18-03-87   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


सच्चे रूहानी आशिक की निशानियाँ

सदा प्राप्तियों से सम्पन्न बनाने वाले बापदादा अपने अविनाशी आशिकों प्रति बोले

आज रूहानी माशूक अपने रूहानी आशिक आत्माओं से मिलने के लिए आये हैं। सारे कल्प में इस समय ही रूहानी माशूक और आशिकों का मिलन होता है। बापदादा अपने हर एक आशिक आत्मा को देख हर्षित होते हैं - कैसे रूहानी आकर्षण से आकर्षित हो अपने सच्चे माशूक को जान लिया, पा लिया है! खोये हुए आशिक को देख माशूक भी खुश होते हैं कि फिर से अपने यथार्थ ठिकाने पर पहुँच गये। ऐसा सर्व प्राप्ति कराने वाला माशूक और कोई मिल नहीं सकता। रूहानी माशूक सदा अपने आशिकों से मिलने के लिए कहाँ आते हैं? जैसा श्रेष्ठ माशूक और आशिक हैं, ऐसे ही श्रेष्ठ स्थान पर मिलने के लिए आते हैं। यह कौन-सा स्थान है जहाँ मिलन मना रहे हो? इसी स्थान को जो भी कहो, सर्व नाम इस स्थान को दे सकते हैं। वैसे मिलने के स्थान जो अतिप्रिय लगते हैं, वह कौन-से होते हैं? या फूलों के बगीचे में मिलन होता है वा सागर के किनारे पर मिलना होता है जिसको आप लोग बीच (समुद्र का किनारा) कहते हो। तो अब कहाँ बैठे हो? ज्ञान सागर के किनारे रूहानी मिलन के स्थान पर बैठे हो। रूहानी वा गॉडली गार्डन (अल्लाह का बगीचा) है। और तो अनेक प्रकार के बगीचे देखे हैं लेकिन ऐसा बगीचा जहाँ हरेक एक दो से ज्यादा खिले हुए फूल हैं, एक-एक श्रेष्ठ सुन्दरता से अपनी खुशबू दे रहे हैं - ऐसा बगीचा है। इसी बीच पर बापदादा वा माशूक मिलने आते हैं। वह अनेक बीच देखीं, लेकिन ऐसी बीच कब देखी जहाँ ज्ञान सागर की स्नेह की लहरें, शक्ति की लहरें, भिन्न-भिन्न लहरें लहराए सदा के लिए रिफ्रेश कर देती हैं? यह स्थान पसन्द है ना? स्वच्छता भी है और रमणीकता भी है। सुन्दरता भी है। इतनी ही प्राप्तियाँ भी हैं। ऐसा मनोरंजन का विशेष स्थान आप आशिकों के लिए माशूक ने बनाया है जहाँ आने से मुहब्बत की लकीर के अन्दर पहुँचते ही अनेक प्रकार की मेहनत से छूट जाते। सबसे बड़ी मेहनत - नैचुरल याद की, वह सहज अनुभव करते हो। और कौन-सी मेहनत से छूटते हो? लौकिक जॉब (नौकरी) से भी छूट जाते हो। भोजन बनाने से भी छूट जाते हो। सब बना बनाया मिलता है ना। याद भी स्वत: अनुभव होती। ज्ञान रत्नों की झोली भी भरती रहती। ऐसे स्थान पर जहाँ मेहनत से छूट जाते हो और मुहब्बत में लीन हो जाते हो।

वैसे भी स्नेह की निशानी विशेष यही गाई जाती कि दो, दो न रहें लेकिन दो मिलकर एक हो जाएँ। इसको ही समा जाना कहते हैं। भक्तों ने इसी स्नेह की स्थिति को समा जाना वा लीन होना कह दिया है। वो लोग लीन होने का अर्थ नहीं समझते। लव में लीन होना - यह स्थिति है लेकिन स्थिति के बदले उन्होंने आत्मा के अस्तित्व को सदा के लिए समाप्त करना समझ लिया है। समा जाना अर्थात् समान बन जाना। जब बाप के वा रूहानी माशूक के मिलन में मग्न हो जाते हो तो बाप समान बनने अथवा समा जाने अर्थात् समान बनने का अनुभव करते हो। इसी स्थिति को भक्तों ने समा जाना कहा है। लीन भी होते हो, समा भी जाते हो। लेकिन यह मिलन के मुहब्बत के स्थिति की अनुभूति है। समझा? इसलिए बापदादा अपने आशिकों को देख रहे हैं। सच्चे आशिक अर्थात् सदा आशिक, नैचुरल (स्वत:) आशिक ।

सच्चे आशिक की विशेषतायें जानते भी हो । फिर भी उसकी मुख्य निशानियां हैं - एक माशूक द्वारा सर्व सम्बन्धों की समय प्रमाण अनुभूति करना। माशूक एक है लेकिन एक के साथ सर्व सम्बन्ध हैं। जो सम्बन्ध चाहें और जिस समय जिस सम्बन्ध की आवश्यकता है, उस समय उस सम्बन्ध के रूप से प्रीति की रीति द्वारा अनुभव कर सकते हो। तो पहली निशानी है - सर्व सम्बन्धों की अनुभूति।सर्व' शब्द को अण्डरलाइन करना। सिर्फ सम्बन्ध नहीं। कई ऐसे नटखट आशिक भी हैं जो समझते हैं सम्बन्ध तो जुट गया है। लेकिन सर्व सम्बन्ध जुटे हैं? और दूसरी बात - समय पर सम्बन्ध की अनुभूति होती है? नॉलेज के आधार पर सम्बन्ध है वा दिल की अनुभूति से सम्बन्ध है? बापदादा सच्ची दिल पर राजी है। सिर्फ तीव्र दिमाग वालों पर राजी नहीं, लेकिन दिलाराम दिल पर राजी है। इसलिए, दिल का अनुभव दिल जाने, दिलाराम जाने। समाने का स्थान दिल कहा जाता है, दिमाग नहीं। नॉलेज को समाने का स्थान दिमाग है, लेकिन माशूक को समाने का स्थान दिल है। माशूक आशिकों की बातें ही सुनायेंगे ना। कोई-कोई आशिक दिमाग ज्यादा चलाते लेकिन दिल से दिमाग की मेहनत आधी हो जाती है। जो दिल से सेवा करते वा याद करते, उन्हों की मेहनत कम और सन्तुष्टता ज्यादा होती और जो दिल के स्नेह से नहीं याद करते, सिर्फ नॉलेज के आधार पर दिमाग से याद करते वा सेवा करते, उन्हों को मेहनत ज्यादा करनी पड़ती, सन्तुष्टता कम होती। चाहे सफलता भी हो जाए, तो भी दिल की सन्तुष्टता कम होगी। यही सोचते रहेंगे - हुआ तो अच्छा, लेकिन फिर, फिर भी... करते रहेंगे और दिल वाले सदा सन्तुष्टता के गीत गाते रहेंगे। दिल की सन्तुष्टता के गीत, मुख की सन्तुष्टता के गीत नहीं। सच्चे आशिक दिल से सर्व सम्बन्धों की समय प्रमाण अनुभूति करते हैं।

दूसरी निशानी - सच्चे आशिक हर परिस्थिति में, हर कर्म में सदा प्राप्ति की खुशी में होंगे। एक है अनुभूति, दूसरी है उससे प्राप्ति। कई अनुभूति भी करते हैं कि हाँ, मेरा बाप भी है, साजन भी है। बच्चा भी है लेकिन प्राप्ति जितनी चाहते उतनी नहीं होती है। बाप है, लेकिन वर्से के प्राप्ति की खुशी नहीं रहती। अनुभूति के साथ सर्व सम्बन्धों द्वारा प्राप्ति का भी अनुभव हो। जैसे - बाप के सम्बन्ध द्वारा सदा वर्से के प्राप्ति की महसूसता हो, भरपूरता हो। सत्गुरू द्वारा सदा वरदानों से सम्पन्न स्थिति का वा सदा सम्पन्न स्वरूप का अनुभव हो। तो प्राप्ति का अनुभव भी आवश्यक है। वह है सम्बन्धों का अनुभव, यह है प्राप्तियों का अनुभव। कइयों को सर्व प्राप्तियों का अनुभव नहीं होता। मास्टर सर्वशक्तिवान है लेकिन समय पर शक्तियों की प्राप्ति नहीं होती। प्राप्ति की अनुभूति नहीं तो प्राप्ति में भी कमी है। तो अनुभूति के साथ प्राप्ति स्वरूप भी बनें - यह है सच्चे आशिक की निशानी।

तीसरी निशानी - जिस आशिक को अनुभूति है, प्राप्ति भी है वह सदा तृप्त रहेंगे, किसी भी बात में अप्राप्त आत्मा नहीं लगेगी। तो, ‘तृप्ति' - यह आशिक की विशेषता है। जहाँ प्राप्ति है, वहाँ तृप्ति जरूर है। अगर तृप्त नहीं तो अवश्य प्राप्ति में कमी है और प्राप्ति नहीं तो सर्व सम्बन्धों की अनुभूति में कमी है। तो तीन निशानियां हैं - अनुभूति, प्राप्ति और तृप्ति। सदा तृप्त आत्मा। जैसा भी समय हो, जैसा भी वायुमण्डल हो, जैसे भी सेवा के साधन हों, जैसे भी सेवा के संगठन के साथी हों लेकिन हर हाल में, हर चाल में तृप्त हों। ऐसे सच्चे आशिक हो ना? तृप्त आत्मा में कोई हद की इच्छा नहीं होगी। वैसे देखो तो तृप्त आत्मा बहुत मैनारिटी (थोड़ी) रहती है। कोई-न-कोई बात में चाहे मान की, चाहे शान की भूख होती है। भूख वाला कभी तृप्त नहीं होता। जिसका सदा पेट भरा हुआ होता, वह तृप्त होता है। तो जैसे शरीर के भोजन की भूख है, वैसे मन की भूख है - शान, मान, सैलवेशन, साधन। यह मन की भूख है। तो जैसे शरीर की तृप्ति वाले सदा सन्तुष्ट होंगे, वैसे मन की तृप्ति वाले सदा सन्तुष्ट होंगे। सन्तुष्टता तृप्ति की निशानी है। अगर तृप्त आत्मा नहीं होंगे, चाहे शरीर की भूख, चाहे मन की भूख होगी तो जितना भी मिलेगा, मिलेगा भी ज्यादा लेकिन तृप्त आत्मा न होने कारण सदा ही अतृप्त रहेंगे। असन्तुष्टता रहती है। जो रॉयल होते हैं, वह थोड़े में तृप्त होते हैं। रॉयल आत्माओं की निशानी - सदा ही भरपूर होंगे, एक रोटी में भी तृप्त तो 36 प्रकार के भोजन में भी तृप्त होंगे। और जो अतृप्त होंगे, वह 36 प्रकार के भोजन मिलते भी तृप्त नहीं होंगे क्योंकि मन की भूख है। सच्चे आशिक की निशानी - सदा तृप्त आत्मा होंगे। तो तीनों ही निशानीयां चेक करो। सदैव यह सोचो - हम किसके आशिक हैं! जो सदा सम्पन्न है, ऐसे माशूक के आशिक हैं!' तो सन्तुष्टता कभी नहीं छोड़ो। सेवा छोड़ दो लेकिन सन्तुष्टता नहीं छोड़ो। जो सेवा असन्तुष्ट बनावे वो सेवा, सेवा नहीं। सेवा का अर्थ ही है - मेवा देने वाली सेवा। तो सच्चे आशिक सर्व हद की चाहना से परे, सदा ही सम्पन्न और समान होंगे।

आज आशिकों की कहानियाँ सुना रहे हैं। नाज़, नखरे भी बहुत करते हैं। माशूक भी देख-देख मुस्कराते रहते। नाज़, नखरे भल करो लेकिन माशूक को माशूक समझ उसके सामने करो, दूसरे के सामने नहीं। भिन्न-भिन्न हद के स्वभाव, संस्कार के नखरे और नाज़ करते हैं। जहाँ मेरा स्वभाव, मेरे संस्कार शब्द आता है, वहाँ भी नाज़, नखरे शुरू हो जाते हैं। बाप का स्वभाव सो मेरा स्वभाव हो। मेरा स्वभाव बाप के स्वभाव से भिन्न हो नहीं सकता। वह माया का स्वभाव है, पराया स्वभाव है। उसको मेरा कैसे कहेंगे? माया पराई है, अपनी नहीं है। बाप अपना है। मेरा स्वभाव अर्थात् बाप का स्वभाव। माया के स्वभाव को मेरा कहना भी रांग है। मेरा' शब्द ही फेरे में लाता है अर्थात् चक्र में लाता है। आशिक, माशूक के आगे ऐसे नाज़-नखरे भी दिखाते हैं। जो बाप का सो मेरा। हर बात में भक्ति में भी यही कहते हैं - जो तेरा सो मेरा, और मेरा कुछ नहीं। लेकिन जो तेरा सो मेरा। जो बाप का संकल्प, वह मेरा संकल्प। सेवा के पार्ट बजाने के बाप के संस्कार-स्वभाव, वह मेरे। तो इससे क्या होगा? हद का मेरा, तेरा हो जायेगा। तेरा सो मेरा, अलग मेरा नहीं है। जो भी बाप से भिन्न हैं, वह मेरा है ही नहीं, वह माया का फेरा है। इसलिए इस हद के नाज़-नखरे से निकल रूहानी नाज़ - मैं तेरी और तू मेरा, भिन्न-भिन्न सम्बन्ध की अनुभूति के रूहानी नखरे भल करो। परन्तु यह नहीं करो। सम्बन्ध निभाने में भी रूहानी नखरे कर सकते हो। मुहब्बत की प्रीत के नखरे अच्छे होते हैं। कब सखा के सम्बन्ध से मुहब्बत के नखरे का अनुभव करो। वह नखरा नहीं लेकिन निराला-पन है। स्नेह के नखरे प्यारे होते हैं। जैसे, छोटे बच्चे बहुत स्नेही और प्युअर (पवित्र) होने के कारण उनके नखरे सबको अच्छे लगते हैं। शुद्धता और पवित्रता होती है बच्चों में। और बड़ा कोई नखरा करे तो वह बुरा माना जाता। तो बाप से भिन्न-भिन्न सम्बन्ध के, स्नेह के, पवित्रता के नाज़-नखरे भल करो, अगर करना ही है तो।

सदा हाथ और साथ' ही सच्चे आशिक माशूक की निशानी है। साथ और हाथ नहीं छूटे। सदा बुद्धि का साथ हो और बाप के हर कार्य में सहयोग का हाथ हो। एक दो के सहयोगी की निशानी - हाथ में हाथ मिलाके दिखाते हैं ना। तो सदा बाप के सहयोगी बनना - यह है सदा हाथ में हाथ। और सदा बुद्धि से साथ रहना। मन की लगन, बुद्धि का साथ। इस स्थिति में रहना अर्थात् सच्चे आशिक और माशूक के पोज में रहना। समझा? वायदा ही यह है कि सदा साथ रहेंगे। कभी-कभी साथ निभायेंगे - यह वायदा नहीं है। मन का लगाव कभी माशूक से हो और कभी न हो तो वह सदा साथ तो नहीं हुआ ना। इसलिए इसी सच्चे आशिक-पन के पोजीशन में रहो। दृष्टि में भी माशूक, वृत्ति में भी माशूक, सृष्टि ही माशूक।

तो यह माशूक और आशिकों की महफिल है। बगीचा भी है तो सागर का किनारा भी है। यह वण्डरफुल ऐसी प्राइवेट बीच (सागर का किनारा) है जो हजारों के बीच (मध्य) भी प्राइवेट है। हर एक अनुभव करते - मेरे साथ माशूक का पर्सनल प्यार है। हरेक को पर्सनल प्यार की फीलिंग प्राप्त होना - यही वण्डरफुल माशूक और आशिक हैं। है एक माशूक लेकिन है सबका। सभी का अधिकार सबसे ज्यादा है। हरेक का अधिकार है। अधिकार में नम्बर नहीं हैं, अधिकार प्राप्त करने में नम्बर हो जाते हैं। सदा यह स्मृति रखो कि - गॉडली गार्डन में हाथ और साथ दे चल रहे हैं या बैठे हैं। रूहानी बीच पर हाथ और साथ दे मौज मना रहे हैं।' तो सदा ही मनोरंजन में रहेंगे, सदा खुश रहेंगे, सदा सम्पन्न रहेंगे। अच्छा।

यह डबल विदेशी भी डबल लक्की हैं। अच्छा है जो अब तक पहुँच गये। आगे चल क्या परिवर्तन होता है, वह तो ड्रामा। लेकिन डबल लक्की हो जो समय प्रमाण पहुँच गये हो। अच्छा।

सदा अविनाशी आशिक बन रूहानी माशूक से प्रीति की रीति निभाने वाले, सदा स्वयं को सर्व प्राप्तियों से सम्पन्न अनुभव करने वाले, सदा हर स्थिति वा परिस्थिति में तृप्त रहने वाले, सदा सन्तुष्टता के खज़ाने से भरपूर बन औरों को भी भरपूर करने वाले, ऐसे सदा के साथ और हाथ मिलाने वाले सच्चे आशिकों को रूहानी माशूक का दिल से यादप्यार और नमस्ते।

पर्सनल मुलाकात

पार्टियों से आस्ट्रेलिया पार्टी से - आस्ट्रेलिया निवासी हो या वतन निवासी हो? कौनसा देश अच्छा लगता है? सदा वतन-वासी बन जैसे बाप सेवा के लिए नीचे आते हैं, इसी रीति से बच्चे भी वतन से सेवा के प्रति नीचे आये हैं - ऐसे अनुभव कर सेवा करते चलो तो सदा ही न्यारे और बाप समान विश्व के प्यारे बन जायेंगे। ऊपर से नीचे आना माना अवतार बन अवतरित होकर सेवा करना। ऐसी सेवा करते हो? क्योंकि वर्तमान समय ऐसे अवतारों की ही आवश्यकता है। सभी चाहते हैं कि अवतार आयें और हमको साथ ले जायें। जो भी प्रार्थना करते हैं, उसमें क्या कहते हैं? क्राइस्ट को भी यही कहते हैं - आओ और साथ ले जाओ' तो सच्चे अवतार आप हो जो साथ ले जायेंगे मुक्तिधाम में। ऐसे अवतार बन सदा सेवा में आगे बढ़ते रहो। चलते-फिरते आप लोगों से ऐसे ही साक्षात्कार हो कि अवतार जा रहे हैं, अवतार बोल रहे हैं। तो उन्हों की इच्छा पूर्ण हो जायेगी और खुश हो जायेंगे। ऐसी सेवा में लगे हुए हो? क्योंकि विश्व इस समय दु:ख और अशान्ति से थका हुआ अनुभव कर रही है। तो ऐसी थकी हुई आत्माओं को सुख और शान्ति की चैन दिलाने वाली आत्मायें आप हो। सदा यही लक्ष्य रखो कि सभी को कुछ ना कुछ बाप के खज़ानों से प्राप्ति जरूर करायें।

अमेरिका, ब्राजील, मैक्सिको आदि पार्टियों से

(1) सभी सदा एकरस स्थिति में स्थित रहने वाली श्रेष्ठ आत्मायें हो ना। अनुभवी आत्मायें बन गई ना। सब दुनिया के रस अनुभव कर लिये। अब इस ईश्वरीय रस का अनुभव किया, तो वह रस क्या लगते हैं? फीके लगते हैं ना। जब है ही एक रस मीठा तो एक ही तरफ अटेन्शन जायेगा ना। एक तरफ मन लग ही जाता है, मेहनत नहीं लगती है। बाप का स्नेह, बाप की मदद, बाप का साथ, बाप द्वारा सर्व प्राप्तियाँ सहज बना देती है। हरेक इसी अनुभव से आगे बढ़ रहे हो, यह देख बाप भी हर्षित होते हैं। जितना भी देश में दूर स्थान पर हो, उतना ही दिल में नजदीक हो। बापदादा सेकण्ड में सभी बच्चों को आह्वान कर इमर्ज कर लेते हैं, भल वह कितना भी दूर हो। आपको भी अनुभव होता है ना - बाप अमृतवेले कैसे मिलन मनाते हैं! अच्छा!

(2) बाप की याद से खुशियों के झूलों में झूलने वाले हो ना। क्योंकि इस संगमयुग में जो खुशियों की खान मिलती है, वह और किसी युग में प्राप्त नहीं हो सकती। इस समय बाप और बच्चों का मिलन है, वर्सा है, वरदान है। बाप के रूप में वर्सा देते, सत्गुरू के रूप में वरदान देते हैं। तो दोनों अनुभव हैं ना? दोनों ही प्राप्तियाँ सहज अनुभव कराने वाली हैं। वर्सा या वरदान - दोनों में मेहनत नहीं। इसलिए टाइटल ही है - सहजयोगी'। क्योंकि ऑलमाइटी अथॉर्टी बाप बन जाए, सत्गुरू बन जाए... तो सहज नहीं होगा? यही अन्तर परम-आत्मा और आत्माओं का है। कोई महान आत्मा भी हो लेकिन प्राप्ति कराने के लिए कुछ-न-कुछ मेहनत जरूर देगी। 63 जन्म के अनुभवी हो ना। इसलिए बापदादा बच्चों की मेहनत देख नहीं सकते। जब बाप से थोड़ा भी, संकल्प में भी किनारा करते हो तब मेहनत करते हो। उसी सेकण्ड बाप को साथी बना दो तो सेकण्ड में मुश्किल सहज अनुभव हो जायेगा। क्योंकि बापदादा आये ही हैं बच्चों की थकावट उतारने। 63 जन्म ढूँढ़ा, भटके। अब बापदादा मन की भी थकावट, तन की भी थकावट और धन के उलझन के कारण भी जो थकावट थी, वह उतार रहे हैं। सभी थक गये थे ना! बच्चे जो अति प्यारे होते हैं, उन्हों के लिए कहावत है - नयनों पर बिठाकर ले जाते हैं। तो इतने हल्के बने हो जो नयनों पर बिठाकर बाप ले जाये? लाइट (हल्के) हो ना? जब बाप बोझ उठाने के लिए तैयार है तो आप बोझ क्यों उठाते हो? बाप से स्नेह की निशानी है - सदा हल्के बन बाप की नजरों में समा जाओ। इतने लाइट जो नजरों में समा जाएँ! इस समय लाइट बनो तो 21 जन्म की गैरन्टी है - कभी-भी किसी भी प्रकार का बोझ आ नहीं सकता। अच्छा।

19 तारीख सत्गुरूवार प्रात: 6.30 बजे बापदादा ने क्लास में यादप्यार दी और विदाई ली।

सभी देश-विदेश के चारों तरफ सेवा में रहने वाले सेवाधारी बच्चों को सत्गुरूवार के वरदानी दिवस पर वरदाता और विधाता बाप की यादप्यार, गुडमोर्निंग, गोल्डनमॉर्निंग। सत्गुरू के इस शुभ दिवस पर सदा यह महामन्त्र याद रहे कि ‘‘महानता प्राप्त करना अर्थात् निर्मानता धारण करना। निर्मान ही सर्व महान् है। पहले आप' करना ही स्वमान सर्व से प्राप्त करने का आधार है।'' सत्गुरूवार के दिवस सत्गुरू से महान बनने का यह मन्त्र वरदान रूप में सदा साथ रखना और वरदानों से पलते, उड़ते मंजल पर पहुँचना। मेहनत तब करते हैं जबकि वरदानों को कार्य में नहीं लगाते। अगर वरदानों से पलते रहें, वरदानों को कार्य में लगाते रहें तो मेहनत समाप्त हो जायेगी। सदा सफलता, सदा सहज सन्तुष्टता का अनुभव करते और कराते रहेंगे। वरदानों से उड़ते चलो, वरदानों की पालना दो और वरदाता, विधाता से जो प्राप्ति की है, उसका प्रत्यक्षफल दिखाओ। यही सत्गुरू की श्रेष्ठ मत है वा श्रेष्ठ वरदान है। अच्छा। सर्व को यादप्यार।