सृष्टि रूपी उल्टा आ अदभुत वृक्ष और उसके बीजरूप 
                                परमात्मा
                                
                                
                                
                                
                                
								
                                भगवान ने इस सृष्टि रूपी वृक्ष की तुलना एक उल्टे 
                                वृक्ष से की है क्योंकि अन्य वृक्षों के बीज तो 
                                पृथ्वी के अंदर बोये जाते है और वृक्ष ऊपर को उगते 
                                है परन्तु मनुष्य-सृष्टि रूपी वृक्ष के जो अविनाशी 
                                और चेतन बीज स्वरूप परमपिता परमात्मा शिव है,
                                वह स्वयं ऊपर परमधाम अथवा 
                                ब्रह्मलोक में निवास करते है | 
                                
                                
                                
                                चित्र में सबसे नीचे कलियुग के अन्त और सतयुग के 
                                आरम्भ का संगम दिखलाया गया है 
                                
                                | वहाँ श्वेत-वस्त्रधारी 
                                प्रजापिता ब्रह्मा, 
                                जगदम्बा सरस्वती तथा कुछ ब्राह्मनियाँ और ब्राह्मण 
                                सहज राजयोग की स्थिति में बैठे है |
                                इस चित्र द्वारा यह रहस्य प्रकट 
                                किया जाता है कि कलियुग के अन्त में अज्ञान रूपी 
                                रात्रि के समय, सृष्टि के 
                                बीजरूप, कल्याणकारी,
                                ज्ञान-सागर परमपिता परमात्मा शिव 
                                नई, पवित्र सृष्टि रचने के 
                                संकल्प से प्रजापिता ब्रह्मा के तन में अवतरित 
                                (प्रविष्ट) हुए और उनहोंने प्रजापिता ब्रह्मा के 
                                कमल-मुख द्वारा मूल गीता-ज्ञान तथा सहज राजयोग की 
                                शिक्षा दी, जिसे धारण करने 
                                वाले नर-नारी ‘पवित्र 
                                ब्राह्मण’ कहलाये |
                                ये ब्राह्मण और ब्राह्मनियाँ
                                – सरस्वती इत्यादि- 
                                जिन्हें ही ‘शिव शक्तियाँ’
                                भी कहा जाता है,
                                प्रजापिता ब्रह्मा के मुख से 
                                (ज्ञान द्वारा) उत्पन्न हुए |
                                इस छोटे से युग को ‘संगम 
                                युग’ कहा जाता है |
                                वह युग सृष्टि का ‘धर्माऊ 
                                युग’ (Leap yuga) भी 
                                कहलाता है और इसे ही ‘पुरुषोतम 
                                युग’ अथवा ‘गीता 
                                युग’ भी कहा जा सकता है
                                | 
                                
                                
                                
                                सतयुग में श्रीलक्ष्मी और श्री नारायण का अटल,
                                अखण्ड, 
                                निर्विघ्न और अति सुखकारी राज्य था |
                                प्रसिद्ध है कि उस समय दूध और घी 
                                की नदियां बहती थी तथा शेर और गाय भी एक घाट पर 
                                पानी पीते थे | उस समय का 
                                भारत डबल सिरताज (Double crowned) 
                                था | सभी 
                                सदा स्वस्थ (Ever healthy),
                                और सदा सुखी (Ever happy)
                                थे | उस 
                                समय काम-क्रोधादि विकारों की लड़ाई अथवा हिंसा का 
                                तथा अशांति एवं दुखों का नाम-निशान भी नहीं था
                                | उस समय के भारत को
                                ‘स्वर्ग’, ‘वैकुण्ठ’, 
                                ‘बहिश्त’, ‘सुखधाम’
                                अथवा ‘हैवनली 
                                एबोड’ (Heavenly 
                                Abode) कहा है उस समय सभी 
                                जीवनमुक्त और पूज्य थे और उनकी औसत आयु १५० वर्ष 
                                थी उस युग के लोगो को ‘देवता 
                                वर्ण’ कहा जाता है 
                                | पूज्य विश्व-महारानी श्री 
                                लक्ष्मी तथा पूज्य विश्व-महाराजन श्री नारायण के 
                                सूर्य वंश में कुल 8 सूर्यवंशी महारानी तथा 
                                महाराजा हुए जिन्होंने कि 1250 वर्षों तक 
                                चक्रवर्ती राज्य किया | 
                                
                                
                                
                                त्रेता युग में श्री सीता और श्री राम चन्द्रवंशी,
                                14 कला गुणवान और सम्पूर्ण 
                                निर्विकारी थे | उनके 
                                राज्य की भी भारत में बहुत महिमा है |
                                सतयुग और त्रेतायुग का ‘आदि 
                                सनातन देवी-देवता धर्म-वंश’
                                ही इस मनुष्य सृष्टि रूपी वृक्ष 
                                का तना और मूल है जिससे ही बाद में अनेक धर्म रूपी 
                                शाखाएं निकली | द्वापर में 
                                देह-अभिमान तथा काम क्रोधादि विकारों का 
                                प्रादुर्भाव हुआ | देवी 
                                स्वभाव का स्थान आसुरी स्वभाव ने लेना शुरू किया
                                | सृष्टि में दुःख और 
                                अशान्ति का भी राज्य शरू हुआ |
                                उनसे बचने के लिए मनुष्य ने पूजा 
                                तथा भक्ति भी शुरू की | 
                                ऋषि लोग शास्त्रों की रचना करने लगे |
                                यज्ञ, तप 
                                आदि की शुरात हुई | 
                                
                                
                                
                                कलियुग में लोग परमात्मा शिव की तथा देवताओं की 
                                पूजा के अतिरिक्त सूर्य की,
                                पीपल के वृक्ष की,
                                अग्नि की तथा अन्यान्य जड़ तत्वों 
                                की पूजा करने लगे और बिल्कुल देह-अभिमानी,
                                विकारी और पतित बन गए |
                                उनका आहार-व्यहार,
                                दृष्टि वृत्ति,
                                मन, वचन 
                                और कर्म तमोगुणी और विकाराधीन हो गया |
                                
                                
                                
                                कलियुग के अन्त में सभी मनुष्य त्मोप्र्धन और 
                                आसुरी लक्षणों वाले होते है 
                                
                                | अत: सतयुग और त्रेतायुग की 
                                सतोगुणी दैवी सृष्टि स्वर्ग (वैकुण्ठ) और उसकी 
                                तुलना में द्वापरयुग तथा कलियुग की सृष्टि ही
                                ‘नरक’
                                है |
								
                                
                                प्रभु मिलन का गुप्त युग—पुरुषोतम 
                                संगम युग
                                
                                
                                
                                
                                
                                
                                भारत में आदि सनातन धर्म के लोग जैसे अन्य 
                                त्यौहारों,
                                पर्वो इत्यादि को बड़ी श्रद्धा से 
                                मानते है, वैसे ही 
                                पुरुषोतम मास को भी मानते है |
                                इस मास में लोग तीर्थ यात्रा का 
                                विशेष महात्म्य मानते है और बहुत दान-पुन्य भी 
                                करते है तथा आध्यात्मिक ज्ञान की चर्चा में भी 
                                काफी समय देते है | वे 
                                प्रात: अमृत्वेले ही गंगा-स्नान करने में बहुत 
                                पूण्य समझते है | 
                                
                                
                                
                                वास्तव में 
                                
                                ‘पुरुषोतम’
                                शब्द परमपिता परमात्मा ही का वाचक 
                                है | जैसे ‘आत्मा’
                                को ‘पुरुष’
                                भी कहा जाता है,
                                वैसे ही परमात्मा के लिए ‘परम-पुरुष’
                                अथवा ‘पुरुषोतम’
                                शब्द का प्रयोग होता है क्योंकि 
                                वह सभी पुरुषों (आत्माओ) से ज्ञान,
                                शान्ति, 
                                पवित्रता और शक्ति में उतम है |
                                ‘पुरुषोतम मास’
                                कलियुग के अन्त और सतयुग के आरम्भ 
                                के संगम का युग की याद दिलाता है क्योंकि इस युग 
                                में पुरुषोतम (परमपिता) परमात्मा का अवतरण होता है
                                | सतयुग के आरम्भ से लेकर 
                                कलियुग के अन्त तक तो मनुष्यात्माओं का 
                                जन्म-पुनर्जन्म होता ही रहता है परन्तु कलियुग के 
                                अन्त में सतयुग और सतधर्म की तथा उतम मर्यादा की 
                                पुन: स्थापना करने के लिए पुरुषोतम (परमात्मा) को 
                                आना पड़ता है | इस 
                                ‘संगमयुग’ 
                                में परमपिता परमात्मा मनुष्यात्माओं को ज्ञान और 
                                सहज राजयोग सिखाकर वापिस परमधाम अथवा ब्रह्मलोक 
                                में ले जाते है और अन्य मनुष्यात्माओं को सृष्टि 
                                के महाविनाश के द्वारा अशरीरी करके मुक्तिधाम ले 
                                जाते है | इस प्रकार सभी 
                                मनुश्यात्माए शिव पूरी अठाव विष्णुपुरी की 
                                अव्यक्ति एवं आध्यात्मिक यात्रा करती है और ज्ञान 
                                चर्चा अथवा ज्ञान-गंगा में स्नान करके पावन बनती 
                                है | परन्तु आज लोग इन 
                                रहस्यों को न जानने के कारण गंगा नदी में स्नान 
                                करते है और शिव तथा विष्णु की स्थूल यादगारों की 
                                यात्रा करते है | वास्तव 
                                में ‘पुरुषोतम मास’
                                में जिस दान का महत्व है,
                                वह दान पाँच विकारों का दान है
                                | परमपिता परमात्मा जब 
                                पुरुषोतम युग में अवतरित होते है तो मनुष्य 
                                आत्माओं को बुराइयों अथवा विकारों का दान देने की 
                                शिक्षा देते है | इस 
                                प्रकार, वे काम-क्रोधादि 
                                विकारों को त्याग कर मर्यादा वाले बन जाते है और 
                                उसके बाद सतयुग, देयुग का 
                                आरम्भ हो जाता है | आज यदि 
                                इन रहस्यों को जानकर मनुष्य विकारों का दान दे,
                                ज्ञान-गंगा में नित्य स्नान करे 
                                और योग द्वारा देह से न्यारा होकर सच्ची 
                                आध्यात्मिक यात्रा करें तो विश्व में पुन: सुख,
                                शान्ति सम्पन्न राम-राज्य 
                                (स्वर्ग) की स्थापना हो जायगी और नर तथा नारी नर्क 
                                से निकल स्वर्ग में पहुँच जाएगें |
                                चित्र में भी इसी रहस्य को 
                                प्रदर्शित किया गया है | 
                                
                                
                                
                                यहाँ संगम युग में श्वेत वस्त्रधारी प्रजापिता 
                                ब्रह्मा,
                                जगदम्बा सरस्वती तथा कुछेक मुख 
                                वंशी ब्राह्मणों और ब्राह्मणियों को परमपिता 
                                परमात्मा शिव से योग लगाते दिखाया गया है |
                                इस राजयोग द्वारा ही मन का मेल 
                                धुलता है, पिछले विकर्म 
                                दग्ध होते है और संस्कार स्तोप्र्धन बनते है
                                | अत: नीचे की और नर्क के 
                                व्यक्ति ज्ञान एवं योग-अग्नि प्रज्जवलित करके काम,
                                क्रोध, 
                                लोभ, मोह और अहंकार को इस 
                                सूक्ष्म अग्नि में स्वाह करते दिखाया गये है
                                | इसी के फलस्वरूप,
                                वे नर से श्री नारायण और नारी से 
                                श्री लक्ष्मी बनकर अर्थात ‘मनुष्य 
                                से देवता’ पद का अधिकार 
                                पाकर सुखधाम-वैकुण्ठ अथवा स्वर्ग में पवित्र एवं 
                                सम्पूर्ण सुख-शान्ति सम्पन्न स्वराज्य के अधिकारी 
                                बनें है | 
                                
                                
                                
                                मालुम रहे कि वर्तमान समय यह संगम युग ही चल रहा 
                                है 
                                
                                | अब यह कलियुगी सृष्टि नरक 
                                अर्थात दुःख धाम है अब निकट भविष्य में सतयुग आने 
                                वाला है जबकि यही सृष्टि सुखधाम होगी |
                                अत: अब हमे पवित्र एवं योगी बनना 
                                चाहिए | 
                                
                                
                                मनुष्य के 
                                
                                84 
                                
                                जन्मों की अद्-भुत कहानी
                                
                                
                                
                                
                                
                                
                                मनुष्यात्मा सारे कल्प में अधिक से अधिक कुल 84 
                                जन्म लेती है,
                                वह 84 लाख योनियों में पुनर्जन्म 
                                नहीं लेती | मनुष्यात्माओं 
                                के 84 जन्मों के चक्र को ही यहाँ 84 सीढ़ियों के 
                                रूप में चित्रित किया गया है |
                                चूँकि प्रजापिता ब्रह्मा और 
                                जगदम्बा सरस्वती मनुष्य-समाज के आदि-पिता और 
                                आदि-माता है, इसलिए उनके 
                                84 जन्मों का संक्षिप्त उल्लेख करने से अन्य 
                                मनुष्यात्माओं का भी उनके अन्तर्गत आ जायेगा
                                | हम यह तो बता आये है कि 
                                ब्रह्मा और सरस्वती संगम युग में परमपिता शिव के 
                                ज्ञान और योग द्वारा सतयुग के आरम्भ में श्री 
                                नारायण और श्री लक्ष्मी पद पाते है | 
                                
                                
                                सतयुग और त्रेतायुग में 21 जन्म पूज्य देव पद :
                                
                                
                                
                                अब चित्र में दिखलाया गया है कि सतयुग के 1250 
                                वर्षों में श्रीलक्ष्मी,
                                श्रीनारायण 100 प्रतिशत 
                                सुख-शान्ति-सम्पन्न 8 जन्म लेते है |
                                इसलिए भारत में 8 की संख्या शुभ 
                                मानी गई है और कई लोग केवल 8 मनको की माला सिमरते 
                                है तथा अष्ट देवताओं का पूजन भी करते है |
                                पूज्य स्तिथि वाले इन 8 नारायणी 
                                जन्मों को यहाँ 8 सीढ़ियों के रूप में चित्रित 
                                किया गया है | फिर 
                                त्रेतायुग के 1250 वर्षों में वे 14 कला सम्पूर्ण 
                                सीता और रामचन्द्र के वंश में पूज्य राजा-रानी 
                                अथवा उच्च प्रजा के रूप में कुल 12 या 13 जन्म 
                                लेते है | इस प्रकार सतयुग 
                                और त्रेता के कुल 2500 वर्षों में वे सम्पूर्ण 
                                पवित्रता, सुख,
                                शान्ति और स्वास्थ्य सम्पन्न 21 
                                दैवी जन्म लेते है | इसलिए 
                                ही प्रसिद्ध है कि ज्ञान द्वारा मनुष्य के 21 जन्म 
                                अथवा 21 पीढ़ियां सुधर जाती है अथवा मनुष्य 21 
                                पीढियों के लिए तर जाता है | 
                                
                                
                                द्वापर और कलियुग में कुल 63 जन्म जीवन-बद्ध :
                                
                                
                                
                                फिर सुख की प्रारब्ध समाप्त होने के बाद वे 
                                द्वापरयुग के आरम्भ में पुजारी स्तिथि को प्राप्त 
                                होते है 
                                
                                | सबसे पहले तो निराकार परमपिता 
                                परमात्मा शिव की हीरे की प्रतिमा बनाकर अनन्य 
                                भावना से उसकी पूजा करते है |
                                यहाँ चित्र में उन्हें एक पुजारी 
                                राजा के रूप में शिव-पूजा करते दिखाया गया है
                                | धीरे-धीरे वे सूक्ष्म 
                                देवताओं, अर्थात विष्णु 
                                तथा शंकर की पूजा शुरू करते है और बाद में 
                                अज्ञानता तथा आत्म-विस्मृति के कारण वे अपने ही 
                                पहले वाले श्रीनारायण तथा श्रीलक्ष्मी रूप की भी 
                                पूजा शुरू कर देते है | 
                                इसलिए कहावत प्रसिद्ध है कि “जो 
                                स्वयं कभी पूज्य थे, बाद 
                                में वे अपने-आप ही के पुजारी बन गए |”
                                श्री लक्ष्मी और श्री नारायण की 
                                आत्माओं ने द्वापर युग के 1250 वर्षों में ऐसी 
                                पुजारी स्थिति में भिन्न-भिन्न नाम-रूप से,
                                वैश्य-वंशी भक्त-शिरोमणि राजा,रानी 
                                अथवा सुखी प्रजा के रूप में कुल 21 जन्म लिए
                                | 
                                
                                
                                
                                इसके बाद कलियुग का आरम्भ हुआ 
                                
                                | अब तो सूक्ष्म लोक तथा साकार 
                                लोक के देवी-देवताओं की पूजा इत्यादि के अतिरिक्त 
                                तत्व पूजा भी शुरू हो गई | 
                                इस प्रकार, भक्ति भी 
                                व्यभिचारी हो गई | यह 
                                अवस्था सृष्टि की तमोप्रधान अथवा शुद्र अवस्था थी
                                | इस काल में काम,
                                क्रोध, 
                                मोह, लोभ और अहंकार उग्र 
                                रूप-धारण करते गए | कलियुग 
                                के अन्त में उन्होंने तथा उनके वंश के दूसरे लोगों 
                                ने कुल 42 जन्म लिए | 
                                
                                
                                
                                उपर्युक्त से स्पष्ट है कि कुल 5000 वर्षों में 
                                उनकी आत्मा पूज्य और पुजारी अवस्था में कुल 84 
                                जन्म लेती है 
                                
                                | अब वह पुरानी,
                                पतित दुनिया में 83 जन्म ले चुकी 
                                है | अब उनके अन्तिम,
                                अर्थात 84 वे जन्म की वानप्रस्थ 
                                अवस्था में, परमपिता 
                                परमात्मा शिव ने उनका नाम “प्रजापिता 
                                ब्रह्मा” तथा उनकी 
                                मुख-वंशी कन्या का नाम “जगदम्बा 
                                सरस्वती” रखा है |
                                इस प्रकार देवता-वंश की अन्य 
                                आत्माएं भी 5000 वर्ष में अधिकाधिक 84 जन्म लेती 
                                है | इसलिए भारत में 
                                जन्म-मरण के चक्र को “चौरासी 
                                का चक्कर” भी कहते है और 
                                कई देवियों के मंदिरों में 84 घंटे भी लगे होते है 
                                तथा उन्हें “84 घंटे वाली 
                                देवी” नाम से लोग याद करते 
                                है |
                                
                                मनुष्यात्मा
                                
                                
                                84 
                                
                                लाख योनियाँ धारण नहीं करती
                                
                                
                                
                                
                                
                                
                                परमप्रिय परमपिता परमात्मा शिव ने वर्तमान समय 
                                जैसे हमें ईश्वरीय ज्ञान के अन्य अनेक मधुर रहस्य 
                                समझाये है,
                                वैसे ही यह भी एक नई बात समझाई है 
                                कि वास्तव में मनुष्यात्माएं पाशविक योनियों में 
                                जन्म नहीं लेती | यह हमारे 
                                लिए बहुत ही खुशी की बात है |
                                परन्तु फिर भी कई लोग ऐसे लोग है 
                                जो यह कहते कि मनुष्य आत्माएं पशु-पक्षी इत्यादि 
                                84  लाख योनियों में 
                                जन्म-पुनर्जन्म लेती है | 
                                
                                
                                
                                वे कहते है कि- 
                                
                                “जैसे किसी देश की सरकार अपराधी 
                                को दण्ड देने के लिए उसकी स्वतंत्रता को छीन लेती 
                                है और उसे एक कोठरी में बन्द कर देती है और उसे 
                                सुख-सुविधा से कुछ काल के लिए वंचित कर देती है,
                                वैसे ही यदि मनुष्य कोई बुरे कर्म 
                                करता है तो उसे उसके दण्ड के रूप में पशु-पक्षी 
                                इत्यादि भोग-योनियों में दुःख तथा परतंत्रता भोगनी 
                                पड़ती है”| 
                                
                                
                                
                                परन्तु अब परमप्रिय परमपिता परमात्मा शिव ने समझया 
                                है कि मनुष्यात्माये अपने बुरे कर्मो का दण्ड 
                                मनुष्य-योनि में ही भोगती है 
                                
                                | परमात्मा कहते है कि मनुष्य 
                                बुरे गुण-कर्म-स्वभाव के कारण पशु से भी अधिक बुरा 
                                तो बन ही जाता है और पशु-पक्षी से अधिक दुखी भी 
                                होता है, परन्तु वह 
                                पशु-पक्षी इत्यादि योनियों में जन्म नहीं लेता
                                | यह तो हम देखते या सुनते 
                                भी है कि मनुष्य गूंगे, 
                                अंधे, बहरे,
                                लंगड़े, 
                                कोढ़ी चिर-रोगी तथा कंगाल होते है,
                                यह भी हम देखते है कि कई पशु भी 
                                मनुष्यों से अधिक स्वतंत्र तथा सुखी होते है,
                                उन्हें डबलरोटी और मक्खन खिलाया 
                                जाता है, सोफे (Sofa)
                                पर सुलाया जाता है,
                                मोटर-कार में यात्रा करी जाती है 
                                और बहुत ही प्यार तथा प्रेम से पाला जाता है 
                                परन्तु ऐसे कितने ही मनुष्य संसार में है जो भूखे 
                                और अद्-र्धनग्न जीवन व्यतीत करते है और जब वे पैसा 
                                या दो पैसे मांगने के लिए मनुष्यों के आगे हाथ 
                                फैलाते है तो अन्य मनुष्य उन्हें अपमानित करते है
                                | कितने ही मनुष्य है जो 
                                सर्दी में ठिठुर कर, अथवा 
                                रोगियों की हालत में सड़क की पटरियों पर कुते से 
                                भी बुरी मौत मर जाते है और कितने ही मनुष्य तो 
                                अत्यंत वेदना और दुःख के वश अपने ही हाथो अपने 
                                आपको मार डालते है | अत: 
                                जब हम स्पष्ट देखते है कि मनुष्य-योनि भी 
                                भोगी-योनि है और कि मनुष्य-योनि में मनुष्य पशुओं 
                                से अधिक दुखी हो सकता है तो यह क्यों माना जाए कि 
                                मनुष्यात्मा को पशु-पक्षी इत्यादि योनियों में 
                                जन्म लेना पड़ता है ? 
                                
                                
                                जैसा बीज वैसा वृक्ष :
                                
                                
                                
                                इसके अतिरिक्त,
                                य्ह्र एक मनुष्यात्मा में अपने 
                                जन्म-जन्मान्तर का पार्ट अनादि काल से अव्यक्त रूप 
                                में भरा हुआ है और, इसलये 
                                मनुष्यात्माएं अनादि काल से परस्पर भिन्न-भिन्न 
                                गुण-कर्म-स्वभाव प्रभाव और प्रारब्ध वाली है
                                | मनुष्यात्माओं के गुण,
                                कर्म, 
                                स्वभाव तथा पार्ट (Part) 
                                अन्य योनियों की आत्माओं के गुण,
                                कर्म, 
                                स्वभाव से अनादिकाल से भिन्न है |
                                अत: जैसे आम की गुठली से मिर्च 
                                पैदा नहीं हो सकती बल्कि “जैसा 
                                बीज वैसा ही वृक्ष होता है”,
                                ठीक वैसे ही मनुष्यात्माओं की तो 
                                श्रेणी ही अलग है | 
                                मनुष्यात्माएं पशु-पक्षी आदि 84 लाख योनियों में 
                                जन्म नहीं लेती | बल्कि,
                                मनुष्यात्माएं सारे कल्प में 
                                मनुष्य-योनि में ही अधिक-से अधिक 84 जन्म,
                                पुनर्जन्म लेकर अपने-अपने कर्मो 
                                के अनुरूप सुख-दुःख भोगती है | 
                                
                                
                                
                                यदि मनुष्यात्मा पशु योनि में पुनर्जन्म लेती तो 
                                मनुष्य गणना बढ़ती ना जाती :
                                
                                
                                
                                आप स्वयं ही सोचिये कि यदि बुरी कर्मो के कारण 
                                मनुष्यात्मा का पुनर्जन्म पशु-योनि में होता,
                                तब तो हर वर्ष मनुष्य-गणना बढ़ती 
                                ना जाती, बल्कि घटती जाती 
                                क्योंकि आज सभी के कर्म, 
                                विकारों के कारण विकर्म बन रहे है |
                                परन्तु आप देखते है कि फिर भी 
                                मनुष्य-गणना बढ़ती ही जाती है,
                                क्योंकि मनुष्य पशु-पक्षी या 
                                कीट-पतंग आदि योनियों में पुनर्जन्म नहीं ले रहे 
                                है |
                                
                                
                                सृष्टि नाटक का रचयिता और निर्देशक कौन है 
                                
                                ?
                                
                                
                                
                                
                                
								सृष्टि रूपी नाटक के चार पट
								
                                
								सामने दिए गए चित्र में दिखाया गया है कि स्वस्तिक 
                                सृष्टि-
                                चक्र को चार बराबर भागो
                                में बांटता है 
                                -- 
                                सतयुग,
								त्रेतायुग, 
                                द्वापर और कलियुग 
                                I  
                                
                                
								सृष्टि नाटक में हर एक आत्मा का एक निश्चित समय पर 
                                परमधाम से इस सृष्टि रूपी नाटक के मंच पर आती है
                                I 
                                सबसे पहले सतयुग और त्रेतायुग के सुन्दर दृश्य 
                                सामने आते है 
                                I 
                                और इन दो युगों की सम्पूर्ण सुखपूर्ण सृष्टि में 
                                पृथ्वी-मंच 
                                पर एक 
                                "अदि 
                                सनातन देवी देवता
                                धर्म वंश"
                                की ही मनुष्यात्माओ का
                                पार्ट होता है
                                I 
                                और अन्य सभी धर्म-वंशो 
                                की आत्माए परमधाम में होती है
                                I 
                                अत:
                                इन दो युगों में केवल
                                इन्ही दो वंशो की ही मनुष्यात्माये अपनी-अपनी 
                                पवित्रता की स्तागे के अनुसार नम्बरवार
                                आती है इसलिए,
                                इन दो युगों में सभी अद्वेत पुर निर्वैर स्वभाव 
                                वाले होते है 
                                I  
                                
                                
								द्वापरयुग में इसी धर्म की रजोगुणी अवस्था हो जाने 
                                से इब्राहीम द्वारा 
								Judaism धर्म-वंश 
                                की,
                                बुद्ध द्वारा बौद्ध-धर्म 
                                वंश की और ईसा द्वारा ईसाई धर्म की
                                स्थापना होती है
                                I 
                                अत:
                                इन चार मुख्य धर्म वंशो के पिता ही संसार के मुख्य 
                                एक्टर्स 
                                है और इन चार धर्म के शास्त्र ही मुख्य शास्त्र है 
                                इसके अतिरिक्त,
                                सन्यास धर्म के स्थापक नानक भी इस विश्व नाटक के 
                                मुख्य एक्टरो में से है 
                                I 
                                परन्तु फिर भी मुख्य रूप में पहले बताये गए चार 
                                धर्मो पर ही सारा विश्व नाटक आधारित है इस अनेक मत-मतान्तरो 
                                के कारण
                                द्वापर युग तथा कलियुग की सृष्टि में द्वेत,
                                लड़ाई झगडा तथा दुःख होता है 
                                I 
                                
                                
								कलियुग के अंत में,
                                जब धर्म की आती ग्लानी हो जाती है,
                                अर्थात विश्व का सबसे पहला 
                                " 
                                अदि सनातन देवी देवता
                                धर्म"
                                बहुत क्षीण हो जाता है और मनुष्य अत्यंत पतित हो 
                                जाते है,
                                तब इस सृष्टि के रचयिता तथा निर्देशक परमपिता 
                                परमात्मा शिव प्रजापिता ब्रह्मा के तन में स्वयं 
                                अवतरित होते है 
                                I 
                                वे प्रजापिता ब्रह्मा द्वारा मुख-वंशी 
                                कन्या 
                                --" 
                                ब्रह्माकुमारी सरस्वती 
                                " 
                                तथा अन्य ब्राह्मणों तथा ब्रह्मानियो को रचते है 
                                और उन
                                द्वारा पुन:
                                सभी को अलौकिक माता-पिता
                                के रूप में मिलते है तथा ज्ञान द्वारा उनकी मार्ग-प्रदर्शना 
                                करते है और
                                उन्हें मुक्ति तथा जीवनमुक्ति का ईश्वरीय जन्म-सिद्ध 
                                अधिकार देते है 
                                I 
                                अत:
                                प्रजपिता बह्मा तथा
                                जगदम्बा सरस्वती,
                                जिन्हें ही 
                                "एडम" 
                                अथवा 
                                "इव"
                                अथवा 
                                "आदम 
                                और हव्वा"
                                भी कहा जाता है इस सृष्टि नाटक के नायक और नायिका 
                                है
                                I 
                                क्योंकि इन्ही द्वारा स्वयं परमपिता परमात्मा शिव 
                                पृथ्वी पर स्वर्ग स्थापन करते है कलियुग के अंत और 
                                सतयुग के आरंभ का यह छोटा सा संगम,
                                अर्थात संगमयुग,
                                जब परमात्मा अवतरित होते है,
                                बहुत ही महत्वपूर्ण है 
                                I  
                                
                                
								विश्व के इतिहास और भूगोल की पुनरावृत्ति
                                
                                
								चित्र में यह भी दिखाया गया है कि कलियुग के अंत 
                                में परमपिता परमात्मा शिव जब महादेव शंकर के 
                                द्वारा सृष्टि का महाविनाश करते है तब लगभग सभी 
                                आत्मा रूपी एक्टर अपने प्यारे देश,
                                अर्थात मुक्तिधाम को वापस लौट जाते है और फिर 
                                सतयुग के आरंभ से 
                                "अदि 
                                सनातन देवी देवता
                                धर्म"
                                कि मुख्य मनुष्यात्माये इस सृष्टि-मंच
                                पर आना शुरू कर देती है
                                I 
                                फिर २५०० वर्ष के बाद,
                                द्वापरयुग के प्रारंभ से इब्राहीम के इस्लाम घराने 
                                की आत्माए,
                                फिर बौद्ध धर्म वंश की आत्माए,
                                फिर ईसाई धर्म वंश की आत्माए अपने-अपने 
                                समय पर सृष्टि-मंच 
                                पर फिर आकर अपना-अपन 
                                अनादि-निश्चित 
                                पार्ट बजाते है
                                I 
                                और अपनी स्वर्णिम,
                                रजत,
                                ताम्र और लोह,
                                चारो अवस्थाओ को पर करती है इस प्रकार,
                                यह अनादि निश्चित सृष्टि-नाटक 
                                अनादि काल से हर ५००० वर्ष के बाद हुबहू 
                                पुनरावृत्त
                                होता ही रहता है
                                I
					
                  
					
					Now go to Day 5