25-11-95 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
‘‘परमत, परचिन्तन और परदर्शन से मुक्त बनो और पर-उपकार करो’’
आज बापदादा अपने चारों ओर जो बाप के बच्चे हैं, विशेष हैं, उन सर्व विशेष आत्माओं को देख रहे हैं। चाहे भारत के वा विदेश के किसी भी कोने में हैं, लेकिन बापदादा सर्व विशेष आत्माओं को समीप देख रहे हैं। बापदादा को अपने विशेष बच्चों को देख हर्ष होता है। जैसे आप बच्चों को बाप को देखकर खुशी होती है ना! खुशी होती है तब तो भाग करके आये हो ना। तो बाप को भी खुशी होती है कि मेरा एक-एक बच्चा विशेष आत्मा है। चाहे बुजुर्ग हैं, अनपढ़ हैं, छोटे बच्चे हैं, युवा हैं, प्रवृत्ति वाले हैं लेकिन सारे विश्व के आगे विशेष हैं। चाहे कितने भी बड़े-बड़े वैज्ञानिक चमत्कार दिखाने वाले भी हैं, चन्द्रमा तक पहुँचने वाले भी हैं लेकिन बाप के विशेष बच्चों के आगे वो भी अन्जान हैं। पांचों ही तत्वों को जान लिया, उन्हों पर विजय भी प्राप्त कर ली लेकिन छोटी सी बिन्दु आत्मा को नहीं जाना। यहाँ छोटे बच्चे से भी पूछेंगे-तुम कौन हो, तो क्या कहेगा? आत्मा हूँ कहेगा ना। आत्मा कहाँ रहती है, वो भी बतायेगा। और वैज्ञानिक से पूछो आत्मा क्या है? आत्मा के ज्ञान को अभी तक जान नहीं सके। तो कितने भी बड़े हिस्ट्री के हिसाब से, इस दुनिया के हिसाब से विशेष हों लेकिन जिसने अपने को नहीं जाना, उससे तो यहाँ का पांच वर्ष वाला बच्चा विशेष हो गया। आप लोगों का शुरू-शुरू का बहुत फ़लक का गीत है, याद है कौन सा गीत है? एक गीत था-कितना भी बड़ा सेठ, स्वामी हो लेकिन अलफ़ को नहीं जाना....। तो कितने भी बड़े हो, चाहे नेता हो, चाहे अभिनेता हो लेकिन अपने आपको नहीं जाना तो क्या जाना? तो ऐसी विशेष आत्मायें हो। यहाँ की अनपढ़ बुजुर्ग माता है और दूसरी तरफ अच्छा महात्मा है लेकिन बुजुर्ग माता फ़लक से कहेगी कि हमने परमात्मा को पा लिया। और महात्मा कहेगा-परमात्मा को पाना बहुत मुश्किल है, लेकिन यहाँ 100 वर्ष के आयु वाली भी निश्चयबुद्धि होगी तो वो क्या कहेगी? तुम ढूंढते रहो, हमने तो पा लिया। तो महात्मा भी आपके आगे क्या है! प्रवृत्ति वाले फ़लक से कहेंगे कि हम डबल पलंग पर सोते, इकट्ठे रहते भी पवित्र हैं, क्योंकि हमारे बीच में बाप है। और महात्मायें क्या कहेंगे? कहेंगे - आग-कापूस इकठ्ठा रहना, यह तो असम्भव लगता है। और आपके लिये क्या है? प्रवृत्तिवाले बताओ-पवित्र रहना मुश्किल है या सहज है? सहज है या कभी-कभी मुश्किल हो जाता है? जो पक्के हैं वो तो बड़ी सभा हो या कुछ भी हो फ़लक से कह सकते हैं कि पवित्रता तो हमारा स्वधर्म है। परधर्म नहीं है, स्वधर्म है। तो स्व सहज होता है, पर मुश्किल होता है। अपवित्रता परधर्म है लेकिन पवित्रता स्वधर्म है। तो ऐसे अपनी विशेषता को जानते हो ना? क्योंकि नये-नये भी बहुत आये हैं ना? लेकिन कितने भी नये हैं पवित्रता का पाठ तो पक्का है ना? कई बच्चे ऐसा भी करते हैं - जब तक बाप से मिलने का एक साल पूरा नहीं होता, सबको पता है कि यह नियम पक्का है, तो मधुबन में आने तक तो ठीक रहते हैं लेकिन देख लिया, पहुँच गये, तो कई वापस जाकर अलबेले भी हो जाते हैं लेकिन सोचो कि पवित्रता की प्रतिज्ञा किससे की? बाप से की ना? बाप का फरमान है ना? तो बाप से प्रतिज्ञा कर और फिर अगर अलबेले होते हैं तो नुकसान किसको होगा? ब्राह्मण परिवार में तो एक जाते, 10 आते हैं। लेकिन नुकसान कमज़ोर होने का, उन आत्माओं को होता है इसलिए जो भी नये-नये पहली बार आये हैं वो बाप के घर में तो पहुँच गये-यह तो भाग्य की बात है ही लेकिन तकदीर की लकीर को कभी भी कम नहीं करना। तकदीर को बड़ा करना।
अच्छा, जितने भी आये हैं, सबका नाम रजिस्टर में तो है ही। रजिस्टर में अपना नाम पक्का कराया है या थोड़ा-थोड़ा कच्चा है? अच्छा, जो भी नये जहाँ से भी आये हैं, टीचर्स के पास तो लिस्ट है ही और प्रेजेन्ट मार्क भी डालते हैं या नहीं डालते? कौन-सा सेन्टर है जहाँ प्रेजेन्ट मार्क नहीं पड़ती हो, कोई सेन्टर है? टीचर सच बताओ। कभी नींद आ जाती होगी, कभी बीमार हो गये, कभी क्लास में पहुँच नहीं सके, तो रोज़ की प्रेजेन्ट मार्क पड़ती है? जो टीचर्स कहती हैं रोज का रजिस्टर और प्रेजेन्ट मार्क है वो हाथ उठाओ। अच्छा, रेग्युलर है या कभी-कभी? कि दो-तीन दिन मिस हो जाता है? सब टीचर्स पास हैं तो ताली बजाओ। तो अभी क्या करना - जो भी आप नये लाये हैं, चाहे भाई, चाहे बहनें, उनका तीन-चार मास के बाद, क्योंकि पहले थोड़ा नशा रहता है, पीछे धीरे-धीरे कम होता है, तो चार मास के बाद जितने नये आये, उतने कायम हैं या चक्कर लगाने गये हैं कहाँ? यह रिज़ल्ट लिखना। क्योंकि कई चक्कर लगाने भी जाते हैं। दो साल की माया की यात्रा करके फिर यहाँ पहुँचते हैं। तो रिज़ल्ट में सिर्फ यह दो शब्द लिखना कि 60 आये और 60 ही हैं। या 60 आये 40 हैं। सिर्फ ये दो अक्षर विशेष रतनमोहिनी के नाम से अलग लिखना। बाहर में (लिफाफे पर) ब्रह्माकुमारीज़ तो लिखेंगे लेकिन बड़े अक्षरों में रतनमोहिनी लिखना, अन्दर नहीं। तो समझेंगे इसका है, नहीं तो उसके पास (ईशू के पास) पोस्ट बहुत आ जाती है। देखेंगे, कितनी विशेष आत्मायें अपनी विशेषता दिखाती हैं?
देखो, कोई भी बच्चा लौकिक में भी पैदा होता है तो सभी क्या कहते हैं? सदा ज़िन्दा रहे, बड़ी आयु रहे। तो बापदादा भी विशेष आत्माओं की अविनाशी विशेषता देखना चाहते हैं। थोड़े टाइम की नहीं। एक साल चले, दो साल चले-ये नहीं। अविनाशी रहने वाले को ही अविनाशी प्रालब्ध प्राप्त होती है। तो मातायें भी पक्की हैं? क्योंकि चाहे आप एक साल के हो या दो साल के हो, चार के हो लेकिन समाप्ति तो एक ही समय होनी है ना! विनाश तो इकठ्ठा ही होगा ना! कि आप कहेंगे कि हम तो दो साल के हैं हमारी सिल्वर जुबली हो जावे, पीछे विनाश होवे! यह तो नहीं होगा ना। इसलिए पीछे आने वाले को और आगे जाना है। थोड़े समय में बहुत कमाई कर सकते हो। फिर भी आप लोगों को पुरूषार्थ का समय मिला है। आगे चल करके तो इतना समय भी नहीं मिलेगा। सुनाया था ना कि अभी लेट का बोर्ड तो लग गया है लेकिन टू लेट का नहीं लगा है। तो आप सभी लक्की हो। सिर्फ अपने भाग्य को स्मृति में रखते हुए बढ़ते चलना। कोई बातों में नहीं जाना।
आज बापदादा देख रहे थे कि बच्चों के पुरूषार्थ का समय वेस्ट क्यों जाता है? चाहता कोई नहीं है, सब चाहते हैं कि हमारा समय सफल हो लेकिन बीच-बीच में कहाँ आधा घण्टा, कहाँ 15 मिनट, कहाँ 5 मिनट वेस्ट चला जाता है। तो उसका कारण क्या? आज बापदादा ने देखा कि मैजारिटी का विशेष पुरूषार्थ जो कम या ढीला होता है उसके तीन कारण हैं। पहले भी सुनाया है, नई बात नहीं है लेकिन डायमण्ड जुबली में विशेष क्या अटेन्शन दो वो बापदादा शुरू से सुना रहे हैं तो तीन कारण –
पहला, चलते-चलते श्रीमत के साथ-साथ आत्माओं की परमत मिक्स कर देते हैं। कोई ने कोई बात सुना दी और आप समझते हो कि सुनाने वाला तो अच्छा, सच्चा महारथी है और आपका उस पर फेथ भी है, जब ऐसी कोई आत्मा आपको कोई ऐसी बातें सुनाती है जिसमें इन्टरेस्ट भी आता है, समाचार तो अच्छा है.... जैसे संसार समाचार अच्छा लगता है ना तो ब्राह्मण संसार समाचार भी अच्छा लगता है, तो आपने उस पर फेथ रख करके वो बात सुन ली माना अपने अन्दर समा ली, कट नहीं किया, तो बात सच्ची भी है, समाचार सच्चा भी होता है, सब झूठा नहीं होता, कोई सच्चा भी होता है लेकिन बाप का फरमान क्या है? कि ऐसे समाचार भले सुनो - ये है फरमान? नहीं, जिससे आपका कोई कनेक्शन नहीं है, सिर्फ दिलचस्प समाचार है, आप कर कुछ नहीं सकते, सिर्फ सुन लिया तो वह समाचार बुद्धि में तो गया, टाइम वेस्ट तो हुआ या नहीं? और बाप की श्रीमत में परमत मिक्स कर दी। क्योंकि बाप की आज्ञा है - सुनते हुए नहीं सुनो। तो आपने सुना क्यों? उसकी आदत डाली। मानो एक बारी आपको समाचार सुनाया, आपको भी बहुत अच्छा लगा, नई बात है, ऐसा भी होता है-ये पता तो पड़ गया, लेकिन अगर एक बारी आपने उनकी बात सुनी तो दूसरे बारी वो कहाँ जायेगा? आपके पास आयेगा। आप उसके लिए कूड़े का डिब्बा बन गये ना! जो भी ऐसा समाचार होगा वो आपके पास ही आकर सुनायेगा। क्योंकि आपने सुना! इसलिए या तो उसको समझाओ, ऐसी बातों से उसको भी मुक्त करो। सुन करके इन्टरेस्ट नहीं बढ़ाओ लेकिन अगर सुनते हो तो आपमें इतनी ताकत हो जो उसको भी सदा के लिए फुल स्टॉप लगा दो। अपने अन्दर भी फुल स्टॉप लगाओ। जिस व्यक्ति का समाचार सुना उसके प्रति दृष्टि में वा संकल्प में भी घृणा भाव बिल्कुल नहीं हो। इतनी पॉवर आपमें है तो यह सुनना नहीं हुआ, उसका कल्याण करना हुआ। लेकिन रिज़ल्ट में देखा जाता है मैजारिटी थोड़ा-थोड़ा किचड़ा इकठ्ठा होते-होते ये घृणा भाव या चाल-चलन में अन्तर आ जाता है। और कुछ भी नहीं होगा तो भी उस आत्मा के प्रति सेवा करने की भावना नहीं होगी, भारीपन होगा। इसको कहा जाता है-श्रीमत में परमत मिलाना। समाचार तो बापदादा भी सुनते हैं, लेकिन होता क्या है? मैजारिटी का भाव बदल जाता है। सुनाने में भी भाव बदल जाता है। एक आकर कहता है मैंने देखा कि ये दो बात कर रहे थे और एक का सुना हुआ दूसरा फिर कहते हैं नहीं-नहीं खड़े भी थे और बहुत अच्छी तरह से नहीं खड़े थे, दूसरा एडीशन हुआ। फिर तीसरा कहेगा इन्हों का तो होता ही है। कितना भाव बदल गया। उन्हों की भावना क्या और बातों में भाव कितना बदल जाता है। तो ये परमत वायुमण्डल को खराब कर देता है। तो जो टाइम वेस्ट जाता है उसका एक कारण परमत और दूसरा कारण है परचिन्तन। एक से बात सुनी तो आठ-दस को नहीं सुनावे, यह नहीं हो सकता। अगर कोई दूरदेश में भी होगा ना तो भी उसको पत्र में भी लिख देंगे-यहाँ बहुत नई बात हुई है, आप आयेंगे ना तो ज़रुर सुनायेंगे। तो ये क्या हो गया? परचिन्तन। समझो आपने चार को सुनाया, उन चार की भावना उस आत्मा के प्रति आपने खराब तो की ना और परचिन्तन शुरू हुआ तो इसकी गति बड़ी फास्ट और लम्बी होती है।
परचिन्तन एक-दो सेकण्ड में पूरा नहीं होता। जैसे बापदादा सुनाते हैं कि जब किसको भी ज्ञान सुनाओ तो इन्टरेस्ट दिलाने के लिए उसको कहानी के रीति से सुनाओ। पहले ये हुआ, फिर क्या हुआ, फिर क्या हुआ, फिर क्या हुआ.....। तो इन्टरेस्ट बढ़ता है ना। ऐसे जो परचिन्तन होता है वो भी एक इन्ट्रेस्टेड होता है। उसमें दूसरा ज़रुर सोचेगा, फिर क्या हुआ, फिर ऐसे हुआ, हाँ ऐसे हुआ होगा.... तो ये भी कहानी बड़ी लम्बी है। बापदादा तो सबकी दिल की बातें सुनते भी हैं, देखते भी हैं। कोई कितना भी छिपाने की कोशिश करे सिर्फ बापदादा कहाँ-कहाँ लोक संग्रह के अर्थ खुला इशारा नहीं देते, बाकी जानते सब हैं, देखते सब हैं। कोई कितना भी कहे कि नहीं, मैं तो कभी नहीं करता, बापदादा के पास रजिस्टर है, कितने बार किया, क्या-क्या किया, किस समय किया, कितनों से किया - यह सब रजिस्टर है। सिर्फ कहाँ-कहाँ चुप रहना पड़ता है। तो दूसरी बात सुनाई-परचिन्तन। उसका स्वचिन्तन कभी नहीं चलेगा। कोई भी बात होगी, परचिन्तन वाला अपनी ग़लती भी दूसरे पर लगायेगा। और परचिन्तन वाले बात बनाने में नम्बरवन होते हैं। पूरी अपनी ग़लती दूसरे के प्रति ऐसे सिद्ध करेंगे जो सुनने वाले बड़ों को भी चुप रहना पड़ता है। तो स्वचिन्तन इसको नहीं कहा जाता है कि सिर्फ ज्ञान की पॉइन्ट्स रिपीट कर दीं या ज्ञान की पॉइन्ट्स सुन लीं, सुना दीं-सिर्फ यही स्वचिन्तन नहीं है। लेकिन स्वचिन्तन अर्थात् अपनी सूक्ष्म कमज़ोरियों को, अपनी छोटी-छोटी गलतियों को चिंतन करके मिटाना, परिवर्तन करना, ये स्वचिन्तन है। बाकी ज्ञान सुनना और सुनाना उसमें तो सभी होशियार हो। वो ज्ञान का चिन्तन है, मनन है लेकिन स्वचिन्तन का महीन अर्थ अपने प्रति है। क्योंकि जब रिज़ल्ट निकलेगी तो रिज़ल्ट में यह नहीं देखा जायेगा कि इसने ज्ञान का मनन अच्छा किया या सेवा में ज्ञान को अच्छा यूज़ किया। इस रिज़ल्ट के पहले स्वचिन्तन और परिवर्तन, स्वचिन्तन करने का अर्थ ही है परिवर्तन करना। तो जब फाइनल रिज़ल्ट होगी, उसमें पहली मार्क्स प्रैक्टिकल धारणा स्वरूप को मिलेगी। जो धारणा स्वरूप होगा वो नैचरल योगी तो होगा ही। अगर मार्क्स ज्यादा लेनी है तो पहले जो दूसरों को सुनाते हो, आजकल वैल्यूज़ पर जो भाषण करते हो, उसकी पहले स्वयं में चेकिंग करो। क्योंकि सेवा की एक मार्क तो धारणा स्वरूप की 10 मार्कस होती हैं, अगर आप ज्ञान नहीं दे सकते हो लेकिन अपनी धारणा से प्रभाव डालते हो तो आपके सेवा की मार्कस जमा हो गई ना।
आजकल कई समझते हैं कि हमको सेवा का चांस बहुत कम मिलता है, हमको चांस मिलना चाहिए, दूसरे को मिलता है, मेरे को क्यों नहीं? सेवा करना बहुत अच्छा है क्योंकि अगर बुद्धि फ्री रहती है तो व्यर्थ बहुत चलता है। इसीलिए सेवा में बुद्धि बिज़ी रहे यह साधन अच्छा है। सेवा का उमंग तो अच्छा ही है लेकिन ड्रामानुसार या सरकमस्टांस अनुसार मानों आपको चांस नहीं मिला और आपकी अवस्था दूसरों की सेवा करने की बजाय अपनी भी गिरावट में आ जाये या वो सेवा आपको हलचल में लाये तो वो सेवा क्या हुई? उस सेवा का प्रत्यक्षफल क्या मिलेगा? सच्ची सेवा, प्यार से सेवा, सभी की दुआओं से सेवा, उसका प्रत्यक्षफल खुशी होती है और अगर सेवा में फीलिंग आ गई तो यहाँ ब्राह्मण फीलिंग को क्या कहते हैं? फ्लु। फ्लु वाला क्या करता है? सो जाता है। खाना नहीं खायेगा, सो जायेगा। यहाँ भी फीलिंग आती है तो या खाना छोड़ेगा या रूस करके बैठ जायेगा। तो यह फ्लु हुआ ना। अगर आप धारणा स्वरूप हो, सच्चे सेवाधारी हो, स्वार्था सेवा नहीं। एक होती है कल्याण के भावना की सेवा और दूसरी होती है स्वार्थ से। मेरा नाम आ जायेगा, मेरा अखबार में फोटो आ जायेगा, मेरा टी.वी. में आ जायेगा, मेरा ब्राह्मणों में नाम हो जायेगा, ब्राह्मणी बहुत आगे रखेगी, पूछेगी..... यह सब भाव स्वार्था-सेवा के हैं। क्योंकि आजकल के हिसाब से, प्रत्यक्षता के हिसाब से, अभी सेवा आपके पास आयेगी, शुरू में स्थापना की बात दूसरी थी लेकिन अभी आप सेवा के पिछाड़ी नहीं जायेंगे। आपके पास सेवा खुद चलकर आयेगी। तो जो सच्चा सेवाधारी है उस सेवाधारी को चलो और कोई सेवा नहीं मिली लेकिन बापदादा कहते हैं अपने चेहरे से, अपने चलन से सेवा करो। आपका चेहरा बाप का साक्षात्कार कराये। आपका चेहरा, आपकी चलन बाप की याद दिलावे। ये सेवा नम्बरवन है। ऐसे सेवाधारी जिनमें स्वार्थ भाव नहीं हो। ऐसे नहीं मुझे ही चांस मिले, मेरे को ही मिलना चाहिए। क्यों नहीं मिलता, मिलना चाहिए - ऐसे संकल्प को भी स्वार्थ कहा जाता है। चाहे ब्राह्मण परिवार में आपका नाम नामीग्रामी नहीं है, सेवाधारी अच्छे हो फिर भी आपका नाम नहीं है, लेकिन बाप के पास तो नाम है ना, जब बाप के दिल पर नाम है तो और क्या चाहिए! और सिर्फ बाप के दिल पर नहीं लेकिन जब फाइनल में नम्बर मिलेंगे तो आपका नम्बर आगे होगा। क्योंकि बापदादा हिसाब रखते हैं। आपको चांस नहीं मिला, आप राइट हो लेकिन चांस नहीं मिला तो वो भी नोट होता है। और मांग कर चांस लिया, वो किया तो सही लेकिन वो भी मार्कस कट होते हैं। ये धर्मराज का खाता कोई कम नहीं है। बहुत सूक्ष्म हिसाब-किताब है। इसलिए नि:स्वार्थ सेवाधारी बनो, अपना स्वार्थ नहीं हो। कल्याण का स्वार्थ हो। यदि आपको चांस है और दूसरा समझता है कि हमको भी मिले तो बहुत अच्छा और योग्य भी है तो अगर मानो आप अपना चांस उसको देते हो तो भी आपका शेयर उसमें जमा हो जाता है। चाहे आपने नहीं किया, लेकिन किसको चांस दिया तो उसमें भी आपका शेयर जमा होता है। क्योंकि सच्चा डायमण्ड बनना है ना। तो हिसाब-किताब भी समझ लो, ऐसे अलबेले नहीं चलो, ठीक है, हो गया...... बहुत सूक्ष्म में हिसाब-किताब का चौपड़ा है। बाप को कुछ करना नहीं पड़ता है, ऑटोमेटिक है। कभी-कभी बापदादा बच्चों का चौपड़ा देखते भी हैं। तो पहली बात परमत और दूसरी बात परचिन्तन।
तीसरी बात है परदर्शन। दूसरे को देखने में मैजारिटी बहुत होशियार हैं। परदर्शन - जो देखेंगे तो देखने के बाद वह बात कहाँ जायेगी? बुद्धि में ही तो जायेगी। और जो दूसरे को देखने में समय लगायेगा उसको अपने को देखने का समय कहाँ मिलेगा? बातें तो बहुत होती हैं ना, और जो बातें होती हैं वो देखने में भी आती हैं, सुनने में भी आती हैं, जितना बड़ा संगठन उतनी बड़ी बातें होती हैं। ये बातें क्यों होती हैं? कई सोचते हैं यह बातें होनी नहीं चाहिए। नहीं होनी चाहिये वो ठीक है लेकिन जिसके लिए आप समझ रहे हो नहीं होनी चाहिए, उसमें समय क्यों दिया? और ये बातें ही तो पेपर हैं। जितनी बड़ी पढ़ाई उतने बड़े पेपर भी होते हैं। यह वायुमण्डल बनना - यह सबके लिए पेपर भी है कि परमत या परदर्शन या परचिन्तन में कहाँ तक अपने को सेफ रखते हैं? दो बातें अलग हैं। एक है ज़िम्मेवारी, जिसके कारण सुनना भी पड़ता है, देखना भी पड़ता है। तो उसमें कल्याण की भावना से सुनना और देखना। ज़िम्मेवारी है, कल्याण की भावना है, वो ठीक है। लेकिन अपनी अवस्था को हलचल में लाकर देखना, सुनना या सोचना - यह रांग है। अगर आप अपने को ज़िम्मेवार समझते हो तो ज़िम्मेवारी के पहले अपनी ब्रेक को पॉवरफुल बनाओ। जैसे पहाड़ी पर चढ़ते हैं तो पहले से ही सूचना देते हैं कि अपनी ब्रेक को ठीक चेक करो। तो ज़िम्मेवारी भी एक ऊंची स्थिति है, ज़िम्मेवारी भले उठाओ लेकिन पहले यह चेक करो कि सेकण्ड में बिन्दी लगती है? कि लगाते हो बिन्दी और लग जाता है क्वेश्चनमार्क? वो रांग है। उसमें समय और इनर्जा वेस्ट जायेगी। इसलिए पहले अपना ब्रेक पॉवरफुल करो। चलो - देखा, सुना, जहाँ तक हो सका कल्याण किया और फुलस्टॉप। अगर ऐसी स्थिति है तो ज़िम्मेवारी लो, नहीं तो देखते नहीं देखो, सुनते नहीं सुनो, स्वचिन्तन में रहो। फायदा इसमें है।
तो आज का पाठ क्या हुआ? परमत, परचिन्तन और परदर्शन इन तीन बातों से मुक्त बनो और एक बात धारण करो, वो एक बात है पर-उपकारी बनो। तीन प्रकार की पर को खत्म करो और एक पर - पर-उपकारी बनो। बनना आयेगा? तो किन बातों से मुक्त बनेंगे? मातायें क्या करेंगी? बच्चों के उपकारी या पर-उपकारी? सर्व उपकारी। सहज है या कठिन है? जो नये-नये आये हैं वो समझते हैं यह सहज है कि मुश्किल है? टीचर्स बोलो-सहज है? (हाँ जी) नहीं, बापदादा समझते हैं मुश्किल है। बातें इतनी होती हैं, बड़ा मुश्किल है! अभी यहाँ बैठे हो तो सहज-सहज कह रहे हैं। फिर जब ट्रेन से उतरेंगे और कोई छोटी-मोटी बात हुई तो कहेंगे मुश्किल है। और घर गये, सेन्टर पर गये तो कोई न कोई बात पेपर लेने आयेगी ज़रुर। अच्छा-डबल विदेशियों को सहज लगता है या मुश्किल लगता है? अगर सहज लगता है तो हाथ उठाओ। टीचर्स तो नम्बरवन लेंगी ना? उस समय नहीं कहना कि हमको तो पता ही नहीं था, हमको यह ज्ञान ही नहीं था। इसीलिए बापदादा पहले से ही सुना रहे हैं - किसमें मार्क्स जमा होती है और किसमें मार्क्स कट होती हैं। अगर नम्बर लेना है तो मेकप करो। अभी कोई भी कर सकते हैं। सीट फिक्स कोई नहीं हुई है। सिवाए ब्रह्मा बाप और जगदम्बा के और सब सीट खाली हैं। कोई भी ले सकता है। एक साल वाला भी ले सकता है।
तो सदा क्या याद रखेंगे? अपनी विशेषताओं को याद रखो। विशेष समझेंगे तो यह खेल की बातें होंगी नहीं। तो विशेष हैं और सदा सारे कल्प में विशेष होंगे। और किसी भी धर्म नेता या महात्माओं की ऐसे विधिपूर्वक पूजा नहीं होती। जैसे देवताओं की पूजा होती है, वैसे किसी की भी नहीं होती। नेताओं को तो बिचारों को धूप में लटका देते हैं। अच्छा!
(फिर सभी ज़ोन के भाई बहिनों से बापदादा ने हाथ उठवाये)
अच्छा है, सभी को टर्न मिल जाता है। अभी ज्ञान सरोवर में अच्छे रहे पड़े हो। ज्ञान सरोवर में अच्छे हैं या यहाँ आना चाहते हो? पसन्द है ना? पंजाब को पसन्द है? भोपाल भी वहाँ है। भोपाल को अच्छा लगा? (बहुत अच्छा लगा) अच्छा, तो इन्हों को हमेशा वहीं भेजना। संगम पर इतना अच्छा प्रबन्ध मिला है। सतयुग में तो एक-एक महल ज्ञान सरोवर से भी बड़ा होगा लेकिन अभी संगम पर तो तीन पैर पृथ्वी भी अच्छी। और बापदादा ने तो देखा है। साकार में भी देखा है और वैसे तो देखते ही हैं। दूर भी नहीं है और प्रबन्ध भी अच्छा है। इसीलिए टर्न बाई टर्न किसको देना। दूसरे बारी पंजाब यहाँ आ जायेगा। अच्छा।
कुमारियों से
कुमारियाँ क्या कमाल करेंगी? कमाल करनी चाहिए ना! जो सब करते हैं अगर वही किया तो कमाल क्या हुई? तो ये कुमारियों का ग्रुप क्या करेगा? अगर आप नहीं बतायेंगे तो जो बापदादा बतायेगा वो करना पड़ेगा। नहीं तो आप लोग बता दो। इस डायमण्ड जुबली में कुमारियाँ क्या करेंगी? क्योंकि आप लोगों को तो अभी डायमण्ड जुबली का चांस है। फिर बाद में तो मिलेगा नहीं। तो कुमारियाँ क्या करेंगी, डायमण्ड जुबली को सामने रख करके फिर सोचो। पहले तो वे हाथ उठाओ जिनका लक्ष्य है कि हम सेवा में लगेंगी। खड़ी हो जाओ। अच्छा, इन्हों का फोटो निकालो। ये तो बहुत हैं। तो कुमारियों को क्या करना है? आप लोगों ने तो हाथ उठाया, खड़े भी हो गये और फोटो भी आपका निकल गया तो आप सभी को तो सेवा में लगना चाहिये, ये तो पक्का है ना? कि घर जाकर टीचर को कहेंगी कि नहीं, मैं तो नौकरी करूँगी। ऐसी तो नहीं हो? जिन्हों ने हाथ उठाया वो पक्की हो ना कि नौकरी करने वाली? सेवा करेंगी ना? अच्छा, जो निर्बन्धन है, सिर्फ पढ़ाई का एक साल है या थोड़ा सा है वो हाथ उठाओ, जो निर्बन्धन हो सकती हैं? अच्छा। क्योंकि बापदादा ने कहा है कि अभी समाप्ति का समय समीप आ रहा है। डेट नहीं बतायेंगे। लेकिन समीप आ रहा है उसी प्रमाण सेवा में वृद्धि तो होनी है ना। तो जो भी कुमारियाँ उठी थीं, वो अगर खुद निर्बन्धन नहीं हो सकतीं, कोई कारण है तो अपने कोई न कोई हमजिन्स कुमारी को तैयार ज़रुर करो। मानो आपको घर का बन्धन है। स्वयं अगर निर्बन्धन नहीं हो सकती तो कोई एक को तैयार ज़रुर करो। यह कर सकती हो? एक साल है, एक साल में एक को आप समान नहीं बना सकते? बनाना पड़ेगा ना। तो हर एक कुमारी जो स्वयं सेवा में लगनी है वो लगेंगी लेकिन अगर कोई स्वयं नहीं लग सकती है तो अपने हमजिन्स को तैयार करो। पसन्द है कुमारियों को? हाँ या ना बोलो? सोच रही हैं। अच्छा, पंजाब की कुमारियाँ हाथ उठाओ। पंजाब वाले सब मिलकर बोलो कि ये सेवा करेंगी? पंजाब का शेर कहाँ गया? क्यों आंतकवादियों से घबरा गये क्या? पंजाब को शेर कहते हैं तो शेर तो आगे आना चाहिये ना, घर में थोड़ेही बैठना चाहिए। तो कुमारियों को अपने हम जिन्स को तैयार करना है। क्योंकि देखो भाई सभी हंसते हैं कि कुमारियाँ तीन साल की ट्रायल वाली भी होंगी, और कुमार 40 साल के पुराने होंगे, तो सेन्टर पर रहने वाली कुमारी को दीदी-दादी कहना शुरू कर देते और कुमारों को दादा कोई नहीं कहते। कुमारों की ये रिपोर्ट है ना, उलहना है। अच्छा, कुमार हाथ उठाओ।
कुमारों से
कुमार दादा तो नहीं बनेंगे, दादा तो कोई नहीं कहेगा लेकिन राजा बन सकते हैं। डायमण्ड जुबली में कुमार कम से कम आठ मोतियों का एक-एक कंगन वा माला तैयार करो। अष्ट का गायन है ना। तो आपकी प्रजा बन जायेगी और प्रजा बनाने से आप राजा बन जायेंगे। कुमारियों को दादी-दीदियाँ बनने दो। आप और ही राजा बन जाओ। कुमार तो बहुत हैं, अगर एक-एक आठ भी लावे तो प्रजा बन जायेगी। और प्रजा तैयार हो गई तो आपको राजतिलक ज़रुर मिलेगा। क्योंकि बहुत करके अभी वारिस क्वालिटी कम निकलती है। अगर कुमारों ने एक भी वारिस क्वालिटी निकाल दिया तो महाराजा बन जायेंगे। कुमार तैयार हैं? समझते हो वारिस किसको कहते हैं? साधारण तो आते ही रहते हैं ना लेकिन वारिस जो होगा उस एक को देख करके और अनेक भी आयेंगे। उसको कहते हैं वारिस क्वालिटी, छोटे-छोटे माइक। तो कुमार राजा बनेंगे ना! (हाँ जी) अच्छा, यहाँ मधुबन में हाँ जी है या पंजाब और बाम्बे या जहाँ भी जायेंगे वहाँ भी हाँ जी होंगे?
कुमारों को देख करके बापदादा खुश होते हैं। सिर्फ कुमार, कुमारियों से बाप को एक बात का डर भी लगता है। खुशी भी होती है तो डर भी लगता है। समझदार हो ना कुमार, बोलने की आवश्यकता नहीं। बस इसमें सदा एक बाप दूसरा न कोई, थोड़ा-थोड़ा भी नहीं। क्या करूँ.. थोड़ा सा तो चाहिए...ऐसा नहीं। ये ऐसी माया है जो देखा है ना, गज और ग्राह की कहानी सुनी है ना, वो क्या करता है? पहले थोड़ा अन्दर करेगा, फिर पूरा अन्दर कर लेता है। पता नहीं पड़ेगा। तो डायमण्ड जुबली में यह डर तो निकाल लेना। ऐसा एक भी पत्र नहीं आना चाहिए। डायमण्ड जुबली अर्थात् कुछ कमी नहीं है। तो बापदादा देखेंगे कि हाथ तो सभी ने उठाया लेकिन राजा कितने बने वो भी लिस्ट आ जायेगी ना! अच्छा।
प्रवृत्ति वालों से
प्रवृत्ति वालों को बापदादा एक बात के लिए मुबारक देते हैं कि जब से प्रवृत्ति मार्ग वाले सेवा साथी बने हैं तो सेवा में नाम बाला करने में एग्ज़ाम्पल बने हैं। पहले लोग समझते थे कि ब्रह्माकुमार या ब्रह्माकुमारी बनना माना घरबार छोड़ना.... यह डर था ना। और अभी समझते हैं कि इन्हों का तो घर भी बहुत अच्छा चलता, धन्धा भी बहुत अच्छा चलता, खुद भी खुश रहते, तो यह देख करके समझते हैं कि हम भी बन सकते हैं। तो एग्ज़ाम्पल बन गये ना। पहले कहते थे हमारा बनना मुश्किल है और अभी कहते हैं कि पवित्र प्रवृत्ति में रहना अच्छा है। तो सेवा में वृद्धि के लिए निमित्त बन गये ना - इसकी मुबारक हो। अभी प्रवृत्ति वाले क्या करेंगे? मुबारक में तो खुश हो गये। अभी कुछ करना भी तो हैं ना।
बापदादा का डायमण्ड जुबली के प्रति एक शुभ संकल्प है कि जो प्रवृत्ति में रहते हैं, एग्ज़ाम्पल हैं, लौकिक और अलौकिक सेवा भी करते हैं, डबल सेवाधारी हैं, तो हर एक प्रवृत्ति वाले ऐसी माला तैयार करो जो हर सेवाकेन्द्र पर हर वर्ग का कोई न कोई ज़रुर हो। जो भी हमारे 13 भिन्न-भिन्न वर्ग बने हुए हैं, उस हर वर्ग का ग्रुप हो जिसमें सब वर्ग हों, कोई भी वर्ग नहीं रह जाये, बड़ा ज़मीनदार भी हो, साइंसदान भी हो ....., सब वर्ग के हों, ऐसी वर्गों की भिन्न-भिन्न माला प्रवृत्ति वाले हर सेवाकेन्द्र पर तैयार करें। कम से कम सब वर्गों का एक-एक तो होना ही चाहिए लेकिन हर सेन्टर पर हर वर्ग का हो। तो सभी वर्गों के तैयार करो फिर सभी सेन्टर के सभी वर्गों की डायमण्ड जुबली मनायेंगे। समझा? प्रवृत्ति वालों को पसन्द है। हर सेवाकेन्द्र पर हर वर्ग का होना चाहिए, कम से कम एक। बाकी ज्यादा होंगे तो महाराजा बन जायेंगे। माताओं को पसन्द है? कि महिलायें सिर्फ महिलायें ले आयेंगी, महिलाओं में भी कोई वकील है, कोई डॉक्टर है। अच्छा!
डबल विदेशियों से
डबल विदेशी क्या करेंगे? लण्डन वाले बताओ क्या करेंगे? माइक तैयार करेंगे। तो कांफ्रेंस तक माइक आयेंगे या अभी तैयार हो रहे हैं? अच्छी बात है, अगर डबल विदेशी हर एक स्टेट से एक-एक माइक भी लायें तो कितने माइक हो जायेंगे? फिर माइक की सेरीमनी करेंगे। ठीक है? अच्छा, सभी को याद-प्यार मिल गया?
कर्नाटक वाले खुश है? पंजाब खुश है? बाम्बे खुश है? भोपाल खुश है? आन्ध्रा वाले खुश हैं? यू.पी. नेपाल खुश है? नेपाल की टोपियाँ होती हैं, अच्छे लगते हैं। ये कलियुग के ताज हैं।
अच्छा, टीचर्स सभी खुश हैं? देखो, मुरली तो नयों के हिसाब से गुह्य है लेकिन बापदादा को डायमण्ड जुबली में सभी से मुक्त कराना ही है। नहीं करेंगे तो धर्मराज बनेंगे। अभी तो प्यार से कह रहे हैं, फिर धर्मराज का साथ लेना पड़ेगा ना। लेकिन क्यों लें? क्यों नहीं बाप के रूप से ही सब मुक्त हो जायें। पुराने-पुराने सोचते हैं कि बापदादा ऐसा कुछ करें ना तो सब ठीक हो जायें। लेकिन बाप नहीं चाहते। बाप को धर्मराज का साथ लेना पसन्द नहीं है। कर क्या नहीं सकता है! एक सेकण्ड में किसी को भी अन्दर ही अन्दर सज़ा दे सकते हैं और वो सेकण्ड की सज़ा बहुत-बहुत तेज़ होती है। लेकिन बापदादा नहीं चाहते। बाप का रूप प्यारा है, धर्मराज साथी बना तो कुछ नहीं सुनेगा। इसलिए बापदादा को डायमण्ड जुबली में सभी को सब बातों से मुक्त करना ही है। समझा?
चारों तरफ के सर्व विश्व के विशेष आत्माओं को सदा स्वचिन्तन, ज्ञान चिन्तन करने वाले श्रेष्ठ आत्माओं को, सदा बाप के श्रेष्ठ मत पर हर संकल्प, बोल और कर्म करने वाले समीप आत्माओं को, चारों ओर के डायमण्ड जुबली के लिए स्वयं को और सेवा को आगे बढ़ाने वाले-ऐसे विशेष आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।
दादियों से
दैवी परिवार का विशेष श्रृंगार है ना। तो श्रृंगार को देख करके क्या होता है? खुशी होती है कि ये होता है कि हम भी ऊपर चलें? लोक संग्रह करने वाले हो ना।
वैसे बापदादा का एक-एक बच्चे से एक-दो से ज्यादा प्यार है। ऐसे नहीं, दादियों से बहुत है, टीचर्स से बहुत है, स्टूडेन्ट से कम। नहीं, सभी से प्यार है और सदा ही रहेगा। अगर प्यार नहीं होता तो शिक्षा क्यों देते? ये शिक्षा भी प्यार है। क्योंकि बाप बच्चों को किसी भी बात में कम नहीं देखना चाहते। हर एक को आगे देखना चाहते हैं। ऐसे नहीं, दादियाँ तो ठीक हो गईं, आप लोग होवे या नहीं..... पहले आप। इसीलिए ही आते हैं। चाहे गला चले या नहीं चले लेकिन चलाते हैं। जब बच्चे दूर-दूर से, बुजुर्ग भी आते हैं, छोटे भी आते हैं, सब आते हैं तो बाप कैसे नहीं आयेंगे! ज़रुर आयेंगे। तो दादियों से प्यार ज्यादा है वा टीचर्स से ज्यादा है वा स्टूडेन्ट्स से ज्यादा है? किससे है? सभी से। चाहे बापदादा सभी को नज़दीक भी नहीं बिठा सकते, नाम भी नहीं ले सकते लेकिन दिल पर नाम सबका है। दिल के नज़दीक सभी हो। समझा? अच्छा! तो यह ब्राह्मण संसार का श्रृंगार अच्छा लगता है ना। देखो फाउण्डेशन से कितने थोड़े बचे हैं। जब आदि में आये और अभी देखो तो कितने थोड़े बचे। डायमण्ड जुबली वाले तो कितने चले गये।
मीटिंग के मुख्य भाइयों से
अच्छी मेहनत कर रहे हो। बापदादा के पास तो सब समाचार पहुँचता है। जब सभी मिलकर किसी भी कार्य को करते हैं तो आप भी अनुभव करते होंगे वो कार्य सहज भी और सफल भी होता है। और यह आपस में मिलना जल्दी-जल्दी होना चाहिये। क्योंकि यज्ञ के जो स्थूल कारोबार है, खाना-पीना छोड़ो, वो तो इन्हों का काम है, लेकिन जो ऑफिशिअल कारोबार है वो तो आप लोग ही समझ सकते हो। इसीलिए कार्य बढ़ता जाता है और जब 9 लाख बनाना है तो कार्य कितना बढ़ेगा! बहुत बढ़ेगा ना! तो आप लोगों को आपस में जल्दी-जल्दी मिलना चाहिये। फोन और फैक्स का मिलना और है, और सम्मुख मिलने से एक-दो के विचार क्लीयर कर सकते हैं। अगर नहीं भी हुआ तो करा भी सकते हैं। इसीलिए आपस में राय करना। जब एक मीटिंग पूरी करते हो ना तो दूसरे की डेट पहले से ही फिक्स करो। अच्छा।
आप लोगों से पूछने की आवश्यकता नहीं कि खुशराजी हो? बस निमित्त हैं, तो निमित्त समझने से नेचरली ज़िम्मेवारी भी है और हल्कापन तो रहेगा ही। अच्छा।