09-12-93 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
एकाग्रता की शक्ति से दृढ़ता द्वारा सहज सफलता की प्राप्ति
सहज सफलता की विधि बताने वाले विश्व परिवर्तक बापदादा अपने जिम्मेवार बच्चों प्रति बोले -
आज ब्राह्मण संसार के रचता अपने चारों ओर के ब्राह्मण परिवार को देख हर्षित हो रहे हैं। ये छोटा-सा न्यारा और अति प्यारा अलौकिक ब्राह्मण संसार है। सारे ड्रामा में अति श्रेष्ठ संसार है। क्योंकि ब्राह्मण संसार की हर गति-विधि न्यारी और विशेष है। इस ब्राह्मण संसार में ब्राह्मण आत्मायें भी विश्व में से विशेष आत्मायें हैं। इसलिये ही ये विशेष आत्माओं का संसार है। हर ब्राह्मण आत्मा की श्रेष्ठ वृत्ति, श्रेष्ठ दृष्टि और श्रेष्ठ कृति विश्व की सर्व आत्माओं के लिये श्रेष्ठ बनाने के निमित्त है। हर आत्मा के ऊपर ये विशेष जिम्मेवारी है तो हर एक अपने इस जिम्मेवारी को अनुभव करते हो? कितनी बड़ी जिम्मेवारी है! सारे विश्व का परिवर्तन! न सिर्फ आत्माओं का परिवर्तन करते हो लेकिन प्रकृति का भी परिवर्तन करते हो। ये स्मृति सदा रहे-इसमें नम्बरवार हैं। सभी ब्राह्मण आत्माओं के अन्दर संकल्प सदा रहता है कि हम विशेष आत्मा नम्बरवन बनें लेकिन संकल्प और कर्म में अन्तर पड़ जाता है। इसका कारण? कर्म के समय सदा अपनी स्मृति को अनुभवी स्थिति में नहीं लाते। सुनना, जानना, ये दोनों याद रहता है लेकिन स्वयं को उस स्थिति में मानकर चलना, इसमें मैजारिटी कभी अनुभवी और कभी सिर्फ मानने और जानने वाले बन जाते हैं। इस अनुभव को बढ़ाने के लिये दो बातों के विशेष महत्व को जानो-एक स्वयं के महत्व को, दूसरा समय के महत्व को। स्वयं के प्रति बहुत जानते हो। अगर किसी से भी पूछेंगे कि आप कौन-सी आत्मा हो? वा अपने से भी पूछेंगे कि मैं कौन? तो कितनी बातें स्मृति में आयेंगी? एक मिनिट के अन्दर अपने कितने स्वमान याद आ जाते हैं? एक मिनिट में कितने याद आते हैं? बहुत याद आते हैं ना। कितनी लम्बी लिस्ट है-स्वयं के महत्व की! तो जानने में तो बहुत होशियार हो। सभी होशियार हो ना? फिर अनुभव करने में अन्तर क्यों पड़ जाता है? क्योंकि समय पर उस स्थिति के सीट पर सेट नहीं होते हो। अगर सीट पर सेट है तो कोई भी, चाहे कमज़ोर संस्कार, चाहे कोई आत्मायें, चाहे प्रकृति, चाहे किसी भी प्रकार की रॉयल माया अपसेट नहीं कर सकती। जैसे शरीर के रूप में भी बहुत आत्माओं को एक सीट पर वा स्थान पर एकाग्र होकर बैठने का अभ्यास नहीं होता तो वह क्या करेगा? हिलता रहेगा ना। ऐसे मन और बुद्धि को किसी भी अनुभव के सीट पर सेट होना नहीं आता तो अभी-अभी सेट होगा, अभी-अभी अपसेट। शरीर को बिठाने के लिये स्थूल स्थान होता है और मन-बुद्धि को बिठाने के लिये श्रेष्ठ स्थितियों का स्थान है। तो बापदादा बच्चों का यह खेल देखते रहते हैं-अभी-अभी अच्छी स्थिति के अनुभव में स्थित होते हैं और अभी-अभी अपने स्थिति से हलचल में आ जाते हैं। जैसे छोटे बच्चे चंचल होते हैं तो एक स्थान पर ज्यादा समय टिक नहीं सकते। तो कई बच्चे यह बचपन के खेल बहुत करते हैं। अभी-अभी देखेंगे बहुत एकाग्र और अभी-अभी एकाग्रता के बजाय भिन्न-भिन्न स्थितियों में भटकते रहेंगे। तो इस समय विशेष अटेन्शन चाहिये-मन और बुद्धि सदा एकाग्र रहे।
एकाग्रता की शक्ति सहज निर्विघ्न बना देती है। मेहनत करने की आवश्यकता ही नहीं है। एकाग्रता की शक्ति स्वत: ‘एक बाप दूसरा न कोई’ ये अनुभूति सदा कराती है। एकाग्रता की शक्ति सहज एकरस स्थिति बनाती है। एकाग्रता की शक्ति सदा सर्व प्रति एक ही कल्याण की वृत्ति सहज बनाती है। एकाग्रता की शक्ति सर्व प्रति भाई-भाई की दृष्टि स्वत: बना देती है। एकाग्रता की शक्ति हर आत्मा के सम्बन्ध में स्नेह, सम्मान, स्वमान के कर्म सहज अनुभव कराती है। तो अभी क्या करना है? क्या अटेन्शन देना है? ‘एकाग्रता’। स्थित होते हो, अनुभव भी करते हो लेकिन एकाग्र अनुभवी नहीं होते। कभी श्रेष्ठ अनुभव में, कभी मध्यम, कभी साधारण, तीनों में चक्कर लगाते रहते हो। इतना समर्थ बनो जो मन-बुद्धि सदा आपके ऑर्डर अनुसार चले। स्वप्न में भी सेकण्ड मात्र भी हलचल में नहीं आये। मन, मालिक को परवश नहीं बनाये।
परवश आत्मा की निशानी है - उस आत्मा को उतना समय सुख, चैन, आनन्द की अनुभूति चाहते हुए भी नहीं होगी। ब्राह्मण आत्मा कभी किसी के परवश नहीं हो सकती, अपने कमज़ोर स्वभाव और संस्कार के वश भी नहीं। वास्तव में ‘स्वभाव’ शब्द का अर्थ है ‘स्व का भाव’। स्व का भाव तो अच्छा होता है, खराब नहीं होता। ‘स्व’ कहने से क्या याद आता है? आत्मिक स्वरूप याद आता है ना। तो स्व-भाव अर्थात् स्व प्रति व सर्व प्रति आत्मिक भाव हो। जब भी कमज़ोरी वश सोचते हो कि मेरा स्वभाव वा मेरा संस्कार ही ऐसा है, क्या करूँ, है ही ऐसा........ यह कौन-सी आत्मा बोलती है? यह शब्द वा संकल्प परवश आत्मा के हैं। तो जब भी यह संकल्प आये कि स्वभाव ऐसा है, तो श्रेष्ठ अर्थ में टिक जाओ। संस्कार सामने आये कि मेरा संस्कार...., तो सोचो क्या मुझ विशेष आत्मा के यह संस्कार हैं, जिसको मेरा संस्कार कह रहे हो? मेरा कहते हो तो कमज़ोर संस्कार भी मेरापन के कारण छोड़ते नहीं हैं। क्योंकि यह नियम है जहाँ मेरापन होता है वहाँ अपनापन होता है और जहाँ अपनापन होता है वहाँ अधिकार हाेता है। तो कमज़ोर संस्कार को मेरा बना लिया तो वो अपना अधिकार छोड़ते नहीं हैं। इसलिये परवश होकर बाप के आगे अर्जा डालते रहते हो कि छुड़ाओ-छुड़ाओ। ‘संस्कार’ शब्द कहते याद करो कि अनादि संस्कार, आदि संस्कार ही मेरा संस्कार है। ये माया के संस्कार हैं, मेरे नहीं। तो एकाग्रता की शक्ति से परवश स्थिति को परिवर्तन कर मालिकपन की स्थिति की सीट पर सेट हो जाओ।
योग में भी बैठते हैं, बैठते तो सभी रूचि से हैं लेकिन जितना समय, जिस स्थिति में स्थिति होना चाहते हैं, उतना समय एकाग्र स्थिति रहे, उसकी आवश्यकता है। तो क्या करना है? किस बात को अण्डरलाइन करेंगे? (एकाग्रता) एकाग्रता में ही दृढ़ता होती है और जहाँ दृढ़ता है वहाँ सफलता गले का हार है। अच्छा!
चारों ओर के अलौकिक ब्राह्मण संसार की विशेष आत्माओं को, सदा श्रेष्ठ स्थिति के अनुभव की सीट पर सेट रहने वाली आत्माओं को, सदा स्वयं के महत्व को अनुभव करने वाले, सदा एकाग्रता की शक्ति से मन-बुद्धि को एकाग्र करने वाले, सदा एकाग्रता के शक्ति से ही दृढ़ता द्वारा सहज सफलता प्राप्त करने वाले सर्वश्रेष्ठ, सर्व विशेष, सर्व स्नेही आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।
अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात
ग्रुप. नं. 1
उड़ती कला में जाने के लिए डबल लाइट बनो, कोई भी आकर्षण आकर्षित न करे
सभी अपने को वर्तमान समय के प्रमाण तीव्र गति से उड़ने वाले अनुभव करते हो? समय की गति तीव्र है वा आत्माओं के पुरूषार्थ की गति तीव्र है? समय आपके पीछे-पीछे है या आप समय के प्रमाण चल रहे हो? समय के इन्तजार में तो नहीं हो ना कि अन्त में सब ठीक हो जायेगा। सम्पूर्ण हो जायेंगे, बाप समान हो जायेंगे? ऐसे तो नहीं है ना! क्योंकि ड्रामा के हिसाब से वर्तमान समय बहुत तीव्र गति से जा रहा है, अति में जा रहा है। जो कल था उससे आज और अति में जा रहा है। यह तो जानते हो ना? जैसे समय अति में जा रहा है, ऐसे आप श्रेष्ठ आत्मायें भी पुरूषार्थ में अति तीव्र अर्थात् फास्ट गति से जा रहे हो? कि कभी ढीले, कभी तेज? ऐसे नहीं कि नीचे आकर फिर ऊपर जाओ। नीचे-ऊपर होने वाले की गति कभी एकरस फास्ट नहीं हो सकती। तो सदा सर्व बातों में श्रेष्ठ वा तीव्र गति से उड़ने वाले हो। वैसे गायन है ‘चढ़ती कला सर्व का भला’ लेकिन अभी क्या कहेंगे? ‘उड़ती कला, सर्व का भला’। अभी चढ़ती कला का समय भी समाप्त हुआ, अभी उड़ती कला का समय है। तो उड़ती कला के समय कोई चढ़ती कला से पहुँचना चाहे तो पहुँच सकेगा? नहीं। तो सदा उड़ती कला हो। उड़ती कला की निशानी है सदा डबल लाइट। डबल लाइट नहीं तो उड़ती कला हो नहीं सकती। थोड़ा भी बोझ नीचे ले आता है। जैसे प्लेन में जाते हैं, उड़ते हैं तो अगर मशीनरी में या पेट्रोल में जरा भी कचरा आ गया तो क्या हालत होती है? उड़ती कला से गिरती कला में आ जाता है। तो यहाँ भी अगर किसी भी प्रकार का बोझ है, चाहे अपने संस्कारों का, चाहे वायुमण्डल का, चाहे किसी आत्मा के सम्बन्ध-सम्पर्क का, कोई भी बोझ है तो उड़ती कला से हलचल में आ जाता है। कहेंगे वैसे तो मैं ठीक हूँ लेकिन ये कारण है ना इसीलिये ये संस्कार का, व्यक्ति का, वायुमण्डल का बंधन है। लेकिन कारण कैसा भी हो, क्या भी हो, तीव्र पुरुषार्थी सभी बातों को ऐसे क्रॉस करते हैं जैसे कुछ है ही नहीं। मेहनत नहीं, मनोरंजन अनुभव करेंगे। तो ऐसी स्थिति को कहा जाता है उड़ती कला। तो उड़ती कला है या कभी-कभी नीचे आने का, चक्कर लगाने का दिल हो जाता है। कहीं भी लगाव नहीं हो। जरा भी कोई आकर्षण आकर्षित नहीं करे। रॉकेट भी तब उड़ सकता है, जब धरती की आकर्षण से परे हो जाये। नहीं तो ऊपर उड़ नहीं सकता। न चाहते भी नीचे आ जायेगा। तो कोई भी आकर्षण ऊपर नहीं ले जा सकती। सम्पूर्ण बनने नहीं देगी। तो चेक करो संकल्प में भी कोई आकर्षण आकर्षित नहीं करे। सिवाए बाप के और कोई आकर्षण नहीं हो। पाण्डव क्या समझते हैं? ऐसे तीव्र पुरुषार्थी बनो। बनना तो है ही ना। कितने बार ऐसे बने हो? अनेक बार बने हो। आप ही बने हो या दूसरे बने हैं? आप ही बने हो। तो नम्बरवार में तो नहीं आना है ना, नम्बरवन में आना है। मातायें क्या करेंगी? नम्बरवन या नम्बरवार भी चलेगा? 108 नम्बर भी चलेगा? 108 नम्बर बनेंगे कि पहला नम्बर बनेंगे? अगर बाप के बने हैं, अधिकारी बने हैं तो पूरा वर्सा लेना है या थोड़ा कम? फिर तो नम्बरवन बनेंगे ना। दाता फुल दे रहा है और लेने वाला कम ले तो क्या कहेंगे? इसलिये नम्बरवन बनना है। नम्बरवन चाहे एक ही हो लेकिन नम्बरवन डिविजन तो बहुत हैं ना। तो सेकण्ड में नहीं आना है। लेना है तो पूरा लेना है। अधूरा लेने वाले तो पीछे-पीछे बहुत आयेंगे। लेकिन आपको पूरा लेना है। सभी पूरा लेने वाले हो या थोड़े में राजी होने वाले हो? जब खुला भण्डार है और अखुट है तो कम क्यों लें? बेहद है ना, हद हो कि 8 हजार इसको मिलना है, 10 हजार इसको मिलना है तो कहेंगे भाग्य में इतना ही है, लेकिन बाप का खुला भण्डार है, अखुट है, जितना लेना चाहे ले सकते हैं फिर भी अखुट है। अखुट खज़ाने के मालिक हो। बालक सो मालिक हो। तो सभी सदा खुश रहने वाले हो ना कि थोड़ा-थोड़ा कभी दु:ख की लहर आती है? दु:ख की लहर स्वप्न में भी नहीं आ सकती। संकल्प तो छोड़ो लेकिन स्वप्न में भी नहीं आ सकती। इसको कहा जाता है नम्बरवन। तो क्या कमाल करके दिखायेंगे? सभी नम्बरवन आकर दिखायेंगे ना?
वैसे भी दिल्ली को दिल कहते हैं। तो जैसा दिल होगा वैसा शरीर चलेगा। आधार तो दिल होता है ना। दिल है दिलाराम की दिल। तो दिल की गद्दी यथार्थ चाहिये ना, नीचे-ऊपर नहीं चाहिये। तो नशा है ना कि हम दिलाराम का दिल हैं। तो अभी अपने श्रेष्ठ संकल्पों से स्वयं को और विश्व को परिवर्तन करो। संकल्प किया और कर्म हुआ। ऐसे नहीं, सोचा तो बहुत था, सोचते तो बहुत हैं, लेकिन होता बहुत कम है, वे तीव्र पुरुषार्थी नहीं हैं। तीव्र पुरुषार्थी अर्थात् संकल्प और कर्म समान हो तब ही बाप समान कहेंगे। खुश हैं और सदा खुश रहेंगे। यह पक्का निश्चय है ना। खुश रहने वाले ही खुशनसीब हैं। यह पक्का है या थोड़ा-थोड़ा कच्चा हो जाता है? कच्ची चीज़ अच्छी लगती है? पक्के को पसन्द किया जाता है। तो पूरा ही पक्का रहना है।
रोज अमृतवेले यह पाठ पक्का करो कि कुछ भी हो जाये खुश रहना है, खुश करना है। अच्छा और कोई खेल नहीं दिखाना। यही खेल दिखाना, और-और खेल नहीं करना। अच्छा!
ग्रुप. नं. 2
अपकारी पर भी उपकार करना - यही ज्ञानी तू आत्मा का कर्तव्य है
विश्व कल्याण के कार्य अर्थ निमित्त आत्मा हूँ, ऐसे निमित्त समझ हर कार्य मैं करते हो? जो विश्व कल्याण के निमित्त आत्मा हैं वो स्वयं-स्वयं के प्रति अकल्याणकारी संकल्प भी नहीं कर सकते। क्योंकि विश्व की जिम्मेवार आप निमित्त आत्माओं की वृत्ति से वायुमण्डल परिवर्तन होना है। तो जैसा संकल्प होगा वैसी वृत्ति जरूर होती है। कभी भी किसी के प्रति वा अपने प्रति कोई भी व्यर्थ संकल्प है तो वृत्ति में क्या होगा? वही भाव वृत्ति में होगा और वही कर्म स्वत: ही होगा। तो एक सेकेण्ड भी वृत्ति व्यर्थ नहीं बना सकते। एक सेकेण्ड भी व्यर्थ संकल्प नहीं कर सकते क्योंकि आपके पीछे विश्व की जिम्मेवारी है। ऐसे समझते हो? कि ये बाप की जिम्मेवारी है आपकी नहीं? ऐसा समझते हो या सोचते हो कि हम तो छोटे हैं तो छोटी जिम्मेवारी है। नहीं, बड़ी जिम्मेवारी उठाई है। तो विश्व कल्याणकारी। जैसे बाप, वैसे बच्चे। कैसी भी परिस्थिति हो, कोई भी व्यक्ति हो लेकिन स्व की भावना, स्व की वृत्ति कौन सी है? विश्व कल्याणकारी। इतना याद रहता है या अलबेले भी हो जाते हो? तो अलबेले नहीं होना। विश्व कल्याणकारी विश्व के राज्य अधिकारी बन सकते हो। अगर विश्व कल्याण की भावना नहीं तो विश्व राज्य का भी अधिकार नहीं। सम्बन्ध है ना। तो सदा सर्व प्रति शुभ भावना, शुभ कामना हो। हो सकती है? आपकी कोई ग्लानि करे तो भी शुभ कामना रख सकते हो? कोई गाली दे तो भी शुभ भावना रखेंगे? कि थोड़ा-सा मन में आयेगा? थोड़ा-सा तो आयेगा ना कि ये क्या करता है, ये क्या करती है? कोई आपका कल्याण करे और कोई आपका अकल्याण करे तो दोनों समान लगेगा? थोड़ा तो फर्क होगा ना? कोई रोज आपकी ग्लानि करे, एक साल तक करे और एक साल तक भी नहीं बदले तो आप कल्याण करेंगे? वो अकल्याण करे, आप कल्याण करेंगे? ऐसे करते हैं या थोड़ा-सा मुंह ऐसे (किनारा) हो जाता है? चलो, घृणा भाव नहीं हो लेकिन मन से किनारा करेंगे कि यह ठीक नहीं है या उसको ठीक करेंगे? क्या करेंगे? ठीक करेंगे? करेंगे - यह कहना तो सहज है लेकिन करते हो? अपकारी पर भी उपकार। यही ज्ञानी तू आत्मा का कर्तव्य है। बाप ने आपका अकल्याण देखा? कितने जन्म बाप को गाली दी? 63 जन्म दी। फिर बाप ने ग्लानि को भी कल्याणकारी दृष्टि से देखा। तो फॉलो फादर है ना। उपकारी पर उपकार तो दुनिया वाले भी करते हैं, भक्त आत्मा भी करते हैं। लेकिन ज्ञानी तू आत्मा उनसे श्रेष्ठ है। तो आप कौन हो? ज्ञानी तू आत्मा हो या ज्ञानी तू आत्मा बन रहे हो? सभी हैं कि आधा भक्त, आधाज्ञानी? पूरे ज्ञानी तू आत्मा हो या थोड़ा-थोड़ा भक्त भी हो? नहीं, ज्ञानी तू आत्मा। तो ज्ञानी तू आत्मा का अर्थ ही है सर्व के प्रति कल्याण की भावना। अकल्याण संकल्प मात्र भी नहीं हो। विश्व कल्याणकारी हैं तो मालिक हो गये ना। मालिक के आगे सभी जैसे बच्चे हुए ना। तो बाप बच्चों के ऊपर कल्याण की, रहम की भावना रखेगा। कैसा भी बच्चा होगा लेकिन बाप का फर्ज क्या है? रहम और कल्याण की भावना। इसीलिये बाप की महिमा में रहमदिल विशेष गाया हुआ है। चाहे देश में, चाहे विदेश में बाप के आगे जायेंगे तो रहम दिल, मर्सीफुल कहेंगे। किसी भी चर्च में जायेंगे, कहीं भी जायेंगे तो मर्सीफुल कहते हैं ना। तो आप सभी भी रहमदिल हो ना। तो जो रहमदिल होगा वही कल्याण कर सकता है। और बाप को सबमें सागर कहते हैं। क्षमा का सागर, रहम का सागर..। सागर का अर्थ क्या है? अथाह, बेहद। तो इतना अथाह यानी बेहद का रहम है? सभी रहमदिल हो या घृणादिल भी है? नहीं। नॉलेजफुल आत्मा अर्थात् ज्ञानी तू आत्मा सदैव हर एक के प्रति मास्टर स्नेह का सागर है। बिना स्नेह के उसके पास और कुछ है नहीं। कोई भी आयेगा तो उसे स्नेह ही तो देंगे ना। और आपके पास क्या है! सच्चा स्नेह है और आजकल सम्पत्ति से भी ज्यादा स्नेह की आवश्यकता है। तो स्नेह का खज़ाना जमा होगा तभी तो दूसरे को देंगे ना। अगर अपने जितना ही होगा तो दूसरे को क्या देंगे! इसीलिये सबमें मास्टर हो। स्नेह में भी मास्टर स्नेह के सागर। तो इतना स्नेह जमा है या कम है? दाता के बच्चे हो ना। तो दाता के बच्चे क्या करते हैं? देते हैं। ले करके देना वो देना नहीं हुआ। लिया और दिया तो वो बिजनेस हो गया। बिजनेस में पहले लेते हैं फिर देते हैं। तो आप दाता के बच्चे हो ना। लेकरके देना, तो देने का महत्व नहीं है। उसको दाता नहीं कहेंगे। कोई दे तो हम देवें, यह नहीं। दाता के बच्चे देते जाओ। कोई भी खाली नहीं जाये। अथाह खज़ाना है ना। जिसको जो चाहिये देते जाओ। किसी को शान्ति चाहिये, किसी को खुशी चाहिये, किसी को स्नेह चाहिये, देते जाओ। ऐसे है कि हिसाब रखते हो, इसने कितना दिया, मैंने कितना दिया? हिसाब तो नहीं रखते ना? खुला खाता है, हिसाब किताब का खाता नहीं है। दाता के बच्चे हो या थोड़ी-थोड़ी कंजूसी करते हो? अच्छा, कंजूस नहीं तो हिसाब-किताब रखने वाले हो? इसने ये किया तब ही मैंने यह किया, यह भी हिसाब का खाता हुआ ना। दाता के दरबार में इस समय सब खुला है। इस समय हिसाब-किताब नहीं है, जितना चाहिये लो, जितना चाहिये दो। धर्मराजपुरी में हिसाब किताब है, अभी नहीं। तो याद रखना कि दाता के बच्चे हैं, देना है। वहाँ जाकर हिसाब का चौपड़ा शुरू नहीं कर देना।
अच्छा, ये वैराइटी ग्रुप है। जहाँ से भी आये हो लेकिन एक बाप के हैं, एक परिवार है। डबल विदेशी क्या समझते हैं? एक परिवार है ना? या डबल विदेशी अलग हैं और देश वाले अलग हैं? नहीं। सभी एक हैं। चाहे डबल विदेशी हैं, चाहे देश वाले हैं लेकिन सभी कहेंगे हम ब्रह्मा कुमार और ब्रह्माकुमारी हैं। विदेश में और कोई नाम तो नहीं कहते ना। एक ही हैं ब्रह्माकुमार और ब्रह्माकुमारी। तो एक ही परिवार हो गया ना। और एक ही परिवार में कितनी खुशी है। इतना बड़ा परिवार सारे कल्प में नहीं मिलता है। सतयुग में इतना बड़ा परिवार होगा? तीन लाख, चार लाख का होगा। वहाँ होंगे ही दो बच्चे और माँ बाप और यहाँ देखो कितना बड़ा परिवार है। बेहद का परिवार देख खुशी होती है ना। देखो विदेश से भी भाग-भागकर क्यों आते हैं? बाप से और परिवार से मिलने।
तो सब खुश हो? कोई नाराज़ तो नहीं? नाराज़ क्यों होते हैं? राज़ नहीं जानते हैं तो नाराज़ होते हैं। कोई नाराज़ हो तो समझो कोई राज़ को नहीं समझा। राज़ को जानने वाले नाराज़ नहीं होते। अच्छा!
ग्रुप. नं. 3
अपनी श्रेष्ठ स्थिति बनाने के लिए अमृतवेले तीन बिन्दियों का तिलक लगाओ
सदा अमृतवेले स्वयं को तीन बिन्दियों का तिलक देते हो? तिलक का अर्थ क्या है? स्मृति का तिलक। तो तिलक का बहुत महत्व होता है। तिलक राज्य की भी निशानी है। जब राज्य देते हैं तो राज तिलक कहा जाता है और भक्ति में भी तिलक की निशानी जरूर रखेंगे और सुहाग और भाग्य की निशानी भी तिलक है। तो तिलक का महत्व है। क्योंकि तिलक स्मृति की निशानी है। तो ज्ञान मार्ग में भी स्मृति का ही महत्व है ना। जैसी स्मृति वैसी स्थिति होती है। अगर स्मृति श्रेष्ठ है तो स्थिति भी श्रेष्ठ होगी। अगर स्मृति व्यर्थ है तो स्थिति भी समर्थ की बजाय व्यर्थ हो जाती है। तो बाप ने तीन बिन्दियों का तिलक अर्थात् तीन स्मृतियों का तिलक दिया है। क्योंकि तीनों ही स्मृति आवश्यक हैं और तीनों ही बिन्दी सहज हैं। छोटे बच्चे को भी कहो कि बिन्दी लगाओ तो लगा देगा ना। तो मैं आत्मा हूँ, यह स्व की स्मृति फिर बाप की स्मृति और फिर श्रेष्ठ कर्म के लिये ड्रामा की स्मृति। ड्रामा चलता रहता है, बीत जाता है। जो अभी प्रेजन्ट है वो सेकण्ड में पास्ट हो जाता है। तो बीत जाता है इसीलिये बीती सो बीती, फुलस्टॉप (.)। तो बिन्दी हो गई ना। तो यह तीनों स्मृति सदा हैं तो स्थिति भी श्रेष्ठ है। सिर्फ आत्मा की स्मृति नहीं। आत्मा के साथ बाप की स्मृति है ही है और बाप के साथ ड्रामा की स्मृति भी अति आवश्यक है। अगर ड्रामा का ज्ञान नहीं है तो भी कर्म में नीचे-ऊपर होंगे। जो भी भिन्न-भिन्न परिस्थितियां आती हैं, उसमें ड्रामा का ज्ञान अति आवश्यक है। अनुभवी हो ना। क्या स्मृति रहती है? होना ही है, नथिंग न्यु। पहले से ही जानते हैं कि यह होना है तो विचलित नहीं होंगे। जब नॉलेज है कि होना ही है तो खेल समझकर देखेंगे। तूफान नहीं लेकिन खेल है। नाटक में भी तूफान, बाढ़ सब देखते हैं ना, लेकिन विचलित होते हैं क्या? क्योंकि समझते हैं कि यह ड्रामा है। तो अचल हो या थोड़ा-थोड़ा हिलते हो? क्यों, क्या होता है? क्या होगा, कैसे होगा .. यह आता है? जब ड्रामा का ज्ञान है तो अचल-अडोल हैं। ड्रामा का ज्ञान नहीं तो हलचल है। तो सभी सदा अचल हो? अभी नहीं लेकिन सदा। ‘सदा’ शब्द नहीं भूलना। सदा माना अविनाशी। सदाकाल वाले या कभी-कभी वाले? माताओं को कभी थोड़ा-थोड़ा मोह नहीं आता? थोड़ा-थोड़ा मेरापन नहीं आता? जहाँ मेरापन होगा वहाँ हलचल होगी। हद का मेरा नहीं। बेहद का मेरा, वह है मेरा बाबा। हद का मेरा-मेरा बहुत है। तो हद का मेरापन नहीं है? पाण्डव क्या समझते हैं? मेरी रचना, मेरी दुकान, मेरा पैसा, मेरा घर, कुछ नहीं आता? सब तेरा कर दिया कि थोड़ा किनारे रखा है? अगर थोड़ा भी किनारे रखा तो जो मंज़िल का किनारा है वह नहीं मिलेगा। तो मेरा-मेरा समाप्त। सदा स्मृति के तिलकधारी आत्मायें। तो जहाँ स्मृति है वहाँ समर्थी है। स्मृति नहीं तो समर्थी भी नहीं। तो सभी सन्तुष्ट हो या कोई असन्तुष्टता है? अनेक जन्म असन्तुष्ट रहे, अब भी असन्तुष्ट रहे तो क्या कहेंगे? इसलिये सदा सन्तुष्ट। अच्छा!
ग्रुप. नं. 4
खुशियों के सागर के बच्चे हो इसलिए दु:खधाम को सदा के लिए विदाई दे दो
सदा ये नशा रहता है कि हम भाग्य विधाता के बच्चे हैं? भाग्य विधाता बाप स बन गया और क्या चाहिये? सब चाहनायें पूरी हो गई कि और रही हुई हैं? नशा सदा बढ़ता जाता है या कभी कम होता है, कभी बढ़ता है? जब माया आती है तब फिर क्या करते हैं? फिर कम होता है? माया तो अन्त तक आनी ही है। क्योंकि माया नहीं आये तो मायाजीत कैसे कहलायेंगे? तो माया का आना, ये तो होना ही है लेकिन आपका काम है मायाजीत बनना। मायाजीत हो या कभी हार, कभी जीत? अभी बहुतकाल से मायाजीत बनने का समय है। कभी हार, कभी जीत नहीं, सदा माया जीत।
अभी तक हिन्दी नहीं समझते हो! क्योंकि सतयुग में जाना है, वहाँ आपकी यह भाषा नहीं होगी। आप सबकी आदि भाषा हिन्दी है ना। तो बोलना नहीं भी आवे तो समझना तो आवे ना। तो कौन हिन्दी समझता है हाथ उठाओ। समझने के लिये पुरूषार्थ करो। क्योंकि बाप जिस भाषा में बोलते हैं वह भाषा तो समझनी चाहिये ना। वैसे भी देखो अगर इंगलिश बोलने वाले माँ-बाप होंगे तो बच्चे भी क्या सीखेंगे? तो बाप की भाषा तो समझनी चाहिये। अच्छा!
सदा खुश रहने वाले तो हो ही। खुश रहने वाली आत्मायें बाप को भी प्यारी हैं। क्योंकि बाप सदा खुश रहने वाले हैं, खुशी के सागर हैं तो बच्चे भी खुश रहते हैं तो बाप को भी खुशी होती है। तो दु:ख को सदा के लिये विदाई दे दी ना। या कभी-कभी निमन्त्रण दे देते हो? दु:ख की दुनिया से निकल चुके। दु:खधाम में रहते हो क्या? कहाँ रहते हो? संगमयुग पर, दु:खधाम में नहीं। दुनिया वाले दु:खधाम में हैं लेकिन आप संगमयुग, खुशियों का युग, मौजों का युग, उसमें हो। ऐसे है? कभी गलती से दु:खधाम में तो नहीं चले जाते? कभी थोड़ी-थोड़ी दिल होती है? तो नशा रहता है कि हम संगमयुगी श्रेष्ठ ब्राह्मण आत्मायें हैं? इसलिये ब्राह्मणों को सदा ही ऊंची चोटी दिखाते हैं। तो जैसे ऊंचे से ऊंचे गाये हुए हो वैसे सदा ऊंची स्थिति भी हो। साधारण स्थिति नहीं, सदा ऊंची स्थिति। कभी साधारण स्थिति में तो नहीं आ जाते? बाप मिला सब कुछ मिला-यही स्मृति सदा ऊंचा बना देती है। ये याद रहता है ना। ये आटोमेटिक गीत बजता ही रहता है। तो कितना सहज और सर्व प्राप्ति कर ली। मेहनत करनी पड़ी? थोड़ी-थोड़ी मेहनत लगती है? टाइटल ही है सहजयोगी। कोई अपने को कहता है मैं मुश्किल योगी हूँ। दुनिया वाले कहते हैं कि कष्ट के बिना परमात्मा नहीं मिल सकता और आप क्या कहते हो? घर बैठे बाप मिल गया। बाप के घर में तो पीछे आते हो, पहले तो घर बैठे बाप मिला। इतना सहज सोचा नहीं था लेकिन मिल गया। तो सदा यही याद रखना कि हम भाग्य विधाता के बच्चे हैं। सदा अपना भाग्य याद आने से खुश रहेंगे और खुशियां बांटेंगे।
ग्रुप. नं. 5
चिंताओं से फ्री सदा निश्चिंत वा बेफ़्रिक बादशाह रहने के लिए निश्चयबुद्धि बनो
सदा अपने को कल्प-कल्प की अधिकारी आत्मा अनुभव करते हो? अनेक बार यह अधिकार प्राप्त किया है और आगे के लिये भी निश्चित है कि कल्प-कल्प करते ही रहेंगे। यह पक्का निश्चय है ना। क्योंकि निश्चय है इस ब्राह्मण जीवन का फाउन्डेशन। अगर निश्चय का फाउन्डेशन पक्का है तो कभी भी हिलेंगे नहीं। चाहे कितने भी तूफान आ जाये, चाहे कितने भी भूकम्प हो जायें लेकिन हिलेंगे नहीं। क्योंकि फाउन्डेशन पक्का है। अभी भी देखो, प्रकृति का भूकम्प आता है तो कौन सी बिल्डिंग गिरती है? जो कच्ची होती है। पक्के फाउन्डेशन वाली नहीं गिरेगी। तो आपका फाउन्डेशन कितना पक्का है? हिलने वाला है क्या? हिलेगी नहीं लेकिन थोड़ी दरार आ जायेगी? थोड़ी भी नहीं। क्योंकि कोई तो गिर जाते हैं कोई गिरते नहीं लेकिन थोड़ी दरार आ जाती है। तो आप उनसे भी पक्के हो। तो निश्चय की निशानी है-हर कार्य में मंसा में भी, वाणी में भी, कर्म में भी, सम्बन्ध-सम्पर्क में भी हर बात में सहज विजय हो। मेहनत करके विजयी बने, वह विजय नहीं है। सहज विजयी। तो निशानी दिखाई देती है या विजय प्राप्त करने में मेहनत लगती है? कभी सहज, कभी मेहनत? लेकिन निश्चय की निशानी है सहज विजय। अगर मेहनत लगती है तो समझो कुछ मिक्स है। संशय नहीं भी हो लेकिन कुछ व्यर्थ मिक्स है इसलिये सहज विजय नहीं होती। नहीं तो विजय निश्चयबुद्धि आत्माओं के लिये तो सदा एवररेडी है। उसका स्थान ही वह है। जहाँ निश्चय है, वहाँ विजय होगी। निश्चय वालों के पास ही जायेगी ना। तो निश्चय सब बातों में चाहिये। सिर्फ बाप में निश्चय नहीं। लेकिन अपने आपमें भी निश्चय, ब्राह्मण परिवार में भी निश्चय, ड्रामा के हर दृश्य में भी निश्चय। तभी कहेंगे कि सम्पूर्ण निश्चयबुद्धि। अगर बाप में निश्चय है लेकिन अपने में नहीं है, चलते-चलते अपने से दिलशिकस्त होते हैं तो निश्चय नहीं है तब तो होते हैं। तो वह भी अधूरा निश्चय हुआ। बाप में भी है, अपने आपमें भी है लेकिन परिवार में नहीं है। परिवार के कारण डगमग होते हैं। तो भी अधूरा निश्चय कहेंगे। ड्रामा में भी फुल निश्चय हो। जो हुआ सो अच्छा हुआ। इसको कहते हैं ड्रामा में निश्चय। ऐसे सम्पूर्ण निश्चयबुद्धि हैं? कभी तो फुल है, कभी आधा है। जब अनेक बार का नशा है तो अनेक बार विजयी बने हो, अब रिपीट कर रहे हो। कोई नई बात नहीं कर रहे हो, रिपीट कर रहे हो। तो रिपीट करना तो सहज होता है ना। तो निश्चयबुद्धि विजयी-सदा यह स्मृति में रहे। निश्चय भी है और विजय भी है। ये नशा हो कि हमारी विजय नहीं होगी तो किसकी होगी। विजय है और सदा होगी। तो अटल निश्चय हो। टलने वाला नहीं हो, थोड़ी सी बात हुई और निश्चय अटल नहीं रहे, ऐसा निश्चय नहीं हो। अटल निश्चय तो अटल विजय होगी। विजय की भावी टल नहीं सकती। अटल है। तो ऐसे निश्चयबुद्धि सदा हर्षित रहेंगे, निश्चिंत रहेंगे। क्योंकि चिन्ता खुशी को खत्म करती है। और निश्चिन्त हैं तो खुशी सदा रहेगी। तो निश्चयबुद्धि की दूसरी निशानी है निश्चिन्त। नहीं तो थोड़ी बात भी होगी तो चिन्ता होगी कि ये क्या हुआ, ये ऐसा हुआ। इस क्यों क्या से भी निश्चिन्त। क्या, क्यों, कैसे-ये चिन्ता की लहर है। अभी बड़ी चिन्ता नहीं होगी, इस रूप में होगी। होना नहीं चहिये था, हो गया, ऐसा, वैसा, क्यों, क्या, कैसा, ये शब्द बदल जाते हैं। तो ऐसा है कि कभी-कभी क्वेश्चन मार्क होता है? कई कहते हैं ना कि मेरे पास ही ये क्यों होता है? मेरे से ही क्यों होता है? मेरे पीछे ये बंधन क्यों है, मेरे पीछे माया क्यों आती है, मेरा ही हिसाब किताब कड़ा है क्यों? तो ‘क्यों’ आना माना चिन्ता की लहर है। तो इस चिन्ताओं से भी परे-इसको कहा जाता है निश्चिन्त। तो कौन हो? निश्चिन्त हो या थोड़ी-थोड़ी क्यों, क्या है? निश्चिन्त आत्मा का सदा सलोगन है अच्छा हुआ, अच्छा है और अच्छा ही होना है। बुराई में भी अच्छाई अनुभव करेंगे। बुराई से भी अपना पाठ पढ़ लेंगे। बुराई को बुराई के रूप में नहीं देखेंगे। इसको कहा जाता है निश्चयबुद्धि, निश्चिन्त। ‘चिन्ता’ शब्द से भी अविद्या हो। जैसे गायन है ना इच्छा मात्रम अविद्या। ऐसे चिन्ता की भी अविद्या हो। चिन्ता क्या होती है-यह अनुभव नहीं हो। तो ऐसी अवस्था इसको कहा जाता है निश्चिन्त। कोई भी बात आये तो ‘क्या होगा’ नहीं आयेगा, फौरन ही यह आयेगा ‘अच्छा होगा’, बीत गया अच्छा हुआ। जहाँ अच्छा है वहाँ सदा बेफ़िक्र बादशाह हैं। तो निश्चयबुद्धि का अर्थ है बेफ़िक्र बादशाह। तो ऐसे होते हैं। तो भी अधूरा निश्चय कहेंगे। ड्रामा में भी फुल निश्चय हो। जो हुआ सो अच्छा हुआ। इसको कहते हैं ड्रामा में निश्चय। ऐसे सम्पूर्ण निश्चयबुद्धि हैं? कभी तो फुल है, कभी आधा है। जब अनेक बार का नशा है तो अनेक बार विजयी बने हो, अब रिपीट कर रहे हो। कोई नई बात नहीं कर रहे हो, रिपीट कर रहे हो। तो रिपीट करना तो सहज होता है ना। तो निश्चयबुद्धि विजयी - सदा यह स्मृति में रहे। निश्चय भी है और विजय भी है। ये नशा हो कि हमारी विजय नहीं होगी तो किसकी होगी। विजय है और सदा होगी। तो अटल निश्चय हो। टलने वाला नहीं हो, थोड़ी सी बात हुई और निश्चय अटल नहीं रहे, ऐसा निश्चय नहीं हो। अटल निश्चय तो अटल विजय होगी। विजय की भावी टल नहीं सकती। अटल है। तो ऐसे निश्चयबुद्धि सदा हर्षित रहेंगे, निश्चिंत रहेंगे। क्योंकि चिन्ता खुशी को खत्म करती है। और निश्चिन्त हैं तो खुशी सदा रहेगी। तो निश्चयबुद्धि की दूसरी निशानी है निश्चिन्त। नहीं तो थोड़ी बात भी होगी तो चिन्ता होगी कि ये क्या हुआ, ये ऐसा हुआ। इस क्यों क्या से भी निश्चिन्त। क्या, क्यों, कैसे-ये चिन्ता की लहर है। अभी बड़ी चिन्ता नहीं होगी, इस रूप में होगी। होना नहीं चहिये था, हो गया, ऐसा, वैसा, क्यों, क्या, कैसा, ये शब्द बदल जाते हैं। तो ऐसा है कि कभी-कभी क्वेश्चन मार्क होता है? कई कहते हैं ना कि मेरे पास ही ये क्यों होता है? मेरे से ही क्यों होता है? मेरे पीछे ये बंधन क्यों है, मेरे पीछे माया क्यों आती है, मेरा ही हिसाब किताब कड़ा है क्यों? तो ‘क्यों’ आना माना चिन्ता की लहर है। तो इस चिन्ताओं से भी परे-इसको कहा जाता है निश्चिन्त। तो कौन हो? निश्चिन्त हो या थोड़ी-थोड़ी क्यों, क्या है? निश्चिन्त आत्मा का सदा सलोगन है अच्छा हुआ, अच्छा है और अच्छा ही होना है। बुराई में भी अच्छाई अनुभव करेंगे। बुराई से भी अपना पाठ पढ़ लेंगे। बुराई को बुराई के रूप में नहीं देखेंगे। इसको कहा जाता है निश्चयबुद्धि, निश्चिन्त। ‘चिन्ता’ शब्द से भी अविद्या हो। जैसे गायन है ना इच्छा मात्रम अविद्या। ऐसे चिन्ता की भी अविद्या हो। चिन्ता क्या होती है - यह अनुभव नहीं हो। तो ऐसी अवस्था इसको कहा जाता है निश्चिन्त। कोई भी बात आये तो ‘क्या होगा’ नहीं आयेगा, फौरन ही यह आयेगा ‘अच्छा होगा’, बीत गया अच्छा हुआ। जहाँ अच्छा है वहाँ सदा बेफ़िक्र बादशाह हैं। तो निश्चयबुद्धि का अर्थ है बेफ़िक्र बादशाह। तो ऐसे है या थोड़ा-थोड़ा फ़िक्र कभी आ जाता है? तो बेफ़िक्र बादशाह ही बाप समान है। बाप को फ़िक्र है का? इतना बड़ा परिवार होते भी फ़िक्र है का? सब कुछ जानते हुए, देखते हुए बेफ़िक्र । ऐसे बेफ़िक्र हो? मातायें बेफ़िक्र हो या प्रवृत्ति में जाकर थोड़ा फ़िक्र हो जाता है? वायुमण्डल में जाकर थोड़ा प्रभाव पड़ जाता है? वायुमण्डल का प्रभाव नहीं पड़ता? अपना प्रभाव वायुमण्डल पर डालो, वायुमण्डल का प्रभाव आपके ऊपर नहीं पड़े। क्योंकि वायुमण्डल रचना है, आप मास्टर रचता हो। वायुमण्डल बनाने वाला कौन? मनुष्यात्मा । तो रचता हो गया ना। तो रचता के ऊपर रचना का प्रभाव नहीं हो, लेकिन रचता का रचना के ऊपर प्रभाव हो। तो कोई भी बात आये तो यह याद करो कि मैं विजयी आत्मा हूँ।
अच्छा, ये महाराष्ट्र और गुलबर्गा है। (अर्थ क्वेक आता रहता है) इसलिये सुनाया कि निश्चयबुद्धि रहो, होना ही है। आगे चलकर अति होना है या कम होना है? तो अति का आह्वान कर रहे हो या घबराते हो? घबराने की कोई बात नहीं। अगर शरीर जायेगा तो भी गैरेन्टी है और रहेगा तो सेवा करनी है। दोनों में अच्छा है। तीन पैर पृथ्वी तो मिलनी है। बेफ़िक्र हो ना। नालेज है ना इसलिये बेफ़्रिक हैं। सारी सभा बेफ़िक्र बादशाहों की बैठी है ना।
जाने वाले कहाँ भी होंगे तो जायेंगे, चाहे भूकम्प में जायें, चाहे किस स्थिति में भी जायें, अच्छे-अच्छे चलते चलते भी चले जायेंगे। जाने वाले को कोई रोक नहीं सकता। जाने वाले चले गये लेकिन बेफ़िक्र आपको देकर क्यों जाये? फ़िक्र भी साथ में लेकर चले जाये ना। ज्ञान की शक्ति है ना। अच्छा। होने वाला होना ही है। आप सभी तो बेफ़िक्र बादशाह हो।