16-12-93 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
सच्चे स्नेही बन एक बाप द्वारा सर्व सम्बन्धों का
साकार में अनुभव करोसाकार स्वरूप में सर्व सम्बन्धों का अनुभव कराने वाले बापदादा अपने स्नेही बच्चों प्रति बोले-
आज विश्व स्नेही बापदादा अपने अति स्नेही और सदा बाप के साथी वा सहयोगी आत्माओं को देख रहे हैं। चारों ओर की सर्व ब्राह्मण आत्मायें स्नेही अवश्य हैं। स्नेह ने ब्राह्मण जीवन में परिवर्तन किया है। फिर भी स्नेही तीन प्रकार के हैं-एक हैं स्नेह करने वाले, दूसरे हैं स्नेह निभाने वाले और तीसरे हैं स्नेह में समाये हुए। समाना अर्थात् समान बनना। स्नेह करने वाले कभी स्नेह करते हैं लेकिन करते-करते कभी स्नेह टूट जाता है, कभी जुट जाता है। इसलिये समय प्रति समय स्नेह जोड़ने में पुरूषार्थ करना पड़ता है। क्योंकि बाप के साथ-साथ और कहाँ भी स्नेह, चाहे व्यक्ति से, चाहे प्रकृति के साधनों से, कहाँ भी संकल्प मात्र भी स्नेह जुटा हुआ है तो बाप से स्नेह करने वालों की लिस्ट में आ जाते हैं। स्नेह की निशानी है बिना कोई मेहनत के स्नेही के तरफ स्नेह स्वत: ही जाता है। स्नेह करने वाली आत्मा का हर समय, हर स्थिति, हर परिस्थिति में आधार अनुभव होता है। अगर साधनों से स्नेह है तो उस समय बाप से भी ज्यादा साधन का आधार अर्थात् सहारा अनुभव होता है। उस समय उस आत्मा के संकल्प में बाप का स्नेह याद भी आता है, सोचते भी हैं कि बाप का स्नेह श्रेष्ठ है लेकिन यह साधन वा व्यक्ति का आधार भी आवश्यक है। इसलिये दोनों तरफ स्नेह अधूरा हो जाता है और बार-बार स्नेह जोड़ना पड़ता है। एक बल, एक भरोसा के बजाय दूसरा भी भरोसा साथ-साथ आवश्यक लगता है। इसलिये बाप के स्नेह द्वारा जो सर्व प्राप्ति का अनुभव हो उसके बजाय दूसरे सहारे द्वारा अल्पकाल की प्राप्ति अपने तरफ आकर्षित कर लेती है। इतना आकर्षित करती है जो उसी को ही आवश्यक समझने लगते हैं। लगाव नहीं समझते, लेकिन सहारा समझते हैं। इसको कहा जाता है स्नेह करने वाले।
दूसरे हैं स्नेह निभाने वाले। स्नेह करने के साथ-साथ निभाने की भी शक्ति है। निभाना अर्थात् स्नेह का रेसपॉन्स देना, रिटर्न देना। स्नेह का रिटर्न है जो स्नेही बाप बच्चों से श्रेष्ठ आशायें रखते हैं वो सर्व आशायें प्रैक्टिकल में पूर्ण करना। तो निभाने वाले बहुत करके प्रैक्टिकल में करके दिखाते हैं, लेकिन सदा बाप समान अर्थात् समाये हुए वो अनुभूति कभी होती है, कभी नहीं होती। फिर भी निभाने वाले समीप हैं, लेकिन समान नहीं है। निभाने वालों को निभाने के रिटर्न में पदमगुणा हिम्मत और उमंग-उत्साह की मदद विशेष बाप द्वारा मिलती रहती है। तीसरे, जो स्नेह में समाये हुए हैं उन आत्माओं के नयनों में, मुख में, संकल्प में, हर कर्म में सहज और स्वत: स्नेही बाप का साथ सदा ही अनुभव होता है। बाप उससे जुदा नहीं और वो बाप से जुदा नहीं। हर समय बाप के स्नेह के रिटर्न में प्राप्त हुई सर्व प्राप्तियों में सम्पन्न और सन्तुष्ट रहते हैं। इसलिये और किसी भी प्रकार का सहारा उन्हों को आकर्षित नहीं कर सकता। क्योंकि कोई न कोई अल्पकाल की प्राप्ति की आवश्यकता किसी और को सहारा बनाती है अर्थात् सम्पूर्ण स्नेह में अन्तर डालती है। स्नेह में समाई हुई आत्मायें सदा सर्व प्राप्ति सम्पन्न होने के कारण सहज ही ‘एक बाप दूसरा न कोई’ इस अनुभूति में रहती हैं। तो स्नेही सभी हैं लेकिन तीन प्रकार के हैं। अब अपने से पूछो मैं कौन? अपने को तो जान सकते हैं ना। स्नेही हैं तभी स्नेह के कारण ब्राह्मण जीवन में चल रहे हो। लेकिन स्नेह के साथ निभाने की शक्ति, इसमें नम्बरवार बन जाते हैं। स्नेह के साथ शक्ति भी आवश्यक है। जिसमें स्नेह और शक्ति दोनों का बैलेन्स है, वही बाप समान बनता है। ऐसे समाई हुई आत्माओं का अनुभव यही होगा-बाप के स्नेह से दूर होना, यह मुश्किल है। समाना सहज है, दूर होना मुश्किल है। क्योंकि समाई हुई आत्माओं के लिये एक बाप ही संसार है।
संसार में आकर्षित करने वाली दो ही बातें हैं-एक व्यक्ति का सम्बन्ध और दूसरा भिन्न-भिन्न वैभवों वा साधनों द्वारा प्राप्ति होना। तो समाई हुई आत्मा के लिये सर्व सम्बन्ध के रस का अनुभव एक बाप द्वारा सदा ही होता है। सर्व प्राप्तियों का आधार एक बाप है, न कि वैभव वा साधन। वैभव वा साधन रचना है और बाप रचता है। जिसका आधार रचता है उसको रचना द्वारा अल्पकाल के प्राप्ति का स्वप्न मात्र भी संकल्प नहीं हो सकता। बापदादा को कभी-कभी बच्चों की स्थिति को देख हंसी आती है। क्योंकि आश्चर्य तो कह नहीं सकते, फुलस्टॉप है। चलते-चलते बीज को छोड़ टाल-टालियों में आकर्षित हो जाते हैं। कोई आत्मा को आधार बना लेते हैं, कोई साधनों को आधार बना लेते हैं। क्योंकि बीज का रूप-रंग शोभनीक नहीं होता और टाल-टालियों का रूप-रंग बड़ा शोभनीक होता है। देहधारी के सम्बन्ध का आधार देह भान में सहज अनुभव होता है और बाप का आधार देह भान से परे होने से अनुभव होता है। देहभान में आने की आदत तो है ही। न चाहते भी हो सकते हैं। इसलिये देहधारी के सम्बन्ध का आधार वा सहारा सहज अनुभव होता है। समझते भी हैं कि ये ठीक नहीं है फिर भी सहारा बना लेते हैं। बापदादा देख-देख मुस्कराते रहते हैं। उस समय की स्थिति हंसाने वाली होती है। जैसे आप लोग क्लासेस में वा भाषणों में एक तोते की कहानी सुनाते हो-उसको मना किया कि नलके पर नहीं बैठो लेकिन वो नलके पर बैठ करके बोल रहा था। ऐसे बच्चे भी उस समय मन में अपने आपसे एक तरफ यही सोचते रहते कि ‘एक बाप, दूसरा न कोई’, बार-बार अपने आपसे रिपीट भी करते रहते लेकिन साथ-साथ फिर यह भी सोचते कि स्थूल में तो सहारा चाहिए। तो उस समय हंसी आयेगी ना और उस समय फिर माया चांस लेती है। बुद्धि को ऐसा परिवर्तन करेगी जो झूठा सहारा ही सच्चा सहारा अनुभव होगा। जैसे आजकल झूठा, सच्चे से भी अच्छा लगता है, ऐसे उस समय रांग, राइट अनुभव होता है। और वो रांग बात, झूठा सहारा उसको पक्का करने के लिये वा झूठ को सच्चा साबित करने के लिये, जैसे कोई भी कमज़ोर स्थान होता है तो उसको मजबूत करने के लिये पिल्लर्स लगाये जाते हैं तो माया भी कमज़ोर संकल्प को मजबूत बनाने के लिये बहुत रॉयल पिल्लर्स लगाती है। क्या पिल्लर लगाती है? माया यही संकल्प देती है कि ऐसा तो होता ही है, कई बड़े-बड़े भी ऐसे ही करते हैं, ऐसे ही चलते हैं, या कहते अभी तो पुरुषार्थी ही हैं, सम्पूर्ण तो हुए नहीं हैं, तो जरूर अभी कोई न कोई कमी रहेगी ही, आगे चल सम्पूर्ण बन जायेंगे-ऐसे-ऐसे व्यर्थ संकल्प रूपी पिल्लर्स कमज़ोरी को मजबूत कर देते हैं। तो ऐसे पिल्लर का आधार नहीं लेना। समय आने पर यह आर्टीफिशयल पिल्लर धोखा दे देते हैं। सर्व सम्बन्धों का सहारा एक बाप सदा रहे, यह अनुभव कम करते हो। इस सर्व सम्बन्धों के अनुभव को बढ़ाओ। सर्व सम्बन्धों की अनुभूति कम होने के कारण कहीं न कहीं अल्पकाल का सम्बन्ध जुट जाता है। स्थूल जीवन में भी स्थूल रूप का सहारा वा हर परिस्थिति में स्थूल रूप का सहयोग देने वाला सहारा बाप है। यह अनुभव और बढ़ाओ। ऐसे नहीं कि बाप तो है ही सूक्ष्म में सहयोग देने वाला। निराकार है, आकार है, साकार तो है नहीं, लेकिन हर सम्बन्ध को साकार रूप में अनुभव कर सकते हो। साकार स्वरूप में साथ का अनुभव कर सकते हो। इस अनुभूति को गहराई से समझो और स्वयं को इसमें मजबूत करो। तो व्यक्ति, वैभव व साधन अपने तरफ आकर्षित नहीं करेंगे। साधनों को निमित्त मात्र कार्य में लाना वा साक्षी हो सेवा प्रति कार्य में लगाना-ऐसी अनुभूति को बढ़ाओ। सहारा नहीं बनाओ, निमित्त मात्र हो। इसको कहा जाता है स्नेह में समाई हुई समान आत्मा। तो अपने से सोचना कि मैं कौन? समझा? अच्छा!
सदा स्नेह में समाये हुए समान आत्माओं को, सदा एक बाप से सर्व सम्बन्ध का अनुभव करने वाली आत्माओं को, सदा एक बाप को आधारमूर्त, सच्चा सहारा अनुभव करने वाली आत्माओं को, सदा सर्व प्राप्ति रचता बाप द्वारा अनुभव करने वाली आत्माओं को, सदा सहज-स्वत: ‘एक बल, एक भरोसा’ अनुभव करने वाली सच्चे स्नेही आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।
दादियों से मुलाकात: -
सदा समाये हुए हैं या याद करने की मेहनत करनी पड़ती है? सिवाए एक बाप के और कोई दिखाई नहीं देता। जब कहानियां सुनते हो तो हंसी आती है ना। कहानी जब तक चलती है तब तक समझ में नहीं आती और जब कहानी समाप्त होती है तो सोचते हैं यह क्या हुआ? मैं थी या और कोई था-ऐसे भी सोचते हैं। क्योंकि उस समय परवश होते हैं ना। तो परवश को अपना होश नहीं होता है। जब अपना होश आता है तो फिर आगे बढ़ने का जोश भी आता है। अच्छा-संगठन बढ़ता जा रहा है और बढ़ता ही रहेगा। और आप निमित्त आत्माएं यह सब खेल देख हर्षित होते रहते हो। सभी चल रहे हैं, कोई चल रहा है, कोई उड़ रहा है और आप लोग क्या करते हो? उड़ते-उड़ते साथ में औरों को भी उड़ा रहे हो। क्योंकि रहमदिल बाप के रहमदिल आत्मायें बन गये, तो रहम आता है ना। घृणा नहीं आती लेकिन रहम आता है। और यह रहम ही दिल के प्यार का काम करता है। अच्छा, जो भी चल रहा है अच्छे ते अच्छा चल रहा है। अथक बन सेवा कर रहे हैं ना। निमित्त आत्माओं के अथकपन को देख सबमें उमंग आता है ना।
अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात
ग्रुप नं. 1
साधारणता को समाप्त कर विशेषता के संस्कार नेचुरल और नेचर बनाओ
अपने को सदा संगमयुग के रूहानी मौजों में रहने वाले अनुभव करते हो? मौजों में रहते हो वा कभी मौज में, कभी मूझंते भी हो या सदा मौज में रहते हो? क्या हालचाल है? कभी कोई ऐसी परिस्थिति आ जाए वा ऐसी कोई परीक्षा आ जाए तो मूंझते हो? (थोड़े टाइम के लिए) और उस थोड़े टाइम में अगर आपको काल आ जाए तो फिर क्या होगा? अकाले मृत्यु का तो समय है ना। तो थोड़ा समय भी अगर मौज के बजाए मूंझते हैं और उस समय अन्तिम घड़ी हो जाए तो अन्त मति सो गति क्या होगी? इसलिए सुनते रहते हो ना सदा एवररेडी! एवररेडी का मतलब क्या है? क्या हर घड़ी ऐसे एवररेडी हो? कोई भी समस्या सम्पूर्ण बनने में विघ्न रूप नहीं बने। अन्त अच्छी तो भविष्य आदि भी अच्छा होता है। जैसा मत में होगा वैसी गति होगी। तो एवररेडी का पाठ इसलिए पढ़ाया जा रहा है। ऐसे नहीं सोचो कि थोड़ा समय होता है लेकिन थोड़ा समय भी, एक सेकण्ड भी धोखा दे सकता है। वैसे सोचते हैं ज्यादा टाइम नहीं चलता, ऐसा दो-चार मिनट चलता है लेकिन एक सेकण्ड भी धोखा देने वाला हो सकता है तो मिनिट की तो बात ही नहीं सोचो। क्योंकि सबसे वैल्युएबुल आत्मायें हो, अमूल्य हो। अमूल्य आत्माओं का कोई दुनिया वालों से मूल्य नहीं कर सकते। दुनिया वाले तो आप सबको साधारण समझेंगे। लेकिन आप साधारण नहीं हो, विशेष आत्मायें हो।
विशेष आत्मा का अर्थ ही है जो भी कर्म करे, जो भी संकल्प करे, जो भी बोल बोले वो हर बोल और हर संकल्प विशेष हैं, साधारण नहीं हो। समय भी साधारण रीति से नहीं जाये। हर सेकेण्ड और हर संकल्प विशेष हो। इसको कहा जाता है विशेष आत्मा। तो विशेष करते-करते साधारण नहीं हो जाये-ये चेक करो। कई ऐसे सोचते हैं कि कोई गलती नहीं की, कोई पाप कर्म नहीं किया, कोई वाणी से भी ऐसा उल्टा-सुल्टा शब्द नहीं बोला, लेकिन भविष्य और वर्तमान श्रेष्ठ बनाया? बुरा नहीं किया लेकिन अच्छा किया? सिर्फ ये नहीं चेक करो कि बुरा नहीं किया, लेकिन बुरे की जगह पर अच्छे ते अच्छा किया या साधारण हो गया ? तो ऐसे साधारणता नहीं हो, श्रेष्ठता हो। नुकसान नहीं हुआ, लेकिन जमा हुआ? क्योंकि जमा का समय तो अभी है ना। अभी का जमा किया हुआ भविष्य अनेक जन्म खाते रहेंगे। तो जितना जमा होगा उतना ही खायेंगे ना। अगर कम जमा किया तो कम खाना पड़ेगा अर्थात् प्रालब्ध कम होगी। लेकिन लक्ष्य है श्रेष्ठ प्रालब्ध पाने का या साधारण भी हो जाये, तो कोई हर्जा नहीं? स्वर्ग में तो आ ही जायेंगे, दु:ख तो होगा नहीं, साधारण भी बने तो क्या हर्जा..? हर्जा है या चलेगा? तो चेक करो कि हर सेकण्ड, हर संकल्प विशेष हो। जैसे आधा कल्प के देहभान का अभ्यास नेचरली न चाहते हुए भी चलता रहता है ना। देह अभिमान में आना नेचरल हो गया है ना। ऐसे देही अभिमानी अवस्था नेचरल और नेचर हो जाये। तो जो नेचर होती है वह स्वत: ही अपना काम करती है, सोचना नहीं पड़ता है, बनाना नहीं पड़ता है, करना नहीं पड़ता है लेकिन स्वत: हो ही जाती है। तो ऐसे विशेषता के संस्कार नेचर बन जायें और हर एक के दिल से निकले। ऐसे नहीं कि मेरी नेचर यह है, मेरी नेचर यह है नहीं, हर एक के मुख से, मन से यही निकले कि मेरी नेचर है ही विशेष आत्मा के विशेषता की। तो ऐसे है या मेहनत करनी पड़ती है? जो नेचर होती है उसमें मेहनत नहीं होती। किसी की नेचर रमणीक है तो स्वत: ही रमणीकता चलती रहती है ना। उसको पता भी नहीं पड़ेगा कि मैंने क्या किया? कोई कहेगा तो भी कहेंगे कि मैं क्या करूँ, मेरी नेचर है। तो विशेषता की भी ऐसी नेचर हो जाये। कोई पूछे आपकी नेचर क्या है? तो सबके दिल से निकले कि हमारी नेचर है ही विशेषता की। साधारण कर्म की समाप्ति हो गई। क्योंकि मरजीवा हो गये ना। तो साधारणता से मर गये, विशेषता में जी रहे हैं माना नया जन्म हो गया। तो साधारणता पास्ट जन्म की नेचर है, अभी की नहीं। क्योंकि नया जन्म ले लिया। तो नये जन्म की नेचर विशेषता है-ऐसे अनुभव हो। तो अभी क्या करेंगे? साधारणता की समाप्ति। संकल्प में भी साधारणता नहीं।
मातायें मौज में रहती हो? कितना भी कोई मुंझाने की कोशिश करे लेकिन आप मौज में रहो। मुंझाने वाला मूंझ जाये लेकिन आप नहीं मूंझो। क्योंकि अज्ञानियों का काम है मुंझाना और ज्ञानियों का काम है मौज में रहना। तो वो अपना काम करे और आप अपना काम करो। सदा मौज का अनुभव करो तब तो फलक से कह सकेंगे। होंगे तब ही तो कह सकेंगे ना? जो होगा नहीं तो कह भी नहीं सकता। चैलेन्ज कर सकते हो-हम मूँझने वाले नहीं हैं। क्योंकि विशेष आत्मायें हैं। क्या याद रखेंगे? मौज में रहने वाली विशेष आत्मा हैं। ऐसी हिम्मत वाले हो ना। हिम्मत वालों को मदद स्वत: ही मिलती है।
जहाँ भी रहो लेकिन ये आवाज बुलन्द हो कि ये ब्राह्मण आत्मायें विशेष हैं। गुप्त से प्रत्यक्ष तो होना ही है ना। सबकी नजर ब्राह्मण आत्माओं की तरफ जानी ही है। जा रही है कि अभी शुरू नहीं हुआ है? तो कमाल करके दिखाने वाले हो ना। ऐसी कमाल करो जो अभी तक किसी ने नहीं किया हो। सेमीनार किया, कोन्फेरेंस की - यह तो सभी करते हैं। कोई नई बात करके दिखाओ।
तो सभी ठीक हो? बहुत आराम से रहे हुए हो ना। निर्भय आत्मायें हो औरों को भी निर्भय बनाने वाली। ऐसे हो या कभी-कभी डरते हो? क्या होगा, कैसे होगा? नहीं। जो होगा, अच्छा होगा। दुनिया के लिये तो बुरा है लेकिन आप सोच-समझ सकते हो कि परिवर्तन होना ही है इसलिये जो हो रहा है, अच्छा हो रहा है। क्योंकि जानते हो कि होना ही है। अच्छा!
ग्रुप नं. 2
सदा उमंग-उत्साह में रह अपने चेहरे और चलन द्वारा दूसरों का उमंग- उत्साह बढ़ाओ
सभी अपने को सदा उमंग-उत्साह से उड़ने वाली आत्मायें अनुभव करते हो? सदा उमंग-उत्साह बढ़ता रहता है या कभी कम होता है कभी बढ़ता है? क्योंकि जितना उमंग-उत्साह होगा उतना औरों को भी उमंग-उत्साह में उड़ायेंगे। सिर्फ स्वयं नहीं उड़ने वाले हो लेकिन औरों को भी उड़ाने वाले हो। तो उमंग-उत्साह ये उड़ने के पंख हैं। अगर पंख मजबूत होते हैं तो तीव्र गति से उड़ सकते हैं। अगर पंख कमज़ोर होंगे और तीव्र गति से उड़ने की कोशिश भी करेंगे तो नहीं उड़ सकेंगे, बार-बार नीचे आयेंगे। तो उमंग-उत्साह के पंख सदा मजबूत हों। कभी कमज़ोर, कभी मजबूत नहीं, सदा मजबूत। क्योंकि अनेक आत्माओं को उड़ाने वी जिम्मेवार आत्मायें हो। विश्व कल्याण करने की जिम्मेवारी ली है ना?तो सदा इतनी बड़ी जिम्मेवारी स्मृति में रहे। जब कोई भी जिम्मेवारी होती है तब जो भी काम करेंगे तो तीव्र गति से करेंगे और जिम्मेवारी नहीं होती है तो अलबेले होते हैं। तो हरेक के ऊपर कितनी बड़ी जिम्मेवारी है! सभी ने यह जिम्मेवारी का संकल्प लिया है? या सोचते हो कि यह बड़ों का काम है, हम तो छोटे हैं - ऐसे तो नहीं। यह तो पुराने जाने हम तो नये हैं - ऐसे तो नहीं। चाहे बड़े हों, चाहे छोटे हों, चाहे पुराने हों, चाहे नये हों, लेकिन ब्राह्मण बनना अर्थात् जिम्मेवारी लेना। चाहे नये हैं, चाहे पुराने हैं लेकिन हैं तो बी.के. या और कुछ हैं? तो बी.के. अर्थात् ब्राह्मण बनना और ब्राह्मणों की जिम्मेवारी है ही। तो ये जिम्मेवारी की स्मृति कभी भी आपको अलबेला नहीं बनायेगी। लौकिक कार्य में भी जब कोई जिम्मेवारी बढ़ती है तो आलस्य और अलबेलापन आता है या चला जाता है? अगर कोई कहेगा भी ना कि चलो थोड़ा आराम कर लो, बैठ जाओ, क्या करना है, तो बैठ सकेंगे? तो जिम्मेवारी, आलस्य और अलबेलापन खत्म कर देती है। तो चेक करो कि कभी भी आलस्य या अलबेलापन तो नहीं आ जाता? चल तो रहे हैं, हो जायेगा - ये है अलबेलापन। आज नहीं तो कल हो जायेगा - ये आलस्य है। कल नहीं, आज भी नहीं, अब। क्योंकि कोई भरोसा नहीं। अगर अधूरा पुरूषार्थ रह गया तो कहाँ पहुँचेंगे? सूर्यवंश में या चन्द्रवंश में? आधा पुरूषार्थ रहा तो प्रालब्ध भी आधी मिलेगी ना। तो चन्द्रवंश में जाना है? नहीं जाना है? कोई एक भी नहीं जायेगा? मातायें भी सभी सूर्यवंशी बनेंगी? अच्छा। क्योंकि जब पाना है तो पूरा ही पायें ना। आधा पाना तो समझदारी नहीं है। समझदार सदा ही स्वयं को पूरा अधिकारी बनायेगा क्योंकि बच्चा अर्थात् अधिकारी। तो ऐसी अधिकारी आत्मायें हो या कभी-कभी थक भी जाते हो? अधिकार लेते-लेते थक तो नहीं जाते? कभी मन में थक जाते हैं - कहाँ तक करेंगे? अथक हैं, थकने वाले नहीं हैं। थकना काम चन्द्रवंशियों का है और अथक रहना ये सूर्यवंशी की निशानी है। क्या भी हो जाये लेकिन सदा अथक। जिसको उमंग-उत्साह होता है वह कभी थकता नहीं। उमंग कम होगा तो थकावट जरूर आयेगी। उमंग-उत्साह वाले सदैव अपने चेहरे से औरों को भी उमंग दिलाते रहेंगे। एक है चेहरा, दूसरा है चलन। तो अपने चेहरे और चलन से सदा औरों को भी उमंग-उत्साह में बढ़ाते रहो। ऐसी चलन हो जो कोई भी देखे तो सोचे कि ये उमंग-उत्साह में सदा कैसे रहता है? जैसे कोई बहुत खुश रहता है तो उसको देख करके दूसरे भी खुश हो जाते हैं ना। कोई रोने वाले होते हैं तो रोने वाले को देखकर दूसरे क्या करेंगे? अगर रोयेंगे नहीं तो मुस्करायेंगे भी नहीं। तो आपकी चलन और चेहरा ऐसे हैं? फलक से जवाब दो कि हम नहीं होंगे तो कौन होगा। कल्प-कल्प के आप ही हैं और सदा ही रहेंगे। यह पक्का निश्चय है ना। तो हम ही थे और हम ही रहेंगे। पक्का है ना? जब सीजन ही उड़ने की है तो उड़ने के समय पर गिरना तो अच्छा नहीं होता है ना। तो उड़ने वाले हैं और उड़ाने वाले भी। कभी भी, कोई भी बात आये तो याद करो कि हम कौन हैं? हमारी क्या जिम्मेवारी है?
अभी देखेंगे कि स्व स्थिति वा सेवा में नम्बर आगे कौन जाता है। स्व स्थिति में भी नम्बर वन लेना है तो सेवा में भी नम्बर वन लेना है। अच्छा!
ग्रुप नं. 3
सर्व की ब्लैसिंग लेने के लिए कर्म और योग का बैलेन्स रखो
सदा अपने को कर्मयोगी आत्मायें अनुभव करते हो? कर्मयोगी अर्थात् हर कर्म योगयुक्त हो। कर्म अलग, योग अलग नहीं। कर्म में योग, योग में कर्म। सदा दोनों साथ हैं तब कहते हैं कर्मयोगी। ऐसे नहीं, जब योग में बैठे तो योगी हैं और कर्म में जायें तो योग साधारण हो जाये और कर्म महान हो जाये। सदा दोनों का साथ रहे, बैलेन्स रहे। तो ऐसे कर्मयोगी हो या जब कर्म में लग जाते हो तो योग कम हो जाता है? और जब योग में बैठते हो तो लगता है कि बैठे ही रहें तो अच्छा है। कर्मयोगी आत्मा सदा ही कर्म और योग का साथ रखने वाली अर्थात् बैलेन्स रखने वाली। कर्म और योग का बैलेन्स है तो हर कर्म में बाप द्वारा तो ब्लैसिंग मिलती ही है लेकिन जिसके सम्बन्ध-सम्पर्क में आते हैं उनसे भी दुआयें मिलती हैं। कोई अच्छा काम करता है तो दिल से उसके लिये दुआयें निकलती हैं ना कि बहुत अच्छा है। तो बहुत अच्छा मानना-यह दुआयें है। और जो अच्छा कार्य करता है उसके संग में रहना सदा सभी को अच्छा लगता है। उसके सहयोगी बहुत बन जाते हैं। तो दुआयें भी मिलती हैं, सहयोग भी मिलता है। तो जहाँ दुआयें हैं, सहयोग है वहाँ सफलता तो है ही। तो कितनी प्राप्ति हैं? बहुत प्राप्ति हुई ना। इसलिये सदा कर्मयोगी। जब योग होगा तो कर्म स्वत: ही श्रेष्ठ होगा क्योंकि योग का अर्थ ही है श्रेष्ठ बाप की स्मृति में रहना और स्वयं भी श्रेष्ठ आत्मा हूँ - इस स्मृति में रहना। तो जब स्मृति श्रेष्ठ होगी तो स्थिति भी श्रेष्ठ होगी ना और स्थिति श्रेष्ठ होने के कारण न चाहते भी वायुमण्डल श्रेष्ठ बन जाता है। तो कर्मयोगी अर्थात् श्रेष्ठ स्मृति, श्रेष्ठ स्थिति और श्रेष्ठ वायुमण्डल। कोई ज्ञान सुने, नहीं सुने, योग सीखे, नहीं सीखे लेकिन वायुमण्डल का प्रभाव स्वत: ही उनको आकर्षित करता है। मधुबन में क्या विशेष अनुभव करते हो? तपस्या का वायुमण्डल है ना। तो जो भी आते हैं उनका योग बिना मेहनत के ही लग जाता है। योग लगाना नहीं पड़ता, योग लग ही जाता है। ऐसे होता है ना। मधुबन में योग लगाने की मेहनत नहीं करनी पड़ती क्योंकि वायुमण्डल तपस्या का है, संग तपस्वी आत्माओं का है। ऐसे जहाँ भी आप कर्मयोगी बन कर्म करते हो वहाँ का वातावरण, वायुमण्डल ऐसे औरों को सहयोग देगा। अनुभवी हो ना, सहयोग मिलता है ना? तो आपका सहयोग भी औरों को मिलेगा। जहाँ रहते हो वहाँ सेवा होती है? सदा कर्मयोगी आत्मा बाप को भी प्रिय है तो विश्व को भी प्रिय है। विश्व के भी प्रिय बने हो या बन रहे हो? देखो, कल्प पहले भी विश्व के प्रिय बने हो तब तो आपके जड़ चित्रों को भी सभी कितना प्यार करते हैं। तो वो आपके चित्र हैं ना। अपने से इतना प्यार नहीं होगा जितना चित्रों से होगा। तो चैतन्य में बने हो तब ही जड़ चित्रों की निशानी देख रहे हो। चैतन्य रूप में अपने जड़ चित्र यादगार देख रहे हो। तो देख करके खुशी होती है ना हम ऐसे विश्व के प्रिय बने हैं। क्योंकि बाप के प्रिय बने हो ना। तो कितनी खुशी है! खुशी में नाचते रहते हो? सभी को खुशी में नाचना आता है? ऐसा कोई है जिसको खुशी में नाचना नहीं आता? सभी को आता है। पांव से नाचना तो किसी को आयेगा, किसी को नहीं आयेगा। लेकिन खुशी में नाचना तो सभी को आयेगा और इस नाचने में थकते भी नहीं। तो सदा नाचते रहते हो? ब्राह्मण जीवन में सिवाए खुशी के और है ही क्या? दु:खधाम तो छोड़ दिया ना, तो दु:ख क्यों आये? और जहाँ दु:ख नहीं होगा तो खुशी होगी ना। संगमवासी सदा खुश रहते हैं, कलियुग वासी दु:खी रहते हैं। तो संगमयुगी हो या कभी-कभी दु:खधाम वासी भी बन जाते हो? या कभी-कभी गलती से चले जाते हो? स्वप्न में भी दु:ख की लहर नहीं आ सकती। साकार की तो बात ही नहीं है। तो सभी याद रखना कि हम कर्मयोगी हैं, कर्म और योग को सदा साथ रखने वाले हैं।
सदा खुश रहने वाले कर्मयोगी, बाप के प्रिय आत्मायें हैं-यही खुशी सदा अविनाशी रहे। कभी-कभी वाले नहीं, सदा वाले। कभी खुशी, कभी दु:ख की लहर वाले, यह अच्छा नहीं लगता। तो खुश हैं और सदा खुश रहेंगे। अच्छा!
ग्रुप नं. 4
सदा खुशनसीब, भाग्यवान आत्मा की स्मृति में रहकर सबको भाग्यवान बनाओ
सदा अपने श्रेष्ठ भाग्य को स्मृति में रखते हुए अपने को समर्थ आत्मायें अनुभव करते हो? क्योंकि जितनी स्मृति होगी उतनी समर्थी होगी। स्मृति कम तो समर्थी भी कम। तो स्मृति स्वरूप बने हो या स्मृति लानी पड़ती है? जैसे अपना साकार स्वरूप कभी नहीं भूलता है। सदा स्मृति रहती ही है - कि मैं फलाना हूँ, मैं ऐसा हूँ, ऐसे ही अपने भाग्य के स्मृति स्वरूप बनो। याद करने से स्मृति आये और चलते-चलते स्मृति, विस्मृति में आ जाये तो उसको स्वरूप नहीं कहेंगे, स्वरूप कभी भूलता नहीं। एक हैं स्मृति करने वाले और दूसरे हैं स्मृति स्वरूप रहने वाले। तो आप सभी कौन हो? स्वरूप बन गये हो या विस्मृति-स्मृति का खेल चलता है?
(हॉस्पिटल और आबू निवासी बापदादा के सामने बैठे हैं)
आप सभी तो बहुत-बहुत भाग्यवान हो। क्योंकि मैजारिटी मधुबनवासी हो या समझते हो कि मधुबन और हॉस्पिटल अलग है? मधुबन निवासी हो ना? किस वातावरण में रहते हो? मधुबन के वातावरण में रहते हो या अलग हॉस्पिटल के वातावरण में रहते हो? क्योंकि सबसे बड़ी पालना है ज्ञान की पालना, मुरली की पालना। तो वो हॉस्पिटल या अपने-अपने घरों में सुनते हो वा मधुबन में ही सुनते हो? तो सबसे श्रेष्ठ पालना मुरली है। और दूसरी पालना ब्रह्मा भोजन है। वो आत्मा की पालना, वो शरीर की पालना। तो दोनों मधुबन में होती हैं ना। अगर कोई घर में भी खाते हो तो क्या याद करके खाते हो? मधुबन में बैठे हैं ना और हॉस्पिटल वाले तो खाते ही मधुबन में हैं ना। तो कितने लक्की हो! सदा ब्रह्मा भोजन मिलता रहे-यह कम भाग्य नहीं है! सदा आत्मा की पालना विशेष आत्माओं द्वारा होती रहे-यह भी कम पालना नहीं है! सदा वायुमण्डल श्रेष्ठ मिलता रहे, संग श्रेष्ठ मिलता रहे-कितने भाग्य हैं! अमृतवेले से लेकर रात तक अपने भिन्न-भिन्न भाग्य को स्मृति में लाओ। दिनचर्या के आदि में ही पहला भाग्य बाप से मिलन मनाना। दुनिया तड़पती रहती है और आप अमृतवेले से रात तक मिलन मनाते रहते हो। अगर रात को सोते भी हो तो कहाँ सोते हो? बिस्तर पर?तो देखो, आदि में भी भाग्य, मध्य में भी भाग्य और अन्त में क्या होगा? भाग्य ही भाग्य होगा ना। तो सदा अपने भाग्य की लिस्ट सामने रखो। और यही गीत सदा गाते रहो-’वाह मेरा भाग्य’। वाह बाबा तो है ही लेकिन उसके साथ-साथ वाह मेरा श्रेष्ठ भाग्य। हद का भाग्य नहीं, बेहद का श्रेष्ठ भाग्य। तो जो स्वयं सदा अपने भाग्य के स्मृति में रहेंगे वो औरों को भी भाग्यवान बनायेंगे ना। जो जैसा होगा वैसा ही बनायेगा ना। तो हॉस्पिटल वाले सारा दिन क्या करते हो? पेशेन्ट को देखते रहते हो या अपने भाग्य को भी देखते रहते हो? क्या देखते हो? भाग्य को देखते हो ना। पेशेन्ट के साथ-साथ पहले अपने भाग्य को देखो। तो भगवान् और भाग्य - दोनों याद रहे।
देखो, टाइटिल तो बहुत अच्छा मिला है-’आबू निवासी’। तो आबू नि्ावासी सुनने से परमधाम निवासी तो सहज ही याद आता है ना। क्योंकि आबू है ब्रह्मा बाबा का, तो ब्रह्मा बाबा याद आया तो शिव बाप सहज ही याद आयेगा, कम्बाइन्ड है ना। तो ‘आबू निवासी’ सुनने से स्वीट होम भी याद आ जाता है अर्थात् बापदादा दोनों सहज याद आ जाते हैं। हॉस्पिटल भी कहाँ है? आबू में है ना।
ज्यादा सहज याद में हॉस्पिटल वाले रहते हो या जो अपने-अपने स्थानों में आबू निवासी कहलाते हो वो रहते हो या जो सेन्टर पर रहते हो वो रहते हैं? कौन रहते हैं? याद में तो सभी रहते हो लेकिन सहज याद में रहने वाले कौन हैं? डबल विदेशी तो खुश रहते ही हैं। डबल विदेशी माना डबल खुश। हॉस्पिटल में खुशी कम होती है या बढ़ती है? कि कभी-कभी कम हो जाती है? कम नहीं होनी चाहिये। क्या भी हो, कैसा भी हो, मरने तक बात आ जाये लेकिन खुशी नहीं जाये। मृत्यु भले हो जाये लेकिन खुशी नहीं जाये। शरीर चला जाये कोई हर्जा नहीं। क्योंकि गैरन्टी है ना अगर खुशी में जायेंगे तो अनेकों को खुश करने के लिये जायेंगे। तो इतना पक्का है - शरीर जाये लेकिन खुशी नहीं जाये। ब्राह्मण जीवन माना खुशी की जीवन, अगर ब्राह्मण है और खुशी नहीं है तो ब्राह्मण जीवन ही नहीं है। तो सभी पक्के ब्राह्मण तो हैं ही। इसमें तो पूछने की बात ही नहीं। सब जब अपने साइन करते हो तो पहले आक्यूपेशन में ‘बी.के.’ लिखते हो ना। तो ब्राह्मण अर्थात् खुशनसीब, सदा खुश रहने वाले। किसी की हिम्मत नहीं जो ब्राह्मण आत्मा की खुशी कम कर सके। माया हो या माया का बाप हो लेकिन खुशी नहीं गायब कर सके। (माया का बाप कौन?) रावण को माया का बाप कह दो। तो खुशी कम हो नहीं सकती।
चाहे जहाँ भी रहो लेकिन खुशी गायब नहीं हो सकती। असम्भव है। इतने फलक से कहते हो पता नहीं कभी-कभी संभव हो भी जाये। यह अच्छी तरह से पता है ना कि ब्राह्मण जीवन में खुशी का जाना असम्भव है। तो हर एक का चेहरा खुशनुमा, खुशनसीब दिखाई दे। हर एक के मस्तक पर खुशी का भाग्य चमक रहा है। चमक रहा है ना? बादल तो नहीं आते हैं? बादल किसी भी चीज़ को छिपा देते हैं। तो बादल नहीं आ सकते। सदा चमकते रहो।
शक्तियां क्या सोचती हैं? शक्तियां खुशी के गीत गाती रहती हैं और पाण्डव नाचते रहते हैं। ब्राह्मण जीवन में है ही नाचना और गाना। कर्म भी करते हो तो कर्म भी तो एक डांस है ना। डांस में हाथ-पांव चलाना होता है ना। तो कर्मयोगी बनकर जो कर्म करते हो वह भी नाचना ही है ना। खेल कर रहे हो ना। अच्छा!
ग्रुप नं. 5
सन्तुष्टता सबसे बड़ा खज़ाना है, जहाँ सन्तुष्टता है वहाँ सर्व प्राप्तियां हैं
सदा अपने इस ब्राह्मण जीवन की आदि से अब तक की सर्व प्राप्तियाँ स्मृति में रहती हैं? कितनी प्राप्तियां हैं? अगर प्राप्तियों की लिस्ट निकालो तो कितनी लम्बी है? सार रूप में यही कहेंगे कि अप्राप्त नहीं कोई वस्तु ब्राह्मण जीवन में। तो ऐसे अनुभव करते हो? सर्व प्राप्तियाँ सम्पन्न हो गये? और प्राप्तियाँ भी अविनाशी हैं। एक जन्म, आधा जन्म की नहीं, सदा काल के लिये प्राप्तियाँ प्राप्त हो गई। कोई भी युग नहीं जहाँ आप आत्माओं को कोई प्राप्ति नहीं हो। अगर द्वापर से गिरती कला शुरू भी होती है, फिर भी द्वापर से लेकर अब तक पूजे तो जाते हो ना। तो आधा कल्प राज्य अधिकारी बनते हो और आधा कल्प पूज्य बनते हो। चाहे स्वयं पुजारी बन जाते हो चैतन्य में लेकिन जड़ चित्र के रूप में तो पूजे जाते हो। तो पूज्य की प्राप्ति तो है ही ना। चाहे जानते नहीं हो अपने को लेकिन प्राप्ति सारे कल्प के लिये है। राज्य पद और पूज्य पद। कितने नशे की बात है। तो सदा सर्व प्राप्तियों की स्मृति में रहो, स्मृति स्वरूप रहो। तो प्राप्तियाँ याद रहती हैं कि कभी भूल जाती हैं, कभी याद रहती हैं? हद के प्राप्ति वालों को भी कितना नशा रहता है। तो आपको अविनाशी प्राप्तियां हैं तो अविनाशी रूहानी नशा है?
(कुमारियों से) कुमारियों को नशा रहता है? सदा रहता है या कभी-कभी?कभी भूल भी जाता है? कभी मूड ऑफ होता है? कुमारियों का मूड ऑफ होता है? रोती नहीं हो लेकिन चुप हो जाती हो? कितने समय से नहीं रोया है? जब से ब्रह्माकुमारी बनी हो तब से नहीं रोया है या अभी नहीं रोती हो? मन में भी नहीं रोया है? कुमारियों को कोमल होने के कारण रोना जल्दी आता है। नहीं रोती हो तो पक्की हो ना। सभी खुश रहती हो? और पुरूषार्थ में भी उड़ती कला वाली हो या चढ़ती कला वाली हो? सभी उड़ती कला वाली हो? अच्छा है, कभी नीचे कभी ऊपर नहीं होना, सदा उड़ते रहना। माताओं की भी उड़ती कला है या बीच-बीच में गिरना भी अच्छा लगता है। गिरकर उड़ना है या उड़ना ही उड़ना है?पाण्डव उड़ती कला वाले हैं? उड़ना ही है। क्योंकि समय कम है और मंज़िल श्रेष्ठ है। तो बिना उड़ती कला के मंज़िल पर पहुँचना मुश्किल है। इसलिये सदा उड़ते रहो और उड़ने का साधन है सदा सर्व प्राप्तियों को स्मृति में रखना। इमर्ज रूप में, मर्ज नहीं। जानते ही हैं, नहीं, मर्ज से इमर्ज करो। क्या-क्या मिला! क्या थे और क्या बने गये! कल क्या और आज क्या! तो प्राप्तियों की खुशी कभी नीचे, हलचल में नहीं लायेगी। नीचे आना तो छोड़ो लेकिन हलचल भी नहीं, अचल। जो सम्पन्न होता है वो हलचल में नहीं आता है। जो खाली होता है वह हिलता है। कोई भी चीज़ हिलने वाली होती है तो उसको चारों ओर से सम्पन्न कर देते हैं, भरपूर कर देते हैं तो हिलती नहीं है और कोना भी खाली होगा तो हिलेगी और हिलते-हिलते टूटेगी। तो सम्पन्नता अचल बनाती है। हलचल से छुड़ा देती है। तो सर्व प्राप्तियों में सम्पन्न हो ना? जब दाता मिल गया तो दाता क्या करेगा? सम्पन्न बनायेगा ना। तो ये भी नशा है कि हम दाता के बच्चे हैं। साधारण बाप के बच्चे नहीं, दाता के बच्चे हैं। तो जो स्वयं दाता है तो वो मास्टर दाता बनायेगा ना। तो क्या याद रखेंगे, कौन हो? मास्टर दाता हो। सर्व प्राप्तियों से सम्पन्न आत्मा हो। जरा भी अप्राप्ति नहीं। कोई अप्राप्ति है? कोई-कोई रह गई है या कोई चीज़ चाहिये, नाम चाहिये, सेवा चाहिये, थोड़ा चांस मिल जाये, मेरा नाम हो जाये, मेरे को आगे रखा जाये, यह अप्राप्ति तो नहीं है। किसी को है तो बता दो। मकान अच्छा मिल जाये, कार मिल जाये। कार हो तो सेवा अच्छी तरह से कर सकें। जितने साधन उतनी बुद्धि भी जाती है। जैसे हैं, जहाँ हैं, सदा राजी। जो थोड़े में सन्तुष्ट रहता है उसको सदा सर्व प्राप्तियों की अनुभूति होती है। सन्तुष्टता सबसे बड़े से बड़ा खज़ाना है। जिसके पास सन्तुष्टता है, उसके पास सब-कुछ है। जिसके पास सन्तुष्टता नहीं है तो सब-कुछ होते हुए भी कुछ नहीं है। क्योंकि असन्तुष्ट आत्मा सदा इच्छाओं के वश होगी। एक इच्छा पूरी होगी और 10 इच्छायें उत्पन्न होगी। तो आप क्या हो? हद के इच्छा मात्रम् अविद्या। ऐसे हो कि कभी-कभी छोटी-मोटी इच्छा हो जाती है? सन्तुष्ट हो? सदा यह गीत गाते रहो पाना था वो पा लिया। अच्छा। सभी सन्तुष्ट मणियाँ हो ना?