03 - 03 - 88   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


होली कैसे मनायें तथा सदाकाल का परिवर्तन कैसे हो?

दो प्रकार के महारथी बच्चों को सदाकाल का परिवर्तन न होने का कारण और निवारण की युक्तियाँ बताते हुए हाइएस्ट होलीएस्ट शिवाबाबा बोले

आज सर्व के भाग्यविधाता बाप अपने होलीहंसों से ज्ञान रत्नों की होली मनाने आये हैं। मनाना अर्थात् मिलन मनाना। बापदादा हर एक अति स्नेही, सहजयोगी, सदा बाप के कार्य में सहयोगी, सदा पावन वृत्ति से, पावन दृष्टि से सृष्टि को परिवर्तन करने वाले सर्व होली बच्चों को देख सदा हर्षित होते हैं। पावन तो आजकल के गाये हुए महात्मायें भी बनते हैं लेकिन आप श्रेष्ठ आत्मायें हाइएस्ट होली बनते हो अर्थात् संकल्प - मात्र, स्वप्न मात्र भी अपवित्रता वृत्ति को, दृष्टि को पावन स्थिति से नीचे नहीं ला सकती। हर संकल्प अर्थात् स्मृति पावन होने के कारण वृत्ति, दृष्टि स्वत: ही पावन हो जाती है। न सिर्फ आप पावन बनते हो लेकिन प्रकृति को भी पावन बना देते हो। इसलिए पावन प्रकृति के कारण भविष्य अनेक जन्म शरीर भी पावन मिलते हैं। ऐसे होलीहंस वा सदा पावन संकल्पधारी श्रेष्ठ आत्मायें बन जाती हो। ऊँचे - ते - ऊँचा बाप हर बात में श्रेष्ठ जीवन वाले बनाते हैं। पवित्रता भी ऊँचे - ते - ऊँची पवित्रता, साधारण नहीं। साधारण पवित्र आत्मायें आप महान पवित्र आत्माओं के आगे मन से मानने का नमस्कार करेंगे कि आपकी पवित्रता अति श्रेष्ठ है। आजकल के गृहस्थी अपने को अपवित्र समझने के कारण जिन पवित्र आत्माओं को महान समझकर सिर झुकाते हैं, वह महान आत्मायें कहलाने वाली आप श्रेष्ठ पावन आत्माओं के आगे मानेंगी कि आपकी पवित्रता और हमारी पवित्रता में महान अन्तर है।

यह होली का उत्सव आप पावन आत्माओं के पावन बनने की विधि का यादगार है। क्योंकि आप सभी नम्बरवार पावन आत्मायें बाप के याद की लग्न की अग्नि द्वारा सदा के लिए अपवित्रता को जला देते हो। इसलिए पहले जलाने की होली मनाते हैं, फिर रंग की होली वा मंगल - मिलन मनाते हैं। जलाना अर्थात् नाम - निशान समाप्त करना। वैसे किसको नाम - निशान से खत्म करना होता है तो क्या करते हो? जला देते हैं। इसलिए रावण को भी मारने के बाद जला देते हैं। यह आप आत्माओं का यादगार है। अपवित्रता को जला दिया अर्थात् पावनहोली' बन गये। बापदादा सदैव सुनाते ही हैं कि ब्राह्मणों का होली मनाना अर्थात् होली (पवित्र) बनाना। तो यह चेक करो कि अपवित्रता को सिर्फ मारा है या जलाया है? मरने वाले फिर भी जिन्दा हो जाते हैं, कहाँ - न - कहाँ श्वाँस छिपा रह जाता है। लेकिन जलना अर्थात् नाम - निशान समाप्त करना। कहाँ तक पहुँचे हैं, अपने आप को चेक करना पड़े। स्वप्न में भी अपवित्रता का छिपा हुआ श्वाँस फिर से जीवित नहीं होना चाहिए। इसको कहते हैं - श्रेष्ठ पावन आत्मा। संकल्प से स्वप्न भी परिवर्तित हो जाते हैं।

आज वतन में बापदादा बच्चों के समय - प्रति - समय संकल्प द्वारा वा लिखित द्वारा बाप से किये हुए वायदे देख रहे थे। चाहे स्थिति में महारथी, चाहे सेवा में महारथी - दोनों के समय - प्रति - समय के वायदे बहुत अच्छे - अच्छे किये हुए हैं। महारथी भी दो प्रकार के हैं। एक हैं अपने वरदान वा वर्से की प्राप्ति के पुरूषार्थ के आधार से महारथी और दूसरे हैं कोई न कोई सेवा की विशेषता के आधार से महारथी। कहलाते दोनों ही महारथी हैं लेकिन जो पहला नम्बर सुनाया - स्थिति के आधार वाले, वह सदा मन से अतीन्द्रिय सुख के, सन्तुष्टता के, सर्व के दिल के स्नेह के प्राप्ति स्वरूप के झूले में झूलते रहते हैं। और दूसरा नम्बर सेवा की विशेषता के आधार वाले तन से अर्थात् बाहर से सेवा की विशेषता के फलस्वरूप सन्तुष्ट दिखाई देंगे। सेवा की विशेषता के कारण सेवा के आधार पर मन की सन्तुष्टता है। सेवा की विशेषता - कारण सर्व का स्नेह भी होगा लेकिन मन से वा दिल से सदा नहीं होगा। कभी बाहर से, कभी दिल से। लेकिन सेवा की विशेषता महारथी बना देती है। गिनती में महारथी की लाइन में आता है।

तो आज बापदादा महारथी वा पुरूषार्थी - दोनों के वायदे देख रहे थे। अभी - अभी नजदीक में वायदे बहुत किये हैं। तो क्या देखा? वायदे से फायदा तो होता है क्योंकि दृढ़ता का फल अटेन्शन' रहता है। बार - बार वायदे की स्मृति समर्थी दिलाती है। इस कारण थोड़ा बहुत परिवर्तन भी होता है। लेकिन बीज दबा हुआ रहता है। इसलिए जब ऐसा समय वा समस्या आती है तो समस्या' वा कारण' का पानी मिलने से दबा हुआ बीज फिर से पत्ते निकलना शुरू कर देता है। सदा के लिए समाप्त नहीं होता है। बापदादा देख रहे थे - जलाने की होली किन्हों ने मनाई जब बीज को जलाया जाता है तो जला हुबा बीज कभी फल नहीं देता। वायदे तो सभी ने किये कि बीती को बीती कर जो अब तक हुआ, चाहे अपने प्रति, चाहे औरों के प्रति - सर्व को समाप्त कर परिवर्तन करेंगे। सभी ने अभी - अभी वायदे किये हैं ना। रूह - रूहान में सभी वायदे करते हैं ना। हर एक का रिकार्ड बापदादा के पास है। बहुत अच्छे रूप से वायदे करते हैं। कोई गीतकविता द्वारा, कोई चित्रों द्वारा।

बापदादा देख रहे थे जितना चाहते हैं, उतना परिवर्तन क्यों नहीं होता? कारण क्या है, क्यों नहीं सदा के लिए समाप्त हो जाता है, तो क्या देखा? अपने प्रति वा दूसरों के प्रति संकल्प करते हो कि यह कमज़ोरी फिर आने नहीं देगें वा दूसरे के प्रति सोचते हो कि जो भी किसी आत्मा के प्रति संस्कार के कारण वा हिसाब - किताब चुक्तू होने के कारण जो भी संकल्प में वा बोल में वा कर्म में संस्कार टकराते हैं, उनका परिवर्तन करेंगे। लेकिन समय पर फिर से क्यों रिपीट होता है? उसका कारण? सोचते हो कि आगे से इस आत्मा के इस संस्कार को जानते हुए स्वयं को सेफ रख उस आत्मा को भी शुभ भावना - शुभ कामना देंगे लेकिन जैसे दूसरे की कमज़ोरी देखने, सुनने वा ग्रहण करने की आदत नैचरल और बहुतकाल की हो गई है, उसके बदले नहीं रखेंगे - यह तो बहुत अच्छा, लेकिन उसके स्थान पर क्या देखेंगे, क्या उस आत्मा से ग्रहण करेंगे - वह बारबार अटेन्शन में नहीं रखते। यह नहीं करना है - यह याद रहता है लेकिन ऐसी आत्माओं के प्रति क्या करना है, सोचना है, देखना - वह बातें नैचरल अटेन्शन में नहीं रहती। जैसे कोई स्थान खाली रहता, उसको अच्छे रूप से यूज नहीं करते तो खाली स्थान में फिर भी किचड़ा या मच्छर आदि स्वत: ही पैदा हो जाते। क्योंकि वायुमण्डल में मिट्टी - धूल, मच्छर है ही; तो वह फिर से थोड़ा - थोड़ा करके बढ़ जाता है। जगह भरनी चाहिए। जब भी आत्माओं के सम्पर्क में आते हो, पहले नैचरल परिवर्तन किया हुआ श्रेष्ठ संकल्प का स्वरूप स्मृति में आना चाहिए। क्योंकि नॉलेजफुल तो हो ही जाते हो। सभी के गुण, कर्त्तव्य, संस्कार, सेवा, स्वभाव परिवर्तन के शुभ संस्कार वा स्थान सदा भरपूर होगा तो अशुद्ध को स्वत: ही समाप्त कर देगा।

जैसे सुनाया था - कई बच्चे जब याद में बैठते हैं वा ब्राह्मण जीवन में चलते - फिरते याद का अभ्यास करते हैं तो याद में शान्ति का अनुभव करते हैं लेकिन खुशी का अनुभव नहीं करते। सिर्फ शान्ति की अनुभूति कभी माथा भारी कर देती है और कभी निद्रा के तरफ ले जाती है। शान्ति की स्थिति के साथ खुशी नहीं रहती। तो जहाँ खुशी नहीं, वहाँ उमंग - उत्साह नहीं होता और योग लगाते भी अपने से सन्तुष्ट नहीं होते, थके हुए रहते हैं। सदा सोच की मूड में रहते, सोचते ही रहते। खुशी क्यों नहीं आती, इसका भी कारण है। क्योंकि सिर्फ यह सोचते हो कि मैं आत्मा हूँ, बिन्दु हूँ, ज्योतिस्वरूप हूँ, बाप भी ऐसा ही है। लेकिन मैं कौन - सी आत्मा हूँ! मुझ आत्मा की विशेषता क्या है? जैसे मैं पद्मापद्म भाग्यवान आत्मा हूँ, मैं आदि रचना वाली आत्मा हूँ, मैं बाप के दिलतख्तनशीन होने वाली आत्मा हूँ। यह विशेषतायें जो खुशी दिलाती है, वह नहीं सोचते हो। सिर्फ बिन्दी हूँ, ज्योति हूँ, शान्तस्वरूप हूँ - तो निल में चले जाते हो। इसलिए माथा भारी हो जाता है। ऐसे ही जब स्वयं के प्रति वा अन्य आत्माओं के प्रति परिवर्तन का दृढ़ संकल्प करते हो तो स्वयं प्रति वा अन्य आत्माओं के प्रति शुभ, श्रेष्ठ संकल्प वा विशेषता का स्वरूप सदा इमर्ज रूप में रखो तो परिवर्तन हो जायेगा।

जैसे यह संकल्प आता है कि यह है ही ऐसा, यह होगा ही ऐसा, ये करता ही ऐसे है। इसको बजाये यह सोचो कि यह विशेषता प्रमाण विशेष ऐसा है। जैसे कमज़ोरी का ऐसा' और वैसा' आता है, वैसे श्रेष्ठता वा विशेषता काऐसा'‘वैसा' है - यह सामने लाओ। स्मृति को, स्वरूप को, वृत्ति को, दृष्टि को परिवर्तन में लाओ। इस रूप से स्वयं को भी देखो और दूसरों को भी देखो। इसको कहते है स्थान भर दिया, खाली नहीं छोड़ा। इस विधि से जलाने की होली मनाओ। अपने प्रति वा दूसरों के प्रति ऐसे कभी नहीं सोचो कि देख हमने कहा था ना कि यह बदलने वाले हैं ही नहीं।' लेकिन उस समय अपने से पूछो किमैं क्या बदला हूँ?' स्व परिवर्तन ही औरों का भी परिवर्तन सामने लायेगा। हर एक यह सोचो कि पहले मैं बदलने का एग्जाम्पल बनूँ।' इसको कहते हैं होली जलाना। जलाने के बिना मनाना नहीं होता, पहले जलाना ही होता है। क्योंकि जब जला दिया अर्थात् स्वच्छ हो गये, श्रेष्ठ पवित्र बन गये। तो ऐसी आत्मा को स्वत: ही बाप के संग का रंग सदा लगा हुआ ही रहता है। सदा ही ऐसी आत्मा बाप से वा सर्व आत्माओं से मंगल - मिलन अर्थात् कल्याणकारी श्रेष्ठ शुभ मिलन मनाती ही रहती है। समझा?

ऐसी होली मनानी है ना। जहाँ उमंग - उत्साह होता है, वहाँ हर घड़ी उत्सव है ही है। तो खुशी से खूब मनाओ, खेले - खाओ, मौज करो लेकिन सदा होली बन मिलन मनाते रहो। अच्छा!

सदा हर सेकण्ड बाप द्वारा वरदान की मुबारक लेने वाले, सदा हर ब्राह्मण आत्मा द्वारा शुभ भावना की मुबारक लेने वाले, सदा अति श्रेष्ठ पावन आत्माओं को, सदा संग के रंग में रंगी हुई आत्माओं को, सदा बाप से मिलन मनाने वाली आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।

पर्सनल मुलाकात के समय वरदान के रूप में उच्चारे हुए महावाक्य

1. सदा अपने को बाप की याद की छत्रछाया में रहने वाली श्रेष्ठ आत्मा अनुभव करते हो? छत्रछाया ही सेफ्टी का साधन है। इस छत्रछाया से संकल्प में भी अगर पाँव बाहर निकलाते हो तो क्या होगा? रावण उठाकर ले जायेगा और शोक वाटिका में बिठा देगा। तो वहाँ तो जाना नहीं है। सदा बाप की छत्रछाया में रहने वाली, बाप की स्नेही आत्मा हूँ - इसी अनुभव में रहो। इसी अनुभव से सदा शक्तिशाली बन आगे बढ़ते रहेंगे।

2. सदा अपने को बापदादा की नजरों में समाई हुई आत्मा अनुभव करते हो? नयनों में समाई हुई आत्मा का स्वरूप क्या होगा? आँखों में क्या होता है? बिन्दी। देखने की सारी शक्ति बिन्दी में है ना। तो नयनों में समाई हुई अर्थात् सदा बिन्दी स्वरूप में स्थित रहने वाली - ऐसा अनुभव होता है ना! इसको ही कहते हैं - नूरे रत्न'। तो सदा अपने को इस स्मृति से आगे बढ़ाते रहो। सदा इसी नशे में रहो कि मैं नूरे रत्न' आत्मा हूँ।