17-12-89   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


सदा समर्थ कैसे बनें?

अव्यक्त बापदादा अपने बच्चों प्रति बोले

आज समर्थ बाप अपने चारों ओर के मास्टर समर्थ बच्चों को देख रहे हैं। एक है सदा समर्थ और दूसरे हैं कभी समर्थ, कभी व्यर्थ की तरफ न चाहते भी आकर्षित हो जाते। क्योंकि जहाँ समर्थ स्थिति है, वहाँ व्यर्थ हो नहीं सकता, संकल्प भी व्यर्थ नहीं उत्पन्न हो सकता। बापदादा देख रहे थे कि कई बच्चों की अब तक भी बाप के आगे फरियाद है कि कभी-कभी व्यर्थ संकल्प याद को फरियाद में बदल देते हैं, चाहते नहीं हैं लेकिन आ जाते हैं। विकल्पों की स्टेज को तो मैजारिटी ने मैजारिटी समय तक समाप्त कर लिया है लेकिन व्यर्थ देखना, व्यर्थ सुनना और सोचना, व्यर्थ समय गँवाना - इसमें फुल पास नहीं हैं। क्योंकि अमृतवेले से सारे दिन की दिनचर्या में अपने मन और बुद्धि को समर्थ स्थिति में स्थित करने का प्रोग्राम सेट नहीं करते। इसलिए अपसेट हो जाते हैं। जैसे अपने स्थूल कार्य के प्रोग्राम को दिनचर्या प्रमाण सेट करते हो, ऐसे अपनी मन्सा समर्थ स्थिति का प्रोग्राम सेट करेंगे तो स्वत: ही कभी अपसेट नहीं होंगे। जितना अपने मन को समर्थ संकल्पों में बिजी रखेंगे तो मन को अपसेट होने का समय ही नहीं मिलेगा। आजकल की दुनिया में बड़ी पोजीशन वाले, जिन्हों को आई. पी. या वी.आई.पी. कहते हैं, वह सदा अपने कार्य की दिनचर्या को समय प्रमाण सेट करते हैं। तो आप कौन हो? वह भले वी.आई.पी. हैं लेकिन सारे विश्व में ईश्वरीय सन्तान के नाते, ब्राह्मण-जीवन के नाते आप कितनी भी वी. आगे लगा दो तो भी कम है। क्योंकि आपके आधार पर विश्वपरिवर्त न होता है। आप विश्व के नव-निर्माण के आधारमूर्त हो। बेहद के ड्रामा अंदर हीरो एक्टर हो और हीरे तुल्य जीवन वाले हो। तो कितने बड़े हुए! यह शुद्ध नशा समर्थ बनाता है और देह-अभिमान का नशा नीचे ले आता है। आपका आत्मिक रूहानी नशा है इसलिए नीचे नहीं ले आता, सदा ऊँची उड़ती कला की ओर ले जाता है। तो व्यर्थ तरफ आकर्षित होने का कारण है - अपने मन-बुद्धि की दिनचर्या सेट नहीं करते हो। मन को बिजी रखने की कला सम्पूर्ण रीति से सदा यूज नहीं करते हो।

दूसरी बात, बापदादा ने अमृतवेले से लेकर रात के सोने तक मन्सा-वाचा-कर्मणा और सम्बंध-सम्पर्क में कैसे चलना है वा रहना है - सबके लिए श्रीमत अर्थात् आज्ञा दी हुई है। मन्सा में, स्मृति में क्या रखना है - यह हर कर्म में अपनी मन्सा स्थिति का डायरेक्शन, आज्ञा मिली हुई है। और आप सब आज्ञाकारी बच्चे हो ना वा बन रहे हो? आज्ञाकारी अर्थात् बाप के सम्बन्ध से बाप के फुट स्टैप लेने वाले अर्थात् कदम के ऊपर कदम रखने वाले। और दूसरा नाता है सजनियों का। तो सजनी भी क्या करती है? उनको क्या शिक्षा मिलती है? साजन के कदम ऊपर कदम चलो। तो आज्ञाकारी अर्थात् बापदादा के आज्ञा रूपी कदम पर कदम रखना। यह सहज है वा मुश्किल है? कहाँ कदम रखें - ठीक है वा नहीं, यह सोचने की भी जरूरत नहीं। है सहज, लेकिन सारे दिन में चलते-चलते कोई न कोई आज्ञाओं का उल्लंघन हो जाता है। बातें छोटी- छोटी होती हैं लेकिन अवज्ञा होने से थोड़ा-थोड़ा बोझ इकट्ठा हो जाता है। आज्ञाकारी को सर्व सम्बन्धों से परमात्म-दुआयें मिलती हैं। यह नियम है। साधारण रीति भी कोई किसी मनुष्य आत्मा के डायरेक्शन प्रमाण ‘‘हाँ जी'' कहकर के कार्य करते हैं तो जिसका कार्य करते, उसके द्वारा उसके मन से उनको दुआयें जरूर मिलती हैं। यह तो परमात्म-दुआयें हैं! परमात्म-दुआओं के कारण आज्ञाकारी आत्मा सदा डबल लाइट उड़ती कला वाली होती है। साथ-साथ आज्ञाकारी आत्मा को आज्ञा पालन करने के रिटर्न में बाप द्वारा विल पावर विशेष वरदान के रूप में, वर्से के रूप में मिलती है। बाप सब पावर्स विल में बच्चे को देते हैं, इसलिए सर्व पावर्स सहज प्राप्त हो जाती हैं। तो ऐसे विल पावर प्राप्त करने वाली आज्ञाकारी आत्मा - वर्सा, वरदान और दुआयें, यह सब प्राप्तियां कर लेती हैं जिस कारण सदा खुशी में नाचते, ‘‘वाह-वाह'' के गीत गाते उड़ते रहते हैं। क्योंकि उनका हर कर्म, उनको प्रत्यक्षफल प्राप्त कराता है। कर्म है बीज। जब बीज शक्तिशाली है तो फल भी ऐसा मिलेगा ना। तो हर कर्म का प्रत्यक्षफल बिना मेहनत के स्वत: ही प्राप्त होता है। जैसे फल की शक्ति से शरीर शक्तिशाली रहता है, ऐसे कर्म के प्रत्यक्षफल की प्राप्ति कारण आत्मा सदा समर्थ रहती है। तो सदा समर्थ रहने का दूसरा आधार है - सदा और स्वत: आज्ञाकारी बनना। ऐसी समर्थ आत्मा सदा सहज उड़ते हुए अपनी सम्पूर्ण मंजल - ‘‘बाप के समीप स्थिति'' को प्राप्त करती है। तो व्यर्थ तरफ आकर्षित होने का कारण है अवज्ञा। बड़ी-बड़ी अवज्ञायें नहीं करते हो, छोटी-छोटी हो जाती है। जैसे मुख्य पहली आज्ञा है - पवित्र बनो, कामजीत बनो। इस आज्ञा को पालन करने में मैजारिटी पास हो जाते हैं। भोली-भोली मातायें भी इसमें पास हो जाती हैं। जो बात दुनिया असम्भव समझती उसमें पास हो जाते। लेकिन उनका दूसरा भाई क्रोध - उसमें कभी-कभी आधा फेल हो जाते हैं। फिर होशियार भी बहुत हैं। कई बच्चे कहते हैं - क्रोध नहीं किया लेकिन थोड़ा रोब तो दिखाना ही पड़ता है, क्रोध नहीं आता, थोड़ा रोब रखता हूँ। जब असम्भव को सम्भव कर लिया, यह तो उसका छोटा भाई है। तो इसको आज्ञा कहेंगे वा अवज्ञा?

इससे भी छोटी अवज्ञा अमृतवेले का नियम आधा पालन करते हो। उठ करके बैठ तो जाते हो लेकिन जैसे बाप की आज्ञा है, उस विधि से सिद्धि को प्राप्त करते हो? शक्तिशाली स्थिति होती है? स्वीट साइलेन्स के साथ-साथ निद्रा की साइलेन्स भी मिक्स हो जाती है। बापदादा अगर हर एक को अपने सप्ताह की टी.वी. दिखाये तो बहुत मजा देखने में आयेगा! तो आधी आज्ञा मानते हो - नेमीनाथ बनते हो लेकिन सिद्धिस्वरूप नहीं बनते हो। इसको क्या कहेंगे? ऐसी छोटी-छोटी आज्ञायें हैं। जैसे आज्ञा है - किसी भी आत्मा को न दु:ख दो, न दु:ख लो। इसमें भी दु:ख देते नहीं हो लेकिन ले तो लेते हो ना। व्यर्थ संकल्प चलने का कारण ही यह है - व्यर्थ दु:ख लिया। सुन लिया तो दु:खी हुए। सुनी हुई बात न चाहते भी मन में चलती है - यह क्यों कहा, यह ठीक नहीं कहा, यह नहीं होना चाहिए....। व्यर्थ सुनने, देखने की आदत मन को 63 जन्मों से है, इसलिए अभी भी उस तरफ आकर्षित हो जाते हो। छोटी-छोटी अवज्ञायें मन को भारी बना देती हैं और भारी होने के कारण ऊँची स्थिति की तरफ उड़ नहीं सकते। यह बहुत गुह्य गति है। जैसे पिछले जन्मों के पाप-कर्म बोझ के कारण आत्मा को उड़ने नहीं देते। ऐसे इस जन्म की छोटी-छोटी अवज्ञाओं का बोझ, जैसी स्थिति चाहते हो - वह अनुभव करने नहीं देती।

ब्राह्मणों की चाल बहुत अच्छी है। बापदादा पूछते हैं - कैसे हो? तो सभी कहेंगे - बहुत अच्छे हैं, ठीक हैं। फिर जब पूछते हैं कि जैसी स्थिति होनी चाहिए वैसी है? तो चुप हो जाते हैं। इस कारण यह अवज्ञाओं का बोझ सदा समर्थ बनने नहीं देता। तो आज यही स्लोगन याद रखना - न व्यर्थ सोचो, न व्यर्थ देखो, न व्यर्थ सुनो, न व्यर्थ बोलो, न व्यर्थ कर्म में समय गँवाओ।' आप बुराई से तो पार हो गये। अब ऐसे आज्ञाकारी चरित्र को चित्र बनाओ। इसको कहते हैं - सदा समर्थ आत्मा।' अच्छा!

सभी टीचर्स आार्टिस्ट हो। चित्र बनाना आता है? अपना श्रेष्ठ चरित्र का चित्र बनाना आता है ना! तो बड़े-ते-बड़े चित्रकार वही हैं जो हर कदम में चरित्र का चित्र बनाते रहते हैं। इसी चरित्र का चित्र बनाने कारण ही आपके जड़ चित्र आधाकल्प चलते हैं। तो टीचर्स अर्थात् बड़े-ते-बड़े चित्रकार। अपना भी चित्र बनाते और अन्य आत्माओं को भी चित्रकार बना देते हो। औरों के भी श्रेष्ठ चरित्र बनाने के निमित्त टीचर्स हो। इसी में ही बिजी रहते हो ना। फुल बिजी रहो। एक सेकण्ड भी मन-बुद्धि को फुर्सत में रखा तो व्यर्थ संकल्प अपनी तरफ आकर्षित कर लेंगे। सुनाया ना कि सेवा का प्रत्यक्षफल सदा प्राप्त हो - यही निशानी है सदा आज्ञाकारी आत्मा की। कभी सेवा का फल प्रत्यक्ष मिलता और कभी नहीं मिलता, इसका कारण? कोई-न-कोई अवज्ञा होती है। टीचर्स अर्थात् अमृतवेले से लेकर रात तक हर आज्ञा के कदम-पर-कदम रखने वाली। ऐसी टीचर्स हो वा कभी-कभी अलबेला-पन आ जाता है? अलबेला नहीं बनना। जिम्मेवारी के ताजधारी हो। कभी ताज भारी लगता है तो उतार देते हैं। आप उतारने वाले तो नहीं हो ना। सदा आज्ञाकारी माना सदा जिम्मेवारी के ताजधारी। टीचर्स तो सब हैं लेकिन इसको कहते हैं - योग्य टीचर, योगी टीचर।

टीचर्स कभी कम्पलेन नहीं कर सकती। औरों को कम्पलीट करने वाली हो, कम्पलेन करने वाली नहीं। कभी ऐसे पत्र तो नहीं लिखती हो ना - क्या करें, हो गया, होना तो नहीं चाहिए। वह तो समाप्त हो गया ना। सुनाया था - पत्र लिखो जरूर, मधुबन में पत्र जरूर भेजो परंतु ‘‘मैं सदा ओ.के. हूँ'' - बस, यह दो लाइन लिखो। पढ़ने वालों को भी टाइम नहीं। फिर कम्पलेन करते कि पत्र का उत्तर नहीं आया। वास्तव में आप सबके पत्रों का उत्तर बापदादा रोज की मुरली में देता ही है। आप लिखेंगे ओ.के. और बापदादा ओ.के. के रिटर्न में कहते - यादप्यार और नमस्ते।' तो यह रेसपान्ड हुआ ना। समय को भी बचाना है ना। सेवा समाचार भी शार्ट में लिखो। तो समय की भी एकॉनामी, कागज की भी एकॉनामी, पोस्ट की भी एकॉनामी। हो। एकॉनामी क्या हो सकती है। पत्र 3 पेज में भी लिखा जा सकता है। कोई को विस्तार से लिखने का डायरेक्शन मिलता है तो भल लिखो लेकिन दो लाइन में अपनी गलती की क्षमा ले सकते हो। छिपाओ नहीं, लेकिन शार्ट में लिखो। कितने पत्र लिखते हैं, जिनका कोई सार नहीं होता। बाप को कहो - मेरा यह काम कर ले, मेरे को ठीक कर दे, मेरा धंधा ठीक कर दे, मेरी पत्नी को ठीक कर दे .... ऐसे पत्र एक बार नहीं 10 बार भेजते हैं। तो अब एकॉनामी के अवतार बनो और बनाओ। अच्छा!

सभी को यह मेला अच्छा लगता है ना। दुनिया वाले कहते दो दिन का मेला और आपका 4 दिन का मेला है। सभी को पसंद है ना यह मेला। अच्छा!

चारों ओर के सदा समर्थ आत्माओं को, सदा हर कदम में आज्ञाकारी रहने वाले आज्ञाकारी बच्चों को, सदा व्यर्थ को समर्थ में परिवर्तन करने वाले विश्व-परिवर्तक आत्माओं को, सदा अपने चरित्र के चित्रकार बच्चों को समर्थ बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।

बॉम्बे - गुजरात ग्रुप:- बेहद बाप के अर्थात् बेहद के मालिक के बालक हैं, ऐसे समझते हो? बालक सो मालिक होता है, इसलिए बापदादा बच्चों को ‘‘मालेकम् सलाम'' कहते हैं। बेहद बाप के बेहद के वर्से के बालक सो मालिक हो। तो बेहद के वर्से की खुशी भी बेहद होगी ना। बाप बच्चों को अपने से भी आगे रखते हैं। विश्व के राज्य का अधिकारी बच्चों को बनाते हैं, खुद तो नहीं बनते। तो वर्तमान और भविष्य - दोनों अधिकार मिल गये और दोनों ही बेहद हैं! सतयुग में भी हदें तो नहीं होंगी ना - न भाषा की, न रंग की, न देश की। यहाँ तो देखो कितनी हदें हैं! बेहद के आकाश को भी हदों में बाँट दिया है। वहाँ कोई हद नहीं होती। तो बेहद का राज्य-भाग्य हो गया। लेकिन बेहद का राज्य-भाग्य प्राप्त करने वालों को पहले इस समय अपनी देह की हद से परे जाना पड़ेगा। अगर देहभान की हद से निकले तो और सभी हद से निकल जायेंगे। इसलिए बापदादा कहते हैं - पहले देह सहित देह के सब सम्बन्धों से न्यारे बनो। पहले देह फिर देह के सम्बन्धी। तो इस देह के भान की हद से निकले हो? क्योंकि देह की हद कभी भी ऊपर नहीं ले जायेगी। देह मिट्टी है, मिट्टी सदा भारी होती है। कोई भी चीज़ मिट्टी की होगी तो भारी होगी ना। यह देह तो पुरानी मिट्टी है, इसमें फंसने से क्या मिलेगा! कुछ भी नहीं। तो सदा यह नशा रखो कि बेहद बाप और बेहद वर्से का बालक सो मालिक हूँ।' जब बालक बनना है उस समय मालिक नहीं बनो और जब मालिक बनना है उस समय बालक नहीं बनो। जब कोई राय देनी है, प्लैन सोचना है, कुछ कार्य करना है तो मालिक होकर करो लेकिन जब मैजारिटी द्वारा या निमित्त बनी आत्माओं द्वारा कोई भी बात फाइनल हो जाती है तो उस समय बालक बन जाओ, उस समय मालिक नहीं बनो। मेरा ही विचार ठीक है, मेरा ही प्लैन ठीक है - नहीं। उस समय मालिक नहीं बनो। किस समय राय बहादुर बनना है और किस समय राय मानने वाला बनना है- जिसको यह तरीका आ जाता है वह कभी नीचे-ऊपर नहीं होता। वह पुरूषार्थ और सेवा में सफल रहता है। अपने को मोल्ड कर सकता है, अपने को झुका सकता है। झुकने वाले को सदैव ही सेवा का फल मिलता है और अपने अभिमान में रहने वाले को सेवा का फल नहीं मिलता है। तो सफलता की विधि है - बालक सो मालिक, समय पर बालक बनना, समय पर मालिक बनना। यह विधि आती है? अगर छोटी-सी बात को बालक के समय मालिक बन कर सिद्ध करेंगे तो मेहनत ज्यादा और फल कम मिलेगा। और जो विधि को जानते हैं, समय प्रमाण उसको मेहनत कम और फल ज्यादा मिलता है। वह सदा मुस्कराता रहेगा। स्वयं भी खुश रहेगा और दूसरों को देखकर के भी खुश होगा। सिर्फ मैं बड़ा खुश रहता हूँ, यह नहीं। लेकिन खुश करना भी है तो खुश रहना भी है, तब राजा बनेंगे। अपने को मोल्ड करेंगे तो गोल्डन एज का अधिकार जरूर मिलेगा। अच्छा!

दिल्ली ग्रुप:- बापदादा सभी बच्चों को त्रिकालदर्शी श्रेष्ठ आत्मा बनाते हैं। त्रिकालदर्शी अर्थात् पास्ट, प्रेजेंट और फ्यूचर - तीनों कालों को जानने वाले। जो तीनों कालों को जानने वाली आत्मा है वह कभी भी माया से हार नहीं खा सकती। क्योंकि वर्तमान क्या है और भविष्य में क्या होने वाला है - दोनों ही त्रिकालदर्शी आत्मा की बुद्धि में स्पष्ट रहता है-क्या हूँ और क्या बनने वाली हूँ। क्या थी-वह भी जानते हैं लेकिन नशा वर्तमान और भविष्य का है। वर्तमान समय की लिस्ट निकालो - क्या हो, तो कितनी लम्बी लिस्ट होगी! कितने टाइटल बाप ने दिये! औरों को जो टाइटल मिलते हैं वह आत्माओं द्वारा आत्माओं को मिलते हैं और अल्पकाल का टाइटल होता है, एक जन्म भी चले या नहीं चले। आज प्राइम-मिनिस्टर का टाइटल मिला, कितना समय चला? आज है कल नहीं। तो अल्पकाल के टाइटल हुए ना। आपके टाइटल अविनाशी हैं क्योंकि देने वाला अविनाशी बाप है। बाप ने नूरे रत्न' बनाया तो सारा कल्प जहान के नूर बन गये। अपने राज्य में भी विश्व की नजरों में होंगे ना! तो नूरे जहान हो गये ना। और भक्ति में भी नूरे जहान होंगे। सारे जहान के आगे विशेष आत्माएं तो आती हैं ना, तब तो पूजते हैं। तो अविनाशी हो गये। तो लिस्ट निकालो - कितने टाइटल परमात्मा द्वारा मिलते हैं। और अविनाशी टाइटल तो नशा भी अविनाशी होगा ना। जैसे कहा जाता है कि खुशी में सदा उड़ते रहते हैं। खुशी में रहने वाले के पाँव सदा धरनी से ऊँचे होते हैं क्योंकि खुशी में नाचेंगे ना। तो अविनाशी टाइटल याद करने से नैचुरल उड़ते रहेंगे, इस देह रूपी धरनी पर पाँव नहीं होंगे। बुद्धि है पाँव। तो बुद्धि रूपी पाँव खुशी से ऊपर रहेंगे, देहभान से परे रहेंगे। इसलिए बापदादा फरिश्ता' कहते हैं। फरिश्ते' का अर्थ ही है बुद्धि रूपी पाँव धरनी पर न हो। न देह में, न देह के सम्बन्ध में, न देह के पुराने पदार्थो में। यह है धरनी। इससे ऊपर। ऐसे रहते हो या कभी-कभी धरनी में आने की दिल होती हैं? कभी धरनी आकर्षित तो नहीं करती? स्थूल चीजों को तो स्थूल धरनी आकर्षित करके ऊपर से नीचे ले आती है लेकिन आपको नहीं कर सकती। तो नीचे आते हो या ऊपर रहते हो? फरिश्ता कहाँ भी जायेगा तो वरदान देने या संदेश देने के लिए, संदेश दिया और यह उड़ा! तो अगर देहधारियों के सम्बन्ध में आते भी हो तो ऊपर से आये, संदेश दिया और यह उड़ा। ऐसे है ना! अच्छा!

बॉम्बे ग्रुप:- स्व-स्थिति की शक्ति से किसी भी परिस्थिति का सामना कर सकते हो ना! स्व-स्थिति अर्थात् आत्मिक-स्थिति। पर-स्थिति व्यक्ति वा प्रकृति द्वारा आती है। अगर स्व-स्थिति शक्तिशाली है तो उसके आगे पर-स्थिति कुछ भी नहीं है। प्रकृति के भी मालिक आप हो ना! आपके परिवर्तन से प्रकृति का परिवर्तन होता है। इस समय आप सतोप्रधान बन रहे हो तो प्रकृति भी तमो से सतो में परिवर्तन हो रही है। आप रजोगुणी बनते हो तो प्रकृति भी रजोगुणी बनती है। तो श्रेष्ठ कौन हुआ? आप हुए ना। इसलिए स्व-स्थिति में सि्थत रहने वाला कभी परिस्थिति से घबराता नहीं है क्योंकि पावरफुल कभी कमज़ोर से नहीं घबराता। व्यक्ति द्वारा भी परिस्थिति आती है। तो आजकल के व्यक्ति भी तो तमोगुणी हैं ना! आप तो सतोगुणी हो। तो तमोगुण पावरफुल नहीं, सतोगुण पावरफुल है। कई ऐसा समझते हैं - और परिस्थितियों से तो पार हो जाते हैं लेकिन जब कोई ब्राह्मण आत्मा द्वारा परिस्थिति आती है तो उसमें घबरा जाते हैं, उसमें थोड़ा ‘‘क्या-क्यों'' में चले जाते हैं। लेकिन जिस समय कोई भी ब्राह्मण आत्मा में माया प्रवेश होती है उस समय ब्राह्मण आत्मा नहीं है, वशीभूत है। इसलिए उससे भी घबरा नहीं सकते। कोई भी ब्राह्मण आत्माएं अगर वशीभूत हैं तो वशीभूत पर रहम आता है, तरस पड़ता है। वशीभूत पर कभी जोश नहीं आता। कोई जान-बूझकर कुछ करता है तो उस पर जोश आता है। तो जब ब्राह्मण आत्मा भी वशीभूत है तो रहम की भावना रखो। फिर घबरायेंगे नहीं, और ही उस आत्मा की सेवा करने लग जायेंगे। शुभ भावना, शुभ कामना द्वारा सेवा करेंगे। तो स्व-स्थिति वाला किसी भी प्रकार की परिस्थिति से घबरा नहीं सकता क्योंकि नॉलेजफुल आत्मा हो गई। तीनों कालों की, सर्व आत्माओं की नॉलेज है। नॉलेजफुल वा त्रिकालदर्शी कभी घबरा नहीं सकते। सदा ही किसी भी परिस्थिति में मुस्कराते रहेंगे। हर्षित होंगे, परिस्थिति से आकर्षित नहीं होंगे। अगर कोई भी परिस्थिति में फेल होते हैं तो परिस्थिति की तरफ आकर्षित हो गये ना! जो हर्षित होगा वह साक्षी होकर खेल देखेगा, आकर्षित नहीं होगा। तो आप सब कौन हो? हर्षित रहने वाले या आकर्षित होने वाले? परिस्थितियाँ और ही महावीर बनाती हैं। क्योंकि परिस्थिति को जानते जाते हो ना! अनुभव की अथार्टी बढ़ती जायेगी। तो ऐसे महावीर हो या कभी-कभी कमज़ोरी का भी मजा ले लेते हो? एक बार भी कोई कमज़ोरी को धारण किया तो एक कमज़ोरी आना माना सब कमज़ोरियों का आना। एक भूत आया तो सभी भूत आ जायेंगे। चाहे विशेष रूप में कोई एक भूत हो लेकिन छिपे हुए सब भूत आते हैं। इसलिए अभी भूतों से मुक्त बनो।