05-12-89 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
सदा प्रसन्न कैसे रहें?
अव्यक्त बापदादा अपने बच्चों प्रति बोले
आज बापदादा चारों ओर के बच्चों को देख रहे थे। क्या देखा? हर एक बच्चा स्वयं हर समय कितना प्रसन्न रहता है, साथ-साथ दूसरों को स्वयं द्वारा कितना प्रसन्न करते हैं। क्योंकि परमात्म सर्व-प्राप्तियों के प्रत्यक्षस्वरूप में प्रसन्नता ही चेहरे पर दिखाई देती है। ‘‘प्रसन्नता'' ब्राह्मण जीवन का विशेष आधार है। अल्पकाल की प्रसन्नता और सदाकाल की सम्पन्नता की प्रसन्नता - इसमें रातदिन का अंतर है। अल्पकाल की प्रसन्नता, अल्पकाल के प्राप्ति वाले के चेहरे पर थोड़े समय के लिए दिखाई जरूर देती है लेकिन रूहानी प्रसन्नता स्वयं को तो प्रसन्न करती ही है परन्तु रूहानी प्रसन्नता के वायब्रेशन अन्य आत्माओं तक भी पहुँचते हैं, अन्य आत्माएं भी शान्ति और शक्ति की अनुभूति करती हैं। जैसे फलदायक वृक्ष अपने शीतलता की छाया में थोड़े समय के लिए मानव को शीतलता का अनुभव कराता है और मानव प्रसन्न हो जाता है। ऐसे परमात्म-प्राप्तियों के फल सम्पन्न रूहानी प्रसन्नता वाली आत्मा दूसरों को भी अपने प्राप्तियों की छाया में तन-मन की शान्ति और शक्ति की अनुभूति कराती है। प्रसन्नता के वायब्रेशन सूर्य की किरणों समान वायुमण्डल को, व्यक्ति को और सब बातें भुलाए सच्चे रूहानी शान्ति की, खुशी की अनुभूति में बदल देते हैं। वर्तमान समय की अज्ञानी आत्माएं अपने जीवन में बहुत खर्चा करके भी प्रसन्नता में रहना चाहती हैं। आप लोगों ने क्या खर्चा किया? बिना पैसा खर्च करते भी सदा प्रसन्न रहते हो ना! वा औरों की मदद से प्रसन्न रहते हो? बापदादा बच्चों का चार्ट चेक कर रहे थे। क्या देखा? एक हैं सदा प्रसन्न रहने वाले और दूसरे हैं प्रसन्न रहने वाले। ‘सदा' शब्द नहीं है।
प्रसन्नता भी तीन प्रकार की देखी - (1) स्वयं से प्रसन्न, (2) दूसरों द्वारा प्रसन्न, (3) सेवा द्वारा प्रसन्न। अगर तीनों में प्रसन्न हैं तो बापदादा को स्वत: ही प्रसन्न किया है और जिस आत्मा के ऊपर बाप प्रसन्न है वह तो सदा सफलतामूर्त हैं ही हैं।
बापदादा ने देखा कई बच्चे अपने से भी अप्रसन्न रहते हैं। छोटी-सी बात के कारण अप्रसन्न रहते हैं। पहला-पहला पाठ ‘मैं कौन' इसको जानते हुए भी भूल जाते हैं। जो बाप ने बनाया है, दिया है - उसको भूल जाते हैं। बाप ने हर एक बच्चे को फुल वर्से का अधिकारी बनाया है। किसको पूरा, किसको आधा वर्सा नहीं दिया है। किसको आधा वा चौथा मिला है क्या? आधा मिला है या आधा लिया है? बाप ने तो सभी को मास्टर सर्वशक्तिवान का वरदान वा वर्सा दिया। ऐसे नहीं कि कोई शक्तियाँ बच्चों को दीं और कोई नहीं दी। अपने लिए नहीं रखी। सर्वगुण सम्पन्न बनाया है, सर्व प्राप्ति स्वरूप बनाया है। लेकिन बाप द्वारा जो प्राप्तियां हुई हैं उसको स्वयं में समा नहीं सकते। जैसे स्थूल धन वा साधन प्राप्त होते भी खर्च करना न आये वा साधनों को यूज करना न आये तो प्राप्ति होते भी उससे वंचित रह जाते हैं। ऐसे सब प्राप्तियां वा खज़ाने सबके पास हैं लेकिन कार्य में लगाने की विधि नहीं आती है और समय पर यूज करना नहीं आता है। फिर कहते - मैं समझती थी कि यह करना चाहिए, यह नहीं करना चाहिए लेकिन उस समय भूल गया। अभी समझती हूँ कि ऐसा नहीं होना चाहिए। उस समय एक सेकण्ड भी निकल गया तो सफलता की मंजल पर पहुँच नहीं सकते क्योंकि समय की गाड़ी निकल गई। चाहे एक सेकण्ड लेट किया चाहे एक घण्टा लेट किया - समय निकल तो गया ना। और जब समय की गाड़ी निकल जाती है तो फिर स्वयं से दिलशिकस्त हो जाते हैं और अप्रसन्नता के संस्कार इमर्ज होते हैं - मेरा भाग्य ही ऐसा है, मेरा ड्रामा में पार्ट ही ऐसा है।
पहले भी सुनाया था - स्व से अप्रसन्न रहने के मुख्य दो कारण होते हैं दिलशिकस्त होना और दूसरा कारण होता है दूसरों की विशेषता को वा भाग्य को वा पार्ट को देख ईर्ष्या उत्पन्न होना। हिम्मत कम होती है, ईर्ष्या ज्यादा होती है। दिलशिकस्त भी कभी प्रसन्न नहीं रह सकता और ईर्ष्या वाला भी कभी प्रसन्न नहीं रह सकता। क्योंकि दोनों हिसाब से ऐसी आत्माओं की इच्छा कभी पूर्ण नहीं होती और इच्छाएं - ‘अच्छा' बनने नहीं देती। इसलिए प्रसन्न नहीं रहते। प्रसन्न रहने के लिए सदा एक बात बुद्धि में रखो कि ड्रामा के नियम प्रमाण संगमयुग पर हर एक ब्राह्मण आत्मा को कोई-नकोई विशेषता मिली हुई है। चाहे माला का लास्ट 16,000 वाला दाना हो - उसको भी कोई-न-कोई विशेषता मिली हुई है। उनसे भी आगे चलो - नौ लाख जो गाये हुए हैं उन्हें में भी कोई-न-कोई विशेषता मिली हुई है। अपनी विशेषता को पहले पहचानो। अभी तो नौ लाख तक पहुँचे ही नहीं हैं तो ब्राह्मण जन्म के भाग्य की विशेषता को पहचानो। उसको पहचानो और कार्य में लगाओ। सिर्फ दूसरे की विशेषता को देख करके दिलशिकस्त वा ईर्ष्या में नहीं आओ। लेकिन अपनी विशेषता को कार्य में लगाने से एक विशेषता फिर और विशेषताओं को लायेगी। एक के आगे बिंदी लगती जायेगी तो कितने हो जायेंगे? एक को एक बिंदी लगाओ तो 10 बन जाता और दूसरी बिंदी लगाओ तो 100 बन जायेगा। तीसरी लगाओ तो ....., यह हिसाब तो आता है ना। कार्य में लगाना अर्थात् बढ़ना। दूसरों को नहीं देखो। अपनी विशेषता को कार्य में लगाओ।
जैसे देखो, बापदादा सदा ‘‘भोली-भण्डारी'' (भोली दादी) का मिसाल देता है। महारथियों का नाम कभी आयेगा लेकिन इनका नाम आता है। जो विशेषता थी वह कार्य में लगाई। चाहे भण्डारा ही सम्भालती है लेकिन विशेषता को कार्य में लगाने से विशेष आत्माओं के मिसल गाई जाती है। सभी मधुबन का वर्णन करते तो दादियों की भी बातें सुनायेंगे तो ‘भोली' की भी सुनायेंगे। भाषण तो नहीं करती लेकिन विशेषता को कार्य में लगाने से स्वयं भी विशेष बन गई। दूसरे भी विशेष नजर से देखते। तो प्रसन्न रहने के लिए क्या करेंगे? - विशेषता को कार्य में लगाओ। तो वृद्धि हो जायेगी और जब सर्व आ गया तो सम्पन्न हो जायेंगे और प्रसन्नता का आधार है -’सम्पन्नता'। जो स्व से प्रसन्न रहते वह औरों से भी प्रसन्न रहेंगे, सेवा से भी प्रसन्न रहेंगे। जो भी सेवा मिलेगी उसमें औरों को प्रसन्न कर सेवा में नम्बर आगे ले लेंगे। सबसे बड़े-ते-बड़ी सेवा आपकी प्रसन्नमूर्त करेगी। तो सुना, क्या चार्ट देखा! अच्छा!
टीचर्स को आगे बैठने का भाग्य मिला है। क्योंकि पण्डा बनकर आती हैं तो मेहनत बहुत करती हैं। एक को सुखधाम से बुलायेंगे तो दूसरे को विशाल भवन से बुलायेंगे। एक्सरसाइज अच्छी हो जाती है। सेंटर पर तो पैदल करती नहीं हो। जब शुरू में सेवा आरम्भ की तो पैदल जाती थी ना। आपकी बड़ी दादियां भी पैदल जाती थीं। सामान का थैला हाथ में उठाया और पैदल चली। आजकल तो आप सब बने - बनाये पर आये हो। तो लक्की हो ना। बने-बनाये सेंटर मिल गये हैं। अपने मकान हो गये हैं। पहले तो जमुनाघाट पर रही थीं। एक ही कमरा - रात को सोने का, दिन को सेवा का होता था। लेकिन खुशी- खुशी से जो त्याग किया उसी के भाग्य का फल अभी खा रही हो। आप फल खाने के टाइम पर आई हो। बोया इन्होंने, खा आप रही हो। फल खाना तो बहुत सहज है ना। अब ऐसे फल स्वरूप क्वालिटी निकालो। समझा? क्वांटिटी (संख्या) तो है ही और यह भी चाहिए। नौ लाख तक जाना है तो क्वांटिटी और क्वालिटी - दोनों चाहिए। लेकिन 16,000 की पक्की माला तो तैयार करो। अभी क्वालिटी की सेवा पर विशेष अण्डरलाइन करो।
हर ग्रुप में टीचर्स भी आती, कुमारियां भी आती हैं। लेकिन निकलती नहीं हैं। मधुबन अच्छा लगता है, बाप से प्यार भी है। लेकिन समर्पण होना सोचना है। जो स्वयं ऑफर करता है वह निर्विघ्न चलता है और जो कहने से चलता वह रूकता है फिर चलता हैं। वह बार-बार आपको ही कहेंगे - हमने तो पहले ही कहा था सरेण्डर नहीं होना चाहिए। कोई-कोई सोचती हैं - इससे तो बाहर रहकर सेवा करें तो अच्छा है। लेकिन बाहर रह कर सेवा करना और त्याग करके सेवा करना इसमें अंतर जरूर है। जो समर्पण के महत्त्व को जानते हैं वह सदा ही अपने को कई बातों से किनारे हो आराम से आ गये हैं, कई मेहनत से छूट गये। तो टीचर्स अपने महत्त्व को अच्छी रीति जानती हो ना? नौकरी और यह सेवा - दोनों काम करने वाले अच्छे वा एक काम करने वाले अच्छे? उन्हों को फिर भी डबल पार्ट बजाना पड़ता है। भल निर्बन्धन हैं फिर भी डबल पार्ट तो है ना। आपका तो एक ही पार्ट है। प्रवृत्ति वालों को तीन पार्ट बजाना पड़ता - एक पढ़ाई का, दूसरा सेवा का और साथ-साथ प्रवृत्ति को पालने का। आप तो सब बातों से छूट गई। अच्छा!
सर्व सदा प्रसन्नता की विशेषता सम्पन्न श्रेष्ठ आत्माएं, सदा अपनी विशेषता को पहचान कार्य में लगाने वाली सेन्सीबुल और इंसेन्सफुल आत्माओं को, सदा प्रसन्न रहने वाले, प्रसन्न करने की श्रेष्ठता वाली महान आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।
आगरा – राजस्थान:-
१. सदा अपने को अकालतख्तनशीन श्रेष्ठ आत्मा समझते हो? आत्मा अकाल है तो उसका तख्त भी अकालतख्त हो गया ना! इस तख्त पर बैठकर आत्मा कितना कार्य करती है। ‘तख्तनशीन आत्मा हूँ' - इस स्मृति से स्वराज्य की स्मृति स्वत: आती है। राजा भी जब तख्त पर बैठता है तो राजाई नशा, राजाई खुशी स्वत: होती है। तख्तनशीन माना स्वराज्य अधिकारी राजा हूँ - इस स्मृति से सभी कर्मेन्द्रियाँ स्वत: ही ऑर्डर पर चलेंगी। जो अकाल-तख्त-नशीन समझ कर चलते हैं उनके लिए बाप का भी दिलतख्त है। क्योंकि आत्मा समझने से बाप ही याद आता है। फिर न देह है, न देह के सम्बन्ध हैं, न पदार्थ हैं, एक बाप ही संसार है। इसलिए अकाल-तख्त-नशीन बाप के दिल-तख्त-नशीन भी बनते हैं। बाप की दिल में ऐसे बच्चे ही रहते हैं जो ‘एक बाप दूसरा न कोई' हैं। तो डबल तख्त हो गया। जो सिकीलधे बच्चे होते हैं, प्यारे होते हैं उन्हें सदा गोदी में बिठायेंगे, ऊपर बिठायेंगे नीचे नहीं। तो बाप भी कहते हैं तख्त पर बैठो, नीचे नहीं आओ। जिसको तख्त मिलता है वह दूसरी जगह बैठेगा क्या? तो अकालतख्त वा दिलतख्त को भूल देह की धरनी में, मिट्टी में नहीं आओ। देह को मिट्टी कहते हो ना। मिट्टी, मिट्टी में मिल जायेगी - ऐसे कहते हैं ना! तो देह में आना अर्थात् मिट्टी में आना। जो रॉयल बच्चे होते हैं वह कभी मिट्टी में नहीं खेलते। परमात्म-बच्चे तो सबसे रॉयल हुए। तो तख्त पर बैठना अच्छा लगता है या थोड़ी-थोड़ी दिल होती है - मिट्टी में भी देख लें। कई बच्चों की आदत मिट्टी खाने की वा मिट्टी में खेलने की होती है। तो ऐसे तो नहीं है ना! 63 जन्म मिट्टी से खेला। अब बाप तख्तनशीन बना रहे हैं, तो मिट्टी से कैसे खेलेंगे, जो मिट्टी में खेलता है वह मैला होता है। तो आप भी कितने मैले हो गये। अब बाप ने स्वच्छ बना दिया। सदा इसी स्मृति से समर्थ बनो। शक्तिशाली कभी कमज़ोर नहीं होते। कमज़ोर होना अर्थात् माया की बीमारी आना। अभी तो सदा तन्दुरूस्त हो गये। आत्मा शक्तिशाली हो गई। शरीर का हिसाब-किताब अलग चीज़ है लेकिन मन शक्तिशाली हो गया ना। शरीर कमज़ोर है, चलता नहीं है, वह तो अंतिम है, वह तो होगा ही लेकिन आत्मा पावरफुल हो। शरीर के साथ आत्मा कमज़ोर न हो। तो सदा याद रखना कि डबल तख्तनशीन सो डबल ताजधारी बनने वाले हैं। अच्छा!
२. सभी संतुष्ट हो ना! संतुष्ट अर्थात् प्रसन्न। सदा प्रसन्न रहते हो या कभी-कभी रहते हो? कभी अप्रसन्न, कभी प्रसन्न - ऐसे तो नहीं, कभी किसी बात से अप्रसन्न नहीं होते हो? आज यह कर लिया, आज यह हो गया, कल वह हो गया - ऐसे पत्र तो नहीं लिखते हो? सदा प्रसन्नचित रहने वाले अपने रूहानी वायब्रेशन से औरों को भी प्रसन्न करते हैं। ऐसे नहीं - मैं तो प्रसन्न रहता ही हूँ। लेकिन प्रसन्नता की शक्ति फैलेगी जरूर। तो और किसको भी प्रसन्न कर सको - ऐसे हो या अपने तक ही प्रसन्न ठीक हो? दूसरों को भी करेंगे, फिर तो अभी कोई पत्र नहीं आयेगा। अगर कोई अप्रसन्नता का पत्र आये तो वापस उसको ही भेजें ना! यह टाइम और यह तारीख याद रखना। हाँ, यह पत्र लिखो - ओ.के. हूँ और सब मेरे से भी ओ.के. हैं। यह दो लाइन लिखो, बस। मैं भी ओ.के. और दूसरे भी मेरे से ओ.के. हैं। इतना खर्च क्यों करते हो, यह तो दो लाइन कॉर्ड पर ही आ सकती है। और बार-बार भी नहीं लिखो। नहीं तो रोज कॉर्ड भेज देते हैं, रोज नहीं भेजना। मास में दो बार, 15 दिन में एक ‘‘ओ.के.'' का कॉर्ड लिखो, और कथाएं नहीं लिखना। अपनी प्रसन्नता से औरों को भी प्रसन्न बनाना। अच्छा!
गुजरात ग्रुप:- सदा अपने को बाप के सिकीलधे समझते हो? सिकीलधे अर्थात् बड़े सिक से बाप ने हमें ढूँढ़ा है। बाप ने बड़े सिक व प्रेम से आपको ढूँढ़ा है। आपने ढूँढ़ा लेकिन मिला नहीं। परिचय ही नहीं था तो मिले कैसे? लेकिन बाप ने आपको ढूँढ़ा इसलिए कहते हैं - ‘सिकीलधे'। तो जिसको बाप ढूæँढ़े वह कितने भाग्यवान होंगे! दुनिया वाले बाप को ढूँढ़ रहे हैं और आप मिलन मना रहे हो। कितने थोड़े हो, बहुतों का पार्ट है ही नहीं। थोड़ों का पार्ट है, इसलिए गाया हुआ है - कोटों में कोई। अक्षोणी सेना नहीं गाई हुई है, कोटों में कोई गाया हुआ है। तो यह खुशी वा स्मृति सदा इमर्ज रहे। हर कदम में खुशी अनुभव हो। अल्पकाल की प्राप्ति वालों के चेहरे पर वह प्राप्ति की रेखा चमकती है। आपको तो सदाकाल की प्राप्ति है। तो चेहरा सदा खुशी में दिखाई दे, उदास न हो। जो माया का दास बनता है वह उदास होता है। आप कौन हो? माया के दास हो या मालिक हो? माया को अपनी अथार्टी से भगाने वाले हो, ऐसी आत्मा कभी उदास नहीं हो सकती। कोई फिक्र ही नहीं है ना। कोई फिक्र या चिंता होती है तो उदास होते हैं। आपको कौन-सी चिंता है? पांडवों को चिंता है? कमाने की, परिवार को पालने के लिए पैसे की चिंता है? लेकिन चिंता से पैसा कभी नहीं आयेगा। मेहनत करो, कमाई करो। लेकिन चिंता से कभी कमाई में सफल नहीं होंगे। चिंता को छोड़कर कर्मयोगी बनकर काम करो, तो जहाँ योग है वहाँ कार्य कुशल होगा और सफलता होगी। चिंता से कभी पैसा नहीं आयेगा। अगर चिंता से कमाया हुआ पैसा आयेगा भी तो चिंता ही पैदा करेगा। जैसा बीज होगा वैसा ही फल निकलेगा और खुशी-खुशी से काम करके कमाई करेंगे तो वह पैसा भी खुशी दिलायेगा। वह दो रूपया भी दो हजार का काम करेगा और वह दो लाख दो रूपये का काम करेगा। इतना फर्क हैं, इसलिए चिंता क्या करेंगे! सच्ची दिल वालों को सच की कमाई मिलती है। बाप भी दाल-रोटी जरूर देते हैं। सुस्त रहने वाले को नहीं देंगे। काम तो करना ही पड़ेगा क्योंकि पिछले हिसाब भी तो चुक्तू करने हैं। लेकिन चिंता से नहीं, खुशी से। कोई भी काम करो - योगयुक्त होकर करो। योगी का कार्य सहज और सफल होता है, ऐसा अनुभव है ना! याद में कोई भी काम करते तो थकावट नहीं होती। खुशी-खुशी से करते तो थकते नहीं। मजबूर होकर करते तो थक जाते हैं। बाप ने डॉयरेक्शन दिया है - योग से हिसाब-किताब चुक्तू करो। तो बाप के डॉयरेक्शन पर खुशी-खुशी से वह काम भी करो, मजबूरी से नहीं। यह तो मालूम है कि वह बंधन है लेकिन घड़ी-घड़ी कहने से और भी बड़ा कड़ा बंधन हो जायेगा।
मातायें बहुत करके कहती हैं - कब तक हमारा बंधन रहेगा? यह भी क्या बंधन बन गया? यह तो मालूम है कि यह बंधन है लेकिन अब यह सोचो कि योग से बंधनमुक्त कैसे बनें - यह भी ज्यादा नहीं सोचो। सोचने से कुछ नहीं होता है, करने से होता है। सोचते-सोचते मानो उसी समय अंतिम घड़ी आ जाए तो क्या होगा? बंधन है, बंधन है यही सोचते जायेंगे तो कहां जायेंगे? पिंजड़े में ही जायेंगे! अंत में अगर बंधन याद रहा तो गर्भ-जेल में जाना पड़ेगा और खुशी-खुशी से जायेंगे तो एडवांसपार्टी में सेवा के लिए जायेंगे, इसलिए कभी भी अपने से तंग नहीं हो। खुश रहो। क्या करें, कैसे करें .... यह गीत नहीं गाओ। खुशी के गीत गाओ।
प्रवृत्ति वाले थकते तो नहीं हो ना! सेवा समझ कर करो, बंधन समझ कर नहीं करो। सेंटर पर भी आ जायेंगे तो वहाँ भी सेवा के बिना तो नहीं रहेंगे। तो वह भी सेवा समझ कर करो। अपने मन से नहीं बंधो लेकिन डॉयरेक्शन से पिछला हिसाब-किताब चुक्तू कर रहे हैं। मजबूरी से नहीं, प्यार से करो। फँसो भी नहीं और मजबूर भी न हो। हंस-हंस के काम करो, जैसे खेल कर रहे हैं। बिजनेस करो, दफ्तर का काम करो लेकिन खेल-खेल में करो। तो खेल में मजा आता है ना। खेल में थकते नहीं हैं। तो यह भी एक खेल कर रहे हैं - ऐसी अवस्था सदा रहे। सदा यही याद रखना कि हमें स्वयं बाप ने कोटों में से कोई को चुना है। बाप ने ढूँढ़ा और अपना बना लिया - इसी नशे वा खुशी में हर कार्य करते सफलतामूर्त बनते चलो। यही स्मृति वरदान रूप बन जायेगी, शक्तिशाली बना देगी।
सदा अतीन्द्रिय सुख में रहते हो? अतीन्द्रिय सुख अर्थात् आत्मिक सुख। इन्द्रियों का सुख नहीं लेकिन आत्मिक सुख। आत्मा अविनाशी है तो आत्मिक सुख भी अविनाशी होगा। इन्द्रियाँ खुद ही विनाशी हैं तो सुख भी विनाशी होगा। कोई भी विनाशी यानी थोड़े समय का सुख नहीं चाहते हैं। अगर किसी को भी कहो - 2 घण्टे का सुख ले लो और 22 घण्टे का दु:ख ले लो तो कौन मानेगा। यही सोचेगा कि सदा सुख हो, दु:ख का नाम-निशान न हो। तो अतीन्द्रिय सुख अविनाशी है। इन्द्रियों के सुख के अनुभवी भी हो और अतीन्द्रिय सुख के अनुभवी भी हो। तो क्या अच्छा लगता है? अतीन्द्रिय सुख अच्छा या इन्द्रियों का सुख अच्छा? तो अच्छी चीज़ का कभी छोड़ा नहीं जाता, भूला नहीं जाता, भूलना चाहें तो भी नहीं भूलेंगे। तो सदा अतीन्द्रिय सुख में रहने वालों के पास दु:ख का नाम-निशान नहीं आ सकता, असम्भव। कई कहते हैं - मेरे को दु:ख नहीं होता लेकिन दूसरा दु:ख देता है तो क्या करें? दूसरा देता है तो लेते क्यों हो? कोई भी चीज़ आपको दे और आप नहीं लो तो वह किसके पास रहेगी? उसके पास ही रहेगी ना। देने वाले तो देंगे, उनके पास है ही दु:ख लेकिन आप नहीं लो। आपका स्लोगन है - ‘सुख दो, सुख लो। न दु:ख दो, न दु:ख लो।' लेकिन गलती कर देते हो। इसलिए थोड़ी दु:ख की लहर आ जाती है। कोई दु:ख दे तो उसे भी परिवर्तन कर उसको सुख दे दो, उसको भी सुखी बना दो। सुखदाता के बच्चे हो, सुख देना और सुखी रहना - यही आपका काम है। अच्छा!
अहमदाबाद हॉस्टल की कुमारियों से:- कुमारियों का लक्ष्य क्या है? ब्रह्माकुमारी बनेंगी या इंजीनियर, डॉक्टर बनेंगी? टोकरी उठानी है या ताज पहनना है? सिर पर या तो आयेगी टोकरी या आयेगा ताज। ताज है विश्व-सेवा वा बेहद सेवा का। तो जो कॉलेज में पढ़ती हैं उन्हों का लक्ष्य क्या है? बेहद की सेवा करेंगी या दूसरों को देख करके दिल होगी कि एक-दो साल नौकरी भी करके देखें, पीछे छोड़ देंगे। नौकरी क्या होती है, थोड़ा यह भी देख लें। फिर टोकरी उतार देंगे, ताज पहन लेंगे - ऐसा तो नहीं सोचती हो? ताजधारी तो सदा श्रेष्ठ होते हैं, टोकरी वाले को श्रेष्ठ नहीं कहेंगे। वह तो मजबूरी से टोकरी उठाते हैं। कोई नौकरी करते हैं तो जरूर कोई मजबूरी होगी - या तो मन की मजबूरी या सम्बन्धियों की मजबूरी। या तो मौज है या तो मजबूरी है - दोनों में से एक तो है। क्योंकि समय कम है और समय अचानक ही आना है, बताकर नहीं आयेगा। इसलिए कहते हैं - जो करना है वह अब करो, कल नहीं, परसों नहीं, साल के बाद नहीं। करना है तो अब। हाँ, कोई सरकमस्टांस है और जो निमित्त बने हुए हैं, उन्हों के डॉयरेक्शन से करते हैं तो फिर आपकी जिम्मेवारी नहीं। तो कुमारियां क्या सोचती हो? हॉस्टल में क्यों रहती हो? घर में भी तो पढ़ाई पढ़ सकती हो, सेंटर में भी आ सकती हो, फिर हॉस्टल में क्यों रहती हो? माँ-बाप याद नहीं आते? कभी-कभी याद आते हैं। जब बड़ा दिन होता होगा तब याद आते होंगे। अच्छा!
बीमारी के टाइम पर माँ-बाप याद आते हैं? पक्की हो? अपने दिल से गई हो, कोई के कहने से तो नहीं गई हो ना। अच्छा है यह भी ड्रामा में लक्की कुमारियां हो गई जो बचपन से श्रेष्ठ संग मिला है। फिर भी हिम्मत रखी है तो हिम्मत वालों को फल भी मिलता है। मातायें भी कुमारियों को देखकर खुश होती हैं ना! मातायें सोचती हैं - हम भी इतने जीवन में आते तो अच्छा होता। लेकिन सबका एक जैसा पार्ट तो हो नहीं सकता। वैराइटी चाहिए। सर्व का पिता है तो कुमार भी चाहिए, कुमारियां भी चाहिए, अधरकुमार-अधरकुमारियां भी चाहिए - सर्व सैम्पल चाहिए। पांडव यह तो नहीं सोचते कि अगर कुमारी होते तो टीचर बन जाते, सेंटर मिल जाता। हर एक के पार्ट की अपनी-अपनी विशेषता है, हर एक की विशेषता अलग और महान है। एक-दो के पार्ट को देखकर खुश रहो। अपने पार्ट को कम नहीं समझो। सबका पार्ट अच्छे-ते-अच्छा है। अच्छा!
पंजाब ग्रुप:- सदा अपने को संगमयुगी बेपरवाह बादशाह हूँ - ऐसे समझते हो? पुरानी दुनिया की कोई परवाह नहीं। सदा दिल में ब्रह्मा बाबा समान क्या गीत गाते हो? परवाह थी पार ब्रह्म में रहने वाले की, वह तो पा लिया, अभी क्या परवाह! तो बेपरवाह बादशाह हो, गुलाम नहीं। इस बादशाही जैसी और कोई बादशाही नहीं। क्योंकि यह बादशाही डॉयरेक्ट बाप ने दी है। और जो भी बादशाही मिलती है वह या तो धन दान करने से मिलती है या आजकल के वोटों से मिलती है और आपको स्वयं बाप ने राजतिलक दे दिया। इस राजतिलक के आगे सतयुग का राजतिलक भी कोई बड़ी बात नहीं। तो यह राजतिलक पक्का लगा हुआ है या मिट जाता है? अभी-अभी राजा और अभी-अभी गुलाम - ऐसा खेल तो नहीं करते हो? बेपरवाह बादशाह - यह कितनी अच्छी स्थिति है! जब सब-कुछ बाप के हवाले कर दिया तो परवाह किसको होगी - बाप को या आपको? बाप जाने। जब अपने जीवन की जिम्मेवारी बाप के हवाले की है तो बाप जाने। ऐसे तो नहीं - थोड़ा-थोड़ा कहीं अपनी अथॉर्टी को छिपाकर रखा हो, मनमत को छिपाकर रखा हो। अगर श्रीमत पर हैं तो बाप के हवाले हैं। सच्ची दिल से बाप के हवाले सब-कुछ कर दिया तो उसकी निशानी सदा डबल लाईट होंगे, कोई बोझ नहीं होगा। अगर किसी भी प्रकार का बोझ है तो इससे सिद्ध है कि बाप के हवाले नहीं किया। जब बाप ऑफर करता है कि सब बोझ मेरे को दे दो और तुम हल्के हो जाओ, तो क्या करना चाहिए? ऐसा सर्वेन्ट फिर नहीं मिलेगा। अनेक जन्म बोझ रखकर देख लिया, बोझ से क्या हुआ? नीचे ही होते गये। अब डबल लाइट बन उड़ते रहो। तन-मन-धन सब ट्रांस्फर कर दो। कोई कहते हैं - और कोई बोझ नहीं है लेकिन थोड़ा-थोड़ा सम्बन्ध का बोझ है। तो सर्व सम्बन्ध बाप से नहीं जोड़ा है तब बोझ है। वायदा है सर्व सम्बन्ध एक बाप से। तो कोई बोझ नहीं। आराम से दाल-रोटी खाओ और उड़ती कला में उड़ो। कहाँ भी रहते बाप को भोग लगा कर खाते हो तो ब्रह्मा भोजन खाते हो। ब्रह्मा भोजन खाओ, खूब नाचो और मौज मनाओ। अभी मौज में नहीं रहेंगे तो कब रहेंगे! अच्छा!
बॉम्बे ग्रुप:- सभी अपने पुरूषार्थ की रफ्तार को जानते हो? मैं कौन हूँ और क्या हूँ - यह दोनों ही बातें जानते हो ना! तो समय की रफ्तार प्रमाण अपने पुरूषार्थ की रफ्तार क्या समझते हो? समय की रफ्तार तीव्र है या आपकी? समय रचना है और आप रचता हो। तो रचना की रफ्तार तेज और रचता की रफ्तार ढीली है तो उसे क्या कहेंगे? समय को जानने वाले भी आप हो और समय को जान कर वर्णन भी आप ही कर रहे हो। वह तो चलता रहेगा। आप तो वर्णन करते हो कि अभी कलियुग को बदल कर सतयुग लायेंगे, तो चलाने वाला ढीला और चलने वाला तेज! तो सदा इस स्मृति में रहो कि ‘मैं मास्टर रचयिता हूँ', इससे रफ्तार तेज हो जायेगी। चल रहे हैं, समय जैसा है वैसा कर रहे हैं - ऐसे नहीं। यह तो समय के दास कहेंगे। आप कहेंगे - हम समय को चला रहे हैं। समय को बदलने के निमित्त आप हो ना, यह ठेका उठाया है ना? तो पुरूषार्थ में तीव्रगति का आधार क्या है? डबल लाइट बनना। बिना डबल लाइट बने तीव्रगति नहीं हो सकती और डबल लाइट बनने के लिए एक शब्द याद रखो - ‘‘मेरा बाबा'', बस। कोई भी बात आ जाए, हिमालय पहाड़ से भी बड़ी हो लेकिन बाबा कहा और पहाड़ रूई बन जायेगा। राई भी नहीं, रूई। राई भी थोड़ी मजबूत कड़क होती है और रूई बहुत नर्म और हल्की होती है। तो कितना भी बड़ा पहाड़ रूई बन जायेगा। दुनिया वाले देखेंगे तो कहेंगे - यह कैसे होगा और आप कहेंगे - यह ऐसे होगा। बुद्धि में ‘‘बाबा'' कहा और टच होगा कि यह ऐसे होगा। हर बात सहज लगेगी, क्योंकि सहज योगी जीवन है। जिसकी जीवन ही सहज है उसके सामने कोई भी बात आयेगी तो सहज हो जायेगा। मुश्किल के दिन खत्म हो गये। न ब्राह्मण-जीवन में मुश्किल शब्द है, न देवता-जीवन में। इसलिए बाप की महिमा में कहते हो - मुश्किल को सहज बनाने वाले, तो जो बाप की महिमा वह आपकी भी महिमा है। अच्छा!
धुलिया वाले अभी-अभी पहुँचे हैं। (बस खराब हो गई थी इसलिए लेट आये हैं) अच्छा! धुलिया वालों के पाप धुल गये। जितना समय लेट हुए उतना समय बाबा-बाबा ही याद था ना! तो पाप धुल गये, जो भी पिछला रहा होगा वह धुल गया। आप तो खुश थे। दु:ख की लहर तो नहीं आई? ऐसे टाइम पर अचल रहे, इसलिए पाप धुलाई हो गये। अभी सदा ही मौज में चलते उड़ते रहेंगे। अच्छा!