अव्यक्त इशारे
September 2024
ईच्छा मात्रम् अविद्या
की स्थिति का अनुभव करो और कराओ
1. "इच्छा मात्रम्
अविद्या" - यह स्थिति देवताओं की नहीं आप ब्राह्मणों की है क्योंकि देवताई जीवन में
तो इच्छा वा न इच्छा का सवाल ही नहीं है। यहाँ इसकी नॉलेज है इसलिए "इच्छा मात्रम्
अविद्या की स्थिति में रहना' इसी को ही ब्राह्मण-जीवन कहा जाता है। इस ब्राह्मण
जीवन में सर्व प्राप्ति सम्पन्न हो। सर्व की इच्छाओं को पूर्ण करने वाले कामधेनु
हो।
2. जो भरपूर होता है वह सदा ही इच्छा मात्रम् अविद्या की स्थिति में रहता है और मन
से मुस्कराता है, वो सर्व प्राप्ति सम्पन्न होता है इसलिए उसके मन का लगाव वा झुकाव
किसी व्यक्ति या वस्तु की तरफ नहीं होता, इसको ही " मनमनाभव" कहते हैं। उन्हें मन
को बाप की तरफ लगाने में मेहनत नहीं होती लेकिन सहज ही मन बाप की मुहब्बत के संसार
में रहता है।
3. आप "दाता" के बच्चे
मास्टर दाता हो। दाता अर्थात् सम्पन्न। ऐसी सम्पन्न आत्मा सदा इच्छा मात्रम् अविद्या
की स्थिति में रहती है, उन्हें न सूक्ष्म लेने की इच्छा, न
स्थूल लेने की इच्छा। कोई अप्राप्ति अनुभव नहीं होती जिसे लेने की इच्छा हो। वे
सर्व प्राप्ति सम्पन्न होते हैं। प्राप्ति सम्पन्न ही औरों को प्राप्ति करा सकते
हैं।
4. जो सर्व प्राप्तियों
से तृप्त रहते हैं, उनकी स्थिति इच्छा मात्रम् अविद्या की स्वतः बन जाती है। उनमें
कामना के बजाए सामन करने की शक्ति होती है। वे किसी की भी इच्छाओं की पूर्ति कर सकते
हैं। अगर स्वयं में ही कोई इच्छा रही होगी तो वह दूसरे की इच्छाओं को पूर्ण नहीं कर
सकेंगे।
5. 'इच्छा मात्रम्
अविद्या' की स्टेज वा स्थिति तब रहती है जब स्वयं युक्ति-युक्त, सम्पन्न, नॉलेजफुल
और सदा सक्सेसफुल अर्थात् सफलतामूर्त होते हैं। जो स्वयं सफलतामूर्त नहीं होगा तो
वह अनेक आत्माओं के संकल्प को भी सफल नहीं कर सकता। जो सम्पन्न नहीं उसकी इच्छायें
जरूर होंगी क्योंकि सम्पन्न होने के बाद ही 'इच्छा मात्रम् अविद्या' की स्टेज आती
है।
6. 'इच्छा मात्रम्
अविद्या' अर्थात् सम्पूर्ण शक्तिशाली बीजरूप स्थिति। जब मास्टर बीजरूप बनते हो तब
पत्तों को प्राप्ति करा सकते हो। अनेक भक्त आत्मा रूपी पत्ते जो सूख गये हैं, मुरझा
गये हैं, उनको फिर से अपने बीजरूप स्थिति द्वारा शक्तियों का दान वा सर्व प्राप्तियां
कराने के लिए आपकी 'इच्छा मात्रम् अविद्या' स्थिति चाहिए।
7. कोई भी इच्छा,
अच्छा कर्म समाप्त कर देती है इसलिए इच्छा मात्रम् अविद्या बनो। ऐसा ज्ञानी नहीं
बनना कि यह मैंने किया तो मुझे मिलना ही चाहिए, मेरा कुछ इन्साफ (न्याय)
होना चाहिए। कभी भी इन्साफ माँगने वाले नहीं बनना। किसी भी प्रकार के माँगने वाला
स्वयं को तृप्त आत्मा अनुभव नहीं करेगा।
8. जो इच्छा मात्रम्
अविद्या स्थिति में रहता है वही अखण्ड दानी बन सकता है। जैसे बाप ने स्वयं का समय
भी सेवा में दिया। स्वयं निर्मान बन बच्चों को मान दिया। अपना त्याग कर दूसरे का
नाम किया। बच्चों को मालिक रखा और स्वयं को सेवाधारी रखा। तो मालिकपन का मान भी दे
दिया - शान भी दे दिया, नाम भी दे दिया। ऐसे फालो फादर करो तब इच्छा मात्रम् अविद्या
की स्थिति बनेगी।
9. इच्छा माना परेशानी।
इच्छा कभी अच्छा बना नहीं सकती क्योंकि विनाशी इच्छा पूर्ण होने के साथ-साथ वह और
अनेक इच्छाओं को जन्म देती है इसलिए इच्छाओं के चक्र में मकड़ी की जाल मुआफिक फँस
जाते हैं, छूटने चाहते भी छूट नहीं सकते, तो इस जाल में फँसे हुए अपने भाईयों को
विनाशी इच्छा मात्रम् अविद्या बनाओ।
10. हम सभी ईश्वरीय
बच्चे, दाता के बच्चे हैं, सर्व प्राप्तियां जन्म सिद्ध अधिकार हैं, इस शान में रहो।
मास्टर विधाता, मास्टर वरदाता, मास्टर सागर बन ऐसी शक्तिशाली स्थिति का अनुभव करो।
सदा अल्पकाल की इच्छा मात्रम् अविद्या की शक्तिशाली स्थिति में रहने के अभ्यासी बनो।
11. आपके छोटे-छोटे
भाई बहिनें यही कामना लेकर आप बड़ों की तरफ देख रहे हैं, पुकार रहे हैं कि हमारी
मनोकामनायें पूर्ण करो। हमारी सुख शान्ति की इच्छायें पूर्ण करो। तो आप क्या करेंगे?
अपनी इच्छायें पूर्ण करेंगे वा उन्हों की पूर्ण करेंगे? जब आपके दिल से यही श्रेष्ठ
नारा निकले कि "इच्छा मात्रम् अविद्या" तब सबकी इच्छायें पूरी हों।
12. आप बच्चे विश्व
के लिए आधारमूर्त हो, विश्व के आगे जहान के नूर हो, जहान के कुल दीपक हो यह जो आपकी
श्रेष्ठ महिमा है, ऐसी श्रेष्ठ महिमा के अधिकारी आत्मायें अब विश्व के आगे अपने
सम्पन्न रूप में प्रत्यक्ष हो दिखाओ। अगर अभी तक अपने हद की आशायें पूर्ण करने की
इच्छा है, थोड़ा-सा नाम चाहिए, मान चाहिए, रिगार्ड चाहिए, स्नेह चाहिए, शक्ति चाहिए।
ऐसी स्व के प्रति इच्छायें हैं तो इच्छा मात्रम् अविद्या की स्थिति द्वारा विश्व की
इच्छायें कब पूरी करेंगे !
13. बेहद के विधाता
के लिए यह हद की आशायें वा इच्छायें स्वयं ही परछाई के समान पीछे- पीछे चलती हैं।
यह 5 तत्व भी आप विधाता के आगे दासी बन जाते हैं, आपके आगे यह हद की इच्छायें ऐसी
हैं जैसे सूर्य के आगे दीपक। लेकिन चाहिए की तृप्ति का आधार है - जो चाहिए वह ज्यादा
से ज्यादा देते जाओ। मान दो, रिगार्ड दो, रिगार्ड लो नहीं। नाम चाहिए तो बाप के नाम
का दान दो तो आपका नाम स्वतः हो जायेगा। मांगने से मिले यह रास्ता ही रांग है तो
मंजिल कहाँ से मिलेगी इसलिए मास्टर विधाता बनो तो सब इच्छायें पूरी हो जायेंगी।
14. वर्तमान विश्व
में चारों ओर इच्छायें बढ़ रही हैं, इच्छाओं के वश आत्मायें परेशान हैं इसलिए आप
बच्चे अपने बेहद की वैराग्य वृत्ति द्वारा उन आत्माओं में भी वैराग्य वृत्ति फैलाओ।
आपके वैराग्य वृत्ति के वायुमण्डल के बिना आत्मायें सुखी, शान्त बन नहीं सकती,
परेशानी से छूट नहीं सकती। जब आप बच्चों की स्थिति इच्छा मात्रम् अविद्या की होगी
तब जयजयकार और हाहाकार होगी।
15. जैसे बापदादा कोई
भी कर्म के फल की इच्छा नहीं रखते हैं। हर वचन और कर्म में सदैव पिता की स्मृति होने
कारण फल की इच्छा का संकल्प मात्र भी नहीं रहता, ऐसे फालो फादर करो। कच्चे फल की
इच्छा नहीं रखो। फल की इच्छा सूक्ष्म में भी रहती है तो जैसे किया और फल खाया, फिर
फलस्वरुप कैसे दिखाई दें, इसलिए फल की इच्छा को छोड़ इच्छा मात्रम् अविद्या बनो।
16. जैसे अपार दुःखों
की लिस्ट है, वैसे फल की इच्छाएं वा जो उसका रेसपान्स लेने का सूक्ष्म संकल्प रहता
है वह भी भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है। निष्काम वृत्ति नहीं रहती। पुरुषार्थ के
प्रारब्ध की नॉलेज होते हुए भी उसमें अटैचमेंट रहती है। कोई महिमा करते हैं और उसकी
तरफ आपका विशेष ध्यान जाता है तो यह भी सूक्ष्म फल को स्वीकार करना है।
17. एक श्रेष्ठ कर्म
करने का सौ गुणा सम्पन्न फल आपके सामने आयेगा लेकिन आप अल्पकाल के इच्छा मात्रम्
अविद्या बनो। इच्छा - अच्छा कर्म समाप्त कर देती है, इच्छा स्वच्छता को खत्म कर देती
है और स्वच्छता के बजाय सोचता बना देती है, इसलिए इस विद्या की अविद्या हो।
18. आपने कोई सेवा
अभी-अभी की और अभी-अभी उसका फल ले लिया तो जमा कुछ नहीं हुआ, कमाया और खाया। उसमें
फिर विलपावर नहीं रहती। वह अन्दर से कमजोर रहते हैं, शक्तिशाली नहीं खाली-खाली रह
जाते हैं। जब यह बात खत्म हो जायेगी तब निराकारी, निरहंकारी और निर्विकारी स्थिति
स्वतः बन जायेगी।
19. आप बच्चे जितना
हर कामना से न्यारे रहेंगे उतना आपकी हर कामना सहज पूरी होती जायेगी। फैसल्टीज़
मांगो नहीं, दाता बनकर दो। कोई भी सेवा प्रति वा स्वयं प्रति सैलवेशन के आधार पर
स्वयं की उन्नति वा सेवा की अल्पकाल की सफ़लता प्राप्त हो जायेगी लेकिन आज महान
होंगे कल महानता की प्यासी आत्मा बन जायेंगे, सदा प्राप्ति की इच्छा में रहेंगे
इसलिए इच्छा मात्रम् अविद्या बनो।
20. कभी भी इन्साफ
माँगने वाले नहीं बनो। किसी भी प्रकार के माँगने वाला स्वयं को तृप्त आत्मा अनुभव
नहीं करेगा। महादानी भिखारी से एक नया पैसा लेने की इच्छा नहीं रख सकते। यह बदले वा
यह करे वा यह कुछ सहयोग दे, कदम आगे बढ़ावे, ऐसे संकल्प वा ऐसे सहयोग की भावना परवश,
शक्तिहीन, भिखारी आत्मा से क्या रख सकते!
21. अगर कोई आपके
सहयोगी भाई वा बहन परिवार की आत्मायें, बेसमझी वा बालहठ से अल्पकाल की वस्तु को
सदाकाल की प्राप्ति समझ, अल्पकाल का मान-शान-नाम वा अल्पकाल की प्राप्ति की इच्छा
रखती हैं तो दूसरे को मान देकर के स्वयं निर्मान बनना, यह देना ही सदा के लिए लेना
है। किसी से कोई सैलवेशन लेकर के फिर सैलवेशन देने का संकल्प में भी न हो। इस
अल्पकाल की इच्छा से बेगर बनो।
22. जब तक किसी में
अंश मात्र भी कोई रस दिखाई देता है, असार संसार का अनुभव नहीं होता है बुद्धि में
यह नहीं आता कि यह सब मरे पड़े हैं तब तक उनसे कोई प्राप्ति की इच्छा हो सकती है,
लेकिन सदा एक के रस में रहने वाले, एकरस स्थिति वाले बन जाते हैं। उन्हें मुर्दो से
किसी प्रकार की प्राप्ति की कामना नहीं रह सकती। कोई विनाशी रस अपनी तरफ आकर्षित नहीं
कर सकता।
23. अनेक प्रकार की
कामनायें सामना करने में विघ्न डालती हैं। जब यह कामना रखते हो कि मेरा नाम हो, मैं
ऐसा हूँ, मेरे से राय क्यों नहीं ली, मेरा मूल्य क्यों नहीं रखा.. तब सेवा
में विघ्न पड़ते हैं। इसलिए मान की इच्छा को छोड़ स्वमान में टिक जाओ तो मान परछाई
के समान आपके पिछाड़ी आयेगा।
24. कई बच्चे बहुत
अच्छे पुरुषार्थी हैं लेकिन पुरुषार्थ करते करते कहाँ-कहाँ पुरुषार्थ
अच्छा करने के बाद प्रालब्ध यहाँ ही भोगने की इच्छा रखते हैं। यह भोगने की
इच्छा जमा होने में कमी कर देती है इसलिए प्रालब्ध की इच्छा
को खत्म कर सिर्फ अच्छा पुरुषार्थ करो। इच्छा के बजाए अच्छा
शब्द याद रखो।
25. भक्तों को सर्व
प्राप्ति कराने का आधार 'इच्छा मात्रम् अविद्या' की स्थिति है। जब स्वयं
'इच्छा मात्रम् अविद्या' हो जाते हो, तब ही अन्य आत्माओं की सर्व इच्छाएं
पूर्ण कर सकते हो। कोई भी इच्छाएं अपने प्रति नहीं रखो
लेकिन अन्य आत्माओं की इच्छाएं पूर्ण करने का सोचो तो स्वयं
स्वतः ही सम्पन्न बन जायेंगे।
26. अब विश्व की
आत्माओं की अनेक प्रकार की इच्छायें अर्थात् कामनायें पूर्ण करने का
दृढ़ संकल्प धारण करो। औरों की इच्छायें पूर्ण करना अर्थात् स्वयं को इच्छा
मात्रम् अविद्या बनाना। जैसे देना अर्थात् लेना है, ऐसे ही
दूसरों की इच्छायें पूर्ण करना अर्थात् स्वयं को सम्पन्न
बनाना है। सदा यही लक्ष्य रखो कि हमें सर्व की कामनायें पूर्ण करने
वाली मूर्ति बनना है।
27. ऐसे सर्वन्श
त्यागी बन सदा हर श्रेष्ठ कार्य में, सेवा की सफलता के कार्य में, ब्राह्मण
आत्माओं की उन्नति के कार्य में, कमजोरी वा व्यर्थ वातावरण को बदलने के
कार्य में ज़िम्मेवार आत्मा समझकर चलो। हद के कर्म का, हद
के फल पाने की अल्पकाल की इच्छा से इच्छा मात्रम् अविद्या
बनो। तो सदा प्रत्यक्ष फल खाने वाले सदा मनदुरुस्त होंगे।
सदा स्वस्थ होंगे। सदा मनमनाभव होंगे।
28. राजा का अर्थ ही
है दाता। अगर हद की इच्छा वा प्राप्ति की उत्पत्ति है तो वो राजा के
बजाय मंगता (मांगने वाला) बन जाते हैं। आप दाता के
बच्चे हो, सर्व खज़ानों से सम्पन्न श्रेष्ठ आत्मायें हो।
सम्पन्न की निशानी है – अखण्ड महादानी। तो एक सेकण्ड भी दान
देने के बिना रह नहीं सकते।
29. आधाकल्प से जो
भक्ति की है, उसका फल ज्ञान सागर बाप और अविनाशी ज्ञान की
प्राप्ति होती है, जिस ज्ञान से ज्ञानी तू आत्मा बन जाते हो। ज्ञान सागर और ज्ञान
में समाये हुए हो इसलिए इच्छा मात्रम् अविद्या हो। कोई भी
अप्राप्ति वा इच्छा आपके पास रह नहीं सकती।
30. जैसे गायन है -
इच्छा मात्रम् अविद्या - तो यह फरिश्ता जीवन की विशेषता है। जब
ब्राह्मण जीवन फरिश्ता जीवन बन जाती है तो कर्मातीत स्थिति को प्राप्त हो
जाते हैं। वे किसी भी शुद्ध कर्म, व्यर्थ कर्म, विकर्म वा
पिछले कर्मों के बन्धन में नहीं बंधते।