10-07-1965    मधुबन आबू    प्रात: मुरली    साकार बाबा    ओम् शांति    मधुबन


हेलो, स्वदर्शन चक्रधारी ब्राह्मण कुलभूषणों को हम मधुबन निवासियों की नमस्ते, आज सोमवार जुलाई की दस तारिख है। प्रातः क्लास में बापदादा की मुरली सुनते हैं।

रिकॉर्ड :-

ओम नम: शिवाय
ओम शाति!
गीत भी बजना यहाँ शोभता है, क्योंकि जिसकी महिमा है ऊँचे ते ऊँचा, उनको हमेशा कहा ही जाता है- शिवबाबा । रुद्र बाबा भी नहीं शोभता है । नहीं तो बात एक ही है कि शिव यज्ञ या रुद्र यज्ञ, परन्तु फिर भी शिवबाबा कहने से वो बाबा ही अच्छा लगता है । यहाँ तुम जानते हो कि बच्चे शिवबाबा के सन्मुख बैठे हुए हैं । शिवबाबा भी जिस्म लिए बैठे हैं और तुम भी जिस्म लिए बैठे हो । तुम्हारा अपना जिस्म है । शिवबाबा कहते हैं कि मैंने दूसरे का जिस्म लिया है, सो तुम बच्चे जानते हो कि अभी सामने शिवबाबा फिर ब्रह्मा द्वारा , क्योंकि ऐसे तो शिवबाबा बोल कैसे सके । ये तो समझाया गया था कि चैतन्य है, सत्य है और ज्ञान का सागर है । तो जरूर ज्ञान सुनाएँगे । कौन-सा ज्ञान सुनाते हैं? अपना परिचय देना यह भी ज्ञान है और फिर रचना के आदि, मध्य, अंत की जो समझानी देते हैं उसको भी ज्ञान कहा जाता है । दोनों बातों को ज्ञान कहा जाता है, क्योंकि किसको समझाना ये ज्ञान देना है । सो भी किसका समझाना ज्ञान है? ईश्वर के लिए समझाना ज्ञान है । ईश्वर के लिए कौन समझाते हैं? जो ईश्वर का ज्ञान दे सकते हैं, ईश्वर । अंग्रेजी में भी पहाका है । कहते हैं- फादर शोज सन । बाप आ करके तुम बच्चों को अपना और सृष्टि के आदि मध्य अंत का परिचय दे रहे हैं । तुम जानते हो कि आगे जब ऋषियों-मुनियों से पूछा जाता था कि रचता और रचना का ज्ञान है? तो ना बोल देते थे कि नहीं है और फिर इस समय में जबकि बाप ने समझाया है तो ये समझा जाता है कि ये नॉलेज या ज्ञान और कोई दे नहीं सकते है । वो जो ज्ञान आकर देते हैं, जिस ज्ञान से मनुष्य फिर ऊँच ते ऊँच पद पाते है । तो जरूर ऊँच ते ऊँच पद है ही देवी-देवताओं का और उसको ही कहा जाता है कि ईश्वरीय जन्म सिद्ध अधिकार । वो भला तब क्या है? वो है आसुरी जन्म सिद्ध अधिकार । अभी एक ही बार मिलता है- ईश्वरीय जन्म सिद्ध अधिकार । यहाँ तुम जानते हो कि बरोबर अखण्ड-अटल और पवित्रता-सुख-सम्पत्तिमय फिर से हम ईश्वरीय जन्म सिद्ध अधिकार ले रहे है और आसुरी जन्म सिद्ध अधिकार ये दुःखधाम है, जिससे हम पतित बनते हैं । तो वो गाते भी है, पतित-पावन को बुलाते हैं, जरूर पावन को फिर पतित भी बनाने वाला होता है । गोया रावण से वर्सा मिलता है, क्या चीज का? पतित बनने का । जो पतित बनाने वाला रावण है, बरोबर भारतवासी बरस-ब-बरस उसका चित्र बना करके और उसके ऊपर बहुत फालतू आखानियॉ बनाई है, परन्तु ये किसको मालूम नहीं है ये रावण भारत का आधाकल्प का दुश्मन है । ये बाप आ करके बताते हैं । कहते भी हैं रामराज्य चाहिए अर्थात् ये रावण राज्य है, परन्तु जो भी ये राज्य चलाने वाले हैं वो अपने को ऐसे रावण या राक्षस या असुर समझते नहीं हैं । बाप आ करके कहते हैं कि देखो, अभी ये आसुरी सम्प्रदाय बदल करके दैवी सम्प्रदाय बन रही है । यहाँ तुम आए भी हुए हो बरोबर आसुरी अवगुणों से ईश्वरीय गुण धारण करने, उसको अवगुण कहेंगे, गुण तो नहीं कहेंगे, क्योंकि ईश्वरीय गुण धारण कराने वाला, ऐसा जैसे देवताओं में हैं, सो तो बाप ही है । तो तुम जानते हो कि अभी हम यहाँ आए हुए हैं बेहद के बाप से अपना फिर से जन्म सिद्ध अधिकार, 21 जन्म का स्वराज्य लेने । तुम यहाँ आए ही हो, बैठे ही हो कि बाप से हम 21 जन्म के लिए सूर्यवंशी और चद्रवशी स्वराज्य प्राप्त करने, जो स्वराज्य तुम कल्प-कल्प प्राप्त करते आते हो और फिर उनको भी कहेंगे कल्प-कल्प तुम गुमाते आते हो । अभी ये तो बुद्धि में रहना ही है ना कि अभी हम बाप से वर्सा लेते हैं । तो वर्सा लेने वाले बच्चों को बाप को याद करना पड़े ना । तो देखो, तुम वर्सा लेने वाले बच्चे बैठे हो । यहाँ जो बैठे हो अभी ये तो बुद्धि में आना चाहिए ना कि हम मात-पिता के सम्मुख बैठे हुए है । अच्छा, माता का भी भूल जाओ । चलो, हम शिवबाबा के सन्मुख बैठे हुए है उनसे वर्सा लेने के लिए । वो ब्रह्मा के मुख से ये सुनाते हैं वा ब्रह्मा के शरीर में धारण करते हैं और बच्चे गोद में लेते हैं तो जरूर ब्राह्मण ही कहलाएँगे । ये भी तो सिद्ध करना है ना । बाप ने समझाया है कि ये ज्ञान यज्ञ है जरूर । पीछे यज्ञ कहो या पाठशाला कहो, बात एक ही है । दोनों ही कहना जरूरी है, क्योंकि यज्ञ भी है तो पाठशाला भी है । बच्चों को समझाया गया था कि जब रुद्र ज्ञान यज्ञ रचते हैं तो यज्ञ का यज्ञ भी है और पाठशाला भी बना देते हैं, क्योंकि बहुत शास्त्र हैं, यहाँ-वहाँ चारों तरफ में वेद शास्त्र ग्रंथ रख देते हैं और मनुष्य जिनको रामायण सुनना होता है वो रामायण के पास चले जाते हैं, जिसको गीता सुननी वो गीता के तरफ, वेद सुनने हैं तो वेद की तरफ । ऐसे-ऐसे वो लोग जब रुद्र यज्ञ रचते हैं तो उनमें दोनों. रुद्र ज्ञान यज्ञ । तो देखो, यहाँ भी बाबा जानते हैं कि यज्ञ है । बच्चे भी जानते हैं कि यज्ञ है । इनमें ये सब कुछ स्वाहा हो जाने वाला है, क्योंकि ये है अंत का यज्ञ । सृष्टि का भी अंत और ये जो यज्ञ है वो भी अंत, क्योंकि ज्ञान यज्ञ तो एक ही होता है । बाकी जो अनेक प्रकार के यज्ञ हैं, उनको कहा ही जाता है मटेरियल यानी उनमें ये जौ-तिल वगैरह ये । यहाँ वो नहीं है । वहाँ उस काठियॉ, जौ तिल वगैरह की बदली में जो भी, जौ-तिल तो क्या, पर सभी सामग्री। उसमें जौ तिल अनाज वगैरह, झाड वगैरह सब आ जाते है, क्योंकि फिर सारी नई पैदाइश होती है । ऐसे कोई भी पीछे दुःख देने वाली चीज होती ही नहीं है । ये चिल्ली तो वृद्धि पाती रहती हैं ना । बीमारियाँ ये आगे थोड़े ही थे । इनका नाम भी नहीं था । जैसे-जैसे दुःखधाम की वृद्धि होती जाती है वैसे भिन्न-भिन्न प्रकार के दुःख, बीमारियों और रोग निकलते रहते हैं वा ये जो ड्रामा बना हुआ है उसमें ये सभी नूंध है । जैसे-जैसे मनुष्य ऐसे-ऐसे उनके लिए फिर किस्म-किस्म के दु ख पैदा होते जाते हैं । तो इसीलिए इसको कहा ही जाता है दुःखधाम । तो बरोबर शोक वाटिका हुआ ना । मनुष्य दुखी ही रहते हैं, क्योंकि रावण का राज्य है । बच्चों को यह निश्चय हुआ कि बरोबर जबकि रामराज्य है, तो वहाँ रावण राज्य भी होवे तो फिर भी लड़ाई लगे । ये तो बहुत लड़ाई लग पड़े । इसलिए वहाँ रावणराज्य होता ही नहीं है । है ही नहीं, क्योंकि आधाकल्प है सुख, आधाकल्प है दुःख । आधाकल्प है, भले उनको रामराज्य ही कहो, क्योंकि राम भी तो उनको ही कहा जाए न। .मनुष्य राम-राम जपते है तो एक को जपते है ना । अगर प्यार होगा तो ''सीता-राम सीता-राम '' ऐसे कहेंगे, परन्तु नहीं, जब जपते है तब राम-राम बस उनकी धुन लगा देते हैं, सीता को याद नहीं करते हैं । इसलिए उस राम को फिर भी... क्योंकि माला उठाते हैं, वो तो है ही रुद्रमाल निराकार की । दाने है ना । रुद्रमाला तो समझाया है कि वो है निराकारी आत्माओं की माला और जब विष्णु की माला बनती है तो तुम जो यहाँ पुरुषार्थ करते हो वो राजाई की माला बन जाती है । फिर विष्णुपुरी में नंबरवार राज्य करते हो । यह तो अच्छी तरह से समझते हो ना! अभी ये सभी तुम बच्चों को समझना है और समझाना है । जितना-जितना समय बीतता जाएगा इतना-इतना ये ज्ञान शॉर्ट में होता जाएगा, क्योंकि बाप अभी शार्ट में समझाते रहते हैं । शार्ट समझाने के लिए बाबा युक्तियाँ रच रहे हैं । ये तो है, इसमें तो कोई.....। सेकेण्ड में जब इनको वैराग्य आएगा, बहुत ये विनाश का समय हो जाएगा, तो इनको विनाश का समय याद पड़ेगा, तो डरेंगे और समझेंगे बरोबर ये महाविनाश और वही महाभारी लड़ाई है । इसमें भगवान जरूर होगा । बस, अभी कोई समझते होंगे कृष्ण होगा । अभी लॉ मुजीब कृष्ण तो हो भी नहीं सकता है । जरूर निराकार भगवान होगा । कलहयुग में कृष्ण तो हो भी नहीं सकता है ना । जरूर निराकार भगवान् ही होगा । उसको तो कहा ही जाता है- सर्व का पतित-पावन, सर्व का सद्‌गति दाता । ये टाईटल भी तो कोई औरों को नहीं दे सकते हैं ना, क्योंकि बाबा ने समझाया है कि जो असुल देवताएँ हैं और पवित्र हैं, उनके पतित दुनिया में पैर नहीं धरते हैं । इसलिए वो निशानी है कि नंबरवन हैं श्री लक्ष्मी-नारायण विष्णु । बरोबर तुम लक्ष्मी से धन माँगते हो । लक्ष्मी धन कहाँ से ले आएंगी? देखो, यहाँ भी मम्मा धन कहाँ से लेती है? बाप से लेती है । तो बरोबर वहाँ भी तो बाप ही उनका साथी होगा । यहाँ सरस्वती भी है तो ब्रह्मा भी है । तो फिर वहाँ भी दोनों होना चाहिए, क्योंकि निशानी चाहिए कि इनको धन कहाँ से मिलता है । इसलिए देखो महालक्ष्मी की पूजा होती है । उनको मालूम नहीं होता है कि महालक्ष्मी को चार भुजाएँ क्यों दिया है । नहीं तो हैं बरोबर चार भुजाए तो दो मुख भी, परन्तु फिर चार टाँगे नहीं दे सकते है । देखो, रावण को भी इतनी भुजाएँ देते हैं, टाँगे थोड़े ही देते हैं । इससे सिद्ध होता है कि ये झूठी बात है । मनुष्य को कोई इतनी भुजाएँ होवे तो फिर उसकी निशानी टॉगे भी होवे । टाँगे नहीं देते हैं । ये सिर्फ ऐसे ही समझाने के लिए कि इनको दस शीश तो दस बाहें भी दे देते हैं या दस शीश के लिए शायद बीस बाहें चाहिए होंगी । वो कितना देते है, मैं समझता हूँ कि पाँच ही देते होंगे । पाँच यहाँ, पाँच वहाँ । दस तो बहुत ही हो जाती हैं, परन्तु आजकल तो बहुत ही बाहें भी दे देते है । तो बाप बैठकर अच्छी तरह से समझाते हैं कि अभी तुम जानते हो कि आज सोमवार का भी दिन है । आज गुरूवार नहीं है, सोमवार है । आज मम्मा को इनवाइट किया है । देखो, इनवाइट करते हैं ना जब कोई का पति मरता है, फलाना मरता है तो उनको इनवाइट किया जाता है कि आओ, आ करके भोजन पाओ, परन्तु कैसे आवे? वो ब्राह्मण के तन में आते हैं और बोलते हैं । बुलवाया जाता है । ये एक तीर्थ होता है, जिसमें आत्माओं को बुलवाया जाता है । ये भी रसम-रिवाज ड्रामा में नूंध है, पहले भी ऐसे ही हुआ था । तुम्हारी बुद्धि में बैठेगा कि कल्प पहले भी जो-जो पास्ट होती है बस वही रियलिटी है । वही सत्य है जो कल्प-कल्प होता है । बाकी शास्त्रों में जो लिखा हुआ है वो तो गपोड़ा है ना । वो तो है ही नहीं जो बाप बैठ करके समझाते हैं और समझते हो कि बरोबर जो कुछ भी अभी होता है वो कल्प के मुआफिक होता है । बाप भी कल्प के मुआफिक अपनी एक्टीविटी ज्ञान देने की वा याद, योग सिखलाने की करते हैं । इसमें जरा भी, एक रिचक फर्क नहीं पड़ सकता है । अभी तुमको मालूम है कि ये एक ड्रामा है । हम आते है घर से और यह मनुष्य का तन धारण कर नाटक बजाते हैं । हमने नाटक को समझा है और 84 जन्म के चक्र को भी समझा है, क्योंकि डयूरेशन इतना समय यह नाटक चलता है, यह भी तो और कोई जानते नहीं हैं. । हम ब्राह्मण खुद ही नहीं जानते थे । कल्प पहले तुम बच्चों ने ही जाना था, अब तुम जान रहे हो । बरोबर कल्प-कल्प हम बाप द्वारा रचता और रचना के आदि मध्य अंत का ज्ञान लेते हैं । अभी तुम्हारी बुद्धि में यह सारी नोलेज है क्योंकि अभी फिर भी बेहद का एक्टर तो हो गए ना । तुम्हारी बुद्धि में ये जरूर रहना है कि बरोबर ऊँचे ते ऊँचा तो बाबा है जो वर्सा देते हैं । फिर नीचे में आओ तो तीन है-ब्रह्मा विष्णु शंकर । ब्रह्मा द्वारा स्थापना होती है ब्राहमणों द्वारा और वही फिर देवी-देवता बन करके, विष्णुपुरी के मालिक बन करके पालना करते हैं । विष्णुपुरी कहो या श्री लक्ष्मी-नारायण की पुरी कहो, बात तो एक ही है ना । यह भी तुम अच्छी तरह से जानते हो कि बरोबर हम सूर्यवंशी और चंद्रवंशी वर्सा बाप से ले रहे हैं । ब्राह्मण तो हैं ही । बाकी जो सूर्यवशी-चद्रवंशी वर्सा है सो हम बाप से अब ले रहे हैं और 21 जन्म भोगेंगे । ये बड़ा भारी ईश्वरीय पद है । इसलिए ईश्वर का जरूर बनना पड़ता है । बाप कहते हैं कि तुम हमारे थे, हमने तुमको भेजा । क्यों भेजा? कि तुम यहाँ पढ़ रहे हो, फिर तो तुम जरूर वहाँ स्वर्ग का राज्य करने आएँगे । अभी भेजने का क्वेश्चन नहीं उठता है या वहाँ कोई किसको कहा जाता है कि अभी तुम जाओ, पर तुम बच्चे समझते हो कि जो-जो अच्छी तरह से पुरुषार्थ करेंगे वो नंबरवार फिर अपने सुखधाम में आते रहेंगे, क्योंकि अभी तुम याद भी सुखधाम को करते हो । ये जानते हो कि ये दुःखधाम है । तो ये बुद्धि का काम हुआ ना । ये बरोबर हम जानते हैं, बैठे भी तो हैं ना । बैठे हुए हैं । यह पिछाडी कलहयुग की, अंत है और दुःखधाम है । अभी दूसरे कोई को बुद्धि में यह अक्षर भी पता नहीं है कि यह दुःखधाम है । यह तब हो सके जबकि उनकी बुद्धि में फिर सुखधाम की भी यात्रा हो । तब तलक कोई नहीं समझते है । इसको कोई ऐसे यथार्थ रीति समझे कि यह दुःखधाम है- यह कोई भी नहीं जानते हैं । तुम बच्चों को जानना है । सो भी सदैव, रोजाना समझना चाहिए । पढ़ते हो, यह बुद्धि में बैठ जाना है कि यह दुःखधाम है । हम सुखधाम के लिए, सुखधाम स्थापन करने वाले बाप से वर्सा पा रहे हैं । हम उनके बने हैं । जीते जी उनके बने हैं । कोई भी राजा है वो अपने गोद में लेते है .तो वो समझते है कि हमारे वो भी लौकिक हैं और ये दूसरे भी लौकिक हैं । यहाँ तो लौकिक और पारलौकिक हो जाते हैं, परन्तु याद तो करते हैं ना । अपने राजाई कुल को भी याद करते है तो उस बेगर कुल को भी याद करते हैं । वैसे ही तुम जानते हो कि हम अभी राम के बने हैं । उसने हमको गोद में लिया है । यह रावण कुल है । उसके बीच में ही हम बैठे हुए हैं । एक तरफ में वो है, दूसरे तरफ में हम हैं । यह समझ सकते हो ना । देखो, सारा बुद्धि का काम है । हर एक बात में बुद्धि का काम, यानी आत्मा अच्छी तरह से समझती जाती है बरोबर मैंने ही 84 जन्म पूरा किया है । अब मैं आत्मा ही यह शरीर छोड़ करके नया दैवी शरीर लेने के लिए पुरुषार्थ कर रही हूँ । किस द्वारा? अपने ज्ञान सागर, पतित-पावन, सद्‌गति दाता परमात्मा द्वारा, जो फिर ब्रह्मा द्वारा हमको पढ़ाते हैं । यूं तो सभी आत्माएँ शरीर द्वारा बैरिस्टरी पढ़ाते हैं, इजीनियरी पढ़ाते हैं, पर आत्मा पढ़ाती है ना । ये संस्कार भी तो आत्मा में रहते हैं ना । सुनती-बोलती भी तो आत्मा है ऑरगन्स द्वारा । वो जो आत्म अभिमान है वो निकल गया है । अभी तुमको आत्म अभिमानी बनने में बड़ी मेहनत लगती है । घड़ी-घड़ी देहअभिमान में आ जाते हैं । आत्म अभिमान में कब बैठें जो हमको घड़ी-घड़ी भूल न जाएँ, तभी बाप राय देते हैं कि बच्चे, अमृतवेला बड़ा मशहूर है । तो अमृतवेले तुम अपन को आत्मा समझ बाप से योग लगाते, याद करते रहो । बाप कहते हैं जितना तुम याद करेंगे इतना तुम्हारी जो कट लगी हुई है ना। वो कट लगा टिन होता है ना, तो घासलेट में या कोई में डाल देते हैं । यह तो है फिर याद में डाल देना । बरोबर हम आत्माओं को कट लगी हुई है । बरोबर आत्मा में ये सभी खाद पड़ गई है । अभी हम मुलमी बन गए हैं । वो तो हम प्योर सोने से प्योर जेवर बनते है और ये हमारा सोना इमप्योर हो गया है, जिसको कट भी कहा जाता है । टिन को लगती है ना, क्या कहते हैं? (किसी बहन ने कहा- जंक) अंग्रेजी में जंक, नहीं तो कट कहते है । उसको भी कोई में डाला जाता है । तो तुमको भी याद में डाला जाता है, परन्तु यह सारा काम बुद्धि का है । हम बाबा की याद में बैठे रहते हैं । बाबा ही हमको यह सृष्टि का चक्कर सुनाते हैं । अभी बाबा से राज्य लेना है । अभी अमृतवेले बैठकर यह याद करना है । अभी कोई तकलीफ तो नहीं है ना । कोई भी हठयोग की बिल्कुल बात नहीं है । बिल्कुल ही सहज । जैसे बच्चे बाप को याद करते हैं, इतना सहज । इसलिए इसको कहा जाता है सहज याद । वो आत्मा लौकिक शरीर को याद करती है । अभी परमात्मा कहते हैं लौकिक बाप को याद न करो, मुझ अपने आत्मा के बाप को याद करो । मैं बेहद का बाप हूँ बेहद का सुख दूँगा, जो मैंने कल्प पहले भी तुम बच्चों को दिया था । बरोबर थे ना । भारत विश्व का मालिक था, कोई दुश्मन वगैरह कुछ न था । उनको ही सुखधाम कहा जाता है । तो सुखधाम के लायक तुम बन रहे हो । अभी तो ये समझते हो ना । बाप. .खुद कहते है कितना बेसमझ बन गये थे । बेसमझ को नालायक भी कहा जाता है । तो बाप कह सकते हैं ना । अरे बच्चे भारतवासियों! तुमने क्या किया है! कितने नालायक बन गए हो बिल्कुल ही! तुम स्वर्ग के लायक थे, अभी देखो तुम नर्क के लायक बनकर एकदम कुछ भी नहीं बने हो । यह तुम भूल जाते हो कि अरे! हम भारतवासी बिल्कुल ही इस विश्व के मालिक थे । अभी हमारा क्या हाल हुआ है! अभी हमको फिर कौन यह विश्व का मालिक बनाएगा? तो जरूर वो बनाएगा । वही आकर के तो बनाएगा ना । वहाँ तो नहीं बैठकर बनाएँगे । अगर वहाँ बैठकर बनाते तो क्यों यहाँ शिवजयन्ती मानते । मानते तो हैं ना बच्चे! तो जरूर आते हैं ना । अभी दुनिया में कोई मानते ही नहीं इनमें कोई भगवान आ सकते हैं । अभी मानते भी हैं.. शिवजयन्ती और निराकार जयन्ती, वो एक ही है । और सभी आकार या साकार जयन्ती कोई भी मानेंगे। गीता जयन्ती भी मानते हैं बरोबर । तो जरूर जब शिवबाबा आते है तभी तो भगवानुवाच तो गीता जयन्ती तो फट से हुई ना । वो आते ही हैं बच्चों को नॉलेज देने के लिए । तो फट से आ करके अपना परिचय देंगे ना । ऐसे तो नहीं है कि छोटा बच्चा है, बड़ा बनेंगे तब परिचय देंगे । ये तो आने से ही परिचय देते हैं। तो आने से ही जो सुनाया वो जैसे कि आने से ही गीता सुनाते हैं । अभी गीता तो नहीं सुनाते हैं ना । फिर भी किसको कहेंगे सच्ची गीता, तो भी वो बोलेंगे फिर भी गीता तो है ना । फिर वो झूठी कैसे? सच्ची कैसे? तो अभी तुम ये समझ गए कि हम झूठी क्यों कहते हैं, क्योंकि श्रीकृष्ण भगवानुवाच है । सभी झूठी तो जो कृष्ण का चरित्र भागवत में वो भी झूठा हो जाता है । लड़ाई भी झूठी हो जाती है । हर एक बात झूठी हो जाती है । दुनिया ही झूठी हो जाती है । इसलिए गाते भी हैं- झूठी माया झूटी काया झूठा ये संसार । माया झूठी बनाती है ना । सचखण्ड को ये रावण झूठा बनाते हैं । तभी तो इनको झूठ खण्ड कहते हैं ना । देखो, गाते भी तो हैं ना । सतयुग में तो ऐसे नहीं गाएँगे । कलहयुग में गाते हैं- झूठी माया झूटी काया झूठा ये संसार । माया का भी अर्थ चाहिए ना । ये झूठ खण्ड किसने बनाया? माया ने बनाया । माया तो यही रावण का खण्ड । यह भी तो तुम बच्चे जानते हो ना कि माया किसको कहा जाता है । झूठी माया । सम्पत्ति तो कोई झूठी नहीं हो सकती है ना । सम्पत्ति तो या धन है या ये मकान हैं या हीरे हैं, मोती हैं । उनको सम्पत्ति कहा जाता है, माया तो नहीं कहा जाता है । ये तो गाते ही हैं कि झूठी माया, झूठी काया । बरोबर यह झूठी, क्योंकि सच्चा सोना तो झूठा हो गया है । किसने बनाया? माया ने बनाया । क्या किया? जो सोना सच्चा था उसको झूठा बना दिया और पूरा झूठा बना दिया । स्कूलों में तो कहा ही जाता है झूठ खण्ड में । खण्ड झूठा तो नहीं होता है । खण्ड में रहने वाले मनुष्य झूठे होंगे । इसलिए मनुष्य झूठे होने कारण फिर खण्ड झूठा कह देते हैं । ऐसे झूठे मनुष्यों के खण्ड को भी झूठा कह देते हैं । बरोबर यहाँ झूठ ही झूठ है, सच की एक रत्ती नहीं, जबकि सत्य आवे नहीं । तो बरोबर सतयुग में सत्य, तो सच ही सच, झूठ का नाम-निशान नहीं । यहाँ तो झूठ के बडे गपोडे लगाते है । उसमें भी सबसे जास्ती बड़े ते बड़ा गपोड़ा यही कि सर्वव्यापी । जिसको ही फिर ग्लानि कहा जाता है । जिसको ही तो कहते हैं- यदा यदा हि धर्मस्य । ग्लानि किसको कहा जाता है, वो भी तो कोई विद्वान-आचार्य जानते नहीं हैं । बाप आ करके समझाते हैं कि कोई ऐसे समझते थोड़े ही है कि हम कोई सर्वव्यापी कह करके शिवबाबा की ग्लानि करते हैं । बाप आकर समझाते है कि कितना तुम मूर्ख बुद्धि हो गए हो । तुमको मूर्ख बुद्धि किसने बनाया? रावण ने । उसने तुमको झूठा बनाया । तुमको जो देते हैं स्वर्ग का मालिक, उनको तुम बिल्कुल ही इतना नीच ले जाते हो । बहुत बच्चे ले जाते हैं एकदम- वाराह अवतार, फलाना अवतार, ये कच्छ-मच्छ । अच्छा, ये भी तो भला छोडो फिर भी पत्थर-पत्थर तक मुझे तुम ले गए हो । तो ये समझते हैं ना बरोबर हम रावण मत पर चल रहे थे .तुम ऐसे कहेंगे ना कि बरोबर ड्रामा अनुसार फिर रावण मत पर चलते-चलते- देखो हम कितने पतित, दुर्भाग्यशाली और दुर्गति को पहुँच गए है । जो फिर देवी-देवता बनने के हैं, राज्य पद पाते हैं, वही फिर अंदर रहते हैं । फिर अनपढ़े पढों के आगे भरी ढोएँगे । तो जरूर फिर अंदर भी तो चाहिए, दास-दासियाँ वगैरह- वगैरह बहुत कुछ चाहिए । समझा ना । राजाई के अंदर बाहर से तो नहीं आएँगे । जरूर सब कुछ अंदर ही चाहिए । तो वो फिर भी राजाई घराने में आ जाते है । पलते ही जैसे कि राजाओं के घर में हैं । खाना भी वहीं खाते है । भले उनकी सब संभाल राजाओं के घर में है परन्तु फिर नौकर तो जरूर रहेंगे ना । यह तो बाबा बड़ा अच्छी तरह से समझा रहे हैं कि बच्चे सावधान हो करके पढ़ाई को अच्छी तरह से लगें । घर में बैठकर कोर्स उठाते है । बच्चे बहुत ही गृहस्थी हैं जो जास्ती पद पाने के लिए कोर्स उठाते हैं, फिर उनको फुर्सत कहाँ से मिलती है! घर भी सम्भालते हैं, कोर्स भी उठाते हैं, डबल काम । ये भी ऐसे ही है । घर भी संभालो ये ईश्वरीय कोर्स भी उठाओ । अब ये तो प्राईवेट घर में पढने का भी कोर्स है । कुछ टीचर से, कुछ घर में भी पढ़ो । वो भी तो किताब से पढ़ते हैं । मुरली तो सबको मिल सकती है, ऐसे नहीं है कि नहीं मिल सकती है । सात रोज समझने वाला मुरली को बड़ा अच्छा समझ सकेंगे । सो भी हर एक की अपनी बुद्धि अनुसार । कोई तो अच्छा-अच्छा समझ जाएँगे, मुरली से उनको बिल्कुल अच्छी तरह से आ जाएगा और कोई होगा उनको बुद्धि में बैठेगा ही नहीं । अच्छा, आज थोड़ा सवेल में ही बंद करते हैं । जाने वाले भी हैं । भोग भी बहुत टाइम ले लेता है, परन्तु बाबा कहते हैं कि बच्चे, यहाँ आते हो रिफ्रेश होने के लिए । तो रिफ्रेश हो करके फिर जा करके बरसना । देखो, ये भी तो जानते हो कि कोई जाकर बरसते है, फिर कोई थोड़ा कम । मैं समझाता हूँ कोई भी हो, पकड़ करके कि भगवान से क्या परिचय है? पिता है ना । तो परमपिता परमात्मा से क्या परिचय है? वो ऐसे नहीं कहेगा कि सर्वव्यापी है, जबकि तुम पिता तो कहते ही हो । तो पिता के साथ फिर दूसरा पिता प्रजापिता भी तो साथ में चाहिए ना । वो तो हो गया सर्वव्यापी, पर यहाँ दूसरा पिता भी जरूर चाहिए, बापदादा जरूर चाहिए । तो उन द्वारा वो पढावे । तो प्रजापिता भी तो बरोब चाहिए, सब जानते हैं कि हम प्रजापिता की औलाद हैं और आत्मा शिवबाबा की औलाद है । यह तो बिल्कुल समझना... परन्तु ये बड़े-बड़े विद्वानों की भी बुद्धि पर ताला है । बाबा, भला आपने इनको ताला क्यों लगाया है? मुझे गाली इतनी देते हैं, मेरा डिसरिगार्ड करते है । मेरे को कहते हैं कि कुत्ते में, बिल्ले में, फलाने में । मुझे कुत्ते का बच्चा, बिल्ले का बच्चा, पत्थर का बच्चा, हिमालय का भी बच्चा । हिमालय में पत्थर होते हैं ना । सो भी अच्छा, हिमालय का बच्चा कहो ना । नहीं, हिमालय में जो भी पत्थर भिल्लर ठिक्कर हैं उनका भी बच्चा । तुम मेरी इतनी बेइज्जती की हो । तो भी तुम अपकार किया है । मैं देखो तुम्हारा उपकार करता हूँ ।.. अभी समझ गए ना कि बरोबर हम रावण की मत पर ये अपकार करते रहते हैं । तो सभी रावण की मत पर हैं ना । सबसे जास्ती रावण की मत पर ये विद्वान साधु सन्यासी लोग है । जिनका फिर नाम आता है । जनक को भी, राजाओं को भी नॉलेज, तो फिर भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य ऐसे-ऐसे दिगम्बर । भीष्म पितामह होते ही हैं शंकराचार्य वाले लोग । वे पक्के होते हैं । फिर भी तुम भ्रष्टाचार से पैदा होते हैं ना । तो ये दुनिया ही भ्रष्टाचारी है और हर एक की जो भी भ्रष्टाचार की वार्तालाप है, जिनका वो है। भ्रष्टाचारी क्यों बोलते हैं- सबके लिए बैठ करके समझाते हैं । अच्छा, राजाओं के लिए, भ्रष्टाचारी हैं तब तो श्रेष्ठाचारियों की पूजा करते हैं । तो हर एक बात का बाबा बैठ करके समझाते हैं । ये तो अच्छी तरह से समझना चाहिए और फिर समझाना है । बाकी तो जो मनुष्य हैं वो तो समझते हैं जैसे बिच्छू टिण्डन कुत्ते ,बिल्ले बच्चे पैदा करते हैं, उनकी सम्भाल करते हैं, ये भी ऐसे ही बच्चे पैदा करते हैं और सम्भाल करते हैं । उनमें अभी कोई फर्क तो है नहीं । खाते हैं एक - दो को, एक - दो को काम-कटारी पर चढ़ाते है । तो वो हो गई रावण की रसम-रिवाज, पर इस समय में जब रामराज्य शुरू होता है तो आ करके रामराज्य लेना चाहिए या पुरानी रसम पर चलते जाना चाहिए? जबकि समझते हैं कि बरोबर हम राम बाप से वर्सा ले सकते हैं, सुनते हुए, देखते हुए भी, यहाँ बहुत हैं जो राज्य ले रहे हैं, फिर भी उनके साथ न आय राज्य लेवे तो देखो... । किसका बहुत बड़ा सतसंग देखते हैं तो उसमें बहुत ही चले जाते हैं । जहॉ-जहॉ बड़ा सतसंग देखेंगे, वहाँ बहुत जाएँगे और वो सतसंग बड़ा होता जाता है । वहाँ तो मिलता कुछ भी नहीं है, पर बहुत बड़ा हो जाता है । यह तो मेहनत है । अच्छी मेहनत है । तो ये सबसे जब पहले पूछेंगे कि क्या परिचय है? बस, हम ब्रह्माकुमार डाडे से वर्सा ले रहे हैं । लेना होवे तो आओ । फिर ऐसे को जब वो समझें कि हाँ, ये बिल्कुल राइट कहते हैं तो लिखा कर लेना चाहिए । तो जितना तुम यहाँ लिखाते रहेंगे वो तुम्हारे पास अक्षर रहेगे । तो फिर ये भी कोर्ट के काम में पीछे काम में आएँगे । देखो, कितने को निश्चय है कि भगवान एक है । जबकि एक है तो.. .एक ठहरा और वही स्वर्ग का वर्सा देते हैं । कृष्ण दे नहीं सकता है । मनुष्य दे नहीं सकते हैं । अच्छा, ले आओ टोली । प्राचीन भारत का योग, तो योग का अर्थ कोई फिर समझ ही नहीं सकते हैं कि किसके साथ योग और कौन सिखलाते हैं? तो योगेश्वर, ईश्वर योग सिखलाते हैं । कृष्ण को भी योगेश्वर कह देते हैं, पर कृष्ण योगेश्वर है ही नहीं । न सिखलाने वाला है, न सीखना है, कृष्ण जिसका नाम। ये कह सकते हैं उसकी आत्मा फिर अंतिम जन्म में आ करके योग या याद सीखती है, राजयोग सीखती है तब आए । जरूर आगे जन्म में ये राजयोग की कमाई की होगी । तब तो कोई एक थोड़े ही है, वो तो फिर राजाई है । राजाई स्थापन हो रही है । अच्छा, चलो बच्ची! (रिकॉर्ड बजा- चल उड जा रे पंछी...........) जैसे कि सम्पूर्ण एक हो जाएँगे, पीछे दो नहीं रहेंगे । खतम हुए दिन काँटों के, बबूल ट्री के । यह भी तो सब राग है ना । इनमें बहुत रॉग अक्षर होते हैं, जो कभी भी बाबा कहते हैं इस राँग अक्षर को नहीं मानेंगे । जिसमें एक्यूरेट कुछ ठीक लिखा हो। एक्यूरेट सारे में तो नहीं होता है ना । क्योंकि शिव हुआ ऊँचे ते ऊँचा । बात है भी उनको याद करने की । बाकी तो उन्होंने बहुत ही कुछ लिख दिया है । कम हो जाते हैं । यह भी कारण देखते है, परन्तु फिर भी सुनाना तो है जो सुन सके । (किसी ने कुछ कहा- प्यारे बाबा, सैर करते रहते हैं और साथ-साथ जो अनन्य भक्त हैं उन्हों के पास भी जाते रहते हैं और आप वत्सों की भी रूहानी सेवा करते रहते हैं । जो यहाँ अंत समय प्रभाव निकालने के लिए बनी हुई व्यक्तियॉ हैं उनका भी इन एडवास साक्षात्कार करते रहते हैं और.. अंत:वाहक शरीर द्वारा उनकी बुद्धियों को प्रेरणा की सर्विस चलती रहती है क्योंकि अच्छी तरह से झट समझ लेंगे । तो कहाँ जाती होंगी? भक्तों के पास । बाबा भी कहते हैं ना- शिव के मंदिर में जाओ, लक्ष्मी-नारायण के मंदिर में जाओ, फलाने मंदिर मे जाओ । तो ये जाती है, तुम नहीं जाती हो? आगे इतना प्रेम से नहीं खिलाते थे । अभी और जास्ती प्रेम से खिलाते हैं ।