22-02-84   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


संगम पर चार कम्बाइण्ड रूपों का अनुभव

सिद्धिस्वरूप का अनुभव कराने वाले, वरदाता बाप अपने विजयी बच्चों प्रति बोले:-

आज बापदादा सभी बच्चों के कम्बाइण्ड रूप को देख रहे हैं। सभी बच्चे भी अपने कम्बाइण्ड रूप को अच्छी रीति जानते हो? एक - श्रेष्ठ आत्मायें, इस अन्तिम पुराने लेकिन अति अमूल्य बनाने वाले शरीर के साथ कम्बाइण्ड हो। सभी श्रेष्ठ आत्मायें इस शरीर के आधार से श्रेष्ठ कार्य और बापदादा से मिलन का अनुभव कर रही हो। है पुराना शरीर लेकिन बलिहारी इस अन्तिम शरीर की है जो श्रेष्ठ आत्मा इसके आधार से अलौकिक अनुभव करती है। तो आत्मा और शरीर कम्बाइन्ड है। पुराने शरीर के भान में नहीं आना है लेकिन मालिक बन इस द्वारा कार्य कराने हैं। इसलिए आत्म-अभिमानी बन, कर्मयोगी बन कर्मेन्द्रियों द्वारा कर्म कराते हैं।

दूसरा- अलौकिक विचित्र कम्बाइण्ड रूप। जो सारे कल्प में इस कम्बाइन्ड रूप का अनुभव सिर्फ अब कर सकते हो। वह है -’’आप और बाप’’। इस कम्बाइण्ड रूप का अनुभव। सदा मास्टर सर्वशक्तिवान, सदा विजयी, सदा सर्व के विघ्न विनाशक। सदा शुभ भावना, श्रेष्ठ कामना, श्रेष्ठ वाणी, श्रेष्ठ दृष्टि, श्रेष्ठ कर्म द्वारा विश्व-कल्याणकारी स्वरूप का अनुभव कराता है। सेकण्ड में सर्व समस्याओं का समाधान स्वरूप बनाता है। स्वयं के प्रति वा सर्व के प्रति दाता और मास्टर वरदाता बनाता है। सिर्फ इस कम्बाइण्ड रूप में सदा स्थित रहो तो सहज ही याद और सेवा के सिद्धिस्वरूप बन जाओ। विधि निमित्त मात्र हो जायेगी और सिद्धि सदा साथ रहेगी। अभी विधि में ज्यादा समय लगता है। सिद्धि यथा शक्ति अनुभव होती है। लेकिन जितना इस अलौकिक शक्तिशाली कम्बाइण्ड रूप में सदा रहेंगे तो विधि से ज्यादा सिद्धि अनुभव होगी। पुरूषार्थ से प्राप्ति ज्यादा अनुभव होगी। सिद्धिस्वरूप का अर्थ ही है - हर कार्य में सिद्धि हुई पड़ी है। यह प्रैक्टिकल में अनुभव हो।

तीसरा कम्बाइण्ड रूप - हम सो ब्राह्मण सो फरिश्ता। ब्राह्मण रूप और अन्तिम कर्मातीत फरिश्ता स्वरूप। इस कम्बाइण्ड रूप की अनुभूति विश्व के आगे साक्षात्कारमूर्त्त बनायेगी। ब्राह्मण सो फरिश्ता इस स्मृति द्वारा चलते-फिरते अपने को व्यक्त शरीर, व्यक्त देश में पार्ट बजाते हुए भी ब्रह्मा बाप के साथी अव्यक्त वतन के फरिश्ते, व्यक्त देश और देह में आये हैं - विश्व सेवा के लिए। ऐसे व्यक्त भाव से परे अव्यक्त रूपधारी अनुभव करेंगे। यह अव्यक्त भाव अर्थात् फरिश्ते-पन का भाव स्वत: ही अव्यक्त अर्थात् व्यक्तपन के बोल-चाल, व्यक्त भाव के स्वभाव, व्यक्त भाव के संस्कार सहज ही परिवर्तन कर लेंगे। भाव बदल गया तो सब कुछ बदल जायेगा। ऐसा अव्यक्त भाव सदा स्वरूप में लाओ। स्मृति में हैं कि ब्राह्मण सो फरिश्ता। अब स्मृति को स्वरूप में लाओ। स्वरूप निरन्तर स्वत: और सहज हो जाता है। स्वरूप में लाना अर्थात् सदा हैं ही अव्यक्त फरिश्ता। कभी भूले, कभी स्मृति में आवे इस स्मृति में रहना पहली स्टेज हैं। स्वरूप बन जाना यह श्रेष्ठ स्टेज है।

चौथा है - भविष्य चतुर्भुज स्वरूप। लक्ष्मी और नारायण का कम्बाइण्ड रूप क्योंकि आत्मा में इस समय लक्ष्मी और नारायण दोनों बनने के संस्कार भर रहे हैं। कब लक्ष्मी बनेंगे, कब नारायण बनेंगे। भविष्य प्रालब्ध का यह कम्बाइण्ड स्वरूप इतना ही स्पष्ट हो। आज फरिश्ता कल देवता। अभी-अभी फरिश्ता, अभी-अभी देवता। अपना राज्य, अपना राज्य स्वरूप आया कि आया। बना कि बना। ऐसे संकल्प स्पष्ट और शक्तिशाली हों क्योंकि आपके इस स्पष्ट समर्थ संकल्प के इमर्ज रूप से आपका राज्य समीप आयेगा। आपका इमर्ज संकल्प नई सृष्टि को रचेगा अर्थात् सृष्टि पर लायेगा। आपका संकल्प मर्ज है तो नई सृष्टि इमर्ज नहीं हो सकती। ब्रह्मा के साथ ब्राह्मणों के इस संकल्प द्वारा नई सृष्टि इस भूमि पर प्रत्यक्ष होगी। ब्रह्मा बाप भी नई सृष्टि में नया पहला पार्ट बजाने के लिए, आप ब्राह्मण बच्चों के लिए, ‘साथ चलेंगेके वायदे कारण इन्तजार कर रहे हैं। अकेला ब्रह्मा सो कृष्ण बन जाए, तो अकेला क्या करेगा? साथ में पढ़ने वाले, खेलने वाले भी चाहिए ना। इसलिए ब्रह्मा बाप ब्राह्मणों प्रति बोले कि मुझ अव्यक्त रूपधारी बाप समान अव्यक्त रूपधारी, अव्यक्त स्थितिधारी फरिश्ता रूप बनो। फरिश्ता सो देवता बनेंगे। समझा। इन सब कम्बाइण्ड रूप में स्थित रहने से ही सम्पन्न और सम्पूर्ण बन जायेंगे। बाप समान बन सहज ही कर्म में सिद्धि का अनुभव करेंगे।

डबल विदेशी बच्चों को बापदादा से रूह-रूहान करने वा मिलन मनाने की इच्छा तीव्र है। सभी समझते हैं कि हम ही आज मिल लेवें। परन्तु इस दुनिया में सब देखना पड़ता है। सूर्य चांद के अन्दर की दुनिया है ना! उनसे परे की दुनिया में आ जाओ तो सारा समय बैठ जाओ। बापदादा को भी हर बच्चा अपनी-अपनी विशेषताओं से प्रिय है। कोई समझे यह प्रिय है, हम कम प्रिय हैं - ऐसी बात नहीं है। महारथी अपनी विशेषता से प्रिय हैं और बाप के आगे अपने-अपने रूप से सब महारथी हैं। महान आत्मायें हैं। इसलिए महारथी हैं। यह तो कार्य चलाने के लिए किसको स्नेह से निमित्त बनाना होता है। नहीं तो कार्य के निमित्त अपना-अपना स्थान मिला हुआ है। अगर सभी दादी बन जाएँ तो काम चलेगा? निमित्त तो बनाना पड़े ना। वैसे अपनी रीति से सब दादियाँ हो। सभी को दीदी वा दादी कहते तो हैं ना। फिर भी आप सबने मिलकर एक को निमित्त तो बनाया है ना। सभी ने बनाया वा सिर्फ बाप ने बनाया। या सिर्फ निमित्त कारोबार अर्थ अपने-अपने कार्य अनुसार निमित्त बनाना ही पड़ता है। इसका यह मतलब नहीं कि आप महारथी नहीं हो। आप भी महारथी हो। महावीर हो। माया को चैलेन्ज करने वाले महारथी नहीं हुए तो क्या हुए?

बापदादा के लिए सप्ताह कोर्स करने वाला बच्चा भी महारथी है क्यांकि सप्ताह कोर्स भी तब करते जब समझते हैं कि यह श्रेष्ठ जीवन बनानी है। चैलेन्ज किया तो महारथी महावीर हुआ। बापदादा सदैव एक सलोगन सभी बच्चों को कार्य में लाने लिए याद दिलाते रहते। एक है अपनी स्वस्थिति में रहना। दूसरा है कारोबार में आना। स्वस्थिति में तो सभी बड़े हो, कोई छोटा नहीं। कारोबार में निमित्त बनाना ही पड़ता है। इसलिए कारोबार में सदा सफल होने का सलोगान है - रिगार्ड देना, रिगार्ड लेना। दूसरे को रिगार्ड देना ही रिगार्ड लेना है। देने में लेना भरा हुआ है। रिगार्ड कभी भी प्रयत्न करने वा माँगने से नहीं मिलता है। रिगार्ड दो और रिगार्ड मिलेगा। रिगार्ड लेने का साधन ही है - रिगार्ड देना। आप रिगार्ड दो और आपको नहीं मिले यह हो नहीं सकता। लेकिन दिल से दो। मतलब से नहीं। जो दिल से रिगार्ड देता है उसको दिल से रिगार्ड मिलता है। मतलब का रिगार्ड देंगे तो मिलेगा भी मतलब का। सदैवी दिल से दो और दिल से लो। इस सलोगन द्वारा सदा ही निर्विघ्न, निरसंकल्प, निश्चिन्त रहेंगे। मेरा क्या होगा यह चिन्ता नहीं रहेगी। मेरा हुआ ही पड़ा है। बना ही पड़ा है। निश्चिन्त रहेंगे। और ऐसी श्रेष्ठ आत्मा की श्रेष्ठ प्रालब्ध वर्तमान और भविष्य निश्चित ही है। कोई इसको बदल नहीं सकता। कोई किसकी सीट ले नहीं सकता। निश्चित है। निश्चिन्त की निश्चित है। इसको कहा जाता है - बाप समान फॉलो फादर करने वाले। समझा।

डबल विदेशी बच्चों पर तो विशेष स्नेह है। मतलब का नहीं। दिल का स्नेह है। बापदादा ने सुनाया था, एक पुराना गीत हैं ऊँची-ऊँची दीवारें... यह डबल विदेशियों का गीत है। समुद्र पार करते हुए, धर्म, देश, भाषा सब ऊँची-ऊँची दीवारें पार करके बाप के बन गये। इसलिए बाप को प्रिय हो। भारतवासी तो थे ही देवताओं के पुजारी। उन्होंने ऊँची दीवारें पार नहीं की। लेकिन आप डबल विदेशियों ने यह ऊँची-ऊँची दीवारें कितना सहज पार की। इसलिए बापदादा दिल से बच्चों की इस विशेषता का गीत गाते हैं। समझा। सिर्फ खुश करने के लिए नहीं कर रहे हैं। कई बच्चे रमत-गमत में कहते हैं कि बापदादा तो सभी को खुश कर देते हैं। लेकिन खुश करते हैं अर्थ से। आप अपने से पूछो बापदादा ऐसे ही कहते हैं या यह प्रैक्टिकल है! ऊँची-ऊँची दीवारें पार कर आ गये हो ना! कितनी मेहनत से टिकेट निकालते हो। यहां से जाते ही पैसे इकट्ठे करते हो ना। बापदादा जब बच्चों का स्नेह देखते हैं, स्नेह से कैसे पहुँचने के लिए साधन अपनाते हैं, किस तरीके से पहुँचते हैं, बापदादा स्नेही आत्माओं का स्नेह का साधन देख, लगन देख, खुश होते हैं। दूर वालों से पूछो कैसे आते हैं? मेहनत करके फिर भी पहुँच तो जाते हैं ना। अच्छा-

सदा कम्बाइण्ड रूप में स्थित रहने वाले, सदा बाप समान अव्यक्त भाव में स्थित रहने वाले, सदा सिद्धिस्वरूप अनुभव करने वाले, अपने समर्थ समान स्वरूप द्वारा साक्षात्कार कराने वाले, ऐसे सदा निश्चिन्त, सदा निश्चित विजयी बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।’’

सानफ़्रांसिसको - सभी स्वयं को सारे विश्व में विशेष आत्मायें हैं - ऐसे अनुभव करते हो? क्योंकि सारे विश्व की अनेक आत्माओं में से बाप को पहचानने का भाग्य आप विशेष आत्माओं को मिला है। ऊँचे ते ऊँचे बाप को पहचानना यह कितना बड़ा भाग्य है! पहचाना और सम्बन्ध जोड़ा और प्राप्ति हुई। अभी अपने को बाप के सर्व खज़ानों के मालिक अनुभव करते हो? जब सदा बच्चें हैं तो बच्चें माना ही अधिकारी। इसी स्मृति से बार-बार रिवाइज करो। मैं कौन हूँ! किसका बच्चा हूँ! अमृतवेले शक्तिशाली स्मृति-स्वरूप का अनुभव करने वाले ही शक्तिशाली रहते हैं। अमृतवेला शक्तिशाली नहीं तो सारे दिन में भी बहुत विघ्न आयेंगे। इसलिए अमृतवेला सदा शक्तिशाली रहे। अमृतवेले पर स्वयं बाप बच्चों को विशेष वरदान देने आते हैं। उस समय जो वरदान लेता है उसका सारा दिन सहजयोगी की स्थिति में रहता है। तो पढ़ाई और अमृतवेले का मिलन यह दोनों ही विशेष शक्तिशाली रहें। तो सदा ही सेफ रहेंगे।

जर्मनी ग्रुप से:- सदा अपने को विश्व-कल्याणकारी बाप के बच्चे विश्वकल् याणकारी आत्मायें समझते हो? अर्थात् सर्व खज़ानों से भरपूर। जब अपने पास खज़ाने सम्पन्न होंगे तब दूसरों को देंगे ना! तो सदा सर्व खज़ानों से भरपूर आत्माएँ बालक सो मालिक हैं! ऐसा अनुभव करते हो? बाप कहा माना बालक सो मालिक हो गया। यही स्मृति विश्व-कल्याणकारी स्वत: बना देती है। और यही स्मृति सदा खुशी में उड़ाती है। यही ब्राह्मण जीवन है। सम्पन्न रहना, खुशी में उड़ना और सदा बाप के खज़ानों के अधिकार के नशे में रहना। ऐसे श्रेष्ठ ब्राह्मण आत्मायें हो।