28-04-82       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


सर्वस्व त्यागी की निशानियाँ

सर्वस्व त्यागी बच्चों प्रति बापदादा बोले:-

बापदादा चारों ओर के सर्व महात्यागी, सर्वंश त्यागी बच्चों को देख रहे हैं। कौन से, कौन से बच्चे इस महान भाग्य को प्राप्त कर रहे हैं वा समीप पहुँच गये हैं - ऐसे समीप अर्थात् समान, श्रेष्ठ, सर्वंश त्यागी बच्चों को बापदादा भी देख हर्षित होते हैं। सर्वंश त्यागी बच्चों की विशेषता क्या है, जिन विशेषताओं के आधार पर समीप वा समान बनते हैं? साकार तन द्वारा भी लास्ट बोल में तीन विशेषतायें सुनाई थीं: -

1. संकल्प में सदा निराकारी सो साकारी, सदा न्यारी और बाप की प्यारी आत्मायें।

2. वाणी में सदा निरअहंकारी अर्थात् सदा रूहानी मधुरता और निर्मानता।

3. कर्म में हर कर्मेन्द्रिय द्वारा निर्विकारी अर्थात् प्युरिटी की पर्सनैलिटी वाली।

तो हर कर्मेंन्द्रिय द्वारा महादानी वा वरदानी। मस्तक द्वारा सर्व को स्वरूप की स्मृति दिलाने के वरदानी वा महादानी। नयनों से रूहानी दृष्टि द्वारा सर्व को स्व-देश अर्थात् मुक्तिधाम और स्वराज्य अर्थात् जीवनमुक्ति - अपने राज्य का दर्शन कराना वा रास्ता दिखाने का दृष्टि द्वारा ईशारा देना। ऐसा अनुभव कराने का वरदान देना कि जो आत्मायें महसूस करें कि यही हमारा असली घर और राज्य है। घर का रास्ता, राज्य पाने का रास्ता मिल गया। ऐसे महादान वा वरदान पाकर सदा हर्षित हो जाएँ। मुख द्वारा रचयिता और रचना के विस्तार को स्पष्ट जान, स्वयं को रचयिता की पहली रचना - श्रेष्ठ ब्राह्मण सो देवता बनने का वरदान पा लें। ऐसे हस्तों द्वारा सदा सहज योगी, कर्मयोगी बनने के वरदान देने वाले श्रेष्ठ कर्मधारी, श्रेष्ठ फल प्राप्त करने के वरदानी बनाने वाले। चरण कमल द्वारा हर कदम फालो फादर कर, हर कदम में पदमों की कमाई जमा करने के वरदानी। ऐसे हर कर्मेन्द्रिय द्वारा विशेष अनुभूति कराने के वरदानी अर्थात् -निर्विकारी जीवन'। यह तीन विशेषतायें सर्वस्व त्यागी की सदा स्पष्ट दिखाई देंगी।

सर्वंश त्यागी आत्मा किसी भी विकार के अंश के भी वशीभूत हो कोई कर्म नहीं करेगी। विकारों का रायल अंश स्वरूप पहले भी सुनाया है कि मोटे रूप में विकार समाप्त हो रायल रूप में अंश मात्र के रूप में रह जाते हैं। वह याद है ना! ब्राह्मणों की भाषा भी रायल बन गई है। अभी वह विस्तार तो बहुत लम्बा है। मैं ही यथार्थ हूँ वा राइट हूँ - ऐसा अपने को सिद्ध करने के रायल भाषा के शब्द भी बहुत हैं। अपनी कमज़ोरी छिपाकर दूसरे की कमज़ोरी सिद्ध करने वा स्पष्ट करने का विस्तार करना, उसके भी बहुत रायल शब्द हैं। यह भी बड़ी डिक्शनरी हैं। जो वास्तविकता नहीं है लेकिन स्वयं को सिद्ध करने वा स्वयं की कमज़ोरियों के बचाव के लिए मनमत के बोल हैं। वह विस्तार अच्छी तरह से सब जानते हो। सर्वन्श त्यागी की ऐसी भाषा नहीं होती - जिसमें किसी भी विकार का अंश मात्र भी समाया हुआ हो। तो मंसा-वाचा-कर्मणा, सम्बन्ध-सम्पर्क में सदा विकारों के अंश मात्र से भी परे, इसको कहा जाता है सर्वंश त्यागी'। सर्व अंश का त्याग।

सर्वंश त्यागी, सदा विश्व-कल्याणकारी की विशेषता वाले होंगे। सदा दाता का बच्चा दाता बन सर्व को देने की भासना से भरपूर होंगे। ऐसे नहीं कि यह करे वा ऐसी परिस्थिति हो, वायुमण्डल हो तब मैं यह करूँ। दूसरे का सहयोग लेकर के अपने कल्याण के श्रेष्ठ कर्म करने वाले अर्थात् लेकर फिर देले वाले, सहयोग लिया फिर दिया, तो लेना और देना दोनों साथ-साथ हुआ। लेकिन सर्वंश त्यागी स्वयं मास्टर दाता बन परिस्थितियों को भी परिवर्तन करने का, कमजोर को शक्तिशाली बनाने का, वायुमण्डल वा वृत्ति को अपनी शक्तियों द्वारा परिवर्तन करने का, सदा स्वयं को कल्याण अर्थ जिम्मेवार आत्मा समझ हर बात में सहयोग वा शक्ति के महादान वा वरदान देने का संकल्प करेंगे। यह हो तो यह करें, नहीं। मास्टर दाता बन परिवर्तन करने की, शुभ भावना से शक्तियों को कार्य में लगाने अर्थात् देने का कार्य करता रहेगा। मुझे देना है, मुझे करना है, मुझे बदलना है, मुझे निर्मान बनना है। ऐसे ‘‘ओटे सो अर्जुन'' अर्थात् दातापन की विशेषता होगी।

सर्वंश त्यागी अर्थात् सदा गुण मूर्त। गुण मूर्त का अर्थ है गुणवान बनना और सर्व में गुण देखना। अगर स्वयं गुण मूर्त है तो उसकी दृष्टि और वृत्ति ऐसी गुण सम्पन्न हो जायेगी जो उसकी दृष्टि वृत्ति द्वारा सर्व में जो गुण होगा वही  दिखाई देगा। अवगुण देखते, समझते भी किसी का भी अवगुण बुद्धि द्वारा ग्रहण नहीं करेगा। अर्थात् बुद्धि में धारण नहीं करेगा। ऐसा होलीहंस' होगा। कंकड़ को जानते भी ग्रहण नहीं करेगा। और ही उस आत्मा के अवगुण को मिटाने के लिए स्वयं में प्राप्त हुए गुण की शक्ति द्वारा उस आत्मा को भी गुणगान बनाने में सहयोगी होगा। क्योंकि मास्टर दाता के संस्कार हैं।

सर्वंश त्यागी सदा अपने को हर श्रेष्ठ कार्य के - सेवा की सफलता के कार्य में, ब्राह्मण आत्माओं की उन्नति के कार्य में, कमज़ोरी वा व्यर्थ वातावरण को बदलने के कार्य में जिम्मेवार आत्मा समझेंगे। सेवा में विघ्न बनने के कारण वा सम्बन्घ सम्पर्क में कोई भी नम्बरवार आत्माओं के कारण जरा भी हलचल होती है, तो सर्वंन्श त्यागी बेहद के आधारमूर्त समझ, चारों ओर की हलचल को अचल बनाने की जिम्मेवारी समझेंगे। ऐसे बेहद की उन्नति के आधार मूर्त सदा स्वयं को अनुभव करेंगे। ऐसा नहीं कि यह तो इस स्थान की बात है या इस बहन वा भाई की बात है। नहीं। मेरा परिवार है'। मैं कल्याणकारी निमित्त आत्मा हूँ। टाइटल विश्व-कल्याणकारी का मिला हुआ हैं न कि सिर्फ स्व-कल्याणकारी वा अपने सेन्टर के कल्याणकारी। दूसरे की कमज़ोरी अर्थात् अपने परिवार की कमज़ोरी है, ऐसे बेहद के निमित्त आत्मा समझेंगे। मैं-पन नहीं, निमित्त मात्र हैं अर्थात् विश्व-कल्याण के आधारमूर्त बेहद के कार्य के आधारमूर्त हैं।

सर्वंश त्यागी सदा एकरस, एक मत, एक ही परिवार का एक ही कार्य है - सदा ऐसे एक ही स्मृति में नम्बर एक आत्मा होंगे।

सर्वंश त्यागी सदा स्वयं को प्रत्यक्षफल प्राप्त भई फलस्वरूप आत्मा अनुभव करेंगे। अर्थात् सर्वंश त्यागी आत्मा सदा सर्व प्रत्यक्ष फलों से सम्पन्न अविनाशी वृक्ष के समान होगी। सदा फलस्वरूप होंगी। इसलिए हद के कर्म का, हद के फल पाने की अल्पकाल की इच्छा से - इच्छा मात्रम् अविद्या' होंगे। सदा प्रत्यक्ष फल खाने वाले, सदा मनदुरूस्त वाले होंगे। सदा स्वस्थ होंगे। कोई भी मन की बीमारी नहीं होगी। सदा मन्मनाभव' होंगे। तो ऐसे सर्वंश त्यागी बने हो? तीनों ही विशेषता सामने रख स्वयं से पूछो कि मैं वौन-सा त्यागी' हूँ? कहाँ तक पहुँचे हैं? कितनी पौड़ियाँ चढ़ करके बाप समान की मंजिल पर पहुँचे हैं? फुल स्टैप तक पहुँचे हो या अभी कुछ स्टैप तक पहुँचे हो? या अभी कुछ स्टैप रह गये हैं? त्याग की भी स्टैप सुनाई ना। तो किस स्टैप तक पहुँचे हो? सात कोर्स में से कितने कोर्स किये हैं? सप्ताह पाठ का लास्ट में भोग पड़ता है - तो बापदादा भी अभी भोग डाले? आप लोग तो हर गुरूवार को भोग लगाते हो लेकिन बापदादा तो महाभोग करेंगे ना। जैसे सन्देशियाँ ऊपर वतन में भोग ले जाती हैं - तो बापदादा भी कहाँ ले जायेंगे! पहले स्वयं को भोग में समर्पण करो। भोग भी बाप के आगे समर्पण करते हो ना। अभी स्वयं को सदा प्रत्यक्ष फलस्वरूप बनाकर समर्पण करो। तब महाभोग होगा। अपने आपको सम्पन्न बनाकर आफर करो। सिर्फ स्थूल भोग की आफर नहीं करो। सम्पन्न आत्मा बन स्वयं को आफर करो। समझा - बाकी क्या करना है वह समझ में आया?

अच्छा - बाकी एक बारी मिलने का रहा हुआ है। वैसे तो साकार द्वारा मिलन मेले का, इस रूपरेखा से मिलने का आज अन्तिम समय है। प्रोग्राम प्रमाण तो आज साकार मेले का समाप्ति समारोह है फिर तो आगे की बात आगे देखेंगे। एकस्ट्रा एक बाप का चुगा भी मिल जायेगा। लेकिन इस सारे मिलन मेले का स्व प्रति सार क्या लिया? सिर्फ सुना वा समाकर स्वरूप में लाया? इस मिलन मेले की सीजन विशेष किस सीजन को लायेगी? इस सीजन का फल क्या निकलेगा? सीजन के फल का महत्व होता है ना! तो इस सीजन का फल क्या निकला! बापदादा मिला यह तो हुआ लेकिन मिलना अर्थात् समान बनना। तो सदा बाप समान बनने के दृढ़ संकल्प का फल बापदादा को दिखायेंगे ना! ऐसा फल तैयार किया है? अपने को तैयार किया है? वा अभी सिर्फ सुना है, बाकी तैयार होना है? सिर्फ मिलन मनाना है वा बनना है? जैसे मिलन मनाने के लिए बहुत उमंग- उत्साह से भाग-भाग कर पहुँचते हो वैसे बनने के लिए भी उड़ान उड़ रहे हो? आने जाने के साधनों में तकलीफ भी लेते हो। लेकिन उड़ती कला में जाने के लिए कोई मेहनत नहीं है। जो हद की डालियाँ बनाकर डालियों को पकड़ बैठ गये हो, अभी हे उड़ते पंछी, डालियों को छोड़ो। सोने की डाली को भी छोड़ो। सीता को सोने के हिरण ने शोक वाटिका में भेजा। यह मेरा मेरा है, मेरा नाम, मेरा मान, मेरा शान, मेरा सेन्टर यह सब - सोने की डालियाँ हैं। बेहद का अधिकार छोड़, हद के अधिकार लेने में आ जाते हो। मेरा अधिकार यह है, यह मेरा काम है - इस सबसे उड़ते पंछी बनो। इन हद के आधारों को छोड़ो। तोते तो नहीं हो ना जो चिल्लाते रहो कि छुड़ाओ। छोड़ते खुद नहीं और चिल्लाते हैं कि छुड़ाओ। तो ऐसे तोते नहीं बनना। छोड़ो और उड़ो। छोड़ेंगे तो छूटेगें ना! बापदादा ने पंख दे दिये हैं - पंखो का काम है उड़ना वा बैठना? तो उड़ते पंछी बनो अर्थात् उड़ती कला में सदा उड़ते रहो। समझा - इसको कहा जाता है सीजन का फल देना। अच्छा-

ऐसे सदा प्रत्यक्ष फल सम्पन्न, सम्पूर्ण श्रेष्ठ आत्मायें, सदा बाप समान निराकारी, निरअहंकारी, निर्विकारी, सदा हर कर्म में विकारों के कोई भी अंश को स्पर्श न करने वाले, ऐसे सर्व अंश त्यागी, सदा उड़ती कला में उड़ने वाले उड़ते पंछी, ऐसे बाप समान श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।''

पार्टियों के साथ

मास्टर सर्वशक्तिवान की स्थिति से व्यर्थ के किचड़े को समाप्त करो:- सदा अपने को मास्टर सर्वशक्तिवान आत्मा समझते हो? सर्वशक्तिवान अर्थात् समर्थ। जो समर्थ होगा वह व्यर्थ के किचड़े को समाप्त कर देगा। मास्टर सर्वशक्तिवान अर्थात् व्यर्थ का नाम निशान नहीं। सदा यह लक्ष्य रखो कि - मैं व्यर्थ को समाप्त करने वाला समर्थ हूँ'। जैसे सूर्य का काम है किचड़े को भस्म करना। अंधकार को मिटाना, रोशनी देना। तो इसी रीति मास्टर ज्ञान सूर्य अर्थात् - व्यर्थ किचड़े को समाप्त करने वाले अर्थात् अंधकार को मिटाने वाले। मास्टर सर्वशक्तिवान व्यर्थ के प्रभाव में कभी नहीं आयेगा। अगर प्रभाव में आ जाते तो कमजोर हुए। बाप सर्वशक्तिवान और बच्चे कमजोर! यह सुनना भी अच्छा नहीं लगता। कुछ भी हो - लेकिन सदा स्मृति रहे - ‘‘मैं मास्टर सर्वशक्तिवान हूँ''। ऐसा नहीं समझो कि मैं अकेला क्या कर सकता हूँ.. एक भी अनेकों को बदल सकता है। तो स्वयं भी शक्तिशाली बनो और औरों को भी बनाओ। जब एक छोटा-सा दीपक अंधकार को मिटा सकता है तो आप क्या नहीं कर सकते! तो सदा वातावरण को बदलने का लक्ष्य रखो। विश्व परिवर्तक बनने के पहले सेवाकेन्द्र के वातावरण को परिवर्तन कर पावरफुल वायुमण्डल बनाओ।

युगलों से बापदादा की मुलाकात:- सभी प्रवृत्ति में रहते, प्रवृत्ति के बन्धन से न्यारे और सदा बाप के प्यारे हो? किसी भी प्रवृत्ति के बन्धन में बंधे हुए तो नहीं हो? लोकलाज के बन्धन में, सम्बन्ध में बंधे हुए को बन्धनयुक्त आत्मा कहेंगे। तो कोई भी बन्धन न हो। मन का भी बन्धन नहीं। मन में भी यह संकल्प न आये कि हमारा कोई लौकिक सम्बन्ध है। लौकिक सम्बन्ध में रहते अलौकिक सम्बन्ध की स्मृति रहे। निमित्त लौकिक सम्बन्ध लेकिन स्मृति में अलौकिक और पारलौकिक सम्बन्ध रहे। सदा कमल आसन पर विराजमान रहो। कभी भी पानी वा कीचड़ की बूँद स्पर्श न करे। कितनी भी आत्माओं के सम्पर्क में आते - सदा न्यारे और प्यारे रहो। सेवा के अर्थ सम्पर्क है। देह का सम्बन्ध नहीं है, सेवा का सम्बन्ध है। प्रवृत्ति में सम्बन्ध के कारण नहीं रहे हो, सेवा के कारण रहे हो। घर नहीं, सेवास्थान है। सेवास्थान समझने से सदा सेवा की स्मृति रहेगी। अच्छा।

सार - सर्वस्व त्यागी आत्मा के लक्षण

1. सर्वस्व त्यागी आत्मा किसी भी विकार के अंश के भी वशीभूत हो कोई कर्म नहीं करेगा।

2. सर्वस्व त्यागी आत्मा सदा दाता का बच्चा बन सर्व को देने की भावना से सम्पन्न होगा।

3. सर्वस्व त्यागी आत्मा सदा गुण-मूर्त होगा। स्वयं भी गुणवान और सर्व में गुण देखेगा।

4. सर्वस्व त्यागी आत्मा चारों ओर की हलचल समाप्त करने की जिम्मेदारी समझेगा।

5. सदा एक रस, एक मत, एक ही परिवार का कार्य है - ऐसा समझेगा।

6. सदा फल, स्वरूप होगा।