देहसंग का भस्मासुर
बी.के. डॉ. सचिन भाईजी 12 फरवरी
2020
ओम् शान्ति।
उपनिषदों में एक बहुत प्रसिध्ध राजा की कहानी है। पाण्डवों और कौरवों के जो पूर्वज
थे - राजा ययाति। 100 साल की उम्र हो गई। मृत्यु लेने आयी। फरियादी ने कहा अभी तक
तो मैंने जीवन जिया ही नहीं। अभी तो इच्छायें बहुत बाकी है। अभी तो मन जवान है। जो
कुछ जीवन में करना था अभी तक तो कुछ नहीं किया। अभी तो बहुत सारे भोग-विलास बाकी
है। मुझे थोड़ा समय और दो। मृत्यु ने कहा समय तो मैं नहीं दे सकती। हां, अगर तुम नहीं
आना चाहते हो तो तुम्हारे स्थान पर किसी और को ले जाऊंगी। ययाति के 100 पुत्र थे।
वासना और भोग में इतना डूबा था कि अपने पुत्रों से अनुनय विनय की, गिड़गिड़ाया कि
मेरे स्थान पर तुम जा सकोगे ? कोई बेटा 60 साल का है, कोई 70, कोई 50। सबने बहाने
बनाए। किसी ने कहा हम तो अभी जवान है। अभी तो जीवन देखना बाकी है। जीवन के मीठे
कड़वे अनुभव कुछ नहीं किये है। सारी जवानी बाकी है। सबसे छोटा बेटा 20 साल का था।
वह कहता है मैं जाऊंगा। मृत्यु, तुम मुझे ले जाओ। मेरे पिताजी को मेरी जवानी दे दो।
पिता खुश हो जाते हैं। कहा कि ये मेरा सच्चा वारिस, जो मेरे लिये मरने को तैयार है।
मृत्यु को भी दया आती है। उस बेटे से कहती है - तुमने अभी जीवन में देखा ही क्या
है। इतनी जल्दी तुम जाना चाहते हो। वो बेटा कहता है कि मेरे पिताजी की 100 साल जी
कर भी अभी भी अपूर्ण इच्छायें है। तो मैं और आगे जी कर क्या करूं? जीवन के इस खेल
को मैंने अभी समझ लिया है। परंतु उस बेटे की उस बात को सुनकर भी ययाति को होश नहीं
आता। ऐसा बेहोश है। और कहा जाता है कि बेटा मर जाता है। बेटे की उम्र पिता को लगती
है। 100 साल फिर पूरे होते हैं। फिर मृत्यु आती है। परंतु अभी भोग पूरे हुए कहाँ।
फिर गिड़गिड़ाता है। तब तक और दूसरे नए 100 पुत्र हो चुके है। फिर कोई और जाता है
उसकी जगह। ऐसा 10 बार होता है। हजार वर्ष हो गया। ऐसा दिखाया हुआ है। फिर मृत्यु आती
है वह कहता है कि अब मैं जाने को तैयार हूं, इसलिए नहीं कि मेरी इच्छायें पूर्ण हो
गई है। इच्छायें तो पूर्ण अभी हुई ही नहीं है। परंतु मैं एक बात समझ चुका हूँ की
इच्छायें दुष्पूर है, कभी पूर्ण नहीं होती। वह उस मटके की तरह है जिसमें 100 छेद
है। इच्छायें उस भिक्षा पात्र की तरह है जिसकी कोई तलेटी नहीं है। वह कभी भी भरता
नहीं। कितना भी कोशिश करो इच्छायें कभी पूरी नहीं होती। कितना भी भोग में डूबे रहो।
वो मटका छिद्र से भरा है। व्यक्ति सोचता है - यह पूर्ण कर लो, फिर खुश हो जाऊंगा।
पर कभी हो नहीं पाता और इस प्रक्रिया में जीवन भस्म हो जाता है।
सुबह की साकार मुरली, हर एक यहां पर कौन है? भस्मासुर। क्या करते हैं? स्वयं को ही
भस्म कर देते हैं। वह सारी दुनिया भस्म हुई है काम चिता पर बैठकर। बाप आये हैं
तुम्हें ज्ञान चिता पर बिठाने क्योंकि तुम देवता बनने वाले हो। काम चिता पर बैठकर
काले बन गये हो। भोग भोगकर इच्छायें तो पूर्ण हुई ही नहीं, कामना अभी भी बाकी ही
है। देह का संग असत्य है। आज सुबह के महावाक्य - देह का संग असत है। एक ही सत्संग
है और वह भी केवल तुम ही जानते हो। भक्ति मार्ग में भी किसी को सत्संग का पता नहीं।
वह कहते हैं सत्संग में जा रहे है, परंतु वह सत्संग है नहीं। सत्संग में केवल तुम
हो और संग की परिभाषा है – संग अर्थात याद। सुबह की साकार मुरली नशा चढाने वाली
मुरली है। प्रश्न पूछो अपने आप से - क्या मैं अपनी आत्मा के संग में हूँ? आत्मा के
सात सत्य स्वरूप में स्थित हूं? ज्ञान स्वरूप हूँ? पवित्र स्वरूप हूँ? मैं
सुख-शान्ति स्वरूप हूँ? प्रेम-आनंद स्वरूप, शक्ति स्वरूप हूँ? ऑलमाइटी अथॉरिटी तुम
हो।
साकार मुरली आज की, देह का संग सबसे झूठा संग है। देह का चिंतन करना, देह के संग का
चिंतन है। देह और देह की दुनिया - इसी में डूबे रहना अर्थात भस्मासुर बनना। शास्त्रों
में दिखाया है, भस्मासुर शिव से वरदान लेता है कि जिसके सिर पर हाथ रखूँगा वह भस्म
हो जाए, बस ऐसा मुझे वरदान दो। और फिर शिव के ही पीछे भागता है। शंकर जी को मुसीबत
हो जाती है वरदान देकर। विष्णु जी के पास भागते है। विष्णु जी दिखाया है - मोहिनी
अवतार लेते हैं, उसको मोहित करते हैं, नृत्य करती है मोहिनी और नृत्य करते-करते अपने
ही सिर पर हाथ रख देती है और जैसे मोहिनी करती है वैसे वह भस्मासुर भी करता है और
करते-करते अपने ही सिर पर हाथ रख देता है और भस्म हो जाता है।
तुम हर एक भस्मासुर हो और स्वयं को भस्म करते हो। कैसे ? काम चिता पर बैठकर। तो जो
इंद्रिय सुख है, यह जो देह का का संग है, यह देह का संग ही भस्मासुर है। और कैसे
इसको समाप्त करें? आज हम चर्चा करेंगे – देह के संग के भस्मासुर की। सबसे पहले तो
यह समझना है यह जो भस्मासुर है यह करता क्या है? इसमें दोष क्या है? भस्मासुर
अर्थात इंद्रिय सुख। कोई भी इंद्रिय सुख, कोई भी शरीर का सुख, उसमें दोष है। और जब
तक उन दोषों का चिंतन ना हो वैराग्य नहीं आता है। व्यक्ति उन देह के सुखों में ही
डूबा हुआ रहता है और देह सुख अर्थात आंखों से प्राप्त होने वाला सुख, कानों से
प्राप्त होने वाला सुख, जबान से प्राप्त होने वाला सुख, शरीर की इंद्रियों से
प्राप्त होने वाला सुख। ज्ञान सरोवर में कहीं तो लिखा हुआ है बोर्ड पर - इंद्रियों
का आकर्षण ही सर्व दुखों का कारण है। क्या है इस इंद्रिय सुख में? कैसी यह मादकता
है, कैसा नशा है? एक बार उसमें व्यक्ति डूबता है तो निकलता ही नहीं है। ब्राहमण
जीवन को नष्ट कर देता है। अच्छे-अच्छे तीव्र पुरुषार्थी, जो तीव्र पुरुषार्थ में
अग्रेसर है, उनके मन में भी यह देह का सुख, इंद्रियों का सुख, इंद्रियों की माया
प्रवेश कर जाती है और आत्मा मुक्त नहीं हो पाती। तो देह का जो सुख है, इसमें कुछ
दोष है। ऐसे 21 दोषों की हम आज चर्चा करेंगे। और चर्चा मात्र या चिंतन मात्र
करते-करते ही उनसे वैराग्य आ जाता है, जब हम उनके स्वभाव को समझते हैं। यदि हमारे
सामने बहुत सुंदर पात्र है, जिसमें बहुत सारे मिष्ठान है, इतना सारा भोजन बनाया हुआ
है, सुगंध आ रही है। और सारी हमारी पसंदीदा चीजें है उसमें और हम दो दिन से भूखे
हैं। और हमारे सामने भोजन की थाली आ गई। किसने कहा जितना खा सकते हो खा लो, सब कुछ
तुम्हारे लिए है और हम खाने ही वाले हैं तो कोई कान में आकर कहता है इसमें जहर है।
खाएंगे क्या ? भूख बहुत है और सारा पसंदीदा बना हुआ है और कोई कह दे कि इसमें जहर
मिश्रित है। तुरंत रिजेक्ट कर दिया जाएगा। उसी तरह, संसार के सारे भोग केवल काम नहीं,
इंद्रियों के सारे सुख, इंद्रियों के सारे सुख। जहां भोग है वहां योग नहीं, अव्यक्त
महावाक्य है बाबा के।
1. सबसे पहला दोष -
अटैचमेंट
इंद्रिय सुख गहरी अटैचमेंट क्रिएट करता है। एक बार भोगा, एक बार खाया, एक बार उपभोग
किया, तो उससे अटैचमेंट हो जाती है। और आगे हम उसके गुलाम बन जाते हैं। फिर वही
चाहिए। वो स्पर्श हो सकता है, स्वाद हो सकता है, काम हो सकता है, आंखों का कोई सुख
हो सकता है। इसीलिए इंटरनेट की माया सारी दुनिया में छाई है। आंखें चिपक जाती है
उसमें। गुलाम बन जाती है आंखें। अपनी स्वतंत्रता खो देती है आंखें। आंखों की पैरों
में बेड़ियां लगती है। समझना है, यह चीज। अगर वह कोई खाने की वस्तु है आज अगर खाई,
ऐसा नहीं अध्याय पूरा हुआ। अध्याय की किताब तो अभी शुरु हुई है। अगले दिन फिर वही
इच्छा। हर इंद्रिय सुख में अटैचमेंट है, आसक्ति है, लगाव है और गुलाम बना देता है।
योगी वह है, जो इंद्रियों की दासता से परे है, इंद्रियों की गुलामी से परे है, अपने
इंद्रियों का जो स्वामी है। सन्डे की अव्यक्त मुरली - इस ब्राह्मण परिवार की हर एक
आत्मा स्वराज्य अधिकारी राजा है। ताज, तख्त और तिलकधारी है। विशेष है, श्रेष्ठ है।
छोटा परिवार, अलौकिक परिवार, सुंदर परिवार अति न्यारा, अति प्यारा परिवार।
स्वराज्यअधिकारी राजा। राजा अर्थात इंद्रियां नीचे, मैं ऊपर। शरीर नीचे, मैं ऊपर।
शरीर से ज्यादा शक्तिशाली मैं हूँ। सत्य के संग से तुम बलवान बनते हो। सुबह की
साकार मुरली - सत के संग से तुम बलवान बनते हो। बलवान अर्थात शरीर से ऊपर उठी है
चेतना, शरीर नीचे छूटा है। पहला दोष - उसमें क्या है? अटैचमेंट और गुलामी।
2. दूसरा दोष - बहुत ज्यादा दु:ख और बहुत कम सुख
सुख तो सभी इंद्रिय सुखों में है, ऐसे ही सारा संसार काम के पीछे पागल नहीं है। सुख
तो सब में है पर छोटे सुख के साथ बड़ा दु:ख है। सुख तो मिला है, पर सुख तो चला गया,
उसके पीछे दु:ख आया है, मिश्रित है। अतीन्द्रिय सुख एक ऐसा सुख है जिसमें कोई
मिश्रण नहीं है। आत्मा अमृतवेले अतीन्द्रिय सुख में डूब जाए। जितना ज्यादा
अतीन्द्रिय सुख होगा, इंद्रिय सुखों की इच्छायें अपने आप कम हो जायेगी। आत्मा जितना
अमृतवेले अशरीरी बन के रह जाए, खो जाए, डूब जाए, उस एक की याद में, उस सत की याद
में, यह सत का संग पार कर देगा सभी असत्य से क्योंकि देह असत्य है आज की साकार मुरली।
बार-बार कह रहे हैं, बाबा ने कहा - देह असत्य है। इसको सत्य नहीं समझो। सबसे बड़ी
माया यही है। और कोई माया है ही नहीं। अलग-अलग रूप से आयेगी। कभी बीमारी के रूप में
सतायेगा देह, कभी आसक्ति के रूप में, कभी उत्तेजना के रूप में। कभी किसी और की देह,
कभी अपनी देह। सारा पुरुषार्थ ही है - अशरीरी बनो। बहुत ज्यादा दु:ख और कम सुख, यह
है दूसरा दोष।
3. तीसरा दोष – क्रेविंग (तलब)
जैसे कोई दारु पीने वाला है, 30 साल से दारू पीता है, उसने एक दिन छोड़ दिया, चार
दिन से पिया ही नहीं। चौथे दिन उसको क्या होता है? तलब। क्या चाहिए उसको? चाहिए ही,
शरीर मांग करता है। क्योंकि इतने लंबे समय से पी रहा है। विथड्रोअल सिमटम्स, मेडिकल
भाषा में कहते हैं। हाथ में कंपन होने लगता है, पसीने छूटने लगते हैं, धड़कन बढ़ने
लगती है, बेचैनी होती है, नींद नहीं आती है। और यह सिम्टम्स। उसने कितना दृढ़
संकल्प किया था कि मैं आज से छोड़ रहा हूँ । 3 दिन तक छोड़ा, बिल्कुल पीया नहीं, पर
चौथे दिन उसकी हालत ऐसी खराब हो जाती है कि जब तक उसका शरीर पीता नहीं है, शांत नहीं
होता है। इसलिए छुड़ाना इतना मुश्किल हो जाता है। उसी तरह इंद्रिय सुखों में भी
क्रेविंग है। क्रेविंग अर्थात तड़प। शरीर ही मांगने लगता है। इसको भी समझना है और
जिसने कभी दारू पी ही नहीं है उसको वह क्रेविंग कभी है ही नहीं। इसलिए जरूरी नहीं
है कि हम उस को टेस्ट करें और फिर उस से मुक्त होने की कोशिश करें। भगवान कह रहा है
कि यह जहर है - कितनी सारी मुरलियों में आया है। विष है, पॉइजन है, जहर है। टेस्ट
करने का सवाल ही नहीं है, रिजेक्ट। दूसरों के हाथ जल गए हैं। आग में हमें डालकर
देखने की आवश्यकता नहीं है कि जलता है कि नहीं जलता है। क्रेविंग - उसके स्वभाव को
समझना है। यह किया तो इससे क्रेविंग उत्पन्न होती है। चाहिए-चाहिए कि डिमांड होती
है अर्थात इसमें दोष है। 5 दिन रोज गुलाब जामुन खाओ भोजन के बाद। छठवें दिन चाहिए।
ढूंढेंगे डिब्बा, कुछ ना कुछ कारण से यहां-वहां जाएंगे, कुछ है क्या मीठा? क्रेविंग
है। क्रेविंग भी गुलाम बना देती है।
4. चौथा दोष – डिसेप्शन (धोखा)
दूर से दिखाई देता है, वो सुख कितना अच्छा है! पास जाने के बाद और भोगने के बाद इतना
अच्छा वो नहीं रहता है। वह धोखा था। कल्पना में बहुत अच्छा लगता है पर वास्तव में
इतना अच्छा वह है नहीं। बस जुबान तक है टेस्ट। इधर से जाने के बाद उसका क्या हो रहा
है किसको पता! धोखा है, सभी इंद्रिय सुखों में धोखा है। जो दिख रहा है, ऐसा है नहीं।
मुखौटा है, जो धोखा दे देता है। जब तक इंद्रिय सुखों के स्वभाव को नहीं समझा जाए,
उससे मुक्ति नहीं हो सकती। कितनी मुरलियों में आता है। लास्ट संडे की मुरली - पुरानी
दुनिया की कोई भी चीज स्वीकार नहीं करो। क्यों? क्योंकि धोखा है और धोखा खाना
अर्थात दुःख उठाना। इस संसार की हर चीज में धोखा है। स्वीकार की, मन में रखी, किसी
व्यक्ति के प्रति आसक्ति, लगाव, एक दिन धोखा अवश्य मिलेगा क्योंकि व्यक्ति वह नहीं
है जो दिख रहा है। मुखौटे पहने हुए है। झूठ है अंदर, बाहर सच का मुखौटा है। इसलिए
बाबा ने कहा एक ही सत है बस, उसके अतिरिक्त सत्य संसार में कुछ है ही नहीं। बस उसी
से दिल लगाओ, उसी से प्यार करो। वही सत है, यही सत्संग है और कोई सत्संग है ही नहीं।
यही सच्चा-सच्चा सत्संग है। निरंतर उस सत्य का चिंतन करते रहना। उस सत्य स्वरूप का
चिंतन करना। सत्य घर का चिंतन, उस सत्य धर्म का चिंतन, उस सत्य स्वभाव का चिंतन,
सत्य में डूबे रहना। ऊपर से सत्य की किरणें निरंतर मुझ पर आ रही है। सारे दिन भर
कर्म करते हुए भी मैं सत के संग में हूँ। चौथा दोष डिसेप्शन।
5. पांचवा दोष – एक्जर्शन (थकान)
बहुत परिश्रम करना पड़ता है, तब कहीं इंद्रिय सुख मिलता है और इंद्रिय सुख थकाता
है। अतीन्द्रिय सुख में कोई थकान नहीं आती। अतीन्द्रिय सुख तो थकान को मिटा देता
है। उस दिन मुरली में आया था, यहां से दिल्ली तक भी चले जाओ तुम पैदल, तो भी थकावट
नहीं आएगी। अतिशयोक्ति नहीं है, सही में बोल रहा हे वो। अशरीरी अवस्था में कितना भी
कार्य किया जाए थकान नहीं है। थकान है अर्थात देहभान है। व्यर्थ थकाता हैं। लास्ट
संडे की लास्ट संडे की लास्ट संडे की मुरली – कुमारों से मुलाकात - सबसे बड़ा बंधन
कौन सा है कुमारो का? व्यर्थ संकल्प। एक्जर्शन है। सभी इंद्रिय सुख बहुत भगाते हैं,
दौडाते हैं।
6. छठवां दोष – फ्लीटिंग (अल्पकालीन)
फलीटिंग अर्थात क्षणभंगुर। अभी-अभी है, अभी-अभी चला गया। कितना देर सुख मिलता है?
जब तक यहां से यहां तक जाता बस, उसके बाद! पेशन्ट्स आते हैं! डायाबिटीज शुगर
300-400। क्या करें! वो बना था तो क्या छोड़ दूँ क्या? बाबा नाराज नहीं हो जाएगा!
एक भाई जी एडमिट हुए थे अभी अभी, पांडव भवन के सेवाधारी। हार्ट अटैक के साथ, सुगर
400। युगल से पूछा दवाई? छोड़ दी है दवाई! क्यों? बोले - वह कहते हैं बाबा ही मेरी
शुगर देखेगा। 6 महीने से सब बंद करके रखा है और खाना सब कुछ। क्षणभंगुर सुख, अभी-अभी
मिला, अभी-अभी गया। वो केवल एक मोमेन्ट है - उस मोमेन्ट को अगर कंट्रोल किया जाए तो
हो गया! जीत हो जाएगी और उस जीत की खुशी है। वश में हो जाने की कोई खुशी नहीं है।
वह तो हो ही रहे है द्वापर से। खुशी किसकी है? जीत की। हमें जो वस्तु सबसे ज्यादा
टेम्पटेशन वाली है, वह रखी और हम उसको बिना देखे चले गए तो हमारी खुशी अपनी है। जैसे
कोई शराबी है, रोज शराब पीता है। दिनभर संकल्प करता है बहुत बुरा है, नहीं करना
चाहिए, नहीं करना चाहिए, नहीं करना चाहिए। शाम होते ही कदम अपने आप मधुशाला की तरफ।
सोचता है आज कुछ भी हो जाए, जाऊंगा, दारु की दुकान यहां है, पर मैं बिल्कुल नहीं
पियूंगा, यह मेरा अटल संकल्प है। और वह दारु की दुकान के पास से जा रहा है, उस तरफ
देखता भी नहीं और पार कर जाता है और इतनी उसको खुशी होती है कि जो असंभव कार्य मैंने
कर दिया और अपने मन से कहता है – हे मेरे मन! आज तु जीत गया। इसी खुशी में एक पैक
फिर हो जाए। क्योंकि इतनी बड़ी खुशी, कुछ तो करना चाहिए ना। वापस चालू। इसलिए छूटता
नहीं है क्योंकि मन धोखा देता है, चालबाज है। कैसे चालाकी करता है, हमें समझ नहीं
आता है। समय पर धोखा देकर भाग जाता है। बहुत शातिर हे। बहुत नटखट है। मन भी शरारती
है। इंद्रियों के सारे सुख क्षणिक है। अगर उस मोमेंट को क्रॉस कर लो तो कुछ नहीं
होता है फिर। फिर वो क्रेविंग अपने आप खत्म हो जाती है। उस क्षण को जीतना है बस।
7. सातवां दोष - ज्ञान का दुश्मन
इंद्रिय सुख ज्ञान का दुश्मन है। आत्मिक ज्ञान से बड़ा कोई आनंद नहीं और इंद्रिय
सुखों से बड़ा कोई दुश्मन इस संसार में नही। यह दो शक्तिशाली महावाक्य सदा याद रहे।
8. आठवाँ दोष – एडिक्शन
इंद्रिय सुख आदत बनाते है, ऐडिक्शन क्रीयेट करते हैं। कितना भी उसको भोगो, वो पूरे
नहीं होते कुछ न कुछ, कुछ न कुछ, कुछ न कुछ खींचते रहेंगे हमेशा। एडिक्शन हो जाता
हैं जैसे वो लत है, वैसे इंद्रियों की भी लत है। चाहे खाने की चीज हो, देखने की चीज
हो, स्पर्श करने की चीज हो, सुनने की चीज हो। एक गीत सुन लिया उसी के पीछे पागल।
दिन रात वही गीत, वही गीत। वो कैसा भी गीत हो सकता है। वो गीत ही एडिक्शन जैसा बन
गया है। जब तक वो गीत नहीं, बाबा से योग नहीं। ऐसा भी होता है। कुछ भी चीज एडिक्शन
बन सकती है।
9. नौवां दोष – अधैर्यता
इंद्रिय सुख व्यक्ति में अधैर्यता लाते है- अभी के अभी चाहिए, रूक नहीं सकते। उसको
कहो थोडा रूक जाओ, अधैर्य हो जाता है। अंदर से आता अभी के अभी, अभी के अभी सुनना,
अभी के अभी खाना, अभी के अभी देखना है। अभी के अभी टच करना है। अधैर्य भाव लाते
हैं। इनटोलरेंस।
10. दसवां दोष - खतरा
हर इंद्रिय सुख में खतरा है – एक जबरदस्त खतरा हैं, विकार में जाने का। शुरूआत में
बहुत सुखद लगता है, पर धीरे-धीरे विकार की ओर आकर्षित करता है। इसलिए इस यज्ञ में
पता नहीं कितने कुमार थे, कहां चले गये। हम एक जगह गये थे। एक बडे भाई थे, कुमारों
की भट्ठी चालू थी, उन्होंने कहा जो कुमार 40 वर्ष के ऊपर है वह हाथ खडा करो। तो
उन्होंने कहा भाग्य है। 40 वर्ष तक कुमार रह गये, बहुत बड़ी बात है। कहीं आंख नहीं
डूबी क्योंकि मायावी राज्य है कुछ न कुछ खींचता रहता है। समझना है यह सारे इंद्रियों
के सुख। बाबा ने कहा तुम वनवाह में हो। राम 14 वर्ष वनवास में जैसा रहा वैसा
तुम्हारा तपस्वी जीवन होना चाहिए, नहीं तो दुनियाभर की बीमारियां पीछे पड जायेंगी।
बीमारी एक बार आ गई फिर काहे का पुरूषार्थ, कर सकते हैं पुरूषार्थ? मुश्किल हो जाता
है। नहीं कर सकते, शरीर खींचते रहता है, न चाहते हुए भी। अगर ब्रह्मा बाबा 93 वर्ष
की उम्र में बैडमिंटन खेलते थे, सीधा बैठते थे, चश्मा नहीं था। इससे पता चलता है कि
पूरा जीवन कितना अनुशासन में बिताया होगा, कितना परहेज रखा होगा। कितना कंट्रोल होगा
जवान पर।
11. ग्यारवाँ दोष – गांठ (Knot)
सारे इंद्रिय सुख गांठे बनाते है। आत्मा के अंदर एक गहरे संस्कार कियेट करते है और
जिन संस्कारों से आत्मा मुक्त नहीं हो पाती फिर जैसे ययादि का ही देखो। उसने कहा कि
इतना पूरा हो गया, बस मुझे और थोडा जीना है। पर थोडा होने के बाद फिर से इच्छा
उत्पन्न हुई और आखिर में उसने कहा कि यह इच्छा तो उस घडे की तरह है, जिसमें 100
छिद्र है। पूरे ही नहीं होते कभी भरता ही नहीं मटका। इच्छाओं का मटका आज तक किसी का
भरा नहीं है। जो भी दे दो, वह खाली ही रहता है। स्वभाव को समझना है। दमन नहीं करना
है इच्छाओं का। इच्छा उत्पन्न हो गई तो दबा दिया, फिर निकलती हैं। उसके स्वभाव को
समझना है, उससे मुक्त हो जाना है। जैसे जो भी ब्राह्मण बनता ज्ञान में आता, एक धारणा
जो सब तुरंत कर लेते बाकी सभी धारणायें कच्ची है। बाहर का खाना बंद कर देते। करते
है या नहीं? ऐसा कोई ब्राह्मण है जो मार्केट से जाता, उसे ये लगता कि यहां ये बन रहा
है, खाउं? कभी भी नहीं। पर विकारों के लिये यह धारणा नहीं हो पाती। उसके लिये कितना
पुरूषार्थ चालू हैं जीवन भर। क्रोध, लोभ, मोह ये नहीं छूटता। क्यों? क्योंकि उस बात
को हमने मन से रिजेक्ट कर दिया। यह हमारे लिये है ही नहीं। उसी तरह पुराने संस्कार
यह हमारे है ही नहीं, रिजेक्ट। जितना तीव्रता से वो कर दिया, अगर उतनी ही तीव्रता
से ये सारा कर दिया तो आत्मा कितनी पॉवरफुल हो जायेगी, कितनी शक्तिशाली हो जायेगी।
जैसे उसको रिजेक्ट कर दिया, इसको भी रिजेक्ट कर दें कि मेरा जीवन तपस्वी जीवन है।
ये सब चीजों के लिये जीवन नहीं है। गांठे।
12. बारहवां दोष – अकेलापन
इंद्रिय सुखों में अकेलापन है- जब वह नहीं मिलता तो अकेलापन आ जाता हैं। मिस करने
लगता है व्यक्ति उस व्यक्ति को जिसमें मोह हैं। फोन, मैसेजेस करेंगे, कुछ न कुछ
करेंगे। क्योंकि व्यक्ति में लगाव है। मधुबन में आ जाते हैं- सेवा करने। यहां आये
तो यहां के ही रह जाओ। यहां से वहां बातें चालू है - वहां क्या चालू है। तुमको क्या
करना है वहां क्या चालू हैं, वो लोग देख लेंगे वहां का। किसलिए आये हो? तपस्या के
लिये आये हो! केवल तपस्या करनी है इस भूमि पर आकर। दुनिया भूल जाये। ये स्थान कौन
सा है? यहां हम किसलिये आये हैं? अपने आपको तैयार करने के लिये। यहां आकर भी उन्हीं
लोगों से बातें। बाबा ने सन्डे की वाणी में कहा- अगर पुरानापन होगा तो पुरानी दुनिया
आकर्षित करेगी, पुराने लोगों की स्मृति होगी तो पुराने लोग आकर्षित करेंगे, देह के
संबंधी खींचते रहेंगे। अकेलापन! और अतीन्द्रिय सुख आत्मा को भरता है। इसलिए सभी सबसे
मुख्य पुरूषार्थ इस ब्राह्मण जीवन का है अमृतवेला। जितना अमृतवेला पॉवरफुल होगा,
सारा दिन अपने आप उतना पॉवरफुल होगा। अमृतवेले की याद शक्तिशाली होगी तो महानता का
अनुभव होगा। जिसका अमृतवेला कम शक्तिशाली है, टाइम अभी तक निश्चित नहीं हुआ है। कभी
4, कभी 2.45, कभी 3.30, कभी 4.15, कभी 4.45, कभी 6! कोई टाइम ही नहीं है, फिक्स नहीं
हुआ है अभी तक। तपस्या है! 5-5 मिनट की तपस्या है। वो जितना शक्तिशाली होगा। आत्मा
जब तक अमृतवेला अतीन्द्रिय सुख का अनुभव नहीं करती, सारे दिनभर कोई न कोई इंद्रिय
सुख उसे खींचता ही रहेगा। भूख ही सुख की है अगर सुबह नहीं दो तो दिनभर मांगेगी। उसकी
भूख को भी समझना है, आत्मा की प्यास सुख की है। अतीन्द्रिय नहीं दोगे तो इंद्रिय
चाहिए। इसलिए अतीन्द्रिय सुख से उसे भर देना है और वह केवल सुबह ही हो सकता है। जब
सारा संसार सोया पडा है तब उठकर अशरीरी हो जाना। एक की याद में खो जाना।
13. तेरवां दोष – रोग
इंद्रिय सुखों में रोग है। इंद्रिय सुख एक रोग की तरह है, जैसे रोग जब आता है अपने
साथ बहुत सारी चीजें लाता है। बुखार आयेगा तो बुखार के साथ बॉडी पेन होगा, बॉडी पेन
होगा तो उसके साथ उल्टी जैसा लगेगा। खाने की इच्छा खत्म हो जायेगी, कुछ अच्छा नहीं
लगेगा। एक रोग, कोई एक सिम्पटम नहीं लाता, ढेर सारे उसके साथ आयेंगे। इंद्रिय सुख
भी एक रोग की तरह हैं, बाबा ने कहा कि तुम जन्म-जन्म के महारोगी हो। आत्मा को भोग
की लालसा हैं, रोग का रूप उसने धारण कर लिया है।
14. चौदवां दोष – लापरवाही
इंद्रिय सुख कर्मों में नेग्लिजेंट (लापरवाह) बनाता है। क्योंकि व्यक्ति उसी व्यक्ति
के बारे में, उसी वस्तु के बारे में सोचता रहता है। उसी चीज के बारे में, उसी शरीर
के बारे में। शरीर का चिंतन मन में चलता है। भूतपूजा कुछ दिन पहले मुरली में था। यह
शरीर क्या है? भूत! पूजा करते रहता है इसकी। यह मेरा युगल, यह मेरी पत्नी, यह मेरा
बेटा, यह मेरी बेटी। बस इसी संसार में चिपका रहता है। कौन बेटा, कौन बेटी।
15. पन्द्रवां दोष – एक्सप्लोसिवनेस
इंद्रिय सुख आउटबर्स्ट अर्थात् अचानक बाहर निकलते है। दबाके रखो तो दबे रहेंगे, पर
जैसे ही अवसर मिल गया, समय मिल गया, स्थान मिल गया, बाहर निकलेंगे। हमारी ओपीडी में
बहुत समय पहले दो कन्यायें आई थी। यह कह रही है इसको हर दो 2 घंटे में खाने के लिए
चाहिए। इसका कोई इलाज करो। हमने कहा कब से? जब से यहां आई है, तब से और उधर जहां
रहती है वहां नहीं, इधर। एक मिनट भी शांति नहीं, उसको कुछ ना कुछ चाहिए, चाहिए,
चाहिए, चाहिए, चाहिए, चाहिए। दो-दो घंटे में। क्यों? उसने कहा, यह जहां रहती है वहाँ
हर एक चीज गिन-गिन के रखी जाती है। कुछ भी बिना परमिशन के खा नहीं सकते। दमन हुआ
है, दबा दिया वहां पर अपने आप को, करना पड़ा और यहां आये तो खुला मैदान। क्या खाऊं
और क्या नहीं? आउटबर्स्ट अर्थात जहां दमन होगा, इच्छाओं का सप्रेशन होगा, जैसे ही
अवसर मिलेगा बाहर निकल कर आ जाएगी। इसके लिए इच्छाओं का दमन नहीं करना है। इच्छाओं
का रूपांतरण करना है, इच्छाओं को समझना है। यह कहना कि नहीं नहीं, ये होनी नहीं
चाहिए, होनी नहीं चाहिए। हटाओ ईसे। ऐसा करने से नहीं होता है। उसको समझो - आई है,
कहां से आई है? अब जो सेवाकेंद्र या जहां रहती है वहां पर गिन-गिन के चीज है, अगर
एक भी चीज कम हो गई तो क्लास होती है। 10 गुलाब जामुन बने तो 10 ही रहने चाहिए, एक
भी कम हो गया तो कौन है वो। सप्रेशन नहीं करना हैं, अगर हो रहा है कुछ, मन में आ रहा
है, तो साक्षी होकर उसका अध्ययन करना है। क्या है ये? जैसे एक सन्यासी जंगल में
बैठकर तपस्या कर रहा है। अचानक उसके मन में आया मुझे जलेबी खानी है। 10 साल पहले कभी
खाई होगी, न मैं किसी से बात करता हूं, ब्रह्मचारी हूँ, यह इच्छा आई कहां से, क्या
करूं। वो जाता है मार्केट में। जलेबी खरीदी, लेकर आया, ध्यान में बैठा, जलेबी देखी,
आंखे खोली, और मन को कहा मन ये हैं जलेबी। देख ली, और फेंक दी। फिर कभी इच्छा नहीं
हुई। दमन नहीं करना है समझना है उसको। ज्ञान के साथ जोडना। भगवान क्या कहता है इसके
लिये, यह इच्छा जो आई है भगवान के महावाक्य क्या है इसके लिये।
16. सोलहवां दोष – कोन्स्पिरेसी (षडयंत्र)
इंद्रिय सुख षडयंत्र करने पर मजबूर करता है। अगर वह नहीं मिला तो क्या करती, आत्मा
षडयंत्र करेगी। कोई न कोई झूठ बोलेगी और उसको हथियाने की कोशिश करेगी। यहां तक उसको
खींच कर लेकर आती हैं।
17. सत्रहवां दोष – कन्फ्यूजन
इंद्रिय सुख कंफ्यूजन की अवस्था में डाल देता है। मन निरंतर कंफ्यूज रहता है करूं
या नहीं करूं। कंफ्यूजन की अवस्था रहती है। समझ ही नहीं आता क्या हो रहा है! अब तक
सब ठीक था, अब सब खत्म हो गया। क्योंकि योग में भी वहीं चिंतन चलता रहता है। वह
व्यक्ति हो सकता, शरीर हो सकता, वस्तु हो सकती है, भोग, खाने की वस्तु हो सकती है।
कोई कल्पना, कोई स्मृति, कोई पुरानी याद, कुछ भी हो सकता हैं। वो घूम रहा है बुध्धि
में गोल-गोल और अगर हो भी जाये तो उसको समझना है, यह क्यों हो रहा है। कहां से हो
रहा है।
18. अठारहवां दोष – पश्चाताप
इंद्रिय सुखों में पश्चाताप है। कोई भी इंद्रिय सुख ऐसा नहीं जिससे पश्चाताप न हो।
हर इंद्रिय सुख भोगने के बाद पश्चाताप थोडा बहुत तो होता ही है। मन कहता है नहीं
करना चाहिए था। फिर समझाता है अच्छा ठीक है, हो गया।
19. उन्नीसवां दोष – सेलफिशनेस
इंद्रिय सुख सेल्फिश बना देता है, स्वार्थी। हम अपने बारे में सोचने लगते हैं बस।
दूसरे के बारे में सोचना बंध। वो उदारता और वो बडी-बडी बातें कहां रह जाती है।
क्योंकि बस मुझे मिल जानी चाहिए वस्तु। स्वार्थ हो जाता है।
20. बीसवां दोष – टेम्टेशन
इंद्रिय सुखों में टेम्पटेशन है। एक जगह रूकते नहीं वो एक के बाद एक, एक के बाद एक,
होते ही रहते।
21. इक्क्सवां दोष – गन्दे
इंद्रिय सुख बहुत गन्दे है, छी छी। अगर उनकी वास्तविकता को देखो तो वैराग्य आ जायेगा।
यह आश्चर्य होगा लोग उसमें डूबे क्यों है! कर क्या रहे है!
राम की अवस्था का वर्णन है योग वशिष्ठ में। राम अभी वन में गया नहीं है। घर में ही
हैं, राजमहल भी है, पर जो सारी भोग-वस्तु है, देखता है, अपसरायें नृत्य कर रही है,
ये हो रहा, वो हो रहा। उसे वह सुख देखकर दया आती है। इतना वैराग्य उसके अंदर पहले
से भरा हुआ है। तो हमारी भी अवस्था ऐसी वैरागी अवस्था हो। वैरागी अवस्था में ही
तपस्या की जा सकती है। जो बुद्धि यह सोच रही है कि क्या खांउ, क्या पहनू, इससे मिलूं,
उससे मिलूं, उसको फोन करूं, इसको फोन करूं, तपस्या हो सकती है? तपस्या के लिये
एकांत चाहिए, एकाग्रता चाहिए। स्थिरता चाहिए। तो ही तपस्या हो सकती है। बुद्धि सबसे
बाहर निकली हो। किसकी याद नहीं। जैसे याद में हम बैठे, तुरंत परमधाम में। कितना
फास्ट हम जाते हैं! कितना टाइम लगता है! संसार के चिंतन से स्वयं को बाहर निकालो,
शरीर के चिंतन से स्वयं को बाहर निकालो, फिर मैं आत्मा हूं, सूक्ष्मवतन, परमधाम।
बैठो और सीधा परमधाम। यह अवस्था तब होती जब मन कहीं पर भी अटैच नहीं है, किसी के
साथ भी अटैच नहीं है। जितना-जितना आत्मा व्यक्तियों के अटैचमेंट से मुक्त हैं, उतनी
वह शक्तिशाली है।
इसके लिये इंद्रियों के स्वभाव को समझना है। कब उत्तेजित होती है। ऐसे ही उत्तेजित
नहीं होती है। कुछ देखकर, कुछ सुनकर, कुछ याद करके, किसी स्पर्श से। 4 स्टीमुलस है-
ऑडिटरी, विजुअल, टेक्टाइल टच, साइकोलाजिकल । कुछ बात याद आ गई तो उत्तेजना होगी,
किसी स्पर्श से उत्तेजना होगी, सुनने से उत्तेजना होगी, कुछ देखने से। इसलिए हम क्या
देख रहे हैं, क्या सुन रहे हैं, क्या टच कर रहे हैं, और किन बातों को बुद्धि में ला
रहे हैं। आज की मुरली में है देह असत है, सतसंग अर्थात् बाप का संग। देह का संग करना
अर्थात् असत संग।
तो कबीर कहता हैं क्या तन मांझता रे! ये तन को क्या मांझते बैठे हो! कितना भी घिसो
साफ होने वाला है क्या ये? सुंदर बनने वाला है? सुंदर केवल पवित्रता से बनेगा। इस
शरीर के पीछे पागल नहीं होना। हां, इसकी संभाल करना दूसरी बात है। और संभाल के लिये
संयम आवश्यक है। जो जितना संयमित, वो उतना स्वस्थ। जो जितना भोगी, वह उतना रोगी।
क्या तन मांझता रे! इस तन से उपराम जाना है।
ओम शांति।
गीत
क्या तन मांजता
रे, एक दिन माटी में मिल जाना।
क्या तन मांजता रे, एक दिन माटी में मिल जाना।
पवन चले उड़ जाना रे पगले हो, पवन चले उड़ जाना रे पगले हो
समय चूक पछताना है, समय चूक पछताना।
क्या तन माँजता रे, एक दिन माटी में मिल जाना।
---------------------------------------------------------------------------------------
चार जना मिल
घडी बनाई, चला काठ की डोली,
चार जना मिल घडी बनाई, चला काठ की डोली,
चारों तरफ से आग लगा दी, चारों तरफ से आग लगा दी,
फूंक दही जेसे होरी, फूंक दही जेसे होरी,
क्या तन माँजता रे, एक दिन माटी में मिल जाना।
---------------------------------------------------------------------------------------
हाड़ जले जैसे
बन की लकड़ियां, केश जले जैसे घासा,
हाड़ जले जैसे बन की लकड़ियां, केश जले जैसे घासा,
कंचन जैसी काया जल गई, कंचन जैसी काया जल गई,
कोई न आवे पासा, कोई न आने पासा,
क्या तन माँजता रे, एक दिन माटी में मिल जाना।
---------------------------------------------------------------------------------------
तीन दीना तेरी
तिरिया रोवे, तेरा दीना तेरा आई,
जनम जनम तेरी माता रोवे, जनम जनम तेरी माता रोवे,
करके आस पराई, करके आस पराई,
क्या तन माँजता रे, एक दिन माटी में मिल जाना।
---------------------------------------------------------------------------------------
माटी ओढना माटी
बिछोना, माटी का सिरहाना,
माटी ओढना माटी बिछोना, माटी का सिरहाना,
कहे कबीरा सुनले रे बन्दे, कहे कबीरा सुनले रे बन्दे,
ये जग आना जाना, ये जग आना जाना,
क्या तन माँजता रे, एक दिन माटी में मिल जाना।
---------------------------------------------------------------------------------------
क्या तन मांजता
रे, एक दिन माटी में मिल जाना।
क्या तन मांजता रे, एक दिन माटी में मिल जाना।
---------------------------------------------------------------------------------------