30 - 01 - 88 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
हिम्मत का दूसरा कदम - ‘‘सहनशीलता''
(ब्रह्मा बाप की जीवन कहानी)
सर्व के स्नेही आलमाइटी अथार्टी बाप अपने महावीर बच्चें प्रति बोले
आज आलमाइटी अथार्टी बाप अपनी पहली श्रेष्ठ रचना को देख रहे हैं। पहली रचना ‘ब्राह्मणों' की रचना है। उसकी पहली रचना में भी पहला नम्बर ‘ब्रह्मा' को ही कहेंगे। पहली रचना का पहला नम्बर होने कारण ब्रह्मा को आदिदेव कहा जाता है। इसी नाम से इस आबू - पर्वत पर यादगार भी ‘आदि - देव' नाम से ही है। आदि - देव अर्थात् आदि - रचता भी कहा जाता और साथ - साथ आदि - देव अर्थात् नई सृष्टि के आदि का पहला नम्बर का देव है। पहली देव आत्मा श्रीकृष्ण के रूप में ब्रह्मा ही बनते हैं, इसलिए नई सृष्टि के आदि का आदि - देव कहा जाता है। संगमयुग में भी आदि रचना का पहला नम्बर अर्थात् आदि देव कहो वा ब्राह्मण आत्माओं के रचता ब्रह्मा कहो। तो संगम पर और सृष्टि के आदि पर - दोनों समय के आदि हैं, इसलिए आदि - देव कहा जाता है।
ब्रह्मा ही आदि कर्मातीत फरिश्ता बनता है। ब्रह्मा सो फरिश्ता और फरिश्ता सो देवता - सबमें नम्बरवन। ऐसा नम्बरवन क्यों बनें? किस विधि से नम्बरवन सिद्धि को प्राप्त किया? आप सभी ब्राह्मण आत्माओं को ब्रह्मा को ही फालो करना है। क्या फालो करना है? इसका पहला कदम - ‘‘समर्पणता'', यह तो पहले सुनाया है। पहले कदम में भी सब रूप से समर्पण बनके दिखाया। दूसरा कदम - ‘‘सहनशीलता''। जब समर्पण हुए तो बाप से सर्व श्रेष्ठ वर्सा तो मिला लेकिन दुनिया वालों से क्या मिला? सबसे ज्यादा गालियों की वर्षा किस पर हुई? चाहे आप आत्माओं को भी गालियाँ मिली या अत्याचार हुए लेकिन ज्यादा क्रोध वा गुस्सा ब्रह्मा को ही मिलता रहा। लौकिक जीवन में जो कभी एक अपशब्द भी नहीं सुना लेकिन ब्रह्मा बना तो अपशब्द सुनने में भी नम्बरवन रहा। सबसे ज्यादा सर्व के स्नेही जीवन व्यतीत की लेकिन जितना ही लौकिक जीवन में सर्व के स्नेही रहे, उतना ही अलौकिक जीवन में सर्व के दुश्मन रूप में बने। बच्चों के ऊपर अत्याचार हुआ तो स्वत: ही इन्डायरेक्ट बाप के ऊपर अत्याचार हुए। लेकिन सहनशीलता के गुण से वा सहनशीलता की धारणा से मुस्कराते रहे, कभी मुरझाये नहीं।
कोई प्रशंसा करे और मुस्कराये - इसको सहनशीलता नहीं कहते। लेकिन दुश्मन बन, क्रोधित हो अपशब्दों की वर्षा करे, ऐसे समय पर भी सदा मुस्कराते रहना, संकल्पमात्र भी मुरझाने का चिह्न चेहरे पर न हो। इसको कहा जाता है - सहनशील। दुश्मन आत्मा को भी रहमदिल भावना से देखना, बोलना, सम्पर्क में आना। इसको कहते हैं सहनशीलता। स्थापना के कार्य में, सेवा के कार्य में कभी छोटे, कभी बड़े तूफान आये। जैसे यादगार शास्त्रों में महावीर हनुमान के लिए दिखाते हैं कि इतना बड़ा पहाड़ भी हथेली पर एक गेंद के समान ले आया। ऐसे, कितनी भी बड़ी पहाड़ समान समस्या हो, तूफान हो, विघ्न हो लेकिन पहाड़ अर्थात् बड़ी बात को छोटा - सा खिलौना बनाए खेल की रीति से सदा पार किया वा बड़ी भारी बात को सदा हल्का बनाए स्वयं भी हल्के रहे और दूसरों को भी हल्का बनाया। इसको कहते हैं - सहनशीलता। छोटे से पत्थर को पहाड़ नहीं लेकिन पहाड़ को गेंद बनाया। विस्तार को सार में लाना, यह है सहनशीलता। विघ्नों को, समस्या को अपने मन में वा दूसरों को आगे विस्तार करना अर्थात् पहाड़ बनाना है। लेकिन विस्तार में न जाये, ‘नथिंग न्यू' के फुल स्टाप से बिन्दी लगाए बिन्दी बन आगे बढ़े - इसको कहते हैं विस्तार को सार में लाना। सहनशील श्रेष्ठ आत्मा सदा ज्ञान - योग के सार में स्थित हो ऐसे विस्तार को, समस्या को, विघ्नों को भी सार में ले आती है जैसे ब्रह्मा बाप ने किया। जैसे लम्बा रास्ता पार करने में समय, शक्तियाँ समाप्त हो जाती अर्थात् ज्यादा यूज होतीं। ऐसे ‘विस्तार' है लम्बा रास्ता पार करना और ‘सार' है शार्टकट रास्ता पार करना। पार दोनों ही करते हैं लेकिन शार्टकट करने वाले समय और शक्तियों की बचत होने कारण निराश नहीं होते, दिलशिकस्त नहीं होते, सदा मौज में मुस्कराते पार करते हैं। इसको कहा जाता है - सहनशीलता।
सहनशीलता की शक्ति वाला कभी घबरायेगा नहीं कि क्या ऐसा भी होता है क्या! सदा सम्पन्न होने कारण ज्ञान की, याद की गहराई में जायेगा। घबराने वाला कभी गहराई में नहीं जा सकता। सार वाला सदा भरपूर होता है, इसलिए भरपूर, सम्पन्न चीज़ की गहराई होती है। विस्तार वाला खाली होता है, इसलिए खाली चीज़ सदा उछलती रहती है। तो विस्तार वाला यह क्यों, यह क्या, ऐसा नहीं वैसा, ऐसा होना नहीं चाहिए... ऐसे संकल्पों में भी उछलता रहेगा और वाणी में भी सबके आगे उछलता रहेगा। और जो हद से ज्यादा उछलता है तो क्या होगा? हाँफता रहेगा। स्वयं ही उछलता, स्वयं ही हाँफता और स्वयं ही फिर थकता। सहनशील इन सब बातों से बच जाता है। इसलिए सदा मौज में रहता, उछलता नहीं, उड़ता है।
दूसरा कदम - सहनशीलता। यह ब्रह्मा बाप ने चल करके दिखाया। सदा अटल, अचल, सहज स्वरूप में मौज से रहे, मेहनत से नहीं। इसका अनुभव 14 वर्ष तपस्या करने वाले बच्चों ने किया। 14 वर्ष महसूस हुए या कुछ घड़ियाँ लगीं? मौज से रहे या मेहनत लगी? वैसे स्थूल मेहनत का पेपर भी खूब लिया। कहाँ नाज़ से पलने वाले और कहाँ गोबर के गोले भी बनवाये, मैकेनिक (mechanic) भी बनाया। चप्पल भी सिलवाई! मोची भी बनाया ना। माली भी बनाया। लेकिन मेहनत लगी या मौज लगी? सब कुछ पार किया लेकिन सदा मौज की जीवन का अनुभव रहा। जो मूँझे, वह भाग गये और जो मौज में रहे वह अनेकों को मौज की जीवन का अनुभव करा रहे हैं। अभी भी अगर वही 14 वर्ष रिपीट करें तो पसन्द है ना। अभी तो सेन्टर पर अगर थोड़ा - सा स्थूल काम भी करना पड़ता तो सोचते हैं - इसीलिए संन्यास किया, क्या हम इस काम के लिए हैं? मौज से जीवन जीना - इसको ही ब्राह्मण जीवन कहा जाता है। चाहे स्थूल साधारण काम हो, चाहे हजारों की सभा बीच स्टेज पर स्पीच करनी हो - दोनों मौज से करें। इसको कहा जाता - मौज की जीवन जीना। मूँझे नहीं - हमने तो समझा नहीं था कि सरेन्डर होना अर्थात् यह सब करना होगा, मैं तो टीचर बनकर आई हूँ, स्थूल काम करने के लिए थोड़े ही संन्यास किया है, क्या यही ब्रह्माकुमारी जीवन होती है? इसको कहते हैं - मूँझने वाली जीवन।
ब्रह्माकुमारी बनना अर्थात् दिल की मौज में रहना, न कि स्थूल मौजों में रहना। दिल की मौज से किसी भी परिस्थिति में, किसी भी कार्य में मूँझने को मौज में बदल देंगे और दिल के मूँझने वाले, श्रेष्ठ साधन होते भी, स्पष्ट बात होते भी सदा स्वयं मूँझे हुए होने के कारण स्पष्ट बात को भी मूँझा देगा, अच्छे साधन होते हुए भी साधनों से मौज नहीं ले सकेंगे। यह कैसे होगा, ऐसा नहीं ऐसा होगा - इसमें खुद भी मूँझेगा, दूसरे को भी मूँझा देगा। जैसे कहते हैं ना - ‘सूत मूँझ जाता है तो मुश्किल ही सुधरता है।' अच्छी बात में भी मूँझेगा तो घबराने वाली बात में भी मूँझेगा। क्योंकि वृत्ति मूँझी हुई है, मन मूँझा हुआ है तो स्वत: ही वृत्ति का प्रभाव दृष्टि पर और दृष्टि के कारण सृष्टि भी मूँझी हुई दिखाई देगी। ब्रह्माकुमारी जीवन अर्थात् ब्रह्मा बाप समान मौज की जीवन। लेकिन इसका आधार है ‘सहनशीलता'। तो सहनशीलता की इतनी विशेषता है! इसी विशेषता के कारण ब्रह्मा बाप सदा अटल, अचल रहे।
दो प्रकार के सहनशीलता के पेपर सुनाये। पहला पेपर - लोगों द्वारा अपशब्द वा अत्याचार। दूसरा - यज्ञ की स्थापना में भिन्न - भिन्न आये हुए विघ्न। तीसरा - कई ब्राह्मण बच्चों द्वारा भी ट्रेटर होना वा छोटी - मोटी बातों में असन्तुष्टता का सामना करना। लेकिन इसमें भी सदा असन्तुष्ट को सन्तुष्ट करने की भावना से परवश समझ सदा कल्याण की भावना से, सहनशीलता की साइलेन्स पावर से हर एक को आगे बढ़ाया। सामना करने वाले को भी मधुरता और शुभ भावना, शुभ कामना से सहनशीलता का पाठ पढ़ाया। जो आज सामना करता और कल क्षमा मांगता, उनके मुख से भी यही बोल निकलते - ‘बाबा तो बाबा है!' इसको कहा जाता है सहनशीलता द्वारा फेल को भी पास बनाए विघ्न को पास करना। तो दूसरा कदम सुना। किसलिए? कदम - पर - कदम रखो। इसको कहा जाता है - फालो फादर अर्थात् बाप समान बनना। बनना है या सिर्फ दूर से देखना है? बहादुर हो ना? पंजाब और महाराष्ट्र दोनों ही बहादुर हो। सब बहादुर हैं। देश - विदेश के सभी अपने को महावीर कहते हैं। किसी को भी प्यादा कहा तो मानेगा? इससे सिद्ध है कि सभी अपने को महावीर समझते हैं। महावीर अर्थात् बाप समान बनना। समझा? अच्छा!
देश - विदेश के सर्व बाप समान, सदा बुद्धि से समार्पित आत्माओं को, सदा हर परिस्थिति में हर व्यक्ति से सहनशील बनकर हर बड़ी बात को छोटा कर सहज पार करने वाले, सदा विस्तार को सार रूप में सार में लाने वाले, सदा ब्राह्मण जीवन मौज की जीवन जीने वाले, ऐसे बाप समान बनने वाले महावीर श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का ‘समान भव' की स्नेह सम्पन्न यादप्यार और नमस्ते।''
पार्टियों से मुलाकात
कुमारों से –
1. कुमारों की विशेषता क्या है? कुमार जीवन श्रेष्ठ जीवन है क्योंकि पवित्र जीवन है। और जहाँ पवित्रता है, वहाँ महानता है। कुमार अर्थात् शक्तिशाली, जो संकल्प करें वह कर सकते हैं। कुमार अर्थात् सदा बन्धनमुक्त बनने और बनाने वाले। ऐसी विशेषतायें हैं ना? जो संकल्प करो वही कर्म में ला सकते हो। स्वयं भी पवित्र रह औरों को भी पवित्र रहने का महत्व बता सकते हो। ऐसी सेवा के निमित्त बन सकते हो। जो दुनिया वाले असम्भव समझते हो वह ब्रह्माकुमार चैलेन्ज करते हैं - तो हमारे जैसा पावन कोई हो नहीं सकता, क्यों? क्योंकि बनाने वाला सर्वशक्तिवान है। दुनिया वाले कितना भी प्रयत्न करते हैं लेकिन आप जैसे पावन बन नहीं सकते। आप सहज ही पावन बन गये। सहज लगता है ना? या दुनिया वाले जैसे कहते हैं - यह अननैचुरल है, ऐसे लगता है? कुमारों की परिभाषा ही है - ‘चैलेन्ज करने वाले, परिवर्तन कर दिखाने वाले, असम्भव को सम्भव करने वाले'। दुनिया वाले अपने साथियों को संग के दोष में ले जाते हैं और आप बाप के संग में ले आते हो। उन्हें अपना संग नहीं लगाते, बाप के संग का रंग लगाते हो, बाप समान बनाते हो। ऐसे हो ना? अच्छा!
2. कुमार अर्थात् सदा अचल - अडोल, कैसी भी परिस्थिति आ जाए लेकिन डगमग होने वाले नहीं। क्योंकि आपका साथी स्वयं बाप है। जहाँ बाप है, वहाँ सदा ही अचल - अडोल होंगे। जहाँ सर्वशक्तिवान होगा वहाँ सर्व शक्तियाँ होंगी। सर्वशक्तियों के आगे माया कुछ कर नहीं सकती। इसलिए कुमार जीवन अर्थात् सदा एकरस स्थिति वाले, हलचल में आने वाले नहीं। जो हलचल में आता है, वह अविनाशी राज्य - भाग्य भी नहीं पा सकता, थोड़ा - सा सुख मिल जायेगा लेकिन सदा का नहीं। इसलिए कुमार जीवन अर्थात् सदा अचल, एकरस स्थिति में स्थित रहने वाले। तो एकरस स्थिति रहती है या दूसरे रसों में बुद्धि जाती है? सब रस एक बाप द्वारा अनुभव करने वाले - इसको कहते हैं एकरस अर्थात् अचल - अडोल। ऐसा एकरस स्थिति वाला बच्चा ही बाप को प्यारा लगता है। तो यही सदा याद रखना कि हम अचल - अडोल आत्मायें एकरस स्थिति में रहने वाली हैं।
माताओं से: -
1) माताओं के लिए बापदादा ने सहज मार्ग कौन सा बताया है जिससे सहज ही बाप की याद का अनुभव कर सको, मेहनत न करनी पड़े? याद को भी सहज बनाने का साधन क्या है? दिल से कहो - ‘‘मेरा बाबा''। जहाँ मेरा कहते हो वहाँ सहज याद आती है। सारे दिन में, जो मेरा है वही याद आता है ना। कोई भी मेरा हो - चाहे व्यक्ति, चाहे वस्तु... जहाँ मेरा - पन होगा वही याद आयेगा। ऐसे यदि बाप को मेरा कहते हो, मेरा समझते हो तो बाप की याद आयेगी। तो बाप को याद करने का सहज तरीका है - दिल से कहो ‘‘मेरा बाबा''। सिर्फ मुख से मेरा - मेरा नहीं करना, अधिकार से कहना। यही सहज पुरूषार्थ कर आगे बढ़ते चलो। सदा ही इस विधि से सहजयोगी बनो। मेरा कहो और बाप के खज़ानों के मालिक बनो।
2) मातायें सदा अपने को पद्मापद्म भाग्यवान समझती हो? घर बैठे बाप मिला तो कितना बड़ा भाग्य है! दुनिया वाले बाप को ढूँढने के लिए निकलते हैं और आपको घर बैठे मिल गया। तो इतना बड़ा भाग्य प्राप्त होगा - ऐसे कभी संकल्प में भी सोचा था? यह जो गायन है ‘‘घर बैठे भगवान मिला''.. यह किसके लिए है? आपके लिए है ना। तो इसी श्रेष्ठ भाग्य को स्मृति में रख आगे बढ़ते चलो। ‘वाह मेरा श्रेष्ठ भाग्य' - यह खुशी के गीत गाते रहो। खुशी के झूले में झूलते रहो। खुशी में नाचो - गाओ।
3) शक्तियों को सदा कौन - सी खुशी रहती है।? सदा बाप के साथ कम्बाइण्ड हूँ। शिव शक्ति का अर्थ ही है कम्बाइण्ड। बाप और आप - दोनों का मिलाकर कहते हैं - ‘शिव - शक्ति'। तो जो कम्बाइण्ड है, उसे कोई अलग नहीं कर सकता। ऐसी खुशी रहती है? निर्बल आत्मा को बाप ने शक्ति बना दिया। तो यही सदा याद रखो कि हम कम्बाइण्ड रहने के अधिकारी बन गये। पहले ढूँढने वाले थे और अभी साथ रहने वाले हैं - यह नशा सदा रहे। कितना भी माया कोशिश करे लेकिन शिव - शक्ति के आगे माया कुछ कर नहीं सकती। अलग रहते हो तो माया आती है, कम्बाइण्ड रहो तो माया आ नहीं सकती। तो यही वरदान सदा याद रखना कि - ‘हम कम्बाइण्ड रहने वाली शिव - शक्तियाँ विजयी हैं।' अच्छा!