कुल कलंकित (Kul Kalankit)
बी.के. डॉ. सचिन भाईजी
24 फरवरी
2020
ओम् शान्ति।
एक गरीब किसान, एक जमीनदार के पास जाता है और अपनी दुःख की कहानी सुनाता है, कि मेरे
पास कुछ भी नहीं है। आप कुछ करो, दया करो, रहम करो। जमींदार कहता हैं- मैं क्या करूं,
तुम बताओ? वो कहता है मुझे जमीन का एक टुकड़ा दे दो, एक साल के लिये और एक साल के
बाद ले लेना। मैं खेती करूंगा। जमींदार बहुत दयालु होता है, कहता है ठीक है, एक साल
के लिये तुम जमीन ले लो, फसल उगाआ, जो फसल उगेगी वह तुम्हारी और फिर जमीन मुझे
वापिस दे देना। तो वो बहुत खुश हो जाता है। जमींदार यहां तक कहता है - मैं तुम्हें
5 लोग भी देता हूँ, 5 आदमी, खेती के लिये, काम करने के लिये। किसान तो अत्यधिक खुश
हो जाता है। खेत भी मिल गया और 5 सेवाधारी। वापिस आता है, खेत में काम करने लगते
हैं और अच्छे तगड़े सेवाधारी होते पांच। किसान सोचता है कि जब ये 5 लोग यहां है, तो
मुझे आने की क्या जरूरत हैं? ये पांचों लोग तो देख लेंगे ना, जो भी कुछ है। तो दूसरे
दिन से वो उनको समझा देता है, तुमको क्या-क्या करना है और खुद घर में बैठ जाता है,
और घर में बैठे-बैठे स्वप्न भी देखने लगता है कि धीरे-धीरे अभी खेत में फसल उगेगी,
इतना सारा धन मिलेगा, फिर मैं उसे बेचूंगा और बेचने के बाद घर बनाऊंगा, साहूकार बन
जाऊंगा, फिर ऐसा तो शादी हो चुकी है। साहूकार के ऐसे तो क्या? ऐसे तो कितने खेत मैं
अपने खरीद लूंगा, तो रोज स्वप्न देखने लगता है और इधर ये 5 लोग उसके 5 सेवाधारी, जब
मालिक ही नहीं है तो अपनी मन मर्जी से काम करने लगते हैं जैसे चाहे, जब आना है
आयेंगे, जब नहीं आना है तब नहीं आयेंगे, और ये किसान जाता ही नहीं है खेत में,
देखभाल करने। खेती का रख-रखाव जो कुछ है, सब वह 4-5 लोग ही करने लगते हैं और फिर जब
ऐसा करते करते एक साल बीत जाता है। किसान को लगता है अब मुझे जाना चाहिए बहुत नींद
हो गई, बहुत स्वप्न देख लिये और जाकर देखता है फसल तो उगी है, पर उतनी नहीं जितनी
उगनी चाहिए थी। जितना खर्चा हुआ उससे कई गुना कम, घाटा ही ज्यादा हुआ है। सौदा बड़ा
घाटे का था और एक साल जब पूरा होता है। साहूकार देखने आता है कि क्या तुमने किया?
किसान कहता है कि मुझे 1 साल और दे दो, साहूकार कहता है- अब नहीं दूंगा और वो चला
जाता है और किसान फिर रोने लगता है।
वो साहूकार भगवान है और वो किसान मनुष्य है और वो 5 लोग कर्मेन्द्रियां हैं, अगर इन
कर्मेंद्रियों को ऐसे ही छोड़ दिया जाये तो क्या होगा? उपद्रव । क्या होगा? विकर्म।
क्या होगा? पाप। अगर उन पर कोई हमारा कंट्रोल नहीं, यदि हम उनकी तरफ देख ही नहीं रहे
हैं। बाप आये हैं तुम्हें गुल-गुल बनाने, आज की साकार मुरली, पर कुछ बच्चे क्या करते
हैं? पतित बन
जाते हैं। कुल कलंकित बन जाते हैं। क्या करते हैं? कुल को कलंकित करते हैं। बाप क्या
हैं? बाप का रूप कौन सा हैं? धर्मराज । यह ड्यूटी अब हैं उसकी, सतयुग में धर्मराज
नहीं होगा। अब
बाप के साथ कौन है? धर्मराज है। कुल कलंकित । क्या हम कर रहे हैं? कैसे हमारे कर्म
हैं? जगी जीवनाचे सार घ्यावे जाणूनी सत्वर । सत्वर अर्थात् शीघ्र। जीवन के सार को
जान लो। क्या हैं सार?
जगी जीवनाचे
सार घ्यावे जाणूनी सत्वर।।
जैसे ज्याचे कर्म तैसे फळ देतो रे ईश्वर।।
क्षणीक सुखासाठी अपुल्या कुणी होतो नितीभ्रष्ट
कुणी त्यागी जीवन अपुले दुःख जगी करण्या नष्ट
देह करी जे जे काही आत्मा भोगि तो नंतर
जैसे ज्याचे कर्म तैसे फळ देतो रे ईश्वर.....
जिसके जैसे कर्म होंगे,
वैसे ही उसको फल मिलेगा। आज की मुरली में बाबा ने कहा –कुल कलंकित नहीं करना है, इस
कुल का कलंकित नहीं करो। यह कुल कौन सा हैं? कौन सा कुल हैं ये? ईश्वरीय कुल है।
कौन सा कुल है ये? ब्राह्मण कुल हैं। कैसा परिवार हैं ये? सर्वश्रेष्ठ परिवार है।
कल अधर कुमारों से मुलाकात, क्या कहा बाबा ने परिवार के विषय में? श्रेष्ठ परिवार
है, एकमत परिवार है, अलौकिक परिवार है, ईश्वरीय परिवार है। ये भाग्य है तुम्हारा,
कि तुम इस परिवार के हो। अब इस परिवार में रहकर कोई कुल कलंकित करे, तो उसको क्या
कहेंगे? कलंक का टीका लगा दे, तो उसको क्या कहेंगे? पतित बनते हैं, बाप धर्मराज का
रूप लेगा, बाप के साथ धर्मराज भी है। तो हमें इस परिवार को कलंकित नहीं करना है।
कुल का वारिस बनना है। कुल दीपक बनना है। कैसे कुल कलंकित करते हैं? कुल कलंकित
अर्थात् छोटे मोटे अपराध नहीं, भारी बड़े-बड़े अपराध, विकर्म वाले, पाप कर्म वाले।
जिसके लिये हिंदी में दो शब्द है- दुष्कर्म और कुकर्म । एक है विकर्म, विकर्म से बड़े
ये दो शब्द है। भ्रष्ट कर्म, निक्रिष्ट कर्म, सत्यानाश करने वाले कर्म, बर्बाद करने
वाले कर्म । तो बाबा ने कहा कुल-कलंकित नहीं करना है तुमको, कौन से कर्म करने है
फिर? श्रेष्ठ कर्म, महान कर्म, कुल का नाम बाला करने वाले कर्म, ऐसे कर्म कि जिससे
ब्राह्मण परिवार शोभायमान हो जाये, उसकी शान बढ़ जाये दुनिया में। अगर कोई स्कूल है
और उस स्कूल में एक ऐसा विद्यार्थी है, 50 विद्यार्थी है उस क्लास में, उसका एक
विद्यार्थी, जो है वो कोई ऐसा भ्रष्ट कर्म करता है, और उसका नाम अखबार में आ जाता
है। अखबार में उसके नाम के साथ उसके स्कूल का भी नाम आता है, तो लोग क्या सोचेंगे?
पूरी स्कूल की स्कूल ऐसी है, ये सब लोग ही ऐसे होंगे स्कूल के, सभी भ्रष्ट होंगे,
अब ऐसे स्कूल में हम अपने बच्चों को एडमिशन क्यों देंगे? तो पूरी स्कूल कलंकित हो
जाती है, एक की वजह से। तो कितनी बड़ी डिससर्विस हो गई? तो ऐसे कौन कौन से कर्म
हैं? जो कि इस कुल को कलंकित कर दे, इस परिवार को कलंकित कर दे। यह सबसे पहले है
क्या, यह ब्रह्मा कुमारीज क्या है? परिवार है, तो यह परिवार कलंकित हो जायेगा,
आर्गनाइजेशन है, इंस्टीट्यूट है, संस्था है, संस्था खराब हो जायेगी, ये पाठशाला है,
यूनिवर्सिटी है, स्कूल है, यह यज्ञ है। यह चार चीजें तो मुख्य हैं। इन चारों के साथ
और बहुत सारी चीजें हैं- आश्रम, यह आश्रम बदनाम हो जायेगा, यह धर्मशाला है, यह
हॉस्पिटल है, तीर्थस्थान हैं। अगर पता चल जाये, काशी का रहने वाला, वाराणसी का रहने
वाला आया है कोई साधू, वो इतना भ्रष्ट है, तो क्या सोचेंगे? शायद जहां से आया वहां
सब ऐसे ही है। तो ये तीर्थ है और ये क्या है? रूहानी सत्संग, डिवाइन पार्लियामेंट
है, गौशाला है, सारी गायें ऐसी होंगी। मंदिर है, ईश्वरीय कुल है, डिवाइन कम्यूनिटी
है, तो जितने तुलना की जाये। वो सब सब कलंकित होगा और यह बहुत बड़ी डिसर्विस होगी।
तो कुल कलंकित हम कैसे बनते है? उसकी कुछ बातों की हम चर्चा करेंगे।
1. पहला : अव्याभिचारी
याद - किसी
देहधारी में मोह हो गया, किसी देहधारी में फंस गये, किसी देहधारी के नाम - रूप में
फंस गये, इसको क्या कहेंगे? कि देहधारी से आसक्ति, लगाव, मोह हो गया। जब हमारे अंदर
ये हो रहा है तो किस तरह के सूक्ष्म बायब्रेशन्स हम फैला रहे हैं? संगठित योग चालू
है, और उसमें हम बैठे हुये है, और हमें कोई व्यक्ति याद आ रहा है, जिसमें हमारा
लगाव है, मोह है, उसकी देह याद आ रही है, देह का सौंदर्य याद आ रहा है, तो क्या
कहेंगे? वातावरण दूषित होगा। कल की मुरली – तुम्हारे मस्तक की वृत्ति से
वायब्रेशन्स, वायुमण्डल फैलेगा। जो इस रूहानी नशे में रहेगा वो दूसरों को भी रूहानी
नशा चढायेगा। जो इस रूहानी नशे में रहेगा वह दूसरों को भी आकर्षित करेगा। वो खुद
छत्रछाया में रहेगा, दूसरों को भी छत्रछाया का अनुभव करायेगा और यदि कोई खुद मोह
में है, फंसा हुआ, तो उसी के वायब्रेशन्स वैसे ही फैलेंगे। कोई कमजोर होगा तो उस
वायब्रेशन्स को कैंच करेगा- बिना बोले, बिना कुछ करे। उसके अंदर भी मोह के
प्रकम्पन्न घुसेंगें। फ्रीक्वेंसी मैच होगी और उसे भी पुराने जिनमें मोह था वह याद
आ जायेंगे, जो भूल चुके थे, जिनसे कोई लगाव नहीं था। सोचेगा, आज फोन करके देखता
हूं, फिर आजकल क्या चल रहा है, इतने सालों से कोई कॉन्टैक्ट नहीं था, नष्टोमोहा हो
गये थे, क्यों आई? ये किसी के वायब्रेशन्स पहुंच गये उस तक, मोह के, मोह के कीटाणु,
मोह के वायरस, मोहना वायरस, तो मोह के बायब्रेशन्स । तो सबसे पहला है अव्याभिचारी
याद। ये विकर्म है, इसके लिये मन को निर्मोही बनाते जाना है। किसी की याद न हो इस
संसार में। किसी देहधारी की याद नहीं, सब नश्वर है। यहां का एक ही अनश्वर है, बस उसी
से प्यार। कुमारियों से मुलाकात - एक बाप दूसरा न कोई, इस नशे में आगे बढ़ती जा रही
हो। ये स्मृति, नहीं तो कुल को कलंकित करोगे।
2. दूसरा :
यज्ञ में कोई वस्तु देना और फिर वापस –
कुमार होते हैं, सेवाकेन्द्र पर। इतना नशा चढ जाता है ज्ञान में आते ही, ये दूंगा,
वो दूंगा, वो दूंगा, टेपरिकॉर्ड और वो सब लाकर दिया और 6 महीने के बाद जब लडाई हो
गई तो बहन जी, वो थोड़ा चाहिए था दो दिन के लिये। लेकर गये तो लेकर ही गये, लाये ही
नहीं कभी। सामान देते, फर्नीचर देते, चीजें देते और बाद में वापस ले लेते। यज्ञ में
जो दे दिया वो दे दिया अब उसको वापस लेने का संकल्प नहीं करना है। वो क्या है?
विकर्म हो जायेगा, एक कुल को कलंकित करोगे, क्योंकि तुमने यह किया तो यह बात छिपी
तो नहीं रहेगी। फिर दूसरे को भी प्रेरणा आयेगी, हमने भी बहुत दिया है, हमको भी लेना
चाहिए, इसने तो ले लिया, हम भी लेंगे। ये क्या बन जायेगा? विकर्म बन जायेगा। कुल को
क्या करेंगे? कलंकित करेंगे। तो ऐसा कुल को कलंकित, कुल कलंक का टीका हमारे सिर पर
न हो।
3. तीसरा :
नारद बनना- Being Narad -
फर्स्ट जर्नलिस्ट, क्या किया था नारद ने? आग लगाई थी, आग। इधर की उधर, उधर की इधर ।
लक्ष्मी जी को जाकर कहेगा, वो पार्वती आपके बारे में ऐसा कह रही थी, हमने सुना है।
शंकर जी को जाकर बोलेगा, वो विष्णु ऐसा-ऐसा कह रहा था मैंने सुना है। इधर की उधर,
उधर की उधर, उधर की उधर । स्पीचुअल जर्नलिस्ट, फर्स्ट स्प्रीचुअल जर्नलिस्ट,
पत्रकार। इधर की बांते उधर, उधर की बाते उधर, रियुमर्स (rumours) फैलाना, अफवाह
फैलाना, गोसिप (gossip) करना।
ये करना बहुत बड़ा विकर्म है, बहुत बड़ा पाप है। कुल को कलंकित करना है। ईश्वरीय
परिवार है, ब्राह्मण परिवार है, कोई गलती करता भी है तो बाबा ने क्या कहा? कोई
महारथी है, गलती कर रहा है, पर उस समय वो महारथी नहीं हैं। तो उसको नाम मत लो, यहां
जो जिसको करना है कर रहा है, हमें इधर से उधर नहीं फैलाना है। तो ये नारद बनना बहुत
बड़ा विकर्म है। यहां पर कुल को कलंकित करना है और ये आदत हैं एक गोसिप की। इधर की
बांते उधर, उधर की बातें उधर।
ज्ञानमार्ग
में क्या-क्या नहीं बनना है तो उसकी भी एक लिस्ट है- सबसे पहले तो शास्त्रों को लिया
जाये इसको बाजू में रखकर ।
3.1. एक तो
हैं : मंथरा -
मंथरा क्या करती है, मन खराब करती है दूसरों का। इसका इसके बारे में बहुत अच्छा
ओपिनियन है, तो उसके कान में जाकर भरना, तुम जो सोचते हो वह वैसा नहीं है, तुम अंधरे
में हो। इसकी वास्तविकता मैं तुमको बताता हूं, क्या है।
3.2. दूसरा है
: कैकई- कैकई
नहीं बनना? कैकई क्या करती है? सुनी-सुनाई बांतों पर विश्वास किया और स्वार्थ, मेरा
बेटा।
3.3. तीसरा है : शूर्पनखा
- काम का प्रतीक है
शूर्पनखा । पहले राम के पास जाती है, राम जी कहते हैं आई एम आलरेडी मैरिड। उधर जाओ,
वो है लक्ष्मण। उधर जाती है, वो कहता है मैं तो दास हूं। तुम मेरे से शादी करोगी तो
दास का जीवन बिताना पड़ेगा, मेरा मालिक वो है। डर जाती है, वापिस जाओ, वापिस जाती
है। वापिस इधर, वापिस इधर । वो उस स्त्री का प्रतीक है, जो पुरूष पर आकर्षित हुई
है।
3.4. चौथा : शकुनी-
शकुनी क्या करता है?
छल-कपट, छल-कपट, छल-कपट, छल-कपट | षड्यंत्र रचते रहता है।
3.5. पांचवा दुर्योधन-
दुर्योधन किसका प्रतीक है? अहंकार का प्रतीक है। आज की साकार मुरली, मैंने यह किया,
मैंने वो किया। अहंकार आया और गया, बाप देखो कैसा निरहंकारी है। अहंकार आया और गया।
दुर्योधन अहंकार का प्रतीक है। कृष्ण कहता है कि एक विकल्प और है, 5 गांव दे दो बस
पाण्डवों को, नहीं चाहिए इंद्रप्रस्थ। दुर्योधन कहता है- 5 गांव? सुई की नौंक जितनी
भी भूमि नहीं दंगा। भीष्म कहता है, क्यूं अपनी मां को अपने शव पर विलाप करने पर
मजबूर कर रहे हो? तो दुर्योधन नहीं बनना है। दुर्योधन अर्थात् मैं, अहंकार।
3.6. छठवां रावण –
अर्थात् अहंकार का
प्रतीक। रावण अर्थात् काम वासना का प्रतीक।
3.7. सातवां मेघनाथ-
मेघनाथ भी अहंकार का प्रतीक है।
3.8. आठवां दुशासन–
उन लोगों का प्रतीक है जो विकारों में साथ देते हैं,
3.9. नौंवा कर्ण-
कंट्रोवर्सियल फिगर है, अच्छी बातें बहुत है, परंतु संग किसका दिया? एहसान के नीचे
ही दबा रहा, पर वो भी कन्फ्यूज स्टेट ऑफ माइंड है एक, वो भी नहीं बनना है।
3.10. दसवां कुम्भकरण–
कुम्भकरण क्या करता है, सोते रहता है दिन रात, जो विकर्म किये है अतीत में, वो भस्म
भी तो नहीं हो रहे।
3.11. ग्यारहवां धृतराष्ट्र
– मोह का प्रतीक है।
डर लगता है, उसको जैसे ही दुर्योधन कहता है, मैं आत्महत्या कर लूंगा, एकदम पूरा उसका
सिंहासन डोलने लगता है, सब उसको तुच्छ लगने लगता है उसको फिर न्याय, और सब कुछ।
3.12. बारहवां गांधारी
– आंखों पर जानते हुए,
समझते हुए पट्टी बांध ली। उसके बाद शिशुपाल- क्या किया था उसने? गालियां दी थी।
गालियों पे गालियां, गालियों पे गालियां, गालियों पे गालियां देता रहा।
3.13. तेरहवां जयधृत
– क्या किया था उसने? षड्यंत्र जब रचा गया, तो पाण्डवों को घुसने ही नहीं दिया उसमें
। अभिमन्यु की मृत्यु हो गई।
3.14. चौदहवां शांतनु-
मोहित हो गया, अपने बेटे ने इतनी बड़ी प्रतिज्ञा कर ली और चुप बैठा रहा, पर दुःखी
रहा जीवन भर |
और क्या नहीं बनना है?
कंश, जरासंध, पूतना,
भस्मासुर बहुत
सारे उदाहरण है। यह सब किसके उदाहरण है? कहां के उदाहरण है? ये इस परिवार के ही है,
सारे। यहीं से गायन होगा उनका, यहीं पर है सारे विद्वान । यह सारी रामायण कहां घटित
हो रही हैं? यही पर ।
मन ही रामायण, मन
हारा तो रावण, मन जीता तो राम ।
मन ही मन में चल रहा देवासुर संग्राम ।
मन ही कैकई रानी, मन ही मंत्रा दासी।
मैला मन न कीजिये, यह तो सत्यानाशी।
मन ही अंगद, मन बजरंगी, मन की शक्ति अपार |
मन में राम तो वानर भी कर जाये लंका पार ।
दम भी मन का, रावण मन का जिस दिन हो संहार |
विजयदशमी का यह पर्व उस दिन हो साकार |
4. चौथा : दैहिक
दृष्टि- दैहिक
दृष्टि रखना, दैहिक आकर्षण। दृष्टि कैसी हो? आत्म अभिमानी। देह के ऊपर दृष्टि जा रही
है, यह सुंदर, यह असुंदर, यह काला, यह गोरा। यह पतला, यह मोटा। शरीर का चिंतन कर रहे
और उस अनुसार बोल भी रहे हैं। कि वो भाई न, वो मोटा वाला।
5. पांचवा :
किसी भी धर्म या अध्यात्म संस्था की ग्लानि करना –
हमारी संस्था बहुत अच्छी है, वो संस्था एकदम फालतू हैं, वहां मत जाया करो, बंद करो
वहां जाना। यह हमारी संस्था में आ जाओ। दूसरी संस्थाओं की ग्लानि करना। यह भी कुल
को कलंकित करना हैं। वो मुरलियों में जो आता है, वो अलग, वो बाबा है। इसलिए किसी भी
धार्मिक संस्था की या धार्मिक मतों की ग्लानि नहीं करना। वो तो बाबा इतने लोगों से
बात करते बस। इसके लिये कोई भी आर्गनाइजेशन, कोई भी संस्था की ग्लानि नहीं करना है,
विरोध में नहीं बोलना है कुछ। हम भी तो पहले वो ही करते थे। अब थोडा से ज्ञान का
मिल गया, और हम सोचते हैं हमी सब कुछ। दूध का धुला कोई नहीं है, सबने बहुत विकर्म
किये है। ब्राह्मण जीवन में भी बहुत विकर्म किये।
6. छठवां :
किसी की भी निंदा करना –
किसी की भी निंदा नहीं करनी है, क्यों? क्या महावाक्य है बाबा के? कौन सी मुरली है?
मुरली की डेट? कौन सी है, जिसमें बाबा ने ग्लानि के बारे में बताया है। जिसमें कर्म
की गति बताई है, और ग्लानि बताई है। 21 नवंबर 1992 इसको आज पढना है एक बार।
कर्मों की गति का
गुह्य रहस्य सदा सामने रखो।
अगर किसी की भी बुराई व गलत बातचीत के साथ वर्णन करते हो, यह व्यर्थ वर्णन ऐसा ही
है जैसे कोई गुंबज से आवाज करता है तो वह अपना ही आवाज और ही बड़े रूप में बदल आपके
पास आता है। गुंबज में आवाज करके देखा है? तो अगर किसी की बुराई करने के, गलत को
गलत फैलाने के संस्कार है, जिसको आप लोग आदत कहते हो तो आप आज किसकी ग्लानि करते हो
और आप अपने को बड़ा समझदार, गलती से दूर समझकर वर्णन करते हो, लेकिन ये पक्का नियम
है। कौन सा? अथवा कर्मों की फिलासिफी है कि आज आपने किसी की ग्लानि की और कल आपकी
कोई दुगुना ग्लानि करेगा। क्योंकि यह गलत बांते इतनी फास्ट गति से फैलती है जैसे
कोई विशेष बीमारी के जर्मस बहुत जल्दी फैलते है। और फैलते हुए जर्मस (germs) किसकी
ग्लानि की वहां तक पहुंचते जरूर है। आपने एक ग्लानि की होगी पर वो आपको गलत सिद्ध
करने के लिये आपकी 10 ग्लानि करेंगे। तो रिजल्ट क्या हुई? कर्मों की गति क्या हुई?
लौटकर कहां आई? अगर आपको शुभ भावना से उस आत्मा को ठीक करने की, तो गलत बात शुभ
भावना के स्वरूप में विशेष निमित्त स्थान पर दे सकते हो। फैलाना रांग है। कई कहते
हैं हमने किसको कहां नहीं लेकिन वो कह रहे थे तो मैंने भी हां में हां कर दी। बोला
नहीं, आपके भक्ति मार्ग में भी वर्णन है कि बुरा काम नहीं किया। लेकिन देखने में भी
साथ दिया तो वह भी पाप है। हां में हां मिलाना। यह क्या है? यह भी कर्मों के गति
प्रमाण पापों में भागी बनना है। हां में हां मिलाने की बात कर रहे है बाबा। हम
कहेंगे मेरे साथ भी ऐसा किया, वह हमेशा सब के साथ ऐसे ही करते। अगले दिन वो आकर उसकी
तारीफ करने लगेगा। फिर क्या करोगे? उसकी दोस्ती हो गई उसके साथ जिसकी वह ग्लानि कर
रहा था। जैसे अ है ब के पास आया और ब, अ की निंदा कर रहा था। फिर उसकी उसी दिन शाम
को दोस्ती हो गई, और आपने उसके साथ मिला दी और उसकी बहुत ग्लानि कर दी। और ब उस अ
के पास जाकर यह कहने लगा कि आपने उसकी ग्लानि की। फिर आप फंस गये न। किसी के लिये
अपशब्द हमारे मुंह से न निकले, उसको भले कहने दो, हम उसको समझाते रहे कि सब आत्माएं
है, परवश हैं।
7. सातवां :
ब्रह्मा भोजन एक्स्ट्रा लेकर नहीं खाना या उसे वेस्ट करना
- बहुत सरल है लेना
और उसे वेस्ट कर देना, उसका अनादर करना और दूसरों को भी सिखाना, वेस्ट करना। वो कहता
है मेरा इतना रह गया है- अरे छोड़ो ना, फेंक दो, क्या होता है? खुद तो अनादर कर ही
रहे हैं। प्रोत्साहित करना, उसको भी थोड़ी हिम्मत आ जाती है फिर वेस्ट करने की। यह
भी कलंकित करना है।
8. आठवां :
डिसरिगार्ड -
अपने सीनियर या जूनियर का अनादर करना। हम ये न भूलें कि उसको निमित्त किसने बनाया?
वो चाहे कैसे भी हो लेकिन उसको निमित्त बनाने वाला ऊपर बैठा है।
9. नौवां : इस
यज्ञ की डिससर्विस करना -
कुल कलंकित करना। कैसे डिससर्विस? इसके पहले कई बार उदाहरण दिया हैं हमने रमेश भाई
जी का। कि दो सेंटर के लोग– एक सेवा। सेंटर के लोग पहुंचे गवर्नर के ऑफिस में और
कहने लगे कि शिवरात्रि का प्रोग्राम है आप हमारे पास आना। उन्होंने कहा हम जरूर
आयेंगे। दूसरे सेंटर वाले पहुंचे तो उन्होंने कहा हमारे यहां शिवरात्रि का
प्रोग्राम है आप आना। उन्होंने कहा हम तो आ रहे हैं। कहां आ रहे हो? यहां, अरे वहां,
मत जाना, वो खराब लोग है। आप हमारे पास आओ। ये क्या हो गई? डिससर्विस हो गई ना। यह
कुल कलंकित करना है।
10. दसवां :
योग्यता होते हुए भी सेवा न करना, सेवा के लिये मना कर देना -
नहीं ना, मैं नहीं करूंगा, हमेशा मैं ही करूं क्या? वो खाली बैठा रहता है। उसको कोई
बोलता ही नहीं कुछ, हमेशा मुझे ही बोला जाता है। ऐसे समय क्या करना चाहिए? सोचना है
हमारा भाग्य ज्यादा बन रहा है। उसके भाग्य में ही नहीं है तो क्या करें? उसका ज्यादा
बन गया होगा, इसके लिये सेवायें हमें मिल रही है। दूसरी और एक बात- सेवा हमें मिल
रही है अर्थात् हमारे हिसाब-किताब भी उन आत्माओं से ज्यादा है जिनकी सेवा करनी है।
ये भी उसमें एक सूक्ष्म राज है। जो योग्य हैं, उनको सेवा न देना, पक्षपात करना, यह
इंचार्जेस के लिये है।
11. ग्यारहवां
: नाम मान-शान के लिये करना, यज्ञ के लिये नहीं -
अपना नाम, मान, शान के लिये, कई बार हमने देखा है- जो मंच संचालक होते या फिर जो
परिचय देने वाले होते, अब गेस्ट वो है, अपना ही परिचय देते रहते हैं। परिचय देना
चाहिए गेस्ट का, नहीं अपना ही परिचय देते कि मैंने क्या-क्या किया। हमको याद है एक
जगह हम गये थे 40 मिनिट का टाइम था। तो 20 मिनिट तो वो संचालक ने परिचय देने में ही
लगा दिया। जबकि भाषण का टाइम था 40 मिनिट, तो 20 मिनिट में उसने आधी महिमा तो खुद
की की। फिर हमनें कहा आगे भी आप ही बोल दो अब ।
12. बारहवां :
ड्यूल नेचर, डबल स्टॅण्डर्ड (Dual Nature, Double Standard) -
बोलना कुछ, करना कुछ। खौफनाक । बहन जी को कहना हम सेवा कर लेंगे, हम 5 बजे आ जायेंगे,
हम सेवा कर लेंगे, 5 बज गये, 6 बज गये, अभी तक आये नहीं। फिर फोन करो तो, अरे हम तो
भूल ही गये, जान-बूझ के भूलते हैं। अंधेरे में रखना किसी को। एक बहन जी बता रहे थे
नीचे आये थे, उनके सेवा का टर्न था, और उनके कुमार ऊपर आ गये। मधुबन में, तपस्या
करने। उधर बहन जी ढूंढ रहे है कुमार कहां है? कुमार कहां है? सेवा का टर्न उनका है,
भोजन का टर्न उनका है। भोजन वितरण का, भोजन की सेवा उनको दी गई है। फिर आकर उनको
कहते – अगली बार से बोल देना, सेवा नहीं देंगे आप लोगों को। अब बिचारी बहन जी क्या
करें? कुमार बिना बतायें ऊपर आ गये रातों रात, एकोमोडेशन ले लिया यहां पर और यहां
पर तपस्या कर रहे हैं, अमृतवेला, इधर क्लास में भी आ गये, बहन जी परेशान नीचे। तो
यह सेवा है या तपस्या है या डिससर्विस? आये किसलिये कर क्या रहे? कर्तव्य बुलाये सब
छोड़ दो। कर्तव्य फर्स्ट | तो डबल स्टेण्डर्ड नहीं करना है।
13. तेहरवां :
टिट फॉर टेट (tit for tat), बदले का भाव –
उसने मेरे साथ ऐसा किया, तो मैं भी ऐसा करूंगा। उसके लिये कुसंकल्प करना। कि इसका
बुरा हो जाये, इसने मेरे साथ ऐसा किया था न? अब देखो हो गया न एक्सीडेंट? टूट गया न
पैर? टूटना ही चाहिए, होना ही चाहिए। बाईबिल में लिखा है कि आपकी किसी की कब्र में
जा रहे हो, कोई मर गया है, फूल चढाने जा रहे हो और आपके मन में बदले का भाव है उसके
लिये, अच्छा हो गया, मर गया। जीजस काईस्ट कहता है-
गो बैक, पहले ठीक करो
मन को, और फिर आओ फूल लेकर, और फिर चढाओ।
बदले का भाव रखना, कुल कलंकित करना है।
14. चौदहवां :
फॉलो ब्रदर्स, सिस्टर्स – यहां एक ही श्रीमत है- फॉलो फादर ।
किसको फॉलो कर रहे हो? इसने ऐसा किया इसलिये हम कर रहे हैं। किसने बोला तुमको, फॉलो
ब्रदर, सिस्टर करने का? वो आज ठीक चल रहा, कल वो गड्ढे में गिर जायेगा, तुम भी
गिरोगे क्या?
15. पंद्रहवां
: एक्सक्यूसिस (excuses) देना
– सेवा के समय
बहानेबाजी, अभी अभी मुरली चली, इससे जागो। अजीब-अजीब बहाने, नये-नये बहाने, बड़ा
क्रिएटिव माइण्ड होता है, वो चाहिए योग में, वो उधर है। ऐसे-ऐसे बहाने जो कभी सोचे
नहीं थे। और ज्ञानयुक्त बहाने, कि सामने बाला कुछ बोल ही नहीं सकता है।
16. सोलहवां :
किसी को दुःख देना-
ये कुल कलंकित होना
है। पाप करना, किसी को दुःख देना। किसी के मन को दु:खाना, किसी को मेंटली टॉर्चर
करना, किसी को योग नहीं करने देना, किसी को ज्ञान नहीं करने देना, कोई आगे बढ रहा
है तो उसकी टांग खींचना। कुछ तो करना उसके साथ, कंप्लेंट करना झूठी झूठी।
17. सत्रहवां
: किसी ऐसी आत्मा को धन देना जो उसका प्रयोग खुद की इच्छाओं की पूर्ति के लिये करने
वाला हो न कि यज्ञ सेवा के लिये-
ऐसे काम में मदद करना, पैसे कमाने की जो यज्ञ में नहीं लगने वाला है। ऐसे व्यक्ति
को मदद करना वो पैसे कमाने के लिये या अनैतिक ढंग से पैसे कमाना।
18. अठारहवां
: सत्य को छिपाना-
पाप करना विकर्म करना सत्य को छिपा कर रखना। यह बहुत बड़ा विकर्म है।
19. उन्नीसवां
: अशुद्ध व गंदे वार्तालाप
- लव चैट्स- मोबाइल पर अश्लील वार्तालाप, एक-दूसरे के साथ। यह विकर्म की कैटेगरी
में आता है।
20. बीसवां :
किसी की बुरी कण्डीशन पर हंसना –
कोई बिचारा, किसी के
साथ बुरा हो गया या किसी को निकाल दिया गया, किसी को निकाल दिया डिपॉर्टमेंट से या
कुछ भी कर दिया, हंसना। उसकी मिसरीबल (miserable) कण्डीशन पर या फिर जोर-जोर से
हंसना। रॉयल्टी नहीं है। बाबा ने कहां तुम्हें रॉयल बनना है। कोई बाहर जायेंगे तो
ऐसे लगेंगे जैसे लौकिकता का व्यवहार कर रहे हैं। ये कुल को कलंकित करना है। पूछेगे
तुम कौन सी संस्था से हो? एक हमारे बहुत अच्छे पहचान के हैं – वो इतनी रॉयल फैमिली
की आत्मा है, हमारे टीचर थे वो मैडम, इतनी रॉयल फैमिली है वो कि उनका एक बेटा तो
उन्होंने समर्पित करा दिया संस्था में। जो बहुत अच्छा सन्यासी है मतलब योगी आत्मा
है। ऐसी मां है वो। तो उनको हमनें बताया ब्रह्माकुमारीज, ये वो। तो वो गये
सेवाकेन्द्र पर, तो वहां पर जो वो व्यवहार उनके साथ हुआ, वो इतना रॉयल नहीं था।
अपमानित तो नहीं कहेंगे पर रॉयल्टी वाला व्यवहार नहीं था, सम्मानजनक व्यवहार नहीं
था वो। बहुत बुरा लगा उनको। तो रॉयल्टी से व्यवहार न करना यह भी डिससर्विस है।
21. इक्कीसवां
: यज्ञ का पैसा मिसयूज़ करना
– किसी एक आत्मा ने
हमसे अनुभव बताया था, कि मैंने बहुत बड़ा पाप किया। हमने कहां कौन सा पाप? वो बोला-
मैं किसी को बता नहीं सकता, सकती। यहां का पैसा लौकिक में भेजा, सेवाकेन्द्र का।
क्योंकि वहां आर्थिक समस्याएं थी। विकर्म है।
22. बाइसवां :
यज्ञ की वस्तुओं को गलत उपयोग करना
– फैसिलिटीज जो मिल
रही है, समान जो मिल रहा है, चीजें जो मिल रही हैं। उसका गलत प्रयोग करना।
23. तेइसवां :
भाई-भतीजावाद ।
24. चौबीसवां
: अपने कर्मेंद्रियों पर वश न होना-
जो कहानी में हमनें बताया था।
25. पच्चीसवां
: श्रीमत में मनमत मिक्स करना।
26. छब्बीसवां
: मुरली क्लास के समय योग के समय सोना
– योग चल रहा है, और
हम सो रहे हैं। कौन से वायब्रेशन्स फैल रहे हैं? पाप हो रहा हैं वहां पर | हट जाओ
वहां से। कमरे में जाओ सोओ या चलो, वहां क्यों बैठ रहे हो? वहां ही बैठकर सोते रहना
और उसके आगे की स्टेज, खर्राटे भरते रहना। ऐसा कुछ होता है, नींद आती है तो वहां से
हट जाओ। बिल्कुल हट जाओ वहां से। लेकिन वहां लगे रहते, वो भी एक देखा। दृढता से लगे
रहते एक दम, हटते नहीं, अगर कोई इशारा भी दे, हाथ भी हिलाये तो भी नहीं हटते। कुछ
तो करेंगे, कोई मानता थोड़े ही है मैं सो रहा था, मैं तो जागा हूं। यह विकर्म है।
27. सत्ताइसवां
: झूठ बोलना और फिर कहना यह युक्तियुक्त है
- यह एक अच्छा टॉपिक
है, युक्तियुक्त क्या है? और झूठ क्या है? झूठ अलग है। युक्तियुक्त अलग हैं। हर अपने
झूठ को युक्तियुक्त कहते हैं। बाबा ने कहा न, युक्तियुक्त बोलो, पर झूठ अलग है,
युक्तियुक्त अलग है।
28. अट्ठाइसवां
: किसी को इंप्रैस करने की कोशिश करना-
कैसे? आगे पीछे घूमते रहना उसके। बड़ों के आगे पीछे, आगे पीछे घूमते रहना।
चाटुकारिता करना। चापलूसी, बटरिंग, मक्खन ये सब करना ।
29. उन्तीसवां
: टाइम वेस्ट करना फैशन में, श्रृंगार में।
30. तीसवां -
वेस्टिंग टाइम -
निमित्त आत्माओं का
समय बर्बाद करना। उनमें मिस–अण्डरस्टेंडिग क्रिएट करना। व्यर्थ की बांते लेकर जाना,
और उनका टाइम वेस्ट करना। दादियों का टाइम वेस्ट करना। योगी आत्मायें इस संसार की
जो है, उनका टाइम वेस्ट करना। व्यर्थ के मैसेजिस भेज करके उनका टाइम वेस्ट करना।
संकल्प चलाना उनके। बड़ों का टाइम इंपोर्टेट है, ऐसा नहीं कितने भी बजे, उनके सोने
का टाइम है और हम फोन कर रहे हैं और चालू अपनी राम कहानी। मैं कुमार हूँ, मैं माता
हूँ, मैं ये हूँ, मैं वो हूँ, अरे वो कर क्या रहे हैं उस समय? उनकी दिनचर्या तो पता
नहीं। दिनभर सेवा करके अभी-अभी आये हैं रेस्ट कर रहे हैं और उसको अपना चालू करें।
ये समझना की ये तो 24 घण्टे सेवा में है ना। दूसरों के समय को समझना हैं दूसरों का
टाइम वेस्ट नहीं करना है। नहीं तो यह बहुत बड़ा विकर्म हो जाता है, हमारे वजह से
किसी के संकल्प चल रहे हैं। व्यर्थ के तो विकर्म हो रहा है ना।
31. इक्तीसवां
: संगमयुग का समय बर्बाद करना- अपना और दूसरों का।
32. बत्तीसवां
: गंदे, अश्लील चित्र देखना
– रंगीन कपड़े पहन कर
सिनेमा हाल में चले जायेंगे, खा लेंगे, मधुबन में है तो व्हाइट, वहां जाते ही कलर |
बैज इतना सा, ये बटन के पास। ताकि वह दिखे भी नहीं। अगर कोई बी.के. मिल गया तो उसको
दिखा सकते है बैच तो है। दोनों तरफ इधर है तो इधर, उधर है तो उधर । दोनों काम जैसे।
झूठ है, खुद को धोखा देना है।
33. तैतीसवां
: मधुबन में रहते हुए पुरूषार्थ नहीं करना-
यह मधुबन निवासियों
के लिये। मधुबन में रहते हुए तपस्या की लहर नहीं फैलाना, मधुबन में रहते हुए बेहद
का वैरागी न बनना, मधुबन में रहते हुए धधकता हुआ वैराग्य अंदर न होना।
एक सन्यासी के लिये गायन है कि वो पैसे नहीं कमाता है। वो क्या करता है? दूसरों की
भिक्षा से जीता है। संसार में जो सन्यासी होते वह पैसे नहीं कमाते, जॉब नहीं करते
क्या करते? भिक्षा मांगते हैं, गृहस्थियों के भोजन से जीते अब उसके रिटर्न में उन्हें
क्या देना होता। उसके रिटर्न में उन्हें उन गृहस्थियों की आध्यात्मिक उन्नति करानी
होती है। उसके रिटर्न में उन्हें तपस्या करनी है। क्योंकि वो खुद तो कमा नहीं रहे
हैं, पैसा तो कहीं और से आ रहा है उसका रिटर्न है तपस्या। उसका रिटर्न है
ब्रह्मचर्य। उसका रिटर्न है अपनी स्थिति को श्रेष्ठ बनाना। उसका रिटर्न है उन
गृहस्थियों की सेवा करना, उनकी समस्याओं का समाधान करना। अगर वो ये नहीं करता है,
केवल सन्यासी है, केवल खाता पीता है गृहस्थियों का खाता है और उनकी सेवा कुछ नहीं
करता है तो क्या है? बोझ । मनमोहिनी दीदी के बडे कड़े वाक्य है। क्या ? राजु भाई ने
बताये थे कभी, बड़े वाक्य है। बताउं या नहीं बताउं छोड़ दूं? जो यहां रहते हैं, खाते
हैं, पीते हैं, सेवा नहीं करते हैं। तपस्या नहीं करते मजदूर है, मजदूर के जैसा काम
कर रहे हैं। नौकरी कर रहे बस। मजदूर है। मधुबन में रहना, उसको भी नीचे खींचना, किसी
की ग्लानि करना। मधुबन में रहना बहुत ऊंची बात है। बहुत बड़ा कर्तव्य है। सबकुछ यहां
मिल रहा है। इतना बड़ा भाग्य मिल रहा है। कोई चिंता नहीं है, कुछ करने की, कमाने
की। संसार में कितना, कुमारों को देखो, संसार में। दो-दो घण्टा ट्रैवल करके, 8-8
घण्टा जॉब करते, खुद का भोजन खुद बनाते हैं। और फिर तपस्या करते हैं। सेंटर पर भी
सेवा करते हैं। कोई कोई कुमार तो ऐसे हैं, मल्टीपर्पज वर्कर, साउण्ड भी देखेंगे,
किचन भी देखेंगे, गाड़ी भी चलायेंगे, फिर बीच में से उनको कहीं और भी भेजा जाता है।
झाडू-पौंछा, सब-सब करते हैं, सब कुछ करते हैं और अपना जॉब भी करते हैं। भाग्य कहां
ज्यादा बन रहा है फिर और यहां पर 2 घण्टे, 4 घण्टे की सेवा कर ली बस, हो गया,
बेरोजगार उसके बाद? अलौकिक बेरोजगारी। काम ही नहीं है सेवा ही नहीं है। ठीक है तो
कुल कलंकित नहीं बनना है नहीं तो बाप के साथ धर्मराज भी है।
ओम शांति।