ये अव्यक्त इशारे  (September 2016)

समर्पणता द्वारा सम्पूर्णता


१. सर्व समर्पण अर्थात देह के भान का भी समर्पण. तो देह का भान तोड़कर, देह के अभिमान से भी सम्पूर्ण समर्पण, देह के सम्बन्ध और मन के संकल्पों से भी समर्पण तब कहेंगे सर्व समर्पणमय जीवन. जो सर्व त्यागी, सर्व समर्पण जीवनवाले होंगे उनकी ही सम्पूर्ण अवस्था गाई जाएँगी.

२. सर्व समर्पण उसको कहा जाता है जो श्वासों श्वास स्मृति में रहे. एक भी श्वास विस्मृति का न हो. हर श्वास में स्मृति रहे और जो श्वासों श्वास स्मृति में रहेंगा उसमे सहनशीलता का गुण जरुर होगा. उनके चेहरे पर निर्बलता नहीं होगी. यह जो कभी-कभी मुख से निकलता है, कैसे करे, क्या करे, क्या होगा, यह जो शब्द निर्बलता के है, वह भी नहीं निकलेंगे.

३. पाण्डव सेना को सम्पूर्ण समर्पण का सर्टिफिकेट लेना है क्योकि पांडवों का ही गायन है की गल कर ख़त्म हो गए. पहाड़ो पर नहीं लेकिन ऊँची स्थिति में गल कर अपने को निचाई से बिल्कुल ऊपर जो अव्यक्त स्थिति है, उसमें गल गए अर्थात उस अव्यक्त स्थिति में सम्पूर्णता को प्राप्त हुए.

४.सम्पूर्ण समर्पण अर्थात तन-मन-धन और सम्बन्ध, समय सब में अर्पण. अगर मन को समर्पण कर दिया तो मन को बिना श्रीमत के यूज नहीं कर सकते. तनऔर धन को श्रीमत प्रमाण यूज करना तो सहज है लेकिन *मन सिवाय श्रीमत के एक भी संकल्प उत्पन्न नहीं करे* - इस स्थिति को कहा जाता है समर्पण. अगर*मन सम्पूर्ण समर्पण है* तो तन-मन-धन-समय सम्बन्ध शीघ्र ही उस तरफ लग जाते है. तो मुख्य बात ही है *मन को समर्पण करना* अर्थात व्यर्थ संकल्प, विकल्पों को समर्पण करना.

५. सम्पूर्ण समर्पण वालों को मन में सिवाय बापदादा के गुण, कर्त्तव्य और सम्बन्ध के कुछ और सुजता ही नहीं. जो आपने समर्पण कर दिया वह आपकी चीज़ नहीं रही. जिसको दिया उनकी हुई, तो उनकी चीज को आप अपने कार्य में यूज नहीं कर सकते हो. यदि श्रीमत के साथ मनमत, देह-अभिमानपने की मत, शुद्रपने की मत यूज कर लेते हो तो कर्मातीत अवस्था व अव्यक्त स्थिति सदा एकरस नहीं रह सकती.

६. जो सम्पूर्ण समर्पण हो जाता है उसकी वृत्ति-द्रष्टि शुध्ध हो जाती है. द्रष्टि और वृत्ति में रूहानियत आ जाती है अर्थात द्रष्टि वृत्ति रूहानी हो जाती है, जिस्म को नहीं देखते है तो शुध्ध, पवित्र द्रष्टि हो जाती है.

७. जैसे आपके यादगार शास्त्रों में बताते है की बाप ने वामन रूप में (बहुत छोटे रूप में) जो माया बलि है, उससे तिन पैर में सभी कुछ ले लिया अर्थात सम्पूर्ण समर्पण बना दिया. तो जो भी माया का बल है उसे त्यागना है.

८. मन्सा, वाचा और कर्मणा के लिए तीन बातें याद रखेंगे तो सम्पूर्ण समर्पण हो ही जायेंगे.

       1. *मन्सा के लिए* देह सहित सभी संबंधो का त्याग कर मामेकम याद करो.

       2. *वाचा के लिए* जैसे हंस हर समय मोती चुगते है ऐसे मुख से सदा रत्न ही निकले, पत्थर नहीं.

       3. *कर्मणा के लिए* याद रखो की जो कर्म मैं करूँगा मुझे देख सभी करेंगे, जो करेंगे सो पाएंगे.

इन मुख्य बातों को याद रखेंगे तो सम्पूर्ण समर्पण को अविनाशी बना सकेंगे.

९. मन्सा,वाचा,कर्मणा जो कुछ भी अब तक पुरुषार्थ की कमी के कारण चलता रहा, उसे बुध्धि से बिल्कुल ही भूल जाओ, जैसा की अब नया जन्म लिया है. पुरुषार्थ में जो बातें कमजोरी की है वह सभी यहाँ ही छोड़कर जानी है. जबकि सम्पूर्ण समर्पण हो गए तो ऐसे ही सोचना की दान दी हुई चीज है, उसे अगर फिर स्वीकार करेंगे तो उसका परिणाम क्या होंगा.

१०. सबसे बड़ा सरेंडर होना है - *संकल्पों में*. कोई व्यर्थ संकल्प न आये. इन संकल्पों के कारण ही समय और शक्ति वेस्ट होती है. तो संकल्प से भी सम्पूर्ण समर्पण होना है. मन के उमंगो को अब प्रैक्टिकल में लाना है. जब अपने आप को समर्पण कर देंगे तब सम्पूर्ण बनना सहज हो जायेंगा. मुश्किल को सहज बनाने का मुख्य साधन है _ *समर्पण करना.* बाप को जो चाहिए वो कराये. हम निमित है. चलानेवाला जैसे चलावे, हमको चलना है.

११. जितना स्वयं को बाप के आगे समर्पण करते है उतना बाप भी बच्चों के आगे समर्पण होते है. फिर बाप का जो खजाना है वह स्वतः उनका बन जाता है. समर्पण करना और करना, यही ब्राह्मणों का धंधा है. *एकहै* स्वाभाव समर्पण, *दूसरा है* देह अभिमान का समर्पण और *तीसरा है* संबंधो का समर्पण. देह अर्थात कर्मेन्द्रियों के लगाव का समर्पण. जब यह समर्पण समारोह होगा तब सम्पूर्ण मूर्त का साक्षात्कार होगा और सम्पूर्ण सुहाग प्राप्त होगा, श्रेष्ठ भाग्य का दहेज़ मिलेगा.

१२. संकल्पों को ब्रेक लगाने का मुख्य साधन जो भी कार्य करते हो तो *करने के पहले सोचो की यह कार्य जो करने जा रहा हूँ यह बापदादा का कार्य है- मैं निमित हूँ.* जब कार्य समाप्त हो तो जैसे यज्ञ की समाप्ति के समय आहुति दी जाती है, इस रीती जो कर्त्तव्य किया और जो परिणाम निकला वह बाप को समर्पण(स्वाहा) कर दो फिर और कोई संकल्प नहीं.

१३. समर्पण का विशाल रूप 1. अपना हर संकल्प समर्पण, 2. हर सेकंड समर्पण अर्थात समय समर्पण, 3. कर्म भी समर्पण, और 4. सम्बन्ध और संपत्ति जो है वह भी समर्पण. उसमे सिर्फ लौकिक सम्बन्ध ही नहीं लेकिन यह जो आत्मा और शरीर का सम्बन्ध है उसका भी समर्पण.

१४. विनाशी संपत्ति समर्पित करना यह कोई बड़ी बात नहीं है लेकिन जो अविनाशी संपत्ति सुख, शांति, पवित्रता, प्रेम, आनंद की प्राप्ति जन्मसिध्ध अधिकार के नाते प्राप्त होती है, उसको भी और आत्माओं की सेवा में समर्पण कर दो. जैसेब्रह्मा बाप ने बच्चों की शांति में स्वयं की शांति समजी. ऐसे आप अन्य आत्माओं को शांति देने में अपनी शांति समजो. यह है ईश्वरीय संपत्ति को भी समर्पण करके अपनी साक्षी स्थिति में रहना. ऐसे विशाल रूप से समर्पण होने वाले सम्पूर्ण मूर्त और सफलता मूर्त बनते है.

१५. समर्पण होना अर्थात अपनापन बिल्कुल समां जाना. जैसे कोई चीज जब किसी में समा जाती है तो समान हो जाती है. ऐसे समाना अर्थात समान हो जाना. तोअपनापन जितना ही समायेंगे उतना ही समानतामूर्त बनेंगे. जैसे किसीको कोई चीज दी जाती है तो अपना अधिकार और अन्य का अधिकार समाप्त हो जाता है. अगर अन्य कोई अधिकार रखे तो उसको कहेंगे की यह तो मैंने समर्पण कर ली. जो सोच सोच कर समर्पण होते है उनकी रिजल्ट अब भी पुरुषार्थ में वाही सोच अर्थात व्यर्थ संकल्प विघ्न रूप बनते है.

इस देह के भान को अर्पण करने से जब अपनापन मिट जाता है तो लगाव भी मिट जाता है. फिर वह सदा योगयुक्त और बंधनमुक्त बन जाते है. *योगयुक्त का अर्थ* ही है देह के आकर्षण के बंधन से भी मुक्त. जब देह के बंधन से मुक्त हो गए तो सर्व बंधन मुक्त बन ही जाते है.