19 - 03 - 88 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
‘याद' में रमणीकता लाने की युक्तियाँ
अपने श्रेष्ठ कर्मों की विधि से विधान का निर्माण करने वाले, सदा सेवा के उमंग उत्साह में रहने वाले बच्चों को ईश्वरीय सिद्धान्तों का महत्त्व सुनाते हुए विधाता बापदादा बोले
आज विधाता, वरदाता बापदादा अपने मास्टर विधाता, वरदाता बच्चों को देख रहे हैं। हर एक बच्चा विधाता भी बने हो तो वरदाता भी बने हो। साथ - साथ बापदादा देख रहे थे कि बच्चों का मर्तबा कितना महान है, इस संगमयुग के ब्राह्मण जीवन का कितना महत्व है! विधाता, वरदाता के साथ विधि - विधाता भी आप ब्राह्मण हो। आपकी हर विधि सतयुग में कैसे परिवर्तित होती है - वह पहले सुनाया है। इस समय के हर कर्म की विधि भविष्य में चलती ही है लेकिन द्वापर के बाद भी भक्तिमार्ग में इस समय के श्रेष्ठ कर्मों की विधि भक्तिमार्ग की विधि बन जाती है। तो पूज्य रूप में भी इस समय की विधि जीवन के श्रेष्ठ विधाता के रूप में चलती है और पुजारी मार्ग अर्थात् भक्तिमार्ग में भी आपकी हर विधि नीति व रीति में चलती आती है। तो विधाता, वरदाता और विधि - विधाता भी हो।
आपके मूल सिद्धान्त सिद्धि प्राप्त होने के साधन बन जाते हैं। जैसे मूल सिद्धान्त - ‘‘बाप एक है। धर्म - आत्मायें, महान - आत्मायें अनेक हैं लेकिन परम - आत्मा एक है''। इसी मूल सिद्धान्त द्वारा आधा कल्प आप श्रेष्ठ आत्माओं को एक बाप के द्वारा प्राप्त हुआ वर्सा सिद्धि के रूप में प्राप्त होता है। प्रालब्ध मिलना अर्थात् सिद्धि स्वरूप बनना। क्योंकि एक बाप है, बाकी महान - आत्मायें वा धर्म - आत्मायें हैं, बाप नहीं है, भाई - भाई हैं। वर्सा बाप से मिलता है, भाई से नहीं मिलता। तो इस मूल सिद्धान्त द्वारा आधा कल्प आपको सिद्धि प्राप्त होती है और भक्ति में भी ‘गॉड इस वन' - यही सिद्धान्त सिद्धि प्राप्त करने का आधार बनता है। भक्ति का आदि आधार भी एक बाप के ‘शिवालिंग' रूप से आरम्भ होता है जिसको कहा जाता है - ‘अव्यभिचारी भक्ति'। तो भक्तिमार्ग में भी इसी एक सिद्धान्त द्वारा ही सिद्धि प्राप्त होती है कि ‘बाप एक है'। ऐसे, जो भी आपके मूल सिद्धान्त है, उस एक - एक सिद्धान्त द्वारा सिद्धि प्राप्त होती रहती है। जैसे इस जीवन का मूल सिद्धान्त ‘पवित्रता' है। इस पवित्रता के सिद्धान्त द्वारा आप आत्माओं के भविष्य में सिद्धि स्वरूप के रूप में लाइट का ताज सदा ही प्राप्त है जिसका यादगार - रूप डबल ताज दिखाते हैं और भक्ति में भी जब भी यथार्थ और दिल से भक्ति करेंगे तो पवित्रता के सिद्धान्त को मूल आधार समझेंगे और समझते हैं कि सिवाए पवित्रता के भक्ति की सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती है। चाहे अल्पकाल के लिए, जितना समय भक्ति करते हैं, उतना समय ही पवित्रता को अपनायें लेकिन ‘पवित्रता ही सिद्धि का साधन है' - इस सिद्धान्त को अपनाते अवश्य हैं। इसी प्रकार से हर एक ज्ञान का सिद्धान्त वा धारणा का मूल सिद्धान्त बुद्धि से सोचे कि हर एक सिद्धान्त सिद्धि का साधन कैसे बनता है? यह मनन करने का काम दे रहे हैं। जैसे दृष्टान्त सुनाया, इसी प्रकार से सोचना।
तो आप विधि - विधाता भी बनते हो, सिद्धि - दाता भी बनते हो। इसलिए आज तक भी जिन भक्तों को जो - जो सिद्धि चाहिए, वो भिन्न - भिन्न देवताओं द्वारा भिन्न - भिन्न सिद्धि प्राप्त करने के लिए, उन्हीं देवताओं की पूजा करते हैं। तो सिद्धि - दाता बाप द्वारा आप भी सिद्धि - दाता बनते हो - ऐसा अपने को समझते हो ना। जिनको स्वयं सर्व सिद्धियाँ प्राप्त है, वहीं औरों को भी सिद्धि प्राप्त कराने के निमित्त बन सकते हैं। सिद्धि खराब चीज़ नहीं है। क्योंकि आपकी रिद्धि - सिद्धि नहीं है। रिद्धि - सिद्धि जो होती है वह अल्पकाल के लिए प्रभावशाली होती है। लेकिन आपकी यथार्थ विधि द्वारा सिद्धि है। ईश्वरीय विधि द्वारा जो सिद्धि प्राप्त होती है, वह सिद्धि भी ईश्वरीय सिद्धि है। जैसे ईश्वर अविनाशी है, तो ईश्वरीय विधि और सिद्धि भी अविनाशी है। रिद्धि - सिद्धि दिखाने वाले स्वयं भी अल्पज्ञ आत्मा हैं, उन्हों की सिद्धि भी अल्पकाल की है। लेकिन आपकी सिद्धि, सिद्धान्त की विधि द्वारा सिद्धि है। इसलिए आधाकल्प स्वयं सिद्धिस्वरूप बनते हो और आधा कल्प आपके सिद्धान्त द्वारा भक्त आत्मायें यथा - शक्ति, तथा - फल की प्राप्ति वा सिद्धि की प्राप्ति करते आते हैं। क्योंकि भक्ति की शक्ति भी समय प्रमाण कम होती आती है। सतोप्रधान भक्ति की शक्ति, भक्त आत्माओं को सिद्धि की अनुभूति आजकल के भक्तों से ज्यादा कराती है। इस समय की भक्ति तमोप्रधान भक्ति होने के कारण न यथार्थ सिद्धान्त रहा है ना सिद्धि रही है।
तो इतना नशा रहता है कि हम कौन हैं! सदा इस श्रेष्ठ स्वमान के स्थिति की सीट पर सेट रहते हो? कितनी ऊँची सीट है! जब इस स्थिति की सीट पर सेट (स्थिर) रहते हो तो बार - बार अपसेट (अस्थिर) नहीं होंगे। यह पोजीशन है ना। कितना बड़ा पोजीशन है - विधि - विधाता, सिद्धि - दाता! तो जब इस पोजीशन में स्थित होंगे तो माया आपोजीशन नहीं करेंगी। सदा ही सेफ रहेंगे। अपसेट होने का कारण ही यह है कि अपनी श्रेष्ठ स्थिति की सीट से साधारण स्थिति में आ जाते हो। याद में रहना वा सेवा करना एक साधारण दिनचर्या बन जाती है। लेकिन याद में भी बैठते हो तो अपने कोई - न - कोई श्रेष्ठ स्वमान की सीट पर बैठो। सिर्फ ऐसे नहीं कि याद के स्थान पर चाहे योग के कमरे में, चाहे बाप के कमरे में, बैड (बिस्तर) से उठकर वा सारे दिन में जाकर बैठ गये लेकिन जैसे शरीर को योग्य स्थान देते हो, वैसे पहले बुद्धि को स्थिति का स्थान दो। पहले यह चैक करो कि बुद्धि को स्थान ठीक दिया? तो ईश्वरीय नशा सीट से स्वत: ही आता है। आजकल भी ‘कुर्सी का नशा' कहते हैं ना! आपका तो श्रेष्ठ स्थिति का आसन है। कभी ‘मास्टर बीजरूप' की स्थिति के स्थान पर, सीट पर सेट हो, कभी ‘अव्यक्त फरिश्ते' की सीट पर सेट हो, कभी ‘विश्वकल् याणकारी स्थिति' की सीट पर सेट हो - ऐसे हर रोज भिन्न - भिन्न स्थिति के आसन पर व सीट पर सेट होकर बैठो।
अगर किसी को भी सीट सेट नहीं होती है तो हलचल करते हैं ना - कभी ऐसा करेंगे, कभी वैसा करेंगे! तो यह बुद्धि भी हलचल में तब आती है जब सीट पर सेट नहीं होते। जानते तो सब हैं कि हम यह - यह हैं। अगर अभी ये पूछें कि आप कौन हैं, तो लम्बी लिस्ट अच्छी निकल आयेगी। लेकिन हर समय जो जानते हो, वह अपने को मानो। सिर्फ जानों नही, मानो। क्योंकि जानने से सूक्ष्म में खुशी तो रहती है - हाँ, मैं यह हूँ। लेकिन मानने से शक्ति आती है और मानकर चलने से नशा रहता है। जैसे कोई भी पोजीशन वाले जब सीट पर सेट होते हैं तो खुशी होगी लेकिन शक्ति नहीं होगी। तो जानते हो लेकिन मानकर चलो और बार - बार अपने से पूछो, चेक करो कि सीट पर सेट हूँ या साधारण स्थिति में नीचे आ गया? जो औरों को सिद्धि देने वाले हैं, वह स्वयं हर संकल्प में, हर कर्म में सिद्धि - स्वरूप अवश्य होंगे, दाता होंगे। सिद्धि - दाता कभी यह सोच भी नहीं सकते कि जितना पुरूषार्थ करते हैं वा मेहनत करते हैं, इतनी सिद्धि नहीं दिखाई देती है वा जितना याद में अभ्यास करते हैं, उतनी सिद्धि नहीं अनुभव होती है। इससे सिद्ध है कि सीट पर सेट होने की विधि यथार्थ नहीं है।
रमणीक ज्ञान है। रमणीक अनुभव स्वत: ही सुस्ती को भगा देता है। यह तो कई कहते हैं ना - वैसे नींद नहीं आयेगी लेकिन योग में नींद अवश्य आयेगी। यह क्यों होता है? ऐसी बात नहीं कि थकावट है लेकिन रमणीक रीति से और नैचरल रूप से बुद्धि को सीट पर सेट नहीं करते हो। तो सिर्फ एक रूप से नहीं लेकिन वैरायटी रूप से सेट करो। वही चीज़ अगर वैराइटी रूप से परिवर्तन कर यूज करते हैं तो दिल खुश होती है। चाहे बढ़िया चीज़ हो लेकिन अगर एक ही चीज़ बार - बार खाते रहो, देखते रहो तो क्या होगा? ऐसे, बीजरूप बनो लेकिन कभी लाइट - हाऊस के रूप में, कभी माइट - हाऊस के रूप में, कभी वृक्ष के ऊपर बीज के रूप में, कभी सृष्टि - चक्र के ऊपर टॉप पर खड़े होकर सभी को शक्ति दो। जो भिन्न - भिन्न टाइटल मिलते हैं, वह रोज भिन्न - भिन्न टाइटल अनुभव करो। कभी नूरे रत्न बन बाप के नयनों में समाया हूँ - इस स्वरूप की अनुभूति करो। कभी मस्तकमणि बन, कभी तख्तनशीन बन.. भिन्न - भिन्न स्वरूपों का अनुभव करो। वैराइटी करो तो रमणीकता आयेगी। बापदादा रोज मुरली में भिन्न - भिन्न टाइटल देते हैं, क्यों देते हैं? उसी सीट पर सेट हो जाओ और सिर्फ बीच - बीच में चेक करो। पहले भी सुनाया था कि यह भूल जाते हो। 6 घण्टे, 8 घण्टे बीत जाते हैं, फिर सोचते हो। इसलिए उदास हो जाते हो कि आधा दिन तो चला गया! नेचरल अभ्यास हो जाये, जब भी विधि - विधाता वा सिद्धि - दाता बन विश्व की आत्माओं का कल्याण कर सकेंगे। समझा? अच्छा!
आज मधुबन वालों का दिन है। डबल विदेशी अपने समय का चांस दे रहे हैं क्योंकि मधुबन निवासियों को देखकर खुश होते हैं। मधुबन वाले कहते हैं महिमा नहीं करो, महिमा बहुत सुनी है। महिमा सुनते ही महान बन रहे हैं क्योंकि यह महिमा ही ढाल बन जाती है। जैसे युद्ध में सेफ्टी का साधन ढाल होती है ना। तो यह महिमा भी स्मृति दिलाती है कि हम कितना महान है! मधुबन, सिर्फ मधुबन नहीं है लेकिन मधुबन है विश्व की स्टेज। मधुबन में रहना अर्थात् विश्व की स्टेज पर रहना। तो जो स्टेज पर रहता है, वह कितना अटेन्शन से रहता है! साधारण रीति से कोई किसी भी स्थान पर रहता है तो इतना अटेन्शन नहीं रहता है लेकिन जब स्टेज पर आयेगा तो हर समय, हर कर्म पर इतना ही अटेन्शन होगा। तो मधुबन विश्व की स्टेज है। चारों ओर की नजर मधुबन के ऊपर ही है। वैसे भी सबका अटेन्शन स्टेज की तरफ जाता है ना! तो मधुबन निवासी सदा विश्व की स्टेज पर स्थित हैं।
साथ - साथ मधुबन एक विचित्र गुम्बज है। और गुम्बज जो होते हैं उसका आवाज अपने तक आता है लेकिन मधुबन ऐसा विचित्र गुम्बज है जो मधुबन का जरा - सा आवाज विश्व तक चला जाता है। जैसे आजकल के पुराने जमाने के कई ऐसे स्थान निशानी - मात्र हैं जो एक दीवार को अगर ऐसे हाथ लगायेंगे वा आवाज करेंगे तो दस दीवारों में वह आवाज आयेगा और ऐसे ही सुनाई देगा जैसे इस दीवार को कोई हिला रहा है या आवाज कर रहा है। तो मधुबन ऐसा विचित्र गुम्बज है जो मधुबन का आवाज सिर्फ मधुबन तक नहीं रहता लेकिन चारों ओर फैल जाता है। ऐसे फैलता है जो मधुबन में रहने वालों को पता भी नहीं होगा। लेकिन विचित्रता है ना, इसलिए बाहर पहुँच जाता है। इसलिए ऐसे नहीं समझो कि यहाँ कि, यहाँ देखा या यहाँ बोला... लेकिन विश्व तक आवाज हवा की रफ्तार से पहुँच जाता है। क्योंकि सबकी नजरों में, बुद्धि में सदा मधुबन और मधुबन का बापदादा ही रहता है। तो जब मधुबन का बाप नजरों में रहता है तो मधुबन भी आयेगा ना! मधुबन का बाबा है तो मधुबन तो आयेगा ना और मधुबन में सिर्फ बाबा तो नहीं है, बच्चे भी हैं। तो मधुबनवासी स्वत: ही सबकी नजरों में आ जाते हैं! कोई भी ब्राह्मण से पूछो, चाहे कितना भी दूर रहता हो लेकिन क्या याद रहता है? ‘मधुबन' और ‘मधुबन का बाबा'! तो इतना महत्त्व है मधुबनवासियों का। समझा? अच्छा!
चारों ओर के सर्व सेवा के उमंग - उत्साह में रहने वाले, सदा एक बाप के स्नेह में समाये हुए, सदा हर कर्म में श्रेष्ठ विधि द्वारा सिद्धि को अनुभव करने वाले, सदा स्वयं को विश्व के कल्याणकारी अनुभव कर हर संकल्प से, बोल से श्रेष्ठ कल्याण की भावना और श्रेष्ठ कामना से सेवा में बिजी रहने वाले, ऐसे बाप समान सदा अथक सेवाधारी बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।'
मधुबन निवासियों के साथ वरदान रूप में उच्चारे हुए महावाक्य
1. स्वयं को कर्मयोगी श्रेष्ठ आत्मा अनुभव करते हो? कर्मयोगी आत्मा सदा कर्म का प्रत्यक्ष फल स्वत: ही अनुभव करती है। प्रत्यक्षफल - ‘खुशी' और ‘शक्ति'। तो कर्मयोगी आत्मा अर्थात् प्रत्यक्षफल ‘खुशी' औरा ‘शक्ति' अनुभव करने वाली। बाप सदा बच्चों को प्रत्यक्षफल प्राप्त कराने वाले हैं। अभी - अभी कर्म किया, कर्म करते खुशी और शक्ति का अनुभव किया! तो ऐसी कर्मयोगी आत्मा हूँ - इसी स्मृति से आगे बढ़ते रहो।
2. बेहद की सेवा करने से बेहद की खुशी का स्वत: ही अनुभव होता है ना! बेहद का बाप बेहद का अधिकारी बनाते हैं। बेहद सेवा का फल बेहद का राज्य भाग्य स्वत: ही प्राप्त होता है। जब बेहद की स्थिति में स्थित होकर सेवा करते हो तो जिन आत्माओं के निमित्त बनते हो, उनकी दुआयें स्वत: आत्मा में ‘शक्ति' और ‘खुशी' की अनुभूति कराती हैं। एक स्थान पर बैठे भी बेहद सेवा का फल मिल रहा है - इस बेहद के नशे से बेहद का खाता जमा करते आगे बढ़ते चलो।
3. सदा हर कार्य करते स्वयं को साक्षी स्थिति में स्थित रख कार्य कराने वाली न्यारी आत्मा हूँ - ऐसा अनुभव करते हो? साक्षीपन की स्थिति सदा हर कार्य सहज सफल करती है। साक्षीपन की स्थिति कितनी प्यारी लगती है! साक्षी बन कार्य करने वाली आत्मा सदा न्यारी और बाप की प्यारी है। तो इसी अभ्यास से कर्म करने वाली अलौकिक आत्मा हूँ, अलौकिक अनुभूति करने वाली, अलौकिक जीवन, श्रेष्ठ जीवन वाली आत्मा हूँ - यह नशा रहता है ना? कर्म करते यही अभ्यास बढ़ाते रहो। यही अभ्यास कर्मातीत स्थिति को प्राप्त करा देगा। इसी अभ्यास को सदा आगे बढ़ाते, कर्म करते न्यारे और बाप के प्यारे रहना। इसको कहते हैं - ‘श्रेष्ठ आत्मा'।
4. सदा श्रेष्ठ खज़ानों से भरपूर आत्मा हूँ - ऐसा अनुभव करते हो? जो अखुट खज़ानों से भरपूर होगा, उसको रूहानी नशा कितना होगा! सदा सर्व खज़ानों से भरपूर हूँ - इस रूहानी खुशी से आगे बढ़ते चलो। सर्व खज़ाने व की आत्माओं को जगाए साथी बना देंगे। तो भरपूर और शक्तिशाली आत्मा बन आगे बढ़ते चलो।
5. सदा बुद्धि में यह स्मृति रहती है ना कि बाप करावनहार करा रहा है, हम निमित्त हैं। निमित्त बन करने वाले सदा हल्के रहते हैं क्योंकि जिम्मेवार करावनहार बाप है। जब ‘मैं करता हूँ' - यह स्मृति रहती है तो भारी हो जाते और बाप करा रहा है - तो हल्के रहते। मैं निमित्त हूँ, कराने वाला करा रहा, चलाने वाला चला रहा है, इसको कहते - बेफिकर बादशाह। तो करावनहार करा रहा है। इसी विधि से सदा आगे बढ़ते रहो।
6. बाप की छत्रछाया में रहने वाली श्रेष्ठ आत्मा हूँ - यही अनुभूति होती है। जो अभी छत्रछाया में रहते, वही छत्रधारी बनते हैं। तो छत्रछाया में रहने वाली भाग्यवान आत्मा हूँ - यह खुशी रहती है ना। छत्रछाया ही सेफ्टी का साधन है। इस छत्रछाया के अन्दर कोई आ नहीं सकता। बाप की छत्रछाया के अन्दर हूँ - यह चित्र सदा सामने रखो।
7. सदा अपना रूहानी फरिश्ता स्वरूप स्मृति में रहता? ब्राह्मण सो फरिश्ता, फरिश्ता सो देवता - यह पहली हल कर ली है ना! पहेलियाँ हल करना आता है! सेकण्ड में ब्राह्मण सो देवता, देवता सो चक्र लगाते ब्राह्मण, फिर देवता। तो ‘हम सो, सो हम' की पहेली सदा बुद्धि में रहती है? जो पहेली हल करते उन्हें ही प्राइज मिलती है। तो प्राइज मिली है ना! जो अभी मिली है, वह भविष्य में भी नहीं मिलेगी! प्राइज में क्या मिला है? स्वयं बाप मिल गया, बाप के बन गये। भविष्य की राजाई के आगे यह प्राप्ति कितना ऊँची है! तो सदा प्राइज लेने वाली श्रेष्ठ आत्मा हूँ - इसी नशे और खुशी से सदा आगे बढ़ते रहो। पहेली और प्राइज दोनों स्मृति में सदा रहें तो आगे स्वत: बढ़ते रहेंगे।
8. सदा ‘दृढ़ता सफलता की चाबी है' - इस विधि से वृद्धि को प्राप्त करने वाली श्रेष्ठ आत्मा हूँ, ऐसा अनुभव होता है ना। दृढ़ संकल्प की विशेषता कार्य में सहज सफल बनाए विशेष आत्मा बना देती है और कोई भी कार्य में जब विशेष आत्मा बनते हैं तो सबकी दुआयें स्वत: ही मिलती हैं। स्थूल में कोई दुआयें नहीं देता लेकिन यह सूक्ष्म हैं जिससे आत्मा में शक्ति भरती है और स्व - उन्नति में सहज सफलता प्राप्त होती है। तो सदा दृढ़ता की महानता से सफलता को प्राप्त करने वाली और सर्व की दुआयें लेने वाली श्रेष्ठ आत्मा हूँ - इस स्मृति से आगे बढ़ते चलो।
9. बापदादा के विशेष शृंगार हो ना! सबसे श्रेष्ठ शृंगार है - मस्तकमणि। मणि सदा मस्तक पर चमकती है। तो ऐसे मस्तकमणि बन सदा बाप के ताज में चमकने वाले कितने अच्छे लगेंगे। मणि सदा अपनी चमक द्वारा बाप का भी शृंगार बनती और औरों को भी रोशनी देती है। तो ऐसे मस्तकमणि बन औरों को भी ऐसे बनाने वाले हैं - यह लक्ष्य सदा रहता हैं? सदा शुभभावना सर्व की भावनाओं को परिवर्तन करने वाली है।
10. सदा बाप को फालो करने में तुरन्त दान महापुण्य की विधि से आगे बढ़ रहे होना। इसी विधि को सदा हर कार्य में लगाने से सदा ही बाप समान स्थिति का स्वत: ही अनुभव होता है। तो हर कार्य में फालो फादर करने में आदि से अनुभवी रहे हो, इसलिए अब भी इस विधि से समान बनना अति सहज है क्योंकि समाई हुई विशेषता को कार्य में लगाना। बाप समान बनने की विशेष अलौकिक अनुभूतियाँ करते रहेंगे और औरों को भी कराते रहेंगे। इस विशेषता का वरदान स्वत: मिला है। तो इस वरदान को सदा कार्य में लगाये आगे बढ़ते चलो।
11. सदा परिवर्तन शक्ति को यथार्थ रीति से कार्य में लगाने वाली श्रेष्ठ आत्मा हो ना। इसी परिवर्तन शक्ति से सर्व की दुआयें लेने के पात्र बन जाते। जैसे घोर अन्धकार जब होता है, उस समय कोई रोशनी दिखा दे तो अन्धकार वालों के दिल से दुआयें निकलती हैं ना। ऐसे जो यथार्थ परिवर्तन शक्ति को कार्य में लगाते हैं, उनको अनेक आत्माओं द्वारा दुआयें प्राप्त होती हैं और सबकी दुआयें आत्मा को सहज आगे बढ़ा देती हैं। ऐसे, दुआयें लेने का कार्य करने वाली आत्मा हूँ - यह सदा स्मृति में रखो तो जो भी कार्य करेंगे, वह दुआयें लेने वाला करेंगे। दुआयें मिलती ही हैं श्रेष्ठ कार्य करने से। तो सदा यह स्मृति रहे कि ‘सबसे दुआयें लेने वाली आत्मा हूँ' - यही स्मृति श्रेष्ठ बनने का साधन है, यही स्मृति अनेकों के कल्याण के निमित्त बन जाती हैं। तो याद रखना कि परिवर्तन शक्ति द्वारा सर्व की दुआयें लेने वाली आत्मा हूँ। अच्छा!