01-06-83 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
मीटिंग में पधारे हुए भाई बहनों के सम्मुख प्राण अव्यक्त बापदादा के उच्चारे हुए मधुर महावाक्य
जिम्मेवारी का ताज व तख्तधारी, महारथी बच्चों प्रति बापदादा बोले:-
सभी ताज और तख्तधारी विशेष आत्माओं की सभा है ना। सभी अपने को ताज व तख्तधारी समझते हो ना! सभी बेहद के सेवाधारी के जिम्मेवारी के ताजधारी हो ना। बेहद का ताज अर्थात् बेहद की स्मृति स्वरूप में स्थित हो। बेहद की जिम्मेवारी के ताजधारी। हर एक बेहद के ताजधारी बच्चे की लाइट और माइट की किरणें बेहद में फैली हुई हैं। हद से निकल बेहद के बादशाह बन गये ना! जब देह के हद की स्मृति से भी पार हो गये तो देह सहित देह के साथ सर्व हदों से पार हो गये। विशेष सेवा ही है हद से बेहद में ले जाना। ब्रह्मा बाप अव्यक्त क्यों बने? हद से निकाल बेहद में ले जाने के लिए। ब्रह्मा बाप के स्नेह का प्रत्यक्ष स्वरूप है - फालो ब्रह्मा फादर। ब्रह्मा बाप अपने राइट हैण्ड बच्चों को, अपनी विशेष भुजाओं के लिए अव्यक्त वतन से बेहद के सेवा स्थान से बाहें पसार कर हाथ में हाथ मिलाने के लिए बुला रहे हैं। ब्रह्मा बाप का बच्चों से स्नेह है। तो बह्मा बाप बुला रहे हैं कि बच्चे, बेहद में आ जाओ। यह आवाज़ सुनते हो? बस एक ही लहर ब्रह्मा बाप की सदा रहती है कि मेरे समान बेहद के ताजधारी बन चारों ओर प्रत्यक्षता की लाइट और माइट ऐसी फैलावें जो सर्व आत्माओं को निराशा से आशा की किरण दिखाई दे। सबकी अंगुली उस विशेष स्थान की ओर हो। जो आकाश से परे अंगुली कर ढ़ूंढ़ रहे हैं उन्हों को यह अनुभव हो कि इस धरती पर, वरदान भूमि पर धरती के सितारे प्रत्यक्ष हो गये हैं। यह सूर्य, चन्द्रमा और तारामण्डल यहाँ अनुभव हो। जैसे साइन्स वाले साइन्स के आधार से आकाश के तारामण्डल का अनुभव कराते हैं। ऐसे यह धरती का चैतन्य तारामण्डल दूर वालों को भी अनुभव हो। इस शुभ आशा को पूर्ण करने वाले आप सभी निमित्त आत्मायें हो। ऐसे बेहद के प्लैन्स बनाये हैं ना। प्लैन्स तो यथा शक्ति बनाये। बापदादा अब समय प्रमाण बच्चों से कौन सी रही हुई सेवा चाहते हैं? –
बापदादा आज रूह-रूहान कर रह थे। क्या रूह-रूहान हुई। बाप बोले कि मेरे निमित्त बने हुए श्रेष्ठ बच्चे, सिकीलधे बच्चे कहो, मुरब्बी बच्चे कहो वा सदा बाप के साथी बच्चे कहो - ऐसे बच्चे वरदान भूमि पर इकट्ठे हुए हैं, सेवा के प्लैन्स बनाने के लिए, तो ब्रह्मा बाप बोले कि जो मीटिंग में योजनायें निकालीं वह तो बहुत अच्छी। लेकिन मुख्य एक सेवा अभी भी रही हुई है। क्योंकि आप कितनी बड़ी अथार्टी वाले हो और कितने प्रकार की अथार्टी वाले हो, ज्ञान की अथार्टी, योगबल की अथार्टी, श्रेष्ठ धारणा स्वरूप की अथार्टी, डायरेक्ट बाप के वारिसपन की अथार्टी, विश्व परिवर्तन करने के निमित्त बनने की अथार्टी। कितनी अथार्टी है! जैसे एक शास्त्रं की अथार्टी वाले, थोड़ा बहुत त्याग कर पवित्र बनने की अथार्टी वाले, सिर्फ यह एक अथार्टी है, वह भी सत्यता की अथार्टी नहीं, भल महान आत्मायें हैं लेकिन परमात्मा बाप के सम्बन्ध में यथार्थ नालेज की अथार्टी नहीं - ऐसे एक अथार्टी वाले भी विश्व में सर्व आत्माओं को अपने तरफ आकर्षित कर झूठ को सत्य सिद्ध कर चलते आ रहे हैं। कितने समय से अपनी अथार्टी दिखाते आ रहे हैं। कितनी फलक से, अल्पकाल के प्राप्ति की झलक से अपना प्रभाव डालते हैं। तो जो सर्व अथार्टी वाली श्रेष्ठ आत्मायें हैं उन्हों को क्या करना है? बाकी क्या रहा हुआ है, जानते हो? समाप्ति के लिए कहाँ तक समय का अन्दाज लगा रहे हो? 84 तक वा 2000 तक? कहाँ तक अन्दाज लगा रहे हो? दो हजार पूरे होने हैं वा उसके पहले होना है? अपनी तैयारी के हिसाब से क्या समझते हो? कौन सी बात अभी रही हुई है? नई दुनिया के लिए धरनी तो बना रहे हो। लेकिन नई दुनिया का आधार - यह नई नालेज है। पहली अथार्टी तो नालेज की है ना! बाप की महिमा में भी पहली महिमा क्या आती है? ‘ज्ञान का सागर’ कहते हो ना। तो जो पहली महिमा है ज्ञान, उस नये ज्ञान को दुनिया के आगे प्रत्यक्ष किया है? जब तक ‘‘यह नया ज्ञान है’’ - यह प्रत्यक्ष नहीं हुआ है तो ज्ञानदाता कैसे प्रत्यक्ष हो। पहले ज्ञान आता है फिर दाता आता है। तो ज्ञानदाता ऊँचे ते ऊँचा है। या एक ही वह ज्ञानदाता है, यह सिद्ध कैसे होगा? इस नये ज्ञान से ही सिद्ध होगा। आत्मा क्या कहती और परमात्मा क्या कहता है, यह अन्तर जब तक मनुष्यों की बुद्धि में न आये तब तक जो भी तिनके के सहारे पकड़े हुऐ हैं वह कैसे छोड़ेंगे? और एक का सहारा कैसे लेंगे। अभी तो छोटे-छोटे तिनकों के सहारे पर चल रहे हैं, वो ही अपना आधार समझ रहे हैं। जब तक उन्हों को ज्ञान द्वारा ज्ञानदाता का सहारा अनुभव नहीं हो तब तक इस हद के बन्धनों से मुक्त हो नहीं सकते। अभी तक धरनी बनाने की, वायुमण्डल परिवर्तन करने की सेवा हुई है। अच्छा कार्य है, परिवार का प्यार है, यह प्यार का गुण वायुमण्डल को परिवर्तन करने के निमित्त बना। धरनी तो बन गई और बनती जायेगी। लेकिन जो फाउण्डेशन है, नवीनता है, बीज है, वह है ‘नया ज्ञान’। नि:स्वार्थ प्यार है, रूहानी प्यार है यह तो अनुभव करते हैं लेकिन अभी प्यार के साथ-साथ ‘ज्ञान की अथार्टी’ वाली आत्मायें हैं, सत्य ज्ञान की अथार्टी है, यह प्रत्यक्षता अभी रही हुई है। जो भी आते हैं वो समझें कि यह नया ज्ञान, नई बात है। जो कोई ने नहीं सुनाई वह यहाँ सुनी। यह वर्णन करें कि यह देने वाला अथार्टी है। पवित्रता है, शान्ति है, प्यार है, स्वच्छता है यह सब बातें तो फाउण्डेशन हैं, जिस फाउण्डेशन के आधार पर धरनी परिवर्तन हुई। यह भी 4 स्तम्भ है। पहले जो किसी की भी बुद्धी इस तरफ टिकती नहीं थी सो अभी इन 4 स्तम्भों के आधार द्वारा बुद्धि की आकर्षण होती है। यह परिवर्तन तो हुआ। लेकिन अभी जो मुख्य बात है - नया ज्ञान, उसका आवाज़ बुलन्द हो। आज तक जिन बातों की सभी ने ‘‘हाँ’’ की, उन बातों के लिए ब्र.कु. की आलमाइटी अथार्टी ‘‘ना’’ सिद्ध करके बताती हैं। जो वे ना कहते, आप सिद्ध करके बताते हो और जो आप ‘हाँ’ कहते उसे वो ‘ना’ कहते। तो हाँ और ना का रात दिन का अन्तर है ना। तो इस महान अन्तर को सिद्ध करने वाली महान आत्मायें हैं, यह नाम अब प्रत्यक्ष करो तब जयजयकार होगी। आत्मा का ज्ञान यथार्थ रूप में न भी है लेकिन फिर भी लोग सुन करके मिक्स कर देते हैं कि - हाँ वहाँ भी ऐसे ही कहते हैं। लेकिन यह आवाज़ बुलन्द हो कि दुनिया सारी एक तरफ है और ब्र.कु. दूसरे तरफ हैं। यह नया ज्ञान देने वाले अथार्टी हैं। यह अथार्टी प्रसिद्ध हो। इसी से ही शक्तिशाली आत्मायें आगे आयेंगी जो आपके तरफ से ढिंढोरा पिटवायेंगी। आपको ढिंढोरा नहीं पीटना पड़ेगा लेकिन ऐसी आत्मायें सैटिसफाय हो, नई बात, जान नये उमंग में आकर ढिंढोरा पीटेंगी। धर्म युद्ध भी तो अभी रही हुई है ना। अभी गुरूओं की गद्दी को कहाँ हिलाया है। अभी तो टाल टालियाँ आदि सब बहुत आराम से अपनी धुन में लगे हुए हैं। बीज कब प्रत्यक्ष रूप में आता है? मालूम है बीज ऊपर कब आता है? जब छोटी बड़ी टाल टालियाँ एकदम बिगर पत्तों की सूखी हुई डालियाँ रह जाती हैं तब बीज ऊपर प्रत्यक्ष होता है। तो उसका प्लैन बनाया है? जब अपनी स्टेज पर आते हैं तो अपने ओरीजनल नालेज की प्रत्यक्षता तो होनी चाहिए ना। अगर वरदान भूमि मे आकर भी सिर्फ कहें - शान्ति बहुत अच्छी है, प्यार बहुत अच्छा है। सिर्फ यह थोड़ी बहुत झोली भरकर चले गये तो वरदान भूमि पर आकर विशेष क्या ले गये! नया ज्ञान भी तो सिद्ध करना है ना। इसी नये ज्ञान की अथार्टी द्वारा ही आलमाइटी अथार्टी सिद्ध होगा। देने वाला कौन! प्रेम और शान्ति मिलने से इतना जरूर समझते हैं कि इन्हों को बनाने वाला कोई श्रेष्ठ है। लेकिन ‘स्वयं भगवान’ है यह बहुत कोई विरला समझते। तो समझा, क्या रहा हुआ है! अब नई दुनिया के लिए नया ज्ञान चारों ओर फैलाओ, समझा। कोटों में कोई निकले लेकिन ऐसा आवाज़ निकले जो चारों ओर पेपर्स में यह धूम मच जाए कि यह ब्र.कु. दुनिया से नया ज्ञान देती हैं। ज्ञान क्या देती हैं, उसका आधार क्या मानती हैं, उनको सिद्ध कैसे करती हैं यह जब अखबारों में आये तब समझो ज्ञान दाता का नगाड़ा बजा। समझा? ज्ञान के प्रभाव में प्रभावित हों। ज्ञान के प्रभावशाली और प्रेम के प्रभावशाली में क्या अन्तर है? ब्राह्मणों में भी दो भाग देखे ना। ब्राह्मण तो बने हैं लेकिन कोई प्यार के आधार पर, कोई ज्ञान और प्यार दोनों के आधार पर। तो दोनों में स्थिति का अन्तर है ना। जो प्यार को भी ज्ञान से समझते हैं, वह निर्विघ्न चलेंगे। जो सिर्फ प्यार के आधार पर चलते वह शक्तिशाली आत्मा नहीं होंगे। ज्ञान का बल जरूर चाहिए। जिनका पढ़ाई से प्यार है, मुरली से प्यार है और जिनका सिर्फ परिवार से प्यार है, उन्हों में कितना अन्तर है! ब्राह्मण जीवन अच्छी लगी, पवित्रता अच्छी लगी, इसी आधार पर आने वाले और ज्ञान की शक्ति के आधार पर आने वाले, उनमें कितना अन्तर है। ज्ञान की मस्ती, अलौकिक, निराधार रहने वाली मस्ती है। वैसे प्रेम भी एक शक्ति है लेकिन प्रेम की शक्ति वाले आधार के बिना चल नहीं सकते। कोई न कोई आधार जरूर चाहिए। मनन शक्ति - ज्ञान की शक्ति वाले की होगी। जितनी मनन शक्ति होगी उतनी बुद्धि के एकाग्रता की शक्ति आटोमेटिकली आयेगी। और जहाँ बुद्धि की एकाग्रता है वहाँ परखने की और निर्णय करने की शक्ति स्वत: आती है। जहाँ ज्ञान का फाउण्डेशन नहीं होगा वहाँ परखने की शक्ति, निर्णय करने की शक्ति कमज़ोर होगी। क्योंकि एकग्रता नहीं। अच्छा ।
बापदादा तो सब सुनते रहते हैं। हंसी भी आती और स्नेह में बलिहार भी जाते। बच्चों की हिम्मत देख खुश भी होते हैं। ब्रह्मा बाप को ज्यादा आता है कि यह मेरे समान बेहद के मालिक बन जाएँ। बच्चों के लिए रूके हुए हैं ना और दिन रात बच्चों की सेवा में तत्पर रहते। वतन में तो दिन-रात नहीं है लेकिन स्थूल दुनिया में तो है ना। एक एक बच्चे को विशेष आत्मा, सम्पूर्ण आत्मा, सम्पन्न आत्मा, समान आत्मा देखने चाहते। बाप ब्रह्मा को कहते हैं - ‘धैर्य धरो’। लेकिन ब्रह्मा को उमंग बहुत होता है ना। इसलिए वह बाप से यही रूह- रूहान करते कि बच्चे हाथ में हाथ दे मेरे समान बन जाएं। ब्रह्मा बाप के साकार जीवन की आदि से लेकर क्या विशेषता देखी! - कब नहीं लेंकिन अभी करना है। कब शब्द न सुनने के, न सुनाने के संस्कार रहे। अगर कोई बच्चा कहता था कि घण्टे के बाद करेंगे तो घण्टा लगाने दिया? कोई कहता था ट्रेन जाने में 5-10 मिनट हैं हम कैसे पहुँचेंगे तो रूकने दिया? गाड़ी रूक जायेगी लेकिन बच्चा पहुँच ही जायेगा। चलती हुई ट्रेन रूक जायेगी लेकिन बच्चे को पहुँचना ही है। यह प्रैक्टिकल देखा ना! तो ऐसे ही बच्चे भी किसी भी बात में स्व-परिवर्तन में वा विश्व परिवर्तन में ‘कब’ शब्द को बदलकर ‘अब’ के प्रैक्टिकल जीवन में आ जाएँ, यही ब्रह्मा बाप का उमंग सदा रहता है। तो फालो फादर है ना! अच्छा
सभी महारथियों ने सेवा के जो प्लैन्स बनाये हैं उसमें भी विशेष ‘यूथ’ का बनाया है ना। यूथ वा युवा वर्ग की सेवा के पहले जब युवा वर्ग गवर्मेंन्ट के आगे प्रत्यक्ष होने का संकल्प रख आगे बढ़ रहा है तो मैदान में आने से पहले एक बात सदा ध्यान में रहे कि - ‘बोलना कम है, करना ज्यादा है’। मुख द्वारा बताना नहीं है लेकिन दिखाना है। कर्म का भाषण स्टेज पर करें। मुख का भाषण करना तो नेताओं से सीखना हो तो सीखो। लेकिन रूहानी युवा वर्ग सिर्फ मुख से भाषण करने वाले नहीं लेकिन उनके नयन, मस्तक, उनके कर्म भाषण करने के निमित्त बन जाएँ। कर्म का भाषण कोई नहीं कर सकता है। मुख का भाषण अनेक कर सकते। कर्म बाप को प्रत्यक्ष कर सकता है। कर्म रूहानियत को सिद्ध कर सकता है। दूसरी बात - युवा वर्ग सदा सफलता के लिए अपने पास एक रूहानी तावीज रखे। वह कौन सा? - रिगार्ड देना ही रिगार्ड लेना है। यह रिगार्ड का रिकार्ड सफलता का अविनाशी रिकार्ड हो जायेगा। युवा वर्ग के लिए सदा मुख पर एक ही सफलता का मन्त्र हो - ‘‘पहले आप’’ - यह महामन्त्र मन से पक्का रहे। सिर्फ मुख के बोल हों कि पहले आप और अन्दर में रहे कि पहले मैं, ऐसे नहीं। ऐसे भी कई चतुर होते हैं मुख से कहते पहले आप, लेकिन अन्दर भावना पहले मैं की रहती है। यथार्थ रूप से, पहले मैं को मिटाकर दूसरे को आगे बढ़ाना सो अपना बढ़ना समझते हुए इस महामन्त्र को आगे बढ़ाते सफलता को पाते रहेंगे। समझा। यह मन्त्र और तावीज सदा साथ रहा तो प्रत्यक्षता का नगाड़ा बजेगा।
प्लैन्स तो बहुत अच्छे हैं लेकिन प्लेन बुद्धि बन प्लैन प्रैक्टिकल में लाओ। सेवा भल करो लेकिन ज्ञान को जरूर प्रत्यक्ष करो। सिर्फ शान्ति, शान्ति तो विश्व में भी सब कह रहे हैं। अशान्ति में शान्ति मिक्स कर देते हैं। बाहर से तो सब यही नारे लगा रहे हैं कि ‘शान्ति हो’। अशान्ति वाले भी नारा शान्ति का ही लगा रहे हैं। शान्ति तो चाहिए लेकिन जब अपनी स्टेज पर प्रोग्राम करते हो तो अपनी अथार्टी से बोलो! वायुमण्डल को देखकर नहीं। वह तो बहुत समय किया और उस समय के प्रमाण यही ठीक रहा। लेकिन अब जबकि धरनी बन गई है तो ज्ञान का बीज डालो। टॉपिक भी ऐसी हो। तुम लोग टॉपिक इसलिए चेन्ज करते हो कि दुनिया वाले इन्ट्रेस्ट लें। लेकिन आवे ही इन्ट्रेस्ट वाले। कितने मेले, कितनी कांफ्रेंस, कितने सेमीनार आदि किये हैं। 13 वर्ष लोगों के आधार पर टॉपिक्स बनाये। आखिर गुप्त वेष में कितना रहेंगे। अब तो प्रत्यक्ष हो जाओ। वह समय अनुसार जो हुआ वह तो हुआ ही। लेकिन अभी अपनी स्टेज पर परमात्म बॉम तो लगाओ। उन्हों का दिमाग तो घूमे कि यह क्या कहते हैं! नहीं तो सिर्फ कहते कि बहुत अच्छी बातें बोलीं। तो अच्छी, अच्छी ही रही और वह वहाँ के वहाँ रह जाते। कुछ हलचल तो मचाओ ना। हरेक को अपना हक होता है। पाइंटस भी दो तो अथार्टी और स्नेह से दो तो कोई कुछ नहीं कर सकता। ऐसे तो कई स्थानों पर अच्छा भी मानते हैं कि यह अपनी बात को स्पष्ट करने में बहुत शक्तिशाली हैं। ढंग कैसा हो वह तो देखना पड़ेगा। लेकिन सिर्फ अथार्टी नहीं, स्नेह और अथार्टी दोनों साथ साथ चाहिए। बापदादा सदैव कहते कि तीर भी लगाओ साथसाथ मालिश भी करो। रिगार्ड भी अच्छी तरह से दो लेकिन अपनी सत्यता को भी सिद्ध करो। भगवानुवाच कहते हो ना! अपना थोड़े ही कहते हो। बिगड़ने वाले तो चित्रों से भी बिगड़ते हैं फिर क्या करते हो? चित्र तो नहीं निकालते हो ना! साकार रूप में तो फलक से किसी के भी आगे अथार्टी से बोलने का प्रभाव क्या निकला। कब झगड़ा हुआ क्या? यह तरीका भाषण का भी सीखे ना। ज्ञान की रीति कैसे बोलना है - स्टडी की ना। अब फिर यह स्टडी करो। दुनिया के हिसाब से अपने को बदला, भाषा को चेन्ज किया ना। तो जब दुनिया के रूप में चेन्ज कर सके तो यथार्थ रूप से क्या नहीं कर सकते। कब तक ऐसे चलेंगे? इसमें तो खुश हैं कि यह जो कहते हैं बहुत अच्छा है। आखिर दुनिया में यह प्रसिद्ध हो कि - ‘यही यथार्थ ज्ञान है’। इससे ही गति सद्गति होगी। इस ज्ञान बिना गति सद्गति नहीं। अभी तो देखो योग शिविर करके जाते हैं। बाहर जाते फिर वही की वही बात कहेंगे कि परमात्मा सर्वव्यापी है। यहाँ तो कहते योग बहुत अच्छा लगा, फाउण्डेशन नहीं बदलता। आपके शक्ति के प्रभाव से परिवर्तन हो जाते हैं। लेकिन स्वयं शक्तिशाली नहीं बनते। जो हुआ है यह भी जरूरी था। जो धरनी कलराठी बन गई थी वह धरनी को हल चलाके योग्य धरनी बनाने का यही साधन यथार्थ था। लेकिन आखिर तो शक्तियाँ अपने शक्ति स्वरूप में भी आयेंगी ना! स्नेह के रूप में आयें, लेकिन यह शक्तियाँ हैं, इनका एक एक बोल ह्दय को परिवर्तन करने वाला है, बुद्धि बदल जाए, ‘ना’ से ‘हाँ’ में आ जाएँ - यह रूप भी प्रत्यक्ष होगा ना। अभी उसको प्रत्यक्ष करो। उसका प्लैन बनाओ। आते हैं खुश होकर जाते हैं। वो तो जिन्हों को इतना आराम, इतना स्नेह, खातिरी मिलेंगी तो जरूर सन्तुष्ट तो होकर जायेंगे। ऐसा प्यार तो कहीं भी नहीं मिलता। इसलिए सन्तुष्ट होकर जाते हैं। लेकिन शक्ति रूप बनकर नहीं जाते। ब्रह्मा बाप की सेवा की योजनायें देखो तो क्या-क्या योजनायें प्रैक्टिकल में की? ब्रह्मा बाप कहते थे कि सब प्रदर्शनियों मे प्रश्नावली लगाओ। उसमें कौन सी बातें थीं। तीर समान थी ना! फार्म भराने के लिए कहते थे। यह राइट है वा रांग, हाँ वा ना, लिखो। फार्म भराते थे ना। तो क्या योजनायें रही। एक हैं ऐसे ही भरवाना। जल्दी-जल्दी में रांग वा राइट कर दिया, लेकिन समझाकर भराओ। तो उसी अनुसार यथार्थ फार्म भरेंगे। सिद्ध तो करना ही पड़ेगा। वह आपस में प्लैन बनाओ। जो अथार्टी भी रहे और स्नेह भी रहे। रिगार्ड भी रहे और सत्यता भी प्रसिद्ध हो। ऐसे किसकी इनसल्ट थोड़े ही करेंगे? यह भी लक्ष्य है कि हमारी ही ब्रैन्चेज हैं। हमारे से ही निकले हुए हैं। उन्हों को रिगार्ड देना तो अपना कर्त्तव्य है। छोटों को प्यार देना यह तो परम्परा ही है। अच्छा- (दो चार भाई बहनें बापदादा से छुट्टी लेने आये।)
स्नेह का रेसपान्ड तो मिल गया ना। सच्ची दिल पर साहेब सदा राजी हैं। आदि से सच्ची लगन में रहने वाली आत्मायें हो इसलिए बाप भी सच्चों को सदा स्नेह का रेसपाण्ड देता रहता है। सदा दिल में बाप ही समाया हुआ है। इसलिए अच्छे तीव्र पुरूषार्थ में चल रहे हो। कर्मयोगी आत्मा हो ना। कर्म और योग कम्बाइण्ड है ना। सदा बैलेन्स रख, बाप की ब्लैसिंग को लेने वाले और सदा ब्लिसफुल जीवन में रहने वाले, ऐसी श्रेष्ठ आत्मा हो। बाप सदा हर बच्चे प्रति यही शुभ आश रखते कि यह विजय माला के मणके हैं। अच्छा –