25-11-93 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
सहज सिद्धि प्राप्त करने के लिए ज्ञान स्वरूप प्रयोगी आत्मा बनो
योग के प्रयोग की विधि सिखाने वाले ज्ञान दाता बाप अपने ज्ञानी तू आत्मा बच्चों प्रति बोले-
आज ज्ञान दाता वरदाता अपने ज्ञानी तू आत्मा, योगी तू आत्मा बच्चों को देख रहे हैं। हर एक बच्चा ज्ञान स्वरूप और योगयुक्त कहाँ तक बना है? ज्ञान सुनने और सुनाने के निमित्त बने हैं वा ज्ञान स्वरूप बने हैं? समय प्रमाण योग लगाने वाले बने हैं वा सदा योगी जीवन अर्थात् हर कर्म में योगयुक्त, युक्तियुक्त, स्वत: वा सदा के योगी बने हैं? किसी भी ब्राह्मण आत्मा से कोई भी पूछेंगे कि ज्ञानी और योगी हैं तो क्या कहेंगे? सभी ज्ञानी और योगी हैं ना? ज्ञान स्वरूप बनना अर्थात् हर संकल्प, बोल और कर्म समर्थ होगा। व्यर्थ समाप्त होगा। क्योंकि जहाँ समर्थ है वहाँ व्यर्थ हो नहीं सकता। जैसे प्रकाश और अन्धियारा साथ-साथ नहीं होता। तो ‘ज्ञान’ प्रकाश है, ‘व्यर्थ’ अन्धकार है। वर्तमान समय व्यर्थ को समाप्त करने का अटेन्शन रखना है। सबसे मुख्य बात संकल्प रूपी बीज को समर्थ बनाना है। अगर संकल्प रूपी बीज समर्थ है तो वाणी, कर्म, सम्बन्ध सहज ही समर्थ हो ही जाता है। तो ज्ञान स्वरूप अर्थात् हर समय, हर संकल्प, हर सेकेण्ड समर्थ।
योगी तू आत्मा सभी बने हो लेकिन हर संकल्प स्वत: योगयुक्त, युक्तियुक्त हो, इसमें नम्बरवार हैं। क्यों नम्बर बने? जब विधाता भी एक है, विधि भी एक है फिर नम्बर क्यों? बापदादा ने देखा योगी तो बने हैं लेकिन प्रयोगी कम बनते हैं। योग करने और कराने दोनों में सभी होशियार हैं। ऐसा कोई है जो कहे कि योग कराना नहीं आता? जैसे योग करने-कराने में योग्य हो, ऐसे ही प्रयोग करने में योग्य बनना और बनाना-इसको कहा जाता है योगी जीवन अर्थात् योगयुक्त जीवन। अभी प्रयोगी जीवन की आवश्यकता है। जो योग की परिभाषा जानते हो, वर्णन करते हो वो सभी विशेषतायें प्रयोग में आती हैं? सबसे पहले अपने आपमें यह चेक करो कि अपने संस्कार परिवर्तन में कहाँ तक प्रयोगी बने हो? क्योंकि आप सबके श्रेष्ठ संस्कार ही श्रेष्ठ संसार के रचना की नींव हैं। अगर नींव मजबूत है तो अन्य सभी बातें स्वत: मजबूत हुई ही पड़ी हैं। तो यह देखो कि संस्कार समय पर कहाँ धोखा तो नहीं देते हैं? श्रेष्ठ संस्कार को परिवर्तन करने वाले कैसे भी व्यक्ति हो, वस्तु हो, परिस्थिति हो, योग के प्रयोग करने वाली आत्मा को श्रेष्ठ से साधारणता में हिला नहीं सकते। ऐसे नहीं कि बात ही ऐसी थी, व्यक्ति ही ऐसा था वा वायुमण्डल ऐसा था इसलिये श्रेष्ठ संस्कार को परिवर्तन कर साधारण वा व्यर्थ बना दिया, तो क्या इसको प्रयोगी आत्मा कहेंगे? अगर समय पर योग की शक्तियों का प्रयोग नहीं हुआ तो इसको क्या कहा जायेगा? तो पहले इस फाउन्डेशन को देखो कि कहाँ तक समय पर प्रयोगी बने हैं? अगर स्व के संस्कार परिवर्तक नहीं बने हैं तो नये संसार परिवर्तक कैसे बनेंगे?
प्रयोगी आत्मा की पहली निशानी है-संस्कार के ऊपर सदा प्रयोग में विजयी। दूसरी निशानी-प्रकृति द्वारा आने वाली परिस्थितियों पर योग के प्रयोग द्वारा विजयी। समय प्रति समय प्रकृति की हलचल भी योगी आत्मा को अपने तरफ आकर्षित करती है। ऐसे समय पर योग की विधि प्रयोग में आती है? कभी योगी पुरूष को वा पुरूषोत्तम आत्मा को प्रकृति प्रभावित तो नहीं करती? क्योंकि ब्राह्मण आत्मायें पुरूषोत्तम आत्मायें हो। प्रकृति पुरूषोत्तम आत्माओं की दासी है। मालिक, दासी के प्रभाव में आ जाये-इसको क्या कहेंगे? आजकल पुरूषोत्तम आत्माओं को प्रकृति साधनों और सैलवेशन के रूप में प्रभावित करती है। साधन वा सैलवेशन के आधार पर योगी जीवन है। साधन वा सैलवेशन कम तो योगयुक्त भी कम-इसको कहा जाता है प्रभावित होना। योगी वा प्रयोगी आत्मा की साधना के आगे साधन स्वत: ही स्वयं आते हैं। साधन साधना का आधार नहीं हो लेकिन साधना साधनों को स्वत: आधार बनायेगी। इसको कहा जाता है प्रयोगी आत्मा-तो चेक करो-संस्कार परिवर्तन विजयी और प्रकृति के प्रभाव के विजयी कहाँ तक बने हैं? तीसरी निशानी है-विकारों पर विजयी। योगी वा प्रयोगी आत्मा के आगे ये पांच विकार, जो दूसरों के लिये जहरीले सांप है लेकिन आप योगी-प्रयोगी आत्माओं के लिये ये सांप गले की माला बन जाते हैं। आप ब्राह्मणों के और ब्रह्मा बाप के अशरीरी तपस्वी शंकर स्वरूप का यादगार अभी भी भक्त लोग पूजते और गाते रहते हैं। दूसरा यादगार-ये सांप आपके अधीन ऐसे बन जाते जो आपके खुशी में नाचने की स्टेज बन जाते हैं। जब विजयी बन जाते हैं तो क्या अनुभव करते हैं? क्या स्थिति होती है? खुशी में नाचते रहते हैं ना। तो यह स्थिति स्टेज के रूप में दिखाई है। स्थिति को भी स्टेज कहा जाता है। ऐसे विकारों पर विजय हो-इसको कहा जाता है प्रयोगी। तो यह चेक करो-कहाँ तक प्रयोगी बने हैं? अगर योग का समय पर प्रयोग नहीं, योग की विधि से समय पर सिद्धि नहीं तो यथार्थ विधि कहेंगे? समय अपनी तीव्र गति समय प्रति समय दिखा रहा है। अनेकता, अधर्म, तमोप्रधानता हर क्षेत्र में तीव्र गति से बढ़ता जा रहा है। ऐसे समय पर आपके योग के विधि की वृद्धि वा विधि के सिद्धि में वृद्धि तीव्र गति से होना आवश्यक है। नम्बर आगे बढ़ने का आधार है-प्रयोगी बनने की सहज विधि। तो बापदादा ने क्या देखा-समय पर प्रयोग करने में तीव्र गति के बजाय साधारण गति है। अभी इसको बढ़ाओ। तो क्या होगा-सिद्धि स्वरूप अनुभव करते जायेंगे। आपके जड़ चित्रों द्वारा सिद्धि प्राप्त करने का अनुभव करते रहते हैं। चैतन्य में सिद्धि स्वरूप बने हो तब यह यादगार चला आ रहा है। रिद्धि-सिद्धि वाले नहीं, विधि से सिद्धि। तो समझा क्या करना है? है सब कुछ लेकिन समय पर प्रयोग करना और प्रयोग सफल होना इसको कहा जाता है ज्ञान स्वरूप आत्मा। ऐसे ज्ञान स्वरूप आत्मायें अति समीप और अति प्रिय हैं। अच्छा!
सदा योग की विधि द्वारा श्रेष्ठ सिद्धि को अनुभव करने वाले, सदा साधारण संस्कार को श्रेष्ठ संस्कार में परिवर्तन करने वाले, संस्कार परिवर्तक आत्माओं को, सदा प्रकृति जीत, विकारों पर जीत प्राप्त करने वाले विजयी आत्माओं को, सदा प्रयोग के गति को तीव्र अनुभव करने वाले ज्ञान स्वरूप, योगयुक्त योगी आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।
(24 नवम्बर को दो कुमारियों के समर्पण समारोह के बाद रात्रि 10 बजे दादी आलराउन्डर ने अपना पुराना चोला छोड़ बापदादा की गोद ली, 25 तारीख दोपहर में उनका अन्तिम संस्कार किया गया, सायंकाल मुरली के पश्चात दादियों से मुलाकात करते समय बापदादा ने जो महावाक्य उच्चारे वह इस प्रकार हैं) :-
खेल में भिन्न-भिन्न खेल देखते रहते हो। साक्षी हो खेल देखने में मजा आता है ना। चाहे कोई उत्सव हो, चाहे कोई शरीर छोड़े-दोनों ही क्या लगता है? खेल में खेल लगता है। और लगता भी ऐसे ही है ना जैसे खेल होता है और समय प्रमाण समाप्त हो जाता है। ऐसे ही जो हुआ सहज समाप्त हुआ तो खेल ही लगता है। हर आत्मा का अपना-अपना पार्ट है। सर्व आत्माओं की शुभ भावना, अनेक आत्माओं की शुभ भावना प्राप्त होना-यह भी हर आत्मा के भाग्य की सिद्धि है। तो जो भी हुआ, क्या देखा? खेल देखा या मृत्यु देखा? एक तरफ वहीं अलौकिक स्वयंवर देखा और दूसरे तरफ चोला बदलने का खेल देखा। लेकिन दोनों क्या लगे? खेल में खेल। फर्क पड़ता है क्या? स्थिति में फर्क पड़ता है? अलौकिक स्वयंवर देखने में और चोला बदलते हुए देखने में फर्क पड़ा?थोड़ी लहर बदली हुई कि नहीं? साक्षी होकर खेल देखो तो वो अपने विधि का और वो अपने विधि का। सहज नष्टोमोहा होना यह बहुत काल के योग के विधि की सिद्धि है। तो नष्टोमोहा, सहज मृत्यु का खेल देखा। इस खेल का क्या रहस्य देखा? देह के स्मृति से भी उपराम। चाहे व्याधि द्वारा, चाहे विधि द्वारा - और कोई भी आकर्षण अन्त समय आकर्षित नहीं करे। इसको कहा जाता है सहज चोला बदली करना। तो क्या करना है? नष्टोमोहा, सेन्टर भी याद नहीं आये। (टीचर्स को देखते हुए) ऐसे नहीं कोई जिज्ञासू याद आ जाये, कोई सेन्टर की वस्तु याद आ जाये, कुछ किनारे किया हुआ याद आ जाये ...। सबसे न्यारे और बाप के प्यारे। पहले से ही किनारे छुटे हुए हों। कोई किनारे को सहारा नहीं बनाना है। सिवाए मंज़िल के और कोई लगाव नहीं हो। अच्छा!
निर्मलशांता दादी से मुलाकात
संगठन अच्छा लगता है? संगठन की विशेष शोभा हो। सबकी नजर कितने प्यार से आप सबके तरफ जाती है! जब तक जितनी सेवा है उतनी सेवा शरीर द्वारा होनी ही है। कैसे भी करके शरीर चलता ही रहेगा। शरीर को चलाने का ढंग आ गया है ना। अच्छा चल रहा है। क्योंकि बाप की और सबकी दुआयें हैं। खुश रहना है और खुशी बांटनी है और क्या काम है। सब देख-देख कितने खुश होते हैं तो खुशी बांट रहे हैं ना। खा भी रहे हैं, बांट भी रहे हैं। आप सब एक-एक दर्शनीय मूर्त हो। सबकी नजर निमित्त आत्माओं तरफ जाती है तो दर्शनीय मूर्त हो गये ना। अच्छा!
अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात
ग्रुप नं. 1
ब्राह्मण जीवन का आधार - याद और सेवा
ड्रामा अनुसार ब्राह्मण जीवन में सभी को सेवा का चांस मिला हुआ है ना। क्योंकि ब्राह्मण जीवन का आधार ही है याद और सेवा। अगर याद और सेवा कमज़ोर है तो जैसे शरीर का आधार कमज़ोर हो जाता है तो शरीर दवाइयों के धक्के से चलता है ना। तो ब्राह्मण जीवन में अगर याद और सेवा का आधार मजबूत नहीं, कमज़ोर है, तो वह ब्राह्मण जीवन भी कभी तेज चलेगा, कभी ढीला चलेगा, धक्के से चलेगा। कोई सहयोग मिले, कोई साथ मिले, कोई सरकमस्टांस मिले तो चलेंगे, नहीं तो ढीले हो जायेंगे। इसलिए याद और सेवा का विशेष आधार सदा शक्तिशाली चाहिए। दोनों ही शक्तिशाली हों। सेवा बहुत है, याद कमज़ोर है या याद बहुत अच्छी है, सेवा कमज़ोर है तो भी तीव्रगति नहीं हो सकती। याद और सेवा दोनों में तीव्रगति चाहिए। शक्तिशाली चाहिए। तो दोनों ही शक्तिशाली हैं या फर्क पड़ जाता है? कभी सेवा ज्यादा हो जाती, कभी याद ज्यादा हो जाती? दोनों साथ-साथ हों। याद और निस्वार्थ सेवा। स्वार्थ की सेवा नहीं, निस्वार्थ सेवा है तो माया जीत बनना बहुत सहज है। हर कर्म में, कर्म की समाप्ति के पहले सदा विजय दिखाई देगी। इतना अटल निश्चय का अनुभव होगा कि विजय तो हुई पड़ी है? अगर ब्राह्मण आत्माओं की विजय नहीं होगी तो किसकी होगी? क्षत्रियों की होगी क्या? ब्राह्मणों की विजय है ना। क्वेश्चन मार्क नहीं होगा। कर तो रहे हैं, चल तो रहे हैं, देख लेंगे, हो जायेगा, होना तो चाहिए-तो ये शब्द नहीं आयेंगे। पता नहीं क्या होगा, होगा या नहीं होगा-यह निश्चय के बोल हैं? निश्चयबुद्धि विजयी-यह गायन है ना? तो जब प्रैक्टिकल हुआ है तब तो गायन है। निश्चयबुद्धि की निशानी है-विजय निश्चित। जैसे किसी भी प्रकार की किसको शक्ति होती है-चाहे धन की हो, बुद्धि की हो, सम्बन्ध-सम्पर्क की हो तो उसको निश्चय रहता है-यह क्या बड़ी बात है, यह तो कोई बात ही नहीं है। आपके पास तो सब शक्तियां हैं। धन की शक्ति है कि धन की शक्ति करोड़पतियों के पास है? सबसे बड़ा धन है अविनाशी धन, जो सदा साथ है। तो धन की शक्ति भी है, बुद्धि की शक्ति भी है, पोजीशन की शक्ति भी है। जो भी शक्तियां गाई हुई हैं सब शक्तियां आप में हैं। हैं या कभी प्राय: लोप हो जाती हैं? इन्हें इमर्ज रूप में अनुभव करो। ऐसे नहीं-हाँ, हूँ तो सर्वशक्तिमान का बच्चा लेकिन अनुभव नहीं होता। तो सभी भरपूर हो कि थोड़ा-थोड़ा खाली हो? समय पर विधि द्वारा सिद्धि प्राप्त हो। ऐसे नहीं समय पर हो नहीं और वैसे नशा हो कि बहुत शक्तियां हैं। कभी अपनी शक्तियों को भूलना नहीं, यूज़ करते जाओ-अगर स्व प्रति कार्य में लगाना आता है तो दूसरे के कार्य में भी लगा सकते हैं। पाण्डवों में शक्ति आ गई या कभी क्रोध आता है? थोड़ा-थोड़ा क्रोध आता है? कोई क्रोध करे तो क्रोध आता है, कोई इन्सल्ट करे तो क्रोध आता है? यह तो ऐसे ही हुआ जैसे दुश्मन आता है तो हार होती है। माताओं को थोड़ा-थोड़ा मोह आता है? पाण्डवों को अपने हर कल्प के विजयपन की सदा खुशी इमर्ज होनी चाहिये। कभी भी कोई पाण्डवों को याद करेंगे तो पाण्डव शब्द से विजय सामने आयेगी ना। पाण्डव अर्थात् विजयी। पाण्डवों की कहानी का रहस्य ही क्या है? विजय है ना। तो हर कल्प के विजयी। इमर्ज रूप में नशा रहे। मर्ज नहीं। अच्छा!
ग्रुप नं. 2
सर्व द्वारा मान प्राप्त करने के लिए निर्माण बनो
सभी अपने को सदा कोटों में कोई और कोई में भी कोई श्रेष्ठ आत्मा अनुभव करते हों? कि कोटों में कोई जो गाया हुआ है वो और कोई है? या आप ही हो? तो कितना एक-एक आत्मा का महत्व है अर्थात् हर आत्मा महान है। तो जो जितना महान होता है, महानता की निशानी जितना महान उतना निर्माण। क्योंकि सदा भरपूर आत्मा है। जैसे वृक्ष के लिये कहते हैं ना जितना भरपूर होगा उतना झुका हुआ होगा और निर्माणता ही सेवा करती है। जैसे वृक्ष का झुकना सेवा करता है, अगर झुका हुआ नहीं होगा तो सेवा नहीं करेगा। तो एक तरफ महानता है और दूसरे तरफ निर्माणता है। और जो निर्माण रहता है वह सर्व द्वारा मान पाता है। स्वयं निर्माण बनेंगे तो दूसरे मान देंगे। जो अभिमान में रहता है उसको कोई मान नहीं देते। उससे दूर भागेंगे। तो महान और निर्माण है या नहीं है - उसकी निशानी है कि निर्माण सबको सुख देगा। जहाँ भी जायेगा, जो भी करेगा वह सुखदायी होगा। इससे चेक करो कि कितने महान हैं? जो भी सम्बन्ध-सम्पर्क में आये सुख की अनुभूति करे। ऐसे है या कभी दु:ख भी मिल जाता है? निर्माणता कम तो सुख भी सदा नहीं दे सकेंगे। तो सदा सुख देते, सुख लेते या कभी दु:ख देते, दु:ख लेते? चलो देते नहीं लेकिन ले भी लेते हो? थोड़ा फील होता है तो ले लिया ना। अगर कोई भी बात किसी की फील हो जाती है तो इसको कहेंगे दु:ख लेना। लेकिन कोई दे और आप नहीं लो, यह तो आपके ऊपर है ना। जिसके पास होगा ही दु:ख वो क्या देगा? दु:ख ही देगा ना। लेकिन अपना काम है सुख लेना और सुख देना। ऐसे नहीं कि कोई दु:ख दे रहा है तो कहेंगे मैं क्या करूँ? मैंने नहीं दिया लेकिन उसने दिया। अपने को चेक करना है-क्या लेना है, क्या नहीं लेना है। लेने में भी होशियारी चाहिये ना। इसलिये ब्राह्मण आत्माओं का गायन है-सुख के सागर के बच्चे, सुख स्वरूप सुखदेवा हैं। तो सुख स्वरूप सुखदेवा आत्मायें हो। दु:ख की दुनिया छोड़ दी, किनारा कर लिया या अभी तक एक पांव दु:खधाम में है, एक पांव संगम पर है? ऐसे तो नहीं कि थोड़ा-थोड़ा वहाँ बुद्धि रह गई है? पांव नहीं है लेकिन थोड़ी अंगुली रह गई है? जब दु:खधाम को छोड़ चले तो न दु:ख लेना है न दु:ख देना है।
अच्छा! ये वैराइटी ग्रुप है। डबल विदेशी भी हैं। कहाँ के भी हो लेकिन एक के हो। एक के हैं और एक हैं। सब एक क्या हैं? ब्राह्मण आत्मायें हैं। ये तो सेवा के लिये भिन्न-भिन्न स्थान पर बैठै हो लेकिन याद क्या रहता है? हम एक के हैं और सब एक ब्राह्मण आत्मायें हैं। इतनी खुशी रहती है? जब ब्राह्मण आपस में मिलते हैं तो कितनी खुशी होती है! और खुशी भी अविनाशी खुशी। क्योंकि अपना खज़ाना है ना। तो अपना खज़ाना साथ रखेंगे या अलग कर देंगे। तो सभी उड़ते चलो और उड़ाते चलो। समझा। अभी उड़ना है, चलना नहीं है।
वर्तमान वा भविष्य में कभी मूंझते तो नहीं हो। लेकिन स्व-स्थिति के आगे परिस्थिति कुछ भी नहीं। कितना भी बड़ा पहाड़ हो लेकिन आप ऊंचे हो तो पहाड़ छोटा-सा लगेगा। तो जब कोई बड़ी परिस्थिति लगे तो उड़ती कला में चले जाओ। फिर परिस्थिति खिलौना लगेगी। क्या भी हो, कैसे भी हो लेकिन उड़ती कला के आगे कुछ नहीं है।
ग्रुप नं.. 3
माया जीत बनने के लिए मास्टर सवर्शक्तिमान की पोजीशन स्मृति में रखो
अपने को कमल पुष्प समान न्यारे और प्यारे समझते हो? सदा न्यारे और बाप के प्यारे अनुभव करते हो? वा कभी-कभी करते हो? अगर किसी भी प्रकार की माया की परछाई भी पड़ गई तो कमल पुष्प कहेंगे? तो माया आती है या सभी मायाजीत हो? क्योंकि सदा अपने को मास्टर सर्वशक्तिमान श्रेष्ठ आत्मा समझते हो तो मास्टर सर्वशक्तिमान के आगे माया आ नहीं सकती। माया चींटी है या शेर है? तो चींटी पर विजय प्राप्त करना बड़ी बात है क्या? जब अपनी स्मृति की ऊंची स्टेज पर होते हो तो माया चींटी को जीतना सहज लगता है और जब कमज़ोर होते हो तो चींटी भी शेर माफिक लगती है। तो सदा अमृतवेले इस स्मृति को इमर्ज करो कि मैं मास्टर सर्वशक्तिमान हूँ। तो अमृतवेले की स्मृति सारा दिन सहयोग देती रहेगी। जैसे स्थूल पोजीशन वाले अपने पोजीशन को भूलते नहीं। आजकल का प्राइम मिनिस्टर अपने को भूल जायेगा क्या कि मैं प्राइम मिनिस्टर हूँ? आपका पोजीशन है-मास्टर सर्वशक्तिमान। तो भूल नहीं सकते। लेकिन भूल जाते हो इसलिए रोज अमृतवेले इस स्मृति को इमर्ज करने से निरन्तर याद हो जायेगी।
माताओं को नशा रहता है कि जो दुनिया ढूंढ रही है वो हमें प्राप्त है, दुनिया वालों ने ठुकराया लेकिन बाप ने हमें आगे किया।
(तीन भाषा वाले बैठे हैं) बस, ये वेराइटी भाषाओं का थोड़ा सा समय है, फिर तो एक भाषा हो जायेगी। कौन सी एक भाषा होगी? (हिन्दी होगी) तो आपको भी सीखनी पड़ेगी ना। अभी देखो स्थूल पढ़ाई भी हो रही है, रूहानी पढ़ाई भी हो रही है। हिन्दी भी सीख रहे हो ना।
अच्छा है, लगन, स्नेह अच्छा है। कितना स्नेह है? सागर भी इसके आगे कुछ नहीं है। जितना जो स्नेह में रहता है उतना ही बाप द्वारा पदमगुणा स्नेह प्राप्त हुआ अनुभव करता है। अच्छा। सभी उमंग-उत्साह में हो ना। क्या से क्या बन गये!
ग्रुप नं. 4
हिम्मत और उमंग-उत्साह के आधार पर उड़ती कला का अनुभव करो
सदा उड़ती कला के लिये विशेष क्या स्मृति आवश्यक है? कभी भी नीचे नहीं आयें सदा ऊपर रहें उसके लिये क्या आवश्यक है? उड़ने के लिये पंख चाहते हैं ना। तो उड़ती कला के दो पंख कौन से है? (ज्ञान और योग) ज्ञान और योग के साथ हिम्मत और उमंग-उत्साह। अगर हिम्मत है तो हिम्मत से जो चाहे, जैसे चाहे वैसे कर सकते हैं। इसलिये गाया हुआ भी है हिम्मते बच्चे मददे बाप। तो हिम्मत और उमंग-उत्साह रहता है? क्योंकि किसी भी कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिए उमंग उत्साह बहुत जरूरी है। अगर उमंग उत्साह नहीं होगा तो कार्य सफल नहीं हो सकता। क्यों? जहाँ उमंग-उत्साह नहीं होगा वहाँ थकावट बहुत ज्यादा होगी और थका हुआ कभी सफल नहीं होगा। तो हिम्मत और उमंग-उत्साह-इसी आधार पर सदा उड़ती कला का अनुभव कर सकते हो। वर्तमान समय के अनुसार उड़ती कला के सिवाए मंज़िल पर पहुँच नहीं सकते। क्योंकि पुरूषार्थ है एक जन्म का और प्राप्ति 21 जन्म के लिए ही नहीं सारे कल्प की है। द्वापर के बाद भी पूज्य तो बनते हो ना। एक जन्म की मेहनत और अनेक जन्मों की प्राप्ति। तो कितना तीव्र गति से पुरूषार्थ करते हो? ऐसे तीव्र पुरुषार्थी हो या पुरुषार्थी हो? जब समय की पहचान स्मृति में रहती है तो तीव्र पुरूषार्थ के बिना रह नहीं सकते। समय का महत्व सदा याद रखो। ऐसे कभी सोचा था कि एक जन्म में अनेक जन्म सुधर जायेंगे, सफल हो जायेंगे। सोचा नहीं था लेकिन अनुभव कर लिया।
अभी क्या विशेषता करेंगे? प्रदर्शनी और मेला करेंगे! मेला तो कॉमन हो गया। नया क्या करेंगे? जो किया, जितना किया वो अच्छा किया लेकिन अभी कोई पावरफुल माइक निकालो। क्योंकि अभी थोड़े समय में तैयारी ज्यादा करनी है तो माइक चाहिये ना जो आपकी तरफ से एक अनेकों को सन्देश दे। आप कब तक अपना परिचय देते रहेंगे? अभी दूसरे आपका परिचय दें। मातायें ऐसी मातायें निकालो। ऐसी बहुत मातायें हैं जिनका आवाज बुलन्द हो सकता है। माइक का अर्थ है जिसका आवाज बुलन्द हो। मेहनत कम और फल ज्यादा निकले। सदा इसी स्मृति में रहो कि हम बाप के राइट हैण्ड अर्थात् सदा हर कार्य में सहयोगी आत्मायें हैं। तो राईट हैण्ड तो कमाल करेगा ना। अच्छा, कुमारियां भी आई हुई हैं। कुमारियां कमाल का प्लैन बना रही हो या अपने को छोटी समझती हो? क्या कमाल करेंगी? सबसे बड़े से बड़े को ऐसे समझो जो वो छोटा हो जाये आप बड़ी हो जाओ। अच्छा है, कुमारियों की जीवन श्रेष्ठ हो गई। अपने को भाग्यवान समझती हो ना। अच्छा!
ग्रुप नं. 5
विशेष पार्टधारी अर्थात् हर कदम, हर सेकेण्ड सदा अलर्ट, अलबेले नहीं
सदा अपने को चलते-फिरते, खाते-पीते बेहद वर्ल्ड ड्रामा की स्टेज पर विशेष पार्टधारी आत्मा अनुभव करते हो? जो विशेष पार्टधारी होता है उसको सदा हर समय अपने कर्म अर्थात् पार्ट के ऊपर अटेन्शन रहता है। क्योंकि सारे ड्रामा का आधार हीरो पार्टधारी होता है। तो इस सारे ड्रामा का आधार आप हो ना। तो विशेष आत्माओं को वा विशेष पार्टधारियों को सदा इतना ही अटेन्शन रहता है? विशेष पार्टधारी कभी भी अलबेले नहीं होते। अलर्ट होते हैं। तो कभी अलबेलापन तो नहीं आ जाता? कर तो रहे हैं, पहुँच ही जायेंगे, ऐसे तो नहीं सोचते? कर रहे हैं लेकिन किस गति से कर रहे हैं? चल रहे हैं लेकिन किस गति से चल रहे हैं? गति में तो अन्तर होता है ना। कहाँ पैदल चलने वाला और कहाँ प्लेन में चलने वाला! कहने में तो आयेगा कि पैदल वाला भी चल रहा है और प्लेन वाला भी चल रहा है लेकिन फर्क कितना है? तो सिर्फ चल रहे हैं, ब्रह्माकुमार बन गये माना चल रहे हैं लेकिन किस गति से? तीव्रगति वाला ही समय पर मंज़िल पर पहुँचेगा। नहीं तो पीछे रह जायेगा। यहाँ भी प्राप्ति तो होती है लेकिन सूर्यवंशी की होती है या चन्द्रवंशी की होती है अन्तर तो होता है ना। तो सूर्यवंशी में आने के लिए हर संकल्प, हर बोल से साधारणता समाप्त हो। अगर कोई हीरो एक्टर साधारण एक्ट करे तो सभी उस पर हंसेंगे ना। तो यह सदा स्मृति रहे कि मैं विशेष पार्टधारी हूँ इसलिये हर कर्म विशेष हो, हर कदम विशेष हो, हर सेकेण्ड, हर समय, हर संकल्प श्रेष्ठ हो। ऐसे नहीं कि ये तो 5 मिनट साधारण हुआ। पांच मिनट, पांच मिनट नहीं है। संगमयुग के पांच मिनट बहुत महत्व वाले हैं, पांच मिनट पांच साल से भी ज्यादा हैं इसलिए इतना अटेन्शन रहे। इसको कहते हैं तीव्र पुरुषार्थी। तीव्र पुरूषार्थियों का स्लोगन कौन-सा है? ‘‘अब नहीं तो कब नहीं।’’ तो यह सदा याद रहता है? क्योंकि सदा का राज्य भाग्य प्राप्त करना चाहते हो तो अटेन्शन भी सदा। अब थोड़ा समय सदा का अटेन्शन बहुतकाल, सदा की प्राप्ति कराने वाला है। तो हर समय ये स्मृति रहे और चेकिंग हो कि चलते-चलते कभी साधारणता तो नहीं आ जाती? जैसे बाप को परम आत्मा कहा जाता है, तो परम है ना। तो जैसे बाप वैसे बच्चे भी हर बात में परम यानी श्रेष्ठ।
तो अभी स्वयं का पुरूषार्थ भी तीव्र और सेवा में भी कम समय, कम मेहनत और सफलता ज्यादा। एक अनेकों जितना काम करे। तो ऐसा प्लैन बनाओ। पंजाब है तो बहुत पुराना। सेवा के आदि से हो तो आदि स्थान वाले कोई आदि रत्न निकालो। वैसे भी पंजाब को शेर कहते हैं ना। तो शेर गजगोर करता है ना। तो गजगोर अर्थात् बुलन्द आवाज। अब देखेंगे - क्या करते हैं और कौन करते हैं?
सदा स्मृति रहे कि मैं विशेष पार्टधारी हूँ। हर कदम विशेष हो, हर सेकेण्ड, हर समय, हर संकल्प श्रेष्ठ हो, उसको कहते हैं तीव्र पुरुषार्थी। तीव्र
पुरूषार्थियों का स्लोगन है --’’अब नहीं तो कब नहीं।’’