21-04-83       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


संगमयुगी मर्यादाओं पर चलना ही पुरूषोत्तम बनना है

सदा आत्मिक स्थिति में स्थित करने वाले, समर्थ स्थिति के हंस आसन पर स्थित करने वाले, त्रिकालदर्शी अव्यक्त बाप दादा बोले:-

आज बापदादा सर्व मर्यादा पुरूषोत्तम बच्चों को देख रहे हैं। संगमयुग की मर्यादायें ही पुरूषोत्तम बनाती हैं। इसलिए मर्यादा पुरूषोत्तम कहा जाता है। इन तमोगुणी मनुष्य आत्माओं और तमोगुणी प्रकृति के वायुमण्डल, वायब्रेशन से बचने का सहज साधन यह मर्यादायेंहैं। मर्यादाओं के अन्दर रहने वाले सदा मेहनत से बचे हुए हैं। मेहनत तब करनी पड़ती है जब मर्यादाओं की लकीर से संकल्प, बोल वा कर्म से बाहर निकल आते हैं। मर्यादायें हर कदम के लिए बापदादा द्वारा मिली हुई हैं - उसी प्रमाण पर कदम उठाने से स्वत: ही मर्यादा पुरूषोत्तम बन जाते हैं। अमृतवेले से लेकर रात तक मर्यादापूर्वक जीवन को अच्छी तरह से जानते हो! उसी प्रमाण चलना यही पुरूषोत्तम बनना है। जब नाम ही है पुरूषोत्तम है अर्थात् सर्व साधारण पुरूषों से उत्तम। तो चेक करो कि हम श्रेष्ठ आत्माओं की पहली मुख्य बात स्मृतिउत्तम है? स्मृति उत्तम है तो वृत्ति और दृष्टि, स्थिति स्वत: ही श्रेष्ठ है। स्मृति के मर्यादा की लकीर जानते हो? मैं भी श्रेष्ठ आत्मा और सर्व भी एक श्रेष्ठ बाप की आत्मायें हैं! वैरायटी आत्मायें वैरायटी पार्ट बजाने वाली हैं। यह पहला पाठ नैचुरल रूप में स्मृति स्वरूप में रहे। देह को देखते भी आत्मा को देखें। यह समर्थ स्मृति हर सेकण्ड स्वरूप में आये, स्मृति स्वरूप हो जाएँ। सिर्फ सिमरण में न हो कि मैं भी आत्मा यह भी आत्मा। लेकिन मैं भी हूँ ही आत्मा, यह भी है ही आत्मा। इस पहली स्मृति की मर्यादा स्वयं को सदा निर्विघ्न बनाती और औरों को भी इस श्रेष्ठ स्मृति के समर्थ पन के वायब्रेशन फैलाने के निमित्त बन जाते हैं, जिससे और भी निर्विघ्न बन जाते हैं।

पाण्डव सेना मिलन मनाने तो आई लेकिन मिलन के साथ-साथ पहली मर्यादा के लकीर का फाउण्डेशन स्मृति भवका वरदान भी सदा साथ ले जाना।स्मृति भवही - समर्थ भवहै। जो भी कुछ सुना उसका इसेन्स क्या ले जायेंगे? इसेन्स है स्मृति भव। इसी वरदान को सदा अमृतवेले रिवाइज़ करना। हर कार्य करने के पहले इस वरदान के समर्थ स्थिति के आसन पर बैठ निर्णय कर, व्यर्थ है वा समर्थ है, फिर कर्म में आना। कर्म करने के बाद फिर से चेक करो कि कर्म का आदिकाल और अन्तकाल तक समर्थ रहा? नहीं तो कई बच्चे कर्म के आदिकाल समय समर्थ स्वरूप से शुरू करते लेकिन मध्य में समर्थ के बीच व्यर्थ वा साधारण कर्म कैसे हो गया, समर्थ के बजाए व्यर्थ की लाइन में कैसे और किस समय गये, यह मालूम नहीं पड़ता। फिर अन्त में सोचते हैं कि जैसे करना था वैसे नहीं किया। लेकिन रिजल्ट क्या हुई! करके फिर सोचना यह त्रिकालदर्शी आत्माओं के लक्षण नहीं हैं। इसलिए तीनों कालों में - स्मृति भव वा समर्थ भव। समझा क्या ले जाना है। समर्थ स्थिति के आसन को कभी छोड़ना नहीं। यह आसन ही हंस आसन है। हंस की विशेषता, निर्णय शक्ति की विशेषता है। निर्णय शक्ति द्वारा सदा ही मर्यादा पुरूषोत्तम स्थिति में आगे बढ़ते जायेंगे। यह वरदान ‘‘आसन’’ और यह ईश्वरीय टाइटिल ‘‘मर्यादा पुरूषोत्तम’’ का सदा साथ रहे। अच्छा - आज तो सिर्फ बधाई देने का दिन है। सेवा पर जा रहे हैं तो बधाई का दिन है ना! लौकिक घर नहीं लेकिन सेवा स्थान पर जा रहे हैं। बगुलों के बीच भी जा रहे हो लेकिन सेवा अर्थ जा रहे हो। कर्म सम्बन्ध नहीं समझ के जाना लेकिन सेवा का सम्बन्ध है। कर्म सम्बन्ध चुक्तु करने नहीं बैठे हो लेकिन सेवा का सम्बन्ध निभाने के लिए बैठे हो। कर्मबन्धन नहीं, सेवा का बन्धन है। अच्छा –

सदा व्यर्थ को समाप्त कर समर्थ स्थिति के हंस आसन पर स्थित रहने वाले, हर कर्म को त्रिकालदर्शी शक्ति से, तीनों काल समर्थ बनाने वाले, सदा स्वत: आत्मिक स्थिति में स्थित रहने वाले, ऐसे मर्यादा पुरूषोत्तम श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।’’

पार्टियों के साथ अव्यक्त बापदादा की मुलाकात

(1) सदा अपने को श्रेष्ठ भाग्यवान अनुभव करते हो? जिसका बाप ही भाग्यविधाता हो वह कितना न भाग्यवान होगा! भाग्यविधाता बाप है तो वह वर्से में क्या देगा? जरूर श्रेष्ठ भाग्य ही देगा ना! सदा भाग्यविधाता बाप और भाग्य दोनों ही याद रहें। जब अपना श्रेष्ठ भाग्य स्मृति में रहेगा तब औरों को भी भाग्यवान बनाने का उमंग उत्साह रहेगा। क्योंकि दाता के बच्चे हो। भाग्य विधाता बाप ने बह्मा द्वारा भाग्य बाँटा, तो आप ब्राह्मण भी क्या करेंगे? जो ब्रह्मा का काम, वह ब्राह्मणों का काम। तो ऐसे भाग्य बाँटने वाले। वे लोग कपड़ा बाँटेंगे, अनाज बाँटेंगे, पानी बाँटेंगे लेकिन श्रेष्ठ भाग्य तो भाग्य विधाता के बच्चे ही बाँट सकते। तो भाग्य बाँटने वाली श्रेष्ठ भाग्यवान आत्मायें हो। जिसे भाग्य प्राप्त है उसे सब कुछ प्राप्त है। वैसे अगर आज किसी को कपड़ा देंगे तो कल अनाज की कमी पड़ जायेगी, कल अनाज देंगे तो पानी की कमी पड़ जायेगी। एक-एक चीज़ कहाँ तक बाँटेंगे। उससे तृप्त नहीं हो सकते। लेकिन अगर भाग्य बाँटा तो जहाँ भाग्य है वहाँ सब कुछ है। वैसे भी कोई को कुछ प्राप्त हो जाता है तो कहते हैं - वाह मेरा भाग्य! जहाँ भाग्य है वहाँ सब प्राप्त है। तो आप सब श्रेष्ठ भाग्य का दान करने वाले हो। ऐसे श्रेष्ठ महादानी, श्रेष्ठ भाग्यवान। यही स्मृति सदा उड़ती कला में ले जायेगी। जहाँ श्रेष्ठ भाग्य की स्मृति होगी वहाँ सर्व प्राप्ति की स्मृति होगी। इस भाग्य बाँटने में फराखदिल बनो। यह अखुट है। जब थोड़ी चीज़ होती है तो उसमें कन्जूसी की भावना आ सकती लेकिन यह अखुट है इसलिए बाँटते जाओ। सदा देते रहो, एक दिन भी दान देने के सिवाए न हो। सदा के दानी सारा समय अपना खज़ाना खुला रखते हैं। एक घण्टा भी दान बन्द नहीं करते। ब्राह्मणों का काम ही है सदा विद्या लेना और विद्या का दान करना। तो इसी कार्य में सदा तत्पर रहो।

(2) सदा अपने को संगमयुगी हीरे तुल्य आत्मायें अनुभव करते हो? आप सभी सच्चे हीरे हो ना! हीरे की बहुत वैल्यु होती है। आपके ब्राह्मण जीवन की कितनी वैल्यु है। इसीलिये ब्राह्मणों को सदा चोटी पर दिखाते हैं। चोटी अर्थात् ऊँचा स्थान। वैसे ऊँचे हैं देवता लेकिन देवताओं से भी ऊँचे तुम ब्राह्मण हो - ऐसा नशा रहता है? मैं बाप का, बाप मेरा यही ज्ञान है ना! यही एक बात याद रखनी है। सदा मन में यही गीत चलता रहे - जो पाना था वह पा लिया। मुख का गीत तो एक घण्टा भी गायेंगे तो थक जायेंगे; लेकिन यह गीत गाने में थकावट नहीं होती। बाप का बनने से सब कुछ बन जाते हो, डांस करने वाले भी, गीत गाने वाले भी, चित्रकार भी, प्रैक्टिकल अपना फरिश्ते का चित्र बना रहे हो! बुद्धियोग द्वारा कितना अच्छा चित्र बना लेते हो। तो जो कहो वह सब कुछ हो। बड़े ते बड़े बिजनेसमैन भी हो, मिलों के मालिक भी हो, तो सदा अपने इस आक्यूपेशन को स्मृति में रखो। कभी खान के मालिक बन जाओ तो कभी आार्टिस्ट बन जाओ, कभी डांस करने वाले बन जाओ...बहुत रमणीक ज्ञान है, सूखा नहीं है। कई कहते हैं क्या रोज वही आत्मा, परमात्मा का ज्ञान सुनते रहें, लेकिन यह आत्मा परमात्मा का सूखा ज्ञान नहीं है। बहुत रमणीक ज्ञान है, सिर्फ रोज अपना नया-नया टाइटिल याद रखो - मैं आत्मा तो हूँ लेकिन कौन सी आत्मा हूँ? कभी आार्टिस्ट की आत्मा हूँ, कभी बिजनेसमैन की आत्मा हूँ... तो ऐसे रमणीकता से आगे बढ़ते रहो। बाप भी रमणीक है ना! देखो कभी धोबी बन जाता तो कभी विश्व का रचयिता, कभी ओबीडियन्ट सर्वेन्ट... तो जैसा बाप वैसे बच्चे... ऐसे ही इस रमणीक ज्ञान का सिमरण कर हर्षित रहो।

वर्तमान समय के प्रमाण स्वयं और सेवा, दोनों की रफ्तार का बैलेन्स चाहिए। हरेक को सोचना चाहिए जितनी सेवा ली है उतना रिटर्न दे रहे हैं। अभी समय है सेवा करने का। जितना आगे बढ़ेंगे, सेवा के योग्य समय होता जायेगा लेकिन उस समय परिस्थितियाँ भी अनेक होंगी। उन परिस्थितियों में सेवा करने के लिए अभी से ही सेवा का अभ्यास चाहिए। उस समय आना जाना भी मुश्किल होगा। मंसा द्वारा ही आगे बढ़ाने की सेवा करनी पड़ेगी। वह देने का समय होगा, स्वयं में भरने का नहीं। इसलिए पहले से ही अपना स्टाक चेक करो कि सर्वशक्तियों का स्टाक भर लिया है। सर्वशक्तियाँ, सर्वगुण, सर्वज्ञान के खज़ाने, याद की शक्ति से सदा भरपूर। किसी भी चीज़ की कमी नहीं चाहिए। अच्छा –

ओम शान्ति।

28 तारीख अमृतवेले बापदादा ने सत्गुरूवार की मुबारक दी

वृक्षपति दिवस की मुबारक। वृक्षपति दिवस पर सदाकाल के लिए बृहस्पति की दशा कायम रहे यही सदा स्मृति स्वरूप रहना। अब तो सभी ने वायदा पक्का किया है ना! कुमार ग्रुप तैयार हो गया तो आवाज़ बुलन्द फैल जायेगा। गवर्मेन्ट तक पहुँच जायेगा। लेकिन अविनाशी रहेंगे तो! गड़बड़ नहीं करना। उमंग उत्साह, हिम्मत अच्छी है, जहाँ हिम्मत है वहाँ मदद तो है ही। शक्तियाँ क्या सोच रही हैं? शक्तियों के बिना तो शिव भी नहीं है। शिव नहीं तो शक्तियाँ नहीं, शक्तियाँ नहीं तो शिव भी नहीं। बाप भी भुजाओं के बिना क्या कर सकता। तो पहली भुजायें कौन? वाह रे मैं!’’

अच्छा - ओम शान्ति।