83 में जो महायज्ञ कर रहे हो और महान स्थान पर कर रहे हो तो सभी कुछ तो आहुति डालेंगे ना वा सिर्फ हाल बनाने की तैयारी करेंगे। औरों की सेवा तो करेंगे। बाप की प्रत्यक्षता की आवाज बुलन्द करने के बड़े-बड़े माइक भी लायेंगे। यह तो प्लैन बनाया है ना। लेकिन क्या बाप अकेला प्रत्यक्ष होगा वा शिव शक्ति दोनों प्रत्यक्ष होंगे! शक्ति सेना में तो दोनों (मेल फीमेल) ही आ जाते। तो बाप बच्चों सहित प्रत्यक्ष होंगे। तो माइक द्वारा आवाज बुलन्द करने का तो सोचा है लेकिन जब विश्व में आवाज बुलन्द हो जायेगा और प्रत्यक्षता का पर्दा खुल जायेगा तो पर्दे के अन्दर प्रत्यक्ष होने वाली मूर्तियाँ भी सम्पन्न चाहिए ना। वा पर्दा खुलेगा तो कोई तैयार हो रहा है, कोई बैठ रहा है, ऐसा साक्षात्कार तो नहीं कराना है ना! कोई शक्ति स्वरूप ढाल पकड़ रही हैं, तो कोई तलवार पकड़ रही है। ऐसा फोटो तो नहीं निकालना है ना! तो क्या करना पड़े? सम्पूर्ण स्वाहा! इसका भी प्रोग्राम बनाना पड़े ना। तो महायज्ञ में यह सोने की जंजीरें भी स्वाहा कर देना। लेकिन उसके पहले अभी से अभ्यास चाहिए। ऐसे नहीं कि 83 में करना। जैसे आप लोग सेवाधारी तो पहले से बन जाते हो और समर्पण समारोह पीछे होता है। यह भी सर्व स्वाहा का समारोह 83 में करना। लेकिन अभ्यास बहुत काल का चाहिए। समझा। अच्छा –

ऐसे सदा बाप समान सर्वंश त्यागी, सदा ब्रह्मा बाप समान प्राप्त हुए भाग्य के भी महादानी, ऐसे सदा बाप के वफादार, फरमानदार फालो फादर करने वाली श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।''

पार्टियों से

प्रश्न:- कर्म करते भी कर्म बन्धन से मुक्त रहने की युक्ति क्या है?

उत्तरः- कोई भी कार्य करते बाप की याद में लवलीन रहो। लवलीन आत्मा कर्म करते भी न्यारी रहेगी। कर्मयोगी अर्थात् याद में रहते हुए कर्म करने वाला सदा कर्मबन्धन मुक्त रहता है। ऐसे अनुभव होगा जैसे काम नहीं कर रहे हैं लेकिन खेल कर रहे हैं। किसी भी प्रकार का बोझ वा थकावट महसूस नहीं होगी। तो कर्मयोगी अर्थात् कर्म को खेल की रीति से न्यारे होकर करने वाला। ऐसे न्यारे बच्चे कर्मेंन्द्रियों द्वारा कार्य करते बाप के प्यार में लवलीन रहने के कारण बन्धनमुक्त बन जाते हैं।