05-12-83 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
संगमयुग - बाप बच्चों के मिलन का युग
सर्व हितकारी शिवबाबा अपने अधिकारी बच्चों के प्रति बोले:-
आज सभी मिलन मेला मनाने के लिए पहुँच गये हैं। यह है ही बाप और बच्चों के मधुर मिलन का मेला। जिस मिलन मेले के लिए अनेक आत्मायें अनेक प्रकार के प्रयत्न करते हुए भी बेअन्त, असम्भव वा मुश्किल कहते इंतजार में ही रह गये हैं। कब हो जायेगा - इसी उम्मीदों पर चलते चले और अब भी चल रहे हैं। ऐसी भी अन्य आत्मायें हैं जो कब होगा, कब आयेंगे, कब मिलेंगे ऐसे वियोग के गीत गाते रहते हैं। वो सभी हैं कब कहने वाले और आप सब हैं - अभी वाले। वो वियोगी और आप सहज योगी। सेकण्ड में मिलन का अनुभव करने वाले। अभी भी कोई आपसे पूछे कि बापसे मिलना कब और कितने समय में हो सकता है, तो क्या कहेंगे? निश्चय और उमंग से यही कहेंगे कि बाप से मिलना बच्चें के लिए कभी मुश्किल हो नहीं सकता। सहज और सदा का मिलना है। संगमयुग है ही बाप बच्चों के मिलन का युग। निरन्तर मिलन में रहते हो ना। है ही मेला। मेला अर्थात् मिलाप। तो बड़े फखुर से कहेंगे आप लोग मिलना कहते हो लेकिन हम तो सदा उन्हीं के साथ अर्थात् बाप के साथ खाते-पीते, चलते, खेलते, पलते रहते हैं। इतना फखुर रहता है? वह पूछते परमात्मा बाप से स्नेह कैसे होता है, मन कैसे लगता! और आपके दिल से यही आवाज़ निकलता कि मन कैसे लगाना तो छोड़ा लेकिन मन ही उनका हो गया। आपका मन है क्या जो मन कैसे लगावें। मन बाप को दे दिया तो किसका हुआ! आपका या बाप का! जब मन ही बाप का है तो फिर लगावें कैसे यह प्रश्न उठ नहीं सकता। प्यार कैसे करते यह भी क्वेश्चन नहीं। क्योंकि सदा लवलीन ही रहते हैं। प्यार स्वरूप बन गये हैं। मास्टर प्यार के सागर बन गये, तो प्यार करना नहीं पड़ता, प्यार का स्वरूप हो गये हैं। सारा दिन क्या अनुभव करते, प्यार की लहरें स्वत: ही उछलती हैं ना। जितना-जितना ज्ञान सूर्य की किरणें वा प्रकाश बढ़ता है उतना ही ज्यादा प्यार की लहरें उछलती हैं। अमृतवेले ज्ञान सूर्य की ज्ञान मुरली क्या काम करती? खूब लहरें उछलती हैं ना। सब अनुभवी हो ना! कैसे ज्ञान की लहरें, प्रेम की लहरें, सुख की लहरें, शान्ति और शक्ति की लहरें उछलती हैं और उन ही लहरों में समा जाते हो। यही अलौकिक वर्सा प्राप्त कर लिया है ना! यही ब्राह्मण जीवन है। लहरों में समाते-समाते सागर समान बन जायेंगे। ऐसा मेला मनाते रहते हो वा अभी मनाने आये हो! ब्राह्मण बनकर अगर सागर में समाने का अनुभव नहीं किया तो ब्राह्मण जीवन की विशेषता क्या रही! इस विशेषता को ही वर्से की प्राप्ति कहा जाता है। सारे विश्व के ब्राह्मण इसी अलौकिक प्राप्ति के अनुभव के चात्रक हैं।
अभी भी सर्व चात्रक बच्चे बापदादा के सामने हैं। बापदादा के आगे बेहद का हाल है। इस हाल मे भी सभी नहीं आ सकते। सभी बच्चे दूरबीन लेकर बैठे हैं। साकार में भी दूर का दृश्य सामने देखने के अनुभव में बापदादा भी बच्चों के सहज श्रेष्ठ सर्व प्राप्ति को देख हर्षित होते हैं। आप सभी भी इतने हर्षित होते हो या कभी हर्षित और कभी माया के आकर्षित और माया के दुविधा में तो नहीं रहते हो! दुविधा दलदल बना देती है। अभी तो दलदल से निकल दिलतख्तनशीन हो गये हो ना! सोचो कहाँ दलदल और कहाँ दिलतख्त! क्या पसन्द है? चिल्लाना या तख्त पर चढ़के बैठना। पसन्द तो तख्त है फिर दलदल की ओर क्यों चले जाते हो। दलदल के समीप जाने से दूर से ही दलदल अपने तरफ खींच लेती है।
नया समझ करके आये हो या कल्प-कल्प के अधिकारी समझ आये हो? नये आये हो ना! परिचय के लिए नया कहा जाता है लेकिन पहचानने में तो नये नहीं हो ना। नये बन पहचानने के लिए तो नहीं आये हो ना। पहचान का तीसरा नेत्र प्राप्त हो गया है वा अभी प्राप्त करने आये हो!
सभी आये हुए बच्चों को ब्राह्मण जन्म की सौगात बर्थ-डे पर मिली वा यहाँ बर्थ-डे मनाने आये हो। बर्थ-डे गिफ्ट बाप द्वारा तीसरा नेत्र मिलता है। बाप को पहचानने का नेत्र मिलता है। जन्म लेते, नेत्र मिलते सबके मुख से पहला बोल क्या निकला? बाबा! पहचाना तब तो बाबा कहा ना! सभी को बर्थ-डे गिफ्ट मिली है वा किसकी रह गई है। सबको मिली है ना। गिफ्ट को सदा सम्भाल कर रखा जाता है, बापदादा को तो सभी बच्चे एक दो से प्यारे हैं। अच्छा-
ऐसे सर्व अधिकारी आत्माओं को, सदा सागर के भिन्न-भिन्न लहरों में लहराने वाले अनुभवी मूर्त बच्चों को, सदा दिलतख्तनशीन बच्चों को, सदा मिलन मेला मनाने वाली श्रेष्ठ आत्माओं को, साथ-साथ देश वा विदेश के दूरबीन लिए हुए बच्चों को, विश्व के अनजान बच्चों को भी बापदादा याद-प्यार दे रहे हैं। सर्व आत्माओं को यथा स्नेह तथा स्नेह सम्पन्न याद-प्यार और वारिसों को नमस्ते।’’
दादी जी से:- बाप के संग का रंग लगा है। समान बाप बन गई! आप में सदा क्या दिखाई देता है। बाप दिखाई देता है। तो संग लग गया ना। कोई भी आपको देखता है तो बाप की याद आती क्योंकि समाये हुए हो। समाये हुए समान हो गये। इसीलिए विशेष स्नेह और सहयोग की छत्रछाया है। स्पेशल पार्ट है और स्पेशल छत्रछाया खास वतन में बनाई हुई है तब ही सदा हल्की हो। कभी बोझ लगता है? छत्रछाया के अन्दर हो ना। बहुत अच्छा चल रहा है। बापदादा देखदेख हर्षित होते हैं।
पार्टियों से (अव्यक्त बापदादा की व्यक्तिगत मुलाकात)
(1) सारे विश्व में विशेष आत्मायें हैं, यह स्मृति सदा रहती है? विशेष आत्माएं सेकण्ड भी एक संकल्प, एक बोल भी साधारण नहीं कर सकती। तो यही स्मृति सदा समर्थ बनाने वाली है। समर्थ आत्मायें हैं, विशेष आत्मायें हैं यह नशा और खुशी सदा रहे। समर्थ माना व्यर्थ को समाप्त करने वाले। जैसे सूर्य अन्धकार और गन्दगी को समाप्त कर देता है। ऐसे समर्थ आत्मायें व्यर्थ को समाप्त कर देती हैं। व्यर्थ का खाता खत्म, श्रेष्ठ संकल्प, श्रेष्ठ कर्म, श्रेष्ठ बोल, सम्पर्क और सम्बन्ध का खाता सदा बढ़ता रहे। ऐसा अनुभव है! हम हैं ही समर्थ आत्मायें यह स्मृति आते ही व्यर्थ खत्म हो जाता। विस्मृति हुई तो व्यर्थ शुरू हो जायेगा। स्मृति स्थिति को स्वत: बनाती हैं। तो स्मृति स्वरूप हो जाओ। स्वरूप कभी भी भूलता नहीं। आपका स्वरूप है स्मृति स्वरूप सो समर्थ स्वरूप। बस यही अभ्यास और यही लगन। इसी लगन में सदा मग्न - यही जीवन है।
कभी भी किसी परिस्थिति में वायुमण्डल में उमंग-उत्साह कम होने वाला नहीं। सदा आगे बढ़ने वाले। क्योंकि संगमयुग है ही उमंग-उत्साह प्राप्त कराने वाला। यदि संगम पर उमंग-उत्साह नहीं होता तो सारे कल्प में नहीं हो सकता। अब नहीं तो कब नहीं। ब्राह्मण जीवन ही उमंग-उत्साह की जीवन है। जो मिला है वह सबको बाँटे यह उमंग रहे। और उत्साह सदा खुशी की निशानी है। उत्साह वाला सदा खुश रहेगा। उत्साह रहता - बस, पाना था वो पा लिया।
सदा अचल अडोल स्थिति में रहने वाली ‘अंगद’ के समान श्रेष्ठ आत्मायें हैं, इसी नशे और खुशी में रहो। क्योंकि सदा एक के रस में रहने वाले, एकरस स्थिति में रहने वाले सदा अचल रहते हैं। जहाँ एक होगा वहाँ कोई खिटखिट नहीं। दो होता तो दुविधा होती। एक में सदा न्यारे और प्यारे। एक के बजाए दूसरे कहाँ भी बुद्धि न जाये। जब एक में सब कुछ प्राप्त हो सकता है तो दूसरे तरफ जाएं ही क्यों! कितना सहज मार्ग मिल गया। एक ही ठिकाना, एक से ही सर्व प्राप्ति और चाहिए ही क्या! सब मिल गया बस जो चाहना थी, बाप को पाने की वह प्राप्त हो गया तो इसी खुशी में नाचते रहो, खुशी के गीत गाते रहो। दुविधा में कोई प्राप्ति नहीं इसलिए एक में ही सारा संसार अनुभव करो।
अपने को सदा हीरो पार्टधारी समझते हुए हर कर्म करो। जो हीरो पार्टधारी होते हैं उनको कितनी खुशी होती है, वह तो हुआ हद का पार्ट। आप सबका बेहद का पार्ट है। किसक साथ पार्ट बजाने वाले हैं! किसके सहयोगी हैं, किस सेवा के निमित्त हैं, यह स्मृति सदा रहे तो सदा हर्षित, सदा सम्पन्न, सदा डबल लाइट रहेंगे। हर कदम में उन्नति होती रहेगी। क्या थे और क्या बन गये! ‘वाह मैं और वाह मेरा भाग्य!’ सदा यही गीत खूब गाओ और औरों को भी गाना सिखाओ। 5 हजार वर्ष की लम्बी लकीर खिंच गई तो खुशी में नाचो।